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________________ 8285381385338938288128381288 धी हरिदास संस्कृत ग्रन्धमाला 205 / / श्रीः // नैषधमहाकाव्यम् 'जीवातु' 'मणिप्रभा' द्वयोपेतम् ( उत्तरार्द्धम् ) 38893EMBERBERBERISE8428389812812SD825 CCU mastasasasisaar 15555 चौखम्बा संस्कृत सीरीज भाफिरा, वाराणसी-१ मूल्यं रु०८-००
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________________ // श्रोः॥ हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला - 205 महाकवि श्रीहर्षविरचितं नैषधमहाकाव्यम् महामहोपाध्यायमल्लिनाथकृत 'जीवातु' व्याख्यायुत'मणिप्रभा' नामक हिन्दीव्याख्यासहितम् / . (द्वितीयो भागः) हिन्दीव्याख्याकारःव्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न-रिसर्चस्कालर-मिश्रोपाह्वपण्डित हरगोविन्द शास्त्री प्राक्कथन-लेखकःआचार्य त्रिभुवनप्रसाद उपाध्यायः, एम० ए० ( भू० पू० प्रिन्सिपल, गवर्नमेण्ट सं० कालेज, बनारस) चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस.वाराणसी-१ 1967
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________________ प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी मुद्रक : विद्याविलास प्रेस, वाराणसी संस्करण : द्वितीय, संवत् 2024 मूल्य : पूर्वखण्ड रु० 8-00, उत्तरखण्ड रु० 8-0.. सम्पूर्ण रु० 14-00 (c) The Chowkhamba Sanskrit Series Office, P. O. Chowkhamba, Post Box 8, Varanasi-1 ( India) 1967 Phone : 3145
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________________ नैषधमहाकाव्यम् द्वादशः सर्गः प्रियाह्रियाऽऽलम्ब्य विलम्बमाविला विलासिनः कुण्डिनमण्डनायितम् | समाजमाजग्मुरथो रथोत्तमाः तमासमुद्रादपरे परे नृपाः // 1 // अथास्मिन्नवसरे पुनरन्ये राजानः समायाता इत्याह-प्रियेति / अथो अनन्तरं 'मगलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वथो अथ' इत्यमरः। प्रियाभ्यः, स्वकान्ताभ्यः, या ही: लज्जा, तासामकृत्रिमानुरागे कपटदाक्षिण्यप्रदर्शन मिति यावत् , तया विलम्बम् आलम्ब्य आविलाः कलुषाः, आलोडितहृदया इत्यर्थः, व्यग्राः इति यावत् , विला. सिनो विलसनशीलाः, 'वो कषलसकत्थसम्भ-' इति घिणुन्-प्रत्ययः रथैरुत्तमाः रथो. नृपाः आसमुद्रात समुद्रपर्यन्तात् 'अपादानात्' कुण्डिनस्य कुण्डिन नामनगरस्य, मण्डनायितम् अलङ्कारभूतं, मण्डन शब्दादाचारक्यङन्तात् कर्तरि क्तः, तं समाज राजसभाम्, आजग्मुः आपुः / अत्र विलाविलेल्यादौ माजमाजेत्यादौ च नियमेन सकृत् व्यञ्जनयुग्मावृत्या छेकानुप्रासः, अन्यत्रानियमात् वृत्यनुप्रासः इत्युभयोः संसृष्टिः। 'सङ्ख्यानियमे पूर्व छेकानुप्रासः, अन्यथा वृत्त्यनुप्रासः' इति लक्षणात् // 1 // अनन्तर अपनी प्रियाओं के विषयमें लज्जासे विलम्ब होनेपर व्याकुल, विलासशोळ तथा उत्तम रथवाले दूसरे-दूसरे राजा कुण्डिनपुरो ( भोमकी राजधानी ) का भूषणभूत उस राजसमाज अर्थात् स्वयंवर मण्डपमें समुद्र तक (बहुत दूर-दूर ) से आये। [ अपनी प्रियाओंमें अनुकूलता धारण करनेसे उन राजाओंको स्वयंवर में पहुंचने में विलम्ब हो रहा था फिर भी उत्तम रथवाले होनेसे ठीक समयपर ही वे स्वयंवर में पहुंच गये ] // 1 // ततः स भैम्या ववृते वृते नृपैर्विनिःश्वसद्भिः सदसि स्वयंवरः। चिरागतैस्तर्किततद्विरागितैः स्फुरद्भिरानन्दमहार्णवैर्नवैः॥२॥ तत इति / ततो राजान्तरागमनानन्तरं तर्किता तद्विरागिता भैमीवैराग्यं यस्तैनिश्चितभैम्यपरागैः, अत एव विनिःश्वसनिः विषादात् दीर्घ निःश्वसद्भिः, चिरा. गतैः पूर्वागतः, नृपः, तथा स्फुरनिः स्फूर्तिमापधमानः, हर्षाधिक्यात् प्रसन्न मुखाका. ररित्यर्थः, आनन्दमहार्णवः यतः पूर्वागता नृपा न वृताः, ततः समागतानस्मान दमयन्ती नियतं वरिष्यतीति निश्चित्य परमानन्दभरितः, नवैः तत्कालागतः, नृपैसा पूर्ण, सदसि सः प्रकृतः, स्वयंवरः ववृते प्रवृत्तः॥२॥
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / इस ( दूर-दूरसे उन राजाओं के स्वयंवरमें आने ) के बाद दमयन्तीके वैराग्यको ( अपने-अपने विषयमें ) निश्चितकर अधिक श्वास लेते हुए पहले आये हुए राजाओंसे ( अथवा-दमयन्ती द्वारा एकादश सर्गमें वर्णित अपना-अपना त्याग देखकर ) अधिक श्वास लेते हुए पहले आये हुए राजाओंसे और ( उन पूर्वागत राजाओंके अधिक श्वासको देखकर उनमें ) दमयन्तीके अनुराग न होनेका अनुमान किये हुए, ( अत एव शृङ्गारादि चेष्टाओंसे ) प्रकाशमान, अगाध आनन्द समुद्रवाले ( दमयन्तीने अभीतक किसी राजाका वरण नहीं किया है, अब तो यह हमलोगों को ही वरण करेगी इस विचारसे ) अत्यन्त हर्षित नवीन राजाओंसे युक्त उस सभाके होनेपर दमयन्तीका स्वयंवर आरम्भ हुआ // 2 // चलत्पदस्तत्पदयन्त्रणेङ्गितस्फुटाशयामासयति स्म राजके / श्रमं गता यानगतावपीयमित्युदीर्य धुर्यः कपटाज्जनी जनः / / / / चलदिति / चलत्पदः क्वचित् स्थितिकालेऽप्युत्तमाश्ववदेकत्रानवस्थितचरणः, इति भारवाहिकस्वभावोक्तिः, धुरं वहतोति धुर्यो जनः शिविकावाहिजनः, 'धुरो यडढकी' इति यत्-प्रत्ययः तस्या भैम्याः, पदयन्त्रणेगिन्तेन पदेन शिविकापटान्तवर्तिचरणेन, यत् यन्त्रणं धुर्यजनस्य पीडनं, तदेव इङ्गितम् अवस्थापनार्थं हृद्तभावः तेन, स्फुटः आशयः राजदर्शनार्थम् उपवेशनाभिप्रायो यस्यास्तां, जनीं वधूं दम यन्ती 'जनी सीमन्तिनीवध्वोः इति विश्वः, इयं बाला दमयन्ती, यानेन गतावपि गमने कृतेऽपि, श्रमं गता श्रान्ता, इति उदीयं कपटात् श्रमव्याजात् , राजके राजस. मूहमध्ये, आसयति स्म उपवेशयामास, णिजन्तादास-धातोः स्मेन योगेऽतीते लट॥३॥ __ चलते हुए पैरवाले अर्थात् गमनशील ( अथवा-रुके रहनेपर भी पैर चलाते हुए ) भारवाहक लोगोंने 'सवारीसे चलनेमें भी यह ( दमयन्ती) थक गयो है ऐसा कपटपूर्वक कहकर उस ( दमयन्ती) के पैरकी प्रेरणाकी चेष्टासे (इस राजाको मैं देखना चाहता हूँ, अतः सवारीको यह रोको) स्पष्ट आशयवाली उस दमयन्तीको राज-समूहमें स्थापित किया। [ एक स्थानमें खड़े रहनेपर भी पैरका चलाते रहना उत्तम भारवाहकोंका स्वभाव होता है / मारवाहकोंने दमयन्तीकी सवारीको राज-समूहके बीचमें रोका ] // 3 // नृपानुपक्रम्य विभूषितासनान् सनातनी सा सुषुवे सरस्वती। विगाहमारभ्य सरस्वतीः सुधासरःस्वतीवाद्रतनूरनूस्थिताः / / 4 / / नृपानिति / सनातनी चिरन्तनी, सना-शब्दात् 'सायंचिरम-' इत्यादिना ट्यु-प्रत्यये डीप , सा सरस्वती वाग्देवता, विभूषितासनान् अलङ्कृतसिंहासनान् , सिंहासनोपविष्टान् इत्यर्थः, नृपान् उपक्रम्य उहिश्य, सुधासरःसु अमृतसरसीसु, विगाहम् आरभ्य अवगाहं प्राप्य, अनु पश्चात् , अविलम्बनेस्यर्थः, उस्थितर तस्मानिर्गताः, अत एव अतीवार्द्रतनूः अमृतास्वाङ्गाः, सर्वाङ्गष्वमृतवर्षिणीरित्यर्थः, सरस्वतीगिरः, सुषुवे उवाच / अत्र उत्प्रेक्षावाचकेवादिप्रयोगाभावात् , गम्योप्रेक्षा॥
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________________ द्वादशः सर्गः। उस सनातनी सरस्वतीने आसनको अलकृत किये ( बैठे ) हुए राजाको लक्षितकर, अमृतसरोवरोंसे अवगाहन को प्रारम्भकर बादमें अत्यन्त आर्द्र शरीर वाली ( सरस ) उत्पन्न दुई वाणियोंको उत्पन्न किया-अमृततुल्य सरस वाणी बोली // 4 // वृणीष्व वर्णेन सुवर्णकेतकीप्रसूनपर्णाहतुपर्णमादृतम् / निजामयोध्यामपि पावनीमयं भवन्मयो ध्यायति नावनीपतिः / / 5 / / वृणीष्वेति / वर्णेन अङ्गकान्त्या, सुवर्णकेतकीप्रसूनस्य पर्णात् दलात् , अपीति शेषः, आदृतं ततोऽप्यधिकस्पृहणीयम् , ऋतुपर्णम् ऋतुपर्णाख्यं नृपं, वृणीष्व / अयं अवनीपतिः पृथिवीशः, भवती एव भवन्मयस्त्वदात्मकः सन् , स्वार्थे मयटप्रत्ययः / सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः, पावनी पवित्रकारिणी, निजां स्वायत्तां, पुरु. षपरम्परागतामिति यावत्, अयोध्याम् अयोध्यानगरीमपि, मुक्तिदायिनी पुरीमपीति भावः, न ध्यायति न चिन्तयति; परमानन्दस्वरूपत्वात् तव प्राप्तिर्मुक्त्यपेक्षयाऽधि. कादरविषयेत्यतः त्वय्यधिकमनुरक्तोऽयम्, एनं वृणीष्वेति भावः // 5 // ___ रंगसे सुवर्णकी केतकीके पुष्पके दल ( पत्ते) की अपेक्षा (पा०-पुष्पके समान वर्ण होने के कारण ) आदर पाये हुए 'ऋतुपर्ण' को वरण करो, तुममें मन यह राजा अपनी पवित्र अयोध्याका भी स्मरण नहीं करता है // 5 // न पीयतां नाम चकोरजिह्वया कथञ्चिदेतन्मुखचन्द्रचन्द्रिका | इमां किमाचामयसे न चक्षुषी ? चिरं चकोरस्य भवन्मुखस्पृशी / / 6 / / नेति / एतन्मुखचन्द्रचन्द्रिका एतस्य ऋतुपर्णस्य, मुखमेव चन्द्रस्तस्य चन्द्रिका प्रसन्नतारूपा ज्योत्स्ना, चकोरस्य जिह्वया कथञ्चिदपि न पीयतां नाम चकोरजिह्वया सत्यचन्द्रचन्द्रिकैव पीयते इयन्तु अलीकमुखचन्द्रचन्द्रिकेति पातुमशक्यत्वादिति भावः, तथाऽपि भवन्मुखस्पृशी भवन्मुखत्तिनी, त्वञ्चक्षुरास्मना परिणते इत्यर्थः, 'स्पृशोऽनुदके क्विन्' चकोरस्थ चक्षुषो, कर्मणी, इमाम् एतन्मुखचन्द्रचन्द्रिकां, किं चिरं न आचामयसे ? न पाययसे? चक्षुषा एतन्मुखचन्द्रचन्द्रिका किमिति न पीयते ? किमित्येनं न पश्यसीत्यर्थः। अत्राचमेः प्रत्यवसानार्थत्वात् 'गतिबुद्धि-' इत्यादिना चक्षुषोरणिकत्तः कर्मत्वं निगरणचलनार्थेभ्यश्च' इति चमेणिचि परस्मैपदनियमात् , किन्तु 'संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः' इति परिभाषया अत्र परस्मैपदं न भव. तीति, अत्र भवन्मुखस्पृशीः चकोरचतुषोः विषयनिगरणेन भैसीचकोरचक्षुषोः अभे. दप्रतीतेः भेदे अभेदलक्षणातिशयोक्तिरलङ्कारः॥६॥ ___ चकोरकी जिह्वा इस ( ऋतुपर्ण राजा ) के मुखरूपी चन्द्रकी चौदनी ( आह्लादक सोन्दर्य ) को किसी प्रकार पान न करे, किन्तु तुम्हारे मुखका स्पर्श करनेवाले ( तुम्हारे नेत्ररूपमें परिणत ) चकोरके नेत्रद्वयको इस ( 'ऋतुपर्ण' राजाके मुखचन्द्रकी चन्द्रिका) 1. 'वर्णा' इति पा०। 2. 'निरीयताम्' इति पा० /
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________________ 704 नैषधमहाकाव्यम् / का चिरकाल तक क्यों नहीं आस्वाद कराती हो अर्थात् करावो ( इसके मुखको देखो)। [ चकोरजिह्वा इस ऋतुपर्ण के मुखचन्द्रकी चन्द्रिकाका पान किसी प्रकार नहीं करे क्योंकि चकोर जिह्वा सत्य चन्द्रचन्द्रिकाका ही पान करती है असत्य चन्द्रचन्द्रिकाका नहीं और इस ऋतुपर्णके मुखचन्द्रकी चन्द्रिकाके असत्य होनेसे चकोर जिह्वा पान नहीं करती तो मुझे इस विषयमें कुछ नहीं कहना है, किन्तु इसके मुख चन्द्रचन्द्रिकाके असत्य होनेसे चकोरजिह्वाके पान नहीं करने पर भी अतिशय सुन्दर एवं हमारे द्वारा वर्णन करने में अशक्य होनेसे आह्लादक सौन्दर्यका नेत्रको प्रत्यक्ष रूपसे दिखलाना तुम्हें उचित है, अतः तुम वैसा करो। अथवा-जिह्वाके द्वारा थोड़ी-सी वस्तुका ही स्वाद लेना सम्भव होनेसे इस ऋतुपर्ण राजाकी विशालतम मुखचन्द्रचन्द्रिका आस्वादन चकोरजिह्वा भले न लेवें, किन्तु छोटे नेत्रोंसे अतिशय विशाल वस्तुका ग्रहण करना ( देखना ) सरल है तो फिर तुम्हारे मुखगत विशालतम नेत्रों द्वारा इस विशालतम मुख चन्द्रचन्द्रिकाका आस्वाद करना तो अत्यन्त सरल होगा, अत एव इसके मुखचन्द्रकी चन्द्रिकाको तुम्हें दिखलानी चाहिये। चकोरके ही नेत्र तुम्हारे मुख का स्पर्श करते हैं अत एव ये तुम्हारे मुखगत नेत्र अत्यन्त रमणीय, चन्द्रिकापान करने के योग्य तथा देखने में समर्थ हैं ] // 6 // अपां विहारे तव हारविभ्रमं करोतु नीरे पृषदुत्करस्तरन् / कठोरपीनोच्चकुचद्वयीतटे' त्रुटत्तरः सारवसारवोर्मिजः // 7 // अपामिति / हे भैमि ! तव अपां विहारे अनेन सह जलक्रीडायां, जलक्रीडाकाले इत्यर्थः, नीरे जले, तरन् प्लवमानः, सारवेषु आरवसहितेषु, सारवेषु सरयूभवेषु, ऊर्मिषु जातः 'देविकायां सरवाश्च भवे. दाविकसारवौ' इत्यमरः। 'दाण्डिनायन-' इत्यादिना निपातनात् साधुः, पृषदुस्करो जलबिन्दुसन्दोहः, कठोरे कठिने, पीने पीवरे, उच्चे उन्नते, कुचद्वयीतटे त्रुटत्तरः विशीर्यमाणः सन् , त्रुटदिति तौदादिका त्रुटधातोः शतरि, हारविभ्रमं मुक्ताहारभ्रान्ति, करोतु जलक्रीडावशात् विच्छिन्नस्तव मुक्ताहार इव शोभमानः सन् पश्यतो लोकस्य भैमीहारश्छिन्नः किमयमिति भ्रान्ति जनयतु इति भावः। भ्रान्तिमदलङ्कारः // 7 // . तुम्हारे जल-विहार में जलपर तैरता हुआ तथा छिन्न-भिन्न होता हुआ शब्द ( कलकल ध्वनि ) करते हुए सरयू नदोके तरङ्गोंसे उत्पन्न जल-बिन्दु-समूह ( तुम्हारे ) कठोर विशाल तथा उन्नत स्तनद्वयके किनारे पर हार (मुक्तामाला ) के भ्रमको करे। ( पाठा०कठोर........."किनारेपर छिन्न-भिन्न होता हुआ सरयू'"बिन्दु-समूह हारके भ्रमको करे / ) [ जलक्रीडाके समय तुम्हारे कठोर, विशाल तथा ऊँचे स्तनोंसे टकराकर कलकल मधुर ध्वनि करती हुई सरयू नदीके तरङ्गसे उत्पन्न बिन्दु-समूहको देखकर लोगोंको तुम्हारी मुक्ताहारकी विशिष्ट भ्रान्ति ( या विलास ) को पैदा करे। 'विहार' ( हारशून्य) 1. 'तरे' इति पा०।
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________________ द्वादशः सर्गः। 705 में 'हार' का विलास या विशिष्ट होना विरुद्ध है, अतः 'विहार' शब्दका 'क्रीडा' अर्थ करनेसे परिहार हो जाता है / इस 'ऋतुपर्ण राजाको वरणकर 'सरयू नदीमें जलक्रीडा करो] // 7 // अखानि सिन्धुः समपूरि गङ्गया कुले किलास्य प्रसभं स भत्स्यते / विलङ्घयते चास्य यशःशतैरहो ! सतां महत्सम्मुखधावि पौरुषम् / / 8 / / अखानीति / अस्य ऋतुपर्णस्य, कुले वंशे, जातैः सगरसुतैरिति शेषः, सिन्धुः उदधिः, अखानि खातः, खनतेः कर्मणि लुङ, इन्द्रहृतयज्ञीयाश्वान्वेषणार्थ पातालपर्यन्तं खनिस्वा उत्पादित इत्यर्थः, तथा स सिन्धुः, गङ्गया भागीरथ्या, समपूरि पूरितः, अस्य कुले जातेन भगीरथेनेति भावः, पातालस्थकपिलमुनिशापदग्धानां तेषां सगरसुतानामुद्धाराथं तद्वंशोद्भूतेन भगीरथेनानीतया गङ्गया स सागरः पूर्ण: कृत इति निष्कर्षः। तथा स सिन्धुः, प्रसभं बलात्कारेण, भंस्यते एतस्कुल्येनैव रामेण बद्धः करिष्यते इति भावः; कर्मणि लुट , कृतयुगापेक्षया त्रेताया,भावित्वात् भविष्य. प्रयोगः किलेति पुराणप्रसिद्धमेतत् / इदानीं स सागरः अस्य ऋतुपर्णस्य, यशाशतैविलङ्घयते च / नन्वेतस्कुले सम्भूताः सर्वे समुद्रमेव पौरुषस्य प्रतिपक्षतां किमिति कृतवन्त इति शङ्कामुचितवन निराकरोति, सतामित्यादिना। तथा हि, सतां सजनानां, पौरुषं महतां सम्मुखं धावति प्रसरतीति महासम्मुखधावि, सतामेवं स्वभावः यत् तेषां पौरुषविक्रमादि महान्तमेवाक्रामति न तु शुद्रमिति भावः / अवार्थान्तरन्यासालङ्कारः॥८॥ इस ( 'ऋतुपर्ण' राजा ) के वंशमें ( उत्पन्न पूर्वजोंने ) समुद्रको खोदा, गङ्गासे भरा ( पूर्ण किया ), और उसे बलात्कार पूर्वक बांधेगे एवं इसके सैकड़ों यश पार करेंगे; अहो ( आश्चर्य है ); सज्जनोंका विशाल पुरुषार्थ आगे-आगे दौड़ता है ( अथवा-सज्जनोंका पुरु. पार्थ वड़े लोगों के सामने दौड़ता (फैलता) है)। [ सगरके सौवें अश्वमेध यज्ञके घोडेको खोजते हुए सगर-पुत्रों के द्वारा समुद्रका खोदा जाना, कपिल मुनिके शापसे उन सगरपुत्रों के भस्म हो जानेपर उनके उद्धारार्थ कंठोर तपश्चर्यासे ब्रह्मा तथा शिवजीको प्रसन्नकर रथके पोछे-पीछे अनुगमन करनेवाली गंगाके द्वारा भगीरथका उस समुद्रको भरना, भावी त्रेतायुगमें सीताहरण होनेपर लङ्का जाते समय रामसे उस समुद्रका वाँधा जाना पुराणों में वर्णित है; उस समुद्रको इस राजाके यश लांघते हैं। इसके वंशमें पूर्वकालमें सगर-पुत्र तथा भगीरथ-जैसे लोग उत्पन्न हो चुके हैं, भविष्यमें श्रीरामचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न होंगे तथा वर्तमानमें स्वयं यह राजा समुद्रपारगामी यश-समूहवाला है, अतः इस महाकुलीन राजाका वरण करो] // 8 // एतद्यशःक्षीरधिपूरगाहि पतत्यगाधे वचनं कवीनाम् | एतद्गुणानां गणनाङ्कपातः प्रत्यर्थिकीर्तीः खटिकाः क्षिणोति // 6 //
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / एतदिति / एतस्य राज्ञः, यश एव तीरधिः क्षीराब्धिः, तस्य पूरं प्रवाह, गाहते इति तद्द्वाहि तद्वर्णनप्रवृत्तमित्यर्थः, कवीनां वचनम् अगाधे असीमे, अतलस्पर्श स्थाने इत्यर्थः, पतति निमजति, न स्वस्य यशः निःशेषं वर्णयितुं शक्नोतीत्यर्थः / किञ्च एतद्गुणानाम् अस्य नृपतेः शौर्यादिगुणानां, गणनाकपातः सङ्घयांनरेखाविन्यासः, प्रत्यर्थिकीर्तीः शत्रुयशांसि एव, खटिकाः लेखनार्थकठिनीः क्षिणोति कर्शयति, एतद्गुणवृद्धःप्रत्यर्थिकीर्तितिरोधायकत्वादिस्थं निर्देशः। अत्र रूपकानुप्राणितातिशयो। क्यलङ्कारः // 9 // इस ( 'ऋतुपर्ण' राजा ) के यशोरूपी कीर्तिसमुद्र के प्रवाहका अवगाहन ( यशस्समूहका वर्णन ) करनेवाला कवियोंका वचन अथाहमें गिर पड़ता है। अर्थात इसके श्रवणाशक्य यशःसमूहका वर्णन कोई कवि नहीं कर सकता तथा इसके गुणों (शूरता, दयादि गुणों ) की गणनाका अङ्क लिखना शत्रुओं की कीर्ति रूपिणी खड़िया ( चॉक) को क्षीण करता है अर्थात् अगणनीय इसके गुण घिसते-घिसते नष्ट हुई खडियाके समान शत्रु-कीर्तियोंको नष्ट करते हैं / [ अन्य भी कोई व्यक्ति समुद्रप्रवाह में गिरकर अथाहमें पड़ जाता है तथा अङ्क आदि लिखते लिखते खड़िया घिसकर नष्ट हो जाती है / यह 'ऋतुपर्ण' राजा महायशस्वी, महागुणी तथा महाशूरवीर है; अतः इसका वरण करो ] // 9 // भास्वद्वंशकरीरतां दधदयं वीरः कथं कथ्यताम् ? अध्युष्टापि हि कोटिरस्य समरे रोमाणि सत्त्वाङ्कराः / नोतः संयति वन्दिभिः श्रुतिपथं यन्नामवर्णावली मन्त्रः स्तम्भयति प्रतिक्षितिभृतां दोःस्तम्भकुम्भीनसान् / / 10 / / भास्वदिति / भास्वद्वंशकरीरता सूर्यकुलाङ्कुरत्वम् उज्ज्वलवेण्वङ्कुरत्वञ्च, दधत् अतितेजस्वी 'द्वौ वंशौ कुलमस्करौ' 'वंशाङ्करे करीरोऽस्त्री' इति चामरः, वीरः शूरः, अयमृतुपर्णः, कथं कथ्यताम् ? वर्ण्यताम् ? कथयितुमशक्य इत्यर्थः; तथा हि समरे युद्धकाले युद्धक्षेत्रे वा, अस्य राज्ञः अध्युष्टा सा त्रिसङ्घयाविशिष्टा कोटिः, सार्द्धवः यकोटिरित्यर्थः, अध्युष्टेति सार्द्धत्रयस्य संज्ञा, 'तिम्रः कोट्योऽर्द्धकोटी च यानि रोमाणि मानवे' इत्यादि स्मरणात / 'विंशत्याद्याः सर्दकत्वे सर्वाः सङ्खयेयसङ्घथयो।' इति सङ्घययेऽप्येकवचनम्,रोमाणि शरीरस्थानि तनुरूहाणि, सत्वं व्यवसायः, उत्सा. हिवीरस्य स्थायिभावः, तस्य अङ्कुरा इवाङ्कुरा बहिरुद्गताः वीररसाङ्कुरा इत्युप्रेक्षा 'द्रव्यासुव्यवसायेषु सत्त्वमस्त्री तु जन्तुषु' इत्यमरः, वंशकरीरस्य समन्तात् लोमवदकुरप्रादुर्भावो युक्त इत्यर्थः अत एव संयति युद्ध, वन्दिभिवैतालिकैः, श्रुतिपथं कर्णपथं, नीतः श्रावित इत्यर्थः, यस्य ऋतुपर्णस्य, नामवर्णावली ऋतुपर्णेति नामाक्षरप. तिरेव, मन्त्रः प्रतिक्षितिभृतां शत्रुभूपानां दोःस्तम्भा एव. कुम्भीनसाः क्रूरसर्पाः, क्रौर्याद देाच इति भावः, तान् , 'कुम्भीनसः करस' इति मेदिनी, स्तम्भयति
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________________ 707 द्वादशः सर्गः। प्रतिबध्नाति; सर्पा हि मान्त्रिककृतगारुडमन्त्रोच्चारणेन यथा स्तम्भिताः भवन्ति तद्वदेतनाममात्राकर्णनात् भीतानां शत्रूणां बाहवो युद्धाय न प्रसरन्तीति भावः॥१०॥ ___ सूर्यकुल ( पक्षा०-'मुक्तायुक्त होनेसे दीप्यमान बांस ) के अङ्करभावको धारण करते हुए इस वीर ('ऋतुपर्ण' ) को कैसे कहा जाय अर्थात् इसका वर्णन करना अशक्य है ( क्योंकि ) युद्ध में आधिक्यविशिष्ट इसके रोमोंकी कोटि अर्थात साढ़े तीन करोड़ रोम सत्त्व के अङ्कुर होते हैं ( यह राजा युद्ध में हर्षसे रोमाञ्चित हो जाता है ), युद्ध में वन्दियों के द्वारा सुनाया गया जिसके नामाक्षर-समूह-रूपी मन्त्र शत्रु राजाओंके बाहुस्तम्भरूपी सोको स्तम्भित ( युद्धव्यापार में अशक्त, पक्षा-दंशनव्यापार में अशक्त ) कर देते हैं / [ बांसमें मुक्ता होनेका प्रमाण शास्त्रों में मिलता है / इस राजाके नाममात्र सुननेसे शत्रु युद्ध करने में अशक्त हो जाते हैं जैसे मंत्राक्षर सुननेसे सांप काटनेमें अशक्त हो जाते हैं ] // 10 तादृग्दीर्घविरिञ्जिवासरविधौ जानामि यत्कर्तृतां शङ्के यप्रतिबिम्बमम्बुधिपयःपूरोदरे वाडवः / व्योमव्यापिविपक्षराजकयशस्ताराः पराभावुकः कासामस्य न स प्रतापतपनः पारं गिरां गाहते ? // 11 / / ताहगिति / तादृग्दीर्घस्य 'चतुर्युगसहस्रन्तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते' इत्युक्तमहापरि. माणस्य, विरिश्चः ब्रह्मणः, वासरस्य दिवसस्य, विधी विधाने, यस्य प्रतापतपनस्य, न तु प्रसिद्धतपनस्येति भावः, कततां जानाभि, कल्पान्तावस्थायी यस्य प्रताप इति भावः; अम्बुधिपयःपूरस्य समुद्रजलराशेः, उदरे अभ्यन्तरे, वाडवो वडवानलः, यस्य प्रतापतपनम्य, प्रतिबिम्बमेव शङ्क उत्प्रेते, व्योमव्यापिन्यो याः विपक्षस्य विरोधिनः, राजकस्य राजसमूहस्य, यशांस्येव तारा नक्षत्राणि, तद्यशसामल्पत्वात् नक्षत्ररूपत्वमिति भावः; ताः पराभावुकः स्वतेजसा तिरोधायक इत्यर्थः, 'लषपत-' इत्यादिना उकञ् प्रत्यये 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् तारा इति कर्मणि द्वितीया, सः सर्वव्यापीत्यर्थः, अस्य राज्ञः प्रताप एव तपनः कासां गिरां पारं पर. भागं न गाहते ? सर्वासामपि गाहते इत्यर्थः, न कासामपि गिरां गोचरः वर्णयितुः मशक्यत्वादिति भावः / अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारद्वयम् // 11 // ब्रह्माके वैसे बड़े (एक सहस्र दिव्य वर्ष प्रमाणके ) दिनको बनाने में जिस (इस राजाके प्रतापरूपी विशालतम एवं चिरस्थायी सूर्य ) को कर्ता मनता हूं तथा समुद्र के जलतरङ्ग-समूहमें बड़वालनको जिसका प्रतिबिम्ब मानता हूँ; आकाशमें व्याप्त शत्रु राज-समूहको यशोरूपी ताराओंको पराभूत करनेवाला इसका प्रतापरूपी सूर्य किन वचनोंके पारको नहीं प्राप्त करता है ? अर्थात् इसके प्रतापका कोई भी वर्णन नहीं कर 1. करीन्द्रजीमूनवराहशंखमत्स्याहिशुक्त्युद्भववेणुजानि / मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि /
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________________ 708 नैषधमहाकाव्यम् / सकता है। [30 घण्टाका दिन बनानेवाला आकाशमें दृष्टिगोचर होनेवाला यह सामान्यतम सूर्य एक सहस्र दिव्यवर्षपरिमित ब्रह्माके दिनको बनाने में समर्थ नहीं हो सकता, अतः चिरस्थायी एवं अतिशय तेजस्वी होनेसे विलक्षण इसका प्रतापरूपी सूर्य ही ब्रह्माके उतने बड़े दिनको बनाता है / अग्निको जल बुझा देता है, अत एव समुद्र के जलमें बडवाग्निका रहना असम्भव होनेसे उस समुद्र जल में प्रतिबिम्बत हुआ इस राजाका उक्तः अतितेजस्वी प्रताप ही बडवानल है / और आकाशमें ये ताराएं नहीं है, किन्तु राजाके शत्रुओंकी कीति फैली हुई है, और उन्हें इसका प्रतापरूपी सूर्य मिटा ( नष्ट कर ) देता है, ( सूर्योदय होनेपर ताराओंका नष्ट होना सर्वविदित है, इसके ऐसे प्रतापका वर्णन कोई नहीं कर सकता है; अत एव इस महाप्रतापी राजाका तुम वरण करो ] // 11 // द्वेष्याकीर्त्तिकलिन्दशैलसुतया नद्याऽस्य यहोर्द्वयीकीर्तिश्रेणिमयी समागममगात् गङ्गा रणप्राङ्गणे / तत्तस्मिन् विनिमज्ज्य बाहुजभटैरारम्भि रम्भापरी रम्भानन्दनिकेतनन्दनवनक्रीडादराडम्बरः // 12 // द्वेष्येति / यत् यस्मात् , अस्य राज्ञः, दोयीकीर्तिश्रेणिमयी भुजयुगजनितयशः. परम्परारूपा, गङ्गा भागीरथी, यशसां श्वेतवेन गङ्गारूपस्वमिति भावः, रणप्राङ्गणे युद्धक्षेत्रभूतप्रयागे इति यावत् , द्वेष्याणां द्विषाम् , अकीर्तिरयश इति यावत् शुभ्रः स्वेन वर्णितायाः कीर्तेविरुद्धत्वात् कृष्णवर्णेति भावः, सैव कलिन्दशैलसुता कालिन्दी, यमुनेत्यर्थः, तया, अकीतः कृष्णस्वेन यमुनारूपस्वमिति भावः, नद्या समागमम् अगात् , तत् तस्मात् , तस्मिन् रणप्राङ्गणरूपगङ्गायमुनासङ्गमे इत्यर्थः, विनिमज्य विशेषेण निमग्नो भूत्वा, तत्र देहं परित्यज्येति यावत् , बाहुजभटैः क्षत्रियवीरैः, एत. प्रतिपक्षभूतैरिति भावः 'बाहुजः क्षत्रियो विराट' इत्यमरः, रम्भायाः तदाख्यायाः प्रसिद्धायाः स्वर्वश्यायाः, परीरम्भानन्दः आलिङ्गनसुखम् , 'उपसर्गस्य घन्यमनुष्ये बहुलम्' इति दीर्घः, तस्य निकेते स्थाने, नन्दनवने क्रीडादराडम्बरो विहारेच्छावि. जम्मणम् , आरम्भि आरब्धः, एतद्विरोधिनां मरणमवश्यम्भावि इति भावः / अन्न कीय॑कीयोगङ्गायमुनारोपाद्रपकालङ्कारः। 'सितासिते सरिती यत्र सङ्गते तत्राप्लुतास्ते दिवमुत्पतन्ति / ये वै तन्वं विसृजन्ति धीरास्ते जनासो अमृतत्वं भजन्ते // ' इति श्रुतिरत्र प्रमाणम् // 12 // ___ इस ( 'ऋतुपर्ण'राजा ) के बाहुद्वयसे उत्पन्न कीर्ति-परम्परारूपी गङ्गा जिस कारणसे शत्रुकी अकीर्तिरूपा यमुना नदीसे युद्धाङ्गणमें संगत हुई, उस कारणसे उस ( रणप्राङ्गणमें सङ्गत उक्त गङ्गायमुनाके सङ्गम स्थल ) में डूबकर अर्थात् मरकर क्षत्रिय शुरवीरोंने रम्मा ( रम्मा' नामकी स्वर्गीय अप्सरा ) के आलिङ्गनके स्थान नन्दनवनमें क्रीडा करनेमें अत्य. धिक आसक्तिको आरम्भ कर दिया। [ पुराणों में उल्लेख है कि गङ्गा-यमुनाके सङ्गम
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________________ द्वादशः सर्गः। 706 (तीर्थराज प्रयाग ) में स्नान करनेवाला व्यक्ति स्वर्गीय रम्माके साथ आलिङ्गनादि सुखको पाता है, उसी प्रकार इस राजाके बाहुद्वयसे उत्पन्न श्वेतवर्ण कीर्तिरूपिणी गङ्गा तथा शत्रु की श्यामवर्ण अकीर्तिरूपिणी यमुनाके सङ्गम युद्धभूमिमें डूबने ( स्नान करनेवाला, पक्षामरनेवाला ) योद्धा रम्माके आलिङ्गन सुखके स्थान नन्दनवनमें अत्यन्त आसक्ति के साथ क्रोडा करने लगता है / युद्ध में मारे गये योद्धाको स्वर्गप्राप्त, अप्सराओंका लाम एवं नन्दन वनमें क्रीडा करना शास्त्रीय वचनोंसे प्रमाणित है। बाहुजन्य कोर्तिको श्वेत गङ्गा तथा शत्रुकी अकीतिको कृष्णवर्ण यमुना मानना उचित ही है। इस राजाने युद्धभूमिमें बहुत से क्षत्रिय शूरवीरों को मारकर स्वर्ग पहुंचाया है अत एव वीर इस 'ऋतुपर्ण' राजाका वरण करो] // 12 // इति श्रुतिस्वादिततद्गुणस्तुतिः सरस्वतीवाङ्मयविस्मयोत्थया / शिरस्तिरःकम्पनयैव भीमजा न तं मनोरन्वयमन्वमन्यत // 13 // इतीति / भीमजा भैमी दमयन्ती, इतीत्थं, श्रुतिस्वादिता श्रोत्रगृहीता, तस्य ऋतुपर्णस्य, गुणानां स्तुतिः यया ताहशी सती, सरस्वत्या देव्याः, वाङ्मये वाक्प्रपा विषये, यो विस्मयः तदुस्थया शिरसस्तिर कम्पनयैव अवज्ञासूचकमस्तकचालनेनव, मनोः अन्वयं मनुवंशोद्भवं, मनुसन्तानमित्यर्थः, तम् ऋतुपर्ण, न अन्वमन्यत अनुमोदनं न कृतवती, न्यषेधीत् इति यावत् , विस्मयाभिनयशिरकम्प एव प्रसङ्गानिषेधार्थोऽपि संवृत्त इति भावः // 13 // मोमकुमारी ( दमयन्ती ) ने इस प्रकार (12 / 5-12) कानसे सुनी गयी उस ( 'ऋतुपर्ण' राजा) की प्रशंसावाली सरस्वतीके ( वाक्समूहमें ) (या वाक्समूहसे) होनेवाले आश्चर्यसे उत्पन्न शिरः कम्पनसे ही मनुवंशोत्पन्न उस ( 'ऋतुपर्ण राजा ) को स्वीकृत नहीं किया। [ कानोंसे आदरपूर्वक ऋतुपर्णको गुण-स्तुति सुनकर दमयन्ती आश्चर्यित होकर शिर कंपाकर उस मनुवंशोत्पन्न राजाको स्वीकृत नहीं किया। आश्चर्यजन्य शिरःकम्पनसे .ही निषेध भी सूचित कर दिया। सोमवंशोत्पन्न 'नल' को चाहनेवाली दमयन्तीने अभिलषित आह्लादक गुण सूर्यवंशोत्पन्न उस 'ऋतुपर्ण राजामें नहीं होनेसे उसका त्याग कर दिया। चन्द्रगत आह्लादक गुण सूर्य में नहीं होने से चन्द्रवंशोत्पन्न नलको चाहनेवाली दमयन्तीका सूर्यवंशोत्पन्न अयोध्याधीश 'ऋतुपर्ण' को अस्वीकार करना उचित ही है ] // 13 // युवान्तरं सा वचसामधीश्वरा स्वरामृतन्यकृतमत्तकोकिला | शशंस संसक्तकरैव दिशा निशाकरज्ञातिमुखीमिमां प्रति // 14 // युवेति / स्वर एवामृतं तेन न्यकृतस्तिरस्कृतः, मत्तः वसन्तकालहृष्टः, कोकिलो यया सा ताहशी, वचसामधीश्वरा वाग्देवता, सा सरस्वती, अन्यं युवानं युवान्तरं, सुप्सुपेति समासः, तस्य यूनः, दिशा दिग्भागेन, संसक्तकरा व्यापृतहस्ता, हस्तेन तं निदिशन्ती एवेत्यर्थः, निशाकरज्ञातिमुखी चन्द्रसहशमुखीमित्यर्थः, ज्ञातिसोदरब.
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________________ 710 नैषधमहाकाव्यम् / न्ध्वादिशब्दाः सादृश्यवाचका इत्याहुः, इमां भैमी प्रति शशंस, दमयन्तीम् आमन्त्र्य आचख्यावित्यर्थः // 14 // स्वरामृतसे मत्त कोयलको तिरस्कृत करनेवाली दूसरे युवकको हाथसे बतलाती हुई वह सरस्वती देवी चन्द्रमुखी ( दमयन्ती ) के प्रति बोली // 14 // न पाण्डयभूमण्डनमेणलोचने ! विलोचनेनापि नृपं पिपाससि ? / शशिप्रकाशाननमेनमीक्षितुं तरङ्गयापाङ्गदिशा 'शस्त्विषः / / 15 // नेति / एणलोचने ! हे मृगाक्षि ! पाण्ड्यभूमण्डनं पाण्ड्यदेशस्य भूषणं, तद्दे. शस्य चूडामणिस्वरूपमिति यावत् नृपं विलोचनेनापि न पिपाससि ? पातुं न इच्छसि ? साग्रहदृष्टिदानेनापि एनं सुखयितुं न इच्छसि किम् ? इति भावः, शशि प्रकाशाननम् इन्दुसुन्दरास्यम्, एनम अपाङ्गदिशा कटाक्षमागंणापि, नेत्रप्रान्तेनापि इत्यर्थः, ईतितुं दशस्विषः चक्षुषोः ज्योतींषि, तरङ्गय प्रवर्त्तय, एनं साग्रहं द्रष्टं नेच्छसि चेत् न पश्य, परन्तु कटाक्षविक्षेपेणापि सकृदेव एनं पश्येति भावः / अत्र एणलोचने इत्यस्य एणस्य लोचने इव लोचने यस्यास्तत्सम्बुद्धौ, अत एवात्र निदर्श नालङ्कारः। एवमुत्तरत्राप्येवंविधस्थले बोध्यः // 15 // हे मृगलोचने ( दमयन्ति ) ! पाण्डय (देश) की भूमि के भूषण राजाको नेत्रसे मी पान करना ( देखना ) नहीं चाहती ? ( अधरसे पान करना नहीं चाहती तो भले मत चाहो, किन्तु नेत्रसे भी पान करना ( देखना ) नहीं चाहती यह तो अनुचित है; अत एव ) चन्द्र के समान प्रकाशमान मुखवाले इसे देखने के लिये नेत्रकान्तिको कटाक्षप्ते तरङ्गित करो अर्थात् अतिरमणीय इस राजाको देखो // 15 // भुवि भ्रमित्वाऽनवलम्बमम्बरे विहतमभ्यासपरम्परापरा। अहो ! महावंशममुं समाश्रिता सकौतुकं नृत्यति कीर्त्तिनर्तकी / / 16 / / भुवीति / कीर्तिरेव नर्तकी लासिकी, 'शिल्पिनि वुन्' इत्यत्र 'नृतिखनिरञ्जिभ्य एव' इति नृत्यतेः वुन्-प्रत्ययः। 'षिदौरादिभ्यश्च' इति ङीप, भुवि भूतले, भ्रमित्वा भूचारिणी भूत्वेत्यर्थः, अथ अम्बरे आकाशे, अनवलम्बं निरालम्बं यथा स्यात् तथा, विहत विचरितुम्, अभ्यासानां परम्परा श्रेणिः, सेंव परं प्रधानं यस्याः सा ताहशी सती, अम्बरदेशे नत्तनाभ्यासासक्ता सतीत्यर्थः, महावंशं महाकुलीनं महावेणुञ्च, 'वंशो वेणी कुले वर्गे' इति विश्वः, अमुं पाण्डयं, समाश्रिता सती सकौतुकं यथा तथा नृत्यति अहो ! आश्चर्यम्; यथा काचित् नर्तकी प्रथमं भुवि भ्रमित्वा वियति निरालम्बं भ्रमणार्थ वेणुमाश्रित्य नृत्यति तद्वत् कीतिरपि नृत्यति इति निष्कर्षः। अत्र रूप. कालङ्कारः // 16 // पृथ्वीपर घूमकर अवलम्बरहित आकाशमें विहार करने के लिये अभ्यास-परम्परामें 1. 'दृशो-' इति पा०।
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________________ द्वादशः सर्गः। 711 तत्पर तथा महावंश ( श्रेष्ठ कुल, पक्षा०-ऊँचे बाँस ) का आश्रयकर (इस राजाकी) कीर्ति रूपिणी नटी कौतुकके साथ नाच रही है आश्चर्य है ? ( नटी जिस प्रकार पहले पृथ्वीपर घूमकर बादमें बड़े बांशपर चढ़कर निरवलम्ब आकाशमें भ्रमण करनेका अभ्यास करने में लगी हुई सी कौतुक के साथ नाचती है, उसी प्रकार इस राजाकी कीर्ति पृथ्वीमें घूमकर अर्थात् व्याप्त होकर उत्तम वंशवाले इस राजाका आश्रयकर निरवलम्ब आकाशमें विहार करनेमें तत्पर हो रही है / इस राजाकी कीर्ति भूलोकव्याप्त होकर आकाशमें फैल रही है, अत एव कीर्तिमान् राजाका वरण करो] // 16 // इतो भिया भूपतिभिर्वनं वनात् अटद्भिरुच्चैरटवीत्वमीयुषी / निजाऽपि साऽवापि चिरात् पुनः पुरी पुनः स्वमध्यासि विलासमन्दिरम्।। इत इति / इतोऽस्मात् राज्ञः, भिया भयेन, वनात् वनम् अटद्भिः भ्रमद्भिः, भूपतिभिः प्रतिभूपैः, उच्चैरटवीत्वं चिरं जनहीनतया अवस्थानात् महाटवीत्वम् , ईयुषी प्राप्ता, सा पूर्वावासभूता, निजा स्वकीया, पुरी नगरी अपि, चिरात् बहोः कालात् परं, पुनरवापि वनान्तरभ्रमेण पुनः प्राप्ता, स्वं स्वकीयं, विलासमन्दिरं क्रीडागृहञ्च, पुनरध्यासि वनान्तरभ्रमेणवाध्यासितम् , आसेरधिपूर्वात् कर्मणि लुङ एतस्य राज्ञो भयात् पुरीं त्यक्त्वा पलायिवाः प्रतिभूपाः बहोः कालादरण्यभूते स्वन. गरे स्वविलासमन्दिरे च पुनः समागताः तंवनान्तरं बुद्ध्वास्वं गोपायन्तीति भावः। विलेषु आसते इति विलासा विलेशयाः, सस्तेिषां मन्दिरमिति विशेषणस्वेनापि योज्यम् / अत्रैकस्य अरिवर्गस्य अनेकासु अटवीषु अटवीभूतपुरीषु च क्रमात् वर्तमानत्वेन तथा पुरीष्वपि पुरीत्वाटवीत्वयोः क्रमसम्बन्धोक्त्या च 'एकम् अनेकस्मिन् अनेकमेकस्मिन् वा क्रमेण पर्यायः' इत्युक्तलक्षणं पर्यायभेदद्वयं द्रष्टव्यम् // 17 // __इसके मयसे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते हुए ( शत्रुभूत ) राजालोग बहुत समयके बाद महावन बनी हुई अपनी भी उस नगरीको प्राप्त किया, बादमें विलासमन्दिर (अपने विलासके भवनों, पक्षा०-विलमें सोनेवालों के घरों ) को प्राप्त किया। [इसके भयसे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते हुए राजालोग बहुत समय के बाद बड़े वनरूपमें परिणत अपनी नगरीमें आये ( उसे अपनी नगरी समझकर नहीं, किन्तु यह भी कोई एक बन ही है। ऐसा समझकर आये ) तथा बाद में अपने विलासभवनोंको प्राप्त किये वे विलासभवन इतने लम्बे समयके बाद पूर्वरूपमें नहीं रह गये हैं, किन्तु महावनमें परिणत नगरीके समान वे भी विलमें रहनेवाले खरगोश आदि जानवरों के घर के रूपमें परिणत हो गये थे, उन्हें वे राजा प्राप्त किये अर्थात् इस राजाने शत्रुओंकी नगरी ( राजधानी ) को उजाड़कर बन तथा उनके महलोंको विलमें रहनेवाले खरगोश आदिका घर बना दिया है ] // 17 // आसीदासीमभूमीवलयमलयजालेपनेपथ्यकोतिः सप्ताकूपारपारीसदनजनघनोद्गीतचापप्रतापः /
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________________ 712 नैषधमहाकाव्यम् / वीरादस्मात् परः कः पदयुगयुगपत्पातिभूपातिभूय श्चूडारत्नोडुपत्नीकरपरिचरणामन्दनन्दन्नखेन्दुः // 18 // आसीदिति / वीरात् अस्मात् पाण्ड्यात् , परोऽन्यः, को वीरः, सीमाया आ इत्यासीमं समुद्ररूपसीमामभिव्याप्य, सीमासहितमिति यावत् , अभिविधावव्ययी. भावः, यत् भूमिवलयं तस्य मलयजालेपनेपथ्यं मलयजेन चन्दनेन, यत् आलेपः अङ्गरागः, तद्रूपं यत् नेपथ्यं भूषणं, तदिव कीर्तिर्यस्य सः, आसमुद्रक्षितिं व्याप्य विस्तृतयशःसौरभ इत्यर्थः, सप्तानाम् अकूपारपाराणां समुद्रपरतीराणां समाहारः सप्ताफूपारपारी 'तद्धितार्थ-' इत्यादिना समाहारदिगो डीप , सदनं येषां तैः तत्रस्थ. जनः घनं निरन्तरम् , उद्गीतश्चापप्रतापो धनुषो माहात्म्यं, चापश्च प्रतापश्च वा यस्य सः, पदयुगे चरणयुगले, युगपत्पातिनां समकालं नमस्कारकारिणां, भूपानाम् अति. भूयांसि अतिबहुलानि, चूडारत्नान्येव उदुपत्न्याः क्षुद्रत्वात् वर्तु लत्वाच्च नक्षत्ररूपाः स्त्रियः, तासां करा अंशवो हस्ताश्च, 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः,तेषां परिचरणेन परामशन, अमन्दम् अतिमात्रं, नन्दन्तः उल्लसन्तः, नखाः पदनखाः, एवेन्दवो यस्य स तादृशः, आसीत् ; यशः सुरभिताऽऽसमुद्रक्षितिमण्डलः दिगन्तविश्रान्तप्रतावः खमस्तराजवन्द्यश्वायमेव नान्यः कश्चिदित्यर्थः / अत्र रूपकालङ्कारः // 18 // सीमा ( समुद्र ) तक पृथ्वीमण्डलके चन्दनलेप रूप भूषणके समान अथवा-भूषणरूपा कीर्तिवाला, सात समुद्रोंके परतीरसमूह रूप घर में रहने वाले लोगोंसे निरन्तर उच्च स्वरसे गाये गये धनुःसम्बन्धी प्रतापवाला, दोनों चरणोंपर एक साथ गिरते ( प्रणाम करते ) हुए राजाओंके बहुत से मुकुटोंके रत्न रूपी ताराओंके किरणों के घूमने ( चारो ओर फैलने पक्षा-हार्थोके द्वारा की गयो सेवा ) से अत्यन्त आनन्दित ( शोमित ) होते हुए नखरूपी चन्द्रवाला इस वीरसे श्रेष्ठ ( अथवा-वीरके अतिरिक्त ) दूसरा कौन राजा है ? अर्थात् उक्त गुगोंवाला एक मात्र यही वोर राजा है, अन्य कोई नहीं। [ दिगन्त तक फैले हुए प्रतापवाले * तथा समस्त राजाओंसे नमस्कृत महाप्रतापी इस पाण्ड्य राजा का वरण करो] // 18 / / भङ्गाकीर्तिमसोमलीमसतमप्रत्यर्थिसेनाभटश्रेणीतिन्दुककाननेषु विलसत्यस्य प्रतापानलः / अस्मादुत्पतिताः स्फुरन्ति जगदुत्सङ्गे स्फुलिङ्गाः स्फुटं भालोद्भूतभवाक्षिभानुहुतभुगजम्भारिदम्भोलयः / / 16 // भङ्गेति / अस्य पाण्ड्यस्य, प्रताप एवानलः भङ्गेन पराजयेन, या अकीर्तिः, श्या. मत्वादिति भावः, सैव मसी तया मलीमसतमाः अत्यन्तमलिनाः, प्रत्यर्थिसेनाभट. श्रेण्यः शत्रुसैनिकवीरसमूहाः एव, तिन्दुककाननानि श्यामस्वात् कालस्कन्धवनानि, 'तिन्दुकः स्फूर्जकः कालस्कन्धश्च शितिसारके' इत्यमरः, तेषु विलसति प्रज्वलति / भालोद्भुतभवाक्षि भालाललाटात् , उद्भूतं भवाति हरतृतीयनेत्रं, तच्च भानुश्च सूर्यश्च,
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________________ द्वादशः सर्गः। 713 हुतभुगग्निश्च, जम्भारिदम्भोलिः कुलिशञ्च ते, अस्मात् तिन्दुकवनदाहकतदीयप्रता. पानलात् , उत्पतिता उस्थिताः, स्फुलिङ्गाः अग्निकणाः, जगदुरसङ्ग जगतां पृथिव्याः दीनाम, उत्सङ्ग कोडे अभ्यन्तरे इति यावत् , स्फुरन्ति प्रकाशन्ते स्फुटम् असंशय. मित्युत्प्रेक्षा रूपकसङ्कीर्णा / तिन्दुककाष्ठेभ्यो दह्यमानेभ्यो महान्तः स्फुलिङ्गा उत्तिष्ठः न्तीति प्रसिद्धिः॥ 19 // इस ( पाण्डय राजा ) की प्रतापरूपी अग्नि पराजयसे उत्पन्न अकीर्तिरूपिणी स्याहीसे अत्यन्त मलिन शत्रु-सैनिक-वीर-समूहरूपी तिन्दुक ( तेंदुआ नामक वृक्ष ) के वनों में दिल. सित हो रहा है, जिससे निकले हुए शिवजीके ललाटसे उत्पन्न उनका ( तृतीय ) नेत्र, सूर्य, अग्नि और इन्द्र-वज्ररूपी स्फुलिङ्ग (चिनगारियां ) संसारके बीचमें स्फुरित हो रहे हैं। [तिन्दुककी लकड़ी में अग्नि लगने पर चटचट शब्द करती हुई उससे बहुत-सी चिनगारियां निकलती हैं। शिव के मालस्थ नेत्र, सूर्य आदि को इस राजाके विशालतम प्रतापानल की चिनगारी बतलाकर प्रतापानलका बहुत ही विशाल होना बतलाया गया है ] // 19 // एतद्दन्तिबलैविलोक्य निखिलामालिङ्गिताङ्गी भुवं समामाङ्गणसीम्नि जङ्गमगिरिस्तोमभ्रमाधायिभिः / पृथ्वीन्द्रः पृथुरेतदुग्रसमरप्रेक्षोपनम्रामर श्रेणीमध्यचरः पुनः क्षितिधरक्षेपाय धत्ते धियम् // 20 / / एतदिति / एतस्य पाण्ड्यस्य, उग्रस्य भयङ्करस्य, समरस्य प्रेक्षायै प्रेक्षणाय, 'गुरोश्च हलः' इति स्त्रियाम् अ प्रत्यये टाप, उपनम्राणाम् उपगतानाम, अमराणां याः श्रेण्यः समूहाः, तन्मध्ये चरतीति तथोक्तः, स्वयमपि तद्दष्टमागत इत्यर्थः, पृथुर्वैग्यो नाम, पृथ्वीन्द्रः संग्रामाङ्गणसीम्नि रणाजिरभूमी, जङ्गमाः सञ्चारिणः, गिरीणां स्तोमाः समूहाः, इति भ्रममादधतः इति तथोक्तः, तथाविधभ्रान्तिजनकरित्यर्थः, अत एव भ्रान्तिमदलङ्कारः, एतस्य पाण्ड्यस्य, दन्तिबलैगजघटाभिः, निखिला भुवम् आलि. गिन्ताङ्गीम् भाक्रान्तस्वरूपां, विलोक्य पुनः क्षितिधराणां क्षेपाय धनुषा प्रोत्सारणाय, धियं धत्ते, नूनमिति शेषः, अतो गम्योस्प्रेक्षा पूर्वोक्तभ्रान्तिमदलङ्कारोस्थितेति सङ्करः। तेनैतत्सेनागजाः गिरिप्रमाणा असङ्ख्येयाश्च इति गम्यते / अत्र पराशरः, 'तत उत्सा. रयामास शैलाः शतसहस्रशः / धनुष्कोट्या तथा वैण्यस्तेन शैलविवर्जिता।' इति // इस ( पृथुराजा ) के भयङ्कर युद्धको देखने के लिये आये हुए देवों के बीचमें चलनेवाले 'पृथु' अर्थात् 'वेण्य' नामक राजा चलनेवाले पर्वत-समूहकी भ्रान्ति उत्पन्न करनेवाले, इस राजाके सेनाके हथियोंसे आक्रान्त ( गा व्याप्त ) सम्पूर्ण पृथ्वीको देखकर फिर पर्वतोंको ( धनुषकी कोटिसे ) फेंकने के लिये विचार कर रहे हैं। [ पूर्वकाल में सभी पर्वतोंके घूमनेसे अनेक ग्राम देश उनके नीचे दबकर नष्ट हो जाते थे, अत एव राजा 'वैण्य' ने उन पर्वतोंको अपने धनुष को कोटिसे फेंककर पृथ्वीका विभाग कर दिया। फिर इस समय मृत्युके बाद
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________________ 714 नैषधमहाकाव्यम् / स्वर्गमें देवत्व को प्राप्त वे वैन्य' इस राजाके भयङ्कर संग्रामको देखने के लिये अन्य देवोंके साथ आकर इस राजाके विशालकाय हाथियों को चलता-फिरता पर्वत समझ कर 'ये पर्वत फिर घूमने-फिरने लगे, अतः इन्हें फिर धनुष्कोटिसे मुझे फेंकना चाहिये' ऐसा विचार करने लगे। यह पाण्डय राजा बड़ा भयङ्कर युद्ध करता है तथा इसके हाथी पर्वतवत् विशालकाय एवं अगणित हैं; अतएव ऐसे शुरवीर का वरण करो ] // 20 // शशंस दासीङ्गितवित् विदर्भजामितो ननु स्वामिनि ! पश्य कौतुकम् | यदेष सौधाग्रनटे पटाञ्चले चलेऽपि काकस्य पदार्पणग्रहः // 21 // शशंसेति / इङ्गितवित् दमयन्त्यभिप्रायज्ञा, दासी किङ्करी, विदर्भजां दमयन्ती, शशंस बभाण; किमिति ? ननु हे स्वामिनि ! इतः अस्यां दिशि, कौतुकम् आश्चर्य, पश्य, किं तत् ? तदाह, सौधाप्रे सुधाधवलितगृहोर्ध्वदेशे वर्तमाने, नटे चञ्चलस्वात् नर्तकतुल्ये, अत एव चले वायुवशात् चलत्यपि, पटाञ्चके, ध्वजाञ्चले, काकस्य एष पदार्पणग्रहः पादन्यासाभिनिवेशः, इति यत् तत् कौतुकमिति पूर्वणान्वयः / एतेन भैम्याः तस्मिन् पाण्डये महान् अनादरः इति सख्या सूचितम् // 21 // (दमयन्ती) के अभिप्रायको जाननेवाली दासीने दमयन्तीसे कहा-हे स्वामिनि (दमयन्ति ) ! 'महल के ऊपर नटरूप चञ्चल ( ध्वजा के ) वस्त्रके आगे कौवा पैर रखनेका हठ करता है' यह कौतुक देखो। [दासीने स्वामिनी दमयन्तीके अभिप्रायको समझकर अन्योक्तिसे कहा कि-सुधाधवलित महल के ऊपर ध्वजाके वस्त्रके वायुचञ्चल अग्रिम भागमें कौवेके पैर रखने के समान यह नीच राजा दूसरे अर्थात् नल को चाहने वाली तुम्हें शृङ्गार चेष्टाओंसे प्राप्त करने का दुराग्रह रखता है, अत एव कौतुक विषय है, इसे तुम देखो। इस प्रकार कह कर सरस्वती देवीके द्वारा किये जानेवाले राजाके वर्णनके बीचमें ही रोक दिया / उस राजा को 'काक' बतलाकर दासीने उसमें अत्यन्त अनादर प्रकट किया ] // 21 // ततस्तदप्रस्तुतभाषितोत्थितैः सदस्तदश्वेति हसैः सदासदाम् / स्फुटाऽजनि म्लानिरतोऽस्य भूपतेः सिते हि जायेत शितेः सुलक्षता / / तत इति / ततोऽनन्तरं, तदप्रस्तुतभाषितेन उस्थितः सदासदां सभासदां, हससिः , 'खनहसोर्वा' इति विकल्पात् अ-प्रत्ययः, तत् सदः संसत् , सभा इत्यर्थः, अश्वेति सितीकृतं, शुभ्रीकृतम् इति यावत् ; वितिधातोय॑न्तात् कर्मणि लुङ् अतः सदःश्वैस्यात् हेतोः, अस्य पाण्डवस्य, भूपतेः म्लानिः विवर्णता, स्फुटा व्यक्ता, अजनि जाता, कर्तरि लुङ् 'दीपजन-'इत्यादिना विकल्पाविण-प्रत्ययः, तथा हि सिते धवलिनि, शितेन लिम्नः 'अशितिः शितिकृष्णे च कालं नीलञ्च मेचकम्' इति हलायुधः, सुलक्षता सुग्रहत्वं, जायेत हि स्फुटं दृश्यते इत्यर्थः / अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः // 22 // ___ इस ( दासीके वैसा ( 12 // 21 ) उपहास पूर्वक बोलने ) के बाद उस ( दासी) के अप्रासंगिक बोलनेसे उत्पन्न, सदस्योंकी हंसीसे वह समा श्वेत वर्णवाली हो गयी, इस ( सभा
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________________ द्वादशः सर्गः। के श्वेत वर्ण होने ) से इस ( पाण्ड्य ) राजा की मलिनता ( दमयन्तीके नहीं मिलनेसे उदा. सीनता ) स्पष्ट हो गयी; क्योंकि श्वेतमें कालिमा स्पष्ट मालूम होती है। [ उस दासीके उपहास करने पर और सभासदोंके हंसने पर वह पाण्ड्य राजा अधिक उदास हो गया] // 22 // ततोऽनु देव्या जगदे महेन्द्रभूपुरन्दरे' सा जगदेकवन्द्यया / तदार्जवावर्जिततर्जनीकया जनी कयाचित् परचित्स्वरूपया // 23 // ततोऽन्विति / ततोऽनु तदनन्तरं, महेन्द्रभूपुरन्दरे महेन्द्रपर्वताधीश्वरे विषये, तं लक्षीकृत्येत्यर्थः, तदार्जवेन तस्य महेन्द्राधिपस्य, आर्जवेन सरलतया, आवर्जिता नमिता, तर्जनी प्रदेशिनी यया तया ताहकतर्जनीकया, तम् अङ्गुल्या निर्दिश्येत्यर्थः, 'नयतश्च' इति कप , कयाचित् अनिर्वाच्यया, परचित्स्वरूपया परज्योतिरात्मिकया, जगदेकवन्द्यया देव्या सरस्वत्या, सा जनी वधू, जगदे गदिता // 23 // इसके बाद संसार में एक ( मुख्य ) वन्दनीया, अनिर्वचनीया, उत्तम ज्ञान (या ज्योतिः) स्वरूपा ( सरस्वती ) देवी महेन्द्रभूमिके राजाके विषयमें (पाठा०-को लक्षित कर ) उसकी ओर तर्जनी अङ्गुलिसे सङ्केत कर उस ( दमयन्ती ) से बोली // 23 / / स्वयंवरोद्वाहमहे वृणीष्व हे ! महेन्द्रशैलस्य महेन्द्रमागतम / कलिङ्गाजानां स्वकुचद्वयश्रिया कलिं गजानां शृणु तत्र कुम्भयोः // 24 // स्वयंवरोद्वाहमहे इति / हे ! इति सम्बोधने, 'अथ सम्बोधनार्थकाः / स्युः पाट प्याडङ्ग हे है भोः' इत्यमरः, हे भैमि ! स्वयंवरेण स्वयंवरकर्मणा, य उद्वाहमहो विवाहोत्सवः तस्मिन् , आगतं महेन्द्रशैलस्य महेन्द्रपर्वतस्य, महेन्द्रम् अधीश, वृणीष्वः तत्र महेन्द्रशैले, कलिङ्गजानां कलिङ्गदेशोद्भवानां, गजानां, कुम्भयोः, स्वस्थ आत्मनः कुचद्वयश्रिया सह कलिं कलह, तव कुचद्वयम् अधिकं पीनोन्नतं गजानां कुम्भद्वयं वा अधिकं पोनोन्नतमिति मीमांसार्थमेव इति भावः, शृणुः तदेशस्य गजप्रायत्वात् कुचकुम्भयोः करिकुम्भयोश्च साम्यं व्यक्तीभविष्यतीति निष्कर्षः // 24 // हे दमयन्ति ! स्वयंवर द्वारा किये जानेवाले विवाहरूप यज्ञमें आये हुए, महेन्द्रपर्वतके राजाको वरण करो, और वहां कलिङ्ग देशमें उत्पन्न हाथियों के कुम्भद्वय का अपने स्तनद्वयकी शोभासे ( होनेवाले ) विवादको सुनो। [ इस महेन्द्र पर्वतके राजाके यहां कलिङ्ग देशोत्पन्न हाथी हैं, जिनका कुम्भद्वय तुम्हारे स्तनद्वय का शोभा पाना चाहता है, परन्तु पाता नहीं, विवाहके समान इस विषय को तुम इस महेन्द्राधीशका वरण कर अच्छी तरह देख सकोगी, अतएव इसे वरण करो ] // 24 // अयं किलायात इतीरिपोरवाग्भयादयादस्य रिपुर्वथा वनम् | श्रुतास्तदुत्स्वापगिरस्तदक्षराः पठद्भिरत्रासि शुकैर्वनेऽपि सः // 25 // 1. 'पुरन्दरम्' इति पा०। 45 नै० उ०
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / अयमिति / अयं महेन्द्रनाथः, आयातः किल इतीरिणाम् इतिवादिनां, पौराणां वाग्भ्यो जनवादेभ्यः, भयात् अस्य रिपुर्वृथा वनम् अयात् ; वृथात्वमेवाह-श्रुताः आकर्णिताः, शुकैरिति भावः, तान्येव अक्षराणि अयमायातः किलेत्येवंरूपाणि यासु ताः तदक्षराः, तस्य एतदीयरिपोः, उत्स्वापगिरो वासनायातान् उत्स्वप्नायितप्रला. पान् , पठद्भिः उच्चारयद्भिः, शुकैर्वनेऽपि सः रिपुः, अत्रासि त्रासितः, सेय॑न्तात् कर्मणि लुङ् / अत्र सत्यपि त्रासनिवृत्तिकारणे शुकवाक्यनिमित्तेन तदुत्पत्तेः, उक्तनि. मित्तरूपो विशेषोक्तिभेदः अलङ्कारः, 'कारणसामग्रयां कार्यानुत्पत्तिविशेषोक्तिः' इति सामान्यलक्षणात् // 25 // _ 'यह ( कलिङ्गका राजा ) आ गया' ऐसे कहनेवाले नागरिकोंके वचनसे शत्रु वनको व्यर्थ ही गये ( क्योंकि ) वहां भी उन शत्रुओंके दुःस्वप्न (वरीना-सोनेके समय में बोलना ) के वचनके उन अक्षरों 'यह कलिङ्गराज आ गया' को बोलते हुए शुकोले वनमें भी वे शत्रु डर गये। [नागरिकों के कहनेसे यद्यपि शत्रु वनमें भाग गये; तथापि वहां जाकर सोते समय 'यह कलिगराज आ गया' इस प्रकार स्वप्नमें बार बार कहे गये शत्रुओंके वचनोंको तोते भी कहने लगे, जिसे सुन कर वे शत्रु इस कलिङ्गराजाको वास्तविकमें आया समझकर वहां भी डर गये, अत एव उनका वनमें भागना व्यर्थ ही हुआ] // 25 / / इतस्त्रसद्विद्रुतभूभृदुज्झिता प्रियाऽथ दृष्टा वनमानवीजनैः / शशंस पृष्टाऽद्भुतमात्मदेशजं शशित्विषः शीतलशीलतां किल / / 26 // इत इति / इतः अस्मात् महेन्द्रनाथात् , त्रसता बिभ्यता, अत एव विद्रुतेन पलायितेन, भूभृता प्रतिपक्षभूभुजा, उज्झिता वने त्यक्ता, प्रिया तत्कान्ता वनमान वीजनैः किरातीजनैः, दृष्टा; अथ दर्शनानन्तरम् , आत्मदेशजम् अद्भुतं त्वद्देशे किमद्भुतमस्तीति पृष्टा सती, अप्रधाने दुहादीनामित्यप्रधाने कर्मणि क्तः, शशित्विषः चन्द्रिकायाः, शीतलशीलतां शिशिरस्वभावतां, शशंस किल कथयामास खलु; अभिनवप्राप्तविरहाया मुग्धायाः चन्द्रकिरणानां विरहे दुःसहत्वमजानन्त्याः स्वदेशे शीतलत्वमत्र वने च उष्णत्वमिति भ्रान्तिरिति भावः // 26 // इस ( कलिङ्गराज ) से डरकर भगे हुए राजासे छोड़ी गयी ( उसकी) प्रियाको किरातपत्नियोंने देखा और अपने देशकी अद्भुत वस्तुको पूछा तो उस (पति-विरहित रानी) ने चन्द्रकिरणकी शीतलता को बतलाया। [भगते हुए पति से छोड़े जाने के कारण चन्द्रकिरण सन्ताप दे रही थी, अतः किरातियोंके पूछनेपर उसने चन्द्र-किरणको अपने देशका अद्भुत पदार्थ बतलाया ] // 26 // इतोऽपि किं वीरयसे ? न कुर्वतो नृपान् धनुर्बाणगुणैर्वशंवदान् / गुणेन शुद्धन विधाय निर्भरं तमेनमुरूवलयोर्वशी वशम् / / 27 // 1. 'निर्भयम्' इति पा०।
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________________ द्वादशः सर्गः। 717 इतोऽपीति हे / भैमि ! उर्वीवलयोर्वशी भूलोकाप्सरोविशेषा, स्वं शुद्धन अनवद्येन, गुणेन सौन्दर्यगुणेन मौा च, एकेनैवेति भावः, तमेनं महेन्द्रनाथं, निर्भरं नितान्तं, वशं विधाय वशीकृत्य, धनुर्बाणगुणः त्रिभिः साधनभूतैः, नृपान् वशंवदान् वश्यान् , 'प्रियवशे वदेः खच' कुर्वतः कुर्वाणात् , इतोऽस्मादपि, महेन्द्रनाथादपीत्यर्थः, 'पञ्चमी' किं न वीरयसे ? न पराक्रमसे ? 'वीरशूरविक्रान्ती' इति चौरादिकाल्लट , व्यतिरेकालङ्कारः॥ 27 // भूतलकी उर्वशी तुम शुद्ध गुण ( सौन्दर्य, पक्षा०--धनुषकी डोरी ) से प्रसिद्ध इस ( महेन्द्रनाथ ) को अत्यन्त वशमें करके धनुष, बाण और गुण ( धनुषकी डोरी ); इन तीन साधनोंले राजाओंको वश में करते हुए इस ( महेन्द्रनाथ ) से भी वीर नहीं हो क्या ? अर्थात् अवश्य हो ( अथवा-क्यों नहीं वीर बनती हो ) अर्थात तुम्हें वीर बनना चाहिये [यह राजा तो धनुष, बाण तथा गुण ( मौर्वी )- इन तीन साधनोंसे शत्रु राजाओंको वशमें करके वीर हो रहा है, और ऐसे वीर राजाको तुम केवल गुण ( सौन्दर्य गुण, पक्षा०-धनुष तथा बाणसे रहित केवल मौर्वी ) से ही वशमें कर रही हो; अतएव इससे अधिक तुम ही वीर हो तीन साधनों के द्वारा काम करनेवालेको अपेक्षा एक साधनके द्वारा वही काम करनेवाले व्यक्तिको ही श्रेष्ठ मानना उचित है ] // 27 // एतद्भीतारिनारी गिरिबिलविगलद्वासरा निःसरन्ती स्वक्रीडाहंसमोहअहिलशिशुभृशप्रार्थितोन्निद्रचन्द्रा / आक्रन्दत् भूरि यत्तन्नयनजलमिलच्चन्द्रहंसानुबिम्ब प्रत्यासत्तिप्रहृष्यत्तनयविहसितैराश्वसीन्न्यश्वसीच्च // 28 // एतदिति / एतस्मात् भीतस्य अरेर्नारी गिरिबिलेषु पर्वतगुहासु, विगलन् वासरो यस्याः सा, तत्रैव नीतदिवसेत्यर्थः, निःसरन्ती सायं बिलाद्वहिः निष्कामन्ती, स्वक्रीडाहंसमोहेन मदीयः क्रीडाहंसोऽयमिति भ्रान्त्या, ग्रह आग्रहःतद्वान् अहिलः, पिच्छ।दित्वादिलच प्रत्ययः, तेन साग्रहेण, शिशुना बालकेन, भृशम् अत्यर्थ, प्रार्थितो धृत्वा दीयतामिति याचितः, उन्निद्रः परिपूर्ण इत्यर्थः, चन्द्रो यस्याः सा सती, भूरि भूयिष्टं यथा तथा, आक्रन्दत् क्रन्दितवती, यत् यस्मादाक्रन्दनात् , तस्या मातुः, नयनजले मिलन् सङ्क्रामन् , चन्द्र एव हंसः तस्य योऽनुबिम्बः, प्रतिबिम्बः, तस्य प्रत्यासत्या समीपप्राप्त्या, प्रहृष्यतः तनयस्य विहसितः मध्यमहासैः किञ्चिद्वच्चहास्यैरित्यर्थः, 'मध्यमः स्याद् विहसितम्' इत्यमरः, आश्वसीत् तस्याग्रहशान्त्या आश्वासं प्राप्तवती, किन्तु न्यश्वसीच्च शोकेन दीर्घनिश्वासं परित्यक्तवती च इति दुर्दशानुभवसूचकोक्तिः / 'मयन्तक्षणश्वस-' इत्यादिना वृद्धिप्रतिषेधः, अन्न नारोशिशोः चन्द्रबिम्बे तत्प्रतिबिम्बे च हंसगतसादृश्यात् हंसभ्रान्तिनिबन्धनात् भ्रान्तिमद. लङ्कारः॥२८॥
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________________ 718 नैषधमहाकाव्यम् / पर्वतकी गुफाओंमें दिनको बितानेवाली, सायंकाल के बाद बाहर निकलती हुई इस राजासे डरे हुए शत्रुकी स्त्रीसे अपने क्रीडा हंस ( खिलौना हंस ) के भ्रमसे हठी बालकने आकाशोदित चन्द्रमाको बार बार मांगा, ( यह देख दुःखसे ) वह बहुत रोया और उस स्त्रीको आँसमें प्रतिबिम्बित चन्द्ररूप हंसके प्रतिबिम्बको पानेसे प्रसन्न होते हुए बालकके हंसनेसे ( वह स्त्री ) प्रसन्न हुई और ( अपनीविवशतामय दुःखसे ) लम्वा श्वास लिया / [इस राजासे डरे हुए शत्रुकी स्त्री दिनमें पर्वतकी गुफामें छिपी रहती थी और रातमें बाहर निकली तो उसके बालकने आकाशमें उदित चन्द्रको हंसरूप खिलौना समझकर 'मेरा खिलौना हंस दो' इस प्रकार हठ करने लगा और उसे किसी प्रकार शान्त नहीं कर सकनेके कारण वह स्त्री बहुत रोयी, किन्तु उसकी आँसुओंकी बूंदों में प्रतिबिम्बित चन्द्रको समीपमें देखकर 'यह मेरा खिलौना हंस ही है' ऐसा समझकर प्रसन्न होता हुआ बालक हँसने लगा, उसे देख किसी प्रकार इस दुराग्रही बालकसे छुटकारा पानेसे वह हँसी और छोड़ी गई पूर्व सम्पत्तिके स्मरण आनेसे 'तुम्हारा खिलौना हंस यहां कहां ? व्यर्थमें भ्रान्त हो गये हो' ऐसा विचार आनेपर उसने लम्बा श्वास लिया ] / / 28 / / अस्मिन् दिग्विजयोद्यते पतिरयं मे स्तादिति ध्यायति कम्पं सात्त्विकभावमञ्चति रिपुक्षोणीन्द्रदारा धरा / अस्यैवाभिमुखं निपत्य समरे यास्यद्भिरुचं निजः पन्था भास्वति दृश्यते बिलमयः प्रत्यर्थिभिः पार्थिवैः / / 26 / / अस्मिन्निति / अस्मिन् महेन्द्रनाथे, दिग्विजयोद्यते सति, रिपुक्षोणीन्द्राणां दाराः कलत्रभूताः, धरा अयं महेन्द्रनाथ एव, मे मम, पतिः स्तात् अस्तु, अस्तेर्लोटि 'तुह्यो स्तात' इति तुस्थाने तातडादेशः 'श्नसोरल्लोपः' इति अकारलोपः, इति ध्यायति सङ्कल्पयति, कम्पं कम्पाख्यं सात्त्विकभावम् , अञ्चति प्राप्नोति, औलानिके भूकम्पे सात्विकोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्या; किञ्चास्यैव समरे अभिमुर नित्य आगत्य, ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वलोकं, यास्यद्भिः प्रत्यर्थिभिः पार्थिवैः आस्वति सूर्यमाडले, बिलमयः छिद्ररूपः, निजः पन्था दृश्यते; आसन्नमृत्योः आदित्यमण्डलं सच्छिद्रमिव दृश्यते इत्यागमः। अत्र आत्मीयोर्ध्वगमनमागंत्योत्प्रेक्षा पूर्ववत् गम्या / 'द्वाविमो पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनी। परिबाड योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः // ' इति // 29 // इस ( महेन्द्रनाथ ) के दिग्विजयके लिए तैयार होने पर 'यह मेरा स्वामी हो' ऐसा ध्यान करती हुई शत्रु राजाकी स्त्री ( वशीभूता) पृथ्वी कम्परूप सात्त्विक भाव (पक्षा०दूसरे स्वामी होनेका सूचक भूकम्प ) को प्राप्त करती है (दूसरे नवीन पतिको चाहनेवाली स्त्रीमें कम्परूप सात्त्विक भाव ( पक्षा०–राजपरिवर्तनादि उत्पातसूचक भूकम्प ) होना शास्त्रों में वर्णित है ) युद्ध में इसीके ( अथवा-इसीके युद्ध में ) सामने गिर (मर ) कर ऊपर ( स्वर्गलोक ) को जाते हुए शत्रु राजा लोग सूर्यमें बिलरूप अपना ( अपने जानेका ) मार्ग
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________________ द्वादशः सर्गः। 716 देखते हैं। [ इसी प्रकार समरमें सामने मरने पर सूर्यलोकका भेदनकर वीर स्वर्गको प्राप्त करते हैं। ऐसा शास्त्रीय वचन होनेसे वे सूर्यमें बिलरूप अपना मार्ग देखते हैं। पक्षाआसन्न मृत्युवाले व्यक्तिको सूर्यमें बिल दिखलायी पड़ता है, यह भी शस्त्रीय वचन होनेसे युद्ध में मारे जानेवाले शत्रुराजाओंको सूर्यमें बिल दिखलायी देना उचित ही है ] // 29 / / विद्राण रण चत्वरादरिगणे त्रस्ते समस्ते पुनः कोपात् कोऽपि निवर्त्तते यदि भटः कील् जगत्युद्भटः / आगच्छन्नपि सन्मुखं विमुखतामेवाधिगच्छत्यसो हातच्छुरिकारयेण ठणिति च्छिन्नापसपच्छिराः / / 30 / / विझाये। समस्ते अग्गिणे त्रस्ते रणवत्वरात् रणाङ्गमात् , विदाणे विद्ते सति, विद्रातः कतरि हा, 'संयोगादेरातो धातोर्यवतः' इति निष्ठा-तकारस्य नवम् , की जगति उद्भटः प्रसिद्धः, कोऽपि तेषामरिण गानां सयो कोऽपीत्यर्थः, भटः कोपात् पुननिसले यदि, तदा सम्मुखम अभिमुख , आगच्छन् अपि अली भटः, भाक सपदि, एक स्वरिकायाः शस्त्रविशेषस्य, स्वेण ठगिति कश्चिदनुकरणशब्दः, तथा तथा छिन्नम् अपसर्पत् अपनाच्छत् , शिरो यस्य स तादृशः सचिन. खतां परामुखत्वमेव, अधिगच्छति / अत्र सम्मुखागतस्य विमुखत्वमिति विरोधः, विगतमखत्वमिति तदर्थतया विरोधपरिहाराद्विरोधाभासोऽलङ्कारः // 30 // डरने तथा रणाङ्गणसे समस्त शत्रु-समूहके भगने पर फिर कोबसे कातिके द्वारा संसार में प्रसिद्ध अर्थात् जगत्प्रसिद्ध कीतिवाला यदि कोइ शूरवीर लोटता हे तो आता हुआ भी वह (शत्रु शूरवीर राजा ) इसके कटारसे झट 'टन्' शब्द करत एवं कंटे तथा नीचे गिरते हुए मरतकवाला वह ( शूरवीर शत्रु) विमुखता ( पक्षा०-मुखहीनता) को ही प्राप्त करता है / [ लोक प्रसिद्ध शूरवीरका भी झट शिर काट कर विमुख (मुखहीन ) करनेवाले इस महाशूर महेन्द्रनाथ का वरण करो ] // 30 // ततस्तदुर्वान्द्रगुणाद्भुतादिव स्ववक्त्रपझेलिनालदायिनी / विधीयतामाननमुद्रणेति सा जगाद वैदग्थ्यमयेङ्गितैव ताम् / / 31 / / तत इति / ततस्तदर्शनानन्तरं, तस्य उर्वीन्द्रस्य महेन्द्रनाथस्य, गुणेषु अद्भुतात् आश्चर्यावेशादिव, वस्तुतस्तु अनादरादिति भावः, स्ववक्त्रपद्मे अङ्गुलिमेव नालं पद्मदण्डं ददातीति. तदायिनी, पद्मस्य नालाविनाभावादिति भावः; सा दमयन्ती, वैदग्ध्यमयं चातुर्यप्रचुरम् , इङ्गितं चेष्टितं यस्याः सैव सती, तां सरस्वतीम् , आननमुद्रणा मौनं, विधीयतामिति जनाद, वाक्यमन्तरेणैव मुखे अङ्गुलिदानरूपा निजमुखमद्वैव तस्याः सरस्वतीं प्रति मौनोपदेशोऽभूदित्यर्थः विदग्धा हि स्वेङ्गितेनैव परं बोधयन्तीति भावः / वचननिषेधार्थं आश्चर्यरसाभिनयार्थञ्च लोकमुखेऽङ्गुलिर्दीयते /
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________________ 720 नैषधमहाकाव्यम् / सरस्वत्यास्तद्वर्णननिषेधार्थ भैम्याः स्वमुखेऽङ्गुलिदानं तद्गुणाद्भुतादिवेति उत्प्रेक्षितं लोकैरिति भावः / अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः॥३१॥ इस ( सरस्वतीके ऐसा ( 11 / 24-30 ) वर्णन करने ) के बाद मानो उस ( महेन्द्राधिपति ) रानाके गुणसे उत्पन्न आश्चर्यसे अपने मुखरूपी कमलपर अङ्गुलिरूपी कमलनाल स्थापित की हुई तथा चातुर्यपूर्ण चेष्टावाली उस दमयन्ती ने 'मुख बन्द कर लो' ऐसा उस सरस्वती देवीसे कहा। [ लोकमें भो आश्चर्यित या किसीको चुप रहने के लिए सङ्केत करनेवाला व्यक्ति मुखपर अङ्गुलि रखता है, अत एव दमयन्तीका वैसा करना सरस्वतीके लिए 'बहुत गुणवाले इस राजाके गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता, अतः चुप रहो' ऐसा सङ्केत हुआ तथा दर्शकों के लिए इस राजाके अधिक गुणोंसे दमयन्तीका आश्चर्यित होना सुचित हुआ। कमलमें नालका होना उचित ही है। उक्त सङ्केतसे सरवस्ती देवीको चुप होनेका सङ्केत कर दमयन्तीने उस महेन्द्र के राजामें अपनी अरुचि प्रकट की ] // 31 // अनन्तरं तामवदन्नृपान्तरं तदध्वहक्तारतरङ्गारिङ्गणा / तृणीभवत्पुष्पशरं सरस्वती स्वतीव्रतेजःपरिभूतभूतलम् / / 32 / / अनन्तरमिति / अनन्तरं तद्वर्णननिषेधावगत्यनन्तरं सरस्वती तस्य नृपान्तरस्य अध्वनि दिशि, दृशोः तारतरङ्गरिङ्गणा नयनव्यापारप्रौढोमिरचना यस्याः सा सती, नृपान्तरं दृशा निर्दिशन्तीत्यर्थः, तां दमयन्तीं तृणीभवन् पुष्पशरो यस्य तं तृणीकृत. मन्मथं, स्वस्य तीव्रण तेजसा परिभूतं भूतलं येन तं, नृपान्तरम् अन्यं नृपं लक्षीकृत्य इति शेषः, अवदत् / अविसमानार्थकत्वात् द्विकर्मकत्वम् // 32 // इस ( मन्दरस्वामीमें दमयन्ती के अनिच्छा प्रकट करने ) के बाद उस (दूसरे राजा) की ओर नेत्रसे सङ्केत करती हुई सरस्वती ( शरीर-शोभासे ) तृण ( के समान अतिशय हीन ) होते हुए कामदेववाले तथा अपने तीव्र तेजसे भूतलको तिरस्कृत किये हुए दूसरे राजाको लक्षितकर उस ( दमयन्ती ) से बोली / / 32 / / ___ तदेव किन्नु क्रियते न ? का क्षतिः ? यदेष तद्रूतमुखेन काङ्क्षति | प्रसीद काञ्चीमयमाच्छिनत्तु ते प्रसह्य काञ्चीपुरभूपुरन्दरः / / 33 / / तदिति हे भैमि ! एष काञ्चीपुरभूपुरन्दरः काञ्चीनगरालङ्कृतदेशाधीश्वरः, तस्य त्वां प्रति प्रेषितस्य, दूतस्य मखेन यत् त्वद्वरणादिकं, काति, तत् काक्षित. मेव, किं नु कथं, न क्रियते ? त्वयेति शेषः, अपि तु कर्त्तव्यमेव तदित्यर्थः, का क्षतिः ? तत्करणे तव का हानिः ? प्रत्युत श्रेय एवेति भावः; अथ तत्कालिनतमेव विज्ञापयति, अयं काञ्चीपतिः, ते नवसङ्गमे लज्जितायाः तव इति भावः, काञ्ची वसनबन्धदाया) ईबद्धा मेखला, प्रसह्य बलात् , आच्छिनत्तु आच्छिद्य गृह्णातु, 1. 'किन्न क्रियते नु' इति पा० /
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________________ द्वादशः सर्गः। 721 काञ्चीपतेः बलपूर्वकं काञ्चीग्रहणस्य उचितत्वादिति भावः, अत एव प्रसीद प्रसन्ना भव, अनुमन्यस्वेत्यर्थः // 33 // वही क्यों नहीं करती हो ? जो यह उस (पहले भेजे हुए ) दूतके मुखसे चाहता है, क्या हानि है ? अर्थात् कोई हानि नहीं, अपितु लाभ ही है। प्रसन्न होवो ( इसे वरण करो, जिससे ) यह काञ्चीपुरीका राजा तुम्हारी काञ्ची ( करधनी ) को ( रतिकालमें ) ढीला करे ( अथवा-अधीरताके कारण गांठ खोलनेके विलम्बको नहीं सह सकनेसे तोड़े) [काञ्चीपतिका 'काञ्ची' पर पूर्णाधिकार होनेसे वैसा करना उचित ही है ] // 33 // मयि स्थितिर्नम्रतयैव लभ्यते दिरोध तु स्तब्धतया विलङ्घयते / इतीव चापं दधदाशुगं क्षिपन्नयं नयं सम्यगुपादिशद् द्विषः // 34 // मयीति / अयं काञ्चीपतिः, चापं दधत् आशुगं बाणं, क्षिपन् सन् द्विषः शत्रून् , मयि मत्समीपे, नम्रतयैव अवनत्या एव प्रणत्या च, स्थितिः अवस्थानं, स्वराज्ये प्रतिष्ठा इत्यर्थः, लभ्यते, स्तब्धतया अनम्रतया तु, दिगेव विलङ्घयते अतिक्रम्यते, स्वराज्यं त्यक्त्वा दिगन्तरं गम्यते इत्यर्थः, इति नयं नीति, सम्यक उपादिशदिव, ब्रुव्यर्थत्वात् द्विकर्मकः, उभयत्रापि युष्माभिरिति शेषः / धनुर्बाणदृष्टान्तेन द्विषां नम्रत्वे स्वराज्ये स्थितिः, अन्यथा स्वराज्यं त्यक्त्वा दिगन्तरगमनमिति वचनं विनैवोपादिशदिवेत्युत्प्रेक्षा // 34 // मुझमें अर्थात् मेरे पासमें नम्रभावसे ही स्थिति ( अपने राज्यमें निवास ) हो सकती है, स्तब्धता ( कठोरता-नहीं झुकने ) से दिशा ही लांघनी पड़ेगी धनुषको धारण करते हुए और बाणको फेकते हुए इस ( काञ्चीपुरोनरेश ) ने शत्रुओंको मानो नीतिका उपदेश दिया / [जिस प्रकार मैं झुकनेवाले धनुषको अपने पास रखता तथा कठोर होनेबाले बाणको दिशाके अन्त अर्थात् बहुत दूर तक फेक देता हूं, उसी प्रकार जो राजा मेरे सामने नम्र होगा ( प्रणामकर मेरी आज्ञा मानेगा), वही अपने राज्यमें ठहर सकेगा और जो कठोर होगा ( अकड़ दिखायेगा ) उसे मैं दिशाके अन्तमें फेंक दूंगा अर्थात् कहीं शरण नहीं मिलनेसे उसे दिगन्तमें ( बहुत दूर ) भागना पड़ेगा, ऐसी अपनी नीतिको, यह काञ्चीपुरीका राजा नम्र धनुषको पासमें रखना तथा स्तब्ध रहनेवाले बाणको सुदूर फेंकता हुआ शत्रुओंको उपदेश-सा दिया है ] // 34 // अदःसमित्सम्मुखवीरयौवतत्रुटभुजाकम्बुमृणालहारिणी / द्विषद्गणस्त्रैणहगम्बुनिम रे यशोमरालावलिरस्य खेलति // 35 // अद इति / अस्य काञ्चीपतेः, यशसामेव मरालानां हंसानाम् , आवलिः श्रेणी, अमुष्य भूपतेः, समित्सु युद्धेषु, सम्मुखानां वीराणां यानि यौवतानि युवतीसमूहाः, 'गार्भिणं यौवतं गणे' इत्यमरः / 'भिक्षादिभ्योऽण्' इति युवतिशब्दस्य भिक्षादिपाठात् समूहार्थेऽण-प्रत्ययः, 'भस्याढे तद्धिते' इति पुंवद्भावश्च, तेषां वैधव्यवशात् त्रुट्यन्ति
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________________ 722 नैषधमहाकाव्यम् / भ्रश्यन्ति, भुजाभ्यः यानि कम्बूनि शङ्खवलयानि, 'शङ्खः स्यात् कम्बुरस्त्रियाम्' इत्यमरः, तान्येव मृणालानि तानि हरतीति तद्धारिणी सती द्विषद्गणस्य तदीयारिवर्गस्य, स्त्रैणे स्त्रीसम्बन्धिनि, गम्बुनिझरे नेत्रजलप्रवाहे, खेलति क्रीडति / 'स्त्रीणां पुंसाञ्च यत्किञ्चित् स्त्रैणं पौंस्नमिति क्रमात्' इति कोषः। 'स्त्रीपुंसाभ्यां नस्नी भवनात्' इति नङ् / रूपकालङ्कारः // 35 // ___ इस ( काञ्चीनरेश ) के युद्धके संमुख आये हुए वीरोंकी स्त्रियों के समूहके ( पतियों के मारे जानेसे विधवा होनेके कारण) टूटते हुए भुजाओंके शजवलयरूप मृणाल को हरण ( नष्ट-दूर ) करनेवाली इस राजाकी कीर्तिरूपी मरालपति शत्रुसमूहके स्त्रीसमुदायके आँसुओंके ( या आँसूरूपी) झरने में कीड़ा करती है। [ जिस प्रकार हंसपङ्क्ति मृणालको खाकर नष्ट तथा झरनेमें क्रीड़ा करती है, उसी प्रकार इस राजाकी कीर्ति युद्ध में शत्रुओंको मारकर उनकी विधवा स्त्रियोंको बाहुभूषण-शङ्खवलयको नष्ट (दूर ) करती तथा उन्हें रुलाकर आँसुओंका निरन्तरप्रवाह झरनेके समान बवाती है, यह राजा महायशस्वी है, अत एव इसका वरण करो] // 35 // सिन्दूरद्युतिमुग्धवृद्धान वृतस्कन्धावधिश्यामिक व्योमान्तःस्पृशि सिन्धुरेऽस्य समरारम्भोद्धरे धावति | जानीमोऽनु यदि प्रदोपतिमिरव्यामिश्रसन्ध्याधियेवास्तं यान्ति समस्त बाहुजमुजातेजःसहस्रांशवः // 36 // सिन्दुरेति / सिन्दूरं 'सिन्दूरं नागसम्भवम्' इत्यमरः। तस्य धुतिभिः मुग्धमूर्धनि सुन्दरमस्तके, धृता स्कन्धोऽवधिः यस्याः सा श्यामिका येन तस्मिन् , स्कन्धपर्यन्तश्यामले तत उपरि सिन्दूरारुणे इत्यर्थः, व्योमान्तःस्पृशि उच्चतया अभ्रङ्कषे, अस्य काञ्चीपतेः, सिन्धुरे गजे, समरारम्भेषु उधुरे निर्भरे, अनर्गले इत्यर्थः, 'ऋकपूरब्धः-' इत्यादिना समासान्तः, धावति अभिमुखागते सति, अनु अनन्तरं, समस्तबाहुजानां समस्तक्षत्रियाणां, भुजातेजांसि भुजप्रतापा एव, सहस्रांशवः सूर्याः, प्रदोषतिमिरेण सह व्यामिश्रसन्ध्यायाः मिलितसन्ध्यायाः, धिया बुद्धया एव, भ्रान्त्या एव इत्यर्थः, अस्तं यान्ति इति जानीमः यदि, यदि शब्दः सम्भावनायां, श्यामारुणसिन्धुरे तिमिरमिश्रसन्ध्याभ्रान्त्यैव ते अस्तं यान्ति इति सम्भावयामः किम् ? इति उत्प्रेक्षालङ्कारः // 36 // सिन्दूर की ( पक्षा०-सिन्दूरके समान, अरुण वर्ण) कान्तिसे मनोहर मस्तकवाले, स्कन्धतक काले वर्णवाले और आकाशस्पर्शी अर्थात् अत्यन्तविशालकाय, इस ( 'काञ्ची' नरेश ) के समरके प्रारम्भमें तत्पर ( या निर्भय ) हाथीके दौड़ते रहने पर यदि सम्पूर्ण क्षत्रियोंके बाहु ( से उत्पन्न ) तेजोरूप सूर्य अस्त अर्थात् नष्ट होते ( पक्षा०-अस्ताचलको जाते ) हैं तो हम जानते हैं कि वे सायङ्कालके अन्धकारसे युक्त सन्ध्याके भ्रमसे अस्त (नष्ट )
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________________ द्वादशः सर्गः। 723 होते ( पक्षा०-अस्ताचलको जाते ) हैं। [ सायङ्कालमें अरुण वर्णसे मिश्रित अन्धकार फैलने पर सूर्य अस्त हो जाता है; प्रकृतमें इस राजाके हाथियों के मस्तकमें सिन्दूर लगा है, बहुत बड़े-बड़े तथा काले हाथी युद्धारम्भमें दौड़ने लगते हैं तो सम्पूर्ण राजाओं के बाहुजन्य तेज नष्ट हो जाते हैं-वे राजा उक्तरूप हाथियोंको देखकर युद्धभूभिसे भाग जाते या इस राजाके शरणमें आ जाते हैं ] // 36 // हित्वा दैत्यरिपोरुरः स्वभवनं शून्यत्वदोषस्फुटासीदन्मर्कटकीटकृत्रिमसितच्छत्रीभवत्कौस्तुभम् | उज्झित्वा निजसद्म पद्ममपि तद्व्यक्तावनद्धीकृतं लूतातन्तुभिरन्तरध भुजयोः श्रीरस्य विश्राम्यति // 37 / / हित्येति / श्री लक्ष्मीः, स्वभवनं निजनिवासं, दैत्यरिपोः विष्णोः, उरः शून्यत्व. दोपेण लक्ष्म्यास्त्यागजन्यरिक्ततादोषेण, स्फुटमासीदन्तः प्रत्यासीदन्तः, ये मर्कटकीटा स्तन्तुवायकीटाः, 'लुता स्त्री तन्तुवायोर्णनाममर्कटकाः समाः' इत्यमरः, तेषां सम्बन्धि यत् कृत्रिमसितच्छत्रं सितच्छ्त्राकारं लुतातन्तुवितानमण्डलं, तथाभवन् तद्पीभवन् , कौस्तुभः तदाख्यो मणिः यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा हित्वा, निजसन नित्यनिवासभवनं, तत् प्रसिद्धं, पद्ममपि लूतातन्तुभिः व्यक्तम् अवनद्धीकृतं बद्धं यथा तथा, उज्झित्वा अद्य सम्प्रति, अस्य भुजयोरन्तर्विश्राम्यति / अत्रकस्याः श्रियः क्रमेणानेकाधारवृत्त्युक्त्या पर्यायालङ्कारभेदः, तेनैव तद्भुजयोः श्रीरञ्जने विष्णूरःपद्माभ्यामप्यधिकं वस्तु व्यज्यते // 37 // ____ आज लक्ष्मी-शून्य (लक्ष्मी-रहित ) होनेसे स्पष्ट रूपसे स्थिर होते हुए मकड़ीके जालेके बने श्वेतच्छत्रके समान कौस्तुभ मणिवाले विष्णुके हृदय तथा मकड़ियों के जालोसे स्पष्टरूपसे बँधे हुए कमल-इन दोनों अपने घरों (निवासस्थानों) को छोड़कर इस 'काश्चीपति' के बाहुद्वयमें विश्रामकर रही हैं / [ लक्ष्मोके रहने के दो स्थान प्रसिद्ध हैं-एक विष्णुका हृदय तथा दूसरा कमल; किन्तु अतिशय दूरस्थ तथा भिन्न-भिन्न स्थानों में निवास करनेमें अधिक प्रयास होने के कारण लक्ष्मीने उन दोनों स्थानोंको छोड़कर आज इस काञ्चीनरेशके बाहुद्वयमें विश्राम ( सुखपूर्वक निवास ) कर रही है। उन दोनों पूर्व निवासस्थानोंमें-से प्रथम विष्णुका वक्षःस्थल लक्ष्मीरहित होनेसे मकड़ीके जालेके बने सफेद छातेसे कौस्तुभ मणिवाला है तथा द्वितीय कमल मकड़ी के जालोंसे स्पष्ट ही व्याप्त हो रहा है / जिस स्थानको वहांका रहनेवाला छोड़कर चला जाता है वह मकड़ीके जालोंसे भर जाता है यह अनुभव सिद्ध बात है। प्रकृतमें लक्ष्मीने विष्णुके हृदयरूप अपने प्रथम निवासस्थानको छोड़ दिया, अत एव वहाँ कौस्तुभमणिके किरण श्वेतच्छत्राकार हो रहे हैं उन्हें मकड़ीका जाला माना गया है तथा द्वितीय निवासस्थान कमलको लक्ष्मीने छोड़ दिया है वहां कमल में प्राकृतिक रूपसे रहनेवाले तन्तुको मकड़ीका जाला माना गया है। विष्णुके हृदय
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________________ 724 नैषधमहाकाव्यम् / तथा कमलका लक्ष्मी द्वारा त्याग करनेसे इस राजाका महाप्रतापी होना व्यक्तकर सरस्वती देवीने दमयन्तीसे उसका वरण करनेका सङ्केत किया है ] // 37 // सिन्धोर्जेत्रमयं पवित्रमसृजत्तत्कीर्तिपूर्ताद्भुतं यत्र स्नान्ति जगन्ति सन्ति कवयः के वा न वाचंयमाः ? | यद्विन्दुश्रियमिन्दुरञ्चति जलञ्चाविश्य दृश्येतरो यस्यासौ जलदेवतास्फटिकभूर्जागर्ति यागेश्वरः / / 3 / / सिन्धोरिति / अयं काञ्चीपतिः, सिन्धोरब्धेः जैत्रं जेतृ, जयशीलमित्यर्थः, ततोऽ. प्यधिकमिति भावः, जेतृशब्दात् तृन्नन्तात् प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽग्-प्रत्ययः, पवित्रं पावनं, तत्तथा प्रसिद्धं, कीर्त्तिरेव पूतं खातं, 'न पृध्याख्यामूर्छिमदाम्' इति निष्ठातस्य नत्वप्रतिषेधः तदेवाद्भुतमसृजत् , यत्र पूत, जगन्ति लोकाः, स्नान्ति, यत्र यस्मिन् विषये, के वा कवयः कवयितारः, वाचं गच्छन्तीति वाचंयमाः निरुद्धवाचः, न सन्ति ? सर्वेऽपि मौनिनो भवन्ति वर्गयितुमशक्यत्वादित्यर्थः 'वाचि यमो व्रते' इति खच-प्रत्ययः। 'वाचंयमपुरन्दरी च' इति निपात नान्नुमागमः, इन्दुः यस्य पूर्तस्य, बिन्दुश्रियमञ्चति प्राप्नोति, तदपेक्षया अल्पत्वात् इन्दुः यदीयो बिन्दुरिवेति भावः, असौ इन्दुः, यस्य जलञ्चाविश्य दृश्येतरः सावाददृश्यः, जलदेवता आप्यशरीरदेवताविशेषश्चासौ स्फटिकाद्भवतीति स्फटिकभूः स्फटिकोद्भवः, यागेश्वरः सन् जागर्ति; स्फटिकलिङ्गे यागेश्वर इति प्रसिद्धिः // 38 // यह ( काञ्चीनरेश ) समुद्रको जीतनेवाला तथा पवित्र कीर्तिरूपी जो तडाग-तद्रूप आश्चर्यका निर्माण किया, जिस ( कीर्तिरूपी तडाग ) में संसार स्नान करते ( श्वेत होते ) हैं और कौन कवि ( वर्णन करने में असमर्थ होनेसे ) मौन नहीं होते अर्थात् सभी मौन हो जाते हैं ( अथवा-जिसके जलमें पक्षी तथा कौन से तपस्वी नहीं है अर्थात् उस कीर्तिरूपी तडागमें सभी पक्षी तथा तपस्वी हैं ), चन्द्र जिस ( कीर्तिरूपी तडाग) की बूंदकी शोभाको पाता है, यह ( चन्द्र ) जल में प्रवेशकर अदृश्य होकर ( जलमें प्रवेश किये हुएका ( अथवा कीर्ति तथा चन्द्रका समान वर्ण होनेसे कीर्ति तडागमें चन्द्रका) अदृश्य हो जाना उचित ही है ) जलदेवता ही स्फुरित होता है और स्फटिक-रचित यागेश्वर (शिवविशेष ) ही स्फुरित होता है / ( अथवा-जिस कीर्ति-तडागकी विन्दुशोभाको चन्द्र प्राप्त करता है अर्थात् बिन्दु ही चन्द्र है। अथवा-जलमें प्रवेशकर अदृश्य होकर स्फटिक भूमिवाला ( कैलाश ) ही ( स्फटिककृत ) यागेश्वररूप जलदेवता ही स्फुरित होता है ( जलके भीतर दृबनेपर स्फटिक दिखलाई नहीं पड़ता, अतः स्फटिक भूमिवाले कैलासका भी दिखलायी नहीं पड़ना उचित ही है, यागेश्वर स्फटिकके हैं ऐसा शास्त्रवचन है)। अथवा-जलमें प्रवेशकर चन्द्र ही स्फटिक निर्मित जलदेवता यागेश्वर ही स्फुरित होता है। अथवायह ( प्रसिद्ध नाम ) जलदेवता स्फुरित होती है जो स्फटिक भूमिवाला अगेश्वर (पर्वतराज
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________________ 725 द्वादशः सर्गः। अर्थात् केलास है ) / [ 'समुद्रं पर्वणि स्पृशेत्' अर्थात् 'समुद्रका स्पर्श पर्वदिनमें करे' इस शास्त्रीय वचनके अनुसार समुद्र पर्वातिरिक्त दिनोंमें अपवित्र तथा इस राजाका कीर्तितडाग सदा पवित्र है, समुद्र में पृथ्वीपर निवास करनेवाले कुछ ही अर्थात् समुद्रतटवासी या वहां जानेका प्रयास करनेवाले ही व्यक्ति स्नान कर सकते हैं, किन्तु इस राजाके कीर्तितडागके सर्वत्र व्याप्त होनेसे लोकत्रयके निवासी अनायास ही स्नान करते हैं, समुद्रका वर्णन शक्य है और इसके कीर्तितडागका वर्णन अशक्य है, समुद्रसे एक ही चन्द्र निकलता है और इसके कीर्तितडागमें प्रत्येक बिन्दु चन्द्र है, समुद्रमें श्यामवर्ण श्रीविष्णुरूप जलदेवता सुप्त रहते हैं, इसके कीर्तितडागमें श्वेतवर्ण यागेश्वररूप जलदेवता जागते रहते हैं; अतएव समुद्र की अपेक्षा इस काशीनरेशका बनाया गया कीर्तितडाग उत्तम तथा आश्चर्यजनक है। ऐसा कीर्तिमान् कोई नहीं है, अत एव इसको वरण करो ] // 38 // अन्तःसन्तोषबाष्पैः स्थगयति न शस्ताभिराकर्णयिष्यन नाङ्गेनानस्तिलोमाऽऽरचयति पुलकश्रेणिमानन्दकन्दाम् / न क्षोणीभङ्गभीरुः कल यति च शिरःकम्पनं तन्त्र विद्मः शृण्वन्नेतस्य कीत्तीः कथमुरगपतिः प्रीतिमाविष्करोति ? // 3 // अन्तरिति / एतस्य राज्ञः, कीर्तीः शृण्वन् उरगपतिः शेषः, ताभिः दृग्भिः; आकणयिष्यन् श्रोष्यन् , अत एवान्तःसन्तोषबाष्पैः दृशः न स्थगयति नाच्छादयति, अन्यथा चक्षुःश्रवसोऽस्य रूपग्रहणवच्छब्दग्रहणस्यापि तैः प्रतिबन्धसम्भवादिति भावः; यतः सः अङ्गेन वपुषा, 'येनाङ्गविकारः' इति तृतीया, अङ्गेनेति पाठे-यतः सः अङ्ग वपुषि; अस्तिलोमा न भवतीति अनस्तिलोमा अविद्यमानलोमा; अस्तीत्यव्ययं विद्यमानपर्यायः, तस्य सम्बन्धि अस्तिक्षीरादिवचनात् बहुव्रीहिः, अत एव आनन्दकन्दाम आनन्द एव कन्दो मूलं यस्याः ताम् आनन्दजनितां, पुलकश्रेणिं न आरचयति, तथा क्षोणीभङ्गभीरुः पृथिवीपतनभीतः, शिरःकम्पनञ्च, सन्तोषसूचकमिति भावः, न कलयति, तत्तस्मात् , कथं केन प्रकारेण,प्रीतिमाविष्करोति ? उरगपतिरिति शेषः, इति न विद्मः, वाक्यार्थः कर्म // 39 // इस ( काञ्चीनरेश ) की कीर्तियोंको सुनते हुए शेषनाग हार्दिक सन्तोषजन्य अश्रुओंसे नेत्रोंको नहीं बन्द करते, क्योंकि उन्हीं ( नेत्रों ) से कीर्तियोंको सुनना है; रोमरहित वे शरीर में आनन्दाङ्कुररूप रोमाञ्च-समूहको नहीं धारण करते और पृथ्वीके गिरनेसे भयभीत वे शिरको नहीं पाते; अत एव वे किस प्रकार अपना प्रेम प्रकट करते हैं यह हम नहीं जानते / [ हर्षाश्रु-रोमाञ्च तथा शिरःकम्पन-ये तीन चिह्न हर्ष-सूचक हैं, किन्तु सर्पोको कान नहीं होता, वे नेत्रसे ही सुनते भी हैं, कर्णरहित नेत्रसे सुननेवाले शेषनाग इसकी कीर्तिको सुननेके लोभसे नेत्रोंसे आंसू नहीं गिराते, सर्वशरीर रोमरहित होता है अतः वे 1. 'नङ्गे तानस्तिरोमा रचयति' इति० पा० /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / रोमाञ्च नहीं धारण करते और मस्तकपर पृथ्वी रखे हुए वे भूमिके गिरनेके भयसे मस्तक भी नहीं कँपाते, इस प्रकार हर्षसूचक तीनों चिह्नों के न कर सकनेके कारण वे . शेषनाग इस राजाकी कीर्ति सुनकर किस प्रकार हर्ष प्रकट करते हैं सो हम नहीं समझ पाते ] // 39 / / आचूडाग्रममज्जयज्जयपटुर्यच्छल्यकाण्डानयं संरम्भे रिपुराजकुञ्जरघटाकुम्भस्थलेषु स्थिरान् / सा सेवाऽस्य पृथुः प्रसीदास तया नास्मै कुतस्त्वत्कुचस्पर्धागद्धिषु तेषु तान् धृतवते दण्डान प्रचण्डानपि ? / / 4 / / आचूडेति / जये पटुः समर्थः, अयं राजा, संरम्भे सङ्ग्रामे, रिपुराजकुञ्जरघटानां प्रतिपक्षभूपहस्तिसमूहानां, कुम्भस्थलेषु स्थिरान् दृढान् , शल्यकाण्डान् शरकाण्डान्, आचूडानम् आपुङ्खमुखम् , अमजयत् निखालवान् , इति यत् सा अस्य राज्ञः कत्त:, पृथुमहती, सेवा, तवेति शेषः; तया सेक्या, त्वचाभ्यां सह स्पर्द्धादिषु सादृश्यात् सत्सरगृधनुषु, तेषु कुञ्जरकुम्भेषु अपराधिषु, प्रचण्डान् उग्रान् , तान् दण्डान् त. वतेऽपि अम्प्नै राजशे, कुतो न प्रसीदसि ? एनं वृणीष्व इति भावः / / 40 // युद्ध में विजय चतुर इस ( का चीनरेश ) ने शत्रु राजाओं के हाथियों के समूहके ( मरत. कस्थ ) कुम्भस्थलमें स्थिर वाणरूप दण्डोंको जो पुवाग्रतक भग्नकर (घुसा ) दिया, वह इस ( काञ्चीनरेश ) की ( तुम्हारे लिए की गयी ) बड़ी सेवा है, उस (सेवा ) से तुम्हारे स्तनोंके साथ स्पर्द्धा करनेमें लोभी अर्थात् अधिक स्पर्धा करने वाले उन (कुम्भस्थलों) में प्रचण्ड दण्डोंको धारण करते ( कठोर दण्ड देते ) हुए इस ( काञ्चीनरेश) के लिये तुम क्यों नहीं प्रसन्न होती हो ? अर्थात् तुम्हें प्रसन्न होना चाहिये। [लोकमें भी प्रतिरकी व्यक्तिको दण्डित करनेवाले व्यक्तिपर प्रसन्नता होती है / यह काञ्चीनरेश महाशूर है, अतः इसका वरण करो // 40 / / स्मितश्रिया सक्कणि नीयमानया वितीर्णया तद्गुणशर्मणेव सा / उपाहसत कीर्त्यमहत्त्वमेव तं गिरां हि पारे निषधेन्द्रवैभवम् / / 11 / / स्मितेति / सा भमी तस्य काञ्चीपतेः, गुणशर्मणा 'इव गुणश्रवणजन्यसुखेनेव, वस्तुतस्तु अनादरादिति भावः; वितीर्णया विसृष्टया, सृक्वणि अधराञ्चले, लीयमानया सङ्कचन्त्या, स्मितश्रिया मन्दहासप्रभया, कीयं वर्णयितुं शक्यं, महत्त्वं यस्य तमेव वाच्यमानमहत्त्वमेव, तं काञ्चीपतिम् , उपाहसत् उपहसितवती; हि यतः, निषधेन्द्र. वैभवं नलमाहात्म्यम् , गिरा पारे वागविषयो न भवतीत्यर्थः; नलमाहात्म्यं वर्णनातीतम् अस्य तु वर्णनासाध्यम् , अतो नलापेक्षया न्यूनत्वात् तमुपहसितवतीति भावः / अत्र नलानुरागाख्येन कारणेन एतदपरागरूपकार्यसमर्थनात् तद्रपार्थान्तरन्यासः॥ ___वह दमयन्ती मानो उस ( काञ्चीनरेश ) के गुणोंके ( सुननेसे उत्पन्न ) सुखसे की गयी तथा ओष्ठप्रान्तमें लीन होती हुई स्मित-शोभासे वर्णनीय महत्त्ववाले उस ( काञ्चीनरेश )
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________________ द्वादशः सर्गः। 727 कोसी अर्थात् उसका उपहास किया; क्योंकि निषधराज ( नल ) का ऐश्वर्य वचनातीत (नहीं वर्णन कर सकने योग्य) है / [वर्णनमें अशक्य ऐश्वर्यवाले निषधराज नलसे वर्णन किये जा सकनेवाले इस काञ्चीनरेशके हीन होनेके कारण सरस्वती-वर्णित काञ्चीनरेशका दमयन्तीने उपहास कर दिया] // 41 // निजाक्षिलक्ष्मीसितैणशावकामसावभाणीदपरं परन्तपम् / पुरवं तदिग्वलयश्रियो भुवा भ्रवा विनिर्दिश्य सभासभाजितम् // 42 // निजेति / असौ सरस्वती, सभासु सभाजितं पूजितं, परन्तपं रिपुतापकं, 'द्विषस्परयोस्तापेः' इति खच प्रत्ययः, 'खचि हस्वः' इति ह्रस्वः, 'अरुद्विषदजन्तस्य-'इति सुम् , अपरमन्यं नृपं, पुरेव पूर्ववत् , तस्य राज्ञः, दिशो वलये या श्रीः तस्या भुवा स्थानेन, तहिग्वलितयेत्यर्थः, भ्रवा दृशः ऊर्वावयवेन, ' ऊर्ध्व दृग्भ्यां भ्रवौ स्त्रियो' इत्यमरः, विनिर्दिश्य निजाक्षिलक्ष्म्या स्वनेत्रशोभया,हसितैणशावकाम् उपहसितमृ. गशाककां,विशालतया अधाकृतमृगाक्षीमित्यर्थः, भैमीमिति शेषः, अभाणीत् बभाण // वह सरस्वती देवी पहलेके समान (पाठा०-पहले ही) उस ( दिखाये जानेवाले राजा) की ओर सञ्चालित भ्रूसे सभामें श्रेष्ठ एवं शत्रुको सन्तप्त करनेवाले दूसरे राजाको निर्देश करके अपने नेत्रोंकी शोभासे मृगके बच्चे ( की आंख ) को हँसनेवाली अर्थात् मृगके बच्चेके नेत्रोंसे सुन्दर नेत्रवाली उस ( दमयन्ती ) से बोली // 42 // कपा नृपाणामुपरि कचिन्न ते नतेन हाहा.शिरसा रसादृशाम् / भवन्तु तावत्तव लोचनाञ्चला निपेयनेपालनृपालपालयः // 43 // कपेति / हे भैमि ! नतेन अवनतेन, शिरसा रसां भुवं पश्यन्तीति तेषां रसाहशाम् अधःपश्यतां, त्वत्कृतप्रत्याख्यातात् लज्जया अधोमखानामित्यर्थः, नृपाणामपरि ते तव, कचित् कुत्रापि, कृपा न, हाहेति खेदे तव लोचनाञ्चलाः कटाक्षाः, निया ग्राह्या, नेपालनृपालस्य नेपालभूपतेः, पालिः कोटिः, तदिग्भाग इत्यर्थः, येषां तादृशाः, तावत साकल्येन, सर्वथा इत्यर्थः, भवन्तु, कटाक्षदृष्टया तं पश्येत्यर्थः स्त्रियां पाल्य. शिकोटयः' इत्यमरः॥४३॥ ( तुम्हारे द्वारा वरण न किये जाने पर लज्जित एवं ) नतमस्तक होकर पृथ्वीको देखनेवाले किसी राजाके ऊपर तुम्हारी कृपा नहीं है हाय ! हाय !! अर्थात् महान् कष्ट है ( किसीको ) तुम नहीं देखती .यह उचित नहीं है। अस्तु, फिर भी तुम्हारे नेत्रप्रान्त ( कटाक्ष ) अत्यन्त पान करनेयोग्य नेपाल नरेशके पान करनेवाले भ्रमर हों अर्थात् तुम कटाक्षसे नेपाल नरेशको देखो // 43 // ऋजुत्वमौनश्रुतिपारगामिता यदीय सन्ति परं विहिंसितुम् | अतीव विश्वासविधायि चेष्टितं बहुमहानस्य स दाम्भिकः शरः // 44 // 1. 'पुरैव' इति पाठः। 2. 'यदीयमेतत्परमेव हिंसितुम्' इति पा०।
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________________ 728 नैषधमहाकाव्यम् | ऋजुत्वेति / यदीयके शरे, ऋजुत्वम् अवक्रता परच्छन्दानुकूलता च, मौनं निः शब्दता वाचंयमत्वञ्च, श्रुतिपारगामिता कर्णान्तगामित्वं वेदपारगत्वञ्च. ताः सन्ति, तथा परं शत्रुम् अन्यञ्च, विहिसितुं हन्तुम् अनपकत्त च, अतीव अत्यन्तं, विश्वासं विगतश्वासं, विगतासून इत्यर्थः, अथ च विश्वासं प्रत्ययं, विधत्ते इति विश्वासवि. धायि, चेष्टितं चरित्रम् , अस्ति, अस्य राज्ञः, बहुरनेकः, जातावेकवचनम् ,महानधिका अतिदीर्घश्च, दम्भः कपटं प्रयोजनमस्येति दाम्भिको लोकवञ्चकः, स तादृग्गुणविशिष्टः, गरः, अस्तीति शेषः, 'कपटोऽस्त्री व्याजदम्भो-' इत्यमरः, दाम्भिकेन यद्यत् क्रियते एतस्य शरेण तत्तत् क्रियते इत्यर्थः / अत्र शरे दाम्भिकत्वोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्म्या॥ जिसका सीधा रहना ध्वनिहीन होना, कानके पार तक जाना, अतिशय श्वास-हीन करना अर्थात् मार देना-(पक्षा० क्रमशः-दूसरेके अनुकूल रहना, चुप रहना, वेदपारगामी होना, अतिशय विश्वासयोग्य होना ) चेष्टा शत्रु (पक्षा०--दूसरे ) को मारने ( पक्षा०-अपकार करने ) के लिए ही है, वह इस 'काश्चीनरेश' का बाण अनेक ( बहुत पक्षा०-महान् ) दाम्भिक अर्थात् कपटपटु है। [जिस प्रकार लोकवञ्चक कपटी व्यक्ति ऊपरसे तो दूसरेके अनुकूल, मौन, वेदज्ञाता तथा विश्वास योग्य होकर दूसरे अनुपकार करनेके लिये होता है; उसी प्रकार इसका शत्रुवञ्चक कपटी बाण सीधा, ध्वनिरहित, बैंचने पर कानके पार तक पहुँचानेवाला तथा महाहिंसक शत्रुको मारने के लिये ही हैं] ||144 / / रिपूनवाप्यापि गतोऽवकीणितामयं न यावज्जन अनव्रती। भृशं विरक्तानपि रक्तवत्तरान् निकृत्य यत्तानसृजाऽसृजद्यधि // 45|| रिपूनिति / यावज्जनानां सकलजनानां, रञ्जनमेव व्रतमस्यास्तीति तद्वती, सर्वधन्वीतिवदिन्नन्तो बहुव्रीहिः, अयं नेपालभूपः, रिपून् अवाप्य प्राप्य अपि, अवकीर्णितां क्षतव्रतत्वं, न गतः, कुतः ? यत् यस्मात् , भृशं विरक्तान् प्रतिपक्षनृपे विद्वेषसम्पन्नान् , अथवा युद्धकाले स्वशरीरादिरक्षणविषयेऽननुरक्तानपि, अथ च एनं दृष्ट्वा भयात् विगतरुधिरानपि, रिपून् , शत्रून् , युधि समरे, निकृत्य छित्वा, कृन्ततेः क्त्वो ल्यप् , असृजा रक्तवत्तरान् अतिशयेन रक्तवर्णान् अनुरक्तांश्व, रञ्जः क्तवत्वन्तात्तरप , असृजत् अकरोत् ; रिपूनपि रक्तेन रञ्जयतः कुतोऽपि न रञ्जनव्रतभङ्ग इति भावः // समस्त जनोंको रक्त ( अनुरक्त पक्षा०-रंगयुक्त ) करनेका व्रती यह (नेपालनरेश ) शत्रुओंको प्राप्तकर भी नष्ट व्रतवाला नहीं हुआ, क्योंकि ( इसने ) अत्यन्त विरक्त ( अनुरागरहित, पक्षा०-रंगरहित ) भी उन ( शत्रुओं) को युद्धमें काटकर ( बाणों से मारकर ) रुधिरसे अत्यन्त रक्त ( अनुरक्त, पक्षा०-रंगयुक्त ) कर किया। [ शत्रको भी रक्तरञ्जित करनेसे सम्पूर्ण लोगोंको रञ्जित करनेके व्रतवाले इस नेपालनरेशका व्रत भङ्ग नहीं हुआ। यह नेपालनरेश प्रजानुरञ्जक तथा शत्रुनाशक होनेसे तुम्हारे वरण करने योग्य है ] // 45 //
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________________ (OP द्वादशः सर्गः। पतत्येतत्तेजोहुतभुजि कदाचिद् यदि तदा पतङ्गः स्यादङ्गीकृततमपतङ्गापदुदयः / यशोऽमुष्येवोपार्जयितुमसमर्थन विधिना कथञ्चित् क्षीराम्भोनिधिरपि कृतस्तत्प्रतिनिधिः // 46 / / पततीति / पतङ्गः सूर्यः, एतस्य राज्ञः, तेजोहुतभुजि प्रतापाग्नौ, कदाचित् पतति यदि तदा अङ्गीकृततमो भृशं स्वीकृतः, पतङ्गस्य शलभस्य, आपदुदयः देहदाहात्मकविपत्प्राप्तिः येन तथाभूतः स्यात् शलभताम् इयादित्यर्थः, 'पतङ्गः शलभे साधी मार्जारेऽर्के खगेश्वरे' इति वैजयन्ती, किञ्च अमुष्य राज्ञः, यश उपार्जयितुम् असमर्थनेव विधिना ब्रह्मणा, कथञ्चिदपि, न तु सम्यगिति भावः, तस्य यशसः, प्रतिनिधिः प्रतिरूपकः, क्षीराम्भोनिधिः क्षीरसमुद्रः, कृतः, क्षीरसमुद्रस्तदनुकल्पत्वेन सम्पादित इत्यर्थः; मख्यापेक्षया प्रतिनिधिवस्तुनो न्यूनत्वेन न तु तादृगयशो लब्धमिति भावः। सूर्यादधिकप्रतापः विधेरपि अधिकयशाश्चेति निष्कर्षः // 46 // सूर्य यदि कभी इस ( नेपालनरेश ) के तेजोरूप अग्निमें गिर जाय तो फतिङ्गों के देहदाहरूप आपत्तिको प्राप्त कर ले तथा इसके यशको किसी प्रकार प्राप्त करने में असमर्थ ब्रह्माने उस (यश) का प्रतिनिधि क्षीरसमुद्रको बनाया है ( अथवा-इसके यशको प्राप्त करने में असमर्थ ब्रह्माने उसका प्रतिनिधि क्षीरसमुद्रको किसी प्रकार अर्थात् अतिशय कठिनतासे बनाया है ) ? [ अग्निमें गिरे हुए फतिङ्गों के समान इस राजाके तेजमें गिरे हुए सूर्यका पता भी नहीं चले अर्थात् सूर्य इसके तेजसे अत्यन्त तुच्छ है और इसका यश दुग्धसे भी स्वच्छ है, अथ च एकद्वीपव्यापी क्षीरसमुद्रसे सर्वद्वीपव्यापी इसका यश बहुत बड़ा है। इस नेपालनरेशके प्तताप तथा यश अत्यन्त महान् है, अत एव इसे वरण करो] // 46 // यावत् पौलस्त्यवास्तूभवदुभयहरिल्लोमरेखोत्तरीये सेतुप्रालेयशैलौ चरति नरपतेस्तावदेतस्य कीर्तिः / यावत् प्राक्प्रत्यगाशापरिवृढनगरारम्भणस्तम्भमुद्रा वद्री सन्ध्यापताकारुचिरचितशिखाशोणशोभावुभौ च // 47 // यावदिति / पौलस्त्ययोर्विभीषणवैश्रवणयोः, वास्तूभवन्त्यो वेश्मभूमिभूते, गृहभूते इत्यर्थः, 'वेश्मभूर्वास्तुरस्त्रियाम्' इत्यमरः, उभे च ते हरितौ उभयहरितौ दक्षिणोत्तरदेशावित्यर्थः, 'उभादुदात्तो नित्यम्' इत्यत्र 'पृथग योगकरणादेवायजादेशस्य नित्यत्वे सिद्ध पुनर्नित्यग्रहणं वृत्तिविषये उभशब्दस्थाने उभयशब्दप्रयोगनियमज्ञापनार्थम्' इति कैयटः, तयोर्यथासङ्ख्यं श्यामत्वात् शुभ्रत्वाच्च लोमरेखा लोमराजिः, उत्तरीयञ्च ते सन्तौ सेतुप्रालेयशैली यावत् यावदूरं, स्थिताविति शेषः, किञ्च प्राक्प्रत्यगाशे प्राचीप्रतीच्यौ दिशौ, 'स्त्रियाः पुंवत्-' इत्यादिना पंवद्भावः
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________________ 730 नैषधमहाकाव्यम् / तयोः परिवृढौ प्रभू , इन्द्रावरुणौ इति यावत् , 'प्रभौ परिवृढः' इति निपातः, तयोनगरयोरारम्भणे यौ स्तभौ मूलस्तम्भौ, तयोरिव मुद्रा सन्निवेशो ययोस्तौ स्तम्भसदृशाकारौ इत्यर्थः, सन्ध्ययोरेव सायं-प्रातःसन्ध्यारूपयोःद्वयोः, पताकयोः रुचिभिः रक्तभाभिः, रचितयोः, शिखयोरग्रयोः, शोणशोभा रक्तशोभा ययोः तावुभौ अद्री उदयास्तशैलौ, यावत् यावत्पर्यन्तं, तिष्ठतः इति शेषः, तावत्पर्यन्तम् एतस्य नरपतेः कीर्तिश्चरति चतुर्दिगन्तविश्रान्तकीतिरयमित्यर्थः // 47 // __पुलस्त्य-सन्तान ( रावण तथा कुबेर ) के गृह बनती हुई दोनों (क्रमशः दक्षिण तथा उत्तर ) दिशाओंके ( क्रमशः श्याम तथा श्वेत वर्ण होनेसे ) रोमावलि और दुपट्टारूप रामेश्वर पुल और हिमालय पर्वत जहां तक हैं; तथा पूर्व और पश्चिम दिशाओंके स्वामी (क्रमशः इन्द्र तथा वरुण ) के नगरके आरम्भमें खम्भेके आकृतिवाले अर्थात् खम्भेके समान एवं सन्ध्या ( क्रमशः प्रातःकाल तथा सायंकालकी सन्ध्या ) रूपी पताकाकी कान्तिसे रचित अग्रभागमें रक्तवर्णवाले दोनों पर्वत (क्रमशः उदयाचल तथा अस्ताचल ) जहां तक हैं; वहां तक इस ( नेपालनरेश) की कीर्ति विचरण करती है। [ हिमालयसे रामेश्वर तक तथा उदयाचलसे अस्ताचल तक अर्थात् चारों दिशाओंमें इस राजाकी कीर्ति व्याप्त हो रही है ] // 47 // युद्ध्वा चाभिमुखं रणस्य चरणस्यैवादसीयस्य वा बुद्ध्वाऽन्तः स्वपरान्तरं निपततामुन्मुच्य बाणावलीः / छिन्नं वाऽवनतीभवन्निजभियः खिन्नं भरेणाथवा राज्ञाऽनेन हठाद्विलोठितमभूद् भूमावरीणां शिरः // 48 // युद्ध्वेति / अदसीयस्य अमुष्यायम् अदसीयं तस्यामुष्य सम्बन्धिन इत्यर्थः, अभिमुखं मुखं प्राम्भम् , अभि लक्षीकृत्य इत्यर्थः, रणस्याभिमुखं युद्धप्रारम्भे, वाणावलीः शरसमूहान् , उन्मुच्य युद्धार्थ निःक्षिप्य, युद्ध्वा युद्धं कृत्वा, निपततां निहतानां वा अथवा, अन्तः अन्तःकरणे, स्वस्य आत्मनः, परस्य शत्रोश्च, अन्तरं न्यूनाधिकतया पार्थक्यं, बुद्ध्वा ज्ञात्वा, अदसीयस्य चरणस्येवाभिमुखं बाणावलीरुन्मुच्य त्यक्त्वा, निपततां निरायुधीभूय एतच्चरणसमीपे नम्रीभवतामित्यर्थः, अरीणां शत्रणां, छिन्नं बाणैः कर्तितं सत् , वा अवनतीभवत् भूमौ पतितं सदित्यर्थः, अथवा निजभियः भरेण स्वीयभयातिशयेन, खिन्नं सत् अवनतीभवत् नम्रीभवत् , शिरो मस्तकम् , अनेन राज्ञा हठात् बलात्कारेण, भूमौ विलोठितं पुनः पुनः परावर्तितम् , अभूत्। एतस्य राज्ञः शत्रवो यदि युध्यन्ते तदा नियन्ते एव, अथवा ये शत्रवः विवेचकाः भीरवश्च ते एनमेव शरणं गच्छन्ति तेषां नान्या गतिरिति भावः॥ ___ इस ( नेपाल नरेश ) के युद्ध के सम्मुख लड़कर अपने तथा शत्रु ( इस राजा) के अन्तर ( भेद-न्यूनाधिक वल) को जानकर बाण-समूहों को छोड़कर अर्थात् बाणसमूहोंसे
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________________ द्वादशः सर्गः। 731 प्रहारकर कटे तथा गिरे हुए शत्रुके मस्तकको यह राजा हठपूर्वक भूमिमें लिटा देता है, पक्षा०-इसके सामने लड़कर ( और बादमें, अथवा-बिना लड़े ही) अपना तथा दूसरे ( इस राजा ) का अन्तर जानकर बाण-समूहों को अलग रखकर इसी राजाके चरणके सामने गिरते हुए अर्थात् शरणमें आकर नमस्कार करते हुए एवं अपने भयाधिक्यके भारसे खिन्न अत एव झुके हुए अर्थात् शरणमें आकर नमस्कार करते हुए शत्रुमस्तक को इस राजाने हठपूर्वक भूमिमें लोटा दिया अर्थात् 'इस महापराक्रमी राजासे हीनशक्ति हो कर भी मैंने युद्ध किया, इस राजासे अपने अपराध को क्षमा करा लेनेमें ही कल्याण है' इस विचारसे इसके चरणके सामने पृथ्वी पर अपना मस्तक टेकने लगे / [ जो राजा आद्यन्त युद्धनिरत रहे उनके शिरको काटकर इस नेपाल नरेशने भूमि पर लिटा दिया तथा जो राजा युद्ध करके ( या विना युद्ध किये भी) निःशस्त्र होकर अपने अपराधके भयसे नम्र मस्तक हो इसके चरणों में पड़ गये, उनके मस्तकों को क्षमा करने से भूमिपर लिटा अर्थात् झुका दिया / यह राजा शत्रुविजेता तथा शरणागतवत्सल है, अत एव इसका वरण करो] // न तूणादुद्धारे न गुणघटने नाश्रुतिशिखं समाकृष्टौ दृष्टिर्न वियति न लक्ष्ये न च भुवि / नृणां पश्यत्यस्य वचन विशिखान् किन्तु पतित द्विषद्वक्षःश्वभैरनुमितिरमून गोचरयति / / 46 / / नेति / नृणां रणद्रष्टणां पुंसां, 'नृ च' इति विकल्पात् 'नामि' इति दीर्घप्रतिषेधः, दृष्टिः, अस्य राज्ञः, विशिखान् शरान् , वचन कस्मिन्नपि, इत्यस्य सर्वत्र सम्बन्धः; तूणात् निषङ्गात् , उद्धारे उद्धरणकाले, न पश्यतीति सर्वत्र सम्बध्यते; गुणो मौर्वी, 'मौर्वी गुणो ज्या' इति धनञ्जयः, तेन घटने सन्धाने, न, आश्रुतिशिखम् आकर्णान्तं, समाकृष्टौ गुणाकर्षणे, न, वियति मोचनानन्तरम् आकाशे, न, लक्ष्ये वेध्ये, न, भुवि शत्रन् विवा ततो निर्गत्य प्रवेशाश्रये भूप्रदेशे, च वचन कुत्रापि, न पश्यति, किन्तु पतितानां युद्धहतानां, द्विषतां वक्षःसु श्वनैः शरवेधजन्यरन्]ः, 'रन्ध्र श्वभ्रं वपा सुषिः' इत्यमरः, अनुमितिरानुमानिकज्ञानम् , अमून् विशिखान् , गोचरयति विष. यीकरोति, एतद्राजनिक्षिप्तबाणानां विद्यमानत्वे कुत्रापि प्रत्यक्षप्रमाणाभावेऽपि शत्रु. वक्षसि दृष्टच्छिद्रस्य अन्यथाऽनुपपत्त्या तदर्शनेनैव बाणानामनुमितिर्भवतीति भावः / इत्थञ्च बाणानां वेगातिशयोनिः // 49 // ___(इस नेपालनरेशके युद्धकौतुक-दर्शकों की ) दृष्टि इसके बाणों को कहीं भी-तरकस से निकालनेमें नहीं, मौवीं ( धनुष की डोरी) पर रखने में नहीं, कर्णाग्र तक खींचने में नहीं, आकाशमें नहीं, लक्ष्य (निशाना ) में नहीं और पृथ्वी पर नहीं देखती हैं; किन्तु गिरे हुए शत्रुओंके हृदय ( पाठा०-नेत्रों ) के छिद्रोंसे ( किया गया ) अनुमान इन (बाणों) को गोचर कराता ( दिखलाता ) है / [ यह नेपालनरेश इतनी तीव्र गतिसे बाणों को शत्रुओं . 46 नै० उ०
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________________ 732 नैषधमहाकाव्यम् / पर छोड़ता है कि वे बाण उनके हृदय ( पाठा०-नेत्रों ) में छिद्रकर अदृश्य हो जाते हैं और उन्हें युद्ध-कौतुक को देखनेवाले कहीं भी (तरकससे निकालने आदि में ) नहीं देख पाते; किन्तु मरे हुए शत्रुओं के हृदय ( पाठा०-नेत्रों ) में उन बाणों द्वारा किये गये छिद्रों से–'इस नेपालनरेशने ही इसपर बाण को छोड़कर इसके हृदय ( पाठां०-नेत्रों) में छिद्र कर दिया है। ऐसे अनुमानकर बाणों को लक्षित करते हैं / प्रत्यक्षमें नहीं देखी गयी वस्तुका अनुमान द्वारा सिद्ध करना उचित ही है। यह नेपालनरेश बहुत तीव्र गतिसे शत्रुओं पर बाण चलाता है ] // 49 / / दमस्वसुश्चित्तमवेत्य हासिका जगाद देवीं कियदस्य वक्ष्यसि ? | भण प्रभूते जगति स्थिते गुणैरिहाप्यते सङ्कटवासयातना // 50 // दमस्वसुरिति / हासयतीति हासिका हासयित्री, काचित् चेटीति शेषः, दमस्वसुश्चित्तमवेत्य बुद्ध्वा देवी सरस्वती, जगाद, किमिति ? हे देवि ! अस्य राज्ञः सम्बन्धि, कियद्वक्ष्यसि ? कियत् प्रपञ्चयसीत्यर्थः, निखिलगुणाधारस्यास्य गुणानां प्रत्येकं कथं वर्णयितुं शक्नोषि ? इति भावः; प्रभूते महति, जगति स्थितेऽपि विशाले जगति विद्यमानेऽपि, गुणैः सौन्दर्यादिभिः, इह अस्मिन्नेव राज्ञि, सङ्कटवासेन सङ्कीस्थित्या, आधाराल्पतया अतिकृच्छ्णावस्थानात् , यातना तीव्रवेदना, आप्यते अनुभूयते, इति भण; सर्वे गुणाः सर्व जगत् परित्यज्यास्मिन् एकस्मिन्नेव राजनि परस्परसङ्घर्षण निरवकाशं निवसन्तीत्येकयोक्त्या वद इति भावः। सर्वगुणाकरम् अपि एनं दमयन्ती न वृणुते इति निष्कर्षः // 50 // हंसनेवाली ( दमयन्तीकी सामान्यतया दासी) दमयन्तीके चित्त ( यह इस नेपालनरेशको वरण करना नहीं चाहती ऐसे भाव ) को जानकर बोली-( सरस्वती देवि ! ) इसका कितना वर्णन करोगी?' विशाल संसार के रहनेपर भी गुण ( सौन्दर्य आदि ( इस ( नेपालनरेश ) में सङ्कट ( गुणोंके अधिक तथा वासस्थानके कम होनेके कारण दुःख ) से निवास करते हैं। ऐसा कहो / ( पाठा०-संसार में स्थित बहुत गुण इसमें ... ... .. ) / [ यह नेपालनरेश इतना गुणी है कि विशाल संसारके रहते भी समस्त गुण इसी नेपालनरेश में स्थान ( आधार ) की कमी होनेसे बड़ी संकीर्णतासे निवास करते हैं, अतः इसके प्रत्येक गुणका पृथक् पृथक् वर्णन करना अशक्य होनेसे उक्त वचन कहना ही तुम्हें उचित है, इस प्रकार बहुत गुणवान् भी इस नेपालनरेशको स्वामिनी दमयन्ती नहीं वरण करना चाहती अतः इसका वर्णन करना व्यर्थ है। अथवा-विशाल संसारके रहनेपर भी इस नेपालनरेशमें ही सब गुण राजाकी अयोग्यताके कारण दुःखपूर्वक निवास करते हैं, अत. एव इसके गुणोंको कितना वर्णन करोगी ? वास्तविकताको समझनेवाली स्वामिनी दमयन्ती 1. 'प्रभूतैः' इति पा०। 2. 'स्थितैः' इति पा०।
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________________ 733 द्वादशः सर्गः। तुम्हारे अधिक वर्णन करने पर भी इसे नहीं वरण करना चाहती, अत एव तुम अब इसका गुण-वर्णन करना समाप्त करो ] // 50 // ब्रवीति दासीह किमप्यसङ्गतं ततोऽपि नीचेयमतिप्रगल्भते / अहो ! सभा साधुरितीरिणः क्रुधा न्यषेधदेतरिक्षतिपानुगाञ्जनः / / 51 / / ब्रवीतीति / इह सभायां, दासी भैम्याः किङ्करी, किमपि असङ्गतं ब्रवीति प्राक 'चलेऽपि काकस्य' इत्यादि अभाषत, वर्तमानसामीप्ये भूते लट् , ततो दासीतोऽपि नीचा तुच्छा, इयं चेटी, अतिप्रगल्भते इदानीं पुनरपि उच्छृङ्खलतया ब्रूते, अहो ! आश्चर्य, सभा साधुः, आश्चयेति सोल्लुण्ठोक्तिः, इतीरयन्तीति इतीरिणः स्वस्वामिगुणवर्णनप्रतिबन्धात् आक्रोशतः, एतस्य क्षितिपस्य अनुगान् अनुचरान् , जनः तटस्थजनः, क्रुधा क्रोधेन, न्यषेधत् निवारयामास // 5 // ___ 'यहांपर ( इस सभामें ) दासी कुछ असंगत (12 / 21 आदि) वोलती है (पाठा०-बोली है ), नीच यह दासी ( 12 / 21 श्लोक द्वारा बोलनेवाली उक्त दासी, अथवा-सभामें बोलनेकी अधिकारिणी बनायी गयी सरस्वती देवी ) से भी उच्छल बोलती है, आश्चर्य है कि यह अच्छी सभा है अर्थात् उचित-अनुचितका विचार नहीं होनेसे यह बहुत बुरी सभा है', ऐसा क्रोधसे कहनेवाले नेपालराज के अनुचरोंको ( दर्शक ) लोगोंने रोका। अथवासभामें .........ऐसा कहनेवाले नेपालराजके अनुचरोंको ( दर्शक ) लोगोंने क्रोधसे रोका / [ नेपालनरेशके वर्णनके बीचमें ही दासीके बोलनेसे अपने स्वामीके अपमानको नहीं सहनेवाले अनुचर क्रुद्ध होकर व्यङ्गयपूर्वक सभाको बुरा कहने लगे तो उन्हें दर्शकलोगों ने ही मना कर दिया ] // 51 // अथान्यमुद्दिश्य नृपं कृपामयी मुखेन तदिङ्मुखसम्मुखेन सा / दमस्वसारं वदति स्म देवता गिरामिलाभवदतिस्मरश्रियम् / / 52 / / अथेति / अथ कृपामयी सा गिरां देवता इलाभुवा ऐलेन पुरूरवसा तुल्यम् इलाभुवत् , 'तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः' क्रियाऽत्र स्मरातिक्रमः, अतिस्मरश्रियम् अतिक्रान्तमदनलावण्यम् , अन्यं नृपमुद्दिश्य तस्य नृपस्य, दिङमुखसम्मुखेन तद्दिग्भागाभिमुखेन, मुखेन करणेन, तेन उपलक्षिता सती वा, दमस्वसारं दमयन्ती, वदति स्म // 52 // ___ कृपालु वाग्देवी पुरूरवाके समान कामदेवकी शोभाको अतिक्रमण करनेवाले अर्थात् कामसे भी अधिक सुन्दर दूसरे राजाको लक्षितकर उसके ओर मुख करके दमयन्तीसे बोली / / 52 // विलोचनेन्दीवरवासवासितैः सितैरपाङ्गाध्वगचन्द्रिकाञ्चलैः / त्रपामपाकृत्य निभान्निभालय क्षितिक्षितं मालयमालयं रुचः / / 53 / / .. 1. 'प्रशंस' इति पा०।
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________________ 734 नैषधमहाकाव्यम् / विलोचनेति / विलोचने एव इन्दीबरे नीलोत्पले, तयोर्मध्ये वासेन स्थित्या, वासितैः सुरभितैः, नयननीलिम्ना नीलीकृतैरित्यर्थः, सितैः स्वभावात् अवदातैः, नीलश्वेतकान्तिविशिष्टैरिति यावत् , अपाङ्गाध्वगाया नेत्रप्रान्तरूपमार्गवर्तिन्याः, चन्द्रिकायाः नेत्रमध्यस्थनीलगोलकस्य, अञ्चलैः प्रान्तभागैः, कटाक्षरिति यावत् , करणैः रुचः कान्तः, आलयम् आकरं, मालयं मलयदेशीयं, क्षितिक्षितं क्षितीशं, तदाख्यदेशस्य राजानमित्यर्थः, क्षितिं क्षिणोतीति तितिक्षित् क्षितीशः क्षिधातोरैश्वयोर्थात् किप , निभात् वस्त्वन्तरदर्शनव्याजात् , अपां लज्जाम् , अपाकृत्य त्यक्त्वा, निभालय विलोकय, निभालय इत्यस्य चौरादिकात्मनेपदिभलधातोः रूपत्वात् परस्मैपदं चिन्तनीयम् ; अथवा निभालः निभालनं तद्वान् निभालवान् तादृशं कुरु 'तत् करोति-' इति णिचि मतुपो लोपेन साधनीयम् // 53 // नेत्ररूपी नीलकमलमें निवास करनेसे वासित (नील वर्ण किये गये ) तथा ( स्वभावतः) श्वेत नेत्रप्रान्तमार्गगामी चन्द्रिकाप्रान्तों अर्थात् नीलश्वेत कटाक्षोंसे कान्तिके आकर 'मालय' नामक ( अथवा-मा = लक्ष्मीके आलय, अथवा-'मलय' देशके राजा, अथवा-म = शिवजी हैं निवास जिसका ऐसे अर्थात् चन्द्ररूप ) राजाको लज्जा दूरकर व्याज ( दूसरी वस्तुके देखने के बहाने ) से देखो। [ यह राजा 'मालय' नामक है, (या-शिवका निवास चन्द्ररूप ही अर्थात् अतिसुन्दर है, या लक्ष्मीका आलय है, या-'मलय' देशका है ), इसे यदि देखने में लज्जा आती है तो दूसरी वस्तुको देखनेके बहानेसे इसे देखो क्योंकि उस प्रकार देखनेमें लज्जा नहीं होगी और कान्तिके आकर इसे तुम अच्छी तरह देखकर इसके वरणके विषयमें यथावत् निर्णय कर सकोगी, अतः तुम दूसरी वस्तुको देखने के बहानेसे नीलश्वेत कटाक्षोंसे इस राजाको निस्सङ्कोच होकर देखो ] / / 53 // इमं परित्यज्य परं रणादरिः स्वमेव भग्नः शरणं मुधाऽविशत् / न वेत्ति यत्त्रातुमितः कृतस्मयो न दुगया शैलभुवाऽपि शक्यते // 54 // इममिति / अरिः एतच्छत्रुः, रणात् समरात भग्नः सन् , परम् अरिं श्रेष्ठं वा, इमं नृपं, परित्यज्य शरणं न प्राप्य, मुधा वृथा, स्वं स्वकीयं, शरणं गृहमेव, शरणं रक्षकम् , अविशत् प्रविष्टः; शरणस्य द्विरावृत्त्या सम्बन्धः कथं वृथा ? इति तदाह, यत् यस्मात् , कृतस्मयः कृताहङ्कारः, सोऽरिरिति शेषः, दुर्गया दुर्गमया, शैलभुवा शैलप्रदेशेन, गिरिदुर्गेणापीत्यर्थः, अथ च शैलभुवा पर्वतकन्यया, दुर्गया दुर्गादे. व्याऽपि, पार्वत्याऽपि इत्यर्थः, इतोऽस्माद्राज्ञः, त्रातुं न शक्यते, किं पुनः स्वगृहण अन्येन वा पुरुषेणेत्यपिशब्दार्थः, इति न वेत्ति; यो गिरिदुर्गप्रविष्टमपि शत्रुहन्तुं शक्नोति स स्वगृहप्रविष्टमरिं कथं न हन्तु इति स्वप्राणरक्षार्थं स्वगृहप्रवेशो व्यर्थ इति भावः॥५४॥ युद्धसे भगा हुआ शत्रु श्रेष्ठ ( या-शत्रुरूप.) इसे छोड़कर अपने ही घरमें (या-अपने ही बड़े घर में, या-अपने ही रक्षकके यहाँ, या अपने ही दूसरे रक्षकके यहाँ या-अपने
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________________ द्वादशः सर्गः। ही बड़े रक्षकके यहां ) व्यर्थ गया; क्योंकि अभिमानी वह (शत्रु राजा) यह नहीं जानता है कि-'इस (मालय नरेश ) से दुर्गम पर्वतीय भूमि ( पक्षा०-पर्वतकुमारी दुर्गा अर्थात् पार्वती ) भी नहीं बचा सकती है। [ 'जिससे शरणागतको पर्वतपुत्री पार्वती (पक्षा०दुर्गम पर्वतीय भूमि भी ) नहीं बचा सकती; उससे अन्य कोई बड़ा घर (पक्षा०-रक्षक ) कैसे बचा सकता है ?' इस बातको नहीं जाननेवाला अभिमानी वह शत्रु युद्धसे भगकर अपने बड़े घर ( किला, पक्षा०-रक्षक ) के पास व्यर्थ ही गया। आत्मरक्षार्थ युद्ध से भग कर दुर्गम पहाड़में घुसे हुए या बड़े निजी रक्षकके शरणमें गये हुए भी शत्रुको यह मालय राजा मार डालता है ] / / 54 // अनेन राज्ञाऽर्थिषु दुर्भगीकृतो भवन्' घनध्वानजरत्नमेदुरः / तथा विदूराद्रिरदूरतां गमी यथा स गामी तव केलिशैलताम् / / 55 / / अनेनेति / अनेन राज्ञा अर्थिषु विषये दुर्भगीकृतः तुच्छीकृतः, यथेच्छम् अर्थिभिः उपादीयमानरत्नोऽपि यः अनेन राज्ञा उपेक्षितः इत्यर्थः, तथा घनध्वानजैः नवमेघशब्दोत्थैः, रत्नैः वैदूर्यः, मेदुरः पूर्ण एव, भवन् अतिव्ययेऽपि अक्षीणरत्न एव तिष्ठन् इत्यर्थः, विदूरादिः वैदूर्याचलः, तथा तेन प्रकारेण, अदूरताम् आसन्नतां, गमी गमिप्यन् , तथा सोऽद्रिः, तब केलिशैलतां गामी गमिष्यन् , 'भविष्यति गम्यादयः' इति गमिगाम्योः साधुत्वम् / 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया, अस्य राज्ञः नगर्याः अतिसान्निध्यात् बहुरत्नयुतः वैदूर्याचलः ते क्रीडाशैलो भविष्यति इति तात्पर्यम् // 55 // इस राजासे याचकों के विषयमें दरिद्र किया गया अर्थात् उपेक्षित (अत एव ) मेघध्वनिसे उत्पन्न रत्नोंसे पूर्ण होता हुआ ( पाठा०-होती हुई मेघध्वनियोंसे उत्पन्न रत्नोंसे पूर्ण ) विदूर ( अत्यन्त दूरस्थ, पक्षा०–'विदूर' अर्थात् 'रोहण' नामक ) पर्वत उस प्रकार समीपस्थ होगा, जिस प्रकार वह तुम्हारा क्रीडापर्वत बन जायेगा। [ 'विदूर' पर्वतमें मेघके गर्जनेसे उत्पन्न होनेवाले रत्नोंको पहले लोग इच्छानुसार वहांसे रत्न लाते थे; किन्तु अब यह 'मालय' राजा याचकोंको इच्छानुसार दान दे देता है, अत एव कोई भी 'विदूर' पर्वतसे रत्न लानेका कष्ट नहीं करता, इस कारण मेघके गर्जनेसे उस 'विदूर' पर्वतमें रत्नोंकी उत्पत्ति तो सर्वदा होती रही किन्तु उसमें-से रत्नों का व्यय नहीं हुआ और अत्यन्त दूरस्थ भी वह पर्वत बढ़ते-बढ़ते इतना समीप हो जायेगा कि तुम इस राजाका वरणकर वहां पर क्रीडाकरने लगोगी / / ये राजा बहुत दानी है, अत एव इसका वरण करो ] // 55 // नम्रप्रत्यर्थिपृथ्वीपतिमुखकमलम्लानताभृङ्गजात च्छायान्तःपातचन्द्रायितचरणनखश्रेणिरैणेयनेत्रे / 1. 'भवद्धत' इति पा०।
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________________ 736 नैषधमहाकाव्यम् / दृनारिप्राणवातामृतरसलहरीभूरिपानेन पीनं भूलोकस्यैष भर्ता भुजभुजगयुगं सांयुगीनं बिभत्ति / / 56 / / नम्रति / एण्या इमे ऐणेये 'ऐणेयमेण्याश्चर्माद्यमेणस्यैणमुभे त्रिषु' इत्यमरः, एण्या ढक , ते च ते नेत्रे च, ते इव नेत्रे यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः, ऐणेय नेत्रे ! हे मृगशावाक्षि!, उपमान-पूर्वपदबहुव्रीहावुत्तरपदलोपः, नम्राणां पादप्रान्ते अवनतानां, प्रत्यर्थिपृथ्वीपतीनां पराजितशत्रुभूपानां, मुखान्येव कमलानि तेषु या म्लानता अप. मानजनितवैवयं, सैव भृङ्गजातस्य भ्रमरसमूहस्य, छाया नीलभाः, तस्या अन्तः पातेन मध्यगतत्वेन, स्वच्छनखे प्रतिफलनादिति भावः, चन्द्रायिता चन्द्रवदाचरिता मलिनमुखच्छायारूपकलङ्कसम्पत्तेरिति भावः, चरणनखश्रेणिर्यस्य तादृशः, भूलोकस्य भर्ता एषः राजा, दृप्तारिप्राणवाताः गर्वितशत्रुप्राणवायवः एव, अमृतरसस्य लहर्यः ऊर्मयः, तासां भूरिणा भूयसा, पानेन पीनं मांसलम् , अत एव संयुगे युद्धे, साधु सांयुगीनं युद्धे अपराजेयं, भुजभुजगयुगं हस्तरूपपन्नगयुगलं, बिभर्तीति, रूपकालङ्कारः / वायुपानेन यथा सर्पाः स्थूला जायन्ते तथा अस्य राज्ञः हस्तौ शत्रूणां प्राणवायुपानेन स्थूलौ सञ्जातौ इत्यर्थः; चरणपतितान् शत्रुनृपान् रक्षति गर्वितांश्च तान् मारयति इति भावः // 56 // ____ हे मृगनयनी ( दमयन्ती ) ! नम्र शत्रु राजाओं के मुखकमलकी मलिनतारूपी भ्रमरसे उत्पन्न ( अथवा-भ्रमर-समूहकी छाया अर्थात् शोभाके प्रतिबिम्बित ) होनेसे चन्द्रमाके समान आचरण करनेवाला है चरण-नखोंकी श्रेणी जिसकी ऐसा, भूलोकका रक्षक यह राजा अभिमानी शत्रुओंकी प्राणवायुरूप अमृतरस की तरङ्गोंके अधिक पान करनेसे मोटा तथा युद्ध में श्रेष्ठ (तीव्र शस्त्रप्रहार करनेवाला) वाहुरूप सर्पद्वयको धारण करता है / [ युद्ध में हारकर मलिन मुख किये हुए शरणागत शत्रु राना लोग इसके चरणों पर नम्र होकर प्रणाम करते हैं तो उनके मुखकी मलिनकान्ति कमलपर बैठे हुए भ्रमरों-जैसी मालूम पड़ती है और वह इसके चरणों के नखोंमें चन्द्रकलङ्क-जैसी शोभती है तथा इसके दोनों हाथ ( शस्त्र-प्रहारसे ) अभिमानी शत्रु राजाओंके प्राणोंका हरण करते ( उन्हें मारते ) हैं तो वे दो सर्प अमृत-रस-तरङ्गोंको पी रहे हैं ऐसा मालूम पड़ता है / सर्प का वायुरूपी अमृतरसका पानकर मोटा ( पुष्ट ) होना उचित ही है। यह राजा शरणागत शत्रुका रक्षक तथा अभिमानी शत्रुका प्राणनाशक है ] // 56 // अध्याहारः स्मरहरशिरश्चन्द्रशेषस्य शेषस्याहेर्भूयः फणसमुचितः काययष्टीनिकायः / दुग्धाम्भोधेर्मुनिचुलुकनत्रासनाशाभ्युपायः कायव्यूहः क जगति न जागर्त्यदः कीर्तिपूरः ? // 57 //
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________________ द्वादशः सर्गः। 737 अध्याहार इति / स्मरहरशिरसि चन्द्रशेषस्य कलामात्रावशिष्टचन्द्रस्य, अध्याहारः शेषपूरकः, पञ्चदशकलासम्पादकः इति यावत् , एतेन कीर्तिपूरस्य स्वर्गव्यापित्वमायातम् ; शेषस्य अहेः अनन्तोरगस्य, शुभ्रकायस्येति भावः, भूयसां सहस्रसङ्ख्यकानां, फणानां समुचितः योग्यः, काययष्टीनां सहस्रसङ्ख्यकानां शरीराणां निकायः समूहभूतः इति यावत् ; फणसङ्ख्यकैः कायः भवितुमौचित्यात् अवशिष्टशरीरसम्पादक इति भावः, एतेन पातालव्यापित्वमायातम् ; दुग्धाम्भोधेः तीराम्भोधेः, मुनेः अगस्त्यस्य, चुलुकनात् गण्डूषेण ग्रहणात् , बासस्य नाशे अभ्युपाय उपायभूतः, कायव्यूहः कायसङ्घातः, क्षीराब्धेः प्रतिनिधिरित्यर्थः, पूर्व क्षीराब्धेरेका कित्वेन चुलुकग्रहणात् भयमासीत्, इदानीमेतत्कीर्तिपूरस्य पृथिवीव्यापित्वात् तच्छौक्ल्येन सर्वजलानां शुक्लतया दुग्धवत् प्रतीयमानत्वात् इदं क्षीराब्धेः वारि अन्यत् वारि वा इति निश्चेतुमशक्यत्वेन नास्ति अगस्त्यगण्डूषात् तादृशभय. मिति भावः; अदःकीर्तिपूरः अमुष्य यशोराशिः, क जगति न जागति ? त्रैलोक्ये एव जागतीत्यर्थः / अत्र कीर्तिपूरस्य त्रैलोक्यव्यापित्वासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेः तद्रपातिशयोक्तिः, सा च अस्य चन्द्रशेषाध्याहारत्वादिरूपकोत्थापितेति सङ्करः // 27 // कामनाशक शिवजीके मस्तकस्थ चन्द्र के शेष का अध्याहार, शेषनाग बहुत सी फणाओं के योग्य ( अतिविशाल या सहस्र संख्यावाला ) शरीर-यष्टि का समूह और मुनि ( अगस्त्य ऋषि ) के चुल्लूमें लेकर पान करने से उत्पन्न भयके सर्वतोमुखी उपाय क्षीरसमुद्र का शरीर-समूहरूप; इस राजा का कीर्ति-प्रवाह किस लोकमें नहीं जागरूक ( व्याप्त ) है ? अर्थात् तीनों लोकों ( क्रमशः स्वर्ग, पाताल और मृत्यु लोक ) में जागरूक है / [ इस राजा का कीर्ति-प्रवाह तीनों लोकों में व्याप्त हो रहा है। क्रमशः यथा-इसका कीर्ति-समूह शिवजीके मस्तकस्थ चन्द्र के शेष भाग (पन्द्रह तिथि होने से उनके अतिरिक्त सोलहवां भाग) का अध्याहार है / जिस प्रकार किसी अपूर्ण वाक्य की पूर्ति दूसरे पदका अध्याहारकर की जाती है, वैसे ही इसके कीर्ति-समूहका अध्याहार कर शिव-मस्तकस्थ चन्द्र के शेष भाग की पूर्ति ( 16 कलाओं की पूर्णता ) की जाती है, अतः स्वर्गमें इसका कीर्ति-समूह व्याप्त है / शेषनागकी सहस्र फगा और एक शरीर है, किन्तु सहस्र फणाओं के लिए सहस्र शरीरयष्टिका होना उचित है, अतः इस राजाका कीर्ति-समूह उस शेषनागकी सहस्र शरीर यष्टिके योग्य हो रहा है, इस प्रकार वह पाताल में भी व्याप्त है। मुनि अगस्त्यने चुल्लूमें समुद्र को लेकर पी लिया था, अत एव एक क्षीरसमुद्र को भी भय हो गया कि कहीं वे मुनि मुझे भी न पी जावें, किन्तु इस राजाके कीर्ति-समूह अनेकों क्षीरसमुद्र बनकर एक व्यक्तिद्वारा अनेक समुद्रों का पीना अशक्य होनेसे ( अथवा-उक्त कीर्ति-समूह द्वारा नीरक्षीरको एक रूप बना देनेसे 'कौन नीर है ? तथा कौन क्षीर है ?' इसका यथावत् निर्णय नहीं होनेसे ) क्षीरसमुद्र के उक्त भयको सर्वतोमुखी ( सर्वदा सफल ) उपाय बनकर दूर कर दिया, अतः उक्त कीर्ति-समूह भूलोकमें भी व्याप्त हो रहा है ] // 57 //
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________________ 738 नैषधमहाकाव्यम् / राज्ञामस्य शतेन किं कलयतो हेतिं शतघ्नीं ? कृतं लक्षैर्लक्षभिदो दशैव जयतः पद्मानि पौरलम् | कत्तुं सर्वपरच्छिदः किमपि नो शक्यं परार्द्धन वा . तत् सङ्खयापगमं विनाऽस्ति न गतिः काचिद्तैतद्विषाम् / / 58 / / राज्ञामिति / शतघ्नीं नाम हेतिम् आयुधं, 'शतघ्नी तु चतुःशत्या लौहकण्टकसञ्चिता' इति यादवः, शतं हन्तीति शतघ्नीति च गम्यते 'अमनुष्यकत के च' इति ठकप्रत्यये ङीप् / कलयतो धारणतः, अस्य नृपतेः, राज्ञां शतेन किम् ? न काऽपि क्षतिरित्यर्थः; शतमारणसमर्थमत्रं गृह्णतोऽस्य शतसङ्ख्यकैः शत्रुभिर्न किमपि कत्त शक्यते इति भावः / लक्षभिदो लक्षभेदिनः, लक्ष लक्षसङ्ख्या, तद्विशिष्टशत्रुहन्तुश्च, 'लक्षं शरव्ये सङ्ख्यायाम्' इति च विश्वः, कुत्रचिदप्यप्रतिहतसायकस्य अस्य इत्यर्थः, राज्ञां लक्षः कृतम् अलम्; कृतम् इति शब्दः अलमित्यर्थेऽव्ययम् / दृशा दृष्टय व, पद्मानि अब्जानि, तत्सङ्ख्यकशत्रूश्च; 'पद्मं स्यात् पन्नगे व्यूहे निधौ सङ्ख्यान्तरेऽम्बुजे' इति विश्वः, जयतोऽस्य राज्ञः पझैः पद्मसङ्ख्यकैः शत्रुभिः, अलम्; किं बहुना ? सर्वपरच्छिदः समस्तशत्रुच्छिदोऽस्य राज्ञः, राज्ञां परार्द्धन वा तत्सङ्ख्यकराजभिर्वा, परे. षाम् अरीणाम् अर्द्धन वा, किमपि कत्त नो शक्यम् तत् तस्मात्, बत खेदे, एतद्विषाम् अस्य शत्रूणां, सङ्ख्याया अपगमम् अपगतसङ्ख्यत्वम् असङ्ख्यत्वमिति यावत्, अथ च सङ्ख्यात् युद्धात् , अपगमम् अवसरणं, विना काचित् गति स्ति; 'सङ्ख्य समिति सङ्ख्या स्यादेकत्वादिविचारयोः' इति मेदिनी, अत्रैव द्विषद्गतिमत्वस्य सङ्ख्यापगमतदपगमयोः उभयोः प्राप्तस्य पूर्वत्र निषेधस्य उत्तरत्र नियमनात् परि. सङ्ख्या तथा च सूत्रम्-'एकस्य अनेकप्राप्तावेकत्र नियमनं परिसङ्ख्या' इति // 58 // 'शतघ्नी' नामक ( तोप, पक्षा०-सौ व्यक्तियों को मारनेवाला) शस्त्र-विशेष धारण करते हुए इस राजके सौ राजाओंसे क्या ? ( सौ शस्त्र इसका क्या कर सकते हैं अर्थात् कुछ नहीं)। लक्षभेदी (निशाना मारने वाले, पक्षा०-लाख व्यक्तियों को मारनेवाले) इसके लाख शत्रु भी व्यर्थ हैं / दृष्टि ( नेत्र, पक्षा०-देखने ) से ही पद्मों ( कमलों, पक्षा०'पद्म' परिमित संख्यावालों ) को जीतते हुए इसके 'पद्म' परिमित शत्रु भी व्यर्थ हैं। तथा सम्पूर्ण ( पक्षा०-अखण्ड ) को छिन्न करनेवाले इसका परार्द्ध ( शत्रुका आधा भाग, पक्षा०'परार्द्ध' ( चरम ) संख्या ) परिमित भी शत्रु कुछ नहीं कर सकते, इस कारण सङ्ख्या अर्थात् गणना ( गत, लक्ष, पद्म, परार्द्ध आदि पक्षा०-सङ्ख्य अर्थात् युद्ध ) के छोड़ने के विना इसके शत्रुओंकी कोई गति नहीं है। [ उक्त कारणोंसे इस राजाके सौ, लाख, पद्म और परार्द्ध-संख्यक शत्रु भी कुछ नहीं कर सकते; अत एव सङ्ख्यात्याग ( पक्षा०-युद्धत्याग ) के अतिरिक्त कोई उपाय उनके बचने का नहीं है ] // 58 //
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________________ द्वादशः सर्गः। 736 वयस्ययाऽऽकूतविदा दमस्वसुः स्मितं वितत्याभिदधेऽथ भारती / इतः परेषामपि पश्य याचतां भवन्मुखन स्वनिवेदनत्वराम् // 56 || वयस्ययेति / अथ दमस्वसुः आकृतविदा अभिप्रायज्ञया, वयस्यया सख्या, स्मितं वितत्य हास्यं कृत्वा, भारती वाग्देवी, अभिदधे अभिहिता, किमिति ? भव. न्मुखेन वन्मुखेन, याचतां स्ववर्णनं प्रार्थयमानानाम् , इतोऽस्मात् राज्ञः, परेषाम् अन्येषामपि राज्ञां, स्वनिवेदने आत्मपरिचयकथने, त्वरां द्वतकथनत्वं कालविलम्बासहत्वं वा, पश्य, एतद्वर्णनात् विरम्य परान् वर्णयेत्यर्थः // 59 // ___ इसके बाद दमयन्ती के अभिप्राय ( यह इसे वरण करना नहीं चाहती ऐसे भाव ) को जाननेवाली सखी मुस्कुराकर सरस्वतीसे बोली-इस ( राजा ) के अतिरिक्त राजाओंकी भी तुम्हारे मुखसे अपने वर्णनकी शीघ्रताको देखो। [ इसके अतिरिक्त अन्यान्य राजा भी तुम्हारे मुखसे अपना वर्णन कराने के लिये शोवता कर रहे हैं, अत एव तुम इस राजाके वर्णनको समाप्तकर अन्य राजाओंका भी वर्णन करो ] // 59 // कृताऽत्र देवी वचनाधिकारिणी त्वमुत्तरं दासि ! ददासि का सती ? / ईतीरिणस्तन्नृपपारिपार्श्विकान् स्वभतरेव भ्रकुटिन्यवर्त्तयत् / / 60 / / कृतेति / हे दासि ! अत्र स्वयंवरे, देवी वाग्देवी वचने नृपतिवर्णने, अधिकारिणी की, कृता नियुक्ता, त्वं का सती का भवन्ती, केन प्रयुक्ता सतीत्यर्थः, असतो कुलटा, का त्वामति च गम्यते; उत्तरं ददासि ? इति ईरिणः एवं ब्रुवाणान् , तस्य नृपस्य, परिपावं वर्तन्ते इति पारिपार्श्विकान् सेवकान् , 'परिमुखञ्च' इति ठक् चकारात् पारिपार्श्विकः, स्वभत्तः स्वस्वामिन एव, भ्रकुटिः न्यवर्तयत् तेषां स्वामी एव तान् भ्रूभङ्गेण निवारितवान् इत्यर्थः // 60 // हे दासि ! यहांपर ( इस राजसभामें ) देवी ( सरस्वती देवी ) बोलने ( राजाओं का परिचय देने ) में अधिकारिणी बनायी गयी हैं, तुम कौन होकर ( अथवा-असती अर्थात् दुराचारिणी कौन होकर ) उत्तर दे रही हो?? ऐसा कहनेवाले राजा ( वर्ण्यमान 'मालय' राजा ) के पाश्र्ववर्तियोंको अपने स्वामीकी भृकुटिने ही मनाकर दिया अर्थात् उक्त वचन कहनेवाले अपने अनुचरोंको उक्त राजाने ही भृकुटिके सङ्केतसे रोक दिया // 60 // धराधिराजं निजगाद भारती तत्सम्मुखेपद्वलिताङ्गसूचितम् / दमस्वसारं प्रति सारवत्तरं कुलेन शीलेन च राजसूचितन / / 61 / / धरेति। भारती सरस्वती, कुलेन वंशमर्यादया. शीलेन सद्वृत्तेन च, राजसु मध्ये उचितं योग्यं, सर्वलोकपरिचितमित्यर्थः, सारवत्तरं श्रेष्ठम्, अतिवलिष्टं वा, तस्य वर्णनीयनृपस्य, सम्मुखं यथा तथा ईषद्वलितेन वक्रितेन, अङ्गन वपुषा, सूचितं निर्दिष्टं, धराधिराजं भूपति, प्रति लक्षीकृत्य, दमस्वसारं निजगाद तस्यै कथयामासेत्यर्थः // 6 //
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________________ 740 नैषधमहाकाव्यम् / सरस्वतीने कुल तथा शील ( सदाचार ) से राजाओं में योग्य ( प्रसिद्ध या श्रेष्ठ) और अत्यन्त बलवान् ( अथवा-कुल तथा शीलसे अत्यन्त बलवान् अर्थात् श्रेष्ठ और. राजाओंमें योग्य ) एवं उस ( राजा या दमयन्ती) के सम्मुख कुछ तिर्यक् किये हुए अङ्ग ( नेत्रादि या हस्तादि ) से सूचित ( दूसरे ) राजाको दमयन्तीसे बतलाया // 61 // कुतः कृतैवं नवलोकमागतं प्रति प्रतिज्ञाऽनवलोकनाय वा ? | अपीयमेनं मिथिलापुरन्दरं निपीय दृष्टिः शिथिलाऽस्तु ते वरम् / / 62 // ___ कुत इति / हे भैमि ! आगतं स्वयंवरार्थमुपस्थितं, नवलोकम् अपूर्वजनं प्रति, एवं परिदृश्यमानप्रकारेण, अनवलोकनाय वा अनवलोकितुमेव, अवधारणार्थो वाशब्दः कुतः कस्मात् कारणात् , प्रतिज्ञा कृता ? न युक्तमेतदिति भावः; भवतु तावत् एनं पुरोवर्तिनं, मिथिलापुरन्दरमपि मिथिलापतिमपि, निपीय सम्यक निरीक्ष्य, सकृदपीति भावः, ते तव, इयम् दृष्टिः शिथिला शिथिलादरा, एतस्य रूपवत्तायामिति भावः, अस्तु, वरम् इत्यपि श्रेष्ठं, वीक्ष्य उपेक्षणम् अपि अदर्शनात् किञ्चित् नियमित्यर्थः // 62 // आये हुए नवीन ( पाठा०-वर अर्थात् दुल्हा या श्रेष्ठ ) लोगोंको नहीं देखने के लिए ही इस प्रकार ( पाठा० --तुमने नहीं देखने के लिए ) क्यों प्रतिज्ञा की है ? ( ऐसा करना उचित नहीं है ) / इस मिथिलानरेशको पान ( देख ) कर तुम्हारी दृष्टि शिथिल ( आदर वाली ) होवे यह श्रेष्ठ है / (अथवा -श्रेष्ठ इस मिथिलानरेशको......"शिथिल हो)। [ यद्यपि तुमने पूर्व वर्णित राजाओंको देखा तक नहीं है, किन्तु ऐसा करना अनुचित होनेसे इस मिथिला-नरेशको एक बार देख लो फिर भले ही वरण मत करो, क्योंकि आये हुए किसीको नहीं देखनेकी अपेक्षा देखकर उपेक्षा कर देना श्रेष्ठ है ] // 62 // न पाहि पाहीति यदब्रवीरभु मदोष्ठ ! तेनैवमभूदिति ऋधा / रणक्षितावस्य विरोधिमूर्द्धभिर्विदश्य दन्तैर्निजमोष्ठमास्यते // 63 // नेति / मदोष्ठ ! हे मदीयाधर ! यत् यस्मात् , पाहि पाहि इति अमुं राजानं, न अब्रवीः, दुरभिमानादिति शेषः, तेन पाहि पाहीति अवचनेनैव, एवमीदृशी मे दशा, अभूदिति हेतोः क्रधा क्रोधेन, रणक्षितौ अस्य विरोधिमूर्द्धभिः शत्रुशिरोभिः कत्तभिः, दन्तैः करणैः निजमोष्ठमधरम् ओष्ठशब्दस्य अधरार्थकत्वमपि दृश्यते, विदश्य, आस्यते स्थीयते; अस्य राज्ञः शत्रूणामेतच्चरणमेव शरणम् , अन्यथा मरणमेवेति भावः / अत्र शत्रुशिरसां प्रत्यर्थिविषयक्रोधहेतुकस्य ओष्ठदंशनस्योष्ठविषयक्रोधहेतुकत्वोत्प्रेक्षणात् हेतूत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्या // 63 // 'हे मेरे ओष्ठ ! जो तुमने 'पाहि, पाहि' अर्थात् 'रक्षा करो, रक्षा करो' ऐसा इस (मिथिला नरेश ) से नहीं कहा; इस कारण ऐसा ( हम मस्तकोंका कटकर भूमिमें लोटना) 1. 'वर' इति पा०। 'ते' इति पा०।
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________________ द्वादशः सर्गः / 741 हुआ', इस प्रकार इस ( मिथिलानरेश ) के शत्रुओंके मस्तक युद्ध भूमिमें दाँतोंसे अपने ओष्ठोंको काटकर रह जाते हैं / [ 'पवर्ग' का उच्चारण-स्थान ओष्ठ होनेसे पाहि' शब्दके उच्चारण नहीं करनेसे मुख्यापराधी ओष्ठ ही है, अत एव अपराधीको दण्डित करना उचित है। अिस प्रकार शवकी मूठ नहीं खुलती, उसी प्रकार युद्धभूमिमें क्रोधसे मरने के समय दाँतों से ओष्ठ काटते हुए वैरियोंके मस्तक ज्यों के त्यों (वैसी ही अवस्थामें ) रह जाते हैं / / यह मिथिलानरेश शरणागत शत्रुका रक्षक तथा उद्धत शत्रुको मारनेवाला है ] ! / 63 // भुजेऽपस पत्यपि दक्षिणे गुणं सहेषुणाऽऽदाय पुरःप्रसपिणे / धनुः परीरम्भमिवास्य सम्मदान्महाहवे दित्सति वामबाहवे / / 64 // भुजे इति / महाहवे महारणे, अस्य राज्ञः, धनुः कर्त,दक्षिणे अपसव्ये, अथ च सरले, अनुकूलेऽपीत्यर्थः, भुजे हस्ते, इषुणा सह गुणं ज्याम् , आदाय अपसर्पति अपगच्छति, कर्णपश्चादेशं गच्छति सत्यपीत्यर्थः, अथ च रणस्थलात् पलायनं कुर्वत्यपि, पुरःप्रसर्पिणे पुरोगामिने, गुणसहायाभावेऽपि रिपुसम्मुखयायिने इति भावः, वामबाहवे वामहस्ताय, अथ च प्रतिकूलायापि भुजाय, सम्मदात् रिपुविनाशाय रणक्षेत्रपुरोभागगमनजन्यसन्तोषात् , परीरम्भम् आलिङ्गनम् , 'उपसर्गस्य घन्यमनुप्ये बहुलम्' इति दीघः, दित्सतीव दातुमिच्छतीव इत्युत्प्रेक्षा, ददातेः सनन्ताल्लट 'सनि मीमा-' इत्यादिना इदादेशः अभ्यासलोपश्च, मध्यस्थः सुवंशजो जनः गुणिनि अनुकूलेऽपि स्वजनमादाय सङ्ग्रामात् पलायिते सति सङ्ग्रामं कत्त पुरोगामिने प्रतिकूलायापि जनाय निपुणोऽयमिति मत्वा हर्षादालिङ्गनं ददाति इति निष्कर्षः। वामहस्तस्थितधनुषः दक्षिणहस्तेनाकर्णान्तगुणाकर्षणात् वामहस्ते कोटिद्वयनमनमेवालिङ्गनत्वेनोत्प्रेक्षितम् / जिगीषुभिः दक्षिणोऽपि भीरुः न समाद्रियते वामोऽपि रणोत्साही शूरः समाद्रियते इति भावः // 64 // महायुद्ध में इस राजाका धनुष बाणके साथ गुण ( मौवीं, पक्षा०-श्रेष्ठ गुण ) को लेकर दाहने ( पक्षा०-अनुकूल ) हाथके पीछे हटते रहनेपर (पक्षा०-कान तक पहुँचने पर ) आगे बढ़नेवाले वाम (बाएँ, पक्षा०-प्रतिकूल ) हाथके लिए मानो हर्षसे आलिङ्गन ( अथवा-हर्षसे मानो आलिङ्गन ) देता है। [जिस प्रकार गुणको सहायक सहित लेकर भगनेबाले अनुकूल व्यक्तिका भी आद्र नहीं होता, किन्तु आगे बढ़नेवाले असहाय या प्रतिकूल व्यक्तिका भी आदर होता है, उसी प्रकार इस राजाका धनुष भी युद्धभूमिसे पीछे हटनेवाले दाहने बाहुका आलिङ्गन कर आदर नहीं करता, अपितु आगे बढ़नेवाले वायें बाहुका आलिङ्गन कर आदर करता है। युद्धभूमिमें यह मिथिलानरेश धनुषको अच्छी तरह पकड़नेवाला तथा बाणको कान तक बँचनेवाला है ] // 64 / / अस्योर्वीरमणस्य पार्वणविधुद्वैराज्यसज्जं यशः सर्वाङ्गोज्ज्वलशर्वपर्वतसितश्रीगर्वनिर्वासि यत् /
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________________ 742 नैषधमहाकाव्यम् / तत् कम्बुप्रतिबिम्बितं किमु ? शरत्पर्जन्यराजिश्रियः पर्यायः किमु ? दुग्धसिन्धुपयसां सर्वानुवादः किमुः ? / / 65 / / अस्येति / अस्य उर्वीरमणस्य भूपतेः सम्बन्धि, पर्वणि भवः. पार्वणः तादृशस्त्र विधोः राकाचन्द्रस्य, द्वैराज्यं द्वयो राज्ञोरिदं कर्म द्वैराज्यं राजद्वयसम्बन्धि कर्मेत्यर्थः चन्द्रद्वयसम्बन्धि धावल्यमिति भावः, द्विराजशब्दात् बहुव्रीह्यन्तात् ब्राह्मणादित्वात् ष्यप्रत्ययः, तत्र सज्ज सन्नद्धं, तत्कार्यकारकमित्यर्थः, पार्वणविधुसदृशमिति समदितार्थः, सर्वाङ्गे उज्ज्वलस्य धवलस्य, शर्वपर्बतस्य कैलासस्य, सितः सितिमा, धावल्यमित्यर्थः, 'गुणे शुक्लादयः पुंसि' इत्यमरः, तस्य श्रिया सम्पदा, यो गर्वस्तं निर्वासयति लुम्पतीति तन्निर्वासि, कैलासस्य शुभ्रताया अपि अधिकं शुभ्रमित्यर्थः, यत् यशः, तत् कम्बूनां शङ्खाना, प्रतिबिम्बितं प्रतिबिम्ब, प्रतिच्छाया इत्यर्थः, किमु ? किं वा शरत्पर्जन्यराजिश्रियः शरन्मेघावलिधावल्यसम्पदः, पर्यायो रूपान्तरं किमु ? अथवा दुग्धसिन्धोः क्षीराब्धेः, पयसां क्षीराणां, सर्वानुवादः सर्वस्यापि पुनरुक्तिः किमु ? कृत्स्नं तत् क्षीरमेवेदं किमित्यर्थः / उत्प्रेक्षात्रयस्य संसृष्टिः // 65 // ___ इस पृथ्वीपति ( मिथिलानरेश ) का पूर्णिमाचन्द्र के दो राजाओंके कर्ममें तत्पर अर्थात पूर्णिमाचन्द्र के समान और सम्पूर्ण अङ्गों ( भागों ) में श्वेत वर्ण कैलास पर्वतकी श्वेतकान्ति के गर्वको नष्ट करनेवाला अर्थात् कैलास पर्वतसे भी अधिक इवेत जो यश है; वह शलोंका प्रतिबिम्ब है क्या ? शरत्कालीन मेघ-समूहकी शोभा ( श्वेतिमा ) का पर्याय ( रूपान्तर ) है क्या ? और क्षीरसागर के जलका सर्वानुवाद ( पुनरुक्ति) है क्या ? / [इस मिथिलानरेशका यश चन्द्रादिके समान तथा श्वेत शङ्खका प्रतिबिम्ब, किसी शब्दके पर्यायवाची शब्दान्तरद्वारा कथनके समान शरत्कालीन मेघ-समूहकी श्वेतिमाका पर्याय तथा किसी वाक्यादिके प्रत्यक्षर अनुवादके समान क्षीरसमुद्रका सम्पूर्णरूपसे अनुवाद होनेसे उन शङ्ख आदिके समान श्वेत है। दूसरा भी दो राजकर्ममें स्थित व्यक्ति विपक्षीका निराकरण करता ही है / यह मिथिलानरेश महायशस्वी है ] / / 65 / / नित्रिंशत्रुटितारिवारण घटाकुम्भास्थिकूटावट. - स्थानस्थायुकमौक्तिकोत्करकिरः कैरस्य नायं करः। उन्नीतश्चतुरङ्गसैन्यसमरत्वङ्गत्तुरङ्गक्षुर क्षुण्णासु क्षितिषु क्षिपन्निव यशःक्षोणीजबीजब्रजम् ? / / 66 / / निस्त्रिंशेति / निर्गतः त्रिंशतोऽङ्गुलिभ्यः इति निस्त्रिंशः त्रिंशदगुल्यधिकः खड्गः इत्यर्थः, डचप्रकरणे 'सङ्ख्यायास्तत्पुरुषस्य-'इतिडच्-प्रत्ययः, तेन त्रुटितेषु खण्डितेषु अरिवारणघटाकुम्भेषु शत्रुगजसमूहकुम्भेषु, अस्थिकूटानाम् अस्थिसङ्घातानाम् अवटस्थानेषु गर्तप्रदेशेषु, स्थायुकाः स्थायिनः, 'लषपत-' इत्यादिना उकञ्-प्रत्ययः, तेषां मौक्तिकोत्कराणां मुक्तासमूहानां,किरतीति किरः क्षेपकः, 'इगुपधज्ञा-'इति कः, अस्य
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________________ द्वादशः सर्गः। नृपस्य, अयं करः चत्वार्यङ्गानि हस्त्यादीनि येषां तादृशानां सैन्यानां समरेषु त्वङ्गतां सञ्चरतां, तुरङ्गाणां शुरैः, करणः, सुग्णासु कृष्टासु, क्षितिषु यशःक्षोणीजस्य कीर्ति. क्षस्य, बीजानां व्रज समूह. क्षिपन् , वपन्निव इत्यर्थः, स्थित इति शेषः, इति कैः जनैः न उन्नीतः ? न उत्प्रेक्षितः ? गजकुम्भस्थमुक्तानां श्वेतत्वात् क्षुद्रत्वाञ्च यशो. तृक्षबीजस्वरूपत्वेन तेषाञ्च रणभूमौ निपातनात् वपनत्वेन चोत्प्रेक्षणादत्रोत्प्रेक्षाद्वयम्।। किन लोगों ने इस (मिथिलानरेश ) के इस ( प्रत्यक्ष दृश्यमान ) तलवारसे काटी गयी शत्रुओंके गज-समूहके कुन्भस्थित हड्डियों के समूहरूप गढ में स्थित मोतियों के समूहको फेंकनेवाले हाथको चतुरङ्गिणी ( गजदल, यदल, रथदल और पैदल ) सेनावाले युद्ध में दौड़नेवाले घोड़ों के (हेर अस्त्र-विशेष ) के समान तीक्ष्ण खुरोंसे क्षुण्ण अर्थात् जोती गयी भूमिमें यशोरूपी वृक्षों के बीज-समूहको बोते हुएके समान नहीं तर्क किया है। [जिस प्रकार कोई किसान खेतको जोतकर उसमें पेड़ों के बीजोंको बोता है, उसी प्रकार यह मिथिला नरेश युद्ध में चतुरङ्गिणी सेनावाले युद्ध में दौड़ते हुए घोड़ों के तीक्ष्ण खुरोंसे कटनेले जोती हुई-सी भूमिमें तलवारले कटकर शत्रुगज-समूहों के कुम्भोंसे निकलते हुए मोतियोंको युद्धदर्शक लोग ऐसा मानते हैं मानो इस राजाके हाथ यशोरूप पेड़ोंके बीजोंको बो रहे हैं / अतिशय श्वेत मोतीरूपी बीजोंसे अतिशय श्वेत यशोरूपी पेड़ोंका उत्पन्न होना उचित ही है / शत्रुओंके गज-समूहके कुम्भस्थल पर तलवार का प्रहार करने पर उनसे गजमुक्ताएं निकलती हैं और इससे इस मिथिलानरेशका यश बढ़ता है ] // 66 // अथिभ्रंशबहूभवत्फलभरव्याजेन कुब्जायित: सत्यस्मिन्नतिदानमाज कथमप्यास्तां स कल्पद्रमः / आस्ते निर्व्ययरलसम्पदुदयोदयः कथं याचक श्रेणीवर्जनदुर्यशोनिबिडितबीडस्तु रमाचलः ? // 67 / / अर्थीति / अस्मिन् राझि, अतिदानभाजि अतिदानशौण्डे सति, मनसा अकल्पितमप्यर्थं ददति सतीत्यर्थः, सः प्रसिद्धः, कल्पद्रुमः, मनःकल्पितार्थमात्रप्रदः कल्प. वृत्तः, अर्थिनां भ्रंशेन असद्भावेन, बहूभवतः व्ययाभावादुपचीयमानस्य, फलभरस्य व्याजेन छलेन, कुब्जायितः कुब्जीभूतः सन् , वस्तुतस्तु लजयवेति भावः, लोहितादेराकृतिगणत्वात् क्यषि कर्तरि क्तः, कथमपि कृच्छ्रण, आस्तां निम्नतया अन्यैरदृष्टः त्वात् कथमपि लज्जावरणसम्भवादिति भावः; किन्तु निय॑याणां व्ययरहितानां, रत्नसम्पदाम् उदयेन बृद्धया, उदग्रः उच्छ्रितः, उच्चशिखरः इति भावः, रत्नाचलो रोहणाद्रिस्तु, याचकणीभिः कीभिः, वर्जनेन परिहारेण, यत् दुर्यशः तेन निबिडितवीडो घनीकृतलजः सन् , कथमास्ते ? कथं तिष्ठति ? उच्चतया स्थित्या सदृष्टत्वात् लज्जासंवरणोपायासम्भवादिति भावः / अत्र द्रमशैलयोः लज्जाऽसम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 67 //
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________________ 744 नैषधमहाकाव्यम् / महादानी ( कल्पनातीत दान करनेवाले ) इस राजाके रहनेपर याचकों के अभावसे अधिक होते हुए फलों के भारके बहानेसे कुबड़ा ( नम्र ) बना हुआ कल्पवृक्ष किसी प्रकार रहे, किन्तु व्ययरहित रत्नसम्पत्तिसे उन्नत तथा याचक-समूहके निषेधसे ( उत्पन्न ) अपयशरूपी बढ़ी हुई लज्जावाला रत्नाचल अर्थात् 'रोहण' नामक पर्वत कैसे रहता है ? / [ यह राजा याचकों को कल्पनातीत दान देता है, अतः कल्पित दान देनेवाले तथा स्वर्ग में होनेसे दूरस्थ कल्पवृक्षके पास याचकों ने जाना छोड़ दिया, इस कारण उसके फल इतने अधिक हो गये कि वह उनके भारसे झुक गया, परन्तु वास्तविकमें 'यह राजा मुझसे भी अधिक दान देता है इस लज्जाके कारण ही वह कल्पवृक्ष झुका ( नम्रमुख ) हुआ है, यह किसी प्रकार अर्थात् स्वर्गस्थ एवं नम्रमुख होनेसे वैसा होकर रहना उचित भी है; किन्तु कभी ब्यय न करने के कारण 'रोहण' पर्वतके रत्न बढ़ते गये और उसका शिखर ऊँचा हो गया और भूलोकमें रहकर भी याचकों को निषेध करने ( दान न देने ) से उसका बहुत अपयश हुआ जो महालज्जाकर था, अतः भूलोकस्थ अर्थात् समीपस्थ होने पर भी याचकोंको दान नहीं देनेसे लज्जाकर अपयशवाला 'रोहण' पर्वत व्ययाभावके कारण बढ़े हुए रत्नोंसे उन्नत शिखर होकर रहता है अर्थात् निर्लज्ज होकर मस्तक ऊँचा किये रहता है, यह उसके लिये अनुचित है। यह मिथिलानरेश कल्पवृक्ष एवं रत्नाचलसे भी अधिक दानी है ] // 67 // सृजामि किं विघ्नमिदन्नृपस्तुतावितीङ्गितैः पृच्छति तां सखीजने / स्मिताय वक्त्रं यदवक्रयद् बधूस्तदेव वैमुख्यमलक्षि तन्नृपे / / 68 / / सृजामीति / अथ सखीजने तां भैमीम्, इदन्नपस्य एतन्नपस्य, स्तुतौ विघ्नं सृजामि किम् ? इतीङ्गितैः चेष्टितैः, पृच्छति सति वधूः भैमी, स्मिताय स्मितं कर्त्त, क्रियार्थेत्यादिना चतुर्थी, वक्त्रं अवक्रयत् वक्रीचकार, इति यत् तत् वक्रीकरणमेव, तन्नपे तस्मिन् नृपे, वैमुख्यं नैस्पृह्यम्, अलक्षि लक्षितम् // 68 // 'इस राजाकी प्रशंसामें विघ्न करूँ क्या ?' यह सङ्केतके द्वारा दमयन्तीसे सखीके पूछने पर दमयन्तीने मुस्कराने के लिए जो मुख फेरा उसे ही उस राजा (मिथिलानरेश ) में ( वहांके दर्शक, राज-समूह, सखी-समूह या उस राजाने ) विमुखता ( अनादरसे मुख फेरना) लक्षित किया / ( पाठा०-उसे ही "उस राजामें अनादरजन्य मुखमलिनता लक्षित किया ) [ दमयन्तीके मुख फेरनेसे लोगोंने 'इस मिथिलानरेशको भी यह नहीं चाहती' ऐसा समझ लिया ] // 68 // दृशाऽथ निर्दिश्य नरेश्वरान्तरं मधुस्वरा वक्तमधीश्वरा गिराम् / अनूपयामास विदर्भजाश्र तौ निजास्यचन्द्रस्य सुधाभिरुक्तिभिः / / 6 / / दृशेति / अथ मधुस्वरा मधुरकण्ठी, गिरामधीश्वरा सरस्वती, नरेश्वरान्तरं राजा१. 'वैलच्य' इति पा० / 2. 'अपूपुरगीमभुवः श्रुती पुनः' इति पा० /
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________________ द्वादशः सर्गः। न्तरं, वक्तुं वर्णयितुं, दृशा निर्दिश्य निरूप्य, विदर्भजाया वैदाः, श्रुतौ श्रोत्रे, निजास्यचन्द्रस्य सुधाभिः उक्तिभिः वचनामृतरित्यर्थः, अनूपयामास सरसीचकार, वचना. मृतवर्षणेन भैम्याः श्रोत्रद्वयमत्यर्थमाीचकारेत्यर्थः, 'जलप्रायमनूपं स्यात्' इत्यमरः। अनुगता आपो यस्येति अनूपम् 'ऋक्पूरब्धः-' इत्यादिना समासान्तः, 'ऊदनोदशे' इत्यूकारः, तस्मात् 'तत्करोति-' इत्यादिना ण्यन्ताल्लिट् // 69 // ___ इस ( उक्त प्रकारसे मिथिलानरेशमें अनादर प्रकट करने ) के बाद मधुरभाषिणी वचनाधिष्ठात्री ( सरस्वती ) देवीने दूसरे राजाको कहने ( वर्णन ) करने के लिए नेत्र ( के संकेत ) से दिखलाकर दमयन्तीके दोनों कानोंको अमृतरूपी वचनोंसे सरस किया अर्थात् दमयन्तीसे बोली // 69 // स कामरूपाधिप एष हा ! त्वया न कामरूपाधिक ईक्ष्यतेऽपि यः / त्वमस्य सा योग्यतमा हि वल्लभा सुदुर्लभा यत्प्रतिमल्लभा परा 70 / स इति / एष पुरोवर्ती, यः कामात् कन्दर्पादपि रूपेणाधिकः, सः प्रसिद्धः, काम. रूपाधिपः कामरूपदेशाधीश्वरोऽपि त्वया नेक्ष्यते हा! तव नैतद्युक्तमिति भावः, कुतः? यस्याः तव इति भावः; प्रतिमल्ला प्रतिद्वन्द्विनी, भाः कान्तिर्यस्याः सा यत्प्रतिमलभा यत्सदृशसौन्दर्यशालिनीत्यर्थः, परा अन्या रमणी, सुदुर्लभा अतिदुर्लभा, एवम्लता सा त्वमस्य राज्ञः, योग्यतमा हि अत्यन्तानुरूपैव, वल्लभा दयिता, समानसौन्दर्यतया समागमयोग्योऽयं त्वया वीक्षितव्य एवेत्यर्थः / / 70 // वह अर्थात् अतिप्रसिद्ध यह (सामने स्थित) कामरूप ('कामरूप' नामक देश, पक्षा०कामदेवके रूप अर्थात् सौन्दर्य ) का राजा कामदेवके रूपसे अधिक अर्थात् कामदेवसे अधिक सुन्दर है ( अथवा-कामदेवके रूपसे अधिक नहीं है ? अर्थात् है ही), जिसे तुम देखती भी नहीं हो ( इसे वरण करने के विषयमें फिर क्या कहना है ?), हाय ! ( कष्ट है ) अर्थात् इसे देखना चाहिये / ( क्योंकि ) जिन ( तुम दोनों ) के समान सौन्दर्यवाला दूसरा व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ है; वह तुम इस ( कामरूपनरेश ) के अत्यन्त योग्य प्रियतमा हो। ( अथ. जिसके अर्थात् तुम्हारे समान श्रेष्ठ ( या दूसरी ) कान्ति अत्यन्त दुर्लभ है / अथवा-जिसके ( तुम्हारे ) समान कान्तिवाली दूसरी (स्त्री) अत्यन्त दुर्लभ है अर्थात् तुम्हारे समान सुन्दरी दूसरी कोई स्त्री नहीं है ) // 70 // अकर्णधाराशुगसम्भृताङ्गतां गतैररित्रेण विनाऽस्य वैरिभिः / विधाय यावत्तरणेभिदामहो ! निमज्ज्य तीर्णः समरे भवार्णवः / / 71|| अकर्णेति / कर्ण इव कर्णः प्रतिमुखशल्यं तद्रहितः अकर्णः, न कर्णिभिर्नापि दिग्धैरिति निषेधादिति भावः, अकर्णा धारा यस्य स अकर्णधारः, स चासौ आशुगः विशिखः, तैः सम्भृतानि सम्पूरितानि, अङ्गानि येषां ते तदङ्गाः तत्तां, गतैः अस्य वैरिभिः शत्रुभिः, अरिभ्यः त्रायते इत्यरित्रं वर्मादि तेन, विना तद्विहाय, समरे निम.
