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वि० पू० ४८० वर्ष
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उसको फौरन हटा दो। कारण, तुम आज किसी भी गच्छ एवं धर्म के उपासक हो पर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने तुम्हारे पूर्वजों को मांस मदिरादि दुर्यसन छुड़ा कर ओसवाल बनाये हैं। उस मह न उपकार को यदि तुम भूल जाओगे तो दुनियाँ तुमको नुगरा कहेगी, गुण चोर कहेगी, कृतघ्नी कहेगी और विशेषतया कहेगी कि ओसवाल जाति अपनी जाति का प्राचीन इतिहास मिटाने वाली एक मुर्दा जाति है ।
___एक अंग्रेज विद्वान ने ठीक कहा है कि "जिस जाति को नष्ट करना हो तो उसके इतिहास को नष्ट करदो, वह जाति स्वयं नष्ट हो जायगी" बस, तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है।
आज भारत की छोटी बड़ी सब जातियाँ अपनी प्राचीनता साबित करने में तन धन अर्पण कर खूब परिश्रम कर रही हैं । जैसे नाई कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं, सेवग कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं, खाती कहते हैं कि हम ब्राह्मण हैं, ढेड़ कहते हैं कि हम ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुये हैं इत्यादि अपनी २ प्राचीनता और अपने २ गौरव प्रगट कर रही हैं तब ओसवाल जाति का कुछ पता ही नहीं है। कारण,ओसवालों की प्राचीन पट्टावलियों एवं वंशावलियों में इस जाति को मूल उच्चवर्ण एवंक्षत्रिय बतलाई है और आज २३९६ वर्ष हुये लिखा है । इस पर तो अर्द्ध शिक्षितों का विश्वास नहीं है और खुद के पास कोई प्रमाण नहीं है। अतः उन विचारों की दशा धोबी के कुत्ता जैसी हुई है कि 'न रहे घर के और न रहे घाट के।
भला, इतिहास शिलालेख की ढाल आगे रखने वाले ओसवाल जाति की उत्पत्ति वि० सं० ५०० से ९०० के बीच में हुई का अनुमान करते हैं। उन महानुभावों से पूछा जाय कि यदि कोई लड़का यह कहदे कि मेरे बाप का तो मुझे पता नहीं है पर वि० सं० १८०० से १९०० के बीच में होने का अनुमान कियाजा सकता है,यह उत्तर उस लड़के के लिये ठीक है न? यदि कोई ऐसी भी कुतर्क कर बैठे कि खैर सं० १८०० से १९०० तक तुम्हारे पिता का होना हम मान लें पर वह रहता कहां था, उसकी जाति क्या थी, उसने अपनी शादी कब और किस के साथ की थी इत्यादि ? क्या इन तकों का भी वह लड़का समाधान कर सकेगा ? नहीं। इसी प्रकार कई ओसवाल सजन भी वि सं० ५.० से ९०० के बीच में ओसवाल जाति की उत्पत्ति होना कहने वाले यह बता सकेंगे कि अमुक स्थान, अमुक जाति वर्ण वालों से अमुक पुरुष द्वारा ओसवाल जाति की उत्पत्ति हुई है ? नहीं कदापि नहीं। उन्होंने तो एक ही नाम रट रखा है कि
ओसवालों के लिये वि. की ११ वीं शताब्दी पहले का कोई शिलालेख नहीं मिलता है। खैर, अब आगे चल कर इसका भी समाधान कर देंगे कि यह कहना कितना महत्व रखता है।
किंचित समय के लिये हम ऐसी भी कल्पना कर लें कि ओसवालजाति आठवीं अथवादशवीं ग्यारहवीं शताब्दी में बनी, किन्तु इस समय के पूर्व भी तो कोई न कोई जाति जैनधर्म का पालन करती होंगी और उनकी संख्या लाखों की नहीं पर करोड़ों की थी और केवल शिलालेखों से ही सत्यता सिद्ध होती हो तो बताइये कि उन करोड़ों मनुष्यों के सम्बन्ध में कितने शिलालेख मिलते हैं ? शिलालेखों के अभाव में क्या हम मान लें कि ओसवाल जाति की उत्पत्ति के पूर्व जैनधर्म के उपासक कोई भी मनुष्य नहीं थे १ नहीं कदापि नहीं ! शिलालेख मिलें या न मिलें किन्तु जैनधर्म पालन करने वाले उस समय करोड़ों मनुष्य विद्यमान थे। जिसको हमारी पट्ठावल्यादि प्रम्थ डंके की चोट साबित करते हैं ।
उपर्युक्त शंका के समाधान में केवल एक बात कहनी शेष रह गई है और वह यह है कि शिलालेखों
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