________________
आचार्ययक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् २१८
"राजा खारवेल : पांड्य देश को विजय कर और उस देश के गजा से मित्रता स्थापन कर वहाँ से व्यापारियों के संग में जावा, बालिद्वीप आदि द्वीपों की ओर घूम आये । अनंतर उनको यह मालूम हुआ कि फारस देश में जाने वाले कलिंग व्यापारी लोग सिंधु देश के किनारे से पश्चिम की ओर सुख से व्यापार नहीं कर सकते और उन्हें बहुत धन दंड स्वरूप देना पड़ता है तथा उन्हें बहुत कष्ट भी उठाना पड़ता है, कलिंग व्यापारियों को इस कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिये राजा स्वारबेल बहुत कुछ कलिंग, उत्कल, ड्र तथा पाण्डय सैन्यों को साथ में लेकर युद्ध करने के लिये सिंधु देश की ओर रवाना हुए।
"उस वक्त अफगानिस्तान के पूर्व प्रदेश" "विजिर" तथा बिलोचिस्तान का पूर्व प्रदेश “पुर" नाम से प्रसिद्ध था। विजिरराज्य उस समय सिंधु देश के पश्चिम तक व्याप्तमान था। सिन्धु देश में पाताल (पटल ) नामक एक वणिक नगरी थी ! इसके पश्चिम में जो देश था उसमें बहुत काल से द्राविड़ लोग कृषक रूप में निवास करते थे। इस वक्त भी इन द्राविड़ों के वंशधर लोग दक्षिण बिलोचिस्तान में पाये जाते हैं। यह लोग पूर्व काल में विजिर गज के अधिकार में रहकर द्राविड़ रीति नीति छोड़ भार्यों की रीति नीति के अनुसार चलते थे । उक्त कृषक देश का राजा प्रामीण जो विजिर राजा का बड़ा मित्र और आत्मीय था।
"सिकंदर के चले जाने के बाद" उनके कुछ सेनापति लोगों ने अफगानिस्तान और फारस के कुछ अंशों को लेकर 'बेक्ट्रिया' नामक राज्य स्थापित किया था, वहाँ खारवेल के राजत्व काल में डेमिट्रिअस ( दीत्तम ) नामक एक बलवान राजा राज्य करता था। उसने विजिर पुर इत्यादि स्थानों को कूट युद्ध से जीतकर अपने अधिकार में कर लिया, और वहाँ पर या वहाँ से जाने वाले विदेशी व्यापारियों के ऊपर अन्यायपूर्वक कर लगाकर उन्हें हैरान करता था। उस समय विजिर राज्य की राजधानी सिंह पथ थी। डेमिट्रअस के विजिर राज्य पर अधिकार कर लेने पर विजिर राजा और युवराज अपनी राजधानी सिंहपथ को छोड़कर अन्य किसी मित्र राजा के आश्रय में चले गये और विजिर राजकन्या धूसी को उनके मित्र कृषक देश का राजा (प्रामीण ) अपने यहाँ पालन करने के लिये ले आया। तब से विजिर राजकन्या धूसी उसी के यहाँ रहती थी।
राजा खारवेल ने कलिंग व्यापारियों के दुःखमोचन करने के लिये कुछ सैन्यों के साथ सिंधु नदी के मुहाने के पास पाताल नामक नगरी में जाकर अपनी छावनी डालदी। और कृषकदेश के राजा को इस युद्ध में सम्मिलित होने के लिये श्राह्वान किया। ऐसे ही समय में एक दिन राजा खारवेल अपने घोड़े पर सवार होकर सिंधु नदी के पश्चिम की ओर घूमने निकले, किन्तु लौटते समय रास्ता भूल गये । आते वक्त उसने देखा कि नदी के किनारे कुछ कृषक बालिकाए खेल रही हैं और धूसी एक पत्थर पर बैठी हुई थी। राजा खारवेल धूसी के समीप जाकर उससे रास्ता पूछने लगे और उत्तर पाकर अपनी छावनी में वापस चले आये। धूसी एक राजकन्या थी और इस राजा का रूप यौवन देख कर मोहित हो गई और स्वयं गजा खारवेल भी मोहित होगये । इस राजा को फिर एक बार देखने के लिये धूसी इसी तरह लगातार कई दिनों तक वहीं उस पत्थर पर बैठी रहती थी; किंतु फिर ऐसा सौभाग्य प्राप्त न हुआ । एक दिन जब कृषकराजा खारवेल को इस युद्ध में सम्मिलित होने के लिये कृषक सेना देने का वचन देकर यह विचार कर रहा था कि कौन सेना नायक होकर सेना को चलावे । इसी समय धूसी कुछ कृषक बालिकाओं के साथ में वहाँ पहुँची। कषक राजा
३७१ www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only