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________________ 746 नैषधमहाकाव्यम् / ज्ज्य पतित्वा, तरणेः सूर्यस्य, भिदां भेदं, विधाय कृत्वा, यावत् , सूर्यमण्डलं भित्त्वैव, भवः संसार एव, अर्णवः समुद्रः, तीर्णः, अहो ! आश्चर्यम् / 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ / परिवाड योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः॥' इति दर्शनादिति / कर्णधारः नाविकः, तस्य अभावात् आशुगेन पवनेन, सम्भृताङ्गतां चाल्यमानदेहत्वं, गतैः प्राप्तः, जनैः अरित्रेण केनिपातेन, नौकापश्चाद्भागबद्ध काष्ठदण्डविशेषेणेत्यर्थः, विना तरणेः नौकायाः, भिदा भेदं, विधाय कृत्वा, समुद्रे निमज्ज्य भवार्णवः तीर्णः उत्तीर्णः इति च गम्यते // 71 // विना कर्णाकार लोहकण्टकवाली धारावाले बाणों से परिपूर्ण (विधे हुए) शरीरवाले इस राजाके शत्रुलोग शत्रु ( इस राजा ) से बचानेवाले ( इसकी अपेक्षा अधिक शूरवीर अन्य राजा, अथवा-कवच ) के विना युद्ध में मरकर तथा सम्पूर्ण सूर्यमण्डलका भेदन कर संसारको पार कर लिया, यह आश्चर्य है / पक्षा०-कर्णधार (पतवार पकड़ने वाला नाविक) तथा वायुसे पूर्ण अङ्ग ( नाव खेनेके रस्सी-पाल आदि साधन ) से रहित, इसके शत्रु डाँड़े ( नाव खेनेवाले बांस ) के विना सम्पूर्ण नावको तोड़कर तथा डूबकर ( अत्यन्त दुस्तर विशाल) समुद्रको पार कर गये, यह आश्चर्य है। [ युद्धमें मरनेवाले वीर सूर्यमण्डलका भेदनकर मुक्त हो जाते हैं। तथा पक्षा०-कर्णधार, अनुकूल वायु, डाँडा आदिके बिना नाव टूटनेपर भी अथाह समुद्रमें डूबकर उसे पार करना आश्चर्य ही है। यह राजा युद्ध में शत्रुओंको मार डालता है ] / / 71 / / / प्रपां न तत्रारिवधूस्तपस्विनी ददाति नेत्रोत्पलवासिभिर्जलैः ? // 72 / / अमुष्येति / यस्मात् अमुष्य भूलोकभुजः पृथिवीलोकस्थितस्य राज्ञः, न तु सूर्यवत् आकाशमार्गचारिण इति तात्पर्यम् ; भुजोष्मभिः भुजप्रतापैः, अरिवेश्मनि शत्रुगृहे, तपत्त : ग्रीष्मत्त रेव, क्रियते नित्यसन्तापः क्रियते इत्यर्थः, तस्मात् तत्र अरिवे. श्मनि, तपस्विनी शोच्या धर्मशीला च, अरिवधूर्नेत्रोत्पलयोर्वसन्तीति तद्वासिभिः जलैरभिः, उत्पलवासनावद्भिश्च जलैः, प्रपीयते अस्यामिति प्रपा पानीयशालिका, 'पाधातोः अङ् तां न ददाति ? इति काकुः, ददातीत्यर्थः, धार्मिका हि ग्रीष्मकाले वासितोदकप्रायाः प्रपाः प्रवर्तयन्तीति / एतेन राज्ञा शत्रुमारणात् सर्वाः शत्रुस्त्रियो निरन्तरं रुदन्तीति भावः // 72 // ____ इस राजाके बाहुप्रताप ( पक्षा०–बाहुजन्य गर्मी ) शत्रुके घरमें जो ग्रीष्म ऋतु करते हैं, इससे वहांपर ( शत्रुके घरमें ) तपस्विनी (दुखिया, पक्षा०-तपस्या करनेवाली अर्थात साध्वी ) शत्रुस्त्री नेत्र-कमलस्थित जल अर्थात् आँसू (पक्षा०-नेत्ररूप कमलोंसे सुवासित जलों) से प्याऊ ( पौसरा) नहीं देवे ? अर्थात् अवश्य देवे। [ग्रीष्म ऋतुमें साध्वी स्त्रीका कमल आदिसे सुगन्धित जलसे पौसरा चलाना उचित है। इसके द्वारा शत्रुके मारे जानेपर उसकी पतिव्रता स्त्री उसके घर में रोती है ] // 72 //
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________________ द्वादशः सर्गः। एतदत्तासिघातस्रवदसृगसुदृद्वंशसाईन्धनैतहोरदामप्रतापज्वलदनलमिलद्भूमधूमभ्रमाय / एतद्दिाजैत्रयात्राऽसमसमरभरं पश्यतः कस्य नासी देतन्नासीरवाजिब्रजखुरजरजोराजिराजिस्थलीषु ? / / 73 / / एतदिति / आजिस्थलीषु रणभूमिप्नु, एतस्य राज्ञः, नासीरे सेनामुखे, वाजिव. जानां खुरैः जाता रजसा राजिः पङ्क्तिः, एतस्य राज्ञः, दिशो जैत्रासु, तृन्नन्तत्वात् षष्ठीसमासनिषेधः, यात्रासु दिग्विजययात्रासु, असमम् असदृशम् ,अतुलनीयमित्यर्थः, समरभरं समरव्यापारं, पश्यतः अवलोकयतः, कस्य जनस्य, एतेन राज्ञा, दत्तैः प्रयक्तैः असिघातैः खड्गप्रहारैः, स्रवदसृजः क्षरद्रक्ताः, असुहृदः शत्रुवर्गाः एव, वंशाः वेणवः, 'वंशो वर्गे कुले वेणौ' इति विश्वः, त एव सार्दैन्धनानि सरसानि दाह्यकाष्ठानि, यस्य एतादृशो यः एतस्य राज्ञः, दोष्णोः भुजयोः, उद्दामः प्रचण्डः, प्रताप एव ज्वलदनलः तस्मिन् मिलतां सङ्गच्छमानानां, वर्तमानानामिति यावत् भूम्नां बहूनां, धूमानां भ्रमाय भ्रान्त्य, न आसीत् ? सर्वस्यापि आसीदेवेत्यर्थः। अत्र रजोराजौ कविसम्मतसादृश्यात् धूमभ्रामोक्त्या भ्रान्तिमान् अलङ्कारः॥ 73 // ___ इस राजाके सेनाग्रमें अश्व-समूहके खुरोंसे उत्पन्न धूलि-समूह इस राजाके दिग्विजयको यात्रामें अतुलनीय युद्धव्यापारको देखनेवाले किस (व्यक्ति ) के इस ( राजा ) के द्वारा किये गये खड्गप्रहार (तलवारकी चोट ) से बहते हुए खूनवाले शत्रुवंश (शत्रु-समूह, पक्षा०शत्रुरूपी बांस ) रूपी गीले इन्धनवाली इस राजाकी गम्भीर ( महान् ) प्रतापरूपी जलती हुई अग्निमें होनेवाले धूम-समूहके भ्रमके लिए नहीं होता ? अर्थात् सबके भ्रमके लिए होता है। [इस राजाकी दिग्विजययात्रामें सेनाके आगे दौड़नेवाले अश्वसमूहके खुरसे उडी धूलि-समूहको देखकर इस राजाके अनुपम युद्धव्यापार देखनेवाले लोगोंको यह भ्रम हो जाता है कि इसने शत्रुओंपर जो तलवारका प्रहार किया है, उससे रक्त बहाते हुए शत्रुसमूह ( पक्षा०-शत्रुरूप बांस ) ही गीले इन्धन हैं और उन ( उक्तरूप गीले इन्धन) के इस राजाके विशाल प्रतापरूपी जलती अग्निमें पड़नेसे धूम-समूह निकल रहा है। गीले इन्धनके अग्निमें पड़नेपर धूम-समूहका निकलना उचित ही है / सव शत्रु इसके प्रतापरूपी अग्निने जल गये हैं ] // 73 // क्षीरोदन्वदपाः प्रमथ्य मथितादेशेऽमरैर्निर्मिते स्वाक्रम्यं सृजतस्तदस्य यशसः क्षीरोदसिंहासनम् / केषां नाजनि वा जनेन जगतामेत कवित्वामृत स्रोतःप्रोतपिपासुकर्णकलसीभाजाऽभिषेकोत्सवः ? // 74 // क्षीरोदन्वदिति / अमरैः देवैः, क्षीराणाम् उदन्वतः क्षीराब्धेः, आपः दुग्धरूपजलानि, क्षीरोदन्वदपाः 'ऋक्पू:-' इत्यादिना समासान्तः, ताः प्रमथ्य विलोड्य, 47 नै० उ०
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________________ 748 नैषधमहाकाव्यम् / मथितं तक्रं, मथनोद्भूतो निर्जलोदधिक्षीरविकारः इत्यर्थः, 'तक्र ादश्विन्मथितं पादाम्वम्बुि निर्जलम्' इत्यमरः, तद्भूते आदेशे इवादेशे रूपान्तरे, निर्मिते सम्पादिते सति, रूपान्तरापादनेन क्षीराब्धी अभावं गमिते सतीत्यर्थः, अथवा द्रवोपरि अव. स्थानासम्भवात् दुग्धरूपे तज्जले अतिघने कृते सतीत्यर्थः, तत् तथा, क्षीरत्वेन प्रसि. द्धम् उदकं यस्य स क्षीरोदः क्षीराब्धिः, 'उदकस्योदः संज्ञायाम्' इत्युदादेशः, तद्र पं सिंहासनं स्वेन आत्मना, सु सुखेन वा, आक्रम्यम् उपवेशनयोग्यं, सृजतः कुर्वतः, घनीभूतं क्षीरसमुद्रमुपविशतः इत्यर्थः; यशसो विशेषणमेतत् बोध्यम् , अस्य राज्ञः, यशसः एतस्य राज्ञः सम्बन्धि, कवित्वम् एतद्रचितं काव्यम् , अथवा कविनिर्मितम् एतत्सम्बन्धि कीर्तिवर्णनरूपं काव्यमित्यर्थः, तदेवामृतं कर्णरसायनत्वादमृतरूपमित्यर्थः, तस्य स्रोतसा प्रवाहेण, प्रोते पूरिते, पिपासूनां पातुमिच्छूनाम् , अत्यादरेण कवित्वामृतशुश्रषूणां जनानामित्यर्थः, कर्णावेव कलस्यौ अभिषेचनकुम्भौ, भजतीति तद्भाजा, केषां वा जगतां भुवनानां सम्बन्धिना, जनेन अभिषेकोत्सवः अभिषेकजन्यः आनन्दोत्सवः, न अजनि ? न जनितः ? जनेय॑न्तात् कर्मणि लुङ, भुवनान्तरस्था अपि कवयः आ-क्षीराब्धिप्रसृतमेतद्यशः सर्वत्र आनन्दकरं वर्णयन्ति स्म इत्यर्थः; एतद्यशः लोकपरम्परया क्षीरसमुद्रपर्यन्तगामीति भावः / देवैः क्षीरोदसमुद्रे मथिते सति तत्र जलाभावात् अधुना क्षीरोदसमुद्ररूपसिंहासनम् अधिकृतवति एतद्राजयशसि एतद्यशःक्षीरोदस्य वर्णयितारः अखिलाः कवय एव अभिषेक्तारः कवि. त्वमेव जलं श्रोतृजनकर्णा एव कलसाः तत्सम्भवायाः सरितः प्रसर्पणात् स्तुतिः एवाभिषेक इति रूपकालङ्कारः / अथवा लोके यथा कस्मिंश्चित् राजनि केनचित् मथिते तदीयं सिंहासनम् आक्रम्याधितिष्ठतोऽन्यस्य जनैर्जलपूर्णकलसेनाभिषेकः क्रियते तद्वदिति भावः // 74 // देवों के द्वारा क्षीरसमुद्र के जलको मथनकर 'मथित' आदेश करने (मथन किया हुआ निर्जल दधि-विशेष ( छिनुई दही ) बनाये जाने ) पर क्षीरसमुद्र के जलको अपने आक्रमण करने ( बैठने ) योग्य बनानेवाले इस राजाके यशका-इस ( द्युतिमान् राजाकी ) कवितारूपी अमृतके प्रवाहसे पूर्ण किये गयेको पान करने ( सुनने) के इच्छुकों के कानरूपी दो कल शोको धारण किये हुए किस संसार के लोगोंका अभिषेकोत्सव नहीं हुआ ? अपि तु सभी संसारके लोगोंका अभिषेकोत्सव हुआ। [ 'मित्रवदागमः, शत्रुवदादेशः' सिद्धान्तके अनुसार क्षीरसमुद्रके जलको देवोंने 'मथित' (निर्जल मया गया दधि-विशेष ) बना दिया ( आदेश होने के कारण क्षीरसमुद्रके जलका नाश होना उचित ही है ) और उसे इसके यशने अपने बैठने योग्य सिंहासन बनाया अर्थात् क्षीरसमुद्रतक इसका यश फैल गया तथा इस राजाकी कवितारूपी अमृत प्रवाहसे पूर्ण किये गये उसको पीने (पक्षा०-इसकी प्रशंसा सुनने ) के इच्छुक लोगोंके दोनों कान दो कलश हुए उनके द्वारा उस (क्षीरसमुद्रको मथित बनाकर तद्रूप सिंहासनारूढ ) यशका अभिषेक किस जगतके निवासियोंने नहीं किया ?
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________________ द्वादशः सर्गः। 746 अर्थात् सबने किया ( सब लोकों के निवासियों ने इसके यशको सुन कर उत्सव मनाया)। अभिषेकके लिये सिंहासनारूढ़ होना तथा दो कलशोंका रहना उचित ही है। यहां पर मथित क्षीरसमुद्रका जल सिंहासन, उस पर आरूढ (फैला हुआ ) इस राजाके यशको अभिषेष्य, क्षीरसमुद्रके कबियोंको अभिषेक करनेवाले, कवितामृतको जल, श्रोताओंके कानोंको कलश तथा इनसे पूर्ण होकर इसके यशके सर्वत्र फैलनेसे की गयी प्रशंसाको ही अभिषेक समझना चाहिये ] // 74 // समिति पतिनिपाताकर्णनद्रागदीर्णप्रतिनृपतिमृगाक्षीलक्षवक्षःशिलासु / रचितलिपिरिबोरस्ताडनव्यस्तहस्त प्रखरनखरटङ्करस्य कीर्तिप्रशस्तिः।।७।। समितीति / अस्य राज्ञः, कीत्तः प्रशस्तिः प्रशंसा, समिति आजौ, पतिनिपातस्य भत्तु मरणस्य, आकर्णने श्रवणेऽपि, द्राक् सद्य एव, अदीर्गासु अभिन्नासु, अक्षरविन्यासयोग्यासु इति यावत् , प्रतिनृपतिमृगाक्षोलक्षाणाम् अरिराजस्त्रीलक्षसङ्ख्यकानां, वक्षःशिलासु पाषाणकठिनवक्षःस्थलेषु, पतिमरणश्रवणक्षणे एवाविदीर्णत्वात् वक्षसः शिलात्वं बोध्यम् , उरस्ताडने वक्षस्ताडने व्यस्तानां ब्यापूतानां, सवेगं पातिताना. मिति यावत् , हस्तानां ये प्रखरनखाः तीक्ष्गनखाः तैरेव टङ्कः पाषाणदारकद्रव्यवि. शेषैः 'टङ्कः पाषाणदारणः' इत्यमरः, रचितलिपिरिव कृताक्षरविन्यासा इव, भाति इति शेषः / दुःखातिरेकात् वक्षःकृतनखालेखनेषु कीर्तिप्रशस्तेः अक्षरत्वोत्प्रेक्षणात् उत्प्रेक्षालङ्कारः // 75 // ___ इस ( राजा ) की कीर्ति-प्रशस्ति युद्धमें पतियोंका गिरना ( मरना ) सुननेसे तत्काल नहीं विदीर्ण हुए लाखों शत्रुमगनयनियों ( स्त्रियों ) के हृदयरूप पत्थरोंपर छाती पीटनेमें व्यस्त ( सलग्न ) हार्थों के तीव्र नखरूप टांकियाँ ( छेनियों) से लिखी गयी लिपिके समान है / [ युद्ध में इस राजा द्वारा मारे गये लाखों शत्रुओंकी स्त्रियों के छाती पीट-पीटकर रोते समय उनके नखोंसे जो चिह्न पड़ जाते हैं, वे पत्थरोंपर तीक्ष्ण टांकियोंसे खोदे गये इस राजाकी कीर्ति के शिलालेख हो रहे हैं / इसने लाखों शत्रुओंको युद्ध में मारकर गिरा दिया है और उनकी स्त्रियां छाती पीट-पीटकर रोती हैं ] // 75 // विधाय ताम्बूलपुटीं कराङ्कगां बभाण ताम्बूल करवाहिनी / दमस्वसुभोवमवेत्य भारती नयानया वक्त्रपरिश्रम शमन / / 76 // विधायेति / ताम्बूलकरङ्कवाहिनी ताम्बूलपात्रधारिणी, दमस्वसुः दमयन्त्याः, भावंतद्राजवर्णननिषेधरूपमभिप्रायम् , अवेत्य ज्ञात्वा, ताम्बूलपुटों ताम्बूलबीटिकां, करागां करतलसंस्थां, विधाय कृत्वा अनया वीटिकया, वक्त्रपरिश्रमं बहुक्षणं व्याप्य एतद्राजगुणकथनजन्यम् आस्यशोषं, शमं शान्ति, नय इति भारती बभाण; अम्ब ! नायमस्यै रोचते कृतं वृथा एतद्वनश्रमेणेति तात्पर्यम् // 76 // पानदानको ले चलने वाली (दासी) ने दमयन्तीके अभिप्राय ( इस राजाको यह वरण
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / करना नहीं चाहती ऐसे भाव ) को जानकर पानका बीड़ा हाथमें लेकर ( सरस्वती देवीके सामने करती हुई ) सरस्वतीसे बोली कि-'इस ( पानके बीड़े) से ; मुखके परिश्रमको दूर करो' अर्थात तुमने इस राजाका बहुत वर्णन किया जिससे मुख थक गया होगा, अतः यह पानका बीड़ा खाकर उसे विश्राम दो। [ तुम इस कामरूपाधिपका वर्णन करना इस पानके बीड़ा खानेके व्याजसे भी बन्द करो ] // 76 / / / समुन्मुखीकृत्य बभार भारती रतीशकल्पेऽन्यनृपे निजं भुजन् / ततस्त्रसद्वालपृषद्विलोचनां शशंस संसज्जनरञ्जनी जनीम् / / 77 / / समुन्मुखीति / अथ भारती सरस्वती, रतीशकल्पे कामतुल्ये, अन्यनृपे नृपान्तरे विषये, निजं भुजंसमुन्मुखीकृत्य, सम्यगभिमुखीकृत्य, बभार धारयामास, दमयन्त्यै तं दर्शयितुं तदभिमुखं कृतवतीत्यर्थः / ततो हस्तोद्यमानन्तरं, सबालपृषद्विलोचनां चकितमृगशावाक्षी, संसज्जनरञ्जनीं सभास्थजनमनोहारिणी, जनीं वधू', दमयन्तीमिति यावत् , शशंस उवाचेत्यर्थः॥ 77 // (इसके बाद ) सरस्वतीने कामदेव तुल्य दूसरे राजाकी ओर अपना हाथ किया, तद. नन्तर डरते हुए बालमृगके ( नेत्रके ) समान ( चञ्चल ) नेत्रवाली तथा सभासदों के चित्तको अनुरक्त करनेवाली वधू ( दमयन्ती ) से कहा-॥ 77 / / अयं गुणौघेरनुरज्यदुत्कलो भवन्मुखालोकरसोत्कलोचनः / स्पृशन्तु रूपामृतवापि ! नन्वमुं तवापि दृक्तारतरङ्गभङ्गयः / / 78 / / अयमिति / ननु हे ! रूपामृतवापि सौन्दर्यसुधारसदीर्घिके ! गुणौघः सौन्दर्यादिभिः, अनुरज्यन्तः अनुरक्ताः, उत्कलाः तद्देशीयलोकाः यस्मिन् स तादृशः, अयं राजा, भवत्याः तव, मखस्य आस्यस्य, आलोकरसेन आलोकनकौतुकेन, उत्कलोचनः उत्सुकाक्षः, भवतीति शेषः; तवापि दृशोः ताराः विशालाः, तरङ्गभङ्गयः पुनः पुनर्निक्षेपरूपवीचिविन्यासाः, अमुम् उत्कलाधिपतिं, स्पशन्तु, स्वानुरागिणि अनुराग उचित इति कटाक्षरेनं पश्येति भावः // 7 // ____ गुण-समूहसे अनुरक्त हो रहे हैं उत्कल ( उड़िया लोग, पक्षा०-उत्कृष्ठ 64 कलाएँ) जिसमें ऐसा यह राजा तुम्हें देखने में उत्कण्ठित नेत्रवाला अर्थात् तुम्हें देखने के लिए उत्सुक है, ( इस कारण ) हे रूप ( सौन्दर्य) रूपी अमृतकी वापी ( दमयन्ती ) ! इसे तुम्हारे भी नेत्रों के विशाल ( बड़े-बड़े या चञ्चल) तरङ्गों के विलास स्पर्श करें अर्थात् तुम भी इस उत्कलनरेशको चञ्चल नेत्र-कटाक्षों से देखो। [ उत्कलवासियों का अनुरक्त होने से इस राजामें सौन्दर्याधिक्य होना देवीने सूचित किया है। वापी में बड़े-बड़े तरङ्गोंका होना उचित ही है ] // 78 / / अनेन सर्वार्थिकृतार्थताकृता हतार्थिनौ कामगवीसुरद्रुमौ / मिथः पयःसेचनपल्लवाशने प्रदाय दानव्यसनं समाप्नुतः / / 76 //
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________________ द्वादशः सर्गः। अनेनेति / सर्वार्थिनां सर्वयाचकानां, कृतार्थताकृता पूर्णकामत्वकारिणा, अनेन राज्ञा, हृतार्थिनौ स्वयं सर्वार्थदानादर्थिहरणेनार्थिरहितौ कृतौ इत्यर्थः, कामानां दात्री गौः कामगवी कामधेनुः, 'गोरतद्धितलुकि' इति समासान्तष्टच, सा च सुरद्रुमः कल्पवृक्षश्च तौ, मिथोऽन्योऽन्यं प्रति, पयःसेचनं क्षीरसेकं, पल्लवाशनं पल्लवभोजनञ्च, प्रदाय दत्त्वा, दानव्यसनं दानासक्तिं, समाप्नुतः समापयतः। याचकान्तराभावात् अन्योऽन्यं प्रति सम्प्रदानीयपयःपल्लवमात्रदानेन कथञ्चिदानकण्डूत्यपनोदनं कुरुत इति तात्पर्यम् // 79 // सब याचकोंको ( अभीष्ट दान देकर ) कृतार्थ ( कृतकृत्य ) करनेवाले इस ( राजा ) से आहरण कर लिये गये हैं याचक जिनके ऐसे कामधेनु तथा कल्पवृक्ष ( अन्य याचकोंके अपने पास याचना करनेके लिए नहीं जानेके कारण क्रमशः ) परस्पर में दुग्धका सिञ्चन तथा पल्लवका भोजन देकर दानके व्यसनको पूरा करते हैं। [ कामधेनु तथा कल्पवृक्षको नित्य दान देनेका व्यसन है, किन्तु इस राजा द्वारा सब याचकोंकी याचना पूरी कर देनेसे उन ( कामधेनु तथा कल्पवृक्ष ) के पास कोई भी याचक नहीं जाता, अतएव कामधेनु अपने दूधसे कल्पवृक्षको सींचकर तथा कल्पवृक्ष अपने पल्लवोंको कामधेनुके भोजनार्थ देकर परस्पर में ही दानके व्यसनको पूरा करते हैं ] / / 79 // नृपः कराभ्यामुदतोलयन्निजे नृपानयं यान् पततः पदद्वये / तदीयचूडाकुरुविन्दरश्मिभिः स्फुटेयमेतत्करपादरञ्जना / / 80 // नृप इति / अयं नृपः निजे पदद्वये पततः प्रणमतो, यान् नृपान् कराभ्यां हस्ता. भ्याम् ,उदतोलयत् उत्तोलयामास, कृपयेति शेषः, तदीयासु तेषां राज्ञां सम्बन्धिनीषु, चूडासु किरोटेषु, ये कुरुविन्दाः पद्मरागाः, 'कुरुविन्दस्तु मुस्तायां कुल्माषबीहिभेदयोः / हिङ्गुले पद्मरागे च' इति विश्वः, तेषां रश्मिभिः एतस्य राज्ञः, करपादयोः करयोः पादयोश्च, रञ्जना प्रणामेन चरणयोस्तेषामुत्तोलनेन च करयोः रक्तिमत्वं बोध्यम् , इयं स्फुटा,लक्ष्यते इति शेषः / स्वाभाविककरपादरागे राजकिरीटमाणिक्यमयूखरञ्जनत्वोत्प्रेक्षणेनास्यानेकराजविजयित्वं व्यज्यते इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 8 // ___ इस राजाने अपने दोनों चरणोंपर (प्रणाम करनेके समयमें ) गिरते हुए राजाओं ( के मस्तकों ) को जो दोनों हाथोंसे उठाया, उन (विनम्र राजाओं ) के मुकुटके मणिक्योंकी किरणोंसे ही इस ( राजा ) के हाथ-पैर में यह लालिमा स्पष्ट ( दीख रही ) है // 80 // यत्कस्यामपि भानुमान ककुभि स्थेमानमालम्बते जातं यद्घनकाननैकशरणप्राप्तेन दावाग्निना / एषैतद्भूजतेजसा विजितयोस्तावत्तयोरौचिती धिक तं वाडवमम्भसि द्विषि भिया येन प्रविष्टं पुनः // 81 //
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________________ 752 नैषधमहाकाव्यम् / यदिति / भानुमान् भास्वान् सूर्यः, कस्याम् अपि ककुभि कुत्रापि दिशि, स्थेमानं स्थिरत्वं, स्थिरशब्दस्य दृढादिपाठात् 'वर्णदृढादिभ्यः ष्यञ्च' इति चकारादिमनिच / 'प्रियस्थिर-' इत्यादिना स्थादेशः, न आलम्बते इति यत् , तथा दावाग्निना घनं निबिडं,काननमेव एकशरणम् एकमात्ररक्षितारं, प्राप्तेन 'द्वितीया श्रित-' इत्या. दिना समासः, जातम् इति यत् , जातमिति भावे क्तः, एषा एतदुभयमपीत्यर्थः, विधेयप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गता, एतस्य राज्ञः, भुजतेजसा भुजप्रतापेन, विजितयोः तयोर्भानुदावान्योः, औचिती तावत् औचित्यमेव, भीतस्य व्याकुलत्वादेकनानव. स्थानं वनाश्रयणञ्च युक्तमिति भावः, किन्तु तं वाडवं वडवाग्नि,धिक, येन वाडवेन, पुनः भिया भयेन, द्विषि स्वस्य सहजद्वेषिणि, अम्भसि जले, प्रविष्टम् भावे क्तः स्व. शत्रुसंश्रयणात् अन्यत्र पलायनमपि वरमिति भावः / अत्र स्वाभाविकस्य सूर्यादिपर्यटनादेः एतद्भीहेतुकत्वोत्प्रेक्षणात् उत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्या // 81 // जो सूर्य किसी भी दशामें स्थिर नहीं रहते और जो दावाग्निने सघन वनरूपी एक ( मुख्यतम ) रक्षकको प्राप्त किया है, वह (वैसा करना ) इस राजाके बाहु-प्रतापसे जीते गये उन दोनों ( सूर्य तथा दावाग्नि के लिये कथञ्चित् उचित है; किन्तु उस वडवाग्निको धिक्कार है जो इसके भयसे शत्रुभूत पानी ( समुद्र के जल ) में फिर घुस गया है। [इस राजाके बाहुप्रतापसे जीते गये सूर्य का किसी दिशामें स्थिर नहीं रहना तथा दावाग्निका सघन वनमें छिपकर रहना वो उचित है, किन्तु वडवाग्निका इसके भयसे जो अपने शत्रु (जलके द्वारा अग्निके बुझ जानेसे जलको अग्निका शत्रु मानना उचित ही है ) पानी में आत्मरक्षार्थ फिर घुस गया अतएव ( एक शत्रुसे डरकर आत्मरक्षार्थ दूसरे शत्रुके शरणमें जानेसे ) उस नीच वड़वाग्नि को धिक्कार है / अपने शत्रु की शरणमें जानेकी अपेक्षा भाग जाना या किसी वनमें छिप जाना श्रेष्ठ है ] // 81 // अमुष्योभिः प्रमृमरचमूसिन्धुरभवै'. रवैमि प्रारब्धे वमथुभिरवश्यायसमये / न कम्पन्तामन्तः प्रतिभटनृपाः ? म्लायतु न तद् वधूवक्त्राम्भोजं ? भवतु न स तेषां कुदिवसः ? // 82 / / अमुष्येति / अमुष्य उर्वीभत्तुः प्रसृमराः प्रसारिणः, 'सृघस्यदः क्मरच्' तेभ्यः चमूसिन्धुरेभ्यः सेनागजेभ्यः, भवैः वमथुभिः करशीकरः, 'वमथुः करशीकरः' इत्यमरः, अवश्यायसमये नीहारकाले प्रारब्धे सति, अवैमि जानामि, मन्ये इत्यर्थः, वक्ष्यमाणवाक्यार्थः कर्म, प्रतिभटनृपाः शत्रुभूपाः अन्तः अन्तःकरणे, न कम्पन्ताम् ? न कम्पेरन् ? अपि तु कम्पन्तामेवेत्यर्थः, इति काकुः, एवमुत्तरत्र / तद्वधूनां शत्रुभूपश्रीणां, वक्त्रमेवाम्भोजं पद्मं, न म्लायतु ? ग्लायतु एव इत्यर्थः / सेनागजवमथु 1. 'भरः' इति पा०।
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________________ 753 द्वादशः सर्गः। कृतावश्यायाच्छन्नदिवसः, तेषां प्रतिभटनृपाणां तद्वधूनाञ्च, कुदिवसो दुर्दिनञ्च, न भवतु ? भवेदेवेत्यर्थः / अत्र करशीकरादौ नीहारादिरूपणापकालङ्कारः // 82 // इस भूपतिकी फैलती हुई सेना के हाथियोंसे उत्पन्न ( पाठा०-हाथियों के समूह ) हेमन्तकालके आरम्भ करनेपर, शत्रु राजा लोग हृदयमें (पक्षा०-उस हेमन्तकाल में ) नहीं कम्पित हो / अर्थात् ( इस राजाके भयसे ) अवश्य कम्पित हो / ( पक्षा०-हेमन्त. काल में शीतसे कम्पित होना उचित ही है ), उन ( शत्रु राजाओं ) की स्त्रियोंका मुखरूपी कमल मलिन नहीं होवे अर्थात् इस राजाके युद्ध में पतिमरणकी आशङ्कासे उनका मुखकमल अवश्य मलिन होवे ( पक्षा०–हेमन्तकालमें कमलों का मलिन होना उचित ही है ) और वह ( युद्धदिवस ) उन (शत्रु राजाओं तथा उनकी स्त्रियों ) का कुदिन (अनिष्ट दिन, पक्षा०-दुर्दिन अर्थात् भेघाच्छन्न दिन ) नहीं होवे अर्थात् इस राजाके भयसे उन शत्रु राजाओं तथा उनकी स्त्रियों के लिए उक्त युद्ध-दिवस अवश्य अनिष्ट दिन होवे (पक्षाबादल घिरा हुआ दुर्दिन होना उचित ही है ) / [ इस राजाके सेना-गजों के हेमन्तकालके कुहरेके समान सूड़ोंसे छोड़े जाते हुए जलकणोंको देख उनकी अगणनीयताका अनुमान कर शत्रुओंका हृदय में कँपना, उनकी स्त्रियों के मुखका पतिमरणकी अशङ्कासे मलिन होना तथा उस युद्ध दिनका अशुभ दिन होना ( पक्षा०-क्रमशः हेमन्तकालमें मनुष्योंका हृदयसे कॅपना, कमलका मलिन होना तथा मेघसे घिरनेके कारण दुर्दिन होना) उचित ही है। इस राजाकी सेनामें अगणित हाथी हैं ] // 82 // आत्मन्यस्य समुच्चितीकृतगुणस्याहोतरामौचिती यद्गात्रान्तरवर्जनादजनयद्भूद्यानिरेष द्विषाम् / भूयोऽहक्रियते स्म येन च हृदा स्कन्धो न यश्चानमत् तन्मर्माणि दलं दलं समिदलंकर्मीणबाणव्रजः / / 83 // .. आत्मनीति / आत्मनि स्वस्मिन्नेव, समुच्चितीकृतगुणस्य समाहृतसौन्दर्यादिनिखिलगुणस्य, अस्य राज्ञः, औचिती औचित्यम् , अहोतराम् अत्याश्चर्य, 'किमेतत्-' इत्यादिना अव्ययादाम्-प्रत्ययः औचित्यमेवाह, समिति युद्ध, कर्मणे क्रियायै अलम् अलंकर्मीणः कर्मक्षमः, 'कर्मक्षमोऽलंकर्मीणः' इत्यमरः / 'पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या' इति कृतसमासादलंकर्मशब्दात् 'अषडक्षासितंग्वलंकर्म-' इत्यादिना ख-प्रत्ययः / समिदलंकर्मीणो युद्धकर्मपटुः, बाणव्रजो यस्य स तथोक्तः अमोघबाण इत्यर्थः, एष भूर्जाया यस्येति भूजानिः भूपतिः, जायाया जानिरादेशः द्विषां शत्रूगां, येन च हृदा हृदयेन, भूयो भूयिष्ठम्. अहडिक्रयते स्म अहङ्करोतेर्भावे लट 'लट स्म' इति भूते लट यश्च स्कन्धो भुजशिरः, न अनमत् न प्राणमत् , 'स्कन्धो भुजशिरोऽसोऽस्त्री' इत्यमरः, गात्रान्तराणाम् अवयवान्तराणां, हृत्स्कन्धेतराणामित्यर्थः, वर्जनात् वर्जनं कृत्वेत्यर्थः, तेषाम् अनपराधित्वादिति भावः, ल्यब्लोपे पञ्चमी तानि हृदयस्कन्ध.
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________________ 754 नैषधमहाकाव्यम् / रूपाणि, मर्माणि जीवस्थानानि, दलं दलं भृशं दलयित्वा, 'आभीक्ष्ण्ये णमुल च' इति णमुलप्रत्ययः / 'आभीक्ष्ण्ये द्वे भवतः' इत्युपसङ्ख्यानात् द्विर्भावः यत् अजनयत् यद्दण्डनमकरोदित्यर्थः, तदेतद्दण्ड्यमात्रदण्डनं राज्ञ उचितमाश्चर्यतरञ्चेत्यर्थः, अहङ्कारात् अनम्रम् अरिं समूलघातं हन्त्ययमिति भावः // 83 // ____ अपनेमें गुण-समूहको एकत्रित किये हुए इस राजाका औचित्य ( उचित भाव ) अत्यन्त आश्चर्यकारक है, जो युद्ध में कर्मसमर्थ ( अमोघ ) बाण-समूहवाला यह राजा, शत्रुओंका जो हृदय बार-बार अहङ्कार करता है और जो ( स्कन्ध ) नम्र नहीं हुभा, ( अतः ) दूसरे अङ्गोंको छोड़कर उन ( हृदय तथा स्कन्ध ) के मौको खण्ड-खण्ड कर दिया। [ यह राजा शत्रुओंके अहङ्कारी हृदय तथा अनम्र स्कन्ध देशको ही खण्डशः करता है, अतः शरणमें नहीं आनेवालेका समूल नष्ट करनेवाला महाशूरवीर है ] / / 83 / / दूरं गौरगुणैरहकृतिमतां जैत्राङ्ककारे चर. त्येतद्दोर्यशसि प्रयाति कुमुदं बिभ्यन्न निद्रां निशि | धम्मिल्ले तव मल्लिकासुमनसां माला भिया लीयते पीयूषस्रबकैतवाद्धृतदरः शीतद्युतिः स्विद्युति / / 84 // दूरमिति / एतस्य राज्ञः, दोष्णो भुजस्य, यशसि गौरैर्धावल्यैरेव गुणैः, 'गुणे शुक्लादयः पुंसि' इत्यमरः, दूरमत्यन्तम् , अहङकृतिमताम् असाधारणाभिमानवतां कुमुदादिधवलवस्तूनां, जैत्राङ्ककारे जैत्रञ्च तत् अङ्ककारञ्चेति तस्मिन् कर्मधारयः; तदहङ्कारखण्डनाय जित्वरयुद्धकारिणि, चरति भ्रमति सति 'अङ्क इत्यनुवृत्तौ च चित्रयुद्धे विभूषणे' इति विश्वः, कुमुदं बिभ्यत् भीतं सत् , निशि निद्रां स्वापं मुकुलनञ्च, न प्रयाति न प्राप्नोति / मल्लिकासुमनसां माला भिया तव धम्मिल्ले संयतकेशपाशे, 'धम्मिल्लाः संयताः कचाः' इत्यमरः लोयते अन्तर्द्धत्ते / शीतद्यतिः चन्द्रोऽपि, धृतदरः प्राप्तत्रासः सन् , पीयूषस्रवकैतवात् अमृतस्रावव्याजात् , स्विद्यति स्वेदं त्यजति, निद्रापरिहारादीनि भीतिचिह्वानोति भावः / अत्र दोर्यशःप्रभृतीनाम् अहङ्काराद्यसम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेः अतिशयोक्तिभेदः॥ 84 // श्वेत गुणों ( हम सर्वाधिक श्वेत हैं इस गुण ) से अधिक अहङ्कार करनेवाले, इस राजा के बाहुओंसे उत्पन्न यशके ( संसारमें) फैलते ( पक्षा०-अपना प्रतिमल ढूँढ़ते ) रहनेपर ( इस राजासे) डरता हुआ कुमुद रातमें नहीं सोता ( पक्षा०-सङ्कुचित नहीं होता ) है, ( इसके ) भयसे मल्लिकाके फूलोंकी माला तुम्हारे ( काले ) केश-समूहमें लीन हो जाती ( अदृश्य हो जाती, पक्षा०-अन्धकारयुक्त स्थानमें छिप जाती ) है तथा ( इस राजासे ) डरा हुआ चन्द्रमा अमृतस्रावके छलसे स्वेदयुक्त हो रहा है। [ कुमुद, मल्लिका. पुष्प तथा चन्द्रमा अपने में अधिक श्वेत गुण होनेका अभिमान करते थे; किन्तु इस राजाके बाहुजन्य यशके संसार में फैलनेपर इस राजाके बाहुयशके भयसे उनमेंसे कुमुद रातमें सोता
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________________ द्वादशः सर्गः। 755 नहीं ( बन्द नहीं होता ), मल्लिका-पुष्प काले ( पक्षा०-अन्धकारयुक्त) तुम्हारे केशों में छिपकर अदृश्य हो जाते हैं तथा चन्द्रमा अमृतक्षरणके छलसे पसीना-पसीना हो जाता है / शत्रु से डरनेपर कुमुदका रातमें नहीं सोना, मल्लिका पुष्पका काले होनेसे अन्धकारपूर्ण स्थानमें छिप जाना तथा चन्द्रमाका अमृतक्षरणके छलसे पसीना-पसीना होना उचित ही है। इस राजाका बाहुजन्य यश अर्थात् प्रताप कुमुद, मल्लिका-पुष्प तथा चन्द्रमासे भी अधिक उज्ज्व ल है ] // 84 // एतद्गन्धगजस्तृषाऽम्भसि भृशं कण्ठान्तमज्जत्तनुः फेनैः पाण्डुरितः स्वदिक्करिजयक्रीडायशःस्पद्धिभिः / दन्तद्वन्द्वजलानुबिम्बनचतुर्दन्तः कराम्भोवमि व्याजादभ्रमुवल्लभेन बिरहं निर्वापयत्यम्बुधेः / / 8 / / ___ एतदिति / तृषा पिपासया, अम्भसि जले, भृशं कण्ठान्तं कण्ठपर्यन्तं, मज्जन्ती तनुः शरीरं यस्य सः,स्वेन आत्मना, दिक्करिणां जयेन या क्रीडा तस्याः तज्जनितानि इत्यर्थः, यशांसि स्पर्धन्ते ये तैः तादृशैः तत्स्पद्धिभिः तत्सदृशैः, फेनैः पाण्डुरितः पाण्डुवर्णीकृतः, दन्तद्वन्द्वस्य जले अनुबिम्बनेन प्रतिबिम्बपातेन, चतुर्दन्तो दन्तच. तुष्टयवान् , एतस्य राज्ञः, गन्धगजो दुष्टगजः, कराम्भसां वमिर्वमथुः, करशीकर इत्यर्थः, 'प्रच्छर्दिका वमिश्च स्त्री पुमांस्तु वमथुः समाः' इत्यमरः। 'वमथुः, पुंसि वमने गजस्य करशीकरे' इति मेदिनी, तस्या व्याजात् अम्बुधेः समुद्रस्य, अभ्रमुव. ल्लभेन ऐरावतेन, स्वपुत्रेणेति भावः, विरहं विरहतापं, निर्वापयति शमयतीति सापह्नवोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्दम्या // 85 // प्याससे जलमें अतिशय ( अथवा-अधिक प्याससे जलमें ) कण्ठ तक शरीरको डुबाया हुआ, दिग्गजोंकी अनायास विजयसे उत्पन्न अपने यशसे स्पर्धा करनेवाले अर्थात् उक्त यशके समान फेनों (के पानीके ऊपरी भागवाले शरीरमें लगने) से इवेतवर्ण और दोनों दातों के पानीमें प्रतिबिम्बित होनेसे चार दाँतोंवाला इस राजाका गन्धगज ( दुष्ट हाथी या अपने मद. मल-मूत्र आदिके गन्धसे दूसरे गजोंको जीतनेवाला हाथी या दूसरे हाथी के गन्धको नहीं सहनेवाला हाथी) सूंडके वमथु ( बाहर फेंके हुए जलकण) के व्याजसे समुद्रके ऐरावत ( समुद्रोत्पन्न होनेसे पुत्ररूप पूर्व दिग्गज ) के विरहको शान्त कर रहा है। [ ऐरावत समुद्र में रहनेवाला श्वेत वर्णवाला और चार दाँतोंवाला था; अतः प्याससे कण्ठ तक समुद्र में डूबा हुआ, फेनोंसे श्वेत वर्णवाला तथा जलमें अपने ही दो दाँतों के प्रतिबिम्बित होनेसे चार दाँतोंवाला इस राजाका गन्धगज सँड़से जलकण छोड़ता हुआ समुद्र के पुत्र ( ऐरावत )-विरहको शान्त करता हुआ-सा ज्ञात होता है। हाथीसे समुद्र पर्यन्त विजय करनेवाला यह राजा है ] / अथैतदुर्वीपतिवर्णनाद्भुतं न्यमीलदास्वादयितुं हृदीव सा / मधुस्रजा नैषधनामजापिनी स्फुटीभवद्धयान पुरःस्फुरन्नला // 86 //
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________________ 756 नैषधमहाकाव्यम् / अथेति / अथ सा दमयन्ती, मधुस्रजा वरणार्थया मधुममालया, मधूकपुष्पमालया इत्यर्थः, तथैवाक्षमालयेति भावः, 'मधु पुष्परसे क्षौद्रे मद्ये ना तु मधुद्रुमे' इति मेदिनी, नैषधस्य नलस्य, नाम जपतीति तज्जापिनी, अत एव स्फुटीभवता साक्षात्कारपरिणामिना, प्रत्यक्षीकरणसाधनेनेत्यर्थः, ध्यानेन पुरोऽग्रे, स्फुरन् प्रत्यक्षी. भवन् , नलो यस्याः तादृशी सती, एतस्य उर्वीपतेः उत्कलेश्वरस्य, वर्णनमेव अद्भ. त आश्चर्यरसं, हृदि हृदये,आस्वादयितुम् अनुभवितुमिव, न्यमीलत् निमीलिताक्षी जाता, परमार्थतस्तु नलसाक्षात्कारसुखास्वादनायवेत्यर्थः / / 86 // इस ( सरस्वतीके उक्त ( 12 / 78-85) वर्णन करने ) के बाद (वरण सम्बन्धिनी ) महुएकी मालासे नलके नामको निरन्तर जपती हुई ( अत एव ) स्पष्ट होते हुए ध्यानसे प्रत्यक्षमें भासमान होते हुए नलवाली वह ( दमयन्ती ) इस राजा ( उत्कलनरेश ) के वर्णनरूप अद्भतरसको मानो हृदयमें आस्वादन करने के लिए नेत्रोंको बन्द कर लिया [ किन्तु वास्तविकमें तो नल के साक्षात्कारका आस्वादन करने के लिए ही उसने नेत्रोंको बन्द कर लिया। नलानुरक्त उस दमयन्तीने उस राजाके वर्णन कालमें नेत्रोंको बन्द कर उसको अस्वीकार कर दिया ] // 86 // प्रशंसितु संसदुपान्तरञ्जिनं श्रिया जयन्तं जगतीश्वरं जिनम् / गिरः प्रतस्तार पुरावदेव ता दिनान्तसन्ध्यासमयस्य देवता / / 87 / / प्रशंसितुमिति / दिनान्तसन्ध्यासमयस्य सायंसन्ध्याकालस्य, देवता अधिदेवता सरस्वती, सन्ध्या विध्यर्थे सरस्वतीति श्रुतेः; संसदुपान्तरञ्जिनं सभास्थानकप्रान्तरञ्जकमित्यर्थः श्रिया सौन्दर्येण, जिनं जिनाख्यं देवं, सोऽतिसुन्दर इति प्रसिद्धः, जयन्तं ततोऽपि सुन्दरम् इत्यर्थः, जगतीश्वरं पृथिवीपतिं प्रशंसितुं स्तोतुं, पुरावदेव पूर्ववदेव, ताः प्रसिद्धाः, गिरः प्रतस्तार प्रपञ्चयामास // 87 // ___ सायंकालीन सन्ध्याकी देवी ( सरस्वती ) ने सभाके दोनों भागोंको अनुरञ्जित करनेवाले तथा ( अतिप्रसिद्ध सुन्दर ) जिन ('जिनेन्द्र देव, या 'बुद्धदेव' ) को शोभासे जीतते हुए राजाकी प्रशंसा करनेके लिए पहलेके ही समान ( सरस एवं मधुर ) वचनको कहा(अथवा-शोभासे सभाके दोनों पाश्वौको अनुरक्त करते हुए, 'जयन्त' नामक बौद्ध राजा. को... / पाठा०-जगदीश्वर 'जिन' को... ) // 87 // तथाऽधिकुर्या रुचिरे ! चिरेप्सिता यथोत्सुकः सम्प्रति सम्प्रतीच्छति / अपाङ्गरङ्गस्थललास्यलम्पटाः कटाक्षधारास्तव कीकटाधिपः / / 88 / / तथेति / रुचिरे ! हे सुन्दरि! उत्सुकः उत्कण्ठितः कीकटाधिपो मगधेश्वरः, चिरेप्सिताः चिग़त् प्रभृति आकाक्षिताः, अपाङ्गो नेत्रप्रान्तः, स एव रङ्गस्थलं, तत्र लास्ये नत्तने लम्पटाः लालसाः, तव कटाक्षधाराः, कटाक्षपरम्पराः, यथा सम्प्रति 1. 'जगदीश्वरम्' इति पा०।
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________________ द्वादशः सर्गः। इदानीं, सम्प्रतीच्छति सम्यक् लब्धुमहंतीत्यर्थः, तथा अधिकुर्याः प्रसारयेत्यर्थः, कटाक्षदृष्टयाऽपि एनं पश्येति भावः॥ 88 // __ हे सुन्दरि ( दमयन्ति ) उत्कण्ठित मगधेश्वर नेत्रप्रान्तरूप रङ्गभूमि (नाट्यशाला ) में मन्दविलास पूर्वक गमन (या नृत्य ) में तत्पर, तुम्हारी चिरकालसे अभिलषित कटाक्ष परम्पराओंको इस समय जैसे प्रतीक्षा कर रहा है, वैसा तुम करो, ( अथवा-चिरकालसे अभिलषित तुम... ) i [ यह मगधेश्वर तुम्हारी कटाक्ष-परम्पराओंको चिरकालसे चाहता है, अतएव इसे तुम कटाक्षसे देखो ] // 88 / / इदंयशांसि द्विषतः सुधारुचः किमङ्कमेतद्विषतः किमाननम् | यशोभिरस्याखिललोकधाविभिविभीषिता धावति तामसी मसी / / 8 / / - इदमिति / अखिललोकान् धावन्ति गच्छन्तीति तादृशैः अखिललोकधाविभिः त्रिलोकव्यापिभिः, अस्य कीकटेश्वरस्य, यशोभिः विभीषिता वित्रासिता, तमस इयं तामसी मसी तमोमालिन्यम् , इदंयशांसि एतत्कीर्तीः; द्विषतो विरुधानस्य, 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्ययः द्विषः शतुर्वा' इति विकल्पात् षष्ठीप्रतिषेधे कर्मणि द्वितीया सुधारुचः सुधांशोः, अङ्क "कलङ्क सन्निधिञ्च, किं धावति ? गच्छति किम् ? तथा एतद्विषतः एतच्छत्रोः, आननञ्च धावति किम् ? एतद्यशश्चन्द्रिकाभयात् तमः चन्द्रे कलङ्करूपेण एतच्छत्रुमुखञ्च मालिन्यरूपेण प्रविष्टमित्युत्प्रेक्षते अन्यथा कथ. मनयोः अजस्रम् ईदृङमालिन्यमिति भावः // 89 // ____सम्पूर्ण लोकोंमें दौड़नेवाली अर्थात् तीनों लोकों में व्याप्त इसकी कीर्तियोंसे अत्यन्त डरी हुई कृष्णपक्षकी रात्रिकी कालिमा इसकी कीर्तियोंको रोकते हुए चन्द्रमाके पास ( पक्षामध्य ) में दौड़ती है क्या ? अथवा इस ( मगधेश्वर ) के शत्रुके मुखके पास दौड़ती है क्या ? / [ इस मगधेश्वरकी कीर्ति तीनों लोकोंमें फैलने लगी तो उसके भयसे भगी हुई कृष्णपक्षकी रात्रिकी कालिमा श्वेत वर्ण होनेसे इसकी कीर्तिके विरोधी चन्द्रके अङ्क ( मध्य ) में चली गयी, अथवा इस राजाके शत्रुके मुखमें चली गयी क्या ? लोकमें भी किसी वैरीके भयसे भगा हुआ वैरी उसके वैरीके पास जाकर शरण पाता हैं, अत एव इसकी कीर्तिके भयसे भगी हुई तामसी कालिमाका इसके शत्रु चन्द्र या किसी राजाके पास जाकर शरण लेना उचित ही है। अथवा-रात्रि-सम्बन्धिनी कालिमाका रात्रिपति चन्द्रके शरणमें जाना उचित ही है, क्योंकि लोकमें भी किसीके भयसे भगी हुई स्त्री अपने पतिके अङ्कमें जाकर शरण पाती है। यह राजा महायशस्वी है। यहांपर सरस्वती देवीने 'अखिललोकधाविभिः' तथा 'धावति' इन दो पदों के द्वारा इस राजाकी कीर्ति अभी सब लोकोंमें व्याप्त हो रही है अर्थात् पूर्णतः व्याप्त नहीं हुई है, अत एव यह नवीन एवं कम कीर्तिवाला होनेसे तुम्हारे वरण करने योग्य नहीं है, यह सङ्केत किया है ] // 89 // इदन्नृपप्रार्थिभिरुज्झितोऽर्थिभिर्मणिप्ररोहेण विवृध्य रोहणः / कियहिनैरम्बरमावरिष्यते मुधा मुनिर्विन्ध्यमरुद्ध भूधरम् / / 60||
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / इदमिति / इदन्नृपप्रार्थिभिः इमं नृपमेव प्रार्थयमानैः, अर्थिभिः याचकैः, उज्झितः परित्यक्तः, अनेन नृपेणैव सकलाभीष्टपूरणात् इति भावः, रोहणो रोहणाद्रिः सुमेरुः, मणिप्ररोहेण नवरत्नाङ्कुरोद्भेदेन, विवृश्य अव्ययीभावात् वर्द्धित्वा, कियदिनैः कतिपय. दिनैः एव, अम्बरम् आकाशम् , आवरिष्यते आच्छादयिष्यति, मुनिः अगस्त्यः सुधा वृथैव, विन्ध्यं भूधरम् अरुद्ध स्तम्भयामास, रोहणस्य तत्कार्यकारित्वादिति भावः / अत्र रोहणाद्रेः ईदृग्विधत्वासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः॥ 9 // ( अतिशय वदान्य ) इस ( मगधेश्वर ) से याचना करनेवाले याचकोंसे ( इस राजासे ही अभिलषित दान मिल जाने के कारण आवश्यकता नहीं होनेसे ) छोड़ा गया 'रोहण' पर्वत अर्थात् 'रत्नाचल' मणियों के अङ्कुरोंसे अत्यन्त बढ़कर कुछ दिनोंमें आकाशको रोक लेगा, ( अत एव ) मुनि '( अगस्त्यजी ) ने विन्ध्य पर्वतको व्यर्थमें रोका // 90 // भूशक्रस्य यशांसि विक्रमभरेणोपार्जितानि क्रमात् एतस्य स्तुमहे महेभदशनस्पर्धीनि कैरक्षरैः ? . लिम्पद्भिः कृतकं कृतोऽपि रजतं राज्ञां यशःपारदै रस्य स्वर्णगिरिः प्रतापदहनैः स्वर्ण पुनर्निर्मितः / / 61 / / भूशक्रस्येति / भूशक्रस्य भूदेवेन्द्रस्य, एतस्य राज्ञः सम्बन्धीनि, विक्रमभरेण पराक्रमातिशयेन, क्रमात् उपार्जितानि महेभदशनस्पर्धनि गजेन्द्रदन्तसवर्णानि, अतिशुभ्राणीति भावः, यशांसि कैः अक्षरैः अकारादिभिर्वणः, स्तुमहे ? वर्णयामः ? एतस्य यशसामानन्त्यात् वर्णानान्तु पञ्चाशन्मात्रत्वात् स्तोतुं शक्यन्ते इत्यर्थः / तथा हि, लिम्पद्भिः स्वर्णगिरिमेव रक्षद्भिः, राज्ञाम् अरिनृपाणां, यशोभिरेव पारदैः रसैः, 'रसः सूतश्च पारदे' इत्यमरः, कृतकं कृत्रिमं, रजतं कृतोऽपि स्वर्णगिरिः हेमाद्रिः, अस्य प्रतापदहनैः प्रतापरूपैरग्निभिः, पुनः स्वर्ण निर्मितः कृतः, पारदलि. प्तसुवर्ण रजतवत् श्वेतीभवति तत् पुनरग्निदाहात् प्रकृतिस्थं भवतीति प्रसिद्धमेव / अत्राप्युक्तरूपासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तरतिशयोक्तिः // 91 // पृथ्वीपति इस (मगधेश्वर ) के अतिशय पराक्रमकी बहुलतासे क्रमशः उपार्जित यशकी प्रशंसा (हम ) किन अक्षरों ( शब्दों) से कर ( अक्षर संख्याके परिमित अर्थात् केवल पचास तथा इसके यशके अपरिमित होनेके कारण उतने अक्षरोंसे इसके यशकी प्रशंसा करना अशक्य है, तथापि कुछ वर्णन करती है ), राजाओं ( दूसरे राजाओं) के। ( सुमेरुको ही ) लुप्त करते हुए यशोरूपी पारदसे कृत्रिम ( बनावटी) चाँदी बनाया गया स्वर्णपर्वत ( सुमेरु ) इस ( मगधेश्वर ) की प्रताप रूपी अग्निसे फिर सोना बना दिया गया है / [ पारदके लेपसे सोना आदि धातु कृत्रिम चाँदी ( चाँदी-से श्वेतवर्ण ) हो 1. एतत्पौराणिकी कथा प्राक (5 / 130) 'मणिप्रभा' यामेव द्रष्टव्या। . 2. पाणिनिमते वर्णानां त्रिषष्टित्वञ्चतुष्पष्टित्वं वा बोध्यम् (द० पा०शि० श्लो०३)
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________________ द्वादशः सर्गः / 759 जाते हैं, किन्तु अग्निमें डालनेपर अग्निसंयोगसे पारदके उड़ जानेसे वे पुनः सोना ही हो जाते हैं / इस राजाके प्रतापसे दूसरे राजाओंके यश नष्ट हो जाते हैं / यह मगधेश्वर. महायशस्वी तथा महाप्रतापी है, अतः इसे वरण करो] // 91 // यद्भत : कुरुतेऽभियेणनमयं शक्रो भुवः सा ध्रुवं दिग्दा हैरिव भस्मभिर्मघवता सृष्टैधृतोद्धृलना / शम्भोर्मा बत सान्धिवेलनटनं भाजि व्रतं द्रागिति क्षोणी नृत्यति मूर्तिरष्टवपुषोऽसृग्वृष्टिसन्ध्याधिया / / 62 // यदिति / भुवः शक्रो भूदेवेन्द्रः, अयं राजा, यस्याः क्षोण्याः, भत्त: अभिषेणनं सेनया अभियानं, कुरुते 'यत् सेनयाऽभिगमनमरौ तदभिषेणनम्' इत्यमरः अष्टवपुषः अष्टमूर्तेः शिवस्य, मूर्त्तिरष्टान्यतमा मूत्तिः, सा क्षोणी मघवता इन्द्रेण, सृष्टैदिग्दा हैः औत्पातिकदिग्दाहोद्भवः, भस्मभिरिव धृतोद्भूलना धृतभस्मानुलेपना सती शिवस्य भस्मलिप्तत्वे न तन्मूर्तेः क्षोण्या अपि भस्मनि अनुरागस्य औचित्या. दिति भावः; अत्र सेनापदोत्थधूलिपटलाच्छन्नक्षोण्याः भस्मलिप्तत्वोत्प्रेक्षा, असृग्वृष्टी सत्याम् औत्पातिकरक्तवर्षणे सति, सन्ध्याधिया सायंसन्ध्याभ्रान्त्या, शम्भोर्महा. देवस्य, सन्धिवेलायां भवं सान्धिलं 'सन्धिवेलाद्यतुनक्षत्रेभ्योऽण' तच्च तन्नटनञ्च साधिवेलनटनं, व्रतं सन्ध्यानर्तनरूपनियमः, मा भाजि भग्नं मा भूत् , भजेः कर्मणि लुङ भञ्जश्च चिणि' इति विकल्पान्नलोपे उपधावृद्धिः इति, मवेति शेषः, इतिकरणादेव गम्यमानार्थत्वादप्रयोगः; द्राक् सपदि, नृत्यति कम्पते, ध्रुवमित्युत्प्रेक्षा, बतेति विस्मयसूचकमव्ययम् ; सन्ध्यासमये भस्मलिप्तो महादेवो नृत्यति, अतः तन्मूतः क्षोण्या अपि नर्तनं बोद्धव्यम् / एतद्यातव्यराष्ट्रेषु दिग्दाहपांशुवर्षणरक्तवृष्टिभूकम्पादयो जायन्ते इति भावः // 92 // ___ यह भूपति ( मगधेश्वर ) जिस ( देशकी पृथ्वी) के पतिके प्रति सेना लेकर चढ़ाई करता है, दिशाओं के दाहके समान इन्द्र के द्वारा किये ( उड़ाये या बरसाये ) गये ( इस राजाकी सेनाके इन्धनादिके ) भस्मोंसे अङ्गलेप की हुई अर्थात् मटमैली ( मलिन ), "अष्टमूर्ति (शकरजी ) की ( आठ मूर्तियों में से अन्यतम ) मूर्ति वह पृथ्वी रक्तवृष्टिरूष सन्ध्याकी 1. शिवस्याष्टमूर्तयो यथा-क्षितिमूर्तिः शर्वः 1, जलमूर्तिर्भवः 2. अग्निमूर्ति रुद्रः 3, वायुमूर्तिरुनः 4, आकाशमूर्तिीमः 5, यजमानमूर्तिः पशुपतिः 6, चन्द्रमूर्तिमहादेवः 7, सूर्यमूर्तिरीशानश्च 8, इति तन्त्रशास्त्रम् / एताः शरभरूपिणः शिवस्याष्ट पादा इति कालिकापुराणम् / अन्यत्रोक्ताः शिवस्याष्टमूर्तयो यथा 'अथाग्नी रविरिन्दुश्च भूमिरापः प्रभञ्जनः / ___ यजमानः खमष्टौ च महादेवस्य मूर्तयः॥' इति शब्दमाला' इति शब्दकल्पद्रुमः (पृ० 149) /
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________________ 760 नैषधमहाकाव्यम् / बुद्धिसे अर्थात् रक्तवृष्टिको ही सन्ध्या काल समझकर शङ्करजीका सायङ्कालीन सन्ध्या में नृत्त करनेके नियमका भङ्ग न हो इस कारण नाचने ( कम्पित होने ) लगती है / [ यह मगधेश्चर जहाँ सेना लेकर चढ़ाई करता है, वहाँ दिग्दाह, भूकम्प, भस्म तथा रक्तकी वृष्टि आदि अशुभसूचक उत्पात होने लगते हैं, और यही राजा विजयी होता है / अष्टमूर्ति शङ्करजीकी अन्यतमा मूर्ति पृथ्वीका शङ्गरजीके नृत्तके समयमें नृत्त करना ( कंपना) उचित ही हैं ] // 92 // प्रागेतद्वपुरामुखेन्दु सृजतः स्रष्टुः समास्त्विषां कोशः शोषमगाद्गाधजगतीशिल्पेऽप्यनल्पायितः / निःशेषद्यतिमण्डलव्ययवशादीषल्लरेमैष वा शेषः केशमयः किमन्धतमसां स्तोमैस्ततो निर्मितः ? / / 63 / / प्रागिति / प्राक् प्रथम, सद्यकाले इत्यर्थः, एतस्य राज्ञः, वपुः आमुखेन्दु मुखेन्दुपर्यन्तमित्यर्थः, अभिमुख्यार्थेऽव्ययीभावः सृजतः रचयतः, स्रष्टः ब्रह्मणः सम्बन्धी, अगाधजगतीशिल्पेऽपि अखिलजगन्निर्माणेऽपि, अनल्पायितः अनल्पीभूतः, अक्षीणः इत्यर्थः, लोहितादेराकृतिगणत्वात् क्यङि कर्तरि क्तः, समग्रः विषां कोशः तेजोराशिः, शोषं रिक्तताम् , अगात् , ततो निःशेषद्यतिमण्डलव्ययवशात् समग्रतेजोराशिनाशवशात् , ईषल्लभैःसुलभः, तेजःसामान्याभावस्यैव न्यायमते तमोरूपतया सुप्रापैरिति भावः, 'ईषदुः-'इत्यादिना अकृच्छ्रार्थे खल्-प्रत्ययः, अन्धयन्तीत्यन्धानि तमांसि अन्धतमांसि गाढान्धकाराः, 'अवसमन्धेभ्यस्तमसः' इति समासान्तः, तेषां स्तोमैरेष केशपाशात्मकः, शेषो वपुःशेषः, निर्मितो वा ? निर्मितः किम् ? इत्युत्प्रेक्षालङ्कारः, तेन चास्य लोकातिशयतेजो व्यज्यते / / 13 // पहले ( सृष्टि के प्रारम्भमें ) मुख तक इस राजाके शरीरकी रचना किये हुए ब्रह्माका, सम्पूर्ण पृथ्वी अर्थात् संसारकी रचना में भी कम नहीं पड़ा हुआ समस्त कान्तियोंका कोष ( खजाना ) समाप्त हो गया, तब ( ब्रह्माने) सम्पूर्ण कान्ति-समूहके व्यय ( समाप्त ) हो. जानेसे सुलभ ( सरलता से मिलने योग्य) गाढ़-अन्धकार-समूहोंसे बाँकी केश-समूहको रचा है क्या ? / [ लोकमें भी उत्तम वस्तु के समाप्त हो जानेपर सरलतासे प्राप्य सामान्य वस्तुओंसे भी शेष काम पूरा किया जाता है। इस राजाके पैरसे मुखतक समस्त अङ्ग अत्यन्त गौरवर्ण तथा केश अत्यन्त काले हैं ] / / 93 // तत्तदिग्जैत्रयात्रोद्धरतुरगखुराग्रोद्धतैरन्धकारं निर्वाणारिप्रतापानलजमिव सृजत्येष राजा रजोभिः / भूगोलच्छायमायामयगणितविदुन्नेयकायो भियाऽभू देतत्कीर्तिप्रतानैविधुभिरिव युधे राहुराहूयमानः // 94 //
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________________ द्वादशः सर्गः। 761 तत्तदिति / एष राजा तासां तासां दिशां प्राच्यादीनां, जत्रासु यात्रासु उधुराणाम् उच्छङ्कलानां, तुरगाणाम् अश्वानां, खुराग्रेः उद्धतैः रजोभिः धूलिभिः करणः, निर्वाणात् शान्तात् , अरिप्रतापानलात् जातं तजमिव शत्रुप्रतापाग्निनिर्वाणजन्यमिव स्थितमित्यर्थः, तदभावहेतुकत्वादन्धकारस्येति भावः, अन्धकारं सृजति रात्रि कल्पयतीत्यर्थः। एतस्य कीर्तिप्रतानः कीर्तिपटलरेव, विधुभिः चन्द्रैः, युधे युद्धाय, आहूयमान इव राहुः सैहिकेयः, भिया भयेन, भूगोलस्य भूविम्बस्य, छाया तच्छायं 'विभाषा सेनासुरा-' इत्यादिना नपुंसकत्वम् तदेव माया कपट, तन्मयः स चासो गणितविदुन्नेयो गणितशास्त्रैकवेद्यः, कायो यस्य सोऽभूत् / ज्योतिःशास्त्रप्रमाणकं यत् राहोः भूच्छायात्मकत्वं तदेतत्कीर्तिचन्द्रमियेत्युत्प्रेक्षा, तया च राहुभीषकत्वन कीर्तिचन्द्राणां प्रसिद्धचन्द्रात् आधिक्येन व्यतिरेकालङ्कारः व्यज्यते // 94 // ___ यह ( मगध नरेश ) उन-उन ( पूर्वादि ) दिशाओंके जैत्र (विजयशील ) यात्राओं में उत्साहयुक्त घोड़ों के खुरानोंसे उड़ी हुई धूलियोंसे बुझी ( पक्षा०-नष्ट ) हुई शत्रुओंके प्रतापरूपी अग्निसे उत्पन्न हुएके समान अन्धकार कर देता है तथा इसकी कीतियों के समूहरूप चन्द्रों के द्वारा युद्ध के लिए ललकारा जाता हुआ राहु भयसे भूगोलकी छायाके कपटमय शरीरवाला हो गया, जिसे गणितज्ञ (ज्योतिष शास्त्र के विद्वान् ) लोग अनुमान द्वारा जानते हैं / [ लोकमें धूलिसे अग्निका बुझ जाना और अग्निके बुझनेपर अन्धकार हो जाना अनुभव-सिद्ध है। इस राजाकी दिग्विजय यात्रामें इसकी सेनाके घोड़ोंके खुरसे उड़ी धूलियोंसे किये गये अधिक अन्धकारको देखकर उन-उन दिशाओंके राजा इसके घोड़ोंकी असङ्ख्यतासे भयभीत हो जाते हैं और उनका प्रताप नष्ट हो जाता है / अथ च पहले एक चन्द्रको राहु पराजितकर चन्द्रग्रहण-काल में ग्रस लेता था, किन्तु अब इस राजाके प्रतापरूपी अनेक चन्द्रोंने युद्ध के लिए राहुको ललकारा तो वह भयभीत होकर मुझे कोई पहचान न सके इस विचारसे भूगोलकी छाया बन गया और उसे ज्यौतिष शास्त्रके विद्वान् अनुमान द्वारा पहचानने लगे। लोकमें भी बहुतसे शत्रुओंसे डरा हुआ कोई अकेला शत्रु दूसरा रूप-धारणकर अपनेको छिपा लेता है / ज्योतिष शास्त्रके सिद्धान्तसे राहु सूर्य आदि सात ग्रहोंके अतिरिक्त अन्य कोई ग्रह नहीं है, किन्तु भूमण्डलकी छायामात्र है ] // 94 // आस्ते दामोदरीयामियमुदरदरी याऽधिशय्य त्रिलोकी सम्मातुं शक्तिमन्ति प्रथिमभरवशात्तत्र नैतद्यशांसि / तामेतां पूरयित्वा निरगुरिव मधुध्वंसिनः पाण्डुपद्म च्छमापन्नानि तानि द्विपदशनसनाभीनि नाभीपथेन / / 95 / / आस्ते इति / या इयं त्रिलोकी दामोदरस्य इमां दामोदरीयां वष्णवीम्, उदरदरी कुक्षिकुहरम्, अधिशय्य अधिष्ठाय, आस्ते, तानि प्रसिद्धानि, द्विपदशनसना
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________________ 762 नैषधमहाकाव्यम् / भीनि गजदन्तसन्निभानि, एतद्यशांसि प्रथिमभरवशात् महिमातिशयवशात् , मात्राबाहुल्यादिति भावः, तत्र विष्णोरुदरस्थितायां त्रिलोक्यां, सम्मातुं वर्तितुं, सुखेन स्थातुमित्यर्थः, न शक्तिमन्ति अशक्तानि सन्ति, ताम् एतां दामोदरोदरदरी, पूरयित्वा मधुध्वंसिनो विष्णोः, पाण्डुपद्मच्छमापन्नानि नाभिपुण्डरीकव्याजापन्नानि सन्ति, नाभीपथेन नाभिविवरेण, निरगुरिव बहिः निर्गतानि इव रेजुरिति शेषः, विष्णोरुदरे सङ्कटवासयातनाभयात् नाभिरूपमार्गेण बहिर्निर्गतानीवेत्यर्थः / अत्र पद्मच्छद्मना निरगुरिवेति सापहवोत्प्रेक्षा- सा च त्रिलोकीयशसोः आधाराधेययोः आनुरूप्यवलक्षण्यात् विलक्षणालङ्कारश्च इत्यनयोः सङ्करः॥९५ // यह त्रिलोकी विष्णु भगवान्की जिस उदररूपी गुहामें निवास करती है, उस (विष्णु भगवान्के उदररूपी गुहा ) में अधिक होने के कारण नहीं समाते हुए सुप्रसिद्ध, श्वेतकमलके कपटको प्राप्त अर्थात् श्वेत कमल बने हुए एवं हाथीके दांतके समान ( श्वेत वर्ण) इस राजाके यश विष्णु भगवानकी उस ( उदररूपी गुहा) को परिपूर्ण करके मानो ( बाहर ) निकल गये हैं। [विराटप विष्णु भगवान्के उदर में त्रिलोकी वास करती है, किन्तु इस राजाके विशाल यश उसमें नहीं समा सकनेके कारण मानो श्वेत कमलके छलसे बाहर निकल गये हैं / लोकमें भी किसी छोटे पात्र में जो कोई पदार्थ नहीं समाता, वह बाहर निकल जाता है। श्वेत यश ही विष्णु भगवान्के नाभिकमलके रूपसे बाहर निकला हुआ है / इस राजाके यश बहुत विशाल तथा त्रिलोकीसे भी बाहर व्याप्त हैं ] ||95 / / अस्यासि जगः स्वकोशविवराकृष्टः स्फुरत्कृष्णिमा कम्पोन्मीलदराललीलबलनस्तेषां भिये भूभुजाम् | सङ्नामेषु निजाङ्गुलीमयमहासिद्धौषधीवीरुधः पर्वास्ये विनिवेश्य जागुलिकता यैर्नाम नालम्बिता // 96 / / श्रस्येति / स्वकोशात् चर्ममयनिजपिधानादेव, विवरात् बिलात् , आकृष्ट उद्धृतः स्फुरत्कृष्णिमा व्यक्तकृष्णवर्णः, कम्पेन धूननेन, उन्मीलन्ती प्रकाशमाना, अराललीला वक्रविलासा, यस्य तादृशं वलनं गमनविशेषः यस्य सः प्रकटकुटिलगतिः इत्यर्थः, अस्य असिः एव भुजगः तेषां भूभुजां राज्ञां, भिये भीतये, भवति इति शेषः, यैर्नाम यः नृपतिभिः किल, सङ्ग्रामेषु युद्धषु, निजामुलीमयी स्वाङ्गुलीरूपा, महती सिद्धा अमोघा, ओषधीवीरुत् ओषधिलता तस्याः, ओषधी इति जातिविषयत्वात् स्त्रीत्वे वा ङीप पर्वग्रन्थि, 'ग्रन्थिर्ना पर्वपरुषी' इत्यमरः / आस्ये मुखे, विनिवेश्य निधाय, जाङ्गुलिकता विषवैद्यता, 'विषवैद्यो जाङ्गुलिकः' इत्यमरः / न आलम्बिता न स्वीकृता; यथा मुखान्तर्गतौषधं गारुडिकं सर्पो न हन्ति तदादेशे मौनमवलम्व्य प्रणिपाताअलिम् अकुर्वतः शत्रुनृपान् असौ नृपतिः हन्ति इति भावः / रूपकालङ्कारो व्यज्यते एव // 96 //
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________________ 763 द्वादशः सर्गः। अपने म्यानरूपी बिलसे बैंचा ( तत्काल निकाला ) गया, चमकती हुई कालिमावाला, हाथमें लेकर कँपानेसे स्पष्ट कुटिल गतिवाला इस राजाका खङ्ग उन राजाओंके भयके लिए होता है; जिन्होंने युद्ध में अपनी अङ्गुलिरूपी सिद्ध (विषनाशनमें सर्वथा सफल ) महौषधि लताके गांठ ( पक्षा०–अङ्गुलिके = पोर) को अपने मुखमें डालकर विषवैद्यत्व का अवलम्बन नहीं किया है। [जिस प्रकार कोई व्यक्ति सिद्ध महौषधिकी गांठको मुखमें डाल लेता है तो उसे बिलसे निकला हुआ कुटिल चलनेवाला काला साँप नहीं दसता, उसी प्रकार जो राजालोग युद्ध में शस्त्र-त्यागकर मुखमें अङ्गुलि डाल करके इस राजाके शरणमें नहीं आते उन्हींको यह म्यानसे निकाले हुए उत्तम लोहा होनेसे चमकते हुए श्याम वर्णवाले हिलते हुए खग से मारता है। यह राजा सङ्ग्राममें लड़नेवाले शत्रुओंको खड्ग से मारनेवाला तथा शस्त्र त्यागकर मुखमें अङ्गुलि डाल करके शरणमें आये हुए शत्रुओंकी रक्षा करनेवाला है ] // 96 // यः पृष्ठं युधि दर्शयत्यरिभटश्रेणीषु यो वक्रतामस्मिन्नेव बिभर्ति यश्च किरति करध्वनि निष्ठुरः / दोषं तस्य तथाविधस्य भजतश्चापस्य गृह्णन् गुणं विख्यातः स्फुटमेक एष नृपतिः सीमा गुणग्राहिणाम // 17 // य इति / यः चापः कश्चित् सैन्यश्च, युधि अरिभटश्रेणीषु शत्रुवीरसमूहेषु विषये, पृष्ठं पश्वानागं, दर्शयति, धनुष आकर्षणेन सैन्यस्य चरणस्थलात् पलायनेन पृष्ठदर्शनं सम्भवतीति भावः, यः अस्मिन्नेव नृपे स्वस्वामिन्येव च विषये, वक्रतां ज्याकर्षणेन कोटिद्वयस्य वक्रत्वं, कृतघ्नत्वादिरूपानाजवञ्च, बिभर्ति, यश्च अस्मिन्नेव निष्ठुरः कठिनो निर्दयश्च सन् क्रूरध्वनि शत्रूणां भयावहटङ्कारशब्दम् अनेन सहाप्रियवाक्यञ्च, किरति विस्तारयतीत्यर्थः, दोषं भुजं, भजत आश्रयतः, 'भुजबाहू प्रवेष्टो दोः' इत्यमरः, दोषमकार्यमाचरतश्च, तथाविधस्य तस्य चापस्य तथाविधस्य तस्यसैन्यस्य च, गुणं ज्यां, पूर्वप्रदर्शितशौर्यजैत्रत्वादिकञ्च, गृह्णन् आकर्षन् वर्णयंश्च, एष नृपतिः कीकटेन्द्रः, एक एव गुणग्राहिणां मौर्वीग्राहिणां, धनु‘रिणामित्यर्थः, दोषं परित्यज्य गुणमात्रग्राहिणां सजनानामित्यर्थश्व, सीमा अवधिः, श्रेष्ठ इति यावत् , स्फुटं व्यक्तं, विख्यातः प्रसिद्धः / अत्र गुणग्राहिसीमात्वस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वात् वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गम् अलङ्कारः // 97 // ____ जो युद्धमें शत्रु. शूरवीरोंके समूहोंमें पीठ दिखलाता (पक्षा०-युद्धसे भगता ) है, जो इसीमें कुटिलता ग्रहण करता अर्थात् दूसरेसे नहीं झुकाया जा सकता ( पक्षा०इसीके साथ कपटाचरण ) करता है, और निष्ठुर होकर क्रूर ध्वनि ( पक्षा०-कटु भाषण) करता है; दोष (बाहु, पक्षा०-दुर्गुण ) धारण करनेवाले वैसे धनुष (पक्षा०-उस प्रकारके दोषी) के गुण ( मौवीं, पक्षा०-उत्तम गुण ) को ग्रहण करता हुआ एकमात्र 48 नै० उ०
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________________ 764 नैषधमहाकाव्यम् / यही ( मगध नरेश ही ) गुणग्राहियोंमें अवधि प्रसिद्ध है। यह मगधेश्वर दोषियों के भी गुणको ग्रहण करनेवाला तथा सब धनुर्धरोंमें मुख्य है ] // 97 // अस्यारिप्रकरः शरश्च नृपतेः सङ्खये पतन्तावुभौ सीत्कारञ्च न सम्मुखौ रचयतः कम्पञ्च न प्राप्नुतः। . तद्युक्तं न पुनर्निवृत्तिरुभयोर्जागर्तियन्मुक्तयो रेकस्तत्र भिनत्ति मित्रमपरश्चामत्रमित्यद्भुतम् // 9 // अस्येति / अस्य नृपतेः अरिप्रकरः शत्रुसङ्घः, शरश्च एतौ उभौ सङ्खये युद्ध, सम्मुखौ युगपत् एतदभिमुखं पराभिमुखञ्च, पतन्तौ सन्तौ, सीत्कारञ्च दुःखव्याकं दन्तमध्यनिर्गतं पक्षवायुजन्यञ्च शब्दविशेष, यत् न रचयतः, कम्पञ्च यत् न प्राप्नुतः, बाणपतनक्षणे एव मरणेन दुःखानुभवसमयाभावात् सीत्कारकम्पासम्भवः दृढमुष्टितया मुक्तबाणस्य दुर्निर्गतत्वाभावात् सीत्कारकम्पासम्भवश्वेति भावः, किञ्च मुक्तयोः एकत्र-संसारात् , अन्यत्र-चापाच्चेति भावः, उभयोः परशरयोः, यत् न पुनर्निवृत्तिः पुनर्जन्म प्रत्यागमनञ्च, जागर्ति तत् सर्वं युक्तं तयोरेव समानधर्मत्वात् इति भावः, किन्तु तत्र तयोः मध्ये, एकोऽरिसङ्घः, मित्रं सूर्यम् , भिनत्ति, अपरः शरश्च, अमित्रं शत्रं, भिनत्ति इति अद्भुतम् , अत्र अमित्रं भिनत्तीत्युक्त्यां मित्रं न भित्तीति च प्रतीयते असूर्यम्पश्येतिवत् नञः प्रसज्यप्रतिषेधार्थकत्वात् ; इत्थञ्च तल्यकर्मणोस्तयोर्मित्रभेद-मित्रभेदाभावरूपविरुद्धकर्मकारित्वादद्भुतम्। 'द्वावेतौ पुरुषी लोके सूर्यमण्डलभेदिनी। परिवाड्योगयुक्तश्च रणेचाभिमुखो हतः' इति स्मृतेः। मित्रपदेन सूर्यमण्डलभेदनस्य वीरपुरुषायत्तत्वेन सम्भवात् अमित्रपदेन च शत्रन् भिनत्तीत्यविरोधात् विरोधाभासोऽलङ्कारः // 98 // इस राजाके युद्ध में ( अथवा-युद्धमें इस राजाके ) सम्मुख गिरते हुए शत्रु-समूह तथा बाण ( अथवा-इस राजाके सम्मुख गिरता हुआ शत्रु-समूह तथा शत्रु-समूहके सम्मुख गिरता हुआ इसका बाण ) सीत्कार ( दुःखजन्य 'सी-सी' ध्वनि, पक्षा०-पडसे उत्पन्न ध्वनि ) नहीं करते तथा कम्पित नहीं होते ( डरते नहीं, पक्षा०-हिलते-डोलते नहीं, अपितु वेगसे सीधे चले जाते हैं ); फिर नहीं लौटनेवाले ( युद्धमें शत्रु द्वारा मारे जानेके कारण संसार में पुनर्जन्म नहीं पानेवाले, पक्षा०-धनुषसे फेंके जानेपर फिर वापस नहीं आनेवाले ) तथा मुक्त ( संसार त्यागकर मुक्तिको प्राप्त, पक्षा०-धनुषसे फेंके गये ) उन दोनोंको यह उचित ही है, किन्तु उनमें अर्थात् शत्रु-समूह तथा बाणमें एक ( शत्रुसमूह ) मित्र अर्थात् सूर्यका भेदन करता है तथा दूसरा (बाण) अमित्र अर्थात् शत्रुका भेदन करता है ( पक्षा०-सूर्यका भेदन नहीं करता ) यह आश्चर्य है। [ युद्ध में शत्रुके भयसे सीत्कार एवं कम्पन न कर वीरगति प्राप्त करनेवाले योद्धाका सूर्यमण्डल-भेदनकर ऊर्ध्व लोकमें जाना एवं पुनर्जन्म नहीं लेना शास्त्रवचनोंसे प्रमाणित है। दृढमुष्टि होकर
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________________ द्वादशः सर्गः। 765 छोड़ा गया बाण न कम्पित होता है और न ध्वनि ही करता है, अत एव यह राजा दृढमुष्टि होकर बाण छोड़ता है, जिससे शत्रु-समूह तत्काल मर जाता है और उसे 'सी-सी' शब्द करने या कम्पित होनेका अवसर तक नहीं मिलता। शूरवीर यह मगधनरेश युद्धमें शत्रु-समूहको एक प्रहार में ही मार डालता है ] / / 98 // धूलीभिर्दिवमन्धयन् बधिरयन्नाशाः खुराणां रवै तिं संयति खञ्जयन् जवजयैः स्तोतृन गुणैर्मूकयन् / धर्माराधनसन्नियुक्तजगता राज्ञाऽमुनाऽधिष्ठितः सान्द्रोत्फालमिषात् विगायति पदा स्प्रष्टुंतुरङ्गोऽपि गाम / / 99 / / धूलीभिरिति / संयति युद्ध, खुराणां धूलीभिः दिवम् अन्धयन् अन्तरिक्षचारिणां दृष्टीः प्रतिबध्नन्नित्यर्थः, रवैः शब्दः, खुराणामेवेति शेषः, आशाः दिशः, तत्रत्यान् प्राणिन इत्यर्थः, बधिरयन बधिरीकुर्वन् , जवजयः वेगजयैः करणः इत्यर्थः, अनिला. नामिति भावः, वातं वायु; खञ्जयन् पशूकुर्वन् , वायोरप्यधिकवेग इत्यर्थः, गुणैः दयादाक्षिण्यादिभिः गुणसमूहैः,स्तोतन् मूकयन् मूकीकुर्वन् , गुणाधिकतया स्तोतु. मशक्य इत्यर्थः, धर्माराधनसन्नियुक्तजगता जगतो धमकसाधनकारिणा, अमुना राज्ञा अधिष्ठितः आरूढः, तुरगोऽपि अश्वोऽपि, सान्द्रोत्फालमिषात् वेगातिशयत्वात् निरन्तरम् उद्धचरणनिक्षेपव्याजात् , पदा एकेनापि चरणेन, इति वेगातिशयोक्तिः गां भुवं धेनुञ्च, स्प्रष्टु विगार्यात निन्दति, न स्पृशति इति यावत् 'गोब्राह्मणानलान् भूमिं नोच्छिष्टं न पदा स्पृशेत्' इति निषेधात् अयं राजा पापकारिणः उदासीनानपि दण्डयति अतः अहमस्य वाहको भूत्वा यदि पदा गोस्पर्शरूपं पापं कुर्यों तदा अहमपि दण्डनीयः स्यामिति बुद्धया एतदीयाश्वः पदा भुवं न स्पृशतीवेति भावः / अयं राजा धार्मिको जवनाश्वशाली चेति तात्पर्यम् // 99 // युद्ध में धूलियोंसे आकाशको अन्धा ( आकाशमें चलनेवालोंको दर्शनासमर्थ ) करता हुआ, खुरोंकी ध्वनियोंसे दिशाओं ( में रहनेवालों ) को बहरा करता हुआ, तीव्र वेग (गति ) से वायुको भी लंगड़ा करता हुआ अर्थात् वायुसे भी अधिक तीव्रगतिवाला तथा गुणों ( शालिवाहन शास्त्रोक्त शुभ लक्षणों ) से प्रशंसा करनेवालोंको ( सब शुभ लक्षणों के वर्णन करने में असमर्थ होनेसे) मूक करता हुआ धर्माचरणमें संसारको सम्यक् प्रकारसे लगानेवाले इस राजासे अधिष्ठित ( सवारी किया गया पशु भी) घोड़ा अत्यधिक उछलने के व्याजसे ( एक ) पैरसे भी पृथ्वी ( पक्षा०-गौ ) का स्पर्श करनेमें ( अपनी) निन्दा मानता है। [ धर्माचरण नहीं करनेवालोंको यह राजा दण्डित करता है, अतएव यदि मैं एक पैरसे भी गौ (पक्षा०-पृथ्वी ) का स्पर्श करूंगा तो यह मुझे भी कठोर दण्ड देगा इस भयसे उक्त घोड़ा वैसा नहीं करता ( पक्षा०-इतनी तीव्र गतिसे चलता है कि एक पैरसे भी पृथ्वी का स्पर्श करता हुआ नहीं प्रतीत होता)। धार्मिक इस राजाने समस्त प्राणियोंको धर्माचरणमें लगा दिया ] // 99 //
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________________ 766 नैषधमहाकाव्यम् / एतेनोत्कृत्तकण्ठप्रतिसुभटनटारब्धनाट्याद्भुतानां कष्टं द्रष्टैव नाभूत् भुवि समरसमालोकिलोकास्पदेऽपि / अश्वैरस्वैरवेगैः कृतखुरखुरलीमङ्घसङक्षुभ्यमाण मापृष्ठोत्तिष्ठदन्धङ्करणरणधुरारेणुधारान्धकारात् // 10 // एतेनेति। समरसमालोकिलोकास्पदे युद्धप्रेक्षकजनालयेऽपि, भुवि युद्धभूमी, अस्वैरवगैः अमन्दवेगैः, 'मन्दस्वच्छन्दयोः स्वैरः' इत्यमरः, अश्वैः कृताभिः खुरखुरलीभिः खुरसञ्चारः, मनु सपदि, 'द्राक मक्षु सपदि द्रते' इत्यमरः, सक्षुभ्यमाणात् सञ्चयॆमानात् , चमापृष्ठात् भूतलात् , उत्तिष्ठताम् उत्पतताम् , अन्धाः क्रियन्ते एभिरित्यन्धङ्करणाः दृष्टिशक्तिरोधिनः तेषाम् , 'अट्यसुभग-' इत्यादिना ख्युन्प्रत्ययः रणस्य युद्धक्षेत्रस्य, धूरग्रं रणधुरा, 'ऋक्पू:-' इत्यादिना समासान्तः / तस्यां रेणनां धूलीनां धारा सन्ततिः सैवान्धकारः तस्माद्धेतोः, एतेन राज्ञा, उत्कृत्तकण्ठः छिन्नकण्ठैः, प्रतिसुभटैः परवीरैः एव, नटेनतकः, कबन्धरूपेरितिः यावत् , आरब्धानाम् आचरितानां, नाट्याभूतानां, विस्मयावहनाटकप्रबन्धानाम् इत्यर्थः द्रष्टैव दर्शक एव न अभूत् द्रष्टुं न समर्थ एव इत्यर्थः, कष्टम् एतद्दुःखकरम् // 10 // युद्ध-दर्शकों के स्थानभूत पृथ्वीपर ( अथवा-पृथ्वीपर तथा युद्धदर्शक ( देव )-समूह स्थान अर्थात् स्वर्ग में ) तीव्रगति घोड़ों के खुरोंके बार-बार रखनेसे शीघ्र सञ्चर्णित होते हुए भूतलसे उड़ते हुए अन्धा ( दर्शन-शक्ति नष्ट ) करनेवाली धूलियोंके समूहसे उत्पन्न अन्धकारसे इस (राजा) के द्वारा काटे गये कण्ठवाले शत्रु योद्धारूप नटोंके द्वारा प्रारम्भ किये गये विचित्र नृत्य अर्थात् धड़के नाचनेको देखने वाला ही नहीं हुआ। [ इस राजाके घोड़ोंके खुरसे इतनी अधिक धूलि उड़ी कि उससे भूतल तथा आकाशमें अन्धकार हो जानेसे युद्धभूमिमें इसके शत्रुओंके नाचते हुए धड़को कोई भी नहीं देख सका ] // 100 // उन्मीलल्लीलनीलोत्पलदलदलनामोदमेदस्विपूरक्रोडक्रोडद्विजालीगरुदुदितमरुत्स्फालवाचालवीचिः / एतेनाखानि शाखानिवहनवहरित्पर्णपूर्णद्रमाली व्यालीढोपान्तशान्तव्यथपथिकहशां उत्तरागस्तडागः // 101 / / उन्मीलदिति / उन्मीलल्लीलानां स्फुरद्विलासानां, नीलोत्पलदलानां दलनेन विकासेन, य आमोदस्तेन मेदस्विनि परिपुष्टे, तद्बहुले इत्यर्थः, पूरक्रोडे जलराशेः उत्सङ्गे क्रीडन्तीनां द्विजालीनां पक्षिगणानां, गरुदुदितस्य पक्षोत्थस्य, मरुतः वायोः स्फालेन आस्फालनेन, वाचालः मुखरः, वीचिः तरङ्गः यस्य सः, शाखानिवहेन नवैर्हरिभिः हरितैः नीलपीतमिश्रितवर्णरित्यर्थः, पणैः पत्रैः, पूर्णाभिः द्रुमालीभिः तरुश्रेणीभिः, व्यालीः व्याप्तैः, उपान्तः समीपवर्तितरप्रदेशैः शान्तव्यथानां
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________________ द्वादशः सर्गः। 767 शमितसन्तापानां, पथिकदृशां, दक्षरागो जनिताह्लादः तडाग एतेन राज्ञा, अखानि निखानितः इति अस्य धर्मकार्येषु अनुरागः सूचित : // 101 // ___इस (मगधनरेश ) ने स्फुरित विलासवाले नीलकमलोंके दलोंके फूलने ( विकसित होने ) से उत्पन्न सुगन्धिसे परिपूर्ण प्रवाहके ऊपर क्रीड़ा करनेवाले पक्षि-समूह के पलोंसे उत्पन्न वायुके स्फालन ( तीव्र स्पर्श ) से ध्वनियुक्त तरङ्गोवाला तथा शाखा-समूहके नये एवं हरे पत्तों से परिपूर्ण वृक्ष-समूहों से व्याप्त पाश्र्व भागसे शान्त श्रमवाले पथिकोंकी दृष्टिको अनुरक्त करनेवाला तडाग खोदा है / [ इसका वनवाया हुआ तडाग नीलकलल एवं क्रीडाशील पक्षियों तथा हरे-भरे वृक्षोंसे व्याप्त होनेसे श्रान्त पथिकोंके श्रमको ( सुगन्धित जल, पक्षियोंके कलरव, शीतलवायु तथा हरे-भरे पेड़ोंकी छायासे ) दूर करनेवाला है। इस मगधेश्वरने वैसा तड़ाग खुदवाकर पूर्तधर्मका पालन किया है ] // 101 // वृद्धो वार्द्धिरसौ तरङ्गबलिभं बिभ्रद्वपुः पाण्डुरं हंसालीपलितेन यष्टिकलितस्तावद्वयोबंहिमा / बिभ्रचन्द्रिकया च कं विकचया योग्यस्फुरत्सङ्गतं स्थाने स्नानविधायिधार्मिकशिरोनत्याऽपि नित्याहतः // 102 // पुनस्तडागमेव वर्णयति वृद्ध इति। तरङ्गैर्बलिभं, बलियुक्तं, 'तुन्दिबलिवटेर्भः' इति मत्वर्थीयो भ-प्रत्ययः, हंसाल्येव पलितं शुक्लकेशत्वं तेन, 'पलितं जरसा शौक्यं केशादौ' इत्यमरः, पाण्डुरं शुभ्रं, वपुर्बिभ्रत् , यष्टिः प्रणालीस्तम्भः, जलपरिमाणार्थ जलमध्ये निक्षिप्तस्तम्भरूपा वा, अवलम्बनदण्डश्च, तया कलितोऽवष्टब्धः, तावान यष्टिसङ्ख्यातः, यष्टया अनुमितश्चेत्यर्थः, वयोबंहिमा पक्षिबाहुल्यं, वयोबाहुल्यञ्च यस्य सः, प्रियस्थिर-' इत्यादिना बहुलशब्दस्य बहादेशः। 'खगबाल्यादिनोर्वयः' इत्यमरः / विकचया स्फुटया, विलुप्तकेशया च, चन्द्रिकया ज्योत्स्नया, शिरोरोगविशेषेण च, सह योग्यं स्फुरच्च सङ्गतं सम्बन्धो यस्य तत् , एकत्र-तत्सदृशनिर्मलम् , अन्यत्र-तयुक्तञ्चेत्यर्थः, कं जलं, शिरश्च, बिभ्रत् स्नानविधायिनां स्नानाद्यनुष्ठातणां, धार्मिकाणां धर्मचारिणाञ्च, स्त्रीपुंसामिति शेषः, धर्म चरतीति ठक शिरसां नत्या नमनेनापि, निमज्जनेन नमस्कारेण चेत्यर्थः, नित्यमाहतोऽसौ अयं वार वारि धीयते अस्मिन्निति वार्द्धिः तडागः, वृद्धः स्थविरोऽतिपूर्णश्व, स्थाने युक्तम् , 'युक्ते द्वे साम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः / रूपकालङ्कारः॥ 102 // __ तरङ्गों से वलियों ( पक्षा०-तरङ्गरूप वलियों अर्थात् वृद्धावस्थाके कारण सिकुड़े हुए चर्मों ) वाले तथा हंस-समूहरूप पलित ( पके हुए बाल पक्षा०-हंस-समूहके समान पके हुए वालों ) वाले श्वेत शरीर ( पक्षा०-प्रवाह ) को धारण करता हुआ यष्टि ( तडाग खुदवानेवाले इस राजाके वंशादि परिचायक कीर्ति-स्तम्भ, पक्षा०-सहाराके लिए ली हुई छड़ी ) से युक्त, बहुत-सी पक्षियों (पक्षा० बहुत अवस्था लम्बी उम्र, अथवा
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________________ 768 नैषधमहाकाव्यम् / कुमार युवा आदि अनेक अवस्थाओं) वाला, विकसित (पक्षा०-केसरहित) चन्द्रिका ( चांदनी पक्षा०-खल्वाटपना अर्थात् चण्डुलपना ) से योग्य विलसित संगत ( मैत्री ) वाले ( समुद्रसे उत्पन्न चन्द्र की चांदनीसे समुद्रका योग्य सङ्गत होना उचित ही है ) जल ( पक्षा०-मस्तक) को धारण करता हुआ और स्नान करनेवाले धर्मात्माओंसे ( स्नान करने के समय डुबकी लगानेके लिए ) मस्तक झुकानेसे ( अथवा-नमस्कार करनेसे ) सर्वदा आदर पाया हुआ वृद्ध ( बढ़ा हुआ अर्थात् विशाल, पक्षा०-बूढ़ा ) यह ( इस राजाका खुदवाया हुआ उक्त ) तडाग ( पक्षा० समुद्र) है / [ जिस प्रकार सिकुड़े हुए चमड़ेवाला पके श्वेत वार्लोसे युक्त शरीरवाला, सहारेके लिए छड़ी लिया हुआ, अधिक उम्रवाला केशरहित खल्वाटपनासे युक्त मस्तकवाला बूढ़ा मनुष्य धर्मात्मा पुरुषों के द्वारा नमस्कार करनेसे सदा आदर पाता है, उसी प्रकार टेढ़े तरङ्गोंवाला, हंस-समूहसे श्वेत प्रवाहरूप शरीरवाला, खुदवानेवाले इस राजाके वंशादि-परिचायक कीर्तिस्तम्भ ( जाठ ) वाला, बहुत पक्षियों वाला, श्वेत चांदनीके समान निर्मल जलवाला ( अथवा-श्वेत चांदनीसे चञ्चल जलवाला ) और स्नानार्थी धार्मिकोंसे झुककर प्रणाम कर ( अथवा-डुवकी लगाते समय मस्तक झुकाकर ) सर्वदा आदृत ( इस राजाका ) विशाल तडाग है / पूर्णिमा तिथिको ही समुद्रके स्पर्श एवं उसमें स्नान करनेका शास्त्रीय विधान है, अत एव उस समुद्रकी अपेक्षा भी उक्त तडाग स्नानार्थी धर्मास्माओंसे सर्वदा नमस्कृत होनेके कारण श्रेष्ठ है ] // 102 // तस्मिन्नेतेन यूना सह विहर पयःकेलिवेलासु बाले ! नालेनास्तु त्वदक्षिप्रतिफलनभिदा तत्र नीलोत्पलानाम् / तत्पाथोदेवतानां विशतु तव तनुच्छायमेवाधिकारे तत्फुल्लाम्भोजराज्ये भवतु च भवदीयाननस्याभिषेकः / / 103 / / तस्मिन्निति / बाले ! तस्मिन् तडागे, यूना एतेन राज्ञा सह, विहर क्रीडां कुरु, पयःकेलिवेलासु जलक्रीडाकालेषु, तत्र तडागे, नीलोत्पलानां त्वदणोः प्रतिफलनात् प्रतिविम्बनात् , भिदा भेदः, 'षिद्भिदादिभ्योऽङ' नालेनास्तु नालमेव त्व. न्नेत्रप्रतिबिम्बसदृशनीलोत्पलानां भेदकमस्तु इत्यर्थः, तव तनोः छाया तनुच्छायं कायकान्तिः, शरीरप्रतिबिम्ब वा, 'विभाषा सेना-' इत्यादिना नपुंसकत्वम् , तस्य तडागस्य, पाथोदेवतानां जलदेवतानाम् , अधिकारे आधिपत्ये, विशतु आधिपत्यं करोतु इत्यर्थः, भवदीयाननस्य तस्य तडागस्य, फुल्लाम्भोजानां विकचपद्मानां, राज्ये आधिपत्ये, अभिषेकश्च भवतु, त्वन्नेत्रादिकं तदीयोत्पलादिकम् अतिशय्य वत्तिप्यते इत्यर्थः॥ 103 // हे बाले ( दमयन्ति ) ! उस तडागमें इस युवक (मगधेश्वर ) के साथ विहार करो तथा उसमें जलक्रीडाके समयों अर्थात् प्रत्येक ग्रीष्म ऋतुमें नीलकमलों के नाल ( डण्ठल ) से तुम्हारे नेत्रके प्रतिबिम्बसे भेद हो (नीलकमलोंमें नाल होनेसे तथा तुम्हारे नेत्रोंमें उसके
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________________ द्वादशः सर्गः। 766 नहीं होनेसे भेद बना रहे अर्थात् नील कमल एवं तुम्हारे नेत्रों के समान होनेपर भी तुम्हारे नेत्रों के जलमें प्रतिबिम्ब होनेपर नील कमलोंमें नाल रहनेसे दोनों पृथक्-पृथक् मालूम पड़ें), उस ( तडाग) की जलदेवताओंके अधिकार ( व्यापार या स्वामित्व ) में तुम्हारे शरीरके प्रतिबिम्ब का हो अर्थात् उस तडागके जलमें प्रतिबिम्बित तुम्हारा शरीर उसके जलदेवताओंके समान ज्ञात हो और उस ( तडाग ) के विकसित कमलोंके समूह ( पक्षा०स्वामित्व ) में तुम्हारे मुखका अभिषेक हो अर्थात् तुम्हारा मुख उसमें विकसित कमलोंसे अतिशय सुन्दर एवं सुगन्धित होने के कारण उन कमलोंका राजा बने। [ तुम्हारे नेत्र, शरीर तथा मुख क्रमशः नील कमल, जलदेवता तथा विकसित कमलोंसे भी अधिक श्रेष्ठ हैं ] // 103 // एतत्कोतिविवर्त्तधौतनिखिलत्रैलोक्यनिर्वासितैविश्रान्तिः कलिता कथासु जरतां श्यामैः समग्रैरपि / जज्ञे कीर्तिमयादहो ! भयभरैरस्मादकीर्तेः पुनः सा यन्नास्य कथापथेऽपि मलिनच्छाया बबन्ध स्थितिम् / / 104 // एतदिति / एतस्य राज्ञः, कीर्तिविवत्तैः यशोविस्तारैः, धौतात् क्षालितात् , निखिलत्रैलोक्यात् निर्वासितैः निष्कासितैः, समग्रैः समस्तैरपि, श्यामः श्यामवस्तुभिः, जरतां वृद्धानां, पुरुषाणामिति शेषः, 'प्रवयाः स्थविरो वृद्धो जीनो जीर्णो जरन्नपि' इत्यमरः। 'जीर्यतेरतृन्' इत्यतृन्-प्रत्ययः कथासु विश्रान्तिः अवस्थानं, कलिताः स्वीकृता; एतद्यशोव्याप्तया श्यामवस्तुजातं प्राचीनजनानां कथमानेषु शेषमासांदित्यर्थः; अकीर्तेः अपकीर्तेः, पुनः कीर्तिमयात् कीर्त्यात्मकात् , अस्मान्नृपात् , भयभरैः भयराशिभिः, जज्ञे जातं, भावे लिट कीर्त्यकीयोर्विरोधेन अकीर्तिः कीर्तिमयात् अस्मात् सुतराम् अभैषीदित्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मात् , मलिनच्छाया सा अकीर्तिः, अस्य कथापथेऽपि एतत्सम्बन्धिवाङ्मार्गेऽपि, स्थितिं न बबन्ध अवस्थितिं न प्राप, अकीर्तिलेशोऽप्यस्य नास्तीत्यर्थः, यत एतत्कथोदये अकीर्तिकथाऽपि न श्रयते इति भावः // 104 // इस ( मगधेश्वर ) की कीर्तिके विवर्त (विशेष स्थिति या परिणाम ) से धोये गये तीनों लोकोंसे निकाले गये, संसारके सब श्याम ( काले वर्णवाले कज्जल आदि ) पदार्थ वृद्धजनोंकी कथाओं में विश्रान्ति पा लिये अर्थात् बड़े-बूढोंके कहनेसे लोगोंको ज्ञात होता था कि पहले संसारमें काले पदार्थ भी थे, किन्तु वर्तमान समयमें कोई काला पदार्थ नहीं रह गया तथा कीर्तिबहुल अर्थात् मंहाकीर्तिमान् इस राजासे अकीर्तिको अत्यधिक भय हो गया ( बहुत कीर्तिवालेसे एक कीर्तिका भय होना उचित ही है ), क्योंकि मलिन कान्तिवाली वह ( अकीर्ति ) इस ( मगधनरेश ) के कथामार्ग ( वर्णन-प्रसङ्ग ) में भी आश्रय नहीं पायी यह आश्चर्य है अर्थात् इसके वर्णनके समयमें अकीर्तिके सर्वथा अभाव होनेसे कीर्तिका ही वर्णन
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / किया जाता है / [ लोकमें भी जो जिससे अधिक डरता है, वह उसके वर्णनके आरम्भमें ही मलिनमुख होकर अन्यत्र चला जाता है, अतः अकीर्ति भी इसके वर्णनके आरम्भसे ही नहीं सुनायी पड़ती / अविद्यमान भी शशशृङ्ग, आकाशपुष्प, वन्ध्यासुत आदिका शब्दसे वर्णन किया जाता है, किन्तु इसके वर्णनमें भी अकीर्तिकी चर्चा तक नहीं होती यह आश्चर्य है / अथवा तीनों लोकोंका धोया जाकर श्वेत होना तथा अचेतन भी अकीर्तिको भय उत्पन्न होना आश्चर्य है ] 104 / / अथावदद्भीमसुतेङ्गितात् सखी जनैरकीर्तिर्यदि वाऽस्य नेष्यते / मयाऽपि सा तत् खलु नेष्यते परं सभाश्रवःपूरतमालवल्लिताम् / / अथेति / अथ सखी भीमसुताया इङ्गितात् अनभिमतसूचकचेष्टितं परिज्ञाय, अवदत् , किम् ? इत्याह, अस्य अकीर्तिजनै प्यते नाङ्गीक्रियते, इषेः कर्मणि लट, यदि वा तत्तर्हि, मया सा एतदकीर्तिः, सभायाः श्रवःपूरः कर्णावतंसः, या तमालवल्लिता तां, परं भृशं नेष्यते अपि ? परन्तु प्रापयिष्यते खलु, नयतेः कर्मणि लुट् अहमस्य अपकीर्ति सभायां श्रावयिष्यामि इत्यर्थः // 105 // इस ( सरस्वती देवीके उक्त ( 12 / 88-104 ) वर्णन करने ) के बाद भीमकुमारी ( दमयन्ती ) की चेष्टा ( इशारा-सङ्केत ) से सखीने कहा-लोग यदि इसकी अकीर्तिको नहीं चाहते तो मैं भी उस अकीर्तिको सभासदोंके कर्णाभरणकी तमालवल्लि के भाव प्राप्त कराती हूँ अर्थात् इस राजाकी अकीतिं सभासदोंको सुनाती हूँ। ( अथवा-मैं भी उसे ( इसकी अकीर्तिको ) नहीं चाहती, किन्तु सभासदों के ... ...) // 105 // अस्य क्षोणिपतेः परार्द्धपरया लक्षीकृताः सङ्घयया प्रज्ञाचक्षुरवेक्ष्यमाणतिमिरप्रख्याः किलाकीर्तयः / गीयन्ते स्वरमष्टमं कलयता जातेन बन्ध्योदरात् मूकानां प्रकरण कूर्मरमणीदुग्धोदधेः रोधसि // 106 // स्वयं श्रावयति, अस्येति / पराद्धं चरमा सङ्ख्या, ततोऽपि परया अधिकया, सङ्घयया लक्षीकृता विषयीकृताः, तत्सङ्ख्याता इत्यर्थः, प्रज्ञैव चक्षुर्येषां ते प्रज्ञाचक्षुषो जात्यन्धाः, तैरवेक्ष्यमाणं तदेकग्राह्यं, यत्तिमिरं तत्प्रख्याः तत्सङ्काशाः, अतिकृष्णाः इत्यर्थः, अस्य क्षोणीपतेः अकीर्तयः अष्टमं स्वरं निषादादिसप्तस्वरात् अतिरिक्तं स्वरं, कलयता प्रयुञानेन, बन्ध्याया अनपत्यायाः, उदरात् जातेन मूकानां प्रकरण सङ्घन, कूर्मरमणीनां कूर्मस्त्रीणां, दुग्धानि क्षीराणि, तेषामुदधेः अब्धेः, रोधसि तीरे, गीयन्ते किल, तत् कथं जनै कर्ण्यन्ते इत्यर्थः; एतेनास्य अकीर्तयः सन्ति जनैरपि श्रुता इत्यर्थः प्रथमं प्रतीयते पर्यवसाने तु सङ्ख्यादीनां परार्द्धपरत्वादिकं यथा अलीकं तथा एतस्याकीर्तयोऽपि खपुष्पादिवत् अलीका इति स्तुतिरेव गम्यते / अत्र निन्दया स्तुतिप्रतीतिाजस्तुतिभेदालङ्कारः // 106 //
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________________ द्वादशः सर्गः। 771 परार्ध ( अन्तिम सङ्खथा ) से भी अधिक सङ्ख्यासे लक्षित अर्थात् गिनी गयी ( अथवा लाखसे गिनी गयो), जन्मसे अन्धे लोगोंसे देखे जाते हुए अन्धकारके तुल्य अर्थात् अत्यन्त काली, इस मगधेश्वरकी अकीर्तिको अष्टम स्वर (षड्ज, मध्यम आदि सात ही स्वरों के होनेपर भी अष्टम स्वर ) को ग्रहण किये हुए, वन्ध्याओंके उदरसे उत्पन्न मूकों (गूंगेलोगों ) के समूह कच्छपीके दूधके समुद्र के तीरपर गाते हैं। [ जिस प्रकार पराईसे अधिक संख्या, जन्मान्धोंकी दर्शनशक्ति, अष्टम स्वर, वन्ध्याके गर्भसे बच्चेकी उत्पत्ति, मूकोंका गाना, कच्छपीका दूध-ये सब सर्वथा असम्भव हैं, उसी प्रकार इस राजाकी अकीर्तिका होना भी सर्वथा असम्भव है, अतएव यह महाकीर्तिमान् है। अथवा-'किलाकीर्तयः' यहांपर 'किल+आकीर्तयः' सन्धिच्छेद करके इस राजाकी आकीर्ति ( समन्तात् व्याप्त कीर्ति ) को उक्त प्रकारसे गाया करते हैं अर्थात् उन परार्द्धसे अधिक सङ्ख्या आदिके सर्वथा नहीं होने के समान इस राजाकी समन्तात् ( सब तरफ ) व्याप्त कीर्ति भी नहीं है, अतः यह राजा कीर्तिमान नहीं होनेसे स्वामिनी दमयन्तीके वरण करने योग्य नहीं है ] // 106 // तदक्षरैः सस्मितविस्मिताननां निपीय तामीक्षणभङ्गिभिः सभाम् | इहास्य हास्यं किमभून्न वेति तं विदर्भजा भूपमपि न्यभालयत् / / 107 / / पर्यवसाने तु निषेधरूपैर्वाक्यैः, सस्मितानि हास्ययुक्तानि, विस्मितानि च इति विरोधः, आश्चर्यरसयुक्तानीति तत्परिहारः, आननानि यस्यास्तादृशी, तां सभाम् ईक्षणभनिभिदृष्टिविशेषः, निपीय सस्पृहं दृष्ट्वा, इह एतद्वाक्ये, अस्य कीकटेश्वरस्यापि, हास्यं स्मितम् , अभूत् किम् ? न वा अभूत् इति तं भूपम् अपि न्यभालयत् आलोकयत् // 107 // दमयन्तीने उस सखीके वचनोंसे स्मितसहित आश्चर्यित मुखवाली उस सभा अर्थात् मुखवाले उस सभाके सदस्योंको दृष्टि भङ्गियोंसे अच्छी तरह पानकर अर्थात् बार-बार देखकर इस सभामें 'इस ( मगधनरेश ) को भी हँसी आयी या नहीं? इस विचारसे उस राजा ( मगधनरेश ) को भी देख लिया। [ सखीके वैसी विचित्र बात कहनेपर सभासद. गण आश्चर्यसे मुस्कुर। दिये, उन्हें देखती हुई दमयन्तीने उस राजाको भी इस विचारसे देखा कि ऐसी विचित्र बात सुनकर भी अन्य सभासदोंके समान इस राजाको भी हंसी आयी या नहीं ? किन्तु अनुरागसे नहीं देखा / इस श्लोकमें स्मितसहित मुखवालेका विस्मित अर्थात् स्मितरहित मुखवाला होना विरुद्ध है, अतः 'विस्मित' शब्दका 'आश्चर्यित' अर्थ करके उक्त विरोधका परिहार करना चाहिये ] // 10 // नलान्यवीक्षां विदधे दमस्वसुः कनीनिकाऽऽगः खलु नीलिमालयः / चकार सेवां शुचिरक्ततोचितां मिलन्नपाङ्गः सविधे तु नैषधे / / 108 // . कीकटेश्वराद्यवलोकनात् दमयन्त्याः पातिव्रत्यभङ्ग परिहरति, नलेति / खलु
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________________ 772 नैषधमहाकाव्यम् / यस्मात् , दमस्वसुः दमयन्त्याः, कनीनिका तारका, 'तारकाऽक्ष्णः कनीनिका' इत्यमरः, नीलिम्नो नैल्यस्य मालिन्यस्य च, आलयः आश्रयः, अत एव नलादन्यस्य पुंसः, वीक्षां वीक्षणं, 'गुरोश्च हलः' इति स्त्रियाम् अ-प्रत्यये टाप , तदेवागोऽपराध पापञ्च, 'पापापराधयोरागः' इत्यमरः विदधे, मलिनात्मानो हि मलिनकृत्यमेवा. चरन्तीति भावः; अपाङ्गस्तु कटाक्षः पुनः सविधे समीपस्थे, नैषधे सत्यनले, मिलन् संसक्तः, शुचिरक्तः श्वेतरको निर्मलानुरक्तश्च तस्य भावस्तत्ता तदुचितां सेवां रञ्जनं, चकार, साधवः साध्वेवाचरन्तीति भावः। एतेन कोकटपतावृजुदृष्टिपातादः नुरागाभावो नैषधे कटाक्षपातादनुरागश्चेति गम्यते, अत एव ऋजुदृष्टया कीकटवीनणम् अपि सखीवाक्यनिमित्तस्यानुसन्धानलौल्यात् ; अपाङ्गेनान्यदर्शने एव दोषः न तु ऋजुदृष्टया इत्यदोषः // 10 // नीलिमा ( नीलापन, पक्षा०-मलिनता) का आश्रय, दमयन्तीकी नेत्रकी पुतलीने नलसे भिन्न राजाका दर्शनरूप अपराध किया ( मलिन व्यक्ति मलिन ही कार्य करता है ), किन्तु समीपस्थ (द्वितीय पतिमें नलरूपधारी इन्द्रादि चारों देवोंके बादमें अथवा पासमें स्थित ) नलमें मिलते हुए कटाक्षने श्वेतिमा तथा रक्तता (सफेदी और लालिमा, पक्षा०शुद हृदयता तथा अनुरागयुक्तता ) के योग्य सेवा की। [ पतिव्रता दमयन्तीने कनखीसे अर्थात् अनुरागरहित सामान्य भावसे ही दूसरे राजाओंको देखा तथा पासमें स्थित सत्य नलको कटाक्षसे अनुरागपूर्वक देखा, अतएव परपुरुषदर्शनजन्य दोष दमयन्तीको नहीं लगा। काले ( मलिन ) कनीनिकाका दुर्जनोचित मलिन तथा श्वेत एवं रक्त ( पक्षा०शुद्ध हृदय एवं अनुरक्त ) कटाक्षका नलको ही देखकर सज्जनोचित व्यवहार करना उचित ही है / लोकमें भी शुद्ध हृदय एवं अनुरक्त सेवक योग्य सेवा तथा मलिन हृदयवाला निन्दित कार्य करता है ] // 108 // दृशा नलस्य श्रुतिचुम्बिनेपुणा करेऽपि चक्रच्छलनम्रकार्मुकः / स्मरः पराङ्गैरनुकल्प्य धन्वितां जनीमनङ्गः स्वयमादयत्ततः / / 10 / / तदा नलोऽपि तां सानुरागम् अवक्षत इत्याह, शेति / स्वयम् अनङ्गोऽगरहितः, अत एव स्मरो नलस्य दृशा दृष्टयैव, कटाक्षरूपयेति भावः, श्रुतिचुम्बिना कर्णान्ताकृष्टेन, इषुणा करणेन, तथा करेऽपि नलस्यैव करेऽपि, चक्रच्छलेन राजलक्षणचक्ररेखाव्याजेन, नम्रः अत्यन्ताकर्षणात् कोटिद्वयसंलग्नः, कार्मुकः कोदण्डो यस्य सः, पराङ्गः परस्य नलस्य, अङ्गः दृगादिभिः, परकीयसाधनैरेवेत्यर्थः, धन्वितां धानुष्कस्वम् , अनुकल्प्य, मुख्याभावे प्रतिनिधिरपि अङ्गत्वेन कल्प्यते इति शास्त्रात् कुशकाशवत् धानुष्कत्वेन सम्पाद्य, ततो जनीं वधूम , आर्दयत् अपीडयत् ; दमयन्त्यपि नलकटाक्षेण कामपीडिता अभूदिति तात्पर्यम् // 109 // 1. 'स्वयमार्दिदत्ततः' इति पा०।
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________________ द्वादशः सर्गः। स्वयं अनङ्ग अर्थात् अङ्गहीन कामदेव कानतक स्पर्श करनेवाली अर्थात् विशाल ( पक्षा०–कानतक बैंचे हुए) नकली दृष्टिरूपी बाणसे, ( तथा नलके ही ) हाथमें चक्र (चक्राकार रेखा ) रूप नम्र ( झुके हुए ) धनुषवाला होता हुआ दूसरे ( नलके ) अङ्गों ( नेत्र तथा हाथकी चक्राकार हस्तरेखा ) से धनुर्धर बनकर वधू (दमयन्ती) को पीडित कर दिया। [जिस प्रकार लोकमें किसी वस्तु आदिके अप्राप्य होनेपर उसके स्थानमें दूसरी वस्तुसे काम चलाया जाता है, यथा-कुशके अभावमें काश से; उसी प्रकार अङ्ग, बाण तथा धनुषसे हीन कामदेवने क्रमशः नलके अङ्ग, दृष्टि तथा करस्थ चक्राकार रेखाके द्वारा अङ्ग, बाण तथा धनुषका अनुकल्पकर दमयन्तीको पीडित किया। नलके देखनेपर दमयन्ती काम-पीडित हो गयी ] // 109 // उत्कण्टका विलसदुज्ज्वलपत्रराजिरामोदभागनपरागतराऽतिगौरी / रुद्रक्रधस्तदरिकामधिया नले सा वासार्थितामधृत काञ्चनकेतकीव / / 110 / / उत्कण्टकेति / उत्कण्टका उद्गतपुलका, अन्यत्र-उदग्रसूचिका, विलसन्ती शोभमाना, उज्ज्वला नीलपीतादिवर्णदीप्ता, कान्तिमती च, पत्रराजिः पत्ररचना, अन्यत्र-दलपतिः यस्याः सा, आमोदं हर्ष, परिमलञ्च भजतोति आमोदभाक भजो ण्विः / 'आमोदो गन्धहर्षयोः' इति विश्वः, अतिशयेन अपगतरागा न भवतीत्यनपरागतरा अतिशयानुरागवती अन्यत्र-नास्ति परागः पुष्परजो यस्यामिति अपरागा, अतिशयेन सा न भवतीति अनपरागतरा अतिशयपरागयुक्ता इत्यर्थः, उभयत्राप्यतिशयार्थे तरप , गौरी पार्वतीम् अतिक्रान्ता गुणरित्यतिगौरी अत्यन्तगौरवर्णति चोभयत्रापि योज्यम् ; सा दमयन्ती, रुद्रधः रुद्रे महादेवे, क्रुधः शापाधीनस्वपरित्यागजन्यक्रोधात् , तदरिकामधिया अयं रुद्रशत्रुः काम इति भ्रान्त्या, आगता इति शेषः, काञ्चनकेतकीवेत्युत्प्रेक्षा, नले वासार्थितां स्वयंवरेण निवासाकासाम् , अमृत धृतवती, धरतेः कर्तरि लुङ्, स्वरितत्वात्तङ् ; दमयन्ती नलाभिला. षुका आसीत् इति तात्पर्यम् // 110 // कण्टकों ( सूचीके समान कांटों, पक्षा०-रोमाञ्चों ) से युक्त, विलसित अर्थात् शोभमान श्वेत पत्रसमूहवाली ( पक्षा०-शोभमान श्वेत वर्ण या अनेक वर्ण होने से सुन्दर ) स्तन कपोलादिमें चन्दनादिसे बनाये गये मकरी आदिके आकारवाली ( पत्ररचना वाली), म्वभावतः सुगन्धवाली ( पक्षा०--चन्दनादिके लेपसे शरीरमें तथा पान वीडा आदिसे मुखमें सुगन्धिवाली ) अत्यन्त अनपराग अर्थात् बहुत पराग ( पुष्पराज ) से युक्त ( पक्षा०-- अत्यधिक वैराग्यसे रहित अर्थात् अतिशय अनुरक्त ) और अत्यन्त गौरवर्णवाली ( अथवा-- पार्वतीको अतिक्रान्त ) उस दमयन्तीने काञ्चनमयी केतकीके समान शिवजीके क्रोधसे नलमें उस ( शिवजीके ) शत्रुरूप कामदेवकी बुद्धिसे निवास करनेकी इच्छा की अर्थात् वह नल के कटाक्षसे देखनेपर उनमें आसक्त हो गयी। [ जिस प्रकार शत्रुके क्रोध करनेपर कोई व्यक्ति उसके शत्रुका आश्रय करता है, अतः उत्कण्टक आदि गुणों से युक्त केतकीने शङ्करजीके
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________________ 774 नैषधमहाकाव्यम् / त्याग करनेपर उनके शत्रु कामदेवका ( पुष्प होनेसे बाणरूप होकर ) आश्रय किया, उसी प्रकार रोमाञ्चादिसे युक्त काञ्चनकेतकीके तुल्य दमयन्तीने नलको ही कामदेव समझकर शिवजीके क्रोधसे उस नलका ही आश्रय चाहा अर्थात् दमयन्ती नलासक्त हो गयी। अथवा--जिस प्रकार केतकी शिवजीके क्रोधका निवासार्थिनी बनी अर्थात् शिवजीका कोप स्थान बनी, उसी प्रकार दमयन्ती भी नलको नलवैरी कामदेव ही नलके सम्बन्धसे मुझे पीड़ित कर रहा है इस बुद्धिसे शिवजीके क्रोधका स्थान बन गयी अर्थात् कामदेवपर क्रोधित हो गयी / शिवजीके कामदेव तथा केतकीके साथ विरोध होनेकी पौराणिकी कथा पहले लिखी जा चुकी है ] // 110 // तन्नालीकनले चलेतरमनाः साम्यान्मनागप्यभू. दप्यग्रे चतुरः स्थितान्न चतुरा पातुं दशा नैषधान् | आनन्दाम्बुनिधौ निमज्ज्य नितरां दूरं गता तत्तला लङ्कारीभवनाजनाय ददती पातालकन्याभ्रमम् / / 111 // तदिति / सा दमयन्ती तत् तस्मिन् , नालीकनले अलीकनलो न भवतीति नालीकनलस्तस्मिन् सत्यनले इत्यर्थः, चलेतरमना अदृष्टवशात् निश्चलचित्ता सती, तत्रैव दृढानुरागिणी सतीत्यर्थः, आनन्दाम्बुनिधौ निमज्ज्य नितरां दूरं गता आनन्दस्य चरमसीमां गता, अन्यत्र-समुद्रस्य तलं प्राप्ता, तस्य तलस्य अलङ्कारीभवनात् आभरणीभावात्, अन्यत्र-तत्रावस्थानादित्यर्थः,जनाय आलोकयितृजनाय, पातालकन्याभ्रमं नागकन्याभ्रमं, ददती सौन्दर्यातिशयात् आनन्दातिशयजनितनिमेषरहितत्वात् समुद्रतलगमनाञ्च किमियं नागकन्येति बुद्धि जनयन्ती सती अग्रे स्थितानपि चतुरो नैषधान् इन्द्रादिमायानलान् , साम्यात् सत्यनलसादृश्यात् , मना. गीपत् अपि, दृशा कटाक्षेण, पातुं द्रष्टुं, 'शकष-' इत्यादिना अस्त्यर्थयोगात्तुमुन् चतुरा निपुणा, नाभूत् ; सा दमयन्ती व्यवहितमपि सत्यनलं प्राक्तनादृष्टवशात कटाक्षः पश्यति स्म इन्द्रादिमायानलांस्तु सम्मुखस्थान् ऋजुदृष्टयैव पश्यति स्मेति तात्पर्यम् // 111 // __ उस सत्य नलमें स्थिर चित्तवाली, आनन्दसमुद्रमें अच्छी तरह डूबकर ( अत्यन्त हर्षित होकर ) अत्यन्त दूर गयी हुई हर्षकी परम सीमाको प्राप्त ( पक्षा०--आनन्दसमुद्रके बहुत अगाध-तलमें गयी हुई ) और उसके तल अर्थात समुद्रके अगाध तल ( पाताल ) का अलङ्कार बननेसे लोगों ( वहांके निवास करनेवालों ) के लिए पातालकन्या अर्थात् नागकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई चतुरा दमयन्ती सामने बैठे हुए भी चार असत्य नल अर्थात् कपटसे नलका रूप ग्रहण कर स्वयंवर में सामने बैठे हुए इन्द्र, वरुण, यम और अग्निरूप चारों देवों को थोड़ी दृष्टिसे भी पान करनेके लिए नहीं समर्थ हुई। ( अथवा पाठा०--उस 1. 'तन्नला' इति पा०। 2. 'भवते जनाय' इति पाठान्तरम् /
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________________ द्वादशः सर्गः। 775 तल अर्थात् भूतलके अलङ्कार बने हुए उस नल या इन्द्रादि चारों देव या समस्त सभासदों के लिए पातालकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई; अथवा-उस पातालतलके अलङ्कार बने हुए शेषनागके लिए पातालकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई। अथवा 'तन्नला०' पा०उन असत्य नलों ( इन्द्रादि चारों देवों ) के अपने सौन्दर्यसे अलङ्कार होते हुए सत्यनलके लिए पातालकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई ) / [ दमयन्ती ने अदृष्ट प्रेरणावश असत्य नल इन्द्रादिको सामान्य दृष्टिसे ही देखा तथा सत्यनलको सानुराग देखकर अतिशय हर्षित हुई तथा उसे देखकर स्वयंवरस्थ सभासदोंको या इन्द्रादि देवोंको या नलको भी यह नागकन्या है क्या ?' ऐसा भ्रम हो गया ] // 111 // सर्वस्वं चेतसस्तां नृपतिरपि दृशे प्रीतिदायं प्रदाय प्रापत्तदृष्टिमिष्टातिथिममरदुरापामपाङ्गोत्तरङ्गाम् | आनन्दान्ध्येन बन्ध्यानकृत तदपराकूतपातान् स रत्याः पत्या पीयूषधाराबलनविरचितेनाशुगेनाशु लीढः / / 112 / / . सर्वस्वमिति / नृपतिरपि सत्यनलोऽपि, चेतसो हृदयस्य सर्वस्वं सर्वधनभूता, हृदयात् अनपेतामित्यर्थः, तां दमयन्ती, दृशे स्वचक्षुषे, प्रीतिदायं पारितोषिकदानं, 'दायो दाने यौतुकादिधने वित्ते च पैतृके' इति वैजयन्ती, प्रदाय पूर्वं निरन्तरध्यानेन मनसैव सा साक्षात्कृता, इदानीं चक्षुषा तां साक्षात्कृत्येति भावः, अमरैरपि दुरापां दुष्प्रापाम, अपाङ्ग उत्तरङ्गां तरङ्गिन्तां, तस्याः दमयन्त्याः , दृष्टिं तत्कटाक्षरूपदृष्टिमेव, इष्टातिथिं प्रियबन्धु, प्रापत् लब्धवान् , स्वयञ्च तया कटाक्षेण वीक्षित इत्यर्थः; अथ स नृपः, रत्या कामेन, पीयूषधाराबलनविरचितेन अमृतधारानिष्यन्दलिप्तेन, आशुगेन शरेण, तत्तिर्यगदृष्टिरूपेणेत्यर्थः, आशु लीढः विद्धः सन् , आनन्देन आन्ध्यं मोहं, पारवश्यमिति यावत् , तेन, तदपरान् तस्या भैमीदृष्टेः, अपरान् प्रथमदृष्टिपातानन्तरभाविनः, आकृतेन पातान् साभिलाषदृष्टिपातान् , बन्ध्यान् अफलान् , अकृत कृतवान् , प्रथमदृष्टिपातजनितानन्दमग्नस्तस्यास्तदनन्तरदृष्टिपातान् नावलोकयामासेत्यर्थः॥ 112 // राजा ( नल ) ने भी हृदय-सर्वस्व उस ( दमयन्ती ) को दृष्टिके लिए पारितोषिक देकर अर्थात् देखकर सामान्य रूपसे देखे जानेके कारण नलरूपमें वहाँ बैठे हुए इन्द्रादि देवों ( या देवमात्र ) से दुर्लभ अत्यन्त चञ्चल कटाक्ष युक्त उस ( दमयन्ती ) की दृष्टिरूपी प्रिय अतिथिको प्राप्त किया अर्थात् नलके देखनेके बाद दमयन्तीने फिर दुबारा नलको कटाक्षोंसे देखा / ( तदनन्तर ) रतिपति ( कामदेव ) के द्वारा ( अतिशय आनन्दप्रद होनेसे ) अमृतधारारूप वलन ( मुखको कुछ मोड़कर देखने ) से बनाये (पक्षा०--अमृतधारासे सिक्त किये ) गये बाणसे विद्ध ( पाठा०--शीघ्र विद्ध) उस (नल ) ने आनन्दजन्य अश्रुसे परिपूर्ण
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________________ 776 नैषधमहाकाव्यम्। नेत्र होने के कारण देखनेमें अशक्त होनेसे उस (दमयन्ती) के द्वारा किये गये अनेक भावोंसे पूर्ण कटाक्षोंको व्यर्थ कर दिया अर्थात् दमयन्तीके किञ्चित् मुख फेरकर कटाक्षपूर्वक देखनेसे ही अमृतधारासे आप्लुत नल हर्षाश्रुपूर्ण होकर कामपीडित हो दमयन्तीके साभिप्राय अन्य कटाक्षोंको नहीं देख सके। [अन्य भी कोई व्यक्ति प्रसन्न होकर किसीके लिये हृदयके सर्वस्वको पारितोषिकमें दे देता है तथा अभीष्ट अतिथिको पाकर आनन्दजन्य अश्रुओंसे नेत्रोंको भर लेता है / नलके द्वारा सानुराग देखी गयी दमयन्तीने नलको पुनः देखा, जिससे कामपीडित उनके नेत्र हर्षाश्रुसे पूर्ण हो गये अत एव उन्होंने फिर दमयन्तीके द्वारा साभिप्राय ( अनेक भावपूर्ण) किये गये कटाक्षोंको नहीं देखा ] // 112 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य द्वादश एष मातृचरणाम्भोजालिमौलेमहा काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 113 / / श्रीहर्षमिति / मातृचरणाम्भोजयोः अलिमौलेः भृङ्गायमाणमौलेरित्यर्थः // 113 // इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु' समाख्याने द्वादशः सर्गः समाप्तः। कवीश्वर-समूहके "उत्पन्न किया, माता ( वागीश्वरी देवी, अथवा-जननी मामल्ल देवी) के चरण-कमलोंमें भ्रमर तुल्य बने हुए मस्तकवाले / ( अथवा--माताके चरणों के ( पूजार्थ चढ़ाये गये ) कमल-समूह युक्त मस्तकवाले अर्थात् माताके चरण पर चढ़ाये गये कमलपुष्पसमूहको मस्तक पर लिये हुए) उसके रचित 'नल चरित' "यह द्वादश सर्ग समाप्त हुआ। शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान समझनी चाहिये / यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित' का द्वादश सर्ग समाप्त हुआ // 12 //
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________________ त्रयोदशः सर्गः। कल्पद्रुमान् परिमला इव भृङ्गमालामात्माश्रयां निखिलनन्दनशाखिवृन्दात् / तां राजकादपगमय्य विमानधुर्या निन्युर्नलाकृतिधरानथ पञ्च वीरान् / / 1 / / __कल्पद्रमानिति / अथ नले कटाक्षपातानन्तरं, विमानधुर्याः शिविकाभृतः आ. त्माश्रयाम् आत्मा स्वम्, आश्रयोऽधिकरणं यस्याः तां स्वाधारां, स्ववाह्यविमानावस्थितत्वेन परम्परया धुर्याश्रितामित्यर्थः, तां दमयन्तों, परिमलाः, सौरभविशेषाः, आत्माश्रयां स्वोपजीविनी, परिमलाश्रितामित्यर्थः, भृङ्गमालां निखिलात नन्दनशाखिवृन्दात् अपगमय्य कल्पद्रमान् पञ्चामरतरूनिव, राजकान् राजसमूहात् , गोत्रोक्षोष्ट्रोरभ्रराज-' इत्यादिना समूहाथै वुज , अपगमय्य अपनीय, नलाकृतिधरान् नलरूपधारिणः; यस्य या आकृतिस्तद्धारित्वं तस्यापि सम्भवतीति नलस्यापि नलाकृतिधारित्वं सङ्गच्छते; पञ्च वीरान् नलसहितान् इन्द्रादीन् , निन्युः प्रापयामासुः॥१॥ जिस प्रकार मनोहर गन्ध स्वोपजीविनी भ्रमरपंक्तिको नन्दनवन ( इन्द्रोद्यान) के वृक्षसमूहोंसे हटाकर कल्पद्रुमों ( कल्पद्रुम आदि पांच देववृक्षों) के पास ले जाती है, उसी प्रकार विमानवाहक आत्माश्रयिणी (अपने कन्धेपर स्थित पालकी पर सवार हुई ) उस ( दमयन्ती) को राज-समूहसे हटाकर नलके आकार को ग्रहण किये हुए पांच वीरों (इन्द्र अग्नि, यम, वरुण और नल) के पास ले गये। [मनोभिलाषके पूरक होनेसे मन्दार, पारिजात, हरिचन्दन और सन्तान वृक्षों के लिए भी 'कल्पद्रुम' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। मन्दार, पारिजात, हरिचन्दन, सन्तान और कल्पवृक्ष, ये पांच देववृक्ष हैं तथा स्वयंवरमें इन्द्रादि चार देव एवं नल; ये पांच वीर हैं। नलके आनेका निश्चय विमानबाहकोंको नहीं होनेसे यहां सभीको नलरूपधारी कहा गया है ] // 1] साक्षात्कृताखिलजगज्जनताचरित्रा तत्राधिनाथमधिकृत्य दिवस्तथा सा / ऊचे यथा स च शचीपतिरभ्यधायि प्राकाशि तस्य न च नैषधकायमाया।। साक्षादिति। अथ पञ्चवीरप्रापणानन्तरं साक्षात्कृतम् अखिलजगत्सु जनताया जनसमूहस्य, चरित्रं यया ताहशी, सा सरस्वती, तत्र पञ्चसु मध्ये, दिवोऽधिनाथम् इन्द्रम्, अधिकृत्य निर्दिश्य, तथा तेन प्रकारेण, ऊचे उवाच, यथा येन प्रकारेण, स च शचीपतिः इन्द्रः, अभ्यधायि अभिहितो भवति, तस्य इन्द्रस्य, नैषधकायमाया नलरूपकल्पना च, न प्राकाशि न प्रकाशिता भवति // 2 // सम्पूर्ण संसारके जन-समूहके चरित्रका साक्षात्कार करनेवाली उस ( सरस्वती देवी ) ने उन ( नलाकृतिधारी पांच वीरों) में स्वर्गाधीश ( इन्द्र) को लक्षितकर वैसा कहा अर्थात् वर्णन किया, जिससे इन्द्र कहे गये अर्थात् इन्द्रका ज्ञान हो गया और उसकी नलके शरीर (धारण करने ) का कपट प्रकट नहीं हुआ // 2 //
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________________ 778 नैषधमहाकाव्यम् / ब्रूमः किमस्य वरवर्णिनि ! वीरसेनोभूतिं विषद्वलविजित्वरपौरुषस्य ? | सेनाचरीभवदिभाननदानवारिवासेन यस्य जनितासुरभी रणश्रीः // 3 // ___ अथ लोकपालान् नलञ्च प्रत्येकं चतुर्भिः श्लोकः श्लेषभङ्गया वर्णयति, बम इत्यादि / वरवर्णिनि ! हे उत्तमाङ्गने ! 'उत्तमा वरवर्णिनी' इत्यमरः, द्विषतः शत्रोः, बलस्य बलासुरस्य, अन्यत्र-द्विषतो बलानां, 'बलोऽसुरे बलं सैन्ये' इति वैजयन्ती, विजित्वरपौरुषस्य जित्वरपराक्रमस्य, अस्य वरस्य, इन्द्रनलयोः सामान्यनिर्देशः, वीरसेनानां पराक्रान्तसैनिकानाम् , उद्भूतिम् उज्जम्भणं शौर्यप्रकाशनमित्यर्थः, अन्यत्र-वीरसेनात् तदाख्यनृपात् , उद्भूतिम् उत्पत्ति, किं ब्रमः ? कथं वर्णयामः ? यस्य वीरस्य, रणश्रीः सेनाचरीभवतोः सैनिकायमानयोः, इभाननदानवार्योः विना. यकविष्ण्वोः , वासेनाधिष्ठानेन, जनिता असुराणां भीर्यया सा तादृशी, जातेति शेषः / अन्यत्र-सेनाचरीभवतां सेनासञ्चारिणाम, इभानां गजानाम् ,आननेषु दानवारीणां मदजलानां, वासेन वासनया, सुरभिः जनिता सुगन्धिः कृता। 'ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः // 3 // इन्द्रपक्षमें-हे वरवर्णिनि ( उत्तमे दमयन्ति )! शत्रुभूत बल ( नामक दैत्य ) को जीतनेवाला है पुरुषार्थ जिसका ऐसे इसके वीर सेनाओं के विशिष्ट ऐश्वर्य ( या सामर्थ्य या बाहुल्य ) का हम कैसे वर्णन करें ( वागगोचर होनेसे उसका वर्णन अशक्य है ), जिसकी सेनामें चलते ( रहने ) वाले गजानन (गणेशजी ) तथा दानवारि (विष्णु भगवान् ) के रहनेसे असुरोंसे जो देवताओंको भय था, उसके क्षेपण ( नष्ट होने ) से शोभा हो गयी हैं ( अथवा-जिसकी रणभूमिकी शोभा सेनामें चलनेवाले गणेशजी तथा विष्णु भगवान् के रहनेसे असुरोंको भय देनेवाली हो गयी है) नलपक्षमें-हे वरवर्णिनि ! शत्रुओं की सेन। ( अथवा-शारीरिक बल ) को जीतने वाला है पुरुषार्थ जिसका ऐसे इसकी 'वीरसेन' (नामक राजा) से उत्पत्ति का हम क्या ( अथवा-कैसे ) वर्णन करें ? (क्यों कि जो स्वयं प्रसिद्ध नहीं रहता है, उसी का वर्णन उसके पिता आदि का नाम बतला कर किया जाता है, परन्तु इस 'नल' के स्वयं जगत्प्रसिद्ध होनेसे इसके पिता 'वीरसेन' का नाम बतलाकर वर्णन करना व्यर्थ एवं अनुचित भी है ) जिसकी युद्धभूमिश्री सेनामें चलनेवाले (अथवा--अचल अर्थात् पर्वतवत् स्थिर रहनेवाले ) हाथियोंके मुख के दानजलके गन्धसे सुगन्ध युक्त हो गयी है / [इस इलोकसे लेकर 'अत्याजि-' ( 13 / 27 ) के पूर्वतक इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण का 4-4 श्लोकोंसे वर्णन पहले तथा नलका वर्णन बादमें किया गया है और वहां / 13 / 28 ) से 'किं ते तथा' (13 / 31) तक चारों श्लोकोंसे नलका वर्णन पहले तथा उन्हीं 4 श्लोकोंमें से 1-1 श्लोकों से . 1. 'यौवनोष्मवती शीते शीतस्पर्शा च याऽऽतपे। भर्तृभक्ता च या नारी सोच्यते वरवर्णिनी / ' इति वृद्धाः /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। कमशः इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण का वर्णन बाद में किया गया है। अन्तमें 'देवः पतिः' (13.34 ) इस एक श्लोकसे ही क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण और नल इन पांचोंका वर्णन किया गया है ] // 3 // शुभ्रांशुहारगणहारिपयोधराङ्कचुम्बीन्दचापग्बनितामणिप्रभाभिः / अन्यास्यते समिति चामरवाहिनीभिर्यात्राम चैष बहलाभरणार्चिनाभिः।। शुभ्रेति / एष वीरः, इन्द्रनलयोः सामान्यनिर्देशेऽपि अत्र इन्द्र इत्यर्थः, शुभ्रशुः चन्द्रः, हरस्येमे हाराः, गणाः प्रमथाः, हरस्यापत्यं पुमान् हागिः स्कन्दः; पयोधग. चुम्बिना मेघोत्सङ्गसङ्गिना, इन्द्रवापेन खनिताः मिश्रिताः, ग्रमणिप्रभाः सूर्य तेजांसि पत्र तादृशीभिः, बहुरनेकः, लाभः त्रिलोकविजयादिः यस्मिन् तादृशे रणे अचिताभिः पूजिताभिः, अर्च पूजायां कर्मणि क्तः अमरवाहिनीभिः सुरसेनाभिः, ममिति रणे च, युद्धक्षेत्रे च इत्यर्थः, यात्रासु रणयात्रासु. च, अन्वास्यते अनुगम्यते उपास्यते च / अन्यत्र तु-एषः नलः, शुभ्रांशुभिः उज्ज्वलमयूखैः, हारगणैः मुक्ताहारजालैः, हारिपयोधराङ्कचुम्बिभिः मनोहरकुचोत्सङ्गसङ्गिभिः, इन्द्रचापैः तत्तल्यविविधवर्णः विशिष्ट भूपगदीप्तिभिरित्यर्थः खचिता मिश्रिताः, द्यमणेः सूर्यस्य, सूर्यकान्तमणेरि. त्यर्थः प्रभाः यासां तादृशीभिः, बहुलैः आभरणः अलङ्कारः, अर्चिताभिः भूषिताभिः, चामरवाहिनाभिः चामरधारिणीभिः, समिति सभायां, यात्रासु देवतामहोत्सवेषु च, अन्वास्यते // 4 // इन्द्रपक्ष में युद्ध में तथा यात्राओं ( विलासयात्राओं, या दण्ड यात्राओं ) में चन्द्रमा, शिवजी के गण ( प्रमथ आदि ग्यारह, या नन्दी आदि ), शिव-पुत्र ( स्कन्द या गणेश जी) तथा मेघ के ( स्वामी होनेसे ) मध्यवर्ती जो इन्द्र उनके धनुष से खनन ( मिश्रित या बद्व ) सूर्य कान्तिवाली तथा बहुत लाभवाले युद्व में पूजित ( अथवा-दंत्य-विजय करने में अधिक कान्तिसे पूजित ) देवसेन। इसके पीछे चलती है / ( अथवा-युद्ध में .. .. शिव नाके गण का हरण करने ( अपने साथ ले चलने ) वाले अर्थात् शिवजीके गगसे युक्त मंघ......। अथवा-युद्ध में ... ...वजीके गणसे मनोहर मेघ के मध्यगत इन्द्र धनुषस खानत ..... / अथवा-उक्त प्रकारके इन्द्रधनुषसे अ.काशमें वृद्धिगत सूर्यकान्तवाली...."। अथवा-युद्ध में चन्द्र आदि तथा इन्द्रधनुष से आकाशमें वृद्धिङ्गत..." ) / नलपक्षमें-सभामें तथा उत्सव-सम्बन्धिनी यात्रा में शुभ कान्तिवाले मुक्ताहारसे सुन्दर वक्षःस्थलपर इन्द्रधनुषखचित सूर्य प्रभाके समान प्रभावाला तथा बहुत आभरोसे अलकृत चामरधारिणी अङ्गनाएं इसकी सेवा करती हैं // 4 // भूमीभृतःसमिति जिष्णुमपव्यपायं जानीहि न त्वमघवन्तममु कथावत / गुप्तं घटप्रतिभटस्तनि ! बाहुनेत्रं नालोकसेऽतिशयमद्भुतमतदीय / / . भूमीति / घटप्रतिभटस्तनि ! घटस्य प्रतिभटौ प्रतिस्पर्द्धिनौ, स्तनौ यस्यास्तथा 46 नै० उ०
