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[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बड़े २ राजा महाराजा और नागरिक लोगों ने ओसवाल जाति को नगरसेठ, - जगत सेठ - पंच, चौधरी, टीकायादि पद अर्पण कर इस जाति की मान-प्रतिष्ठा, इज्जत - आबरू बढ़ाई, एवं सन्मान सत्कार किया है, ऐसा शायद ही किसी दूसरी जाति का बढ़ाया है । अतः इसमें शूद्र शामिल नहीं हैं ।
यह एक प्रसिद्ध बात है कि भारत में जितना उच्चासन ओसवाल जाति का रहा है शायद ही किसी अन्य जाति का रहा हो । यदि ओसवाल जाति में शूद्र शामिल होते तो ओसवालों के लिये जो पूर्वोक्त सन्मान मिला है वह शायद ही मिलता । इससे भी यही सिद्ध होता है कि ओसवाल जाति में कोई शूद्र शामिल नहीं है पर यह जाति उच्च खानदान के लोगों से ही बनी है ।
सवाल जाति में यदि शूद्रवर्ण शामिल होता तो ब्राह्मण धर्म के अप्रेश्वर शय्यंभव भट्ट, यशोभद्र, भद्रबाहु, सुहस्ती, सिद्ध सैनदिवाकर, और हरिभद्र जैसे धुरंधर विद्वान् ओसवाल जाति के गुरु बन उन के घरों की भिक्षा लेकर कदापि भोजन नहीं करते । कारण, उनके संस्कार शुरू से ही शुद्रों प्रति घृणा के थे । आद्य शंकराचार्य को यह ज्ञात होता कि जैनियों में एवं ओसवालों में शूद्र वर्ण शामिल है तो वे कई ज्ञान जैनों को जैन धर्म से पतित बना कर अपने उपासक बना उनके यहाँ की भिक्षा कदापि नहीं करते अथवा शंकराचार्य्यं ने श्रन्यान्य कारणों को लेकर जैनधर्मोपासकों की निन्दा की है, उस समय यह कदापि नहीं भूल जाते कि ओसवालों में शूद्रवर्ण भी शामिल है । पर इस विषय में उन्होंने एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया । अतः श्रोसवाल जाति में कोई भी शूद्र शामिल नहीं, पर यह जाति उच्चवर्ण से ही बनी है । यदि ओसवालों में शूद्र जातियें शामिल होतीं तो हमारे पड़ोस में रहने वाले शिव, विष्णु धर्मोपासक महेश्वरी, श्रमवालादि जातियें तथा राजा महाराजा जो भोजनादि व्यवहार ओसवालों के साथ रखते थे या रख रहे हैं, वे कदापि नहीं रखते । इतना ही क्यों पर वे लोग ओसवालों को घृणा की दृष्टि से जरूर देखते, पर ऐसा कहीं पर न तो सुना है और न देखा है । इतना ही क्यों पर सवालों को वे बड़े ही सत्कार की दृष्टि से देखते एवं भोजन व्यवहार करते थे और आज भी कर रहे हैं । इस हालत में यह कह देना कि ओसवालों में शूद्र जाति शामिल है यह केवल अज्ञानता एवं द्वेष बुद्धि का द्योतक नहीं तो और क्या है ? यद्यपि श्राज अंग्रेजों के राजत्वकाल में शूद्रों के साथ इतनी घृणा नहीं रखी जाती है कि जितनी ब्राह्मण युग में रखी जाती थी; फिर भी शूद्रों को शामिल मिलाने से ईसाइयों का एवं आर्य समाजियों का प्रचार कार्य शिथिल पड़ गया अर्थात् आगे नहीं बढ़ सका तब श्रोसवाल जाति विक्रम पूर्व ४०० वर्षों से वि० की पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी तक बढ़ती ही गई। इसका कारण यही था कि ओसवाल जाति उत्तमवर्ण से पैदा हुई थी और इनका आचार व्यवहार एवं विचार जैसा उच्च वर्ण का होना चाहिये वैसा ही था । श्रतः हम निशंक होकर डंके की चोट कह सकते हैं कि ओसवाल जाति में एक भी शूद्र शामिल नहीं है, परन्तु यह जाति शुरु से उच्च खानदान के क्षत्रियों से बनी और बाद में ब्राह्मण वैश्य भी इसमें शामिल हो गये थे । सवालों में ढेढ़िया बलाई चंडालिया चामड़ जातियां हें और वे शूद्रता का
२ - दूसरी दलील - परिचय दे रही हैं, इत्यादि ।
पू०
४०० वर्ष ]
यह दलील अपनी गहरी अज्ञानता को ही जाहिर कर रही है। कारण, दलील करने वाले को पहिले तो उन जातियों के इतिहास को देखना चाहिये कि वास्तव में ये नाम उन जातियों के शुरू से थे या बाद में किसी कारण से हुये हैं । यदि केवल नाम पर ही कल्पना की गई हो तो हमारे भाई शिव विष्णु उपासकों में जो
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