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________________ 780 नैषधमहाकाव्यम् / भूते, हे घटप्रमितकुचे ! समिति संयति, भूमीभृतः पर्वतान् , जिष्णुं जेतारम् ‘न लोका-' इत्यादिना पष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया अविद्यमानः पवेः वज्रस्य, अपायो यस्य तम् अपव्यपायं नित्यवज्रहस्तम् , अमुं वीरं, कथञ्चित् अपि अमवन्तं मघवत इन्द्रादन्यं, न तु जानीहि नैव विद्धि, इन्द्रमेवा, विद्धि इत्यर्थः / इन्द्रश्चेदक्षिसहस्रं क्व गतम् ? तत्राह, गुप्त नलरूपधारणार्थमेव निगृहितम् , अतिशयम अद्भुतम् एतदीयं बाहुनेत्र बहुनेत्रत्वम् युवादित्वादण्-प्रत्ययः नालोकसे न पश्यसि। अन्यत्र तु-समिति भूमिभृतो राज्ञः, जिष्णुं जेतारम् , अपव्यपायम् अपगतः व्यपायः रणात् पलायनं यस्य तं रणादपलायमानम् , असुं वीरं नलं, त्वं कथञ्चिदपि अघवन्तं पापवन्तं, न जानीहि, पुण्यश्लोकत्वादस्येति भावः / गुप्तं रक्षितम्, अक्षतम् इत्यर्थः, बहूनां नेता तस्य भावस्तं बाहुनेनं राजाधिराजत्वं, पूर्ववदण-प्रत्ययः हे दमयन्ति ! नालोकसे किम् ? इति काकुः / अन्यत् समानम् // 5 // इन्द्रपक्षमें-'बल' ( नामक दैत्य ) से बलबान् ( या-श्रेष्ठ बलवाले ) इसने अत्युन्नत तथा कठोर शरीरवाले और अत्यन्त दर्पयुक्त सिंहों तथा हाथियोंवाले पर्वतोंके पलोंको काटकर . आपत्ति रूपी समुद्र में डूबते हुए संसार का उद्धार किया है / पौराणिक कथा--पूर्वकालमे पङ्खसहित होनेसे उड़नेवाले पर्वत जहां बैठते थे, वहां का विशाल भूभाग उनके नीचे दबकर नष्ट हो जाता था, अतः देवोंकी प्रार्थनासे इन्द्र ने उन पर्वतों का पक्ष काटकर उन्हें 'अचल' उना दिया और संसार को बचा लिया / नलपक्षरों-अतिशय बलवान् ( अथवा-अधिक सेनावाले ) इसने अतुलनीय अर्थात् अनुपम श्वेत घोड़ों को मारनेवाला शरीर (या विरोध ) है जिनका ऐसे तथा अतिशय दर्पयुक्त करोड़ों घोड़ों एवं हाथियोंका धारण करनेवाले राजाका पक्ष ( सहायकों ) का नाश करके ( शत्रुकृत ) आपत्ति-समुद्र में डूबे हुए संसारका उद्धार किया है। इन्द्रपक्षम-हे घड़ेके प्रतिद्वन्दी अर्थात् समान ( विशाल ) स्तनोवाली ( दमयन्ति ) ! तुम संग्राममें पर्वतों के विजयी तथा वज्रके अभावसे रहित अर्थात् सदा वज्र धारण करनेवाले इसे किसी प्रकार इन्द्रभिन्न मत जानो अर्थात् इन्द्र ही जानी / [ 'इस इन्द्रने अपने सहस्र नेत्रोंको छिपा लिया है, अतः उनके दृष्टिगोचर नहीं होने से इन्द्रभिन्न ( नल ) मत समझो इस बातको सरस्वती उत्तरार्द्धले स्पष्ट करनी है ] विस्तृत ( अथवा-तलहत्थीमें नहीं होने. वाले, अथवा-अत्यन्त ) आश्चर्यकारी गुप्त बहुनेत्रत्व ( अथवा-बहुनेत्र-समूह ) को नहीं देखती ( या-कथश्चित् नहीं देखती ) हो। ( अथवा-इसके बहुत नेत्रोंवाले अतिशयको नहीं देखती हो, यह आश्चर्य है / अथवा--इसके बहुत नेत्रोंवाले आश्चर्य कारक अतिशयको किसी प्रकार नहीं देखती हो)। __ नलपक्ष में-हे घटके प्रतिद्वन्द्वी स्तनोंवाली ( दमयन्ति ) ! तुम युद्ध में शत्रुओं के विजयी, ( युद्धसे ) नहीं भगनेवाले इसे किसी प्रकार सदोष मत जानो। इसके सुरक्षित अर्थात अक्षण आश्चर्य कारक, विशिष्ट बहुनेतृत्व ( बहुतों के नेता होनेके भाव अर्थात् राजाधिराज
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 781 भाष ) को नहीं देखती हो ? अर्थात् अवश्य ही देखती हो / ( अथवा-नहीं देखती हो यह आश्चर्य है अर्थात् अवश्य तुम्हें देखना चाहिये। अथवा-हाथके परिमाणसे अधिक, आश्चर्य कारक ( ओढ़ने के कारण ) वाहुपर स्थित सूक्ष्मतम वस्त्र को गुप्तरूप (दूसरी वस्तु को देखनेके व्याज ) से नहीं देखती हो, उसे देखना चाहिये / अथवा-अतिशय ( हस्त परिमाणसे अधिक ) बाहुओं तथा अतिशय ( 'परस्पर' से अधिक बड़े) नेत्रोंको नहीं ....... / अथवा-अत्यन्त दानशील हाथों ( तलहत्थियों ) वाले बाहुओं तथा हाथों (तलहत्थियों) को अतिक्रमण किये हुए अर्थात् हाथोंसे भी बड़े नेत्रों को' : ''अथवा-अनेकोंके नेताओंके समूह ..... ) // 5 // लेखा नितम्बिनि ! बलादिसमृद्धराज्यप्राज्योपभोगपिशुना दधते सरागम् | एतस्य पाणिचरणं तदनेन पत्या साद्ध शचीव हरिणा मुदमुद्वहस्व // 6 // __लेखा इति / नितम्बिनि ! हे प्रशस्तनितम्बे ! प्रशंसायामिनिः बलादीनां बलाद्यसुराणां. यानि समृद्धानि राज्यानि तेषां प्राज्योपभोगस्य प्रभूतसुखानुभवस्य,पिशुनाः खलाः, द्वेष्टार इत्यर्थः, तदसहमानाः इति यावत् , लेखाः देवाः 'अमरा निर्जरा देवा लेखा अदितिनन्दनाः' इत्यमरः / एतस्य वीरस्य, इन्द्रस्येत्यर्थः, पाणिचरणं पाणिचरणी, प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः सरागं सानुरागं, दधते शिरसा धारयन्ति, प्रणमन्ती. त्यर्थः, धाजः कर्तरि लट् तङि बहुवचनम् तत्तस्मात् , अनेन हरिणा देवेन्द्रेण, पल्या सार्द्ध शचीव मुदम् उद्वहस्व, शच्याः सपत्ना भवेत्यर्थः; इत्येकोऽर्थः। अन्यस्तुसरागम् आताम्रम्, एतस्य वीरस्य, नलस्येत्यर्थः पाणिचरणं कत्त, बलादीनि राज्यागानि, 'स्वाम्यमात्यसुहृत्कोश-राष्ट्रदुर्गबलानि च / राज्याङ्गानि प्रकृतयः-' इत्यमरः तैः समृद्धस्य राज्यस्य यः प्राज्योपभोगः तस्य पिशुनाः सूचकाः, लेखाः चक्र. ध्वजादिरेखाः, दधते दध धारणे इति धातोभीवादिकालट तङयेकवचनम् तदनेन वीरेण, नलेनेत्यर्थः, पत्या साद्धं हरिणा शचीव मुदम् उद्वहस्व // 6 // इन्द्रपक्षमें-हे विशाल नितम्बोंवाली ( दमयन्ति) ! बल आदि (वृत्र, नमुचि, जम्भ, पाक आदि दैत्य ) के समृ / ( ऐश्वर्यशाली ) राज्य के विस्तृत उपभोगके वैरी देवलोग इस ( इन्द्र ) के हाथ-पैरों ( हस्तावलम्बन देकर हाथ तथा नमस्कार करनेके लिये चरण ) को प्रेमपूर्वक धारण करते है, अतः इस इन्द्र के साथ इन्द्राणीके समान हर्ष प्राप्त करो अर्थात् इसके साथ विवाह करके इन्द्राणीकी सपत्नी ( सौत ) बनो / ___नलपक्षमें-रक्तवर्णयुक्त इसके हाथ-पैर बल ( स्वामी-मन्त्री आदि राज्याङ्ग, अथवासेना / से ऐश्वर्यशाली राज्यके अधिक अर्थात् भरपूर उपभोग करनेके सूचक रेखा ( सामुद्रिक 1. 'बाहू अतिशयितौ वदान्यो शयौ ययोस्तावतिशयो। नेत्रे च शयमतिकान्ते (अतिशये)। अतिशयौ च अतिशये चेति' नपुंसकमनपुंसकेनैकवचास्यान्यतरस्यान् (पा० सू० 112 / 69) इति नपुंसकत्व एकत्वे चेदं व्याख्यानम् /
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________________ 752 नैषधमहाकाव्यम् / शास्त्रमें वर्णित कमल-मत्स्य-चक्र आदि रेखारूप चिह-विशेष ) को धारण करते हैं अर्थात इसके हाथ-पैरों में कमल चक्र मत्स्य आदि की रेखाओंसे मालूम होता है कि यह राजा बल आदि से समृद्धिमान राज्यका अधिक परिमाणमें भोग करेगा, इस कारण से इन्द्र के साथ इन्द्राणीके समान इसके साथ ( विवाह करके ) हर्षित होवो // 6 // आकर्ण्य तुल्यमखिला सुदती लगन्तीमाखण्डलेऽपि च नलेऽपि च वाचमेताम् / रूपं समानमुभयत्र विगाहमाना श्रोत्रान्न निर्णयमवापदसो न नेत्रात् // 7 // आकयेति / सुदती शोभना दन्ता यस्याः सा, अत्र दन्तस्य दवादेशलक्षणा. भावात् 'अग्रान्त-' इत्यादिसूत्रे चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् दनादेश इत्येके। सुदत्यादिशब्दानां ख्यभिधायितया योगरूढत्वात् 'स्त्रियां संज्ञायाम्' इति विकल्पात दत्रादेश इति केचित् / एतदेवाभिप्रेत्य 'सुदत्यादयः प्रतिविधेयाः' इत्याह वामनः / उगितश्चेति डीप असौ मी, आखाडलंपि च इन्द्रेऽपि च, नलेऽपि च, तुल्यम अविशेषेण, लगन्ती सम्बध्नतीम्, एताम् अखिलां वाचम् आकर्ण्य उभयत्र इन्द्र. नलयोः, समानं निर्विशेष, रूपम् भाकारं, विगाहमाना अग्रे दर्श दर्शम् आलोचयन्ती, श्रोत्रात् श्रवणेन्द्रियात् , निर्णयं न अवापत् सरस्वतीकृतवर्णनाया व्यक्तिविशेषाबोधकत्वादयम् इन्द्रो नलो वेति निश्चयं न लेभे / आप्नोतेः लुङि लृदित्वात् 'पुषादिघुत-'इत्यादिना च्लेरडादेशः नेत्रात् चतुरिन्द्रिगाच्च, न निर्णयमवापत् इन्द्रनलयोः समानाकारतया पुनः पुनदृष्ट्वाऽपि न निश्चेतुं शशाकेत्यर्थः // 7 // उस सुन्दर दांतोंवाली ( दमयन्ती ) ने इन्द्र तथा नल में समान रूप से लगती (घटती) हुई इस बात ( सरस्वतीकृत वर्णन ) को सुनकर दोनों ( नलरूप धारी इन्द्र तथा वास्तविक नल ) में समान रूप को देखती हुई (व्रमशः) कान तथा नेत्र से ( कानसे सरस्वतीकृत वन सुनकर तथा नेत्रसे रूप देखकर वर्णन तथा रूप-दोनोंके समान होने के कारण) निर्णय को नहीं प्राप्त किया अर्थात् 'यह इन्द्र है या नल ? यह निश्चय नहीं कर सकी / / 7 / / शक्रः कमेष निषधाधिपांतः सात ? दलायमानमनसंपारभाव्य भैमीम निदिध्य तत्र वन्स्य रखार मर भयो सृजद्भगवती वचसांस्र सा इक इति / अथ सा भगवती सरस्वती, भैमीम एष वीरः, शक्रः किम् ? स स्वप्राण नाथः, निषधाधिपतिः नलः, वति दोलायमानम्नसं देव्याः श्लेषोक्त्या आ. कारसाम्याच्च सदिहानचित्तां, परिभाष्य समय, तत्र पञ्चवीरमध्ये, पवनस्य सखायम् अग्नि, निदिश्य हस्तेन प्रदर्श्य, अस्यां भैम्यां विषये, भूयो वचसा नजं वाक्यपरम्पराम, असृजत् जगादेत्यर्थः // 8 // ( यह इन्द्र है क्या ? अथवा वह (दूतरूपमें पूर्वकालमें दृष्ट ) नैषधराज नल है ? इस
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________________ त्रयोदशः सगः / 783 धकार दोलायमान ( सन्देह युक्त) चित्तवाली दमयन्ती को विचारकर उस भगवती ( सरस्वती देवी) ने वायुके मित्र अर्थात् अग्निको सङ्केत कर इस ( दमयन्ती) से वचनमालाकी सृष्टि की अर्थात् बोली // 8 // एष प्रतापनिधिरुद्गतिमान् सदाऽयं किं नाम नार्जितमनेन धनञ्जयेन ? | हेम प्रभूतमधिगच्छ शुचेरमुडमान्नास्त्येव कस्यचन भास्वररूपसम्पत् / 6 / / __एष इति / एष वीरः, प्रतापस्य तेजसः, निधिः, अयं सदा उद्गतिमान् उद्ध्वज्वलनवान् , धनानि विचित्रवस्तूनि जयतीति धनञ्जयो धनञ्जयसंज्ञकः पार्थः, अर्जुनः इति यावत् , 'संज्ञायां भृतवृजि-' इत्यादिना खचि मुमागमः तेन की, अनेन अग्निना कारणेन, किं नाम किं किल, नार्जितम् ? न लब्धम् ? खाण्डवदहनकाले सन्तुष्टस्याग्नेः सकाशात् रथाक्ष यतूगगाण्डीवादिकं प्राप्य पार्थेन विजित्य सर्वञ्च उपलब्धमेवेत्यर्थः; केचित्त-धनायेन अग्निना, 'धनञ्जयः सर्पभेदे ककुभे देहमारुते / पार्थेऽग्नौ' इति मेदिनी, अनेन का, किं नाम अग्निश्वानरो वह्निरियादिकं किं नामधेयमिति व्याचक्षते; हेम सुवर्ग,शुचेः शुचिनामकात् , अमुष्मात् अग्नेः, 'शुचिग्रीष्मा ग्निगारेप्वाषाढ़े शुद्धमन्त्रिगि' इति मेदिनी, प्रभूतम् उद्भतम् , अधिगच्छ विद्धि 'अग्नेरपत्थं सुवर्गम्' इति स्मरणादिति भावः। भास्वररूपस्य रूपान्तरप्रकाशकरूपस्य, सम्पत् समृद्धिः, कस्यचन इतोऽन्यस्य कस्यचिदपि, नास्येव / अन्यत्र तुएषः प्रतापस्य कोपदण्डजतेजा विशेषस्य, निधिः, 'स प्रतापः प्रभावश्च यत्तेजः कोष. दण्डजम्' इत्यमरः, अयं नलः, सदा उद्गतिमान् उदयवान् , नित्याभ्युदयशील इत्यर्थः; अनेन का, जयेन करणेन, किं नाम धनं नार्जितम् ? जयेनव सर्वसत्पादितम् इत्यर्थः, 'क्षत्रियस्य विजितम्' इति स्मरणादिति भावः, शुवेः पवित्रात्, अमुष्मात् नलात् प्रभूतं प्राज्यं, हेम सुवर्गम् , अधिगच्छ प्राप्नुहि, एतत्परिग्रहात् आढ्या भवेत्यर्थः; भाः कान्तिः, सरः कण्ठध्वनिः, रूपंसौन्दय, तेषां सम्पत् कस्यचन इतोऽन्यस्य कस्यापि, नास्त्येव // 9 // अग्निपत में-यह प्रताप ( तेज या उष्णता ) के निधि, सदा ऊर्ध्व गमनशील अर्थात ऊपरकी ओर जलनेवाला है / अर्जुन ने इससे किस धनको नहीं पाया अर्थात् स्वाण्डववनमें अग्निकी रक्षा करके अर्जुनने सन्तुष्ट हस अग्निसे रथ, अक्षय तरकस और गाण्डोव आदि बहुत धनको पाया है / ( अथवा ---इस धनजय अर्थात् अग्मिने किस नाम ( अग्नि, वैश्वानर, वह्नि, "संज्ञा ) को नहीं पाया है ? अर्थात् बहुतसे नामोंको पाया है / अथवा-इसने क्या नहीं पाया ? अर्थात् सब कुछ पाया हैं / अथवा-'धनञ्जय' इस सार्धक नामसे इसने किस नामको नही पाया ? अर्थात् सा नामों को पाया हैं ) 'शुचि' (संज्ञक ) इससे सुवर्ण को उत्पत्ति जानो ( अथवा-'शुचि' अर्थात् निर्दोष इससे ( विवाह करके ) अधिक परि 1. 'नास्त्वेव' इति पाठान्तरम् /
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________________ 784 नैषधमहाकाव्यम् / माण में सोने को प्राप्त करो ) चमकीले रूपकी सम्पत्ति अर्थात् शोभा किसी ( दूसरे) की ( इसके समान ) नहीं हो है ( पाठा०-इसके समान चमकीली रूप सम्पत्ति किसी की नहीं है)। __ नलपक्ष-प्रताप ( कोष-दण्ड आदिसे उत्पन्न तेजो-विशेष ) का निधि तथा सदा उन्नतिशील है, इसने जय ( शत्रु विजय ) से किस धनको ( अथवा-सर्वदा शुभकारक विधिवाले किस धनको ) नहीं पाया ? अर्थात् सब धनको पाया। पवित्र अर्थात् स्वधर्मतत्पर इससे ( विवाह करके ) पर्याप्त सोना प्राप्त करो अर्थात् इससे विवाह कर बहुत धनवती हो जावो / कान्ति, कण्ठस्वर और रूपकी शोभा ( इसके समान ) किसी की नहीं ही है अर्थाद इसके समान उपस्थित कोई राजा तेजस्वी, मधुर कण्ठस्वरवाला तथा रूपवान् नहीं है / ( अथवा--चमकीले रूप की शोभा..." ) // 9 // अत्यर्थहेतिपटुताकवलीभवत्तत्तत्पार्थिवाधिकरणप्रभवस्य भतिः / अप्यङ्गरागजननाय महेश्वरस्य सञ्जायते रुचिरकर्णि! तपस्विनोऽपि / / 10 / / ___ अत्यर्थेति / रुचिरकर्णि ! हे कमनीयकर्णे ! 'नासिकोदर-' इत्यादिना विकल्पात् ङीष , अत्यर्थया अतिमात्रया, हेतिपटुतया ज्वालापाटवेन, कवलीभवत् ग्रासीभवत्, इन्धनीभवदिति यावत् , तत्तत् पार्थिवं तृणकाष्ठादिपार्थिवद्रव्यमे, अधिकरणम् आश्रयः, तदेव प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः कारणं यस्य एवम्भूतस्य अग्नेः सम्बन्धिनी, भूतिर्भस्मापि, तपस्विनो महेश्वरस्याप्यङ्गरागजननाय अनुलेपसम्पादनाय; सञ्जायते भवति / अन्यत्र तु-अत्यर्थ हेतिपटुता आयुधसामर्थ्य, हेतिः स्यादायुधज्वालासूर्यतेजासु योषिति' इति मेदिनी, तस्याः कवलीभवद्भिः तैः तैः पार्थिवै राजभिः सह, अधिको रणः स एव प्रभवः कारणं यस्य तादृशस्य, रणात् राज्यलाभेन रणस्य राज्यकारणत्वेऽपि राजकारणस्वमुपचर्यते इति बोध्यम ; नलस्येति शेषः, भूतिः विजयलब्धा सम्पत् , 'भूतिभस्मनि सम्पदि' इत्यमरः महेश्वरस्य महैश्वर्यशालिनोऽपि, तपस्विनः अपि निवृत्तरागस्यापि जनस्य,रागजननाय अनुरागोत्पादनाय, आकर्षणायेत्यर्थः, सञ्जायते, अङ्गेत्यामन्त्रणे // 10 // ___ अग्निपक्षमें-हे मनोहर कानोंवाली (दमयन्ति) ! अत्यधिक ज्वाला सामर्थसे इन्धन रूप बनकर ) नष्ट होते हुए वे पार्थिव ( पृथ्वी-सम्बन्धी काष्ठ, कपड़ा, घास आदि द्रव्य, ही आश्रय तथा उत्पत्ति-स्थान है जिसका ऐसे इस अग्निका भस्म ( पाठा० ... "द्रव्य रूप जो आश्रय अर्थात् आधार उससे उत्पन्न होनेवाला इस अग्नि का भम्म ) तपस्वी महादेवजीके भी अङ्गरागोत्पत्ति ( शरीरमें लेप करने ) के लिए होता है। [जिसके निःसार भस्म को भी तपस्वी शङ्करजी भी शरीरमें लेप करते हैं, उसके अन्य सम्पत्तिके विषयमें क्या कहना है ? अर्थात् वह अवश्य ही अत्यधिक ऐश्वर्यवान् होगा। 'सुन्दर कानोंवाली' विशेषण देकर 2. .... "प्रभवाऽस्य' इति पाठान्तरम् /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। सरस्वती देवीने दमयन्ती को संकेत किया है कि तुम श्लेषोक्ति ज्ञानमें चतुर हो, अतः सावधान होकर समझो कि इस अग्निमें केवल भस्म ही है, अन्य कुछ सारभूत पदार्थ नहीं इस कारण इसे वरण मत कर लेना ] / (ग्रास, अर्थात शस्त्र-सामर्थ्य से नष्ट ) होते हुए इन राजाओंके साथ होने वाला अधिक युद्ध ही है कारण जिसका ऐसे इस (नल ) को सम्पत्ति अर्थात् विजयमें प्राप्त श्री अत्यन्त ऐश्वर्यवान् तथा तपस्वीके भी अर्थात भोग-विलास करनेवाले ऐश्वर्यवान् धनिकवर्ग तथा निःस्पृह तपस्विवर्ग-दोनों के लिये भी अनुरागोत्पादन करनेवाली होती है अर्थात् भोग-विलासयुक्त ऐश्वर्यवान् धनिक तथा निःस्पृह तपस्वी-ये दोनों ही इस ( नल ) की सम्पत्तिके लिए आकृष्ट होते ( उसे चाहते ) हैं // 10 // एतन्मुखा विबुधसंसदसावशेषा माध्यस्थ्यमस्य यमतोऽपि महेन्दतोऽपि / एनं महस्विनमुपेहि सदारुणोच्चैर्येनामुना पितृमुखि ! ध्रियते करश्रीः // 11 // __ एतदिति / पितुर्मुखमिव मुखं यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः हे पितृमुख !, 'धन्या पितृमुखा कन्या धन्यो मातृमुखः सुतः' इति सामुद्रिकवचनात् , अशेषा समग्रा, असौ विबुधसंसद् देवसभा, एष अग्निः एव मुखमास्यं यस्याः सा एतन्मुखा, 'अग्निमुखा वेदेवाः' इति श्रुतेः,बर्हिमुखः क्रतुभुजः' इत्यभिधानाञ्चअस्य अग्नेः, यमतो महेन्द्रतोऽपि यमस्य महेन्द्रस्य च, पष्ठ्यर्थे सार्वविभक्तिःस्तशिल , माध्यस्थ्यं मध्यस्थानवतित्वं, मध्यदिगवर्तिस्वमित्यर्थः, अग्निकोण स्थितत्वमिति यावत् , अग्निकोणाधिपस्याग्नेः दक्षिणपूर्वदिगधिपयोः यमेन्द्रयोः मध्यवर्तित्वादिति भावः, महस्विनं तेजस्विनम्, एनम् उपैहि प्राप्नुहि, सदारुणा दारुसहितेन, सेन्धनेनेत्यर्थः, येनामुना अग्निना, उच्चम:ती, करधीः अंशुसम्पत् , ध्रियते धार्यते / अन्यत्र तु-अशेषा असौ विबुधः संसद् विद्वत्सभा, एतन्मुखा एतत्प्रधाना, एतदेकशरणेत्यर्थः, तथा अस्य नलस्य, यमतो यमात् , महेन्द्रले महेन्द्राच्च, पञ्चम्यास्तसिल, माध्यस्थ्यम् औदासीन्यं, शत्रु. मित्रयोः समानदण्डदानादपक्षपातित्वेन समदर्शित्वमित्यर्थः, महस्विनं तेजस्विनम् उत्सववन्तं वा, 'महस्तूत्सवतेजसोः' इत्यमरः, एनमुपैहि, सदा सर्वदा, येनामुना नलेन, अरुगा आताम्रा, उच्चैः करश्रीहस्तशोभा, 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्य. मरः, ध्रियते // 11 // ___ अग्निपक्षसें-हे पिताके समान मुखवाली ( दमयन्ति ) ! इस सम्पूर्ण देवसभा ( देवसमूह ) का यही मुख है, यम तथा इन्द्र की अपेक्षा भी इसका माध्यस्थ्य है अर्थात् दक्षिण दिक्पाल यम तथा पूर्वदिक्पाल इन्द्र के भी मध्य में अग्नि कोण का दिक्पाल यह ( अग्नि ) बीचमें रहता है ( अथवा-इस स्वयंवर सभामें यह ( अग्नि ) इन्द्र तथा यमके बीचमें बैठा है ) / इस तेजस्वी को प्राप्त करो, काष्ठ अर्थात् दाह्य इन्धनके साथ जो सर्वदा लाल अधिक
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________________ 786 नैषधमहाकाव्यम् / किरणशोभा अर्थात् ज्वालाकान्तिको ग्रहण करता है ( ईधन से जिसको सर्वदा लाल ज्वाला नि:लती है ) / [अग्निमें हवन करनेसे ही यज्ञभाग देवोंको प्राप्त होता है, अत एव यहाँ अग्निको ही देवोंका मुख कहा गया है ] / __नलपक्ष में-हे पिताके तुल्य मुखवाली ( दमयन्ति ) ! यह समस्त विद्वत्समा एतत्प्रधान है ( समवर्ती सबको दण्डित करनेवाले ) यम तथा (समस्त देवरक्षक ) इन्द्रसे भी इसका माध्यस्थ्य है अर्थात् शासक होनेसे शत्रुरूप यम तथा पालक होनेसे मित्ररूप इन्द्र (शत्रु एवं मत्र-दोनों ) से भी यह तटस्थ है इन दोनों-शत्रु-मित्रोंसे निरपेक्ष रहकर समस्त प्रजाका शासन तथा पक्षपात हीन होकर न्यायपूर्वक पालन करता है। तुम इस तेजस्वी अर्थात् महाप्रतापी (अथवा-उत्सबवान् , तेजस्वी राजाओं में श्रेष्ठ) इसे प्राप्त करो (अथवा'सु - इनम् , अर्थात सुन्दर प्रभु, अथवा अति श्रेष्ठ इसका पूजन करो ), जो यह सर्वदा रक्त वर्ण और अत्यधिक (अथवा-अत्यधिक रक्तवर्ण) हस्तशोभाको धारण करता है ( अथवाबो यह सर्वदा रक्तवर्ण हस्तशोभाको अत्यधिक धारण करता है) [सामुद्रिक शास्त्रके अतुमार कन्याका पिताके समान तथा पुत्रका माताके समान मुख होना शुभ लक्षण माना गया है, अत एव यहाँ पर सरस्वताने दमयन्तीको 'पितृमुखि' शब्दसे सम्बोधित किया है ] // नैवाल्पमेधसि पटो रुचिमत्त्वमस्य मध्येसमिनियसतो रिपवस्तृणानि ? | उत्थानवानिह पराभवितुं तरस्वो शक्यः पुनर्भवति केन विरोधिनाऽयम् / / नेति / पटोर्दाहसमर्थस्य, अस्य वीरस्य अग्नेः, एधसि इन्धने. रुचिमत्त्वं दाहा. खिलापित्वं दीप्तिशालिस्वं वा, अल्पं नैव अनल्पमेव इत्यर्थः; समिधा काष्ठानां मध्ये मध्यसमित् , 'पारे मध्ये षठ्या वा' इत्यव्ययीभावः, निवसतः, अस्येति शेषः, तृणानि रिपवः विद्विपः, किम् ? इति काकुः, काष्टानि दहतोऽभ्य तृगानि न गण्यानीत्यर्थः; उत्थानवानूर्ध्वगतिमान् , तरस्वी वेगवान् , प्रबलदेगेन प्रज्वलित इत्यर्थः, अयम् अग्निः, पुनरिह सृष्टी, विरोधिना केन अम्बुना, 'कं शिरोऽप्युनोः' इत्ययरः, पशभवितुं शरयो भवति किम् ? इति काकुः, नैव शवय इत्यर्थः, दिव्यस्य अस्य निर्वागत्वादिति भावः / अन्यत्र-पटोः अतिप्रगज्यस्य, वाग्मिन इत्यर्थः, अस्य नलस्य, अल्पमेधसि मन्दप्रज्ञे, नित्यममिच प्रजामेधयोः' इत्यत्र नित्यग्रहणसामर्थ्यात् मन्दाल्पाभ्याञ्च मेधायाः' इति वृत्तिकारवचनाच नजादिभ्योऽन्यत्राप्यसिच् प्रत्ययः, रुचिमत्वमादरः, नैव; मध्ये समित् युद्धमध्ये, 'समित्याजिसमिद्यधः' इत्यमरः, निव. सतः अस्य रिपकः तृणानि तृणप्राया इत्यर्थः; उत्थानवान् पौरुषसम्पन्नः, उद्यमशीलो श, 'उत्थानमुद्यमे तन्ने पौरुषे पुस्तके रणे' इति मेदिनी, तरस्वी शूरः, 'वेगि-शूरी तस्विनी' इत्यमरः, अयं पुनः केन विरोधिना पराभवितुं शक्यो भवति ? न केनापीत्यर्थः / भवतीति दमयन्त्याः सम्बोधनं वा // 12 // अग्नपामें-(दाहमें ) समर्थ इसकी काष्ठ ( इन्धन ) में कम रुचि (दीप्ति अर्थात
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________________ त्रयोदशः सर्गः। ज्वाला) नहीं है अर्थात् काष्ठको प्राप्तकर यह अत्यधिक जलता है। ( अथवा-काष्ठमें समर्थ अर्थात् इन्धन पाकर बढ़नेवाले इसकी रुचि (ज्वाला ) कम नहीं है। सभिधाओं (काष्ठों, था प्रादेश परिमाण हवनीय काष्ठों ) के बीच में रहते हुए तृण शत्रु हैं क्या ? अर्थात् नहीं / (काष्ठसे जाज्वल्यमान इस ( अग्नि ) में तृण क्षणमात्रमें जल जानेसे कुछ नहीं कर सकते भर्थात यह जिस प्रकार युद्ध में शत्रुनाश शीघ्र करता है, उसी प्रकार तृण दाह भी क्षणमात्रमें ही कर डालता है)। इस लोकमें उत्थानशील (ऊपरकी ओर धधकते हुए) वेगवान् इसका पराभव विरोधी ( बुझानेका इच्छुक ) कोई व्यक्ति जलसे कर सकता है क्या ? अर्थात नहीं ( ऊपर की ओर धधकती हुई ज्वालाके साथ बढ़ती हुई अग्निको कोई बुझानेवाला विरोधी भादमी पानी से भी नहीं बुझा सकता / अथवा-कौन विरोधी पराभव कर सकता है अर्थात् कोई नहीं / अथवा--विरोधी पानीसे पराभव कर ( बुझा ) सकता है क्या ? अर्थात् नहीं-- षधकती एवं बढ़ी हुई अग्निको पानीसे भी नहीं बुझाया जा सकता। अथवा--'काकु' (प्रश्न) पक्षका त्यागकर 'ऊपर की ओर धधकती हुई अग्निका पराभव विरोधी ( बुभानेवाला) व्यक्ति पानीसे कर सकता है, अर्थात् पानीसे बुझा सकता है। रहित इस पक्षमें भी उक्त भन्य अर्थोकी कल्पना पूर्ववत् करनी चाहिये)। मलपक्षमें-शब्द-अर्थको तत्काल ग्रहण करनेमें चतुर ( तीन बुद्धि ) इस (नल ) की रुचि अल्पबुद्धियों में नहीं है / युद्ध में स्थित हुए इसके शत्रु तृग ( के तुल्य अर्थात् अकिचित्कर ) हैं ( युद्ध में इसे कोई भी शत्रु नहीं जीत सकता)। उदय ( या-उन्नति ) शील वेगवान् ( या-बलवान् ) इसका पराभव यहाँ पर (इस युद्धस्थलमें, या-इस संसार में ) भला कौन विरोधी कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं // 12 // साधारणी गिरमुषबुधनैषधाभ्यामेतां निपीय न विशेषमवाप्तवत्याः। ऊचे नलोऽयमिति तं प्रति चित्तमेकं ब्रते स्म चान्यदनलोऽयमितोदमीयम् / / ___ साधारणीमिति / उषसि बुध्यते इत्युपर्बुधोऽग्निः, 'अग्निवैश्वानरो वह्निः शोचि. प्केश उषर्बुधः' इत्यमरः / 'इगुपध-' इति कः, 'अहरादीनां पत्यादिषु वा रेफः' इति रेफादेशः, स च नैषधो नलश्च ताभ्यां, साधारणी समानाम् 'आग्नीध्र-साधारणा. दा' इति वक्तव्यादनि 'टिड्ढाण-' इत्यादिना ङीप, एतां गिरं निपीय आकर्ण्य, विशेष परस्परभेदकधर्म, नावाप्तवत्याः अप्राप्तवत्याः, भैम्याः इति शेषः, एकं चित्तं दमयन्तीसम्बन्धिनी एका बुद्धिः, तं पुरोवर्तिपुरुषं प्रति, अयं नल इत्यूचे इदमीयं दमयन्ती सम्बन्धि, अन्यदपरं चित्तम् , अयमनलोऽग्निः, इति ब्रूते स्म; अनलनल. कोटिद्वयावलम्बी संशयो न निवृत्त इत्यर्थः // 13 // अग्नि तथा नल के साथ समान ( एकार्थक) इस वचनको सुनकर विशेष (निर्णय ) को नहीं पाती हुई अर्थात् 'यह अग्नि है या नल' यह निश्चय नहीं करती हुई ( दमयन्तोका) एक मन/उस ( सामने स्थित पुरुष ) के प्रति 'यह नल है' ऐसा कहा तथा दूसरा चित्र
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________________ 788 नैषधमहाकाव्यम् / 'यह अनल अर्थात् अग्नि ( पक्षा०-नलभिन्न ) है ऐसा कहा। [ दमयन्तीने सरस्वती कृत वर्णन को सुनकर अग्नि तथा नल-दोनों में समानार्थक वर्णन होनेसे उस पुरःस्थित पुरुषको पहले नल समझा और बाद में नलभिन्न ( या-अग्नि ) समझा अर्थात् कुछ निर्णय नहीं कर सकी कि यह नल है या अग्नि ? ] // 13 // एपशीमथ विलोक्य सरस्वती तां सन्देहचित्रमयचित्रितचित्तवृत्तिम् / देवस्र सूनम चन्द्राविकासिरश्मे रुद्दिश्य दिक्पतिमुदीरयितुं प्रचक्रे / / 14 / / ___ एतादृशामिति / अथ सरस्वती तां भैमीम् , एताहशीम् ईदृशी, सन्देहः प्रागुक्तः, चित्रं देव्यास्तादृशश्लिष्टवाक्यश्रवणात् उभयोः समानरूपदर्शनाच आश्चर्य, भयं नलनिश्चयाभावेन नलप्राप्ती नैराश्यात् बालः, एतैर्भाचैश्चित्रिता विस्मिता, विस्मय. विमूढ़ा इत्यर्थः, चित्तवृत्तिर्यस्यास्तादृशी, विलोक्य अरविन्दानि विकासयन्ति ये तादृशा रश्मयो यस्य तस्य पद्मिनीमुद्राभञ्जनस्थ, देवस्य सूर्यस्य, सूनुं पुत्रं, दिक्पति यमम् , उद्दिश्य उदीरयितुं व्याहत्त, प्रचक्रे प्रस्तावं चक्रे, प्रचक्रमे इत्यर्थः // 14 // सन्देह ( यह पुरःस्थित पुरुष नल है या अग्नि ? इस प्रकारकी शङ्का ), आश्चर्य ( दोनों के समान रूप होनेसे आश्चर्य ) तथा भय (नल-प्राप्तिकी आशा नहीं होनेसे भय ) से चित्रित चित्तवृत्तिवाली उसे ( दमयन्तीको ) देखकर सरस्वती देवीने कमलोंको विकसित करनेवाले किरणवाले देव अर्थात् सूर्यके पुत्र दिक्पाल ( दक्षिण दिशाके पति ) यमको लक्ष्य कर कहना आरम्भ किया / / 14 / / दण्डं बिभर्त्ययमहो! जगतस्ततः स्यात् कम्पाकुलस्य सकलस्य न पङ्कपातः स्ववैद्ययोरपि मदव्ययदायिनीभिरेतस्य रुग्भिरमरः खलु कश्चिदस्ति ? / / ___ दण्डमिति / अयं यमः, दण्डं दुष्टदमनं स्वकीयास्त्रं, आलम्बनयष्टिञ्च, विन्ति, ततो दण्डधारणात् , कम्पाकुलस्य सकलस्य जगतः पंके पापे, कर्दमे च, पातो न स्यात् अहो ! अन्यस्य दण्डधारणादन्यस्य अपतनमित्याश्चर्यम् / अन्यत्र-नलस्य यथापराधदण्डनाजगतो निष्पापत्वमित्यर्थः, 'गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम् / इह प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः' इति स्मरणात् ; तथा, 'राजभितदण्डास्तु कृत्या पापानि मानवाः / निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृ. तिनो यथा // ' इत्युभयोर्दण्डधारणस्मरणादिति भावः / किञ्च, वर्धेद्ययोः अश्विनीकुमारयोरपि, मदव्ययदायिनीभिः अहङ्कारहाग्णिाभिः, कर्मजरोगाणां चिकित्सासाध्यत्वाभावात् तयोरप्यसाध्याभिरित्यर्थः, अन्यत्र-सौन्दर्यण प्रसिद्धयोस्तयोः सौन्दर्यगवहारिणीभिः, एतस्य यमस्य नलस्य च, रुग्भिः कर्मविपाकानुसारेण एत. सम्पादितरोगैः, 'स्त्री रुग्रजा चोपतापरोगव्याधिगदामया' इत्यमरः / रुजेर्धातोः क्विप , अन्यत्र-शरीरशोभाभिः, दैहिकसौन्दर्येणेत्यर्थः, 'रुक स्त्री शोभायुतीच्छासु' 1. 'चित्तभित्तिम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 786. इति मेदिनी, न म्रियते मृतप्रायो न भवतीत्यमरः, पचाद्यच , कश्चिदस्ति खलु ? अपि तु न कोऽपि अमरोऽस्ति, सर्वे एव मृतप्राया भवन्तीत्यर्थः, अन्यत्र च-तादृशशरीरकान्तिभिरुपलक्षितः, अमरः देवः, कश्चिदस्ति खलु ? अपि तु न कोऽप्यस्ति, देवेषु सुन्दरतमयोस्तयोजितत्वादिति भावः // 15 // यमपक्षमें-यह ( पुरःस्थित पुरुष 'यम' ) दण्ड (अपना शस्त्र-विशेष, पक्षा०-छड़ी) धारण करता है, उस ( के भय ) से कम्पनाकुलित (व्याकुल होकर कम्पायमान ) सम्पूर्ण संसारका पङ्कमें पतन नहीं होता अर्थात् इसके दण्डके भयसे कम्पमान संसार पापमें प्रवृत्त नहीं होता ( पक्षा०-कीचड़में नहीं गिरता ) आश्चर्य है [ जो छड़ी ग्रहण करता है वहीं व्यक्ति कीचड़में गिरने से बचता है; किन्तु इसके छड़ी ग्रहण करनेसे दूसरेका कीचड़में नहीं गिरना आश्चर्यजनक है ] / स्वर्गके वैद्यद्वय अर्थात् अश्विनीकुमारों के भी ( चिकित्सासम्बन्धी, पक्षा०-सौन्दर्यसम्बन्धी ) मदको नष्ट करनेवाले इसके रोगोंसे कोई ( व्यक्ति) अमर (मरणसे बचा हुआ) है ? ( पक्षा०-इसकी कान्तिके समान कोई देवता है ? ) अर्थात नहीं / [ अन्यान्य रोगों की चिकित्सा तो वैद्यमात्र करके रोगीको रोगसे बचा लेते हैं, किन्तु यमके रोग अर्थात् मृत्युसे स्वर्गवैद्य अश्विनीकुमार भी किसी व्यक्तिको नहीं बचा सकते फिर अन्य वैद्योंकी बात ही क्या है ? ] / नलपक्षमें-यह ( पुरःस्थित 'नल' ) दण्ड धारण करता है अर्थात् अपराधीको दण्डित करता है ( अथवा-सेना धारण करता है ), उससे कम्पाकुल सम्पूर्ण संसार पापकर्ममें नहीं गिरता अर्थात् 'यह नल अपराध करनेपर हमें दण्डित करेगा' इस भयले कांपता हुआ संसारमें कोई भी व्यक्ति या शत्रु अपराध नहीं करता। अश्विनीकुमारोंके भी ( सौन्दर्य) मदको नष्ट करनेवाली इसकी ( शरीर ) शोभाके समान कोई देव भी है क्या ? अर्थात् कोई देव भी इस नलके समान सुन्दर नहीं है [ यहां तक कि देवोंमें सर्वसुन्दर अश्विनीकुमारोंका भी सौन्दयंमद इसकी शरीर-कान्तिको देखकर नष्ट हो जाती है, फिर मनुष्यों में इसके समान !कसीका सुन्दर होना कैसे सम्भव है ? ] // 15 // मित्रप्रियोपजननं प्रति हेतुरस्य संज्ञा श्रतासुहृदयं न जनस्य कस्य ? | छायेर स्य च न कुत्रचिदध्यगामि तप्तं यमेन नियमेन तपोऽमुनैव / / 16 / / मित्रेति / संज्ञा संज्ञादेवीति, श्रुता प्रसिद्धा, मित्रप्रिया अर्कदयिता, अस्य यमस्य, उपजननम् उत्पत्ति, प्रति हेतुः कारणं, जननीत्यर्थः; अयं यमः, कस्य जनस्य असून् हरतीति असुहृत् प्राणहरः, न ? सर्वस्यैवासुहृत् सर्वान्तकत्वादिति भावः; छाया च छायाख्या मित्रप्रिया च, अस्य यमस्य, ईदृक ईदृशी, उत्पत्तिहेतुर्जननीत्यर्थः, इति कुत्रचित् कापि शास्त्रे, नाध्यगामि न अधिगता, सूर्यस्य द्वे भार्ये संज्ञा छाया च, तत्र संज्ञैव अस्य जननीति श्रयते न छायेत्यर्थः; यमेन यमाख्येन, अमुना 1. 'दध्यगायि' इति पाठान्तरम् /
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________________ 760 नैषधमहाकाव्यम् / नियमेनैव इन्द्रियनिग्रहेणैव, तपस्तप्तम् / अन्यत्र तु-अस्य वीरस्य, संज्ञा हस्तादि. चेष्टा, नलेति नाम वा, 'संज्ञाऽर्कभार्या चैतन्यं हस्ताद्यः सूचनाभिधा' इति वैजयन्ती मित्राणां सुहृदां, 'मित्रं सुहृदि मित्रोऽर्के' इति विश्वः, प्रियोपजननम् इष्टसम्पादन प्रति हेतुः श्रुता; अयं कस्य जनस्य सुहृत् सखा, न ? अपि तु सर्वस्येव सुहृत् , अस्ये एक छाया कान्तिः, 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः' इत्यमरः, कुत्रचित् छापि पुरुषान्तरे, न अध्यगामि न अधिगता, अमुना नलेन, यमेन नियमेन च यमनियमाभ्यां, सपस्तप्तमेव, अन्यथा कथमयं महिमेति भावः // 16 // __ यमपक्षमें-'संज्ञा' नामसे प्रसि : सूर्यको प्रिया ( स्त्री) इसकी उत्पत्तिके प्रति कारण है अर्थात् सूर्यप्रिया 'संशा' देवी इसकी माता है। यह 'यम' किसके प्राणोंको हरण नहीं करता ? अर्थात् सबके प्राणोंको हरण करता है। 'छाया' नामसे प्रसिद्ध सूर्यप्रिया कहीं ( किसी शास्त्रमें ) भी ऐसी ( इसको उत्पत्तिका कारण अर्थात् माता ) नहीं सुनी गयो है अर्थात् सूर्यकी 'संज्ञा' तथा 'छाया' नामक दो पत्नियों में 'संशा' ही इसकी माता कही गयी है 'छाया' नहीं / इन्द्रिय-निग्रहसे इसीने तप किया है अत एव इसका 'धर्मराज' नाम सार्थक है / [ यहां पर 'यम' को सरस्वती देवीने सबका प्राणहरण करनेवाला कहकर उसे वरण करनेके अयोग्य होनेका सङ्केत दमयन्तीसे किया है ] / नलपक्षमें-सुना गया इसका नाम मित्रों के प्रियोत्पत्तिके प्रति कारण है ( अथवाइसका नाम मित्रों के प्रियोत्पत्तिके प्रति कारण सुना गया है) अर्थात् इस 'नल' के नाम सुननेसे मित्रोंका प्रिय होता है / यह किस आदमीका मित्र नहीं है ? अर्थात् सर्वप्रियकारक होनेसे यह सभीका मित्र है। इसकी ऐसी छाया (शरीरशोभा अथवा-शासन-प्रणाली या दयादाक्षिण्यादि गुण ) कहीं (किसी व्यक्तिमें ) भी नहीं मिलती, इसीने यम (ब्रह्मचर्यादि ) तथा नियम ( नक्तव्रतोपवासादि ) के द्वारा ( तुम्हारी प्राप्ति के लिए ) तप किया है, अत एव तुम्हें इसका वरण करना चाहिये ( अथवा' 'के द्वारा तप किया है, अतः इसकी इतनी बड़ी महिमा है ) // 16 // किञ्च प्रभावनमिताखिलराजतेजा देवः पिताऽम्बरमणी रमणीयमूर्तिः। उत्क्रान्तिदा न कमनु प्रतिभाति शक्तिः ? कृष्णत्वमस्य च परेषु गदानियोक्तः / / 17 / / किञ्चेति / किञ्च प्रभाभिः अवनमितम् अधःकृतं, अखिलं राज्ञः चन्द्रस्य, तेजो येन सः, रमणीयमूर्तिः देवः अम्बरमणि. सूर्यः, 'ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः' अस्य पिता, अस्य शक्तिः कासूनामायुधं, कमनु के जनं प्रति, उत्क्रान्तिदा प्राणोरक्रमणप्रदा, न प्रतिभाति ? अपि तु प्रतिभात्येव परेषु अन्येषु, गदान् रोगान् , नियोक्तुः कर्मविपाकानुसारेण प्रेरयितुः, तृन्नन्तत्वात् 'न लोका- इत्यादिना पष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 761 द्विताया अस्य कृष्णस्वं कृष्णवर्णत्वं, परपीडाजनकत्वेनास्य दुर्यशसा कृष्णस्वमित्यर्थः। अन्यत्र-देवः देवतुल्यः, अम्बरमणी सूर्यः, 'दिकारात्-' इति विकल्पात् ङीष तद्वत् रमणीयमूर्तिः अस्य पिता वीरसेनः, प्रभावण प्रतापेन, नमितान्यखिलानां राज्ञां तेजांसि येन सः, 'राजा प्रमौ च नृपतौ क्षत्रिये रजनीपतौ' इति मेदिनी, अस्य शक्तिः प्रभावमन्त्रोत्साहलक्षणं सामर्थ्य, 'कासुसामर्थ्ययोः शक्तिः' इत्यमरः, परेषु शत्रुषु, गदाम् आयुधविशेषं, नियोक्तुः निपयितुः, अस्य नलस्य, कृष्णत्वं विष्णुवं, गदाधरत्वादिदि भावः / शेषं पूर्ववत् // 17 // यमपक्षमें-प्रभाव (धूप ) से पूर्णचन्द्र के तेजको कम करनेवाले तथा रमणीय मूर्तिवाले सूर्यदेव इसके पिता हैं। इसकी शक्ति किसके प्रति अर्थात् किसके प्राणहारण में समर्थ नहीं है ? ( अथवा-इसकी 'उत्क्रान्तिदा' नामकी शक्ति अर्थात शस्त्रविशेष किसके प्रति समर्थ नहीं है ) अर्थात् सबके प्रति समर्थ है / दूसरों में रोगों ( अथवा-गदा) को नियुक्त करनेवाले अर्थात कर्मविपाकानुसार दूसरोंको रुग्ण या शासित करनेवाले इसका वर्ण कृष्ण है ( अथवा-परपीडाजनक होनेसे इसका अपयश है ) / [ यहां पर सरस्वती देवीने 'यम' को चन्द्रप्रतापनाशक सूर्य का पुत्र बतलाकर चन्द्रवंशोत्पन्न नलका देषी होनेसे तथा सबके प्राणहर्ता एवं रोगनियोजक होनेसे दमयन्तीके लिए 'यम'को अवरणीय होनेका संकेत किया है ] // ___ नलपक्षमें-प्रभाव ( अपने क्षात्रतेज ) से सम्पूर्ण राजाओं के तेजको कम करनेवाले तथा वस्त्र और रत्नोंसे रमणीय आकृतिवाले देव ( कान्तिमान् राजा वीरसेन ) इसके पिता हैं / ( अथवा "तथा सूर्य और कामदेवके समान रमणीय"..। अथवा-हे अम्ब ( पुण्यचरिता होनेसे मातृवत् जगद्वन्द्य दमयन्ति )! रमणियोंके लिये रमणाय आकृति वाले,...)। इसको सामर्थ्य किस शत्रुके प्राणहारिणी सिद्ध नहीं हुई है अर्थात् सनके प्रति प्राणहारिणी सिद्ध हुई है ( इसने समस्त शत्रुओं के प्राणहरण किये हैं। अथवा-इसकी सामथ: यमके प्रति प्राणहारिणी अर्थात् यम-भय कारिणी नहीं होती ? अर्थात् सर्वभयकारक यमको भी इससे भय उत्पन्न होता है ) / शत्रुओं मे गदावा नयुक्त ( गदाप्रहार ) करनेवाले इसका कृष्णत्व अर्थात कृष्णाभाव ( कृष्ण भगवान् की समानता ) है, ( अथवा - श्रेष्ठ बागपीटाको नियुक्त करनेवाले ) शत्रुओंकी बाणप्रहार द्वार। अतिशय पीडित करनेवाले इसका कृष्णत्व (अर्जुनभाव अर्थात अर्जुनकी समानता ) है अर्थात बाणप्रहार में यह अर्जुनके समान है // 17 // एकः प्रभावमयमेति परेतराजौ तजीविदेशाधयमत्र विधे। मुग्धे ! / भूतेषु यस्य खलु भरि यमर य वश्यभावं -माश्रयति दरमहादरस्य / / 8 // एक इति / अयमेकः परेतानां प्रेतानां, 'परेतप्रेतसंस्थिताः' इत्यमरः, राजौ पनौ, प्रभावं प्रभुत्वम , एति, दम्रसहोदरम्य अश्विनीभ्रातुः, यस्य यमस्य भूतेषु प्राणिषु, मध्ये 'भूतं प्राणिपिशाचादौ' इति वैजयन्ती, भूरि अनेकं भूतं, वशं गतो वश्यः तस्य भावं वश्यस्वं, समाश्रयति खलु / हे मुग्धे ! तत् तस्मात् , अत्र अस्मिन्
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________________ 762 नैषधमहाकाव्यम् / पुसि, जीवितेशधियं यमबुद्धि, विधेहि / अन्यत्र तु-अयमेकः परेषां शत्रूणाम् , इतरेषाञ्च आजी युद्धे, प्रभावं सामर्थ्यम्, एति, दस्रसहोदरस्य अश्विसदृशस्य, यस्य अस्य नलस्य, भूतेषु चमादिषु, पृथिव्यादिषु मध्ये इत्यर्थः, 'चमादौ जन्तौ च भूतं कीबम्' इति वैजयन्ती, इयं भूवश्यभावं समाश्रयति खलु, तत् तस्मान् , अनास्मिन् लले जीवितेशधियं कान्तबुद्धिं, प्राणेश्वरबुद्धिमित्यर्थः, 'जीवितेशो यमे कान्ते' इति विश्वः, विधेहि // 18 // ___ यमपक्ष-अकेला यह ( यम ) प्रेतोंकी पशिमें प्रभुत्वको प्राप्त करता है अर्थात् यह पतोंका पति है ( या--प्रेतों में अधिक सामर्थ्यवान् है ), अश्विनीकुमारों के सहोदर ( भाई ) जिस यम का भूतों ( मृतकों ) में बहुत-से भूत वशीभूत. रहते हैं, ( अथवा--भूतों अर्थात् प्राणियोंमें बहुतसे भूत (प्राणी) जिस यमके वशी होते हुए अभाव अर्थात् नाशको प्राप्त करते हैं ); अत एव हे मुग्धे ( 'यम एवं नलमें से यह कौन है ?' ऐसा निश्चय नहीं करनेबाली दमयन्ति ) ! इसमें यमबुद्धि करो अर्थात् इसे 'यम' जानो। [ बहुत थोड़े व्यक्तियों के मुक्त होने के कारण अधिक प्राणियोंका यमका वशवतो होना कहा गया है तथा 'संज्ञा' नामकी सूर्यपत्नीके गर्भसे यम तथा अश्विनीकुमारों का जन्म होनेसे यहां पर यमको अश्विनीकुमारोंका सहोदर ( सगा भाई ) कहा गया हैं ] / नलपक्षमें-शत्रुओं तथा आत्मीयों ( अथवा--बड़े-बड़े तेजस्वियोंको भी छोटा करनेवालों, अथवा--श्रेष्ठ दात्रुओं ) के युद्ध में यह ( नल ) अकेला ही प्रभावको प्राप्त करता है अर्थात् उनकी अपेक्षा अधिक प्रभावशील रहता है / पृथ्वी आदि पांच महाभूतोंमेंसे यह पृथ्वी अश्विनीकुमारोंके सदृश ( सौन्दर्यवाले ) जिस इस (नल ) की वशवर्तिनी रहती है अर्थात् यह पृथ्वीपति है, अत एव हे मुग्धे ( सुन्दरी दमयन्ति ) ! इस ( नल) में प्राणनाथ की बुद्धि करो अर्थात् इसे वरण कर अपना प्राणपति बनावो // 18 // गुम्फो गिरां शमननैषधयोः समानः शङ्कामनेकनलदर्शनजातशङ्के / चित्ते विदर्भवसुधाधिपतेः सुताया यन्निर्ममे खलु तदेष पिपेष पिष्टम् / / 19 / / गुम्फ इति / शमननैषधयोः यमनलयोः, समान एष गिरां गुम्फः सन्दर्भः, अनेकेषां नलानां दर्शनेन जातशङ्के विदर्भवसुधाऽधिपतेः सुतायाः वैदाः , चित्ते शङ्का निर्ममे इति यत् तत् पिष्टं पिपेष खलु प्रागेव साशङ्के पुनः शङ्कोत्पादनं पिष्टपेषणभायम इत्यर्थः / अत्र साशङ्कशङ्कोत्पाद-पिष्टपेषणवाक्यार्थयोः एकत्रासम्भवेन सा. श्याक्षेपात् असम्भवद्वस्तुसम्बन्धो वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शनालङ्कारः // 19 // ___ यम तथा नलके विषय में समान ( सरस्वती देवीके ) वचन-समूहने विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) के अनेक नलों के देखनेसे शङ्कायुक्त चित्तमें जो शङ्का उत्पन्न की, वह पिष्टपेषण हुआ। [ चूर्ण-चूर्णनके समान, अनेक अर्थात् पांच नलोंको देखकर पहलेसे ही सन्देहयुक्त दमयन्तीके चित्तमें यम तथा नलके विषय में समानरूपसे कहा गया सरस्वती
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________________ त्रयोदशः सर्गः। देवीका वचन-समूह उन दोनों के विषयमें वैसी ही शङ्का उत्पन्न कर चूर्ण-चूर्णनके समान ही हुआ अर्थात् सरस्वती देवीके 'यम-नल' विषयक वचन-समूहसे दमयन्तीके सन्देहयुक्त चित्तमे एक और सन्देह उत्पन्न हो गया, उस वचन-समूहसे कोई लाभ नहीं हुआ ] // 19 / / नत्रापि तत्रभवती भृशसंशयालोरालोक्य सा विधिनिषेधनिवृत्तिमस्याः। पाथ पनि प्रति घृताभिमुखाङ्गलीकपाणिः क्रमोचितमुधाक्रमताभिधातु // तत्रेति / सा भवती तत्रभवती पूज्या, 'इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते' इति त्रल-प्रत्ययः, सा सरस्वती, तत्रापि तस्मिन् पुरुषेऽपि, यमेऽपीत्यर्थः, भृशं संगयालोः सांशयिक्याः, 'शीडो वाच्यः' इत्यालुच , अस्या दमयन्त्याः, विधिनिषेधयोः प्रवृत्तिनिवृत्त्योः, निवृत्तिमभावम् , औदासीन्यमिति यावत् , आलोक्य क्रमोचितं क्रमप्राप्तं, पाथःपतिम् अप्पतिं वरुणं प्रति, ताः प्रसारिताः, अभिसुखा अङ्गुल्यो यस्य स नाभिमुखामुलीकः. 'नद्यतश्च' इति कप , तादृशः पाणिर्यस्याः सा तादृशी सती, अभिधातुम् उपाक्रमत उपक्रान्तवती, क्रमेर्लङ् 'प्रोपाभ्यां समर्थाभ्याम्' इति तङ // 20 // ___ उस ( यम ) में भी अत्यन्त सन्देहयुक्त इस ( दमयन्ती) के विधि तथा निषेध अर्थात स्वीकृति या त्यागके अभावको देखकर पूज्य सरस्वती देवीने जलाधीश (वरुण ) के सामने हाथकी अङ्गुलि रखकर ( वरुणको हाथकी अजुलिसे दिखाकर ) क्रमके योग्य (क्रमानुसार ) कहना आरम्भ किया / / 20 / / / या सर्वतोमुखतया व्यवतिष्ठमाना यादोरणैजयति नैकविदारका या। एतस्य भूरितरवारिनिधिश्चमूः सा यस्याः प्रतीतिविषयः परतो न रोधः // ___ येति / या चमूः सेना, सर्वतोमुखतया सर्वतो मुखं यस्येति सर्वतोमुखं जलं तस्य भावः तत्तया जलत्वेनेत्यर्थः, 'आपः स्त्री भूम्नि वारि सलिलं कमलं जलम् / पुष्करं सर्वतोमुखम्' इत्यमरः, व्यवतिष्ठमाना व्यवस्थितस्वरूपा, जलरूपेत्यथः, नक अनेके, नर्थस्य न-शब्दस्य सुप्सुपेति समासः, विदारकाः कूपकाख्याः शुकन. दादेर्जलधारणयोग्याः कूपप्रतिकृतयो गर्ता यस्यां तादृशी, 'फूपकास्तु विदारकाः' इत्यमरः, या चमूः, वारिनिधिरूपेत्यर्थः, यादसा जलजन्तूनां, रगैः शब्दः, जयति प्रकाशते, यस्याः वारिनिधिरूपायाः चम्वा इत्यर्थः, परतो रोधः परं तोरं, सार्यविभ. तिकस्तसिल, प्रतीतिविपयो न अदृश्यम् इत्यर्थः, एतस्य वरुणस्य, सा चमू रितरो महत्तरः, वारिनिधिः समुद्रः / अन्यत्र तु-या चमूः सर्वतोमुखतया सावपथिकतया, व्यवतिष्ठमाना वर्तमाना, नैकान् अनेकान् विदारयन्तीति नकविदाराः अनेकरिपु. नाशकाः, कर्मण्यण , काया विग्रहा यस्यां सा तादृशी, या चमूर्दोष्णां रणैः दोरीः बाहुयुद्धः, 'भुजवाहू प्रवेष्टो दोः' इत्यमरः, जयति, यस्याः परतः परेभ्यः, रोधः प्रतिरोधः, प्रतीतिविषयो ज्ञानविषयीभूतः, न या केनापि प्रतिरोद्ध न शक्यते इत्यर्थः, एतस्य नलस्य, सा चमूः भूरीणां तरवारीणांम् आयुधविशेषाणां, निधिः आकरः //
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________________ 794 नैषधमहाकाव्यम् / घरुणपत-जो (सेना) जलभावसे स्थित अर्थात् जलमयी है, अनेक विदारकों * (सूखे हुए जलाशयों में पानी इकट्ठा करने के लिए बनाये गये गढ़ों ) वाली जो (सेना) बलचर जीवों ( मेढक आदि ) के शब्द ( या युद्ध ) से विजयिनी होती है अर्थात् जिस सेनामें विदारकों में स्थित अनेक जलजन्तु शब्द ( या युद्ध ) कर रहे हैं ( अथवा अनेक विदारयुक्त शरीरवाली जो जलचर जीवो....."अथवा-अनेकोंको विदारण ( नाश ) करने चाले जलवाली जो जलचर जीवों... 'अथवा-अनेकोंका विदारण करनेवाले जलका आय ( आगमन ) वाली जो जलचर जीवों... ) / जिसका दूसरा किनारा नहीं देखा गया है, ( अथवा-जिसका दूसरे ( या-शत्रु ) से रुकना नहीं जाना गया है। अथवा-जिसके परप्रदेशके सम्मुख गमन करनेवाला मनुष्य नीचे हैं अर्थात् पानीके बहावमें बहता हुआ मनुष्य नाचेकी ओर ही बहता चला जाता है); वह विशाल (या-अनेक ) समुद्र इस (वरुण ) की सेना है। नलपक्षमें जो ( सेना ) सब ओर फैली हुई है ( अथवा-जो सबमें प्रधानतयाः स्थित है, अथवा-जो सब तरफ मुख करके स्थित है अर्थात् सब तरफ जाने के लिये तैयार है, जो बाहुयु : अर्थात् मल्लयुद्ध ( अथवा-इस (नल) के युद्धों या सिंहनादों से विजयिनी है अर्थात् सेनाके द्वारा यह शत्रुओं पर विजयी नहीं होता किन्तु स्वयं युद करके विजयी होता है), जो अनेकोंका विदारण नाश करनेवाली है, अथवा-जो अनेकों नाशकारक योद्धाओंवाली है, अथवा-अनेकों का नाशक शरीरवाली जो बाहुयुद्ध (या-बाहुयुद्धजन्य ध्वनि ) से विजयिनी सर्वश्रेष्ठ होती है, जिसका शत्रुसे रुकना नहीं जाना गया है अर्थात् जिसे शत्रु कभी नहीं रोक सके हैं ) बहुत-सी तलवारोंकी निधि ( स्थान ) वह सेना इस नल की है / / 21 / / नासीरसीमान धनवनिरस्य भूयान् कुम्भीरवान समकरः महदानवारिः। उत्पद्मकान नसखः सुख मातनोति रत्नरलङ्करणभावमितैनदीनः / / 22 // ___ नासीरेति / नासीरसीमनि पुरोभागे, तटममीपे इति यावत् , घनध्वनिः महाघोषः, मध्य निस्तरङ्गत्वादिति भावः, भूयान् महान् , कुम्भीरवान् नकवान् , 'नक्रस्तु कुमारः' इत्यमरः, समकरो मकरसहितः, दानवारिमा विष्णुना, क्षीरोदशायिनेति भावः, सह वर्तते इति सहदानवारिः, 'वं पसजस्य' इति सहशब्दस्य सभावविकल्पः, उत्पमकाननानाम उत्पद्मानाम् उदितपद्मानाम्, उत्फुल्लपमानामित्यर्थः, उत्शब्दोऽत्र उदयाथकः; काननानां विकशितपावनानां, सखा विकसितपद्मवनसहित इत्यथः, 'राजाहःसखिभ्यष्टच' नदीनाम् इनः पतिः नदीनः समुद्रः, अलमत्यर्थ, करणभावम् उपकरणस्वम्, इतैः प्राप्तः, रत्नैः श्रेष्ठवस्तुभिः; 'रत्नं स्वजातिश्रेष्ठेऽपि मणावपि नपुंसकम्' इत्यमरः, अस्य वरुणस्य, सुखम् आतनोति / अन्यत्र तु-घनस्य मेघस्येव, ध्वनिः बृहितं यस्य सः भूयाननेका समकरः समानशुण्डः, हस्वदीघस्थूला
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________________ - त्रयोदशः सर्गः। णुरहितशुण्डः इत्यर्थः, सहदानवारिः मदजलसहितः, उत्पद्मकस्य उद्भतबिन्दुजालकस्य, आननस्य सखा तद्युक्तः, पनकालङ्कृतानन इत्यर्थः, 'पद्मकं बिन्दुजालकम्' इत्यमरः, अलङ्करणभावम् इतः अलङ्कारत्वं प्राप्तैः, रत्नैःमणिभिः, न दीनो न शून्यः. तयुक्त इत्यर्थः, अस्य नलस्य, कुम्भी दन्ती, हस्ती इत्यर्थः, 'कुम्भी कलशदन्तिनोः' इति वैजयन्ती, सुखं यथा तथा नापीरसीमनि सेना मुखभागे, रवान् बृंहणानि, आतनोति // 22 // वरुणपक्षमें-इसके सेना ( तट ) समीपमें गम्भीर ध्वनिवाला, विशाल ( अथवाक्षीरसागर आदि सात समुद्रों के होनेसे बहुत ), नक्रयुक्त, मकरयुक्त, विष्णुयुक्त और खिले हुए कमलों के वनोंसे युक्त अथा-श्रेष्ठ शोभावाले काननों ( वनों) से युक्त, अथवा--उत्कृष्ट लक्ष्मी (स्वकन्या) तथा जलवाला समुद्र अत्यन्न उपकरणत्व (साधन सामग्रीत्व ) को प्राप्त रत्नों के द्वारा ( अथवा-देहमें स्थितिको प्राप्त अर्थात् स्वदेहोत्पन्न, अथवा-भूषण होनेसे ( वरुणके ) देह में स्थित; अथवा-भूषणत्वको प्राप्त अर्थात् भूषण बने हुए रत्नोंसे ) इस ( वरुण ) के सुखको बढ़ाता है / __ नलपक्षमें-इसके सेनाविभाग ( या-सेनाके आगे) मेघतुल्य शब्द करनेवाले, समान ( यथोचित आरोहावरोहयुक्त) सूंडवाले, मदजलसे युक्त, पद्मक (कुम्भस्थलके पास पद्माकार (बिन्दु ) युक्त मुखवाले, भूषणत्व को प्राप्त अर्थात् भूषण बने हुए रत्नोंसे अदीन रहित ( सहित ) बहुत-से हाथी सुखपूर्वक ध्वनि करते ( गरजते ) हैं // 22 // सस्यन्दनैः प्रवहणैः प्रतिकूलपातं का वाहिनी न तनुते पुनरस्य नाम ? / तस्या विलासवति ! कर्कशताश्रिता या ब्रमः कथं बहुतया सिकता वयं ताः ? / / ___ सस्यन्दनैरिति / विलासवति ! हे भैमि ! अस्य वरुणस्य सम्बन्धिनी, का पुनर्वाः हिनी, नदी, सस्यन्दनैः स्रतिसहितैः, अविच्छेदेन प्रवर्तनशीलैः इत्यर्थः, प्रवहणः प्रवा हैः, तरङ्गैरिति यावत् , प्रतिकूलं कूले कूले, पातं, न तनुते नाम ? सर्वाऽपि कूलं पातयतीत्यर्थः; किञ्च तस्या वाहिन्याः सम्बन्धिन्यः, कर्कशतां कार्कश्यं, श्रिता याः सिकता बालुकाः, ताबहुतया अपरिमितत्वेन, वयं कथं ब्रूमः ? कथंसङ्ख्यातुं शक्नुमः इत्यर्थः, नैव शक्नुम इति भावः / अन्यत्र तु-सस्यन्दनः सरथैः, प्रवहणः कीरथैः उपलक्षिता, 'कीरथः प्रवहणम्' इत्यमरः, अस्य नलस्य, का वाहिनी सेना प्रतिकू. लानां प्रत्यर्थिनां, पातं नाशं, न तनुते ? किञ्च कर्काणां श्वेताश्वानां, 'कर्कः कर्केतने वह्नी शुक्लाश्वे दर्पणे घटे' इति मेदिनी, शतैः आश्रितायाः तस्या वाहिन्याः, ताः प्रसिद्धाः, असिकताः असिः प्रहरणमेषामस्तीति असिकाः तेषां भावः असिकताः ताः खङ्गिकत्वानि, 'प्रहरणम्' इति ठक् , बहुतया वयं कथं ब्रमः ? // 23 // वरुणपक्षमें-हे विलासवति ( दमयन्ति )! भला कौन नदी बहावयुक्त ( अथवाझरनोंसे युक्त ) प्रवाहोंसे तीरके प्रति गमन नहीं करती अर्थात् सभी करती हैं ( अथवाप्रत्येक तीरको नहीं गिराती अर्थात् सभी नदियां प्रत्येक तीरको गिराती हैं ) / हम उसके 50 नै० उ०
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________________ 766 नैषधमहाकाव्यम् / उन बालुओं ( रेतों ) की अधिकताको किस प्रकार कहे अर्थात् बालुओं के अत्यधिक होनेसे हम उसका परिमाण कैसे बतलावें, जो ( बालू ) कठिनता अथवा-सैकड़ों केकड़ाओं ( जलजन्तु-विशेष ) से युक्त है। नलपक्षमें-इस ( नल ) की कौन सेना रथसहित वाहनों (घोड़े हाथी ) आदि से ( अथवा-वेगयुक्त रथोंसे ) शत्रुओं के प्रति गमन (अथवा-शत्रुओंका नाश) नहीं करती है ? तथा कौन सेना इसके नाम ( प्रसिद्धि ) को नहीं बढ़ाती ? ( अथवा-कौन सेना शत्रुओं पर अभियान ( चढ़ाई = गमन ) पूर्वक ( या शत्रुओंका नाश करके ) इसके नामको नहीं नहीं बढाती ? ) / हे विलासवति ! सैकड़ों श्वेत घोड़ोंपर चढ़ी हुई उस सेनाकी अपेक्षा उन बालुओं ( रेतों ) को हम अधिक कैसे कहें अर्थात् बालुओं की गणना कथञ्चित् सम्भव हो सकती है, परन्तु इसकी सेनाकी नहीं; अतः उस सेनासे बालुओंको अधिक कहना उचित नहीं ( अथवा-सैंकड़ों श्वेत घोड़ोंपर चढ़े हुए खड्ग-प्रहार करनेवालोंकी अधिकताको हम कैसे कहें ? ) अर्थात् श्वेताश्वशताधिरूढ खड्गप्रहारकर्ताओंकी गणना अशक्य होनेसे उनका हम वर्णन नहीं कर सकतीं / ( अथवा-सैकड़ों श्वेत घोड़ों पर चढ़े हुए तथा बहुतों के प्रति गमन करनेवाले ( या बहुतों की रक्षा करनेवाले ) खड्ग-प्रहारकर्ताओंके भावको हम कैसे को ? अर्थात उनका वर्णन करना अशक्य होनेसे हम उसे नहीं कह सकती ) // 23 // शोणं पदप्रणयिनं गुणमस्य पश्य किश्चास्य सेवनपरैव सरस्वती सा। एनं भजस्व सुभगं भुवनाधिनाथं के वा भजन्ति तमिमं कमलाशया न? || शोणमिति / अस्य वरुणस्य, पदप्रणयिनं पादोपसर्पिणं, गुणं गुणिनं, रक्तवर्णजल. विशिष्टमित्यर्थः, शोणं शोणाख्यं नदं, पश्य, किञ्च सा सरस्वती नदी, अपीति शेषः, अस्य वरुणस्य, सेवनपरैव, सकलनदीनदनायकोऽयम् इत्यर्थः, ततः कारणात् भुवनाधिनाथं जलाधिपतिं. 'सलिलं कमलं जलम् / पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम् // ' इत्यमरः, सुभगम् एनं वरुणं, भजस्व समाश्रय, तमिमं सुभगं वरुणं, के वा कमलाशया जलाधाराः, न भजन्ति ? अपि तु सर्वेऽपि भजन्तीत्यर्थ; अथवा-के वा प्राणिनः, कमलाशया जलाकाङ्क्षया, न भजन्ति ? अन्यत्र तु-अस्य नलस्य, पदः प्रणयिनं पादतलगतं, शोणं रक्तं, गुणं पश्य, भाग्यलक्षणत्वादिति भाव। किञ्च सा सरस्वती वाम्देवता, 'सरस्वती सरि दे गोवाग्देवतयोगिरि' इति विश्वः, अस्यैव नलस्यैव, सेवनपरा, लक्ष्मीसरस्वत्योरयमेकाधिकरणमिति भावः ततो भुवनाधिनाथं लोकनाथं, नराधिपमित्यर्थः, 'भुवनं विष्टपे लोके सलिले पथि यद्यपि' इति विश्वः, सुभगं सुन्दरम् , एनं नलं, भजस्व समाश्रय, के वा जनास्तमिमं नलं, कमलाशया लक्ष्म्याकाङ्क्षया, धनाकाङ्क्षयेत्यर्थः, 'कमला श्रीलं पद्मः कमलं कमला मृगः' इति विश्वः, न भजन्ति ? // 24 // वरुणपक्षमें-हे सुभगे ( दमयन्ति )! जलाधीश इसको वरण करो, गुण (अप्रधान अर्थात् सेवक ) इस ( वरुण ) के चरणसेवक 'शोण' नामक महानदको देखो, अथवा वह
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 797 ( सुप्रसिद्ध ) सरस्वती नामकी नदी इसकी सेवा में लगी ही है, अथवा कौन-से जलाशय ( छोटे पलवल से लेकर बड़े क्षीरसमुद्र आदि तक, अथवा-कमलाकर ) उस सुप्रसिद्ध इस (वरुण) की नहीं सेवा करते अर्थात् क्षीरसागर पर्यन्त जलाशयमात्र इसकी सेवा करते हैं तब शोणभद्र या सरस्वती नदी इसकी सेवा करती है इसमें क्या आश्चर्य है ? ( अथवाजलके इच्छुक कौन लोग उस प्रसिद्ध इस वरुणकी सेवा नहीं करते अर्थात् वर्षादि-जलाभिलाषी प्राणिमात्र इस प्रसिद्ध जलाधीश्वर वरुणकी सेवा ( स्तुति ) करते हैं ) [ शोण, सरस्वती तथा अन्य जलाशयोंसे उन-उनके अधेष्ठात्री देवताओंका ग्रहण होनेसे उनका इस वरुणकी सेवा करना युक्तिसङ्गत होता है ] / _नलपक्षमें-हे सुभगे ! (तुम ) इस जगत्पति ( नल ) को वरण करो, लालिमा गुण इसका पदप्रगयी ( चरणसेवक ) है अर्थात् इसके चरण लाल हैं यह तुम देखो / अथच-वह सुप्रसिद्धा सरस्वती देवी इसकी सेवा में तत्पर ही है अर्थात् इसके मनमें स्थित ही है। धन ( पानेकी ) आशासे अथवा-धनिक कौन लोग इसकी सेवा ( या स्तुति ) नहीं करते ? अर्थात् सभी करते हैं। [ यहाँ पर सरस्वती देवीने नल के चरणको लाल बतलाकर उनका सौन्दर्य, सरस्वतीसेवन बतलाकर उनकी कलाकौशल-दक्षता तथा याचककृत स्तुति बतलाकर उनकी उदारता का तथा सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनोंका अधिष्ठान होना सङ्केत किया है] // 24 // शङ्कालताततिमनेकनलावलम्बां वाणी न वद्ध यतु तावदभेदिकेयम् / / भोमोद्भवां प्रति नले च जलेश्वरे च तुल्यं तथाऽपि यदवद्धयदत्र चित्रम् / / शङ्केति / जलेश्वरे वरुणे च, नले च तुल्यं यथा तथा प्रयुक्तेति शेषः, अत एव भीमोद्भवां भैमी प्रति, अभेदिका अविशेषा, अन्यतरार्थापरिच्छेदिका इति यावत् , इयं वाणी सरस्वतीवाक, अनेके पञ्च, नलाः नैषधाः, पोटगलाख्याः दुश्छेद्यास्तृणविशेषाश्च, अवलम्बो विषयः आधारश्च यस्याः तादृशीं, 'नलः पोटगले राज्ञि' इति विश्वः, शङ्का एव लताः तासांतति परम्परां, न वर्द्धयतुतावत् न छिनत्तएव, समानधर्मदर्शनात् संशयो भवत्येव अतः समानार्थिका वाणी एषु कः सत्यनल इति भैम्याः संशयं कथं छिनत्तु इत्यत्र न चित्रमिति भावः, 'वृधु च्छेदनपूरणयो रिति चौरादिकाल्लोट् , किन्तु तथाऽपि अवर्द्धयत् अच्छिनदिति यत् तदत्र चित्रं, छेदनार्थत्वे या न छेदिका सैव अच्छिनत् इति विरोधात् चित्रं, वर्द्धयामास इति वृद्धयर्थत्वे त्वविरोध इति विरोधाभासोऽलंकारः। 'वृधु वर्द्धने' इति भौवादिकात् णिच, नलाख्यतृणमिश्रलताततिमिवानेकनलावलम्बिनीम् अयं नलो वेति सन्देहततिम् इयं वाणी नेवाच्छिनत् प्रत्युत वृद्धि प्रापयदेवेत्यहो कष्टम् इत्यर्थः // 25 // भेदरहित अर्थात् नल तथा वरुणमें अर्थवाली यह (सरस्वतीकी) वाणी दमयन्तीके अनेक नलाश्रित शङ्कारूपी लतासमूहको नहीं बढ़ावे ? अर्थात् अवश्य बढ़ावे, ( इसमें आश्चर्य नहीं है ) तथापि नल तथा वरुणमें समानरूपमें ही जो शङ्कारूपी लता-समूहको बढ़ाया
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________________ 768 नैषधमहाकाव्यम्। ( या पूरा किया ) यह आश्चर्य है। [ नल तथा वरुणमें श्लेषद्वारा समान अर्थवाली वाणीसे दमयन्तीके शङ्का-लता-समूहका बढ़ना आश्चर्यजनक नहीं है, किन्तु नल तथा वरुणके शङ्कालता समूह का बढ़ना अवश्य आश्चर्यजनक है, क्योंकि दूर में खड़े पुरुषको देखकर यह स्थाणु है या पुरुष ?' ऐसी शङ्का तटस्थ किसी अन्य व्यक्तिको तो होती है, किन्तु जो पुरुष खड़ा है उसे ही अपने विषयमें यह हाङ्का नहीं होती कि 'मैं स्थाणु हूँ या पुरुष ? अत एव नल तथा वरुणको अपने-अपने विषयमें निश्चित ज्ञान होनेसे अनेक नलाश्रित शङ्का होना विरुद्ध होनेसे आश्चर्यजनक है / इसका परिहार यह है कि-] नलमें शम् अर्थात् सुख तथा जलाधिप ( वरुण ) में कालतातति अर्थात् कालिमा-समूह समान हुआ। [ 'यदि यह सरस्वती देवी वरुणका वर्णन इलेषोक्ति द्वारा नहीं करके केवल वरुणार्थक श्लोकोंसे ही करती तो दमयन्ती अवश्य ही वरुण का वरण कर लेती और वह मुझे प्राप्त नहीं होती' इस विचारसे नलको सुख हुआ तथा 'यदि यह सरस्वती देवी मेरा वर्णन श्लेषोक्ति द्वारा नलका भी नहीं करके केवल मदर्थक ( वरुणार्थक ) इलेषोंसे करती तो दमयन्ती मुझे ही वरण करती, नलको नहीं, किन्तु अब वैसा नहीं करनेसे दमयन्ती मुझे छोड़कर नलका भी वरण कर सकती है। इस विचारसे वरुण निराश होकर काले पड़ गये] / ( अथवा-नलने सोचा कि सरस्वती देवीने श्लेषोक्तिद्वारा मेरा तथा वरुण-दोनोंका वर्णन किया है केवल वरुण का ही वर्णन नहीं किया है। अतः दमयन्ती कहीं मेरे ( नलके) सन्देहसे वरुणका ही वरण न कर ले' तथा वरुणने सोचा कि सरस्वती देवीने श्लेषोक्तिद्वारा मेरा तथा नल-दोनोंका वर्णन किया है, केवल नलका ही वर्णन नहीं किया है; अत एव दमयन्ती कहीं नल जानकर मेरा वरण कर लेगी क्या ? ( अथबा-वरुण जानकर मेरा त्याग कर देगी क्या ?); इस प्रकार नल तथा वरुण-दोनों के सन्देह-लता-समूहको सरस्वती देवीके विशेष प्रतिपादन नहीं करनेवाले अर्थात् समानार्थक वचनने बढ़ा दिया / अथवा-विशेष प्रतिपादन नहीं करनेवाला ( पक्षा०-समानार्थक) सरस्वती देवीका वचन दमयन्तीके अनेक नलाश्रित शङ्का-लता-समूह को नहीं काटा ( यह आश्चर्यजनक नहीं, क्योंकि जो छूरी आदि लतादिको न है काट सकती, उसका नहीं काटना आश्चर्यजनक नहीं है ) तथापि दमयन्तीके प्रति नल तथा जलाधिप ( वरुण ) के शङ्का-लता-समूहको एक साथ ही काट दिया यह आश्चर्य है ( क्योंकि जो छूरी आदि लतादिको नहीं काट सकती, उसका काटना आश्चर्यजनक है।) प्रकृतमें-'मेरे सन्देहसे दमयन्ती वरुणका वरण कर ले' यह नलका सन्देह तथा 'नलके सन्देहसे दमयन्ती मेरा वरण कर ले' यह वरुणका सन्देह था, किन्तु 'सरस्वती देवीने मद्रूपधारी वरुणके वर्णनमें केवल मेरा (नलका) ही नाम नहीं लिया है, परन्तु वरुणका वर्णन भी श्लेषोक्ति द्वारा कर दिया है अतः श्लेषोक्तिज्ञानचतुरा दमयन्ती इसे वरुण जानकर वरण नहीं करेगी अपितु मुझे ही वरण करेगी' ऐसे विचारसे नलके सन्देहका ना। हुआ तथा 'सरस्वती देवीने नलरूपधारी मेरे ( वरुण) के वर्णनमें केवल मेरा (वरुणका ) ही नाम नहीं लिया है, परन्तु नलका वर्णन भी श्लेषोक्तिद्वारा कर दिया है, अतः श्लेषोक्तिशान
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 799 चतुरा दमयन्ती उस वर्णन में मेरा ( वरुणका) भी नाम रहनेसे मेरा वरण नहीं करेगी' कर दिया है अतः नलानुरक्ता दमयन्ती मुझे वरण करेगी या नहीं' इस प्रकार वरुणके तथा 'सरस्वती देवीने वरुणका भी नाम लेकर वर्णन कर दिया है। अतः मुझमें अनुरक्त दमयन्ती वरुणका वरण नहीं करके अन्त में मेरे ही शेष रह जानेसे मेरा ही वरण करेगी' इस प्रकार नलके सन्देहका नाश ( दूर ) होना समझना चाहिये ) // 25 / / बाला विलोक्य विबुधैरपि मायिभिस्तैरच्छद्मितामियमलीकन लीकृतस्वैः / आह स्म तां भगवती निपधाधिराजं निर्दिश्य राजपरिषत्परिशेषभाजम्।।२६।। __ बालामिति / अथेयं भगवती सरस्वती, तां बालां भैमी, मायिभिर्मायाविभिः, 'व्रीह्यादित्वादिनिः' अत एवालीकनलीकृतानि मायानलीकृतानि, स्वानि आत्मनो यस्ताशैः, तैः विबुधैः देवैरपि, अच्छभिताम् अप्रतारिता, नलवुद्धया तेषामवरगा. दिति भावः, छद्मशब्दात् 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, विलोक्य राजयं, रिषदि राजसभाय, परिशेषभाजम् अवशिष्टतां गतं, निषधाधिराज नलं, निर्दिश्य हस्तेन प्रदर्श्य, आह स्म उवाच / 'परिशेष' इत्यत्र परिवेष' इति पाठे तु-राजपरिपदः परि सर्वतोभावेन, वेषमलङ्कार, भजतीति तादृशं राजसभालङ्कारभूतमित्यर्थः / राजपरिषद्पपरिधिभाजमित्यर्थस्यापि बोधनात् नलस्य चन्द्रत्वं ध्वन्यते // 26 // भगवती ( सरस्वती देवी ) असत्य नल बने हुए अत एव कपटी उन देवों ( इन्द्रादि चार देवों, का पक्षा०-विशिष्ट विद्वानों ) से भी नहीं टमी गयी बाला भी उस दमयन्तीको देखकर राज-सभाके अलङ्कार बने हुए ( अथवा-राज-सभाके अन्तमें स्थित, या राजसभामें अवशिष्ट ) निषधेश्वर ( नल ) को दिखलाकर बोली-[ यहां पर राज ( चन्द्र ) सभाके परिवेष धारण करने वाला कहने से नलका चन्द्र होना ध्वनित होता है ] / 26 // अत्याजिलब्धविजयप्रवस्त्वया किं विज्ञायते सचिपदं न महीमहेन्द्रः ? / प्रत्यधिदानवशताऽऽहिलचेष्टयाऽसौ जोमूतवाहनधियं न करोति कस्य ? / / अथ नलमेकैकश्लोकेन क्रमात् इन्द्रायकैकश्लेपेणाह, अत्याजीति / अत्याजिषु महायुद्धेषु, यो विजयप्रभवो जयरूपफलं येन सः, रुचिपदं वदनुरागास्पद, मही. महेन्द्रो सूदेवेन्द्रः, या किं न विज्ञायने ? अर्थपु विश्ये प्रत्यर्थि, विभक्त्यथै व्ययीभावः, दानस्य वशतया तनिष्टतया, आहितया कृलया, चेष्टया वितरणच्यापारेषण, असौ नलः, कस्य जीमूतवाहनः तमामा महात्यागी कधित विद्याधर राजा, सद्वियं तद्बुद्धि, जीमूतवाहनक्रान्ति सिमर्थः, न करोति ? न जनयति ? तस्मात नलोऽयमिति सावः / अन्यत्र तु-लब्धो विजयः पार्थ एव, विजयस्तु जये पार्थ इलिविश्वः, 1. 'परिवेष' इति पाठान्तरम् / 2. 'प्रसरस्त्वया' इति पाठान्तरम् /
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________________ 800 नैषधमहाकाव्यम् / प्रसवोऽपत्यं येन सः, रुचीनां तेजसां, पदं स्थानं, मह उत्सवः तद्वान् मही नित्योत्सव इत्यर्थः, महेन्द्रः देवेन्द्रः, त्वया अत्याजि त्यक्तः, किं न विज्ञायते ? अपि तु विज्ञेय एव; प्रत्यथिनां प्रतिपक्षाणां, दानवानां शतेषु आहितया कृतया; चेष्टया शत्रुनाशा. नुकूलपौरुषेण, असौ कस्य जीमूतवाहनः मेघवाहनः, इन्द्रः इत्यर्थः, 'इन्द्रो मरुत्वान् मघवा, तुराषाण्मेघवाहनः' इत्यमरः, तद्धियम् इन्द्रोऽयमिति बुद्धिं न करोति ? अपि तु करोत्येव / / 27 // ( यहांसे चार इलोकोंसे ( 13 / 27-30) नलका तथा उन्हीं चार श्लोकों में से एक-एक इलोकसे क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, वरुणका वर्णन इलेष द्वारा सरस्वती देवीने किया है ) नलपक्षमें-बहुत ( या बड़े-बड़े ) युद्धमें विजयफल ( पाठा०-विजयाधिक्य ) को पानेवाले तथा रुचि ( शोभा या अनुराग ) के स्थान भूपति (नल ) को तुम क्यों नहीं जानती अर्थात् तुम्हे नलको जानना ( पहचानना) चाहिये। प्रत्येक याचकोंमें दानके वशपरायणताके द्वारा की गयी चेष्टासे यह (नल ) किसे जीमूतवाहनकी बुद्धिको नहीं उत्पन्न करता है अर्थात् प्रत्येक याचकों के लिये दानतत्परताकी चेष्टासे इसे सभी लोग जीमूतवाहन मानते हैं। ( अथवा-दानसे याचकके प्रति वशवा ( जितेन्द्रियभाव ) के द्वारा की गयी चेष्टा से...:: अथवा-प्रत्यर्थियों ( शत्रुओं) को खण्डन करनेवाले हैं प्राण जिनके ऐसे ( अत्यन्त शूर वीरों ) की अधीनतासे की गयी चेष्टासे यह किसे जीमूतवाहन ( इन्द्र ) की बुद्धि नहीं उत्पन्न करता है ? अर्थात् वशीभूत शत्रुहन्ता शूरवीरों के विषयमें इसके कार्यको देखकर सभी लोग इसे इन्द्र समझते ( इन्द्र-सा मानते ) हैं / इन्द्र के समान यह नल भी शत्रुओंको वश में करनेवाला है ) // पौराणिक कथा-पर्यायक्रमसे समयबद्ध होकर 1-1 सर्पना आहार प्रति दिन ग्रहण करनेवाले गरुडके लिये 'शङ्खचूड' नामक नागका स्थानापन्न होकर जीमूतवाहनने अपना शरीर अर्पण कर दिया और उनकी 'शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति / / तृप्ति न पश्यामि तवापि तावत्कि भक्षणात्त्वं विरतो गरुत्मन् / ' वीरता एवं दयापूर्ण उक्तिसे प्रसन्नचित्त गरुड़ने अमृतवर्षाकर भक्षित सब सोको जीवित कर दिया तथा सदाके लिए पर्यायक्रमसे नागोंका भक्षण करना छोड़ दिया / ( नागानन्द ) इन्द्रपक्षमें बहुत ( या बड़े-बड़े ) युद्धों ( में विजयपाने ) वाला, विजय अर्थात् अर्जुन ( या जयन्त ) नामक पुत्र (पाठा०-विजय-विस्तार ) को पाये हुए, तेजःस्थान ( कान्तिमान् या अनुरागवान् ) तथा. उत्सववान् महेन्द्रको तुम नहीं जानती ( पहचानती ) हो ? अर्थात् जानती ही हो ( अथवा-नहीं जानती हो अर्थात् जानना चाहिये ) : यह ( इन्द्र ) शत्रुभूत सैकड़ों दानवों में की गयी चेष्टा ( व्यापार ) से मेघवाहन (इन्द्र ) की बुद्धि किसको नहीं करता अर्थात् सैकड़ों दानवोंमें इसके कार्यको देखकर सभी लोग इसे इन्द्र जानते हैं। ( अथवा-विजय-पुत्रको पाए हुए महेन्द्रको तुमने क्यों छोड़
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 801 दिया ?, यह विज्ञ (विद्वान् ) के समान नहीं आचरण करता (विज्ञ नहीं) है ? अर्थात् विज्ञ ही है / रुचिका स्थान ( रुचिकर ) नहीं है ? अर्थात् रुचिका स्थान है ही, उत्सव. वान् नहीं है ? अर्थात् उत्सववान् भी है ही। आशय यह है कि इन गुणोंसे युक्त इस इन्द्र के त्यागमें कोई उचित कारण नहीं मालूम होता है / अथवा-वि ( पक्षी अर्थात् गरुड ) से जयको प्राप्त अर्थात् अमृतको स्वर्गसे लेजानेवाले गरुडसे पराजित, महेन्द्रको तुमने जानकर छोड़ दिया ? अर्थात् ठीक ही किया, यह तुम्हारी रुचिका स्थान (रुचिकर ) नहीं है अर्थात् तुन्हें नहीं रुचता और उत्सववान् नहीं है। अर्थात् दैत्यभयसे सदा उत्सवहीन है [ इस पक्षमें 'न' का दोनों ओर अन्वय करना चाहिये ] अथवा-उक्त गुणवाले इन्द्रको तुम नहीं जानती ? अर्थात् तुमने जान ही लिया है (क्योंकि इसे ) छोड़ दिया है / अथवा-महायुद्ध में (गरुड ) से पराजित महेन्द्रको...... ) [ उत्तरार्द्धकी व्याख्या इन वैकल्पिक पक्षों में भी पूर्ववत् ही समझनी चाहिये ] // 27 // पौराणिक कथा-सपत्नीसे पराजित होकर उसकी दासी बनी हुई माता 'विनता' को दासीत्वसे मुक्त करने के लिये गरुड स्वर्गमें जाकर वहींसे अमृत ले जाने लगे तो इन्द्रने मना किया और युद्ध में उन्हें पराजितकर गरुड अमृतको ले जाकर माता को दास्यत्वसे मुक्त किया / ( नागानन्द) येनामुना बहुविगाढसुरेश्वराध्वराज्याभिषेकविकसन्महसा बभूवे | आवर्जनं तमनु ते ननु साधु नामग्राहं मया नलमुदीरितमेवमत्र / / 28 / / येनेति / येनामुना नलेन, बहु यथा तथा, विगाढः क्षुण्णः, आचरित इत्यर्थः, सुरेश्वरस्य इन्द्रस्य, अध्वालोकपाल नरूपमार्गो यत्र तादृशे राज्ये अभिषेकाद्विकसन्ति वर्द्धितानि, महांस्युत्सवाः तेजांसि वा यस्य तादृशेन, बभूवे भूतम् / अत्र सभायां, मया नामग्राहं नाम गृहीत्वा, 'नाम्न्यादिशिग्रहोः' इति णमुल-प्रत्ययः, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण, उदीरितम् उक्तं, नलं नलनामानं, तमेतम् , अनु लक्ष्यीकृत्य, ते तब, आव. जनमाकर्षणं, साधु ननु युक्तं खलु, अयमेव सत्यो नल एतद्वरणं युक्तमेवेत्यर्थः / अन्यत्र,तु-येनामुना अग्निना, बहु वारं वारं, विगाढा आहूताः इति यावत् ; सुरेश्वराः इन्द्रादयो देवश्रेष्ठाः येषु तादृशेषु अध्वरेषु यज्ञेषु, आज्यानां घृतानाम् , अभिषेकात् अन्तःसेकात् करणात् , विकसन्महसा वर्द्धमानतेजसा, बभूवे / मया अनलम् अग्निम् , अन्यत् समानम् // 28 // नलपक्षमें जो यह ( नल ) देवेन्द्र के ( लोक पालनरूप ) मार्गके अधिक सेवन तथा राज्याभिषेकसे बढ़े हुए तेजवाला हुआ ( अथवा-अनेक बार देवेन्द्रद्वारा सेवन किया गया है लोकपालनरूप मार्ग जिसका ऐसा ) है यहांपर ( इस सभामे, या इन पांच नलोंमें ) नाम ग्रहण कर मुझसे कहे गये उस (नल) को लक्ष्यकर तुम्हारा आकर्षण ( या पतिभावसे वरण करना ) उचित है, अर्थात मैंने यहां पर नल का नाम लेकर कह दिया, अत एव तुम्हें इसके प्रति आकृष्ट होना सर्वथा उचित ही है /
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________________ 802 . नैषधमहाकाव्यम् / अग्निपक्ष में जो यह ( अग्नि ) अनेक बार बुलाये गये हैं इन्द्रादि देवश्रेष्ठ जिनमें ऐसे यज्ञोंमें घृताभिषेक (घृताहुति ) से बढ़े हुए तेज ( ज्वाला) वाला हुआ ( अथवा-अनेक बार किये गये सुरेश्वर (इन्द्र ) यज्ञोंमें किये......)। यहां पर ( इन पांच नलों में, या इस स्वयंवर सभामें) मुझसे नाम लेकर बतलाये गये 'अनल' (नलभिन्न, पक्षा०-अग्नि ) के प्रति तुम्हारा आकर्षण उचित है ( अथवा-उचित है क्या ? अर्थात् उचित नहीं है / अथवा...... के प्रति तुम्हारा वर्जन ( निषेध ) उचित है क्या ? अर्थात् नहीं अपितु इसे स्वीकार करना चाहिये / अथवा-...के प्रति तुम्हारा वर्जन उचित है अर्थात् तुमने मेरे द्वारा नाम लेकर 'अनल' बतलाये जानेपर जो इसका त्याग किया वह ठीक ही किया 'आ' ( हर्ष ) है। अथवा-...के प्रति तुम्हारा सर्वभावेन त्याग उचित नहीं है क्या ? अर्थात् उचित ही है। ) [ इस पक्षमें-'ननु' को दो पद मानकर 'नु' शब्द दमयन्ती का सम्बोधनार्थक तथा 'न' शब्द निषेधार्थक मानना चाहिये ] / अथवा-...... के प्रति तुम्हारा सर्वभावेन त्याग उचित ही है / [ इस पक्षमें 'ननु' शब्द निश्चयार्थक मानना चाहिये ] // 28 // यच्चण्डिमारणविधिव्यसनञ्च तत्त्वंबुद्ध्वाऽऽशयाश्रितममुष्य च दक्षिणत्वम् / सैषा नले सहजरागभरादमुष्मिन् नात्मानमर्पयितुमर्हसि धर्मराजे ? / 26 / / ___यदिति / अमुष्य नलस्य, चण्डस्य भावः चण्डिमा रणेषु अतिको पनत्वं, 'चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः' इत्यमरः, पृथ्वादित्वादिमनिच-प्रत्ययः, रणविधौ युद्धकर्मणि, व्यसनमासक्तिश्च, 'व्यसनन्त्वशुभे भक्तौ' इति विश्वः,आशयाश्रितं चित्ताश्रितं, दक्षिणत्वं दाक्षिण्यञ्च, इति यत् तत् सर्व चण्डिमादिकं, 'नपुंसकमनपुंसकेन' इत्यादिना यत्तदिति नपुंसकैकनिर्देशः, बुद्ध्वा विचार्य, सैषा स्वम् अमुष्मिन् धर्मप्रधानी राजा तस्मिन् धर्मराजे, नले नलनामनि वीरे, सहजरागभरात् अकृत्रिमानुरागातिरेकात्, आत्मानम् अर्पयितुं न अर्हसि ? किमिति शेषः, अपि तु अर्हस्येव, एतद्वरणमेव तत्र योग्यमिति भावः / अन्यत्र तु-चण्डि ! हे कोपने !, गौरादित्वात् ङीप ; अमुग्य यमस्य, यत् मारणविधिव्यसनं मारणकर्मासक्तिम् , आशया दिशा निमित्तेन, श्रितं प्राप्तं, दक्षिणत्वं दक्षिणदिक्पतित्वञ्च, तत् सर्वं तत्त्वं यथार्थ, बुद्ध्वा सैषा त्वम् , अनले नलात् अन्यस्मिन् , अमुग्मिन् धर्मराजे यमे, इत्यादि पूर्ववत् // 29 // ___ नलपक्षमें-जिस ( नल ) की चण्डिमा ( अत्यधिक क्रोध ) युद्ध कार्यमें व्यसन ही है अर्थात् उसमें क्रोधसे शत्रुओं को मारने का इसे व्यसन है ( सब शत्रुओंको युद्ध में मारता है), अथवा-जिसकी चण्डिमा तथा युद्धकार्यमें व्यसन (निर्भय होकर शत्रुके साथ निरन्तर युद्ध करना ) तत्त्व ( सारभूत कार्य ) है सो तुम इसके आशय (मन) में स्थित तथा सरलता ( अथवा-इसके शय (हाथ ) में स्थित दक्षिगता (दानशूरता या युद्धशूरता) को जानकर धर्मात्मा ( या धर्म से शोभमान ) इस नल में स्वाभाबिक स्नेहातिशयसे आत्मसमर्पण करने के योग्य नहीं हो ? अर्थात् अवश्य ही हो। ( इस शौर्यादिगुणयुक्त नलको तुम आत्मसमर्पण करके पतिरूपमें स्वीकार कर लो)।
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________________ त्रयोदशः सर्गः / 803 यमपक्षमें-हे चण्डि ( कोपनशीला दमयन्ति ) ! इस ( यम ) का जो मारण कार्यमें व्यसन तथा दिशा ( के निमित्त ) से दक्षिणत्व आश्रित है अर्थात् दक्षिण दिशा का आश्रय ( स्वामी होनेसे दक्षिण दिशामें निवास ) करता है; वह सब तुम मालूम कर स्वाभाविक स्नेहातिशयसे इस धर्मराज अर्थात् यममें आत्मसमर्पण करने के लिए योग्य हो अर्थात् यह सबको मारता है तथा स्वामी होनेसे दक्षिण दिशामें रहता है, यह सब जानकर तुम इसे स्वाभाविक प्रेमातिशयसे आत्मसमर्पणकर पति बनाबो। ( अथवा-हे चण्डि ! 'नल' भिन्न व्यक्ति का नाम मात्र सुननेसे कोप करनेवाली दमयन्ति ) ! इस ( यम ) के मारण कार्य का व्यसन ( सर्वदा मारनेका ही कार्य) तथा दिशा के द्वारा आश्रित दक्षिणता ( सरलता या अनुकूलता, किन्तु स्वयं दक्षिणताशून्य)-यह सब ( इसका ) तत्त्व ( वास्तविक रूप ) जान कर वह ( कर्तव्याकर्तव्यज्ञान सम्पन्न होनेसे सुप्रसिद्ध ) तुम अनल अर्थात् नलभिन्न यममें स्वाभाविक प्रेमातिशयसे आत्मसमर्पण करने के लिए योग्य नहीं हो अर्थात् इसे तुम पतिरूपमें स्वीकृतकर आत्मसमर्पण मत करो। अथवा-इसका मारण कार्यमें व्यसन (नित्य संलग्न रहना ) तो तत्त्व अर्थात् सत्थ है, परन्तु दक्षिणता ( सरलता या अनुकूलता ) तो दिङमात्रसे आश्रित है अर्थात् दक्षिण दिशाका स्वामी होनेसे उसको दक्षिणत्वाश्रित कहते हैं स्वयं दक्षिण होने के कारण नहीं, यह सब जानकर".... / अथवा-उक्त यमको जानकर अस्वाभाविक प्रेमातिशयके कारण इस यमको आत्मसमर्पण करने के लिए तुम योग्य नहीं हो, ( ऐसे असद्गुणयुक्त व्यक्ति में अस्वाभाविक प्रेम होनेसे आत्मसमर्पण करना तुम्हें उचित नहीं है, क्योंकि जहां हार्दिक प्रेम नहीं वहां आत्मसमर्पण-जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य करना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता, अत एव तुम इसे कदापि वरण मत करो ) // 29 / / किं ते तथा मतिरमुष्य यथाऽऽशयः स्यात्त्वत्पाणिपीडनविनिर्मित येऽनपाशः।। कान्मानवानवति नो भुवनं चरिष्णु सावमुत्र न रता भवतीति युक्तम् ? नलस्य, आशयोऽभिप्रायः, यथा अपाशः अपगताशो न भवतीत्यनपाशः साभिलाषः, ते तव, मतिरपि तथा अनपाशा, स्यात् किम् ? साभिलाषा चेत् तत् युक्त. मित्यर्थः / असौ नलः, भुवनं लोकम् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, चरिष्णुः सन् कान् मानवान् मनुष्यान् , नो अवति ? न रक्षति ? अपि तु सर्वानेव रक्षति इत्यर्थः, भवता त्वम् , अमुत्र अमुष्मिन् नले, रता अनुरक्ता, न इति न युक्तम् , ईदृशे पुरुषे सर्वदा त्वया अभिरन्तव्यमिति भावः। अन्यत्र-अमुष्य वरुणस्य सम्बन्धी शयः पाणिः, त्वत्पाणिपीडनविनिर्मितये नास्ति पाशो यत्रेति नपाशः पाशास्त्रशून्यः, यथा स्यात् तथा ते मतिः किम् ? पाशास्त्रं त्यक्त्वा त्वत्पाणिग्रहणं किं तेऽभिमतम् ? इत्यर्थः। मानवान् समुन्नतचित्तः, 'मानश्चित्तसमुन्नतिः' इत्यमरः, असौ वरुणः, भुवनं 1. चरिष्णन्नासावमुत्र' इति पाठान्तरम् /
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________________ 804 नैषधमहाकाव्यम् / जलं, 'सलिलं कमलं जलं, जीवनं भुवनं वनम्' इत्यमरः, चरिष्णुः जलरूपेण सञ्चरन् , कान् नो अवति ? जलस्यैव सर्वेषां जीवनस्वरूपत्वादिति भावः; अमुत्र वरुणे, नरता नरत्वं, न भवति नास्ति, इति युक्तं, तस्य देवत्वादिति भावः // 30 // नलपक्षमें-इस ( नल ) का आशय तुम्हारे साथ विवाह करने के लिए जिस प्रकार आशान्वित है क्या तुम्हारी बुद्धि भी ( इसके साथ विवाह करने के लिए ) उसी प्रकार आशान्वित है ? ( अथवा-....."जिस प्रकार आशान्वित है, तुम्हारी बुद्धि भी उसी प्रकार की है क्या ?) / संसारमें गमनशील यह किन मनुष्योंका ( अथवा-मानवान् अर्थात् कुल. शील दिका मानी तथा संसार में गमनशील यह किनका / पाठा०-यह संसारमें गमनशील किन भनुष्यों का) रक्षण नहीं करता अर्थात् सभी का रक्षण करता है / इसमें आप अनुरक्त हुई हो यह युक्त ( उचित ) नहीं है ? अर्थात् उचित ही है ( अथवा-यह मनुष्य है, इसमें अप अनुरक्त नहीं हैं यह युक्त है ? अर्थात् नहों। अथवा-यह मनुष्य ( पुरुषश्रेष्ठ ) है ( अत एव ) इसमें नरता ( मनुष्यता-पुरुषश्रेष्ठता ) होती है यह युक्त होता है अर्थात् इन इन्द्रादि देवोंमें नरता ( मनुष्यता) युक्त नहीं होती। अथवा-हे भवति !, शेष अर्थ पूर्ववत् जानना चाहिये)। ___ वरुणपक्षमें-इस ( वरुण ) का हाथ तुम्हारे पाणिपीडन (विवाहमें हस्तग्रहण ) के लिए पाशरहित जैसे होगा वैसी तुम्हारी बुद्धि है क्या ? यह विवाह-कालमें तुम्हारा हाथ पाश-रहित होकर ग्रहण करेगा। अथवा-इसका हाथ तुम्हारे पाणिपीडनके लिए ( होगा ) पाश ( इसका अस्त्र-विशेष ) नहीं। ( अतएव तुम्हें भय छोड़ देना चाहिये ) / जलने चलनेवाला यह किन मनुष्यों का (डूबने आदि से ) रक्षण नहीं करता ? अर्थात् जल में प्रविष्ट मनुष्यको डूबने आदिसे यह वरुण ही रक्षा करता है ( पाठा०-जलमें सञ्च. रणशील किन मनुष्यों का यह रक्षण नहीं करता ? अपि तु यह सब मनुष्यों का रक्षण करता है / अथवा-जलमें सञ्चरणशील यह जलसे मनुष्यों की रक्षा करता है / इसमें आप नहीं अनुरक्त हैं यह युक्त नहीं है अर्थात् इसमें आपको अनुरक्त होना चाहिये, इसमें नरता ( मनुष्यभाव, पक्षा-'रलयोरभेदः' के नियमसे 'नलता' = नलभाव ) नहीं होती यह युक्त ( ठीक ) है अर्थात् यह मनुष्य नहीं किन्तु देव ( वरुण ) है / अथवा-यह ना (मनुष्य) नहीं है ( अत एव ) इसमें आप अनुरक्त हैं यह युक्त है ? अर्थात् आपका इस (वरुण ) में अनुरक्त होना युक्त नहीं है / अथवा-इस ( वरुण) में आप अनुरक्त नहीं है यह युक्त नहीं है ? अर्थात् आपका इसमें अनुरक्त नहीं होना युक्त ही है ) // 30 // श्लोकादिह प्रथमतो हरिणा द्वितीयाद् धूमध्वजेन शमनेन समं तृतीयात् / तुर्यान्नलस्य वरुणेन समानभावं सा जानती पुनरवादि तया विमुग्धा / / __ श्लोकादीति / इह श्लोकचतुष्टये, प्रथमतः प्रथमात् , श्लोकात् हरिणा इन्द्रेण सम, द्वितीयात् श्लोकात् , धूमध्वजेन अग्निना सम, तृतीयात् श्लोकात् , शमनेन
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 805 यमेन समं, तुर्यात् चतुर्थश्लोकात् , 'चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च' इति साधुः, वरुणेन समं नलस्य समानभावं सारूप्यं, जानती अवगच्छन्ती, अत एव विमुग्धा विमूढा, सा भैमी, तया देव्या, पुनः अवादि उदिता, वदेः कर्मणि लुङ्॥३१॥ इन चार श्लोकों ( 1327-30 ) में-से पहले ( 'अत्याजि- 13 / 27 ) श्लोकसे इन्द्रके साथ दूसरे ( 'येनामुना-' 13-28) श्लोकसे अग्नि के साथ, तीसरे ('यच्चण्डिमा-' 1329) श्लोकसे यमके साथ और चौथे ( 'किं ते-' 13 / 30) श्लोकसे वरुणके साथ उस (नल) की समानता को जानती हुई ( अत एव ) अत्यन्त भ्रममें पड़ी हुई दमयन्तीसे वह ( सरस्वती देवी) फिर बोली // 31 // त्वं याऽर्थिनी किल नलेन शुभाय तस्याःक स्यान्निजार्पणममुत्र चतुष्टये ते ? इन्द्रानलार्यमतनूजपयःपतीनां प्राप्यैकरूप्यमिह संसदि दीप्यमाने / / 32 / / अथ पुनदेवी देवेषु दाक्षिण्यात् दमयन्ती श्लेषभङ्गयन्तरेण क्लिश्नानि, श्लोकद्वयेन त्वमित्यादि / या त्वं नलेन निमित्तेन, अर्थिनी अर्थवती, किल, 'अर्थाचास. निहिते' इति इनिप्रत्ययः; तस्यास्तत्प्रार्थिन्याः, ते तव, ऐकरूप्यं नलसारूप्यं, प्राप्य इह अस्यां, संसदि स्वयंवरसभायां, दीप्यमाने राजमाने, अमुत्रामुष्मिन् , इन्द्रान. लार्यमतनूजपयःपतीनाम् इन्द्रवह्वियमवरुणानां, चतुष्टये चतुष्टयमध्ये, व कस्मिन् , निजार्पणम् आत्मसमर्पणं, शुभाय मङ्गलाय, स्यात् ? एतेषु कस्मिन्नपि आत्मदानं ते शुभाय न स्यादेव, यत एते इन्द्रादयः नलरूपधारिणः न त्वेषु कोऽपि वास्तविक नल इति तव प्रार्थना सफला न भवेदिति भावः। अन्यत्र-नलसारूप्यं धृत्वा इन्द्रादीनां चतुष्टये इह संसदि दीप्यमाने जाज्वल्यमाने सति, अमुत्र नले, निजाणं क्व कुतः, शुभाय स्यात् ? अपि तु न कुतोऽपि स्यात् , इन्द्रादीनपरितोष्य नलवरणं ते न शुभकरमिति भावः। एवम् अर्थद्वयेन क्रमात् नलप्राप्ती नैराश्यं तन्नस्पृह्यरू. पेण ताम् अतापयदिति तात्पर्यम् // 32 // जो तुम नल में अभिलाषवती हो, उस तुम्हारा इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण की एक. रूपता ( राजाके दिक्पालांश होने के कारण समानरूपता) को प्राप्तकर इस स्वयंवरमें इन चारों के प्रकाशमान रहने पर ( नल) में आत्म-समर्पण कैसे शुभ (भलाई ) के लि र नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा / ( अथवा-जो तुम नलमें निश्चय ही अभिः लापवती हो, उस तुम्हारा इन्द्र, अग्नि, यम और वरुणके एकरूपता (नलकी समानरूपता) को प्राप्तकर इस स्वयंवर सभामें दीप्यमान (ज्वलित = क्रोधित ) होते रहने पर इस (नल) में आत्म-समर्पण करना कहाँ अर्थात किस प्रकार शुभ ( कल्याण या हर्ष ) के लिए होगा ? अर्थात इनको छोड़कर नलका वरण करने पर तुम्हारा कल्याण नहीं होगा क्योंकि ये तुम्हें या नलको भी क्रुद्ध होकर शाप दे देंगे / अथवा--जो तुम नलमें अर्थिनी ( अभिलाषवती) हो ( इस प्रकार वर्णन किये गये भी नलको नहीं वरण करती ) उस तुम्हारा नल के समान
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________________ 806 नैषधमहाकाव्यम्। रूप को प्राप्त कर इस स्वयंवर सभामें प्रकाशमान इन इन्द्र आदि चारों देवों में से किसमें आत्मसमर्पण करना शुभके लिए होगा अर्थात् मेरे अनेक बार कहने पर भी नलको वरण नहीं करतीं तो अतिशय सुन्दर इनमें से किसका वरण करती हो ? कहो [ इस वचनसे यहाँ पर इन्द्रादि देव हैं या नहीं ? दमयन्तीके इस सन्देह को सरस्वती देवीने दूर कर दिया, किन्तु इनमे वे इन्द्रादि देव कौन हैं ? तथा नल कौन है-यह विशेष नहीं बतलाया, यहां पर इन्द्रादिका त्याग भी प्रतीत होता है ] / अथवा-जो तुम नलमें अभिलाषवती हो, उस तुम्हारा नलके समान रूपको प्राप्तकर इस सभामें प्रकाशमान इन्द्रादि चार देवोंमे-आत्म समर्पण करना कहां शुभके लिए होगा ? अर्थात् दूसरे में अनुरक्त स्त्री का दूसरे को आत्म समर्पण कर पति बनाना कभी कल्याण ( हर्ष ) कारक नहीं हो सकता, अत एव तुम इन इन्द्रादि का त्यागकर नलको ही वरण करो // 32 // देवः पतिर्विदुषि ! नैष धराजगत्या निर्णीयते न किमु न वियते भवत्या ? | नायं नलः खलु तवातिमहा नलाभो यद्येनमुज्झसि वरः कतरः पुनस्ते ? / / देव इति / विदुषि ! हे विदग्धे ! मदुक्तिवैचित्र्याभिज्ञे! एष धराजगत्याः भूलो. कस्य, पतिः न, किन्तु देवः, जातावेकवचनम् , एते न भूपाः किन्तु देवा इत्यर्थः, भवत्या न निर्णीयते किमु ? न वियते किमु ? मर्त्यवरणात् वरम् अमर्त्यवरणमेवेति भावः / अथवा-धरान् पर्वतान् , अजति क्षिपतीति धराज इन्द्रः, स एव गतिः शरणं यस्या इति धराजगतिः प्राचीदिक तस्याः, पतिः एष देव इन्द्रः, न निर्णीयते इति न, अपि तु निर्णीयते एव, अत एव उ इति सम्बोधनम् , उ भोः ! भक्त्या कि कथं, वियते ? अयमेव ते वरणीय इति भावः। अग्निपक्षे तु-धरो वाहनम् , अजः छागः यस्येति धराजो वह्निः, वह्वेरजवाहनत्वश्रवणात् , स एवं गतिः शरणं यस्याः तस्याः आग्नेय्या दिशः, पतिरेष देवोऽग्निः, न निर्णीयते इति , अन्यत् पूर्ववत्। __ यमपक्षे तु-धरान् पर्वतान् , अजति शृङ्गाभ्यां खुरैर्वा क्षिपति इति धराजः महिषः, तेन या गतिर्गमनं तयोपलक्षितः, पतिः धर्मरूपत्वात् पालकः, देवः यमः, अन्यत् पूर्ववत् / वरुणपक्षे तु-धरायां पृथिव्यां, जायन्ते इति धराजानि स्थावरजङ्गमानि भूतानि, तेषां गतिर्जीवनोपायो जलं तस्याः, पतिः, जलाधिपतिरित्यर्थः, वरुणः, न निर्णीयते इति न, अन्यत पूर्ववत् / अयं तव सम्बन्धी त्वत्प्रार्थित इत्यर्थः, नलो न खलु, किन्तु अतिमहा मनुष्यापेक्षया अतितेजाः, नलाभः नलकल्पः, नैते नलाः किन्तु नलप्रतिरूपका इत्यर्थः; यनम् उज्झसि एषाम् अन्यतमं न वृणोषि चेदित्यर्थः, पुनः पश्चात् , ते तब, वियते इति वरो वरणीयः, वृङोऽप , कतरः ? न कश्विदस्ति, सत्यनलस्य दुर्लभत्वादिति भावः /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 807 अन्यत्र ( नलपक्षे)-भवत्या एष धराजगत्याः भूलोकस्य, पतिः रक्षकः, देवो राजा, 'देवः सुरे घने राज्ञि' इति विश्वः, नैषधराजगत्या नलमहाराजरूपेण, नैषधराजस्य नलस्य, गत्या ज्ञानेन वा, अथवा नैषधराज एव गतिजीवनोपायो यस्यास्तया, भवत्या इत्यस्य विशेषणम्, पतिर्भर्त्ता, न निर्णीयते किमु ? न वियते किमु ? अयं ना पुरुषः नलः खलु अतोऽयमेव वरणीय इत्यर्थः, एनं नलम्, उज्झसि यदि तव अतिमहान् अलाभोऽनर्थः, वर इत्यादि पूर्ववत् // 33 // इन्द्रपक्षमें-हे पण्डिते ( मेरी इलेषोक्तिको समझने में चतुर दमयन्ति ) ! यह देव ( स्वर्गमें क्रीड़ा करनेवाला, या देवता) भूलोक का स्वामी नहीं है ( किन्तु देवता एवं स्वर्ग: लोक का स्वामी इन्द्र है यह ) तुम नहीं निश्चय करती हो ? और इसे वरण (पतिरूप में स्वीकार ) नहीं करती हो ? अर्थात् इसे इन्द्र जानकर वरण करना चाहिये। ( अथवा-... तुम नहीं निश्चय करती हो ? ( क्योंकि इसे ) वरण नहीं करती हो ) ( यदि तुम इसे इन्द्र होने का निश्चय कर लेती तो मनुष्यापेक्षासे देव उसमें भी देवोंका स्वामी इन्द्र होनेसे इसे अवश्य वरण कर लेती, इसीलिए तुमने इसके इन्द्र होने का निश्चय नहीं किया है ऐसा जान पड़ता है), अथवा-पर्वतों के क्षेपणमें गतिमान् ( वज्र ) से पुरुष अर्थात् समर्थ यह इस देव ( इन्द्र) को पति नहीं निश्चित करती हो ? ( और निश्चित करती हो तो क्यों) वरण नहीं करती ? अर्थात् इसे पति निश्चित कर वरण करना चाहिये, अथवा-... .. पति नहीं निश्चित करती अर्थात् निश्चित करती ही हो फिर क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् पति निश्चित करके अवश्य ही वरण करना चाहिये / अथवा-हे ( दमयन्ति ) ! पर्वतों को क्षेपण करने ( फेंकने ) वाला इन्द्र ही है गति जिसका ऐसो पूर्व दिशा का पति ( पूर्वदिक्पाल इन्द्र ) का नहीं निर्णय करती ( ऐसा नहीं है तथापि ) क्यों नहीं वरण करती ? / निश्चय ही यह नल नहीं है ( किन्तु ) अतितेजस्वी नलाभ ( नलके तुल्य आभावाला) तुम्हें ज्ञात होता है जानं पड़ता है ( मनुष्यापेक्षा अधिक तेज होनेसे वरण करने योग्य है ) / अथवा-यह नल ( तृणवत् तुच्छ सारवाला ) नहीं है (किन्तु ) अतिनल ( जल नामक तृणसे अधिक सार वाला है, इस कारण भी वरण करने योग्य है)। अथवा-यह नल नहीं है (अत एव इसके वरण करने पर ) तुम्हें बड़े-बड़े उत्सव स्वर्गमें नन्दन वन विहार एवं सुमेरु पर्वतपर क्रीड़ा आदि ) तथा जीने का लाभ प्राप्त होगा, अर्थात्-इसके वरण करने से तुम्हें नन्दनक्रीडा आदि करने का अवसर अनायास ही प्राप्त होगा, अथवा-बहुत दिनों तक जीवन का लाभ होगा अर्थात् इसके वरण करनेसे तुम अमृतपान सुलभ हो नेसे बहुत दिनों तक जीओगी ( अमर हो जावोगी)। यदि इस ( अथवा-'अ = इनम्' अर्थात् विष्णुके बड़ा भाई होनेसे स्वामी = इन्द्र ) को छोड़ोगी तो दूसरा तुम्हें कौन वर ( पति या श्रेष्ठ ) मिलेगा? अर्थात् संसार में विष्णुके भी स्वामी इन्द्र को छोड़ने पर तुम्हें इससे श्रेष्ठ कोई नहीं मिलेगा
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________________ 805 नैषधमहाकाव्यम् / अतएव इसे ही वरण करो / अथवा-यदि..."छोड़ोगी तो तुम्हारा कौन वर ( पति या श्रेष्ठ, या अभीष्ट ) होगा अर्थात् कोई नहीं ( अपितु वह ) पर ( शत्रु ) ही होगा। अथवायदि.....'छोड़ोगी तो तुम्हारा कतर ( 'क' अर्थात् वायु से बढ़नेवाला या 'क' अर्थात् जलसे शान्त होने ( बुझने-नष्ट होने ) वाला ( इन्द्र के बादमें स्थित अग्नि ) पति होगा। [ अथवाइसमे इन्द्र के त्याग करने का भी संकेत सरस्वती देवी कर रही है, यथा-] यह भूलोकका पति ( रक्षक ) राजा नल नहीं है, यह तुम क्या निर्णय नहीं करती ? अर्थात् निर्णय करती ही हो ( और अत एव ) नहीं वरण करती ( नलानुरक्त होकर नलभिन्न इन्द्र का वरण नहीं करना तुम्हें उचित ही है ) / ( अथवा-इन्द्र ही है पति जिसका ऐसी इन्द्राणीका यह पति देव ( इन्द्र ) है यह निश्चय नहीं करती हो ऐसा नहीं है अर्थात् इसे इन्द्राणीपति देव इन्द्र तुम जानती ही हो ( अत एव ) नहीं वरण करती हो क्या ? ( यह अच्छा ही करती हो ) / सन्देह निवृत्तिके लिये सरस्वती देवी उसी निषेधपक्षको और भी आगे पुष्ट करती हुई कहती है-) यह तुम्हारा ( तुम्हारे चित्तमें स्थित ) अतिमहान् ( अतिशय तेजस्वी ) नल नहीं है ( अत एव तुमने इसका त्याग कर दिया तो ठीक ही किया) किन्तु नलाभ ( नलतुल्य आभासित होता) है अर्थात् कपट द्वारा इसने नलरूप धारण किया है / ( अथवा--यह नलाभ ( 'नल' नामक तृणके समान निस्सार है ) ( अत एव तुम इसे छोड़ती हो तो पर अर्थात् श्रेष्ठ कतर 'क' ( सुख ) में तैरनेवाला) अर्थात् सुखसमुद्र नल वर (पति) होगा। नैषधराज ( नल ) ही गति ( शरण) जिसका ऐसी आप इसे देव ( इन्द्र) नहीं निश्चित करती हो क्या ? अर्थात् निश्चित कर ही लिया है (क्योंकि ) इसे पति नहीं स्वीकार करती हो तथा यह अतिमहा ( दैत्यों से उल्लवित तेजवाला नि:स्सार ) है ( अत एव तुम इसे वरण करोगी तो ) तुम्हें लाभ नहीं होगा ( अथवा-तुम्हारा बड़ा अलाभ (हानि) होगा / ( अथवा-पदि तुम इसका त्याग करती हो तो तुम्हें बड़ा लाभ नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा ) / अग्निपक्षमें-हे पण्डिते ( दमयन्ति ) ! वाहन बकरेसे ( अथवा-पर्वततुल्य (विंशालकाय ) बकरेसे, अथवा-पृथ्वीपर बकरेसे ) चलनेवाला, ( पाकादिके द्वारा त्रैलोक्यका ) रक्षक तथा देव ( प्रकाशमान् , या देवता ) इसको नहों निश्चित करती ( पहचानती) हो ऐसा नहीं है अर्थात् निश्चित करती ही हो ( किन्तु निश्चित करके भी) इसे क्यों नहीं वरण करती हो अर्थात् इसे वरण करना चाहिये। ( अथवा--वाहन (अजवाहन)वाला ( अग्नि ) है गति (शरण, या रक्षक ) जिसका ऐसी अग्निकोण रूप दिशाका यह देव (देवता, या अग्नि है) यह निर्णय नहीं करतो ? ( और यदि निर्णय कर लिया है तो ) क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् वरण करना चाहिये / [ यदि यह अग्नि है तो नलतुल्य क्यों है ? इसका समाधान सरस्वती कर रही है ] निश्चित ही यह नल नहीं है, (किन्तु) अतितेजस्वी नलतुल्य शोभता है ( अथवा-निश्चित ही यह नल नहीं है किन्तु अतितेजस्वी तथा तुम्हारे नलके
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 809 समान प्रतीत होता है। अथवा -अनल अर्थात् अग्नि है) यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हारा दूसरा कौन वर ( पति, या श्रेष्ठ ) होगा अर्थात् इससे अधिक श्रेष्ठ एवं तेजस्वी कोई तुम्हें नहीं प्राप्त होगा अत एव इसे ही वरण करना चाहिये। ( अथवा-यदि इसको छोड़ती हो तो तुम्हारा कौन अभीष्ट होगा अर्थात् कोई अभीष्ट नहीं होगा अपितु शत्रु होगा। [ अथवा-यहां पर भी सरस्वती देवीने दमयन्तीसे इस अग्निके त्याग करनेका सङ्केत किया है, यथा- यह तुम्हारा ( चित्तहारी) नल नहीं है (किन्तु उसकी आकृति धारण करनेसे) नलकी आभावाला है अर्थात् यह कान्ति इसकी स्वभाविक नहीं किन्तु कृत्रिम है। अथवानल ( तृण विशेष ) में आभावाला है अर्थात् जिसकी तेजस्विता तृण अर्थात् तुच्छमें ही है प्रबल शूरवीर दैत्यादिमें नहीं / अथ च-नैषधराज ( नल ) ही है गति ( शरण ) जिसका ऐसी आप इस प्रकाशमान अग्निका क्यों नहीं निर्णय करती ? अर्थात् निर्णय करती ही हैं क्योंकि वरण नहीं करती अथवा-यह तुम्हारा पति नल नहीं है किन्तु दैत्यादिसे उल्लवित तेजवाला नल नामक तृणतुल्य है, अत एव तुम्हारे द्वारा यह वरणीय नहीं है)। यमपक्षमें-पर्वतोंको ( सींगों या खुरोंसे ) फेंकनेवाले ( भैसे = महिष ) की गतिसे युक्त अर्थात् भैसेकी सवारी करनेवाला (धर्मनियन्त्रक होनेसे संसारका ) रक्षक क्रीडाशील ( पक्षा०-देवता यमराज ) का निश्चय तुम नहीं करती अर्थात् नहीं पहचानती ? अपितु पहचान ही लिया है, फिर क्यों नहीं वरण करती हो ? / अथवा-महिषके द्वारा गमन करनेवाला यम है गति ( शरण या रक्षक ) जिसका ऐसी दक्षिण दिशाका पति नहीं है ? अपितु दक्षिण दिशाका पति है ही, फिर क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् वरण करना चाहिये ( इसके यमराज होनेका निश्चय करना तथा फिर वरण करना चाहिये। ) अत्यन्त तेजस्वी यह निश्चित हो गहन नहीं है ( अपितु धर्मरूप होनेसे गहन = दुर्विज्ञेय है ) / यदि इसे तुम छोड़ती हो तो तुम्हें लाभ नहीं है ( अपितु हानि ही है, क्योंकि ) इससे भिन्न कौन तुम्हारा श्रेष्ठ ( या अभीष्ट या पति ) मिलेगा अर्थात् कोई नहीं मिलेगा। ( अथवा-यह नल नहीं है, (किन्तु ) तुम्हारे अत्यन्त बड़े प्राणोंका लाभ है जिससे ऐसा है (क्योंकि यमके अधीन ही सब प्राणियोंके प्राण हैं, अतएव इसके वरण करनेसे चिरकाल तक तुम जीओगी)। अथवा-(धर्मरूप होनेसे) अत्यधिक पूजावाला एवं वह्निकी आभावाला है ( अतः ) यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा बड़ा शत्रु कौन होगा अर्थात् इसके छोड़नेपर प्राणहरण करनेसे सबसे बड़ा शत्रु तुम्हारा यही होगा दूसरा कोई नहीं। अथवा-यदि तुम इसे छोड़ोगी तो ( इसके बादमें बैठा हुआ ) 'क' (जल) में ( या जलसे ) तैरनेवाला अर्थात् वरुण तुम्हारा दूसरा वर (पति) होगा [ अथवा यहां पर भी सरस्वती देवीने दमयन्तीसे इस यमके त्याग करनेका संकेत किया है, यथा-] इसे धराजगति अर्थात् दक्षिण दिशा का पति यम नहीं निश्चय करती ? अर्थात् यम निश्चय करती हो हो (और इसी कारण ) नहीं वरण करती हो क्या ? ( अथवा-धर्मराज जानकर देवका नहीं निश्चय करती ऐसा नहीं,
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________________ 810 नैषधमहाकाव्यम् / किन्तु निश्चय करती ही है इसीलिए पति नहीं स्वीकार करती हो क्या ? ) अर्थात् ऐसा करना उचित ही है यह दैत्योंसे अतिक्रान्त तेजवाला नल ( पितृदेव अर्थात् यम ) नहीं है ? अपि तु यम ही है, ( किन्तु नलाकृतिको कपटपूर्वक ग्रहण करनेसे ) तुम्हें यह नलकी कान्तिवाला दीखता है। यदि इसे छोड़ोगी तो 'क-तर' अर्थात् सुखसमुद्र (नल ) श्रेष्ठ वर प्राप्त होगा)॥ वरुणपक्षमें-यह भूलोकका पति नहीं है ( किन्तु पाताल लोकका पति है ) और इसे देव ( कान्तिमान् , या देवता वरुण ) नहीं निश्चय करती ? अर्थात् निश्चय करती ही हो फिर तुम वरण नहीं करती हो क्या ? अर्थात् इसे वरण करना चाहये। यह नल नहीं है, किन्तु तुम्हें अतिकान्तिमान् एवं नलकी कान्तिवाला प्रतीत होता है। यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हें कौन दूसरा वर श्रेष्ठ, या पति मिलेगा अर्थात् दूसरा कोई वर नहीं मिलेगा अत एव इसीका वरण करना चाहिये / अथवा-यह धराज पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाले स्थावर-जङ्गम प्राणी की गति ( जोवनोपाय जल ) का पति अर्थात् वरुण है यह नहीं निश्चय करती हो क्या ? अर्थात् निश्चय किया ही है, फिर क्यों नहीं वरण करती हो ? अर्थात् इसका वरण करना चाहिये / यह अतिमह ( अतिशय पूज्य ) अग्निकी कान्तिके अभावको करनेवाला है ( क्योंकि अग्नि पानीसे बुझ जाती है ) / यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा बडा शत्रु कौन होगा अर्थात् दूसरा कोई बड़ा शत्रु तुम्हारा नहीं होगा अपितु यही तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु होगा। अथवा-इसे धराज ( जगत्पोषक विष्णु ) की गति ( समुद्रशायी होनेसे प्रथम निवासस्थान जल ) का पति अर्थात् वरुण नहीं निश्चित करती ? अर्थात् करती ही हो। यदि तुम एन ( 'अ' = विष्णु हैं 'इन' = स्वामी जिसका ऐसे अर्थात् विष्णुभक्त इस वरुण ) को छोड़ती हो तो तुम्हारा बड़ा लाभ नहीं है अर्थात् हानि है अत एव तुम्हारा कतर ( 'क' = जलमें, या जलसे तैरनेवाला) अर्थात् वरुण ही श्रेष्ठ वर है / यहां पर भी सरस्वती देवीने दमयन्तीसे इसके त्याग करनेका संकेत किया है, यथा-] यह धराजगति (धराज = स्थावर (जगम संसार के प्राणियोंकी गति (रक्षा) है जिससे ऐसा जल ) का पति देव ( द्युतिमान् या देवता ) वरुणको नहीं निश्चित करती हो क्या ? अर्थात् निश्चय कर ही लिया है (क्योंकि ) वरण नहीं करती हो। यह नल नहीं है, किन्तु अतिपूज्य अग्निकी कान्तिका नाशक वरुण है। यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हारे महाप्राणोंका लाभ होगा अर्थात् तुम्हारा जीवन सार्थक हो जायेगा ( क्योंकि ) सुखसमुद्र श्रेष्ठ वर (नल) को प्राप्त करोगी / [नलके विना तुम्हारा जीना व्यर्थ एवं अशक्य है अत एव इसका त्याग करने पर ही श्रेष्ठ पति नलको प्राप्त करोगी ] // नलपक्षमें-इसे निषधदेश सम्बन्धी राजा ( या-निषधदेशके लोगोंके राजा ) के ज्ञानसे ( निषध देशका राजा जानकर ) स्वामी देव (क्रीडादियुक्त, या द्युतिमान् ) मनुष्य ( नल) क्यों नहीं निश्चय करती हो ? तथा क्यों नहीं वरण करती हो ? अर्थात् इसे उक्त
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 811 गुणविशिष्ट मनुष्य ( इन्द्रादि देवचतुष्टय नहीं) नल जानकर तथा वरण करना चाहिये / क्योंकि तुम्हारा ( नलके विष्णुरूप होनेसे ) बहुत बड़ा 'अ' (विष्णु) का लाभ होगा। . यदि इसको छोड़ती हो तो कौन तुम्हार। वर ( पति या अभीष्ट ) श्रेष्ठ होगा ? अर्थात् इस नल के अतिरिक्त कोई भी दूसरा श्रेष्ठ पति नहीं मिलेगा अतः इसे ही वरण करो, अन्यथा विना पतिके ( कुमारी ) ही रह जावोगो / ( अथवा-यह भूलोकका स्वामी, मनुष्य राजा नल नहीं है ? अपितु नल हो है ऐसा क्यों नहीं निश्चय करती ?तथा क्यों नहीं वरण करतीं। अर्थात इसे नल निश्चय करना एवं वरण भी करना चाहिये / ( क्योंकि ) तुम्हारे बहुत बड़े जीवनका लाभ होगा अर्थात् इसके वरणसे तुम्हारा जीवन सुखमय बन जायेगा। यदि अय ( शुभकारक विधि ) को छोड़ोगी तो तुम्हारा कौन श्रेष्ठ वर होगा अर्थात् कोई नहीं, अतः इसाका वरण करना चाहिये / अथवा-नैषधराज अर्थात् नल हैं गति ( शरण ) जिसका ऐसी आप इस मनुष्य ( नल ) को पति क्यों नहीं निश्चय करतीं ? और क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् इसे मनुष्य नल जानकर तथा वरण भी करना चाहिये। यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा बड़ा अलाभ ( हानि ) होगा, क्योंकि इससे भिन्न कौन श्रेष्ठ है ? अर्थात् कोई नहीं / अथवा--यह देव ( इन्द्रादि चारों में से अन्यतम देवता ) नहीं है, किन्तु भूलोकका स्वामी (राजा) मनुष्य (नल ) है, ऐसा क्यों नहीं निश्चय करतीं ? और क्यों नहीं वरण करती ? अर्थात् तुम्हें दोनों काम करना चाहिये / यदि इसे छोड़ती हो तो तुम्हारा लाभ नहीं है अर्थात् हानि ही है...। अथवा-धराजों ( मनुष्यों ) की गति (सनिमेषत्वादि लक्षण ) से इसे राजा मनुष्य ( नल ) क्यों नहीं निश्चय करती ? ( और निश्चय कर ) पतिरूपमें क्यों नहीं वरण करतीं ? अर्थात् इसे नल जानकर पतिरूपमें वरण करना चाहिये / यदि इसे छोड़ोगी तो तुम्हारा दूसरा श्रेष्ठ कौन-सा लाभ होगा अर्थात् इससे अधिक श्रेष्ठ कोई दूसरा लाभ तुम्हें नहीं होगा, अतः इसे ही वरण करना चाहिये / अथवा-यह पृथ्वीपर ( अतिशय सुन्दर होनेसे ) अज अर्थात् कामदेव है, इस बुद्धिसे प्राणपति मनुष्य ( नल ) है, देवता नहीं यह क्यों नहीं निर्णय करतीं और निर्णय करके क्यों नहीं वरण करतीं ? ( निकटस्थ नलाकृतिवाले इन चारों में बनावटो सौन्दर्य है और इस ( मनुष्य नल ) में प्राकृतिक है, ऐसा देखनेसे ही इसके नल होने का निश्चय कर इसे वरण करना चाहिये ( क्योंकि निश्चितरूप से नलके आकृति धारण किये हुए ) अतिमा अर्थात् अत्यन्त सुन्दर ( बने हुए ) इन्द्रादिके त्यागमें लाभ है ( अत एब अकृत्रिम सौन्दर्यवाले इन्द्रादिका त्यागकर स्वाभाविक सौन्दर्यवाले नलको वरण करना चाहिये ) // 33 // इन्द्राग्निदक्षिणदिगीश्वरपाशिभिस्तां वाचं नले तरलिताऽथ समां प्रमाय / सा सिन्धुवेणिरिव वाडववीतिहोत्रं लावण्यभूः कमपि भीमसुताऽऽप तापम्।। ___ इन्द्रेति / अथ लावण्यभूः सौन्दर्यभूमिः, अन्यत्र-लवणरसाश्रयः, सा भीमसुता दमयन्ती, नले विषये, तां पूर्वोक्तां, वाचम् इन्द्राग्निदक्षिणदिगीश्वरपाशिभिः इन्द्राग्नि 51 नै० उ० .
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________________ 812 नैषधमहाकाव्यम् / यमवरुणैः, समां श्लिष्टतया तस्साधारणी, प्रमाय अनुभूय, तरलिता नलनिश्चया. भावात् कम्पितहृदया सती, सिन्धुवेणिः समुद्रान्तरः, समुद्रगर्भ इत्यर्थः, समुद्र प्रवाहो वा, 'वेणी केशस्य बन्धने / नद्यादेरन्तरे देवताडे' इति मेदिनी। 'वेणी सेतु. प्रवाहयोः / देवताडे केशबन्धे' इति हैमश्च / वाडववीतिहोत्रं वाडवाग्निमिव, 'अग्निवैः श्वानरो वह्नि:तिहोत्रो धनञ्जयः' इत्यमरः / कमपि अवाच्यं तापम् आप // 34 // ___ सौन्दर्यनिधि ( पक्षा०-लवण रसका स्थान ) वह दमयन्ती उस वचनको इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुणके विषयमें ( श्लेषोक्तिपूर्ण होनेसे ) समान जानकर सन्देहयुक्त ( चञ्चल अर्थात् घबड़ाहट युक्त ) होती हुई किसी अनिर्वचनीय सन्तापको उस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार समुद्रप्रवाह ( अथवा-लवगरसाश्रय गङ्गासागरका सङ्गम ) वडवाग्निको प्राप्तकर अनिर्वचनीय सन्तापको प्राप्त करता है / [ दमयन्तीको इन्द्रादि चारों देवताओं तथा नलमें श्लेषद्वारा समानरूपसे कहे गये सरस्वती देवीके वचनको सुनकर नलका निश्चय नहीं कर सकनेके कारण बहुत सन्ताप हुआ] // 34 // प्राप्तुं प्रयच्छति न पक्षचतुष्टये तां तल्लाभशंसिनि न पञ्चमकोटिमात्रे | श्रद्धां दधे निषधराड्विमतौ मतानामद्वैततत्त्व इव सत्यतरेऽपि लोकः।।३।। ___ प्राप्तुमिति / पक्षचतुष्टये इन्द्रादिमायानलव्यक्तिचतुष्टये, तां प्राप्तिकत्री दमयन्ती, प्राप्तुं सत्यनलं प्राप्तुं, सत्यनलत्वेन निश्चेतुमित्यर्थः, न प्रयच्छति न ददति सति, सत्यनलसारूप्यात्तत्प्राप्तिप्रतिबन्धके सतीत्यर्थः; प्रायेणैवं भाषानुसारेणोदीच्याः प्रयुञ्जते यथा-'स्मत्त दिशन्ति न दिवः सुरसुन्दरीभ्य' इति भारती, तल्लाभ. शंसिनि दमयन्तीप्राप्त्याशंसिनि, अन्यत्र-विद्यालाभाकाक्षिणि, सत्यतरेऽपि अत्यन्तपारमार्थिकेऽपि, पञ्चमकोटिमात्रे पञ्चमनलैकव्यक्ती, द्वितैव द्वैतं भेदः, तहतम् अद्वैतम् अद्वितीयं, तत्त्वं ब्रह्मतत्वम् , अद्वयब्रह्मस्वरूपमित्यर्थः, तस्मिन्निव, मतानां पञ्चनलीगोचरज्ञानानां, निषधराट् नलः, इति विमती अयमेव नलोऽयमेव वेति विप्रतिपक्षौ सत्यां, लोको जिज्ञासुजनः, श्रद्धां पारमार्थिकविषयकविश्वासं. न दधे, सद्विलक्षणत्वेन असद्विलक्षणत्वेन सदसत्समुच्चयविलक्षणत्वेन चतुष्टयाध्यात्मि. कशरीरेन्द्रियाद्यसत्प्रपञ्चसंवलनान्नित्यापरोक्षसत्यब्रह्मतत्त्वे इव असत्यनलचतुष्टये सन्निधानात् सत्यनले पञ्चमे प्रतीयमानेऽपि सत्योऽयमिति जनो न विश्वलितु. मशक्नोदित्यर्थः / उपमा // 33 // __निषधराज ( नल ) वे इन्द्रादि चारोंके ( दमयन्तीको वञ्चित करने के लिए नलका रूप धारण करनेसे ) उस ( दमयन्ती ) को पाने नहीं देने पर अर्थात् दमयन्ती-प्राप्तिमें बाधक होने पर उस दमयन्तीको पानेके इच्छुक पांचवें स्थानमें स्थित ( अपने-नल) में उस प्रकार श्रद्धा ( दमयन्तीको पानेका विश्वास ) नहीं किया ( इन इन्द्रादि चारोंके इस प्रकार 1. 'नाप्तुम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 813 बाधक रहने पर हमें दमयन्ती किस प्रकार ( प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं प्राप्त हो सकती ऐसा नलने विश्वास कर लिया ), जिस प्रकार ( शास्त्रीय ) मतों के अनेक मत रहने पर चार पक्षों ( सत् , असत्, सदसत् और सदसत्से विलक्षण ) के उस बास्तविक प्रतीति ( सम्यग्ज्ञान ) को रोकते रहने पर ( अभेदप्रतिपादक उक्त चार पक्षोंसे विभिन्न ) पञ्चम पक्षमात्रमें स्थित अतिशय सत्य अद्वैत तत्त्वमें लोक ( सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति ) श्रद्धा नहीं करता है / ( अथवा-सभास्थित दर्शकोंने 'यह दमयन्ती इसे वरण करेगी तथा यह वास्तविक नल है' ऐसा निश्चय नहीं किया / ( पाठा०-उस ( दमयन्ती ) ने विविध बुद्धि ( पांच नल होनेसे वास्तविक-नल-विषयक सन्देह ) होने पर उसे ( दमयन्तीको ) पानेके इच्छुक समीपमें बैठे हुए चारो ( इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण ) के उस श्रद्धा ( वास्तविकनल-विषयक विश्वास ) को (असत्य नल-रूप धारणकर ) निषेध करते ( रोकते ) रहनेपर पञ्चम स्थान ( इन्द्रसे पांचवें आसन ) पर स्थित अत्यन्त सत्य भो नलमें उस प्रकार विश्वास नहीं किया; जिस प्रकार अनेकात्मवादी (आत्माको अनेक माननेवाले) साङ्खयादि चार दर्शनों के उस अतिशय सत्य अद्वैत-विषयक विश्वासको निषेध करते रहने पर युक्तायुक्त विचारसे हीन अविद्वान् व्यक्ति अनेक मतों ( साङ्खयादि षड्दर्शनशास्त्रों के विविध सिद्धान्तों ) के रहने पर ( 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानाऽस्ति किञ्चन' इत्यादि वेदवचनोंसे ) अत्यन्त सत्य अर्थात् वास्तविक भी तत्पदवाच्य ब्रह्म ) के लाभका प्रतिपादक अद्वैत तत्त्व ( एक ब्रह्म-विषयक ज्ञान ) में श्रद्धा ( विश्वास ) नहीं करता। ( अथवा-उस दमयन्तीने विविध मतों ( सन्देहों ) के रहने पर उन पार्वस्थित चारों ( इन्द्रादि ) के नलविषयक विश्वासको रोकते रहनेपर भी दमयन्तीको पाने के इच्छुल तथा पञ्चम स्थानमें ( पांचवें आसन पर ) स्थित वास्तविक नलमें (वही वास्तविक नल हैं यह ) विश्वास नहीं किया ? अर्थात् 'अविज्ञातेऽपि बन्धौ हि बलात्प्रह्लादते मनः' (किरातार्जुनीय 14 / 35 ) इस कविशिरोमणि भारविकी उक्तिके अनुसार 'यही वास्तविक नल हैं तथा ये दूसरे चार कपटवेषधारी नल हैं। यह जान ही लिया। जिस प्रकार बौद्धादि अनेक दर्शनसिद्धान्तों के विद्यमान रहते वास्तविक अद्वैततत्वविषयक विश्वासमें बाधक होते रहने पर भी वस्तुतत्त्वज्ञ जन पञ्चम-कोटिस्थ अर्थात् आत्मामें विश्वास कर लेता है ) / [ साङ्खथमतानुयायी-प्रत्येक कारीर में भिन्न शुद्धज्ञान स्वभाववाले बहुत आत्माओंको मानते हैं; नैयायिक-प्रत्रे विशरीरमें भिन्न, सर्वव्यापक ज्ञानादि नवविशेष गुणों से युक्त आत्माको मानते हैं; आर्ही प्रत्येक शरीर में भिन्न शरीरके बराबर प्रमाणवाले सङ्कोच तथा विस्तार करनेवाले बहुत आत्माओंको मानते है और बौद्ध-प्रत्येक शरीरमें भिन्न क्षणिक ज्ञान-सन्तानरूप अनेक आत्माओंको मानते हैं / इस प्रकार सत् , असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण-चार पक्ष अद्वैत ब्रह्मके सिद्धान्तके बाधक हैं / विस्तृत विषयशान वेदान्तादि दर्शन शास्त्रोंसे करना चाहिये ] // 35 // कारिष्यते परिभवः कलिना नलस्य तां द्वापरस्तु सुतनूमदुनोत् पुरस्तात् / भैमीनलोपयमनं पिशुनौ सहेते न द्वापरः किल कलिश्च युगे जगत्याम् / /
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________________ / नैषधमहाकाव्यम् / अथ भैम्याः सन्देहदुःखं महदभूदित्याह-कारिष्यते इति / कलिना कलहेन, प्रत्याख्यातैर्देवैः राजन्यैर्वा अवमाननाप्रतीकाराभिप्रायात् उत्पादितेन वैरणेत्यर्थः, कलियुगेन च, 'कलिः स्त्री कलिकायां ना शूराजिकलहे युगे' इति मेदिनी, नलस्य परिभवः कारिष्यते विवाहात् परं परिभवः करिष्यते, करोतेः कर्मणि लुट , 'स्यसिच. सीयुट--' इत्यादिना इटः वैकल्पिकचिण्वद्भावात 'अचो जिति' इति वृद्धिः, इति द्वापरस्तु प्रियस्य नलस्य एवं विधः परिभवसंशयः पुनः, द्वापरयुगञ्च, 'द्वापरौ युगसंशयौ' इत्यमरः। सुतन सुकुमाराङ्गी, तां नलप्रियां दमयन्ती, पुरस्तात् कले: पर्वम् अद्यैव, अदुनोत् पर्यतापयत् ; तथाहि, जगत्यां लोके, पिशुनौ दुर्जनौ, 'त्रिष्वथो जगती लोकः' इति, 'पिशुनो दुर्जनः खलः' इति चामरः, द्वापरः कलिश्च युगे कालविशेषौ, भैमीनलयोः उपयमनम् उद्वाहं, न सहेते किल, किलेति खल्वर्थे, कलिः यथा विवाहोत्तरं तयोर्विवाहं न सोढा, तद्वत द्वापरोऽपि तयोर्भाविनं विवाहं न सहते इति भावः / अत्र पर्वार्द्ध द्वापर इति वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायेन द्वापरस्य स्थानान्तरकलिव्यापारात् प्राक् स्वयं दमयन्तीसन्तापकत्वोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगा. द्गम्या, उत्तरार्द्ध तु तदुपयमनासहिष्णुत्वलक्षणकारणेन तत्समर्थनात् कारणेन कार्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः, इत्यनयोः अङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 36 // कलि अर्थात चौथा युग ( इन दोनों के विवाह के बाद ) नलका परिभव करेगा, किन्तु द्वापर ( इन पांचोंमें से कौन वास्तविक नल है ? ऐसा सन्देह अथवा-इन्द्रादि चार देवों या अन्यान्य राजाओं के अपमानका प्रतीकार नहीं होनेसे उत्पन्न कलह / पक्षा०–'द्वापर' नामक तृतीय युगने ( विवाह होनेके ) पहले ही सुन्दरी ( दमयन्ती) को सन्तप्त कर दिया अर्थात् 'कलि' नामक चतुर्थे युग तो दमयन्ती-नलके विवाह के बाद नलको पीड़ित करेगा, किन्तु 'द्वापर' नामक तृतीय युगने विवाह होने के पहले ही सुन्दरी दमयन्तीको पीडित किया / क्योंकि दुष्ट कलि तथा द्वापर युग भूलोकमें नल तथा दमयन्तीके विवाहको सहन नहीं करते हैं अर्थात् जिस प्रकार विवाह होनेके बाद 'कलि' युग उस विवाहको असहनकर नलका परिभव करेगा, उसी प्रकार 'द्वापर युग भी विवाहके पहले ही उनके विवाहको असहनकर उसे बधक बनने एवं दमयन्तीको पीड़ित करने लगा। [द्वापर तथा कलियुगमें नल और दमयन्तीक नहीं रहनेसे उन दोनों युगोंका नल तथा दमयन्तीके विवाहको नहीं सहन करना युक्तियुक्त ही है ] // 36 // उत्कण्ठयन् पृथगिमा युगपन्नलेषु प्रत्येकमेषु परिमोहयमाणबाणः / जानीमहे निजशिलीमुखशीलिसङ्ख्यासाफल्यमाप स तदा यदि पञ्चबाणः।। . उत्कण्ठयन्निति / पञ्चबाणः पञ्चबाणत्वेन प्रसिद्धः, सः कामः, नलेषु, पञ्चस्वपि इति शेषः, विषये पृथक् प्रत्येकम् , इमां दमयन्ती, युगपत् समकालम, उत्कण्ठयन् उत्सुकयन् , अयं नलः अयं वा नल इति बुद्ध्या तेषु एकस्मिन्नेव काले पृथपेण तां सोत्कण्ठां कारयन्नित्यर्थः, दमयन्ती नलबुद्धया तेषु पञ्चस्वेव सानुरागाऽभूदिति
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________________ त्रयोदशः सर्गः। भावः, तथा एषु नलेपु पञ्चसु, प्रत्येकम् एकैकस्मिन् , परिमोहयमाणाः प्रत्येकमेतान् दमयन्तीविषये सम्मोहयन्त इत्यर्थः, कर्मण्यधिकरणविवक्षया सप्तमी 'तस्मिन् प्रजह' रितिवत् / 'अणावकर्मकाञ्चित्तवस्कत कात्' इत्यादिना परस्मैपदप्राप्तावपि 'न पादम्याङ्यमा-'इत्यादिना परस्मैपदनिषेधादात्मनेपदं, कृत्यचः 'णेर्विभाषा' इति णत्वम् / बाणाः यस्य स तादृशः सन् , निजशिलीमुखान् निजबाणान् , शीलयतीति तच्छीलिन्याः तत्समवायिन्याः, सङ्ख्यायाः, पञ्चसङ्ख्यायाः, साफल्यमाप यदि तदा जानीमहे पञ्चसङ्ख्या साध्वीति मन्यामहे इत्यर्थः। अत्रोत्कण्ठासम्मो. हनपदार्थयोर्विशेषगगत्या साफल्यप्राप्तिहेतुकं काव्यलिङ्ग, तच्च साफल्यं यदिशब्दात् सम्भावनामात्रेणोक्तमित्युत्प्रेक्षा काव्यलिङ्गोत्थेति सङ्करः // 37 // मोहजनक बाणोंवाला तथा इसे ( दमयन्तीको ) प्रत्येक इन ( इन्द्रादि पांच ) नलोंमें एक समय अलग-अलग उत्कण्ठित करते हुए पञ्चबाण ( पांच बाणोंवाले कामदेव ) ने अपने बाणों की पांच सङ्ख्या होने की सफलता यदि प्राप्तकी तो उसी समय की अर्थात् दूसरे समयमें नहीं, ऐसा हम जानते (उत्प्रेक्षा करते ) हैं। (एक नलमें एक बाणसे ही अनुरागोत्पादन करने पर शेष चार बाण व्यर्थ हो जाते हैं / 'क्या यह नल है ?' इस प्रकार इन्द्रादि पांचों नलोंको नल समझने पर पांचोंमें प्रत्येकके प्रति पृथक-पृथक् एक साथ अनुरागोत्पादन करने में ही पांच बाणोंका होना सफल है अन्यथा नहीं। अथवा-एक साथ इस दमयन्तीको पृथक्-पृथक् पाँचों नलों में उत्कण्ठित करता हुआ तथा इन पांचों नलोंमें दमयन्ती-विषयकअनुरागोत्पादक बाणोंवाला कामदेवने यदि अपने बाणोंकी पांच सङ्ख्या होनेकी सफलता प्राप्त की तो उसी समय की, दूसरे समयमें नहीं (अर्थात्-उन पांच नलों में पृथक्-पृथक् दमयन्तोको एक साथमें उत्कण्ठित करता हुआ तथा पांचों नलोंको भी पृथक्-पृथक एक साथ दमयन्तीके प्रति अनुरागी बनानेसे कामदेवने अपने पांच बाणोंकी सफलता प्राप्त कर ली)। पांच पुरुषों में उत्कण्ठित होने पर भी नलबुद्धि होने के कारण ही उनमें उत्कण्ठित होनेसे दमयन्तीका पातिव्रत्य भङ्ग नहीं होता ] // 37 // देवानियं निषधराजरुचस्त्यजन्ती रूपादरज्यत नले न विदर्भसुभ्रः / जन्मान्तराधिगतकर्मविपाकजन्मैवोन्मोलति कचन कस्यचनानुरागः // 38 / / देवानिति / निषधराजस्य नलस्येव रुक सौन्दर्य येषां तादृशान् , देवान् त्यजन्ती इयं विदर्भसुभ्रः वैदर्भी, रूपात् सौन्दर्यात् ,नले न अरज्यत न रक्ता,रजेवादिकात् कर्तरि लुङि तङ्, किन्तु कस्यचन कस्यचिजनस्य, जन्मान्तरे अधिगतस्य कर्मणो विपाकात् परिणामात् , जन्म यस्य तादृशः, 'अवयो वहुव्रीहिय॑धिकरणो जन्मायुः त्तरपदे' इति वामनः / अनुरागः एव वचन कुत्रचिजने, उन्मीलति उद्भवति / रूप. साम्येऽपि देवपरिहारेण नले एवानुरागः अस्याः कर्मायत्तो न रूपायत्तः, अन्यथा किमर्थं यथार्थनलान्वेषणमित्युत्प्रेक्षा / एतेनास्या दृढव्रतत्वम् उक्तम् इति ज्ञेयम्॥३०॥ __निषधेश्वर ( नल ) की शोभावाले देवों (इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण) को छोड़ती
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________________ 816 नैषधमहाकाव्यम् / हुई यह दमयन्ती ( वास्तविक ) नलमें रूप ( सौन्दर्य ) से नहीं अनुरक्त हुई, (क्योंकि यदि वह रूपमात्रसे वास्तविक नलमें अनुरक्त होती तो नलके समान ही रूप धारण किये हुए इन्द्रादि देवोंको नहीं छोड़ती। परन्तु ) दूसरे जन्ममें प्राप्त कर्मविपाकसे उत्पन्न किसीका अनुराग किसीमें उत्पन्न हो जाता है। (अत एव वह दमयन्ती भी पूर्वजन्मकृत कर्मके विपाकसे ही वास्तविक नलमें अनुरक्त हुई ) // 38 // क्क प्राप्यते स पतगः परिपृच्छयते यः प्रत्येमि तस्य हि पुरेव नलं गिरेति / सस्मार सस्मरमतिः प्रति नैषधीयं तत्रामरालयमरालमरालकेशी // 36 // ___ अथास्याश्चिन्तासञ्चारिणीमाह-क्वेति / सस्मरमति मदनपीडितचित्ता, अरालकेशी कुटिल केशी, 'स्वाङ्गाञ्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्' इति विकल्पात् ङीष, भैमीति शेषः, स पूर्वष्टः नलवार्ताप्रद इत्यर्थः, पतगो हंसः, व कुत्र, प्राप्यते ? किमर्थम् ? यः पतगः, परिपृच्छयते, नलम् इति शेषः, एषु मध्ये को नल इति विश्वास्यतया जिज्ञास्यते इत्यर्थः; प्रश्न फलमाह-पुरेव पूर्वमिव, यस्य गिरा हि निश्चयेन नलं प्रत्येमि विश्वसिमि, इति इत्थं, तत्र सभायां, नैषधीयं प्रियस्य दूतभूतमिति यावत् , अमरालयमरालं स्वर्लोकहंसं, प्रति उद्दिश्येत्यर्थः, सस्मार; दुर्लभार्थप्रार्थकाः खलु कार्यकातरा इति भावः // 39 // ___ कामपीडित चित्तवाली ( या अधीर ) तथा कुटिल केशोंवाली ( वह दमयन्ती) 'वह पक्षी कहां मिलेगा ?' जिससे मैं ( इनमें कौन सत्य नल है यह ) पूछती और उसके वचनसे पहले (9 / 128) के समान नलको पहचानती' इस प्रकार उस स्वयंवरसमामें नल-सम्बन्धी ( पाठा०–प्रिय नलके दूत ) स्वर्गीय हंसका स्मरण किया // 39 // एकैकमैक्षत मुहुर्महताऽऽदरेण भेदं विवेद न च पञ्चसु कश्चिदेषा / शङ्काशतं वितरता हरता पुनः स्म उन्मादिनेव मनसेयमिदं तदाह // 40 // ___एकैकमिति / एषा भैमी, महता आदरेणकाग्रयण, मुहुः एकैकमक्षत, किन्तु पञ्चसु मध्ये कञ्चित् भेदं विशेषञ्च न विवेद, अत एव शङ्काशतं वितरता जनयता, पुनः तत् शङ्काशतं, हरता निवर्त्तयता, इत्थञ्च उन्मादिनेव उन्मादवतेव, मनसा उपलक्षिता इयं दमयन्ती, इदं वक्ष्यमाणविकल्पजातम्, आह स्म 'लट् स्मे' इति भूते लट् // 40 // ___ इस ( दमयन्ती ) ने बड़े प्रयत्न ( पक्षा०-भय ) से एक-एक ( इन्द्रादि पांच नलोंमें से प्रत्येक ) को देखा, ( किन्तु ) पाँचोंमें कोई भेद नहीं जान सकी; फिर सैकड़ों काओंको उत्पन्न तथा दूर करते हुए मानो उन्मादयुक्त चित्तसे यह (13 // 4153 ) कहने लगी [पतिव्रता दमयन्ती पांच पुरुषोंका निरीक्षण कर रही है, यह उचित नहीं, ऐसा लोगों के मनमें भावना हो सकती है इस विचारसे नलरूपधारी उन पांचोंको भयसे तथा इनमें से 1. 'किल नैषधीयम्' इति 'प्रियदूतभूतम्' इति च पाठान्तरम् /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। मेरा अभिलषित वास्तविक नल कौन-सा है ? यह निश्चय कर वरण करनेके लिए बड़े प्रयत्नसे दमयन्तीके द्वारा उन पांचोंका निरीक्षण करना उचित ही है / उन्मादी व्यक्ति भी भय या आदरसे किसी को देखता है तो व्यवस्थित चित्त होने के कारण कोई निर्णय नहीं कर सकने के कारण उसके मन में सैकड़ों शङ्काएं उत्पन्न एवं नष्ट हुआ करती हैं और वह मनमें ही कुछ सोचता रहता है; दमयन्तीने भी उसी प्रकार मनमें ही वक्ष्यमाण वचन कहे // ] अस्ति द्विचन्द्रमतिरस्ति जनस्य तत्र भ्रान्तौ हगन्तचिपिटोक णादिरादिः। स्वच्छोपसर्पणमपि प्रतिमाऽभिमाने भेदभ्रमे पुनरमीषु न मे निमित्तम् // ___ अथ आसर्गसमाप्तेश्चिन्तानुभावविकल्पावाह-अस्तीत्यादि / द्विचन्द्रमतिः द्वौ चन्द्राविति बुद्धिः, एकस्मिन् चन्द्रेऽनेकत्वावगाहिनी / भ्रमबुद्धिरिति यावत् , अस्ति प्रसिद्धा अस्ति, किन्तु तत्र द्विचन्द्रग्राहिण्यां भ्रान्ती, जनस्य भ्राम्यज्जनस्य, दृगन्त. चिपिटीकरणं गन्तयोः चक्षःप्रान्तयोः, चिपिटीकरणम् अङ्गुल्या निपीडनं, तदादिः तत्प्रभृति, आदिमूलकारणम् , अस्ति, तथा प्रतिमाऽभिमाने प्रतिबिम्बभ्रमे, स्वच्छोपसर्पणं काचस्फटिकादिसन्निधानमपि, आदिरस्तीति शेषः, पुनः किन्तु, मे मम, अमीषु पञ्चसु विषये, भेदभ्रमे निमित्तं न, अस्तीति शेषः, अत एकस्मिन् नले बहनलभ्रान्तिः कथञ्चिदपि न सम्भवति, तस्मादेते नलभिन्नाः केचन भविष्यन्तीति भावः॥४१॥ मनुष्यकी-'दो चन्द्र है' ऐसी बुष्टि होती है, उस भ्रममें आंखके प्रान्तको अङ्गुलि आदिसे चिपटा करना ( दबाना ) आदि ( काच-कामलादि दोष ) कारण है और प्रतिविम्ब ( परछाही ) के भ्रममें भी स्वच्छ ( दर्पण, स्फटिक आदि निर्मल पदार्थ ) के पास होना कारण है; किन्तु इनके भेदभ्रम ( एक नलमें पांच नलके ज्ञानरूप भ्रम ) में कारण नहीं है। [ 'आँख के किनारेको अङ्गलि आदिसे दबाने या कामला आदि रोगके कारण मनुष्य एक चन्द्रमाको भी दो चन्द्रमा मानने लगता है तथा दर्पण-स्फटिक आदि अत्यन्त निर्मलवस्तु के समीप रखनेपर उसमें दूसरी वस्तु के प्रतिबिम्बको देखकर यह बाहर रखी हुई ही वस्तु है या दो वस्तु हैं ऐसा भ्रम हो सकता है, इस प्रकार उक्त दोनों भ्रमों में क्रमशः आंखके प्रान्तका अङ्गलिसे दबाना आदि तथा दर्पणादि स्वच्छ वस्तुओं के समीप रहना आदि कारण हैं; किन्तु यहां पर मैं एक नलको ही जो पाँच नल देख रही हूं इस भ्रममें कोई कारण नहीं है, अत एव ये पाँच नल नहीं हो सकते, इस प्रकार उत्पन्न हुई शंकाओंको दमयन्तीने दूर कर दिया ] // 41 // किं वा तनोति मयि नैषध एव काव्यव्यूह विधाय परिहासमसौ विलासी ? विज्ञानवैभवभृतः किमु तस्य विद्या सा विद्यते न तुरगाशयवेदितेव ? // 42 / / किमिति / वा अथवा, विलासी विलसनशीलः, 'वो कषलसकत्थरम्भः' इति 1. 'नो' इति पाठान्तरम्। 2. 'भुवः' इति पाठान्तरम्।
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________________ 818 नैषधमहाकाव्यम् / घिनुण प्रत्ययः, असौ नैषधो नल एव, कायव्यहं, देहसमूहं विधाय सम्पाद्य, मयि परिहासं नर्मव्यवहारं, तनोति किम् ? विस्तारयति किम् ? एतदेव सम्भवतीति भावः / कुतोऽस्य कायव्यहरचनासम्भवः ? इत्यत आह-विज्ञानं शिल्पकलापरिज्ञानं, 'विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः' इत्यमरः, तदेव वैभवं बिभर्तीति तस्य शिल्पसमृद्धि. मतः, तस्य नलस्य, तुरगाशयवेदिता अश्वहृदयवेदित्वमिव, सा विद्या बहुरूपकल्पना विद्या, न विद्यते किमु ? न सम्भवति किम् ? अपि तु सम्भवत्येव / / 42 // अथवा विलासशील यह नल ही शरीर-समूह बनाकर मेरे साथ परिहास कर रहा है ? ( पाठा०-.... परिहास नहीं कर रहा है क्या ? अर्थात् परिहास ही कर रहा है ) / विज्ञानके वैभववाले ( पाठा०-विज्ञान-वैभव के स्थानभूत ) उस ( नल ) की घोड़ेके हृद्गत भावकी जानकारीके समान वह विद्या (शरीर-समूह धारण करनेकी कला ) नहीं है क्या ? अर्थात् जिस प्रकार विज्ञानराशि नलको घोड़ेके हृद्गत भावको जाननेकी विद्या प्राप्त है उसी प्रकार शरीर-समूह धारण करनेकी विद्या अवश्यमेव प्राप्त है // 42 // एको नलः किमयमन्यतमः किमैलः ? कामोऽपरः किमु ? किमु द्वयमाश्विनेयौ ? / किंरूपधेयभरसीमतया समेष तेष्वेव नेह नलमोहमहं वहे वा ? / / 43 / / एक इति / वा अथवा, इह पञ्चके, अयमेको नलः किम् ? अन्यतमोऽपरः, ऐलः पुरूरवाः किम् ? अपरः कामः किमु ? द्वयम् अपरौ द्वौ, आश्विनेयौ दस्रौ किमु ? अत एव रूपमेव रूपधेयं सौन्दर्य, 'नामरूपभागेभ्यो धेयो वक्तव्यः' इति स्वार्थ धेय-प्रत्ययः' तद्भरस्य तत्सम्पदः, सीमतया अवधित्वेन, समेषु लोकोत्तरसौन्दर्यसा. म्येन अगृहीतविशेषेषु इत्यर्थः, तेष्वेव सम्प्रत्युक्तेषु नलादिषु पञ्चसु एव, अहं नलमोहं किं कथं, न वहे ? सदृशेषु सादृश्यात् भ्रान्तियुक्त वेति भावः / / 43 // अथवा इन ( पांचों ) में यह एक नल है क्या ? यह दूसरा पुरूरवा है क्या ?, यह तीसरा कामदेव है क्या ? तथा ये दो अश्विनीकुमार हैं क्या ? ( और ) सौन्दर्यातिशयकी सीमा होनेसे समान उनलोगों ( नल, पुरूरवा. कामदेव तथा अश्विनीकुमारों ) में मैं नलका भ्रम कर रही हूं / [ अतिशय सुन्दर नलादि पाँचोंके तुल्यरूप होनेसे दमयन्तीका भ्रम होना ठीक ही है ] / / 43 // . पूर्व मया विरहनिःसहयाऽपि दृष्टः सोऽयं प्रियस्तत इतो निषधाधिराजः / भूयः किमागतवती मम सा दशेयं पश्यामि यद्विलसितेन नलानलीकान् ?|| पूर्वमिति / पूर्वमपि स्वयंवरकालात् प्रागपि, नि: न, सहते इति निःसहा पचायच , विरहस्य निःसहा असहना तया विरहकातरया, मया सोऽयं प्रियो निष
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________________ त्रयोदशः सर्गः 819 धाधिराजो नलः, तत इतः सर्वासु दिनु, दृष्टः, मम इयं वर्तमाना, दशा विरहोन्मादरूपावस्था, सा पूर्वानुभूता एव दशा, भूयः पुनः, आगतवती किम् ? यस्या उन्मत्तदशायाः, विलसितेन प्रभावेणेति यावत् , अलीकान् नलान् पश्यामि // 44 // विरहसे कातर मैंने पहले भी इधर-उधर (सब दिशाओंमें ) प्राणेश्वर नलको देखा है, फिर क्या मेरी वही, दशा आ गयी, जिसके प्रभाव से मैं असत्य ( अविद्यमान ) नलोंको देख रही हूं ? // 44 // मुग्धा दधामि कथमित्थमथापशङ्कां ? सक्रन्दनादिकपटः स्फुटमीडशोऽयम् / देव्याऽनयैव रचिता हि तथा तथैषां गाथा यथा दिगधिपानपि ताः स्पृशन्ति // 45 / / मुग्धेति / अथ पक्षान्तरे, मुग्धा मूढा, अहमिति शेषः, कथमित्थम् अपशतां मिथ्या संशयं, दधामि ? अयुक्तोऽयमिदानीम् ईदृङ्मोह इत्यर्थः, यतः ईदृशः एवंविधः, अयं व्यापारः, सङक्रन्दनादीनाम् इन्द्रादीनां, कपटो माया, इति स्फुटं व्यक्तम् , तथा हि, अनया देव्यैव तथा तेन प्रकारेण, एषामिन्द्रादीनां, गीयन्ते इति गाथाःवर्णनश्लोकाः, 'उषिकुषिगाऽतिभ्यः स्थन्' इत्यौणादिकःस्थन्-प्रत्ययः, रचिताः, यथा येन प्रकारेण, ता गाथाः, दिगधिपानिन्द्रादीनपि, स्पृशन्ति श्लेषमहिम्ना बोधयन्ति, न तु केवलं नलम् ; अतो मत्प्रतारणार्थ नलरूपधारणात्मिका देवमायैवेयं न तु मामको मोह इति भावः // 45 // ( अब दमयन्ती उक्त शङ्काओंको दूर करती हुई सोचती है कि-) अथवा मोहित मैं इस प्रकार बुरी शङ्काओं ( 23641-44 ) को क्यों ग्रहण करती हूँ अर्थात् मुझे ऐसी शङ्काएं नहीं करनी चाहिये, ( क्योंकि ) निश्चितरूपसे यह इन्द्र आदिका कपट है ( इन्द्र आदि चारों देव ही कपटसे नलरूपको धारण कर यहां आये हैं, अतः उक्त शङ्काएं मुझे नहीं करनी चाहिये; क्योंकि ) इस ( सरस्वती ) देवीने ही इन ( इन्द्रादि चारो देवों ) की ऐसी गाथाओं ( वर्णन-परक श्लोकों ) को रचा कि वे गाथाएं. ( श्लेषके द्वारा ) दिक्पालों ( इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण ) का भी स्पर्श ( वर्णन ) करती हैं, (अत एव कपटसे नलरूप धारण कर उपस्थित ये इन्द्रादि दिक्पाल ही हैं, इसमें मेरा भ्रम नहीं है)॥ 45 // एतन्मदीयमतिवञ्चकपञ्चकस्थे नाथे कथं नु मनुजस्य चकास्तु चिह्नम् ? / लक्ष्माणि तानि किममी न वहन्ति हन्त ! बहिर्मुखा धुतरजस्तनुतामुखानि ? / / एतदिति / एतेषां मदीयमतिवञ्चकानां मबुद्धिप्रतारकाणाम् इन्द्रादीनां, पञ्चके तिष्ठतीति तादृशे एतत्पञ्चकमध्यस्थे, नाथे नले, कथं नु कथमिव, मनुजस्य चिह्न मानवत्वव्याकधर्मः, चकास्तु ? स्फुरतु ? किन्तु अमी बहिर्मुखा अग्निमुखा देवाः, धुतरजस्तनुतामुखानि धुतं परित्यक्तं, रजो धूलिः,मृत्तिकास्पर्श इति यावत् यया सा
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________________ 820 नैषधमहाकाव्यम् / तादृशी तनुर्येषां तेषां भावः धुतरजस्तनुता, मुखम् आदिर्येषां तादृशानि, तानि प्रसिद्धानि, लक्ष्माणि भूमिस्पर्श स्वेद-निमेषराहित्यादीनि देवत्वव्यञ्जकचिह्नानि, हन्त खेदे, किं कथं, न वहन्ति ? तथा हि मम दुर्भाग्यादेते देवाः स्वीयासाधारणचिह्नानि सङ्गोप्यात्र तिष्ठन्ति, तत एव नलं लक्षयितुं न शक्नोमीति भावः // 46 // ___ इन मेरी बुद्धि के वञ्चक पांचोंमें स्थित प्राणेश्वर नलमें मनुष्यका ( अथवा-मेरी चिह्न...... मनुष्यका यह चिह्न ) अर्थात् पसीना आना, भूमिस्पर्श करना, निमेष (पलक ) गिरना और पुष्पमालाका म्लान होना आदि किस प्रकार प्रकाशित होवे ? ( इन्द्र आदिके कपटसे मनुष्यका पसीना आना आदि चिह्न ग्रहण करने के कारण नलके उक्त मनुष्यगत चिह्नका पृथक् मालूम नहीं पड़ना उचित है ) / खेद है कि ये बर्हिमुख ( देव, पक्षा०-विमुख अर्थात् कृपाहीन ) उन ( अतिशय प्रसिद्ध ) धूलिस्पर्श नहीं करना आदि ( पसीना नहीं आना, पलक नहीं गिरना, पुष्पमालाका मलिन नहीं होना आदि ) चिह्नों को नहीं ग्रहण करते हैं। [नलगत मानव-चिह्नके स्पष्ट नहीं रहने पर भी यदि इन इन्द्रादि देवोंसे धूलि-स्पर्शका नहीं होना आदि देव चिह्न स्पष्ट दीखते तो नलको पहचानना सरल हो जाता, किन्तु कपटी इन इन्द्रादि चारो देवोंने अपने देव-चिह्नोंका भी त्याग कर दिया है, अत एव इस अवस्थामें नलका पहचानना अशक्य हो गया है ] / / 46 // याचे नलं किममरानथवा तदर्थ नित्यार्चनादपि ने दत्तफलैरलं तैः / कन्दर्पशोषणपृषत्कनिपातपीतकारुण्यनीरनिधिगह्वरघोरचित्तैः // 47 / / याचे इति / अमरान् इन्द्रादीन् , नलं याचे किम् ? दुहादित्वात् द्विकर्मकत्वम् , अथवा तदर्थं नलप्राप्तिनिमित्तं नित्यं यदर्चनं पूजनं तस्मादपि, न दत्तफलैः मम प्राथितमप्रयच्छद्भिः, किञ्च कन्दर्पस्य शोषणः तदाख्यः, यः पृषत्कः बाणः, तस्य निपातेन पीतः शुष्कतां प्रापितः, कारुण्यनीरनिधिः कृपाब्धिः यस्मात् तथाभूतम् , अत एव गह्वरेण दम्भेन, शाठय नेत्यर्थः, मूढेयं देवानस्मान् परित्यज्य मयै नले एवानुरागिणी अत एव एनां प्रतारयान इति बुद्ध्या कपटताश्रयणेनेति भावः, 'गह्वरं बिलदम्भयोः' इति शाश्वतः, घोरं भीमं कठिनं वा, चित्तं येषां तैः कन्दाधीनतया निष्कृपचित्तेरित्यर्थः, तैः अमरैः, अलं निष्प्रयोजनम् ; ये देवाः; काममुग्धत्वात् नित्यार्चनेनापि प्रार्थितं न प्रायच्छन् तेऽधुना प्रार्थनामात्रेणैव नैव प्रार्थितं पूरयिप्यन्तीति तत्प्रार्थना वृथैवेति भावः // 47 / / मैं देवोंसे नलको माँगू ? अथवा कामदेवके शोषण बाणके गिरने से पीये गये ( सूखे हुए ) कृपासमुद्रवाले अत एव गम्भीर गह्वर (बिल ) रूप भयङ्कर चित्तवाले ( तथा इसी कारण ) नित्य पूजनसे मेरे लिए निष्फल ( पाठा०-फल (नल ) की नहीं देनेवाले ( उन देवोंसे ( नलके लिये प्रार्थना करना ) व्यर्थ है। [कामवशीभूत वे इन्द्रादि देव नलको 1. 'ममाफलिनैरलम्-' इति पाठान्तरम् /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 821 पाने के लिए सर्वदा पूजन करने पर भी इस समय कृपाशून्य होकर मुझे चाहते हुए कपटसे नलरूप धारणकर यहाँ उपस्थित हैं अर्थात् जो नित्य पूजन करने पर भी नलको नहीं दिये, वे प्रार्थनामात्रसे नलको दे देंगे यह दुराशामात्र है; अतः उनसे नलके लिए प्रार्थना करना व्यर्थ है ] // 47 // ईशा ! दिशां नलभुवं प्रतिपद्य लेखा ! वर्णश्रियं गुणवतामपि वः कथं वा / मूर्खान्धकूपपतनादिव पुस्तकानामस्तं गतं बत परोपकृतिव्रतित्वम् ? // 48 // ईशा इति / हे दिशामीशाः ! लेखाः! हे सुराः ! नलात् नैषधात् भवति इति नलभूस्तां नलभुवं नलनिष्ठां, वर्णश्रियं गौरत्वरूपसम्पदम्, अन्यत्र-नलाख्यतृणनिर्मितलेखनीभुवमक्षरसम्पदं, प्रतिपद्य प्राप्यापि, 'वर्णो द्विजादौ शुक्लादौ स्तुती वर्णन्तु चाक्षरे' इत्यमरः, गुणवतां शुद्धत्वसौन्दर्यादिगुणाढ्यानाम्, अन्यत्र-बन्धनसूत्रवतां, वो युष्माकं, मूर्खा मूढाः, ते एवान्धयन्तीत्यन्धाः कूपाः अन्धकूपाः जलशून्यपुराणकूपाः, तेषु पतनात् पुस्तकानामिव परोपकृतिव्रतित्वं परोपकारनियमवत्वं कथं वा कुतो वा, अस्तं नाशं, गतम् ? बतेति देवतोपालम्भः; नलस्य रूपधारणेन तदीयगुणा अपि युष्मासु सङ्क्रान्ताः, ततश्च तदीयपरोपकारव्रतमपि युष्मासु ध्रवं सक्रान्तं, किन्तु मद्विषये तद् व्रतं कथं विनष्टम् ? इति भावः। अन्यत्र-उत्कृष्ट लिप्यक्षरशालिनां वर्णाशुद्धिरहितानामपि पुस्तकानां मूर्खहस्तपतनेन शिशिर्वंगामुपकाराभावात् परोपकारित्वं न भवति, इति भावः // 48 // हे दिक्पाल देव ! नलकी-स्थानीय रूपशोभाको पाकर ( सौन्दर्यादि) गुणयुक्त भी आपलोगोंका-कलम बनानेका नल (नरसलनामक तृणविशेष ) से उत्पन्न अक्षर शोभा (लिपि) को पाकर गुणयुक्त (शुद्धतादि गुणसे सम्पन्न, अथवा-धागेसे युक्त ) भी पुस्तकों का मूर्खरूपी अन्धकारयुक्त ( अत्यन्त गहरे ) कूपमें गिरने ( मूर्खके हाथमें पड़ने ) के - समान-परोपकार व्रतका भाव ( पक्षा०-पढ़ने तथा सुननेवालोंके उपकाररूप नियमका भाव ) क्यों नष्ट हो गया ? [जिस प्रकार 'नरसल' नामक तृगविशेषकी कलमसे लिखी गयी गुणयुक्त पुस्तकोंको उपकारिता अन्धकारमयकूप तुल्य मूखों के हाथ में पड़नेसे नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार नल-स्थानीय रूपसौन्दर्यको पाकर गुणयुक्त आपलोगोंका परोपकार करने का नियम क्यों नष्ट हो गया ? अर्थात् स्वयमेव उपकार नहीं करने पर भी अपना अभीष्ट मुझमें दूतकार्य करनेवाले नलका रूप धारणकर उस नलके सौन्दर्यादि गुण जो आपलोगोंमें आनेसे उस नलका परोपकार गुण भी आपलोगोंमें आगया, वह परोपकारगुण मेरे विषय में क्यों नष्ट हो गया ? / मूर्खताके कारण पायी गयी पुस्तकों के द्वारा उपकार करने में असमर्थ होना तथा उन पुस्तकों को देकर दूसरों का उपकार नहीं करना मूलॊका स्वभाव होता है / मूोंके हाथमें पुस्तकों का पड़ना कुएं में गिरनेके समान ही है और उनसे किसीका उपकार नहीं होना उचित ही है ] // 48 / /
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________________ 822 नैषधमहाकाव्यम् / यस्येश्वरेण यदलेखि ललाटपट्टे तत् स्यादयोग्यमपि योग्यमपास्य तस्य / का वासनाऽस्तु बिभृयामिह यां हृदाऽहं ? नार्कातपैलजमेति हिमैस्तु दाहम् / / 49 / / यस्येति / यस्य जनस्य, ललाटपट्टे भालफलके, ईश्वरेण विधिना, यत् शुभमशुभं वा कर्मानुरूपम् , अलेखि लिखितं, तस्य जनस्य, अयोग्यम् अनहमपि, तत् शुभाशुभं कत्तः, योग्यमनुरूपं फलम्, अपास्य अनादृत्य, स्यादेव स्वयं भवेदेवेत्यर्थः, एवं स्थिते सा वासना ईश्वरेच्छानुगृहीतकर्मवासना युक्तिर्वा, का अस्तु ? सम्भावनायां लोट , का वा सम्भविता ? तन्न वेद्मीत्यर्थः, इह नलनिश्चयविषये, यां वासनाम्, अहं हृदा हृदयेन, बिभृयां धारयेयम् ? अन्यतरनिश्चये सन्देहदुःखं न स्यादित्यर्थः / तत् स्यादयोग्यमपीत्यत्र दृष्टान्तमाह-जल पद्मम्, अर्कातपैः तपनसन्तापैः, दाहं न एति, तु किन्तु, हिमैः एति, तेन ईश्वरेच्छाऽनुगृहीतकर्मवासनानुसारिणी नलप्राप्तिः, सा तु दु या इति का गतिः ? अतो देवानां न दोष इति भावः // 45 // भगवान्ने जिसके ललाटमें जो ( अयोग्य भी बात ) लिख दिया है, उसके योग्य ( बात ) को भी दूरकर वह अयोग्य बात हो जाती है, ( अतएव ) मैं ( नल-विषयक सन्देह होनेपर सत्य नलका निश्चय करनेके लिए ) जिस उपायको हृदयसे ग्रहण करूँ, वह कौन उपाय है ? कमल सूर्यताप ( उष्णप्रकृति घाम ) से नहीं जलता, किन्तु हिम ( शीतप्रकृतिक हिम ) से जल जाता है। [ सूर्यतापकी उष्ण प्रकृति होनेके कारण उसीसे कमलका जलना उचित है, शीतप्रकृतिक हिमसे नहीं; किन्तु कमलमें इसके विपरीत कार्य होता है। अतः यह निश्चित है कि भगवान्ने जिसके ललाटमें अयोग्य बात भी लिखी है, उसकी वह अयोग्य ही बात होती है योग्य नहीं, अतएव मेरे तथा नलका संयोग यदि भगवान्ने ललाटमें नहीं लिखा है तो वह किसी उपायसे भी नहीं हो सकता, इस कारण ( नलका निश्चय न कर सकने ) में मेरी ललाटलेखा ( भाग्य ) का ही दोष है इन देवताओं का नहीं ] / / 49 / / इत्थं यथेह मदभाग्यमनेन मन्ये कल्पद्रमोऽपि स मया खलु याच्यमानः। सङ्कोचसंज्वरदलाङ्गलिपल्लवाग्रपाणीभवन् भवति मां प्रति बद्धमुष्टिः // 50 // . इत्थमिति / इह समये, इत्थमेतादृशं, मम अभाग्यं मन्दभाग्यम् , अभूदिति शेषः, यथा येन, अनेन मन्दभाग्येन, सः अतिवदान्यः, कल्पद्मोऽपि मया याच्या मानः सन् , सङ्कोचो मुकुलीभावः, स एव संज्वरः सन्तापः, 'सन्तापः संज्वरः समौ' इत्यमरः, येषां तादृशानि दलान्येवाङ्गुलयो यस्य तादृशः पल्लवाग्रमेव पाणियस्य तादृगभवन् सङ्कुचितपाणीभवन् अभूततद्भावे चिः दीर्घश्च, मां प्रति बद्धमुष्टिः अमुक्तहस्तः, कृपण इत्यर्थः, भवति खलु भवत्येव, इति मन्ये; अर्थिमनोरथपूरकः
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 823 स कल्पवृक्षोऽपि मयि प्रतिषेधरूक्ष एव स्यात्तथाविधो मे भाग्यविपर्यय इति भावः॥५०॥ इस समय ( अथवा-नलकी एकता) में इस प्रकार अर्थात् नलके अनेक होनेसे जैसा मेरा अभाग्य है, इस प्रकार (या-इस कारण ) मुझसे याचना किया गया वह ( अतिशय दानी ) कल्पवृक्ष भी सङ्कोचरूपी अतिशय ज्वर (ताप ) वाले पत्ते ही हैं अङ्गलियां जिनके ऐसे पल्लवरूप हस्ताग्रवाला होता हुआ बद्धमुष्टि ( नहीं देनेके अभिप्रायसे बँधी हुई मुट्ठीवाला पक्षा०कृपण ) ही होगा। [ सर्वदा दानशील भी कल्पवृक्ष मुझे नलके लिए याचना करनेपर मेरे अभाग्यवश बद्धमुष्टि (कृपण ) हो जायेगा अर्थात् नलको नहीं देगा, अत एव मेरा कल्पवृक्षसे भी नलको मांगना व्यर्थ है। मुट्ठी बाँधनेवाले व्यक्तिके हाथकी अङ्गुलियोंका सङ्कुचित होना उचित ही है ] / / 50 / / देव्याः करे वरणमाल्यमथापये वा ? यो वैरसेनिरिह तत्र निवेशयेति / सैषा मया मखभुजां द्विषती कृता स्यात् स्वस्मै तृणाय तु विहन्मि न बन्धुरत्नम् // 51 // देव्या इति / अथवा इह पञ्चानां मध्ये, यो वैरसेनिः नलः, तत्र तस्मिन् , निवेशय संस्थापय, इति, उक्तेति शेषः, देव्याः वाणीदेव्याः, करे वरणमाल्यं पतिवरणनिमित्तं मालाम् , अर्पये ? तच्च न युज्यते इत्याह-सैषा देवी सरस्वती, मया मखभुजां देवानां, द्विषती द्वेषिणी, विद्वेषपात्रीत्यर्थः, 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्ययः। 'उगितश्च' इति ङीप् / 'द्विषः शतुर्वा' इति विकल्पात् षष्ठी, कृता स्यात् ; तथा च मत्प्रेरणया देव्या यथार्थनले वरमाल्यार्पणे कृते सति इन्द्रादीनां नलरूपधारणरूपमाया प्रकाशिता भवेत् , एवञ्च सति देव्युपरि इन्द्रादीनां विद्वेषो भविष्यतीति भावः। तृणाय तृणकल्पाय, स्वस्मै स्वार्थम् इत्यर्थः, तृणतुल्यस्य निजस्य कार्यसिद्धये इति भावः, बन्धुः रत्नमिव इति बन्धुरत्नं परमवन्धुं, तु पुनः, न विहन्मि न विरु. णध्मि तथा च देव्युपरि इन्द्रादीनां विद्वेषे जाते तद्विद्वेषस्य मन्मूलकत्वेन मदुपरि देव्याः पूर्ववत् बन्धुभावो विहतो भविष्यतीति भावः // 51 // अथवा 'इन ( पांचों नलों ) में जो वीरसेन-पुत्र ( नल ) हो, उसमें इस जयमालाको डालदो' ( ऐसा कहकर ) सरस्वती देवीके हाथमें इस जयमालाको दे दूं ?, (किन्तु ऐसा करके ) मैं ( सरस्वती देवी के द्वारा इन्द्रादिके कपटको प्रकट कराकर ) इस सरस्वतीको देवोंका शत्रु बना दूंगी, ( अत एव नलप्राप्तिरूप मेरा अभीष्ट लाभ भले न हो, किन्तु) तृणरूप अपने लिए (सरस्वतीरूप ) बन्धुरत्नको नहीं नष्ट करूंगी। [ मेरी प्रार्थनाके अनुसार सरस्वती देवीके द्वारा सत्यनलके कण्ठमें जयमाल डाल देनेपर इन्द्रादिदेव अपना कपट प्रकट हो जाने के कारण सरस्वती देवीसे विरोध करने लगेंगे, अतएव मैं ऐसा कार्य
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________________ 524 नैषधमहाकाव्यम् / कराकर तृगवत् अपने लिए सरस्वतीरूप बन्धुरत्नको नहीं नष्ट करूंगी। अन्य भी कोई चतुर व्यक्ति तृणके लिये रत्नको नष्ट नहीं करता, अतएव अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए बन्धुरत्न सरस्वती देवीको देवताओंका शत्रु बना देना उचित नहीं है ] // 51 // यः स्यादमीषु परमार्थनलः स मालामङ्गीकरोतु वरणाय ममेति वैताम् | तं प्रापयामि यदि तत्र विसृज्य लज्जा कुर्वे कथं जगति शृण्वति ? हा विडम्बः / / 52 / / य इति / अमीषु पञ्चसु मध्ये, यः परमार्थनलः स्यात् स परमार्थनलः, मम वरणाय मालां वरणस्रजम् , अङ्गीकरोतु स्वीकरोतु, तत्र सभामध्ये, लज्जां विसृज्य इति उक्त्वा वा एतां मालां, यदि तं सत्यनलं प्रापयामि तदा जगति निखिलसभास्थलोके, शृण्वति सति कथं कुर्वे ? हा कष्टं, विडम्बः परिहासः; तादृशोक्त्या मम निर्लज्जता प्रकटीभविष्यति तत् श्रुत्वा च सभास्थाः सर्वे लज्जाहीनतया मां परिहसि. प्यन्तीति भावः // 52 // इन ( पांच नलों ) में-से 'जो वास्तविक नल हो, वह मुझे वरण करने के लिए इस मालाको स्वीकार करे' ऐसा कहकर ( या इस प्रकार ) यदि जयमालाको उसे ( नलको) प्राप्त कराऊं तो स्वयंवर में लोगोंके ( मेरी इस बातको) सुनते रहनेपर लज्जाको छोड़कर मैं यह कैसे करूं ? हा कष्ट है कि यह परिहासका कार्य है [ अर्थात् मेरे ऐसे कहनेपर स्वयंवर में उपस्थित जनता मेरा परिहास करेगी कि दमयन्तीने लजाको छोड़कर इस प्रकार नलको जयमाल पहनाया ] // 52 / / इतरनलतुलाभागेषु शेषः सुधाभिः स्नपयति मम चेतो नैषधः कस्य हेतोः / प्रथमचरमयोर्वा शब्दयोर्वर्णसख्ये विलसति चरमेऽनुप्रासभासां विलासः / / ___इतरेति / एषु पञ्चसु मध्ये, इतरेषां चतुर्णा, नलानां तुलाभाक सादृश्यभाक, शेषः पञ्चमः, नैषधः कस्य हेतोः केनापि कारणेन, 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' इति षष्ठी, मम चेतः सुधाभिः स्नपयति; 'सतां हि सन्देह पदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः' इति न्यायादनेनैव सत्यनलेन भाव्यमिति मन्ये इति भावः। सत्यनलत्वप्रमापिका. महैतुकी मनःप्रीतिं दृष्टान्तेन द्रढयति-प्रथमेति / प्रथमचरमयोः पूर्वोत्तरयोः द्वयोः, शब्दयोः वर्णसख्ये अक्षरसाम्ये सत्यपि, चरमे उत्तरे शब्दे, अनुप्रासो वर्णावृत्तिलक्षणः छेकानुप्रासादि-शब्दालङ्कारः, तस्य भासां शोभानां, विलासो वा चमत्कारिता एव, 'वा स्यात् विकल्पोपमयोरेवार्थेऽपि समुच्चये' इत्यमरः, विलसति स्फुरति, तथा च अनुप्रासस्थले अन्तिमशब्दे वर्णसाम्यं यथा चमत्कारविधायकं भवति, तद्वदन्तिमे 1. 'चैताम्' इति पाठान्तरम्। 2. 'तत्तु' इति पाठान्तरम् /
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________________ त्रयोदशः सर्गः। 825 नैषधे नलसाम्यमेव मम चेतसः परमप्रीतिसम्पादकं भवति, न त्वत्र सत्यत्वं प्रयोजकं, यतः सर्वे एव समानरूपा इति भावः / अनुप्रासानां तादृशत्वे दृष्टान्तस्तु अल. कारग्रन्थे स्फुट एव, अथवा अस्यैव श्लोकस्य चरमचरणे विलस-विलासः प्रास-भास इति शब्दचतुष्टयेऽपि सम्भवति, अथवा प्रथम-शब्दप्रयोगानन्तरं चरम-शब्दे प्रयुक्ते एव तत्रानुप्रास; सम्भवति; यथा वा अत्रैवानुप्रासभासां विलास इत्यत्र सर्वसकाराश्रयत्वे अनुप्रासस्यान्तिमसकारे स्फुरणम् , एवमन्तिमबुद्धौ विपरिवर्त्तमानत्वान्नलत्वाभिमानमात्रम् , एतावता अयमेवेति निश्चयो युक्त इति भावः / अत्र दृष्टान्तालङ्कारः // 53 // अन्य ( प्रथम चार ) नलों के समान रूपवाला शेष (पांचवां ) यह नल मेरे चित्तको किस कारण अमृतोंसे स्नान करा रहा है ? अर्थात् इन प्रथम चारोंको छोड़कर यह अन्तिम नल अमृतस्नपन कराते हुएके समान मुझे क्यों रुचिकर हो रहा है ? इस कारण यही सत्य नल प्रतीत होता है / अथवा-'प्रथम तथा चरम' ( पहले तथा अन्तवाले ) शब्दों के अक्षरों में समानता रहने पर भी 'चरम' (अन्तवाले ) शब्दमें अनुप्रास (छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास आदि अलङ्कार ) चमत्कार स्फुरित होता है। [ पहले तथा अन्तवाले हाब्दोंके अक्षर समान रहने पर भी जिस प्रकार अन्तवाले शब्दमें ही अनुप्रासका चमत्कार रहता है, अथवा-इस श्लोकके ही 'प्रथम' तथा 'चरम' शब्दोमें-से अन्तवाले / 'चरम' शब्दोंमें ही अनुप्रासका चमत्कार जिस प्रकार स्फुरित होता है पहलेवाले 'प्रथम' शब्दमें नहीं, अथवा-प्रथम तथा चरम ( पहले तथा अन्तवाले ) चरणोंमें समानवर्ण होने पर भी अन्तवाले चतुर्थ चरणमें ही 'प्रास, भास, विलास'में अनुपासका चमत्कार निस प्रकार स्फुरित होता है; उसी प्रकार इन पांचों नलोंके तुल्यरूप होनेपर भी इस पांचवां नल ही मेरे चित्तको चमत्कृत करता है अतः इस चमत्कारमात्रसे इसे ही वास्तविक नल नहीं निश्चित किया जा सकता।] // 53 // इति मनसि विकल्पानुद्यतःसन्त्यजन्ती कचिदपि दमयन्ती निर्णय नाससाद / मुखमथ परितापास्कन्दितानन्दमस्या मिहिरविरचितावस्कन्दमिन्दुं निनिन्द इतीति / इति मनसि उद्यतः उत्पद्यमानान् , उत्पूर्वादिणः शत्रन्ताच्छसि पुंसि रूपम्, विकल्पान् विचारान्, सन्त्यजन्ती दोषोद्भावनद्वारा प्रतिषेधन्ती, दमयन्ती क्वचिदपि पञ्चसु एकत्रापि, निर्णयं नलनिश्चयं, न आससाद ! अथ नलनिश्चयभावानन्तरं, परितापेन आस्कन्दितानन्दं निरस्तानन्दम्, अस्याः दमयन्त्याः, मुखं मिहिरेण सवित्रा, विरचितावस्कन्दं कृततिरस्कारम्, इन्दुं निनिन्द तद्वद्दीनम् अभूदित्यर्थः। एषा च परिताप-दैन्य-शून्यत्वादिकृञ्चिन्ता अनुभावो ज्ञेयः; तदुक्तम्-'इष्टानधिगमाद् ध्यानं चिन्ता-शन्यत्व-तापकृत्' इति // 54 // इस प्रकार ( 13 / 41-53 ) मनमें उठते हुए विकल्पों ( विविध सन्देहों ) को छोड़ती
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / हुई दमयन्तीने किली ( पांच नलमें-से किसी एक ) में भी निश्चयको नहीं प्राप्त कर सकी (पांचों में से किसीको भी सत्य नल होनेका उस दमयन्तीने निश्चय नहीं किया ) / अनन्तर परितापसे आनन्दरहित इसका मुख सूर्य से पराभूत ( कान्तिहीन किये गये ) चन्द्रकी निन्दा करने लगा अर्थात् दमयन्तीका परितापयुक्त मुख दिनके चन्द्रसे भी अधिक निस्तेज हो गया // 54 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / स्वादूत्पादभृति त्रयोदशतयाऽऽदेश्यस्तदीये महा. काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 55 / / श्रीहर्षमित्यादि / स्वादूत्पादभृति मधुरार्थधारिणि / त्रयोदशतया आदेश्यः त्रयो दशत्वेन सङ्घययः / गतमन्यन् // 55 // इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु' समाख्याने त्रयोदशः सर्गः समाप्तः // 13 // कवीश्वर-समूहने........किया, उसके रचित सुन्दर नैषधचरित नामक महाकाव्यमें ( सहृदयाह्लादक होनेसे ) स्वादुरसोत्पत्तिसे युक्त अर्थात् अत्यन्त मधुर अर्थवाला यह त्रयोदश सर्ग समाप्त हुआ ? शेषव्याख्या चतुर्थसर्गवत् जाननी चाहिये / 55 / / यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित'का त्रयोदश सर्ग समाप्त हुआ // 13 // चतुर्दशः सर्गः। अथाधिगन्तुं निषधेश्वरं सा प्रसादनामाद्रियतामराणाम् | यतः सुराणां सुरभिर्गुणान्तु सा वेधसाऽसृज्यत कामधेनुः // 1 // अथेति / अथ चिन्तानन्तरं, सा भैमी, निषधेश्वरं नलम्, अधिगन्तुं लब्धुम्, अमराणाम् इन्द्रादीनां, प्रसादनाम अभिमुखीकरणं, पूजादिना सन्तोषसम्पादनमित्यर्थः, आद्रियत अमोघसाधकत्वेन अवालम्बतेत्यर्थः / अमोघसाधकत्वमेव समर्थयते यतः पुरा वेधसा सुराणां कामानां धेनुः कामधेनुः कामदुघा, सुरभिः काचन गौः, असृज्यत, नृणान्तु सा सुरप्रसादनैव, कामधेनुः असृज्यत, या यस्य कामान् दुग्धे गौरगौना सैवास्य कामधेनुरिति भावः / अत्र अमरप्रसादनायाः कामधेनुत्वेन रूप. णाद्रपकालङ्कारः॥१॥ इस ( प्रकार विकल्प या चिन्ता करने ) के बाद उस ( दमयन्ती ) ने निषधराज ( नल ) को पानेके लिए देवोंके पूजनका आदर किया अर्थात् देवोंको षोडशोपचार पूजनसे
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 827 उन्हें प्रसन्न कर नलको पाने में श्रेयस्कर समझा, क्योंकि ब्रह्माने देवों के लिए सुरभि (गो-विशेष) को कामधेनु ( मनोरथको पूरा करनेवाली ) बनाया है और मनुष्यों के लिए तो उस (देवपूजा ) को ही कामधेनु बनाया है / [ देवों की इच्छाको पूर्ण करनेवाली 'सुरभि' नामक गौ तथा मनुष्योंकी इच्छाको पूर्ण करनेवाली 'देव-पूजा' ही है, अतएव दमयन्तीका उक्त विचार करना परमोत्तम मार्ग था ] // 1 // . 'प्रदक्षिणप्रक्रमणालवालविलेपधूपावरणाम्बुसेकैः / इष्टञ्च मृष्टश्च फलं सुवाना देवा हि कल्पद्रमकाननं नः॥२॥ प्रदक्षिणेति / प्रदक्षिणप्रक्रमणं प्रदक्षिणरूपेण परिक्रमणम् एव, आलवालं वृक्षमूले जलधारणार्थं सेतुविशेषः, तथा विलेपश्चन्दनादिचर्चा, स एव विलेपः पिण्याकादिलेपः, धूपो दशाङ्गादिधूपः, स एव दोहदधूपश्च, आवरणमङ्गदेवतापरिवेष्टनं, तदेव शाखावरणम् , अम्बुसेकोऽभिषेकः, स एव मूलेषु जलसेकः, तेषां द्वन्द्वः तैः करणैः, इष्टञ्च प्रियञ्च, मृष्टञ्च अवदातञ्च, फलमीप्सितं वस्तु, तदेव फलं सस्यं, 'सस्ये हेतुकृते फलम्' इत्यमरः, सुवाना जनयन्तः, सूतेः कर्तरि लटः शानजादेशः. देवा हि देवा एव, नोऽस्माकं नृणां, कल्पद्रुमाणां काननं वनम् / अत्र प्रदक्षिणप्रक्रमणाद्यालवालाद्यवयवरूपणाद् देवेषु कल्पद्रुमरूपणाच समस्त वस्तुविवर्तिसावयवरूपकम् // 2 // प्रदक्षिणा में भ्रमणरूप थाला, चन्दनादि-चर्चारूप खली आदिका लेप, (दशाङ्ग ) धूपरूप दोहद धूप, अङ्ग-प्रत्यङ्ग देवताका परिवेष्टन (या वस्त्रादि पहनाना) रूप चौतरफा रक्षार्थ घेरा डालना ( बाढ़ बनाना ) और जलाभिषेकरूप सींचना-अथवा-प्रदक्षिणमें भ्रमण रूप थालेमें चन्दनचर्चन दशाङ्गधूप तथा अङ्ग-प्रत्यङ्ग देवताका परिवेष्टन (पाठा०-... धूपोंका आचरण )-रूप जलसिञ्चनसे अभीष्ट तथा स्वभावसुन्दर फल अर्थात मनोरथ ( पक्षा०-अभिलषित तथा स्वादिष्ट फल आम आदि ) को उत्पन्न करते हुए देव हमलोगों के ( लिए ) कल्पद्रुमों के वन हैं। [ जब एक भी कल्पद्रुम सबका मनोरथ पूरा करता है तो कल्पद्रुमोंका वन होनेपर मनोरथ के पूरा होनेमें क्या सन्देह है ?, अतः पूजाद्वारा देवरूप कल्पद्रुमवनसे नलको पानेके लिए प्रयत्न करनेका दमयन्तीने बहुत सुन्दर उपाय सोचा]।।२।। 1. अस्मात्पूर्व 'प्रकाश' व्याख्यायां वक्ष्यमाणश्लोकः क्षेपकरूपेण दृश्यते / स यथा. 'अथाधिगन्तुं निषधेशमेषां प्रसादनं दानवशात्रवाणाम् / अचेष्टतासौ महतीष्टसिद्धिराराधनादेव हि देवतानाम् // ' इति / अत्र 'सुखावबोध'व्याख्याकारः–'पूर्वोक्त एवार्थो भङ्गयन्तरेण निबद्धः, अत एव पाठान्तरम् / केचिदादर्शपुस्तकेषु स्वयं श्लोको नास्त्येव' इत्याहुः / 2. 'चरणाम्बु' इति पाठान्तरम् / 52 नै० उ०
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________________ 828 नैषधमहाकाव्यम् / श्रद्धामयीभूय सुपर्वणस्तान ननाम नामग्रहणायकं सा | सुरेषु हि श्रद्दधतां नमस्या सर्वार्थनिध्यङ्गमिथःसमस्या / / 3 / / श्रद्धेति / सा दमयन्ती, श्रद्धा विश्वासः, तन्मयी तयुक्ता भूत्वा श्रद्धामयीभय 'अभूततनावे च्चौ समासे क्त्वो ल्यबादेशः'तान् सुपर्वणो देवान् , नामग्रहणायकम् अमुकदेवाय नम इत्यादि नामोच्चारणपूर्वकं यथा तथा, ननाम प्रणामं कृतवती ।हि यतः, सुरेषु विषये श्रद्धतां विश्वसतां, नमस्या नमस्कारः, श्रद्धापूर्वकनमस्कार इत्यर्थः, नमस्यतेः क्यजन्तात् 'अ प्रत्ययात्' इति स्त्रियाम् अ-प्रत्यये टाप, सर्वेषामर्थानां निधौ पूरणविषये, यान्यङ्गानि साधनानि, तेषां मिथः रहसि, अन्यानपेक्षमेवे. त्यर्थः, किमपि आडम्बरमकृत्ववेति यावत् , समस्या समासार्था, संयोजनकारिका इत्यर्थः, सर्वार्थसाधिका इति यावत् , समस्यते सङ्क्षिप्यते अनयेति समस्या, संपूर्वा दस्यतेः क्यबन्तात् 'अ प्रत्ययात्' इति स्त्रियाम् अ-प्रत्यये टाप, 'मिथोऽन्योन्यं रहा स्यपि', 'समस्या तु समासार्था' इति चामरः, सति नमस्कारे सर्वसाधनं फलदं नान्यथेति सा नमश्चकारेति निष्कर्षः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तर न्यासालङ्कारः॥३॥ "विश्वासयुक्त ( या-बहुत आस्तिक्यवाली ) होकर उस ( दमयन्ती ) ने पहले नामोच्चा रणकर ( 'इन्द्राय नमः' इत्यादि कहकर ) उन ( इन्द्रादि ) देवोंको नमस्कार किया, क्योंकि देवोंमें श्रद्धालुलोगोंका नमस्कार सब प्रयोजनोंकी पूर्तिमें दूसरेकी अपेक्षाके विना संयोजक ( पाठा०-सब प्रयोजनोंकी सिद्धि के अङ्गोंके परस्सर पूरणका कारण ) है। [ जिस प्रकार समस्या सब अर्थको पूर्ण पद्यरूप बनकर पूरा करती है, उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक किया गया देव-नमस्कार भी नमस्कर्ताओं के सब प्रयोजनोंको दूसरे किसी आडम्बरके विना पूरा करती है ] // 3 // यत्तानिजे सा हृदि भावनाया बलेन साक्षादकृताखिलस्थान् | अभूदभीष्टप्रतिभूः स तस्या वरं हि दृष्टा ददते परं ते // 4 // यदिति / सा भैमी, भावनाया बलेन ध्यानदाढर्थेन, अखिलस्थान् सर्वगतान् , तान् देवान् , निजे हृदि साक्षादकृत साक्षात् कृतवती, करोतेः कर्तरि लुङ तङ, 'हस्वादङ्गात्' इति सिचो लोपः, इति यत्, स साक्षात्कार एव, तस्या भैम्याः, अभीष्टे इष्टार्थसिद्धी, प्रतिभूर्लग्नकः, अभूत् ; हि यतः, ते देवाः, दृष्टाः प्रत्यक्षीभूताः, चेत् तदा इति पदद्वयमत्राध्याहरणीयम् ; परमवश्यं, वरं ददते / 'न दातुं देवा वरमर्हन्ति म प्रत्यक्षदृष्टा मनुष्येभ्यः' इति श्र तिः। अत्र कारणेन कार्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्या. सालङ्कारः॥४॥ 1. 'सिद्धयङ्ग' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 529 उस ( दमयन्ती ) ने सर्वत्र विद्यमान उन देवोंका ध्यानके सामर्थ्य ( या दृढता) से जो साक्षात्कार किया, वह ( साक्षात्कार, ही ) उसके अभीष्ट का प्रतिभू ( जमानतदार या दानका निश्चायक ) हुआ। क्योंकि (ध्यान आदिके द्वारा) देखे गये वे ( देव ) उत्तम वरको देते हैं अर्थात् देवदर्शन कदापि निष्फल नहीं होता // 4 // सभाजनं तत्र ससर्ज तेषां सभाजने पश्यति विस्मिते सा / आमुद्यते यत् सुमनोभिरेवं फलस्य सिद्धौ सुमनोभिरेव // 5 // सभाजनमिति / सा भैमी, तत्र सभायां, विस्मिते अकस्मादत्यादरेण देवानां पूजारम्भदर्शनादाश्चर्यान्विते, सभाजने सभ्यजने, पश्यति पश्यन्तं तम् अनादृत्ये. त्यर्थः, 'षष्ठी चानादरे' इति चकागदनादरे सप्तमी, तेषां देवानां, सभाजनम् आनन्दनं, पूजादिना सन्तोषसम्पादनमित्यर्थः, 'अथ द्वे आनन्दनसभाजने / आप्रच्छनम्' इत्यमरः, मालत्यादिषु संस्कारञ्च इत्यपि गम्यते; ससर्ज चकारेत्यर्थः / किमर्थं सुरा. र्चनमित्याशङ्कय सन्तुष्टा एव ते फलं ददतीत्यर्थान्तरं न्यस्यति, यत् यस्मात् सभाजनात् , सुमनोभिः उदारचित्तः पण्डितैःवा, मालत्यादिभिश्च, सुमनोभिर्देवैः पुष्पैश्च, 'मालत्यां पण्डिते पुष्पे देवे च सुमनोऽभिधा' इति विश्वः, फलं हेतुसाध्यं सस्यञ्च, 'सस्ये हेतुकृते फलम्' इत्यमरः, तस्य सिद्धौ सिद्धिप्रसङ्गे, फलदानविषये इत्यर्थः, एवम् इत्थम् , आमुद्यते एव सन्तुष्यते एव, सद्गन्धविशिष्टीभूयते च, मुद्यतेर्भावे लट् / 'आमोदो हर्षगन्धयोः' इत्यमरः, सुमनसा मालत्यादीनां फलपुष्पदानदर्शनात् सुरे सुमनस्त्वेन तथात्वनिश्चयात्तदामोदार्थ तत्सभाजनमन्वतिष्ठदित्यर्थः। अत्रोभयेषाम् अपि सुमनसाम् उभयोरप्यामोदयोश्च फलयोरभेदाध्यवसायनायमर्थान्तरन्यासालङ्कारः // 5 // ___ उस ( दमयन्ती) ने वहां पर अर्थात् स्वयम्बर सभामें ( तत्काल देव-पूजन आरम्भ करने के कारण ) आश्चर्यित सदस्यों के देखते रहनेपर ( या- उन सदस्योंका अनादर कर ) उन ( इन्द्रादि देवों) का पूजन ( या-प्रसादन, अथवा-मालती आदिका संस्कार ) आरम्भ कर दिया, क्योंकि फल ( मनोरथ, पक्षा०-आम आदिके फल ) की सिद्धि में प्रशस्त मनवालों ( या पण्डितों, या सजनों ) से ही देव प्रसन्न ( पक्षा० --पुष्प विकसित या सुगन्धियुक्त ) होते हैं / ( अथवा-क्योंकि से इसी प्रकार देव प्रसन्न... ) / [ फल लगने में पुधके विकसित होने के समान मनोरथ-सिद्धि में देवोंका प्रसन्न होना आवश्यक होनेसे दमयन्तीने उन्हें प्रसन्न किया ] / / 5 / / / वैशद्यहृद्युम्रदिमाभिरामैरामोदिभिस्तानथ जातिजातैः। आनर्च गीत्यन्वितषट्पदैः सा स्तवप्रसूनस्तबकनवीनैः।। 6 / / वैशयेति / अथ पूजानन्तरं, सा दमयन्ती, तान् देवान् , वैशद्यमर्थव्यक्तिः, अन्यत्र-विकासश्च, तेन हृीः हृदयप्रियः, 'हृदयस्य प्रियः' इति यत्-प्रत्ययः, 'हृद.
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________________ 830 नैषधमहाकाव्यम् / यस्य हृल्लेखयदण्लासेषु' इति हृदादेशः, नदिमा शब्दार्थमाधुर्यम् , अन्यत्र-सौकु. मार्य, तेनाभिरामैः, आमोदयन्तीत्यामोदिनः 'मुदेय॑न्तात्ताच्छील्ये णिनिः' अन्यत्रआमोदः सौरभमेषामस्तीत्यामोदिनः 'मत्वर्थीय इनिः' तैरामोदिभिः प्रीतिजननैः सुग न्धिभिश्च, जातयः आर्यादीनि छन्दांसि मालत्यश्च, तजातैः तदुद्भवः, आर्यादिजातिच्छन्दोनिबद्धैः मालत्यादिग्रथितैश्च, गीत्यन्विता गीतिच्छन्दोनिबद्धाः, षट्पदाः गाथाविशेषा येषु तैः, अन्यत्र-झङ्कारयुक्तभ्रमरैः, नवीनैः अभिनवैः, स्तोत्रैः, प्रसूनस्तबकैः कुसुमगुच्छश्च, आनर्च अर्चयामास, स्तवैः पुष्पाञ्जलिभिश्च पूजयामासेत्यर्थः / अौंवादिकालिटि, 'अत आदेः' इत्यभ्यासदीर्घः तस्यानर्च / अत्र स्तवानां प्रसूनस्तब. कानाञ्चोभयेषाम् अपि अर्चनसाधनत्वेन प्रकृतानामेकाचनक्रियाभिसम्बन्धात् केवलप्रकृतविषया तुल्ययोगिता, लक्षणन्तु उक्तं प्राक॥६॥ इस ( देव-सभाजन ) के बाद उस ( दमयन्ती) ने विशदता ( प्रसादगुण, अथवाशब्दार्थालङ्कार के होने तथा अपशब्द-भावशून्यतादि दोष रहित होने, पक्षा०-शुभ्रता ) से हृदयग्राही, मृदुता ( निष्ठुर वर्णादिसे रहित होने के कारण शब्द-माधुर्य, पक्षा० -कोमलता ) से मनोहर, हर्षजनक ( पक्षा०-सुगन्धियुक्त ), जाति (26 अक्षरोंके चरणोंवाले छन्दों या अनुष्टुप् आदि ) से रचित ( पक्षा०–मालतीसे बने हुए ), 'गीति' नामक छन्दोविशेषमें रचित छः चरणोंकी गाथाओंवाले ( पक्षा०-गूंजते हुए भ्रमरोंवाले ) नये (तत्काल बनाये अर्थात् रचे ( पक्षा०-गुथे ) गये स्तुतिरूप पुष्पोंके गुच्छोंसे उन (देवों) की पूजा की। ('हृत्पद्मसमन्यधिवास्य बुद्धया दध्यावथैतानियमेकताना / सुपवेणां हि स्फुटभावना या सा पूर्वरूपं फलभावनायाः // 1 // हृदिति / अथ पूजानन्तरमिय मेकतानाऽनन्यवृत्तिस्तत्परा सती हृद्येव पद्मे तद्रूपे गृहे एतानिन्द्रादीन् बुद्धयाऽधिवास्याधिष्ठाप्य दध्यो / सर्वगतानामपि देवानां हृदये बुद्धया समारोपितं रूपं ध्यानेन साक्षादकृतेति यावत् / हि यस्मात्सुपर्वणां देवानां या स्फुटा भावना ध्यानबलेन प्रत्यक्षता सा फलभावनायाः कार्यसिद्धेः पूर्वरूपं प्रथम स्वरूपम् / कारणस्य कार्यापेक्षया नियतप्राग्भावित्वाद्देवानां प्रत्यक्षतायाः कार्यमानं प्रति कारणत्वात्कार्यकारणसामग्रीरूपां देवताप्रत्यक्षतां ध्यानेनाकृतेत्यर्थः / पूजायाः पूर्वमनन्तरञ्च ध्यानस्येष्टत्वात् 'यत्तान्-'(१४।४) इत्यस्यास्य (147) च श्लोकस्य न पौनरुक्त्यम् / 'उपान्वध्याङ्वसः' इत्यत्राण्यन्तस्य वसेर्ग्रहणात् 'स्वहस्तदत्ते. 1. अयं श्लोको म. म. मल्लिनाथेन न व्याख्यात इत्यतो मयाऽसौ 'नारायणभट्ट' कृत 'प्रकाश' व्याख्यया सार्धमिहोपन्यस्तः। 2. 'सुखावबोधव्याख्यायान्तु' यत्तान्-(१४४) इति श्लोकोत्तरमेतमपि व्या. ख्याय 'पूर्वोक्तार्थ एवायं निबद्धः / अत एव पाठान्तरम्' इत्युपसंहृतम् / अत एब 'जीवातौ' न व्याख्यायि इति म. म. शिवदत्तशर्माणः /
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________________ 831 चतुर्दशः सर्गः। मुनिमासने-' (माघ 1 / 15) इतिवण्ण्यन्तस्य वसेः प्रकृत्यन्तरत्वात् 'हृत्पद्मसद्मनी' त्याधारस्य न कर्मत्वम् // 1 // ) ____ इस ( देव-पूजन ) के बाद इस ( दमयन्ती) ने एकाग्र चित्त होकर हृत्पद्मरूप गृहमें इन ( इन्द्रादि देवों ) को बसा ( स्थापित ) कर ( पुनः ) ध्यान अर्थात् ध्यानसे साक्षात्कार किया; क्योंकि देवोंकी जो स्पष्ट भावना ( ध्यानादिके द्वारा साक्षात्कार ) है, वह फलभावना . ( कार्यसिद्धि ) का पूर्वरूप है। [ कार्यके पहले कारणका होना अत्यावश्यक होनेसे यहांपर देवोंके साक्षात्कारका समस्त कार्यों के प्रति कारण होनेसे दमयन्तीने पहले कारण-सामग्रीरूप देव-प्रत्यक्षताको ध्यानसे किया / पूजाके आरम्भ तथा अन्तमें ध्यान करना आवश्यक होनेसे पूर्वोक्त 'यत्तान्-' ( 14 / 4 ) तथा इस श्लोक की पुनरुक्तिका दोष नहीं होता ] // 1 // भक्त्या तयैव प्रससाद तस्यास्तुष्टं स्वयं देवचतुष्टयं तत् / स्वेनानलस्य स्फुटतां यियासोः फूत्कृत्यपेक्षा कियती खलु स्यात् ?||7|| भक्त्येति / स्वयं स्वत एव, सेवादिकं विनाऽपि पूर्व तच्चारित्र्यदायादेवेत्यर्थः, तुष्टं सन्तुष्टं, तत् प्रकृतं, देवचतुष्टयम् इन्द्रादिदेवचतुष्कं, तस्या भैम्याः , तया भक्त्या एव क्षणकालकृतसेवयव, प्रससाद अनुजग्राह, एवकारस्त्वविलम्बसूचनार्थः। तथा - हि, स्वेन स्वत एव, स्फुटतां व्यक्तता, प्रज्ज्वलितत्वमित्यर्थः, यियासोः यातुमिच्छोः, अनलस्य वह्नेः, फूत्कृतेः फूत्कृतस्य, फूत्कारमारुतस्य इत्यर्थः, अपेक्षा कियती खलु स्यात् ? नात्यन्तम् अपेक्षते इत्यर्थः; स्वत एव प्रसन्नस्य देवगणस्य तत्कृता भक्तिः स्वत एव प्रज्ज्वलिष्यतोऽग्नेः फूत्कृतिरिव झटिति कार्यप्रादुर्भावमात्रफला अन्यथाऽपि प्रज्ज्वलनवत् प्रसादावश्यम्भावादिति भावः / अत्र वाक्यद्वये भक्तिफूत्कृत्योः कार्यान. पेक्षितत्वलक्षणसमानधर्मस्यैव फूत्कार-कियच्छब्दाभ्यां बिम्बप्रतिबिम्बतया उक्तेदृष्टा. न्तालङ्कारः; 'विम्बानुबिम्बन्यायेन निर्देशे धर्मधर्मिणाम् / दृष्टान्तालकृति या भिन्नवाक्यार्थसंश्रया // ' इति विद्याचक्रवर्तिलक्षणात् // 7 // ( स्वयंवरसे पहले दमयन्तीद्वारा की गयी पूजादिके द्वारा पहलेसे ) स्वयं प्रसन्न वे इन्द्रादि चारों देव उस ( दमयन्ती ) की उस (तत्कालकी गयी थोड़ी ही) भक्तिसे ही प्रसन्न हो गये / स्वयं स्पष्ट होनेवाली ( जलनेवाली) अग्निको फूंकने की कितनी अपेक्षा होती है अर्थात बहुत कम होती है / ( पङ्खा आदिके द्वारा हवा करने के कारण शीघ्र जलनेवाली अग्नि बहुत थोड़ा फूंकनेसे जलने लगती है, अतः स्वयं प्रसन्न उन इन्द्रादि चारों देवोंका दमयन्ती की थोड़ी भक्तिसे प्रसन्न होना उचित ही है ] // 7 // प्रसादमासाद्य सुरैः कृतं सा सस्मार सारस्वतसूक्तिस्सृष्टेः / देवा हि नान्यद् वितरन्ति किन्तु प्रसद्य ते साधुधियं ददन्ते // 8 // 1. 'तस्याश्चरित्रादथ ते पवित्रात्प्रागेव हृष्टा झटिति प्रसेदुः' इत्यपि पाठः स्पष्टार्थः' इति नारायणभट्टाः।
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________________ 832 नैषधमहाकाव्यम् / प्रसादमिति / सा भैमी, सुरैः कृतं प्रसादमनुग्रहम् , आसाद्य सरस्वत्या इयं सारस्वती तस्याः सूक्तिसृष्टेः 'अत्याजि' इत्यादेः पूर्वसर्गोक्तश्लिष्टोक्तिगुम्फस्य, सस्मार तदर्थतत्त्वं जज्ञावित्यर्थः 'अधीगर्थ-' इत्यादिना कर्मणि शेषे षष्ठी / तस्याः नलप्राप्तौ देवानां कोऽयमनुग्रहो यत् सारस्वतसूक्तिपरिज्ञानमात्रम् ? तत्राह,-हि यतः, ते देवाः प्रसद्य अनुगृह्य, सदेः क्त्वो ल्यप् , अन्यत् बुद्धेरन्यत् किञ्चित् देयमित्यर्थः न वितरन्ति, किन्तु साधुधियं फलप्राप्त्युपायपरिज्ञानं, ददन्ते प्रयच्छन्ति, 'दद दाने' इति धातोभीवादिकाल तङ्, तदाहुः,-'न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् / यं हि रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्ति तम् // इति // 8 // उस ( दमयन्ती ) ने देवों के द्वारा की गयी प्रसन्नताको प्राप्तकर अर्थात् इन्द्रादि देवों के प्रसन्न होनेपर सरस्वती देवीके श्लेषमयी सुन्दर उक्तियों के समूह (या-रचना) का स्मरण किया अर्थात् सरस्वतीके कहे हुए श्लेषयुक्त वचनोंसे उत्पन्न सन्देहको छोड़कर वास्तविक अर्थका स्मरण होनेसे वास्तविक नलको पहचान लिया, यह निश्चित है कि देव दूसरा कुछ नहीं देते, किन्तु वे प्रसन्न होकर अच्छी (ग्राह्याग्राह्यज्ञानयुक्त ) बुद्धि देते हैं / [ उस देव. प्रदत्त सद्बुद्धि के द्वारा ही दमयन्तीने सरस्वतीके श्लिष्ट वचनों के द्वारा कहे गये अनेक अर्थोंको छोड़कर स्वाभीष्टसाधक अर्थका ज्ञान होनेसे वास्तविक नलको पहचान लिया ] // 8 // शेषं नलं प्रत्यमरेण गोथा या या समार्था खलु येन येन / तां तां तदन्ये न सहालगन्तों तदा विशेष प्रति सन्दधे सा // 9 // शेषमिति / या दमयन्ती शेषं पञ्चमं परमार्थ, नलं प्रति, विरचितेति शेषः, या या गाथा 'अत्याजिलब्ध' इत्यादिको यो यः श्लोकः, येन येन अमरेण देवेन, समार्था समानाभिधेया, खलु, अत एव तदन्येन ततस्ततः, मुख्यार्थरूपात् इन्द्रादेरित्यर्थः, अन्येन श्लेषमहिम्ना प्रतीयमानेन सत्येन नलेन, सह अलगन्तीम् असङ्गतां, तत्परत्वेनानिश्चितामिति यावत् , तां तां गाथां, तदा देवतानुग्रहलब्धस्मृत्युबोधकाले, विशेष प्रति सत्यनलं प्रति, सन्दधे नलपरत्वेन योजयामासेत्यर्थः; इत्यादिपरत्वशङ्का विहाय नलपरत्वं निश्चिकायेति तात्पर्यार्थः // 9 // उस ( दमयन्ती ) ने शेष ( इन्द्रादि चारों देवोंसे बाकी बचे हुए ) नलके प्रति ( सरस्वती देवीके द्वारा कही गयी ) जो जो गाथा ( 'अत्याजि-' इत्यादि चार 13.17-30 श्लोक ) जिस-जिस ( देव अर्थात् क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण) के साथ समान अर्थवाली थी, अत एव उस-उस ( मुख्यार्थरूप इन्द्र आदि ) से भिन्न (श्लेषद्वारा प्रतीयमान वास्तविक नल, अथवा-अग्नि आदि ) के साथ नहीं लगती हुई अर्थात् असङ्गत उस उस गाथाको तब ( इन्द्रादिके प्रसन्न हो जानेपर ) विशेष अर्थात् वास्तविक नलके प्रति लगाया अर्थात् इलेष द्वारा प्रतीयमान इन्द्रादि चारों देवोंको छोड़कर इस गाथाको वास्तविक नलके लक्ष्यसे सरस्वती देवीद्वारा कही गयी मानकर उस ( वास्तविक नल ) का निश्चय किया। ( अथवा-शेष इन्द्रादिसे पांचवें स्थानपर बैठे हुए वास्तविक नलको लक्ष्यकर जो-जो गाथा
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________________ चतुदेशः सर्गः। 823. जिस-जिस इन्द्रादिके साथ ( ब्रूमः किमस्य-' आदि चार गाथाएं ( 13 // 3-6) इन्द्रके साथ, 'एष प्रतापनिधिः-' आदि चार गाथाएं (339-12) अग्निके साथ, 'दण्डं बिभर्ति-' आदि चार गाथाएं ( 13 / 15-18 ) यमके साथ तथा 'या सर्वतो-' आदि चार गाथाएं (13 / 2124 ) वरुणके साथ ) तुल्य अर्थवाली थीं, उस ( दमयन्ती ) ने तब ( इन्द्रादि देवों के प्रसन्न होकर सद्बुद्धि देनेके बाद ) उस-उस इन्द्रादिरूप मुख्यार्थसे इलेषशक्तिके सामर्थ्य से प्रतीयमान नलरूप अर्थके साथ निश्चित रूपसे नहीं लगती अर्थात् असम्बद्ध अर्थवाली होती हुई उस-उस गाथा को विशेष ( अपने-अपने आकार धारण करने से भिन्न इन्द्रादि देवों) के प्रति संयुक्त किया अर्थात् (ब्रमः किमस्य-' (1333) से लेकर 'शोणं पदप्रणयिनं-' (13 / 24) तक श्लेषार्थयुक्त चार-चार गाथाओंको इन्द्रादिके तथा सब गाथाओंको नलके साथ सम्बद्ध होनेसे इन्द्र के लक्ष्यसे कही गयी 'ब्रमः किमस्य-' आदि चार गाथाओं ( 13:3-6 ) को केवल इन्द्रविषयक, 'एष प्रतापनिधि-' आदि चार गाथाओं ( 139-12 ) को अग्नि-विषयक, 'दण्डं जिभर्ति-' आदि चार गाथाओं (13 15-18 ) को यम-विषयक और 'या सर्वतो-' आदि चार गाथाओं ( 13021-24 ) को वरुण-विषयक ही समझा-इन गाथाओं को नल-विषयक नहीं समझा अर्थात् जो चार गाथाएं इन्द्र तथा नल दोनों का वर्णन श्लेषशक्ति के द्वारा करती थीं उन्हें-उन्हें केवल इन्द्रविषयक ही समझा नल-विषयक नहीं, इसी प्रकार अग्नि, यम तथा वरुणके साथ नलका भी श्लेषशक्तिके द्वारा वर्णन करनेवाली 4-4 गाथाओंको अग्नि-यम-वरुण-विषयक ही समझा; नल-विषयक नहीं ) // 9 // एकैकवृत्तेः पतिलोकपालं पतिव्रतात्वं जगृहुर्दिशां याः। वेद स्म गाथा मिलितास्तदाऽसावाशा इवैकस्य नलस्य वश्याः / / 10 / / एकैकेति / या गाथाः 'अत्याजि' इत्यादयः श्लोकाः, एकैकस्मिन् लोकपाले वृत्तेः वर्तमानाद्धेतोः, प्रतिलोकपालं प्रत्येकदिकपालं प्रति, दिशां पूर्वादीनां. पतिव्रतात्वं जगृहः तत्साम्यान् प्राच्यादिदिश इव इन्द्रायेकैकलोकपालपरा बभूवुरित्यर्थः, तदा देवताप्रसादकाले, असौ भैमी, मिलिताः समस्ताः, गाथा आशा दिश इव, एकस्य नलस्य वश्याः वशङ्गताः, नलमात्राभिधायिनीरित्यर्थः, 'वशं गत' इति यत् प्रत्ययः, वेद स्म 'लट स्मे' इति भूते लट , 'विदो लटो वा' इति णलादेशः आशानां प्रत्येकम् इन्द्रायेकैकलोकपालपरत्वेऽपि सर्वासां पूर्वादिदिशां यथा चक्रवर्तिनलैकवश्यत्वात् नलपरत्वं तथा गाथा अपि आपातत एककश एकैकलोकेशपरतया प्रतीता अपि सामस्त्येन नलपरा एवेति विवेदेत्यर्थः, तस्य सर्वाशाविजयित्वादाशानां तत्परत्वं गाथानान्तु देव्याः चतुरोक्तिभङ्गिपर्यालोचनयेति भावः // 10 // जो ( 'अत्याजि-' इत्यादि चार (13 / 27-30) गाथाएँ एक-एक (इन्द्रादि चारों देवोंमें-से प्रत्येक गाथा क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण ) में वर्तमान रहनेसे प्रत्येक लोकपाल (इन्द्रादि चारों देवों ) के प्रति दिशाओं ( पूर्व, अग्नि कोण, दक्षिण तथा पश्चिम)
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________________ 934 नैषधमहाकाव्यम् / के पातिव्रत्य को ग्रहण करती अर्थात् कहती थीं, मिली हुई उन ( चारों ) गाथाओंको तब ( इन्द्रादि चारों देवों के प्रसन्न होनेपर ) इस ( दमयन्ती ) ने मिलित दिशाओं ( दश दिशाओं) के समान केवल नलके वशीभूत समझा। [ पहले उक्त चारों गाथाओं में से एक-एक गाथाओं द्वारा समानार्थक होनेसे नलके बोधके साथ-साथ क्रमशः इन्द्रादि चारों देवोंके पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण तथा पश्चिम दिशाओंके पति होनेका बोध होता था; किन्तु इन्द्रादिके प्रसन्न हो जानेपर उन चारो गाथाओं को दमयन्तीने चक्रवर्ती नलको सब दिशाओंका स्वामी होनेसे नलार्थक ही समझा ] // 10 // ( या पाशिनैवाशनिपाणिनैव गाथा यमेनैव समाग्निनैव / तामेव मेने मिलितां नलस्य सैषा विशेषाय तदा नलस्य // 1 // येति / 'किं ते–' (13 / 30) इत्यादिर्या गाथा पाशिनैव वरुणेनैव समा तुल्यार्था न बन्येनेन्द्रादिना, या च 'अत्याजि-' (13 / 27) इत्यादिर्गाथा अशनिपाणिनेन्द्रेणैव समा न स्वन्येन देवेन, या च 'यच्चण्डिमा-'(१३।२९) इत्यादिर्गाथा यमेनैव समा न त्वन्येन, या च 'येनामुना-' (12 / 28) इत्यादिरग्निनैव तुल्या न त्वन्येन, नलस्य सम्बन्धिनों मिलितां समुदितां चतुष्टयरूपां तां गाथामेव तदा देवप्रसादानन्तरं सैषा भैमी नलस्य विशेषायेन्द्रादिभ्यो भेदज्ञानाय मेने / इन्द्रादीनामेकैकस्यामेव गाथायां वर्तमानत्वात् , नलस्य तु सर्वत्रानुगतत्वात् 'अत्याजि-' इत्यादिगाथाचतुष्टय (13 / 24-30) प्रतिपाद्यो यः, स एव नल इति तामेव गाथां मिलितां नलस्य भेदज्ञापिकामज्ञासीदिति भावः। या नलस्य गाथेति वा सम्बन्धः / या पाशिनैवेन्द्रेणैव, यमेनैवाग्निनैव समा गाथा नलस्य सम्बन्धिनी मिलितां तामेवानलस्य नलव्यतिरिक्तस्येन्द्रादेर्भदाय मेने। मिलितया तया कृत्वा नले निश्चिते सति नान्तरीयकत्वात्तदितरे देवा अपि तयैव निश्चिता इति भाव इति वा मिलितां तामेव गाथां नलस्य विशेषाय तथा नलेतरस्येन्द्रादेर्भदाय मेने इति वा व्याख्बेयम् / या पाशिनैवेत्यादेवकारान् परस्परसमुच्चयार्थानप्यङ्गीकृत्य या नलसम्बन्धिनी गाथा पाशिनाऽपि, इन्द्रेणापि, यमेनापि, अग्निनापि तुल्यार्थाऽभूत् तां 'देवः पतिः-' (13 / 33) इत्यादि मिलितां पञ्चाएँ गाथां देवप्रसादादनन्तरं नलस्यैव विशेषाय मेने / देवैः प्रसन्नैः स्वीयस्वीयाकारेषु श्तेषु पञ्चार्थत्वेन प्रतिभातामपोदानामेकस्य नलस्यैव प्रतिपादिकामज्ञासीदिति भाव इति / 'देवः पतिः- (13 / 33) इतीयमेव गाथा विषय इति ज्ञेयम् / अवधारणार्थेष्वप्येवकारेष्वियमेव गाथा विषय इति व्याख्येयम् / अयं श्लोकः शेषं नलं-' (14 / 9) 'एकैकवृत्तेः-' (14 / 10) इति श्लोकाभ्यां समानार्थः / अनलस्येति प्रत्येकपर्यवसायित्वादेकवचनम् // 1 // ). 1. अयं श्लोको म० म० मल्लिनाथेन न व्याख्यात इत्यतो मया नारायणभट्टः कृतया 'प्रकाश' व्याख्यया सहेहोपन्यस्त इत्यवधेयम् / 2. अत्र म०म० शिवदत्तशर्माणः-' केषुचिदादशः शेषं नलं-' (149)
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________________ चतुर्दशः सर्गः / 835 जो ( 'किं ते- ( 13.30 ) गाथा वरुणके साथ ही समान अर्थ रखती थी, ( इन्द्र, अग्नि और यमके नहीं ), जो ( 'अत्याजि-' 13 / 27 ) गाथा इन्द्र के साथ ही समान अर्थ वाली थी ( अग्नि, यम और वरुणके नहीं ); जो ('यच्चण्डिमा- 13 29) गाथा यमके साथ हो समान अर्थवाली थी ( इन्द्र, अग्नि और वरुणके नहीं ) तथा जो ( येनामुना-१३ 28) गाथा अग्निके साथ ही समान अर्थ रखती थी ( इन्द्र, यम और वरुणके नहीं); नलसम्बन्धिनी सम्मिलित उन चारों ( 13 / 27-30 ) गाथाओंको इन्द्रादि देवोंके प्रसन्न हो जानेपर दमयन्तीने नलके विशेष अर्थात् इन्द्रादिसे भेदज्ञानके लिर समझा [ इन्द्रादिसम्बन्धी अर्थ क्रमशः एक-एक गाथामें तथा नल-सम्बन्धी अर्थ चारों गाथाओं (13 2730 ) में होनेसे उन चारों गाथाओंको इन्द्रादि चारों देवोंसे नलके भेद की बतलानेवाली माना / अथवा-उन चारों गाथाओंसे नलका निश्चय हो जानेपर 'नान्तरीयक' न्यायसे उसीसे अन्य देवोंका भी निश्चय (ज्ञान) किया। अथवा-सम्मिलित चार गाथाओंको नल-भिन्न इन्द्रादिके भेदके लिए माना / अथवा-जो ('देवः पतिः- 13333) गाथा वरुणके साथ भी, इन्द्र के साथ भी, यमके साथ भी और अग्निके साथ भी समान अर्थवाली मिलित पांच अर्थोवाली उस गाथाको इन्द्राद्रि देवोंके प्रसन्न हो जाने पर दमयन्तीने नलके विशेष के लिए माना अर्थात् पहले पञ्चनलो के साथ समान अर्थवाली भी उस गाथाको तब ( इन्द्रादि देवों के प्रसन्न होकर दमयन्तीको सद्बुद्धि देने, या अपना-अपना रूप धारण कर लेने पर ) दमयन्तीने केवल नलका अर्थ बतानेवाली माना ] // 1 // निश्चित्य शेषं तमसौ नरेशं प्रमोदमेदस्वितराऽऽन्तराऽभूत् / देव्या गिरां भावितभगिराख्यञ्चित्तेन चिन्तार्णवयादसेदम् // 11 // निश्चित्यति / अमी दमयन्ती, शेषं पञ्चम, तं प्रसिद्धं, नरेशं नैषधं, निश्चित्य प्रमोदमेदस्वितरम् आनन्दमेदुरतरम्, आन्तरम्, अन्तरङ्ग यस्याः सा तादृशी अभूत् / अथ देव्याः गिरी भाविता परिज्ञाता, भङ्गिः प्रयोगचातुरीविशेषः यया सा तादृशी सती, चिन्तार्णवयादसा नलप्राप्त्युपायचिन्तासागरजलग्राहभूतेन, चित्तेन इदं वक्ष्यमाणम्, आख्यत् अवोचत् / ख्यातेलु डि 'अस्यतिवक्तिख्यातिभ्योऽङ' इति च्लेरङादेशः / अत्र चित्ते यादस्त्वारोपणात् रूपकालङ्कारः॥ 11 // ___वह ( दमयन्ती ) शेष ( इन्द्रादि चारो देवोंसे भिन्न पाँचवें) उस ( सुप्रसिद्ध ) नरेश मनुष्योंका राजा नल, अथवा-र-ल' का अभेद मानकर 'नलेश' अर्थात् राजा-नल का निश्चयकर अत्यन्त हर्षले उल्लसित हृदयवाली अर्थात् अतिशय प्रसन्न हुई। (फिर सरस्वती) देवीके वचनों के श्लेषोक्ति क्रम ( अथवा-वाग्देवीके भङ्गी ( श्लेषमय रचना-प्रकार ) को विचार करनेवाली इस ( दमयन्ती ) ने ( पहले देवों तथा नलके विषय में सन्देह रहनेकी 'एकैकवृत्तेः-' (14 / 10) इति गाथाद्वयेन गतार्थत्वादियं गाथा नास्त्येव इति सुखावबोधा / अत एच जीवातौ न व्याख्याता इति /
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________________ 836 नैषधमहाकाव्यम्। अवस्थामें ) चिन्ता-रूपी समुद्रका जलजन्तु ( अथवा-( अब निश्चय हो जाने पर भी उसके प्राप्त्युपायरूप-) चिन्ता-समुद्रके जलजन्तुरूप चित्तसे यह ( 13 / 12-15 ) कहने लगी अर्थात् मनमें ही सोचने लगी // 11 // सा भङ्गिरस्याः खलु वाचि काऽपि यद् भारती मतिमती मतीयम् / श्लिष्टं निगद्याऽऽहत वासवादीन् विशिष्य मे नैषधमप्यवादीत् / / 12 / / अथ चित्तेन यदाख्यत् तदेवाह, सेति / अस्याः देव्याः, वाचि सा वक्ष्यमाणा, काऽपि अपूर्वा, भङ्गिः प्रयोगप्रकारः, खलु, यत् यस्मात् भङ्गिविशेषात् , इयं पुरोवतिनी, मूतिमती विग्रहवती, सती सत्यवादिनी भारती वाग्देवता, श्लिष्टं श्लिष्टार्थ यथा तथा, निगद्य उक्त्वा, वासवादीन् , इन्द्रादीन् , भाहत आहतवती, तानेव उपाचरदेवेत्यर्थः, दृङो लुङि 'हस्वादङ्गात्' इति सलोपः, अथ च नैषधं नलमपि, मे मां, विशिष्य इन्द्रादिभ्यो विशेष कृत्वा, अवादीत् , किन्तु अहमेव न वेद्मीति भावः // ___ इप्स ( सरस्वती देवी ) के वचनमें वह (विलक्षण ) कोई ( अनिर्वचनीय ) भङ्गी ( रचनाशैली ) है, क्योंकि शरीरिणी एवं सत्यवादिनी इस सरस्वतीने श्लेषयुक्त ( 'अत्याजि-' इत्यादि 13 / 27 / 30 श्लोकों ) को कहकर इन्द्रादिका आदर किया और विशेषकर (इन्द्रादिसे अधिक, या इन्द्रादिसे भिन्नकर ) मुझसे नलको भी कह दिया। ( अथवा-वह जगत्प्रसिद) शरीरिणी सरस्वती देवी यही है, क्योंकि इसके वचनमें कोई ( अनिर्वचनीय अर्थात् अलौकिक रचनाशैली है,.......) // 12 // जग्रन्थ सेयं मदनुग्रहेण वचःस्रजः स्पष्टयितं चतस्रः / द्वे ते नलं लक्षयितुं क्षमेते ममैव मोहोऽयमहो! महीयान् / / 13 / / जग्रन्थेति / सा इयं देवी, मदनुग्रहेण मयि अनुग्रहबुद्धया, स्पष्टयितुं नलं व्यक्तीकर्तुं, चतस्रः वचःस्रजः वचनमालिकाः, जग्रन्थ ग्रथितवती, तत्र ते इन्द्राग्नि प्रत्यायिके, द्वे आये द्वे एव वचःस्रजौ, नलं लक्षयितुम् अभिव्यंजयितुं, क्षमेते शक्नुतः, ताभ्यामेव स्फुटतरं प्रतीतेरन्ये द्वे वृथेति भावः; किन्तु ममैव अयं महीयान् महत्तरः, मोहः, अहो ! आश्चर्य यत् चतसृभिरपि न वेद्मीति भावः // 13 // . उस ( जगत्प्रसिद्ध ) इस ( सरस्वती देवी) ने मेरे ऊपर अनुग्रहसे ( नलको ) स्पष्ट करने के लिए जिन चार वचनमालाओं ( 'अत्याजि-' 13 / 27 / 30 ) को गूथा अर्थात् जिन चार श्लोकोंको रचा, ( उनमें ) वे दो (..."महोमहेन्द्रः' (13 27 ), .."नलमुदीरितमेव' ( 13 / 28 ), अथवा-..."नामग्राहं मया नलमुदीरितमेवमत्र' ( 13 / 28 ), "नले सहजरागभरात' (13 / 29 ) व वनमाला (श्लोक ) नलको लक्षित ( स्पष्ट ) करनेके लिए समर्थ थी उसके लिए चारकी आवश्यकता नहीं थी, खेद है कि मेरा ही यह बड़ा भारी मोह था ( कि मैं इतना स्पष्ट सरस्वती देवीके कहने पर भी नलका निश्चय नहीं कर सकी। अथवा-पूर्वोक्त उन चार वचनमालाओंको स्पष्ट करने के लिए जो दो ('त्वं याऽथिनी' (14 / 32 ), 'देवः पतिः' (13333), वचनमालाओंको सरस्वती देवीने रचा, वे दो नलको
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 837 स्पष्ट करने के लिए समर्थ थीं। 'त्वं याऽर्थिनी' (13 / 32) इससे प्रथम व्याख्यानमें नलका ही स्पष्ट प्रतिपादन करनेसे दूसरे व्याख्यान द्वारा देवोंको सन्तुष्टकर (या-छोड़कर) 'नलको ही तुम स्वीकार करो' इस प्रकार नलका ही प्रतिपादन करनेसे 'देवः पतिः' (13.33 ) इसके द्वारा भी .लोकपालोंका अंश होने के कारण नलके ही पाचोंका सम्भव होनेसे तथा 'यद्येनमुज्झसि वरः कतरः परस्ते' (13 / 33 ) के द्वारा भी नलको स्वीकार करने के लिए ही बार-बार सरस्वती देवीके प्रेरणा करने पर भी मैंने बहुत बड़े मोहमें पड़कर उस देवीके अभिप्रायको नहीं समझा यह आश्चर्य है // 13 // श्लिष्यन्ति वाचो यदमुरमुष्याः कवित्वशक्तेः खलु ते विलासाः / भूपाललीलाः किल लोकपालाः समाविशन्ति व्यतिभेदिनोऽपि / / 14 / / अत्याजीत्यादिश्लोकचतुष्टयं नलमेवाचष्टे, किन्तु भङ्गया इन्द्रादिचतुष्टयमपि स्पृशतीत्याह, श्लिप्यन्तीति / अमुष्याः देव्याः, अमूः वाचः अत्याजीत्यादयो गाथाः, श्लिप्यन्ति नलमिवेन्द्रादीनपि स्पृशन्ति, इति यत् , ते तच्छलेषणमित्यर्थः, विधेयी. भूत विलासस्य प्राधान्यात्तल्लिङ्गसङ्ख्या निर्देशः; कवित्वशक्तेः काव्यरचनानैपुण्यस्य, विलासाः विकासाः, खलु कवित्वधर्मोऽयं यदन्यपरेणापि शब्देन श्लेषभङ्गया अर्थान्तरप्रत्यायनम्, अलङ्कारत्वान्न तु तात्पर्यमिति भावः / तथा च श्लेषमहिम्ना तेषां नलसारूप्याच्च तत्परत्वभ्रान्तिरित्याह-भूपालस्य नलस्य, लीला इव लीला येषां ते तद्पधारिणः, लोकपालाः व्यतिभेदिनः नलात् भेदवन्तोऽपि, समाविशन्ति ___इस ( सरस्वती देवी ) के ये वचन ( "अत्याजि-'' इत्यादि चार श्लोक 13.27-30) अनेकार्थक होने से ) जो श्लिष्ट ( नलार्थक होते हुए भी इन्द्रादि-देवार्थक भी ) होते हैं, वे ( देवीकी) कवित्वशक्ति के विलास ( विस्तार ) हैं ( उच्चतम कवित्व शक्तिके विना किसी एकके लक्ष्यसे कहे गये श्लोक उससे भिन्नको लक्षित नहीं कर सकते ); क्योंकि राजा नलकी लीलावाले अर्थात् नलका रूप धारण किये हुए लोकपाल ( इन्द्रादि चारो देव, बुद्धि में ) प्रविष्ट होते ( समझमें आते ) हैं / अथवा-परस्पर ( या-नलसे ) भेद वाले भी लोकपाल राजा ( नल ) आकारको धारण करनेवाले श्लोकोंमें इलेष शक्तिके द्वारा मूर्तिमान् होकर दिखलायी पड़ते हैं। [परस्परमें आकृति कर्म, स्थानादिके कारण भिन्न भी ये इन्द्रादि चारो लोकपाल अंश द्वारा राजा नल बनकर एक हो रहे हैं, अतः लोकपालोंका अंश होनेमें नलके लिए ही प्रयुक्त किये गये सरस्वती देवी के वचन श्लेषको कहते हैं यह कवित्वशक्तिका प्रभाव है ] // 14 // त्यागं महेन्द्रादिचतुष्टयस्य किमभ्यनन्दत् क्रमसूचितस्य ? | किं प्रेरयामास नले च तन्मां का सूक्तिरस्या मम कः प्रमोहः ? // 15 / / स्वव्यामोहमेव प्रकटयति-त्यागमिति / इयं देवी क्रमसूचितस्य क्रमनिर्दिष्टस्य,
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________________ 838 नैषधमहाकाव्यम् / महेन्द्रादिचतुष्टयस्य त्यागं पुराकृतं परिहारं, किं किमर्थम् , अभ्यनन्दत् ? अन्वमोदत ? माञ्च किं किमर्थं, नले विषये प्रेरयामास ? यद्यस्याः मदनुजिघृक्षा न स्यादिति भावः / तत् / तस्मात् , अस्याः देव्याः, सूक्तिः साधूक्तिः, अत्याजीत्यादि सत्योपदेशः इत्यर्थः, का ? मम प्रमोहः कः ? अहो घण्टापथे स्खलितमिति भावः // 15 // (इस सरस्वती देवीने ) 'अत्याजि-' इत्यादि चार ( 13328-30) इलोकोंसे या 'त्वं यार्थिनी-' इत्यादि दो ( 13.32-33 ) श्लोकोंसे इन्द्रादि चारों के त्यागका क्यों अनुमोदन किया ? और नलमें ( या-नलमें ही) मुझको क्यों प्रेरित किया ? ( एक ही वाक्यसे उक्त दोनों कार्य किया यह आश्चर्य है ), इस कारण इस ( सरस्वती देवी ) की यह कौन-सी सूक्ति है ? अर्थात् यह लोकोत्तर वर्णन करने की चतुरता है तथा मेरा कौन-सा मोह है अर्थात् यह मेर। मोह भी लोकोत्तर है ? [ इस प्रकार सरस्वती देवीके स्पष्ट कहने पर भी मुझे मोहमें पड़ना नहीं चाहता था। अथच-सरस्वतीने इन्द्रादिके त्याग का अनुमोदन क्यों किया ? तथा नलके लिए मुझे प्रेरित क्यों किया ? अर्थात् दोनों ही कार्य मेरे ऊपर अनुग्रह होनेसे किये ] // 15 // परस्य दारान् खलु मन्यमानरस्पृश्यमानाममरैर्धरित्रीम् / भक्तयेव भत्त श्चरणौ दधानां नलस्य तत्कालमपश्यदेषा / / 16 / / अथ भूमिस्पर्शादिभिः षडभिः चिह्नः सा नलज्ञानप्रकारमाह-परस्येत्यादि / परस्य दारान् मन्यमानेरिव परभार्या इति बुध्यमानेरिवेत्युत्प्रेक्षा, राजदारत्वात् भुव इति भावः; 'भार्या जायाऽथ पुं भूम्नि दाराः' इत्यमरः, अमरः अस्पृश्यमानां, पराङ्गनास्पर्शनिषेधादिति भावः, भक्त्येव पतिभक्त्या इवेत्युत्प्रेक्षा, भत्तु पत्युः, नलस्य चरणी दधानः धरित्रीम् एषा दमयन्ती, तत्कालं तस्मिन् काले, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया अपश्यत् ; देवा हि भूमि न स्पृशन्ति अयन्तु स्पृशन्तीत्येतदेकं तावञ्चिह्नमिति भावः॥ 16 // ____ उस समय ( इन्द्रादिके प्रसन्न होने पर इस ( दमयन्ती ) ने मानो दूसरेकी स्त्री मानते हुए देवोंसे अस्पृष्ट ( नहीं स्पर्श की गयी ) तथा भक्तिसे ही पति नलके चरणोंको धारण करती हुई पृथ्वीको देखा [ यहाँ पर नलको पृथ्वीपति होनेके कारण नलपत्नी पृथ्वीको देवोंद्वारा परपत्नी-स्पर्श धर्मविरुद्ध होनेसे स्पर्श नहीं करने तथा पृथ्वीद्वारा अपने पति नलके चरणोंको धारण अर्थात् स्पर्श करनेको उत्प्रेक्षा की गयी है / दमयन्तीने देवोंको भूमिसे कुछ ऊपर तथा नलको भूमि पर स्थित देखा ] // 16 // सुरेषु नापश्यदवैक्षताणोनिमेषभुर्वीभृति सम्मुखे सा। इह त्वमागत्य नले मिलेति संज्ञानदानादिव भाषमाणम् / / 17 / / सुरेष्विति / सा दमयन्ती, सुरेषु इन्द्रादिषु, अक्षणोः निमेषं अपश्यत् , सम्मुखे स्वाभिमुखस्थिते, उर्वीमृति नृपे नले तु, हे दमयन्ति ! त्वम् इह आगत्य इतः एत्य,
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 839 नले मिल सङ्गच्छस्व, इति संज्ञानदानात् संज्ञाकरणात् , आह्वानसूचकचक्षुश्चेष्टाविशेपकरणादित्यर्थः, भाषमाणं ब्रुवाणमिव स्थितमित्युत्प्रेक्षा, निमेषम् अवैक्षत, इदमपरं चिह्नमिति भावः // 17 // सामने स्थित उस ( दमयन्ती ) ने देवोंमें निमेष ( पलकका गिरना ) नहीं देखा तथा राजा नल में 'तुम यहां आकर ( मुझसे ) मिलो' ऐसे संकेतसे भाषण करते हुएके समान निमेषको देखा / / 17 // नाबुद्ध बाला विबुधेषु तेषु क्षोदं क्षितेरैक्षत नैषधे तु | पत्ये सृजन्त्याः परिरम्भमस्याः सम्भूतसम्भेदमसंशयं सा // 18 // नेति / सा बाला भैमी, तेषु विबुधेषु देवेषु क्षितेः क्षोदं रजः, धूलिमित्यर्थः, न अबुद्ध न ऐक्षतेत्यर्थः, तैजसेषु देवेषु भूस्पर्शाभावेन तदसक्रमादिति भावः; वुध्यतेलुङि तङि 'झलो झलि' इति सिचः सलोपः नैषधे नले तु, पत्ये स्वभत्रे, पृथिवीस्वामिने नलाय इत्यर्थः, परिरम्भं सृजन्त्याः आलिङ्गनंददत्याः, अस्याः क्षितेः सकाशात् , असंशयं यथा तथा, सम्भूतसम्भेदं सञ्जातसंश्लेषम् , असंशयमिति पदम उत्प्रेक्षावाचकम्, आलिङ्गनसङक्रान्तमिव स्थितमित्यर्थः, क्षोदमिति पूर्वेणान्वयः, ऐक्षत; रजःसम्भेदोऽपरं चिह्नमिति भावः // 18 // वाला ( दमयन्ती ) ने उन देवोंमें पृथ्वीको धूलिको नहीं देखा तथा नलमें पति ( नल ) के वास्ते मानो आलिङ्गन करती हुई ( पृथ्वीके ) उत्पन्न संसर्गको देख। // 18 // स्वेदः स्वदेहस्य वियोगतापं निर्वापयिष्यन्निव संसिसृक्षोः / हीराङ्करश्चारुणि हेमनीव नले तयाऽऽलोकि न दैवतेषु // 19 // स्वेद इति / तया दमयन्त्या, संसिसृक्षोः संस्रष्ट नलेन सङ्गन्तुमिच्छोः, स्वदेहस्य वियोगतापं नलविरहसन्तापं, निर्वापयिष्यन् शमयिष्यन् इव उद्गतः इत्युत्प्रेक्षा; स्वेदः चारुणि शुद्धिमति, श्यामिकारहिते इति भावः, हेमनि सुवर्णे, हीराङ्करः वज्रा. ङ्करः इव, 'वज्रो हीरश्च कथ्यते' इति हलायुधः / नले आलोकि दृष्टः, दैवतेषु सुरेषु न आलोकि इति पूर्वेणान्वयः / अत्र प्रथमार्दै उत्प्रेक्षा, द्वितीयाः च हेम्नो नलशरीरतु. ल्यत्वात् , हीराङ्करस्य च स्वेदतुल्यत्वात् तयोः सम्बन्धस्य च प्रसिद्धत्वादुपमालङ्कार इत्यनयोः संसृष्टिः // 19 // उस ( दमयन्ती ) ने नलमें ( नलका ) आलिङ्गनेच्छुक अपने ( दमयन्तीके ) शरीरके ( अथवा-३मयन्तीका आलिङ्गनेच्छुक अपने ( नलके ) शरीरके ) ( विरहजन्य ) सन्तापको भविष्यमें शान्त करनेवाले पसीनेकी अत्युत्तम सुवर्णमें हीरेके अङ्कुर (जड़े गये होरे ) के समान देखा तथा देवों में नहीं देखा। [ प्रथम पक्षमें नलके सुवर्णवत् गौर वर्ण शरीर में हीरेके समान स्वच्छ चमकते हुए पसीने की बूंदोंको देखकर दमयन्तीको विश्वास हो गया कि अब नलको पाकर उनके आलिङ्गनसे मेरा शरीरसन्ताप दूर हो जायेगा। दूसरे पक्षमें
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / दमयन्तीके विरहसे उत्पन्न सन्तापको सुवर्णवत् गौर वर्ण, शरीरमें हीरेके समान स्वच्छ चमकता हुआ स्वेद दूर कर देगा, क्योंकि इसी स्वेदके द्वारा दमयन्ती स्वेदका मानवगुण होनेसे नलको पहचानकर निर्णय करेगी। नलके शरीर में दमयन्तीने पसीना देखा तथा देवोंके शरीर में नहीं // 19 // सुरेषु मालाममलामपश्यन्नले तु बाला मलिनीभवन्तीम् / इमां किमासाद्य नलोऽद्य मृद्वी श्रद्धास्यते मामिति चिन्तयैव / / 20 / / सुरेविति / बाला दमयन्ती, सुरेषु मालां स्रजम, अमलाम् अम्लानाम् , अपश्यत् , नले तु अद्य स्वयंवराहे, नलः मृद्वी मदपेक्षयाऽपि सुकुमाराम , इमां दमयन्तीम आसाद्य किं किमर्थं, मां श्रद्धास्यते ? आदरिष्यते ? थञ्चिदपि नाइरिष्यते, इति चिन्तया एव, मलिनीभवन्ती म्लायन्ती, मालामिति पूर्वानुबन्धः, अपश्यत् / म्लानकुसुमत्वमन्यचिह्नमिति भावः / अत्र मालायास्तादृशचिन्तासम्बन्धासम्भवा. दुत्प्रेक्षालङ्कारः // 20 // बाला ( दमयन्ती ) ने देवोंमें मालाको निर्मल ( मलिन नहीं होती हुई ) देखा तथा नलमें 'सुकुमारी इस ( दमयन्ती ) को पाकर नल क्या मुझमें श्रद्धा अर्थात् मेरा आदर करेंगे ? अर्थात् नहीं करेंगे' इस चिन्तासे ही ( पाठा०-मानो इस चिन्तासे ) मलिन होती हुई मालाको देखा // 20 // श्रियं भजन्तां कियदस्य देवाश्छाया नलस्यास्ति तथाऽपि नैषाम् / इतीरयन्तीव तया निरैक्षि सा नैषधे न त्रिदशेषु तेषु // 21 // श्रियमिति / देवाः इन्द्रादयः, अस्य नलस्य, श्रियं सौन्दर्य, कियत् अल्पं यथा तथा, भजन्तां, तथाऽपि नलसौन्दर्यस्य किञ्चित् ग्रहणे कृतेऽपि, नलस्य छाया प्रति. बिम्बं प्रतिच्छाया इत्यर्थः / 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिविम्बमनातपः' इत्यमरः / एषाम् इन्द्रादीनां, नास्ति, नलरूपधराणामपि देवानां तेजोमयत्वेन भूस्पर्शाभावात् तादृशप्रतिविम्बरूपच्छायाया असम्भवादिति भावः; इतीरयन्ती कथयन्तीव स्थिता सा छाया, प्रतिविम्बभित्यर्थः, तया दमयन्त्या, नैषधे नले, निरैक्षि दृष्टा, ईक्षतेः कर्मणि लुङ्। तेषु त्रिदशेषु इन्द्रादिषु, न, निरैक्षि इति पूर्वेणान्वयः, तेषां तैजसत्वात् न छत्रादिवदेहच्छाया क्षितितले लग्ना, नलस्य तु लग्ना इत्येकं चिह्नमिति भावः / अत्र श्रियमिव श्रियं छायेव छायेति सादृश्याक्षेपान्निदर्शने ताभ्यामङ्गाभ्यामितीरय. न्तीवेत्युत्प्रेक्षायाः सङ्करः // 21 // उस ( दमयन्ती ) ने "देव इस ( नल ) की शोभाको कितना धारण करें ? नलकी वैसी ( अतिशय प्रसिद्ध ) छाया ( शोभाका लेश ) भी इन ( देवों ) को नहीं है" ऐसी कहती हुई के समान नलमें छाया ( परछाई ) को देखा और देवोंमें (परछाईको ) नहीं देखा / 1. 'चिन्तयेव' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः 841 [ जो इन्द्रादि देव नलकी छाया (शोभाका लेश, अथवा-दर्पण आदिमें नलका प्रतिबिम्ब ) अर्थात् प्रतिबिम्बगत शोभाको नहीं धारण करते तो भला वे नलकी शोभाको कहां तक धारण कर सकते हैं ? अर्थात् किसी प्रकार नहीं धारण कर सकते / अथवा-देव नलकी कुछ सम्पत्तिको धारण कर लें, किन्तु इस नलकी शोभाको ये नहीं पा सकते, अथवा-देव नलकी श्रीको अच्छी तरह प्राप्त कर लें, किन्तु वैसी नलकी-सी परछाई तो इन देवोंकी नहीं है ] // 21 // चिह्न रमीभिर्नलसंविदस्याः संवादमाप प्रथमोपजाता। सा लक्षणव्यक्तिभिरेव देवप्रसादमासादितमप्यबोधि // 22 // चिह्नरिति / अस्याः दमयन्त्याः, प्रथमोपजाता 'इतरनलनुलाभागेषु शेषः' इत्यादिपूर्वसर्गोक्तविकल्पोत्पन्ना, नलसंवित् अयं शेष एव नल इति बुद्धिः, अमीभिः एभिः, चिह्नः पूर्वोक्तैः भूस्पर्शादिभिः, संवादम् ऐकमत्यम् , आप दाढ्यं प्रापेत्यर्थः; सा दम. यन्ती, लक्षणानां पूर्वोक्तचिह्नानां, व्यक्तिभिः, प्रकाशैरेव, अभिव्यक्तिलक्षणकायेरेवेत्यर्थः, देवप्रसाद देवतानुग्रहरूपकारणमपि, आसादितं प्राप्तम् : अबोधि, मत्सेवया देवताः, प्रसन्नाः, कथमन्यथा भूस्पर्शादिमानुषसुलभचिह्वानि एतावन्तं कालं न दृष्टानि अधुना वा दृश्यन्ते, कारणं विना कार्यानुत्पत्तेरिति ज्ञातवतीति भावः। बुध्यतेः कर्तरि लुङ 'दीपजन-' इत्यादिना विकल्पात चिण // 22 // इन ( पूर्वोक्त 14.16-21 ) चिह्नोंसे इस (दमयन्ती) का पूर्व में ( 'इतरनल-' 13.53, इससे या नलके दूत बनकर आने पर या-सरस्वती देवीके श्लिष्ट वचनोंसे ) उत्पन्न 'यह पञ्चम आसन पर स्थित ही नल है' ऐसा ज्ञान संवादको पा लिया अर्थात् अबिरुद्धभासित हो गया ( 'यही नल हैं। ऐसा मैंने पहले जो समझा था, वह ठीक ही था ऐसा उसने निश्चय कर लिया ) / इसके बाद उस ( दमयन्ती ) ने लक्षणों ( देवों तथा मनुष्यों के पूर्वोक्त (14-16-21) विभिन्न चिह्नों) से देवों को प्रसन्नताको भी जाना [ अर्थात् पहले इन हन्द्रादि देवोंमें देवगत 'भूस्पर्श, निमेष, रजःस्पर्श, स्वेद, मालामालिन्य तथा छाया' का अभाव नहीं दीखता था; किन्तु अब इनमें इन भूस्पर्शादि चिह्नोंका अभाव स्पष्ट दीखता है, अत एव ये देव अब मेरे ऊपर प्रसन्न हो गये हैं, ऐसा समझा] // 22 // नले विधातुं वरणस्रजं तां स्मरः स्म रामा त्वरयत्यथैनाम् / अपनपा तां निषिषेध तेन द्वयानुरोधं तुलितं दधौ सा / / 23 / / नले इति / अथ शेषोऽयं नल इति निश्चयानन्तरं, स्मरः तां करस्थां, वरण नले विधातुम् एनां रामां दमयन्ती, त्वरयति स्म त्वरयामास, अपनपा सर्वसमक्ष कथमेनं माल्यदानेन वृणे इति लज्जातु, तां कामेन स्वर्यमाणां भैमी, निषिषेध निवा. रयामास, 'स्थादिष्वम्यासेन चाभ्यासस्य' इति धास्वभ्याससकारयोः षत्वम् / तेन कारणद्वयेन, सा भमी, द्वयानुरोधं स्मरलज्जोभयानुरोधं, तुलितं समीभूतं यथा तथा,
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________________ 842 नैषधमहाकाव्यम् / दधौ रक्षयामासेत्यर्थः, वरणमाल्यप्रदानविषयकप्रवृत्तिनिवृत्तिविषये कर्त्तव्यविमूढा आसीदिति भावः / एतेनास्या मध्यमानायिकात्वमुक्तम् ; 'तुल्यलज्जास्मरा मध्या' इति लक्षणात् // 23 // इस ( देवोंकी प्रसन्नतासे नलका निश्चय हो जाने ) के बाद कामदेवने उस वरणमाला को नल में पहनाने के लिए प्रेरित किया और लज्जाने उसे मना किया अर्थात् कामवशीभूत दमयन्तीने नलको वरणमाला पहनाना चाहा, किन्तु 'इतने लोगों के सामने मैं नलको माला कैसे पहनाऊँ ?' इस भावसे उत्पन्न लज्जाके कारण वह रुक गयी। इस कारणसे उस ( दमयन्ती) ने दोनों ( कामदेव तथा लज्जा) के अनुरोधको समानभावसे धारण किया अर्थात् भाव-सन्धिके वशीभूत दमयन्ती नलको माला पहनाने तथा नहीं पहनानेमें दोलायित चित्तवाली हुई। [ समान एवं परस्पर विरु द्र दो कार्योंके आनेपर मनुष्य दोलायित चित्त होकर उनमें से एक कार्य भी नहीं करता, अपि तु सन्देह में पड़कर तटस्थ बन जाता है, वैसा ही इस दमयन्तीने भी किया ] // 23 // स्रजा समालिङ्गयितुं प्रियं सा रसादधत्तैव बहुप्रयत्नम् / स्तम्भत्रपाभ्यामभवत्तदीये स्पन्दस्तु मन्दोऽपि न पाणिपद्मे // 24 // सजेति / सा भैमी, रसात् रागात् , प्रियं नलं, सृज्यते इति स्रक वरणमाला, 'ऋस्विग्दरक-' इत्यादिना क्विन् अमागमश्च / तया समालिङ्गयितुं समाश्लेष. यितु, बहुप्रयत्नं महोद्योगमेव, अधत्त, तु किन्तु, तदीये तस्याः सम्बन्धिनि, पाणि. पद्म स्तम्भः निष्क्रियत्वलक्षणः सात्विकभावविशेषः, स च त्रपा च ताभ्यां हेतुभ्यां, मन्दः अल्पोऽपि, स्पन्दः कम्पनव्यापारः, न अभवत् // 24 // उस ( दमयन्ती) ने अनुरागसे वरणमालासे प्रियको आलिङ्गित कराने अर्थात् नलको वरणमाला पहनाने के लिए बहुत उद्योग किया ही, उसके हस्त-कमलमें स्तम्भ ( 'जड़ता' नामक सात्त्विक भाव ) तथा लज्जासे थोड़ा भी स्पन्दन नहीं हुआ अर्थात् जड़ता तथा लज्जासे अभिभूत दमयन्तीके हाथ थोड़ा भी नहीं हिले ( माला डालने के लिये आगे नहीं बढ़े ) कि वह माला नलके गले में पहना सके / / 24 / / तस्या हृदि ब्रीडमनोभवाभ्यां दोलाविलासं समवाप्यमाने / श्रितं धृतणाङ्ककुलातपत्रे शृङ्गारमालिङ्गदधीश्वरश्रीः / / 5 / / तस्या इति / बीडमनोभवाभ्यां लज्जास्मराभ्यां,दोलाविलासं प्रेक्षणलीलां, सम. वाप्यमाने नीयमाने, वरणविषये प्रवृत्तिनिवृत्तिसंघर्षेण दोदुल्यमाने इत्यर्थः, एणाङ्ककुलं सोमवंशः, सोमवंशोत्पन्नः नल इति यावत् , तदेव आतपत्रं छत्त्रं, नलाप्राप्तिज. नितसन्तापप्रशमकत्वादिति भावः, . धृतम् एणाङ्ककुलातपत्रं येन तस्मिन् सन्तापनिवारकनलरूपातपत्रवति, तस्याः दमयन्त्याः, हृदि हृदये, भितम् आश्रित्य स्थितं, 1. 'स्थितम्' इति पाठान्तरम। .....
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 843 शृङ्गारं शृङ्गाररसम् , अधीश्वरश्रीः अधीश्वरस्य हृदयेश्वरस्य नलस्य, श्रीः सौन्दर्यम् , आलिङ्गत् दोलनजनितपतनभयनिवारणार्थमाश्लिषत् , प्रबलतया दोदुल्यमानदोला धिरूढम् अत एव पतनशङ्कया भीतं कमपि पुमांसं पार्श्वस्थः नरो वा नारी वा यः कोऽपि यथा अवलम्बनं दत्वा स्थिरीकरोति तद्वत् इति भावः। नलसौन्दयं वरणायैव हृदयस्य स्थैर्य सम्पाद्य प्रवृत्तिनिवृत्तिसङ्घर्षजनितं दोलनं निवारयामासेति समु. दितार्थः / अत्र भैमीहृदयं दोलासनं, शृङ्गाररसो राजा, नल एव सन्तापनिवारकत्वात् छत्रं, दोलासनान्दोलनाथं स्थितौ लज्जाकामी, एतेन नलाधिष्ठिते हृदि भैमी शृङ्गाररसस्य परां कोटिम् आरूढा इति निष्कर्षः // 25 // ___ लज्जा तथा कामदेवके द्वारा झूलेके विलासको प्राप्त करते हुए तथा चन्द्रकुल अर्थात् चन्द्रकुलोत्पन्न नलरूप छत्रको धारण किये हुए उस (दमयन्ती ) के हृदयमें आश्रयकर स्थित शृङ्गार रसके स्वामी ( नल ) की लक्ष्मी अर्थात् सुन्दरता ( अथवा-अधिक सुन्दरता, अथवा-किसी अन्य राजाकी सुन्दरता ) ने आलिङ्गित (ग्रहण ) किया। [ जिस प्रकार अत्यन्त हिलते झूलेपर चढ़े हुए पुरुषको गिरनेके भयसे कोई स्त्री या पुरुष पकड़कर उसे स्थिर करता है उसी प्रकार यहां समझना चाहिये / यहां पर शृङ्गार रसको राजा, दमयन्तीके हृदयको झूलेका आसन (बैठनेका काष्ठविशेष पटा आदि ), सन्तापनिवारक होनेसे नलको छत्र, लज्जा तथा कामदेवको झूले पर आरूढ़ व्यक्ति समझना चाहिये / प्रथम अर्थमें-लज्जा एवं कामदेवसे अस्थिर चित्तवाली दमयन्तीको देखकर खिन्न नलने पहले विप्रलम्भ शृङ्गारको प्राप्त किया, तदनन्तर दमयन्तीने भी नलको वैसा देखकर उनकी शोभाके स्वीकार करनेसे वैसी ही हो गयी। अन्यपक्षमें-उस दमयन्तीका भाव मिश्रित शृङ्गार रस राजा नलके समान बढ़ गया / जिस प्रकार झूले पर चढ़ी हुई स्त्रियां गिरनेके भयसे पतिका आलिङ्गन करती हैं ] // 25 // करः सजा सज्जतरस्तदीयः प्रियोन्मुखीभूय पुनर्व्यरंसीत् / तदाननस्या पथं ययौ च प्रत्याययौ चातिचलः कटाक्षः / / 26 // कर इति / स्रजा वरणमाल्येन करणेन, सज्जतरः अतिशयेन सम्भृतः, अत्यर्थं शोभित इत्यर्थः, तदीयो दमयन्तीसम्बन्धी, करः प्रियस्य नलस्य, उन्मुखीभूय अभिमुखीभूय, पुनः व्यरंसीत् विरराम, रमेलुंङि व्याङपरिभ्यो रमः' इति परस्मैपदं, 'यमरमनमातां सकच' इति सगिडागमो, 'अस्ति सिचोऽपृक्ते' इतीडागमे 'इट ईटि' इति सलोपे च सवर्णदीर्घः / तथा अतिचलाः अत्यन्तचञ्चलः; कटाक्षः तदाननस्य नलमुखस्य, अर्द्धः पन्था इति विशेषणसमासे समासान्तः / 'अद्ध नपुंसकम्' इति नैकदेशी समासः पथः समविभागे प्रमाणाभावात् / तम् अर्द्धपथं, ययौ च प्रत्याययो च प्रत्यावृत्तश्च, उभयत्र लज्जयेति भावः // 26 // वरणमालासे शोभित (नलके कण्ठमें वरण-माला डालने के लिए तैयार अर्थात् ऊपर 53 नै० उ०
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________________ 844 नैषधमहाकाव्यम्। उठा हुआ ) उस ( दमयन्ती ) का हाथ प्रिय (नल ) के सम्मुख होकर (लज्जासे ) हट गया और अत्यन्त चञ्चल कटाक्ष उस ( नल, पाठा०-प्रिय = नल ) के मुखके आधे (.नलको देखने की इच्छासे ) मार्ग में गया और ( लज्जासे ) लौट आया। [ दमयन्तीने नलके कण्ठमें जयमाल डालनेके लिए हाथ बढ़ाया, परन्तु लज्जासे उसे आगे नहीं बढ़ा सकी तथा नलको कटाक्ष ( नेत्रप्रान्त ) से देखना चाहा, किन्तु नलके आधे मुखको ही देखकर लज्जासे दृष्टिको हटा ली ] // 26 // तस्याः प्रियं चित्तमुदेतुमेव प्रभूबभूवाक्षि न तु प्रयातुम् | सत्यीकृतः स्पष्टमभूत्तदानीं तयाऽक्षिलज्जेति जनप्रवादः / / 27 / / तस्या इति / तस्याः दमयन्त्याः , चित्तमेव प्रियं नलम्, उदेतुं प्राप्तुं, इष्टमिति यावत्, प्रभूबभूव शशाकेत्यर्थः, अक्षि तु प्रयातुं नलं प्राप्तुं, द्रष्टमित्यर्थः, न, प्रभूबभूव इत्यनुषङ्गः, प्रभुशब्दादभूतद्भावे 'च्चौ' दीर्घः / चित्तमध्ये अनुक्षणं सा नलं ददर्श, किन्तु पुरःस्थितमपि तं लजावशात् चक्षुरुत्तोल्य द्रष्टुं न शशाकेत्यर्थः, अतएव अक्षिण चतुषि लज्जा, न तु चेतसि इति भावः, इति जनप्रवादः तया भैम्या, तदानीं नलवरणकाले, स्पष्टं यथा तथा सत्यीकृतोऽभूत् / अयं भावः-लज्जायाः चित्तधर्मत्वं वास्तवं न तु नेत्रधर्मत्वं, एवञ्च लज्जावशात् दमयन्त्याश्चितस्य नलप्राप्तिः नोचिता, वरं नेत्रस्यैव लज्जाधर्मकत्वाभावात् नलप्राप्तिरुचिता, इत्थञ्च अक्षिलज्जेति प्रवादोऽपि असत्य एव, किन्तु दमयन्त्याश्चित्तनेत्रयोस्तद्विपरीतकार्योत्पत्या अक्षिलज्जेति प्रवादः तया सत्यीकृत एवेति // 27 // ___ उस ( दमयन्ती ) का चित्त प्रिय (नल ) को प्राप्त करने अर्थात् देखने में समर्थ हुआ हो ( पाठा०-प्रियको प्राप्त कर ही लिया) किन्तु नेत्र प्रिय ( नल ) को पाने अर्थात् देखने में सयर्थ नहीं हुआ; उस समय उस ( दमयन्ती) ने 'नेत्रमें लज्जा होती है। इस लोकोक्तिको सत्य करके स्पष्ट कर दिया। [ लज्जाका चित्त-सम्बन्धी धर्म होनेसे दमयन्तीके चित्तको नल के पास नहीं जाना चाहिये था और नेत्र-सम्बन्धी धर्म नहीं होनेसे उसके नेत्रको नलके पास जाना अर्थात् नलको देखना चाहिये था; किन्तु ऐसा होने पर 'नेत्रमें लज्जा रहती है। यह लोकोक्ति असत्य प्रमाणित होती, अत एव दमयन्तीने चित्तसे नलका साक्षात्कार करने तथा लज्जावशीभूत नेत्रसे नलका साक्षात्कार ( दर्शन ) नहीं करनेसे उक्त लोकोक्तिको बिल्कुल सत्य कर दिया। दमयन्तीने मनसे ही नलका साक्षात्कार किया, नेत्रसे वह नहीं देख सकी ] // 27 // कथंकथञ्चिनिषधेश्वरस्य कृत्वाऽऽस्यपद्मं दरवीक्षितश्रि | वाग्देवताया वदनेन्दुबिम्बंत्रपावती साऽकृत सामिदृष्टम् // 26 // कथंकथञ्चिदिति / त्रपावती लज्जावती, सा भैमी निषधेश्वरस्य नलस्य, आस्य. 1. 'वित्तमुपेतमेव' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 845 पद्मं मुखारविन्दं, कथंकथञ्चिदतिकृच्छ्रण, दरवीक्षिता ईषदृष्टा, श्रीः यस्य तत् ताहशम् / शैषिक-क-प्रत्ययस्य वैभाषिकत्वादभावः, 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' इति हस्वः / 'ईषदर्थे दराव्ययम्' इति वैजयन्ती। कृत्वा लज्जावशात् लेशतो दृष्ट्वेत्यर्थः, वाग्देवतायाः सरस्वत्याः, वदनेन्दुबिम्बं सामिदृष्टम् अर्द्धदृष्टम्, 'सामि त्वद्धं जुगुप्सिते' इत्यमरः / अकृत अकार्षीत् , तत्रापि लज्जेति भावः / नाहं शक्नोमि त्वया कारयित. व्यमिति देवीमुखवीक्षणे तात्पर्यमवधार्यम् // 28 // ' सलज्जा उस ( दमयन्ती ) ने किसी-किसी तरह अर्थात् बड़ी कठिनाईसे नलके मुखको ( लज्जावश ) थोड़ा-सा देखकर सरस्वतीके मुखरूप चन्द्रबिम्बको ( लज्जावश ) आधा देखा। [ लज्जावती दमयन्तीने अतिशय लज्जाके कारण नलके मुखको तो बहुत ही थोड़ा देखा और तदनन्तर 'मैं लज्जावश वरणमालाको नलके कण्ठमें नहीं डाल सकती, अतः तुम इस कार्यको शीघ्र करो (या-करावो )' इस अभिप्रायसे सरस्वतीके मुखको भी उसी लज्जा के कारण पूरा नहीं किन्तु आधा ही देखा ] // 28 // नं जानतीवेदमवोचदेनामाकूतमस्यास्तदवेत्य देवी। . भावस्त्रपोर्मिप्रतिसीरया ते वितीयते लक्षयितुं न मेऽपि / / 29 / / . न जानतीति / देवी वाग्देवी, अस्याः भैम्याः, तत् पूर्वोक्तम् आकूतम् अभिप्रा. यम, अवेत्य ज्ञात्वा न जानतीव अबुध्यमानेव. एनां भैमीम् , इदं वक्ष्यमाणम्, वाह-त्रपायाः ऊर्मिरेव तरङ्ग एव, प्रतिसीरा जवनिका, 'प्रतिसीरा जवनिका स्यात्ति रस्करणी च सा' इत्यमरः, तया का, ते तव, भावः अभिप्रायः, मे ममापि, लक्ष. यितुं ज्ञातुं, तुमुन् प्रयोगस्तूदीच्यानाम् न वितीर्यते न दीयते, लजान्तर्हितो भावोऽयं कण्ठोक्तिमन्तरेण दुर्जेय इत्यर्थः // 29 // देवी ( सरस्वती देवी ) इस ( दमयन्ती ) के उस (14 / 28 ) भावको समझ कर नहीं समझती हुई के समान बोली-'लज्जा-समूहरूप पर्दा तुम्हारे भावको मुझे लक्षित करने ( मालूम होने ) नहीं देता। [ पर्दे के भीतरकी वस्तुको जैसे कोई नहीं देख सकता, वैसे ही लज्जा-समूहसे तुम्हारे भावको मैं नहीं देख ( समझ ) सकती अर्थात् जब तक तुम लज्जा-समूहरूप पर्दे को दूर कर अपने भावको नहीं कहोगी, तब तक मैं तुम्हारा भाव नहीं समझ सकती, अत एव तुम अपने भाव को स्पष्ट कहो ] // 29 // देव्याः श्रुतौ नेति नलार्द्धनाम्नि गृहीत एव त्रपया निपीता। अथाङ्गुलीरङ्गुलिभिः स्पृशन्ती दूरं शिरः सा नमयाञ्चकार // 30 // देच्या इति / अथ सरस्वतीवाक्यानन्तरं, देव्याः सरस्वत्याः, श्रुतौ कणे, 'न' - 1. 'अजानती-' इति 'प्रकाश' कारसम्मतं पाठान्तरम् / ' 2. 'देव्या' इति तृतीयान्तं पाठान्तरम् /
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________________ 846 . नैषधमहाकाव्यम् / इति एवं, नलस्य अर्द्धनाम्नि नाम्नोऽर्द्ध, अर्द्धनामधेये इत्यर्थः, 'अर्द्ध नपुंसकम्' इत्येकदेशिसमासः, दमयन्त्या उच्चारित इति भावः, गृहीते एव प्रविष्टे सत्येव कर्णगोचरीभूते एवेति यावत् , सा भैमी, बृपया निपीता ग्रस्ता सती, 'ल' इति शेषा ोचारणेऽसमर्था सतीत्यर्थः, अङ्गुलिभिः अङ्गुलीः स्पृशन्ती परामृशन्ती, मोटयन्ती त्यर्थो वा, लज्जासङ्कोचसूचकभावोऽयम्; दूरम् अत्यन्तं, शिरः नमयाञ्चकार ननाम, लजातिरेकात् कथननैराश्याच्च इतिकर्तव्यतामूढा केवलं नता एव स्थितेत्यर्थः / यद्वा-देव्याः सरस्वत्याः सम्बन्धिनि, देव्या' इति तृतीयान्तपदो (दं) वा तथात्वे देव्या, उच्चारिते इति शेषः, 'न' इति नलार्द्धनाम्नि श्रुतौ कणे, दमयन्त्या इति भावः, अन्यत् समानम्; लोके यथा कश्चित् गुरुजनसमीपे किमपि वक्तुकामोऽपि लज्जासङ्कोचवशात् वक्तुमसमर्थः सन् शिरोनमनपूर्वकम् अङ्गुलिभिरङ्गुलीः मोटयति तद्वदिति भावः // 30 // सरस्वती देवीके कानमें 'न' ऐसा ( केवल एक अक्षर ) नलके आधे नामको ग्रहण करने ( सुनने ) पर ( अथवा-"नामको ही ग्रहण करने पर ) लज्जासे व्याप्त उस ( दमयन्ती ) ने ( नलके नामका द्वितीय अक्षर 'ल' को उच्चारण करने में असमर्थ होकर) बादमें अपनी अङ्गुलियों से अपनी अङ्गुलियों ( अथवा-अपनी अङ्गुलियोंसे सरस्वती देवीकी अङ्गुलियों) को ममोड़ती ( या दबाती) हुई शिरको अत्यन्त झुका लिया। ( पाठा०-देवी द्वारा कहे गये नलके नामके प्रथमाक्षर 'न' को अपने ( दमयन्तीके ) कानसे ग्रहण करने अर्थात् सुननेपर लज्जासे...... ) / [ अधिक लज्जाके कारण अपने भावको कहनेमें असमर्थ होनेसे अङ्गुलियोंसे अङ्गुलियोंको ममोड़ती ( या दबाती) हुई दमयन्तीने अपने मस्तकको नीचे कर लिया। सभी व्यक्ति लज्जाके कारण अपनी अभिलाषाको प्रकट नहीं कर सकने पर अङ्गुलियोंको ममोड़ते और मस्तकको नीचे झुका लेते हैं ] / 30 // करे विधृत्येश्वरया गिरा सा पान्था पथीन्द्रस्य कृता विहस्य / वामेति नामैव बभाज सार्थ पुरन्ध्रिसाधारणसंविभागम् // 31 / / करे इति / सा भैमी, गिराम् इश्वरया वाग्देवतया, 'स्थेशभासपिसकसो वरच, विहस्य करे विकृत्य तां करे गृहीत्वा, इन्द्रस्य पथि, पन्थानं गच्छति नित्यमिति पान्था नित्यपथिकी, 'पन्थो ण नित्यम्' इति ण-प्रत्यये पथः पन्थादेशे च टाप, कृता इन्द्रसमीपं नीता सतीत्यर्थः, पुरन्ध्रीणां सर्वयोषितां, साधारणः संविभागः सर्वस्त्रीनामत्वेन संविभज्य अहणं यस्य तत् तादृशं सर्वयोषिद्वाचकमित्यर्थः, वामा इति नामैव सार्थ प्रतीपत्वेनार्थवत् यथा तथा, बभाज बभार, प्रतिकूला एव अभूदित्यर्थः, देव्या इन्द्रवरणमुद्दिश्य नीयमाना भैमी तत्प्रतिकूलाचारिणी अभूदिति निष्कर्षः / 1. एवं तृतीयान्तपाठाभ्युपगमे त्वत्तः श्रुतं नेति (14 // 33.) इति श्लोकस्थत्वत्तः इत्येतत्पदस्वारस्यविरोधोऽत इदं पाठान्तरमुपेक्ष्यम् / . ..
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 'वामं धने पुंसि हरे कामदेवे पयोधरे। वल्गुप्रतीपसव्येषु त्रिषु नार्या स्त्रियाम्' इति मेदिनी // 31 // (मानो दमयन्तीके भावको नहीं समझती हुई ) उस वागीश्वरी ( सरस्वती देवी) के द्वारा हाथमें पकड़कर इन्द्रके मार्गमें पथिक (वरणार्थ इन्द्र के सम्मुख ) की गयी उस दमयन्ती स्त्रोमात्रका वाचक 'वामा' ( प्रतिकूल रहनेवाली ) ने इस नामको सार्थक ही ग्रहण किया [ अर्थात् सरस्वती देवी द्वार। इन्द्र के सम्मुखकी गयो दमयन्तीने उसके प्रतिकूल होकर सर्व - स्त्रीवाचक 'वामा' नामको सार्थक किया ] // 31 // ( विहस्य हस्तेऽथ विकृष्य देवी नेतुं प्रयाताभि महेन्द्रमेताम् / भ्रमादियं दत्तमिवाहिदेहे ततश्चमत्कृत्य करं चकर्ष // 1 // ) विहस्येति / वाम्यानन्तरं देवी विहस्य किञ्चिद्धसित्वा एतां भमी स्वहस्तेन विकृष्य महेन्द्रमभि लक्षीकृत्य प्रस्थिता इन्द्रं प्रापयितुं निर्गता / तत इन्द्रादिगमनोद्योगानन्तरमियं भैमी चमत्कृत्य किमियमिन्द्रवरणे मां प्रवर्तयतीति बुद्धया भीत्वा करं स्वहस्तं चकर्ष आचकर्ष / किम्भूतमिव करम् ?-भ्रमाद्रज्जुभ्रान्तेरहिदेहे सर्पशरीरे दत्तमिव स्थापितमिवेत्युत्प्रेक्षा। सर्पदेहे भ्रमादत्तं हस्तं यथा कश्चित्कर्षति तथेत्युपमा वा / ततो देवीकरादिति वा // 1 // इस (दमयन्तीके इन्द्र के प्रतिकूल होने) के बाद सरस्वती देवी कुछ हँसकर (दमयन्तीको) हाथमें पकड़कर इन्द्रको प्राप्त कराने के लिए चलो, तब सरस्वतीके इन्द्रवरणार्थ उद्योग 'करनेके बाद ( अथवा-सरस्वती देवीके हाथसे ) इस (दमयन्ती ) ने भ्रमसे अर्थात् रस्सी जानकर सर्पके शरीरपर रखे हुएके समान हाथको चमककर ( क्या यह देवी इन्द्रको वरण करानेके लिए मुझे खींचकर ले जा रही है, इस विचारसे डरकर ) हाथको खींच लिया // 1 // भैमी निरीक्ष्याभिमुखीं मघोनः स्वाराज्यलक्ष्मीरभृताभ्यसूयाम / दृष्ट्वा ततस्तत्परिहारिणी तां ब्रीडां विडोजःप्रवणाऽभ्यपादि // 32 // भैमीमिति / भैमी मघोनः इन्द्रस्य, अभिमुखी निरीक्ष्य स्वः स्वर्गस्य राज्यं, 'स्वरव्ययं स्वर्गनाक-' इत्यमरः / 'ढलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः' तस्य लक्ष्मीः अभ्यसूयाम इन्द्रे भैम्याञ्चेवा॑म् , अभृत बभार, भृङ्-धातोःलुङ तङ 'हस्वादङ्गात्' इति सिचो लोपः / ततः असूयानन्तरं, तां भैमी, तत्परिहारिणीम् इन्द्रपरित्यागिनीं, दृष्ट्वा विडोजः प्रवणा पुनरिन्द्रानुरक्ता सती, व्रीडाम् अभ्यपादि अभिपेदे, अन्यायं मया आशङ्कितम् इति विचिन्त्य सा ललज्जे इत्यर्थः / पद्यतेः कर्तरि लुङि तङि 'हस्वाद. ङ्गात्' इति सिचो लोपः, 'चिण ते पदः' इति चिण , 'चिणो लुक्' इति प्रत्ययस्य लुक् / दमयन्तीको इन्द्र के सामने ( वरणार्थ आयी हुई समझकर ) स्वर्गश्रीने ईर्ष्या की ( किन्तु 1. अयं श्लोकः पूर्वोक्तार्थतया म०म० मल्लिनाथेन न व्याख्यात इति मया नारायणभट्टकृतया 'प्रकाश' व्याख्यया सहेहोपन्यस्त इत्यवधेयम् / ,
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________________ 848 नैषधमहाकाव्यम् / बादमें ) इन्द्रका त्याग करती हुई उसे ( दमयन्तीको ) देखकर इन्द्रमें अनुरागवती होती हुई लज्जित हो गयी। [ पहले तो स्वर्गलक्ष्मीने दमयन्तीको सरस्वती देवीके द्वारा इन्द्रके सामने लानेपर समझा कि यह मेरे पति इन्द्रके वरणार्थ आ रही है अत एव उसके साथ ईष्र्या की, किन्तु उसे इन्द्रका त्याग करती हुई देखकर 'मैंने इसे इन्द्रके वरणार्थ आती हुई समझकर इसके साथ व्यर्थ ही ईर्ष्या की' इस भावसे ( अथवा-इन्द्रको सुन्दर नहीं होनेसे मानवी भी दमयन्ती छोड़ रही है और मैं स्वर्गलक्ष्मी होकर भी इसमें अनुरक्त हो रही हूँ' इस भावसे ) लज्जित हुई ] // 32 // त्वत्तः श्रतो नेति नले मयाऽतः परं पदस्वेत्युदिताऽथ देव्या / ह्रीमन्मयरिथरङ्गभूमिभैमी दशा भाषितनैषधाऽभूत् / / 33 // स्वत्त इति / अथ नले नलवरणविषये, मया नेति निषेधार्थक नलनामार्द्धबोधक वा 'न' इति पदमित्यर्थः, स्वत्त एव श्रुतः, अतः नलात् , परम् अन्यं, वदस्व नृपान्तरं ब्रहीत्यर्थः, अथवा-अतः नकारपदात् , परमनन्तरं पदं, वदस्व इति देव्या वाग्देवः तया, उदिता सपरिहासं कथिता, हीमन्मथद्वैरथरङ्गभूमिः लज्जाकामरथिद्वयप्रवृत्त. युद्धनाढ्यशाला इव, भैमी दृशा दृष्टया इव, भाषितः नैषधः नलः यया सा तादृशी, अभूत् हिया कण्ठेन वक्तुमशक्ता कटाक्षदृष्टया नलं सानुरागम् ऐक्षतेत्यर्थः // 33 // ___ इस (इन्द्रका त्याग करने ) के बाद 'तुमसे मैंने नलके विषयमें 'न' अर्थात् नहीं (निषेध अथवा-नलका आधा नाम ) सुना अब इससे (नलमे) भिन्न अभीष्ट वर ( अथवानलके नाम के द्वितीय अक्षर 'ल' ) को कहो' इस प्रकार सरस्वती देवीसे कही गयी ( अत एव ) लज्जा तथा कामदेवके दो रथोंकी रङ्गभूमि ( नृत्तस्थान अर्थात् युद्धभूमिरूप ) दमयन्ती दृष्टिसे ( देखकर ही) नलका नाम कहा अर्थात् दूसरे किसीका नाम अथवा जलके नामका दूसरा अक्षर 'ल' का उच्चारण नहीं किया, किन्तु नलको देखकर ही 'इस नलमें वरणमाला पहनावो' ऐसा संकेत किया ] // 33 // हसत्सु भैमी दिविषत्सु पाणौ पाणिं प्रणीयाप्सरसा रसात् सा / आलिङ्गथ नीत्वाऽकृत पान्थदुगों भूपालदिकपालकुलाध्वमध्यम्॥३४॥ हसस्विति / दिवि सीदन्तीति दिविषदः देवाः, 'अमरा निर्जरा देवा, आदितेया दिविषदः' इत्यमरः / 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना क्विप् / 'हृदुभ्याञ्च' इति उपसङ्ख्या. नात् सप्तम्यलुक्, 'सुषामादिषु च' इति षत्वम् , 'अविहितलक्षणमूर्द्धन्याः सुषामादिषु द्रष्टव्याः' इति वचनात् / तेषु रसात् अनुरागात् , अप्सरःसु इति भावः, अप्स. रसां पाणी पाणिं प्रणीय निधाय, अप्सरसां हस्तं त्वेत्यर्थः, हसत्सु अहो नरासक्ता इति परिहसत्सु सत्सु, सा सरस्वती, भैमीम् आलिङ्गय भूपालानां दिकपालानाञ्च कुलयोः वर्गयोः, अध्वा तस्य मध्य नीत्वा पान्थदुर्गा पथिकजनैः सिन्दूरादिभिः 1. 'रङ्गभूमी' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 849 पूजितां मार्गमध्यस्थदुर्गादेवीमित्यर्थः, अकृत तद्वदलङ्घयाम एकलचयां कृतवतीत्यर्थः, कृतः कर्तरि लुङि 'हस्वादङ्गात्' इति सिचः सकारलोपः॥३४॥ __(अप्सराओंमें ) अनुराग होने के कारण अप्सराओं के हाथमें ( अपना) हाथ रखकर अर्थात् उनका हाथ पकड़कर ( अथवा-दोनों ( सरस्वती देवी तथा दमयन्ती) के आशय जानने ( या-प्रसन्नता ) के कारण अप्सराओंके हाथमें ( अपना ) हाथ रखकर अर्थात् ताली बजाकर ) देवों के हँसते रहनेपर सरस्वती देवीने दमयन्ती का आलिङ्गनकर अर्थात् उसे अङ्कपाली ( अँकवार = गोद ) में पकड़कर राजा ( नल, या-समस्त राज-समुदाय ) तथा देव-समूहके मार्गके बीचमें ले जाकर उसे जुलूसकी दुर्गा बना दिया। [ जिस प्रकार चल दुर्गाका जुलूस निकालकर उसे मार्गके बीचमें ले जाकर घुमाते हैं, उसी प्रकार सरस्वती देवीने इस दमयन्तीको गोदमें पकड़कर राजाओं तथा देवों के बीचमें ले जाकर घुमाया ] // 34 // अदेशितामप्यवलोक्य मन्दं मन्दं नलस्यैव दिशा चलन्तीम् / भूयः सुरानद्धपथादथासौ तानेव तां नेतुमना नुनोद // 35 / / अदेशितामिति / अथ असौ देवी, तां भैमीम्, अदेशितां नलं प्रति गच्छेत्यचो. दितामपि, दिशेश्चौरादिकात् कर्मणि क्तः / मन्दं मन्दं नलस्यैव दिशा चलन्तीं गच्छन्तों, 'चलेरात्मनेपदमनित्यज्ञापनात्' इति वामनः / अवलोक्य भूयः पुनरपि, तान् इन्द्रादीन् , सुरान् एव नेतुं मनो यस्याः सा सती। 'तुङ काममनसोरपि' इति मकारलोपः। अर्द्धपथात् नलसमीपगामिपथार्द्धात्, पथा सकाशात् परावर्त्य इत्यर्थः, नुनोद इन्द्रादीन् प्रति प्रेरयामास // 35 // ___ इसके बाद इस ( सरस्वती ) ने ( 'इन्द्रादि देवोंके सामने चलो' इस प्रकार ) आज्ञापित न होने पर भी ( पाठा०-आज्ञापित होनेपर भी) नलकी ओर ही धीरे-धीरे चलती हुई दमयन्तीको आधे मार्गसे नलको छोडकर फिर उन देवोंकी ओर ही ले जानेकी इच्छुक होकर उसे प्रेरित किया // 35 // मुखाब्जमावर्त्तनलोलनालं कृत्वाऽऽलिहुंझुरवलक्षलक्ष्यम् / भीमोद्भवा तां नुनुदेऽङ्कपाली देव्या नवोढेव वृथा विवादः॥३६।। . मुखेति / भीमोद्भवा भैमी, मुखाजं स्वमुखारविन्दम्, आवर्तनेन दिग्वलनेन, लोलनालं व्यावृत्तकण्ठनालं, तथा आलीनां सखीनां, हुंढुरवाणां हुँहुमिति निवारणशब्दानाम्, अन्यत्र-अलीनां भङ्गाणां, हुँहुंरवाणां झङ्कारशब्दानां, लक्षः लक्षसङ्ख्याविशेषैः, लक्ष्यं दर्शनीयञ्च, कृत्वा नवोढा नववधूः, विवोढुः परिणेतुः इव, देव्याः सम्बन्धिनी वृथा ताम् अङ्कपाली परिरम्भणबन्धनम्,' अङ्कपाली स्मृता धान्यां वेदिका-परिरम्भयोः' इति विश्वः / नुनुदे तत्याज // 36 // 1. 'आदेशिता-' इति पाठान्तरम् / 2. 'लक्ष्यलक्ष्यम्' इति, 'लक्ष्मलच्यम्' इति च पाठान्तरम् / 3. 'मुमुचे' इति पाठान्तरम् /
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________________ 850 नैषधमहाकाव्यम् / भीमनन्दिनी ( दमयन्ती) ने घुमानेसे चञ्चल कण्ठरूप नामवाले तथा सखियों के 'हूं हूं' इस प्रकारके ( परिहासवश नलके पास जानेमें निषेध करते हुए) लाखों अर्थात् अत्यधिक वचनों (भ्रमरोंके अत्यधिक हूँ हूँ' रूप गुञ्जन ) से लक्षित (या-सुन्दर ) मुखरूपी कमलको करके देवी ( सरस्वती देवी) के उस अङ्कपालीको उस प्रकार छोड़ा, जिस प्रकार नववधू सखियोंके लाखों बार मना करनेपर भी पतिके अङ्कपाली ( आलिङ्गन ) को छोड़ती है / [ कमलके सञ्चालनसे कमलनाल ( डण्ठल ) का हिलना तथा भ्रमरोंके बहुत गुञ्जनसे लक्षित (या-सुन्दर ) होनेके समान इन्द्रकी ओरसे मुखको मोड़नेसे दमयन्ती कण्ठनाल हिला तथा परिहास करती हुई सखियोंने इन्द्रकी ओरसे मुखको मोड़ते समय निषेधसूचक जो 'हूं हूं' शब्द किया उससे उसका मुख बहुत सुन्दर दीखने लगा, ऐसी दमयन्तीने इन्द्रकी ओरसे मुख मोड़कर सरस्वती देवीके आलिङ्गन ( कसकर अङ्कमें पकड़ने ) को उस प्रकार छूड़ा लिया, जिस प्रकार नई बहू सखियोंके मना करते रहने पर भी पतिके आलिङ्गनको छुड़ा लेती है ] // 36 / / देवी कथश्चित् खलु ताम देवद्रीचीभवन्ती स्मितसिक्तसृक्का / आह स्म तां मय्यपि ते भृशं का शङ्का ? शशाङ्कादधिकास्यबिम्बे ! // देवीति / देवी तां भैमी, कथञ्चित् खलु कथञ्चिदपि, देवान् अञ्जतीति देवीची देवानुवर्तिनी, 'देवानञ्चति देवद्रयङ' इत्यमरः / 'ऋत्विगदधक-' इत्यादिना अञ्चतेः किन्-प्रत्ययः, 'विश्वग्देवयोश्च टेरद्रयञ्चतावप्रत्यये' इति टेरद्रयादेशः, 'उगितश्च' इति सूत्रे उगित्वात् ङीप् 'अञ्चतेश्वोपसङ्ख्यानाम्' इति वा ङीप / सा न भवन्तीम् इति अदेवद्रीचीभवन्ती देवान् अनभिगच्छन्तीमित्यर्थः, दृष्ट्वेति शेषः, स्मितेन सिक्ते सक्कणी ओष्ठप्रान्तो यस्याः सा तादृशी सती, 'प्रान्तावोष्ठस्य सक्कणी' इत्यमरः हे शशाङ्कात् अधिकम् उत्कृष्टम्, आस्यबिम्ब मुखस्वरूपं यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः, सापेक्षस्वेऽपि गमकत्वात् समासः / मयि मम समीपेऽपि, ते तव, का शङ्का ? अविश्वासः ? न काचिदित्यर्थः, इति तां भैमी, भृशम्, आह स्म उवाच, 'लट स्मे' इति भूते लट् , 'ब्रुवः पञ्चानाम्' इत्यादिना णलाहादेशः // 37 // सरस्वती देवीने, किसी प्रकार ( बड़ी कठिनाईसे ) देव (इन्द्र) के सम्मुख नहीं होती हुई उस (दमयन्ती ) से बोली-'हे चन्द्रसे भी अधिक सुन्दर मुखबिम्बवाली (दमयन्ति) ! मेरे विषयमें ( पाठा०-मैरे प्रति ) भी अधिक (पाठा०-फिर) कोई शङ्का है क्या ? अर्थात परम हितैषिणी मुझमें तुम्हें किसी प्रकारका ('यह सरस्वती मुझे इन्द्र के पास वरण करने के लिये पकड़कर ले जा रही है। ऐसा) सन्देह नहीं करना चाहिये // 37 / / 1. 'तामदेवद्रीची भवन्तीम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'मां प्रत्यपि से पुनः का' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 851 एषामकृत्वा चरणप्रणाममेषामनुज्ञामनवाप्य सम्यक् / सुपर्ववैरे तव वैरसेनि वरीतुमीहा कथमौचितीयम् ? / / 38 // एषामिति / हे वत्से ! एषाम् इन्दादीनां, चरणप्रणामम् अकृत्वा, एषामनुज्ञा नलवरणे सम्मति, सम्यक अनवाप्य अप्राप्य च, सुपर्ववैरे अवज्ञाकरणात् देवताद्वेषे सति, तव वीरसेनस्य अपत्यंवरसेनिः नलः तं, वरातुम् 'वृतो वा' इति विकल्पादिटो दीर्घः / इयम् ईहा स्पृहा, कथम् औचिती औचित्यम् ? न कथञ्चिदित्यर्थः // 38 // ('तब तुम मुझे देवोंके सम्मुख वरण करनेके लिए पकड़कर क्यों लिये जा रही हो' इस शङ्काका निवारण करती हुई सरस्वती देवी आगे फिर कहती हैं कि-) इन ( इन्द्रादि देवों ) के चरणों में प्रणाम नहीं करके तथा इनकी आज्ञाको अच्छी तरह नहीं प्राप्त करके ( अपना वरण त्याग कर नलको वरण करने के कारण उत्पन्न होनेवाले ) देवोंके विरोध रहने पर वीरसेनके पुत्र ( नल ) को वरण करनेको तुम्हारी यह इच्छा उचित है क्या ? अर्थात् कदापि नहीं; ( अतएव मैं तुम्हें इनके सामने वरण करनेके लिए नहीं ले जाना चाहती, किन्तु 'तुम इनके चरणों में प्रणामकर प्रसन्न होकर अपना-अपना रूप धारण करनेसे नलवरणार्थ इनकी आज्ञाके मिल चुकने पर भी उक्त प्रणाम द्वारा इन्हें अतिशय प्रसन्नकर शिरः. कम्प या वचनादिसे स्पष्टरूपमें आज्ञा पाकर नलका वरण करे इस अभिप्रायसे मैं तुम्हें इनके सम्मुख ले जाना चाहती हूं, अतएव तुम्हें मेरे विषयमें कोई शङ्का नहीं करनी चाहिये)। इतीरिते विश्वसितां पुनस्तामादाय पाणौ दिविषत्सु देवो / कृत्वा प्रणम्रां वदति स्म सा तान् भक्तेयमहत्यधुनाऽनुकम्पाम् / / 3 / / इतीति / सा देवी इतीरिते सति विश्वसितां प्रतीतां, तां भैमी, पुनः भूयः, पाणौ हस्तौ, आदाय तत्पाणिं गृहीत्वेत्यर्थः, दिविषत्सु देवेषु; देवतानांसमीपे इत्यर्थः, प्रणम्रां प्रणतां, कृत्वा तान् इन्द्रादिदेवान् , वदति स्म उक्तवती, 'लट स्मे' इति भूते लट / किमिति ? भक्ता युष्मद्भक्ता, इयं दमयन्ती, अधुना इदानीम् , अनुकम्पां भव त्कृपाम् , अर्हति; निजवरणाशां विहाय नलवरणार्थमनुग्रहं कुरुतेति भावः // 39 // ___ सरस्वती देवी ऐसा ( 14 / 38 ) कहने पर विश्वासकी हुई उस ( दमयन्ती ) को फिर हाथमें लेकर ( ग्रहणकर ) देवोंमें प्रणत करके 'भक्ता' यह ( दमयन्तो ) इस समय आपलोगोंकी ( नल वरणकी स्वीकृतिरूपी ) दयाके योग्य है अर्थात् अब आपलोग इस दमयन्ती पर दयाकर नलवरणार्थ इसे स्वीकृति दें // 39 // युष्मान् वृणीते न बहून् सतीयं शेषावमानाच्च भवत्सु नैकम् / तद्वः समेतं नृपमंशमेनं वरीतुमन्विच्छति लोकपालाः ! // 4 // युष्मानिति / हे लोकपालाः ! सती साध्वी, एकभत्त का इति यावत् , इयं भैमी, 1. 'मनिशम्य' इति पाठान्तरम् / / 1. 'कतमौचिती' इत्यपि पाठः, इति 'प्रकाश'-कारः /
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________________ 852 नैषधमहाकाव्यम् / युष्मान् बहुन् न वृणीते, पातिव्रत्यभङ्गभयादिति भावः, शेषाणाम् अवशिष्टानाम् , अवमानात् अवमानप्रसङ्गात् , भवत्सु मध्ये एकञ्चन, वृणीते इति पूर्वानुषङ्गः, तत् तस्मात् , वः युष्माकं सम्बन्धिनं, समेतं मिलितम् , अंशं सर्वांशसमष्टिरूपम् , 'अष्टाभिश्च सरेन्द्राणां मात्राभिर्निर्मितो नृपः' इति स्मरणात् , एनं नृपं वरीतुम् अन्विच्छति, 'एकवरणापेक्षया सर्वांशनिर्मितस्य नलस्य वरणेनैव सर्वेषां सम्मानं भवति' इति भावः॥ हे लोकपाल ! पतिव्रता यह ( दमयन्ती ) बहुत (गणनामें चार ) आपलोगोंको वरण नहीं करती; तथा शेष तीन देवोंका अपमान होनेसे आपलोगोंमें-से एकको भी वरण नहीं करती; अत एव आपलोगों के सम्मिलित अंशवाले इस राजा (नल ) को वरण करना चाहती है / [इस कारण अब आपलोगोंको यह आशङ्का नहीं करनी चाहिये कि स्वयं वरण करानेकी ईच्छासे आये हुए हमलोग दूसरेको वरण करनेकी स्वीकृति इसके लिए भैम्याः स्रजः सञ्जनया पथि प्राक स्वयंवरं संवरयाम्बभूव / सम्भोगमालिङ्गनयाऽस्य वेधाः शेषन्तु कं हन्तुमियद्यतध्वम् ? // 41 / / किञ्च भैम्या नलवरणसम्भोगौ तत्र प्रागेव ब्रह्मणैव निर्वतितौ किमपरमवशिष्यते यद्विघातार्थमयं वः प्रयासः ? इत्याह, भैम्या इति / किञ्च, वेधाः स्रष्टैव, प्राक युष्महौत्यानुसन्धानकाले, पथि अन्तःपुरमार्गे, वजः माल्यस्य, सञ्जनया कण्ठे योजनया, 'ण्यासश्रन्थो युच' इति ण्यन्तत्वात् युच-प्रत्ययः, भैम्याः स्वयंवरं नलवरणं, संवर. याम्बभूव निवर्तयामास, तथा अस्य नलस्य, आलिङ्गनया आश्लेषणया, पूर्ववत् युच , सम्भोगं, संवरयाम्बभूव इति पूर्वानुषङ्गः: एतच्चोभयं षष्ठसर्गे 'प्रसूप्रसादाधिः गता' 'अन्योन्यमन्यत्रवत्' इति श्लोकद्वये अनुसन्धेयम् ; शेषम् इतोऽवशिष्टन्तु 'अथ शेषं त्रिष्वन्यस्मिन् उपयुक्ततरेऽपि च। स्वनिर्माल्यप्रदाने स्त्री ना नागेशाप्रधानयोः।।' इति वैजयन्ती, कं सम्भोगं, हन्तुं व्याघातयितुम् , इयत् एतावत् यथा तथा नलरूपधारणादिना इत्यर्थः, यतध्वं यत्नं कुरुत ? सम्प्रश्ने लोट् , ब्रह्मसृष्टेरलङ्घयत्वात् वृथा वः प्रयासः, अतः अनुज्ञादानमेव कर्त्तव्यम् इति भावः / / 41 / / ब्रह्माने पहले ( आपलोगोंका दूत बनकर दमयन्तीके अन्तःपुर में नलके जानेपर ) मार्गमें ( माताकी सेवा करने के उपरान्त अपने महलको लौटते समय ) मालाके सङ्ग करने अर्थात् पहनानेसे ( 'प्रसूप्रसादाधिगता- 6 / 49 ) दमयन्तीका स्वयंवर कर दिया है तथा इस (नल ) के आलिङ्गनसे ( 'अन्योन्यमन्यत्र- 651) सम्भोग (बाह्य रति.) को पूरा कर दिया है, फिर बाकी बचे हुए किस सम्भोगको नष्ट करनेके लिए आपलोग इतना ( स्वरूपका त्यागकर नलरूपको ग्रहण करना, दूती भेजना तथा नलतकको दूत बनाकर भेजना आदि) उपाय कर रहे हैं ? ( अर्थात् उक्त प्रकारसे नलके कंण्ठमें मालार्पणरूप स्वयंवर तथा नलका आलिङ्गनरूप बाह्यसम्भोग कराकर ब्रह्माने ही दमयन्तीको नलकी पत्नी
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________________ 853 चतुर्दशः सर्गः बना दिया है, अत एव अब आपलोग ब्रह्माके किये हुए कार्य का उल्लङ्घन न करके नलवरणार्थ दमयन्तीको आशा प्रदान करें] // 41 // वर्णाश्रमाचारपथात् प्रजाभिः स्वाभिः सहैवास्खलते नलाय | प्रसेदुषो वेदशवृत्तभङ्गथा दित्सैवं कीर्तेर्भुवमानयद् वः ? // 42 / / यद्वा, किमेषां देवानां दोषग्रहणेन येनेत्थमुपालभ्यन्ते ? किन्तु गुणग्रहणेनैव तान् प्रसादयामीत्याशयेनाह, वर्णेति / वर्णानां ब्राह्मणादीनाम्, आश्रमाणां ब्रह्मचर्यादीनाम्, आचारपथात् सद्वृत्तमार्गात् , स्वाभिः स्वकीयाभिः, प्रजाभिः सहैव अस्खलते अचलते, नलाय प्रसेदुषः प्रसन्नान् , 'भाषायां सदवसभ्रवः' इति सदेः वसुरादेशः / व युष्मान् , ईदृश्या अकपटदूत्यकृत्यप्रकाशितया, वृत्तभङ्गया चरित्रवैचित्रयेण, तद्वयाजेनेत्यर्थः 'स्त्रियाः पुंवत्-' इत्यादिना पुंवद्भावः, कीर्तेः दित्सा नलाय कीर्ति दातुम इच्छेव की, ददातेः 'सनि मीमा-'इत्यादिना इसादेशेऽभ्यासलोपः, 'अः प्रत्ययात्' इत्यकार-प्रत्यये टाप , भुवम् आनयद्वा ? युष्मान् पृथिवीमानी तवती किम् ! 'नीवह्योः-' इत्यादिना नयतेर्द्विकर्मकता / नलस्य कीर्तिम् अलङ्कत म् अयं वः प्रयासो न तु भैमी पीडयितुमिति भावः // 42 // अथवा अपनी प्रजाओं के साथ वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूदों) और आश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ) के आचारमार्गसे स्खलित नहीं होनेवाले अर्थात् प्रजाओंके साथ ही वर्णाश्रमाचरित मार्ग पर चलनेवाले नलके लिए, प्रसन्न आपलोगोंको ऐसे व्यवहार ( नलके अकपटदूतभावसे प्रकाशित विचित्र कार्य) के द्वारा कीर्ति देनेकी इच्छा ही...... ) / [ 'इन्द्रादि दिक्पालों के स्वयंवर में अपने वरणके लिए उपस्थित होनेपर भी दमयन्तीने उनको छोड़कर नलको ही वरण किया' ऐसी नलकी कीर्ति उत्पन्न करने के लिए ही आपलोग इस भूलोकमें आये हैं, अप्सराओं के साथ सम्भोग करनेवाले आपलोगोंकी मानवी के साथ सम्भोग करनेकी इच्छा भला कैसे हो सकती है ? अत एव अब नलवरणार्थ दमयन्तीको आपलोग आज्ञा दें // 42 // इति श्रुतेऽस्या वंचने च हास्यात् कृत्वा सलास्याधरमास्यबिम्बम् / भ्रूविभ्रमाकूतकृताभ्यनुज्ञेष्वेतेषु तां साऽथ नलाय निन्ये / / 43 / / इतीति / किञ्चेति चार्थः, अस्याः देव्याः, इति इत्थम्भूते, वचने श्रुते सति हास्यात् प्रसन्नताजनितहासाद्धेतोः, आस्यबिम्बं सलास्याधरं चलदोष्ठमिति यावत्, कृत्वा, एतेषु देवेषु, भ्रविभ्रम एव भ्रचेष्टेव, आकृतम् अभिप्रायः तेन अभिप्रायव्यञ्जकचेष्टयेत्यर्थः, कृता अभ्यनुज्ञा यः तेषु सस्सु, अथ अनुज्ञाप्राप्तयनन्तरं, सा देवी, तां भैमी, नलाय निन्ये नलसमीपं निनायेत्यर्थः / क्रियाग्रहणाच्चतुर्थी // 43 // 1. 'दित्सेव' इति पाठान्तरम् / 2. 'वचसैव इति 'प्रकाश' कारसम्मतः पाठः /
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________________ 854 नैषधमहाकाव्यम् / इस प्रकार ( 14 / 40-42 ) इस ( सरस्वती देवी ) के वचन सुनने पर प्रसन्नताजन्य हास्यसे मुखबिम्बको विलासयुक्त कर अर्थात् प्रसन्नतापूर्वक सविलास हंसकर इन (इन्द्रादि चारों देवों ) के भ्रूचालनके अभिप्रायसे आज्ञा अर्थात भ्रुकुटि द्वारा नलवरणार्थ स्वीकृति देनेपर वह ( सरस्वती देवी ) उस ( दमयन्ती ) को नलके पास ले गयी // 43 // मन्दाक्षनिष्पन्दतनोमनोभूदुष्प्रेरमप्यानयति स्म तस्याः / मधूकमालामधुरं करं सा कण्ठोपकण्ठं वसुधासुधांशोः / / 44 // मन्दाक्षेति / सा सरस्वती, मन्दाक्षनिष्पन्दतनोः लज्जानिश्वलाङ्गायाः, तस्याः भैग्याः, मनोभुवा कामेनापि, दुष्प्रेरं प्रेरयितुमशक्यं, मधूकमालया मधुरं रम्यं करं वसुधासुधांशोः भूचन्द्रस्य नलस्य, कण्ठोपकण्ठं कण्ठ समीपम्, आनयति स्म प्रापयामास; तदा अस्याः स्मरादपि लज्जा बलीयसी अभूदिति भावः / 44 // ___ उस ( सरस्वती ) ने लज्जासे निश्चल शरीरवाली उस ( दमयन्ती ) के कामदेवसे भी कठिनतासे प्रेरणीय तथा महुएकी मालासे सुन्दर हाथको पृथ्वीचन्द्र (नल ) के कण्ठके पास पहुँचाया / / 44 / / अथाभिलिख्येव समय॑माणां राजिं निजस्वीकरणाक्षराणाम् / दूर्वाङ्कुराढ्यां नलकण्ठनाले वधूर्मधूकस्रजमुत्ससर्ज / / 45 / / अथेति / अथ वधूः कन्या भैमी, अभिलिख्य लिखित्वा, समय॑माणां दीयमानां निजस्य आत्मीयस्य, यत् स्वीकरणं विवाहेन परिग्रहणं, तस्य अक्षराणां तद्वाचकवर्णानां, मां पत्नी कुरु इत्यक्षराणामित्यर्थः, अहं त्वां वरयामि इत्यक्षराणामित्यर्थो वा राजि श्रेणीमिव, दूर्वाङ्कुराढयां दूर्वाप्ररोहमयिष्ठां, मधूकस्रजं मधुमकुसुममालां, 'मधूके तु गुडपुष्पमधुमौ' इत्यमरः / नलकण्ठनाले उत्ससर्ज अर्पयामास // 45 // ___ इसके ( नल-कण्ठके पास हाथ पहुंचाने के ) बाद वधू ( दमयन्ती ) ने लिखकर समर्पित की जाती हुई अपने स्वीकार ( 'मैंने तुम्हें निश्चितरूपमें पति स्वीकृत किया' ऐसा, अथवा'तुम मुझे अपनी पत्नी स्वीकृत करो' ऐसा ) के अक्षरोंकी पंक्ति ( समूह ) के समान दूर्वाङ्करोंसे भरी हुई उस महुएकी माला अर्थात् वरणमाला ( जयमाला ) को नलके कण्ठनालमें डाल दिवा। [ दूर्वाङ्कुर श्यामवर्ण होनेसे अक्षरतुल्य तथा महुएके फूलोंकी अक्षरों के सन्धितुल्य और कण्ठको नाल (कमलका डण्ठल ) कहनेसे नलके मुखको कमलतुल्य समझना चाहिये ] // 45 / / / तां दूर्वया श्यामलयाऽतिवेलं शृङ्गार-भा-सन्निभया सशोभाम् / मालां प्रसूनायुधपाशभासं कण्ठेन भूभृद्बिभराम्बभूव / / 46 / / तामिति / अतिवेलं भृशं, श्यामलया हरितवर्णया, अत एव शृङ्गार-भा-सन्नि. भया शृङ्गाररसप्रभासदृश्या, 'श्यामो भवति शृङ्गारः' इति भरतवचनात् इति भावः 1. '-निस्पन्द-' इति दन्त्यमध्यं पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 855 दुर्वया सशोभा शोभमानां, प्रसूनायुधस्य कन्दर्पस्य, यः पाशः पाशायुधं, मालाया मदनोद्दीपकत्वादिति भावः, तस्येव भा यस्यस्तादृशी, मालां भूभृत् नलः, कण्ठेन बिभराम्बभूव धारयामास 'भीहीभृहुवां श्लुवच्च' इति विकल्पादाम्-प्रत्यये श्लवद्धा वात् धातोर्भािवः, 'कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि' इति भुवोऽनुप्रयोगः // 46 // राजा नलने अत्यन्त श्यामवर्ण ( अत एव ) शृङ्गारशोभाके समान दुर्वासे सुन्दर ( अथवा-श्याम वर्ण ( अत एव ) शृङ्गारशोभाके समान दूर्वासे ( अत्यन्त सुन्दर ) तथा पुष्पायुध ( कामदेव ) के पाशके समान उस मालाको कण्ठसे धारण कर लिया // 46 // दूर्वाग्रजाग्रत्पुलकावलिं तां नलाङ्गसङ्गाद् भृशमुल्लसन्तीम् / मानेन मन्ये नमितानना सा सासूयमालोकत पुष्पमालाम् // 47 // दूर्वाग्रेति / सा भैमी, दूर्वाग्राण्येव जाग्रती उद्गच्छन्ती, पुलकावलिः यस्याः तां स्पर्शन सजातपुलकामिव स्थितामित्यर्थः, नलाङ्गसङ्गान् भृशम् अत्यर्थम्, उल्ल. सन्तीम् शोभमानाम्, आनन्दयुक्ताञ्च, तां पुष्पमालां मानेन मालायाः साफल्यदर्शनात् प्रणयकोपेन, नमितानना सती सासूयम् आलोकतेति मन्ये / अत्र दूर्वाग्रेत्या. दिप्रस्तुतमालाविशेषणसाम्यादप्रस्तुतसपत्नीप्रतीतेः समालोक्तिः, तदुपजीवनेन लज्जा. हेतुक-नलाननालोकेन मानकृतासूयाहेतुकत्वोत्प्रेक्षणादनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 47 // वह ( दमयन्ती ) दूर्वाङ्कररूप उत्पन्न रोमाञ्च-समूहवाली तथा नलके शरीरसंसर्गसे अत्यन्त शोभमान (पक्षा०-हर्षयुक्त ) पुष्पमालाको मान (प्रणयकोप ) से मुखको नीचे करके ईर्ष्यासे देखा, ऐसा मैं मानता हूं। [ जिस प्रकार अपने प्रियके शरीर-सम्पर्कसे रोमाञ्चयुक्त शरीरवाली एवं हर्षित दूसरी स्त्रीको देख कर कोई स्त्री मानसे मुखको नीचा करके ईर्ष्यापूर्वक देखती है, उसी प्रकार नलशरीर-सम्पर्कसे दूर्वाङ्कररूप रोमाञ्चयुक्त तथा शोभती हुई मालारूप सपत्नीको मानों दमयन्तीने मानसे अधोमुखी होकर देखा ] // 47 / / सा निनले तस्य मधूकमाला हृदि स्थिता च प्रतिबिम्बिता च / कियत्यमग्ना कियती च मग्ना पुष्पेषुबाणालिरिव व्यलोकि / / 48 / / सेति / तस्य नलस्य. निर्मले स्वच्छ, हृदि वक्षसि, स्थिता च बहिरवस्थिता च, प्रतिबिम्बिता च हृदयस्य स्वच्छत्वेन अन्तः प्रतिफलिता च, सा मधूकमाला कियतो स्वल्पा, अमग्ना बहिरवस्थिता, कियती स्वल्पा, मग्ना अन्तः प्रविष्टा च, अर्द्धमग्ना चेत्यर्थः, पुष्पेषोः कामस्य, बाणालिरिव बाणपंक्तिरिव, व्यलोकि दृष्टा, तत्रत्यजनैरिति शेषः / इत्युत्प्रेक्षा / / 48 // ___ उस ( नल ) के निर्मल हृदय ( छाती ) में ( बाहर ) स्थित तथा (दर्पणतुल्य स्वच्छ होनेसे ) अन्तःकरणमें प्रतिबिम्बित वह महुएकी माला कुछ भीतर प्रविष्ट तथा कुछ बाहर स्थित कामबाणसमूहके समान देखी गयी // 48 // 1. इमौ श्लोको (1448-49) 'प्रकाश' कृता व्यत्यासेन पठित्वा व्याख्यातौ।
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________________ 856 नैषधमहाकाव्यम् / काऽपि प्रमोदास्फुटनिर्जिहानवणैव या मङ्गलगीतिरासाम् / सैवाननेभ्यः पुरसुन्दरीणामुच्चैरुलूलुध्वनिरुच्चञ्चार / / 49 / / काऽपीति / प्रमोदेन हर्षातिरेकेण, अस्फुटं यथा तथा निर्जिहानाः निर्गच्छन्तः, वर्णाः यस्याः तादृशी एव हर्षपारवश्यात् अस्फुटाक्षरैवेत्यर्थः, आसां स्वयंवरदर्शनार्थ मागतानां, पुरसुन्दरीणाम् आननेभ्यः काऽपि अपूर्वा, या मङ्गलगीतिः, उच्चचार उच्चरिता, सैव अस्फुटाक्षरा मङ्गलगीतिरेव, उच्चैः तारम्, उलूलुध्वनिः, अभदिति शेषः / अनुकारिशब्दोऽयम् उलूलुरित्येवं रूपः कश्चित् हर्षणात्मको मुखोचार्यो ध्वनिविशेषः उत्सवादी स्त्रीभिरुच्चार्यते इत्युदीच्यानामाचारः। पुरसुन्दरीणां यत् उत्सवादी मङ्गलसूचकं गानं तदेव हर्षपारवश्यादस्फुटाक्षरत्वातं उलूलुध्वनिकल्पमभूदित्यर्थः॥ ___ अत्यधिक हर्षसे कहे जाते हुए अस्पष्ट अक्षरोंवाला जो ( स्वयम्वर देखने के लिए आयी हुई ) नगरकी स्त्रियोंके मुखसे मङ्गल-गान निकला अर्थात् गाया गया, वही 'उलू लु' ध्वनि (विवाहादि मङ्गल कार्योंके अवसर पर स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला 'उलू लु' रूप अस्पष्ट ध्वनि-विशेष ) उल्लसित हुआ / [ अब भी वङ्गदेशकी स्त्रियोंको मङ्गल-कार्योंमें 'उलूलु..." रूप अस्पष्ट शब्दोच्चारण करते देखा जाता है ] // 47 // रोमाणि सर्वाण्यपि बालभावाद् वरश्रियं वीक्षितुमुत्सुकानि | तस्यास्तदा कण्टकिताङ्गयष्टेरुद्ग्रीविकादानमिवान्वभूवन् / / 50 / / अथास्यास्त्रिभिः पुलकोदयमाह, रोमाणीत्यादि / तदा तत्काले, कण्टकिताङ्गयष्टेः पुलकितशरीरायाः, तस्याः भैम्याः, सर्वाण्यपि रोमाणि बालभावात् कचत्वात , शिशुत्वाच्च, 'बालः कचे शिशौ मूर्खे' इति विश्वः / वरस्य वोढुः नलस्य, श्रियं सौन्दर्य, वीक्षितुं द्रष्टम , उत्सुकानि सन्ति, उग्रीविका उन्नमितग्रीवीकरणं ग्रीवोन्नमन मिति यावत् / उग्रीवयतेः 'तत्करोति-' इति ण्यन्ताद्धात्वर्थनिर्देशेऽपि ण्वुल्प्रत्ययः तस्याः आदानं स्वीकारम्, अन्वभूवनिवेत्युत्प्रेक्षा। बाला ह्यद्ग्रीवा भृशं पश्यन्तीति भावः // ___ उस समय रोमाञ्चित शरीरयष्टिवाली उस ( दमयन्ती ) के, बालभाव ( केशत्व, पक्षा०-बचपन ) के कारण वर ( दुल्हा नल ) की शोभाको देखने के लिए उत्कण्ठित सभी रीम ऊपर की ओर गर्दन किये हुएके समान हो गये। [दमयन्तीके रोमाञ्चयुक्त शरीरमें खड़े हुए रोम ( रोंगटे ) ऐसे मालूम पड़ते थे कि मानो वे बचपन होनेसे वरकी शोभा देखने के लिए उत्सुक होकर ऊपर गर्दन किये हों। बच्चोंका दुल्हेको शोभा देखने के लिए उत्कण्ठित होना तथा छोटा होने के कारण अच्छी तरह नहीं दीखने से गर्दनको ऊपर उठाना स्वभाव होता है / प्रकृतमें 'ब' और 'व' में अभेद मानकर 'बालत्व' (बचपन ) तथा वालत्व' ( केशभाव ) होनेसे उक्त कल्पना की गयी है ] // 50 // रोमाङ्करैर्दन्तुरिताखिलाङ्गी रम्याघरा सा सुतरां विरेजे। शरव्यदण्डैः नितमण्डनश्री स्मारी शरोपासनवेदिकेव / / 51 //
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 857 रोमाङ्कुरैरिति / रोमाङ्कुरैः पुलकैः, दन्तुरितं विषमितम् , अखिलाङ्ग यस्याः सा, रम्यौ अधरौ दन्तवसने, ओष्ठौ इत्यर्थः, अन्यत्राधोभागश्च यस्याः सा, 'अधरो दन्तवसने हीनेऽनूर्वेऽधरोऽन्यवत्' इति विश्वः / सा भैमी, शरव्यदण्डैः निखातलक्ष्यभूतयष्टिभिः, श्रिता प्राप्तेत्यर्थः, मण्डनश्रीः प्रसाधनशोभा यस्याः सा तादृशी, रोमाकुराणां शरव्यदण्डसादृश्यं बोध्यम् ; स्मरस्येयं स्मारी कन्दर्पसम्बन्धिनी, शरोपास. नस्य शराभ्यासस्य, वेदिकेव सुतराम् अत्यर्थ, विरेजे शुशुभे; सञ्जातपुलकां तां दमयन्तीं कामः स्वशरैः पुनः पुनः विव्याध इति भावः / शराभ्यासिनो व्याधप्रमुखा निखातलक्ष्ययष्टिकां वेदीं कुर्वन्तीति प्रसिद्धिः / / 51 // रोमाकुरोंसे उच्चावच (विषमित ) सम्पूर्ण शरीरवाली तथा सुन्दर ओष्ठोंवाली वह ( दमयन्ती ) लक्ष्य ( निशाने ) के दण्डोंसे अलङ्कार-शोभाको पायी हुई कामदेवकी बाणाभ्यासकी वेदीके समान अत्यन्त शोभने लगी। [ बाणाभ्यास करनेवाले व्यक्ति दण्डा गड़ी हुई वेदी बनाकर उसे निशाना बनाकर बाण मारते हैं। रोमाञ्चित दमयन्तीको कामदेवने अपने बाणोंसे बार-बार निशाना बनाकर पीड़ित किया ] // 51 // चेष्टा व्यनेशन्निखिलास्तदाऽस्याः स्मरेषुपातैरिव ता विधूताः / अभ्यर्थ्य नीताः कलिना मुहूर्त लाभाय तस्या बहु चेष्टितुं वा / / 2 / / चेष्टा इति / तदा तत्काले, अस्याः भैम्याः, ताः, प्रागनुभूताः, निखिलाः चेष्टाः कटाक्षवीक्षणाङ्गविक्षेपादयः,स्मरस्येषुपातैः बागप्रहारः, विधूताः निरस्ता इवेत्युत्प्रेक्षा व्यनेशन् विनष्टाः, नशेलुङि पुषादित्वादङ , 'नशिमन्योरलिटि एत्वं वक्तव्यम्' इत्येस्वम् / 'विनेशु'रिति पाठे-लिट्यनादेशादित्वात् 'अत एकहलमध्येऽनादेशादेलिटि' 1. 'विनेशुनि-' इति पाठान्तरम् / 2. एतदने 'प्रकाश' कृता 'भाष्यकारस्य, वार्तिककारस्य, पदमञ्जरीकारस्यापि मते छन्दस्येवैत्त्वं नशिमन्योर्न भाषायाम् / 'अनेशन्नस्येषवः' इत्युदाहरणात् नशेरप्येत्त्वं छन्दस्येव' इत्यवसीयते। वृत्तिकृता तु नशिमन्योर्भाषाविषयत्वमङ्गीकृत्य अमिपच्योश्छन्दोविषयत्वमङ्गीकृत्यत्त्वं समर्थितम् / ' इत्युक्तम् / अत्र पक्षद्वयस्यायमाशयः-नशिमन्यो षायामेत्त्वानङ्गीकारपक्षे भाष्यप्रदीपोद्योतकृतो नागेशभट्टस्य अत एव 'चेष्टा व्यनेशन्निखिलास्तदास्याः' इति श्रीहर्षस्य प्रमादः' इत्युक्तिर्मानम् / तयोर्भाषायामप्येत्त्वाङ्गीकारपक्षे तु 'नशिमन्योरमिपचोश्छन्दस्येवमलिट्यपि' इत्येवमानुपूर्वी परित्यज्य 'नशिमन्योरलिटय त्वं छन्दस्यमिपचोरपि' इत्येवमानुपूर्व्या वार्तिककृतः पाठः तथा 'नशिमन्योरलिट्य त्वं छन्दसि', 'अमिपचोरपि' इत्येवम्भूतं 'छन्दसी'ति नशिमनिभ्यां सम्बध्यते, अपिना उत्तरत्रामिपचिभ्यामपि' इत्यभिप्रायक विभागमविधाय 'नशिमन्योरलिट्यत्त्वम्', 'छन्दस्यमिपचोरपि'इत्येवम्भूतं नशिमन्योः सामान्येन्यत्त्वमुक्त्वाऽनन्तरमुत्तरस्थाभ्याममिपचिभ्यामेव छन्दसीति सम्बध्यत इत्यभिप्रायको भाष्यकृत्कृतो विभागो मानमित्यवधेवम् /
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________________ 858 नैषधमहाकाव्यम् / इति एत्वाभ्यासलोपौ / प्रकारान्तरेणोत्प्रेक्षते-वा अथवा, तस्याः भैम्याः, लाभाय प्राप्तये, बहु बहुविधं, चेष्टितुं विलसितुं, कलिना कलिपुरुषेण, अभ्यर्थ्य 'कटाक्षवीक्षणादिविलासा मयि तिष्ठन्तु' इति दमयन्ती प्रार्थ्य, मुहर्तम् ईषत्कालं, नीताः; दमयन्तीप्सया पापिष्ठस्य कलेरप्यागमित्वात्तस्य विकृतरूपस्य चतुरचेष्टानभिज्ञत्वाच दमयन्तीलाभोपयोगिबहुविलासप्रदर्शनार्थ भैमीविलासा एव प्रार्थ्य नीता इवेत्युः स्प्रेक्षा / एतेन अस्याः स्तम्भाख्यसाविकभाव उक्तः, 'स्तम्भः स्यानिष्क्रियाङ्गत्वम्' इति लक्षणात् // 52 // ___ उस समय कामबाणों के गिरने (प्रहार, पाठा०-वायु) से दूर हुईके समान तथा उसे ( दमयन्तीको ) पानेके लिए अनेक प्रकारसे विलासार्थ ( दमयन्तीसे ही) मांगकर मुहूर्तभर (क्षणमात्र, या-दो घटी तक ) कलिकालके द्वारा ग्रहणकी गयी ( अथवा-... ग्रहणकी गयीके समान ) इस दमयन्तीकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ ( अङ्गविक्षेप, कटाक्षदर्शन आदि) नष्ट हो गयीं / दमयन्तीका कामुक कलि स्वयं साधारणतम विलासी तथा चतुर चेष्टाओंका अनभिज्ञ ( अज्ञानी ) होनेसे दमयन्तीको नहीं पानेके कारण थोड़े समय तक अपनेको अलकृत करने के लिए उसके विलासोको उसीसे मंगनी मांग लिया था, अत एव कुछ समय तक दमयन्ती विलास-चेष्टासे रहित हो गयी थी। [ लोकमें भी जब कोई व्यक्ति किसीसे कोई अलङ्कार आदि मंगनी मांगकर ले लेता है तो उससे अपनेको थोड़ी देर तक अलकृत कर लेता है तथा उस अलङ्कारको देनेवाला व्यक्ति उतने समय तक उक्त अलङ्कारसे शून्य रहता है। स्तम्भनामक सात्त्विक भाव उत्पन्न होनेसे दमयन्तीके . सम्पूर्ण .विलासमय चेशएँ रुक गयीं ] / / 52 / / तन्न्यस्तमाल्यस्पृशि तस्य कण्ठे स्वेदं करे पञ्चशरश्चकार | भविष्यदुद्वाहमहोत्सवस्य हस्तोदकं तज्जनयाम्बभूव / / 53 // अथ चतुर्भिर्नलस्यापि साविकोदयमाह, तदिति / तया भैम्या, न्यस्तम् अर्पितं, माल्यं स्पृशतीति माल्यस्पृक् ; 'स्पृशोऽनुदके चिन्' तस्मिन् , तस्य नलस्य, कण्ठे करे च पञ्चशरः स्मरः, स्वेदं सात्विकं धर्मजलं, चकार जनयामास, तत् स्वेदजलं, भविष्यतः उद्वाहमहोत्सवस्य सम्बन्धि हस्तोदकम् अय॑जलं, जनयाम्बभूवेत्युत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या // 53 // दमयन्ती द्वारा डाली गयी मालासे युक्त उस (नल ) के कण्ठ हाथमें (पाठा० -... युक्त नलके हाथमें जो) कामदेवने पसीना उत्पन्न कर दिया, वह भावी विवाह महोत्सवका हस्तोदक ( कन्यादानके समय सङ्कल्प करके वरके हाथमें दिया गया जल) हुआ। [ दमयन्तीके जयमाल पहनानेपर नलको भी 'स्वेद' नामक सात्विक भाव उत्पन्न हो गया ] // 1. 'यन्नलस्य' इति पाठान्तरम्
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________________ चतुर्दशः सर्गः। तूलेन तस्यास्तुलना मृदोस्तत् कम्प्राऽस्तु सा मन्मथबाणपातैः। चित्रीयितं तत्त नलो यदुच्चेरभूत् स भूभृत् पृथुवेपथुस्तैः // 54 // तूलनेति / मृदोः मृद्वयाः, कोमलाङ्गया इत्यर्थः, 'वोतो गुणवचनात्' इति विकल्पादनीकारः / तस्याः भैम्याः, तुलेन कार्पासादिना, तुलना लघुतायां साम्यं, यतः तत्तस्मात, सा भैमी, मन्मथबाणपातैः कम्प्रा चला, अस्तु, तुलानां लघुतया सामान्यकारणेनैव चलत्वात् तत्सदृशानामपि सामान्येनैव चलत्वं युक्तमिति भावः, तु किन्तु, उच्चैः महान् , भूभृत् महीपालः गिरिश्च, 'भूभृद् गिरौ महीपाले' इति शाश्वत स नलः तेः बागपातैः, पृथुवेपथुः महाकम्पः, अतीव कम्पित इत्यर्थः, 'टिवतोऽथुच'अभूदिति यत् तत् चित्रीयितं चित्रीकरणं, 'नमोवरिवश्चित्रङ क्यच', 'क्यचि च' इत्यकार: स्येत्व, क्यजन्तत्वाद्भावे निष्ठा / अल्पवायुना तलचलने किं चित्रम् ? शैलचलनन्तु चित्रीयते इत्यर्थः, धीरः राजा नलोऽपि चलति इत्येव चित्रं भीरुभैमी चलतीति न चित्रमिति भावः // 54 // ____ चूकि सुकुमारी उस दमयन्तीकी तुलना रूई ( अत्यन्त हलके पदार्थ) के साथ है, अत एव कामदेवके वाणों के गिरने ( पाठा०-वाणोंकी हवा ) से वह (दमयन्ती, भले ही) कम्पित हो गय; किन्तु उन्नत अर्थात् अतिशय धीरप्रकृति राजा नल (पक्षा०-अत्यन्त विशाल। पर्वत ) भी उन ( कामबाणके गिरने, पाठा०-कामबाणकी हवा ) से अधिक कम्पित हो गये यह आश्चर्य है / [ रूई या रूईके सदृश हलके पदार्थका थोड़ी हवासे भी कम्पित होना तो उचित है, किन्तु विशाल पर्वतका हवासे कम्पित होना आश्चर्यजनक है / प्रकृतमें कोमलाङ्गा दमयन्तीका कामबाणसे कम्पित होना उचित होने पर भी अतिशय गम्भीर प्रकृति राजा नलका कामबाणसे कम्पित होना आश्चर्यजनक है। .... ..'बाणपातैः' पाठमें 'कामबाण के गिरने ( के समय उसमें लगे हुए पलोंकी हवा ) से रूईतुल्य कोमल ( पक्षा०हलकी ) दमयन्तीका कम्पित होना समझना चाहिये, ...... बाणवातः' पाठा०–'प्रकाश' टोकासम्मत है तथा इम पाठमें अर्थ स्पष्ट है / दमयन्ती तथा नल-दोनोंको ही कम्परूप सात्विक भाव हो गया ] // 54 // दृशोरपि न्यस्तमिवाऽऽस्त राज्ञां रागाद् दृगम्बुप्रतिबिम्बि माल्यम् | नृपस्य तत्पीतवतोरिवाणोः प्रोलम्बमालम्बत युक्तमन्तः // 55 // सात्विकानां सर्वरससाधारणत्वात् अन्येषां राज्ञां रोपादश्रद्गमः, नलस्य तु हर्षादित्याश्रित्य उत्प्रेक्षते, दृशोरिति / राज्ञां नलव्यतिरिक्तभूपानां, रागात् मात्सर्यात्, 'रागोऽनुरक्तौ मात्सर्ये' इति विश्वः / यत् गम्बु बाष्पः, सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः / तत्र प्रतिबिम्बते प्रतिफलतीति दृगम्बुप्रतिबिम्बि, तत्र प्रतिफलितं सदि. त्यर्थः, माल्यं वरणस्रक , दृशोः अक्षणोरपि, न्यस्तमिव आस्त स्थितमित्युत्प्रेक्षा। आ से 1. 'बाणवातैः' इति पाठान्तरम् / 2. 'प्रालम्ब्य-' इति पाठान्तरम् / 54 नै० उ०
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________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / लंङ / अपि सम्भावनायां, नलस्य यथोरसि नृपान्तराणां तथा दृशोरपि न्यस्तमिति सम्भावयामीत्यर्थः, कथमन्यथा तेषामश्रद्गमः ? नृपस्य नलस्य तु, रागाद् दृगम्बुप्रति. विम्बि अनुरागोत्थाश्रप्रतिबिम्बितं, तन्माल्यं कत्त, पीतवतोः तृष्णया तन्माल्यं सादरं गिलतोरिव स्थितयोः, अक्षयोः प्रालम्बम् ऋजुभावेन लम्बमानं सत् 'प्रालम्बम्जु. लम्बि स्यात् कण्ठात्' इत्यमरः / अन्तः मध्ये, 'अन्तमध्ये तथा प्रान्ते स्वीकारेऽपि च दृश्यते' इति विश्वः / युक्तम् आलम्बत अवलम्बते स्म / अत्रापि राज्ञां द्वेषात् अरुच्या तत्प्रतिबिम्बि माल्यं युक्तम् अक्षिगतमेव कृतमित्युस्प्रेक्षा; नलस्य तु म्यातिरेकात् अतिभ्यां तत् तृष्णया पीतमित्युत्प्रेक्षितस्यैव बाह्यबिम्बिमाल्याध्यवसायभेदेन मध्ये प्रालम्बितया लम्बनमित्युत्प्रेक्षते // 55 // . (नलभिन्न ) राजाओंके मात्सर्यसे उत्पन्न अश्रु में प्रतिबिम्बित वरणमाला (उन नलभिन्न) राजाओं की आँखमें स्थित-सी हो ( कृश-सी) गयी, तथा ( स्वयंवरमें दमयन्तीके स्वीकार करने के कारण ) हर्षसे उत्पन्न नलके अश्रुमें प्रतिबिम्बित वह वरणमाला पान करती (प्रेमपूर्वक सादर देखती ) हुई नलकी आँखमें सरलतासे लटकती हुई सीधी मालाके रूपमें स्थित हुई, यह उचित ही है / ( अथवा-दमयन्तीने नल-विषयक अनुरागसे उनके कण्ठ में जिस प्रकार वरणमालाको पहनाया, उसी प्रकार नल-भिन्न राजाओं के प्रति द्वष होनेसे मानो उनके नेत्रोंमें मालाको डाल दिया ( इसी वास्ते उन राजाओंके नेत्र लाल हो गये हैं, आँस निकलने लगे हैं तथा उस आंसू (प्रतिबिम्बित ) वह वरणमाला दीख रही है ) / [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसीके प्रति द्वेष होने पर उसकी आँखोंमें अङ्गुली आदि डाल देता है तो उसकी भाँखें लाल हो जाती हैं उनसे आँसू आने लगते हैं और वह व्यक्ति मुख फेर लेता है / राजाओंने भी नलके कण्ठमें वरणमाला पड़नेपर दमयन्तीकी प्राप्ति नहीं होने के कारण नल-विषयक द्वेष होनेसे उस मालाका नलके कण्ठमें पड़ना नहीं सहन किया और मात्सर्यसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये तथा लाल हो गये और उन्होंने मुख फेर लिया। पाठा०-नलके नेत्र के भीतरी भागने हर्षसे विस्फार ( वृद्धि) को स्वीकृत किया अर्थात् वरणमालाके कण्ठमें पड़नेपर नल उसे आँख फाड़कर अच्छी तरह देखने लगे, यह उचित ही है। किसी दुर्लभ वस्तुके प्राप्त होनेपर उसे आँख फाड़कर देखना लोक-प्रसिद्ध है। नलके नेत्र हर्षसे तथा दूसरे राजाओंके नेत्र मात्सर्यसे अश्रुपूर्ण हो गये ] // 55 // स्तम्भस्तथाऽलम्भितमा नलेन भैमीकरस्पर्शमुदः प्रभावः / कन्दर्पलक्षीकरणार्पितस्य स्तम्भस्य दुम्भं स चिरं यथाऽऽपत् / / 56 / / स्तम्भ इति / नलेन मैमीकरस्पर्शेन माल्यप्रदानकाले दमयन्तीपाणिस्पशन, या मुत् आनन्दः तस्याः, प्रभावः तदनुभावजात इत्यर्थः, स्तम्भः निष्क्रियाङ्गत्वलक्षणः सात्विकविशेषः, तथा तेन प्रकारेण, अलग्भितमाम् अतिशयेन अलम्भि, लभेः 1. 'प्रसादः' इति पाठान्तरम् /
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________________ 861 चतुर्दशः सर्गः। कर्मणि लुङि चिणि 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति विकल्पान्नुमागमः, 'तिङश्च' इति तमप-प्रत्यये 'किमेत्तिङव्यय-' इत्यादिना आमुः / यथा स नलः, कन्दर्पस्य लक्षीकरणाय अर्पितस्य शराभ्यासकाले शरव्यत्वेन स्थापितस्य, स्तम्भस्य स्थूणायाः, 'स्तम्भो स्थूणाजडीभावौ' इत्यमरः / दम्भं व्याजत्वं, भावप्रधानो निर्देशः। 'व्याजदम्भोपधयः' इत्यमरः / चिरम् आपत् प्रापत् // 56 // नलने ( वरमालाके पहनानेके समयमें ) दमयन्तीके हाथके स्पर्शसे उत्पन्न हर्षके अनुभावसे पैदा हुए (पाठा०-हर्षके प्रसादरूप ) स्तम्भ ( क्रियाशून्यताजनक 'स्तम्भ' नामक भाव ) को उस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार वे ( नल ) लक्ष्यवेधके अभ्यासके लिए कामदेवके द्वारा गाड़े गये खम्भेके व्याजको बहुत देर तक प्राप्त कर लिये। [ वरमाला पहनाते समय दमयन्तीके हाथके स्पर्शसे नलका शरीर स्तम्भवत् क्रियाशून्य होनेसे कामदेवके द्वारा लक्ष्यवेधके लिए गाड़े गये खम्भेके समान हो गया / वे दमयन्तीके हाथके स्पर्शसे अत्यन्त कामपीड़ित हो गये ] // 56 // उत्सृज्य साम्राज्यमिवाथ भिक्षां तारुण्यमुल्लङ्घय जरामिवारात् / तं चारुमाकारमुपेदय यान्तुं निजां तनूमादधिरे दिगिन्द्राः // 57 / / उत्सृज्येति / अथ नलवरणानन्तरं, दिगिन्द्राः इन्द्रादिदिक्पालाः, यातुं गन्तुं, स्वर्गमिति शेषः, सम्राजतीति सम्राट महाराजविशेषः, 'येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः / शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञः स सम्राड्' इत्यमरः / 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना विप , 'मो राजि समः क्वौ' इति समो मकारस्य मकारत्वान्नानुस्वारः / तस्य भावः कर्म वा साम्राज्यं चक्रवर्तिपदम्, उत्सृज्य त्यक्त्वा, क्षीणपुण्यत्वादिति भावः, भिक्षां याच्जामिव, तारुण्यं यौवनम्, उल्लङ्घय अतिक्रम्य, जरामिव आरात् नलसमीपे स्वयंवरसभायामेवेत्यर्थः, तं चारुं सुन्दरम्, भाकारं नलरूपम्, उपेक्ष्य हित्वा निजां तनूं सहस्रनेत्रादिविशिष्टाकारम्, आदधिरे स्वीचक्रुः // 57 // ___ इस (नर-वरण ) के बाद दिक्पालों ( इन्द्रादि चारों देवों) ने साम्राज्यको छोड़कर भिक्षाके समान तथा यौवनावस्थाको छोड़कर वृद्धावस्थाके समान स्वर्ग जानेके लिये (पाठा०स्वर्गको जाते हुये ) उस सुन्दर आकार ( नलके रूप ) को छोड़कर अपने शरीर ( सहस्रनेत्रत्व आदि) को नलके समीपमें ग्रहण कर लिया। [ नलके सुन्दर आकारको साम्राज्य तथा युवावस्थाके साथ और इन्द्रादिके शरीरको भिक्षा और वृद्धावस्थाके साथ उपमा देकर यहां पर नलाकारकी अपेक्षा इन्द्रादिके शरीरको अत्यन्त तुच्छ तथा साम्राज्यका त्यागकर भिक्षावृत्तिको तथा यौवनावस्थाका त्यागकर वृद्धावस्थाको पानेवाले व्यक्तिके समान इन्द्रादि दिक्पालोंको नलके आकारका त्याग करनेमें अत्यन्त दुःख हुआ, यह बतलाया गया है / अथ च-लोकमें भी कोई विद्वान् मनुष्य दूसरेकी अत्युत्तम वस्तुको छोड़कर अपनी तुच्छ 1. 'यान्तोः ' इति पाठान्तरम् /
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________________ 862 नैषधमहाकाव्यम् / वस्तुको ही ग्रहण करना प्रशस्त मानता है, अतः इन्द्रादि का वैसा करना भी उचित ही है ], मायानलत्वं त्यजतो निलोनैः पूर्वैरहम्पूर्विकया मघोनः / / भीमोद्भवासात्त्विकभावशोभादिक्षयेवाऽऽविरभावि नेत्रैः / / 58 / / मायेति / मायानलत्वमलीकनलत्वं, त्यजतो मघोनः इन्द्रस्य, निलीनः देव. शक्त्या सगोपितैः, पूर्वैः स्वरूपावस्थायामवस्थानकालिकः, नेत्रैः सहस्रसङ्ख्यकैरिति भावः, भीमोद्भवायाः भैग्याः, सात्त्विकभावानां नलाङ्गसङ्गजनितरोमाञ्चादीनाम्, शोभायाः दिक्षया द्रष्टमिच्छयेव, इति फलोत्प्रेक्षा द्योत्या आविर्भावस्य शोभादर्शन. फलकत्वात्; अहं पूर्वोऽहं पूर्व इति योऽभिमानः क्रियायां साऽहंपूर्विका तया अहमहमिकया, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः / स्वार्थे मत्वर्थे वा ठन् प्रत्ययः / आविरभावि आविर्भूतम् / भावे लुङ। 'स्तम्भप्रलयरोमाञ्चाः स्वेदो वेवण्यवेपथू। अश्र वैस्वर्यमित्यष्टौ सात्त्विकाः परिकीर्तिताः' // 58 // , असत्य नलाकारको छोड़ते हुए इन्द्रके ( माया शक्तिसे ) गुप्त नेत्र 'मैं पहले उत्पन्न होऊँ, मैं पहले उत्पन्न होऊँ' ऐसी प्रतिस्पर्द्धासे मानो दमयन्तीके सात्त्विकभाव ( रोमांच, स्वेदोद्गम आदि ) की शोभाको देखनेकी इच्छासे प्रकट हो गये। [ दूसरे भी व्यक्ति किसी अपूर्व कार्यको देखने की स्पर्द्धासे शीघ्र प्रकट होते (बाहर निकलते ) हैं / इन्द्रने अपने सहस्र नेत्रोंको झट प्रकट कर लिया ] // 58 // गोत्रानुकूल्यप्रभवे विवाहे तत्प्रातिकूल्यादिव गोत्रशत्रुः / पुरश्चकार प्रवरं वरं यमायन् सखायं ददृशे तया सः / / 56 // गोत्रेति / गोत्रानुकूल्यप्रभवे वंशवर्द्धनाथं प्रवृत्ते, विवाहे तत्प्रातिकूल्यादिव तद्विरोधित्वादिव, गोत्रशत्रुत्वादिवेत्यर्थः, न हि यो यस्य शत्रुः स तदनुकूलकार्य सहते इति भावः, आयन् स्वयंबरसभायामागच्छन् / इणो लटः शतरि यणादेशः / गोत्रशत्रुः गोत्रं कुलचाचलश्च, 'गोत्रं नाम्नि कुलेऽचले' इति विश्वः / तच्छत्रुः गोत्रभित् इन्द्रः, यं प्रवरं श्रेष्ठं, वरं वोढारं, सखायं पुरश्वकार दूत्येन सहायत्वेन स्वीचकारेत्यर्थः, स नल एव, तया भैम्या, ददृशे; देवानां नलरूपपरिहारेण स्वरूपपरिग्रहणात् केवलं सत्यनलस्यैव तत्रावस्थानादिति भावः / केचित्त प्रवरनामा कश्चिदिन्द्रेण सहायत्वेनानीत इति व्याचक्षते तत्तु अमूलं चिन्त्यं भारतादिषु अदर्शनादिति / / 59 / / गोत्रकी अनुकूलता अर्थात् वंशवृद्धिके लिए होनेवाले विवाहमें (गोत्र अर्थात् पर्वतोंका, पक्षा०-गोत्र अर्थात् वंशका शत्रु होनेसे ) मानो उस (विवाह ) की प्रतिकूलतासे (स्वयंवरमें) आते हुए गोत्रशत्रु (गोत्र = पर्वतोंका शत्रु इन्द्र, पक्षा०-वंशका शत्रु ) ने श्रेष्ठ जिस वर अर्थात् विवाहकर्ता (दुल्हा नल ) को मित्र अर्थात् दूतकर्म करनेमें सहायक बनाकर आगे किया ( दमयन्तीके पास पहले भेजा ) था, उस (नल ) को उस ( दमयन्ती ) ने देखा / 'प्रकाश' व्याख्या सम्मत द्वितीय अर्थ-गोत्र (वंशके आदि पुरुष वसिष्ठ तथा
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 863 कश्यप ) की अनुकूलतासे ( अथवा-गोत्र अर्थात् जन्मकालीन राशिनामोंकी अनुकूलता ( तृतीय, एकादश, चतुर्थ और दशम आदि ज्योतिःशास्त्रोक्त श्रेष्ठभकूट होने से ) होनेवाले विवाह के लिए ( स्वर्गसे स्वयंवरसभामें ) आते हुए जिस श्रेष्ठ 'प्रवर' नामक मित्रको मानो गोत्र की प्रतिकूलतासे गोत्रशत्रु ( इन्द्र ) ने आगे किया (पक्षा०-सत्कार किया ); उस ('प्रवर' नामक इन्द्र-मित्र ) को उस दमयन्तीने देखा / [ 'जीवातु' व्याख्याकार 'मल्लिनाथ' का अभिमत है कि महाभारतादि ग्रन्थों में इन्द्र के 'प्रवर' नामक मित्रकी चर्चा नहीं आनेसे द्वितीय अर्थ ( इन्द्रके द्वारा 'प्रवर' नामक मित्रको अपना सहायक बनाकर आगे भेजना ) निराधार होनेसे चिन्त्य है / अत एव दूतकर्म करने के लिए इन्द्रादि देवोंने जो नलको आगे भेजा था, देवों के प्रसन्न होनेसे अपना अपना रूप धारण कर लेनेपर दमयन्तीने वास्तविक नल को देखा / द्वितीय अर्थमें-दमयन्ती तथा नलके अनुकूल गोत्र होनेसे नलके साथ गणना ठीक थी तथा दमयन्तीका मनुष्य एवं अपना देव गोत्र होनेसे परस्पर भिन्न गोत्र होने के कारण गोत्र शत्रु इन्द्रने मनुष्य गोत्रवाले 'प्रवर' नामक अपने मित्रको अपने विवाहमें बाधा उपस्थित करने के लिए जो आगे किया था, उस 'प्रवर' नामक श्रेष्ठको अब प्रकट होनेपर दमयन्तीका देखना उचित ही है / अथवा-दमयन्ती तथा नलके गोत्रकी अनुकूलता के कारण होनेवाले विवाहमें गोत्र शत्रु ( इन्द्र) ने 'प्रवर' को सहायक आगे किपा, क्योंकि समान 'प्रवर' होनेपर भी वधू-वरका विवाह नहीं होता / / वधू-वरके जन्मराशिके नामके प्रथमाक्षरके आधारपर गणना बननेपर ही विवाह योग्य होता है, यह ज्यौ तेषशास्त्रका सिद्धान्त है ] // 59 // स्वकामसम्मोहमहान्धकारनिर्वापमिच्छन्निव दीपिकाभिः। उद्गत्वरीभिश्छुरितं वितेने निजं वपुर्वायुसखः शिखाभिः // 60 / / स्वेति / अथ वायुसखः अग्निः, दीपिकाभिः दीपः, स्वः स्वीयः, कामेन सम्मोहः अज्ञानमेव, महान्धकारः तस्य निर्वापं प्रशान्तिम्, इच्छनिव उद्गत्वरीभिः उद्गमनशीलाभिः, 'गत्वरश्च' इति क्करबन्तो निपातः / शिखाभिः ज्वालाभिः, छुरितं व्याप्तं निजं वपुः वितेने प्रकाशयामास // 60 // __ अपने कामजन्य सम्मोहनरूप महान्धकारको दीपकोंसे शान्तिको चाहते हुए के समान अग्निने ऊपर बढ़ती हुई अपनी ज्वालाओंसे अपने शरीरको प्रकाशित ( या व्याप्त ) किया। [ पहले दमयन्तीको पत्नीरूपमें पानेके लिए कामजन्य संमोह ( अज्ञान ) युक्त अग्निदेव स्वयंवर में नलरूप धारणकर आये थे, किन्तु अब दमयन्तीकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर अपना वास्तविक रूप ग्रहण कर लिया ] // 60 // पत्यौ वृते भीमजया न वह्नावह्ना स्वमह्नाय निजुह्न वे यः / जनादपत्रप्य स हा सहायस्तस्य प्रकाशोऽभवदप्रकाशः // 61 / / / .. 1. 'महान्धकारं निर्वापयिन्यन्निव' इति पाठान्तरम् /
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________________ 864 नैषधमहाकाव्यम्। पत्याविति / भीमजया भैम्या, पत्यौ स्वामिनि, वह्नौ अग्नी, न वृते सति, यः प्रकाशः द्योतः, दीप्तिरित्यर्थः 'प्रकाशो द्योत आतपः' इत्यमरः / जनात् अपत्रप्य लजित्वा, 'लज्जा साऽपत्रपाऽन्यतः' इत्यमरः। 'जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसङ्ख्यानम्' इति पञ्चमी / अह्वाय शीघ्रम्, अह्ना दिवसेन करणेन, स्वं निजम् आत्मस्वरूप. मित्यर्थः, निजुहवे अपहृतवान् , अहनि दीप्तेरप्रकाशादिति भावः; हृतेः कर्तरि लिट् / तस्य वढेः, सहायः अनुचरः, स प्रकाशः : अप्रकाशः अनुज्ज्वलः, वह्निना दीप्तशि. खाभिः स्वरूपप्रकाशे कृतेऽपि दिवालोके तस्य क्षीणप्रभत्वादिति भावः, अभवत् , हा ! कष्टम्; प्रयासवैयादग्निरपत्रपया निस्तेजा इवासीदिति तात्पर्यम् / यद्वातस्य प्रकाशस्य सहायः आत्मनिह्नवे साहाय्यकारी, सः अप्रकाशः दीप्त्यभावः, प्रकाशः पुनरुद्दीपितः, वह्रो उद्गत्वरीभिः शिखाभिः निजरूपेण प्रकाशमाने सति इति भावः, अभवत्, हा ! कष्टम्; स्वामिनि आत्मप्रकाशे कृते अनुचरस्य तद्गोप. नचेष्टावैयादिति भावः // 61 / दमयन्तीके द्वारा अपने स्वामी अग्निको पति नहीं स्वीकार करनेपर, लोगोंसे लज्जित-सा जो प्रकाश वह शीघ्र ही अपनेको दिनसे छिपा लिया (दिन होनेसे अग्निका प्रकाश फीका ही बनारहा तीक्ष्ण नहीं हुआ ), उस अग्निका सहायक वह प्रकाश अप्रकाश (प्रदीप्त लवसे अपना प्रकाश अग्निके करनेपर भी दिनके कारण मन्द) ही रहा, हाय ! खेद है / अथवाउस प्रकाशका ( अपने छिपाने में ) सहायक वह अप्रकाश (दीप्त्यभाव, अग्निकी ज्वाला. ओंके ऊपर निकलने लगनेपर ) प्रकाश (प्रकट ) हो गया हाय ! खेद है। [ प्रथम अर्थमेंदमयन्तीने अग्निको अपना पति नहीं बनाया तो अग्नि-सहायक प्रकाश भी लज्जित होकर अपनेको प्रकाशित (प्रकट ) नहीं किया, अतएव स्वामोके मान-नाशमें सहायकका अप्रकट ( मन्द) होना उचित ही है। दिनके कारण अग्निका प्रकाश मन्द ही रहा, तीव्र नहीं हुआ। द्वितीय अर्थमें-जब अग्निदेव अपना वास्तविक रूप धारणकर स्वयं प्रकट हो गये, तब उनके सहायक प्रकाशका उनको छिपानेकी चेष्टा करना व्यर्थ ही है ] // 61 // सदण्डमालक्तकनेत्रचण्डं तमःकिरं कायमधत्त कालः / तत्कालमन्तःकरणं नृपाणामध्यासितुं कोप इवोपनम्रः।। 62 / / सदण्डमिति / अथ कालः यमः, तत्कालं तस्मिन् स्वयंवरकाले, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, नृपाणाम् अन्तःकरणम् अध्यासितुम्, अधिष्ठातुम्, उपनम्रः उपागतः, कोपः दमयन्त्यनादरोत्थक्रोधः इव, सदण्डं दण्डहस्तम्, आलक्तके रक्ते, 'तेन रक्तं रागात्' इत्यण-प्रत्ययः, कषायो गर्दभस्य कर्णावितिवदलक्तके इत्युपमानाप्रयोगः; ताभ्यां नेत्राभ्यां चण्डं करं, किरति उगिरतीति किरः, 'इगुपधज्ञाप्रीकिरः-' इति कः तमसः किरःतंतमःश्यामं, कायं देहम्, अधत्त, कालोऽपि स्वरूपंप्रादर्शयदित्यर्थः॥१२॥ उस समय राजाओं के अन्तःकरणमें स्थित होनेके लिए उपस्थित क्रोध ( दमयन्तीके
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 865 अनादरजन्य कोप) के समान यमराजने लोहदण्डयुक्त, लाल नेत्रोंसे क्रूर तथा अन्धकारको फैलाते ( या-अतिशय अधिक काला होनेसे अन्धकारको भी फेंकते अर्थात् तिरस्कार करते ) हुए शरीरको धारण किया। [यम भी अपना रूप धारण कर प्रकट हो गये। क्रोधयुक्त मनुष्य भी दण्डयुक्त, लाल नेत्रोंसे क्रूर एवं काला-सा बन जाता है ] // 62 // दृग्गोचरोऽभूदथ चित्रगुप्तः कायस्थ उच्चैर्गुण एतदीयः / ऊर्ध्वश्च पत्रस्य मषीद एको मषेदधच्चोपरि पत्रमन्यः // 63 / / दृगिति / अथ यमस्य स्वरूपप्रकाशानन्तरम् एतदीयः कालसम्बन्धी, उच्चैः महान् , गुणः प्रधानशेषभूतः, चित्रगुप्तः चित्रगुप्ताख्यः, कायस्थः लेखकः, तदाख्यजातिविशेष इत्यर्थः, 'लेखकः स्याल्लिपिकरः कायस्थोऽक्षरजीविकः' इति हलायुधः / दृग्गोचरः दृश्यः, अभूत् ; अन्यत्र-चित्रं यथा तथा गुप्तः पूर्व निगूहितः, कायस्थः कायनिष्ठः, एतदीयः कालसम्बन्धी, उच्चैः महान् , गुणः नीलगुणः, दृग्गोचरः अभूत्। एकः चस्त्वर्थः, चित्रगुप्तनीलगुणयोः एकः चित्रगुप्तस्तु, पत्रस्य ऊर्ध्वम् उपरितले, मषीं ददातीति मषीदः मषीमयलिपिकरः, लेखक इत्यर्थः, अन्यश्च पूर्ववच्चार्थः, अन्यः नीलगुणस्तु, मषेः मषिद्रव्यस्य, 'कृदिकारादक्तिनः' इति ङीषो विकल्पादुभयथा प्रयोगः, उपरि, पत्रं मषेरपि अहं काल एवेति पत्रालम्बनं, दधत् दधानः, 'नाभ्यस्ताच्छतुः' इति नुमोऽभावः, अभूत् , मषितोऽपि अधिको नीलिमेत्यर्थः। अत्र मषेरुपरि पत्रमिति प्रतीतेराभासीकरणात विरोधाभासोऽलङ्कारः // 63 // इसके बाद इस ( यम ) का कायस्थ-जातीय श्रेष्ठ गुणवाला चित्रगुप्त नामका लेखक। पक्षा०-विचित्र रूपसे गुप्त एवं शरीरमें वर्तमान श्रेष्ठगुण अर्थात् कालिमा) प्रकट हुआ; इन ( चित्रगुप्त तथा कालिमा गुण ) में से एक (चित्रगुप्त नामका लेखक ) तो कागज के ऊपर स्याही देने अर्थात् लिखनेवाला था और दूसरा ( कालिमा गुण) स्याहोके ऊपर पत्रालम्बन धारण करने ( पाठा०-देने ) वाला अर्थात् स्याहीसे भी अधिक काला था। [ यमने अत्यन्त कृष्णवर्ण शरीर धारणकर लिया ] // 63 // तस्यां मनोबन्धविमोचनस्य कृतस्य तत्कालमिव प्रचेताः। पाशं दधानः करबद्धवासं विभुर्बभावाप्यमवाप्य देहम् / / 64 // तस्यामिति / विभुः प्रभुः, प्रचेताः वरुणः, तत्कालं तस्मिन् काले, नलवरणकाले इत्यर्थः, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया, तस्यां दमयन्त्यां विषये, कृतस्य विहितस्य, मनोबन्धविमोचनस्य चित्तबन्धनोन्मोचनस्य, पाशेन मनः संयम्य भैम्यां पुरा निक्षिप्तवान् , ततश्च नले वृते सति तन् बन्धनं तत्क्षणमेव प्रचेता उन्मुमोचेति तद्बन्धन 1. 'मषेर्ददच्चोपरि' इति पाठान्तरम् /
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________________ 866 नैषधमहाकाव्यम्। सम्बन्धि इव स्थितमित्यर्थः उत्प्रेक्षा, अत एव करे बद्धवासं कृतस्थिति, क रगतमित्यर्थः, पाशं बन्धनरज्जु स्वीयास्त्रञ्च, दधानः सन् अपां विकारम् आप्यम् अम्मयम् आप्यञ्चेति चान्द्रव्याकरणसूत्रात् साधुः, देहम् अवाप्य बभौ // 64 // सर्वसमर्थ प्रचेता ( प्रकृष्ट चित्तवाला अर्थात् वरुण ) ने उस समय (नल-वरण करनेपर) उस दमयन्तीमें ( पहले पाश द्वारा बांधे गये ) मनके बन्धनको खोले गये ( तथा अब ) हाथमें स्थित पाश ( अपने अस्त्रविशेष ) को धारण करते हुए जलमय शरीरको प्राप्तकर शोभने लगे / [ वरुणने हाथ में पाश लिए जब अपना जलमय शरीर धारण किया, तब वह पाश ऐसा मालूम पड़ता था कि पहले स्वयंवरमें दमयन्तीको पत्नीरूपमें पाने के लिए आते हुए वरुणने अपने मनको जिस पाशसे बांधकर दमयन्तीके विषयमें स्थिर किया था, अब नलके दमयन्ती द्वारा वरण किये जाने पर उसने दमयन्तीके विषयमें पहले पाशसे बंधे हुए (स्थिर ) मनको खोल लिया अर्थात् दमयन्तीसे मनको हटा लिया वही पाश उनके हाथमें दृष्टिगोचर हो रहा है। लोकमें भी जब कोई व्यक्ति किसी बछवे आदिके बन्धनको खोलता है तो उसके हाथमें वह रस्सी दृष्टिगोचर होती है। वरुणने भी हाथमें पाश लिये अपना जलमयरूप प्रकटकर लिया ] // 64 // सहद्वितीयः स्त्रियमभ्युपेयादेवं स दुर्बुध्य नयोपदेशम् / अन्यां समायः कथमृच्छतीति जलाधिपोऽभूदसहाय एव / / 65 / / सहेति / जलाधिपः अपां पतिः, लडयोरभेदात् जडाधिपः मूढाग्रगीश्च, स वरुणः, स्त्रियं कान्तामपि, द्वितीयेन केनचित् सहचरेण सह वर्त्तते इति सहद्वितीयः ससहायः, 'तेन सहेति तुल्ययोगे' इति बहुव्रीहिः / 'वोपसर्जनस्य' इति विकल्पान्न सहस्य सभावः, अभ्युपेयात् अभिगच्छेत् , एवं नयोपदेशं नीतिवाक्यं, सभार्यः सस्त्रीकः सन् , अन्यां स्यन्तरं कथम् ऋच्छति प्राप्नुयात् , इति एवं, दुर्बुध्य ससहायार्थ प्रयुक्तस्य सहद्वितीय इति शब्दस्य द्वितीयया भार्यया सह वर्त्तते इति सहद्वितीयः 'द्वितीया सहधर्मिणी / भार्या जाया' इत्यमरः, सभार्य इति विपरीत बुद्ध्वा, 'समासेऽनपूर्वे' इति क्त्वो ल्यबादेशः, असहायः एव अभूत्, अस्त्रीकः एव अभूदित्यर्थः, दमयन्तीलोभात् सर्वत्र ससहाय एवोपेयादिति नीतिमुल्लङ्घय स्वदारा. णामप्यनादरे सम्प्रति साऽपि दुर्लभेत्यहो! वरुणस्य दुर्बुद्धिरिति भावः // 65 // . जलाधिप अर्थात् वरुण (पक्षा०–'डलयोरभेदः' इस वचनसे जडाधिप अर्थात् महामूर्ख) 'सहायक अर्थात् दूसरे किसी व्यक्तिके साथ ( ही ) स्त्रीके पास जावे, (फिर दूसरेकी स्त्रीके विषयमें क्या कहना है ? )' इस नीतिवचनका 'स्त्रीसहित पुरुष दूसरी स्त्रीको किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं प्राप्त कर सकता' ऐसा प्रतिकूल अर्थ लगाकर असहाय ही हो गये / [ इन्द्रिय-समूह एकान्तमें स्त्रीके पास जानेसे विकृत हो सकता है,
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________________ 867 चतुर्दशः सर्गः। अतएव दूसरेके साथ ही स्त्रीके पास भी जाना चाहिये' ऐसी नीति है, किन्तु जडाधिप वरुणने 'द्वितीयेन सहेति सहद्वितीयः' अर्थात दूसरेके साथ, इस अर्थवाले 'सह द्वितीय शब्दका 'द्वितीयया ( अर्थात् भार्यया ) सहेति सहद्वितीयः' अर्थात् भार्या के साथ ऐसा अर्थ लगाकर 'जो पुरुष भार्या के साथ दूसरी स्त्रीके पास जायेगा, वह उसे (दूसरी स्त्रीको) कैसे पायेगा, क्योंकि अन्य स्त्रीसे अनुगत पुरुषको कोई स्त्री भला कैसे वरण कर सकती है ? अर्थात् कदापि नहीं वरण कर सकती' ऐसा विपरीत आशय उस नीतिका समझकर असहाय ( भार्याहीन ) ही रह गये अर्थात् 'सर्वत्र दूसरेके साथ ही जाना चाहिये' इस नीतिका उक्त विपरीताशय समझकर पहले दमयन्तीको प्राप्त करनेकी आशासे अपनी भार्याको छोड़कर स्वयंवरमें उपस्थित हुए, किन्तु दमयन्तीके नलका वरण कर लेनेपर यहां असफल होनेसे अनादरकर छोड़ी गयी अपनी स्त्रीका लाभ भी अशक्य मानकर वे वरुण असहाय ( भार्यारहित, पक्षा०-अकेला) ही रहे ] // 65 // देव्याऽपि दिव्या स्वंतनुः प्रकाशीचक्रे मुदश्चक्रभृतः सृजन्त्या | अनिह्न तैस्तामवधार्य चिह्नस्तद्वाचि बाला शिथिलाऽद्भुताऽभूत् / / 6 / / देव्येति / अथ इन्द्रादीनां स्वरूपधारणानन्तरं, चक्रभृतः गगनगतस्य विष्णोः, मुदः हर्षान् , सृजन्त्या उत्पादयन्त्या, देव्या सरस्वत्याऽपि, दिव्या स्वतनुः प्रकाशीचक्रे वाणी अपि मानुषीवेषमुत्सृज्य निजरूपमाविश्वकारेत्यर्थः, तदा बाला दमयन्ती, अनिह्नतैः प्रकाशितैः, चिह्नः वीणांशुकपुस्तकादिभिः, ताम् अवधार्य सरस्वतीति सम्यक निश्चित्य, तस्याः वाचि श्लेषवक्रोक्तिव्यञ्जकवागुपन्यासे, शिथिलाद्भुता देव्यां मानुषीत्वबुद्धधा तादृशोक्तिविषये प्राक् साश्चर्या आसीत् , स्वरूपप्रकाशानन्तरं सरस्वत्यास्तादृशोक्तौ न किमपि आश्चर्यम् इति शिथिलितविस्मया, अभूत् / / 66 // विष्णु भगवान्का हर्ष बढ़ाती हुई ( सरस्वती) देवीने भी अपने दिव्य (श्वेत वस्त्र, वीणा-पुस्तक-अक्षमाला और अभयमुद्रायुक्त हाथ, एवं हंसवाहनवाले ) शरीरको प्रकट किया, ( पाठा०-अनन्तर देवीने भी विष्णु भगवान्को हर्षित करते हुए अपने दिव्य शरीरको प्रकट किया ) / ( उस समय ) बाला दमयन्तीने प्रकट ( उक्त वीणादि) चिह्नोंसे उसको पहचानकर उसके ( श्लेषादिपूर्ण) वचन में होनेवाले अपने आश्चर्यको शिथिल कर दिया / [ जब तक सरस्वती ने अपना दिव्यरूप धारण नहीं किया था, तबतक उसके इलेषादि पूर्ण वचनोंको सुनकर दमयन्तीको बहुत आश्चर्य हो रहा था कि 'ऐसे वचनोंको कोई 1. तदुक्तम्-'मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् / _ . बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति // ' इति मनुः / (2 / 215) अपरञ्च-कामिनी कामयेदेव निर्जने पितरं सुतम् / __सद्वितीयोऽभ्युपेयात्तामतः परिणतामपि // ' इति / 2. 'नु तनुः' इति पाठान्तरम्। 3. 'सृजन्ती' इति पाठान्तरम् /
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________________ 568 नैषधमहाकाव्यम् / सामान्य मानवी नहीं कह सकती', किन्तु सरस्वतीके अपने दिव्यरूप प्रकट करनेपर वीणापुस्तकादि चिह्नोंसे उसे पहचानकर दमयन्तीका आश्चर्य मन्द हो गया, क्योंकि उसने विचारा कि सरस्वती देवी के लिए ऐसे श्लेषादिपूर्ण वचनोंका कहना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है ] / / 66 // विलोकके नायकमेलकेऽस्मिन् रूपान्यथाकौतुक दर्शिभिस्तैः। बाधा बतेन्द्रादिभिरिन्द्रजाल विद्याविदां वृत्तिवधाद् व्यधायि / / 67 / / विलोकके इति / अस्मिन् पुरोवर्तिनि, नायकमेलके नृपतिसमूहे, विलोकके विलोकनकारिणि सति, रूपान्यथा रूपनानात्वं, सेव कौतुकं विनोदः, तद्दर्शिभिः तत्प्रदर्शकः, दृशेय॑न्तात्ताच्छील्ये णिनिः तैः इन्द्रादिभिः इन्द्रजालविद्याविदाम् ऐन्द्रजालिकानाम् , वृत्तिवधात् जीविकोच्छेदात् हेतोः, बाधा पीडा, व्यधायि विहिता, बतेति खेदे, एतन्महेन्द्रजालाद्भुतावलो किनां राज्ञाम् इन्द्रजालान्तरेषु अरुच्या स्वयंवरसभागतानां तदुपजीविनां तेषां वृत्तिविच्छेदः प्राप्त इत्यहो! सेयं देवमायेति भावः // 67 // इस राज-समूहके देखते रहनेपर स्वरूपके परिवर्तनरूप कौतुहलको दिखलानेवाले उन लोगों ( इन्द्रादि चार देव तथा सरस्वती देवी) ने ऐन्द्रजालिक विद्याके जानकारों अर्थात् जादूगरोंकी जीविकाकी हानि करनेसे बाधा की, यह खेद (या-आश्चर्य ) है। [ इन्द्रादिके स्वरूपपरिवर्तनको देखनेसे वहां उपस्थित राजा लोग वहां जीविकार्थ आये हुए ऐन्द्रजालिकोंका इन्द्रजाल देखनेके इच्छुक नहीं रह गये, अतएव उन ऐन्द्रजालिकोंकी जीविकामें इन्द्रादिने यह बाधा डाल दी। इन्द्रजाल देखने समान इन्द्रादिके स्वरूपपरिवर्तनको देखकर वहां उपस्थित राजा लोग आश्चर्यचकित हो गये ] // 67 // विलोक्य तावाप्तदुरापकामौ परस्परप्रेमरसाभिरामौ / अथ प्रभुः प्रीतमना बभाषे जाम्बनदोर्वीधरसार्वभौमः // 68 / / विलोक्योत / अथ साक्षात्कारानन्तरं, जाम्बूनदोर्वीधरस्य स्वर्णमयसुमेरुभूध. रस्य, सार्वभौमः सर्वस्याः भूमेरीश्वरः, सर्वाध्यक्ष इत्यर्थः, 'सर्वभूमिपृथिवीभ्याम. णी इत्यण-प्रत्ययः, 'अनुशतिकादीनाञ्च' इत्युभयपदवृद्धिः, प्रभुः महेन्द्रः आप्तदुः रापकामौ प्राप्तदुर्लभमनोरथी, परस्परप्रेम अन्योऽन्यानुरागः, स एव रसः तेन अभिरामौ, तो दमयन्तीनलौ, विलोक्य प्रीतमनाः सन्तुष्टचित्तः सन् , बभाषे // 6 // इसके बाद सुवर्णपर्वत अर्थात् सुमेरुके चक्रवर्ती ( अतएव ) सर्वसमर्थ एवं प्रसन्नचित्त ( इन्द्र ), दुर्लभ मनोरथको प्राप्त किये हुए ( अतएव ) पारस्परिक प्रेमरस ( स्तम्भ-स्वेदादि सात्त्विक भाव ) से सुन्दर उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल ) को देखकर बोले-[ यहांपर इन्द्रके 'जाम्बूनदोवीधरसार्वभौम' और 'प्रभु' विशेषण वरदान देनेमें पूर्णरूपसे इन्द्रका 1. 'रूपान्यता-' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सगः। 566 सामर्थ्यवान् होना तथा 'प्रीतमनाः' विशेषण उनका नल-दमयन्तीकी याचना किये बिना वरदान देनेसे प्रतारण नहीं करना सूचित करते हैं ] // 68 // वैदर्भि ! दत्तस्तव तावदेष वरो दुरापः पृथिवीश एव / दूत्यन्तु यत्त्वं कृतवानमायं नल ! प्रसादस्त्वयि तन्मयाऽयम् / / 69 / / तौ बभाषे इत्युक्तं तत्र वैदर्भी तावदाह, वैदर्भाति / हे वैदर्भि! तव तावत् एषः पृथिवीशः नलः एव, दुरापः अस्मदनुग्रहं विना दुर्लभः, वरः दत्तः, आपाततस्तावदेष वरः, उभयसाधारण्येन तु वरान्तरञ्च भविष्यतीति भावः। नलञ्चाह, हे नल ! स्वं तु यत् यस्मात् , अमायम् अकपट, दूत्यं दमयन्तीविषये दूतकर्म, 'दूतस्य भागकर्मणो' इति यत्प्रत्ययः कृतवान् , तत् तस्मात् , स्वयि विषये, मया अयं वक्ष्यमाणः, प्रसादः वरः, दत्तः इति पूर्वानुषङ्गः // 69 // ___हे दमयन्ति ! ( मैंने ) पहले इस दुर्लभ राजा ( नल) को ही वर (पति, पक्षावरदान रूपमें तुम्हारे लिए ) दे दिया / ( तथा ) हे नल ! तुमने जो निष्कपट मेरा दूत कार्य किया, उस कारण तुम्हारे विषयमें मेरा यह ( वक्ष्यमाण - 14.70-72) प्रसाद अर्थात् वरदान है / / 69 / / प्रत्यक्षलक्ष्यामवलम्ब्य मूर्ति हुतानि यज्ञेषु तवोपभोक्ष्ये / संशेरतेऽस्माभिरवीक्ष्य भुक्तं मखं हि मन्त्राधिकदेवभावे / / 70 / / प्रत्यक्षेति / हे नल ! तव यज्ञेषु प्रत्यक्षेण लक्ष्यां दृश्यां, मूर्ति विग्रहम्, अवलम्ब्य हुतानि हवींषि, उपभोक्ष्ये अनुभोये, 'भुजोऽनवने' इत्यात्मनेपदम् ईदृशवरेण मम को लाभः ? इति चेत् तत्राह, संशेरते इति ।-हि यतः मखं यज्ञम्, अस्माभिः भुक्तम् अवीक्ष्य प्रत्यक्षेण अदृष्टवा, मन्त्राधिकदेवभावे शब्दातिरिक्तदेवसद्भावे, संशेरते सन्दिहते, जना इति शेषः। 'अशरीरा देवता' इति मीमांसकाः, तत्सन्देह निवृत्त्यर्थं ते विग्रहं दर्शयिष्यामि, तेन भवतस्तादृशसंशयनिरासरूपलाभो भविष्यतीति भावः // 70 // (इन्द्र नलको वरदान देते हैं कि-हे नल ! ) तुम्हारे यज्ञोंमें प्रत्यक्ष शरीरको धारण कर हम ( अन्य देवताओं के साथ मैं, अग्निमें हवन किये गये ) हविष्यों का ग्रहण करेंगे, क्यों कि हम लोगोंसे यज्ञको भोग किया हुआ नहीं देखकर ( यजमान, यानक समूह ) मन्त्रातिरिक्त देवत्वमें सन्देह करते हैं। [मीमांसक लोग मन्त्रसे अतिरिक्त कर्मसमवायी देवत्वको नहीं मानते हैं, अतएव जब हमलोग तुम्हारे यज्ञमें सशरीर प्रत्यक्ष होकर हविष्य भोजन करेंगे, तब लोगोंका उक्त सन्देह दूर हो जायेगा और यह सन्देह-निवारण ही तुम्हारे लिए महान् लाभ होगा ] // 70 // भवानपि त्वदयिताऽपि शेषे सायुज्यमासादयतं शिवाभ्याम् / प्रेत्यास्मि कीदृग्भवितास्मि चिन्ता सन्तापमन्तस्तनुते हि जन्तोः।।७१॥
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________________ - नैषधमहाकाव्यम् / अथोभयसाधारणं वरमाह, भवानिति / भवानपि त्वञ्च, त्वद्दयिताऽपि दमयन्त्यपि च, शेषे आयुरवसाने, शिवा च शिवश्व ताभ्यां शिवाभ्यां पार्वतीपरमेश्वराभ्यां सह, 'पुमान् स्त्रिया' इत्येकशेषः, सयुजो भावः सायुज्यं तादात्म्यम्, आसादयतं प्राप्नुतम् / आमुष्मिकफलोक्तो कारणमाह-हि यतः, प्रेत्य लोकान्तरं गत्वा, अस्मि अहं, कीहक भवितास्मि कीदृशो भविष्यामि, इति चिन्ता जन्तोः अन्तः मनसि, सन्तापं तनुते, तन्निवृत्त्यर्थेयमुक्तिरिति भावः // 71 // ___ आप तथा आपकी प्रियतमा अर्थात् दमयन्ती भी ( भूलोक-भोगनिमित्तक कर्मके ) अन्तमें शिव तथा पार्वतीके साथ तादात्म्यको प्राप्त करें, क्योंकि मरने के बाद '( मैं ) क्या होऊंगा अर्थात् मैं किस योनिमें जाऊंगा ?? यह चिन्ता प्राणीके अन्तःकरणमें सन्ताप बढ़ाती है। [ अत एव मुझसे यह वरदान पाकर तुम्हें भावी जन्मके लिए सन्देह-निवृत्ति होनेसे मनके तापकी शान्तिरूप श्रेष्ठ लाभ होगा ] // 71 // तवोपवाराणसि नामचिह्न वासाय पारेऽसि पुरं पुराऽऽस्ते | निर्वातमिच्छोरपि तन्न भैमीसम्भोगसङ्कोचभियाऽधिकाशि / / 72 / / तवेति / किञ्च, तव वासाय निवासाय, उपवाराणसि वाराणस्याः समीपे, 'अव्ययं विभक्ति-' इत्यादिना सामीप्यार्थे अव्ययीभावः, पारेऽसि असिनाम नदी तस्याः पारे, 'पारे मध्ये षष्ठया वा' नामचिह्नं त्वन्नामाङ्कितं, पुरं नलपुरं, पुग आगामिनि, सत्वरमित्यर्थः, 'निकटागामिके पुरा' इत्यमरः, आस्ते आसिष्यते, भविष्यतीत्यर्थः, आसेभविष्यदर्थे 'यावत्पुरानिपातयोर्लट्' इति भविष्यदर्थे लट तत् पुरं, निर्वातुं मोक्तुम्, इच्छोः मुमुतोरपि, तवेति शेषः, भैमीसम्भोगस्य सङ्कोचात् प्रतिबन्धात् , भिया अधिकाशि काश्यां, न, भविष्यति शेषः / मुमुक्षुरपि त्वं यावजीवं भैम्या सह नलपुरे विहर, अन्ते काश्यां शिवसायुज्यमाप्नुहीत्यर्थः / / 72 // तुम्हारे निवासके लिए काशीके समीप 'असी' ( नामकी नदी ) के पारमें तुम्हारे नाम से चिह्नित पुर अर्थात् 'नलपुर' भविष्यमें होगा / मुक्तिके इच्छुक भी तुम्हारे उस पुर (नल पुर ) को दमयन्तीके साथ सम्भोगके सङ्कोचके भयसे ( मैंने ) काशी में नहीं किया है। [ यद्यपि वर्तमानमें तुम्हारा निवासस्थान अन्यत्र है, किन्तु भविष्यमें काशीके पास असीनदीके पारमें 'नलपुर' नामक तुम्हारी राजधानी होगी मुक्ति-अभिलाषी तुमको दमयन्तीके साथ सम्भोग करने में सङ्कोच ( कभी ) करनेका भय होगा इस कारणसे मैंने काशी में तुम्हारी राजधानी नहीं बनाकर काशीके पास ही असी नदी के पारमें बनायी है, अतः उस राजधानीमें दमयन्तीके साथ पूर्णतः सम्भोग-सुख करके अन्तमें तुम दोनों दम्पति क्रमशः शिव-पार्वतीके सायुज्यको प्राप्त करना] // 72 // धूमावलिश्मश्रु ततः सुपर्वा मुखं मखास्वादविदां तमूचे / कामं मदीक्षामयकामधेनोः पयायतामभ्युदयस्त्वदीयः / / 73 / / /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 871 धूमेति / ततः इन्द्रवाक्यानन्तरं, धूमावलिरेव श्मश्रुणि यस्य तत् , मखास्वाद. विदां यज्ञरसज्ञानां, मुखं मुखभूतः, सुपर्वा देवः अग्निः, 'अग्निमुखा वै देवाः' इति श्रुतेः; तं नलम् , ऊचे; तदेवाह-हे नल ! त्वदीयः अभ्युदयः वृद्धिः; मदीक्षामयी मदृष्टिरेव कामधेनुः तस्याः कामं पयायतां क्षीरायतां, मस्कटाक्षमात्रेण ते सर्वार्थः सिद्धिर्भविष्यतीति भावः / 'कत्त क्यङ्सलोपश्च' इति पयःशब्दादाचारार्थे क्यङ्प्रत्ययो वैभाषिकः सलोपश्च, 'ओजसोऽप्सरसो नित्यमितरेषां विभाषया' इति वचनात् // 73 // इस ( इन्द्रके वर देने ) के बाद धूम-समूहरूपी दाढ़ीवाले तथा यज्ञ ( हविष्य ) के स्वादश अर्थात् देवों के मुखरूप देव ( अग्नि ) उस ( नल ) से बोले-तुम्हारी समृद्धि मेरी दृष्टिरूपिणी कामधेनुके दुग्धके समान आचरण करे अर्थात् जिस प्रकार कामधेनु का दुग्ध अनन्त एवं सर्वार्थसाधक है उसी प्रकार तुम्हारी समृद्धि भी अनन्त एवं सर्वार्थसा. धिका होवे / / 73 // या दाहपाकौपयिकी तनुर्मे भूयात्त्वदिच्छावशवर्तिनी सा | तया पराभूनतनोरनङ्गात्तस्याः प्रभुः सन्नधिकस्त्वमेधि / / 74 / / येति / दाहः भस्मीकरणं, पाकः तण्डुलविक्लेदनादि तयोः औपयिकी उपायभूता, 'विनयादिभ्यष्ठक्' इति स्वार्थे ठकि ङीप उपायात् हस्वत्वञ्च या मे तनुः सा त्वदि. च्छाया वशवर्तिनी भूयात् / किञ्च, त्वं तस्याः तनोः, प्रभुः स्वामी, नियामकः सन् इति यावत् , तया शिवनेत्रस्थया तन्वा, पराभूततनोः दग्धाङ्गात् , हरभ्रष्टान्यतममूर्त्तित्वात् अस्येति भावः, अनङ्गात् अधिकः एधि भव, न केवलं रूपादेवानङ्गा. दधिकः, किन्तु तज्जेतुरग्नेरपि नियामकत्वेन अधिको भव इति भावः। अस्तेर्लोटि सिपि हेर्धिः 'ध्वसोरेद्धौ' इत्यादिना एवम् // 74 // (काष्ठादिको ) जलाने तथा ( चावल-दाल आदिको ) पकानेका साधनभूत जो मेरा शरीर अर्थात् पाका न है, वह तुम्हारे वशीभूत होवे और उस ( पाकाग्नि ) के स्वामी तुम (शिवनेत्रसम्बन्धी) उस अग्निसे जले हुए शरीरवाले कामदेवसे अधिक ( श्रेष्ठ या सुन्दर ) होवो / [ जहाँ अग्नि नहीं हो, वहां भी तुम्हारी इच्छामात्रसे अग्नि उत्पन्न हो जाय तथा पहलेसे ही तुम कामाधिक सुन्दर थे, किन्तु अब कामदेवके विजयी उस अग्निको भी वशीभूत करनेसे अब उस कामदेवसे और भी अधिक श्रेष्ठ होवो ] // 74 // अस्तु त्वया साधितमन्नमीनरसादि पीयूषरसातिशायि | तद्भप ! विद्मस्तव सूपकारक्रियासु कौतूहलशालि शीलम् // 75 // अस्त्विति / किञ्च, हे भूप! त्वया साधितं पक्वम् , अन्नं शाल्यादि, मीनरसः मत्स्यादीनां रसः, मीनेति मांसोपलक्षणं, तौ आदिः यस्य, आदिशब्दात् सूपशाका. 1. 'चित्तम्' इति पाठान्तरम्।
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________________ 872 नैषधमहाकाव्यम् / दीनां ग्रहणं, तत् सर्व, पीयूषरसम् अमृतस्वादम् , अतिशेते इत्यतिशायि ततो. ऽप्युत्कृष्टम् , अस्तु / ईदृग्वरदाने कारणमाह, तदिति / तत् तस्मात् , त्वत्पक्वान्ना. दीनाममृतादप्यधिकस्वादुत्वादित्यर्थः, तव शीलं स्वभावं, सूपं द्विदलादिव्यञ्जनपाकं, कुर्वन्तीति सूपकाराः सूदाः, 'सूपकारास्तु बल्लवाः। आरालिका आन्धलिकाः सूदा औदनिका गुणाः॥' इत्यमरः / कर्मण्यण , तेषां क्रियासु, पाकक्रियासु, सुष्टपका. रक्रियासु च, कौतूहलेन शालते इति तच्छालि कौतूहलि, पाककर्मणि :सदा उत्सुकमित्यर्थः, विद्मः / 'अस्मदो द्वयोश्च'इति बहुवचनम् ,अतः तवेयं सूपविद्या दत्तेति भावः॥ ___ हे राजन् ( नल ) ? तुम्हारा पकाया हुआ भात तथा मछली आदिका रस ( स्वाद ) अमृत रससे भी अधिक स्वादिष्ट होवे, उससे अर्थात् तुम्हारे पकाये हुए अन्नादिके अमृतरसाधिक स्वादिष्ट होनेसे पाचकों ( भोजन बनानेवाले ) रसोइयादारों, पक्षा०-सुन्दर उपकार ) के कार्यों में हमलोग कौतुकयुक्त तुम्हारे शील ( पाककला ) को जानेंगे तो अर्थात् अमृतरससे भी स्वादिष्ट भोजनसामग्री पकानेमें तुम्हें सर्वदा उत्कण्ठित जानेंगे // 75 // वैवस्वतोऽपि स्वत एव देवस्तुष्टस्तमाचष्ट नरोधिराजम् | वरप्रदानाय तवावदानश्चिरं मदीया रसनोधुरेयम् / / 76 / / वैवस्वत इति / देवः वैवस्वतः यमोऽपि, स्वतः एव अप्रार्थितः एव, तुष्टः सन् , तं नराधिराज नलम , आचष्ट अब्रवीत् / तदेवाह-हे नृप ! तव अवदानैः दौत्यादि। रूपैरभुतकर्मभिः, इयं मदीया रसना चिरं चिरात् प्रभृति, वरप्रदानाय उत् उद्गता, धूः वरदानभारः यस्याः सा उधुरा दृढसङ्कल्पेत्यर्थः। 'ऋकपूर-' इत्यादिना समासान्तः // 76 // ___ यम देव भी स्वयं ही प्रसन्न होकर उस नरपति ( पाठा०-भूपति अर्थात् नल से ) बोले-तुम्हारे ( निष्कपट दौत्य आदि ) कर्मोसे यह मेरी जीभ देरसे वर देने के लिये उत्कण्ठित है अर्थात् मैं भो तुम्हारे किये गये दौत्यादि कार्योंसे सन्तुष्ट होकर स्वयं ( विना याचना किये ही ) तुम्हें वरदान देता हूँ / / 76 // सर्वाणि शस्त्राणि सहाङ्गचक्रराविर्भवन्तु त्वयि शत्रुजैत्रे | अवाप्यमस्मादधिकं न किञ्चिज्जागतिं वीरव्रतदीक्षितानाम् // 77 / / सर्वाणीति / हे नल ! सर्वाणि शस्त्राणि आयुधानि, अङ्गचक्रैः प्रयोगोपसंहारादिमन्त्ररूपस्वाङ्गकलापैः सह शत्रून् जेतरि एव जैत्रे जयशीले, शत्रुजैत्रे शत्रुजयकारिणि, जेतृशब्दात्ताच्छील्ये तृनन्तात् प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण-प्रत्ययः, 'न लोका-' इत्यादिना * षष्ठोप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया, योगविभागात् समस्यते, त्वयि विषये, आविर्भवन्तु / एतावता को लाभः ? तत्राह-वीरव्रतम् आहवेषु अनिवर्तित्वं, तत्र दीक्षितानां कृतसङ्कल्पानां त्वादृशां शूराणाम् , अस्मात् अस्त्रलाभात् , अधिकम् उत्कृष्टम् ' 1. 'धराधिराजम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः अवाप्यं लभ्यं, किञ्चित् न जागर्ति न स्फुरति, न विद्यते इत्यर्थः / सामान्येन विशेष समर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 77 // ___ सम्पूर्ण शस्त्रसंहार तथा विक्षेपादिके अङ्गों ( मन्त्रादि-प्रयोगों ) के साथ शत्रुओं पर सर्वदा विजय पानेवाले तुम्हें प्राप्त होवें / वीर-व्रतके लिए कृतसङ्कल्प ( योद्धाओं ) को इस ( समन्त्रक संहार-विक्षेपके सहित अप्रयास प्राप्त शस्त्रों ) से अधिक प्राप्त करने योग्य कोई पदार्थ नहीं है / 77 // कृच्छ गतस्यापि दशाविपाकं धर्मान्न चेतः स्खलतात्तवेदम् / अमुञ्चतः पुण्यमनन्यभक्तेः स्वहस्तवास्तव्य इव त्रिवर्गः / / 7 / / कृच्छमिति / किञ्च, कृच्छू कष्टं दशाविपाकम् अवस्थापरिणामं, गतस्यापि प्राप्त. स्यापि, दुर्दशापन्नस्यापीत्यर्थः, तव इदं चेतः धर्मात् न स्खलतात् न स्खलतु / तोस्तातङादेशः ततः किम् ? तत्राह-पुण्यं धर्मम्, अमुञ्चतः अत्यजतः, न विद्यते अन्यस्मिन् अधर्मे भक्तिः यस्य तस्य अनन्यभक्तेः अधर्मविमुखस्य, त्रयाणां धर्मकामार्थानां वर्गः त्रिवर्गः 'त्रिवर्गो धर्मकामार्थश्चतुर्वर्गः समोक्षकैः' इत्यमरः, स्वहस्ते वसतीति स्वहस्तवास्तव्यः इव हस्तस्थप्राय इवेत्यर्थः। 'वसेस्तव्यत् कर्तरि णिच' इति वक्तव्यात् तव्यत् / अत्र त्रिवर्गसिद्धिलक्षणकार्येण धर्मात्यागरूपकारणसमर्थनात् कार्यण कारणसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 78 // कष्टप्रद दशामें पड़े हुए भी तुम्हारा यह चित्त धर्मसे कभी भी स्खलित नहीं होवे / ( इससे लाभ यह होगा कि ) पुण्य अर्थात् धर्मकृत्यको नहीं छोड़नेवाले अधर्मसे पराङ्मुख तुम्हारा त्रिवर्ग ( अर्थ, धर्म और काम रूप पुरुषार्थत्रय ) तुम्हारे हस्तस्थित-सा रहेगा। [ कष्टावस्थामें मनुष्यका चित्त प्रायः धर्मसे स्खलित हो जाता है, किन्तु तुम्हारा चित्त उस समय में भी धर्मपरायण ही बना रहे, इससे तुम अर्थ, धर्म और.कामकी प्राप्ति अनायास ही करते रहोगे] // 78 // स्मिताञ्चितां वाचमवोचदेनं प्रसन्नचेता नृपतिं प्रचेताः / प्रदाय भैमीमधुना वरौ ते ददामि तद्यौतककौतुकेन / / 76 / / स्मितेति / अथ प्रसन्नचेताः प्रचेता वरुणः, एनं नृपति नलं स्मिताञ्चितां मन्दहासमधुरां, वाचम् अवोचत् / तदेवाह-अधुना ते तुभ्यं, भमीं प्रदाय तद्योतक कौतुकेन तस्मिन् प्रदाने, यत् यौतकं युतकयोः वधूवरयोः देयं, युते विवाहकाले यत् लभ्यते तत् इति वा, विवाहकाले प्राप्यद्रव्यमित्यर्थः 'यौतकादि तु यद् देयं सुदायो हरणञ्च तत्' इत्यमरः / अण्-प्रत्ययः कण-प्रत्ययो वा तत्र यत् कौतुकम् इच्छा उत्सवो वा आनन्दो वा तेन, 'कौतुकं नर्मणीच्छायामुत्सवे कौतुके मुदि' इति मेदिनी, यौतकदा. नेच्छया यौतकदानानन्देन वा, वरौ वक्ष्यमाणो, ददामि यौतकत्वेन दास्यामीत्यर्थः।। 1. 'त्वदीयम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / प्रसन्नचित्त प्रचेता अर्थात् वरुण ( पक्षा-उन्नत चित्तवाला) इस राजा ( नल से ) मन्दहाससे शोभमान वचन बोले-'इस समय दमयन्तीको देकर उसके दहेजके कौतूहलसे तुमको मैं दो वर देता हूं // 79 // यत्राभिलाषस्तव तत्र देशे नन्वस्तु धन्वन्यपि तर्णमणः / आपो वहन्तीह हि लोकयात्रां यथा न भूतानि तथापराणि / / 5 / / तावेव वरावाह, यत्रेत्यादि / ननु भो नल ! यत्र देशे तव अभिलाषः जलेच्छा, तत्र धन्वनि मरुस्थलेऽपि, 'समानौ मरुधन्वानौ' इत्यमरः / तूर्णम् आशु, अर्णः अम्भः, अस्तु उद्भवतु / अस्य वरस्य श्लाध्यतामाह-इह लोके, यथा आपः लोकस्य जनस्य, यात्रां जीवनं, 'गमने जोवने यात्रा' इति वैजयन्ती। वहन्ति प्रापयन्ति, तथा अपराणि अन्यानि, भूतानि पृथिव्यादीनि, न हि, वहन्ति इति पूर्वानुषङ्गः, यदाह वाग्भटः'पानीयं प्राणिनां प्राणा विश्वमेतञ्च तन्मयम्' इति / अतः श्लाघ्योऽयं वर इति भावः।। ___ जहां पर तुम्हारी इच्छा हो, उस मरुस्थलमें भी शीघ्र ही पानी हो जावे, क्योंकि पानी लोगों के जीवनका जैसा कारण है, वैसा अन्य कोई भूत ( पृथ्वी, वायु, तेज तथा आका. श-इनमें से कोई द्रव्य ) कारण नहीं है, ( इसी वास्ते मरुस्थल-जैसे देशमें भी शीघ्र ही पानी प्राप्त कर सकनेका यह प्रथम वर मैं तुमको देता हूँ)॥ 80 // प्रसारितापः शुचिभानुनाऽस्तु मरुः समुद्रत्वमपि प्रपद्य / भवन्मनस्कारलवोद्गमेन क्रमेलकानां निलयः पुरेव / / 81 // प्रसारितेति / किञ्च, मरुः निर्जलस्थलं, भवतः मनस्कारः चित्ताभोगः, समनः सुखतत्परता इत्यर्थः, सुखलाभेच्छा इति यावत्, 'अतः कृकमि-' इत्यादिना सत्वम् तस्य लवः लेशः, तस्य उद्गमे सति, इति सप्तम्यन्तच्छेदः, इति नक्राणां जलजन्तुविशेषाणां, मेलाः एव मेलकाः सङ्घाः, तेषां निलयः आवासः, तथा शुचिभानुना शुभ्रांशुना चन्द्रेण, प्रसारिताः संवर्द्धिताः, आपः यस्य स तादृशः प्रसारितापश्च सन् 'ऋकपूर-' इत्यादिना समासान्तः / समुद्रत्वं प्रपद्यापि प्राप्यापि, भवन्मनस्कारलवोद्गमेनेति तृतीयान्तच्छेदः, पुनश्च त्वदिच्छामात्रेणैवेत्यर्थः, क्रमेलकानाम् उष्ट्राणां, निलयः सन् , 'उष्ट्रा मरुप्रिया' इति प्रसिद्धिः; तथा शुचिभानुना ग्रीष्मसूर्येण 'शुचिः शुभेऽनुपहते ग्रीष्मे हुतवहेऽपि च' इति विश्वः / प्रसारितापः अपसारितोदकश्च सन् , प्रखरसन्तापः सन् इति वा, पुरेवास्तु पूर्ववत् निर्जल एव भवतु / / 81 // ___ तुम्हारे सुखेच्छाके लेशमात्र होने पर ( थोड़ा भी सुख प्राप्तिकी इच्छा होने पर ) मरु. स्थल मगर-समूहोंका निवास स्थान, चन्द्रमासे बढ़ते हुए जलवाले समुद्रत्वको प्राप्तकर अर्थात् समुद्र बनकर भी तुम्हारी थोड़ी-सी इच्छासे ऊटोंका निवासस्थान सूर्य किरणसे सुखाये गये जलवाला ( अथवा-वडवाग्निकी ज्वालासे विस्तृत सन्तापवाला ) पहलेके समान मरुस्थल हो जावे / [ प्रथम अर्थ करते समय 'भवन्मनस्कारलवोद्गमे, नक्रमेलकानाम्' इस
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 875 प्रकार तथा द्वितीय अर्थ करते समय 'भवन्मनस्कारलवोद्गमेन, क्रमेलकानाम्' इस प्रकार पदच्छेद करना चाहिये / चन्द्रोदय होनेपर समुद्रके जलका बढ़ना तथा उसमें मगरोंका निवास होना और मरुभूमिका सूर्य किरणोंसे सन्तप्त होना तथा ऊँटोंका अतिशय प्रिय होना सर्वविदित है / तुम्हारी सुखेच्छामात्रसे ही मरुभूमि समुद्र बनकर अर्थात् बहुत जलसे परिपूर्ण होकर भी पुनः इच्छामात्रसे मरुस्थल बन जावे ] // 81 // अम्लानिरामोदभरश्च दिव्यः पुष्पेषु भूयाद्भवदङ्गसङ्गात् / दृष्टं प्रसूनोपमया मयाऽन्यन्न धमेशर्मोभयकमेठं यत् / / 2 / / द्वितीयं वरमाह, अम्लानिरिति / हे नल! भवतः अङ्गसङ्गात् करस्पर्शात् एव, पुष्पेषु अम्लानिः अम्लानता, दिव्यः स्वर्गीयः,आमोदभरश्च सौरभातिशयश्च, भूयात्। अस्य वरस्य श्लाध्यतामाह-यत् यस्मात् , प्रसूनोपमया पुष्पसाम्येन, धर्मशर्मणोः सुकृतसुखयोः, उभयस्मिन् द्वयेऽपि, कर्मणि घटते इति कर्मठं कर्मशूरं, कर्मक्षममित्यर्थः, 'कर्मशूरस्तु कर्मटः' इत्यमरः / 'कर्मणि घटोऽठच' इति अठच-प्रत्ययः, अन्यत् धनपुत्रादिवस्तु, मया न दृष्टम् ; सुरार्चनस्वोपभोगाभ्यामिहामुत्र च पुष्पस्योपयोगाच्छलाध्योऽयं वर इति भावः // 82 // (दूसरा वर यह है कि-) तुम्हारे शरीरके संसर्गसे पुष्पों ( पुष्पमालाओं ) में अम्लानता तथा दिव्य अतिशय सुगन्धि होवे अर्थात् तुम्हारे शरीरकी माला आदिके फूल कभी नहीं मुरझावें और उनमें कल्पवृक्षके फूलों के समान दिव्य अधिक सुगन्धि होवे, क्योंकि पुष्पके + मान धर्म ( देवादि पूजनादिरूप पुण्यकार्य) तथा शर्म (स्वशरीरसंस्कारादिरूप सुखसम्पादन कार्य)-इन दोनों में कर्मठ ( कर्मशूर अर्थात् काम पूरा करनेमें सर्वदा समर्थ ) अन्य कोई वस्तु मैंने नहीं देखी। [ पुष्य ही देवपूजनादि धर्मसम्बन्धी तथा शरीरसंस्कारादि सुखसम्बन्धी कार्यों के साधने में समर्थ होते हैं, उनके समान धर्म-शर्म-साधक दूसरा कोई पदार्थ नहीं है, इसी कारण मैंने अपने अनुभवके द्वारा तुम्हारे शरीरके संसर्गसे पुष्पों के म्लान नहीं होनेका तथा उनसे दिव्य अतिशय सुगन्धि निकलनेका दूसरा वर दिया है ] // 82 // वाग्देवताऽपि स्मितपूर्वमुर्वीसुपर्वराजं रभसाद्वभाषे / त्वत्प्रेयसीसम्मदमाचरन्त्या मत्तो न किञ्चिद ग्रहणोचितं ते ? // 23 // वागिति / वाग्देवताऽपि उर्वीसुपर्वराजं भूदेवेन्द्रं नलं, रभसात् हर्षात् 'रभसो वेगहर्षयोः' इति विश्वः। स्मितपूर्वं यथा तथा बभाषे / अथ स्वस्याः आप्तत्वोक्तिपूर्वकं स्वदेयस्य वरस्य अपरिहार्यत्वं तावत् सार्द्धश्लोकेनाह, त्वदिति / त्वत्प्रेयस्याः दमयन्त्याः , सम्मदं हर्ष, त्वद्वरणरूपं प्रियमित्यर्थः, 'प्रमदसम्मदी हर्षे' इति अप् निपातः, आचरन्त्याः कुर्वन्त्याः, अत एव मत्तो मत्सकाशात् , 'पञ्चम्यास्तसिल' इति पञ्चम्यर्थे तसिल प्रत्ययः, ते तव, किञ्चित् ग्रहणोचितमाप्तत्वेन स्वीकाराहम् , अथच ग्रहणोचितं ज्ञानयोग्यं, न ? अपि तु ग्रहणमुचितमेव, अतो मत्तः किंचित् ग्राह्यमित्यर्थः॥ 55 नै० उ०
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________________ 876 नैषधमहाकाव्यम्। .. सरस्वती देवी भी मन्दहासपूर्वक हर्षसे भूपति (नल ) के प्रति बोली-तुम्हारी परम प्रिया (दमयन्ती ) के अत्यधिक हर्षका सम्पादन करती हुई मुझसे तुम्हें कुछ ( वरदान ) ग्रहण करना उचित नहीं है ? अर्थात तुम्हारी परमप्रिया दमयन्तीकी अतिशय हर्षकार्य करने. वाली मुझसे भी तुम्हें कुछ वरदान ग्रहण करना ही चाहिए ( अथवा-जब मैंने तुम्हें ही तुम्हारी परमप्रिया दमयन्तीके लिए देकर उसका परमानन्द सम्पादन किया तो अब मुझसे कोई वस्तु तुमको नहीं लेनी चाहिये ) / [ ऐसा परिहास दमयन्तीकी सखी बनी हुई सरस्वती ने किया, दुलहिन दमयन्तीकी सखी सरस्वती देवीका दुलहे नलसे उक्त परिहास करना उचित ही है / परन्तु अग्रिम इलोकार्थकी सङ्गतिके लिये प्रथम अर्थ ही सुसङ्गत है ] अर्थो विनैवार्थनयोपसीदन्नल्पोऽपि धीरैरवधीरणीयः। मान्येन मन्ये विधिना वितीर्णः स प्रीतिदायो बहु मन्तुमर्हः / / 4 / / अर्थ इति / किञ्च, अर्थनया याच्यादैन्येन, विनैव उपसीदन् उपनमन् , अल्पः अपि अर्थः हितार्थः, धीरैः प्रेक्षावद्भिः, अवधीरणीयः उपेक्ष्यः, न, परन्तु स्वीकरणीय एव; कथं नावधीरणीयः ? इत्याह-अत्र यस्मात् इति पदमूहनीयम् ; यस्मात् मान्येन पूज्येन, विधिना ब्रह्मणा एव, वितीर्णः दत्तः, दीयते इति दायः कर्मणि घञ् प्रत्ययः, 'आतो युक् चिणकृतोः' इति युगागमः, प्रीत्या दायः 'कत्त करणे कृता-' इति समासः, प्रीतिदानरूपः, सः अर्थः, बहु अधिकः, इति मन्तुम् अवगन्तुम् , अहः इत्यहं मन्ये // 84 // विद्वानों को विना याचना किये ही मिलनेवाले छोटे-से भी फल (हितकर कार्य ) की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, ( किन्तु उसे स्वीकार ही करना चाहिये, क्योंकि माननीय दैव ( या ब्रह्मा ) के दिये हुए प्रेमपूर्वक दानको 'बहुत है' ऐसा मानना चाहिये / [ विना याचना किये ही प्रेमपूर्वक दी गयी जो छोटी भी वस्तु भाग्यसे प्राप्त होती हो, उसका छोटी होनेसे त्याग न कर उसे बहुत उत्तम मानकर स्वीकार करना चाहिये ] // 84 // अवामा वामाई सकलमुभयाकार घटनाद् द्विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं भवति यत् / / तदन्तर्मन्त्रं मे स्मर हरमयं सेन्दुममलं निराकारं शश्वजप नरपते ! सिध्यतु स ते // 5 // अथ वरस्वरूपमेव पञ्चभिः प्रपञ्चेनाह, अवामेत्यादि / नरपते ! हे नरेन्द्र ! अर्द्ध एकभागे, अवामा अस्त्री, पुमानित्यर्थः, पुनः अर्द्ध अर्द्धभागान्तरे, वामा स्त्री, अत एव द्विधाभूतं स्त्रीपुंसात्मकम् , उभयाकारघटनात् उभयोः आकारयोः मेलनात् , सकलं सम्पूर्ण भगवदभिधेयं भगवच्छब्दवाच्यं यत् रूपं भवति विद्यते, सेन्दुम् इन्दुकला. समेतम् , अमलं निर्मलं, निराकारं परमार्थतः निरंशं, मन्त्रं मन्त्रात्मक, तद्वत् गोप्यं वा हरमयम् ईश्वरात्मकं, मे मम, तत् रूपं, स्वरूपमित्यर्थः, अन्तः अन्तःकरणे, स्मर
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________________ चतुर्दशः सर्गः / 877 चिन्तय, शश्वत् निरन्तरं, जप मन्त्रात्मकत्वात् जपरूपेण च उपास्स्व, स. मन्त्रमूर्तिः भगवान् अर्द्धनारीश्वरः, ते तव, सिध्यतु प्रसीदतु, फलतु इत्यर्थः / मन्त्रपक्षे तु-अर्द्ध प्रथमभागे, अवा ओकारेण, मा मकारेण, प्रणवेन इत्यर्थः, तथा अवामाऽर्द्ध अर्द्ध उत्तरभागेऽपि, अवा ओकारेण, मा मकारेण चोपलक्षितं, प्रणवद्वयसम्पुटितमित्यर्थः, एवमुभयाकारघटनात् उभयाभ्याम् अकाराभ्यां घटनात् संयोगात् , द्विधाभूतं ह र इति द्विधा विभक्तम् अथवा उभयाभ्यामाकाराभ्यां, प्रणवस्वरूपायां, घटनात् सम्पुटीकरणात् , द्विधाभूतं द्वयाकारं, भगवदभिधेयं भगवान् शिवः, अभिधेयो वाच्यो यस्य तत् शिववाचकं, यत् रूपं भवति ओं हर ओम् इति यत् स्वरूपं निष्पद्यते, तत् हरमयं हकाररेफात्मकं, निराकारम् अश्व अश्व तौ औ, तयोराकारं स्वरूपं, निर्गतौ रहितो, अकारद्वयौ यस्मात् तादृशं, हकाररकारयोरुच्चारणार्थं यत् अकारद्वयं तच्छु- ' न्यम् , अत एव 'ह' इति व्यञ्जनवर्णमात्रात्मकमित्यर्थः, तथा ई च इन्दुश्च ताभ्याम् ईन्दुभ्यां सह वर्त्तते इति तादृशं सेन्दु तुरीयस्वरविन्दुसहितम्, अमलं निर्दोषं, सकलं कलया अर्द्धचन्द्रेण सहितं, मे मदीयं, मन्त्रं प्रणवद्वयसम्पुटितं ओं ह्रीं ओम् इत्या. कारकं सारस्वतचिन्तामणिमन्त्रमित्यर्थः, तदुक्तं पारमेश्वरे,-'उद्धारस्तु परोक्षेण परोक्षप्रियताश्रुतेः। शिवान्त्यवह्निसंयुक्तो ब्रह्मद्वितयमन्तरा // तुरीयस्वरशीतांशु-रेखातारासमन्वितः / एष चिन्तामणि म मन्त्रः सर्वार्थसाधकः // जगन्मातुः सरस्वत्या रहस्यं परमं मतम् // ' इति शिवशब्देन हकारः, वह्निशब्देन रकारः, ब्रह्मद्वितयम. न्तरा प्रणवद्वितयमध्ये, तुरीयस्वरेण ईकारः, शीतांशुरेखया अर्द्ध चन्द्रः, ताराशब्देन विन्दुः इत्यर्थः / अन्तरित्यादि पूर्ववत् / यन्त्रपक्षे-भगवत् योनीव, अभिधेयं दृश्यं, यत् रूपं त्रिकोणाख्यम् , उभयाकारघटनात् त्रिकोणद्वयमेलनात्, सकलं सम्पूर्ण, षटकोणमित्यर्थः, भवति, तदन्तः तस्य षट्कोणस्यान्तमध्ये, मन्त्रम् ओं ह्रीं ओम् इत्या. कारकम् / अनन्तरोक्तं, नरपते इत्यादि पूर्ववत् / अत्र देवतामन्त्रयन्त्राणां त्रयाणामपि प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतश्लेषोऽलङ्कारः। शिखरिणी वृत्तम् // 85 // आधे अर्थात् दहने भागमें पुरुष तथा आधे अर्थात् बांये भाग में स्त्री, (अतएव स्त्री'पुरुषात्मक ) दो भागवाला, ( परन्तु वास्तवमें ) दोनों आकारोंके मिलनेसे सम्पूर्ण, भगवद्वाच्य ('शिव' नामसे कहा जानेवाला ) जो रूप होता है; हे राजन् (नल ) ! चन्द्रयुक्त, निर्मल (शुभ्रवर्ण), निराकार (दो भाग प्रतीत होनेपर भी वास्तविक अवयवहीन), मन्त्रतुल्य गोपनीय (या-मन्त्ररूप ), ईश्वरा-(शिवा-)त्मक मेरे उस रूपको अन्तःकरणमें चिन्तन (ध्यान ) करो, जपो अर्थात् जपरूपसे उपासना करो; मन्त्रमूर्ति वह ( भगवान् शिव ) तुम्हें सिंद्ध (फलदाता) हों। मन्त्रपक्षमें-आधे (पूर्व) भागमें ओकार तथा मकारसे तथा उत्तर भागमें ओकार तथा मकार से उपलक्षित अर्थात् आदि और अन्तमें "आम्' रूप प्रणवसे युक्त; दो अकारोंके घटना ( संयोग) से द्विधाभूत ( 'ह र' इस प्रकार विभक्त / अथवा-दोनों आकार अर्थात् प्रणवके सम्पुटीकरणसे दो आकारवाला), शिव
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________________ 878 नैषधमहाकाव्यम् / वाचक, ( 'ओं हर ओम्' ऐसा ) जो रूप होता है; वह 'हर' मय अर्थात् हकार-रेफात्मक ('ह, र' रूप ), निराकार अर्थात् दोनों अकारोंसे रहित (ह र अर्थात् ह= केवल व्यञ्जन हकाररेफस्वरूप ), ई और इन्दु (चन्द्र अर्थात् गोलाकृति ( अनुस्वार ) से युक्त) अर्थात् 'ह्रीं' ऐसे रूपवाला, कलायुक्त अर्थात् 'ह्रीं' (इस प्रकार 'ओं ह्रीं ओं' स्वरूप ) मेरे मन्त्र ('चिन्तामणि' नामक सारस्वत मन्त्र ) का मनमें नित्य जप करो अर्थात् मानसिक' जप करो, वह 'चिन्तामणि' नामक सारस्वत मन्त्र तुम्हें सिद्ध होवे। यन्त्रपक्षमें-भग अर्थात् योनिके समान दृष्टिगोचर होनेवाला अर्थात् त्रिकोण, दो आकृतियोंकी घटनासे सम्पूर्ण अर्थात् षटकोणस्वरूप और उस (षटकोण ) के बीचमें उक्त मन्त्र (ओं ही ओं) से युक्त मेरे सारस्वत यन्त्रकी नित्य उपासना करो, वह यन्त्र तुम्हें सिद्ध होवे ( शेष अर्थ पूर्ववत् जानना चाहिये ) // 85 // सर्वाङ्गीणरसामृतस्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः स स्वर्गीयमृगीदृशामपि वशीकाराय मारायते / यस्मै यः स्पृहयत्यनेन स तदेवाप्नोति किं भूयसा येनायं हृदये कृतः सुकृतिना मन्मन्त्रचिन्तामणिः / / 86 // सम्प्रति श्लोकद्वयेन मन्त्रमाहात्म्यमाह, सर्वाङ्गीणेत्यादि / येन सुकृतिना पुण्याधिकेन, अयं पूर्वोक्तः, मन्मन्त्रः एव चिन्तामणिः चिन्तामात्रेण चिन्तितवस्तुदायकः मणिस्वरूप इत्यर्थः, हृदये कृतः अनुस्मृतः, सः अनुस्मरणकारी, सर्वाङ्गीणेन सर्वाङ्गव्यापिना, 'तत् सर्वादेः-' इत्यादिना ख-प्रत्ययः, रसः शृङ्गारादिरेव, अमृतं तेन स्तिमितया भरितया, वाचा काव्यादिरूपवाग्वैदग्ध्येन, वाचस्पतिः बृहस्पतिः, तत्स. दृशो भवतीत्यर्थः। 'तत्पुरुषे कृति बहुलम्' इति षष्ठया अलुक, कस्कादित्वात् सत्वम् / 'षष्ठ्याः पतिपुत्र-' इत्यादिना विसर्जनीयस्य सत्वमिति स्वामी, तन्न, 1. तदुक्तं हारीतेन 'त्रिविधो जपयज्ञः स्यात् तस्य तत्त्वं निबोधत / / वाचिकश्चाप्युपांशुश्च मानसश्च विधाऽऽकृतिः। त्रयाणामपि यज्ञानां श्रेष्ठः स्यादुत्तरोत्तरः॥ यदुच्चनीचोच्चरितैः शब्दैः स्पष्टपदाक्षरैः / मन्त्रमुच्चारयेद्वाचा जपयज्ञस्तु वाचिकः॥ शनैरुच्चारयेन्मन्त्रं किञ्चिदोष्ठौ प्रचालयेत् / किञ्चिच्छ्रवणयोग्यः स्यात्स उपांशुर्जपः स्मृतः // धिया पदाक्षरश्रेण्या अवर्णमपदाक्षरम् / शब्दार्थचिन्तनाभ्यां तु तदुक्तं मानसं स्मृतम् // " इति / (हारीतस्मृतिः 4 / 40-44)
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________________ 879 चतुर्दशः सर्गः। अस्य छन्दोविषयत्वादिति / एवं स स्वर्गे भवाः स्वर्गीयाः, 'वा नामधेयस्य-' इति वृद्धत्वाच्छप्रत्ययः / तासां मृगीदृशां स्त्रीणामपि, वशोकाराय वशीकरणाय, मारायते मारः कन्दर्प इव आचरति, न केवलं विदग्धवाक स्त्रीवशीकरणसमर्थोऽपि चेत्यर्थः / यद्वा, भूयसा बहुतरोक्तेन, किम् ? यः यस्मै स्पृहयति यत् कामयते, 'स्पृहेरीप्सितः' यतोऽयं चिन्तामणिरिति भावः // 86 // इस ( पूर्वोक्त ) 'चिन्तामणि' नामक मेरे मन्त्रको (अथवा-'चिन्तामणि' (चिन्तित फल देनेवाले रत्नविशेष ) रूप मेरे मन्त्रको; अथवा-मेरे मन्त्ररूप चिन्तामणिको ) जिस पुण्यात्मा ( या-पुरश्चरणादि सत्कर्मकर्ता) ने हृदयमें (चित्तमें, पक्षा०-छातीपर) किया; वह सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त ( शृङ्गारादि नव ) रसरूपी अमृतसे आर्द्र (सुमधुर, या सरस ) वचन ( काव्यादि ) से बृहस्पति अर्थात् बृहस्पतितुल्य (या-बृहस्पति ही) होता है, वह स्वर्गीय मृगलोचनाओंको वशीभूत करनेके लिए कामदेवतुल्य आचरण करता है अर्थात् उसे देखकर उर्वशी-मेनकादि स्वर्गोय देवाङ्गनाएँ कामाधीन हो जाती हैं / अधिक ( अन्यान्य मन्त्रों, या बहुत कहने ) से क्या प्रयोजन है ? जो जिसको चाहता है, वह उसे ही प्राप्त करता है। [ अत एव हे नल ! तुम इसी 'चिन्तामणि' नामक मेरे पूर्वोक्त (14 / 85) मन्त्रको हृदयमें धारण करो] // 86 // पुष्पैरभ्यर्च्य गन्धादिभिरपि सुभगैश्चारु हंसेन मां चे. निर्यान्ती मन्त्रमूर्ति जपति मयि मतिं न्यस्य मय्येव भक्तः / सम्प्राप्त वत्सरान्ते शिरसि करमसौ यस्य कस्यापि धत्ते सोऽपि श्लोकानकाण्डे रचयति रुचिरान कौतुकं दृश्यमस्य // 87 // पुष्पैरिति / किञ्च, मयि भक्तः भक्तियुक्तः सन् , मय्येव मतिं न्यस्य मनो निधाय, हंसेन, वाहनभूतेन, चारु सम्यक , निर्यान्ती सञ्चरन्ती, मन्त्रमूर्ति मन्त्ररूपां, मां सुभगैः मनोज्ञैः, पुष्पैः तथा गन्धादिभिरपि चन्दनादिसुगन्धिद्रव्यः, आदिशब्दात् धूपाद्यपचारैश्च, अभ्यर्य जपति चेत् तर्हि वत्सरान्ते सम्प्राप्ते सति असौ जपिता, यस्य कस्य अनक्षरस्यापि, शिरसि करं धत्ते निधत्ते, सः अनक्षरः अपि, अकाण्डे अकस्मात् रुचिरान् श्लोकान् रचयति, अस्य मन्त्रस्य, एतत् कौतुकम् अद्भुतं, दृश्यं द्रष्टव्यम् // सुन्दर हंसगामिनी एवं मन्त्ररूपिणी अर्थात् षटकोणाकृति यन्त्रमध्यवर्तिनी, या मन्त्र. मध्यगत शरीर वाली मुझको सुन्दर फूलों तथा गन्धादि (चन्दन-धूपादि सुगन्धियों ) से पूजा करके मुझमें बुद्धि लगाकर अर्थात् चित्तको एकत्यकर तथा मेरा ही भक्त होकर अर्थात् सब प्रकार मेरा ही सेवन करता हुआ ( साधक मेरे मन्त्रको) जपता है, तब एक वर्षके बाद वह जपकर्ता जिस किसी ( मूक, मूर्ख आदि) के भी मस्तक पर हाथ रखता है, वह (मूक, मूर्ख आदि जन ) भी अकस्मात (रसरीतिगुणालकारादि ) मनोहर श्लोकोंकी रचना
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________________ 80 नैषधमहाकाव्यम् / करने लगता है; अत एव ( इस मन्त्रको जपकर तुम ) इसके कौतूहलको देखो / / 87 / / गुणानामास्थानी नृपतिलक ! नारीतिविदितां रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः। . भवित्री वैदर्भीमधिकमधिकण्ठं रचयितुं परीरम्भकोडाचरणशरणामन्वहमहम् / / 88 // . अथ श्लोकद्वयेन नलं प्रत्युपयोगविशेषमाह, गुणानामित्यादि / नृपतिलक ! हे नृपश्रेष्ठ ! गुणानां रूपलावण्यादीनां, श्लेषप्रसादादीनाञ्च, आस्थानीम् आधारभूतां, नारी उत्तमस्त्री, इति विदितां विश्रुताम, अन्यत्र-रीतिषु गौडीपाञ्चाल्यादिषु, विदिता प्रसिद्धा, सा न भवतीति अरीतिविदिता, नञसमासः / साऽपि न भवतीति तां नारीतिविदितां रीतिषु विदितामित्यर्थः, नअर्थस्य न-शब्दस्य सुप्सुपेति समासः / अन्तः मनसि, श्लोकमध्ये च, रसोतां रसेन नलविषयकानुरागेण, स्फीतां परिपूर्णाम्, अन्यत्र-शृङ्गारादिरसाढ्या, 'शृङ्गारादौ विषे वोर्ये गुणे रागे द्रवे रसः' इत्य. मरः / वैदर्भी दमयन्ती, वैदर्भरीतिञ्च, यथासङ्ख्यं तव च नलस्य च, तव वृत्ते च चरित्रविषये च, कवितुः वर्णयितुः, श्रीहर्षादिकवेरित्यर्थः, 'कवृ वर्णने' इति धातोस्तृच / अधिकण्ठं कण्ठे, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः / परीरम्मक्रीडाचरणम् आलिङ्गनविनोदाचरणमेव, शरणं प्राणत्राणं यस्याः तां तदेकजीविताम्, अन्वहम, अनुदिनम् / याथाथ्यऽव्ययीभावः, 'नपुंसकादन्यतरस्याम्' इति समासान्तष्टच , 'अहष्टखोरेव' इति टिलोपः। अधिकम् अत्यर्थ, रचयितुं कर्त्तम, अहं भवित्री भविष्यामीत्यर्थः।।८।। हे राजश्रेष्ठ ( नल) ! सौन्दर्यादि गुणोंके आधारभूत, 'नारी' ऐसी प्रसिद्ध अर्थात् 'लोकमें यही एक श्रेष्ठ नारी है। ऐसा प्रसिद्ध, हृदय में रस ( त्वद्विषयक अनुराग) से परिपूर्ण दमयन्तीको (पक्षा०-इलेषादि तथा प्रासादादि गुणों के आधारभूत, अरीति ( वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली रीतिसे भिन्न ) नहीं अर्थात् उक्त रीतित्रयसे सुप्रसिद्ध, ( इलोकपद्य ) के मध्यमें शृङ्गारादि नव रसोंसे परिपूर्ण 'वैदर्भी' ( स्वल्पसमासवाली, या असमासवाली तीन रीतियोंमें-से प्रसिद्ध रीति-विशेष) को तुम्हारे तथा तुम्हारा चरितकी कविता करने वाले ( श्रीहर्षादि कवियों ) के कण्ठमें आलिङ्गन (चुम्बनादि ) क्रीडाको करना ही जिसका जीवन है ऐसी ( अथवा-आलिङ्गन (चुम्बनादि ) क्रीडाके लिये, तुम्हारा चरण ही है शरण जिसका ऐसी अर्थात् आलिङ्गनादि क्रीडार्थ तुम्हारे चरणों की सेवाको शरण मानने. वाली, पक्षा०-परीरम्भ ( श्लेषालङ्कार ) तथा क्रीडा (वक्रोक्ति-विलास ) का यथावत् ज्ञान ही जिसका शरण (आधार ) है ऐसी कविता) करनेके लिए अर्थात् करानेवाली प्रतिदिन होऊंगी। [ उक्त सौन्दर्यादि गुणविशिष्ट दमयन्ती तुम्हारे कण्ठमें आलिङ्गनादि क्रीडा जिस प्रकार करे वैसा मैं प्रतिदिन करनेमें प्रयत्नशील रहूंगी, पक्षा०-उक्त श्लेषादि गुणयुक्त वैदर्भी रीतिवाली तुम्हारे चरित्रकी कविताको करनेवाले कविके कण्ठमें लेष
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 851 वक्रोक्ति आदिसे परिपूर्ण ज्ञानको करने के लिए मैं प्रतिदिन प्रयत्नशील रहूंगी // इस पद्यसे कविकुलशिरोमणि ग्रन्थकार 'श्रीहर्ष' महाकविने यहां पर अपनी रचना को प्रसादादि गुणयुक्त, रोतियों से प्रसिद्ध, शृङ्गारादि रसाप्लावित, मुख्यतः 'वैदी' रीतियुक्त श्लेष वक्रोक्ति आदि ज्ञान की आधारभूत रचना करने में साक्षात् सरस्वतीदेवीने सहायताकी है यह सूचित किया है ] // 88 // भववृत्तस्तोतुर्मदुपहितकण्ठस्य कवितुमुखात् पुण्यैः श्ला कैस्त्वयि घनमुदेयं जनमुदे / ततः पुण्यश्लोकः क्षितिभुवनलोकस्य भविता भवानाख्यातः सन् कलिकलुषहारी हरिरिव / / 89 / / भवदिति / किञ्च, हे नल ! मया उपहितकण्ठस्य, अधिष्ठितकण्ठनालस्य, भवतः वृत्तस्य चरित्रस्य, स्तोतुः स्तावकस्य, कवितुः कः, मुखात् त्वयि विषये, पुण्यैः पवित्रैः चारुभिर्वा, 'पुण्यन्तु चार्वपि' इत्यमरः / श्लोकः पद्येः, जनमुदे लोकहर्षाय, घनं निरन्तरम, उदेयम्, उदेतव्यम्, उदीयतामित्यर्थः / एतेः 'अचो यत्' इति यत्प्रत्ययः / ततः को मे लाभः ? तबाह, तत इति / ततः पुण्यश्लोकोदयात् , भवान् पुण्यश्लोकः पुण्यकीर्तिः, इति आख्यातः कीर्तितः सन्, हरिः जनार्दनः इव, क्षिति. भुवनलोकस्य भूलोकस्य, कलिकलुषहारी कलिकालकल्मषनाशनः, भविता भविप्यति, भवतेलुटि 'शेषे प्रथमः' / अत्राहुः,-'पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः / पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // ' 'कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // ' इति // 89 // मुझसे अधिष्ठित कण्ठवाले ( जिसके कण्ठमें मैं ( सरस्वती देवी) वास करती हूं ऐसे ) तथा तुम्हारे चरित्र की स्तुति (प्रशंसा ) करनेके लिए कविता करनेवाले (कवि) के मुखसे त्वद्विषयक सुन्दर श्लोक लोगोंके हर्षके लिए अत्यन्त (या निरन्तर) उदित होवें, ( अथवालोगों के अत्यधिक हर्षके लिए उदित होवें) अर्थात् तुम्हारी प्रशंसाके सुन्दर श्लोक अत्यधिक लोगोंको हर्षप्रद हों और उस कारण ( अथवा-उसके बाद ) तुम कलिकालके पापको हरण करनेवाले विष्णुके समान ( अथवा-विष्णुके समान कलिकालके पापका हरण करनेवाले तुम ) भूतलनिवासी लोगोंके 'पुण्यश्लोक' ( पवित्र श्लोक या कीर्तिवाला) ऐसा प्रसिद्ध होवोगे / ( अथवा-'पुण्यश्लोक' ऐसा प्रसिद्ध तुम कलिकाल के पापहर्ता विष्णुके समान भूतलनिवासी लोगोंके होवोगे / अथवा-'पुण्यश्लोक' ऐसा प्रसिद्ध तुम विष्णुके समान भूतलनिवासी लोगोंके कलिकाल के पापनाशक होवोगे ) // 89 // देवी च ते च जगदुर्जगदुत्तमाङ्गरत्नाय ते कथय कं वितराम कामम् ? | किञ्चित्त्वया न हि पतिव्रतया दुरापं भस्मास्तु यस्तव बत व्रतलोपमिच्छुः।।
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________________ 892 नैषधमहाकाव्यम् / अथ ते सर्वे दमयन्ती प्रति आहुः, देवीति / देवी सरस्वती च, ते देवाश्च, जगदुः, जगदुत्तमाङ्गरत्नाय त्रैलोक्यशिरोमणिभूतायै, 'उत्तमाङ्गं शिरः शीर्षम्' इत्यमरः / ते तुभ्यं, कं काम्यते इति कामम् ईप्सितं, कर्मणि घञ् / वितराम ? प्रयच्छाम ? सम्प्रश्ने लोट् / कथय / पत्यो व्रतं नियमः, अस्खालित्वरूपमित्यर्थः, यस्याः, तादृशया त्वया किञ्चित् किमपि, दुरापं दुष्प्रापं, न हि नैव, अस्तीति शेषः, पातिव्रत्यतेजसोऽप्रतिहतशक्तिकत्वादिति भावः, तथाऽपि यः पापी; तव व्रतं पत्यौ अस्खालित्वरूपं, तस्य लोपं नाशम्, इच्छः अभिलाषुकः, / 'बिन्दुरिच्छुः' इत्युप्रत्ययान्तो निपातः, 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया / स भस्मास्तु भस्मीभवतु, बतेति खेदे; तथा चास्मद्वरप्रसादादेव तत्प्रतीकारात् तव ततो भयं न भविष्यतीति भावः। एतच्चोत्तरत्र वनमध्ये अजगरग्रस्तां दमयन्तीमजगरादुन्मोच्य पुनस्तां कामयमानस्य पापिष्ठस्य व्याधस्य वधे फलिष्यतीति भारती कथा अत्र अनुसन्धेया // 9 // ___ सरस्वती देवी तथा वे ( इन्द्रादि चारों देव ) बोले कि-(हे दमयन्ति !) संसारके शिरोभूषण तुमको हमलोग किस मनोरथको दें अर्थात् पूरा करें क्योंकि पतिव्रता तुमको कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है, तथापि जो कोई तुम्हारे व्रत ( पातिव्रत्य ) को भङ्ग ( नष्ट ) करना चाहे वह भस्म हो जाय, खेद है [ इस वरदानसे कविने भविष्यमें होनेवाली कथाका भी सङ्केत कर दिया है [ // 90 // कूटकायमपहाय नो वपुर्बिभ्रतस्त्वमसि वीक्ष्य विस्मिता | आप्तुमाकृतिमतो मनीषितां विद्यया हृदि तवाप्युदीयताम् / / 91 / / अथ वरान्तरञ्च, कूटेति / कूटकायं कपटदेहं, नलाकारमिति यावत्, अपहाय वपुः निजविग्रह, बिभ्रतः बिभ्राणान् , नः अस्मान् , वीक्ष्य त्वं विस्मिता विस्मया. विष्टा, असि, तेन, स्वेच्छया रूपान्तरपरिग्रह-परिहारकामा त्वमिति प्रतिभासीति भावः, अतः हेतोः, मनीषिताम् अभिलषिताम्, आकृति शरीरम, आप्तं तवापि हृदि हृदये, विद्यया कामरूपसम्पादकविद्यया, उदीयताम् उद्भयताम्, उत्पूर्वादिणो भावे लोट् // 91 // ___ कपटशरीर ( कृत्रिम नलशरीर ) को छोड़कर ( अपना ) शरीर धारण किये हुए हम लोगोंको देखकर तुम आश्चर्यित हो गयी हो, ( अतः ) अभिलषित शरीर पाने के लिए तुम्हारे भी ( 'अपि' शब्दसे नलके भी ) हृदयमें विद्या (शरीर-परिवर्तिनी मन्त्रादिशक्ति) प्रादुर्भूत होवे // 91 // इत्थं वितीर्य वरमम्बरमाश्रयन्सु तेषु क्षणादुदलसद्विपुलः प्रणादः / उत्तिष्ठतां परिजनालपनैर्नृपाणां स्वर्वासिवृन्दहतदुन्दुभिनादसान्द्रः / / 12 / / इत्यमिति / तेषु देवेषु, इत्थं वरं वितीर्य इत्या, अम्बरम भाकाशम, आश्रयस्सु सासु, उत्तिष्ठताम् भासनेभ्यः उच्यता, नृपाणां प्रणाः हस्थध्वनिः 'प्रणादस्तु
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 883 शब्दः स्यादनुरागजः' इत्यमरः / परिजनानाम् आलपनैः आभाषणैः, विपुलः सन् , तथा स्वर्वासिनां दिव्यजनानां, वृन्देन हतानां ताडितानां, दुन्दुभीनां नादेन सान्द्रः निरन्तरः सन् , निरवच्छिन्नभावेनेत्यर्थः, क्षणात् उदलसत् उस्थितः॥ 92 // ऐसा (14 / 70-91 ) वरदान देकर उन (इन्द्रादि चारों देव तथा सरस्वती देवी) के आकाशमें जाने के लिए तत्पर होनेपर ( अपने-अपने शिविर आदिमें जानेके लिए ) उठते हुए राजाओंके परिजनों के भाषण ( जय, जीव इत्यादि राजस्तुतिवचनों ) से देवगों के द्वारा बजायी गयी दुन्दुभियोंके शब्दोंसे गम्भीर क्षणमात्रमें महान् ( बड़े जोरोंका) शब्द ( कोलाहल ) हुआ। [ वरदान देकर इन्द्रादि देव तथा सरस्वती देवी स्वर्गको जानेके लिए उद्यत हुए, अपने-अपने शिविरोंको जानेके लिए राजा लोग उठने लगे तो बन्दी उनके यशोगान करने लगे तथा दमयन्ती और नलके परस्पर संयोगसे सन्तुष्ट देवगण स्वर्गमें दुन्दुभियां बजाने लगे, इन सबका बड़ा कोलाहल क्षणमात्रमें होने लगा ] // 92 // न दोषं विद्वेषादपि निरवकाशं गुणमये वरेण प्राप्तास्ते न समरसमारम्भसदृशम् / जगुः पुण्यश्लोकं प्रति नृपतयः किन्तु विदधुः स्वनिश्वासैभमीहृदयमुदयन्निर्भरदयम् // 13 // नेति / प्राप्ताः स्वयंवरागताः, ते नृपतयः गुणमये गुणैकनिलये, नले इति शेषः, निरवकाशमवर्तमानं, दोषं विद्वेषात् अपि दमयन्तीलाभजनित द्वेषे सत्यपीत्यर्थः, न जगुः नोचुः, न उद्घाटयामासुरित्यर्थः, 'गै शब्दे' इति धातोलिट् / तादृशगुणसम्पत्तिः अदोषता चास्येति भावः / किम् , वरेण शचीदत्तेन हेतुना, पुण्यश्लोकं नलं प्रति, समरसमारम्भस्य युद्धोद्योगस्य, सदृशम् अनुकूलञ्च किञ्चित् , न, जगुरिति क्रियानुषङ्गः 'सान्निध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः' (रघुवंशे 73) इति भावः; किन्तु स्वनिश्वासैः दुःखोत्थैः स्वेषां निश्वासैः, भैमीहृदयं दमयन्तीचेतः, उदयन्ती जनयन्ती, निर्भरा अतिमात्रा, दया यस्य तत् तथाभूतं, तदुःखदुःखितं, विदधुः चक्रः, परदुःखासहिष्णुर्दमयन्ती स्वप्रत्याख्यानदुःखितान् राज्ञो दृष्ट्वा तद्दुः. खप्रशमनेच्छुरासीदित्यर्थः // 93 / / (स्वयंवर में ) आये हुए वे राजालोग सौन्दर्यादि बहुगुणयुक्त ( नलमें ) नहीं रहनेवाले दोषोंको ( दमयन्तीको अप्राप्तिरूपी ) वैरसे भी नहीं कहा और ( उस स्वयंवरमें प्रच्छन्नरूपसे उपस्थित इन्द्राणीके ) वरदानसे युद्धारम्भके समान अर्थात् योग्य भी कोई वचन नहीं कहा; किन्तु ( दमयन्तीके नहीं पानेसे उत्पन्न अपने ) निश्वासोंसे दमयन्तीके हृदय अथवादमयन्तीके हृदय (भूत नल ) को अत्यन्त दयालु बना दिया। (पा०-दमयन्तीके 1. 'प्राप्तास्ने' इति पाठान्तरम् / 2. 'पुण्यश्लोके प्रतिनृपतयः' इति पाठान्तरम् /
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________________ 884 नैषधमहाकाव्यम् / नहीं पानेसे ) प्रतिपक्षी राजालोग ( सौन्दर्यादि) गुणोंसे पूर्ण नलमें अवर्तमान (नहीं रहनेवाले ) दोषको विद्वेष ( दमयन्तीको प्राप्त करनेसे नलके प्रति उत्पन्न वैर ) से भी नहीं कहा तथा ( इन्द्रादि ) ( अथवा-यमराज-१४७७ ) के दिये वरदानसे अत्रोंको प्राप्त किये हुए नलमें युद्धके योग्य कोई वचन नहीं कहा, किन्तु..... "दयालु बना दिया) [ दमयन्ती राजाओंकी स्थितिको देखकर अत्यन्त दयायुक्त हो गयी ] / / 93 // भूभृद्भिर्लम्भिताऽसौ करुणरसनदीमूर्तिमद्देवतात्वं तातेनाभ्यर्थ्य योग्याः सपदि निजसखीर्दापयामास तेभ्यः / वैदास्तेऽप्यलाभात् कृतगमनमनःप्राणवाञ्छां निजध्नुः सख्याः संशिक्ष्य विद्यां सततधृतवयस्यानु काराभिराभिः // 64 // भूभृद्भिरिति / भूभृद्भिः भूपालः, करुणरसनद्याः करुणाख्यरसप्रवाहस्य, मूर्तिमत् शरीरि, देवतात्वम् अधिदेवतात्वं, लम्भिता प्रापिता, स्वस्वदुःखेन दुःखीकृता इत्यर्थः, असौ दमयन्ती, सपदि तत्क्षणमेव, अभ्यर्थ्य सम्प्रार्थ्य, पितरमिति शेषः, यद्वा-तातेन राज्ञा इति शेषः, तातेन पित्रा भीमेन, योग्याः कुलशीलसौन्दर्यादिना राजार्हाः, निजसखीः तेभ्यः भूभृद्भयः, सम्प्रदाने चतुर्थी / दापयामास, ते भूभृतोऽपि, वेदाः अलाभात् हेतोः, कृतं गमनं निष्क्रमणेच्छा इत्यर्थः, यैः तादृशानां मनःप्राणानां वाञ्छां निष्क्रमणेच्छारूपकर्माणि, अथवा-कृतं गमने देहपरित्यागे, मनो यस्ताह. शानां प्राणानां वान्छां निष्क्रमणेच्छामित्यर्थः, सख्याः भैम्याः, 'आख्यातोपयोगे' इपि अपादानस्वात् पंचमी विद्यां कामरूपधारणविद्याम् इन्द्राद्यक्तां. संशिक्ष्य अभ्यस्य, सततं नित्यं, तः वयस्यानुकारः भैमीसादृश्यं याभिः तादृशीभिः, आभिः सखीभिः साधनैः, निजध्नुः निरोधयामासुः, राजानोऽपि दमयन्त्यलाभेन निष्क्रमणेच्छून् मनःप्राणान् भैमीसखीलाभेन निष्क्रमणात् निवर्तयामासुः, अन्यथा सद्यो नियेरनिति अहो दमयन्त्या दयालुत्वं विवेचकत्वञ्चेति भावः // 94 // ( दमयन्तीके अलामसे दुःखित ) राजाओंसे करुणरसकी नदी (पक्षा०-करुणरस. प्रवाह ) की अधिदेवता बतायी गयी ( उन राजाओं के दुःखको देखकर अतिशय करुणावाली) इस दमयन्तीने ( अपने पितासे ) प्रार्थना करके शीघ्र ही योग्य (रूप शील आदिसे उन राजाओंकी पत्नी बनने के योग्य ) अपनी सखियोंको उन राजाओंके लिए पिता ( राजा भोज ) से दिलवा दिया ( और ) वे ( राजा लोग ) भी दमयन्तीके नहीं मिलनेसे निर्गमन ( मरने ) के लिए तैयार अपने प्राणों की इच्छाको, सखी ( दमयन्ती ) से विद्या ( वरदानसे प्राप्त इच्छानुकूल रूप धारण करने आदिका ज्ञान ) अच्छी तरह सीखकर निरन्तर सखी ( दमयन्ती ) के समानताको प्राप्त की हुई उन सखियोंसे अर्थात् उन सखियों के पानेसे रोका / [ राजाओंके अपार दुःखको समझकर करुणापूर्ण दमयन्तीने अपने पिता राजा भोजसे प्रार्थना करके उन राजाओंके योग्य अपनी सखियोंको दिलवा दिया तथा दमयन्तीके
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 885 नहीं मिलनेसे मरनेको तैयार वे राजालोग, दमयन्तीसे वरदान प्राप्त स्वेच्छानुसार रूफ. ग्रहण करनेकी विद्याको अच्छी तरह सीख लेनेसे उस दमयन्तीके समान ही बनी हुई उन सखियोंको पाकर मरनेका विचार छोड़ दिये // दमयन्ती यदि उन सखियोंको नहीं दिलवाती तो वे राजा लोग अवश्य प्राणत्याग कर देते ] // 94 // अहह सह मधोना श्रीप्रतिष्ठासमाने निलयमभि नलेऽथ स्वम्प्रतिष्टासमाने। अपतदमरभत्त मूर्तिबद्धव कीर्तिर्गलदलिमधुबाष्पा पुष्पवृष्टिनभस्तः // 9 // अहहेति / अथेन्द्रप्रस्थानानन्तरं, मघोना इन्द्रेण सह, श्रीप्रतिष्ठया ऐश्वर्यगौरवेण, समाने सदृशे, नले स्वं निलयम् अभि शिविरं प्रति, 'अभिरभागे' इति. लक्षणार्थे कर्मप्रवचनीयत्वात् तद्योगे द्वितीया प्रतिष्ठासमाने प्रस्थातुम् इच्छति सति, प्रपूर्वात्तिष्ठतेः सन्नन्ताल्लटः शानजादेशः 'समवप्रविभ्यः-' इत्यात्मनेपदत्वात्, 'पूर्ववत् सनः' इत्यात्मनेपदम् गलन् स्रवन् , अलियुक्तं मधु मकरन्दः एव, बाष्पः अश्र यस्याः सा तादृशी साञ्जनबाष्पयुक्ता इत्यर्थः, मूर्तिबद्धा बद्धमूर्तिः, मूतिमती. त्यर्थः, 'वाऽहिताग्न्यादिषु' इति निष्ठायाः परनिपातः। अमरभत्तु इन्द्रस्य, कीर्तिः इक पुष्पवृष्टिः नभस्तः नभसः, पञ्चम्यास्तसिल / अपतत् पतिता, अहह इत्यद्भुते, कीर्तिः स्वामिदुव्र्यसनदुःखात् भ्रश्यतीवेत्युत्प्रेक्षा / पुष्पाणां धवलतया कीतित्वं दमयन्त्या चावृतत्वेन इन्द्रस्य कीर्तिः सुतरां भ्रष्टा, नारीणां बाष्पञ्च सकजलं भवतीति भावः / / __ प्रतिष्ठामें इन्द्र के समान नलके अपने स्थान अर्थात् शिविरमें जानेकी इच्छा करनेपर देवेन्द्रकी मूर्तिमती गिरते हुए भ्रमरयुक्त मकरन्दरूप अश्रुवाली कीर्तिके समान पुष्पवृष्टि आकाशसे गिरी ( हुई ) आश्चर्य है। [ दमयन्तीको पानेसे इन्द्रतुल्य ऐश्वर्यवाले नल अपने शिविरमें जाने लगे तब प्रसन्न देवगणने आकाशसे पुष्पवृष्टिकी उन पुष्पोंके साथ सुगन्धिसे आकृष्ट भ्रमर तथा पुष्पोंके मधु गिर रहे थे, वे उस मूर्तिमती कीर्तिके अञ्जनाविल बाष्पके समान प्रतीत होते थे // इन्द्रको छोड़कर नलका वरण करनेसे रोती हुई देवेन्द्रकीर्तिका स्वर्गसे गिरना और रोनेमें अञ्जनयुक्त होनेसे बाष्पका कृष्णवर्ण होना उचित ही है। यहां भ्रमरको अञ्जन, मकरन्दको आंसू, श्वेत पुष्पोंको मूर्तिमती देवेन्द्र की कीर्ति समझना चाहिये ] // 95 // स्वस्यामरैर्नृपतिमंशममुं त्यजद्भिः रंशाच्छदाकदनमेव तदाऽध्यगामि / उत्का स्म पश्यति निवृत्य निवृत्य यान्ती वाग्देवताऽपि निजविभ्रमधाम भैमीम् / / 66 / / - स्वस्येति / स्वस्य आत्मनः, इन्द्रादेरिस्यर्थः, अंशम् अंशसम्भवम् , 'अष्टाभिश्चः सुरेन्द्राणां मात्राभिनिर्मितो नृपः' इति स्मरणात् ; अमुं नृपतिं नलं, त्यजद्भिः अमरः इन्द्रादिभिः, अंशच्छिदा अवयवच्छेदः, "षिनिदादिभ्योऽङ' तया यत् कदनं दुःखं
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________________ प८६ / नैषधमहाकाव्यम् / तदेव, तदा अध्यगामि अधिगतम् ; स्वांशोद्भूतजनवियोगः स्वावयवच्छेदवत् भवतीति भावः / किञ्च, निजम् आत्मीयं, विभ्रमधाम विहारभवनं, यान्ती चाग्देवता सरस्वती अपि उत्का उन्मनाः, उत्सुका सतीत्यर्थः, 'उत्क उन्मनाः' इति निपातः। निवृत्य निवृत्य पुनः पुनः परावृत्य, भैमी पश्यति स्म, 'सन्धत्ते भृशमरति सुहृद्वियोगः' इति भावः // 96 // अपने अंशभूत इस राजा (नल ) को छोड़ते. ( छोड़कर स्वर्ग जाते ) हुए देवों (इन्द्रादि चारों देवों) ने उस समय अपने अंश ( हाथ-पैर आदि अवयव ) के काटने के समान ही दुःखको प्राप्त किया तथा अपने विलासभवनको जाती हुई सरस्वती देवी भी उत्कण्ठित हो घूम-घूमकर अर्थात् पीछे की ओर मुड़-मुड़कर दमयन्तीको देखती थी। ( अथवा-जाती हुई सरस्वती देवी भी उत्कण्ठित हो घूम-घूमकर अपने विलासके स्थानभूत दमयन्तीको देखती थी।) [राजाका लोकपालांश होनेसे नल भी इन्द्रादि लोकपालोंके अंशोत्पन्न थे, अतः नलको छोड़कर स्वर्ग जाते समय इन्द्रादिको अपने अवयव ( हाथ-पैर आदि अङ्ग) को काटकर अलग करनेके समान कष्ट हुआ तथा दमयन्तीको छोड़कर जाती हुई सरस्वती देवीको भी अधिक कष्ट हुआ, इसी कारण जाती हुई वह लौटलौटकर उसे ( दमयन्ती को ) देखती थी / अन्य भी किसी व्यक्तिको अपने अंश (अवयव ) के अलग होनेसे दुःख होता ही है। पुरुष इन्द्रादिका पुरुष नलमें तथा स्त्री सरस्वतीका स्त्रीनलमें 'स्वगणे परमा प्रीतिः' नीतिके अनुसार अनुराग होना उचित ही है। अथ च-दमयन्ती सरस्वती देवी का क्रोडास्थान (पक्षा०-अत्यन्त विदुषी ) थी अत एव सरस्वतीका अपने क्रीडास्थान दमयन्तीको छोड़ते उत्कण्ठित होना तथा जाते समय लौटलौटकर देखना उचित ही है ] // 96 // सानन्दं तनुजाविवाहनमहे भीमः स भूमीपतिवैदर्भीनिषधाधिपौ नृपजनानिष्टोक्तिसम्मृष्टये / स्वानि स्वानि धराधिपाश्च शिविराण्युद्दिश्य यान्तः क्रमा देको द्वौ बहवश्वकार सृजतः स्मातेनिरे मङ्गलम् / / 67 / / सानन्दमिति / तनुजायाः दुहितुः दमयन्त्याः, विवाहनं परिणयनम् विपूर्वात् वहतेय॑न्ताद्भावे ल्युट् तदेव महः उत्सवः तस्मिन् , भूमोपतिः भूपतिः, स भीमः तथा वैदर्भीनिषधाधिपौ दमयन्तीनलौ, तथा स्वानि स्वानि शिविराणि उद्दिश्य यान्तः धराधिपाश्च एकः द्वौ बहवः एते त्रितयेऽपि, नृपाणां दमयन्त्यवृतभूपानां, ये जनाः परिजनाः, तेषां या अनिष्टोक्तिः स्वस्वप्रभोरवमाननाजनितश्रुतिकटुवाक्यानि, तासां सम्मृष्टये तदोषपरिहाराय अश्रवणाय वा, सानन्दं यथा तथा मङ्गलं नगरसंस्कारेष्टदेवतानुस्मरणतूर्यघोषादिमङ्गलाचरणं, क्रमात् एकः भीमाचकार,
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 857 द्वौ दमयन्तीनलौ सृजतः स्म असृजतां, चक्रतुः इत्यर्थः, आतेनिरे बहवो धराधिपा भैमीसखीलाभात् मङ्गलतूर्यध्वनि चरित्यर्थः / क्रमालङ्कारः॥ 97 // पुत्री ( दमयन्ती ) के विवाहोत्सवमें एक उस राजा भीमने हर्षपूर्वक मङ्गल (मङ्गल. जनक वाद्यादिवादन ) किया, राजा लोगों (या-राजाओंके अनुचरों) के अनिष्ट कथन ( दमयन्तीके नहीं मिलने से कटूक्ति) की शान्ति अर्थात् उसे नहीं सुनने के लिए दो ( दमयन्ती तथा नल ) ने हर्षपूर्वक मङ्गल (गीत, नृत्य, वादन आदि मङ्गलजनक कार्य किया तथा अपने-अपने शिवरोंको लक्षितकर जाते हुए बहुत राजाओंने ( दमयन्तीके तुल्य उसकी सखियोंको स्त्रीरूपमें प्राप्त करनेसे ) हर्षपूर्वक मङ्गल (पटह-भेर्यादिका वादनरूप मङ्गल ) किया। [इस प्रकार एक राजा भीमने, दो दमयन्ती तथा नलने और बहुत राजाओंने हर्षपूर्वक मङ्गल कार्य किया; अर्थात् सभीने हर्षपूर्वक मङ्गल मनाया ] // 97 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातस्तस्य चतुर्दशः शरदिजज्योत्स्नाच्छसूक्तेर्महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 6 // श्रीहर्षमिति / शरदि भवा शरदिजा 'सप्तम्यां जनेर्डः' / 'प्रावृटशरत्कालदिवां जे' इति सप्तम्या अलुक्या ज्योत्स्ना तद्वदच्छा मृष्टाः, सूक्तयः यस्य तादृशस्य / गतमन्यत् // 98 // इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु' समाख्याने चतुर्दशः सर्गः समाप्तः / / 14 // कवीश्वर समूहके........"किया, शरत्कालीन चाँदनीके समान निर्मल ( पक्षा० - निर्दोष ) सूक्तिवाले उसके रचित नलके चरित..."यह चतुर्दश सर्ग समाप्त हुआ। (शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गवत् जाननी चाहिये ) // 98 // यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित'का चतुर्दश सर्ग समाप्त हुआ // 14 // पञ्चदशः सर्गः अथोपकार्यों निषधावनीपतिर्निजामयासीद्वरणस्रजाऽन्वितः / वसूनि वर्षन् सुबहूनि वन्दिना विशिष्य भैमीगुणकीर्तनाकृताम् // 1 // अथेति / अथ स्वयंवरानन्तरं, निषधावनीपतिः नलः, वरणस्रजा अन्वितः सन् वन्दिनां स्तुतिपाठकानाम् , अपरेषामिति भावः, तत्रापि भैमीगुणकीर्तनां कुर्वन्तीति 1. 'वर्णनाकृताम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 88. नैषधमहाकाव्यम्। तत्कृतां भैमीगुणकीर्तनकारिणां बन्दिनाम् करोतेः क्विप् / विशिष्य अन्यवन्द्यपेक्षया अतिशय्य, सुबहूनि भूयिष्ठानि, वसूनि धनानि, वर्षन् वितरन् , निजाम् आत्मीयाम्, उपकार्याम् उपकारिकां, सदनमित्यर्थः, शिविरमिति यावत् , 'सौधोऽस्त्री राजसदनमुपकार्योपकारिका' इत्यमरः / अयासीत् अगमत् / यातेलुङि 'अमरमनमातां सक च' इति सगिडागमौ; 'अस्तिसिचोऽपृक्ते' इतीडागमः / वंशस्थविलं वृत्तम् // 2 // इस ( देवोंको प्रसन्नकर दमयन्तीके वरण करने तथा नल-दमयन्तीके लिए वर देकर उन चारों देवों के स्वर्गलोकको जानेके लिए तत्पर होने ) के बाद निषधराज ( नल ) भी बन्दिजनों के लिए ( स्ववरणजन्य हर्षके उपलक्ष्यमें ) बहुत धनोंकी वृष्टि करते ( दान देते) हुए तथा दमयन्तीके गुणकीर्तन करनेवाले बन्दिजनोंको अधिक दान देते हुए अपने शिविर को गये // 1 // तथा पथि त्यागमयं वितीर्णवान् यथाऽतिभाराधिगमेन मागधैः / तृणीकृतं रत्ननिकायमुच्चकैश्चिकाय लोकश्चिरमुछमुत्सुकः / / 2 / / तथेति / अयं नलः, पथि स्वनिवेशमार्गे, तथा तेन प्रकारेण, त्यज्यते इति त्यागं धनम कर्मणि घज / वितीर्णवान् दत्तवान् , यथा येन प्रकारेण, अतिभारस्य अतिगुरुत्वस्य, अधिगमेन प्राप्त्या, मागधैः वन्दिभिः, तृणीकृतं वोढुमशक्यत्वेन तृणवत् त्यक्तम् , उच्चकैः उच्छ्रितं, रत्नानां निकायं समूह, लोकः साधारणो जनः, उत्सुकः आग्रहान्वितः सन् , चिरं बहु कालम् , उञ्छ चिकाय भुवि त्यक्तं रत्ननिकायम उन्छत्वेन सञ्चितवान् / यद्यपि धान्यानां कणश आदानमेव उछस्तथाऽपि रत्नानामादाने औपचारिको बोध्यः / 'विभाषा चेः' इति चिजः कुत्वम् / .'उन्छः कणश आदाने कणिशाद्यर्जनं शिलम्' इति यादवः॥२॥ इस ( नल ) ने मार्गमैं इतना दान दिया कि अत्यधिक भार ( बोझ ) होनेसे बन्दिजनों के द्वारा ( भाराधिक्य के कारण या अपेक्षा नहीं रहने के कारण ) तृण किये अर्थात् तृणवत् तुच्छ समझकर भूमिपर छोड़े गये श्रेष्ठ रत्न-समूहको उत्सुक लोगोंने बहुत देर तक उञ्छ किया ( एक 2 रत्नको चुंगते ( उठा उठा लेते ) रहे ) / ( अथवा-छोड़े गये रत्न-समूहको बहुत उत्कण्ठित लोगोंने....)। [ नलने चारण-भाट आदि बन्दिजनोंके लिए इतने अधिक रत्नोंको दिया कि वे सब अधिक बोझ या इच्छापूर्ति हो जानेके कारण उत्कण्ठित होकर अन्नके दानोंके समान बहुत देर तक चुंगते रहे ] // 2 // त्रपाऽस्य न स्यात् सदसि प्रियाऽन्वयात् ? कुतोऽतिरूपः सुखभाजनं जनः / अमूदृशो तत्कविवन्दिवर्णनैरपाकृता राजकरञ्जिलोकवाक् / / 3 // 1. 'वितेतिवान्' इति पाठान्तरम्। 2. 'मुन्छकः' इति पाठान्तरम्।। 3. 'रवक्कृता' इति पाठान्तरम् /
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________________ चतुर्दशः सर्गः। 889 अपेति / सदसि सभायां, प्रियाऽन्वयात् प्रियासमागमात् , अस्य नलस्य, त्रपा अनुचिताचरणजनितलज्जा, न स्यात् ? न भवेत् ? इति काकुः,भवितुमुचितमेवेत्यर्थः, तथा अतिरूपः अतिमात्रसौन्दर्यशाली, जनः कुतः कुत्र, सुखभाजनं रामसीतादिवत् सुखास्पदं, भवेत् ? न कुत्रापीत्यर्थः, नलस्य इदं लोकातिशायि रूपमेव दुःखनिदानं भवेदिति भावः, असौ इव दृश्यते इति अमूदृशी एतादृशी, उक्तरूपा इत्यर्थः, अदःशब्दोपपदात दृशेः 'त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च' इति कज , 'टिडढाणा'इत्यादिना डीप , 'आ सर्वनाम्नः' इत्यात्वे 'अदसोऽसेर्दादु दो मः' इत्यूत्वमत्वे / राजकं दमयन्त्यवृतराजसमूहं रञ्जयतीति तेषां राजकरञ्जिनां तदिच्छानुकूलवादिनां, लोकानां जनानां, वाक पूर्वोक्ता निन्दोक्तिः, तस्य नलस्थ, कवीनां वन्दिनाञ्च वर्णनैः अहो ! निखिलं राजकम् अवधूय त्वया स्त्रीरत्नं लब्धं सर्वोत्तरोऽसीत्यादिस्तवैः, अपा. कृता न्यककृता तादृशकविवन्दिभिस्तारस्वरेण नलगुणवर्णनात् पूर्वोक्तनिन्दावाक तिरोहितत्वेन न श्रतिगोचरीभूतेति भावः // 3 // 'सभा ( अनेक देशोंसे आये हुए राजाओंसे भरी हुई स्वयंवर सभा) में स्त्री (दमयन्ती) * के साथसे इस ( नल ) को लज्जा नहीं आती ( अर्थात् सभामें स्त्रीके सम्बन्धसे नलको लज्जा आना उचित है, परन्तु वैसा नहीं होनेसे यह निर्लज्ज है और अत्यन्त सुन्दर आदमी कहां सुखी होता है अर्थात् कहीं भी सुखी नहीं होता।' ऐसी दमयन्तीको नहीं पानेवाले राज-समूहको प्रसन्न करनेवाले बन्दियों की स्तुतिको उस ( नल, अथवा-उन अर्थात् नल. दमयन्ती ) के कवियों तथा बन्दियों के वर्णनों ( स्तुति-वचनों ) ने दबा दिया ( पाठा०दबा दिया, अथवा-प्रसन्न करनेवाले बन्दियोंकी वाणीको "वर्णनोंने अवाणीकर दिया ) अर्थात् नलके बन्दियों के द्वारा किये गये उच्च स्वरयुक्त वर्णनसे उक्त नलकी निन्दा करनेवाले बन्दियों के वचन स्पष्ट नहीं सुनायी पड़े, किन्तु ये भी कुछ बोल रहे हैं ऐसी ध्वनिमात्र सुनाई पड़ी। [ 'अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति कहांसे सुख पाता है' अर्थात् अत्यन्त सुन्दर होने के कारण सीता तथा रामचन्द्रने जिस प्रकार बहुत दुःख भोगे, उसी प्रकार इन्हें ( नल तथा दमयन्तीको ) भी दुःख भोगने पड़ेंगे' ऐसे भविष्यकी ओर संकेत किया है। अथवा'अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति कहांसे सुख पाता है' अर्थात् आपलोग अत्यन्त सुन्दर हैं, यह नल अधिक सुन्दर नहीं है, इसी ( अत्यन्त सुन्दर होने) के कारण आपलोगोंको अगुणज्ञा दमयन्तीने वरण नहीं किया और आपलोग दुःख पारहे हैं अर्थात् पति-पत्नी दोनोंका सुन्दर होना असम्भवप्राय है, इत्यादि असत्य स्तुतियोंसे दमयन्ती के वरण नहीं करनेसे उदासीन नलेतर राजाओंको प्रसन्न करने के लिए बन्दी नलकी उक्त प्रकारसे निन्दा कर रहे थे, वह वचन नलप्रशंसक कवियों एवं बन्दीलोगों के द्वारा उच्चस्वरसे की गयी स्तुतियोंसे सुनायी नहीं पड़ा ] // 3 // अदोषतामेव सतां विवृण्वते द्विषां मृषादोषकणाधिरोपणाः / न जातु सत्ये सति दूषणे भवेदलीकमाधातुमवद्यमुद्यमः / / 4 / /
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________________ 860 नैषधमहाकाव्यम् / अदोषतामिति / द्विषां शत्रुभिः, अधिरोपणेति कृद्योगे कर्तरि षष्ठी। मृषादोषकणाधिरोपणाः अलीकदोषलवारोपाः सतां सज्जनानाम् , अदोषतां निर्दोषताम् एव, विवृण्वते प्रकाशयन्ति, शूरे कलङ्कारोपणवत् इति भावः / तत्र हेतुमाह, नेति / सत्ये दूषणे दोषे, सति वर्तमाने, अलीकम् असत्यम् , अवयं दूषणम् / 'अवधपण्य-' इत्यादिना निपातः। आधातुम् आरोपयितुं, जातु कदाचिदपि, उद्यमः द्विषाम् उद्योगः, न भवेत् , शशाङ्के कलङ्कारोपणवदिति भावः, तथा च सत्यदोषस्य वर्तमानत्वे मिथ्यादोषारोपे शत्रणामुद्यमादर्शनात् सत्यदोषाभावेसत्येव मिथ्यादोषारोपे उद्यमोऽवगम्यते, इत्थञ्च नले मिथ्यादोषारोपदर्शनात् सत्यदोषाभावः प्रतीयते इति भावः // 4 // शत्रुओं के द्वारा किया गया झूठे थोड़े-से दोषका भी आरोप सज्जनोंके दोषाभाव (निर्दोष ) को ही प्रकाशित करता है ( जैसे-शूरवीर में शत्रु के मारनेपर निर्दय होनेका झूठा दोष लगाना ), क्योंकि-वास्तविक दोषके विद्यमान रहनेपर अवास्तविक दोषको प्रकाशित करनेके लिए शत्रुलोग कभी प्रयत्न नहीं करते ( जैसे-चन्द्रमामें वर्तमान कलङ्क दोषको कहता)। [किन्तु वास्तविक दोषके नहीं रहनेपर ही अवास्तविक दोषको प्रकाशित (झूठा आरोपित ) करने में शत्रुलोगोंका प्रयत्न देखा जाता है, अतः नलमें उक्त (1513) दोष नहीं रहनेपर भी विपक्षियों के बन्दियों द्वारा किया गया दोषप्रकाशन नल का दोषाभाव ही प्रकट करता है / अथवा-सत्य परब्रह्मस्वरूप भगवान् रामचन्द्रमें 'दूषण' नामक राक्षस द्वारा किया गया अप्रिय उद्योग जिस प्रकार अकिञ्चित्कर हुआ, उसी प्रकार विपक्ष बन्दियों द्वारा किया गया नल (या नल और दमयन्ती–दोनों ) के विषयमें असत्याक्षेपरूप अप्रिय वचन अकिञ्चित्कर ही हुआ। अथवा-अग्निपरीक्षादिके द्वारा सुपरीक्षित सीताके सम्बन्धको लेकर भगवान् रामचन्द्रके विषयमें किये गये असत्य दोष कथनने जिस प्रकार प्रजारजनादि गुणको प्रकाशित किया उसी प्रकार दमयन्तीके सम्बन्धको लेकर नलके विषयमें किया गया उक्त ( 15 / 3) असत्य दोषारोप नलके गुण-प्रकाशनके लिए ही हुआ] // 4 // विदर्भराजोऽपि समं तनूजया प्रविश्य हृष्यन्नवरोधमात्मनः / शशंस देवीमनु जातसंशयां प्रतीच्छ जामातरमुत्सुके ! नलम् // 5 // विदर्भेति / अथ विदर्भराजो भीमोऽपि, हृष्यन् सर्वोत्कृष्टजामातृलाभेनानन्दितः सन् , तनूजया दुहित्रा भैम्या, समम् आत्मनः अवरोधम् अन्तःपुरं, प्रविश्य जात. संशयां, दमयन्ती सर्वगुणाकरं नलं वरिष्यति निर्गुणमन्यं वेति इष्टवरलाभे सन्दि: हानां, देवीं निजमहिषीम् , अनु लक्ष्यीकृत्य, उत्सुके ! इष्टवरोद्युक्ते ! 'इष्टार्थोद्युक्त उत्सुकः' इत्यमरः। नलं जामातरं दुहितुः पति, प्रतीच्छ विजानीहीत्यर्थः, इति शशंस कथयामास / सिद्धं नः समीहितमिति भावः // 5 //
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 891 ( अभीष्ट जामाताके लाभसे ) प्रसन्न होते हुए विदर्भनरेश (राजा भीम ) भी पुत्री ( दमयन्ती ) के साथ रनिवासमें प्रवेशकर ( 'मेरी पुत्री दमयन्ती गुणी नलको वरेगी या अन्य किसी गुणहीन राजाको' इस प्रकार ) संशय करती हुई पटरानीसे 'हे उत्सुके (जामाताके विषय में जाननेके लिए उत्कण्ठित प्रिये )! नलको जामाता जानो अर्थात् दमयन्तीने गुणी नलका ही वरण किया दूसरेको नहीं' यह जानो ऐसा कहा // 5 // तनुत्विषा यस्य तृणं स मन्मथः कुलश्रिया यः पविताऽस्मदन्वयम् / जगत्त्रयीनायकमेल के वरं सुता परं वेद विवेक्तमीहशम // 6 // तन्विति / किञ्च, यस्य नलस्य, तनुत्विषा कायकान्त्या, सः प्रसिद्धः, मन्मथः तृणं तृणतुल्यः, अतिनिकृष्ट इत्यर्थः। यः कुलश्रिया अभिजनसपम्दा, कौलीन्येन इत्यर्थः, अस्मदन्वयं अस्माकं कुलं, पविता पवित्रीकर्ता, पुनातेस्तृन् , 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया / किञ्च, जगत्रय्यां ये नायकाः तेषां मेले एव मेलके सङ्घ, वरसमूहानां मध्ये इत्यर्थः / मेलात् घमन्तात् स्वार्थे कः। ईदृशम् . इग्गुणोपेतं, वरं विवेक्तुं निर्वाचयितुं, परं केवलं, सुता त्वत्सुतैव, वेद वेत्ति, 'विदो लटो वा' इति लट-स्थाने णलादेशः / अहो भाग्यात् सर्वानुकूलत्वमिति भावः // 6 // _ जिसकी शरीर शोभासे वह ( अतिप्रसिद्ध ) कामदेव तृण अर्थात् तृणवत् तुच्छ है तथा जिसकी वंशकी विशुद्धि हमारे वंशको भी पवित्र करेगी; तीनों लोकोंके राजाओं के समूहमें ऐसे श्रेष्ठ वरको छांटना ( निर्णय करना ) पुत्री ( दमयन्ती ) जानती है (अथवा-केवल पुत्री ही जानती है ) / [ तीनों लोकके राजा स्वयंवरमें आये थे, उनमें से इतने उत्कृष्टगुणोंसे युक्त नल-जैसे वरको चुनना गुणज्ञा पुत्री दमयन्तीने ही किया है यह कार्य दूसरी किसी कन्यासे नहीं हो सकता था ] // 6 // सृजन्तु पाणिग्रहमङ्गलोचिता मृगीदृशः स्त्रीसमयस्पृशः क्रियाः / श्रुतिस्मृतीनान्तु वयं विदध्महे विधीनिति स्माह च निर्ययौ च सः।।।। सृजन्त्विति / स भीमः, मृगीदृशः पुरन्ध्रयः, पाणिग्रहमङ्गलोचिताः विवाहमङ्गल. योग्याः, खोसमयं स्याचारं स्पृशन्तीति तत्स्पृशःस्त्रीसमाचारप्राप्ता इत्यर्थः / 'स्पृशोऽनुदके किन्' / क्रिया मङ्गलकर्माणि, सनन्तु विदधतु / वयन्तु श्रुतिस्मृतीनां सम्ब धिनः तद्विहितान् , विधीन् कर्माणि, विदध्महे कुर्महे, इत्याह स्म च उवाच च, 'लट स्मे' इति भूते लट् / निर्ययौ च अन्तःपुरात् निर्जगाम च / चकारद्वयं क्रिययोः योगपद्यसूचनार्थकम् , उक्त्वैव निर्ययो, न तु क्षणमपि विलम्बमकरोदिति भावः॥७॥ 'विवाह-मङ्गलके योग्य (सधवा ) मृगलोचनी स्त्रियां स्त्रियोंके आचारसम्बन्धिनी क्रियाको करे ( अथवा-हे मृगलोचनी स्त्रियां ? आपलोग विवाह-मङ्गलके योग्य स्त्रियोंके आचार-सम्बन्धिनी क्रियाओंको करे। अथवा-मृगलोचनी स्त्रियां विवाह..." ) / और हमलोग वेद तथा धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित विधियों को करते है। ऐसा कहे ओर चले भी गये / 56 नै० उ०
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________________ 862 नैषधमहाकाव्यम् / [इससे विवाह-सम्बन्धी बाहरी एवं भीतरी कार्योंको शीघ्र पूरा करने के लिए राजा भोन की त्वरा सूचित होती है ] // 7 // निरीय भूपेन निरीक्षितानना शशंस मौहूर्तिकसंसदंशकम् / गुणैररीणैरुदयास्तनिस्तुषं तदा स दातुं तनयां प्रचक्रमे / / 8 // निरीयेति / भूपेन निरीय अन्तःपुरात् निर्गत्य, ईङ गताविति धातोः समासात् क्वो ल्यबादेशः / निरीक्षितानि आननानि यस्याः सा लग्नकथनाय मुखनिरीक्षणे. नैव कृतसङ्केता इति भावः / मुहूर्त तत्प्रतिपादकं शास्त्रं विदन्तीति मौहुर्तिकाः ज्यौ. तिषिकाः, "तदधीते तद्वेद' इति ठक् , तेषां संसत् ज्योतिषिकपरिषत् ,अरीणैः अक्षीणैः, समरित्यर्थः, रौ गताविति धातोः कर्तरि क्तः, 'स्वादिभ्यः' इति निष्ठानत्वम् , गुणैः शुभग्रहवीक्षणादिभिः उपलक्षितम् , उदयास्ताभ्यां ग्रहविशेषाणामुदयास्तमयनिबन्धनदोषाभ्यां, निस्तुषं तद्रहितम् , अंशमेव अंशकं वैवाहिकलग्न, शशंस कथयामास, तदा तस्मिन् लग्ने, स भूपः, तनयां दातुं प्रचक्रमे उद्यक्तवानित्यर्थः // 8 // (अन्तःपुरसे ) निकलकर राजा मोमके द्वारा मुख्यनिरोक्षगमात्र सङ्केतित ज्योति. षियोंके समुदायने सम्पूर्ण गुणों ( जामित्र गुगों ) से युक्त तथा शुक-वृहस्पति आदि ग्रहों के उदयास्तादि दोषोंसे वर्जित लग्नको बतलाया, तब उस ( राजा भाम ) ने पुत्रो ( दमयन्ती ) को देने अर्थात् कन्यादान करने के लिए (पूर्वकालिक वैदिक तथा स्मात विधियों को ) आरम्भ कर दिया // 8 // अथावदद्रुतमुखः स नैषधं कुलञ्च बाला च ममानुकम्प्यताम् / सपल्लवत्वद्य मनोरथाङ्करश्चिरेण नस्त्वचरणोदकैरिति // 9 // अथेति / अथ लग्नस्थिरीकरणानन्तरं, दूतः एव मुखं यस्य स तादृशः, स भीमः, मम कुलञ्च बाला भैमी च, अनुकम्पप्यताम् अनुगृह्यतां, चिरेग बहुकालोनः, नः अस्माकं, मनोरथाङ्करः प्रागकरितःत्वया सह भैमाविवाहरूपमनोरथः, स्वचरगोदके तव पादोदकैः, अद्य पल्लवेन सह वर्तते इति सपल्लवः सः इव आचरतु सपल्लवतु अप. लवः पल्लववान् इवास्त्वित्यर्थः / 'सर्वप्रातिपदिकेभ्यः किप वा वक्तव्यः' इति सपल्ल. वशब्दादाचारार्थे किप , ततः किवन्तधातोः प्रार्थनायां लोट / इति नैषधं नलम् , अवदत् , दूतमुखेन नलमिदं निवेदितवानित्यर्थः // 9 // इस (वैवाहिक लग्नके निश्चित होने ) के बाद (राजा भीमने ) दूतके द्वारा नलके प्रति कहलवाया कि-'मेरे कुल तथा पुत्रीको स्वीकार कीजिये, बहुत दिनोंके बाद हमलोगोंका मनोरथरूप अङ्कर आज आपके चरणोदकसे पल्लवित-सा होवे / ' [ भोमने दूतसे नलके पास सन्देश भेजा कि 'आप मेरी पुत्रीको ग्रहणकर मेरे वंशपर अनुग्रह करें, इससे 1. 'मुहूर्त वेद इत्यर्थे 'ऋतूक्यादि-' इत्युक्थादित्वाटक्' इति नारायणश्चिन्त्या, उक्थादौ तदपाठात् / 2. 'स पलवस्वय' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 863 चिरकृत मेरा मनोरथाङ्कुर आपके चरण-प्रक्षालनके जलसे सिञ्चित होकर पल्लवितके समान अर्थात् सफल हो जावे] // 9 // तथोत्थितं भीमवचःप्रतिध्वनि निपीय दूतस्य स वक्त्रगह्वरात् / व्रजामि वन्दे चरणो गुरोरिति ब्रुवन् प्रदाय प्रजिघाय तं बहु // 10 // तथेति / स नलः, दूतस्य वक्त्रम् आस्यम् एव, गह्वरं गुहा तस्मात् , तथा पूर्वोक्तप्रकारेण, उस्थितम् उदितं भीमवचसः प्रतिध्वनिम् अनुरूपशब्दं, निपीय दूतमुखात् भीमवचनं श्रुत्वेत्यर्थः, व्रजामि अधुनेव गच्छामि, गुरोः श्वशुरस्य चरणौ वन्दे / व्रजामि वन्दे इत्यत्र 'वर्तमानसामीप्ये-' इति भविष्यदर्थे लट , स्वयम् अहम् आगच्छामि गुरुपादवन्दनायेत्यर्थः, इति ब्रुवन् तं दूतं, बहु बहुधनं, पारितोषिकमिति यावत्, प्रदाय दत्वा, प्रजिवाय प्राहिणोत् / 'हि गता' विति धातोः लिटि 'हेरचडि इति हस्य कुत्वम् // 10 // उस ( नल ) ने दूतके मुखरूपी गुफासे उस प्रकार निकली हुई राजा भीमके वचनकी प्रतिध्वनिको अच्छी तरह पानकर अर्थात दूतसे राजा भीमका सन्देश सुनकर 'चलता हूं' गुरु अर्थात् श्वशुरके चरणद्वयको प्रणाम करता हूँ, ऐसा कहते हुए बहुत ( पारितोषिक ) देकर उस दूत को लौटाया // 10 // निपीतदूतालपितस्ततो नलं विदर्भभर्ताऽऽगमयाम्बभूव सः। निशावसाने श्रुतताम्रचूड़वाक् यथा रथाङ्गस्तपनं धृतादरः / / 11 // निपातेति / ततो दूतप्रत्यावर्त्तनान्तरं, निपीतदूतालपितः श्रुतदूतवाक्यः, स विदर्भभर्ता भीमः, निशावसाने श्रुता ताम्रचूडवाक् प्राभातिकं कुक्कुटकूजितं येन सः तादृशः 'कृकवाकुस्ताम्रचूडः कुक्कुटश्चरणायुधः' इत्यमरः / रथाङ्गः चक्रवाकः, कोकश्च. क्रश्चक्रवाको रथाङ्गाह्वयनामकः' इत्यमरः। रथाङ्गपर्यायाणां चक्रवाकनामत्वाभिधा. नात पुल्लिङ्गता / तपनं यथा सूर्यमिव, इति श्रौती उपमा 'इव-वत्-वा-यथाशब्दानां प्रयोगे श्रौती' इति लक्षणात्, एतादरः सनाताग्रहः सन्नित्यर्थः, नलम् आगमयाम्बभूव साग्रहः सन् नलागमनं प्रतीक्षितवानित्यर्थः, तादृगुपमासामर्थ्यादिति // 11 // ___ इस (दूतके लोटने ) के बाद दूतकी बातको अच्छी तरह सुने हुए विदर्भराज भीम आदरपूर्वक (नलको ) उस प्रकार प्रतीक्षा करने लगे, जिस प्रकार प्रातःकालमें मुर्गेकी बोली सुनकर चकवा ( सूर्य के उदय ) की प्रतीक्षा करता है // 11 // काचित्तदाऽऽलेपनदानपण्डिता कमप्यहारमगात पुरस्कृता / अलम्भि तुङ्गासनसन्निवेशनादपूपनिमोणविदग्धयाऽऽदरः / / 12 // काचिदिति / तदा तत्काले, आलेपनदानपण्डिता तण्डुलपिष्टिकया गृहकुट्टिमादौ .. 'क्वचित्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 864 नैषधमहाकाव्यम्। चित्रीकरणक्रियादक्षा, काचित् , पुरन्ध्रीति शेषः, पुरस्कृता आलेपनकर्मणि प्राधान्येननियुक्ता सती, कमपि अवाच्यम, अहङ्कारं गर्वम् ; अगात् / अपूपानां पिष्टकाख्यभक्ष्य: भेदानां निर्माणे विदग्धया दक्षया, कयाचित् पुरन्ध्या इति शेषः / तुङ्गासने उच्चासने सन्निवेशनात् उपवेशनात , पिष्टकमर्जनामिति भावः / आदरः आत्मनि अभिमानः, अलम्भि प्रापि 'लभेश्च' इति नुमागमः // 12 // ___उस समय चौक पुरने ( हल्दीसे मिश्रित चावल के चून अर्थात् चौरठसे आंगनमें बनाये जानेवाले चित्र-विशेषके निर्माण करने ) में चतुर ( अतएव उस कार्यको करने के लिए) नियुक्त की गयी किसी स्त्रीने किसी अनिर्वचनीय अहङ्कारको प्राप्त किया तथा पूआ पकाने में चतुर वि.सी स्त्रीने ऊंचे आसन ( छोटी चौकी या मचिया आदि ) पर बैठनेसे ( अपनेमें ) गौरवको प्राप्त किया। (अथवा-उबटन लगानेमें चतुर कोई स्त्री दमयन्तीको उबटन लगानेमें पुरस्कृतकी ( प्रधान बनायी ) गयी अनिर्वचनीय अहङ्कारको प्राप्त किया..... ) / [ कोई सी चौक पुरने में लग गयी और कोई मचियापर बैठकर पूआ पकाने लगी ] // 12 // मुखानि मुक्तामणितोरणात्तदा मरीचिभिः पान्थविलासमाश्रितैः / पुरस्य तस्याखिलवेश्मनामपि प्रमोवहासच्छुरितानि रेजिरे // 13 // मुखानीति / तदा तत्काले, आसन्न परिणयमहोत्सवे इत्यर्थः। तस्य पुरस्य सम्बधिनाम अखिलवेश्मनाम् अपि सर्वेषामेव गृहाणां, मुखानि द्वाराणि वक्त्राणि च, इति श्लेषः / मुक्तामणीनां तोरणात् तन्मयहि राित् / अपादानात् / 'तोरणोऽस्त्री बहिरिम्' इत्यमरः / पान्थविलासं नित्यपथिकविभ्रमम्, आश्रितैः अधिगतैः, निरन्तरनिःसृतरित्यर्थः / पान्थविलासस्य मरीचिषु असम्भवात् तद्विलास इव विलास इति निदर्शना / मरीचिभिः किरणः। 'द्वयोमरीचिः किरणो भानुस्त्रः करः पदम्' इति शब्दार्णवः / प्रमोदहासच्छुरितानि अट्टहास्यरक्षितानीव, रेजिरे शुशुभे / सुखत्वात् शुभ्रवाच्च इयमुत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या // 3 // उस समय ( विवाह-समयके समीप आ जानेपर ) उस नगर के तथा उस नगर के भवनों के भी मुख अर्थात् मुखस्थानीय द्वार मोतियों तथा मणियोंके तोरणोंसे (निकलकर ) पथिकविलासको प्राप्त किये हुए ( बहुत दूरतक फैलनेवाले किरणोंसे (उक्त विवाहोत्सव. जन्य ) अतिशय हर्षयुक्त ह्राससे युक्त ) के समान शोभने लगे। [नगर तथा महलोंके द्वारों पर लगाये गये मोतियों तथा मणियों के तोरणों की दूरत्क फैलनेवाली कान्ति ऐसी मालूम पड़ती थी कि मानों यह नगर तथा इस नगर के भवन भी अतिशय हर्षसे हंस रहे हो // सर्वत्र मोतियों और मणियों के तोरणोंसे नगर तथा भवनोंको सुसज्जित किया गया ] // पथामनीयन्त तथाऽधिवासनान्मधुब्रतानामपि दत्तविभ्रमाः / वितानतामातपनिर्भयास्तदा पन्छिदाऽकालिकपुष्पजाः स्रजः / / 14 / / 1. 'तोरणोद्गतैः' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 865 पथामिति / तथा तेन प्रकारेण, यथा केनापि कृत्रिमत्वेन नावबुध्यते तादृशरूपेणेत्यर्थः, अधिवासनात् कृत्रिमपुष्पनिर्मितमालासु चम्पकादिसुगन्धिपुष्पैः संस्कारसाधनात् , 'संस्कारो गन्धमाल्याद्यैर्यः स्यात्तदधिवासनम्' इत्यमरः, मधुव्रतानां मधुलिहाम् अपि, किमुतान्येषामिति भावः, दत्तविभ्रमाः कृताकृत्रिमपुष्पनिर्मितस्र भ्रान्तयः, इति भ्रान्तिमदलङ्कारः, आतपनिर्भयाः आतपेऽपि अम्लानाः इत्यर्थः, पटच्छिदा पटकर्त्तनेन, चेलखण्डेनेत्यर्थः, कृतानि यानि अकालिकानि अकालोद्भवानि पुष्पाणि तेभ्यः जाताः तजाः, स्रजः मालिकाः, तदा आसन्नविवाहमहोत्सवकाले, पथां नगरमार्गाणां, वितानताम् उल्लोचतां, चन्द्रातपत्वमित्यर्थः 'अस्त्री वितानमुल्लोचः' इत्यमरः, अनीयन्त नीताः, नयतेर्द्विकर्मकत्वात् प्रधाने कर्मणि लङ, 'प्रधानकर्मण्याख्येये लादीनाहुर्द्विकर्मणाम्' इति वचनात् / रचनापाटवेन सर्वत्र पुष्पवितानभ्रान्तिता बद्ध्वा इत्यर्थः // 14 // __उस प्रकार (विशेष विचार करनेपर भी अकृत्रिम हो मालूम पड़ने योग्य ) सुवासित करनेसे नित्य मधुपान करनेवाले भोरोंको भो भ्रान्त ( 'ये कपड़ेके बने सुवासित किये गये बनावटो फूल नहीं हैं, किन्तु वास्तविक फूल ही हैं, ऐसा सन्देह ) करनेवाली, धूपमें भी निर्भय अर्थात् नहीं मुझानेवाली, कपड़ोंको काटकर बनायी गयी, असामयिक फूलोंकी मालाएं मार्गों में चंदोवा बन गयीं, [ कपड़ोंको काटकर फूल बनाये गये और उनको उन्हींउन्हीं फूलों की सुगन्धिसे ऐसा.सुवासित किया गया कि सुगन्धिके 'सच्चे पारखी भौंरे भी उन्हें वास्तविक फूल समझकर गन्धपान करते थे, उन कृत्रिम फूलोंको सघन मालाओंसे नागोंको ऐसा सजाया गया कि वे मालाएं मार्गोंकी चंदोवा-सी बन गयीं / / 14 / / विभूषणैः कञ्चकिता बभुः प्रजा विचित्रचित्रः स्नपितत्विषो गृहाः / बभूव तस्मिन्मणिकुट्टिमैः पुरे वपुः स्वमुाः परिवर्तितोपमम् / / 15 / / विभूषणैरिति / तस्मिन् पुरे प्रजाः जनाः, 'प्रजाः स्यात् सन्ततौ जने' इत्यमरः, विभूषणैः अलङ्कारैः, कञ्चुकिताःसञ्जातकञ्चुकाः, सर्वाङ्गीणाभरणाः सत्यः इति भावः, तथा गृहाः विचित्रचित्रैः विविधालेख्यैः स्नपितत्विषः विशुद्धकान्तयः, शोभनदर्शनाः सन्त इत्यर्थः, 'ग्लास्त्रावनुवमाञ्च' इति स्नातेरनुपसर्गस्य मित्वविकल्पात् हस्वत्वम्, बभुः विरेजुः / उाः तत्रत्यभूमेः, स्वं वपुः निजस्वरूपं, मणीनां कुट्टिमः मणिबद्ध. प्रदेशः, कुट्टेन बन्धेन निर्वृत्तं कट्टिभं 'भावप्रत्ययान्तादिमप वक्तव्यः'। कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूः' इति स्वामी, परिवर्तितोपमम् अन्यादृशोपमानं, बभूव, पूर्व नगरस्य यादृशी उपमा आसीत् इदानीमलङ्कृतत्वात् तादृशी उपमा नासीत् इति भावः। ___उस नगरमें प्रजा ( नागरिक जन ) विशिष्ट भूषणोंसे सुसज्जित सम्पूर्ण शरीरवाली होकर शोभने लगी, (निर्जीव होने पर भी सजीव मालूम पड़नेवाले अनेक रंगोंसे बनाये / 1. 'स्वरुाः ' इति पाठान्तरम् /
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________________ 866 नैषधमहाकाव्यम्। गये ) आश्चर्यकारक चित्रोंसे स्वच्छतम कान्तिवाले भवन शोमने लगे, (इस प्रकार जङ्गम नागरिक लोगों तथा स्थावर भवनों और ) मणियोंकी बनी हुई भूमिसे (अथवा-इस प्रकार मणिजटित भूमिसे उपलक्षित ) उस नगर में पृथ्वीका अपना ( सहज = प्राकृतिक ) शरीर परिवर्तित-सा ( बदले हुएके समान) हो गया। ( अथवा-उलटे हुएके समान (ब्रह्माने पृथ्वीके सहज शरीरको उलट दिया है ), अतएव मणिमयी भूमि आदिसे शोभमान नीचेका पाताल लोक ऊपर आ गया है और ऊपरका साधारण शोभावाला भाग नीचे चला गया है ऐसा ) मालूम पड़ता था। अथवा-परिवर्तित ( बदली गयी ) है उपमा जिसकी ऐस। पृथ्वीका स्वरूप हो गया है अर्थात् पहले स्वर्ग उपमा और पृथ्वी उपमेय थी, किन्तु अब पृथ्वी उपमा तथा स्वर्ग उपमेय हो गया है यानी स्वर्गसे पृथ्वी ही श्रेष्ठ शोभावाली हो गयी है ऐसा मालूम पड़ता था / ( पाठा०-स्वर्गसे परिवर्तित ( बदली गयी) उपमावालेके समान पृथ्वीका स्वरूप हो गया ) // 15 // तदा निसस्वानतमां घनं घनं ननाद तस्मिन्नितरां ततं ततम् | अवापुरुच्चैः सुषिराणि राणिताममानमानद्धमियत्तयाऽध्वनीत् / / 16 / / तदेति / तदा आसन्नविवाहमहोत्सवकाले, तस्मिन् पुरे, घनं काश्यतालादिवाद्यं, धनं निरन्तरं यथा स्यात् तथा, निसस्वानतमाम् अतिशयेन दध्वान 'किमेतिडव्ययघादामु-' इत्यादिना आमु-प्रत्ययः। ततं वीणादिकं वाद्यं, नितराम् अतिशयकम्, पूर्ववदामु-प्रत्ययः, ततं विस्तृतं यथा तथा, ननाद / सुषिराणि वंशादिवाद्यानि, उच्चैः उच्चस्तरांराणितांराणनं, ध्वननमित्यर्थः 'रणतेय॑न्ताद्भावे क्तः'अवापुः।आनद्धं मुरजादिवाद्यम्, इयत्तया केनचित् मानेन, अमानं मानरहितं यथा तथा, अध्वनीत् दध्वान, ध्वनतेलुङ / 'अतो हलादेलघोः' इति विकल्पात् वृद्धिप्रतिषेधः / 'ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम् / वंशादिकन्तु सुषिरं कांस्यतालादिकं धनम् // ' इत्यमरः॥ 16 // ___ उस समय उस नगर में कांसेके बने ( झाल, मँजीरा, घण्टा आदि ) बाजे अत्यधिक बनने लगे; तारोंवाले (वीणा, सारंगी, बेला, सितार आदि ) बाजे बहुत झंकार करने ( बजने ) लगे ; छिद्रवाले ( बांसुरी आदि ) बाजे उच्च स्वरसे ध्वनि करने लगे और चमड़ेसे मढ़े हुए (नगाड़े, पखावज, ढोलक आदि ) बाजे प्रमाणरहित अर्थात् अत्यधिक बजने लगे। [नलके आनेके समय उस कुण्डिनपुरमें 'घन, तत, सुषिर तथा आनद्ध'-ये चारों प्रकार के बाजे अत्यधिक बजने लगे] // 16 // विपञ्चिराच्छादि न वेणुभिन ते प्रणीतगीतैर्न च तेऽपि झझरैः / न ते हुडुक्केन न सोऽपि ढकया न मर्दलैः साऽपि न तेऽपि ढकया / / - विपञ्चिरिति / विपश्चिः वीणा 'विपन्धिर्वल्लकी वीणा' इति वैजयन्ती / 'कृदिकारात्-' इति विकल्पादीकाराभावः / वेणुभिः वेणुवाद्यैः, न आच्छादि न छादिता, के
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 867 तिरोहितेत्यर्थः छादयतेः कर्मणि लुङ, ते वेणवः, प्रणीतगीतः प्रयुक्तगानैः, गायकैरित्यर्थः / गीतनिःस्वनैरिति यावत् , न, आच्छादिषत इति विभक्तिविपरिणामे. नान्वयः, एवमुत्तरत्रापि योज्यम् / तेऽपि च गायकवनयश्च, झर्झरैः वाद्यविशेषः, तद्ध्वनिभिरित्यर्थः / न, आच्छादिषत, ते झर्झरध्वनयः, हुदुक्केन वाद्यविशेषेण, न, आच्छादिषत, सोऽपि हुडुक्कोऽपि, ढक्कया वाद्यविशेषेण, न, आच्छादि, साऽपि ढक्काऽपि, मर्दः मृदङ्गध्वनिभिः, न, आच्छादि, तेऽपि मर्दलानां ध्वनयोऽपि, ढक्कया न, आच्छादिषत, वादकजनानां तथा वादननैपुण्यं, यथा विपञ्च्यादिध्वनयः प्रत्येकमसंश्लिष्टं श्रुता इति भावः / / 17 // ___ वीणा ( की ध्वनि ) वंशी ( की ध्वनि ) से नहीं दबी, ( इसी प्रकार ) वंशी ( गायकोंके ) गानोंसे, गायकों के गाने झांझोंसे, झांझ हुडुकसे, हुडुक नगाड़ेसे, नगाड़ा मृदङ्ग ( या मशक बाजे ) से और वे ( मृदङ्ग या मशक बाजे ) नगाड़ेसे नहीं दबे। [ उक्त सबोंकी ध्वनि बजानेवालोंकी निपुणताके कारण एक दूसरेसे नहीं दबती थी, अपि तु पृथक्-पृथक् स्पष्ट सुनायी पड़ती थी ] // 17 // विचित्रवादित्रनिनादमूञ्छितः सुदूरचारी जनतामुखारवः / ममौ न कर्णेषु दिगन्तदन्तिनां पयोधिपूरप्रतिनादमेदुरः // 18 // विचित्रेति / विचित्राणि नानाविधानि, वादित्राणि ततादिवाद्यानि 'चतुर्विधमिदं वाद्यं वादिबातोद्यनामकम्' इत्यमरः, तेषां निनादैः ध्वनिभिः, मूच्छितः प्रवृद्धः सुदूरचारी अतिदूरव्यापी, जनतानां जनसमूहानां, मुखेषु आरवः शब्दः, लोकालापकोलाहलः इत्यर्थः। पयोधीनां पूरेषु लहरीषु, प्रतिनादेन प्रतिध्वनिना, मेदुरः मेदस्वी, प्रवृद्धः सन् इत्यर्थः / 'भञ्जभासमिदो घुरच्' इति मिदधातोपुरच्प्रत्ययः / दिगन्तदन्तिनां दिग्गजानां कर्णेषु न ममौ न माति स्मेति अतिशयोक्तिः। वधूमङ्गलस्नानार्थं महान्तं मङ्गलतूर्यघोषणमकार्षुरित्यर्थः / उच्चैर्वादितविविधवाद्यनिनादेन सह मिश्रितः तत्रत्यजनानां महान् कलकलः कर्णवधिरकारी अभूदिति भावः // 18 // अनेक प्रकार के बाजाओंकी ध्वमिसे बढ़ा तथा बहुत दूर तक गया हुआ जन-समूहके मुखका शब्द अर्थात् कोलाहल समुद्रतरङ्गों में प्रतिध्वनित होकर बढ़ता हुआ दिग्गजों के कानों में नहीं आ सका अर्थात् अत्यधिक होनेसे उन दिग्गजों के कानोंसे बाहर निकल आया। [ जन-समूहका कोलाहल दिगन्ततक फैल गया ] // 18 // उदस्य कुम्भीरथ शातकुम्भजाश्चतुष्कचारुत्विषि वेदिकोदरे / यथाकुलाचारमथावनीन्द्रजां पुरन्ध्रिवर्गः स्नपयाम्बभूव ताम् / / 19 / / उदस्यति / अथ मङ्गलतूर्यघोषणानन्तरं, पुसन्ध्रिवर्गः पुरवासिनीसङ्घः, शातकुम्भजाः सौवर्णीः, कुम्भीः पूर्णकलशीः, उदस्य उन्नमय्य, अथ तदनन्तरं, मङ्गलं 1. यथाविधानं नरनाथनन्दिनीम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 86 नैषधमहाकाव्यम्।। यथा तथा मङ्गलगीतपूर्व यथा तथा वा इत्यर्थः। 'मङ्गलानन्तरारम्भ-प्रश्नकात्स्न्येवथो अथ' इत्यमरः / चतुष्केण चतुःस्तम्भमण्डपेन, चारुस्विषि अतिशयशोभे, वेदिकोदरे वेदिमध्ये, यथाकुलाचारम कुलाचरम् अनतिक्रम्य इत्यर्थः, ताम् अवनी. न्द्रजां भमी, स्नपयाम्बभूव स्नानं कारयामास / 'ग्लास्नावनु-' इत्यादिना स्नातेमित्वविकल्पात् हस्वत्वम् / / 19 / / / इस ( अनेकविध बाजाओंके बजने लगने ) के बाद स्त्रो-समूहने चौंक (या-चार खम्बोंके मण्डप ) से सुन्दर कान्तिवाले वेदोके बोचमें, सुवर्णके कलशियोंको उठाकर (उनसे) राजकुमारी उस दमयन्तीको कुलाचारके अनुसार स्नान कराया // 19 // विजित्य दास्यादिव वारिहारितामवापितास्तत्कुचोयोयेन ताः। शिखामवाक्षुः सहकारशाखिननपाभरम्लानिमिवानतैर्मुखैः / / 20 / / विजित्येति / तत्कुचयोः द्वयेन भैमीस्तनद्वयेन, विजित्य दास्यात् दासीकरणादिव, वारिहारितां जलवाहिनीत्वम्, अवापिताः प्रापिताः, आपेय॑न्तादणिकत्तः कर्मणि क्तः, 'ण्यन्ते कत्तश्च कर्मणः' इति वचनात् / ताः कुम्भाः, आनतः अवनतैः मुखैः द्वारः, द्वाराधोदेशे इत्यर्थः / आननैश्च, सहकारशाखिनः शिखां चतपल्लवं, पाभारेण या म्लानिः म्लानता तामिव, चूनपल्लवरूपम्लानतामेव, दास्यजनितलच्जयेति भावः / अवातुः अधार्युः, वहेलङि सिचि 'वदव्रज-' इत्यादिना वृद्धिः, 'होढः' इति ढः, 'पढोः कः सि' इति कत्वे 'इणकोः' इति षत्वं, 'सिजभ्यस्त-' इत्यादिना झेर्जुसि अडागमः / प्रतिगृहद्वारप्रान्ते सहकारशाखाच्छादितमुखपूर्णकुम्भ्यः संस्थापिता अभूवन् इति भावः / लोके दासीकृताः स्त्रियो नतानना म्लानमुखकान्तयः जलाहरणादिकर्म कुर्वन्तीति दृश्यते / अत्र दास्यादिवेति हेतूत्प्रेक्षा, म्लानिमिवेति गुणस्वरूपोस्प्रेक्षा, तयोरङ्गाङ्गिभावेन सजातीयसङ्करः // 20 // उस ( दमयन्ती ) के दोनों स्तनोंसे पराजित होकर मानो दासीत्वको प्राप्त होने के कारण पानी भरनेवाली (दासी) बनी हुई वे सुवर्ण-कलशियां नम्र (नीचे झुके हुए) मुखोंसे आम्रवृक्षके पल्लवको लज्जाके भारसे ग्लानिके समान धारण करती थीं। [जिस प्रकार किसीसे हारी हुई कोई स्त्री उसकी दासी बनकर लज्जासे नम्रमुखी हो मलिनताको धारण करती हुई जल भरती है, उसी प्रकार दमयन्तीके विशाल एवं गौरवर्ण स्तनद्वयसे पराजित सुवर्ण-कलशियां मानों उसकी दासी बनकर नीचे मुख किये पानी भरती तथा आम्रपल्लवरूप मलिनताको मुखपर धारण करती हैं // मङ्गलाचारके लिए सुवर्ण-कलशियोंमें पानी भरकर उनके मुखपर श्यामवर्णके आम्रपल्लव रखे गये हैं ] // 20 // असौ मुहुर्जातजलाभिषेचना क्रमाद्दुकूलेन सितांशुनोज्ज्वला / द्वयस्य वर्षाशरदां सदातनी सनाभितां साधु बबन्ध सन्धया / / 21 / / 1. 'तदातनीम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 866 . असाविति / असौ भैमी, मुहुः जातं जलाभिषेचनं यस्याः सा तादृशी जलाभिषिक्ता सती, तथा सितांशुना शुभ्रसूत्रघटितेन, दुकूलेन पट्टवस्त्रेण, सितः शुभ्रः अंशुः किरणो यस्य तेन चन्द्रेण च, उज्ज्वला शोभिता, सती, क्रमात् वर्षाशरदां द्वयस्य सन्धया सन्धिस्थलेन, वर्षतु शेषशरहतुप्रारम्भरूपर्तुद्वयमध्यवर्तिकालेनेत्यर्थः / सदातनी सनातनी, सनाभितां तुल्यत्वं, साधु यथा तथा बबन्ध दधार / वर्षतरपि 'जलाभिषिक्तः शरच्च शीतांशूज्ज्वलो भवतीत्युपमा // 21 // फिर स्नान की हुई यह ( दमयन्ती ) स्वच्छ सूत्रोंवाले रेशमी वस्त्र (पक्षा०-स्वच्छ किरणोंवाले चन्द्रमा ) से उज्ज्वल अर्थात् शोभित होकर वर्षा ( के अन्तिमकाल) तथा शरद् ( के प्रारम्भ काल )-दोनोंके तात्कालिक सन्ध्याकी समानताको प्राप्त किया। [ पहले 'स्नानकर बादमें स्वच्छ सूत्रवाले रेशमी कपड़ेको पहनकर दमयन्ती उस प्रकार उज्ज्वल वेषवाली शोभित हुई, जिस प्रकार पहले वर्षाऋतुसे स्नानकर शरद् ऋतुके प्रारम्भमें स्वच्छ किरणोंवाले चन्द्रमासे उस समय ( वर्षाके अन्त तथा शरद्के प्रारम्भ ) की सन्ध्या ( दोनों ऋतुओंका सन्धिकाल ) उज्ज्वल होती ( शोभती) है ] // 21 / / असौ प्रभिन्नाम्बुददुर्दिनीकृतां निनिन्द चन्द्रद्यतिसुन्दरी दिवम् / शिरोरुहौघेण घनेन संयुता तथा दुकूलेन सितांशुनोज्ज्वला / / 22 // असाविति / घनेन सान्द्रेण, शिरोरुहोघेण केशपाशेन, घनेन मेघेन च, संयुता विशिष्टा, इति वर्षासाम्योक्तिः, तथा सितांशुना शुभ्रसूत्रघटितेन दुकूलेन पट्टवस्त्रेण, उज्ज्वला शोभिता, शीतांशुना चन्द्रेण च, उज्ज्वला, इति शरत्साम्योक्तिः, असौ भैमी, प्रभिन्नैः वर्षकैः, अम्बुदैः गाढकृष्णवर्णमेघैः दुर्दिनीकृताम् अभिवृष्टामित्यर्थः / तथा चन्द्रद्यत्या चन्द्रकान्त्या, सुन्दरी दिवं नभःस्थली, निनिन्द तदुपमा अभूदि. त्यर्थः / कदर्थयति निन्दतीति सादृश्यवाचकेषु दण्डी इति उपमालङ्कारः // 22 // ___सघन केश-समूह ( पक्षा०-मेघ ) से युक्त ( पाठा०-कहीं पर बरसते हुए केशसमूहरूप मेघोंसे युक्त ) तथा स्वच्छ सूत्रवाले रेशमी वस्त्र (पक्षा०-चन्द्रमा) से उज्ज्वल इस दमयन्तीने ( पाठा०-पहले ) बरसे हुए मेघसे जलप्लावित ( तथा बादमें ) चन्द्रका. न्तिसे सुन्दर नभस्थलीको निन्दित कर दिया अर्थात् उसके समान शोभित हुई। [ यहां पर मेघके स्थानपर कृष्ण वर्ण केश-समूह, चन्द्रिकाके स्थान पर स्वच्छ रेशमी वस्त्र, जल बरसने के स्थान पर स्नान की समानता की गयी है ] // 22 // विरेजिरे तच्चिकुरोत्कराः किराः क्षणं गलन्निर्मलवारिविप्रषाम् | तमःसुहञ्चामरनिर्जयाजिताः सिता वमन्तः खलु कीर्तिमौक्तिकाः।।२३।। विरेजिरे इति / क्षणं क्षणमात्रं, गलन्त्यः स्रवत्यः, निर्मलाः स्वच्छाश्च, याः वारिविप्रषः तोयबिन्दवः तासां, कृद्योगात् कर्मणि षष्ठी। किरन्तीति किराः विक्षेपकाः, .. 1. 'पुरा' इति पाठान्तरम्। 2. 'वर्षता क्वचित्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 100 नैषधमहाकाव्यम् / स्वच्छजलविन्दुस्राविण, इत्यर्थः / 'इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः' इति कः। तस्याः मैन्याः, चिकुरोत्कराः केशनिकराः, तमासुहृदः तमोनिभस्य, चामरस्य बालव्यजनस्य, कृष्णवर्णचामरस्येत्यर्थः। निर्जयेन पराजयेन, अर्जिताः, सम्पादिताः, सिताः शुभ्राः, मुक्ताः एव मौक्तिकाः, 'अभाषितपुंस्काच्च-' इति कात् पूर्वस्य विकल्पादिकारः। कीर्तय एव मौक्तिकाःमुक्ताफलानि, वमन्तः उद्विरन्त इव, इत्युत्प्रेक्षा व्यन्जकाप्रयोगादग्या, अथवा खलुशब्द एव इवार्थे प्रयुक्तः तेन वाच्यात्प्रेक्षव, विरेजिरे खलु / 'फणाञ्च सप्तानाम्' इत्येत्वाभ्यासलोपी // 23 // __ थोड़े समय तक गिरते हुए पानीके बूंदोंकी टपकानेवाले उस दमयन्तीके केश-समूह ऐसे मालूम पड़ते थे कि अत्यन्त काले चामरोंको पराजित करनेसे प्राप्त श्वेत कीर्तिरूपी मोतियों को वमन कर (गिरा ) रहे हों। [कृष्ण वर्णवाले चामरसे भी सुन्दर दमयन्तीका केशसमूह था ] // 23 // म्रदीयसा स्नानजलस्य वाससा प्रमार्जनेनाधिकमुज्ज्वलीकृता / अदभ्रमभ्राजत साऽश्मशाणतात् प्रकाशरोचिः प्रतिमेव हेमजा।|२४|| म्रदीयसेति / नदीयसा मृतरेण, वाससा गात्रमार्जनवस्त्रेण, स्नानजलस्य स्नानहेतोः अङ्गसङ्गिनः जलस्य, प्रमार्जनेन अपाकरणेन, अधिकम् उज्ज्वलीकृता विमली. कृता, सा भैमी, अश्मशाणनात् अश्मना उत्तेजनोपलेन, शाणनात् उद्धर्षणात् प्रका. शम् उज्ज्वलं, रोचिः दीप्तिः यस्याः सा तादृशी, हेमजा हैमी, प्रतिमा इव अदभ्रं बहु. लम, अभ्राजत अराजत // 24 // अतिशय मुलायम कपड़े ( तौलिया ) से स्नान के पानीको पोंछनेसे अधिक स्वच्छ की गयो दमयन्ती पत्थरपर शान देनेसे प्रकाशित ( चमकती) कान्तिवाली सोनेकी प्रतिम! (मूर्ति ) के समान अधिक शोभने लगी / / 24 // तदा तदङ्गस्य बित्ति विभ्रमं विलेपनामोदमुचः स्फुरद्रुचः / दरस्फुटत्काञ्चनकेतकीदलात् सुवर्णमभ्यस्यति सौरभं यदि / / 25 / / तदेति / सुवर्ण कत्त, दरस्फुटतः ईषद्विकसतः। 'इषदर्थे दराव्ययम्' इति शाश्वतः / काञ्चनकेतकीदलात् काञ्चनवर्णकेतकीपत्रात् / 'आख्यातोपयोगे' इत्यपादानत्वात् पञ्चमी / सौरभम् आमोदम, अभ्यस्यति यदि अधीते चेत् , गृह्णाति चेदि. त्यर्थः / तदा तर्हि, विलेपनेन अङ्गरागेण, यः आमोदः मनोज्ञगन्धः, तं मुञ्चति किर• तीति तन्मुचः, स्फुरद्रुचः उज्ज्वल कान्तः, तदङ्गस्य चन्दनादिसुगन्धिद्रव्यचर्चितदमयन्तीकलेवरस्य, विभ्रममिव विभ्रमं शोभाम् / 'विभ्रमः संशये भ्रान्ती शोभायाम्' इति वैजयन्ती / बिभत्ति / तथा च तदङ्गस्य सौरभगुणेन तद्रहितात् सुवर्णादाधि. क्यकथनाद्वयतिरेकस्तावदेकः, यदिशब्देन सुवर्णस्य सौरभासम्बन्धेऽपि सम्भावनया. तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः, विभ्रममिव विभ्रममिति सादृश्याक्षेपादसम्भवद्वस्तु
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 601 सम्बन्धरूपो निदर्शनाभेदः, तदङ्गोपमानसुवर्णस्योपमेयत्वकल्पनात प्रतीपालकारः, तेन चाङ्गिनाङ्गत्वेन तेषां सङ्कर इति विवेकः // 25 // ___ यदि सुवर्ण ईषद्विकसित सुवर्णकेतकी-दलकी सुगन्धिका अभ्यास (शिक्षा-ग्रहण ) करे तब वह (चन्दनादिके ) लेपकी सुगन्धको फैलाते हुए कान्तिमान् दमयन्तीके शरीरके विलास ( पक्षा०-विशिष्ट भ्रम ) को पा सकता है। [ दमयन्तीके गौरवर्ण शरीरसे स्नानके बाद चन्दनादिका लेप लगानेपर ऐसा सुगन्ध निकलने लगा जैसा कि सुवर्णमयी थोड़ी विकसित केतकीके फूलमें सुगन्ध निकलता हो, परन्तु सुवर्णमय केतकीके फूलमें सुगन्ध नहीं होनेसे दमयन्तीका स्नानोत्तर अनुलिप्त शरीर अनुपम था ] // 25 // अवापितायाः शुचि वेदिकान्तरं कलासु तस्याः सकलासु पण्डिताः / / क्षणेन सख्यश्विरशिक्षणस्फुटं प्रतिप्रतीकं प्रतिकर्म निर्ममुः / / 26 / / अवापिताया इति / सकलासु कलासु शिल्पविद्यासु, 'कला शिल्पे कालभेदेऽपि' इत्यमरः, पण्डिताः कुशलाः, सख्यःशुचि शुद्धं, वेदिकाऽन्तरं स्नानवेदेः अन्यां वेदिम अवापितायाः नीतायाः, तस्याः दमयन्त्याः, प्रतिप्रतीकं प्रत्यवयवम्, 'अङ्ग प्रतीकोवयवः' इत्यमरः, प्रतिकर्म प्रसाधनं, 'प्रतिकर्म प्रसाधनम्' इत्यमरः। चिरशिक्षणेन चिराभ्यासेन, क्षणेन क्षणकालेनैव, स्फुट, सुस्पष्टं, निर्ममुः चरित्यर्थः // 26 / / सम्पूर्ण कलाओं में निपुण सखियोंने दमयन्तीको दूसरी स्वच्छ (या -गोबर आदिसे लिपने तथा सर्वतोभद्र चिह्नादिसे शुद्ध अर्थात् माङ्गलिक ) वेदीपर ले जाकर दमयन्तीके प्रत्येक अङ्गोंको चिरकालसे प्राप्त शिक्षाके कारण झटपट अलंकृत कर दिया // 26 // विनाऽपि भूषामवधिः श्रियामियं व्यभूषि विज्ञाभिरदर्शि चाधिका। न भूषयैषाऽतिचकास्ति किन्तु साऽनयेति कस्यास्तु विचारचातुरी ?|| विनेति / भूषां विनाऽपि अलङ्कारमन्तरेणाऽपि, श्रियां शोभानाम्, अवधिः सीमाभूताः, इयं भैमी, विज्ञाभिः अलङ्करणे निपुणाभिः 'प्रवीणे निपुणाभिज्ञ-विज्ञनि. प्णातशिक्षिताः' इत्यमरः, व्यभूषि विभूषिता, तथा अधिका पूर्वावस्थातोऽप्युस्कृष्टा, अदर्शि दृष्टा च, तादृशी अमानीत्यर्थः / वस्तुतस्तु एषा भैमी, भूषया नाति चकास्ति नात्यर्थं शोभते, किन्तु सा भूषव, अनया भैम्या, अतिचकास्तीति विचारचातुरी विमर्शनकौशलं, भूषेव भैम्या अतिचकास्तीति निश्चयनैपुण्यमित्यर्थः, कस्यास्तु ? न कस्यापीत्यर्थः / अनयैव भूषणं भूषितं, न तु भूषणेनेयम् इति निश्चेतुं सामर्थ्याभा. वादेव भूषणामामधिकशोभाकारित्वमिति सर्वासां भ्रान्तिरिति भावः / / 27 / / विना भूषणों के भी शोभाओंकी परमसीमा अर्थात् सर्वाधिक शोभनेवाली दमयन्तीको ( अलंकृत करने में सुनिपुण) सखियों ने विशेषरूपसे अलंकृत किया तथा अधिक (अनलंकृता. वस्थासे अधिक ) शोभावाली देखा। परन्तु 'वह दमयन्ती भूषणके द्वारा ही अधिक नहीं 1. 'धिचकास्ति' इति पाअन्तरम्।।
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________________ 602 नैषधमहाकाव्यम् / शोभती है अपितु वह भूषण ही इस दमयन्तीके द्वारा अधिक शोभता है, ऐसी विचार ( वास्तविकताका ज्ञान ) की निपुणता किसको हुई अर्थात् किसीको नहीं। [ दमयन्तीकी शोभा भूषणों के विना ही चरम सीमापर पहुंची थी, फिर भी चतुर सखियोंने उसे विशेष. रूपसे अलंकृत किया तथा 'यह अब अधिक शोमतो है। ऐसा समझा, किन्तु किसीने इस वास्तविक तत्वको नहीं समझा कि 'दमयन्तीके शरीरसंसर्गसे ये भूषण ही शोभित हो रहे हैं, भूषणोंसे दमयन्ती नहीं शोभती'। अथवा-शोमाकी परमावधि दमयन्तीको भूषणों से विज्ञ सखियोंने अलंकृतकर बारम्बार देखा, ऐसा वास्तविक विचारचातुर्य किसी सखीमें नहीं हुआ जो यह समझे कि 'दमयन्ती भूषणोंसे नहीं शोमतो, अपितु भूषण ही दमयन्तीके शोभते हैं। ( अथवा-...."बारम्बार देखा, किन्तु 'ये भूषण व्यर्थ हैं ? साधारण हैं ? या अधिक शोभाकारक हैं ?' यह विचारचातुर्य (निर्णय-क्षमता ) किसीको हुआ अर्थात् किसीको नहीं, अपितु सब सखियां विज्ञ होती हुई भी इसके निर्णय करने में असमर्थ ही रहीं / अथवा-"."उक्त विचारचातुर्य किसीको हा हुआ, सबको नहीं। अथवा-उक्त विचारचातुर्यक अर्थात् ब्रह्माको (या-मुझे = ग्रन्थकर्ता श्रीहर्ष कविको ) ही हुआ, और दूसरे किसीको नहीं ] // 27 // विधाय बन्धूकपयोजपूजनं कृतां विधोर्गन्धफलोबलिश्रियम् / निनिन्द लब्धाधरलोचनार्चनं मनःशिलाचित्रकमेत्य तन्मुखम् // 28 / / विधायेति / लब्धम् अधियतम्, अधराम्यामोष्ठाभ्यां, लोचनाभ्याश्च अर्चनं येन तत् तादृशम् अधरलोचनाभ्यांरमणीयमित्यर्थः। तन्मुखं भैमीवदनं कत्त मनःशिलया पीतवर्णधातुविशेषेण, चित्रकं तिलकम् 'तमालपत्रतिलकचित्रकाणि विशेषकम्' इत्यमरः, एत्य प्राप्य, विधोः चन्द्रस्य, बन्धूकेन बन्धूजोवकाख्यरक्तवर्णकुसुमेन, पयोजाभ्यां नीलोत्पलाभ्याश्च, पूजनं विधाय कृत्वा, कृतां गन्धफल्या पीताभचम्पककलिकया 'अथ चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः / एतस्य कलिका गन्धफली स्यात्' इत्यमरः, बलेः पूजनस्य, श्रियं शोभां, निनिन्द, अधरायश्चितं तन्मुखं बन्धूकायश्चितं चन्द्रबिम्बमिव बभौ इत्यर्थः // 28 // अधर तथा नेत्रोंसे रमणोय उस (दमयन्ती) का मुख मैनसिलके तिलकको प्राप्तकर अर्थात् मैनसिलके तिलक लगाने पर दुपहरिया तथा कमलके फूलोंसे पूजितकर चम्पाकी कलीसे दी गयी बलिवाले चन्द्रमाको शोभाको निन्दित किया अर्थात् उक्त चन्द्रसे अधिक शोभित हुआ। [ दो दुपहरियाके फूल और दो कमलके फूलोंसे चन्द्रमाकी पूजाकर चम्पाकी कली ऊपर रखनेपर जो शोमा चन्द्रमाकी होगी, उससे अधिक शोभा दोनों ओठ तथा दोनों नेत्रोंसे रमणीय दमयन्ती के मुखकी मेनसिलके तिलक लगाने पर हुई। यहांपर ओष्ठोंका दुपहरियाके फूल, नेत्रों का कमलके फूल, मुखका चन्द्रमा और मैनसिल-तिलकका चम्पाकी कलीके साथ उपमानोपमेयमाव समझना चाहिये ]. // 28 //
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________________ पञ्चदशः सर्गः। महीमघोना मदनान्धतातमीतमःपटारम्भणतन्तुसन्ततिः / अबन्धि तन्मृर्द्धजपाशमञ्जरी कयापिधूपग्रहधूमकोमला // 26 // महीति / महीमघोनां भूदेवेन्द्राणां, या मदनान्धता काममूढता, सैव तमी रजनी 'रजनी यामिनी तमी' इत्यमरः / तस्याः तमः एव पटः वस्त्रं, तस्य आरम्भणे निर्माणविषये, तन्तुसन्ततिः तदर्थ तन्तुपुञ्जवत् स्थिता इत्युत्प्रेक्षा, थूपग्रहस्य धूमग्र. हणसाधनीभूतपात्रविशेषस्य, यः धूमः दह्यमानकर्पूरचन्दनादिजन्यसुगन्धिधूमः, तेन कोमला रम्या, तन्मूर्द्धजपाशमारी दमयन्तीकेशपाशवल्लरी, कयाऽपि सख्या, अबन्धि बद्धा // 29 // राजाओंकी काममूढता-रूपिणी रात्रिके अन्धकार रूप वस्त्रके निर्माण ( बुनने ) में सूत्र-समूहके समान तथा धूपदानीके धूएंसे कोमल ( कुछ सूखनेसे मृदु ) उप्त ( दमयन्ती ) के केश-समूहरूपिणी मजरीको किसी ( केश-रचनामें निपुण सखी) ने बांधा। [ स्नान कर वस्त्रालङ्कार पहनने के बाद केश बांधने में चतुर किसी सखीने दमयन्तीके ( लम्बे तथा सुगन्धयुक्त होनेसे ) मञ्जरीके समान केशोंको धूपसे सुगन्धितकर बांधा, वे केश ऐसे थे कि नलपररायण दमयन्तीको समझते हुए भी राजालोग उन्हें देखकर काम-मोहित हो रहे थे, अत एव वे केश उनकी काममूढतारूपिणी रात्रिके अन्धकाररूपी वस्त्र बनानेके सूत (धागे) के समूहके समान थे / राजालोग काला वस्त्र पहनकर रात्रिमें निकलते हैं, अतः उस काले वस्त्रको बनानेमें वे केशसमूह सूतसमूह अर्थात् निमित्तकारणभूत थे ] // 29 // पुनः पुनः काचन कुर्वती कचच्छटाधिया धूपजधूमसंयमम् / सखीस्मितैस्तर्किततन्निजभ्रमा बबन्ध तन्मूर्द्धजचामरं चिरात् / / 30 / / पुनः पुनरिति / कचच्छटाधिया भैमीकेशपाशभ्रान्त्या, धूपजधूमस्य पुनः पुनः संयम बन्धनं, कुर्वती इति भ्रान्तिमदलङ्कारः। काचन काऽपि सखी, सखीनां स्मितैः तर्कितः ऊहितः, सः पूर्वोक्तः, निजभ्रमः यया सा तादृशी सती, चिरात् बहुकालेन, तस्या मूर्द्धजाः चामरमिव तत् , बबन्ध // 30 // ___ केश-समूहके भ्रमसे बार-बार धूपके धुंएं को बांधती हुई किसी सखीने ( समीपस्थ सखियोंके ) हँसनेसे अपने भ्रमका तर्ककर उस ( दमयम्ती ) के केशरूप (श्याम ) चामरको देरसे बाँधा // 30 // बलस्य कृष्टेव हलेन भाति या कलिन्दकन्या घनभङ्गभङ्गुरा / तदाऽपिंतैस्तां करुणस्य कुडमलैजहास तस्याः कुटिला कचच्छटा।।३।। ___ बलस्येति / या कलिन्दकन्या कालिन्दी, बलस्य बलभद्रस्य, हलेन लागलेन, कृष्टेव अद्यापि आकर्षणविशिष्टेव, धनः निरन्तरैः, भङ्गः तरङ्गैः, भङ्गुरा कुटिला, भाति तस्याः दमयन्त्याः, कुटिला वक्रा, कचच्छटा केशपाशः, तदा प्रसाधनकाले, अपितैः शिरसि न्यरतैः, करुणस्य वृक्षशेषरय, करुणरतु रसे वृक्ष' इति विश्वः / कुडमलै
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________________ 904 नैषधमहाकाव्यम् / मुकुलैः, तां कालिन्दी, जहास उपहसितवतीवेत्यर्थः / व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्योत्प्रेक्षा। यमुना बलरामस्य हलाकर्षणजन्यभङ्गन भङ्गुरा पुष्पशून्या च, किन्तु भैमीकचच्छटा स्वभाववका पुष्पार्चिता चेति उपहासो युक्त इति भावः // 31 // बलरामके हलसे आकृष्ट के समान ( अत एव ) सघन ( अत्यधिक ) तरङ्गोंसे टेढो जो यमुना नदी शोभती है, उसको उस दमयन्तीके टेढ़े बाल उस ( केशरचनाके ) समय करुणनामक वृक्ष-विशेषके पुष्पोंसे हंस रहे थे अर्थात् कृष्णवर्णवाली कुटिल तरङ्गयुक्त यमुनासे भी अधिक शोभते थे। [ यमुना नदी बलरामके हलसे आकृष्ट होनेपर काले काले कुटिल तरङ्गोंवाली होकर शोमती थी, फिर भो पुष्पोंसे रहित थी, अतः काले-काले तथा स्वतः कुटिल एवं करुण-पुष्पयुक्त बालोंका अन्यकृत कार्यसे शोभनेवाली यमुनाको हँसना उचित ही है ] // 31 // धृतैतया हाटकपट्टिकाऽलिके बभूव केशाम्बुदविद्युदेव सा / मुखेन्दुसम्बन्धवशात् सुधाजुषः स्थिरत्वमूहे नियतं तदायुषः / / 32 / / तेति / एतया भैम्या, अलिके ललाटे 'ललाटमलिकं गोधिः' इत्यमरः / तासा अतीव रम्य दर्शना, हाटकपट्टिका सुवर्णपट्टः, केश एव अम्बुदः मेघः, तस्य विद्यदेव बभूव / विद्युच्चेत् कथं स्थिरत्वम् ? तत्राह-मुखेन्दुसम्बन्धवशात् मुखचन्द्रेण सह संस्पर्शात् , सुधाजुषः अमृतपायिनः, तस्याः विद्युतः सम्बन्विनः, आयुषः जीवित. कालस्य, नियतं स्थिरत्वं चिराय स्थायित्वम् , ऊहे उत्प्रे अमृतपानात् विद्यदायुषः स्थिरत्वकथनेन विद्यतोऽपि स्थिरत्वमिति भावः / 'उपसदस्यत्यूह्योति वाच्यम्' इत्यात्मनेपदम् // 32 // इस ( दमयन्ती ) के द्वारा ललाटमें धारणकी गयी सुवर्णपट्टिका ( ललाटभूषण) केशरूपी मेघको बिजली ही हो गयी। (विजलीके स्थिरप्रभा होनेका यह कारण है कि( दमयन्तीके ) मुखरूपी चन्द्रमाके अमृतका सेवन (भोजन ) करनेवाली उस (बिजली) की आयु अवश्य ही स्थिर (चिरस्थायी ) हो गयी-ऐसा मैं तर्क करता हूँ। [चन्द्रामृत पान करके बिजलीकी आयु (प्रभा ) का स्थिर होना उचित ही है ] // 32 // ललाटिकासीमनि चूर्णकुन्तला बभुस्तमां भीमनरेन्द्रजन्मनः / मनःशिलाचित्रकदीपसम्भवा भ्रमोभृतः कजलधूमवल्लयः / / 33 / / ललाटिकेति / भीमनरेन्द्रात् जन्म यस्याः तस्याः भैम्याः, 'अवो बहुव्रोहियंधिकरणो जन्माद्युत्तरपदे' इति वामनः / ललाटिका ललाटस्य अलङ्कारः, 'कललाटात् कनलङ्कारे' इति कन्प्रत्ययः। तस्याः सोमनि प्रान्ते, चूर्गकुन्तलाः अलकाः, मनःशिलायाः धातुविशेषस्य, चित्रकं तिलकं, स एव दोपः प्रदोपः, मनःशिलायाः पिङ्गलवर्णत्वात तथा नलस्य कामोद्दोपकत्वात् चित्रके दीपत्वारोपणमिति भावः। ततः 1. 'यदायुषः' इति पाठान्तरम्।
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 905 सम्भवाः जाताः, भ्रमी भ्रमं विभ्रतीति भ्रमीभृतः भ्रमन्त्यः, कजलस्य धूमः कज्जलोत्पादकधूमः, तस्य वल्लयः लताः इव, श्रेण्य इवेत्यर्थ इत्युस्प्रेक्षा, बभुस्तमाम अतिशयेन बभुः 'तिङश्च' इति तमप्प्रत्यये 'किमेत्तिङव्ययघात्-'इत्यनेनामुप्रत्ययः। ललाटभूषणके पासमें भीमनरेन्द्रनन्दिनी ( दमयन्ती) के कुण्डलाकृति टेढ़े-मेढ़े केश मैनसिलसे रचित तिलकरूपी दीपकसे उत्पन्न टेढ़े-टेढ़े काली धूमलताके समान शोभते थे। [दीपकके लौका धुंआं काला एवं टेढ़ा होता है, अतएव यहां मैनसिलके तिलकको दीपक तथा ललाटभूषणके समीपस्थ कुटिल कृष्णवर्ण बालोंको उक्त दीपकके लौ (ज्वाला) की धूम्रश्रेणि कहा गया है। मैनसिलको पीलावर्णवाला तथा नलका कामोद्दीपक होनेसे यहां दीपक माना गया है और उस दीपकसे टेढ़ी एवं काली धूम्रश्रेणिका निकलना उचित ही है] // अपाङ्गमालिङ्गय तदीयमुच्चकैरदीपि रेखा जनिताऽञ्जनेन या / अपाति सूत्रं तदिव द्वितीयया वयःश्रिया वर्द्धयितुं विलोचने / / 34 // अपाङ्गमिति / अञ्जनेन जनिता या रेखा तदीयं दमयन्तीयम् , अपाङ्गं नेत्रप्रान्तम् , आलिङ्गय स्पृष्ट्वा, उच्चकैर्नितरात् , अदीपि आयतत्वात् नेत्रावहिः अपाङ्गपर्यन्तं प्रसारिता सती रराज, तत् सा रेखेत्यर्थः / विधेयसूत्रापेक्षया नपुंसकनिर्देशः, अथवा तत् रेखारूपमञ्जनमित्यर्थः / द्वितीयया वयःश्रिया यौवनसम्पदा का, विलोचने वर्द्धयितुं बाल्यकालापेक्षया दीर्धीकर्तुं, सूत्रम् अपातीव पातितमिव इत्युत्प्रेक्षा पततेय॑न्तात् कर्मणि लुङ् , एतावत् मे क्षेत्रमिति निश्चित्य पातितं सीमासूत्रमिव सा अञ्जनरेखा विरराजेत्यर्थः // 34 // ___ अञ्जनसे बनायी गयी जो रेखा उस ( दमयन्ती) के अपाङ्ग ( नेत्रप्रान्त ) का स्पर्शकर अत्यन्त शोभित हुई, द्वितोय ( यौवन ) अवस्थाकी शोमाने नेत्रोंको बढ़ाने के लिए वहो सूत्रपात किया हो ऐसा जान पड़ता था। [जिस प्रकार कोई कारीगर किसी स्थानको बढ़ाने के लिए पहले नायके सूत्रसे मापकर सीमा निश्चित करता है, उसी प्रकार दमयन्तोके नेत्रप्रान्ततक फैली हुई कृष्णवर्ण अञ्जनरेखा 'यौवनावस्थारूपी कारोगरने नेत्रोंको बढ़ाने के लिए नापने का सूत गिराया हो' ऐसा जान पड़ती थी। यद्यपि नेत्र बचपनको अपेक्षा युवावस्थामें बढ़ते नहीं हैं, तथापि कटाक्ष-विक्षेपादि विलाससंयुक्त होनेसे उनके बढ़नेको यहां कल्पना की गयी है ] // 34 // अनङ्गलीलाभिरपाङ्गधाविनः कनीनिकानीलमणेः पुनः पुनः / तमिस्त्रवंशप्रभवेण रश्मिना स्वपद्धतिः सा किमरञ्जि नाञ्जनैः ? // 32 // अनङ्गति। अनङ्गलीलाभिः कटाक्षातरूपस्मरविलासैः हेतुभिः, पुनः पुनः अपाङ्गधाविनः नेत्रान्तगामिनः, कनीनिका तारका, सा एव नीलमणिः इन्द्रनीलो. पलः तस्य सम्बन्धि, तमित्रवंशप्रभवेण तमःकुलसम्भवेन, असितेनेत्यर्थः, रश्मिना
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / प्रभया, सा कज्जलरेखारूपा, स्वपद्धतिः रश्मिमार्गः, अरञ्जि रक्षिता किम् ? अञ्जनैः कज्जलेः, न ? अरञ्जीति सापह्नवोत्प्रेक्षा // 35 // (कटाक्ष-विक्षेपादिरूप ) काम-विलासोंसे नेत्रप्रान्ततक दौड़ने अर्थात् पहुंचनेवाली ( नेत्रकी ) पुतलीरूपी इन्द्रनीलमणिके अन्धकारकुलमें उत्पन्न किरणोंसे अपने ( गमना. गमनका ) मार्ग रंग ( कृष्णवर्ण बना ) लिया है क्या ? अञ्जनोंसे नहीं रंगा है / [ 'दमयन्ती-- की आंखोंकी नीली पुतली कामविलाससे बार-बार कटाक्ष करती हुई नेत्रप्रान्ततक जो गमनागमन करती थी, उसीसे वह कृष्णवाली रेखा बन गयी है, अञ्जनसे नहीं बनी है, ऐसा मानता हूं / नित्य गमनागमन करनेसे कृष्णवर्ण रेखारूप मार्गका बन जाना सर्वविदित है ] // 35 // असेविषातां सुषमा विदर्भजाहशाववाप्याञ्जनरेखयाऽन्वयम् / भुजद्वयज्याकिणपद्धतिस्पृशोः स्मरेण बाणोकृतयोः पयोजयोः / / 3 / / असे विषातामिति / विदर्भजादृशौ वैदर्भीनेत्रे, अञ्जनरेखया सह अन्वयं सम्बन्धम् , अवाप्य प्राप्य, भुजद्वये ये ज्याकिणपद्धती ज्याघातरेखे, तत्स्पृशोः तयुक्तयोः, एतेन स्मरस्य सव्यसाचित्वं गम्यते / स्मरेण वाणीकृतयोः पयोजयोः नीलोत्पलयोः, सुषमामिव सुषमां परमशोभाम , असे विषातां प्राप्नुताम् / साञ्जनरेखे तदृशौ ज्याघातरेखास्पृशौ स्मरसन्धितनीलोत्पलबाणी इव रेजतुरित्यर्थः / असम्भवद्वस्तुसम्बन्धरूपो निदर्शनाभेदः // 36 // (दमयन्तीके दोनों नेत्र अञ्जन-रेखा के सम्बन्धको प्राप्तकर दोनों बाहुओंमें धनुर्गुणके (धनुषकी डोरी) के (निरन्तर आघातसे उत्पन्न ) घट्टेके रेखाओं से युक्त तथा कामदेवके द्वारा ( नलको लक्ष्यकर ) बाण बनाये गये दो कमलोंकी परमोत्कृष्ट शोभाको प्राप्त किये। [नलको लक्ष्यकर कामदेव निरन्तर–दाहिने बायें-दोनों हाथोंसे कमल-पुष्पको वाण बनाकर छोड़ रहा था, अत एव उसके दोनों बाहुओंमें धनुषकी डोरीको कानतक तान-तान कर बाणोको छोड़नेसे काले वर्णके घट्टे ( रेखाकार चिह्नविशेष ) पड़ गये, उनसे युक्त कमलकी जो परमोत्कृष्ट शोभा होती है, वही शोभा अञ्जनरेखाङ्कित दमयन्तीके दोनों नेत्रोंकी हुई / यहांपर दमयन्तीके नेत्रद्वयको कमलतुल्य होनेसे बाण तथा अञ्जनरेखाद्वयको कामबाहुमें सतत ज्याघातले उत्पन्न कृष्णवर्ण घट्टा समझना चाहिये ] // 36 / / तदक्षितत्कालतुलागसा नखं निखाय कृष्णस्य मृगस्य चक्षुषी। विधिर्यदुद्धत्त मियेष तत्तयोरदूरवर्तिक्षतता स्म शंसति / / 37 // तदिति / तस्याः दमयन्त्याः, अक्षिम्यां सह मृगनेत्रापेक्षया श्रेष्ठाभ्यां नेत्राभ्यां सहेति भावः / तत्काले चक्षुःप्रसाधनकाले, तुला मृगनेत्रयोः सादृश्यं, तदेव आगः अपराधः, तेन हेतुना, विधिः वेधा, कृष्णस्य मृगस्य कृष्णसाराख्यहरिणस्य, चक्षुषी नखं निखाय निक्षिप्य, उद्धर्तनखेन उत्पाटयितुम् , इयेष ऐच्छदिति यत् , तत्
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 107 उद्धारषणं कर्म तयोः मृगचक्षुषोः, अदूरवर्तिक्षतता निकटवर्तिक्षतत्वं की, शंसति स्म शशंस / मृगस्य ईक्षणसमीपस्थस्वाभाविकक्षताकारचिह्ने पूर्वोक्तापराधप्रयुक्तविधिनखोत्पाटनक्षतत्वमुत्प्रेक्ष्यते // 37 // ब्रह्माने दमयन्ती के नेत्रद्वय ( मृगनेत्रोंसे अत्यधिक सुन्दर दोनों नेत्रों ) की उस ( नेत्रप्रसाधनके ) समय में समानता करनेके अपराधसे कृष्णसार मृगके दोनों नेत्रोंको नख गड़ाकर जो निकालना चाहा, वह ब्रह्माकी इच्छा ही ( उस मृगके) उन दोनों नेत्रों के पासमे क्षतभाव ( काले चिह्न ) को बतलाती थी। [ दमयन्ती के नेत्रोंमें अञ्जन लगाते समय उनके साथ अतितुच्छ अपने नेत्रोंको समानता करते हुए कृष्णसार मृगने बड़ा भारी अपराध किया है, अत एव उसे दण्डित करने के लिए ब्रह्माने उसके नेत्रोंको अङ्गुलिके नख गड़ाकर निकालना चाहा, उस निकालने के कार्यको ही उन नेत्रों के समीपमें उत्पन्न क्षतका काला चिह्न कहता था / अत्युत्तम दमयन्तीनेत्रद्वय के साथ तुच्छतम कृष्णसारनेत्रद्वयकी समानता करना महान् अपराध था, अतः ब्रह्माका उसके नेत्रोंको अंगुलिसे निकालकर उसे दण्डित करने की इच्छा करना उचित ही है // कृष्णसार मृग के नेत्रों से दमयन्ती के नेत्र अत्यधिक सुन्दर थे] // 37 // विलोचनाभ्यामतिमात्रपीडितेऽवतंसनीलाम्बुरुहद्वयों खलु / तयोः प्रतिद्वन्द्विधियाऽधिरोपयाम्बभूवतुर्भीमसुनाश्रुती ततः // 38 / / विलोचनाभ्यामिति / भीमसुताश्रुती भैमीश्रोत्रद्वयं, विलोचनाभ्याम् अतिमात्रं पीडिते आकर्णविस्तारितया अत्यन्तमाक्रान्ते सत्यौ, ततः स्वपोडनरूपकारणात् , अवतंसनीलाम्बुरुहद्वयीं कर्णभूषणीकृतनीलोत्पलयुगलं, तयोः विलोचनयोः, प्रतिद्वनिद्वधिया प्रतिपक्षबुद्ध्या, अधिरोपयाम्बभूवतुः आरोपयामासतुः खलु इत्युत्प्रेक्षा, बलिना पीडितस्तुल्यबलं तत्प्रतिपक्षमाश्रयते इति भावः // 30 // दमयन्ती के कर्णद्वय (कर्णपर्यन्त विस्तृत अर्थात् विशाल ) नेत्रदयसे अत्यन्त पौडिन होकर कर्णभूषणरूप नीलकमलद्वयको उस नेत्रद्वयके प्रतिद्वन्दी ( समान बलवाले ) होनेकी भावनासे स्थापित किया ( रक्खा)। [लोकमें भी प्रबल व्यक्तिसे अतिशय पीडित व्यक्ति उस प्रबल व्यक्तिके प्रतिस्पर्धी समान बलवाले दूसरे व्यक्तिको अपने समीपमें स्थापित करता ( रखता ) है / नीलकमलद्वयके कर्णशोभोत्पादनरूप कार्यको नेत्रद्वयने ही सम्पादित कर दिया था ( कान तक विशाल नेत्रोंसे ही वे कान शोभित होते थे), अत एव कर्णभूषण बने हुए नीलकमलों ने अधिक कुछ नहीं किया // नीलकमलको कर्णभूषण बनाकर दमयन्तीके कानों में सखियोंने पहना दिया / / 38 // धृतं वतंसोत्पलयुग्ममेतया व्यराजदस्यां पतिते हशाविव | मनोभुवाऽऽन्ध्यं गमितस्य पश्यतः स्थिते लगित्वा रसिकस्य कस्यचित्।। धृतमिति / एतया भैम्या, घृतं वतंसोत्पलयुग्मं कर्णभूषणीकृतनीलोत्पलद्वयम् , 57 नै० उ०
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________________ 608 नैषधमहाकाव्यम् / अस्यां भैम्या, पतिते निक्षिप्ते, तथा लगित्वा तत्रैव आसज्य स्थिते च, पश्यतः भैमी तत्कौँ वा विलोकयतः, अत एव मनोभुवा कामेन, आन्ध्यं गमितस्य तदेकासक्तीकृतस्य इत्यर्थः। स्थानान्तरे नेत्रगमनादेवास्य अन्धत्वं बोद्धव्यम् / कस्यचित् रसिकस्य रसवतः, रागिणः इत्यर्थः / 'अत इनिठनौ' इति ठन्-प्रत्ययः। दृशौ इव व्यराजत् विरराज इत्युत्प्रेक्षा // 39 // इस ( दमयन्ती ) के द्वारा ( कानों के ऊपर ) धारण किये गये तथा कर्णभूषण बने हुए दो नीलकमल दमयन्तीमें गिरकर अर्थात् आसक्त होकर स्थित हो ( दमयन्तीको, या-उसके कानोंको.) देखते हुए ( अत एव ) कामदेवसे अन्धे किसी रसिक पुरुषके नेत्रद्वय के समान शोमते थे। [ अन्धा ब्यक्ति अन्यत्र जाने में असमर्थ होता है, यहां पर दमयन्तीको या उसके दोनों सुन्दर कानोंको आसक्तिपूर्वक देखते हुए तथा सुन्दरतम उसीको तन्मय होकर देखते रहनेसे अन्यत्र नहीं जाने अर्थात् दूसर। कुछ नहीं देखनेसे यहां उस रसिक पुरुषको कामान्ध होनेकी कल्पना की गयी है | // 39 // विदर्भसुभ्रश्रवणावतंसिकामणीमहःकिंशुककार्मुकोदरे / उदोतनेत्रोत्पलबाणसम्भृतिनलं परं लक्ष्यमवैक्षत स्मरः / / 40 // विदर्भेति / स्मरः विदर्भसुभ्रवः वदाः , श्रवणावतंसिका कर्णावतंसीभूता, या मणी, कृदिकारात्-' इतीकारः। तस्या महः प्रभा एव, किंशुककार्मुकं पलाशकुसुम चापं, तस्य उदरे मध्ये, उदीता उद्ता, प्रतिफलितेत्यर्थः / नेत्रस्य एव उत्पलबाणस्य सम्भृतिः सम्भरणं, नेत्ररूपनीलोत्पलबाणसम्भारः इत्यर्थः। यस्य स तारशः सन्, पलाशकुसुमधनुषि समारोपितनीलोत्पलशरः सन्नित्यर्थः। नलं परं नलमेव, लक्ष्यम् अवैक्षत प्रतीक्षते स्म / नल आगत्य भैम्या विभूषितकर्णनेत्रसौन्दर्यदर्शनमात्रेणेव कामबाणविद्धो भविष्यतीति भावः / / 40 // . विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) के कर्णभूषण-रत्नोंकी कान्तिरूप जो पलाशपुष्प, तद्रूप धनुषके मध्यमें प्रतिबिम्बित नेत्रकमलरूप बाण (प्रतिबिम्बित दो नेत्र तथा दो कोपल-इस प्रकार चार बाणों, या नेत्ररूप जो नीलकमल तद्रप बाणों) की सामग्रीवाला होकर केवल ( या-श्रेष्ठ ) लक्ष्य नलको ही देख ( प्रतीक्षा कर ) रहा था। [इन नीलोत्पलके कर्णभूषणोंमें प्रतिबिम्बित दमयन्तीके कन्जलसुन्दर नेत्रों को देखकर ही नल अवश्य मेरे ( कामदेवके ) वशीभूत हो जायेंगे ऐसा कामदेव समझ रहा था ] // 40 // अनाचरत्तथ्यमृषाविचारणां तदाननं कर्णलतायुगेन किम् / बबन्ध जित्वा मणिकुण्डले विधू द्विचन्द्रबुद्धया कथितावसूयको ? || अनाचरदिति / तथ्यमृषाविचारणाम् अनाचरत् सौन्दर्यमदात् सत्यासत्यविम शम् अकुर्वत् , तदाननं कर्तृ, द्विचन्द्रबुद्धया द्वौ चन्द्रौ इमौ इति भ्रान्त्या, कथिती सूचितो, असूयको स्वद्वेषिणी, आननस्योत्कर्षमसहमानावित्यर्थः। मणिकुण्डले एव
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________________ पञ्चदशः सगः। 606 विधू चन्द्रौ, जित्वा कर्णलतयोः युगेन बबन्ध किम् ? इति मिथ्याचन्द्रयोरेव बन्धनमुत्प्रेक्षते / जितस्य शत्रोर्बन्धनमुचितमिति भावः // 41 // करते हुए दमयन्तीके मुखने (दमयन्तीकी, या- उखके मुखको) स्पर्धा करनेवाले बतलाये गये रत्नजटित दो मणिकुण्डलोंको दो चन्द्रमा समझकर दो कर्णलताओंसे बांध लिया है क्या ? [ दमयन्तीका मुख अपने सौन्दर्यमदसे उन्मत्त होनेके कारण सत्यासत्यका विवेक करने में असमर्थ हो गया है, अत एव 'ये दो चन्द्रमा तुम्हारे ( मुखके) साथ ईर्ष्या कर रहे हैं। ऐसी हो चन्द्रमाकी भ्रान्तिसे रत्नजड़े हुए दो मणिकुण्डलोंको ही जीतकर कर्णलतासे बांध लिया है। अन्य भी मदोन्मत्त व्यक्ति वास्तविक बातका विचार नहीं करके दूसरे के अपराधसे तदितर व्यक्तिको दण्डित कर देता है / / दमयन्तीने रत्नोंसे जड़े हुए कुण्डलोंको कानमें धारण किया ] / / 41 // अवादि भैमी परिधाप्य कुण्डले वयस्ययाऽऽभ्यामभितः समन्वयः। . त्वदाननेन्दोः प्रियकामजन्मनि श्रयत्ययं दौरधुरी धुरं ध्रुवम् / / 42 / / अवादीति / वयस्यया सख्या, कुण्डले मणिकुण्डले, परिधाप्य आरोप्य, भैमी अवादि गदिता। किमिति ? हे भैमि ! आभ्यां मणिकुण्डलाभ्यां सह, अभितः उभयतः, त्वदाननेन्दोः तव मुखचन्द्रस्य, अयं समन्वयः समायोगः, प्रियस्य नलस्य, कामजन्मनि त्वयि रागोदये, दौरधुरी दुरधुराख्ययोगसम्बन्धिनी धुरं भारं, श्रयति फलदानभारं वहति, ध्रुवमित्युत्प्रेक्षा / चन्द्रस्यार्कातिरिक्तोभयग्रहमध्यगते दौरधुरयोगः; यदाह वराहमिहिर:-'हिलाऽक सुनयानयाद् दुरधुरा स्वान्त्योभयस्थैर्ग है: शीतांशोः' इति // 42 // दो कुण्डलोंको पहनाकर सखीने दमयन्तीसे कहा कि-इन ( कुण्डलों) के साथ दोनों और तुम्हारे मुख चन्द्रका सम्बन्ध होना प्रिय (नल ) के कामोत्पादनमें अवश्य ही 'दुरधुरा' नामक योगके भारको ग्रहण करता है। [ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्यभिन्न दो ग्रहोंकी राशिके मध्यमें चन्द्रमाके रहने पर 'दुरधरा' नामक योग होता है, उस योगमें . उत्पन्न पुत्र जिस प्रकार बहुत दिनों तक जीवित रहता है, उसी प्रकार इन कुण्डलद्वयरूपी दो ग्रहोंके बीच में स्थित तुम्हारे मुखरूपी चन्द्र के सुन्दर संयोगमें उत्पन्न नलप्रेम दिनोदिन बढ़ता हुआ बहुत दिनों तक स्थित रहेगा / 'नारायण' भट्टने “गुरु और शुक्रके मध्यगत चन्द्र के होने पर उक्त योग होता है। ऐसा कहा है ] / / 42 // निवेशितं यावकरागदीप्तये लगत्तदीयाधरसीम्नि सिक्थकम् / रराज तत्रैव निवस्तुमुत्सुकं मधूनि निधूय सुधासर्मिणि // 43 / / 1. तदुक्तम्-'गुरुभार्गवयोर्योगश्चन्द्रेणैव यदा भवेत् / तदा दुरुधराख्यः स्यात्' इति ज्योतिःशास्त्रादवगन्तव्यम् /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / निवेशितमिति / तदीयाधरस्य दमयन्तीयाधरस्य, सीम्नि सीमप्रदेशे, यावकरा. गस्य अलक्तकरागस्य, दीप्तये स्फुरणाय, निवेशितं न्यस्तम्, अत एव लगत् दृढभावेन संसजत् , सिक्थकं मधूच्छिष्टं, मधुकोषजमिति यावत् / मधूनि क्षौद्राणि, निर्धूय निरस्य, सुधया समानः धर्मः स्वादुतारूपः यस्याः सा सुधासधर्मा / 'नामगोत्ररूपस्थानवर्णवयोवचनधर्मजातीयेषु समानस्य सभावः' इति वर्द्धमानसूत्रम् / 'समानस्य छन्दस्यमूर्द्धप्रभृत्युदर्केषु' इत्यत्र 'समानस्येति योगो विभज्यते, तेन सपक्षः साधम्य सजातीयमित्यादि सिद्धमिति काशिका'। 'धर्मादनिच केवलात्' इत्यनिच / 'मनः' इति मन्नन्तान ङीप् / तस्यां सुधार्मिणि अमृतसदृश्यां, तत्र एव तदीयाधरसीग्नि एव, निवस्तुं स्थायिभावेन अवस्थातुम, उत्सुकम् आग्रहान्वितं सत् , रराज / मधू. च्छिष्टसम्बन्धिक्षौद्रापेक्षया तदीयाधरस्योत्कृष्टत्वादिति भावः। अन्यथा कथम् अत्रेव लगेदित्युत्प्रेक्षा। अन्योऽपि उत्कृष्टस्थानलाभे चिरपरिचितमपि स्वस्थानमुत्सृजति इति दृश्यते // 43 // ___ उस ( दमयन्ती) के अधरके अन्तमें महावर (या-अधरकी लालिमाके लिए लगाया जानेवाला राग-विशेष ) के चमकने ( या स्थिरता ) के लिए लगाया गया मोम ससक्त होकर मधु ( शहद ) को छोड़कर अमृततुल्य वहीं ( उस अधरसीमामें ही) रहनेके लिए उत्कण्ठित होकर ( उत्कण्ठित-सा ) शोभता था। [ओष्ठमें रंगकी स्थिरताके लिए शृङ्गार करनेवाली सखीने पहले दमयन्तीके अधरान्तमें मोम लगा दिया, वह ऐसा मालूम पड़ता था कि उसने अपने चिरपरिचित स्थान मधुको छोड़कर निरन्तर निवास करनेके लिए उत्कण्ठित होकर यहां दमयन्तीके अधर में बसा हो। लोकमें भी कोई व्यक्ति चिरपरिचित साधारण स्थानको छोड़कर उत्तम स्थानमें निवास करनेके लिए उत्कण्ठित होकर जा बसता है / दमयन्तीका अधर मधुकी अपेक्षा भी अधिक स्वादु (मधुर ) था] // 43 // स्वरेण वोणेत्यविशेषणं पुराऽस्फुरत्तदीया खलु कण्ठकन्दली। अवाप्य तन्त्रीरथ सप्त मौक्तिकासरानराजत् परिवादिनी स्फुटम।।४४|| स्वरेणेति / तदीया दमयन्तीया, कण्ठकन्दली कण्ठनालः, कण्ठस्य कलध्वनि - रिति वा / 'कलध्वमौ कन्दलो तु मृगगुल्मप्रभेदयोः' इति मेदिनी। पुरा पूर्व, स्वरेण ध्वनिना, वीणेत्यविशेषणं साधारणतः वीणेति निर्विशेष, नामरूपविशेषशून्यं यथा तथा इत्यर्थः / अस्फुरत् वीणा इत्येव अबोधीत्यर्थः खलु इति निश्चये। अथ वीण. वेति स्फुरणानन्तरं, सप्त मौक्तिकासरान् सप्त मुक्तायष्टीरेव, तन्त्रीः वीणागुणान् ; अवाप्य परिवादिनी परिवादिन्याख्या वीणा सती / 'वीणा तु वल्लकी / विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी' इत्यमरः। अराजत् , स्फुटम् इत्युत्प्रेक्षायाम् // 44 // उस ( दमयन्ती ) का कण्ठनाल पहले (मुक्तामाला धारण करने के पूर्व मधुर ) स्वरसे विशेषण-रहित 'वीणा' इसी सामान्य नामसे अवश्य ही स्फुरित होता (शोभता) था। अब वह सात लड़ियोंवाली मुक्तामालारूप तारोंको पाकर ( सात लड़ियोंवाले मोतियाक
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 611 हारको पहनकर ) स्पष्टरूपसे. परिवादिनी ( सात तारोंसे बजनेवाली परिवादिनी' नामकी विशिष्ट वीणा ) होकर शोभने लगा। [ दमयन्तीका कण्ठ मोतियों का हार पहनने के पहले मधुर स्वरसे सामान्यतः 'वीणा' तुल्य शोभता था किन्तु अब सात लड़ियोंकी मुक्ताहार पहनकर सात तारोंसे बजनेवाली 'परिवादिनी' नामको विशिष्ट वीणाके समान शोभने लगा। उपास्यमानाविव शिक्षितुं ततो मृदुत्वमप्रौढमृणालनालया / विरेजतुर्माङ्गलिकेन संयुतौ भुजौ सुदत्या वलयेन कम्बुनः / / 45 / / उपास्यमानाविति / ततः कण्ठभूषणानन्तरं, माङ्गलिकेन मङ्गलार्थन / 'प्रयोजनम्' इति ठज / कम्बुनः शङ्खस्य, 'शङ्खः स्यात् कम्बुरस्त्रियाम्' इत्यमरः। वलयेन संयुती, सुदत्याःतस्याः दमयन्त्याः भुजौ अप्रौढ मृणालनालया बालबिसकाण्डदण्डेन, मृदत्वं मार्दवं, शिक्षितुम् अभ्यसितुम् , उपास्यमानौ सेव्यमानौ इव, विरेजतुः इत्युस्प्रेक्षा // 45 // मङ्गलार्थक शङ्ख के कङ्कणोंसे संयुक्त (विभूषित ), सुन्दर दाँतोंवाली ( दमयन्ती ) के दोनों बाहु ऐसे शोभते थे, कि मानो उन ( बाहुओं ) से कोमलता सीखनेके लिये बाल (नवाकरित) मृणालदण्ड उनकी सेवा कर रहे हों। [बालकको शिक्षा ग्रहण करना तथा तदर्थ गुरुकी सेवा करना लोकप्रसिद्ध है // दमयन्तीके बाहु नवाङ्कुरित मृणालदण्डसे भी अधिक कोमल हैं ] // 45 // पदद्वयेऽस्या नवयावरञ्जना जनैस्तदानीमुदनीयतापिता / चिराय पद्मौ परिरभ्य जाग्रती निशीव विश्लिष्य नवा रविद्यतिः।४६।। पदेति / तदानीं प्रसाधनकाले, अस्याः भैम्याः, पदद्वये अर्पिता नवयावस्य नवा. लक्तस्य / 'यावोऽलक्तो द्रुमामयः' इत्यमरः / रञ्जना रागः, निशि रात्रौ, विश्लिष्य वियुज्य, पद्मादिति भावः / चिराय दोर्घकालानन्तरं, प्रभाते इत्यर्थः / पद्मौ पद्मे 'वा पुंसि पद्म नलिनम्' इत्यमरः / परिरभ्य आलिङ्गय, प्राप्य इत्यर्थः / जाग्रती प्रकाश. माना, नवा प्रत्यग्रा, रविद्युतिः इव बालार्कप्रभेव, स्थितेति जनैः उदनीयत उन्नीता; उत्प्रेक्षितेत्यर्थः // 46 // उस समय में इस ( दमयन्ती ) के दोनों चरणों में महावरको लोगोंने ऐसा तर्क किया ( समझा ) कि रात्रिमें ( कमलसे ) पृथक् होकर बहुत देर (पूरी रात्रि बीतने ) के बाद (चरणरूप ) दो कमलोंको आलिङ्गन कर अर्थात् प्राप्तकर प्रकाशमान होती हुई वह सूर्यकी नवीन ( प्रातःकालीन ) कान्ति हो। [जिस प्रकार सायंकालमें कमलोंसे पृथक् होकर रात्रिके व्यतीत होनेके बाद कमलोंको पाकर सूर्यकी अरुणवर्ण कान्ति शोभित होती है, उसी प्रकार दमयन्तीके चरणोंको पाकर लाल रंगका 'महावर शोभता था। लोकमें भी चिरविरहित व्यक्ति पूर्वपरिचित मित्रादिको प्राप्तकर आलिङ्गन करता और अनुरक्त होता है। दमयन्तीके चरण कमलतुल्य थे] // 46 //
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________________ 612 नैषधमहाकाव्यम् / .. कृतापराधः सुतनोरनन्तरं विचिन्त्य कान्तेन समं समागमम् / स्फुटं सिषेवे कुसुमेषुपावकः स गचिह्नश्चरणौ न यावकः // 47|| .. कृतेति / सुतनोः भैम्याः, कृतापराधः पूर्व विरहकाले सापराधः, कुसुमेषुपावकः कामाग्निः, अनन्तरम् इदानीं, कान्तेन समं नलेन सह, समागमं विचिन्त्य सरागचिह्नः पावकस्य लौहित्यचिह्नयुक्तः सन् अनुरागचिह्नयुक्तः सन् इति वा, अन्यथा कुत एष राग इति भावः / चरणौ सिषेवे इति स्फुटं स्वापराधमानार्थ सेवयामासेव / यावः एव यावकः 'यावादिभ्यः कन्' इति स्वार्थे कन्-प्रत्ययः / अलक्तस्तु, न, इति सापह्नवोत्प्रेक्षा // 47 // (पहले अर्थात् विरहावस्थामें ) सुतनु (सुन्दर शरीरवाली-दमयन्ती ) का अपराध करनेवाला कामरूप अग्नि बाद में प्रिय (नल) के साथ समागम को विचारकर लालचिह्न ( पक्षा०-अनुराग-चिह्न) से युक्त हो दोनों चरणों की सेवा करता है ( अथवा-विचारकर दोनों चरणोंकी सेवा करता है ), ( क्योंकि ) वह ( कामरूप अग्नि ) राग ( लाल, पक्षा०अनुराग अर्थात् स्नेह चिह्नवाला है), यह महावर नहीं है। [प्रोषितपतिकाको पीडित करनेवाला अपराधी व्यक्ति उसके पतिका समागम समीप जानकर उसके चरणोंकी सेवा करके अपने अपराधोंका परिमार्जन करता है / दमयन्तीके महावर लगे हुए चरणों को देखकर नलकी कामवृद्धि हो जायेगी ] / / 47 // स्वयं तदङ्गषु गतेषु चारुतां परस्परेणैव विभूषितेषु च | . . किमूचिरेऽलङ्करणानि तानि तत् वृथैव तेषां करणं बभूव यत् ? // 48) ... स्वयमिति / स्वयं स्वभावत एव, चारुतां गतेषु, तथा परस्परेण अन्योऽन्येनेव, विभूषितेषु समलङ्कृतेषु च, परस्परमेलनात् भूषणं विनैव प्रत्यवयवं कस्यचित् कमनीयताविशेषस्य स्फुरणादिति भावः / तदङ्गेषु भैमीगात्रेषु, तेषां पूर्वोक्तहेमपट्टादीनां, यत् करणम् अर्पणं, तत् वृथा एव निष्प्रयोजनमेव, बभूव इति तानि वास्तवानि, अलङ्करणानि कर्तणि, ऊचिरे किम् ? अलङ्काराणां भैमीचारुताकरणासामर्थ्यात् स्वक. रणस्य निष्प्रयोजनकत्वेन करणम् अलमिति स्वनाम सान्वयमभूदिति भावः // 48 // ___ स्वयं ( स्वभावतः तथा परस्परानपेक्ष ) उस दमयन्तीके अङ्गों के (प्रत्येकमे अपने-अपने सौन्दर्य एवं तारुण्य के कारण ) सुन्दरता प्राप्त करनेपर तथा परस्पर ( को शोभा ) से ही विभूषित होनेपर ( अथवा-स्वयं सुन्दरताको प्राप्त तथा परस्पर ( की शोभा ) से विभूषित दमयन्तीके अङ्गोंमें ) उन ( मैनसिलके तिलक आदि ( 14 / 28 -47 तक वर्णित ) अलङ्करणों या भूषणों ) ने क्या कहा ? अर्थात् स्वयं शोभासम्पन्न दमयन्तीके अङ्गोको अधिक सुन्दर नहीं बनाने के कारण निष्प्रयोजनभूत उन अलङ्कारोंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि उनका करना ( साधन ) व्यर्थ हो गया, अत एव उन्होंने अपने 'अलङ्करण' ( 'अलम् = व्यर्थ है 'करण = 1. 'किमूहिरे' इति पाठान्तरम्। . .... .... .
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 913 साधन' जिनका ऐसे विग्रहसे ) नामको सार्थक किया / [ 'अलङ्करण' शब्दमें प्रथम 'अलम्' शब्द 'भूषणार्थक' था, किन्तु अब वह 'व्यर्थार्यक' हो गया। पाठा०-'वे अलङ्करण क्यों पहने गये ?' यह मैं नहीं समझ सका ] // 48 // क्रमाधिकामुत्तरमुत्तरं श्रियं पुपोष यां भूषणचुम्बनैरियम् / पुरः पुरस्तस्थुषि रामणीयके तया बबाधेऽवधिबुद्धिधोरणिः / / 46 / / क्रमेति / इयं दमयन्ती, भूषणचुम्बनैः आभरणसम्बन्धैः, उत्तरम् उत्तरम् उपर्युपरि. परं परमित्यर्थः / 'उपर्युदीच्यश्रेष्ठेष्वप्युत्तरः स्यात्' इत्यमरः / क्रमेण पारम्पर्येण; पूर्वपूर्वभुषणापेनया उत्तरोत्तरभूषणेन इत्यर्थः / अधिकां पूर्वापेक्षयाऽतिरिक्तां, यां श्रियं शोभां, पुपोष, तया श्रिया, पुरः पुर उत्तरोत्तरं, रामणीयके कमनीयत्वे / मनोज्ञादित्वात् वुञ् प्रत्ययः / तस्थुषि स्थितिशीले सति, अवधिबुद्धिधोरणिः रामणीयकस्य इयमेव सीमा इयमेव सीमा इत्याकारिका इयत्ताधीपरम्परा, बबाधे बाधिता। पूर्व पूर्वरामणीयकस्य स्थितिजन्यतदियत्ताबुद्धिपरम्पराया उत्तरोत्तरवर्द्धितशोभया निराकृतौ सत्याम् इयत्तारहिता सा शोभासम्पत्तिरासीदिति भावः / धोरणिशब्दः, पनौ देशीये इति सम्प्रदायः॥४९॥ इस ( दमयन्ती ) ने भूषणों के ग्रहण करनेसे उत्तरोत्तर अधिक जिस शोभाको प्राप्त किया, उससे आगे-आगे रमणीयताके स्थिरतर होनेपर शोभाकी इतनी ही अवधि होती है अर्थात् अधिकसे अधिक इतनी ही शोभा हो सकती है ऐसी विचारधारा बाधित हो गयी / [ दमयन्तीके भूषण-भूषित किसी एक अङ्गको देखकर 'शोभाकी यह अन्तिम अवधि है। ऐसा विचार होता था, किन्तु उस अङ्गकी अपेक्षा दूसरे विभूषित अङ्गको देखकर पहले देखे गये अङ्गसे इस अङ्गमें अधिक शोभाको देखकर पूर्वकृत विचार बदलना पड़ता था, इसी प्रकार उत्तरोत्तर शोभाधिक्यसे विचार बदलते रहना पड़ता था। भूषणों के पहननेसे दमयन्तीके अगोंकी निरवधि शोभा हुई ] // 49 // मणीसनाभौ मुकुरस्य मण्डले बभौ निजास्यप्रतिबिम्बदर्शिनी। . विधोरदूरं स्वमुखं विधाय सा निरूपयन्तीव विशेषमेतयोः / / 50 // ' मणीति / मणीसनाभौ रत्नप्रख्ये, मुकुरस्य मण्डले दर्पणतले, निजास्यप्रतिबिम्ब दर्शिनी सा भैमी, स्वमुखं विधोः चन्द्रस्य, दर्पणरूपचन्द्रस्येत्यर्थः, दर्पणे प्रतिबिम्बितचन्द्रस्येत्यर्थो वा / अदूरं समीपगतं, विधाय सम्पाद्य , एतयोः स्वमुख-चन्द्रयोः, विशेषं तारतम्यं, निरूपयन्ती परीक्षमाणा इव, बभौ परीक्षका हि उभयमेकत्र अवस्थाप्य परीक्षन्ते इति भावः / अत्रोत्प्रेक्षा // 50 // - मणितुल्य दर्पणमें अपने मुख के प्रतिबिम्बको देखती हुई यह ( दमयन्ती ) चन्द्रमा (दर्पणरूप, या-प्रतिबिम्बरूप चन्द्रमा ) के पासमें अपने मुखको रखकर इन दोनों ( चन्द्रमा और अपने मुख ) के तारतम्यको निरूपण करतो हुईके समान शोभित हुई।
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________________ 914 नैषधमहाकाव्यम् [लोकमें भी दो पदार्थों के तारतम्य ज्ञान के लिए उन्हें समीपमें रखकर परीक्षण किया जाता जितस्तदास्येन कलानिधिर्दधे द्विचन्द्रधीसाक्षिकमायकायताम् / तथापि जिग्ये युगपत् सखीयुगप्रदर्शितादर्शबहूभविष्णुना / / 51 / / जित इति / कलानिधिः चन्द्रः / 'शिल्पे कला विधोरंशे' इत्यभिधानात् / तदा. स्येन भैभीमुखेन, जितः सन् द्वौ चन्द्रौ इति धीरेव कार्यभूता साक्षी प्रमाणं यस्याः सा तत्साक्षिका माया कारणभूता यस्य स तादृशः द्विचन्द्रधीसाक्षिकमायः कायः यस्याः तस्याः भावः तत्ता तां, दधे दधार / एकाकिना तन्मुखस्य दुर्जयत्वादेकोऽपि चन्द्रो मायया द्वावभूत् इत्यर्थः / तन्मुखन्तु स्वयमपि कपटादेव त्रित्वमापद्य पुनस्तं जिगायेत्या ह-तथापि द्विभूतोऽपि, युगपत् समकालं, सखीयुगेन सहचरीद्वयेन, प्रदर्शिताभ्याम् आदर्शाभ्यां दणाभ्यां, तद्तप्रतिबिम्बद्वयवशेन इत्यर्थः / 'दर्पणे मुकुरादर्शी' इत्यमरः / बहूभविष्णुना बहूभवित्रा, प्रतिबिम्बद्वयेन आत्मना च त्रि. स्वमापनेन तन्मुखेनेत्यर्थः 'भुवश्च' इति इष्णुच् प्रत्ययः / जिग्ये जितः / त्रिभिट्ठौं सुजयाविति भावः // 51 // - उस ( दमयन्ती ) के मुखसे जीते गये कलाओंके निधि अनेक कलाओंको धारण करने में चतुर ) अर्थात् चन्द्रमाने ( आँखको अङ्गुलिसे दबाने आदिके कारण ) दो चन्द्रमा बननेकी मायाको धारण किया (कि 'मैं दो होकर दमयन्ती के एक मुखको सरलतया जीत खू' किन्तु ) तथापि उसको एक साथ दो सखियों के द्वारा दिखलाये गये (दो) दर्पणोंमें बहुत ( तीन, अथवा-एक दमयन्तीके हस्तस्थ तथा दो सखियों के हस्तस्थ-इस प्रकार तीन दर्पणोंमें एक दूसरेमें मुखका प्रतिबिम्ब पड़नेसे पांच-छः ) होनेवाले ( दमयन्तीके मुखने ) जीत ही लिया / [ पहले दमयन्तीको एक मुखने एक चन्द्रमाको जीत लिया, अत एवं चन्द्रमाने आंख दबाने आदिसे दो चन्द्रमा बनकर उस मुखको जीतना चाहा, किन्तु दो सखियाँ दो और दर्पण लेकर दमयन्ती को दिखलाने लगीं, इस प्रकार तीनों दर्पणों में प्रतिबिम्बित दमयन्तीके मुखने बहुत रूप धारण कर दो चन्द्रमाको भी जीत ही लिया। लोकमें भी एकसे हारता हुआ व्यक्ति मायासे दो बनकर उसे जीतना चाहता है, किन्तु उसकी मायाको समझकर प्रथम विजेता अनेकरूप धारणकर उसे पराजित ही कर देता है / दमयम्तीका मुख चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर है ] // 51 // किमालियुग्मार्पितदर्पणद्वये तदास्यमेकं बहु चान्यदम्बुजम् ! हिमेषु निर्वाप्य निशासमाधिभिस्तदास्यसालोक्यमितं व्यलोक्यत ? // किमिति / आलियुग्मेन सखीद्वयेन, अर्पिते दर्पणद्वये एकम् एकत्वसङ्ख्या विशिष्टं मुख्यञ्च, तदास्यं बिम्बभूतं भैमीमुखम्, अन्यत् तन्मुखप्रतिबिम्बरूपञ्च, बहु अनेकम्, अम्बुजं पद्यम्, एकार्कप्रतिबिम्बितानेकार्कवत् ब्रह्म चैकम् अनेकाविद्याप्रतिबिम्बित
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________________ पञ्चदशः सर्गः। . 6.15 ब्रह्मवच्चेति भावः / निशासु समाधिभिः तन्मुखध्यानैः, मुकुलभावलक्षणैः उपलक्षितं सत् , हिमेषु शिशिरत ष, निर्वाप्य निर्वाणं विनाशं प्राप्य, तदास्यस्य भैमीमुखस्य, आलोकेन दर्शनेन सह वर्तते इति सालोकं तस्य भावः सालोक्यम् आलोकनीयत्वं रभ्यत्वम् इति यावत्, तदाननसालोक्यं तदाननसमानालोकत्वंसालोक्यरूपमुक्तिञ्च, इतं प्राप्तं सत्, इणः कर्तरि कः। व्यलोक्यत किम् ? दृष्टं किम् ? इत्युत्प्रेक्षा। निर्वाणकाले या देवतां ध्यायन्ति तत्सालोक्यं लभन्ते इत्यागमः / भैमीमुखस्य दर्पणस्थप्रतिबिम्बानाञ्च परस्परसान्निध्यात् दर्पणस्थप्रतिबिम्बानि किं शिशिरत षनष्टानि तन्मु. खसदृशानि तत्समीपस्थानि पद्मानि ? इति लोकैरुत्प्रेक्षितमिति भावः // 52 // दो सखियों के द्वारा दिखलाये गये दो दर्पणोंमें दमयन्तीका मुख ( बिम्बरूप मुख ) एक ( पक्षा०–मुख्य ) है तथा दूसरे ( प्रतिबिम्बरूप ) बहुत कमल हैं, जिन्हें . लोग हिम (शिशिर ऋतु, पक्षा०-केदारादि तीर्थके बर्फ) में नष्ट होकर (पक्षा०-मुक्ति पाकर ) रात्रियों में समाधियों ( मुकुलित होने, पक्षा-परमात्माका दर्शनादिके उपायों) से उस ( दमयन्ती, पक्षा०-परमात्मा ) को सालोक्य ( सौन्दर्य, पक्षा०-सालोक्य मुक्ति) को प्राप्त हुएके समान देखते हैं / [ जिस प्रकार ब्रह्म एक एवं मुख्य होता है, उसे अनेक योगी आदि लोग अपने शरीरको केदारादि शीतप्रधान तीर्थों में नष्टकर समाधिके द्वारा उस मुख्य एक ब्रह्मके साथ सालोक्य मुक्ति पा लेते हैं, उसी प्रकार दमयन्तीका मुख एक तथा मुख्य है, उसकी समानताको शिशिर ऋतु में नष्ट होकर तथा रात्रियोंमें मुकुलित होकर इन दर्पण. प्रतिबिम्बित मुखरूप इन बहुतसे कमलोंने पा लिया है; ऐसा लोग समझते हैं // दमयन्तीका मुख कमलोंसे भा अधिक सुन्दर है ] // 52 // पलाशदामेति मिलच्छिलोमुखैवृता विभूषामणिरश्मिमण्डलैः। अलक्षि लक्षैर्धनुषामसौ तदा रतीशसर्वस्वतयाऽभिरक्षिता / / 53 / / पलाशेति / पलाशदाम इयं किंशुकमाला, इति विचिन्त्येति शेषः / मिलन्तः सङ्गच्छमानाः, शिलीमुखाः अलयः, बाणाश्च येष तैः तादृशैः, इति भ्रान्तिमदलङ्कारः। विभूषामणिरश्मिमण्डलैः आभरणरस्नकान्तिपटलैः, वृता वेष्टिता, असौ भैमी, तदा प्रसाधनानन्तरसमये इत्यर्थः / रतीशस्य कामस्य, सर्वस्वतया सर्वधनत्वेन, धनुषां धनुर्धारिणाम् / कुन्ताः प्रविशन्तीतिवदिति भावः / लक्षः शतसहस्रैः, अभिरक्षिता समन्तात् रक्षितेव, इति अलक्षि उत्प्रेक्षिता। लोकैरिति शेषः। कार्मुकरूपताशर श्मिमण्डलैवेष्टितायास्तस्या धनुर्लक्षः रक्षितत्वमुत्प्रेक्षितमिति व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्यो. स्प्रेक्षा / राजधनं शस्त्रभिः अभिरक्ष्यते इति भावः // 53 // इसे ( दमयन्तीको ) पलाश-पुष्पोंकी माला समझकर आते हुए भ्रमरों (पक्षा०धनुषाकृति पलाशपुष्पों में सङ्गत होते हुए बाणों ) वाले विशिष्ट भूषणरूप मणि-किरणरूप धनुषोंसे परिवेष्टित इस ( दमयन्ती) को उस समय ( अलङ्कार धारण करनेपर ) कामदेवके सर्वस्य ( परमोत्कृष्ट सम्पत्ति ) होनेके कारण लाखों धनुर्धारी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा
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________________ 116 नैषधमहाकाव्यम् / ( लोगोंने ) लक्षित ( तर्क) किया। [ जिस प्रकार परमोत्कृष्ट राजसम्पत्तिकी रक्षा बहुत धनुर्धारी धनुषसे करते हैं, उसी प्रकार कान्तिसाम्यसे नलमित्र कामदेव दमयन्तीकी रक्षा कर रहा है, अथवा-कामदेवके परमोत्कृष्ट सम्पत्तिरूप दमयन्तीकी उसके धनुषधारी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा लोगोंने समझा ] // 53 // . विशेषतीर्थैरिव जेहनन्दना गुणैरिवाजानिकरागभूमिका / जगाम भाग्यैरिव नीतिरुज्ज्वलैविभूषणैस्तत्सुषमा महाघताम् / / 4 / / - विशेषेति / विशेषतीथैः प्रयागादिष यमुनासरस्वतीप्रमुखैः, जहनन्दना जाह्नवी इव, नन्द्यादित्वाल्ल्यु-प्रत्यये टाप् / गुणैः विद्याविनयादिभिः, अजनात् जनभिन्नात् उत्पन्नः आजानिकः सहजः, शैषिकष्ठञ्-प्रत्ययः / तादृशस्य रागस्य प्रेम्णः, भूमिः एव भूमिका इव आस्पदमिव, विनयादिभिः गुणः सहजस्नेहास्पदपुत्रादिरिव इति यावत् भाग्यैः अनुकूलदेवैः नीतिः इव, उज्ज्वलैः विभषणैः तस्या भेन्याः. सुषमा परमा शोभा, कान्तिरित्यर्थः / महार्घतां महामूल्यताम्, अत्यन्तोत्कृष्टतामित्यर्थः / जगाम तीर्थान्तरसम्मेलनेन जाह्नव्याः पावनत्वोत्कर्ष इव विनयगुणः पुत्रादौ स्नेहोत्कर्ष इव तथा देवानुकूल्येन नीतेः फलप्राप्तिः इव तस्याः सुषमायास्तु लोकोत्तरचमत्कारित्वमिति भावः // 54 // ... विशिष्ट ( 'प्रयाग' आदि ) तीर्थोंसे गङ्गाके समान, विनयादि गुणों ( या-विनयादि गुणसम्पन्न पुत्रादिकों ) से सहज स्नेहके उत्पत्तिस्थानके समान तथा भाग्यसे नीतिके समान निर्मल ( चमकीले ) विशिष्ट भूषणों से उस ( दमयन्ती ) की परमोत्कृष्ट शोभाने अत्यन्त श्रेष्ठताको पा लिया। [ अथवा-'उज्ज्वल' पदको 'विशिष्ट तीर्थ' गुण तथा भाग्यका भी विशेषण मानकर 'उत्तम विशिष्ट तीर्थोसे' इत्यादि अर्थयोजना करनी चाहिये ) / [जिस प्रकार स्वयं पवित्र गङ्गाका माहात्म्य प्रयागादि श्रेष्ठ तीर्थोके सम्बन्धसे निष्कपट पुत्रादि स्वजनों में होनेवाला सहजस्नेह उनके निष्कपट विनयादि गुणोंसे तथा स्वतः फलदायिनी नीति अनुकूल भाग्योंसे अधिक प्रशस्त हो जाती है; उसी प्रकार दमयन्तीकी सहज उत्कृष्ट. शोभा विशिष्ट भूषणों के धारण करनेसे और भी अधिक बढ़ गयी ] // 54 // ; नलात् स्ववैश्वस्त्यमनातुमानता नृपस्त्रियो भीममहोत्सवागताः / तदङ्घ्रिलाक्षामदधन्त मङ्गलं शिरःसु सिन्दूरमिव प्रियायुषे // 55 / / , - नलादिति / नलात् नलसकाशात् , स्वस्य वैश्वस्त्य वैधव्यम् / 'विश्वस्ताविधवे समे' इत्यमरः। अनाप्तुम् अप्राप्तुम, आनताः प्रणताः, अन्यथा नलः स्वभर्तृन् वरा. यमाणान् हनिष्यतीति भयात् भैमी प्रणताः इति भावः / भोमस्य महोत्सवे भमीविवाहे इति यावत् आगताः नृपस्त्रियः अन्यराजपत्न्यः, राजकान्ताः इति यावत् / . 1. 'जगुनन्दनी' इति पाठान्तरम् / ....... .
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 617 इति भावः, मङ्गलं मङ्गलकरम् , अवैधव्यसूचकमिति भावः, सिन्दूरमिव तस्याः भैम्याः, अङ्घयोः पादयोः, लाक्षां प्रणामात् संसक्तम् अलक्तकं, शिरःसु स्वस्वसीम. न्तेषु, अदधन्त अधारयन् 'दध धारणे' इति धातोः लङि तङ। स्त्रीणां ललाटे सिन्दूरधारणम् अवैधव्यसूचकम् इति भावः // 55 // नलसे अपने वैधव्यको नहीं पाने के लिए ( दमयन्तीके चरणों में ) नम्र, राजा भीमके उत्सव में आयी हुई राजपत्नियोंने (अपने) पतिके जिलाने के लिए सिन्दूर के समान दमयन्तीके चरणों के महावरको मस्तकों में धारण किया। [ राजपत्नियोंने सोचा कि यदि हमलोग दमयन्ती के विवाहमें नहीं सम्मिलित होंगी तो नल हमलोगों के पतियोंको युद्ध में मारकर हमें विधवा कर देंगे, इस भयसे उस विवाहोत्सवमें वे राजपत्नियां आयीं तथा दमयन्तीके, चरणों में प्रणाम करनेसे उनके मस्तकोंमें दमयन्तीके चरणोंका गीला महावर लग गया, वह ऐसा मालूम पड़ता था कि राजपत्नियों ने अपने-अपने पतियों के आयुष्यके लिए मङ्गलकारक लालसिन्दूर' लगा लिया हो / सधवा स्त्रियोंका मङ्गलार्थ मस्तकमें सिन्दूर धारण करना आचार है ] // 55 // .. अमोघभावेन सनाभितां गताः प्रसन्नगीर्वाणवराक्षरस्रजाम् | ततः प्रणम्याधिजगाम सा हिया गुरुगुरुब्रह्मपतिव्रताशिषः / / 56 / / अमोघेति / ततः प्रसाधनानन्तरं, हिया लजया, गुरुः भारवती, अतिलञ्जितेत्यर्थः, सा भैमी, प्रणम्य गुर्वादीन् अभिवाद्य, अमोघभावेन अवैफल्यगुणेन, प्रसन्नानां गीर्वाणानाम् इन्द्रादिदेवतानां, वराक्षरस्त्रजां वरदानरूपवाग्गुम्फानां, सनाभितां सादृश्यं, गताः प्राप्ताः, तद्वदमोघ इत्यर्थः, गुरूणां पित्रादीनां, ब्रह्मणां ब्राह्मणानां, पतिव्रतानां च आशिषः आशीर्वादान् , अधिजगाम लेभे // 56 // इस ( प्रसाधन-कार्य) के बाद लज्जासे अतिशय मारवती ( दबी हुई-सी ) उस ( दमयन्ती ) ने सफलता अर्थात सत्यताके कारण, प्रसन्न देवों (इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण) के वरों के अक्षरमालाओं के समानताको प्राप्त ( इन्द्रादि देवों के 'वरदानके समान सफल होनेवाले ), माता-पितादि गुरुजनों, ब्राह्मणों तथा पतिव्रताओं के आशीर्वादोंको प्राप्त किया / तथैव तत्कालमथानुजीविभिः प्रसाधनासञ्जनशिल्पपारगैः। निजस्य पाणिग्रहणक्षणोचिता कृता नलस्यापि विभोर्विभूषणा / / 57 / / तथैवेति / अथ अस्मिन् अवसरे इत्यर्थः, सः एव कालः यस्मिन् कर्मणि तत् तत्कालं भैमीप्रसाधनसमकालमित्यर्थः, तथैव यथा भैग्याः तथैव, प्रसाधनासञ्जनं प्रसाधनकरणं, तत् एव शिल्पं विद्याविशेषः, तस्य पारगैः पारदर्शिभिः 'अन्तात्यन्ता 1. 'हरिद्रां कुङ्कुमञ्चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा / कूर्पासकञ्च ताम्बूलं माङ्गल्याभरणं शुभम् // केशसंस्कारकबरीकरकर्णविभूषणम् / भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती दूरयेन पतिव्रता // ' इति स्कन्दवचनम् , इति नारायणभट्टः। ....
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / इत्यादिना ड-प्रत्ययः / अनुजीविभिः सेवकैः, निजस्य आत्मीयस्य, विभोः स्वामिनः, नलस्यापि पाणिग्रहणक्षणोचिता विवाहकालोचिता, विभूषणा प्रसाधना, कृता / 57 // इसके बाद उस समयमें उसीप्रकार ( दमयन्तीके स्नान एवं भूषणादि प्रसाधनके समान ही ) शृङ्गार करनेकी कलामें पारङ्गत नौकरोंने सर्वसमर्थ अपने स्वामी नलका विवाहोचित प्रसाधन ( शृङ्गार ) किया // 57 // नृपस्य तत्राधिकृताः पुनः पुनर्विचाय तान् बन्धमवापयन् कचान् / कलापलीलोपनिधिर्गरुत्त्यजः स येरपालापि कलापिसंसदः / / 58 / / नृपस्येति / तत्र प्रसाधने, अधिकृताः नियुक्ताः, तान् वक्ष्यमाणान् , नृपस्य नलस्य, कचान् केशान् , विचार्य अपराधम् अनुचिन्त्य, पुनः पुनः बन्धं संयमनवि. शेषम् , अवापयन् प्रापितवन्तः, 'अवापिपन्' इति पाठे तु-आपेणौ च द्वितीयस्य. काचो द्विर्भावः। यः कचैः केशैः, गरुतः पक्षान् , त्यजतीति गरुत्यग तस्याः शरदि मयूराणां पक्षपतनं भवतीति प्रसिद्धिः कलापिसंसदः मयूरसङ्घस्य, सः पत्न त्यागकाले कृत इत्यर्थः, कलापस्य बहभारस्य, लीला विलासः, स एव उपनिधिः न्यासः, बहमोचनकालकृतोनिक्षेप इत्यर्थः, 'पुमानुपनिधिासः' इत्यमरः,अपालापि अपलपितः, पुनः बहोदयेऽपि न प्रत्यर्पित इत्यर्थः, अतो बन्धनमुचितमिति भावः / / राजा (नल ) के केशप्रसाधनमें दत्ताधिकार लोगोंने बार-बार विचारकर ('किस केशका कितना अपराध है' यह बार-बार विचारकर, अथवा-धूपके धुंएं तथा केशोंका एक रंग होनेसे 'कौन केश है ? तथा कौन धूआं है ? यह बार-बार विचारकर, अथवा'केशों में लगाया जानेवाला कौन फूल किस स्थानपर अधिक शोभित होगा ?' यह बार-बार विचारकर ) उन केशोंको बांधा, शरदृतु में पङ्खोंको छोड़ने (गिराने ) वाले मयूर-समूहके जिन केशोंने कलाप-विलासके न्यास ( धरोहर ) को नहीं वापस किया था। [ शरदृतु, मोरोंके पंख गिरते हैं / जिन मयूर-समुदायके केशोंने नलके केश-समूहसे प्राप्त न्याय (धरोहर, थाती ) को पुनः पङ्ख होने पर भी वापस नहीं दिया, उनका अपराधानुसार बार-बार बांधना उचित ही है, क्योंकि राजाके द्वारा अधिकृत व्यक्ति न्यास वापस नहीं देनेवाले व्यक्तिको उसके अपराधका बार-बार विचारकर बांधते हैं / / नलके केश-समूह मयूरोंके कलापसे अतिशय अधिक सुन्दर थे ] // 58 // पतत्रिणां द्राघिमशालिना धनुर्गुणेन संयोगजुषां मनोभुवः। कचेन तस्यार्जितमार्जनश्रिया समेत्य सौभाग्यमलम्भिकुडमलैः / / 5 / / पतत्रिणामिति / कुडमलैः अर्द्धविकसितकुसुमैः कर्तभिः, द्राघिमशालिना दैर्यशोभिना 'प्रियस्थिर-' इत्यादिना दीर्घशब्दस्य द्राधिमादेशः। अर्जितमार्जनश्रिया सम्पादितकङ्कतिकादिसंस्कारसम्पदा, तस्य नलस्य, कचेन केशपाशेन, समेत्य 1. 'बन्धमवापिपन्' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 616 मिलित्वा, द्राधिमशालिना अर्जितमार्जनश्रिया सम्पादितसिक्थकादिघर्षणसम्पदा, धनुर्गुणेन अलिमालारूपमौा , संयोगजुषां सन्धानभाजां, मनोभुवः कुसुमेषोः, पतत्रिणां बाणानां, सौभाग्यम् इव सौभाग्यं सौन्दर्यम्, अलम्भि लब्धम् इति निदर्शनाभेदः // 59 // अतिशय लम्बाईसे शोभमान तथा ककहीसे झाड़े गये नलके केशोंके साथ संयुक्त अर्थात् केशोंमें लगाये गये ( अर्द्धविकसित कुन्दादि पुष्पोंकी) कलियोंने अतिशय लम्बाईसे शोभमान तथा मोम आदिसे घर्षित कर चिकनी की गयी ( कामदेवके ) धनुषकी (कृष्णवर्ण भ्रामररूपी) डोरीसे संयुक्त बाणोंकी शोमाको प्राप्त किया। [ यहांपर नलके केशसमूहकी भ्रमरश्रेणिरूपिणी कामदेवके धनुषकी डोरीसे, पुष्पकलियोंकी कामबाणोंसे तथा नलकी कामदेवसे समानता की गयी है ] 59 // अनर्घ्यरत्नौघमयेन मण्डितो रराज राजा मुकुटेन मूर्द्धनि / वनीयकानां स हि कल्पभूरुहस्ततो विमुञ्चन्निव मञ्जु मञ्जरीम // 60 / / अनयेति / हि यस्मात् , स राजा नलः, वनीयकानाम् अर्थिनां 'वनीयको याचनको मार्गणो याचकार्थिनी' इत्यमरः, कल्पभूरुहः कल्पवृक्षः, ततः अर्थिकल्पवृक्षत्वात् , अनर्घ्यरत्नौघमयेन अमूल्यमणिनिचयप्रचुरेण, मुकुटेन मुर्द्धनि मण्डितः अलकृतः सन् , मन्जु फलदां मनोहराञ्च, मञ्जरी सकलिकां बालशाखां, विमुञ्चन् अर्थिनां त्यजन् इव, रराज इत्युत्प्रेक्षा // 6 // ___ बहुमूल्य (दिव्य ) रत्नजटित मुकुटको मस्तक पर धारण किये हुए राजा ( नल ) याचकों के कल्पवृक्ष होनेसे उस (कल्पवृक्ष ) से मनोहर (रत्नमयी) मारियों को छोड़ते हुएके समान शोभने लगे। [ सामान्य वृक्षके पल्लव मञ्जरी आदि पार्थिव होते हैं, किन्तु कल्पवृक्ष के वे रत्नमय होते हैं, अत एव याचकों के लिए अभीष्ट दान देनेवाले नलरूप कल्पवृक्षका बहुमूल्य रत्न-समूह रचित मुकुटसे रत्नमयी मञ्जरियोंका छोड़ना उचित ही है / मस्तकपर धारण किये गये बहुमूल्य दिव्य रत्नरचित मुकुटसे ऊपरकी ओर छिटकते हुए. कान्ति-समूहसे नल शोभित हो रहे थे ] // 60 // नलस्य भाले मणिवीरपट्टिकानिभेन लग्नः परिधिविधोर्बभौ। . तदा शशाङ्काधिकरूपतां गते तदानने मौतुमशक्तिमुद्वहन् / / 61 / / नलस्येति / विधोः इन्दोः, परिधिः परिवेषः, नलस्य भाले ललाटे, मणिवीरपट्टि कानिभेन मणिमयवीरधार्यपट्टमिषेण, लग्नः सन् , तदा प्रसाधनकाले, शशाङ्कात् अधिकं रूपं स्वरूपं सौन्दयं वा यस्य तस्य भावः तत्तां, गते प्राप्ते, चन्द्रापेक्षया बृहत्परमिते अधिकसुन्दरे वा इत्यर्थः, तदानने नलमुखे, मातुम् अभिव्याप्तुम् 1. 'वनीपकानाम्' इति पाठान्तरम् / २.'-मारीः' इति पाठान्तरम् / 3. 'मातुमशक्नुवन्निव' इति पाठान्तरम् /
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________________ 120 अशक्तिम् उद्वहन् अशक्य इव, बभौ। परिवेषः चन्द्रं परिवेष्टय शोभते, किन्तु अत्रैकदेशवीत्याधाराधेययोः आनुरूप्याभावात् अधिकालङ्कारः 'आधाराधेययोरा. नुरूप्याभावादधिको मतः' इति लक्षणात्। वस्तुतोऽत्र मणिवीरपट्टिकापहवेन चन्द्रपरिधेर्नलमुखैकदेशवर्त्तित्वोत्प्रेक्षणात् सापह्नवोत्प्रेक्षालङ्कारः, तत्रोत्प्रेक्षा व्यञ्जका. प्रयोगादम्या // 6 // ___रत्नोंसे जड़े हुए वीरपट्टिकाके कपटसे नलके ललाटपर लगा हुआ चन्द्रमाका परिधि (घेरा ) उस समय (प्रसाधना-कालमें, या निकट भविष्यमें भावी प्रियासङ्गमकालमें ) चन्द्रमासे अधिक सौन्दर्य ( या-परिमाण) को प्राप्त उस (नल ) के मुखमें सर्वत्र व्याप्त होनेमें असमर्थ होते हुएके समान शोभता था। [चन्द्रमाके चारों ओर परिधि रहता है, किन्तु नलका मुख चन्द्रमासे अधिक सुन्दर (या-परिमाणमें विशाल ) था, अतः वह परिधि उस नलके सम्पूर्ण मुखको घेरने में असमर्थ होकर उसके एक भाग ( केवल ललाट ) को ही घेरकर शोभित होता था। जो परिणाममें छोटा रहता है, उसीके सम्पूर्ण भागको अलङ्कृत किया जा सकता है, अधिक परिमाणवालेके सम्पूर्ण भागको अलंकृत करना अशक्य होनेसे उसके किसी एक भागको ही अलंकृत किया जाता है। इसी कारण लघुपरिमाणवाले चन्द्र के चारों ओर परिधि रहता है और महापरिमाण नल-मुखके एक भाग ( ललाट मात्र ) में ही मणिजटित वीरपट्टिकाके व्याजसे वह परिधि रहा // नलका मुख चन्द्रमाकी अपेक्षा अधिक सुन्दर ( एवं परिमाण में अधिक ) है ] // 61 // बभूव भैम्याः खलु मानसौकसं जिघांसतो धैर्यभरं मनोभुवः / उपभ्रं तद्वत्त लचित्ररूपिणि धनुःसमीपे गुलिकेव सङ्गता / / 62 / / बभूवेति। भैम्याः मानसं स्वान्तं सरोविशेषश्च 'मानसं सरसि स्वान्ते' इति विश्वः / तत् ओकः स्थानं यस्य तं मनोनिष्टं हंसञ्च, 'हंसास्तु श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकसः' इत्यमरः, धैर्यभरं धैर्यातिशयं, धर्यधनमिति यावत जिघांसतः हन्तुमिच्छतः हन्तेः सन्नन्ताल्लटः शत्रादेशः, 'सन्योः ' इति द्विर्भावः 'अभ्यासाच' इति हस्य कुत्वम्, 'अज्झनगमां सनि' इति दीर्घः, मनोभुवः कामस्य, धनुःसमीपे गुलिका या पक्षिवेधधुटिका सा, उपभ्र भ्रूसमीपे, सामीप्यस्याव्ययीभावे नपुंसकह्रस्वत्वम्, नलस्येति शेषः, सङ्गता मिलिता, तस्य नलस्य, यत् वतलं चित्रं तिलक, तद्रपिणी इव, 'चित्रं स्यादद्भुतालेख्यतिलकेषु' इति विश्वः, बभूव खलु इत्युत्प्रेक्षा, नलः सद्यः भैमीचित्ताकर्षकं तिलकं दधार इति भावः / 'त्रिपुण्डूं सुरविप्राणां वत्तलं नृपवैश्ययोः / अर्द्धचन्द्रन्तु शूद्राणामन्येषामूर्ध्वपुण्डूकम् // ' इति स्मरणाद्वत लेत्युक्तम् // 62 // दमयन्तीके मानस ( हृदय, पक्षा०-मानसरोवर हृद) में रहने वाले ( हंसरूप) धैर्यातिशयको मारने की इच्छा करनेवाले कामदेवके धनुषके पासमें सज्जीकृत दोनों भौंहोंके १.-रूपता' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 121 पासमें उस ( नल ) के गलाकार तिलकरूपिणी गोली (पक्षीको मारने के लिए मिट्टीकी बनायी गयी छोटी-सी गोली ) के समान शोभती थी। [ नलके दोनों भौहोंके मध्य में लगाया गया गोलाकार तिलक ऐसा मालूम पड़ता था कि दमयन्तीके हृद्गत धैर्यातिशयरूप हंसको मारने के लिए इच्छुक कामदेवने धनुषपर गोली चढ़ायी हो // यहांपर दमयन्ती धैर्यातिशयको हंस, नलभ्रद्वयको कामधनुष तथा तिलकको गोलीको उत्प्रेक्षा की गयी है। दमयन्ती नल के तिलकको देखकर अपने मानसवासी धैर्याधिक्य को छोड़ अर्थात् अधीर होकर तत्काल कामवशीभूत हो जायेगी ] // 62 // अचुम्बि या चन्दनबिन्दुमण्डली नलीयवक्त्रेण सरोजतर्जिना। श्रियं श्रिता काचन तारका सखो कृता शशाङ्कस्य तयाऽङ्कवर्तिनी / / अचुम्बीति / सरोजतर्जिना पद्मधिकारिणा, नलस्य इदं नलीयम् / 'वा नामधेयस्य-' इति वृद्धसंज्ञायां वक्तव्यत्वात् 'वृद्धाच्छः' इति छ प्रत्ययः, वक्त्रं तेन नलमुखचन्द्रेण इत्यर्थः / सरोजतजिविशेषणसामर्थ्यात् वक्ष्यमाणतारायोगसामर्थ्याच या चन्दनबिन्दोःमण्डली बिम्ब, पूर्वोक्तवर्तुलतिलकमित्यर्थः / बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिषु' इत्यमरः / अचुम्बि चुम्बिता धृता, इत्यर्थः। तया चन्दनबिन्दुमण्डल्या, शशाङ्कस्य 'चन्द्रस्य, अङ्कवर्तिनी, समीपवर्तिनी, श्रियं श्रिता श्रीधारिणी सती, काचन तारका दिनकृतसमागमा काचिदश्विन्यादीनाम् अन्यतमा तारका, सखी कृता सहचरी कृता। चन्दनविन्दुतिलकेन तु नलमुखं दिवसे तारायुक्तचन्द्रवच्चकासामास इति भावः / उत्प्रेक्षा, सा च इवाद्यप्रयोगात् गम्या // 63 // - कमल को तर्जित ( गोलाकार या अधिक सुगन्धित होनेसे, अथवा-चन्द्ररूप होनेसे तिरस्कृत ) करनेवाले नलके मुखने जिस गोलाकार चन्दन-तिलकको लगाया, उसने चन्द्रमाके मध्य में ( या-समीपमें ) रहनेवाली शोभासम्पन्न किसी तारा ( अश्विनी आदि ताराओमेंसे किसी एक तारा) को सखी बना लिया अर्थात् उसके समान शोभित हुई / [ चन्दन-बिन्दु के तिलकसे नलका मुख दिनमें तारायुक्त चन्द्रमाके समान शोभित हुआ, अथवा-यदि कमलको तर्जित करनेवाले चन्द्रमाके बीचमें रोहिणी आदि कोई तारा हो तो वह चन्द्राकार नल-मुखके मध्यगत गोलाकार चन्दन-तिलककी समानता प्राप्त कर सकती है, किन्तु ऐसा सम्भव नहीं होनेसे नलका तिलकयुक्त मुख कमल तथा चन्द्रमा-दोनोंसे सुन्दर अधिक हुआ ] // 63 // न यावदग्निभ्रममेत्युदृढतां नलस्य भैमीति हरेर्दुराशया / स बिन्दुरिन्दुः प्रहितः किमस्य सा न वेति भाले पठितुं लिपीमिव / / नेति / सः पूर्वोक्तः, विन्दुर्वत्तुलचन्दनतिलकः, अग्निभ्रमं यावत् यावदग्निभ्रमं, वैवाहिकाग्निप्रदक्षिणीकरणपर्यन्तमित्यर्थः। 'पतित्वं सप्तमे पदे' इति स्मृतेः, वैवाहिका 1. 'काञ्चन' इति पाठान्तरम् /
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________________ 122 नैषधमहाकाव्यम्। ग्निसमीपे यावत् सप्तपदीगमनं न भवेत् तावत् भैमी नलस्य भार्या न भवेदिति ताहशाग्निप्रदक्षिणीकरणपर्यन्तमितिभावः / 'यावदवधारणे' इत्यव्ययीभावः / भैमी नलस्य उदूढताम् उद्वाहसंस्कृतत्वं, भार्यास्वमित्यर्थः / न एति न प्राप्नोति, इति हरेः इन्द्रस्य, दुराशया बृथाभिलाषेण हेतुना, सा भैमी, अस्य नलस्य, किं, भवेत् ? इति शेषः, न वा ? इति भाले नलस्य ललाटे, लिपी ब्रह्मकत कललाटलिखितम्, 'कृदिकारात्-' इतीकारः। पठितुं वाचयितुं, प्रहितः इन्द्रेण प्रेषितः, इन्दुः इव, आभातीति शेषः / उत्प्रेक्षा // 64 // नलके ललाटमें चन्द्ररूप वह गोलाकार चन्दनतिलक ऐसा मालूम पड़ता था कि 'जब तक दमयन्ती अग्निकी प्रदक्षिणा करके नलकी भार्या नहीं बन जाती, तब तक अर्थात् उसके पहले ही नल के ललाटमें ब्रह्माने दमयन्तीको लिखा है या नहीं इस ब्रह्मलिखित नलके ललाटरेखामें ब्रह्मलिपिको पढ़ने के लिए इन्द्रने दुरभिप्रायसे चन्द्रमाको भेजा हो / [ यद्यपि दमयन्तीका स्वयम्बर समाप्त हो गया और उसने हमलोगों को छोड़कर नलका वरण कर लिया, किन्तु 'नलके ललाट ( भाग्य ) में दमयन्तीको ब्रह्माने लिखा है या नहीं। इस बात को जबतक दमयन्ती अग्निकी प्रदक्षिणा ( सप्तपदो कर्म ) करके नलकी भार्या नहीं बन जाती, उसके पहले ही नलको भाग्य-लिपिको पढ़ने के लिए चन्द्रमाको इन्द्रने भेजा हो / उस ( इन्द्र) का दुरभिप्राय यह था कि सप्तपदो कर्म हो जाने के बाद दमयन्ती नलकी भार्या हो जायेगी, अतः उसके पहले ही चन्द्रमासे नलके भाग्यकी ब्रह्म-लिपि पढ़वाकर यदि नलके भाग्यमें दमयन्तीको ब्रह्माने नहीं लिखा होगा तो सम्भव है, अब ( स्वयम्बर समाप्त हो जानेपर ) भी प्रयत्न करनेपर हमें दमयन्ती भार्यारूपमें प्राप्त हो जाय // नलके ललाटमें गोलाकार चन्दन-तिलक पूर्णचन्द्र के समान शोभित हो रहा था [ // 64 / / कपोलपालीनितानुबिम्बयोः समागमात् कुण्डलमण्डलद्वयी / नलस्य तत्कालमवाप चित्तभूरथस्फुरञ्चक्रचतुष्कचारुताम् / / 65 / / कपोलेति / नलस्य कुण्डलमण्डलद्वयी कर्णवेष्टनभूषणयुगली, कपोलपाल्यां जनितयोः स्वच्छगण्डमण्डलसङ्क्रान्तयोः, अनुबिम्बयोः स्वप्रतिबिम्बयोः, समागमात् मेलनात् , तत्कालं तस्मिन् काले, चित्तभुवः कामस्य, रथे स्फुरतः चक्रचतुष्कस्य चारुताम् अवाप। रथस्य चतुश्चक्रत्वात् मण्डलाकारकुण्डलद्वयी स्वप्रतिबिम्बद्वयेन सह चतुष्टयत्वं प्राप्य रथचक्रचतुष्टयत्ववती इव भातीत्यर्थः / अत्र रथचक्रचारुतायाः कुण्डलेऽसम्भवात् तच्चारुतामिव चारुतामिति निदर्शनालङ्कारः // 65 // ___ नलके दोनों कुण्डलोंने ( स्वच्छ ) कपोलमण्डलमें उत्पन्न अपने प्रतिबिम्बके सम्बन्धसे उस (प्रसाधन-) समयमें कामदेवके रथके सुन्दर चार पहियोंकी शोभाको प्राप्त किया। [गोलाकर को कुण्डल तथा स्वच्छ कपोलमण्डल में पड़े हुए उनके दो प्रतिबिम्ब-इस प्रकार 1. 'जनिजानु-' इति पाठान्तरम् /
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________________ पश्चदशः सर्गः। 623 कामदेवके रथके सुन्दर चार पहियोंके समान वे नलके कुण्डल शोमने लगे ] // 65 // श्रिताऽस्य कण्ठं गुरुविप्रवन्दनाद् विनम्रमौलेश्चिबुकाप्रचुम्बिनी। अवाप मुक्तावलिरास्यचन्द्रमःस्रवत्सुधातुन्दिलबिन्दुवृन्दताम् / / 66 / / श्रितेति / गुरूणां मातापित्रादीनां, विप्राणाञ्च वन्दनात् प्रणामात् , विनम्रमौले. नम्रशिरसः, अस्य नलस्य, चिबुकं मुखाधोभागः, मुखस्य 'अधस्ताविबुकम्' इत्यमरः / तस्य अग्रं चुम्बति स्पृशति इति तच्चुम्बिनी, कण्ठं श्रिता मुक्तावलिः मौक्तिकमाला, आस्यचन्द्रमसः मुखचन्द्रात् , सवन्त्याः सुधायाः तुन्दिलानां स्थूलानां, बिन्दूनां वृन्दतां समूहत्वम् , अवाप तदिव बभौ इति भावः। अत्र गम्योत्प्रेक्षा // 66 // ___ गुरुजनों एवं ब्राह्मणोंकी वन्दनासे नम्र मस्तकवाले इस (नल ) की ठुड्ढीको स्पर्श करती हुई कण्ठमें पहनी गयी मुक्तामाला मुखरूपी चन्द्रमासे बहते हुए अमृतके बड़ी-बड़ी बूंदोंके भावको प्राप्त किया अर्थात् 'बूंदोंके समान शोभित हुई। [ मालाके मोती बड़ेबड़े, स्वच्छतम तथा गोलाकार थे॥ चन्द्रमाके दर्शनके समान प्रणाम-नम्र नलके देखनेसे गुरुजनों एवं ब्राह्मणोंको आह्लाद हुआ] // 66 // दुद्धता श्रीबलवान् बलं द्विषन् बभूव यस्याजिषु वारणेन सः / अपूपुरत् तान् कमलार्थिनो घनान समुद्रभावं स बभार तद्भुजः।।६७॥ यदिति / श्रीः सम्पत्तिः लक्ष्मीश्च 'शोभासम्पत्तिपद्माषु लक्ष्मीः श्रीरिव कथ्यते' इति विश्वः / यदुद्धता यस्मात् भुजात् समुद्गाच्च उदभूता, यद्वा यदिति भिन्न पदम् अव्ययं पञ्चम्यर्थे योज्यम् / बलं सैन्यं, द्विषन् विरुन्धन् , सः नलः, आजिषु युद्धषु, यस्य भुजस्य कत्त केन, वारणेन शत्रुनिवारणेन, बलवान् प्रबलः, बभूव, अन्यत्रसः प्रसिद्धः, बलं द्विषन् बलासुरस्य द्विट् इन्द्रः / 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्यये तस्य लादेशत्वाभावात् 'तृन्' इति प्रत्याहारात् 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधे. 'द्विषः शतुर्वा' इति वैकल्पिकषष्ठीविधानात् पक्षे कर्मणि द्वितीया। यस्य समुद्रस्य सम्बन्धिना, वारणेन ऐरावतगजेन साधनेन, आजिषु बलवान् बभूव, 'बलं सन्यं बलं स्थौल्यं बलं शक्तिर्वलोऽसुरः' इति शाश्वतः।यः भुजः घनान् सान्द्रान् , निरन्तरमागतानित्यर्थः / तान् दारिद्रयेण प्रसिद्धान् , कमलार्थिनः लक्ष्मीकामान् , याचकानित्यर्थः। अन्यत्र-यः समुद्रः, तान् कमलाथिनः, जलार्थिनः; 'कमला श्रीजलं पद्मं कमलं कमलो मृगः' इति शाश्वतः / घनान् अम्बुदान् , मेघानित्यर्थः / 'घनं सान्द्रं घनं वाचं घनो मुस्ता घनोऽम्बुदः' इति शाश्वतः / अपूपुरत् पूरयामास, घनैर्जलैश्चेति शेषः / पूरयतेलुङि 'णौ चङि' इति हस्ते 'दी? लघोः' इत्यभ्यासस्य दीर्घः। सः तद्भुजः 1. 'यतोऽजनि' इति पाठान्तरम् / 2. 'पपार यस्तान , इति पाठान्तरम् / 58 नै० उ०
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________________ 624 नैषधमहाकाव्यम् / नलबाहुः, मुद्रया अङ्गुरीयकेण सह वर्तते इति समुद्रः सागुरीयकः, सम् उनत्तीति समुद्रः सागरश्च / सा विपञ्चीत्यादिना जलधेः कारणादिकः ठ-प्रत्ययः / तस्य भावं समुद्रत्वं, बभार मुद्रिताभरणम् आमुमोचेति प्रकृतार्थः / सागरार्थस्तु ध्वनिरेव विशेषणविशेष्ययोरुभयोरपि श्लिष्टत्वादिति // 67 // उस (नल ) के बाहुने अंगूठियोंको पहना (अथवा-दण्डनीयोंको दण्ड देने तथा सज्जनोंकी रक्षासे राजधर्मके पालन करनेसे नियमके युक्तत्व ( सहितत्व ) को प्राप्त किया, अथवा-समुद्रत्वको प्राप्त किया ); जिस ( नल-बाहु, पक्षा०-समुद्र) से सम्पत्ति (या शोभा, पक्षा०-लक्ष्मी ) उत्पन्न हुई है तथा युद्धोंमें जिस ( नल-बाहु ) के निवारण (शत्रुमर्दन) करनेसे “शत्रु-सेनासे विरोध (युद्ध ) करते हुऐ वे न बलवान् हुए, (अथवा-जिसके निवारण करनेसे बलवान् होते हुए वे नल शत्रुका पराभव किये। अथवा-युद्धोंमें शत्रुसे विरोध करते ( लड़ते ) हुए वे ( नल ) जिस (बाहु) के युद्धसे बलवान् हुए / अथवा-शत्रुसे विरोध करता ( लड़ता ) हुआ वह ( अति प्रसिद्ध भी) शत्रु युद्धोंमें जिस ( नल-बाहु) के रोकने में बलवान् ( समर्थ) नहीं हुआ। अथवायुद्धोंमें शत्रुसे विरोध करता हुआ वह शत्रु जिस ( नल-बाहु ) के युद्ध में बलवान् ( समर्थ) नहीं हुआ / अथवा-गजराज वह ( सुप्रसिद्ध ) ऐरावत जिस ( नल-बाहु) के बलका द्वेष अर्थात् जिसकी सामर्थ्यके साथ स्पर्धा करता हुआ युद्धोंमें बलवान् (समर्थ) हुआ अर्थात् हीन बलवाला होकर भी 'वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः (किरात 1.8 ) अर्थात् बड़ोंके साथ विरोध करना भी अच्छा है' इस भारवि महाकविकी उक्तिके अनुसार जिस ( नलबाहु) के साथ स्पर्धा करनेसे लोकमें बलवान् कहलाया। अथवा-युद्धोंमें बलको जीतनेवाले वे (सुप्रसिद्ध ) इन्द्र भी जिस ( नल-बाहु ) के साथ युद्ध में बलवान् (समर्थ ) नहीं हुए। अथवा-( 'ब' तथा 'व' का अभेद मानकर ) युद्धोंमें बलको जीतनेवाले भी वह इन्द्र जिस (नल-बाहु ) के साथ युद्ध में बलवान् हुए अर्थात् भाग गये' | "इत्यादि अर्थोकी कल्पना करनी चाहिये ); और जिस ( नल-बाहु ) ने धनाभिलाषी बहुतसे याचकोंको ( अभिलषित धन देकर ) पूर्ण किया, (अथवा-जिस ( नल-बाहु ) ने सुन्दर बधुओंके इच्छुक बहुतोंको पूर्ण किया अर्थात् बहुतोंका सुन्दर स्त्रियों के साथ विवाह कराया। अथवा समुद्रपक्षमें - जिस ( समुद्र ) से उत्पन्न ऐरावतसे बलके शत्रु ( इन्द्र) बलवान् ( सामर्थ ) हुए, जिस (समुद्र) ने जलाभिलाषी मेघोंको पूर्ण किया ) // 67 // कृतार्थयन्नर्थिजनाननारतं बभूव तस्यामरभूरुहः करः / तदीयमले निहितं द्वितीयवद् ध्रवं दधे कङ्कणमालवालताम् / / 68 // कृतार्थयन्निति / तस्य नलस्य, करः हस्तः, अनारतम् अश्रान्तम् , अर्थिजनान् 1. अत्र 'वलनं वलस्तद्वान्' इति विग्रहो बोध्यः। 2. अन्न 'विनिवेशितं तदा' इति पाटः साधुः इति प्रकाशः।
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 625 कृतार्थयन् सार्थान् कुर्वन्, अमरभूरुहः कल्पवृक्षः, बभूव / तदीये करकल्पवृनसम्बधिनि, मूले मणिबन्धे, निहितम् अर्पितं, द्वितीयवत् सद्वितीयं, वैवाहिकसूत्रमयमागलिककङ्कणान्तरशालित्वात् द्वितीयकङ्कणसहितमित्यर्थः / कङ्कणं कनकवलयम्, आलवालतां दधे दधार, ध्रुवम् इत्युत्प्रेक्षायाम् / वृक्षमूलेऽपि आलवालद्वयं भवति, अतस्तदीयकरमूलेऽपि कङ्कणद्वयं वर्तते इति भावः // 68 // ___ याचकोंको सर्वदा कृतार्थ करता हुआ उस ( नल ) का हाथ कल्पवृक्ष बन गया और उसके मूल (जड़, पक्षा०-मणिबन्ध ) में पहना गया ( विवाह-सम्बन्धी माङ्गलिक सूत्ररूप ) दूसरे कङ्कणसे युक्त सुवर्णकङ्कण मानों आलवालभावको धारण किया अर्थात् हाथरूप कल्पवृक्षकी जड़में वे दोनों कङ्कण उस कल्पवृक्षके दो थालेके समान हुए / (पाठा०-उसके मूलमें पहना गया कङ्कण उस (प्रसाधन-) कालमें मानो आलवालभावको धारण किया ) // 6 // रराज दोमण्डनमण्डलीजुषोः स वज्रमाणिक्यसितारुणत्विषोः / मिषेण वर्षन् दशदिङमुखोन्मुखौ यशःप्रतापाववनीजयार्जितौ / / 6 / / रराजेति / सः नलः, दोमण्डने बाहुभूषणे, मण्डलीजुषोः श्रेणीभाजोः, वज्राणां हीराणां, माणिक्यानां पद्मरागाणाञ्च, यथासङ्घयं सितारुणयोः श्वेतलोहितयोः, स्विषोः कान्त्योः, मिषेण छलेन, दशदिङ्मुखोन्मुखौ दशदिगन्तव्यापिनी, अवनीजया. र्जिती भूविजयसम्पादिती, यथासङ्घयं यशःप्रतापी वर्षन् विस्तारयन, रराज / अत्र स्विषोर्मिषेणेतिच्छलादिशब्देः असत्यत्वप्रतीतिरूपापऽह्नवालङ्कारभेदः, तस्य पूर्वसूचितयथासङ्ख्यद्वयभेदेन सङ्करः; वर्षनिवेत्युत्प्रेक्षा गम्यते सा च सापहवेति सङ्करः॥ ___ बाहुभूषण ( अङ्गद आदि ) के समूहोंको प्राप्त तथा हीरा, माणिक्य रत्नोंकी (क्रमशः) श्वेत और अरुण कान्तियोंके कपटसे दशोदिशाओं में फैकनेवाले पृथ्वी की विजयसे प्राप्त हुए (क्रमशः ) यश तथा प्रतापको बरसाते हुएके समान वे ( नल ) शोमने लगे। [ हीरेसे उत्पन्न श्वेत कान्तिको यश तथा माणिक्यसे उत्पन्न अरुण काग्तिको प्रताप समझना चाहिये / हीरे और माणिक्यसे जड़े हुए अङ्गद आदि भूषणोंको बाहुओंमें धारणकर वे नल शोभित होने लगे] // 69 // घने समस्तापघनावलम्बिनां विभूषणानां मणिमण्डले नलः / स्वरूपरेखामवलोक्य निष्फलीचकार सेवाचणदर्पणार्पणम् / / 70 / / घन इति / नलः समस्तापघनावलम्बिनां सर्वावयवगतानाम् / 'अङ्गं प्रतीकोऽव. यवोऽपघनः' इत्यमरः / विभूषणानां.सम्बन्धिनि, घने सान्द्रे, मणिमण्डले रत्नसमूहे, स्वरूपरेखाम् आत्मसौन्दर्य प्रतिबिम्बमित्यर्थः / अवलोक्य, सेवया वित्ताः सेवाचणाः सेवाकुशलाः, 'तेन वित्तश्रुञ्चुपचणपो, इति चणप्प्रत्ययः / तेषां दर्पणार्पणं दर्पणसन्निधापन, निष्फलीचकार / काकतालीयन्यायतः मणिमण्डलेनैव दर्पणकार्यस्य कृतत्वादिति भावः / अत एव समाध्यलङ्कारोऽयम् , 'एकस्मिन् कारणे कार्यसाधनेऽन्यस
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________________ 126 नैषधमहाकाव्यम् / मागतिः / काकतालीयनयतः स समाधिरुदीयते // इति लक्षणात् // 70 // नलने सम्पूर्ण अङ्गों में धारण किये गये विशिष्ट ( उत्तमोत्तम ) भूषणोंसे सघन रत्नसमूहमें अपनी उत्कृष्ट शोमाको देखकर सेवकोंके लाये हुए दर्पणको ( स्वरूप दर्शनरूप कार्यके भूषण-रत्नोंसे ही पूरा हो जानेसे ) निष्फल कर दिया // 70 // .. व्यलोकि लोकेन न केवलं चलन्मुदा तदीयाभरणार्पणद्युतिः। अदर्शि विष्फारितरत्नलोचनैः परस्परेणैव विभूषणैरपि / / 71 // ___ व्यालोकीति / तदीयानां नलीयानाम् , आभरणानाम् अर्पणेन नलाङ्गे विन्यासेन, या धतिः शोभा सा, चलन्मुदा चलन्ती प्रवहन्ती, निरन्तरेत्यर्थः / मुत् हर्षो यस्य तादृशेन, लोकेन जनेन, केवलं न व्यलोकि विलोकिता, किन्तु विष्फारितानि विस्तारितानि, रत्नानि एव लोचनानि यैः तादृशैः, विभूषणरपि अचेतनैरपीति भावः। परस्परेणैव अदर्शि, किमुत चेतनलोकेनेति भावः / अर्थापत्तिरलङ्कारः, सा च रत्न. लोचनेति रूपकोत्थेति सङ्करः, तेन विभूषणानि रत्नलोचनैरन्योऽन्यं पश्यन्ति इव दृश्यन्ते इत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते // 71 // ___उस (नल ) के भूषणोंको धारण करनेसे उत्पन्न शोभाको निरन्तर हर्षित लोगों ( मनुष्यों ) ने ही नहीं देखा, (किन्तु ) विस्तारित ( बढ़ाये गये या चमकते हुए, पक्षा०अच्छी तरह खोले हुए ) रत्नरूपी नेत्रोंवाले (जड़) आभूषणोंने भी परस्परमें ही देखा / .71 // ततोऽनु वार्ष्णेयनियन्तृकं रथं युधि क्षेतारिक्षितिभृज्जयद्रथः / नृपः पृथासूनुरिवाधिरूढवान् स जन्ययात्रामुदितः किरीटवान् // 72 / / ततोऽन्विति / ततोऽनु तदनन्तरं, प्रसाधनानन्तरमित्यर्थः / युधि युद्धे, क्षता अरिनितिभृतः शत्रुभूपाः येन सः, जयन् रथः यस्य सः जयद्रथः जैत्ररथ इत्यर्थः / अन्यत्र-क्षतौ विध्वस्ती, अरिक्षितभृत् चापो जयद्रथः सिन्धुराजश्चेति तो येन सः तथोक्तः / जन्यानां वरस्निग्धानां, स्वकीयस्नेहभाजनानामित्यर्थः। यात्रया विवाहयात्रया, मुदितः हृष्टः, अन्यत्र-संग्रामयात्रया मुदितः / 'जन्यं हट्टे परोवादे संप्रामे च नपुंसकम् / जन्या मातृवयस्यायां जन्यः स्याज्जनके पुमान् // त्रिपुत्पाद्यजनित्रोश्च नवोढाज्ञातिभृत्ययोः / वरस्निग्धे-' इति मेदिनी / किरीटवान् किरीटयुक्तः, अन्यत्रकिरीटवान् किरीटी इति नाम्ना प्रसिद्धः, सः नृपः नलः, पृथासूनुः अर्जुनः इव, वार्ष्णेयः वार्ष्णेयनामा, अन्यत्र-वृष्णेः अपत्यं पुमान् वार्ष्णेयः कृष्णश्च 'इतश्चानिज' इति ढक्। नियन्ता सारथिः यत्र तं वाष्र्णेयनियन्तृकं, 'नद्यतश्च' इति कप / रथम अधिरूढवान् अध्यरोहत / श्लिष्टविशेषणेयं पूर्णोपमा // 72 // ___ इस (भूषण पहनने ) के बाद युद्ध में शत्रु राजाओंको पराजित करने ( या-मारने ) * 1. 'परस्परेणेव' इति पाठान्तरम् / 2. 'क्षितारि-' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 627 वाले, विजयशील रथवाले ( अथवा-युद्ध में शत्रुभूत राजाओं के विजयी रथको नष्ट करनेवाले, अथवा-युद्ध में शत्रुभूत रथस्य विजयी राजाओंको मारने वाले / पक्षा०-(अभिमन्युका वध करनेसे ) शत्रुभूत राजा जयद्रथको मारनेवाले ); बरातियोंकी यात्रा (विवाहमें सम्मिलित होने के लिए साथ चलना, पक्षा-युद्धयात्रा) से प्रसन्न, मुकुट पहने हुए (पक्षा०-सहज मुकुटधारी ) अर्जुनके समान वे राजा ( नल) कृष्ण भगवान् (पक्षा०-वार्ष्णेय नामक) सारथिवाले रथपर सवार हुए // 72 // विदर्भनाम्नस्त्रिदिवस्य वीक्षितुं रसोदयादप्सरसस्तमुज्ज्वलम् / गृहात् गृहादेत्य धृतप्रसाधना व्यराजयन् राजपथानथाधिकम् / / 73 // विदर्भेति / अथ विदर्भनाम्नः विदर्भदेशाख्यस्य, त्रिदिवस्य स्वर्गस्य सम्बन्धिन्यः अप्सरसः तस्कल्पाः पौराङ्गनाः, उज्ज्वलं वरवेशेन दीप्यमानं, तं नलं, वीक्षितुं रसोद. यात् रागातिरेकात् , घृतं प्रसाधनं याभिः ताः अलङ्कृताः सत्यः, गृहात् गृहात् , वीप्सायां द्विर्भावः / एत्य आगत्य राजपथान् राजमार्गान् , अधिकम् अत्यर्थ, व्यरा. जयन् अशोभयन् // 73 // इस ( नल के रथारूढ़ होने ) के बाद विदर्भ (कुण्डिनपुरी)-नामक स्वर्गकी अप्सराओं अर्थात् स्वर्गतुल्य कुण्डिनपुरकी अप्सराओं के तुल्य अङ्गनाओंने ( वरवेष धारण करनेसे अतिशय ) शोभायमान उस ( नल) को अनुरागके उत्पन्न होनेसे देखने के लिए भूषणोंको पहनकर घर-घरसे अर्थात् प्रत्येक घरसे निकलकर (पहलेसे ही शोभित ) राजमार्गीको अधिक सुशोभित किया। [ कुण्डिनपुर स्वर्ग और नगरवासिनी अङ्गनाएं देवाङ्गनारूप थीं। स्त्रियों का वरको देखने के लिए अधिक उत्कठित हो घर-घरसे बाहर निकलकर देखना लोक विदित है ] // 73 // अजानती काऽपि विलोकनोत्सुका समीरधूतार्द्धमपि स्तनांशुकम् / कुचेन तस्मै चलतेऽकरोत् पुरः पुराङ्गना मङ्गलकुम्भसम्भृतिम् / / 74 / / अथ पौराङ्गनानां तात्कालिकोः शृङ्गारचेष्टा नवभिर्वर्णयति-अजानतीत्यादि / विलोकनोत्सुका नलदर्शनासक्ता, अत एव समीरेण धूतम् अपसारितम्, अद्धं यस्य तादृशमपि अर्द्धापसृतमपि, स्तनांशुकं स्तनावरणवस्त्रम्, अजानती अविदन्ती, व्या. सङ्गात् एवेति भावः / काऽपि पुराङ्गना, कुचेन स्रस्तांशुकेन कुचकुम्भेन इति यावत् / चलते गृहात् निर्गच्छते, तस्मै नलाय, 'क्रियया यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्' इति सम्प्रदानत्वम् / पुरः अग्रे, मङ्गलकुम्भसम्भृति मङ्गलार्थ पूर्णकुम्भसम्भरणं, पूर्णकुम्भस्थापनमिति यावत; अकरोत् / प्रायेण उत्सवेषु नववस्त्रवेष्टितं पूर्णकलशमग्रे स्थाप यतीत्याचारः। शुभसूचकशकुनरूपतया मङ्गलकुम्भसम्भृतेर्यात्रायामुपयोगित्वात् तस्य च कुचतादात्म्येनारोपात् परिणामालङ्कारः, तेन च पूर्णकुम्भदर्शनस्य भाविशु. भसूचकत्वरूपवस्तुध्वनिः // 74 // (नलको ) देखने के लिए उत्कण्ठित ( अत एव ) हवासे आधा हटाये गये भी स्तना.
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________________ 128 नैषधमहाकाव्यम् / च्छादक वस्त्रको नहीं जानती हुई नगरवासिनी किसी स्त्रीने चलते ( शिविरसे बाहर निकलते ) हुए नलंके ( गमनको सफल बनानेके लिए मानों ) स्तन के द्वारा मङ्गलरूप घटको सामने रख दिया। [ यात्रामें वस्त्रसे ढके हुए घटको यात्रीके सामने रखना मङ्गलकारक होता है ऐसा लोकाचार है / नलको देखने के लिए कोई स्त्री इतनी अन्यमनस्का हो गयी कि स्तनसे उड़े हुए वस्त्रका भी ज्ञान उसे नहीं रहा। वायुने उस स्त्रीके स्तनसे वस्त्रोंको उड़ाकर हटा दिया, इससे नल के प्रस्थानको सफल बनाने के लिए स्तनरूप मङ्गलघट रखने में अचेतन वायुके भी भाग लेनेसे नलकी यात्राकी अवश्यम्भाविनी सफलता सूचित होती हैं ] // 74 / / संखी नलं दर्शयमानयाऽङ्कतो जवादुदस्तस्य करस्य कङ्कणे / विषज्य हारेस्त्रटितैरत कितैः कृतं कयाऽपि क्षणलाजमोक्षणम / / 75 / / सखीमिति / अतः कुतश्चित् श्वेतच्छन्त्रादिचिह्वात् , 'उत्सङ्गचिह्नयोरङ्कः' इत्यमरः। सखीं प्रति नलं दर्शयमान या सखी नलं पश्यति, तां सखी नलं दर्शयन्त्यर्थः। 'णिचश्च' इत्यात्मनेपदम्। ततः शानचि 'हक्रोरन्यतरस्याम्' इत्यत्र 'अभिवादिदृशोरात्मनेपदम् वा' इति वक्तव्यादणिकाः सख्याः वैकल्पिकं कर्मत्वम् / कयाऽपि पुराङ्ग. नया, जवात् वेगात् , उदस्तस्य नलं दर्शयितुम् उरिक्षप्तस्य, करस्य सम्बन्धिनि कङ्कणे विषज्य लगित्वा, अतर्कितैः अचिन्तितः, सहसैवेत्यर्थः। नलदर्शनव्यासङ्गादलक्षितरित्यर्थो वा / त्रुटितैः छिन्नैः, हारैः क्षणं लाजमोक्षणं क्षणस्य उत्सवसम्बन्धि, लाजमोक्षणं वा, कृतं, तदेव माङ्गलिकलाजावकिरणं जातमिति भावः / आवश्यकश्चायमा. चारः / यथोक्तं रघवंशेऽपि-'अवाकिरन् वयोवृद्धास्तं लाजैः पौरयोषितः' इति // 5 // सखीके लिए ( 'देखो, ये नल आ रहे है। इस प्रकार सखीसे) नलको दिखलाती हुई किसी स्त्रीने अङ्क ( नलके छत्रादि चिह्न, या-अपने आगे ) से जल्दी उठाये गये हाथके कङ्कण में अँटककर टूटे हुए तथा ( नलके देखनेकी उत्सुकताके कारण) अज्ञात हारों ( के स्वच्छ मोतियों ) से क्षणमात्र खीलोंको बिखेरा। [जल्दीसे हाथ उठाकर सखीसे नलको दिखलाते समय हाथके कङ्कणमें अँटककर टूटे हुए मोतियों के हारोंको वह नहीं देख सकी। अत एव उनसे गिरते हुए मोती क्षणमात्र ऐसे मालूम पड़े मानों वह स्त्री नलकी यात्राको शुभ बनाने के लिए धान के खीलों को गिरा रही हो / यात्राके समय महिलाओंका धानके खीलोंका गिरना लोकाचारमें यात्राका शुभसूचक माना जाता है' ] // 75 / / लसन्नखादशमुखाम्बुजस्मितप्रसूनवाणीमधुपाणिपल्लवम् / यियासतस्तस्य नृपस्य जज्ञिरे प्रशस्तवस्तूनि तदेव यौवतम् // 76 / / 1. 'सखी' इति पाठान्तरम् / 2. तदुक्तं महाकविना कालिदासेन मरुत्प्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं तमय॑मारादभिवर्तमानम् / अवाकिरन् बाललताः प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः // (रघुवंशः 2 // 10)
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________________ पश्चदशः सर्गः। 121 लसदिति / नखाः एव आदर्शाः, मुखानि एव अम्बुजानि, स्मितानि एव प्रसूनानि, वाण्यः एव मधूनि माक्षिकाणि, पाणयः एव पल्लवाः, तेषां द्वन्द्वः, ते लसन्तः यस्मिन् तत्तादृशं, तत् यौवतं युवतिसमूहः एव / 'गार्मिणं यौवतं गणे' इत्यमरः। 'भिदवादिभ्योऽण्' इति अण् / युवतिशब्दस्य गणे ग्रहण सामर्थ्यादेव 'भस्याढे तद्धिते' इति पुंवद्भावः / यियासतः अभिजिगमिषतः / यातेः सन्नन्तालटः शत्रादेशः। तस्य नृपस्य नलस्य, प्रशस्तवस्तूनि तत्कालोचितमङ्गलद्रव्याणि, जज्ञिरे जातानि जनेलिटि 'गमहन-' इत्यादिना उपधालोपः। अत्र तादृशपाणिपल्लवमुद्दिश्य प्रशस्तवस्तूनां विधेयतयाऽऽरोपणात् विधेयप्राधान्यादेव जज्ञिरे इत्यत्र बहुवचनम् / अत्रारोप्यमाणप्रशस्तवस्तूनां तादृशपाणिपल्लवतादात्म्यस्य प्रकृते गमनारम्भे उपयोगात् परिणामालङ्कारः, स च रूपकानुप्राणितः॥ 76 // शोभमान नखरूप दर्पण, मुखरूप कमल, स्मितरूप पुष्प, वचनरूप मधु ( शहद ) और हस्तरूप पल्लववाला वह युवतियोंका समूह ही (विवाह के लिए जाने के इच्छुक) उस राजा (नल ) के ( यात्राकी सफलतासूचक) माङ्गलिक पदार्थ हुआ। [नलके दर्शनाभिलाषिणी स्त्रियों के समूह के सुन्दर नख दर्पणतुल्य स्वच्छ, मुख कमलतुल्य सुगन्धादियुक्त, स्मित कुन्दादिके पुष्पतुल्य निर्मल, वचन मधुतुल्य मधुर तथा हस्त पल्लवतुल्य कोमल थे, अत एव वे ही यात्राभिलाषी नलके लिए माङ्गलिक पदार्थ हो गये। यात्राके समय उक्त दर्पणादि पदार्थोका देखना शुभसूचक माना जाता है ] // 76 // करस्थताम्बूलजिघत्सुरेकिका विलोकनैकाग्रविलोचनोत्पला ! मुखे निचिक्षेप मुखद्विराजतारुषेव लीलाकमलं विलासिनी // 77 / / करस्थेति / विलोकने नलदर्शने, एकाग्रे एकासक्ते, विलोचनोत्पले यस्याः सा तादृशी, एका एव एकिका काचित् , विलासिनी स्त्री, करस्थताम्बूलं जिघत्सुः अत्तमिच्छुः सती / अदो घसादेशात् सनन्तादुप्रत्ययः। मुखस्य द्वितीयः राजा द्विराजः। वृत्तिविषये संख्याशब्दस्यापूरणार्थत्वं त्रिभागेत्यादिवत् / तस्य भावः द्विराजता, कमले मुखसादृश्यस्य कविभिर्वर्णनीयत्वादिति भावः / तत्र रुषा रोषेण इव, लीलाकमलं मुखे निचिक्षेप विदधे / ताम्बूलचर्वणेच्छुः काचित् स्त्री अन्यमनस्कतया लीलापनं वदने अर्पितवती इति भावः / लीलाकमलस्य मुखप्रतिद्वन्द्वित्वेन एव रुषा मुखे चवंणार्थमर्पणम् इति उत्प्रेक्षालङ्कारः। एतेन विभ्रमाख्यश्चेष्टानुभाव उक्तः, 'बिभ्रमस्त्वरयाऽस्थाने भूषास्थानविपर्ययः' इति लक्षणात् // 77 // (नलको) देखनेमें एकाग्र ( तन्मय ) नेत्ररूप कमलवाली एक स्त्रीने हाथमें लिये हुए पान ( के बीड़े) को खाना चाहती हुई (पानके स्थानमें ) नीलकमलको ही मुखमें डाल दिया. वह ऐसा मालूम हुआ कि 'मुखके राजा रहनेपर यह कमल दूसरा राजा क्यों बन रहा है ? इस क्रोधसे उसने नीलकमलको मुखमें डाल लिया हो। [श्रेष्ठ मेरे मुखके साथ यह कमल स्पर्धा करता है, इस क्रोधसे उसे नष्ट करने के लिए मुख में डाल लिया हो ऐसा
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________________ 630 नैषधमहाकाव्यम् / मालूम पड़ा। नलको देखने में तन्मय होनेसे पानके स्थानमें कमलको खानेसे उस स्त्री का 'विभ्रम' नामक भाव सूचित होता है ] // 77 // कयाऽपि वीक्षाविमनस्कलोचने समाज एवोपपतेः समीयुषः / ___ घनं सविघ्नं परिरम्भसाहसैस्तदा तदालोकनमन्वभूयत / / 78 / / कयाऽपीति / कयाऽपि कान्तया, वीक्षया अनिमेषदर्शनेन, विमनस्के नलदर्शन. लालसेन विषयान्तरविमुखे, लोचने यस्य तादृशे, समाजे जनसमूहे, एव, समीयुषः समेतस्य, उपपतेः जारस्य, घनं गाढं यथा तथा, परिम्भसाहसैः आलिङ्गनरूपसाहः सकृत्यैः, तदा तत्काले, तदालोकनं नलविलोकनं, सविघ्नं यथा तथा अन्वभूयत अनु. भूतं, जारकत्त कालिङ्गनेन व्यवधानात् निरन्तरदर्शनं न जातमित्यर्थः / कामान्धाः किं न कुर्वन्तीति भावः // 7 // किसी (पुंश्चलो ) स्त्रीने ( नलको) देखने में अतिशय आसक्त नेत्रवाले जन-समूहमें ही आये हुए जारके गाढालिङ्गनरूप साहस ( अनवसर में विचारशून्य होकर किये गये मालिङ्गन ) से उस समय उस ( नल ) के दर्शनको सविघ्न अनुभव किया ( अथवा-.." जारके आलिङ्गनरूप साहससे उसके दर्शनको अत्यन्त सविघ्न अनुभव किया। अथवा-... साहससे तब-तब अर्थात कभी-कभी दर्शन किया अर्थात् निरन्तर दर्शन नहीं कर सकी)। [जारके द्वारा किये गये आलिङ्गनसे बीचमें व्यवधान होनेसे नलको निरन्तर नहीं देख सकनेके कारण उसे विघ्नयुक्त माना ] // 78 // दिदृक्षुरन्या विनिमेषवीक्षणा नृणामयोग्यां दधती तनुश्रियम् / पदाग्रमात्रेण यदस्पृशन्महीं न तावता केवलमप्सरोऽभवत् / / 76 / / दिदृतुरिति / दिदृतुः नलं द्रष्टुमिच्छुः, अत एव विनिमेषवीक्षणा अनिमेषदृष्टिः, नृणाम् अयोग्याम् अमानुषीं, तनुश्रियम् अङ्गसौन्दर्य, दधती अन्या काचित् सुन्दरो, पदाप्रमात्रेण पदाङ्गुल्यग्रेण भरं कृत्वेत्यर्थः / महीं यत् अस्पृशत् , तावता केवलं मही. तलस्पर्शेनैव, न अप्सरोऽभवत् , अन्यथा अप्सरसोऽस्याश्च को भेदः ? इति भावः / अत्र 'कृस्वस्तियोगे-' इत्यादिना अभूततद्भावार्थे अप्सरःशब्दात् वि-प्रत्ययः। प्रकृतिविकृतिस्थले क्रियया प्रकृतिसङ्ख्याग्रहणनियमात् अन्या इत्यस्यैकवचनान्त. स्वेन अभवदित्यत्राप्येकवचनम् / अत्र महीमस्पृशदित्युपमेयस्योपमानादीषदल्पत्वकथनेन भेदप्रधानसादृश्योक्तिव्यतिरेकालङ्कारभेदः, 'भेदप्रधानं साधर्म्यमुपमानोपमे. ययोः। आधिक्याल्पत्वकरणात् व्यतिरेकः स उच्यते // इति लक्षणात् // 79 // (नलको ) देखनेकी इच्छुक (अत एव ) निनिमेष ( एकटक ) नेत्रवाली, (तथा निनिमेष दृष्टि होनेसे ) मनुष्यों के अयोग्य अर्थात् दिव्य शरीरशोभाको धारण करती हुई दूसरी स्त्री ( भीड़में नलको अच्छी तरह देखने के लिए ) जो केवल चरणाग्र (पैरके चौवे या अँगूठे ) से पृथ्वीका स्पर्श किया, केवल उतनेसे ही वह अप्सरा नहीं हुई। [किसीको
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 631 भीड़में देखने के लिए एड़ी उठाकर पैरके चौवेके बलपर खड़ा होकर देखना दर्शकमात्रका स्वभाव होता है, अत एव वह भीड़में नलको अच्छी तरह देखनेके लिए एड़ी उठाकर पैरके चौवे ( या अंघठे) के सहारे भूमिपर खड़ी हुई इतनेसे ही वह अप्सरा नहीं हुई, अन्यथा निमेषरहित नेत्र तथा दिव्य शरीरशोभा होनेसे वह साक्षात् अप्सरा ही थी] // 79 // विभूषणसंसनशंसनार्पितैः करप्रहारैरपि धूननैरपि / अमान्तमन्तः प्रसभं पुरा परा सखीषु सम्मापयतीव सम्मदम् / / 80 // विभूषणेति। परा अन्याकाचित् ,अन्तःसखीषु अन्तःशरीरे, अमान्तमस्याधिक्यात् ‘उल्लसन्तं, सम्मदं हर्ष, विभूषणानां टेसनस्य स्थानभ्रंशस्य, शंसनाय यथास्थानं निवेशय इति कथमाय, अर्पितेः प्रयुक्तः, प्रसभं बलात् , करप्रहारैः पाणिघातैरपि, तथा धूननैरपि तदीयगात्रकम्पनेरपि, पुरा सम्मापयतीव सम्मापयामासेवेत्युत्प्रेक्षा। "पुरि लङ् चास्मे' इति भूते लट् / यथा तण्डुलादिसम्मापनाय प्रस्थादिकं मुष्टिभिर्वध्नन्ति धुवन्ति च तद्वदिति भावः // 8 // दूसरी ( किसी स्त्री ) ने सखियोंमें भीतर नहीं समाते (अँटते ) हुए ( नलदर्शनजन्य ) अत्यधिक हर्षको भूषणके गिरने पर किये गये करप्रहारोंमें कम्पनोंसे तथा बलात्कारसे समवाया। [ सखियां नलको देखने में इतना एकाग्रचित्त हो गयी थीं कि भूषणके स्थानच्युत होनेपर भी उन्हें अपने भूषणका गिरना मालूम नहीं पड़ा, तो दूसरी सखीने 'तुम्हारा भूषण गिर गया' ऐसा कहकर उसे सचेत किया, फिर भी उसने नहीं सुना तो हाथसे उसके शरीरपर मारकर (हल्का थपका देकर ) सचेत किया और इतना करनेपर भी उसने भूषणको नहीं सम्हाला तो उसके शरीरको कम्पित (हिला) कर उसे सचेत किया और उसने अपने भूषणको यथास्थान धारणकर सम्हाला; वह कार्य ऐसा मालूम पड़ता था कि मानों नलके देखनेसे उत्पन्न अत्यधिक हर्ष उसके शरीरमें नहीं समा रहा है और बाहर गिर रहा है, उसे दूसरी सखीने पहले कहकर बादमें हाथसे ठोंककर और इतना करनेपर भी नहीं समाया तो उसे हिलाकर बलात्कारसे उस प्रकार भीतर समवा दिया, जिस प्रकार छोटा बर्तन होनेसे उसमें नहीं समाते एवं बाहर गिरते हुए अन्न आदिको पहले कहकर बादमें हाथसे ठोंककर और तब भी नहीं समाता है तो उस बर्तनको पकड़कर हिलाकर उसी बर्तनमें अन्नादिको बलात्कारसे समवा दिया जाता है / नलको देखने में अत्यासक्त सखियों के गिरते हुए भूषणोंको किसी स्त्रीने पहले कहकर, फिर सावधान होकर नहीं सम्हालने पर हाथसे उसके शरीरपर ठोककर और इतनेपर भी नहीं सम्हालनेपर उसके शरीरको हिलाकर बलात्कारसे उसे सचेतकर उस भूषणको यथास्थान धारण करवाया ] // 80 // वतंसनीलाम्बुरुहेण किं दृशा विलोकमाने विमनीबभूवतुः ? / अपि श्रुती दर्शनसक्तचेतसां न तेन ते शुश्रुवतुमृगीदृशाम् / / 81 // . वतंसेति / दर्शनसक्तचेतसां नलविलोकनासक्तचित्तानां, मृगीदृशां स्त्रीणां, श्रुती
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________________ 632 नैषधमहाकाव्यम् कर्णी अपि, वतंसनीलाम्बुरुहेण कर्णभूषणीकृतनीलोत्पलेन, दृशा चतुषा, इति व्यस्त. रूपकं, विलोकमाने नलं पश्यन्त्यौ, अविमनसौ विमनसौ बभूवतुः मनःसम्बन्धरहिते इव किम् ? इत्युत्प्रेक्षा / 'अरुमनश्चक्षुश्वेतोरहोरजसा लोपश्च' इति चिप्रत्ययः सलो. पश्च, 'अस्य च्चौ' इतीकारः / तेन विमनीभावेन, ते श्रुती, न शुश्रवतुः विभूषणप्रेसन विलोकनासक्तचित्ताः सत्यः यथा विमनीबभवुः तथा तासां कर्णावपि कर्णावतंसनी. लोत्पलरूपशा नलं पश्यन्तौ सन्तौ विमनीबभवतुः किम् ? तत एव तासां श्रुती भूषणभ्रंशशब्दं सखीकत्त कतच्छंसनं वा न शुश्रवतुः ? इति तात्पर्यम् / अत्रोत्प्रेक्षालंकारः॥ 81 // ___ नलको देखने में संलग्न चित्तवाली मृगनयनियोंके दोनों कान कर्णभूषण बने हुए नील कमलरूपी नेत्रसे ( नलको ) देखते हुए मानो विमनस्क ( मानसिक सम्बन्धसे हीन अर्थात् नलदर्शनासक्त होनेसे सुनने में जड़ ) हो गये थे; इस कारणसे उन्होंने ( दोनों कानों ) ने मी ( पूर्व श्लोकोक्त विभूषणों के गिरना तथा उस सखीका कहना ) नहीं सुना। [ नलदर्शनैकाग्र सखियों के नेत्र जिस प्रकार विमनस्क अन्य पदार्थोंको प्रत्यक्ष करने ( देखने में असमर्थ ) हो गये, उसी प्रकार कर्णावतंसभूत कमलरूप नेत्रोंसे नल-दर्शनैकाग्र दोनों कान भी दूसरे शब्दोंको प्रत्यक्ष करने ( सुनने ) में विमनस्क ( जड़ ) हो गये ] // 81 // काश्चिन्निर्माय चक्षुःप्रसूतिचुलुकितं तास्वशन्त कान्ता मौग्ध्यादाचूडमोर्निचुलितमिव तं भूषणानां मणीनाम् / साहस्रीभिर्निमेषाकृतमतिभिरयं दृग्भिरालिङ्गितः किं ज्योतिष्टोमादियज्ञश्रुतफलजगतोसार्वभौमभ्रमेण ? / / 82 / / काश्चिदिति / तासु पौरकान्तासु मध्ये, काश्चित् का अपि, कान्ताः सुन्दर्यः, भूषणानां सम्बन्धिनां, मणीनाम् ओघैः समूहैः, आचूडम् आशिखण्डकं, शिखापर्यन्तमित्यर्थः, अभिविधावव्ययीभावः / निचुलितं छादितमिव स्थितम्, सर्वावयवेष्वेव मणिघटितभूषणसत्त्वात् मणिभिराच्छादितमिव स्थितमित्यर्थः तं नलं, चतुर्ष्यामिव प्रसृतिभ्यां निकुब्जपाणिभ्याम् 'पाणिनिकुजः प्रसतिः' इत्यमरः, चुलुकितं चुलुकेन पीतं, निर्माय विधाय, गण्डूषीकृत्येत्यर्थः, साग्रहं दृष्ट्वेति भावः, मौग्ध्यात्, मोहात् , अशङ्कत / शङ्काप्रकारमेवाह-अयं पुमान् , ज्योतिष्टोमादियज्ञैः श्रुतम् अवगतम् , ज्योतिष्टोमादियज्ञानुष्ठानजन्यप्राप्तमित्यर्थः, फलं फलभूता, जगती स्वर्गलोकः, तस्याः सार्वभौमः सर्वभूमेः ईश्वरः इन्द्रः 'सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणी' इति अण्प्रत्ययः / इति भ्रमेण अयं नल इन्द्रः, इति भ्रान्त्या, निमेषाकृतमतिभिः निमेषेऽकृतबुद्धिभिः, अनिमेषाभिरित्यर्थः साहस्रीभिः सहस्रसङ्ख्यकाभिः, 'अण च' इति मत्वर्थीयोऽग्प्रत्ययः, दृग्भिः नेत्रः, आलिङ्गितः स्पृष्टः, आश्रित इत्यर्थः, किम् ? इति आशङ्कत
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 633 इत्येकान्वयो वा, मणिभूषितम् एनं दृष्ट्वा पौरकान्ताः अस्मिन् इन्द्रभ्रान्त्या नेत्रसहस्रम् एनं नलं प्राप्तं किम् ? इति उत्प्रेक्षितवत्यः; इत्यर्थः। भ्रान्तिमत्सङ्कीर्णेयमुत्प्रेक्षा। स्रग्धरा वृत्तम् // 82 // (नलको ) देखती हुई उन ( स्त्रियों ) में से कुछ स्त्रियोंने मणिमय भूषण-समूहोंसे नख-शिख आच्छादितके समान उस नलको नेत्ररूपी पसर ( आधी अञ्जलि ) से चुल्लूमें लेकर पानकर अर्थात् अत्यन्त आदरपूर्वक देखकर मुग्धतासे ऐसी शङ्का की कि-पलक नहीं गिरेनेवाली सहस्रों आँखोंने ज्योतिष्टोम आदि यज्ञोंके वेदोंमें सुने गये फलसे प्राप्त स्वर्गके सम्राट अर्थात् इन्द्र के भ्रमसे इस नलको आलिङ्गन किया है क्या ?? [ अचेतन भी रत्नरूपी नेत्रोंसे ऐश्वर्या धक्य के कारण इन्द्र समझकर इसे हमलोगों के निर्मिमेष सहस्रों नेत्रोंसे प्राप्त किया है क्या ? ऐसी शङ्का मुग्धताके कारण कुछ स्त्रियोंने की। मणिकान्तिसे नख-शिख व्याप्त नलको मुग्धतावश इन्द्र समझकर निर्मिमेष हो देख रही थीं ] // 82 // भवन सुद्यम्नः स्त्री नरपतिरभूद् यस्य जननी तमुवेश्याः प्राणानपि विजयमानस्तनुरुचा / हरारब्धक्रोधेन्धनमदनसिंहासनमसौ अलङ्कर्मीणश्रीरुदभवदलङ्कत मधुना / / 83 / / भवन्निति / सुद्युम्नो नाम नरपतिः राजा स्त्री भवन् ईश्वरशापात् इलाख्या स्त्री सन् , यस्थ पुरूरवसः, जननी माता, अभूत् , उर्वश्याः प्राणान् प्राणभूतम्, अप्सरो. मनोहारिरूपमित्यर्थः, तमपि तस्याम् इलायां बुधात् उत्पन्नम् ऐलं पुरूरवसमपी. त्यर्थः तनुरुचा अङ्गलावण्येन विजयमानः अतिशयानः, पराभावुक इत्यर्थः, असौ नलः, हरेण आरब्धस्य आवेशितस्य, क्रोधस्य क्रोधाग्नेः, इन्धनस्य दाह्यस्य, मदनस्य अनङ्गस्य, सिंहासन हरकोपानलदग्धत्वात् शून्यं मदनस्य सिंहासनमित्यर्थः, अलङ्क. त्तम अधिष्ठातुम्, अलं कर्मणे अलङ्कर्माणः, 'कर्मक्षमोऽलङ्कमणिः' इत्यमरः। 'अष. डक्ष-' इत्यादिना खप्रत्ययः / अलङ्कर्मीणा कमक्षमा, श्रीः शोभा यस्य सः, मदनसिंहासनयोग्यः सन् इत्यर्थः, अधुना उदभवत् उत्पन्नः, ततोऽपि सुन्दर इत्यर्थः, इति आले पुरिति परेणान्वयः / अत्र सूर्यस्य नप्ता मनोः पुत्रः सुद्युम्नो नाम राजा मृगया. सक्तो हिमवत्पार्वे पार्वतीवनं प्रविष्टः ईश्वरशापात् स्त्रीत्वं प्राप्य बुधात् पुरूरवसमतिसुन्दरमिन्दुवंशप्रवर्तकं जनयामासेति पौराणिकी कथा अत्रानुसन्धेया। शिख. रिणी वृत्तम् // 83. // __(शङ्कर भगवान्के शापसे 'इला' नामकी) स्त्री बने हुए 'सुद्यम्न' नामक राजा जिस ( पुरूरवा ) की माता हुए, 'उर्वशी' के प्राणभूत (अप्सराके प्राणवत् मनोहर रूप ) उस (पुरूरवा ) की शरीर-शोभासे पराजित करते हुए यह नल शिवजीके द्वारा किये गये क्रोध ( रूपी अग्नि ) का इन्धनभूत अर्थात् क्रोधाग्निमें जले हुए (अत एव ) कामदेवके
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________________ 134 नैषधमहाकाव्यम् / ( सूने ) सिंहासनको सुशोभित करनेके लिए समर्थ इस समय उत्पन्न हुए हैं (ऐसा कहती थीं, इस पूरक क्रियापदका सम्बन्ध अग्रिम श्लोक (15 / 92) से कहना चाहिये)। [ शंकरजीकी क्रोधाग्निमें जले हुए कामदेवके सूने (रिक्त ) सिंहासनको अलंकृत करनेके लिए सर्वसुन्दर पुरूरवाका विजेता यह नल उत्पन्न हुआ है, ऐसा परस्पर में स्त्रियां कहतीं थीं] / __ पौराणिक कथा-'सत्ययुगमें सूर्यके नाती मनुपुत्र 'सुद्युम्न' (इल ) नामक राजा शिकार खेलता हुआ शङ्करजीसे रोके गये पार्वतीवनमें अकेला प्रवेश करनेपर क्रुद्ध शंकरजीके शापसे "हला' नामकी स्त्री बन गया। उसे अकेली देखकर कामातुर चन्द्रपुत्र बुधने अपने आश्रममें ले जाकर उसमें 'पुरूरवा' नामक अतिशय सुन्दर पुत्रको उत्पन्न किया' ऐसी कथा भविष्योत्तर पुराणमें आयी है // 83 // अर्थी सर्वसुपर्वणां पतिरसावेतस्य यूनः कृते पर्यत्याजि विदर्भराजसुतया युक्तं विशेषज्ञया / अस्मिन्नाम तया वृते सुमनसः सन्तोऽपि यन्निर्जरा जाता दुर्मनसो न सोदुमुचितास्तेषान्तु साऽनौचिती / / 84 / / अर्थीति / विशेषज्ञाया गुणानां तारतम्याभिज्ञया, विदर्भराजसुतया वैदा, अर्थी भैमी परिणेतुम् अर्थित्वं गतः, असौ प्रसिद्धः, सर्वसुपर्वणां पतिः देवेन्द्रः, एतस्य यूनः पूर्णतारुण्यवतः, कृते निमित्तं, नललाभार्थमित्यर्थः पर्यत्याजि नलात् हीनगुणत्वात् परित्यक्तः, इति युक्तम्, अन्यथा अज्ञत्वं स्यादिति भावः, किन्तु अस्मिन् नले, तया वैदा, वृते सति निर्जरा देवाः इन्द्रादयः, सुष्टु मन्यन्ते जानन्तीति सुमनसः सर्वज्ञाः, सुज्ञोऽजाणादिकोऽसुन्प्रत्ययः, शोभनचित्ताश्व, सन्तोपि, दुर्मनसः दूनमनसः, जाता नाम इति यत्, नामेति सम्भावनायां, तेषां देवानां, सा तु दुर्मनीभावरूपा, दुःखितमानसरूपेत्यर्थः, विधेयप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गनिर्देशः / अनौचिती अनौचित्यम्, अनुचितकार्यकारित्वमित्यर्थः, सोलुन उचिता, अस्माभिरिति शेषः। विशेषज्ञानाम् उत्कृष्टवस्तुस्वीकरणम् उचितमेव, किन्तु सुमना इति नामधारिणामपि देवतानाम् दमयन्तीकतंकनलवरणे दुर्मनस्त्वमनुचितमितिभावः / शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् // 84 // विशेषज्ञा विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) ने परम युवक इस ( नल ) के लिए याचना करते हुए सम्पूर्ण देवाधीश इन्द्र को भी छोड़ दिया, यह उचित ही किया; किन्तु उस ( दमयन्ती ) के द्वारा इस (नल ) के वरण करने पर 'सुमनस्' ( सुन्दर = अच्छे मनवाले, पक्षा०-देव ) शब्दसे प्रसिद्ध भी वे ( इन्द्रादि ) देव जो 'दुर्मनस्' ( बुरे मनवाले, पक्षादुःखित ) हो गये, यह उनका अनुचित कार्य सहन करने योग्य नहीं है ( 'ऐसा स्त्रियोंने परस्पर में कहा' इस पूरक क्रियापदका सम्बन्ध अग्रिम श्लोक ( 14 / 92 ) से करना चाहिये)। [ विशेषज्ञा दमयन्तीने देवराज इन्द्रका त्यागकर नलको वरण किया यह उचित किया,
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 635 किन्तु वे 'सुमनस्' ( देव ) होते हुए भी 'दुर्मनस्' (दुःखित ) हो गये यह उन्होंने अनुचितः एवं नहीं सहन करने योग्य काम किया ] // 84 // अस्योत्कण्ठितकण्ठलोठिवरणस्रकसाक्षिभिदिग्धवैः स्वं वक्षः स्वयमस्फुटन्न किमदः शस्त्रादपि स्फोटितम् | व्यावृत्योपैनतेन हा | शतमखेनाद्य प्रसाद्या कथं भैम्यां व्यर्थमनोरथेन च शची साचीकृताऽऽस्याम्बुजा ?||8|| अस्येति / अस्य नलस्य, उत्कण्ठिते बहुदिनात् भैमीवरमाल्यलाभार्थमुत्सुके, कण्ठे लुठतीति तादृश्याः लोठिन्याः, वरणस्रजः वरमालायाः, साक्षिभिः साक्षाद्रष्टुभिः, दिग्धवः इन्द्रादिभिः दिक्पतिभिः, स्वयं स्वतः एव, अस्फुटत् अपि लज्जाविरहा. दविदीर्णमपि, अदः स्वं वक्षः शस्त्रादपि नलस्यास्त्रप्रहारादपि, स्वयं छुरिकादिघाता. दपि वा, किं न स्फोटितम् ? भैमीलाभार्थ नलेन सह युद्धं कृत्वा तदोयास्त्रेण वा स्वयं व्यर्थमनोरथेन विफलाभिलाषेण, अत एव व्यावृत्योपनतेन प्रत्यावृत्य शचीमुपनतेन, स्वापराधमार्जनार्थ शचीसमीपे प्रणतेनेत्यर्थः / शतमखेन इन्द्रेण, साचीकृतं तिर्यक्कृतम्, आस्याम्बुजं यया सा तादृशी पराङ्मुखी, शची कथं प्रसाधा ? प्रसाद यितव्या ? न कथञ्चिदपीत्यर्थः, हा ! विषादे / शची क्रोधवशात् वक्रास्यतया सन्मुखस्थानवलोकनात् इन्द्रकतप्रणामाचल्यादिकं नावलोकयिष्यतीति कथं प्रसाद्येतिभावः इस (नल ) के ( दमयन्तीको प्राप्त करने के लिए चिरकालसे ) उत्कण्ठित कण्ठमें लटकती हुई वरणमालाको देखते हुए (इन्द्रादि दिक्पालों अथवा-पाठा०-दिगन्ततक प्रसिद्ध शूरवीरों ) ने ( निर्लज्जताके कारण) स्वयं विदीर्ण नहीं होती हुई अपनी छातीको ( अपने ही ) शस्त्र ( पाठा०-इस नलके शस्त्र) से क्यों नहीं विदीर्ण कर लिया ? / ( अथवा दिगन्ततक प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्यों या दिक्पाल अग्नि आदि तीनों देवोंकी बात छोड़ो ), सैकड़ों यज्ञोंसे ख्याति प्राप्तं एवं दमयन्तीके विषयमें .असफल मनोरथवाला इन्द्र भी ( यहांसे निराश ) लौटकर (इन्द्राणीको प्रसन्न करनेके लिये प्रणत, पाठा०-समीपमें गया हुआ) क्रोधसे मुखकमलको फेरी हुई इन्द्राणीको कैसे प्रसन्न करेगा ? हाय ! ( यह बड़े खेदका विषय है / ऐसा नलको देखनेवाली स्त्रियों ने कहा, ऐसे क्रियापूरक वाक्यका अग्रिम श्लोक (15 / 92) से अध्याहार करना चाहिये)। [जो सच्चा शूरवीर होता है, वह अपने प्रतिद्वन्द्वीसे पराजित होकर लज्जाके कारण अपनी छातीको अपने ही शस्त्रसे विदीर्णकर मर जाता है, या उस प्रतिद्वन्दीके ही शस्त्रसे छातीको विदीर्ण 1. 'दिग्भटैः' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् / 2. 'किमदःशस्त्रादपि' इति पाठान्तरम् / 3. 'गतेन' इति पाठान्तरम्।
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________________ 636 (चीर ) कर मर जाता है, किन्तु ये स्वयम्बरमें उपस्थित दिगन्ततक प्रसिद्ध शूरवीर राजा लोगों की या इन्द्रादिकी छाती निर्लज्जताके कारण स्वयं विदीर्ण नहीं हुई तो इन्हें अपने या नलके शस्त्रसे अपनी छातीको विदोर्णकर मर जाना उचित था, किन्तु ऐसा नहीं होनेसे ये सभी निर्लज्ज मालूम पड़ते है / इसके अतिरिक्त एक बड़ा खेदका विषय यह है कि दमयन्तीको नहीं पानेसे निराश होकर यहांसे स्वर्गको इन्द्र जायेगा तो इन्द्राणी क्रोधसे मुखको फेर लेगी और प्रसन्न करने के लिए प्रणत हन्द्रको नहीं देख सकेगी तो यह इन्द्र उसे किस प्रकार प्रसन्न कर सकेगा ? अर्थात् नहीं कर सकेगा, हाय ! देवाधिपति इन्द्रकी भी जब यह दशा है तो दूसरेके विषयमें कहना ही क्या है ? ] // 85 // मा जानीत विर्दभजामविदुषीं कीर्तिमुदः श्रेयसी सेयं भद्रमचीकरद् मघवता न स्वं द्वितीयां शचीम् / कः शच्या रचयाञ्चकार चरिते काव्यं स नः कथ्यता. मेतस्यास्तु करिष्यते रसधुनी रात्रे चरित्रे न कैः ? / / 86 // मेति / हे प्रियसख्यः ! विदर्भजां वैदर्भीम्, अविदुषीम् अविशेषज्ञां, मा जानीत मा मन्यध्वं, यूयमिति शेषः, देवानन्दं विहाय मानुषानन्दे प्रवृत्ता कथं विदुषी ? इति शतां निरस्यति यः मुदः आनन्दात्, कीर्तिः श्रेयसी प्रशस्यतरा ततः किं तत्र ? इति आह-सा इयं दमयन्ती, (प्रयोजिका) मघवता इन्द्रेण, (प्रयोज्येन) स्वम् आत्मानं, द्वितीयां शची न अचीकरत् न कारितवती इन्द्रं यदि वृणुयात् तदा तत्पत्नीत्वेन शचीत्वप्राप्त्या स्वयं द्वितीया शची स्यादिति न इन्द्रं वव्रे इत्यर्थः, करोतेगौँ चङ्यधाया हस्वः 'चङि' इति द्विर्भावे सन्वद्भावे 'सन्यतः' इत्यभ्यासस्य इत्वे 'दी? लघोः' इति दीर्घः / इति भद्रम्, इन्द्रस्यावरणम् एव साधु कीर्तिकरत्वादिति भावः / कथं शचीत्वमेव न साधु ? इत्याह-कः कविः, शच्याः चरिते काव्यं रचया. ञ्चकार ? सः कविः, नः अस्मभ्यं, कथ्यतां, न कोऽपीत्यर्थः, एतस्यास्तु दमयन्त्याः पुनः सम्बन्धिनी, रसधुनी रसवती तटिनी 'तटिनी हृदिनी धुनी' इत्यमरः। तस्याः पात्रे कूलद्वयमध्ये, प्रवाहस्थाने इत्यर्थः, 'पात्रन्तु भाजने योग्ये वित्ते कूलद्वयान्तरे' इति वैजयन्ती विविधसुरसाधारे इत्यर्थः / चरित्रे विषये, कैः कविभिः, न करिष्यते ? काव्यमिति शेषः / सर्वैरपि स्वत एव करिष्यते इत्यर्थः, स्वयमेव दृष्टान्तः इति कवेः तात्पर्य, तस्मात् कीर्तिकरत्वात् नलवरणमेव भद्रमिति भावः // 86 // (हे सखियां ! तुमलोग) दमयन्तीको अपण्डिता मत जानो (पण्डिता जानों, देवोंकी मार्या बननेके आनन्दका त्याग करनेपर भी उसके पण्डिता होनेमें यह कारण है कि) हर्ष ( पाठा०-स्वर्ग) से कीर्ति श्रेष्ठ है / ( अथबा पाठा०-...."दमयन्तीको 'हर्ष ( इन्द्रादिके वरणसे प्राप्य स्वर्गप्राप्तिरूप प्रसन्नता, पाठा०-स्वर्ग) से कीर्ति श्रेष्ठ है, ( इस बातको ) 1. 'कीर्ति मुदः श्रेयसीम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'दिवः' इति पाठान्तरम् /
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 637 नहीं जाननेवाली मत जानो; (क्योंकि ) सुप्रसिद्ध इस ( दमयन्ती ) ने इन्द्र के द्वारा अपनेको दूसरी इन्द्राणी नहीं बनवाया ( अर्थात् इन्द्रको यदि यह वरण करती तो वह इसे दूसरी इन्द्राणी बना लेता) यह अच्छा लिय।। (हर्षे ( पाठा०-स्वर्ग) से कीर्ति श्रेष्ठ इस कारण है कि-) इन्द्राणीके चरितके विषयमें (चरितका आश्रयकर ) किस ( कवि ) ने काव्य ( एक भी काव्य ) को रचा ? यह हमसे कहो अर्थात् किसी एक कविने भी इन्द्राणीका चरित वर्णन करने के लिए एक भी काव्य नहीं बनाया और इसके विपरीत इस ( दमयन्ती ) रस-नदी-प्रवाहरूप चरितमें अर्थात् चरितका आश्रय लेकर कौन-से कवि काव्यकी रचना नहीं करेंगे अर्थात् केवल 'श्रीहर्ष कवि ही 'नैषध' महाकाव्यको रचना नहीं करेंगे, किन्तु व्यास आदि प्राचीनतम महाकवि भी महाभारत आदि काव्योंमें इस दमयन्तीके चरितका वर्णन करेंगे ( 'ऐसा नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' ऐसे क्रियापूरक वाक्यका अग्रिम श्लोक ( 15 / 92 ) से अध्याहार करना चाहिये ) / [ दमयन्तीने सोचा कि यदि मैं इन्द्रका वरणकर दूसरी इन्द्राणी बन भी जाती हूँ तो मुझे स्वर्ग-सुखजन्य प्रसन्नता तो अवश्य मिल जायेगी, किन्तु नळके वरण करनेसे होनेवाली कीर्ति नहीं मिलेगी, अत एव स्वर्गसुखजन्य प्रसन्नताकी अपेक्षा कीर्तिको ही श्रेष्ठतर मानकर दमयन्तीने इन्द्रका त्यागकर नलका वरण किया यह बहुत पाण्डित्यपूर्ण कार्य किया है। उसका ऐसा सोचना इस कारण उचित है कि इन्द्राणी के चरितका वर्णन करनेके लिए आज तक किसी एक कवि ने भी कोई काव्य नहीं बनाया. और पुण्यश्लोक नलके वरण करनेसे इसके चरितका वर्णन न्यास आदि बहुतसे कवि महाभारतादि महाकाव्योंमें करेंगे, इस कारण इस दमयन्तीके समान दूरदर्शिनी विदुषर्षी कोई दूसरी स्त्री नहीं है // 86 // वैदभाबहुजन्मनिर्मिततपःशिल्पेन देहश्रिया नेत्राभ्यां स्वदते युवाऽयमवनीवासः प्रसूनायुधः / गीर्वाणालयसार्वभौमसुकृतप्राग्भारदुष्प्रापया योगं भीमजयाऽनुभूय भजतामद्वैतमद्य त्विषाम् / / 8 / / वैदर्भाति / अवन्यां वासः यस्य सः तादृशः, प्रसूनायुधः पुष्पेषुः, भूलोकमन्मथः इति यावत्, अयं युवा नलः, वैदाः दमयन्त्याः , बहुषु जन्मसु निर्मितेन कृतेन, तपसा तपस्यालब्धेनेत्यर्थः, शिल्पेन कलाकौशलेन, दमयन्तीतपःफललब्धकलाकौशलस्वरूपयेत्यर्थः, देहश्रिया कायकान्त्या, नेत्राभ्यां स्वदते रोचते, पश्यन्तीनामस्माकं नेत्रानन्दं करोतीत्यर्थः,'रुच्यर्थानां प्रीयमाणः' इति चतुर्थी / अत एव गीर्वाणा. लयसार्वभौमसुकृतप्राग्भारैः नाकनायकपुण्यराशिभिः अपि, दुष्प्रापया दुर्लभया, इन्द्रादिभिरपि दुरधिगम्यया इत्यर्थः, भीमजया भैग्या सह, योगं मिलनम्, अनुभूय अद्य विषां कान्तीनाम्, अद्वैतम् अद्वितीयत्वम्, असाधारण्यमित्यर्थः, भजतां गच्छतु अयं युवेति पूर्वेणान्वयः॥ 87 //
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________________ 138 नैषधमहाकाव्यम्। भूलोकवासी कामदेव यह युवक (नल ) दमयन्तीके बहुत जन्मों में की गयी तपस्याके शिल्प ( कारीगरी) रूप देहशोमासे हमारे नेत्रोंको रुचता है, वह नल देवालय ( स्वर्ग ) के चक्रवती ( इन्द्र ) के पुण्याधिक्यसे भी अप्राप्य भीमजा ( राजा भीमकी कन्या दमयन्ती, पक्षा०-भीम = शिवजीके प्रसादसे प्राप्त विद्या-विशेष ) से युक्त होकर तेजःसमूहके अद्वैत' ( अधिक कान्ति-समूह, पक्षा०-परमात्मा) को प्राप्त करे। (ऐसा 'नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' इस क्रियापूरक वाक्यका अध्याहार अग्रिम श्लोक (15 / 92 ) से करना चाहिये ) [ पहले कामदेव स्वर्गमें रहता था एवं शरीरहीन था, किन्तु वही दमयन्तीके अनेक जन्मकृत तपस्याओंसे सदेह होकर भूलोकमें वास करनेवाला यह युवा नल हो गया है, ऐसा यह नल देवलोकके चक्रवर्ती बनने के कारण अधिक पुण्यशाली इन्द्र भी जिस दमयन्तीको पूर्वकृत अपने पुण्योंसे नहीं पा सका उस दमयन्तीका योग पाकर आज सर्वाधिक कान्तिमान् होवे / देवलोकवासी तथा अशरीरी कामदेवको भूलोकवासी तथा सशरीर बनाकर युवक नलके रूपमें हमलोगों के सामने उपस्थित करनेसे दमयन्तीका पुण्याधिक्या तथा जिस पुण्यसे स्वर्गका चक्रवर्ती बननेवाला इन्द्र भी दमयन्तीको नहीं पा सका और इस नलने उसे पा लिया अतएव इन्द्रकी अपेक्षा नलका पुण्याधिक्य सूचित होता है। लोकमें भी तपोबलसे युक्त व्यक्ति स्वर्गवासी अदेहधारी देवको भूलोकवासी एवं देहधारी मनुष्य बना लेता है, ऐसा दमयन्तीने किया है / तथा अष्टाङ्ग योगको करके बहुत तपसे अप्राप्य भी विद्याको शिवजीके प्रसादसे प्राप्तकर कोई महापुण्यशाली व्यक्ति अद्वैत परमात्माको भजता है, वैसा नल भी करे / दमयन्ती तथा नल-दोनोंके ही पूर्व जन्मार्जित पुण्य अत्यधिक हैं, अतएक इनका सम्बन्ध बहुत उत्तम हुआ ] // 87 // स्त्रीपुंसव्यतिषञ्जनं जनयतः पत्युः प्रजानामभू दभ्यासः परिपाकिमः किमनयोर्दाम्पत्यसम्पत्तये ? | आसंसारपुरन्ध्रिपूरुषमिथःप्रेमाणक्रीडयाऽ. प्येतजम्पतिगाढरागरचनात् प्राकर्षि चेतोभुवः / / 88 // . स्त्रीपुंसेति / स्त्री च पुंमांश्च स्त्रीपुमांसौ 'भचतुर-' इत्यादिना निपातनात साधुः / तयोः व्यतिषानं जनयतः सङ्घटनं कुर्वतः, प्रजानां पत्युः स्रष्टः, परिपाकेण निवृत्तः परिपाकिमः परिपक्वः इत्यर्थः, 'भावप्रत्ययान्तादिमा वक्तव्यः' इति इमपप्रत्ययः / अभ्यासः पुनः पुनः स्त्रीपुंससंयोजनकरणरूपावृत्तिः, अनयोः नलदमयन्त्योः, दाम्पत्यस्य जायापतित्वस्य, सम्पत्तये सम्पादनाय, अभूत् किम् ? नो चेत् तस्य कथमी. दृगनुरूपसङ्घटकत्वमिति भावः / तथा अभ्यासं विना कथम् ईडगन्योऽन्यानुरागजननचातुरीभावः ? इति तात्पर्यम् / किञ्च, चेतोभुवः कामस्य अपि, आसंसारं संसारम् आरभ्य अभिविधावव्ययीभावः / पुरन्ध्रिपूरुषयोः स्त्रीपुंसयोः, मिथः अन्योsन्यं, प्रेम्णोऽर्पणम् अनुरागोत्पादनम् एव, क्रीडा तयाऽपि, एतजम्पत्योः एतयोर्नल.
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 136 दमयन्तीरूपयोः दम्पत्योः 'दम्पती जम्पती जायापती' इत्यमरः / जायाशब्दस्य दम्भावो जम्भावश्च निपातितः / गाढः बद्धमलः, रागःप्रेम, तस्य रचनात् सम्पादनात् प्राकर्षि प्रकृष्टया जातम् इत्यर्थः। परस्परानुरागोत्पादनक्रीडाया उत्कर्षः एतयोर्नल. भैम्योरेव विश्रान्त इति भावः कृषेर्भावे लुङ॥ 8 // __ स्त्री-पुरुषोंको विशेषरूपसे अत्यन्त (सर्वदा) मिलाते हुए प्रजापति ( ब्रह्मा ) का अभ्यास इन दोनोंको दम्पती बनानेकी श्रेष्ठता के लिए परिपक्व हो गया है क्या ? ( अथवा....... प्रजापतिका परिपक्व अभ्यास अर्थात् निरन्तर कार्य करते रहनेसे अच्छी तरह अभ्यस्त शिक्षण ) इन दोनों को दम्पती बनाने के लिए उत्कृष्ट हुआ है क्या ? / तथा कामदेवकी संसारके प्रारम्भसे स्त्री-पुरुष के लिए परस्पर प्रेमदान (अनुरागोत्पादन ) रूप क्रीडा भी इन दोनों दम्पती ( नल-दमयन्तीरूप स्त्री-पुरुष ) के परस्पर प्रेमरचनाको बढ़ा दिया है। [ क्योंकि बिना सतत अभ्यास किये ब्रह्मा इतनी सुन्दर स्त्री-पुरुषकी जोड़ी बनानेमें कदापि समर्थ नहीं होते. अतएव मालूम पड़ता है कि जिस प्रकार सतत कार्य करता हुआ व्यक्ति अभ्यासके परिपक्व होनेपर सर्वोत्तम कार्य करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार ब्रह्मा भी स्त्री-पुरुषों की जोड़ियोंको सर्वदा मिलाते रहनेसे उस कार्यमें निपुणता पाकर इन दोनोंकी प्रशस्त जोड़ी बनाने में समर्थ हुए हैं / इसी प्रकार कामदेव भी जो सृष्टिके आरम्भ कालसे स्त्री-पुरुषों में परस्परमें अनुराग पैदा करनेकी क्रीडा करता है, वही निरन्तरकृत अभ्यास इन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) के परस्पर अनुरागको बढ़ानेमें समर्थ हुआ है / इन दोनों को श्रेष्ठतम दाम्पत्य एवं परस्परानुरागका उदाहरण सृष्टिके आरम्भसे एक भी नहीं है ] // 88 // ताभिदृश्यत एष यान् पथि महाज्यैष्ठीमहे मन्महे यद्दग्भिः पुरुपोत्तमः परिचितः प्राग मञ्चमश्चन् कृतः / सा स्त्रीराट् पतथालुभिः शितिसितैः स्यादस्य हक्चामरैः सस्ने माघमघाभिघातियमुनागङ्गौघयोगे यया // 86 ताभिरिति / ताभिः स्त्रीभिः, पथि राजपथे, यान् गच्छन् , यातेलंटः शनादेशः। एष नलः, दृश्यतेः, यासां दृग्भिः नेत्रः, प्राक् पूर्वस्मिन् जन्मनि, ज्येष्ठया नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी, ज्यैष्ठी 'नक्षत्रेण युक्तः कालः' इति डोप / महती पूज्या, ज्येष्ठी ज्येष्टपौर्णमासी, तस्यां यो महः उत्सवः तस्मिन् , मञ्चं पर्यङ्कम, अञ्चन् गच्छन् मञ्चस्थ इत्यर्थः, 'मञ्चपर्यङ्कपल्यङ्काः खटवया समाः' इत्यमरः, पुरुषोत्तमः नारायणः, परिचितः दृष्टः कृतः, नेत्रैः उपासितः इत्यर्थः, ताहक सुकृतं विना कथमीहङमहाभागदर्शनं लभ्यते इति भावः यथाऽऽहुः, दोलारूढञ्च गोविन्दं मञ्चस्थं मधुसूदनम् / रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते // इति / तथा पतयालुभिः उपरिपातुकैः 'स्पृहिगृहिपति-' इत्यादिना चौरादिकात् पतेरालुचि 'अयामन्तालु-' इत्यादिना गेरयादेशः। शितिभिः श्यामवर्णैः, तथा सितैः शुभ्रश्च, अस्य नलस्य, 59 नै० उ०
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________________ नेषधमहाकाव्यम् / इग्भिः दृष्टिभिः एव, चामरैः व्यजनैः, सा स्त्रीणां राट् स्त्रीराट स्त्रीणां राज्ञी, स्त्रीषु श्रेष्ठेत्यर्थः स्यात् भवेत् , 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना विप / राजचिह्नत्वात् चामराणामिति भावः, यया स्त्रिया अघानि अभिहन्तीति अघाभिघाती पापविनाशी, ताच्छील्ये णिनिः, 'हो हन्तः-' इति कुत्वं 'हनस्तोऽचिण्णलोः' इति नकारस्य तकारः / तस्मिन् यमुनागङ्गयोः ओघयोगे प्रवाहसंयोगसमीपे, गङ्गायमुनासङ्गमे प्रयागादी इत्यर्थः, सामीप्ये अव्ययीभावः, 'तृतीयासप्तम्योर्बहलम्' इति विकल्पादम्भावाभावः / मघा भिर्नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी माघी 'नक्षत्रेण युक्तः कालः' इत्यण / सा माघी अस्मिन् इति माघः / 'साऽस्मिन् पौर्णमासीति' इति संज्ञायामण्-प्रत्ययः / तं माघ मावमासं व्याप्य, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। सस्ने स्नातम् स्नाते वे लिट् / यया प्रयागे स्नातं सैव नलेन अवलोक्यते, अन्यथा कथमीहङ्महालाभ इति भावः। अत्राप्याहुः'सितासितेषु यैः स्नातं माघमासे युधिष्ठिर ! / न तेषां पुनरावृत्तिः कल्पकोटिशतैरपि // ' इति मन्महे विवेचयामि, वाक्यद्वयार्थः कर्मपदम् // 89 // मार्गमें जाते हुए, पुरुषश्रेष्ठ तथा रथपर सवार इस नलको वे ही स्त्रियां देखती हैं, ज्येष्ठ मासकी पूर्णिमाके श्रेष्ठ उत्सव ( अथवा-श्रेष्ठ ज्येष्ठमासकी पूर्णिमाके उत्सव ) में जिनके नेत्रों ने पूर्व जन्ममें ( या-पहले ) मार्गमें जाते हुए रथारूढ विष्णु भगवान्को देखा ( या-बार-बार देखा, या पहले ( अर्थात् सर्वप्रथम देखा ) है / अथवा-मार्गमें जाते हुए इस नलको वे ही (स्त्रियां ) देखती हैं, जिनके नेत्रोंने..... ) / तथा पतनशील कृष्णमिश्रित श्वेत वर्णवाले इनकी दृष्टिरूपी चामरोंसे वही स्त्री रानी (या-वही स्त्रियों में रानी) है, जिसने पापको सर्वथा नष्ट करनेवाले यमुना तथा गङ्गाके प्रवाहके सङ्गम ( तीर्थराज प्रयागमें गङ्गा-यमुनासरस्वतीके सम्मिलन स्थान ) में माघ मास तक स्नान किया है, ऐसा हमलोग मानती हैं, ( ऐसा 'नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' इस क्रियापूरक वाक्यका अध्याहार अग्रिम श्लोक (15/92) से करना चाहिये ) / [ महाज्यैष्ठी महोत्सवमें रथपर विराजमान विष्णु भगवान्को पहले जन्ममें देखनेवाली स्त्रियां ही उस पुण्यातिशयसे मार्गमें जाते हुए इस नलको देख सकती हैं, अतः हमलोग मार्गमें जाते हुए इस नलको देख रही हैं, यह अपना बड़ा पुण्यातिशय मानना चाहिये, उड़ीसामें लोग ज्येष्ठ मासकी पूर्णिमा तिथिको इन्द्र-नीलगिरि. निवासी पुरुषोत्तम भगवान्का महोत्सव मनाते हैं, उसमें श्रीकृष्ण, बलभद्र आदि की प्रतिमा को विराजमानकर सात भूमिकावाले रथको अलग-अलग निकालते हैं, उनके दर्शन करनेसे महापुण्य प्राप्त होता है, ऐसा पौराणिक कहते हैं / तथा ये दमयन्तीको कृष्ण-श्वेत कटाक्षसे देखेंगे, अतएव वह स्त्रियोंमें रानी है तथा पूर्वजन्ममें पूरे माघमासमें तीर्थराज प्रयागके गङ्गायमुनाके प्रवाहके संगम (त्रिवेणी ) में स्नान किया है, अतएव उसे यह उत्तम वर प्राप्त हुआ है ] // 89 // वैदर्भीविपुलानुरागकलनासौभाग्यमत्राखिलक्षौणीचक्रशतक्रतौ निजगदे तवृत्तवृत्तक्रमैः /
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________________ 641 पञ्चदशः सर्गः। किश्चास्माकनरेन्द्रभूसुभगतासम्भूतये लग्नकं देवेन्द्रावरणप्रसादितशचीविश्राणिताशीर्वचः // 90 / / वैदर्भीति / अखिलक्षौणीचक्रशतक्रतो अखिलभूलोकदेवेन्द्रे, अत्र अस्मिन् नले, वैदर्भाविपुलानुरागकलना दमयन्तीगाढानुरागलाभः, सा एव सौभाग्यं वाल्लभ्यम् (कर्म) तस्याः भैम्याः, वृत्तवृत्तक्रमैः अतीतचरित्रप्रकाशैः इन्द्रप्रतिषेधादिभिः(कर्तभिः) 'वृत्तं पद्ये चरित्रे त्रिवतीते दृढनिस्तले' इत्यमरः, निजगदे गदितं, तादृगनुरागाभावे कथमिन्द्रादिप्रतिषेध इति भावः / किञ्च, देवेन्द्रस्य अवरणेन वरणाकरणेन, प्रसादितया सन्तोषितया, शच्या विश्राणितं दत्तम् , आशीर्वचः एव अस्माकमियम् आस्माकी 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' इति चकारादण 'तस्मिन्नणि च युष्माकास्माको' इति अस्माकादेशः / तस्याः नरेन्द्रभुवः राजपुत्र्याः भैम्याः, सुभगतायाः पतिवाल्लभ्यत्य, सम्भूतये लाभाय, लग्नकं प्रतिभूः 'स्युलग्नकाः प्रतिभुवः' इत्यमरः / अभूत् इति शेषः / स्त्रीणां सौभाग्यस्य शचीप्रसादलभ्यत्वादिति भावः // 10 // उस ( दमयन्ती) के भूतपूर्व चरितों ( इन्द्रादिका त्यागकर नलका वरण करना आदि ) के क्रमोंने पृथ्वीमण्डलके इन्द्र इस ( नल ) में दमयन्तीके गाढ स्नेहरूप सौभाग्यको कह दिया ( अथवा-हमलोगोंसे पढ़े गये नलके चरित-सम्बन्धी पद्य-समूहोंने दमयन्तीमें अधिक स्नेहरूप सौभाग्यको इस भूलोकके इन्द्र नलमें कह दिया। अन्यथा यह दमयन्ती स्वर्गाधीश देवेन्द्रादिका त्यागकर नलका वरण कैसे करती, इससे सूचित होता है कि नलमें ही दमयन्तीका प्रगाढ़ स्नेह है ) / और इन्द्रके वरण नहीं करनेसे प्रसन्न की गयी इन्द्राणीके दिये गये आशीर्वाद ( पाठा०-आशीर्वादरूप वेद अर्थात वेदतुल्य सत्य वचन ) 'हमलोगोंके राजा ( भीम ) की कन्या ( दमयन्ती ) के सौभाग्य की उत्पत्तिके लिए उत्तरदायी (जिम्मेदार ) हो गया। [दमयन्ती स्वयंवर में आये हुए इन्द्रको वरण कर लेती तो इन्द्राणी सपनी ( सौत ) होनेसे दुखित हाती, अतः वैसा ( इन्द्रका वरण ) नहीं करनेसे इन्द्राणीने प्रसन्न हो कर दमयन्ती के लिए जो आशीर्वाद दिया है, वही दमयन्तीके सौभाग्य-सम्पत्तिके लिए उत्तरदायी हो गया है। क्योंकि इन्द्राणीकी प्रसन्नता स्त्रियोंके सौमाग्यकी वृद्धिका कारण मानी जाती है ] // 90 // आसुत्राममपासनान्मखभुजां भैम्यैव राजबजे तादर्थ्यागमनानुरोधपरया युक्ताऽऽर्जि लज्जामृजा / आत्मानं त्रिदशप्रसाद फलितं पत्ये विधायानया हीरोषापयशःकथानवसरः सृष्टः सुराणामपि / / 91 / / आसुत्राममिति / राज्ञां भूभुजां व्रजे राजबजे स्वयंवरगतराजसमाजे, तादयेंन 1. '-ताशीःश्रुतिः' इति पाठान्तरम् / 'अयन्तु पाठः साधीयान्' इति प्रकाशः। 2. 'पत्ये नयन्त्यानया' इति पाठान्तरम् /
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________________ 642 नैषधमहाकाव्यम् / स नलः अर्थः प्रयोजनं यस्य तस्य भावः तादयं नलप्रयोजनकरवं, तेन हेतुना यत् आगमनं स्वयंवरप्रवेशनं, तस्य अनुरोधः अनुवर्तनमेव, परं प्रधानं यस्याः तया नलैकपरया, भैम्या आसुत्रामम् इन्द्रपर्यन्तम् , अभिविधावव्ययीभावः / 'अनश्च' इति समासान्तष्टच / 'सुत्रामा गोत्रभिद् वज्री' इतीन्द्रपर्याये अमरः, मखभुजां देवा. नाम् , अपासनात् प्रत्याख्यानात् हेतोः, लज्जायाः मृजा प्रमार्जनं, युक्ता योग्या एव आणि अर्जिता, 'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्' इति न्यायादिति भावः / अनया भैम्या, त्रिदशप्रसादेन देवानुग्रहेण, फलितं सफलम् , आत्मानं पत्ये वराय नलाय, विधाय दत्त्वा, सुराणां होरोषापयशसां प्रत्याख्यानजनितलज्जाक्रोध. दुष्कीर्तिप्रसक्तानां, कथानाम् अनवसरोऽपि सृष्टः अनवकाशः कृतः, तदनुज्ञयैव प्रकृते वरणम् इति अत्र कश्चिदपयशकथानवकाश इति भावः // 91 // राजसमूहमें उस ( नल) के लिए ( स्वयंवर में ) आनेके अनुरोधकी प्रधानतावाली त्याग करनेसे जो लज्जाका मार्जन किया वह उचित ही किया ( अथवा-उस दमयन्ती) के लिए ( राजाओंके ) आनेके अनुरोध ( अनुकूलता ) में तत्पर दमयन्तीने ही इन्द्र पर्यन्त देवोंका त्यागकर राज-समूहमें अर्थात् राजाओं के विषयमें लज्जाका जो मार्जन ( राजाओंकी वरण करनेका अपना मुख्य लक्ष्य बनाकर स्वयंवर सभामें आयी था, अतः लज्जाको छोड़कर उसने इन्द्रतक देवोंका त्याग कर अभीष्ट वरको प्राप्त किया, अन्यथा यदि वह लज्जा नहीं करती अर्थात् नलको छोड़कर इन्द्रादि देवों या राजाओंमें-से किसीका वरण कर लेती तो अपने अभीष्ट नलको नहीं पाती, अतः 'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्' अर्थात् 'आहार तथा व्यवहार में लज्जाको छोड़नेवाला व्यक्ति सुखी होता है' नीतिके अनुसार दमयन्तीने ही लज्जाका त्यागकर उचित कार्य किया, अन्य कोई स्त्री ऐसा स्वयंवर में आये थे, अतः दमयन्तीने उन राजाओंका ही नहीं अपितु इन्द्रपर्यन्त देवोंतकका त्यागकर राजाओंकी लज्जाको जो बचा लिया वह उचित ही किया। राजालोग दमयन्तीके उद्देश्यसे स्वयंवर में आये थे, अतः दमयन्तीने उनकी लज्जा बचाकर उचित कार्य किया, अन्यथा वे बहुत लज्जित होते कि हमें दमयन्तीने वरण नहीं किया। अब जब कि दमतन्तीने इन्द्रतकका त्यागकर नलका वरण किया तो 'जब इन्द्रपर्यन्त्र देवोंको दमयन्तीने छोड़कर नलका वरण कर लिया तो इन्द्रादि देवों के सामने मेरी क्या गणना है ?' इस विचारसे राजालोग अब लज्जित नहीं होंगे, अत एव दमयन्तीने ही यह उचित कार्य किया दूसरी वधू ऐसा नहीं कर सकती थी। इस प्रकार राज-समूहकी लज्जाका निवारण करने पर भी इन्द्रादि देवोंका त्यागकर मनुष्य नलका वरण करनेसे उन्हें (इन्द्रादि देवोंको ) लज्जा हो सकती है, किन्तु दमयन्तीने उनको भी लज्जाका मार्जन (निवारण) किया इस
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________________ पञ्चदशः सर्गः। 643 चातको श्लोकके उत्तरार्द्धसे कहते हैं-[ पति (नल ) के लिए अपनेको (इन्द्रादि चार) देवोंकी प्रसन्नताका फल बनाकर अर्थात् देवताओंको प्रसन्नकर नलको पति बनाकर देवोंके लज्जा, क्रोध तथा अपकीर्ति ( बदनामी-अयश ) होनेकी बातका ( दमयन्तीने ) अवसर ही नहीं दिया / ( 'ऐसा नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' इस क्रियापूरक वाक्यका अध्याहार अग्रिम श्लोक (15.92 ) से करना चाहिये)। [ यदि दमयन्ती इन्द्रादि चारों देवोंके बिना प्रसन्न किये ही नलका वरण कर लेती तो उन्हें 'इस दमयन्तीने हम लोगों ( देवों) को छोड़कर नलका वरण किया' इस विचार के अन्यान्य देवों तथा अपनी अपनी पत्नियों के प्रति लज्जा होती, हम लोगोंको स्वयमेव उपस्थित रहने पर भी मनुष्य नलका वरण कर हम लोगोंका त्याग किया' इस विचारसे उन्हें ( इन्द्रादि चारों देवोंको ) क्रोध आता और 'हमलोगोंका त्यागकर मनुष्य नलका वरणकर हमलोगोंको अपमानित किया' इस विचारसे वे अपना अपयश मानतेः किन्तु दमयन्तीने पहले उन्हें स्तुतिद्वारा प्रसन्नकर उनके आदेशसे ही नलको पति बनाया, अत एव अब लोग ऐसा समझेगें कि ये इन्द्रादि देव दमयन्तीके लिए नलको पतिरूपमें देनेके लिए ही स्वयंवर में पधारे थे, दमयन्तीको पाने के लिए नहीं, इससे उन्हें लज्जित, क्रोधित तथा अपयशसे युक्त (बदनाम ) होनेका अवसर ही नहीं रहा / इस प्रकार सब कार्य इन दोनों के लिए मङ्गलप्रद हो रहे हैं ] // 91 // इत्यालेपुरनुप्रतीकनिलयालङ्कारसारश्रियाऽलङ्कर्वत्तनुरामणीयकममूरालोक्य पौरस्त्रियः / सानन्दं कुरुविन्दसुन्दरकरस्यानन्दनं स्यन्दनं तस्याध्यास्य यतः शतक्रतुइरित्क्रीडाद्रिमिन्दोरिव / / 92 / / इतीति / कुरुविन्दः पद्मरागः 'कुरुविन्दस्तु मुस्तायां कुल्माषत्रीहिभेदयोः / हिङ्गुले पद्मरागेऽपि मुकुलेऽपि समीरितः॥ इति विश्वः / तद्वत सुन्दरी करौ हस्ती यस्य तस्य; अन्यत्र सुन्दराः कराः अंशवः यस्य तस्य, आनन्दयतीति आनन्दनम् आनन्दकरम्, नन्द्यादित्वाल्ल्युः / स्यन्दनं रथम्, अध्यास्य अधिष्ठाय, यतः गच्छतः, इणो लटः शत्रादेशः / तस्य नलस्य, शतक्रतुहरितः प्राच्या दिशः, क्रीडादि क्रीडापर्वतम्, उदयाद्रिमिति यावत् , अध्यास्य यतः गच्छतः, इन्दोः इव अनुप्रतीकनिलयानां प्रत्यवयवसंश्रयाणाम्, अलङ्कारसाराणाम् उत्कृष्टाभरणानां, श्रिया शोभया साधनेन, अलङ्कुर्वत्या आत्मानं प्रसाधयन्त्याः , तनोः मूर्तः, रामणीयकं रमणीयत्वम् / 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुञ्' इति वुजप्रत्ययः, आलोक्य अमूः पौरस्त्रियः इति पूर्वोक्त. रीत्या, सानन्दं यथा तथा आलेपुः आलपन् / आलपेर्लिट् , अत एव एत्वाभ्यासलोपो॥ पद्मराग मणिके समान अरुणवर्ण ( लाल ) हाथ वाले तथा आनन्दकारक रथपर चढ़कर जाते हुए ( पक्षा०-पद्मराग मणिके समान अरुण वर्ण किरणोंवाले तथा नन्दनवन तक 1 पौरप्रियाः, इति प्रकाशसम्मतं पाठान्तरम् /
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________________ 644 नैषधमहाकाव्यम् / ( व्याप्त होकर ) पूर्व दिशाके क्रीडापर्वत अर्थात् उदयाचल पर चढ़कर जाते ( उदय होते हुए ) चन्द्रमाके समान उस (नल) की प्रत्यङ्गमें धारण किये अलङ्कारोंकी सारभूता ( अतिशय श्रेष्ठ ) शोभासे अभिमान करते हुए ) अथवा-अपनी-अपनी शोभाको अहमहमिकापूर्वक श्रेष्ठ बताते हुए शरीरकी शोभाको देखकर सानन्द नागरिक स्त्रियों ( पाठा०नागरिकोंकी प्रियाओं ) ने इस प्रकार ( 15583-91 ) कहा / [ 'करसौन्दयसे मेरा सौन्दर्य श्रेष्ठतर है' ऐसा बाहुके, 'बाहुसौन्दर्यसे मेरा सौन्दर्य श्रेष्ठतर है' ऐसा करके, इसी प्रकार नल के प्रत्येक अङ्ग अपनी शोभाको परस्परमें श्रेष्ठ बतला रहे थे, अथवा-'मद्भिन्न सब अङ्गोंसे मेरी शोभा श्रेष्ठतम है' ऐसा नलके प्रत्येक अङ्ग अपनी-अपनी शोभाको दूसरे सभी अङ्गोंसे श्रेष्ठतम बतला रहे थे अर्थात् नलके प्रत्येक अङ्गकी शोभा दूसरे अङ्गोंसे बढ़ी-चढ़ी थी, उसे देखकर आनन्दित स्त्रियोंने परस्पर में उक्त बातें ( 15 / 83-91) कहीं ] // 92 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातः पञ्चदशः कृशेतररसस्वादाविहायं महा काव्ये तस्य हि वैरसेनिचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 93 / / श्रीहर्षमिति / कृशेतरेण अकृशेन, निर्भरेण इत्यर्थः, रसेन शृङ्गारेण, स्वादौ रुचिरे इह स्वस्य कृतौ काव्ये, पञ्चदशानां पूरणः पञ्चदशः 'तस्य पूरणे डट' इति डट अयं सो यातः गतः, समाप्तः इति यावत् // 93 // इति 'मल्लिनाथ' विरचिते 'जीवातु' समाख्याने पञ्चदशः सर्गः समाप्तः // 15 // __कवीश्वर-समूहके "किया, उसके रचित अत्यधिक रससे स्वादिष्ट ( अमृतमय ) नलीयचरित अर्थात् 'नैषधचरित' नामक ..."यह पञ्चदश सर्ग समाप्त हुआ / ( शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान जाननी चाहिये ) // 93 // यह 'मणिप्रभा' टोका में 'नैषधचरित' का पञ्चदश सर्ग समाप्त हुआ // 15 // - * षोडशः सर्गः। वृतः प्रतस्थे स रथैरथो रथी गृहान् विदर्भाधिपतेर्धराधिपः / पुरोधसं गौतममात्मवित्तमं द्विधा पुरस्कृत्य गृहीतमङ्गलः / / 1 / / वृत इति / अथो प्रसाधनानन्तरं, गृहीतमङ्गलः स्वीकृतमङ्गलाचारः, रथः अस्य अस्तीति रथी रथिकः, स धराधिपः नलः, आत्मवित्तमम् आत्मतत्त्वज्ञानिनां श्रेष्ठं, गौतमं गौतमाख्यम् ऋषि, पुरोधसं पुरोहितं, द्विधा प्रकारद्वयेन, पुरस्कृत्य पूजयित्वा अग्रे कृत्वा च 'पुरस्कृतः पूजितेऽरात्यभियुक्तेऽग्रतः कृते' इत्यमरः। रथैः रथिभिः पुरुषः, 'कुन्ताः प्रविशन्ति' इतिवत् स्थशब्दस्य रथिषु लक्षणा / वृतः वेष्टितः सन् , विदर्भा
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________________ षोडशः सर्गः। धिपतेः भीमस्य, गृहान् प्रति प्रतस्थे प्रस्थितः / 'समवप्रविभ्यः स्थः' इत्यात्मनेपदम् / वंशस्थविलं वृत्तम् // 1 // इस ( प्रसाधन कार्य, या-रथारोहणकार्य) के अनन्तर मङ्गलाचार (दही-अक्षतदूर्वादि मङ्गल द्रव्यों के यथाशास्त्र दर्शन, स्पर्शन तथा भक्षणादि द्वारा ) को ग्रहण किये हुए, रथवाले ( रथ पर सवार ), वे राज (नल ) आत्मज्ञानियों में अतिशय श्रेष्ठ गौतम' नामक पुरोहितको दो प्रकारसे पुरस्कृतकर ( पूजा करने तथा सबसे आगे गमन करानेसे सत्कृतकर) रथवालों अर्थात् रथपर चढ़े हुए पार्श्वचरोंसे परिवेष्टित होकर विदर्भराज ( भोज ) के महलोंको चले // 1 // स्वभूषणांशुप्रतिबिम्बितैः स्फुटं भृशावदातैः स्वनिवासिभिर्गुणैः। . मृगेक्षणानां समुपासि चामरैर्विधूयमानैः स विधुप्रभैः प्रभुः / / 2 // स्वेति / सः प्रभुः नलः, स्वभूषणानाम् अंशुषु प्रभासु, प्रभाशालिमणिषु इति यावत्, प्रतिबिम्बितेः प्रतिफलितैः, विधूयमानैः कम्प्यमानैः, विधोः चन्द्रस्य, प्रभा इव प्रभा येषां तैः, अत्र निदर्शनाविशेषः, मृगेक्षणानां हरिणलोचनानां, चामरग्राहिणीनां सम्बन्धिभिरिति भावः चामरैः चामरव्यजनेनेत्यर्थः, भृशावदातः अतिशुभ्रः, स्वनिवासिभिः स्वनिष्ठः, अत एव स्वभुषणांशुप्रतिबिम्बितः, गुणः नलस्य श्रुतशी. लादिगुणैः एव, समुपासि उपासितः, स्फुटम् / प्रतिबिम्बितचामरेषु स्वामिसेवार्थम् आविर्भूतस्वीयशीलसौन्दर्यादिगुणत्वस्योत्प्रेक्षालङ्कारः॥२॥ उस राजा (नल ) की अपने (पाठा०-विशिष्ट ) भूषणोंकी किरणों में प्रतिबिम्बित, डोलाये जाते हुए, चन्द्रप्रभातुल्य प्रभावाले और अतिशय श्वेतवर्णवाले ( चामरधारिणी) मृगनयनियोंके चामरोंने उपासना ( सेवा ) की, अर्थात् चामरधारिणी मृगनयनी स्त्रियोंने जो चामर डोलाया, वह ऐसा मालूम पड़ता था कि नलमें वास करने ( सर्वदा रहने ) वाले अतिशय निर्मल ( दया, दाक्षिण्य, शूरता आदि ) गुण उनकी सेवा कर रहे हों। [ उक्तरूप चञ्चल चामर ऐसे जान पड़ते थे कि उस नलमें जो दया-दाक्षिण्यादि अतिशय निर्मल गुण हैं, वे ही चामररूप में साकार होकर नलकी उपासना कर रहे हैं। लोकमें भी जो जिस स्वामीके यहां सर्वदा निवास करता है, वह उत्सवादिके अवसरोंपर बड़ी लगनके साथ उसकी सेवा करनेमें लग जाता है, अतएव नलमें नित्य रहनेवाले गुणोंका भी अपने स्वामी नलकी सेवामें लगना उचित ही है ] // 2 // ' दधे सुनासीरपदाभिधेयतां स रूढिमात्रात् यदि वृत्रशात्रवः / / 3 // पराद्धर्येति / निषधावनीभृति नले, पराद्धर्यानि श्रेष्ठानि / 'परावराधमोत्तमपूर्वाञ्च' इति यत्प्रत्ययः / वेशाः आकल्पाः,वस्त्राभरणादिशोभाः इति यावत् 'आकल्प १.'-वेषा-' इति पाठान्तरम् / 2. 'समं जिहाने' इति पाठान्तरम् /
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________________ 646 नैषधमहाकाव्यम् / वेशी नेपथ्यम्' इत्यमरः / ते च आभरणानि च कटकमुकुटादोनि च येषां तैः, पुरःसरैः सुनासीरैः, अग्रगामिभिः वरपक्षीयैः लोकैरिति यावत् , सह आजिहाने गच्छति सति, स प्रसिद्धः, वृनशात्रवः इन्द्रः, रूढिमात्रात् अश्वकर्णादिवत समुदायशक्त्या अर्थप्रतीतिमात्रात् ,सु शोभनाः, 'सु पूजायाञ्च सुरे' इति स्वामी / नासीरा अग्रेसराः यस्य सः सुनासीरः इन्द्रः, इति पदस्य शब्दस्य, अभिधेयतां वाच्यत्वं, यदि सम्भावनायां, दधे दधार, न तु सु शोभनाः, नासीराः अग्रेसरा यस्येति योगलभ्यार्थप्रतीतितः, यौगिकतया सुनाशीरशब्दप्रतिपाद्यत्वस्य नले एवं वर्तमानत्वात् न तु इन्द्रे / नलस्य नासीरदर्शनादयमेव सुनासीरः न तु इन्द्र इति प्रतीयते, नलपुरःसराणाम् इन्द्रपुरःसरेभ्यो देवेभ्योऽपि श्रेष्ठत्वात् इति भावः // 3 // निषधराज ( नल ) के, श्रेष्ठतम वेषभूषाधारी आगे चलनेवाले लोगोंके साथ आते (पाठा०-चलते ) रहनेपर उस ( लोक-प्रसिद) इन्द्रने 'सुनासीर' पदवाच्यत्वको धारण किया अर्थात् 'सुनासोर' नामको प्राप्त किया तो केवल रूढिमात्रसे ही प्राप्त किया। [नलके 'नासीर' से निकलकर सुन्दर वेष-भूषावाले लोग आगे-आगे चल रहे थे, अतएव नल ही अवयवार्थयुक्त 'सुनासीर' ( सुन्दर नासीर वाले ) थे और इन्द्रका 'सुनासीर' नाम तो केवल रूढिमात्रसे मण्डपादि शब्दों के समान ही हुआ, क्योंकि वे इन्द्र सुन्दर नासीर (शिविर ) वाले नहीं होनेसे पाठक, अध्यापक आदि शब्दोंके समान अवयवार्थयुक्त नामवाले नहीं थे। नल इन्द्रसे तथा उनके आगे चलनेवाले लोग देवोंसे भी श्रेष्ठ थे ] // 3 // नलस्य नासोरमृजां महीभुजां किरीटरत्नैः पुनरुक्तदीपया / अदीपि रात्रौ वरयात्रया तया चमूर जोमित मित्रसम्पदा / / 4 / / नलस्येति / चमूरजोभिः सैन्यपदोत्थधूलिभिः, मिश्राः घनीभूताः, तमिस्र सम्पदः यस्यां तया, चमूपदोस्थितरजोहेतुना गाढान्धकारयेत्यर्थः, तथाऽपि नलस्य नासीरसृजाम् अग्रेसरत्वसम्पादकानाम्, अग्रयायिनामित्यर्थः। महीभुजां राज्ञा, किरीटरत्नेः मुकुटस्थितमणिभिः, पुनरुक्ताः रत्नकिरणरेवान्धकारापसारणात् निप्प्रयोजनतया अधिकार्थकाः, दीपाः यस्यां तादृशया, तया प्रकृतया, वरस्य वोढुः यात्रथा वैवाहिकगृहयात्रया, रात्रौ अदीपि दीप्तं, शोभितमित्यर्थः / (भावे लुङ्) रत्नदीपप्रकाशेन यात्रा गाढान्धकारेऽपि दीपवती इत्यर्थः // 4 // सेना ( के घोड़े-रथ आदि ) को धूलसे अधिक अन्धकार युक्त ( होनेपर भी ) सेनाके अग्रेसर राजाओं के मुकुटों के रत्नों ( की कान्ति ) से व्यर्थ किये गये दीप ( मसालों, या वर्तमान कालानुसार गैस आदि रोशनियों) वाली नलकी बारात रातमें प्रकाशमान हुई / [ यद्यपि सेनाके रथ-घोड़े पैदल आदिके चलने से उड़ी हुई धूलसे बहुत अन्धकार हो गया तथापि सेनाग्रगामी राजाओंके मुकुटोंमें जड़े गये रत्नोंकी किरणोंसे इतना अधिक प्रकाश हुआ कि जलते हुए दीपक (गैस या मसाल ) भी अनावश्यक मालूम पड़ने लगे, इस कारण वह नलकी वरयात्रा ( बारात ) रात्रिमें अधिक शोभित हुई / रात्रिमें दीपक या रत्नों
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________________ षोडशः सर्गः। 647 का अधिक प्रकाशित होना उचित भी है / वर्तमान कालमें भी दरवाजे लगाने के लिए जाती हुई बारातको मसाल, गैस, डायनुमासे जलनेवाले बिजलीके बल्ब आदिके प्रकाशसे प्रकाशित करना वरपक्षका गौरव माना जाता है। नलकी बारातमें राजाओंको सेनाके आगे-आगे चलनेसे नलका चक्रवर्ती होना सूचित होता है / दीपकोंसे आलोकपूर्ण नलकी बारात दरवाजे लगने के लिए चली ] // 4 // विदर्भराजः क्षितिपाननुक्षणं शुभक्षणासन्नतरत्वसत्वरः / दिदेश दूतान् पथि यान् यथोत्तरं चमूममुष्योपचिकाय तचयः / / 5 / / विदर्भति / विदर्भराजः भीमः, शुभक्षणस्य विवाहमुहूर्तस्य, आसन्नतरत्वेन समीपवर्तित्वेन, सस्वरः सन् अनुक्षणं प्रतिक्षणं, मुहुर्मुहुरित्यर्थः / यान् नितिपान् एव दूतान् , उत्तरोत्तरं यथा यथोत्तरं परं परं यथा स्यात् / याथायें वीप्सायामव्ययीभावः / दिदेश आज्ञापयामास, नलं सत्वरमानयितुं प्रेषितवान् इत्यर्थः / तञ्चयः तेषां प्रेषितानां राज्ञां, चयः समूहः, पथि मार्गे, अमुष्य नलस्य,चमं सैन्यम् , उपचि. काय वर्द्धयामास / चिञ् धातोः लिटि 'विभाषा चेः' इति कुत्वम् / दूतत्वेन राज्ञां बहूनां प्रेषणया लग्नातिक्रमभीरोः राज्ञस्वरातिशयोक्तिः // 5 // शुभ समय (विवाहके शुभ लग्न ) के अत्यन्त समीप आनेसे शीघ्रता करनेवाले विदर्भराज ( भोज ) ने जिन राजाओंको दूत बनाकर ( नलको जल्दी लिवा लाने के लिए.) प्रत्येक क्षणमें ( एकके बाद दूसरेको, उसके बाद तीसरेको-इस प्रकार बहुतोंको ऐसा ) भेजा, जिससे मार्गमें जाते हुए उन ( भोजके द्वारा नल को शीघ्र लिवा लाने के लिए दूत रूपमें भेजे गये राजाओं ) के समूहने इस ( नल ) की सेनाको बढ़ा दिया। [ बारातको शीघ्र दरवाजे लगाने के लिए कन्यापक्षका बार, बार दूत ( नाई आदि ) या अत्यन्त शीघ्रता या वरपक्षका समा. दर करने के लिए स्वजनोंको भेजकर वरको जल्दी आनेकी प्रार्थना करने पर भी वरपक्षका अपनी शानसे धीरे-धीरे आगे बढना वर्तमान में भी देखा जाता है। प्रकृतमें राजा भोजके राजाओंको दूत बनाकर बार-बार भेजनेसे वरपक्षका अत्यन्त आदर तथा शीघ्रता करना सूचित होता है ] // 5 // हारिद्विपद्वीपिभिरंशुकैर्नभोनभस्वदाध्मापनपीनितैरभूत् / तरस्वदश्वध्वजिनीध्वजैर्वन विचित्रचीनांशुकवल्लिवेल्लितम् / / 6 // हरीति / नभः अन्तरिक्षं, नभस्वता वायुना, आध्मापनेन पूरणेन, पीनितैः स्थू. लितैः, वायुवेगेन स्फीततां गतैरित्यर्थः / अत एव सजीवसिंहादिवत् प्रतीयमानेरिति भावः / 'पीनपीनी न स्थूलपीवरे' इत्यमरः / अंशुकैः वस्त्रनिर्मितैः, हरिद्विपद्वीपिभिः सिंहगजव्याघ्रः, तदाकारैः ध्वजैः इत्यर्थः / 'सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्यः हर्यक्षः केशरी हरिः' इति, 'मतङ्गजो गजो नागो द्विरदोऽनेकपो द्विपः' इति, 'शार्दूलद्वीपिनी व्याघ्र' 1. '-रांशुकै-' इति प्रकाशाभिमतं पाठान्तरम् /
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________________ 148 नैषधमहाकाव्यम् / इति चामरः / तथा तरस्विनां वेगवताम् , अश्वानां ध्वजिनीषु अश्वारोहिसेनासु, ये ध्वजाः पताकाः तैः करणः, विचित्राणि नानारूपाणि, चीनांशुकानि ध्वजसम्बन्धीनि चीनदेशभवसूक्ष्मवस्त्राणि, तैः एव वल्लिभिः लताभिः वेल्लितं वेष्टितं सत् , वनम् वनतुल्यम् , अभूत् , वनकल्पम् अभूदित्यर्थः / वनं यथा सिंह-हस्ति-व्याघ्र-वृक्षादिभिः वेष्टितं भवति, तथा तद्देशावच्छिन्नं नभोऽपि वस्त्रनिर्मितसिंहहस्तिव्याघ्रचि. ह्नितध्वजेर्वेष्टितमभूदिति भावः // 6 // ___ आकाश वायुसे परिपूर्ण ( स्थूल बने हुए ) कपड़ेके बनाये गये घोड़ों, हाथियों और बाघों ( की आकृतिवाली पताकाओं) से तथा वेगवान् ( तेज चलनेवाले ) घोड़ोंवाली सेनाकी पताकाओंसे अनेक वर्णवाले चीनदेशके बने महीन (पक्षा०-'चीन' जातिके विचित्र वर्णवाले मृगविशेष ) वस्त्ररूपिणी लताओंसे युक्त बन ( के समान ) हो गया। (अथवातेज घोड़ोंवाली ( नलकी) सेना आकाशमें वायुसे परिपूर्ण अर्थात् फैलायी गयी पताकाओंसे, घोड़ों-हाथियों और अन्य द्वीपनिवासी ( नलकी ) सेनामें सम्मिलित हुए राजाओंसे उपलक्षित (युक्त ) होकर अनेक वर्णके चीनदेशोत्पन्न वस्त्ररूपिणी लताओंसे युक्त ( पक्षा०'चीन' जातीय मृगविशेष तथा ऊपर में फैली हुई लताओंसे युक्त ) बन अर्थात् बनके समान हो गयी ) / [ बनमें भी बाघ, 'चीन' जातीयमृग, लता, तथा वृक्ष होते हैं; अत एव उक्तरूपा नलकी सेना भी बनके समान हो गयी ] // 6 // भ्रवाऽऽह्वयन्ती निजतोरणजा गजालिकर्णानिलखेलया ततः / ददर्श दूतीमिव भीमजन्मनः स तत्प्रतीहारमहीं महीपतिः / / 7 / / भ्रवेति / (ततः' प्रस्थानानन्तरम् ) सः महीपतिः नलः, गजालीनां द्वारस्थित गजघटानां, कर्णानिलैः कर्णसञ्चालनोत्थवातैः. खेलतीति तादृशया खेलया चञ्चलया, निजया तोरणस्रजा तोरणलम्बिमालया एव, भ्रवा आह्वयन्तीं 'शीघ्रम् आगच्छ' इति भ्रसङ्केतेन आकारयन्ती, भीमजन्मनः भैम्याः, दूतीम् इवेत्युत्प्रेक्षा। तस्य भीमस्य, प्रतीहारमहीं द्वारभूमि, द्वारदेशमित्यर्थः / प्रतिपूर्वकात् हृधातोत्रि 'उपसर्गस्य घन्य. मनुष्ये बहुलम्' इति उपसर्गस्य दीर्घः / 'स्त्री द्वार प्रतीहारः' इत्यमरः / ददर्श // 7 // इस ( प्रस्थान करने) के बाद उस राजा ( नल) ने (द्वारपर खड़े) गज-समूहके कानोंकी हवाके चञ्चल ( हिलती हुई ) अपनी तोरणमालारूपी भौंहोंसे बुलाती हुई दमयन्ती दूतीके समान उस ( भीम राजा ) के द्वारभूमि अर्थात् द्वारको देखा / [द्वारपर बंधे या खड़े हुए हाथियों के समूहके कानोंकी हवासे हिलती हुई फूलों एवं पल्लवोंसे बनी हुई तोरणमाला ऐसी मालूम पड़ती थी कि मानो वह दमयन्तीकी द्वारभूमिरूपिणी दूती अपने भ्रूचालनके संङ्कतसे नलको शीघ्र पहुंचने के लिये कह रही हो // नलने राजा भीमके द्वारको देखकर शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े ] // 7 // 1. () एतरकोष्ठान्तर्गतः पाठो मूलानुरोधान्मया वर्द्धित इत्यवधेयम् /
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________________ 646 षोडशः सर्गः। श्लथैदलैः स्तम्भयुगस्य रम्भयोश्चकास्ति चण्डातकमण्डिता स्म सा / प्रियासखीवास्य मनः स्थितिस्फुरत्सुखागतप्रश्निततूर्यनिस्वना // 8 // श्लथेरिति / रम्भयोः स्तम्भयुगस्य द्वारशोभाथ स्थापितकदलिस्तम्भयुगलस्य, श्लथैः शिथिलैः, दलैः पर्णैः, तद्रूपेणेत्यर्थः / चण्डातकेन अझैरुकेण, वराङ्गनापरिधेय. वस्त्रविशेषेणेत्यर्थः / 'अझैरुकं वरस्त्रीणां स्याञ्चण्डातकमंशुकम्' इत्यमरः / मण्डिता भूषिता, सा तत्प्रतीहारमही, मनसि नलस्य चित्ते, स्थितिः सर्वदा चिन्तया अव. स्थानं, तया नलमनोगतत्वेनेत्यर्थः / स्फुरन् सर्वदा मनसि अवस्था नात् निगच्छन् , यः सुखागतस्य प्रश्नः सुखेनागमनविषयकप्रश्नः, स कृतः सुखागतप्रश्नितः सुखागमनप्रश्नरूपतासम्पादितः / 'तत् करोतेः-' इति णिजन्तात् कर्मणि क्तः। तूर्यनिस्वनः यया सा सती, अस्य नलस्य, प्रियासखी भमीसखी इव, चकास्ति स्म चकासामास / कदलीदलरूपसुवसना तत्प्रतीहारभूमिः तूर्यनिस्वनयोगात् स्वागतं पृच्छती भैमीसखीव बभौ इत्युत्प्रेक्षा // 8 // केलेके दो खम्भों के शिथिल (नीचे लटकते हुए) पत्तोंसे लहँगा (या बुर्का ) से सुशीभित वह ( द्वारभूमि ) अन्तःकरणमें ( नलके सदा ) रहनेसे उल्लासित होते हुए सुखपूर्वक आगमन के प्रश्नको करनेवाले बाजेके शब्दवाली इस ( नल) की प्रिया ( दमयन्ती) सखीके समान शोभती थी। [ मङ्गलार्थ द्वारके दोनों ओर रखे गये केलेके खम्भों के नीचेतक लटकते हुए पत्तोंसे सुशोभित और बाजाओंकी ध्वनिसे युक्त वह द्वारभूमि ऐसी मालूम पड़ती थी कि लहँगा या बुर्का पहनी हुई दमयन्ती-सखी नलके सुखपूर्वक आनेका कुशल-प्रश्न कर रही हो / यहां खम्भोंको द्वारभूमिरूपिणी सखीकी जङ्घाएं, लटकते हुए पत्तोंको लहँगा या बुर्का, बाजाओं की ध्वनिको कुशल-प्रश्नकी उत्प्रेक्षा की गयी है / बहुत दिनके वाद मिलनेवाले दूरदेशसे आये हुए पतिसे लज्जावश स्वयं सुखपूर्वक आनेके कुशल. प्रश्नको नहीं कर सकनेके कारण स्त्री अपनी सखीको उस कार्यमें नियुक्त करती है और वह लहँगा या बुर्का पहनी हुई द्वारपर आकर कुशल-प्रश्न करती है ] // 8 // विनेतृभर्तद्वयभीतिदान्तयोः परस्परस्मादनवाप्तवैशसः / अजायत द्वारि नरेन्द्रसेनयोः समागमः स्फारमुखारवोद्गमः / / 9 / / विनेत्रिति। विनेत्रोः नियामकयोः, भोः नलभीमरूपयोः स्वामिनोः, द्वयं तस्मात् भीत्या भयेन, दान्तयोः शान्तयोः, नरेन्द्रसेनयोः भोमनलवाहिन्योः, परस्परस्मात् अन्योऽन्यस्मात्, अनवाप्तम् अप्राप्तं, वैशसं हिंसनं यस्मिन् स तादृशः, स्फारः तारः, मुखारवोद्गमः मुखकलकलोदयः यस्मिन् स तादृशः, समागमो मेलनं, द्वारि राजभवनद्वारे, अजायत जातः // 9 // नियामक दोनों स्वामियों ( नल तथा भीम) के भयसे शान्त ( युद्धादि नहीं करती हुई दोनों ) राज-सेनाओं ( नल तथा भीमकी सेनाओं) का आपसमें (आघात प्रत्याघात
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________________ 650 नैषधमहाकाव्यम् आदि ) क्रूर भावसे रहित तथा बढ़ते हुए कोलाहलबाला समागम (राजा भीमके ) द्वारपर हुआ। [ राजा नल तथा भीमकी सेनाएं राजा भीमके द्वारपर परस्पर में मिल गयीं और प्रेमभावके कारण युद्ध आदि नहीं हुआ, किन्तु सबोंके बोलनेसे बड़ा कोलाहल हुआ ] // 9 // निवेश्य बन्धूनित इत्युदीरितं दमेन गत्वाऽद्धपशे कृताहणम् / विनीतमा-द्वारत एव पद्गतां गतं तमैक्षिष्ट मुदा विदर्भराट् / / 10 / / निवेश्येति / दमेन भीमात्मजेन, गत्वा प्रत्युद्गम्य, बन्धून् जामातृबन्धून्, निवेश्य उपवेश्य, इत इति उदीरितम् अस्यां दिशि आगम्यताम् इति प्रार्थितम्, अर्द्धपथे अर्द्धमार्गे, कृताहणं कृतपूजनं, विनीतम् अनुद्धतम्, आ-द्वारतः द्वारम् आरभ्य, पादाभ्यां गच्छति इति पद्गः, तत्तां पद्गतां द्वारदेशे रथादवतीय पादचारित्वम् / 'पादस्य पदाज्यातिगोपहतेषु' इति पादस्य पदादेशः / गतं त नलं, विदर्भराट भीमः, मुदा हर्षेण, ऐक्षिष्ट अद्राक्षीत् // 10 // विदर्भनरेश ( भीम ) ने (भीम-कुमार ) दमके द्वारा आगवानी करके ( नलके) बन्धुओंको बैठाकर ( पाठा०-भीमके द्वारा ही सामने ) जाकर अपने या नलके बन्धुओंको निर्देशकर अर्थात् भेजकर 'इधरसे आइये' ऐसा कहे गये तथा दम (भीमकुमार ) के द्वारा आधे मार्गमें अयं पाद्य आदिसे पूजित, विनीत और द्वारकी सीमासे ही पैदल चलते हुए उस (नल ) को हर्षसे देखा // 10 // अथायमुत्थाय विसार्य दोयुगं मुदा प्रतीयेष तमात्मजन्मनः / सुरस्रवन्त्या इव पात्रमागतं धृताभितोवीचिगतिः सरित्पतिः / / 11 / / अथेति। अथ नलेक्षणानन्तरम्, अयं विदर्भराट, उत्थाय दोयुगं बाहुद्वयं, विसार्य प्रसार्य, आगतं सम्मुखमुपस्थितम्, आत्मजन्मनः आत्मजायाः भैम्याः, पात्रं योग्यं वरं, तं नलं, पृता अवलम्बिता, अभितः उभयपार्श्वतः वीचिगतिः तरङ्गप्रसारः यस्य सः तादृशः, सरित्पतिः समुद्रः, सुरस्रवन्त्याः सुराणां देवानां, स्रवन्त्याः नद्याः, भागीरथ्याः इत्यर्थः / 'अथ नदी सरित् स्रवन्ती निम्नगाऽपगा' इत्यमरः। आगतं पात्रं तोरद्वयमध्यवर्ति प्रवाहम् इव / 'पात्रम् स्रवादी पणे च भाजने राजमन्त्रिणि / तीरद्वथान्तरे योग्ये' इति मेदिनी / मुदा हर्षेण, प्रतीयेष प्रत्यच्छत् , आलिलिङ्गेत्यर्थः॥ इस ( नलको देखने ) के बाद इस ( राजा भीम ) ने दोनों भुजाओंको फैलाकर आये हुए पुत्री ( दमयन्ती ) के योग्य उस ( नल ) को उस प्रकार आलिङ्गन किया, जिस प्रकार दोनों ओर तरङ्गोंवाला समुद्र आये हुर गङ्गाके प्रवाहक। आलिङ्गन करता है // 11 // यथावदस्मै पुरुषोत्तमाय तां स साधुलक्ष्मी बहुवाहिनीश्वरः / शिवामथ स्वस्य शिवाय नन्दिनीं ददे पतिः सर्वविदे महीभृताम् // 12 / / 1. 'निवेश्य' इति पाठान्तरम् / 2. 'आ द्वारतः' पदद्वयम्, इति 'प्रकाशः'। 3. '-ततिः' इति पाठान्तरम् / 4. 'नन्दनाम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 651 षोडशः सर्गः। यथावदिति / अथ वरालिङ्गनानन्तरं, बहुवाहिनीश्वरः बहुसेनाधीश्वरः, महीभृतां राज्ञां, पतिः राजराजः, सः भीमः, पुरुषोत्तमाय पुरुषश्रेष्ठाय, शिवाय भद्रमूर्तये, सर्वविदे सर्वज्ञाय, अस्मै नलाय, साधुलचमी समीचीनशोभा, शिवां भद्मूर्ति, स्वस्य नन्दिनीं दुहितरं, तां दमयन्ती, यथावत् यथार्ह, विधिवत् इत्यर्थः / तदहम्' इति वति प्रत्ययः / ददे दत्तवान् / अन्यत्र-बहुवाहिनीश्वरः बहुनदीपतिः, स ससद्धः, पुरुषोत्तमाय विष्णवे, लक्ष्मी यथावत् ददे ददौ, तत् साधु / तथा महीभृतां पर्वतानां पतिः हिमवान्, स्वस्य नन्दिनीं शिवां / गौरी, सर्वविदे शिवाय शम्भवे / 'शिवं भद्रं शिव शम्भः शिवा गौरी शिवाऽभया' इति सर्वत्र शाश्वतः / ददौ, तच्च साधु / विशेषणविशेष्ययोरपि श्लिष्टस्वादभिधायाः प्रकृतार्थबोधनेनोपक्षीणत्वात् वाच्यार्थानप. पत्यभावेन लक्षणाया असम्भवाच्च व्यञ्जनया अर्थान्तरप्रतीतेः ध्वनिरेवौपम्यपर्यः वसायी' // 12 // बहुत सेनाओं के स्वामी तथा राजाओं के पति ( राज-राज भीम ) ने सुन्दर शोभावाली, मङ्गलरूपिणी अपनी कन्या ( दमयन्ती ) को पुरुषश्रेष्ठ, (पुण्यश्लोक होनेसे ) मङ्गलस्वरूप, सत्र ( कला, विद्या आदि ) के ज्ञाता इस (नल ) के लिए विधिपूर्वक दे दिया ( पक्षा०बहुत नदियों के पति ( समुद्र ) ने अपनी कन्या लक्ष्मीको पुरुषोत्तम ( विष्णु ) के लिए विधिपूर्वक दे दिया यह ठीक हुआ तथा पर्वतोंके स्वामी (हिमालय ) ने अपनी कन्या पार्वतीको सर्वज्ञ शिवजी के लिये विधिपूर्वक दे दिया, यह भी ठीक हुआ। अथवा-मैनाक आदि पर्वतों के रक्षक समुद्रने शिव ( मङ्गल ) स्वरूप विष्णुके लिये अपनी पुत्री लक्ष्मीको विधिपूर्वक दे दिया, यह ठीक हुआ तथा बहुत नदियोंसे युक्त हिमालयने पुरुषोत्तम रूप शिवजीके लिए अपनी कन्या पार्वतीको विधिपूर्वक दे दिया यह भी ठीक हुआ)। [ प्रकृतमें नलको विष्णु तथा शिक्षके समान, दमयन्तीको लक्ष्मी तथा पार्वतीके समान और राजा भीमको समुद्र तथा हिमालय पर्वतके समान माना गया है ] // 12 // असिस्वदद्यन्मधुपर्कमर्पितं स तद्वयधात्तर्कमुदर्कदर्शिनाम् / यदेषपास्यन्मधु भीमजाऽधरं मिषेण पुण्याहविधिं तदाऽकरोत् / / 13 / / - असिस्वददिति / सः नलः, अर्पितं भीमेन दत्तं, मधुपक कांस्यपात्रस्थं दधिमधु. वृतात्मकं त्रिमधुरम्, असिस्वदत् स्वादितवान्, स्वादेणौँ चङयुपधाहस्वः / इति यत् , तत् मधुपर्कस्वादनम्, उदर्कदर्शिनां विवाहोत्तरभाविफलाभिज्ञानाम् / 'उदर्कः 1. अत्र 'अर्थान्तरं प्रति विशेषणविशेष्ययोरपि श्लिष्टत्वादभिधायाः प्रकृतार्थोपक्षीणत्वात् वाच्चानुत्पत्यभावलक्षणाच्च ध्वनिरेवौपम्यपर्यवसायी' इति जीवातुः, इति म०म० शिवदत्तशर्माणः। २.'-दर्शिने' इति पाठान्तरम् / 3. अत्र 'उददर्शिनामागामिफलज्ञान(ना)म्' इति जीवातुः, इति म०म० शिवदत्तशर्माणः /
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________________ 652 नैषधमहाकाव्यम् / फलमुत्तरम्' इत्यमरः। तर्क कञ्चित् रहस्य, व्यधात् अकार्षीत् / तं तर्कमेवाह-यत् यतः, एषः नलः, भीमजायाः भैम्याः, अधरमेव मधु माक्षिक, पास्यन् धास्यन् , अधरमधुपानं करिष्यति इत्यर्थः / तत एव तदा तस्मिन् काले, मिषेण मधुपर्कपानव्याजेन, पुण्याह विधि कर्मादौ कर्त्तव्यं पुण्याहकर्म एव, अकरोत् / विवाहदिनरूपपुण्याहे मधुपर्कपानच्छलेन भाविन्या अधरमधुपानक्रियायाः शुभारम्भं चकारेत्यर्थः / माङ्गल्यकृत्येषु आदौ पुण्याहक्रिया प्रसिद्धा एव / अत्र सापह्नवोत्प्रेक्षा // 13 // ___ उस ( नल ) ने ( राजा भोमके द्वारा ) दिये गये मधुपर्कका जो आस्वादन किया, वह ( मधुपर्कास्वादन कार्य ) ( भविष्यकालके ) परिणामको देखनेवालेके लिए यह तर्क कराया कि-'यह नल भविष्यकाल ( विवाह के बाद ) में जो दमयन्तीके अधरका पान करेंगे, इसीसे उस समयमें ( मधुपर्क पान करनेके ) छलसे पुण्याह कर्मको किया है। [ किसी कार्यकी सिद्धिके लिए उसके प्रारम्भमें ( मधु दही और घी मिले हुए मधुरत्रयरूप ) मधुपर्कका पान करना शास्त्रोक्त विधि है, अतएव विवाह कार्यके आरम्भमें राजा भोजके दिये हुए मधुपर्कका पान करते हुए नलको देखनेवालोंने तर्क किया कि-भविष्यमें दमयन्तीके अधर-पानरूपी कार्यकी सिद्धिके लिए नलने उस कार्यके आरम्भमें मधुपर्कपानके बहाने से पुण्याह विधिको किया है ] // 13 // वरस्य पाणिः परघातकौतुकी वधूकरः पङ्कजकान्तितस्करः / सुराज्ञि तौ तत्र विदर्भमण्डले ततो निबद्धौ किमु कर्कशैः कुशैः / / 34 / / वरस्येति / वरस्य नलस्य, पाणिः परघातकौतुको शत्रुवधलम्पटः परहिंसालोलु पश्च, वधूकरः भैमीपाणिः, पङ्कजकान्तेः पद्मश्रियः, तस्करः चौरश्च / 'तबृहतोः करपत्योः-' इत्यादिना सुट तलोपश्च / ततः पूर्वावराधात् , एको हिंस्रः अपरस्तस्कर इत्यपराधात् हेतोरित्यर्थः / तौ वधूवरकरौ, शोभनो राजा यस्य तस्मिन् सुराज्ञि राजन्वति, तत्र तस्मिन् , विदर्भमण्डले विदर्भराज्ये, कर्कशैः कुशः निबद्धौ संयती, किमु ? धार्मिकराज्ये दुष्टा बध्यन्ते इति भावः / देशाचारप्राप्तस्य वधूवरयोः कुश. सूत्रेण करबन्धनस्य अपराधहेतुकत्वमुत्प्रेक्ष्यते // 14 // ___ वर ( नल ) का हाथ दूसरों अर्थात् शत्रुओं को मारनेका कुतूहली (शत्रुओंका घातक) है, तथा बहू ( दमयन्ती ) का हाथ कमलकी शोभाको चुरानेवाला है, इस कारण (क्रमशः हिंसक तथा चोर होनेसे ) उन दोनोंको अच्छे राजावाले विदर्भराज्यमें कर्कश कुशाओंसे बाँधा गया है क्या ? / [ जो किसोकी हिंसा या चोरी करते हैं, उन्हें अच्छे राजावाले राज्यमें कठिन बेड़ियोंसे बांधकर दण्डित किया जाता है, अत एव श्रेष्ठ राजावाले इस निषध देशमें परघातक नलबाहु तथा परसम्पत्तिचौर दमयन्तीबाहुको कर्कश कुशाओंसे बांधकर दण्डित करनेकी कल्पना की गयी है / देशाचारानुसार नल तथा दमयन्तीकी भुजाओंमें कुश बांधे गये] // 14 //
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________________ षोडशः सर्गः। 653 विदर्भजायाः करवारिजेन यन्नलस्य पाणेरुपरि स्थितं किल / विशङ्कय सूत्रं पुरुषायितस्य तद्भविष्यतोऽस्मायि तदा तदालिभिः।।१५।। विदर्भजाया इति / विदर्भजायाः वैदाः , करवारिजेन पाणिकमलेन, नलस्य पाणेः उपरि स्थितं किलेति यत् / भावे क्तः / तत् उपरि अवस्थानं, भविष्यतः पुरुषायितस्य विपरीतसुरते पुरुषवदाचरितस्य, सूयते सूच्यते अनेन इति सूत्रं सूचकं, विशङ्कय विभाव्य, तदा तदालिभिः भैमीसखीभिः, अस्मायि मन्दम् अहासि / स्मयतेर्भावे लुङ, चिणि वृद्धया अयादेशः / विपरीतसुरते पुरुषोपरि स्त्रियः शयनेन पुरुष करोपरि स्त्रीकरः सम्भवति इति पुंभावमुत्प्रेक्ष्य स्मितं कृतमिति भावः // 15 // दमयन्तीका करकमल जो नलके हाथके ऊपर रखा गया, उसे उस समय भविष्य में (विवाहके बाद ) पुरुषाचरण के सूत्र ( सूचित करनेवाला ) मानकर हम दमयन्तीकी सखियों ने मुस्कुरा दिया। [विपरीत रतिमें पुरुषके हाथके ऊपर स्त्रीका हाथ रहता है, अत एव दमयन्तीके हाथको नलके हाथके ऊपर रखा हुआ देखकर उसकी सखियोंने उसी विपरीत रतिकालकी अवस्थाका स्मरणकर मुस्कुरा दिया // दमयन्तीने अपने हाथको नलके हाथ पर रक्खा ] // 15 // सखा यदस्मै किल भोमसंज्ञया स यक्षसख्याधिगतं ददौ भवः / ददे तदेष श्वशुरः सुरोचितं नलाय चिन्तामणिदाम कामदम् / / 16 / / अथ एकविंशतिश्लोक्या यौतकदानं वर्णयति, सखेत्यादि। सः प्रसिद्धः, भवः भगवान् ईश्वरः, यक्षसख्याधिगतं यक्षेण सह यत् सख्यं बन्धुत्वं, तेनाधिगतं प्राप्त कुबेरमैत्रीलब्धं कुबेरात् लब्धमित्यर्थः / 'कुबेरस्यम्बकमखो यक्षराड्' इत्यमरः। यत् चिन्तामणिदाम चिन्तामणिघटितमाल्यं, भीम इति संज्ञया नाम्ना हेतुना, सखा स्वनामसादृश्यात् मित्रमिति बुद्धया इत्यर्थः। 'व्योमकेशो भवो भीमः' इत्यमरः / अस्मै भीमनृपाय, ददौ स्वकीयभीमनामधारणात् बन्धुस्वसूत्रेणेति भावः। सुरोचितं देवतायोग्यं, कामदं कामदुधं, तत् चिन्तामणिदाम, श्वशुरः पत्न्याः पिता, एष भीमभूपतिः, नलाय जामात्रे, ददे // 16 // (अब यहाँसे 'न तेन वाहेपु-' (16 / 34) तक दहेज देने का वर्णन करते हैं-) 'भीम' नामसे मित्र शिवजीने यक्ष अर्थात् कुबेरको मित्रतासे मिली हुई जिस (चिन्तामणिमाला ) को इस ( 'भीम' राजा) के लिए दिया था, इस श्वसुर (राजा भीम) ने कामना को देने अर्थात् पूर्ण करनेवाले देवों ( पाठा०-पुत्री दमयन्ती ) के योग्य उस 'चिन्तामणि' नामक मालाको नलके लिए दिया। [शिवजीका नाम 'भीम' है तथा दमयन्तीके पिताका भी नाम 'भीम' है, अतएव नाममात्र की मित्रताके कारण शिवजीने मित्र कुबेरसे प्राप्त देवधार्य 'चिन्तामणि' नामक मालाको मित्रभूत इस 'भीम' राजाके लिए दिया था, उसे 1. 'सुतोचितम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 154 नैषधमहाकाव्यम् / भीम राजाने दहेजमें नलके लिए दे दिया; मित्र कुबेरसे प्राप्त जिसको शिवजीने मित्र राजा 'भीम' के लिए दिया, उसको राजा 'भीम' ने दामाद नलके लिए दिया ] // 16 // बहोर्दुरापस्य वराय वस्तुनश्चितस्य दातुं प्रतिबिम्बकैतवात् / बभौतरामन्तरवस्थितं दधद्यदर्थमभ्यर्थितदेयमर्थिने / / 17 // तत् मणिदामैव वर्णयति बहोरिति / यत् चिन्तामणिदाम, वराय दातुं चित्तस्य राशीकृतस्य, दुरापस्य दुर्लभस्य, बहोः अनेकस्य / भाषितपुंस्कत्वात् पुंवद्भावः / वस्तुतः पदार्थजातस्य, प्रतिबिम्बस्य प्रतिच्छायायाः, कैतवात् मिषात् , अन्तः अभ्यन्तरे, अवस्थितम् अर्थिने याचकाय, अभ्यर्थितः याचितः सन् , देयः देयत्वेन निश्चिततम् अभ्यर्थितदेयम्, अर्थ वस्तुजातं, दधत् धारयन्निव, वभौतराम् अतिशयेन बभौ / 'किमेत्तिङव्ययघादा-' इत्यादिना आमुप्रत्ययः / प्रार्थनामात्रेणेव याचकाय तत्तद्वस्तनां दानार्थ प्रतिबिम्बव्याजात् तत्तद्वस्तुजातमन्तर्धारयतीवेति भावः / अन्न सापह्नः वोत्प्रेक्षा सा च व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या / / 17 // जो 'चिन्तामणि' माला वर ( नल ) को देने के लिए एकत्रित बहुत-सी दुर्लभ वस्तुओं ( अन्यान्य रत्न, सुवर्ण, वस्त्र, सवारी, दास, दासी आदि ) के अपनेमें प्रतिबिम्बित होने के कपट (व्याज ) से याचना करने पर देने योग्य निश्चित किये गये वस्तु-समूहको धारण करती थी, ( उस 'चिन्तामणि' नामक मालाको नलके लिए राजा भीमने दिया ) / [ नलको दहेज में देने के लिए जो बहुत-सो दुर्लभ वस्तुएँ एकत्रित की गयी थीं, उन सबके उस दिव्य चिन्तामणि मालामें प्रतिबिम्बित होनेसे वह माला ऐसी मालूम पड़ती थी कि याचित इन वस्तुओंको मैं नलके लिए दे दूंगी, अत एव इन वस्तुओंको प्रतिबिम्बित होनेके व्याजसे मैं अपने में धारण कर रही हूं ] // 17 // असिं भवान्याः क्षतकासरासुरं वराय भीमः स्म ददाति भासुराम् / ददे हि तस्मै धवनामधारिणे स शम्भुसम्भोगनिमग्नयाऽनया // 18|| असिमिति / भीमः क्षतकासगसुरं हतमहिषासुरं, 'लुलापो महिषो वाहद्विष. स्कासरसरिभाः' इत्यमरः / भासुरं भास्वरं, भवान्याः दुर्गायाः, असिं खङ्ग, भवान्या भीमाय दत्तमिति भावः / वराय नलाय, ददाति स्म / किमर्थ दुर्गया अस्मै दत्तः ? तत्राह-हि यतः, शम्भुसम्भोगनिमग्नया महिषासुरादिमर्दनानन्तरं निवृत्तरणरागया केवलसुरतसुखासक्तया, अनया दुर्गया, धवस्य स्वप्रियस्य शम्भोः, नामधारिणे 'भीम' इति नामान्तरधराय, इति प्रीतिकरणोक्तिः / 'धवः प्रियः पतिर्भा' इत्यमरः / तस्मै भीमभूभुजे, सः असिः, ददे दत्तः, शत्रुबधानन्तरं निष्प्रयोजनकत्वबुद्धया इति भावः / ददातेः कर्मणि लिट् // 18 // __ भीमने महिषासुरको काटने ( मारने ) वाले दुर्गा ( पार्वती ) के चमकते हुए खड्गको वर (नल ) के लिए दिया, उसे 'पति ( 'भीम, अर्थात् 'शिव' ) के नाम धारण करनेवाले
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________________ षोडशः सर्गः। 655 उस ( राजा 'भीम' ) के लिए शिवजीके साथ सम्भोगमें आसक्त उस (दुर्गा) ने दिया था। [जिस खड्गसे दुर्गाने महिषासुरको मारा था, उसे सम्भोग में आसक्त दुर्गा (पार्वती) ने असुरोंके अभावसे तथा सम्भोगकालमें खड्ग ग्रहण करना अनावश्यक होनेसे पतिके नामवाले राजा 'भीम' के लिए दे दिया था; उसी चमकते हुए खडगको उस (राजा भीम ) ने वर ( दुल्हा नल ) के लिए दिया / राजा भीमने नलके लिए चमकते हुए खड्गको दिया]। अधारि यः प्राङ्महिषासुरद्विषा कृपाणमस्मै तमदत्त कूकुदः / अहायि तस्या हि धवार्द्धमजिना स दक्षिणार्द्धन परोङ्गदारणः / / 19 / / अधारीति / यः कृपाणः, महिषासुरद्विषा दुर्गया, प्राक पूर्वम् , अधारि वृतः, तं कृपाणम् असिं, कूकुः कन्या, 'फूकुरित्युच्यते कन्या' इति स्मरणात् / तां ददातीति कूकुदः कन्याप्रदः भीमः, 'सत्कृत्यालङ्कृतां कन्यां यो ददाति स कूकुदः' इत्यमरः / अस्मै नलाय, अदत्त दत्तवान् / दुर्गायाः कृपाणस्य भीमहस्तगतत्वे कारणान्तरमाहहि यतः, धवस्य प्रियस्य, भीमापराख्यशम्भोरिति यावत् , अर्द्ध वामाई, मज्जति प्रविशतीति तन्मज्जिना अर्द्धनारीश्वरत्वात् प्रियाङ्गिप्रविष्टेन, तस्याःदुर्गायाः सम्बधिना, दक्षिणार्द्धन दक्षिणाङ्गेन का, परेषां संसर्गिणामन्येषाम् , अङ्गदारणः गात्र. विदारकः, स कृपाणः, अहायि अत्याजि, खड्गसहितदक्षिणार्डेन स्वामिशरीरप्रवेशे स्वामिनोऽङ्गविदारणं स्यादिति धिया स परित्यक्तः इति भावः / हातेः कर्मणि लुङ, चिणि युगागमः // 19 // ___ महिषासुरवैरिणी ( दुर्गा अर्थात् पार्वती ) ने पहले जिस खड्गको धारण किया था, उसको वस्त्रा-भूषण आदिसे अलकृतकर कन्याका दान करनेवाले (राजा भीम) ने इस ( जामाता नल ) के लिए दिया; क्योंकि पति (शिवजी) के आधे शरीरमें प्रविष्ट उस (पार्वती) के दक्षिणार्द्ध (आधा दहना अङ्ग) ने दूसरे ( पक्षा०-शत्रुके शरीरको विदारण करनेवाले ) उस खड्गको छोड़ दिया (पाठा०-उस 'भीम' राजाके लिए दिया) था। [पार्वती महिषासुरको मारते समय शिवजीसे पृथक् पूर्ण शरीरवाली थी, किन्तु जब वह अपने पति शिवजीके वामार्द्ध भागमें प्रविष्ट करने लगी तो सोचा कि हमारे दहने हाथमें स्थित तथा दूसरेके शरीरको विदीर्ण करनेवाला यह खड्ग पतिके वामार्द्ध मागमें मेरे प्रविष्ट होनेपर उनके शरीरको विदीर्ण कर देगा, अत एव उस खड्गको छोड़ दिया (पाठा०राजा भीमके लिए दे दिया था, उसी दुर्गाके दिये हुए खड्गको आज कन्यादानकर्ता राजा भीमने जामाता इस नलके लिए दिया)] // 19 / / उवाह यः सान्द्रतराङ्ककाननः स्वशौर्यसूर्योदयपर्वतव्रतम् | 1. 'अवापि' इति पाठेऽनर्थो न / तस्या दक्षिणार्डेन तस्मै यस्माददायीत्यर्थः / 'अयं पाठः साधीयान्' इति 'प्रकाशः' / 2. 'पराई-' इति काचिरकं पाठान्तरम् / 60 नै० उ०
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________________ 656 नैषधमहाकाव्यम् / ... सनिझरः शाणनधौतधारया समूढसन्ध्यः क्षतशत्रुजामृजा // 20 // - उवाहेति / सान्द्रतराः शुष्कत्वादतिशयेन घना इत्यर्थः, अङ्काः कृष्णवर्णरक्तचि. हानि एव, काननानि अरण्यस्वरूपाणि यस्य सः, खड्गलग्नशुष्करक्तचिह्नानां कृष्णत्वात् तत्रकाननत्वारोपणमिति बोध्यम् , शाणनेन उत्तेजनेन; शाणघर्षणेनेत्यर्थः, धौतया उज्ज्वलीकृतया, धारया निशितमुखेन, सनिर्झरः सप्रवाहः, निर्झरयुक्तवत् परिदृश्यमान इत्यर्थः, क्षतेभ्यः प्रहृतेभ्यः, शत्रुभ्यः, जातं निर्गतं, तादृशेन असृजा रक्तेन, कृपाणलग्नेनेति भावः / समूढा वृता, प्रकटिता इत्यर्थः, सन्ध्या प्रातःसन्ध्याकालिकशोभा इत्यर्थः, येन सः तादृशः, सन्ध्याकालीनाकाशस्य रक्तवर्णत्वादिति भावः, यः कृपाणः, स्वशीयमेव शत्रुहननरूपं शूरत्वमेव सूर्यः तस्य उदयपर्वतः उदयाचलः, तस्य व्रतं नियम, नित्यसूर्योदयकारित्वरूपमित्यर्थः, नित्यमेव शत्रुदमनेन स्वपराक्रमप्रकाशरूपवतमिति समुदितार्थः, उवाह वहति स्म / खड्गस्याङ्का. दिषु काननत्वाधारोपणाद्पकालङ्कारः॥२०॥ सघन शरीर-(सूखनेसे कालो पड़ी हुई रक्तरेखा ) रूप वनवाला (अथवा-सूक्ष्म मुद्गपत्त्रीलतारूप शरीरका जीवनभूत अर्थात् जीवित रखनेवाला; पक्षा०-शरोरमें सघन वनोंवाला), शाणपर घिसनेके कारण स्वच्छ धारसे झरनेके समान (चमकता हुआ, पक्षा-झरनोंसे युक्त ), कटे हुए शत्रुसे उत्पन्न (बह कर निकले हुए ) रक्तसे सन्ध्या ( सायंकालकी लालिमा ) को प्राप्त हुआ ( अथवा-कटे हुए शत्रुसे उत्पन्न रक्तसे मूठतक प्राप्त हुआ अर्थात् शत्रुके शरीरमें . मूठतक घुसा हुआ, पक्षा०-सन्ध्याकालको प्राप्त ) जो खग अपने पराक्रमरूपी सूर्यके उदयाचल व्रतको ग्रहण करता है; ( उस खड्गको राजा भीमने नलके लिए दिया)। [ जिस प्रकार घने वनोंवाला, स्वच्छ निर्झरोंसे युक्त, सन्ध्यारुण उदयाचल नित्य ही सूर्योदय के नियमको धारण करता हैं, उसी प्रकार सूखी हुई रक्तकी धारारूप वनवाला, शाण चढ़ानेसे स्वच्छ होकर चमकता हुआ और आहत शत्रु शरीरोत्पन्न रक्तसे सन्ध्यावत् अरुणवर्ण वह खड्ग सर्वदा अपने पराक्रमरूपी सूर्योदयके नियमको धारण करता अर्थात् सदा अपने पराक्रमको दिखलाता है ] // 20 // यमेन जिह्वा प्रहितेव या निजा तमात्मजां याचितुमर्थिना भृशम् / स तां ददेऽस्मै परिवारशोभिनीं करग्रहार्हामसिपुत्रिकामपि / / 2 / / यमेनेति / भृशमत्यर्थम् , अर्थिना याचकेन, यमेन अन्तकेन, तं भीमम् , आत्मजां भैमी, याचितुं प्रार्थयितुं, निजा जिह्वा नियतप्राणनाशकत्वाद्यमरसना इव स्थिता, इत्युत्प्रेक्षा, या असिपुत्रिका, प्रहिता भीमप्रीत्यर्थं दूतीप्रेरणसमये प्रेषिता, परिवारेण कोशेन परिजनेन च 'परिवारः परिजने खड्गकोशे परिच्छदें' इति विश्वः / 1. 'शाणनिधौतधारया' इति पाठः / 'शाणन-' इति पाठश्चिन्त्य इति 'सुखावबोधा' इति म० म० शिवदत्तशर्माणःः।
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________________ षोडशः सर्गः। 657 शोभिनी, करग्रहस्य हस्तेन धारणस्य विवाहस्य च, अहाँ योग्यां, तामसिपुत्रिका छुरिकामपि, तथा असिरूपां कन्याञ्च 'स्याच्छस्त्री चासिपुत्री'च च्छुरिका चासिधेनुका, इत्यमरः / सः भीमः भूपतिः, अस्मै नलाय, ददे / शस्त्रपुत्रिकयोः प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतश्लेषः // 21 // __ अतिशय याचना करनेवाले यमने उस (राजा भीम ) से कुमारी दमयन्तीको मांगने के लिए अपनी जिह्वाके समान जिसे भेजा था, उस ( राजा भीम ) ने परिवार(म्यान, पक्षा०-सखी आदि ) से शोभनेवाली तथा हाथमें लेने (पक्षा०-विवाह ) के योग्य (अथवा-सुन्दर मूठसे योग्य ) उस छुरिका अर्थात् कटारको भी इस (नल) के लिए दिया / [ 'अपि' शब्दसे केवल खड्गको ही राजा भीमने नलके लिए नहीं दिया, अपि तु कटारको भी दिया; अथवा-केवल पुत्री ( दमयन्ती) की ही नहीं दिया अपितु कटारको भी दिया। दमयन्ती सखियोंसे तथा कटार कोष (म्यान) से शोमती थी और दमयन्ती विवाइके तथा कटार हाथमें लेनेके योग्य थी; तथा वह कटार यमराजकी जिह्वाके समान पर प्राणोंका हरण करनेवाली थी ] // 21 // यदङ्गभूमौ बभतुः स्वयोषितामुरोजपत्त्रावलिनेत्रकज्जले / रणस्थलस्थण्डिलशायिताव्रते गृहीतदीक्षैरिव दक्षिणीकृते / / 22 / / यदिति / यस्याः असिपुत्रिकायाः, अङ्गभूमी प्रान्तदेशी, रणस्थलमेव स्थण्डिलमनिम्नोन्नता परिष्कृता भूः, तत्र शेरते इति तच्छायिनः 'व्रते' इति णिनिः। तस्य भावः तच्छायिता, सा एव व्रतं नियमविशेषः तत्र, गृहीतदीक्षः रणस्थले छुरिकाघातेन मृत्युशय्यायां शयनरूपवतदीक्षितैः शत्रुभिरित्यर्थः, दक्षिणीकृते तादृशवतोप. देशिन्यै ऋत्विकस्वरूपायै असिपुत्रिकायै दक्षिणारूपेण प्रदत्ते इत्यर्थः / स्वयोषितां निजस्त्रीणाम, उरोजयोः स्तनयोः, पत्रावलिः मृगमदादिरचितपत्रभङ्गिः नेत्रकज्जलञ्च ते इव, बभतुः विरेजतुः शत्रुस्त्रीभिः वैधव्यवशात् पत्रावलिनेत्रकज्जले परित्यक्ते इति भावः / भाधातो वे लिटि अतुसादेशः / कृष्णवर्णयोश्छुरिकाप्रान्तदेशयोः स्तनपत्र. वल्लीत्वनेत्रकज्जलवाभ्यामुत्प्रेक्षणादुत्प्रेक्षालङ्कारः // 22 // जिस कटारके दोनों भाग ऐसे शोभते थे कि रणस्थलमें भूमिपर सोनेके व्रतकी दीक्षा ग्रहण किये हुए राजाओंने अपनी स्त्रियोंके स्तनोंकी ( कस्तूरी आदिसे रची गयी) पत्ररचना तथा नेत्रों के कज्जलोंको उक्त व्रतकी दीक्षा (मन्त्रोपदेश) देनेवाली उस कटारके लिए दक्षिणा दे दी हो / [ लोकमें दीक्षा देनेवालों ऋत्विक आदि के लिए दक्षिणा दी जाती है, अत एव उस कटारने राजाओंको रणस्थलमें भूमिपर सोनेके व्रतकी दीक्षा (मन्त्रोपदेश ) दिया था, अतएव उन्होंने अपनी स्त्रियोंके स्तनोंकी पत्ररचना तथा नेत्रों के कज्जलोंको उक्त व्रतकी दीक्षा देनेवाली उस कटारके लिये दक्षिणा दे दी थी, अत एव श्यामवर्ण उसके दोनों भाग शोभित होते थे। शत्रुओं के मरनेपर उनकी विधवा स्त्रियां स्तनोंपर पत्ररचना
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________________ 658 नैषधमहाकाव्यम् / तथा नेत्रों में कच्चल करना छोड़ देती हैं, इस वास्ते उनको दक्षिणारूपमें देनेकी कल्पना की गयी है / उस कटारके श्यामवर्ण दोनों भाग शोभते थे // 22 // पुरैव तस्मिन् समदेशि तत्सुताऽभिकेन यः सौहृदनाटिनाऽग्निना / नलाय विश्राणयति स्म तं रथं नृपः सुलङ्घयाद्रिसमुद्रकापथम् / / 23 / / पुरेति / तत्सुताऽभिकेन भैमीकामुकेन 'कामुके कमिताऽनुकः / कम्रः कामयि. ताऽभीकः कमनः कामनोऽभिकः // ' इत्यमरः / अत एव सुहृदो भावः सौहृदं सौहार्दम् युवादित्वादण 'हृद्भगसिन्ध्वन्ते-' इत्यादिनोभयपदवृद्धिः / अत एव 'सौहृददीहूंदशब्दावणि हृद्भावात्' इति वामनः / तत् नाटयति प्रकाशयतीत्यर्थः / यः तेन सौहृदनाटिना, अग्निना अनलेन, यः रथः, पुरा एव स्वयंवरात् प्रागेव, दूतीप्रेरणसमये एव इत्यर्थः। तस्मिन् भीमे, समदेशि सन्दिष्टः, दत्तः इत्यर्थः / सुलवयाः सुखेन अतिक्रम्याः, अद्यः पर्वताः, समुद्राः सागराः, कापथाः उन्नतानतकुत्सितपथाश्च येन तादृशं, 'का पथ्यक्षयोः' इति कोः कादेशः / तमग्निदत्तं, रथं नृपः भीमः, नलाय विश्राणयति स्म विततार, ददौ इत्यर्थः / 'विश्राणनं वितरणम्' इत्यमरः // 23 // ___ उस भीमकी पुत्री ( दमयन्ती ) के कामुक ( अत एव उसके साथ ) मित्रताको प्रकाशित करनेवाले अग्निने पहले ( दूती भेजनेके समय में ) ही जिस रथको उन (भीम) के लिए दिया था; पर्वत, समुद्र तथा ऊँचे नीचे मार्गको सरलतासे पार करनेवाले अर्थात् सर्वत्र जानेवाले उस रथको राजा भीमने नल के लिए दिया / [ स्वयंवरमें आनेके पहले ही अग्निने राजा भीमसे अपनी मित्रताको प्रकाशित करने के लिए उपहारमें रथ भेना था कि 'मैं दमयन्तीका कामुक होने के कारण नहीं, अपितु मित्र होनेके कारण इस रथको आपके लिए. उपहार देता हूं,' सर्वत्र गमन करनेवाले उस रथको भीमने नलके लिए दिया ] // 23 / / प्रसूतवत्ताऽनलकूबरान्वयप्रकाशिताऽस्यापि महारथस्य यत् / कुबेरदृष्टान्तबलेन पुष्पकप्रकृष्टतैतस्य ततोऽनुमीयते // 24 // प्रसूतवत्तेति / यत् यस्मात् , अस्यापि महारथस्य महतः रथस्य, अन्यत्र‘एको दशसहस्त्राणि योधयेद् यस्तु धन्विनाम् / अस्त्रशस्त्रप्रवीणश्च विज्ञेयः स महारथः // ' इत्युक्तलक्षणरथिकविशेषस्य, प्रसूतवत्ता प्रकृष्टसारथिमत्ता, 'सूतः क्षत्ता च सारथिः' इत्यमरः / मत्वन्तत्वात् तलप्रत्ययः / अन्यत्र-प्रसूतवत्ता प्रजनयितृता, प्रकृष्टपुत्रवत्ता इत्यर्थः, कुबेरवदिति भावः / प्रपूर्वात् सूतेः क्तवत्वन्तत्वात् तलप्रत्ययः / अनलेन रथप्रदात्रा अग्निना, कूबरेण युगन्धरेण च, रथस्य युगकाष्ठबन्धनस्थानेनेत्यर्थः / 'कूबरस्तु युगन्धरः' इत्यमरः / अन्यत्र-नलकूबरेण तदाख्येन कुबेरपुत्रेण अन्वयात् योगात् , प्रकाशिता प्रकटिता, ततः कारणात् , एतस्य महारथस्य, कुबेरः एव दृष्टान्तः निदर्शनं, तबलेन तत्प्रभावेण, पुष्पकप्रकृष्टता पुष्पकात् प्रकृष्टता 1. '-वत्ता नल' इति पाठः 'प्रकाश' व्याख्यासम्मतः /
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________________ षोडशः सर्गः। 656 वेगाधिक्येनोस्कृष्टता, अन्यत्र-पुष्पकेण विमानविशेषग, प्रकृष्टता देवतान्तरापेक्षयोस्कृष्टता, अनुमीयते अयं महारथः पुष्पकप्रकृष्टो भवितुमर्हति प्रसूतवत्तादिधर्मसहित. महारथत्वात् कुबेरवदिति अनुमातुं शक्यत्वात् इति भावः / नलकूबरेति पाठे तुप्रसूतवत्ता प्रकृष्टसारथिमत्ता इत्यर्थः / नलेन नैषधेन सह, कूबरस्य रथयुगन्धरस्य, अन्वयात् सम्बन्धात् , प्रकाशिता नलापेक्षया उत्कृष्टसारथेरभावात् तादृशसारथिमस्वेनैवास्य रथस्य पुष्पकापेक्षया प्रकृष्टत्वमनुमितमिति भावः / अत' एवानुमानालकारः, 'साध्यसाधननिर्देशस्त्वनुमानमुदीरितम्' इति लक्षणात्। रूपहेतुत्वेन तर्कानुमानेन वैलक्षण्यं रूपकञ्च प्रसूतवत्तादिप्रकाशितैः तस्प्रकाशितेति श्लिष्टरूपकं द्रष्टव्यम् // 24 // जिस कारण इस महारथ ( बड़े रथ, पक्षा०-दश सहस्र वीरोंको युद्ध करानेवाला तथा अस्त्र-शस्त्रमें प्रवीण शूरवीर ) की श्रेष्ठ सारथिमत्ता ( श्रेष्ठ सारथिवालेका भाव, पक्षा०श्रेष्ठ पुत्रवत्ता ) अग्नि तथा फड़ (जुवा बांधनेका काष्ठ ) के सम्बन्ध (पक्षा०-नलकूबर के योग ) से प्रकाशित ( पक्षा०-शोभित ) है; उस कारण इस (महारथ ) का कुबेरके दृष्टान्तके प्रभावसे पुष्पक (नामक कुबेरके विमान-विशेष ) से ( अधिक वेग होनेसे) श्रेष्ठता ( पक्षा०-'पुष्पक' नामक विमानके कारण अन्यान्य देवोंसे श्रेष्ठता) का अनुमान होता है। ( पाठा०-... ... श्रेष्ठ सारथिवालेका भाव निषधेश्वर नलके साथ...." का ( या कुबेर के साथ नलका ) सम्बन्ध होनेसे प्रकाशित है, उस कारण नलकी अपेक्षा श्रेष्ठ सारथि नहीं हो सकनेसे वैसे परमोत्तम सारथिसे युक्त होनेसे ही इस विशाल रथकी 'पुष्पक' नामक कुबेररथकी अपेक्षा भी श्रेष्ठताका अनुमान होता है)। [ 'पुष्पक' नामक रथका सारथि नल नहीं हैं, अत एव इस रथके साथ उसकी समानता नहीं है और इस रथका सारथि नल है, अत एव यह रथ रमणीय है ] // 24 // महेन्द्रमुच्चैःश्रवसा प्रतायं यन्निजेन पत्याऽकृत सिन्धुरन्वितम् | स तहदेऽस्मै हयरत्नमर्पितं. पुरानुबधु वरुणेन बन्धुताम् / / 25 / / ___ महेन्द्रमिति / सिन्धुः समुद्रः, उच्चैःश्रवसा तन्नामकाश्वेन, महेन्द्र देवराज, प्रतार्य वञ्चयित्वा, यत् हयरत्नम् उच्चैःश्रवसोऽपि श्रेष्ठमित्यर्थः, निजेन पत्या स्वामिना वरुणेनेत्यर्थः, अन्वितं दानेन संयुतम् , अकृत वरुणाय ददौ इत्यर्थः / पुरा स्वयंवरात् पूर्वमेव, बन्धुतां बान्धवत्वम् , अनुबड़े प्रवर्त्तयितुं, वरुणेन अर्पितं भीमाय दत्तं, तत् हयरत्नं, सः भीमः, अस्मै नलाय, ददे दत्तवान् // 25 // समुद्रने उच्चैःश्रवाः ( ऊपर उठे हुए कानोंवाला होनेसे सुलक्षण, पक्षा०-बड़े बड़े कानोंवाला होनेसे कुलक्षण ) नामक घोड़ेसे महेन्द्रको ठगकर जिस घोड़ेको अपने स्वामी ( वरुण ) के लिए दिया, पहले ( स्वयंवरके आरम्भ होनेसे पूर्व) बन्धुत्व स्थिर करने के 1. 'अन्नानुमाना-' इति म० म० शिवदत्तशर्माणः /
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________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / लिए वरुणसे ( भीमके लिए ) दिये गये उस घोड़ेको उस (राजा भीम) ने इस (नल ) के लिए दिया / [ समुद्रमथनके समय समुद्रसे 'उच्चैःश्रवाः' नामक अश्वरत्न निकला, जिसे इन्द्रने प्राप्त किया, किन्तु उक्त 'उच्चैःश्रवासे भी श्रेष्ठ घोड़ेको छिपाकर 'उच्चैःश्रवाः' नामक साधारणतर घोड़ा इन्द्रको देकर ठग दिया और उस छिपाये हुए घोड़ेको अपने स्वामी वरुणके लिए दिया तथा वरुणने भीम राजाके साथ बन्धुत्वको स्थिर रखने के बहानेसे उसी घोड़ेको भीम राजाके लिए दिया, उस वरुणसे प्राप्त घोड़ेको राजा भीमने नलके लिए दिया। राजा भीमने नलके लिए जो घोड़ा दिया वह उच्चैःश्रवासे भी श्रेष्ठ था ] // 25 // जवादवारीकृतदूरदृक्पथस्तथाऽक्षियुग्माय ददे मुदं न यः / दददिदृक्षादरदासतां यथा तथैव तत्पांशुलकण्ठनालताम् / / 26 // जवादिति / अक्षियुग्माय द्रष्टः दृष्टियुगलाय, दिक्षायां दर्शनेच्छायां, यः आदर: आस्था, तस्य दासतां वश्यत्वं, ददत् अत्यन्त दिक्षामेव सम्पादयन् , यः हयः, जवात् वेगात् , तथा तेन प्रकारेण, अवारीकृतः अर्वाक्कृतः, द्राक अदूरीकृतः इति इति यावत् , निर्जलीकृतश्च गम्यते / 'पारावारे परार्वाची तीरे' इत्यमरः / दूरहकपथः दूरप्रसारिदृष्टिमार्गः, अश्वदिदृक्षणां बहुयोजनदूरे प्रेरितहष्टिपथः इत्यर्थः / येन तथाभूतः सन् , अथवा-चारो वारणं, णिजन्तात् वृधातोः घञ् / अवारः वारः कृत इति वारीकृतः, अभूततद्भावे विः / स न भवतीति अवारीकृतः अप्रतिरोधीकृतः, दूरदृकपथो येन सः, तथा च द्रष्टव्यवस्तुना दिदृक्षणां दूरहकपथस्य प्रतिरोधो भवति, किन्तु प्रकृतेऽश्वस्य सवेगगमनादेव दूरहकपथस्य प्रतिरोधाभाव इत्यर्थः, यथा मुदं हर्ष, न ददे न ददौ, अश्वस्य सवेगगमनात् द्रष्टणां दर्शनावकाशाभावेन नयनतृप्ति भूत् , अतः केवलं तृष्णामेव वर्द्धयति इति भावः। तथा तेन प्रकारेणव, तत् तेन अश्वेन, पांशुलः पांशुमान् , अश्वखुरोत्थरजसा धूलियुक्तः शुष्कश्च, कण्ठनालः यस्य द्रष्टनेत्रयुग्मस्य वा, तस्य भावः तत्ता तां, ददत् लक्षणया उत्कण्ठितत्वं ददानः, मुदं न ददे, कण्ठशोषकारी कथं मुदं दद्यादिति भावः। भक्षियुग्मस्य पांशुलकण्ठनालत्वं नाम दूरोद्धतधूलीधूसरप्रान्तस्वमुत्कण्ठाचरितत्वञ्च / अजस्रदर्शनीयवेगोऽयमश्व इति तात्प. र्यम् / अत्र अवारीकृतेति पांशुलकण्ठनालेति शब्दशक्त्या पिपासोः दृष्टिपथे निर्जलीकरणात् शुष्ककण्ठनालस्वकरणाच्च हर्षाजननरूपं वस्तु व्यञ्जनया बोध्यते इति ध्वनिः / अवारीकरणाद्यसम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः // 26 // ___दर्शकोंके दोनों नेत्रों के लिए, देखनेकी इच्छामें आदरके परवश करता हुआ अर्थात् दर्शनेच्छाको बढ़ाता हुआ जो घोड़ा वेगके कारण उस प्रकार समीपमें ( अथवा-इस पारमें, अथवा-जल रहित, अथवा-अवरोध रहित ) कर दिया है दूरस्थ ( बहुत योजनों तक १.'-दाशतां यथा-' इति पाठान्तरम् / 2. 'तयेव' इति, 'तृषेव' इति च पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 661 गये हुए ) दृष्टिमार्गको जिसने ऐसा होता हुआ जिस प्रकार हर्ष नहीं दिया; उसी प्रकार उस ( घोड़े ) से धूलियुक्त ( पक्षा०-सूखे हुए ) कण्ठनालवाला अर्थात् लक्षणसे उत्कण्ठित करता हुआ जो घोड़ा हर्ष नहीं दिया ( अथवा पाठा०-उस दर्शनेच्छाके विषयमें आदरके वशीभूत करनेसे ही रेणुयुक्त कण्ठनालताको देता अर्थात् उत्कण्ठित करता हुआ उसी प्रकार हर्ष नहीं दिया। [ दूरस्थ उस घोड़ेको देखनेके लिए बहुत उत्कण्ठित होकर दर्शक बहुत दूर तक नेत्रद्वयको फैलाये हुए था, किन्तु वह घोड़ा वेगके कारण दृष्टिके समीप आकर ( या-समीप आनेसे दृष्टि प्रतिरोध रहित कर भी ) नेत्रोंसे ओझल हो जानेसे उन्हें (दोनों नेत्रोंको) हर्ष नहीं दिया अर्थात् उस घोड़े को अच्छी तरह नहीं देख सकनेके कारण नेत्रद्वय हर्षित नहीं हुए, किन्तु दर्शकने सोचा कि यद्यपि इस बार घोड़ा वेगके कारण नेत्रोंसे ओझल हो गया और मेरे नेत्र उसे अच्छी तरह नहीं देख सके, तथापि लौटती बार यह घोड़ा अपनेको अच्छी तरह दिखाकर मेरे नेत्रोंको हर्षितकर देगा किन्तु इस बार भी उस घोड़ेकी खुरसे उड़ी हुई धूलिसे नेत्रोंके भर जानेके कारण वह घोड़ा दर्शकके नेत्रद्वयको फिर भी हर्षित नहीं किया अर्थात् दर्शकको घोड़ा देखनेकी उत्कण्ठा पूर्ववत् ही बनी रही / पक्षा०-जल रहित कर दिया है दूर तक दृष्टिमार्गको जिसने ऐसा वह पिपासु (प्यासे हुए ) के लिए नहीं ही देगा, किन्तु उस पिपासुके कण्ठको धूलियुक्त अर्थात सूखा ही कर देता है, क्योंकि उसे ( प्यासे हुएको ) तो जलसहित मार्ग हर्ष दे सकता है, जलरहित नहीं। जिस घोड़को दर्शक वेगके कारण दूरसे समीप आकर नेत्रसे ओझल होनेसे तथा लौटते समय उससे उड़ी हुई धूलिसे नेत्रको भर जानेसे अच्छी तरह नहीं देख सके और उसके देखने के लिए उत्कण्ठित ही रह गये; ऐसे घोड़े को राजा भीमने नलके लिए दिया ऐसा पूर्व श्लोक ( 16 / 25 ) से सम्बन्ध समझना चाहिये ] // 26 // दिवस्पतेरादरदर्शिनाऽदरादढौकि यस्तं प्रति विश्वकर्मणा / तमेकमाणिक्यमयं महोन्नतं पतग्रहं ग्राहितवान् नलेन सः / / 27 / / दिवस्पतेरिति / दिवस्पतेः इन्द्रस्य, दमयन्तीरागिणः इति भावः। 'तत्पुरुषे कृति बहुलम्' इति षष्ठया अलुकि कस्कादित्वाद् विसर्जनीयस्य सत्वम् / आदरदर्शिना भीमं प्रति समादरं पश्यता, विश्वकर्मणा देवशिल्पिना, तं भीमं प्रति, आदरात् स्वप्रभोरिन्द्रस्य भैम्यामनुरागित्वात् भीमे आदरदर्शनात् स्वस्यापि तस्पितरि भीमे समादरदर्शनमुचितमिति भीमे आदरप्रदर्शनाद्धेतोरित्यर्थः / यः पतद्ग्रहः, अढौकि उपाहाररूपेण प्रेरितः ढोकतेर्गत्यर्थे ण्यन्तात् कर्मणि लुङ् / तं विश्वकर्मदत्तम्, एकमा. णिक्यमयम् एकमात्रपद्मरागाख्यमणिनिर्मितं, महती उन्नतिः यस्य तम् अत्युनतम् अत्युत्कृष्टमित्यर्थः, पतत् मुखादिभ्यः स्त्रवत् ताम्बूलादिकंगृह्णातीति तं पतद्ग्रहं प्रतिग्राहं, 'पिकदानी' इति ख्यातं निष्ठयतताम्बूलभाजनमित्यर्थः, 'प्रतिग्राहः पतद्ग्रहः' इत्यमरः / 'विभाषा ग्रहः' इति ण-प्रत्ययाभावपक्षे 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यः-'
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________________ 662 नैषधमहाकाव्यम् / इत्यादिना अच् प्रत्ययः / सः भीमः, नलेन ग्राहितवान् अग्राहयत् , नलाय ददौ इत्यर्थः // 27 // __ स्वर्गाधीश ( इन्द्रका दमयन्तीमें अनुराग होने के कारण उस दमयन्तीके पिता राजा भीममें ) आदरको देखनेवाले विश्वकर्माने आदरसे उस ( राजा भीम ) के लिए जिस (पिकदानी-उगलदान ) को भेजा था, इस राजा भीमने एक माणिक्यके बने हुए अत्यन्त बड़े उस पिकदानको नलसे ग्रहण कराया अर्थात् नलके लिए दिया / [ अपने प्रभु इन्द्रका दमयन्तीमें अनुरागी होनेसे उसके पिता राजा भीममें आदर करना होनेसे अधीनस्थ विश्वकर्माका दमयन्ती-पिता राजा भीममें आदर करना उचित ही है ] // 27 // नलेन ताम्बूलविलासिनोज्झितैर्मुखस्य यः पूगकणैर्भूतो न वा | इति व्यवेचि स्वमयूखमण्डलादुदश्चदुच्चारणतारुचा चिरात् // 28 // नलेनेति / यः पतग्रहः प्रतिग्राहः 'पिकदानी' इति ख्यात इत्यर्थः, स्वमयूखमण्डलात् स्वकोयकिरणसमूहात् , उदञ्चन्ती उद्गच्छन्ती, उच्चा महती, या अरुणता अरुणत्वं, रक्तवर्णता इति यावत् / तस्याः रुचा कान्त्या, ताम्बूलविलासिना ताम्बूलप्रियेण, नलेन उज्झितैः निष्ठयतः, मुखस्य सम्बन्धिभिः पूरगकर्णः गुवाक शकले, भृतः पूर्णः, न वा इति, सन्दिय इति शेषः, चिरात् बहुकालेन, व्यवेधि विविक्तः, पूगकणैः भृतः इति निश्चित इत्यर्थः, / निश्चयान्तः सन्देहालङ्कारः // 28 // जिस ( पिकदानी-उगलदान ) की ( लोगोंने ) अपने किरण-समूहसे निकलती हुई अत्यधिक लालिमाकी कान्तिसे ताम्बूल-विलासी (पानके रसमात्रको लेकर शेष भागसीठीको थूक देने वाले ) नलके द्वारा छोड़े अर्थात् थूके गये सुपारीके (रक्तवर्ण) टुकड़ोसे 'यह भर गयी है या नहीं' ( ऐसा सन्देह करके ) बहुत देर के बाद ( भर गयी है ऐसा) निश्चय किया। ( पाठा०-फैलती हुई अत्यधिक लालिमासे ( अथवा-उदित होते हुए सूर्य, या अरुणके समान ) सुन्दर अपने किरणसमूह होने के कारणसे ताम्बूलविलासी...)। [ अभी उसी पिकदानीमें नलके थूकने का प्रसङ्ग नहीं होनेपर भी भावी कार्यकी दृष्टिसे उक्त सन्देह उत्पन्न होनेपर लोगोंने निश्चय किया, अथवा-माणिक्यमय उस पिकदानीके ही अत्यधिक लाल होनसे यह किरण-समूह है या सुपारीके टुकड़े हैं ऐसा सन्देह होने पर लोगोंने देरसे निश्चय किया कि यह इस पिकदानीका किरण-समूह ही है। राजा भीमने ऐसे माणिक्यकी बनी हुई पिकदानीको नल के लिए दिया ] // 28 // मयेन भीमं भगवन्तमर्चता नृपेऽपि पूजा प्रभुनाम्नि या कृता / अदत्त भीमोऽपि स नैषधाय तां हरिन्मणे जनभाजनं मतत् / / 26 / / मयेनेति / भगवन्तंभीमम महादेवम् , अर्चता पूजयता। अर्चतेभीवादिकालटः, शत्रादेशः / मयेन तदाख्यदैत्यशिल्पिना, प्रभोः शिवस्य, नाम भीम इति संज्ञा अस्ति यस्मिन् तस्मिन् प्रभुनाम्नि स्वामिनामधारिणि, नृपे भीमेऽपि, या पूजा कृता, उप
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________________ षोडशः सर्गः। हारत्वेन यन्मरकतभाजनं दत्तमित्यर्थः। सः भीमः हरिन्मणेः गारुस्मतमणेः सम्बन्धि, मरकतमणिमयमित्यर्थः। भोजनद्रव्यमिश्रितविषनाशयोग्यमिति भावः। महत् भोजनभाजनं भोजनपात्रं, भोजनपात्ररूपमित्यर्थः, तामपि मयकृतपूजामपीत्यर्थः, नैषधाय नलाय अदत्त // 29 // ___ भगवान् भीम (शङ्करजी ) की पूजा करते हुए 'मय' नामक दानवने प्रभु ( शङ्करजी) के नामवाले राजा (भीम ) की भी जो पूजा की अर्थात् जिस पन्ना मणिके बने हुए विषदोषनाशक भोजनपात्र ( थाल ) को दिया, उस हरिन्मणि ( पन्ना ) के बने हुए बड़े भोजनपात्र ( थाल ) को राजा मीमने भी नल के लिए दे दिया // 29 // छदे सदैवच्छविमस्य बिभ्रतां न केकिनां सर्पविषं प्रसर्पति / न नीलकण्ठत्वमधास्यदत्र चेत् स कालकूटं भगवानभोक्ष्यत / / 30 / / छदे इति / अस्य गारुत्मतभाजनस्य, छविं नीलां कान्ति, सदा सर्वदा एव, छदे पक्षे, बिभ्रतां दधतां, केकिनां मयूराणां सम्बन्धे, 'सर्पविषं न प्रसर्पति न तच्छरीरं व्याप्नोति / सः भगवान् ईश्वरः अपि, अत्र गारुत्मतभाजने, कालकूटं हलाहलम, अभोच्यत चेत् भुञ्जीत यदि, क्रियातिपत्तौ लुङ 'भुजोऽनवने' इति तङ्। तदा नीलकण्ठत्वं न अधास्यत् , तदभावात् कालकूटविषस्य कण्ठव्यापित्वेन नीलकण्ठत्वं जातमस्येत्यर्थः यत्सावात् केकिनः विषभयशन्याः, तत्पात्रे भोजने किं वक्तव्यम् इति भावः॥३०॥ जिस (विष-दोषनाशक हरिन्मणिनिर्मित भोजनपात्र ) .की कान्ति अर्थात् हरापनको सदैव अपने पङ्खमें धारण करनेवाले मयूरोंपर सर्पविष नहीं आक्रमण ( असर ) करता ( हानि पहुंचाता-मारता ) है; इस भोजनपात्रमें यदि वह शङ्करजी कालकूट ( समुद्रमथन के समय निकला हुआ अतीव तीब्र विष ) पीते तो वे नीलकण्ठ नहीं होते। [जिस भोजनपात्रके कान्तिमात्रको पङ्खमें धारण करनेसे सांपका विष मोरोको कुछ हानि नहीं पहुंचाता, उस भोजन पात्र में कालकूट विषको पान करनेसे शङ्करजीका कण्ठ भी उसके दोषसे नीला नहीं पड़ता, किन्तु शङ्करजीने कालकूट विषको इस भोजनपात्रमें रखकर नहीं पीया, अत एव उस विष के दोषसे उनका कण्ठ नीला हो गया // भीमने विषदोषनाशक वह हरिन्मणिमय भोजनपात्र नलके लिए दिया ] // 30 // विरोध्य दुर्वाससमस्खलदिवः स्रजं त्यजन्नस्य किमिन्द्रसिन्धुरः ? / अदत्त तस्मै स मदच्छलात् सदा यमभ्रमातङ्गतयेव वर्षकप // 31 / / विरोध्येति / अभ्रमातङ्गतया ऐरावतत्वेनेव, ऐरावतत्वहेतुकमिव इत्यर्थः / 'ऐरावतोऽभ्रमातङ्गरावणाभ्रमुवल्लभाः' इत्यमरः। अथवा-अभ्रवत् श्यामवर्णत्वात् जल. धरसदृशः मातङ्गः हस्ती, तस्य भावस्तत्ता तयेव तद्धेतुकमिव, मदच्छलात् दानजल 1. '-तयैव' इति पाठान्तरम् /
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________________ 164 नैषधमहाकाव्यम् / स्रावमिषात् , सदा वर्षकं वर्षणशीलमिति सापह्नवोत्प्रेक्षा / 'लषपत-' इत्यादिना उकञ्प्रत्ययः / यं सिन्धुरं, सः भीमः तस्म नलाय अदत्त दत्तवान् , यत्तदोनित्य सम्बन्धादव स इति पदमूहनीयम् / सः नलसास्कृतसिन्धुरः, दुर्वाससं विरोध्य मालात्यागादेव क्रोधयित्वा, अस्य दुर्वाससः सम्बन्धिनी, दुर्वाससा इन्द्राय दत्ताम्. इन्द्रेणापि ऐरावतकुम्भे स्थापितामित्यर्थः / स्त्र माल्यं, त्यजन् शुण्डया भुवि क्षिपन्, इन्द्रसिन्धुरः इन्द्रगजः, ऐरावतः इत्यर्थः / दिवः स्वर्गात् , अस्खलत् तदभिशापवशात् भ्रष्टः, किम ? स्वदत्तस्त्रक्ल्यागापराधनिमित्तात् दुर्वाससः शापात् दिवश्च्युत. ऐरावत एवायं किमित्युत्प्रेक्षा // 31 // मानो ऐरावत ( इन्द्र-गज ) होने के कारण ( पाठा०-ऐरावत होने के कारण ही ) मदके बहानसे सर्वदा वर्षणशील अर्थात निरन्तर मदवृष्टि करनेवाले जिस हाथीको उस (राजा भीम ) ने उस ( नल ) के लिए दिया, मालाका त्याग करता हुआ वह इन्द्र-गज ( ऐरावत) दुर्वासा मुनिसे विरोधकर स्वर्गसे स्खलित हुआ अर्थात् भूलो कमें आ गया है क्या ? // 31 / / पौराणिकी कथा-किसी समय ऐरावत हाथी पर चढ़कर जाते हुए इन्द्र के लिए प्रसन्न दुर्वासा ऋषिने मन्दारपुष्पोंकी माला दी, उस मालाको इन्द्रने ऐरावतके मस्तकमें पहना दिया और उसने उसको संडसे निकालकर नीचे फेक दिया, इस कार्यसे सुलभकोप क्रुद्ध दुर्वासा ऋषिने उस ऐरावतको शाप दिया कि 'मेरी दी हुई मन्दारमालाको तुमने नीचे फेक दिया है, अत एव तुम भी नीचे गिरो' / मदान्मदने भवताऽथवा भिया परं दिगन्तादपि यात जीवत / इति स्म यो दिक्करिणः ! स्वकर्णयोर्विनाऽऽह वर्णस्रजमागतैर्गतैः? // मदादिति / 'दिक्करिणः! दिग्गजाः! मदात् बलगर्वात् , मदने ममाग्रे, भवत योद्ध तिष्ठत इत्यर्थः। अथवा भिया बलाभावजनितभयेन, दिगन्तात् अपि दिकप्रान्तादेव, दूरादेवेत्यर्थः। परं दूरं यात गच्छत, जीवत पलायित्वा यथा कथञ्चित् प्राणान् धारयत, सर्वत्र यूयमिति शेषः / यः गजः, इति इत्थं, वर्णस्रजम् अक्षरपङ्क्तिं, विनेव वागजालमन्तरेणैवेत्यर्थः / स्वकर्णयोः आगतैर्गतैः यातायातः, केवलं कर्णसञ्चालनैरेवेत्यर्थः। आह स्म ब्रूते स्म किम् ? इत्यर्थः / गम्योत्प्रेक्षा। 'लट् स्मे' इति भूते लट , 'ब्रवः पञ्चानामादित-' इत्यादिना णलाहादेशौ // 32 // जो हाथी अक्षर-समूहके बिना ही कानों के गमनागमन अर्थात् हिलानेसे 'हे दिग्गजों ! ( यदि तुम लोगोंको मदाभिमान है तो ) मदसे मेरे सामने (युद्ध करने के लिए) आवो, अथवा ( यदि मदाभिमान नहीं है तो मेरे ) भयसे दिगन्तके भी पार अर्थात बहुत दूर जावो ( और इस प्रकार ) जीवो अर्थात् अपने प्राणोंकी रक्षा करो' ऐसा कह रहा था / ( उस हाथीको राजा भीमने नलके लिए दिया, ऐसा पूर्व (16 / 31) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये ) // 32 //
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________________ षोडशः सर्गः। अंधत्त बीजं निजकोर्तये रदौ द्विषामकोत्त्य खलु दानविषः ? / श्रवश्रमैः कुम्भकुचां शिरः श्रियं मुंदे मदस्वेदवतीमुपास्त यः ? // 33 // अधत्तेति / यः गजः, निजकीतये स्वयशसे कीर्तिप्ररोहायेत्यर्थः। रदौ दन्तौ एव, बीजम् अङ्कुरोद्गमकारणं, तथा द्विषां शत्रूणाम, अकीत्यै अयशसे, अकीर्तिप्ररो. हाय इति भावः / दानविपुषः मदबिन्दून् एव, बीजम् अधत्त खलु ? धारयामास किम् ? दन्ताभ्यां परेषां विदारणात् निजकोयुत्पत्तिरिति तथा मदगन्धेनैव परगजानां भीत्या पलायनात् तेषामकीयुत्पत्तिरिति च भावः / कीर्त्यकीयोः सितासित. स्वात् सितासितयोरेव दन्त-दानकणयोः कीर्त्यकीर्तिबीजत्वेनोस्प्रेक्षा। किञ्च, कुम्भावेव कुचौ यस्यास्ताम्, अन्यत्र-कुम्भौ इव कुचौ यस्याः तां, मदस्वेदवती मदजलरूपधर्मोदकवतीम् , अन्यत्र-मदजलवत् स्वेदवतीमिति सात्विकोक्तिः, शिर:श्रियं शिरःशोभां, श्रवसोः कर्णयोः, श्रमैः व्यापारैः, कर्णतालैरेव व्यजनवातैरिति भावः / मुदे स्वेदापहरणात्तस्याः हर्षाय, उपास्त असेवत किम् ? इत्युत्प्रेक्षात्रयस्य संसृष्टिः // 33 // जो हाथी अपनी कीर्तिके लिए ( श्वेत ) दो दाँतरूप बीजको तथा शत्रुओंकी अकीर्तिके लिए ( कृष्ण ) मदजलके बूंदोंको धारण करता था क्या ? और कुम्भरूपी ( पक्षा०-कुम्भके समान विशाल ) स्तनोंवाली तथा मदजलरूप ( पक्षा०-मदजलके समान ) पसीनेवाली शिरःशोभा ( पक्षा०-शिरकी शोभारूपिणी नायिका ) को हर्ष अर्थात् प्रसन्न करनेके लिए ( पाठा०-हर्षके साथ ) कानोंके प्रयाससे अर्थात् कानोंको सञ्चालितकर पंखेसे हवा करके सेवा करता था ( 'उस हाथीको राजा भीमने नलके लिए दिया' ऐसा पूर्व (16 / 31) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये ) / [ शत्रुओंको दन्तप्रहारसे मारकर विजय प्राप्त करनेसे कीर्ति उत्पन्न होनेके कारण श्वेत कीर्तिका श्वेत वर्ण बीजरूप दाँतका होना उचित ही है / तथा मद-जलके अतितीव्र गन्धको सँघते ही शत्रुओंके हाथियोंको युद्धभूमिसे भाग जाने के कारण शत्रुओंको अकीर्ति होनेके कारण कृष्ण वर्ण अकीर्तिका कृष्णवर्ण बीजरूप मदजलका होना भी उचित ही है / और जिस प्रकार कोई नायक कुम्मके समान विशाल स्तनोंवालो रतिश्रान्त होनेसे पसीनेसे युक्त नायिकाकी पंखोंसे हवा करके सेवा करता है, उसी प्रकार यह हाथी मस्तकस्थ कुम्भरूप स्तनोंवाली तथा मदजलरूप स्वेदसे युक्त मस्तक-शोभारूपिणी नायिकाकी प्रसन्न करने के लिए कानरूप पंखेसे हवा करता है, इस प्रकार यहां तीन उत्प्रेक्षाएँ की गयी हैं ] // 33 // न शातकुम्भेषु न मत्तकुम्भिषु प्रयत्नवान् कोऽपि न रत्नराशिषु / / 34 / / नेति / तेन भीमेन, विवाहे दक्षिणीकृतेषु वराय दक्षिणास्वरूपेण दत्तेषु इत्यर्थः, 1. 'वभार' इति पाठान्तरम् / 2. 'मुदा' इति पाठान्तरम् /
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________________ 666 नैषधमहाकाव्यम् / वाहेषु वाजिषु विषये 'वाजिवाहार्वगन्धर्व-' इत्यमरः। सङ्घयानुभावे इयत्तापरि. च्छेदे, प्रयत्नवान् उद्योगवानपि, कोऽपि जनः, क्षमः शक्तः, न अभवत् , तथा शात. कुम्भेषु स्वर्णेषु, 'स्वर्ण सुवर्ण कनकं हिरण्यं हेम हाटकम् / तपनीयं शातकुम्भम्' इत्यमरः / न, मत्तकुम्भिषु मदसाविगजेषु, न, रत्नराशिषु रत्नसमूहेषु च, न, सर्वत्र सङ्ख्यानुभवे क्षमः अभवत् इत्यनुषङ्गः। विवाहकालप्रदत्ताश्वादिषु' सङ्ख्यासम्बन्धेऽप्यसम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 34 // ____ उन ( राजा भीम ) के द्वारा विवाहमें दक्षिणा ( दहेज ) दिये गये घोड़ों ( या-रथादि सवारियों ), ( आभूषणादि बनाये गये तथा बिना आभूषण बनाये ही दिये गये ) सुवर्णों, मतवाले हाथियों और रत्नों की ढेरोंकी गणना करनेमें प्रयत्नशील भी कोई व्यक्ति समर्थ नहीं हुआ // 34 // करग्रहे वाम्यमत्त यस्तयोः प्रसाद्य भैम्याऽनु च दक्षिणीकृतः / कृतः पुरस्कृत्य ततो नलेन सः प्रदक्षिणस्तत्क्षणमाशुशुणिः // 35 // करेति / यः आशु शोषितुम् इच्छतीति आशुशुक्षणिः अग्निः 'अग्निर्वैश्वानरो वह्निः शिखावानाशुशुक्षणिः' इत्यमरः / 'आङि शुषेः सनश्छन्दसि' इत्योणादिकसूत्रेणापर्वाच्छुषेर्धातोः सन्नन्तादनिप्रत्ययः। अयञ्च शिष्टप्रयुक्तोऽपि भाषायामपीष्यते तयोभैमीनलयोः, करग्रहे पाणिग्रहे विषये, वाम्यं वामभावं, वक्रतामिति वामभागवर्तित्वमिति चार्थः / वामं सव्ये प्रतीपेच' इति विश्वः / अधत्त भैमीकामुकतया पूर्व प्रतिकूल आसीदित्यर्थः। अनु पश्चात् , वाग्यानन्तरमित्यर्थः। भैम्या प्रसाद्य स्तुत्यादिना प्रसन्नीकृत्य, दक्षिणीकृतश्च अदक्षिणः दक्षिणः कृतः इति दक्षिणीकृतः अनुकूलीकृतः इत्यर्थः / दक्षिणभागवर्ती कृतः इत्यर्थश्च / 'दक्षिणो दक्षिणोद्भूतपरच्छन्दानुवर्तिषु / अवामे-' इति विश्वः / ततस्तदनन्तरं, नलेन सः आशुशुक्षणिः, तत्क्षणं सः एव क्षणः यस्मिन् कर्मणि तत् इति क्रियाविशेषणम्, सः चासौ क्षणश्चेति कर्मधारये वाऽत्यन्तसंयोगे द्वितीया। विवाहसमये, पुरस्कृत्य उल्लेखनादिसंस्कारपूर्वकम् अग्रतः कृत्वा च, प्रदक्षिणः अत्यन्तानुकूलः दक्षिणभागवर्ती च, दक्षिणभागे बलयाकारेण वेष्टित इति वा, कृतः। पूर्व प्रतिकूलोऽप्यग्निः प्रार्थनया अनुकूलितः इत्येकोऽर्थः / अग्निप्रदक्षिणीकृत्येत्यादिशास्त्रार्थोऽनुतिष्ठतः इत्यपरार्थः // 35 // जो ( अग्नि ) उन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) के विवाहके विषयमें प्रतिकूल ( दमयन्तीका कामुक होनेसे नलरूप धारणकर स्वयंवर में उपस्थित होनेसे विरुद्ध / पक्षावामभागस्थ ) था, बाद दमयन्तीने ( नलवरणकाल ) में ( स्तुति आदिके द्वारा) प्रसन्नकर अनुकूल ( पक्षा०-दक्षिण भागस्थ ) किया; उसी अग्निको बाद नलने विवाहके समयमें (उल्लेखन आदि संस्कारके साथ ) आगे करके प्रदक्षिण ( अतिशय अनुकूल, पक्षा०-दक्षिण 1. 'विवाहादिषु......' इति म०म० शिवदत्तशर्माणः /
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________________ षोडशः सर्गः। 167 भागस्थ अर्थात् दहने भागमें स्थित, अथवा-फेरा देकर प्रदक्षिण ) किया। [ पहले विवाह में जो अग्नि प्रतिकूल ( पक्षा०-वामभागस्थ ) था, उसे दमयन्तीने तथा बादमें नलने प्रदक्षिणा ( फेरा देते समय दहने भागमें, पक्षा०-अत्यन्त अनुकूल ) किया अर्थात् उनने अग्निकी प्रदक्षिणा की / लोकमें भी विवाहसे पहले प्रतिकूल रहनेवाले व्यक्तिको विवाहकालमें स्तुति आदिसे प्रसन्नकर तथा आगे कर ( या–पुरस्कृतकर ) अत्यन्त अनुकूल बना लिया जाता है ] // 35 // स्थिरा त्वमश्मेव भवेति मन्त्रवागनेशदाशास्य किमाशु तां हिया ? / शिला चलेत् प्रेरणया नृणामपि स्थितेस्तु नाचालि विडोजसाऽपि सा / / स्थिरेति / त्वम् अश्मा पाषाणखण्ड इव, स्थिरा निश्चला, भव तिष्ठेत्यर्थः इति मन्त्रवाक तां दमयन्तीम्, आशास्य स्वाक्षरैः प्रकाश्यां 'शिलावत् अचला भव' इति एवंरूपाम् आशिषं वितीर्य, हिया हीनोपमाकरणहेतुकलज्जया इवेत्युत्प्रेक्षा गम्या, आशु सपदि, अनेशत अदृश्यतां गता, किम् ? वर्णानाम् उच्चरितानन्तरप्र. ध्वंसित्वादिति भावः, नशेलुङि पुषादित्वादङि 'नशिमन्योरलिटयेत्वं वक्तव्यम्' इति एत्वम् / हीनोपमात्वं व्यनक्ति शिला अश्मा, नृणां मनुष्याणाम् अपि,प्रेरणया व्यापारविशेषेण, चलेत्, तु पुनः, सा दमयन्ती, विडोजसा देवेन्द्रेण अपि, स्थितेः पतिव्रता. मार्गात् , न अचालि न चालिता, न चालयितुं शक्तेत्यर्थः, चलेय॑न्तात् कर्मणि लुङ। अत्र पूर्ववाक्यार्थस्योत्तरवाक्यार्थहेतुकरवात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः // 3 // (हे दमयन्ति ! 'इममश्मानमारोह' अर्थात् 'इस पत्थरपर पैर रक्खो' ऐसा मन्त्रोच्चारणकर ) 'तुम पत्थरके समान स्थिर होवो' ऐसा ( नलके द्वारा कथित ) मन्त्रवाक् उसे ( दमयन्तीको, 'तुम पत्थरके समान स्थिर होवो' ऐसा) आशीर्वाद देकर लज्जाके कारण शीघ्र ही नष्ट हो गयी क्या ? ( उसके लज्जित होनेमें यह कारण है कि-) पत्थर तो ( साधारणतम शक्तिवाले) मनुष्योंकी भी प्रेरणा ( हाथ-पैर आदिके व्यापार ) से चलायमान हो जाता है, किन्तु वह ( दमयन्ती ) परमशक्तिशाली इन्द्र के द्वारा भी मर्यादा (मनोव्यापारमात्रसे पतिरूपमें स्वीकृत नलवरणरूप सतीत्व ) से नहीं चलायमान हुई। [ यद्यपि नलोक्त मन्त्रवाक् वर्णरूप होनेसे स्वभावतः नष्ट हो गयी थी, किन्तु उसके शीघ्र नष्ट होनेमें 'पत्थर साधारण शक्तिवाले मनुष्यादिके हाथ आदिके व्यापारसे चञ्चल हो जाता है और दमयन्ती महाशक्तिशाली इन्द्र के अनेक प्रयत्न करने पर भी अपने पातिव्रत्यरूपी मर्यादा पर स्थिर बनी रही, अत एव इस दमयन्तीको उपमेय तथा पत्थरको उपमा बनाकर 'तुम पत्थरके समान स्थिर होवो' ऐसा आशीर्वचन कहना अनुचित होनेसे उस वचनको लज्जित होकर शीघ्र नष्ट होनेकी उत्प्रेक्षा कविने की है। लोकमें भी हीन व्यक्तिको बड़े व्यक्तिसे उच्च श्रेष्ठ कहा जाता है तो वह हीन व्यक्ति लज्जित होकर छिप जाता है। दमयन्तीने विधिप्राप्त अश्मारोहण कार्य किया ] // 36 //
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________________ 668 नैषधमहाकाव्यम् / प्रियांशुकग्रन्थिनिबद्धवालसं तदा पुरोधा विदधद् विदर्भजाम् | जगाद विच्छिद्य पदं प्रयास्यतः नलादविश्वासमिवैष विश्ववित् / / 37 / प्रियेति / तदा तत्काले, विदर्भजां वैदर्भी प्रियस्य नलस्य, अंशुके उत्तरोये, 'अंशुकं श्लचणवस्त्रे स्याद् वस्त्रमात्रोत्तरीययोः' इति मेदिनी / ग्रन्थिना बन्धविशेषेण, निबद्धवाससं ग्रथितांशुकां, विदधत् कुर्वन् , देशाचारप्राप्तत्वादिति भावः / विश्ववित् सर्वज्ञः, त्रिकालज्ञ इत्यर्थः / एष पूर्वोक्तः, पुरोधाः पुरोहितः, गौतमः इति यावत् / पटं वस्त्रं, विच्छिद्य द्वेधा विपाट्य, प्रयास्यतः वने भैमी परित्यज्य गमिष्यतः, नलात् अविश्वासम् अप्रत्ययं, जगादेव उवाचेव, ज्ञापयामासेवेत्यर्थः / आगाम्यर्थज्ञापनार्थमिवानयोरविच्छेदेनावस्थानाथं वस्त्राञ्चलद्वयं जग्रन्थेति उत्प्रेक्षा। भारते आरण्य. पर्वणि नलोपाख्याने श्लोकः,-'ततोद्ध वाससश्छित्त्वा विवस्य च परन्तप!। सुप्ता. मुत्सृज्य वैदभी प्रागवद्गतचेतनः // ' इति // 37 // उस ( विवाहके ) समयमें प्रिय (नल ) के कपड़ेको गांठमें बाँधे गये कपड़ेवाली दमयन्तीको करते हुए सर्वश इस पुरोहित ( गौतम ) ने भविष्यमें कपड़ा काटकर जानेवाले नलसे मानों अविश्वासको कह दिया / [ विवाहकालमें गौतमके द्वारा किये गये ग्रन्थिबन्धन. कर्मको कविने यहाँपर उत्प्रेक्षा की है कि-भविष्यमें नल कपड़ा काटकर तुम्हें छोड़कर चले जायेंगे, अतः इनका विश्वास मत करो और इनके कपड़ेसे अपना कपड़ा बांध लो, जिससे ये तुमको छोड़कर चले न जावें / लोकमें भी किसीके कहीं चले जानेकी आशङ्का होती है तो उसके कपड़ेके साथ अपने कपड़ेमें गांठ बांध लेते हैं / पुरोहित गौतमने विधिप्राप्त दोनोंका ग्रन्थिबन्धनकर्म किया ] // 37 // पौराणिक कथा-महाभारतमें यह कथा आयी है कि नल कलिसे पराजित हो अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति हारकर वनमें दमयन्तीके साथ चले गये, वहाँ पक्षीका रूप धारणकर आये हुए कलिपर उसे पकड़ने के लिये नलने अपना वस्त्र फेंका और पक्षिरूपधारी वह कलि वस्त्र लेकर उड़ गया, बादमें वस्त्रहीन नलने दमयन्तीके आधे वस्त्रको स्वयं पहना और सोई हुई दमयन्तीके आधे वस्त्रको फाड़कर उसे सोई हुई छोड़कर चल दिये। ध्रुवावलोकाय तदुन्मुखभ्रवा निर्दिश्य पत्याऽभिदधे विदर्भजा | किमस्य न स्यादणिमाऽक्षिसाक्षिक स्तथाऽपि तथ्यो महिमाऽऽगमोदितः / / 3 / / ध्रुवेति / ध्रुवावलोकाय दमयन्तीं ध्रुवनक्षत्रप्रदर्शनाय, 'विवाहे ध्रुवमरुन्धतीञ्च दर्शयेत्' इति शास्त्रात् / तदुन्मुखभ्रुवा तदुन्मुखी ध्रुवाभिमुखी भ्रूः यस्य तादृशेन, पत्या नलेन, निर्दिश्य ध्रुवं पश्येति आदिश्य, विदर्भजा वैदर्भी, अभिदधे अभिहिता, 1. 'विदधे' इति पाठान्तरम्।
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________________ षोडशः सर्गः। 666 कर्मणि लिट् / किं तत् ? इत्याह-अस्य ध्रवस्य, अणिमा अणुत्वं, शुद्रपरिमाणत्वमि. त्यर्थः / अक्षिसाक्षिकः चक्षुःप्रमाणकः, न स्यात् किम् ? चक्षुषा न लक्ष्यते किमित्यर्थः, तथाऽपि अस्य क्षुद्रपरिमाणवत्वे चतुष एव प्रमाणत्वे सत्यपीत्यर्थः। आगमोदितः ज्योतिःशास्त्रोक्तः, महिमा महत्ता एव, बृहत्परिमाणत्वमेवेत्यर्थः। तथ्यः प्रामाणिकः, दूरत्वदोषेण अणुत्वग्राहिप्रत्यक्षस्य आगमापेक्षया दुर्बलत्वात् हस्ताईमितचन्द्रप्रत्यक्ष वदिति भावः / महदपि दूरात् अणु प्रतीयते इति प्रसिद्धिः // 38 // ध्रुवको दिखानेके लिए उसके उन्मुख भ्रवाले निर्देशकर पति (नल ) ने दमयन्तीसे कहा कि-'इस (ध्रुव ) की सूक्ष्मता नेत्रगोचर नहीं है क्या ? अर्थात् यद्यपि नेत्रगोचर है ही, तथापि वेदोक्त महिमा सत्य है अर्थात् यद्यपि इस सूक्ष्म ध्रुवको स्वयं तुम देख सकती हो तथापि 'ध्रुवमुदोक्षस्व' (ध्रुवको देखो ) ऐसा पतिके कहनेपर 'ध्रुवं पश्यामि, प्रजां विन्देय' (ध्रुवको देखती हूं, प्रजा अर्थात् सन्तानको प्राप्त करें ) ऐसा वधू कहे' ऐसा श्रुतिवचन ही सत्य है (पक्षा०-यद्यपि ध्रुवतारा अत्यन्त सूक्ष्म है, तथापि ज्योतिष शास्त्रमें इसका प्रमाण जो बहुत बड़ा कहा गया है, वह ज्यौतिष शास्त्रोक्त वचन सत्य है)। दमयन्तीको नलने विधिप्राप्त ध्रुवदर्शन कराया // 38 // धवेन साऽदर्शि वधूररुन्धतीं सतीमिमां पश्य गतामिवाणुताम् | कृतस्य पूर्व हृदि भूपतेः कृते तृणीकृतस्वर्गपतेर्जनादिति // 39 // धवेनेति / पूर्व विवाहात् प्रागेव, हृदि कृतस्य पतित्वेन मनसि निश्चितस्य, भूपतेः नलस्य, कृते निमित्तं, नलवरणार्थमित्यर्थः / तादर्थेऽव्ययम् / तृणीकृतस्वर्ग: पतेः अगणितमहेन्द्रात् , जनात् त्वत्तः इति यावत् / 'पञ्चमी विभक्ते' इति पञ्चमी / अणुतां सूक्ष्मता, पातिव्रत्यगुणेन न्यूनताञ्च, गतामिव स्थितां, सती साध्वीम् , इमाम् अरुन्धतीम् अरुन्धतीनक्षत्रं पश्य इति, उक्त्वेति शेषः। सा बधूः नवोढा भैमी, धवेन भर्ता नलेन, अदर्शि दर्शिता / दृशेय॑न्तादात्मनेपदिनः कर्मणि लुङ / 'अभिवादिहशोरात्मनेपदे वेति वाच्यम्' इति अणिकत्त: कर्मत्वम्, अत्र च तस्याभिहितत्वात् न द्वितीया // 39 // ___(विवाहसे ) पहले ही हृदयमें (पतिरूपमें निश्चित) किये गये राजा (नल) के लिए तृणवत् किये ( तृणके समान तुच्छ मानकर छोड़े गये ) इन्द्र हैं जिससे ऐसे आदमी अर्थात तुमसे लज्जित होने के कारणसे दुर्बलता ( पक्षा०-अतिशय सूक्ष्मता) को प्राप्त हुई पतिव्रता इस अरुन्धतीको देखो' ( ऐसा कहकर ) पति (नल) ने वधू ( दमयन्तीको) से अरुन्धतीको दिखलाया। [मैंने तो विवाहके बाद पतिव्रत धर्मका पालन करती हुई परपुरुष होनेसे इन्द्र तकको तुच्छ समझकर त्याग किया, किन्तु इस दमयन्तीने विवाह के पहले ही केवल मनमें पतिरूपसे वरण किये गये राजा नलके लिए स्वयंवरमें स्वयं आये १.'-दितः' इति सुखावबोध्यस्थपाठः' इति म०म० शिवदत्तशर्माणः /
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________________ 670 नैषधमहाकाव्यम् / हुए इन्द्र तकको तृणवत् तुच्छ समझकर त्याग करती हुई सतीधर्मका पालन किया, अत एव यह दमयन्ती मुझसे भी अधिक श्रेष्ठ पतिव्रता है, इस कारणसे उत्पन्न लज्जाके कारण मानो दुर्बल हुई अरुन्धतीको बतलाकर नलने दमयन्तीको दिखलाया। नलने दमयन्तीको आचार-प्राप्त अरुन्धती-दर्शन कराया ] // 39 // प्रसूनता तत्करपल्लवस्थितैरुडुच्छवियोम्नि विहारिभिः पथि / मुखेऽमराणामनले रदावलेरभाजि लाजैरनयोज्झितैर्यु तिः / / 40 / / प्रसूनतेति / तस्करपल्लवस्थितः होमार्थ भैम्याः पाणिकिसलयरतैः इत्यर्थः / लाजैः भष्टशालिभिः परिवापकापरपर्यायः, 'लाजाः पुम्भूम्नि परिवापके' इति वैजयन्ती। प्रसूनता पुष्पत्वम् अभाजि प्रापि, तत्सादृश्यं प्राप्तम् इत्यर्थः। लाजा दमयन्तीकरकमले पुष्पवत् परिदृश्यमाना अभूवन् इति निष्कर्षः। भजतेः कर्मणि लुङ / अथ अनया वध्वा, उज्झितेः अग्नि लच्यीकृत्य त्यक्तैः, अत एव पथि मध्ये मार्ग, व्योम्नि विहारिभिः व्योमचारिभिः, खेचरैः सद्भिरित्यर्थः, उडुच्छविः नक्षत्र कान्तिः, तत्सदृशशोभा इत्यर्थः / अभाजि, ततश्च अमराणां देवानां मुखे आस्यभूते, अनले अग्नी, 'अग्निमुखा वे देवाः' इति श्रुतेः / रदावलेः दन्तपङ्क्तेः , द्युतिः शोभा, तत्सदृशकान्तिरित्यर्थः अभाजि / अत्र एकस्य लाजद्रव्यस्य क्रमेण करपल्लवाद्यनेका. धारवृत्तित्वकथनात् पर्यायभेदः तथा लाजानां प्रसूननक्षत्रदन्तशोभासादृश्यानिदर्श: नाभेदः इत्यनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 40 // दमयन्तीके हाथरूप पल्लवमें स्थित खोलों ने पुष्पत्व अर्थात् पुष्पशोभाको प्राप्त किया, इस ( दमयन्ती ) से छोड़ी गयी तथा आकाश ( दमयन्तीके करपल्लव तथा भूमिष्ठ अग्निके मध्यभाग ) में विहार करने ( गिरने ) वाली खीलोंने नक्षत्रोंकी शोमाको प्राप्त किया और ( 'अग्निमुखा वै देवाः' अर्थात् 'देव अग्निमुख है' इस श्रुतिवचनके अनुसार ) देवोंके मुख अग्निमें ( दमयन्तीके द्वारा हुत = हवनकी गयी) उन खीलोंने दन्तपंक्तिकी शोभाको प्राप्त किया। [हस्तपल्लवमें पुष्पका, आकाशमार्गमें नक्षत्रोंका और मुखमें दन्तपंक्तिका होना उचित ही है / दमयन्तीने विध्यनुक्रमते प्राप्त लाजाहुति की ] // 40 // तया गृहीताऽऽहुतिधूमपद्धतिर्गता कपोले मृगनाभिशोभिताम् / ययौ दृशोरूजनतां श्रुतौ श्रिता तमाललीलामलिकेऽलकायिता / / 4 / / तयेति / तया वध्वा, गृहीता स्वीकृता, आहुतेः लाजाहोमस्य, धूमपद्धतिः धूमरेखा, कपोले गण्डदेशे, मृगनाभिः कस्तूरी इव शोभते इति मृगनाभिशोभिनी, तस्या भावः तत्ता तां मृगनाभिशोभिता, 'कर्त्तयुपमाने' इति णिनिः। 'स्वतलोः' इति पुंवमावः / गता प्राप्ता, तथा हशोः नयनयोः, अञ्जनता कज्जलतां, ययौ प्राप, तरसा. दृश्यं गता इत्यर्थः / तथा श्रुतौ श्रोत्रे, तमालस्य तमालावतंसस्य, लीलां विलासं, 1. 'प्रतीष्ठा-' इति पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 671 श्रिता प्राप्ता, अलिके ललाटे च, 'ललाटमलिक गोधिः' इत्यमरः / अलकायिता अलकवत् आचरिता, चूर्णकुन्तलत्वं गतेत्यर्थः / उपमानादाचारक्यन्तात् कर्मणि क्तः। अत्रापि एकस्यैव धूमस्य क्रमात् अनेकाधारसन्बन्धात् पर्यायः, तदुपजीविनामुत्तरेषां यथायोगमुपमानिदर्शनाभ्यां पूर्ववत् सङ्करः // 41 // ____उस ( दमयन्ती ) के द्वारा ( अञ्जलिसे ) गृहीत ( लाजा ) आहुतिके धूम-समूहने कपोल में कस्तूरीकी शोभाको प्राप्त किया, ( उससे ऊपर जाकर ) नेत्रद्वयमें कज्जलताको प्राप्त किया, ( उससे भी ऊपर जाकर ) दोनों कानोंमें तमाल ( पत्र ) की शोभाको प्राप्त किया और ( उससे भी ऊपर जाकर ) केशो में केशकी शोभाको प्राप्त किया / [ कपोलमें कस्तूरी, नेत्रों में अञ्जन, कानोमें तमालपत्र और केशोंमें केशकी शोमाका होना उचित है / क्रमप्राप्त विधिके अनुसार दमयन्तीने अअलिसे लाजाहुतिके धूमको ग्रहण किया ] // 41 // अपह्नतः स्वेदभरः करे तयोस्त्रपाजुषोर्दानजलैमिलन्मुहुः। दृशारापे प्रोद्गतमश्रु सात्त्विक धनैः समाधीयत धूमलङ्घनैः / / 42 // अथानयोस्त्रिभिः सात्त्विकोदयमाह-अपहृत इत्यादिभिः / त्रपाजुषोः लज्जाभाजोः, तयोः वधूवरयोः, करे पाणी, स्वेदभरः सत्त्विकभावोदयसूचकधर्मजलातिशयः, मुहुः पुनः पुनः, दानजलेः तत्कालोचितदानार्थमुदकैः, मिलन मिश्रीभवन्, अपहृतः आच्छादितः, आत्मानं गोपायितवान् इत्यर्थः / दृशोः अदणोः अपि, प्रोद्गतम् आविर्भूतं, सात्त्विकं सत्त्वसमुद्भूतम्, अश्रु नेत्रोदकं, धनैः सान्द्रेः, पुनीभूतैरित्यर्थः / धूमलङ्घनैः धूमपीडनै, समाधीयत समाहितः, परिहृतः इति यावत् / अत्र स्वेदाश्रुणोः सहजयोरागन्तुकदानोदकधूमाभिभवाभ्यां तिरोधानान्मीलनभेदः, 'मीलनं वस्तुना यत्र वस्त्वन्तरनिगूहनम्' इति लक्षणात् // 42 // उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती ) के लज्जायुक्त हाथमें ( परस्पर स्पर्शजन्य सात्त्विकभावसे ) बार बार उत्पन्न अधिक स्वेद ( पसीने ) को ( ब्राह्मणों के द्वारा दिये गये ) दानार्थ जलने छिपा दिया ( अथवा-......हाथमें उत्पन्न अधिक स्वेदको बार-बार ( ब्राह्मणों के द्वारा दिये गये ) दानार्थ जलने छिपा दिया) और उन दोनोंके सलज्ज नेत्रों में उत्पन्न सात्त्विक आँसूको भी अधिक धूमाक्रमणने छिपा दिया। [वधवरके परस्पर हाथका स्पर्श होनेपर लज्जाके कारण उनके हाथोंमें सात्त्विक भावसे उत्पन्न पसीना दानके लिए ब्राह्मणोंसे दिये गये जलसे लोगोंको लक्षित नहीं हुआ अर्थात् स्वेदयुक्त हाथमें बार-बार दान जल लेनेसे लोगोंने यह समझा यह दान-जल ही है / तथा नेत्रों में भी सात्त्विक भावसे आँसू आया, किन्तु उसे भी धूम-समूहते ही यह नेत्रों में आँसू आरहा है ऐसा लोगोंने समझा। इस प्रकार सात्त्विकभावसे उन दोनों के हाथों तथा नेत्रों में उत्पन्न स्वेद तथा आँसू क्रमशः दानार्थ जल तथा धूम-समूहसे छिप गये ] // 42 // बहूनि भोमस्य वसूनि दक्षिणां प्रयच्छतः सत्त्वमवेक्ष्य तत्क्षणम् / 61 नै० उ०
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________________ 672 नैषधमहाकाव्यम् / जनेषु रोमाञ्चमितेषु मिश्रतां ययुस्तयोः कण्ट ककुड्मलश्रियः / / 43 / / बहूनीति / तयोः बधूवरयोः, कण्टककुडमलश्रियः पुलकाङ्कुरसम्पदः कर्व्यः, बहूनि प्रचुराणि, वसूनि धनानि, दक्षिणां दक्षिणारूपेण, प्रयच्छतः ददतः, भीमस्य सत्त्वं सत्त्वगुणं स्वभावं वा, दानशौण्डीरत्वमित्यर्थः / अवेक्ष्य दृष्ट्वा, तत्क्षगं तत्काले, अत्य. न्तसंयोगे द्वितीया / रोमाञ्चं पुलकाञ्चितत्वम्, इतेषु गतेपु, जनेषु दर्शकलोकसमूहेषु, मिश्रतां मेलनं ययुः / दक्षिणादर्शनजन्यविस्मयात् सर्वेषां रोमाञ्चे सति बघूबरयोः सात्त्विकभावोद्भतानि रोमाञ्चान्यपि तादृशविस्मयोद्भूतत्वेनेव तिरोहितानि इत्यर्थः / पूर्ववदलङ्कारः // 43 // - बहुत धनोंको दक्षिणा देते हुए भीमकी दानशूरताको देखकर उस समय रोमाञ्चित हुए ( दर्शक ) लोगोंमें उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती ) का रोमाञ्च भी मिल गया अर्थात् एकताको प्राप्त हो गया / [ परस्पर स्पर्शसे नल तथा दमन्तीको जो सात्त्विक भावजन्य रोमाञ्च हुआ, वह भी बहुत दान देते हुए भीमकी दानशूरताको देखनेसे रोमाञ्चित अन्य दर्शकों के बीचमें ही सम्मिलित हो गया अर्थात् जिस प्रकार हमलोगोंको भीमके अत्यधिक धन दान करनेसे आश्चर्यके कारण रोमाञ्च हो रहा है, उसी प्रकार इन वधू-वरोंको भी उसी कारण से रोमाञ्च हो रहा है। लोगों के ऐसा समझनेसे सात्विक भावोत्पन्न नल दममन्तीके रोमाञ्च अन्य दर्शकोंके रोमाञ्चकी समान कोटिमें ही माने गये। परस्पर स्पर्शसे वधू-वरको 'रोमाञ्च' नामक सात्त्विक भाव उत्पन्न हुआ और राजा भीमके अत्यधिक दानको देखकर दर्शक लोगोंको आश्चर्यसे रोमाश्च हो गया ] // 43 // बभूव न स्तम्भविजित्वरी तयोः श्रुतिक्रियारम्भपरम्परात्वरा / न कम्पसम्पत्तिमलुम्पदग्रतः स्थितोऽपि वह्निः समिधाः समेधितः।।४४॥ बभूवेति / तयोः बधूवरयोः, श्रतिक्रियाणां वेदोक्तकर्मणाम्, आरम्भपरम्परायां त्वरा उत्तरोत्तरप्रयोगरूपशीघ्रता, स्तम्भस्य साविकभावोदयजन्यनिष्क्रियाङ्गत्वलक्षणस्य, विजित्वरी विजेत्री, 'इण नशजिसर्तिभ्यः वरप' इति करप् प्रत्यये 'टिड्ढा. णज' इत्यादिना डीप / न बभूव न अपह्नोतुं शशाक इत्यर्थः / श्रुत्युक्तकर्मजातानां शीघ्रसम्पादनेच्छायां सत्यामपि सात्विकस्तम्भवशात् तौ वधूवरौ किमपि कर्म शीघ्र सम्पादयितुं न समर्थौ इति भावः। तथा समिधा इन्धनेन, समेधितः प्रदीपितः, वह्निः अग्निः, अग्रतः स्थितोऽपि कम्पसम्पत्तिं वेपथूद्रेक, न अलुम्पत् निरोद्धं न अश. कदित्वर्थः / समिद्धोऽग्निः शीतजकम्पमेव शमयितुं समर्थः न तु सात्विकं कम्पं गाढा. नुरागविकाराणां दुर्वारवेगत्वादिति तयोः स्तम्भकम्पौ सर्वे ज्ञातवन्त इति भावः / अत्र कर्मत्वरा-समिद्धवह्निरूपकारणसद्भावेऽपि स्तम्भकम्पनिवृत्तिरूपकार्यानुत्पत्तेर्वि शेषोक्तिरलङ्कारः, 'सत्यां तत्सामग्रयां तदनुत्पत्तिर्विशेषोक्तिः' इति लक्षणात् // 44 // 1. 'अवर्ततास्तम्भ-' इति पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 673 वेदोक्त कर्मके आरम्भ-समूहकी शीघ्रता उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती) के स्तम्मको नहीं जीत सकी अर्थात् सात्त्विक भावजन्य स्तम्भके कारण वे दोनों वेदोक्त वैवाहिक कार्यसमूहको जल्दी 2 नहीं कर सके और समिधा ( हवनकाष्ठ ) से बढ़ी अर्थात् जलती हुई आगे स्थित भी अग्नि ( सात्त्विक भावजन्य उन दोनोंके ) कम्पवेगको नहीं रोक सकी अर्थात् आगे जलती हुई अग्निसे सात्त्विक भावोत्पन्न उनके कम्पनका वेग नहीं दबा। [ स्तम्भके कारण शीघ्रता रहनेपर भी वे दोनों वेदोक्त वैवाहिक कार्य-समूहको शीघ्रतासे नहीं कर सके तथा अग्नि शीतजन्य कम्पन ( कँपकँपी ) को ही दूर कर सकती है, सात्त्विक भावजन्य कम्पनकी नहीं / अत एव यद्यपि उन दोनों के सात्त्विक भावजन्य स्वेद, अश्रु तथा रोमाञ्चको दर्शक लोग पूर्वोक्त ( 16:42-43) कारणोंसे लक्षित नहीं कर सके, किन्तु स्तम्भ तथा कम्पको सबन्दर्शकों ने लक्षित कर ही लिया ] // 44 // दमस्वसुः पाणिममुख्य गृह्णतः पुरोधसा संविदधेतरां विधेः / महर्षिणवाङ्गिरसेन साङ्गता पुलोमजामुद्वहतः शतक्रतोः // 45 // दमस्वसुरिति / दमस्वसुः दमयन्त्याः, पाणिं करं, गृह्णतः आददानस्य, ताम् उद्वहत इत्यर्थः / असुष्य नलस्य, पुलोमजां शचीम् , उद्वहतः परिणयतः, शतक्रतोः इन्द्रस्य, महर्षिगा आङ्गिरसेन बृहस्पतिना इव, पुरोधसा गौतमेन, विधेः श्रत्युक्तवैवाहिकानुष्ठानस्य, साङ्गता साङ्गत्वं, समाप्तिरिति यावत् , संविदधेतराम अतिशयेन सम्पादिता, 'किमेत्तिङव्ययघादा-' इत्यादिना आमुप्रत्ययः॥ 45 // इन्द्राणिके साथ विवाह करते हुए इन्द्र के समान दमयन्तीके साथ विवाह करते हुए इस (नल ) के ( वेदोर ) विधिकी साङ्गताको बृहस्पतिके समान पुरोहित गौतमने अच्छी तरह पूरा किया // 45 // स कौतुकागारमगात् पुरन्ध्रिभिः सहस्ररन्ध्रीकृतमीक्षितुं ततः। अधात् सहस्राक्षतनुत्रमित्रतामधिष्ठितं यत् खलु जिष्णुनाऽमुना // 46 / / स इति / ततः विवाह विधिसम्पादनानन्तरं, सः नलः, ईक्षितुं द्रष्टुं, वधूवरविश्रम्भालापमिति शेषः, सहस्ररन्ध्रींकृतम् अनेकच्छिद्रीकृतम् / बहुव्रीहावभूततद्भावे विः / कौतुकागारं कुतूहलवर्द्धकं मङ्गलगृहं, पुरन्ध्रिभिः पुरनारीभिः सह / 'वृद्धो यूना' इति ज्ञापकात सहाप्रयोगे सहार्थे तृतीया। अगात् प्राविक्षत् / यत् अगारं, जिष्णुना जयशीलेन, अमुना नलेन, जिष्णुना इन्द्रेण इत्यपि गम्यते, अधिष्ठितम् अधिरूढं सत् , सहस्राक्षतनुत्रमित्रताम् इन्द्रकवचतुल्यताम् , इन्द्रस्य सहस्राक्षदर्शनार्थ सहस्रच्छिद्रीकृतकवचसादृश्यमिति थावत् / अधात् खलु निश्चितं धारयामासेत्यर्थः॥ 46 // ___ इस (विवाहविधि ) के बाद वे ( नल, वधूवरकी चेष्टा एवं विश्रम्भपूर्वक भाषण आदि कार्यको ) देखने के लिए (तृण-काष्ठादिसे ) हजारों छिद्र किये हुए नगर-नारियों के साथ
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________________ 674 नैषधमहाकाव्यम् / (अथवा-नगरनारियों के द्वारा वधूवरकी चेष्टाओं एवं विश्रम्भपूर्वक भाषणादि कार्यको देखने हजारों छिद्र किये ) कौतुकागार ( कोहबर ) में प्रवेश किये; विजयशील इस ( नल पक्षा०-इन्द्र ) से युक्त होते हुए जिसने मानो इन्द्र के कवचकी शोभाको धारण कर लिया था अर्थात् हजारों छिद्र होनेसे इन्द्रके कवचके समान शोभता था // 46 // अथाशनाया निरशेषि नो ह्रिया न सम्यगालोकि परस्परक्रिया / विमुक्तसम्भोगमशायि सस्पृहं वरेण वध्वा च यथाविधि त्र्यहम्।।४।। अथेति / अथ कौतुकागारप्रवेशानन्तरं, वरेण नलेन, दध्वा दमयन्त्या च, यथा. विधि यथाशास्त्रं, व्यहं त्रिदिनम् / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। 'तद्धितार्थ-' इत्यादिना समाहारे द्विगुः, 'राजाहः सखिभ्यष्टच' इत्यनेन टच , 'न सङ्ख्यादेः समाहारे' इति अह्लादेशाभावः, 'द्विगुरेकवचनम्' इत्येकवचनान्तता, 'रात्राहाहाः पुंसि' इति पुंलि. ङ्गता / अशनमिच्छतीति अशनाया बुमुक्षा, 'अशनायोदन्यधनायाबुभुक्षापिपासागर्द्धषु' इति क्यजन्ततया निपातनात् साधुः / नो निरशेषि न निःशेषीकृता, न पर्या. प्तम् अभोजि इत्यर्थः / ह्रिया लजया, परस्परक्रिया अन्योऽन्यचेष्टा, सम्यक यथेच्छं, न आलकि नो वीक्षिता, तथा विमुक्तसम्भोगं सम्भोगपराङ्मुखं यथा तथा, सस्पृहं साभिलाषम् एव, अशायि शयितुम् / भावे लुङ् / यथाह आपस्तम्बः-'त्रिरात्रमुभयोरधःशय्या ब्रह्मचर्यमक्षारलवणाशित्वञ्च तयोः शय्यामन्तरेण दण्डोपलिप्तवाससा सूत्रेण परिवीतयोरवस्थानत्वम् // 47 // ___ इस ( कौतुकागारमें प्रवेश करने ) के बाद वधू-वर (नल तथा दमयन्ती) ने तीन दिन तक लज्जासे अच्छी तरह भोजन नहीं किया, पारस्परिक चेष्टादिको नहीं देखा और सम्भोग रहित (किन्तु ) स्पृहायुक्त विधिपूर्वक शयन किया / [ उन दोनोंने कौतुकागारमें प्रवेशकर तीन दिनतक यद्यपि भोजन किया, परस्परमें एक दूसरेके कार्यको देखा और सोया; किन्तु लज्जासे न तो अच्छी तरह भोजन ही किया, न एक दूसरेके कार्य ( चेष्टाओं ) को ही देखा और न तो सम्भोगपूर्वक शयन ही किया; अपितु विधिके पालन करने के लिए साधारणतः भोजन किया, नेत्रप्रान्तसे (कनखी) से ही एक दूसरेके कार्यको देखा और चुम्बनालिङ्गनादि रतिवर्जित परन्तु उस रतिकी चाहना रखते हुए सोया। शास्त्रोक्तविधिके अनुसार वधू-वरने उसी कौतुकागारमें ब्रह्मचर्यपूर्वक तीन रात एकत्र निवास किया ] // 47 / / कटाक्षणाजन्यजनैर्निजप्रजाः कचित परीहासमचीकरत्तराम् / धराऽप्सरोभिवरयात्रयाऽऽगतानभोजयत् भोजकुलाङ्करः क्वचित् / / 48 / / कटाक्षणादिति / भोजकुलाङ्कुरः भोजवंशकुमारः दमः, क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशे निजाः प्रजाः स्वजनान् / 'हृकोरन्यतरस्याम्' इति अण्यन्तकर्तः कर्मस्वम् / 'प्रजा. स्यात् सन्तती जने' इत्यमरः / कटाक्षणात् कटाक्षकरणात् , कटाक्षसङ्केतेन इत्यर्थः / कटाक्षयतेः 'तत् करोति-' इति ण्यन्ताद्भावे ल्युट / जन्यजनैः वरपक्षीयस्निग्धजनेः
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________________ षोडशः सर्गः। 675 सह / 'जन्याः स्निग्धाः वरस्य ये' इत्यमरः / परीहासं द्रवम्, उपहासमिति यावत् / 'द्रवकेलिपरिहासाः' इत्यमरः / 'उपसर्गस्य घन्यमनुष्ये बहुलम्' इति दीर्घः। अची. करत्तराम अतिशयेन कारयामास / करोतेौँ लुङि चङ्, सन्वद्भावादभ्यासस्य दीर्घः, 'किमेत्तिव्ययघादा-' इत्यादिना आमुप्रत्ययः / तथा क्वचित् कस्मिंश्चित् प्रदेशान्तरे, वरस्य यात्रया गमनेन उत्सवेन वा, 'यात्रा तु यापनेऽपि स्याद्मनोत्सवयोः स्त्रियाम्' इति मेदिनी। सह आगतान् उपस्थितान् , जनानिति शेषः। धराऽप्सरोभिः क्षितिसुन्दरीभिः करणैः, अभोजयत् भोजयामास, तत्काले परिहासकरणसौकर्यादिति भावः / 'निगरणचलनार्थेभ्यश्च' इति परस्मैपदं, 'गतिबुद्धि-' इत्यादिना अणिकर्तुः कर्मत्वम् // 48 // भोजकुलके अङ्कुर (बालक अर्थात् नलके शाले 'दम') ने कहीं पर ( राजा भीमके परोक्षमें ) प्रजाओंको नेत्र-सङ्केतसे प्रेरितकर बरातियों के साथ अधिक हँसी-मजाक करवाया और कहींपर बारातमें आये हुए लोगोंको पृथ्वीकी अप्सराओं अर्थात् दासी, सैरन्ध्री, वाराङ्गना आदि सुन्दरियोंसे परोसवाकर भोजन करवाया। [ बरातियों के साथ कन्यापक्षवालोंका छोटे शालेका हँसी-मजाक करना-कराना लोकाचार-सा माना जाता है, 'क्वचित्' पदसे राजा भीम या बड़े-बूढों के परोक्षमें उक्त परिहास करानेसे 'दम' की शिष्टता सूचित होती है ] // 48 // स कश्चिदूचे रचयन्तु तेमनोपहारमत्राङ्ग ! रुचेर्यथोचितम् / पिपासतः काश्चन सर्वतोमुखं तवार्पयन्तामपि काममोदनम् // 46 // तत्कालिकमेव परीहासं बहुधा वर्णयति-स इत्यादि / सः दमः, कञ्चित् वरपक्षीयं किमपि जनम्, उचे उवाच, किमिति ? अङ्ग ! भोः!, अत्र अस्मिन् प्रदेशे काश्चन का अपि, स्त्रियः इति शेषः / पिपासतः तृष्यतः / पिबतेः सनन्ताल्लटः शत्रादेशः। तव सर्वतोमुखम् उदकं, 'कबन्धमुदकं पाथः पुष्करं सर्वतोमुखम्' इत्यमरः। तथा रुचेः अभिलाषस्य, यथोचितम् अनुरूपं; तेमनस्य निष्ठानापराख्यस्य व्यञ्जनस्य, 'स्यात् तेमनन्तु निष्ठानम्' इत्यमरः / 'तेमनं व्यजने क्लेदे' इति हेमचन्द्रः। उपहारं समपणं, रचयन्तु कुर्वन्तु, तथा कामं यथेष्टम्, ओदनम् अन्नमपि, अर्पयन्तां प्रयच्छन्तु इति / रहस्यपक्षे-अत्र आसु परिवेशिकासु मध्ये, काश्चन का अपि स्त्रियः, अङ्गरुचेः आसामङ्गसौन्दर्यदर्शनजन्याभिलाषवतः, ते तत्र, यथोचितं यथायोग्य, मनः अपहरतीति मनोऽपहारं स्वाङ्गप्रदर्शनेन मनोहरणं, रचयन्तु कुर्वन्तु, तथा पिपासतः मुखचुम्बनेच्छोः, तव कामस्य स्मरस्य, मोदनं हर्षकारकम्, उद्बोधकमिति यावत् / मुखम् आस्य, सर्वतः सर्वथा इत्यर्थः / सम्पूर्णभावेनेति यावत् , अर्पयन्ताम् इत्यूचे इत्यन्वयः। अनोभयोरप्यर्थयोर्विवक्षितत्वेन प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतश्लेषः॥४९॥ उस ( 'दम' नामक नलके शाले) ने किसी ( बराती आदमी ) से कहा कि-हे अङ्ग !
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________________ 676 नैषधमहाकाव्यम् / इस भोजनपात्रमें ( अथवा-परोसनेवाली इन स्त्रियों में-से ) कोई स्त्री रुचि ( तुम्हारी चाहना ) के अनुसार यथायोग्य तेमन अर्थात् कढ़ी ( या दहीबड़े ) को लावे, या तुम्हारी रुचिके अनुसार कढ़ी या दही-बड़े को लावे क्या ? प्यासे हुए तुम्हारे लिए जल है ( या जल दे क्या ? ) और भात भी दे ( या भात भी दे क्या ? ) / ' परिहासपन में-'परोसनेवाली इन स्त्रियोंमेंसे कोई स्त्री स्तन-जघनादि शरीरशोभाको देखने की अभिलाषाके अनुसार तुम्हारे मनका अपहरण करे अर्थात् शरीरशोभासे तुम्हारे मनको आकृष्ट करे, अधर-चुम्बनके लिए पिपासु ( प्यासे हुए) तुम्हारे लिए सब तरहसे नेत्रादिके चुम्बनस्थानों के मुखमें रहने से देखनेमात्रसे कामहर्षप्रद मुखको अर्पित करे अथवा-मुखके पिपासुक (अधर चुम्हनाभिलाषी) तुम्हारे लिए कामहर्पकारक वराङ्ग ( गुह्यप्रदेश ) अर्पित करे // 49 // मुखेन तेऽत्रोपविशत्वसाविति प्रयाच्य सृष्टानुमति खलाऽहसत् / वराङ्गभागः स्वमुखं मतोऽमुना स हि स्फुटं येन किलोपविश्यते // 50 // मुखेनेति / हे जन्य ! अत्र अस्या पङ्क्तो, असौ अयं जनः, ते तव, मुखेन सामु. ख्येन वक्त्रेण च अधिकरणे साधनत्वनिर्देशः / सम्मुखे इत्यर्थः / उपविशतु आस्तां. प्रार्थनायां लोट् / भोजनार्थमिति शेषः। इति प्रयाच्य प्रार्थ्य, सृष्टानुमतिं श्लिष्टार्थमबुद्ध्वा 'मुखेनोपविशतु' इति सृष्टा प्रदत्ता,अनुमतिः सम्मतियन तं तादृशंकृताङ्गी. कारं, कञ्चित् जन्यमिति शेषः। खला काचित् धूर्त्ता स्त्री, अहसत् परिजहास। 'वराङ्गो मूर्द्धगुह्ययोः' इत्यमरः / अमुना जनेन, स्फुटं स्पष्टं यथा तथा, स्वमुखं मतः हि स्ववक्त्रसदृशत्वेन अनुमतः इत्यर्थः। मुखोपवेशनाङ्गीकारो नान्तरीयकः सिद्धः इति भावः / अत्रापि पूर्ववत् श्लेषः // 50 // ___(हे बराती महाशय !) यहाँपर (इस पंक्तिमें ) यह सखो ( या पुरुष ) आपके सामने मुख करके, ( या मुखके सहारे, भोजन करने के लिए ) बैठ जाय ?' ( ऐसा किसी धूर्त सखी या पुरुष या 'दम' के पूछनेपर उसके श्लेषयुक्त दूसरे अर्थको नहीं समझनेवाले बरातीके 'हां बैठ जाय' ऐसा) स्वीकार करनेपर उस ( बराती ) को उस धूर्त (इलेपार्थज्ञान में 'चतुर ) स्त्रीने हँस दिया ( हँसनेका कारण यह था कि-) जिस वराङ्ग अर्थात् मदनमन्दिर ( गुह्याङ्ग ) से उपवेशन किया ( प्रवेश कराया) जाता है, उस वराङ्गको इस बरातीने श्लेषार्थ नही समझनेसे अपना मुख मानकर 'हाँ' कह दिया है। ( अतः उस अवसरपर उसका परिहास करना उचित रहा ) // 50 // युवामिमे मे स्त्रितमे इतीरिणो गले तथोक्ता निजगुच्छमेकिका / न भास्यदस्तुच्छगलो वदन्निति न्यधत्त जन्यस्य ततः पराऽऽकृषत्। 51|| युवामिति / इमे युवां भवत्यो, मे मम, स्त्रितमे अतिशयेन स्त्रियो, अन्यापेक्षया प्रियतमे इत्यर्थः। 'नद्याः शेषस्थान्यतरस्याम्' इति विकल्पात् ह्रस्वः। इति ईरिणः
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________________ षोडशः सर्गः। 677 एवं वादिनः। ईरतेणिनिः / जन्यस्य कस्यचित् वरसखस्य, गले कण्ठे, तथा उक्त प्रकारेण, उक्ता कथिता, एकैव एकिका तयोः अन्यतरा स्त्री, 'प्रत्ययस्थात् कात पूर्वस्य' इति इकारः। हे जन्य ! अदः इदं, युवाम् इमे मे स्त्रितमे इति वचः इति यावत् / वदन् कथयन् , त्वमिति शेषः। तुच्छगलः रिक्तकण्ठः, हारशून्यकण्ठः सन् इत्यर्थः / न भासि न शोभसे, इति, उक्त्वेति शेषः / गम्यमानार्थवादप्रयोगः / निजम् आत्मीयं, गुच्छं द्वात्रिंशद्यष्टिकहारम् / 'हारभेदा यष्टिभेदात् गुच्छगुच्छार्द्धगोस्तनाः' इत्यमरः। न्यधत्त निदधे / ततः गुच्छनिधानानन्तरं, परा अपरा स्त्री तु, अदः मे मे इति अयुक्तं शब्दमित्यर्थः / वदन् छगलः छागः, न भासि ? न प्रतीयसे ? अपि तु आस्मानं छग. लमेव स्वीकरोषि, इति आकृषत् आचकर्ष ! कृषेस्तौदादिकाल्लङ् / 'स्तभच्छागवस्तच्छगलका अजे' इत्यमरः / अत्रापि पूर्ववत् श्लेषः // 51 // ____ 'ये तुम दोनों मेरी श्रेष्ठ स्त्रियां हो अर्थात् तुम दोनों मेरी प्रियतमा हो ( अथवामेरे मतसे श्रेष्ठ स्त्रीरत्न हो )' इस प्रकार कहते ( स्तुति या परिहास ) करते हुए किसी बराटीके गले में उक्त प्रकारसे कही गयी ( अथवा-जैसा तुम कहते हो वैसा ठीक है ऐसा कहती हुई ) उन दोनों में से एक स्त्रीने 'ऐसा कहते हुए शुन्य गलेवाले बकरीरूप तुम नहीं शोभते हो ?' अर्थात् 'मे मे' कहते हुए तुम बकरी-जैसा ही शोभते हो ( अथवा-स्तनशून्य गलेवाले, तुम नहीं शोभते हो; क्योंकि बकरीके गले में स्तन रहता है और तुम्हारे गलेमें वह स्तन नहीं है, अथवा-बांधनेकी रस्सीसे शून्य गलेवाले तुम नहीं शोभते हो, क्योंकि बकरेके गलेमें रस्सी रहती है और तुम्हारे गलेमें वह रस्सी नहीं हैं; अथवा-इस प्रकार मेरी प्रशंसा करते हुए हारझून्य गलेवाले तुम नहीं शोभते हो। इस प्रकार कहकर ) अपने हार ( बत्तीस लड़ीवाले मोतियोंकी माला ) को ( बकरेके स्तनरूपमें, अथवा-बांधनेकी रस्सीरूपमें, अथवा-उपहाररूपमें ) डाल दिया और उससे भिन्न दूसरी स्त्री 'यह ( 'मे मे' ) कहते हुए बकरारूप तुम नहीं शोभते हो अर्थात् बकरे-जैसा ही शोभते हो ऐसा कहकर उसे बकरा मानकर (या-स्तुतिपक्षमें रमणार्थ) खींचने लगी। ( अथवा-- शून्य कण्ठवाले अर्थात् बकरेका मुख खाद्यपल्लवसे शून्य नहीं शोमता है, अत एव अपने हाथमें क्रीडार्थ लिए हुए पल्लव-गुच्छको उसके कण्ठ (मुख) में डाल दिया और दूसरी स्त्री उसे बकरा मानकर खींचने लगी, अथवा-ऐसी स्तुति करते हुए तुम वरण करनेके योग्य हो इस प्रकार कहकर उसके गले में अपना हार स्वयंवरमालाकी जगह डाल दिया और दूसरी स्त्री उस पुरुषको रमणार्थ खींचने लगी)॥५१॥ नलाय बालव्यजनं विधुन्वती दमस्य दास्या निभृतं पदेऽर्पितात् / . अहासि लोकैः सरटात् पटोज्झिनी भयेन जचायतिलचिरंहसः / / 52 / / नलायेति / नलाय बालव्यजनं चामरं, विधुन्वती कम्पयन्ती, चामरेण नलं वीजयन्ती इत्यर्थः, काचिद् स्त्रीति शेषः, दमस्य दमयन्तीभ्रातुः, दास्या परिचारिकया, निभृतं निगूढं यथा तथा, पदे अर्पितात् विसृष्टात् , अत एव जङ्घायतिलचिरंहसः
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________________ 678 नैषधमहाकाव्यम् / जङ्घाया ऊर्ध्वभागाक्रमिवेगात् ,वेगेन जङ्घामारोहत इत्यर्थः, सरटात् कृकलासात्, "सरटः कृकलासः स्यात्' इत्यमरः / भयेन पटोज्झिनी वस्त्रत्यागिनी, विवस्त्रा सती. त्यर्थः, लोकैः जनैः, अहासि परिहसिता // 52 // . नलके लिए चामर ( या-मोरपंखी ) से हवा करती हुई किसी स्त्रीके पैरपर दमकी दासीके द्वारा चुपचाप ( आकर ) छोड़े गये तथा जङ्घके ऊपर चढ़ते हुए गिरगिटके भयसे कपड़ेको खोली हुई अर्थात् नग्न हुई उस चामर डुलानेवाली स्त्रीको लोगोंने हँस दिया // 52 // पुरःस्थलागूलमदात् खला वृषीमुपाविशत् तत्र ऋजुवरद्विजः / पुनस्तमुत्थाप्य निजामतेवंदाऽहसच्च पश्चात्कृतपुच्छतत्प्रदा / / 53 / / पुरःस्थेति / खला काचित् धर्ता स्त्री, वृषीम् आसनम् 'यतीनामासनं वृषी' इत्यमरः / तस्य टीकायां 'ब्रवन्तः सीदन्त्यस्यामिति पृषोदरादित्वात् साधु / अतसी वृसी मांसी स्वस नासेति चन्द्रगोमी दन्त्येष्वपि पठति' पुरःस्थलागलं पुरोभागस्थ. पुच्छं यथा तथा, अदात् दत्तवती, वरद्विजायेति शेषः, ददाते डि 'गातिस्थाधुपा-' इत्यादिना सिचो लुक। तत्र तस्यां वृष्याम्, ऋजुः सरलः, अकुटिलबुद्धिरित्यर्थः / तस्याः कौतुकचातुर्यमजाननिति भावः, वरद्विजः वरपक्षीयः कश्चित् ब्राह्मणः, उपाविशत् उपविष्टः, पुनः अनन्तरं, निजामतेः स्वाज्ञानस्य, वदतीति वदा अज्ञा. नात् मया वैपरीत्येनासनं दत्तमितिवादिनीत्यर्थः, पचाद्यच् / 'वदो वदावदो वक्ता' इत्यमरः / सा खलेति शेषः / तं द्विजम्, उत्थाप्य उत्तोल्य, पश्चात्कृतपुच्छां तां वृषीं प्रददातीति पश्चाद्देशस्थापितलाङ्गलासनप्रदा सती, प्रदेति प्रपूर्वाददातेः कर्मोपप. दात् 'प्रेदा ज्ञः' इति कप्रत्ययः / अहसत् जहास च, पुच्छस्य सन्मुखस्थत्वे द्विजस्य प्रकाशितमेहनत्वप्रतीतेः, पृष्ठत उपस्थाने पशुत्वप्रतीतेश्चेति भावः // 53 // . धूर्ता (हँसी करने में चतुर ) किसी स्त्रीने अग्रिम भागमें पूंछवाले यतिके आसनको (वरपक्षीय ब्राह्मणको बैठने के लिए) दिया, उस अग्रिम भागमें पुच्छयुक्त कूर्माकृति यत्यासन पर सरल (हँसीकी बातको नहीं समझनेवाला सीधी बुद्धिवाला ) एवं श्रेष्ठ (या-वरपक्षीय ) ब्राह्मण बैठ गया, फिर 'अज्ञानसे मैंने इस प्रकार उल्टा ( आगेकी ओर पूँछवाले ) यत्यासनको बिछा दिया' ऐसा कहकर उसे ( वरपक्षीय ब्राह्मगको ) उठा कर उस आसनकी ऍछको पीछे की ओर करके बिछा दिया ( और उसपर उस सरल बुद्धि वरपक्षीय ब्राह्मणके वैठनेपर ) हँसने लगी। [अग्रिम भागमें पूँछयुक्त कूर्माकृति उस आसनपर उस ब्राह्मण के बैठनेसे वह पूँछ उस ब्राह्मणके शिश्न (लिङ्ग) के समान मालूम पड़ता था, यह सीधी बुद्धिवाला ब्राह्मण मेरी हँसीको नहीं समझनेसे इस पर चुपचाप बैठ गया, अत एव यह पशुतुल्य है और पशुके पिछले भागमें पूंछ होती है, पशुतुल्य इस ब्राह्मणके लिए मुझे यह आसन इस प्रकार बिछाना चाहिये था कि इसकी पूँछ पीछे की ओर रहे, ऐसा सोच कर ; अपनी भूल बताती हुई उस धूर्त स्त्रीने ब्राह्मणको उठाकर उस आसनको घुमाकर इस प्रकार
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________________ षोडशः सर्गः। 674 बिछा दिया कि उसकी पूछ ब्राह्मणके बैठनेपर पीछे की ओर हो और फिर वह ब्राह्मण उसपर बैठ गया तो उसको ( देखकर ) उस स्त्रीन हंस दिया ] // 53 // स्वयं कथाभिर्वरपक्षसुभ्रवः स्थिरीकृतायाः पदयुग्ममन्तरा / परेण पश्चान्निभृतं न्यधापयद्ददर्श चादर्शतलं हसन खलः / / 54 / / स्वयमिति / खलः कश्चित् धूर्तः, स्वयम् आत्मना, कथाभिः इष्टालापः, स्थिरीकृतायाः तकथाश्रवणासक्तत्वेन निश्चलीकृतायाः, वरपक्षसुभ्रवःवरयात्रसम्बन्धिन्याः कस्याश्चित् स्त्रियाः, पदयुग्मम् अन्तरा पादयुगलस्य अन्तराले, 'अन्तराऽन्तरेण युक्ते' इति द्वितीया। परेण पुरुषान्तरेण प्रयोज्येन, पश्चात् पृष्ठतः, निभतं निगूढं यथा तथा आदर्शतलं दर्पणम्, उत्तानीभूतदर्पणमित्यर्थः, न्यधापयत् निधापयामास, हसन् ददर्श च / वराङ्गप्रतिबिम्बदर्शनात् हासः इति भावः // 54 // (परिहास चतुर किसी ) धूर्तने स्वयं (मनोनुकूल हास्यादि . सन्बन्धिनी) कथाओंसे ( उनके सुनने में अत्यन्त आसक्त होने से निश्चयकी गयी) वरपक्षीय (अथवा-नलके बगलमें बैठी हुई ) सुन्दरीके दोनों पैरों के बीच में दूसरे ( पुरुष ) से पीछेकी ओरसे चुपचाप दर्पणको रखवा दिया और हँसता हुआ ( उस स्त्रीके ऊरु, जघन, भगादिके प्रतिबिम्बयुक्त दर्पणको ) देखने लगा / / 54 / / अथोपचारोद्धरचारुलोचनाविलासनिर्वासितधैर्यसम्पदः / स्मरस्य शिल्पं वरवर्गविक्रिया विलोककं लोकमहासयन् मुहुः / 5 / / अथेति / अथ अनन्तरम्, उपचारेषु सेवाकार्येषु, उद्धरा उदूढभारा, तत्परा इत्यर्थः 'ऋकपूर-' इत्यादिना समासान्तः। तथाविधानां चारुलोचनानां मनोज्ञनयनानां, स्त्रीणामिति शेषः, विलासैः कटाक्षपातादिभिः साधनैः, निर्वासिता निष्कासिता, धैर्यसम्पत् येन तादृशस्य, स्मरस्य कन्दर्पस्य, शिल्पं सृष्टिः, स्मरकृता इत्यर्थः, तादृशविलासैनिर्वासिता धैर्यसम्पत् आत्मदमनसामयं याभिस्तादृश्यः इति बरवर्गविक्रियाया विशेषणं वा वरवर्गस्य जन्यजनसमूहस्य, विक्रियाः वक्ष्यमाणस्मर. विकाराः कर्व्यः, विलोककं तद्विकारद्रष्टजनं, मुहुः अहासयन् परिचारिकाविलास. दर्शनादेव जन्यजनस्य जनहासकरः स्मरविकारो जातः इत्यर्थः॥ 55 // ___ इस ( काम-रहित केवल परिहास कर्म ) के बाद परोसने आदमें तत्पर सुलोचनाओं के ( कटाक्षादि ) विलाससे धैर्यहीन कामदेवकी सृष्टिरूप वरपक्षीयों ( बरातियों ) के काम'विकारने दर्शक लोगोंको बार-बार हँसा दिया अर्थात् परोसने आदिमें तत्पर सुलोचनाओंके कटाक्षादिको देखकर धैर्यरहित अर्थात् शीघ्रतम किये गये बरातियोंके मनोविकारको देखकर (इन दासियोंके कटाक्षादि विलासको देखनसे ही इन बरातियोंको कामजन्य मनोविकार हो गया, यह समझकर ) दर्शक लोग हंसने लगे। ( अथवा-वरपक्षियोंके मनोविकारको उत्पन्न करनेवाली तथा कटाक्षादिविलाससे (विलासियोंके ) धैर्यको छुड़ानेवाली और
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________________ 680 नैषधमहाकाव्यम् / कामदेवकी शिल्प अर्थात् अतिशय सुन्दरीके उपचार ( कटाक्षादिद्वारा अपने अनुरागको संकेतित करनेवाले प्रेमपूर्वक देखने ) में उत्कण्ठित सुन्दर नेत्रोंवालो वराङ्गना आदिने दर्शकोंको बार-बार हंसाया ) / [ यहाँ तक ( 16 / 49-54) कामरहित परिहासका वर्णन किया गया है, अब यहांसे 'न षड्विधः " ( 16 / 108)' श्लोक तक कामसहित परिहासका वर्णन किया जा रहा है ] // 55 // तिरोबलद्वक्त्रसरोजनालया स्मिते स्मितं यत् खलु यूनि बालया / तया तदीये हृदये निखाय तत् व्यधीयतासम्मुखलक्ष्यवेधिता / / 56 / / तिर इति / तिरोबलन् तिर्यप्रेरयन् , वक्त्रसरोजनालः मुखकमलमृणालः, कण्ठः इति यावत् , यया तादृशया, तिर्यक परिवर्तितकन्धरया, बालया कयाचित् युवत्या, यूनि कस्मिंश्चित् तरुणे, स्मिते स्मितवति सति कर्तरि क्तः / यत् स्मितं खलु हसितं किल, लज्जया पराङ्मुखीभूय यत् हास्यमकारि इत्यर्थः, भावे क्तः / तया बालया, तदीये हास्यकारियुवसम्बन्धिनि, हृदये चेतसि, तत् स्मितं, निखाय गाढं प्रवेश्य, असम्मुखम् अनभिमुखं, पार्श्वदेशावस्थितमिति यावत् , यत् लक्ष्यं वेध्यं, तद्वेधिता तद्वेधित्वं, स्वस्या इति शेषः / व्यधीयत विहिता, तत् स्मितं तस्य पार्शवस्थितलक्ष्यवेधौ शरो जातः इत्यर्थः // 56 // (वरपक्षीय ) युवकके मुस्कुरानेपर अपने मुखकमलनाल ( गर्दन ) को घुमाकर बालाने जो मुस्कुराया, उस बालाने उस युवकके हृदयमें वह मुस्कुराना ही मानो असन्मुख ( पराङमुख या पार्श्वभागस्थ ) निशानेको मारनेवाला बना दिया। ( जोपराङ्मुख हो निशानेको मारता है, वह चतुर निशाना मारनेवाला समझा जाता है। प्रकृतमें पराङ्मुखी होती हुई भी उस बालाने मुस्कुरानेवाले युवकको देख लज्जासे गर्दनको फेरकर जो मुस्कुरा दिया, उससे वह युवक 'यह मुझपर अनुराग करती है, इसी कारण अपने प्रेमदर्शनार्थ मेरे मुस्कुरानेपर लज्जावश मुख फेरकर इसने मुस्कुराया है क्योंकि मुस्कुराना तथा लज्जित होना ये ही दो कार्य अनुरागके सूचक होते हैं। ऐसा समझ उसपर आसक्त होकर कामपीडित हो गया। वह बाला नायिका होने के कारण ही मुखनाल ( कण्ठ ) को फेरकर मुस्कुरायी, यदि प्रौढा नायिका होती तो सामने मुख करके ही मुस्कुराती; क्योंकि बाला नायिकामें लज्जाका भाव रहता है और प्रौढा नायिका वह नहीं रहता] // 56 // कृतं यदन्यत् करणोचितत्यजा दिक्षु चक्षुर्यदवारि बालया। हृदस्तदीयस्य तदेव कामुके जगाद वार्त्तमखिलां खेले खलु / / 57 / / कृतमिति / करणोचितं क्रियाह, त्यजतीति तादृशया करणोचितत्यजा कर्त्तव्यमकुर्वन्त्या इत्यर्थः, त्यजे क्विप। बालया पूर्वोक्तया तरुण्या, अन्यत् अकर्तव्यं, यत् कृतम् अनुष्ठितं, तथा दिदृतु दर्शनोत्सुकं, चक्षुः स्वदृष्टिः, यत् अवारि वारितं, द्रष्टव्यात् 1. 'खलम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 181 परावर्तितमित्यर्थः, तदेव अकार्यकरणचतुर्निवारणरूपद्वयमेव, तदीयस्य बालासम्ब. न्धिनः, हृदः हृदयस्य, अखिलां समग्रां, वात्ता वृत्तान्तं, खले धूर्ते, इङ्गितदर्शनादभिः प्रायज्ञानचतुरे इति यावत् , कामुके विषये, जगाद खलु तस्मै निःसंशयम् उवाच इत्यर्थः, अकर्त्तव्यकरणरूपेङ्गितेन बायाया अन्यासक्तचित्तता, दर्शनप्रवृत्तचतुःपराव. र्तनेङ्गितेन तस्या लजायाः प्रकाशनात् धूर्तो 'मयि आसक्ता लज्जिता चेयमिति विवेद इति भावः॥५७ // कर्तव्य ( परोसने आदिका कार्य ) को छोड़नेवाली बालाने जो व्यापारान्तर किया तथा दर्शनेच्छुक नेत्रको जो फेर लिया अर्थात् देखनेकी इच्छा होनेपर भी जो नहीं देखा, वही ( उस बालाका व्यापारान्तर करना तथा नेत्रको फेर लेना ही ) धूर्त (अपने आशयको समझनेमें चतुर ) कामुकमें उस (बाला) के हृदयकी बातको बतला दिया अर्थात् उस बालाके उक्त दोनों कार्योंसे धूर्त कामुकने उसके हृद्गत अपने में अनुरागको समझ लिया। [ पाठा०वही कामुकमें 'बतला दिया, क्योंकि वह खल अर्थात् दुष्ट था, लोकमें भी जो खल होता है, वह दूसरेके हृदयकी बातको दूसरेसे कह देता है। प्रकृतमें उस बालाके वे दोनों कार्य खल ( दुष्ट = बुरे ) थे, अत एव उन्होंने उस बालाके हृदयकी बातको उस कामुकसे बतला दिया, ऐसा मैं मानता हूं ] // 57 // जलं ददत्याः कलितानतेमुखं व्यवस्यता साहसिकेन चुम्बितुम् / पदे पतद्वारिणि मन्दपाणिना प्रतीक्षितोऽन्येक्षणवञ्चनक्षणः / / 58 / / जलमिति / जलं ददत्या आवर्जयन्स्याः , अत एव कलिता कृता इत्यर्थः, आनतिः उर्ध्वदेहस्य अवनमनं यया तादृश्याः जलदानार्थ न्युब्जीकृतशरीराया , इत्यर्थः, कस्याश्चित् स्त्रिया इति शेषः, मुर्ख चुम्बितुं व्यवस्यता उद्युञानेन, व्यवस्यतेलटः शत्रादेशः / अत एव मन्दपाणिना जलग्रहणे श्लथहस्तेन, सहसा बलात्कारेण वर्तते यः स तेन, अथवा-सहसा अविवेचनेन कृतं यत् तत् साहसं, तत्र प्रवृत्तः साह. सिका तेन साहसिकेन अविमृश्यकारिणा इत्यर्थः / 'ओजःसहोऽम्भसा वर्तते' इति ठक / केनचित् कामुकेनेति शेषः, पदे स्वीयचरणे, पतत् श्लथहस्तात् विगलत् , वारि यस्मिन् तस्मिन् सति, चुम्बनौत्सुक्यात् स्वीयचरणोपरिशिथिलहस्तात् जले विगलति सतीत्यर्थः, अन्येक्षणवञ्चनक्षगः परदृष्टिवञ्चनसमयः, तत्रत्यजनान्तराणां विषयान्तरे दृष्टिप्रेरणावसरः इत्यर्थः, प्रतीक्षितः अपेक्षितः इत्यर्थः; कामान्धाः किं न कुर्वन्तीति भावः // 58 // ___ पीने ( या-पैर धोने ) के लिए पानी देती हुई ( अत एव ) झुकी हुई (किसी स्त्री) के मुखको चूमने के लिए तत्पर ( इसी कारण जल लेने में ) हाथको शिथिल ( पानी पीने के पक्षमें अङ्गुलियोको विरल = छिद्रयुक्त ) किये हुए किसी साहसिक ( बलात्कारपूर्वक याअविवेकपूर्वक चुम्बन करनेवाले कामान्ध पुरुष ) ने पैरपर पानी गिरते रहनेपर दूसरोंसे नहीं देखनेके अवसरकी प्रतीक्षा करने लगा। (पैर धोनेके पक्षमें-पानी गिरते हुए पैरपर
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________________ 682 नैषधमहाकाव्यम् / शिविल हाथ किये हुए ...) / [ पानी देनेके लिए झुकी हुई किसी स्त्रीके मुखको चुम्बन करनेके लिए किसी साहसिक व्यक्तिने चुम्बनासक्त होनेसे हाथकी अङ्गुलियोंको ढीला कर दिया और इस प्रकार उसके पैरपर पानी गिरने लगा और वह अवसर देखने लगा कि उस पंक्ति में बैठे हुए या वहां घूमनेवाले लोगोंकी दृष्टि इधर-उधर हो तो मैं इस स्त्रीके मुखका चुम्बन कर लूं / 'प्रकाश' के अनुसार उक्त अवसरको देखकर उस स्त्रीके मुखका चुम्बन कर लिया। ठीक ही है-कामान्ध पुरुष क्या नहीं करते ? अर्थात् कामान्ध व्यक्ति अत्यधिक अनुचित कार्य भी कर सकते हैं ] // 58 // युवानमालोक्य विदग्धशीलया स्वपाणिपाथोरुहनालनिर्मितः / श्लथोऽपि सख्यां परिधिः कलानिधौ दधावहो ! तं प्रति गाढबन्धताम् / / युवानमिति / विदग्धशीलया प्रगल्भस्वभावया, कयाचित् तरुण्येति शेषः / युवानं कमपि तरुणम् , आलोक्य दृष्ट्वा, कलानिधौ कलानां शिल्पानां, चतुःषष्टिप्रकारगीतवाद्यादिरूपाणामित्यर्थः / निधी आधारभूतायां, सख्यां सहचर्याम् , अन्यत्रसख्यां सखारूपे कलानिधौ चन्द्रे / 'कला शिल्पे विधोरंशे' इत्यभिधानात् / स्वपाणिपाथोरुहनालाभ्यां निजभुजरूपपद्मनालाभ्यां, निर्मितः कृतः, उक्तयुवकालिङ्गना. भिलाषरूपनिजभावसूचनार्थमिति भावः। परिधिः परिवेष्टनं, सखीपरिरम्भ इति यावत् / अन्यत्र-परिधिः परिवेषः, श्लथः शिथिलः सन्नपि, तं युवानं प्रति, गाढबन्धतां सुदृढालिङ्गनतामिति यावत् / दधौ पुपोष, तस्य यूनः गाढालिङ्गानसुखं तस्मादभूदित्यर्थः / अहो! सख्यालिङ्गनात् तस्य यूनः गाढालिङ्गनसुखोत्पादेन कार्यकरणयोयधिकरण्यात् शिथिलालिङ्गनात् विरुद्धस्य गाढबन्धत्वस्योत्पादाच्च आश्चर्यम् / अत एवासङ्गतिविषमालङ्कारयोः सङ्करः। 'कार्यकारणयोर्भिन्नदेशतायाम. सङ्गतिः। बिरुद्धकार्यस्योत्पत्तिः' इति च लक्षणात्। अत्र रतिरहस्योक्तिः:-'उत्सङ्गसङ्गताऽपि प्रियसख्यां विविधविभ्रमं तनुते / भावादङ्कगतं शिशुमालिङ्गति चुम्बति ब्रते च // इति // 59 // प्रगल्भ स्वभाववाली ( या चतुर, किसी स्त्रीने किसी ) युवकको देखकर 64 कलाओं के निधि अर्थात् जाननेवाली सखीमें पक्षा०-सखीरूप चन्द्रमामें अपने बाहुरूप कमलनाल रचे गये शिथिल भी परिधि ( आलिङ्गन, पक्षा०-घेरे ) को उस युवकके प्रति ( लक्ष्य करके) गाढ़ बन्धनयुक्त कर लिया, अहो ! ( आश्चर्य है ) / [ चन्द्रमामें परिधि = घेरेका होना उचित है / मुझे गाढालिङ्गन करनेकी अभिलाषावाली इसने सखीका गाढालिङ्गन किया, अत एव इसने मेरा ही गाढालिङ्गन किया ऐसा जानकर उस सखीको गाढालिङ्गन करनेसे उस युवकको गाढालिङ्गन करनेका सुख मिला। सखीको गाढालिङ्गन करनेसे युवकको गाढालिङ्गनका सुख मिलनेसे कार्य-कारणका समानाधिकरण नहीं होनेसे तथा शिथिल आलिङ्गनके विरुद्ध गाढालिङ्गनके उत्पन्न होनेसे आश्चर्य है ] // 59 //
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________________ षोडशः सर्गः। 183 नतभ्रवः स्वच्छनखानुबिम्बनच्छलेन कोऽपि स्फुटकम्पकण्टकः / पयो ददत्याश्चरणे भृशं क्षतः स्मरस्य बाणैः शरण न्यविक्षत // 60 / / नतेति / स्मरस्य कामस्य, बाणैः शरैः, भृशम् अत्यर्थ, क्षतः पीडित इव, अत एव स्फुटी व्यक्ती, कम्पकण्टको सात्त्विकवेपथुरोमाञ्चौ यस्य तादृशः। 'रोमाञ्चेऽपि च कण्टकः' इत्यमरः / कोऽपि युवा, पयः दुग्धं जलं वा, ददत्याः परिवेषयन्त्याः , नतभ्रवः कस्याश्चित् स्त्रियाः, स्वच्छनखेषु शुभ्रचरणनखरेषु, अनुबिम्बनच्छलेन प्रतिबिम्बव्याजेन, चरणे पादे एव / 'पदज्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरोक्तेश्चरणे इति द्वितीयाद्विवचनान्तम्, 'अभिनेर्विशः' इति कर्मसंज्ञा। शरणे रक्षयितारो, रक्षयितृरूपे चरणे इत्यर्थः / 'शरणं गृहरक्षित्रोः' इत्यमरः / न्यविक्षत प्रविष्टः / अत्र सापह्नवोत्प्रेक्षा, व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या / 'नेर्विशः' इति लुङि तङ् 'शलः इगुपधादनिटः क्सः' इति अनिष्टश्च्ले क्लादेशः॥६०॥ कामबाणोंसे अत्यन्त पीड़ित ( अत एव ) स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हुए (सात्त्विक-भावजन्य) कम्प तथा रोमाञ्चवाला कोई (कामी पुरुष ) स्वच्छ नखोंमें प्रतिबिम्बित होनेके बहानेसे पानी ( या-दूथ ) देती हुई झुके हुए भौंहोंवाली ( किसी स्त्री ) के चरणरूप शरणमें प्रवेश किया अर्थात् कामपीडाकी शान्ति के लिए बहुत समय तक चरण देखनेके बहानेसे प्रार्थना एवं नमस्कारका संकेत किया। [ लोकमें भी जो व्यक्ति डरता, कम्पित होता या बाण आदिसे पीडित होता है, वह आत्मरक्षार्थ दूसरेकी शरण में प्रवेश करता है ] // 60 / / मुखं यदस्मायि विभज्य सुध्रुवा ह्रियं तदालम्ब्य नतास्यमासितम् / अवादि वा यन्मृदु गद्गदं युवा तदेव जग्राह तदाप्तिलग्नकम् // 61 / / मुखमिति / सुध्रुवा सुवतिमभ्रशालिन्या, कयाचित् योषिता इति शेषः, मखं विभज्य कुटिलीकृत्य, किञ्चित् विकृत्येत्यर्थः / यत् अस्मायि हसितं स्मयतेर्भावे लुङि चिणि वृद्धयायादेशौ / तथा हियं लज्जाम, आलम्ब्य आश्रित्य, यत् नतास्यं नम्रमुखं यथा तथा, आसितं स्थितम्, आसे वे क्तः / तथा मृदु अनुच्चैः, गद्गदम् अस्पष्टाक्षरं यत् अवादि वा उदितञ्च, वदेः कर्मणि लुङ् / युवा पूर्वोक्तस्तरुणः, तदेव तच्चेष्टात्रयमेव, तदाप्तौ तस्याः प्राप्ती, लग्नकं प्रतिभुवं तत्प्राप्तिविषये 'जामिन' इत्याख्यप्रतिनिधिस्वरूपमित्यर्थः, जग्राह मेने, तादृशानुरागप्रकाशनात् इयं मयि गाढानुरक्ता अत एव सुलभेति निश्चिकायेति भावः // 61 // ___सुन्दर भ्रूवाली उस ( या अन्य किसी ) स्त्रीने मुखको फेरकर जो मुस्कुराया, लज्जित होकर जो मुखको नीचे कर लिया तथा गद्गद होकर जो धीरेसे कहा, ( वह पूर्वोक्त या अन्य किसी ) युवक ने उसीको अर्थात् उस स्त्रीके द्वारा किये गये उन्हीं तीनों कार्योको उसकी प्राप्ति में 'जमिन्दार' मान लिया / [ यह स्त्री मुखको फेरकर मुस्कुराती है, लज्जासे मुख 1. 'चरणौ' इति च पाठः, इति 'प्रकाश' / 2. 'शरणम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 184 नैषधमहाकाव्यम् / नीचे कर लेती हैं और गद्गद होकर धीरेसे बोलती है 'अत एव यह मुझमें अनुरक्त होनेसे मुखे अवश्य मिल जायेगी' ऐसा उस युवकने निश्चय कर लिया ] // 61 // विलोक्य यूना व्यजनं विधुन्वतीमवाप्तसत्त्वेन भृशं प्रसिध्विदे / उदस्तकण्ठेन मृषोष्मनाटिना विजित्य लज्जां ददृशे तदाननम् / / 6 / / विलोक्येति / व्यजनं तालवृन्तकं, विधुन्वती चालयन्ती, काञ्चित् नियमिति शेषः / विलोक्य दृष्ट्वा, अवाप्तसत्त्वेन उद्विक्तसात्विकभावेन, यूना केनचित् तरुणेन, भाम् अत्यर्थ, प्रसिविदे स्विन्नं, सञ्जातसाविकमावेनाभावि इत्यर्थः स्विद्यतेर्भावे लिट् / मृषोमनाटिना भूषा मिथ्या उन्माणं स्वेदकारणं ग्रीष्मादिकं, नाटयति अभिनयतीति तादृशेन सात्त्विकभावोत्थस्वेदगोपनार्थ मिथ्या सन्तापादिकं प्रकाशयतेत्यर्थः, अत एव उदस्तकण्ठेन उग्रीवेण सता, तेन यूनेति शेषः, लज्जां विजित्य विसृज्येत्यर्थः / तदाननं तस्याः वदनं, ददृशे दृष्टम, व्यजनपवनापेक्षयेति भावः / दृशेः कर्मणि लिट / अत्र आगन्तुकेन धर्मस्वेदेन सहजसात्विकस्वेदगूहनान्मीलनालङ्कारः, 'मीलनं वस्तुना यत्र वस्त्वन्तरनिगृहनम्' इति लक्षणात् / / 62 // पसा करती हुई (किसी को ) देखकर सात्त्विक भावयुक्त युवकको बहुत पसीना हो गया ( तब ) झूठे गर्मीका अभिनय करनेवाला ( अत एव पंखे की अधिक दवा लेने के बहाने से ) गर्दनको ऊपर उठाया हुआ ( वह युवक ) लज्जाको छोड़कर उस ( पङ्खा करने वाली स्त्री ) का मुख देखने लगा॥ 62 // स तत्कुचस्पृष्टकचेष्टंदोलताचलदलाभव्यजनानिलाकुलः / अवाप नानानलनालशृङ्खलानि बद्धनीडोद्भवविभ्रमं युवा / / 63 / / स इति / सः पूर्वोक्तः, युवा, तस्याः व्यजनं विधुन्वत्याः स्त्रियः, कुचयोः स्तनयोः, स्पृष्टमेव स्पृष्टकं घर्षणं, तदेव चेष्टा कुचस्पर्शनरूपव्यापारविशेषः यस्याः तादृश्याः, दोर्लतायाः बाहुवल्लयाः, चलद्दलः कम्पमानपत्रम् इव आभातीति चलहलाभं चञ्चलपत्रसदृशम् इत्युत्प्रेक्षा, लतायाः पत्रेण भवितव्यत्वादिति भावः, तादृशस्य, व्यजनस्य तालवृन्तस्य, अनिलेन तञ्चालनजवायुना, आकुलः विवशः, तत्कुचालिनिभुजसन्दर्शनजन्यभावविशेषेण चञ्चलः सन्नित्यर्थः, नानानलनालेन नानाविधतृणकाण्डेन, या शृङ्खला निगडः बन्धन हेतुत्वात् तनिर्मितशृङ्खलमित्यर्थः, तया निबद्धस्य संयतस्य, नीडोद्भवस्य पक्षिणः 'शकुन्तिपक्षिशकुनि नीडोद्भवा गरुत्मन्तः' इत्यमरः विभ्रमं तत्सदृशविलासम् , अवाप प्राप तत्कुचालिङ्गिभुजसन्दर्शनेन कामातुरया 1. 'प्रसिस्विदे' इति पाठश्चिन्त्यः, इति 'प्रकाशः'। 2. '-चेष्टि-' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् / 3. '-नलजाल-' इति 'गलनाल-' इति च पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 685 तदालिङ्गितुकामोऽपि सर्वजनसमक्ष यथेष्टं चेष्टितुमशक्तः सन् शृङ्खलाबद्धपक्षिविभ्रममिवानुबभूवेति निष्कर्षः // 63 // ____ वह युवक ( पंखा करनेवाली ) उस स्त्रीके स्तनोंके स्पर्श करनेकी चेष्टा ( पाठा०'स्पृष्टक' नामक आलिङ्गन करनेकी चेष्टा करने ) वालो बाहुलताके चञ्चल अर्थात् हिलते हुए पत्ते के समान पंखेकी हवासे व्याकुल होकर अर्थात् स्तनको स्पर्श करनेवाले बाहुसे चञ्चल पंखेके देखनेमात्रसे उत्पन्न अनुरागसे व्याकुल होकर अनेक सरपत्तेकी ( अथवा-अनेकविध तृणोंकी ) शृङ्खलामें फंसे हुए पक्षीके विलास ( पक्षा०-तद्रूप पिजड़ेमें ही विशिष्ट भ्रमणबहुत घूमना ) को प्राप्त किया। [ पङ्खा करते समय उस स्त्रोके बाहुसे स्तनके स्पर्श करनेको देख कामातुर होकर उस स्त्रीके आलिङ्गन करनेका इच्छुक होता हुआ भी युवक सब लोगों के सामने वैसा करने में असमर्थ होनेके कारण पिंजड़ेमें फंसे हुए पक्षीके समान व्याकुल हो गया। बाहुरूपिणी लतामें पल्लवका होना तथा पङ्खा करनेके व्याजसे चञ्चल बाहुका 'स्पृष्टक' नामक आलिङ्गन करना उचित ही है ] // 63 // अवच्छटा काऽपि कटाक्षणस्य सा तथैव भङ्गी वचनस्य काचन / यया युवभ्यामनुनाथने मिथः कृशोऽपि दूतस्य न शेषितः श्रमः ||6|| अवच्छटेति / सा तात्कालिकीत्यर्थः, काऽपि अनिर्वचनीया, कटाक्षणस्य, कटाक्षकरणस्य, अपाङ्गदर्शनस्य इति यावत् , 'तत् करोति-' इति ण्यन्तात् ल्युट / अवच्छटा भङ्गी परम्परा वा, तथा वचनस्य परस्परभाषणस्य, काचन एव काऽप्येव, भङ्गी वक्रोक्त्यादिरूपा इत्यर्थः, जाता इति शेषः, यया कटाक्षणच्छटया वचनभङ्गया च का, युवभ्यां युवत्या यूना च, 'पुमान् स्त्रिया' इत्येकशेषः। मिथः अनुनाथने परस्परप्रार्थने, नाथतेर्याचनार्थत्वात् ल्युट / दूतस्य वार्तावहस्य, कृशः अल्पोऽपि, श्रमः प्रयासः, न शेषितः शेषतया न रक्षित इत्यर्थः, स्वयमेव तत्कार्यकारित्वात् परस्परमिलनार्थ दूतो नापेक्षित इति भावः // 64 // ___ उस समयकी कोई अनिर्वचनीय कटाक्ष करनेकी भङ्गी ( या–परम्परा) तथा अनिवचनीय कोई वक्रोक्ति आदि भाषणकी भङ्गी उसी प्रकारकी हुई, जिस ( कटाक्ष तथा वचनकी भङ्गी ) से युवक तथा युवतीने परस्पर प्रार्थना करने में दूतके श्रमको थोड़ा भी बाकी नहीं छोड़ा / [ युवक तथा युवतीने परस्पर कटाक्ष तथा वक्रोक्तिपूर्ण वचनोंसे 'तुम मिलना, मैं आऊंगा' इत्यादि रूपमें स्वयं ही सङ्कत कर लिया और इस प्रकार दूतको उन दोनों की परस्पर कामावस्था कहकर उन्हें मिलानेकी कोई आवश्यकता ही नहीं रह गयी ] // 64 // पपौ न कश्चित् क्षणमास्यमीलितं जलस्य गण्डूषमुदीतसम्मदः / चुचुम्ब तत्र प्रतिबिम्बितं मुखं पुरःस्फुरन्त्याः स्मरकामुकभ्रवः // 6 // पपाविति / उदीतसम्मदः सञ्जातहर्षः, कश्चित् युवा, पुरःस्फुरन्त्याः पुरोवर्त्तिन्याः स्मरस्य कार्मुके धनुषी इव ध्रुवौ यस्याः तारश्याः, कस्याश्चित् जलदायाः इति शेषः,
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________________ 686 आस्येन मुखेन, मीलितं मिश्रितं, मुखस्य प्रतिविम्बयुक्तमिति भावः, जलस्य गण्डूष पानार्थ करतं गण्डूषितजलमित्यर्थः, क्षणं क्षणामात्र, गण्डूषे जलदानकाले इति यावत् , न पपौ न पीतवान् , अन्यथाप्रतिबिम्बादिकार्यायोगादिति भावः, किन्तु यत्र जले, प्रतिबिम्बितं प्रतिफलितं, तस्या मुखं चुचुम्ब चुम्बितवान् // 65 // ___ उत्पन्नानुराग किसी युवकने आगे स्फुरित होती ( शोभती) हुई कामधनुषके समान सुन्दर भौंहोंवाली पानी पिलाती हुई किसी स्त्रीके मुखके प्रतिबिम्बयुक्त ( अथवा पाठा०अपने मुखके पास चुल्लू या अञ्जलिमें लिये हुए ) पानीके गण्डूषको क्षणभर नही पिया, किन्तु उस ( पानोके गण्डूष ) में प्रतिबिम्बित ( उस स्त्रोके ) मुखको चूम लिया ( और बादमें-जलमें प्रतिबिम्बित उसके मुखको चूमने के पश्चात् जलको पिया)। [उस कामुक युवकने सोचा कि 'यदि मैं चुल्लू या अञ्जलिमें लिए हुए जलको पी लूंगा तो इस स्त्रीके प्रतिबिम्बित मुखको चुम्बन नहीं कर सकूँगा, क्योंकि पानीके अभावमे मुखप्रतिबिम्ब भी नहीं रहेगा, अंत एव पहले उसके जलप्रतिबिम्बित मुखको चूमा ओर बादमें जलको पिया / अथवा-भोजनपक्तिमें बैठे हुए लोगोंने जब तक उसके इस जलमें प्रतिबिम्बित स्त्रीमुखका चुम्बन करना नहीं देखा तब तक थोड़ी देरतक जलको नहीं पिया ओर जब लोगोंने उसके इस कार्य को देख लिया तब उसने जलको पी लिया ] // 65 / / हरिन्मणे जनभाजनेऽपिते गताः प्रकोपं किल वारयात्रिकाः / भृतं न शाकैः प्रवितीर्णमस्ति वस्त्विषेदमेवं हरितेति बोधिताः / / 66 / / हरिदिति / हरिन्मणेः मरकतोपलस्य, भोजनभाजने भोजनपात्रे, मरकतमणिनिर्मितभोजनपात्रे इत्यर्थः, अर्पिते पुरतः स्थापिते सति, प्रकोपम् अतिरोषं, गताः प्राप्ताः, अतिशयेन रुष्टा इत्यर्थः, पत्रभाजनभ्रान्त्येति भावः, वरयात्रा प्रयोजनम् एषा. मस्तीति वारयात्रिकाः वरेण सह समागताः, 'प्रयोजनम्' इति ठक् / वः युष्माकं सम्बन्धे, प्रवितीणं दत्तम् , इदं भोजनभाजनं, शाकै 'शेगुन' इत्याख्यतरुविशेषपत्रैः 'शाको द्वीपान्तरेऽपि च / शक्तौ तरुविशेषे च पुमान् हरितकेऽस्त्रियाम् // ' इति मेदि. नी / भृतं कृतं, निर्मितमित्यर्थः, न अस्ति न भवति, किन्तु हरिता हरितया, हरिद्वणयेत्यर्थः / पालाशो हरितो हरित्' इत्यमरः / विषा स्वकान्त्या, एवम् इत्थं, शाकप. निर्मितभाजनमिति वो भ्रान्तिरिति भावः, इति बोधिताः विज्ञापिताः / अत्र कल्पि. तसादृश्यान्मरकतभाजने पत्रभाजनभ्रान्तिनिबन्धनात् भ्रान्तिमदलङ्कारः // 66 // पन्ना मणिके बने हुए भोजनपात्र (थाल ) देनेपर ( हरा रंग होनेके कारण पत्तलके भ्रमसे ) अत्यन्त क्रुद्ध हुए बरातियोंको 'आपलोगों के लिए दिया गया यह भोजनपात्र ( थाल) पलाश आदि (या-सागौन ) के पत्तोंसे नहीं बना ( अथवा-बथुआ, पालक आदिके शाकसे नहीं भरा हुआ ) है; किन्तु हरी कान्तिसे यह भोजनपात्र ऐसा (पत्तोंसे बनाया, शाकसे भरा हुआ प्रतीत होनेवाला) हरे रंगका है। इस प्रकार (कन्यापक्षवालोंने ) समझाया / / 66 //
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________________ 687 षोडशः सर्गः। ध्रुवं विनीतः स्मितपूर्ववाग्युवा किमप्यपृच्छन्नविलोकयन्मुखम् / स्थितां पुरः स्फाटिककुट्टिमे वधूं तदध्रियुग्मावनिमध्यबद्धहक // 6 // ध्रवमिति / युवा कोऽपि तरुणः, पुरः अग्रे, स्फटिके स्फटिकमये, कुट्टिमे निबद्धभूमौ, स्थितां तिष्ठन्ती, वर्धू कामपि सीमन्तिनी, तस्याः बध्वा एवेत्यर्थः, अघ्रियुः ग्मस्य पादद्वयस्य, अवनिः आधारभूतभूभागः, तस्याः मध्ये अन्तरालभूभागे, तस्याः पादद्वयाधारभूतभूम्योरन्तराले इत्यर्थः, बद्धक दत्तदृष्टिः सन् ,तत्सङ्क्रान्ततद्वरागप्रतिविम्बाकृष्टदृष्टिः सन्नित्यर्थः, मुखं न विलोकयन् अधोदर्शनार्थ मुखं न पश्यन् , नजर्थस्य नशब्दस्य सुपसुपेति समासः। विनीतः ध्रुवं साधुरिव, स्मितपूर्वा वाक् यस्य सः तादृशः सन् ईषद्धास्यपूर्वकमित्यर्थः / किमपि यत् किञ्चित् , अपृच्छत् जिज्ञासितवान् / अत्र यूनः स्त्रीसम्भाषणे पादावलोकनेन सुखानवलोकनधर्मयोगात् विनीतत्वोत्प्रेक्षा // 67 // विनयी जैसी ( वास्तविकमें अविनयी अर्थात् हँसी करनेमें चतुर ), मुस्कुराकर बोलनेवाला कोई युवक स्त्रीके मुखको नहीं देखता हुआ स्फटिक मणिकी बनी हुई भूमिपर सामने बैठी हुई स्त्रीसे उसके दोनों चरणों के बीचकी भूमि ( पर प्रतिबिम्बित उस स्त्रीके मदन. मन्दिर-भाग) को देखता हुआ कुछ पूछा // 67 // अमी लसद्बाष्पमखण्डिताखिलं वियुक्तमन्योऽन्यममुक्तमार्दवम् / रसोत्तरं गौरमपीवरं रसादभुञ्जतामोदनमोदनं जनाः // 68 // अमी इति / अमी जनाः जन्यजनाः, लसन् प्रकाशमानः, उद्गच्छन्नित्यर्थः, बाष्प धूमायमानोष्मा यस्य तादृशम् ईषदुष्णमित्यर्थः, अखण्डितम् अभग्नम् , अखिलं स्वरूपम् , आकृतिरिति यावत् , यस्य तादृशम् , अन्योऽन्यं परस्परं, वियुक्तम् असंश्लिष्टं, तथाऽपि अमुक्तमादेवम् अकठिनं, सुकोमलमित्यर्थः, रसोत्तरं स्वादुभूयिष्ठं गौरं शुभ्रम् , अपीवरम् अस्थूलं, सूचममित्यर्थः, आमोदनम् आह्लादजनकं, सुगन्धम् इत्यर्थः, ओदनम् अन्नं, रसात् रागात् , अभुञ्जत अखादन् / सार्थकविशेषणत्वात् परिकरः // 6 // इन बराती लोगोंने बाष्प निकलते हुए अर्थात् थोड़ा-थोड़ा गर्म, बिना टूटे हुए दानोंवाले, परस्परमें नहीं सटे सुए, कोमल, स्वादिष्ट, स्वच्छवर्ण, ( कृष्णभोग, श्यामजीरा आदि उत्तम जातीय चावल होनेसे ) महीन ( अत एव ) हर्षप्रद ( अथवा-सुगन्धयुक्त ) भातको भोजन किया // 68 // वयोवशस्तोकविकस्वरस्तनी तिरस्तिरश्चुम्बति सुन्दरे दृशा | स्वयं किल स्रस्तमुरःस्थमम्बरं गुरुस्तनी होणतराऽपराऽऽदधे // 6 // वय इति / सुन्दरे रूपसम्पन्ने, वरपक्षीये कस्मिंश्चित् पुंसि इति शेषः। वयोव१. 'पराददे' इति पाठान्तरम् / 62 नै० उ०
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________________ 15 नैषधमहाकाव्यम् / शेन बाल्ययौवनयोः सन्धिरूपवयोऽधीनतया, स्तोकविकस्वरस्तनीम् ईषदुद्भिन्नकुचमण्डलां, काञ्चित् बालामिति शेषः / तिरस्तिरः दृशा तिरश्चीनदृष्टया, वक्रकटा. तेणेत्यर्थः / चुम्बति साग्रहं पश्यति सतीत्यर्थः / गुरुस्तनी पृथुस्तनी, अपरा अन्या, काचित् स्त्रीति शेषः / ह्रीणतरा अतिशयेन हीणा लजिता, अतिशयलज्जिता सती. त्यर्थः / चुद्रस्तन्यां बालिकायामनुरागदर्शनात् पृथुस्तन्यां स्वस्यां तस्यारुचित्वबुद्धया अतिसलज्जत्वं युक्तमिति भावः / ह्रीधातोः 'कालात्' इति तरप, 'नुदविद-' इत्यादिना पक्षे निष्ठानत्वं, 'तसिलादिष्वाकृत्वसुचः' इति पुंवद्भावः / स्वयमात्मनेव, त्रस्तं गलितं, किल इति अलीके, स्वस्थानात् भ्रष्टमिव जातमित्यर्थः। इति उरःस्थं वक्षःस्थितम् , अम्बरं वसनम् , उत्तरीयमित्यर्थः। आदधे स्वेच्छया स्वस्थानादपसारितं कृत्वा पुनराच्छादनाथं यथास्थानं निदधे / तुद्रस्तनी प्रति हृदयावरणसंकेतं स्वकीयहृदयावरणनिधानेन ज्ञापयामास, अथवा अहं पीवरस्तनी तवोपभोगक्षमेति बुद्धया स्तनयुगं दर्शयामासेति भावः // 69 // अवस्था ( बाल्य तथा युवावस्थाके सन्धिकालकी उम्र ) के वश थोड़ा उठते हुए स्तनवाली ( मुग्धा स्त्री ) को तिच्छी-तिच्छी दृष्टि से युवकके देखते रहने पर अर्थात् अनु. रागवश कटाक्षपूर्वक देखनेमात्रसे चुम्बनमुखका अनुभव करते रहने पर विशाल स्तनोंवाली दूसरी ( प्रौढा ) स्त्री अधिक लज्जित होकर स्तनोंसे स्वयं कपड़ेको हटाकर फिर उससे स्तनोंको ढक लिया। [ 'यह युवक लघुस्तनी मुग्धा से अनुराग करता है, पृथुस्तनी सम्भोगसमर्था मुझसे नहीं' अत एव अपने विशाल स्तनों को दिखाने के अभिप्रायसे यथास्थान स्थित वस्त्रको भी हटाकर पुनः स्तनोंको ढक लिया / अथवा-उस मुग्थाको सङ्केत किया कि'तुम अपने स्तनोंको अच्छी तरह ढक लो'। ऐसे अवसरपर कुछ स्पष्ट कहना अनुचित होनेसे सङ्केतमात्रसे उस मुग्धाको स्तनोंको ढकनेके लिए उस प्रौढाने सचेत कर दिया ] // 69|| यदादिहेतुः सुरभिः समुद्भवे भवेत्तंदाज्यं सुरभि ध्र वं ततः / वधूभिरेभ्यः प्रवितीर्य पायसं तदोघकुल्यातटसैकतं कृतम् // 70 // यदिति / यत् यस्मात् कारणात् , समुद्भवे उत्पत्ती, सुरभिः गौः, सुगन्धिः पदार्थश्च / 'सुरभिर्वाच्यवत् सौम्ये सुगन्धौ गोषु योषिति' इति यादवः। आदिहेतुः मूलकारणं, ततः कारणातू , तत् आज्यं घृतं, सुरभि सुगन्धि, भवेत् , 'कारणगुणाः कार्यगुणमारभन्ते' इति सुरभिसूतस्य सुरभित्वं युक्तमिति भावः / ध्र वमित्युत्प्रेक्षा. याम् / वधूभिः परिवेष्ट्रीभिः, एभ्यः जन्यजनेभ्यः, पायसं परमान्नं, पयसि संस्कृतमन्नमित्यर्थः / 'परमानन्तु पायसम्' इत्यमरः / 'संस्कृतं भक्षाः' इत्यणप्रत्ययः / प्रवितीर्य दत्त्वा, परिवेष्येत्यर्थः / तस्य सुरभ्याज्यस्य, ओघः प्रवाहः एव, कुल्या कृत्रिम सरित् , तस्याः तटे तीरदेशे, सैकतं सिकतामयं पुलिनं, कृतं रचितमिति रूपकम् / 1. 'यदाज्यमित्येव पाठः इति 'प्रकाश'।
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________________ षोडशः सर्गः। 689 'देशे लुबिलचौ च' इति सिकताशब्दादणप्रत्ययः। प्रदत्तपायसोपरिनिक्षिप्तघृतधाराप्रवाहेण द्विधा विभक्तं पायसंशुक्लत्वात् घृतमभितः घृतकुल्यातटसैकतमिव विरेजे इति भावः // 7 // जिस कारणसे कामधेनु या गौ ( अथवा-सुगन्धयुक्त पदार्थ ) उत्पत्तिमें (दूध-दही आदिकी परम्परासे ) मूल कारण है, उस कारणसे ( अथवा-मानों उस कारणसे ) वह धी सुगन्धित होता है ( परोसनेवाली ) स्त्रियोंने इन ( बरातियों ) के लिए उस घीको परोसकर खीरको उस घृतके प्रवाहरूप छोटी नहरके दोनों किनारे रेती-सी बना दिया। [ पहले खीर परोसकर उसके ऊपर घीकी धार गिरायी जिससे घीके चारों तरफ वह खीर नहरके दोनों किनारे रेती-सी बन गयी / वह घी सुगन्धित था, क्योंकि कारणगत गुणका कार्यमें होना उचित ही है ] // 70 // . यदप्यतीता वसुधालयैः सुधा तदप्यदः स्वादु ततोऽनुमीयते / अपि क्रतूषर्बुधदग्धगन्धिने स्पृहां यदस्मै दधते सुधाऽन्धसः / / 71 // यदपीति / यदपि यद्यपि, वसुधालयः भूनिलयः, मनुष्यादिभिरित्यर्थः। सुधा अमृतम्, अपीता न पीता तदपि तथाऽपि, अपोतत्वेऽपोत्यर्थः। अदः आज्यं, ततः सुधातोऽपि, स्वादु मधुरम्, अनुमीयते तय॑ते, यत् यतः, सुधा एव अन्धः अन्नं येषां ते सुधाऽन्धसः देवा, ऋतूषर्बुधदग्धगन्धिने यज्ञाग्निप्लुष्टगन्धवते, अस्मै आज्याय, स्पृहाम् इच्छां, दधते कुर्वते इत्यर्थः। 'स्पृहेरीप्सितः' इति सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी। अस्माकमुभयानुभवाभावेऽपि अमृतभोजिनामपि विशिष्टप्रवृत्तिलिङ्गेन तदुभयरसतारतम्यानुमानं सुकरमित्यर्थः। अग्निदग्धत्वेन विकृतगन्धमपि घृतम् अमृतादपि स्वादुरसंकिमुत सौरभयुक्तमिति भावः। अनुमानन्तु घृतममृतादपि स्वादु अमृतान्नानां देवानां विशिष्टेच्छाविषयत्वादिति अत्रानुमानालङ्कारः // 71 // ____ यद्यपि भूलोकवासी ( मनुष्यों ) ने अमृत नहीं पिया है, तथापि ( अमृत-रसका ज्ञान नहीं होनेपर भी) 'यह (घृत ) उस (अमृत) से अधिक स्वादिष्ट है' ऐसा अनुमान होता है; क्योंकि अमृतभोगी ( देव ) भी यज्ञोंमें अग्निके द्वारा जलाये (दूषित किये ) गये गन्धवाले इस (घृत ) के लिये चाहना करते हैं। [यदि अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट घृत नहीं होता तो जलानेसे विकृत गन्धवाले भी घृतकी अमृतका भोजन करनेवाले देवलोग क्यों इच्छा करते ?, इससे अनुमान होता है कि जले हुए गन्धवाला भी घृतका स्वाद अमृतसे उत्तम है, तो फिर जो बिना जले हुए गन्धवाला घृत है उसके स्वाद के विषय में क्या कहना है, वह तो अमृतसे बहुत ही अधिक स्वादिष्ट होगा ही। अथवा-कुछलोग ( भूलोकवासी ) घृतसे कम स्वादिष्ट अमृतका आस्वादन नहीं करते तथा सर्वदा अमृत भोजन करनेवाले ( देवलोग) भी घृतकी चाहना करते हैं; इन दोनों कारणोंसे अमृतकी अपेक्षा घृतके अधिक स्वादिष्ट होनेका अनुमान होता है ] // 71 //
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________________ 690 नैषधमहाकाव्यम् / अबोधि नो ह्रीनिभृतं मदिङ्गितं ? प्रतीत्य वा नाहतवत्यवसाविति ? / लुनाति यूनः स्म धियं कियद्गता निवृत्य बालाऽऽदरदर्शनेषुणा।।७२।। अबोधीति / असौ बाला स्त्री, हीनिभृतं लज्जानिगूढं, मदिङ्गितं सभ्रूभङ्गदर्शना. दिना मम हृद्तभावं, नो अबोधि ? न अज्ञासीत् ? बुध्यतेः कर्तरि लुङि तङ, 'दीपजन-' इत्यादिना च्लेश्चिणादेशः / वा अथवा, प्रतीत्य बुद्ध्वाऽपि, न आहतवती अनभिप्रेतत्वात् तत् न गणितवती, इत्येवंरूपां, यूनः तरुणस्य कस्यचित् , धियं संशयबुद्धिं, कियत् कतिचित् पदानि, गता चलिता अपि, निवृत्य प्रत्यावृत्य, आदरदर्शनं सरागदृष्टिः, यद्वा-दरदर्शनम् ईषदृष्टिः, लज्जया संकोचपूर्णदृष्टिरिति यावत् / 'ईषदर्थे दराव्ययम्' इति मेदिनी / तद्रूपेण इषुणा बाणेन, लुनाति स्म चिच्छेद / एतावतैव यूनः अनुरागाभावशङ्काशङ्कुरुद्धृत इति भावः // 72 // _ 'इस बालाने लज्जासे गूढ मेरी चेष्टा ( कटाशदर्शन आदि ) को नहीं समझा क्या ? अथवा समझकर आदर ( मुझपर अनुराग ) नहीं किया ?' इस प्रकारकी युवककी बुद्धि अर्थात् सन्देह को कुछ दूर गयी हुई बालाने लौटकर आदरपूर्वक दर्शन (सानुराग कटाक्षदेर्शन ) रूपी बाणसे काट दिया अर्थात् कुछ दूर जाकर बालाने उस युवकको अनुरागपूर्वक दखकर उसके उक्त संशय बुद्धिको दूर कर दिया // 72 // . न राजिका-राद्धमभोजि तत्र कैर्मुखेन सीत्कारकृता दधद्दधि | धुतोत्तमाङ्गैः कटुभावपाटवादकाण्डकण्डूयितमूर्द्धतालुभिः ? // 73 / / नेति / तत्र भोजनसमये, कैः जनः, दधदधि दधिवत्, दध्ना संस्कृतम् इत्यर्थः / राजिकाराद्धं राजसर्षपनिष्पन्न, सर्षपचूर्णसंयुक्तं व्यञ्जनमित्यर्थः / 'अथो राजसर्षपः। क्षवः सुधाऽभिजननो राजिका कृष्णिकाऽऽसुरी' इति यादवः। कटुभावपाटवात् कटुत्वसामर्थ्यात् , कटुरसातिरेकादित्यर्थः। धुतोत्तमाङ्गः कम्पितमस्तकैः, तथा अकाण्डे असमये, भोजनसमये मस्तककण्डूयनस्य स्मात्तवचननिषिद्धत्वात् भोजन. समयः कण्डयनस्य असमय इति भावः / कण्डूयितं मूर्द्धतालु मूर्द्धानः तालूनि च यः तादृशैः सद्भिः, सीत्कारकृता ससीत्कारेण, मुखेन वक्त्रेण, न अभोजि ? न अखादि ? सर्वैः एवं कुर्वद्भिरपि अभोजि इत्यर्थः / स्वभावोक्तिरलङ्कारः // 73 // ___ उस समय (या-वहां पर अर्थात् राजा भीमके यहां ) किन्हीं ( बरातियों ) ने राई या पीली सरसों में तैयार किये गये और दहीसे भिगोये गये व्यञ्जन-विशेषको अधिक कटु होनेसे मस्तक हिलाते हुए तथा ( भोजनकालमें मस्तक खुजलानेका धर्मशास्त्रोंमें निषेध होनसे ) असमयमें मस्तक तथा तालुको खुजलाते हुए सीत्कारयुक्त मुखसे अर्थात् 'सी-सी ऐसा शब्द करते हुए भोजन नहीं किया ? अर्थात् सभी बरातियोंने उक्त प्रकारके व्यञ्जनको मस्तक हिलाते, मस्तक तथा तालु खुजलाते और 'सी-सी' करते हुए खाया / / 73 // वियोगिदाहाय कटूभवत्त्विषः तुषारभानोरिव खण्डमाहृतम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 191 सितं मृदु प्रागथ दाहदायि तत खलः सुहृत्पूर्वमिवाहितस्ततः / / 74 / / वियोगीति / वियोगिनां प्रियवियुक्तानां, दाहाय सन्तापाय, कटूभवन्त्यः तीचणीभवन्त्यः, स्विषः प्रभाः यस्य तादृशस्य, तुषारभानोः चन्द्रस्य, खण्डं शकलम्, आहृतम् आनीतम् इव स्थितम् इत्युत्प्रेक्षा। सितं शुभ्रं, प्रभूतदधिसंयोगादितिभावः। तत् राजसर्षपमिश्रं व्यञ्जनं, पूर्वम् आदौ, सुहृत् आप्तः, ततः पश्चात्, कार्यकाले इत्यर्थः, अहितः अनाप्तः, खलः दुर्जन इव, इत्युपमा, प्राक आदी, स्पर्शकाले इत्यर्थः, मृदु कोमलम्, अथ पश्चात् , मुखे प्रक्षेपानन्तरमित्यर्थः, दाहदायि कटुरसातिरेकात् जिह्वादेर्दाहकारि, बभूव इति शेषः // 74 // विरहियोंके सन्तापके लिए तीक्ष्ण कान्तिवाले चन्द्रमाके टुकड़ेके समान लाये गये ( अथवा-लाये गये चन्द्रखण्डके समान स्थित ) श्वेत वर्ण पहले ( स्पर्श-क्षणमें ) कोमल तथा बादमें ( मुख में डालनेपर अतिकटु होनेसे ) दाहकारक पहले मित्र तथा बादमें शत्रु बने हुए खलके समान हुआ ( अथवा-उस रायोके बने व्यञ्जनको किन्हीं बरातियोंने नहीं भोजन किया ऐसा पूर्व (1673 ) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये ) / / 74 / / नवौ युवानौ निजभावगोपिनावभूमिषु प्राक् प्रहितभ्रमिक्रमम् / दृशोविधत्तः स्म यहच्छया किल त्रिभागमन्योऽन्यमुखे पुनः पुनः // 7 // नवाविति / नवौ बाल्ययौवनयोः सन्धौ वर्तमानौ, अत एव निजभावगोपिनौ लज्जावशात् स्वाभिप्रायं स्पष्टमप्रकाशयन्ती, युवानी युवतिश्च युवा च तौ, 'पुमान् स्त्रिया' इत्येकशेषः / प्राक् प्रथमम्, अभूमिषु अन्यविषयेषु, दर्शनायोग्येषु इत्यर्थः, नमर्थन नजसमासः। प्रहितभ्रमिक्रम कृतसञ्चारप्रकारं, विषयान्तरेषु इतस्ततः प्रवर्तितम् इत्ययः, दृशोः नयनयोः, त्रिभागं तृतीयभागम्, अपाङ्गदर्शनम् इत्यर्थः, 'वृत्तिवि. षये सङ्ख्याशब्दस्य पूरणार्थत्वम्' इति कैयटः / पुनः पुनः वारं वारम्, अन्योऽन्यस्य परस्परस्य, मुखे वदने, यदृच्छया किल अनिच्छयैव, किल इत्यलीके, इच्छापूर्वकमेव इत्यस्य तात्पर्यम् / विधत्तः स्म निचिक्षिपतुरित्यर्थः, आदौ हिया विषयान्तरदर्शनव्याजादेव अन्योऽन्यमुखम् अपाङ्गदृष्टया पुनः पुनर्दशतुरिति चतुःप्रीत्याख्या प्रथमावस्थेषा // 75 // नये (शैशव तथा यौवनावस्थाके मध्यमें वर्तमान, अत एव लज्जाके कारण) अपने भाव ( पारस्परिक अनुराग ) को छिपानेवाले युवती तथा युवकने पहले अयोग्य ( अपने उद्देश्यसे हीन, या-अपने देखने के अयोग्य या-लोक व्यवहारके अयोग्य किन्हीं अन्य ) वस्तुओंको कटाक्षपूर्वक देखा तथा बादमें परस्परके मुखको देखा। [नयी उम्र होनेसे लज्जावश वे युवती तथा युवक सहसा एक दूसरेके मुखको नहीं देख सके, अतः पहले उद्देश्यहीन पदार्थोंको देखने के बाद परस्परके मुखको देखा / उनका अभिप्राय यह रहा कि-दूसरे लोग ऐसा समझें कि ये दोनों अन्य पदार्थोके समान ही परस्परमें एक दूसरेके मुखको भी स्वभावतःही देखते हैं, अनुरागसे नहीं देखते ] // 75 //
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________________ 662 नैषधमहाकाव्यम् / व्यधुस्तमां ते मृगमांससाधितं रसादशित्वा मृदु तेमनं मनः | निशाधवोत्सङ्गकुरङ्गजैरदः पलैः सपीयूषरसैः किमपि ? / / 76 / / व्यधुस्तमामिति / ते जन्याः, मृगमांसेन हरिणमांगेन, साधितं निष्पादितं, मृदु कोमलं, तेमनं व्यञ्जनम् 'तेमनं व्यञ्जने क्लेदे' इति हेमचन्द्रः / रसात् रागात् , साग्रहमित्यर्थः, अशित्वा आस्वाद्य, अदः इदं तेमनं, निशाधवस्य निशापतेः इन्दोः, उत्सङ्गे क्रोडे, यः कुरङ्गः मृगः; तज्जैः तत्सम्बन्धिभिः, अत एव सपीयूषरसः अमृतद्रवमिश्रितैः पलैः मांसः, अश्रपि किम् अपाचि किम् ? पाकार्थात् श्राधातोः ण्यन्तात् कर्मणि लुङ्, घटादित्वात् मित्वात् हस्वः / इति मनो मतिं, व्यधुस्तमाम् अतिशयेन विदधुः इत्युत्प्रेक्षितवन्तः इत्यर्थः / दधातेलुंडि 'तिङश्च' इति तमपप्रत्ययः, ततः 'किमेत्तिङव्ययघादा-' इति आमुप्रत्ययः // 76 // उन बरातियोंने मृग-मांससे बनाये गये व्यजनविशेषको खाकर 'यह ( व्यञ्जन ) चन्द्रमाके कोडमें रहने वाले हरिणके अमृतयुक्त मांससे पकाया गया है क्या ?' ऐसा मनमें अच्छी तरह सोचा [ यहांपर 'अच्छी तरह सोचा' ऐसा कहनेसे बरातियोंको अच्छी तरह सोचकर भी यह निर्णय नहीं हो सका कि वास्तविकमें यह व्यञ्जन चन्द्रस्थ मृगमांससे बना है या वन्य मृगमांससे ?' अत एव उसका अधिकतम स्वादु होना सूचित होता है ] / / 76 / / परस्पराकूतजदूतकृत्ययोरनङ्गमारा मपि क्षणं प्रति / निमेषणेनैव कियच्चिरायुषा जनेषु यूनोरुदपादि निर्णयः / / 77 / / परस्परेति / परस्परस्य आकूतात् / अभिप्रायावेदकनयनादिचेष्टाविशेषात् , जातं निवृत्तं, दूतकृत्यं सम्भोगसम्मतिविषयक प्रश्नोत्तरपरिज्ञानरूपं दौत्यकार्य ययोः तादृशयोः, संज्ञाभिरेव कृतसमागमनिश्चययोरित्यर्थः, यूनोः कयोश्चित् तरुणयोः स्त्रीपुंसयोः, अनङ्गं कामम्, आराधैं सेवितुं, रन्तुमित्यर्थः, क्षणं कालं प्रति, निर्णयोऽपि निश्चयोऽपि, समागमकालनिर्धारणमपीत्यर्थः, जनेषु जनमध्ये एव, कियच्चिरायुषा किञ्चिद्दीर्घकालावस्थायिना, निमेषणेनैव नयननिमीलनेन एव, साधारणनिमेषकालापेक्षया किञ्चिदधिककालव्यापिना नेत्रमुद्रणकरणेनैवेत्यर्थः, उदपादि उत्पन्नः उत्पद्यतेः कर्तरि लुङ 'चिण ते पदः' इति चिण / एतेषु निद्रितेवेव आवयोः समागमः भवेत् इति कालनिश्चयोऽपि नेत्रनिमोलनरूपसंज्ञयैव कृतः इति भावः // 77 // परस्पर चेष्टाओंस ही दूतकार्य ( सम्भोग-विषयक सम्मति ) को पूर्ण किये हुए किसी युवक तथा युवतीके कामाराधन ( सुरत ) करने के लिए समयके प्रति निर्णय भी लोगोंके बीचमें कुछ विलम्ब तक किये गये निभेष ( नेत्र बन्द करने ) से ही हो गया / [ उन दोनों युवक तथा युवतीने पहले परस्पर चेष्टाओंसे सम्भोग करनेका निर्णय विना दूतके ही कर लिया और बादमें कुछ देरतक नेत्र बन्द करके सुरत-समयका भी निर्णय कर लिया अर्थात् लोगों के बीचमें ही उक्त प्रकारसे कुछ देरतक नेत्र बन्द करनेसे यह सङ्केत कर लिया कि. इन लोगों के सो जानेपर हम दोनों सुरत करेंगे ] // 77 / / .
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________________ षोडशः सर्गः। 993 अहर्निशा वेति रताय पृच्छति क्रमोष्णशीतान्नकरार्पणात् विटे। . हिया विदग्धा किल तनिषेधिनी न्यधत्त सन्ध्यामधुरेऽधरेऽङ्गलिम् // 78 // __ अहरिति / विटे कस्मिंश्चित् कामुके, क्रमेण पर्यायानुसारेण, उष्णशीतयोः अन्नयोः भोज्यद्रव्ययोः उपरि, करार्पणात् हस्तस्थापनात् ,तद्रूपसङ्केतविशेषादित्यर्थः, रताय सम्भोगाय, अहः सूर्यसम्पर्केण उष्णोपलक्षितं दिनं वा कालः ? निशा वा चन्द्रसम्पर्केण शैत्योपलक्षिता निशा वा कालः ? इति एवं, पृच्छति जिज्ञासमाने सति, विदग्धा चतुरा, तदभिप्रायाभिज्ञेत्यर्थः, हिया लजया, किल तत् कालद्वयं, निषेधतीति तनिषेधिनी तन्निवारिका सती, सन्ध्यामधुरे सन्ध्यावत् मनोहरे, सन्ध्यारुणवणे इत्यर्थः, अधरे ओष्टे, अङ्गुलिं न्यधत्त स्थापयामाम, सन्ध्यासवर्णाधरस्पर्शन आवयोः सन्ध्यासमये समागमः इति सूचयामास इत्यर्थः / हिया स्त्रीभिरङ्गुल्या अधरमाच्छा. द्यते इति प्रसिद्धम् // 78 // . 'रतिके लिए दिन या रात्रिका समय-दोनों में से कौन ठीक होगा' इस बातको क्रमशः गर्म तथा ठण्डे अन्नपर हाथ रखकर कामुकके पूछनेपर चतुर ( उसके अभिप्रायको समझनेवाली ) स्त्री लज्जासे उन दोनों समयोंका निषेध करती हुई सन्ध्याके समान मनोहर अर्थात् अरुणवर्ण अधरपर अङ्गुलिको रख दिया। [ कामुकने उष्ण अन्नपर हाथ रखकर दिनमें तथा शीत अन्न पर हाथ रखकर रात्रिमें-दोनोंमें-से कौन-सा समय हमदोनों के सम्भोगके लिये अनुकूल होगा ?' ऐसा पूछा तो उसके अभिप्रायको समझनेवाली उस चतुर स्त्रीने दिन तथा रात्रि-दोनों समयमें क्रमशः सूर्य तथा चन्द्रमाका प्रकाश रहनेसे उन दोनों समयोंका निषेध कर अरुण वर्णवाले अधरपर अङ्गुलि रखकर अन्धकार युक्त सन्ध्याकालको सम्भोगके लिये सङ्केतित किया / लज्जित स्त्रीका अबरपर अङ्गुलि रखना स्वभाव होता है]॥७८॥ (क्रमेण कूरं स्पृशताष्मणः पदं सितान शीताञ्चतुरेण वीक्षिता। दधौ विदग्धाऽरुणितेऽधरेऽङ्गुलीमनौचितीचिन्तनविस्मिता किल।।१।।) क्रमेणेति / अयं श्लोकः क्षेपकः / कूरं भक्तम् / सितां शर्कराम्। किमिदमनेनानुचितं क्रियत इत्यनौचितीचिन्तनेन विस्मिता किल विस्मितेव / अरुणिते यावकेनेत्यर्थः / भावः स एव // 1 // ___ क्रमशः गर्म भात तथा ठण्ढे शक्करका स्पर्श करते हुए चतुर (कामी पुरुष ) से देखी गयी विदग्धा ( परभावशानचतुरा स्त्री ) ने अनुचितके चिन्तनसे आश्चर्यित-सी होती हुई ( अलक्तकसे ) लाल अधर पर अङ्गुलिको रख दिया। [ क्रमशः सूर्य तथा चन्द्रमासे प्रकाशमान दिन तथा रात्रिमें सम्भोग करने के लिए निश्चित समयको सङ्केतसे पूछनेपर विदग्धाने 'यह क्या अनुचित समयका सङ्केत करके पूछ रहा है' इस चिन्तासे उस स्त्रीने अपने ओष्ठ. . 1. क्षेपकस्यास्य 'जीवातु' व्याख्यानाभावान्मया 'प्रकाश' व्याख्यैवात्र निहि ते त्यवधेयम् / 2. इयं किल 'प्रकाश' व्याख्या म०म० नारायणभट्टस्येत्यवधेयम्।
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________________ 164 नैषधमहाकाव्यम् / पर अङ्गुलिको रख दिया। शेष भाव पूर्ववत् ( 1678 ) जानना चाहिये ] // 1 // कियत्त्यजन्नोदनमानयन कियत् करस्य पप्रच्छ गतागतेन याम् / अहं किमेष्यामि ? किमेष्यसीति ? सा व्यधत्त नम्रं किल लज्जयाऽऽननम् / / कियदिति / कियत् किञ्चित् , ओदनम् अन्नं, त्यजन् भोजनपात्रैकदेशे अपसारयन् कियत् किञ्चित् ओदनम् , आनयन् तत्रैव स्वयं प्रति आकर्षन् , पूर्वोक्तः विटः इति शेषः, करस्य पाणेः, गतागतेन ओदनस्यापसारणार्थमाकर्षणार्थञ्च यातायाताभ्याम 'विप्रतिषिद्धचानधिकरणवाचि' इति वैभाषिको द्वन्द्वे एकवद्भावः / किम् अहम् एष्यामि ? स्वां प्रति इति शेषः, किं एष्यसि वा ? त्वं मां प्रति इति शेषः, इति यां तरुणी, पप्रच्छ जिज्ञासयामास, सा स्त्री, लज्जया किल किलेत्यलीके, वस्तुतः तज्जिा ज्ञासितोत्तरदानार्थमेव इति भावः / आननं मुखं, नम्रम् अवनतं, व्यधत्त कृतवती, शिरोऽवनतिसंज्ञया त्वमेव मां प्रति भागच्छ इति सूचितवती इति भावः // 79 // . (सम्भोगकाल का निर्णय ( 1678 ) करने के बाद ) कुछ भातको छोड़ता ( आगेकी ओर दूर फैलता ) हुआ तथा कुछ भातको खींचता ( अपने समीप लाता ) हुआ हाथके गमनागम (क्रमशः संकेत) से 'मैं आऊंगा?' या 'तुम आवोगी? ऐसा जिस (युवती) से पूछा, उसने मानो लज्जासे मुखको नीचा कर लिया / [ भातको हटाने से 'मैं तुम्हारे पास आऊ क्या ? ऐसा तथा भातको समीप करनेसे 'तुम मेरे पास आवोगी क्या ? ऐसा युवकने संकेतकर जिस युवतीसे पूछा, उसने दूसरोंकी दृष्टिमें लज्जित होकर मुख नीचा कर लिया, किन्तु वास्तविकमें मुखको नीचेकर अपने चरणों की ओर देखती हुई उसने संकेत किया कि 'तुम्हीं आकर मेरे चरणोंपर गिरो, मैं तुम्हारे पास नहीं आऊंगी अथवा-'मैं ही आऊंगी' ऐसा संकेत किया / लोकमें भी किसीसे 'यह काम कौन करेगा ? ऐसा पूछनेपर अपने मुखको नीचा करके 'मैं करूंगा' ऐसा संकेत करते देखा जाता है ] // 79 / / यथाऽऽमिषे जग्मुरनामिषभ्रमं निरामिषे चामिषमोहमूहिरे / तथा दिदग्धेः परिकर्मनिर्मितं विचित्रमेव परिहस्य भोजिताः / / 8 / / यथेति / एते जन्याः, यथा येन प्रकारेण, आमिषे मांसे अनामिषम् अमांसम् इति भ्रमं भ्रान्ति, जग्मुः प्रापुरित्यर्थः यथा च निरामिषे अनामिषे, आमिषमोहं मांसभ्रमञ्च, अहिरे प्राप्नुवन्ति स्म, तथा तेन प्रकारेण, विदग्धः परिहासनिपुणेः, पाचकैरिति शेषः, परिकर्मणा तत्तद्भोज्यसंस्कारकद्रव्यविशेषेण, निर्मितं निष्पादितम्, अत एव विचित्रम् आश्चर्य, भोज्यवस्तु इति शेषः, परिहस्य आमिषदानकाले च निरामिषपरिवेषणरूपं, निरामिषदानकाले च आमिषपरिवेषणरूपं परिहासं कृत्वा, भोजिताः भोजनं कारिताः॥ 89 // 1. 'परिहास्य' इति पाठान्तरम् / 2. अत्र म०म० शिवदत्तशर्माणः-'इदं तु' 'ऊहवितके' इत्यस्य 'ऊहाश्चक्रिरे' इति 'प्रयोगादुपेच्यम्' इति सुखावबोधा। तथा च 'वहन्ति स्म' इति जीवातुः / 'प्रापुः' इति सुखावबोधायां व्याख्यातम् /
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________________ . षोडशः सर्गः। 665 बरातियोंने जिस प्रकार मांससे बने पदार्थमें बिना मांसके बने पदार्थका भ्रम किया और बिना मांसके बने पदार्थमें मांससे बने पदार्थका भ्रम किया; उस प्रकार चतुर रसोइयों (पाचकों) ने इन्हें (इन बरातियोंको) साधन द्रव्योंसे तैयार किये गये विचित्र अन्नको परिहासकर अर्थात् निरामिष वस्तु परोसनेके समय सामिष भोजन परोसकर तथा सामिष भोजन परोसनेके समय निरामिष भोजन परोसकर ( पाठा०-हँसा-हँसाकर ) भोजन कराया / / 80 // नखेन कृत्वाऽधरसन्निभां निभाधुवा मृदुव्यञ्जनमांसफालिकम् / ददंश दन्तैः प्रशशंस तद्रसं विहस्य पश्यन् परिवेषिकाऽधरम् / / 8 / / नखेनेति / युवा कश्चित् तरुणः मृदोः कोमलस्य, व्यम्जनमांसस्य तेमनीभूतमांसस्य, फालिकां खण्डिका निभात् भक्षणव्याजात् , नखेन नखरद्वारा, सब्छि। इति भावः, अधरसन्निभां परिवेषिकाधराकारां, कृत्वा विधाय, परिवेषिकायाः भोज्यप्रदायाः, अधरं निम्नोष्ठं, पश्यन् अवलोक्य, विहस्य हसित्वा, दन्तैः ददंश दष्टवान् , तस्य रसं स्वादं, प्रशशंस अहो अमृतकल्पमिति तुष्टाव चेत्यर्थः; तदधरबुद्धया इति भावः॥८१॥ किसी युवकने कोमल व्यञ्जन बने हुए मांस-खण्डको खानेके छलसे नखसे ( काटकर, परोसनेवाली स्त्रोके ) अधरके समान ( अरुण वर्ण होनेसे पहलेसे ही अधराकार रहनेपर भी नखसे रेखायुक्त अधराकार ) करके, परोसनेवाली (स्त्री) के अधरको देखता हुआ हँसकर (अधराकार उस मांसखण्डको ) दाँतोंसे काटा और उसके रस (मधुरता ) की प्रशंसा की। [ तुम्हारे अमृतरस भरे अधरको काटता हूं' ऐसा संकेत करते हुए उस मांस-खण्डमें उसके अधरका आरोपकर उसे काटा और उस स्त्रीसे उसकी मधुरताकी प्रशंसाकर अपने आशयको प्रकट किया ] // 81 // अनेकसंयोजनया तदा कृतं निकृत्य निष्पिष्य च ताहगर्जनात् / अमी कृताकालिकवस्तुविस्मयं जना बहु व्यञ्जनमभ्यवाहरन् / / 2 / / अनेकेति / तदा भोजनकाले, अमी जनाः भोक्तारः, अनेकेषां बहूनां संस्कारक. द्रव्याणां संयोजनया मेलनेन, तथा निकृत्य छित्त्वा, निष्पिष्य पिष्ट्वा च अर्जनात् वस्त्वन्तरसादृश्यसम्पादनात् हेतोः, ताहक तादृशं, विचित्रमित्यर्थः, कृतं निष्पादितं, यथा (तथा) कृतः सम्पादितः, आकालिकेषु अकालभवेषु, तत्कालदुर्लभेषु इत्यर्थः, वस्तुषु पदार्थेषु, विस्मयः अद्भुतता येन तत् तादृशं, बहु अनेकं व्यन्जनं शाकमांसा. दिकम्, अभ्यवाहरन् अभुञ्जत // 82 // उस ( भोजनके ) समयमें इन लोगों ( बरातियों) ने अनेक (मिर्च लौंग आदि पदार्थों ) के संयोगसे तथा काटकर (छोटे-छोटे टुकड़े कर ) और पिसकर दूसरे वस्तुओं की समानता प्राप्त करनेवाले बहुतसे व्यञ्जनोंको भोजन किया // 82 // 1. 'सनिभा युवा द्विधा मृदु' इति पाठान्तरम् / 2. 'तथाकृतेः' इति पाठान्तरम् /
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________________ 666 नैषधमहाकाव्यम् / पिपासुरस्मीति विबोधिता मुखं निरीक्ष्य बाला सुहितेन वारिणा / पुनः करे कत्तु मना गलन्तिकां हसात् सखीनां सहसा न्यवर्त्तत / / 83 // पिपासुरिति / वारिणा जलेन, सुहितेन तृप्तेन इत्यर्थः। सौहित्यं तर्पणं तृप्तिः इत्यमरः / शेषार्थ षष्ठी 'पूरणगुण-' इत्यादिना समासनिषेधः। केनचित् , यूना इति शेषः / मुखं बालिकाया वदनं, निरीक्ष्य अवलोक्य, पिपासुः पातुम् इच्छुः, अस्मि भवामि, इति विबोधिता विज्ञापिता, बाला तरुणी, निगूढाभिप्रायपरिज्ञानमूढा काचिदप्रौढा इति भावः / पुनः गलन्तिकां कर्करी, जलदानपात्रमित्यर्थः 'कर्कर्यालु गलन्तिका' इत्यमरः / करे हस्ते, कत्तु मनाः धत्तुकामा सती 'पृषोदरादीनि' इत्यादौ 'तुंकाममनसोरपि' इति कारिकातोमकारलोपः। सखीनां सहचरीणां, हसात् हास्यात्, 'स्वनहसोश्च' इति विकल्पादपप्रत्ययः। सहसा सपदि, न्यवर्तत निवृत्ता जलेन तृप्तस्याप्यस्य कर्मविशेषमनुपादाय केवलं 'पिपासुरस्मि' इति कथनेन बालिकाया अस्या अधरमेव पिपासुरयमिति तद्वाक्यतात्पर्यमवधार्य सखीनां हास्याद् बाला तदाशयं परिज्ञाय जलपरिवेषणव्यापारान्निवृत्तेति भावः // 83 / / पानीसे तृप्त हुए ( किसी युवक ) के 'मैं प्यासा हूं' ऐसा मुख देखकर कहनेपर हाथमें झारी ( जलपात्र ) को उठानेकी इच्छा करती हुई बाला सखियों के हंसनेसे एकाएक रुक गई / [ पानी पीकर तृप्त युवकके उस मुग्धाके मुखको देखकर 'मैं तुम्हारे अधरका प्यासा हूँ' इस आशयसे 'मैं प्यासा हूँ' ऐसा कहनेपर उसके गूढाभिप्रायको नहीं समझती हुई जल पिलानेवाली मुग्धा ( अपरिपक्क बुद्धिवाली स्त्री) ने पानी पिलानेके लिए पुनः हाथमें झारी ( पानीके बर्तन ) को लेना चाहा, इतने में उस युवकके परिहासपूर्ण गूढाभिप्रायको समझनेवाली प्रौढा सखियोंने हंस दिया और वह मुग्धा भी उनका हंसना देखक र सोकर जागे हुए के समान उस युवकके परिहासपूर्ण गूढाभिप्रायको समझकर झट रुक गयी ] // 83 / / युवा समादित्सुरमत्रगं घृतं विलोक्य तत्रैणदृशोऽनुबिम्बनम् / चकार तन्नीविनिवेशितं कर बभूव तच्च स्फुटकण्टकोत्करम् / / 84 / / युवेति / युवा कश्चित्तरुणः, अमत्रगं पात्रगतम् 'सर्वमावपनं भाण्डं पात्रामत्रञ्च भाजनम्' इत्यमरः / घृतं समादित्सुः ग्रहीतुमिच्छुः सन् ददातेः सन्नन्तादुप्रत्ययः, 'सनि मीमा-' इत्यादिना इसादेशे अभ्यासलोपः। तत्र घृते, एणदृशः मृगाच्याः, परिवेषिकायाः इति शेषः / अनुबिम्बनं प्रतिबिम्ब, विलोक्य दृष्ट्वा, करं स्वकीयहस्तं, तस्य स्त्रीप्रतिबिम्बस्य, नीव्यां कटिवस्त्रबन्धने, निवेशितं स्थापितं, चकार कृतवान् , तत् प्रतिबिम्बश्च, स्फुटं व्यक्तं, कण्टकोस्करं पुलकप्रकरं यस्य तादृशं, बभूव सञ्जातम् स्वीयनीविग्रन्थिमोचनाभिप्रायप्रकटनार्थं स्वप्रतिबिम्बनीविसविधे तदीयकरार्पण .. 1. 'निवेशिनं' इति पाठान्तरम् / ..... ..
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________________ षोडशः सर्गः। दृष्ट्वा तस्य स्वसम्भोगाभिप्रायं परिज्ञाय तस्मिन्ननुरागात् सा पुलकिता अभूत् तत एव तत्प्रतिबिम्बमपि पुलकितं बभूवेति भावः // 84 // .... पात्रस्थ घृतको ग्रहण करने के इच्छुक किसी युवकने उसमें ( परोसनेवाली ) मृगनयनी के प्रतिबिम्बको देखकर उस (प्रतिबिम्ब ) के नीवी ( नाभिके नीचेकी वस्त्रग्रन्थि ) के भीतर हाथको रख दिया और वह प्रतिबिम्ब स्पष्ट रोमाञ्चयुक्त हो गया। [ उस युवकके प्रतिबिम्बित नीवीमें हाथको रखनेपर वह मृगनयनी उस युवकके अनुरागको समझकर स्वयं भी अनुरागयुक्त होनेसे रोमाञ्चित हो गयी और उसका रोमाञ्चित देह घृतमें प्रतिबिम्बित होनेसे वह प्रतिबिम्ब भी रोमाञ्चयुक्त हो गया ] // 84 // प्रलेहजस्नेहकृतानुबिम्बना चुचुम्ब कोऽपि श्रितभोजनस्थलः। ' मुहुः परिस्पृश्य कराङ्गुलीमुखैस्ततोऽनुरक्तैः स्वमवापितैर्मुखम् / / 85 // प्रलेहजेति / कोऽपि युवा, श्रितभोजनस्थलः प्राप्तभोजनप्रदेशः सन् , प्रलेहजस्नेहे लेह्यद्रव्यजातस्नेहरसे, कृतानुबिम्बनां प्राप्तप्रतिबिम्बा, प्रतिबिम्बितामित्यर्थः परिवेषिकाम् इति शेषः / मुहुः वारं वारं, परिस्पृश्य स्पृष्ट्वा, अङ्गुल्यप्रैरिति भावः / ततः स्पर्शात् अनन्तरं, स्व निजं, मुखम् आस्यम्, अवापितैः प्रापितैः, चुम्बितैः इत्यर्थः / अत एव अनुरक्तैः उष्णस्पर्शात् स्वभावाद्वाआरक्तैः स्निग्धैरिति च गम्यते कराङ्गुलीमुखैः हस्ताङ्गुल्यौः, चुचुम्ब चुम्बितवान् प्रतिबिम्बितां तामिति शेषः / मुहुः लेह्यलेहनव्याजेन सम्मुखस्थपरिवेषिकाप्रतिबिम्बानुस्पृष्टाङ्गुलिमुखचुम्बनात् एव तत्प्रतिबिम्बचम्बनात् सुखम् अन्वभूत् , तां प्रति अनुरागमदर्शयच्च इति भावः // 85 // किसी ( युवक ) ने मोजन-स्थलपर जाकर प्रलेह (चटनी आदि) के स्नेह ( तेल या घृत ) में प्रतिबिम्बित ( परोसनेवाली स्त्रीको, उस प्रलेय पदार्थकी उष्णतासे या स्वभावसे ही ) अरुणवर्ण ( पक्षा०-अनुरागयुक्त ) तथा अपने मुखमें डाले गये हाथकी अंगुलियोंके अगले भागोंसे बार-बार स्पर्शकर अनुरागसे ही चुम्बन कियाक्या ? / ( अथवा-किसी युवकने प्रलेहके स्नेहमें प्रतिबिम्बित (परोसनेवाली स्त्री) को भोजनका बहाना करता हुआ अपने मुखमें डाले गये, रक्तवर्ण ( या-सानुराग) हस्तांगुल्यग्रसे बार-बार स्पर्शकर अनुरागसे चूम लिया क्या ? / 'रिक्तैः'. पाठमें-उस. (प्रलेह पदार्थसे रहित तथा मुखमें डाले गये हस्तांगुल्यसे . चूम लिया। [ जो वह युवक चटनी आदि लेह्य पदार्थों में छोड़े गये अधिक घृत या तैलमें परोसनेवाली स्त्रीके प्रतिबिम्बको. अङ्गुल्यग्रसे छूता है, और उस लेह्य द्रव्यके चलानेसे प्रतिबिम्बके नष्ट होनेके भयसे चाटने के बहानेसे धीरे-धीरे अङ्गुल्यग्र को चूमता है। इसका. सारांश यह है कि उस स्त्रोके प्रतिबिम्बको छूकर अंगुलिको 1. '-घृता-' इति पाठान्तरम् / ...२.:-च्छलः' इति पाठान्तरम् / / 3. 'ततोऽनु रिक्तैः' इति पाठान्तरम् /
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________________ 668 नैषधमहाकाव्यम् / मुखमें डालकर चूमनेसे उस स्त्रीको चूमनेका आनन्द पाते हुए युवकने अपने अनुरागको उस स्त्रीसे प्रकट किया ] // 85 // अराधि यन्मीनमृगाजपत्रिजैः पलैर्मृदु स्वादु सुगन्धि तेमनम् / अशाकि लोकैः कुत एव जेमितुं ? न तत्तु सङ्घथातुमपि स्म शक्यते / / 8 / / ___भराधीति / मीनाः मत्स्याः, मृगाः शशादयः, अजाः छागाः, पत्रिणः पक्षिणः चटकादयः, तेभ्यःजातैः तत्सम्बधिभिः, पलैः मासैः। पलमुन्मानमांसयोः' इति मेदिनी। मृदु कोमलं, स्वादु रसवत् , सुगन्धि सुरभि, यत् तेमनं, व्यञ्जनम्, अराधि अपाचि, निष्पादितमित्यर्थः तत् तेमनं, लोकैः भोक्तृजनैः, सङ्ख्यातुं बहुत्वात् गणयितुम् अपि, न शक्यते स्म न समर्थ्यते स्म, तु पुनः, जेमितुम् अशितुं, कुत एव कथं वा, अशाकि ? शक्तैरभावि ? बहुलत्वादिति भावः। 'पाके राध्यते रध्यति जेमत्यत्ति चमतीति भट्टमल्लः // 86 // ___ मछली, मृग (हिरण या-खरगोश आदि पशु ), छाग और पक्षी (तित्तिर, लावा बटेर, बत्तख आदि ) के मांसोंसे कोमल, स्वादिष्ट और सुगन्धयुक्त जिन व्यञ्जनोंको (पाचकोंने ) पकाया, उनको ( खाने या देखनेवाले ) लोग गणना करने (गिनने ) में भी समर्थ नहीं हुए तो खानेमें कैसे समर्थ होते ? // 86 // कृतार्थनश्चाटुभिरिङ्गितैः पुरा परासि यः किञ्चन कुश्चितभ्रुवा / क्षिपन् मुखे भोजनलीलयाऽङ्गुलीः पुनः प्रसन्नाननयाऽन्वकम्पि सः / / कृतेति / चाटुभिः अनुनयसूचकैरित्यर्थः। इङ्गितैः नयनादिचेष्टितः, कृतार्थनः कृतसम्भोगप्रार्थनः, यः युवा, किञ्चन किञ्चित् कुञ्चित् कुञ्चितभ्रुवा कुटिलभ्रुवा, कृतभ्रकुटया इत्यर्थः / स्त्रिया इति शेषः, पुरा पूर्व, पर्यहारि, प्रत्याख्यान इत्यर्थः, सः युवा, भोजनलीलया भोजनव्यापारण, तद्वयाजेन इत्यर्थः। मुखे अङ्गुलीः तत्प्रतिबिम्बस्पृष्टा. गुलीरित्यर्थः, क्षिपन् स्थापयन् , प्रतिबिम्बस्पृष्टाङ्गुलीचुम्बनव्याजेन तामेव चुम्बयन्निति भावः,प्रसन्नाननया तदनुरागदर्शनेन सानरागदर्शनादिव्यजितप्रसन्नमुख्या तया, पुनः अन्वकम्पि अनकम्पितः, तदव्याकुलतादर्शनेन सम्भोगप्रार्थनं तया स्वीकृतमिति भावः // 87 // विनय सूचक नेत्रादि व्यापारों (या-प्रिय वचनों तथा अअलिबन्धन आदि चेष्टाओं) से प्रार्थना ( सम्भोगार्थ याचना ) करनेवाले जिस युवकको पहले ( क्रोध या अनादरसे ) थोड़ा भ्रुकुटिको टेढ़ा करनेवाली स्त्रीने तिरस्कृत कर दिया, भोजनके कपटसे मुखमें ( उस स्त्रीके प्रतिबिम्बका स्पर्श कर ) अंगुलि डालते हुए उस ( युवक ) को प्रसन्नमुखी उस स्त्रीने अनुकम्पित कर दिया। [ उसके अनुरागजन्य व्याकुलताको देखकर प्रसन्न हुई उस स्त्रीने सम्भोग करना स्वीकार कर लिया ] // 87 //
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________________ षोडशः सर्गः। 666 अकारि नीहारनिभं प्रभञ्जनादधूपि यच्चागुरुसारदारुभिः / निपीय भृङ्गारकसङ्गि तच्च तैरवर्णि वारि प्रतिवारमीदृशम् / / 88 // ___ अकारीति / यत् वारि जलं, प्रभञ्जनात् वायोः, वायुसञ्चालनात् इत्यर्थः। 'श्वसनः स्पर्शनो वायुर्मातरिश्वा सदागतिः। नभस्वद्वातपवनपवमानप्रभञ्जनाः // ' इत्यमरः / नीहारनिभं हिमकल्पं,तद्वत् शीतलम् इत्यर्थः / अकारि कृतं, तथा अगुरोः कृष्णागुरुवृक्षस्य, सारदारुभिः अभ्यन्तरस्थितोत्कृष्टसुगन्धिकाष्ठः, धूपकाष्ठेरिति यावत्, अधूपि धूपितञ्च, वासितञ्च इत्यर्थः / भृङ्गारकसङ्गि छुद्रकनकालुकान्तर्गतं, स्वर्णमयजलपात्रविशेषस्थितमित्यर्थः / 'भृङ्गारः कनकालुका' इत्यमरः / तत् पूर्वोक्तं वारि, निपीय पीत्वा, प्रतिवारं प्रतिपानकालं, तैः पातृभिः, ईदृशं वक्ष्यमाणरूपम् , अवर्णि वर्णितम् // 88 // जिस पानीको वायुसे बर्फके समान ठण्ढा किया गया था और अगरुके सारभूत ( मध्यमागस्थ ) लकड़ीसे धूपित (धूप देकर सुगन्धित ) किया गया था; (बारातियोंने सवर्णादिके ) झारी ( जलपात्र-हथहर या गङ्गासागरमें ) रखे मये उस पानीको वहांपर ( भोजनशालामें, या राजा भीमके महलमें ) बार-बार अच्छी तरह पीकर ( अथवा-पीकर बारबार ) इस प्रकार (1689) वर्णन किया / 88 // त्वया विधातयदकारि चामृतं कृतश्च यज्जीवनमम्बु साधु तत् / वृथेदमारम्भि तु सर्वतोमुखं तथोचितः कत्तु मिदं-पिबस्तव // 86 // त्वयेति / विधातः ! हे स्रष्टः !, त्वया भवता, अम्बु जलं यत् अमृतम् अमृतनामकं तथा जीवनं जीवनसंज्ञकञ्च, यत् अकारि कृतं तत् उभयं कर्म साधु सम्यक, सार्थकमित्यर्थः, कृतं विहितम् , अम्बुनोऽमृततुल्यरसत्वात् जीवनाधायकत्वाच्च तादृशसंज्ञाद्वयं सार्थकमेवेति भावः / तु किन्तु, इदम् अम्बु, सर्वतः सर्वदितु मुखानि प्रवाहरूपवक्त्राणि यस्य तत् सर्वतोमुखं सर्वतोमुखमिति संज्ञाविशिष्टम इत्यर्थः / 'आपः स्त्री भूम्नि वारि सलिलं कमलं जलम् / कबन्धमुदकं पाथः पुष्करं सर्वतोमुखम् इत्यमरः। वृथैव निरर्थकमेव, आरम्भि अकारि, पेयस्य मुखवैयादिति भावः / अतः अस्य अम्बुनः, पिबतीति इदंपिबः जलपायी अस्मदादिः। 'पाघ्राध्माधेटदृशः शः' इति शप्रत्यः / तथा सर्वतः सर्वस्थाने मुखानि यस्य स सर्वतोमुखः कत्त विधातुम् इत्यर्थः, तव उचितः योग्यः; जलपायिनां बहुमुखसत्त्वे आतृप्ति जलपानं सम्भवति न वेकमुखेनेति तेषामेव सर्वतोमुखभाविताया औचित्यादिति भावः॥ 89 // हे ब्रह्मन् ! तुमने पानीको जो 'अमृत' तथा 'जीवन' बनाया अर्थात् 'अमृत' तथा 'जीवन' नाम रक्खा, (अमृतवत् मधुर एवं जीवनरक्षक होनेसे ) वह ठीक किया; किन्तु 'सर्वतोमुख' ( सब ओर मुखवाला ) यह नाम व्यर्थमें रक्खा, क्योंकि इस (पानी ) को पीनेवाले हम लोगोंको वैसा करना ('सर्वतोमुख' एक मुखके स्थानमें सब ओर मुख
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________________ 1000 नैषधमहाकाव्यम् / ( बनाना ) उचित था अर्थात् यदि पानीको 'सर्वतोमुख' ( सब ओर मुखवाला ) नाम न अत्यन्त मधुर एवं शीतल जलको अनेक मुखोंसे हमलोग पीकर अतिशय तृप्त होते, किन्तु आपने हमलोगोंको सर्वतोमुख न बनाकर पानीको जो सर्वतोमुख बनाया वह व्यर्थ ही रहा] // 89 // सरोजकोशाभिनयेन पाणिना स्थितेऽपि कूरे मुहुरेव याचते | सखि ! त्वमस्मै वितर त्वमित्युभे मिथो ने वादाबदतुः किलौदनम् / / 90 // सरोजेति / करे ओदने स्थितेऽपि भोजनपात्रे अन्ने विद्यमानेऽपीत्यर्थः, अन्धः कूरं भक्तमन्नमोदनं भिस्सा' इति हलायुधः। सरोजकोशस्य कमलमुकुलस्य, अभिनय अनुकरणं यस्य तादृशेन कमलमुकुलानुकारिणा तदीयकुचग्रहणाभिलाषव्यञ्जकेन इत्यर्थः, पाणिना करेण, मुहुः पुनः पुनः एव, याचते कूरं याचमानाय, यूने इति शेषः, याचेरुभयपदित्वात् शतृप्रत्ययः। हे सखि ! त्वम् अस्म याचमानाय, वितर कूर देहि, द्वितीया त्वाह-वं वितर, इति एवं रूपेण, उभे द्वे, स्त्रियौ इति शेषः / मिथः परस्परं, वादात् विवादात् , ओदनं भक्तं न ददतुः न परिविविषतुः, किल खलु तस्य जनहासकरव्यापार विलोक्य कौतुकवशात् न काऽपि तत्प्रार्थितमङ्गीचकारेति भावः // ( थालमें ) भात रहनेपर भी कमलकोषाकार हाथसे फिर भी भातको मांगते हुए ( युवक ) के लिए 'हे सखि ! तुम इसके लिए भात दो' ( अथवा-'हे सखि ! ( थालमें ) भात रहनेपर भी कमलकोषाकार हाथ बनाकर बार-बार भात मांगते हुए इस (युवक) के लिए भात दो' ) ऐसा प्रथमा सखी के कहने पर 'तुम दो' इस प्रकार ऐसे (परस्परके ) विवाद ( पाठा०-एक दूसरेके बातको दुहराने ) से दोनों (-मेंसे किसी सखी ) ने भात नहीं दिया। [ कमलकोषाकार हाथ करके युवकके द्वारा भातके बहानेसे स्तनमर्दनरूप सम्भोगकी याचना करनेपर जनहासकारक लज्जावश इच्छा होने पर भी किसीन भी उसकी प्रार्थनाको स्वीकार नहीं किया ] / / 90 // इयं कियच्चारुकुचेति पश्यते पयःप्रदाया हृदयं समावृतम् / ध्र वं मनोज्ञा व्यतरद्यदत्तरं मिषेण भृङ्गारधृतेः करद्वयौ || 61 | इयमिति / इयम् एषा स्त्री, कियन्तौ किंपरिमाणको, चारू मनोहरौ, पीनौ इति यावत् , कुचौ स्तनौ यस्याः सा तादृशी, इति एवं, विचार्य इति शेषः, पयः प्रददा. तीति पयःप्रदा तस्याः जलदायिन्याः, समावृतं वस्त्राच्छादितं, हृदयं वक्षः, [कर्म] पश्यते अवलोकयते, कुचपरिमाणं जिज्ञासमानाय विटाय इत्यर्थः, करद्वयी तस्याः पाणियुगली, भृङ्गारतेः स्वर्णमयजलपात्रधारणस्य, मिषेण व्याजेन, भङ्गारग्रहणच्छलेनेत्यर्थः, यत् उत्तरम् एतद्भङ्गारपरिमाणं कुचद्वयम् इत्वेवंरूपम् उत्तरं व्यतरत् 1. 'मिथोऽनुवादात्' इति पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 1001 अददात , तेन ध्रुवं निश्चितं, मनोज्ञा चित्तज्ञा, पराभिप्रायज्ञा इत्यर्थः, करद्वयीति शेषः / पराशयज्ञत्वस्य प्रश्नोत्तरदानस्य च चेतनधर्मतया अचेतने करद्वये तदुत्प्रेक्षणादुरप्रेक्षालङ्कारः // 9 // . 'कितने सुन्दर स्तनोंवाली यह स्त्री है ?, ऐसा (विचारकर ) पानी परोसनेवाली स्त्री के ढकी हुई छातीको देखते हुए युवकके लिए ( उस स्त्रीके ) दोनों हाथोंने (सोनेकी) झारी ( जलपात्र ) के पकड़नेके बहानेने जो उत्तर ( इस झारीके समान गौरवर्ण तथा इतने ही बड़े स्तन हैं' ऐसा उत्तर ) दिया, वे दोनों हाथ मानो मनोश (सुन्दर, पक्षा०-दूसरेके मनोगत भावको जाननेवाले ) हैं / [ वस्त्रसे ढके हुए स्तनोंकी मुन्दरता देखने के इच्छुक युवकको उसका आशय समझकर सुवर्णमय जलपात्रको दोनों हाथोंमें लेकर युवतीने उन स्तनोंकी सुन्दरता तथा विशालता बतला दी / लोकव्यवहार में भी किसीके संकेतित गूढाशय को समझनेवाला व्यक्ति बिना स्पष्ट कहे गूढ संकेतसे ही उसका प्रत्युत्तर दे देता है ] / 91 // अमीभिराकण्ठमभोजि तद्गृहे तुषारधारामृदितेव शर्करा / वाहद्विषद्बष्कयणोपर्यःस्रुतं सुधाहदात् पङ्कमिवोद्धतं दधि // 92 / / अमीभिरिति / अमीभिः जन्यः, तद्गृहे भीमभवने, तुषारधारया हिमधारया, मृदिता मर्दिता, शर्करा खण्डविकार इव तद्वत् स्वादु शुभ्रञ्चेत्यर्थः / 'शर्करा खण्डवि. कृतौ' इति हैमः। सुधाह्रदात् अमृतहदात् , उद्धृतम् उत्तालितं, पकं कर्दमम् , अमृतकर्दमम् इव स्थितम् इत्युत्प्रेक्षा। वाहं हयं, द्विषन्ती विरुध्यन्ती, महिषी इत्यर्थः, 'लुलायो महिषो वाहद्विषत्कासरसैरिभाः' इत्यमरः। 'स्त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पुंवद्भावः। सा च सा बष्कयणी चिरप्रसूता, 'चिरप्रसूता बष्कयणी' इत्यमरः / तस्याः पयसः क्षीरात् जुतम् उत्पादितं, 'सुणोतेः कर्मणि क्तः / दधि दुग्धविकारः आकण्ठम् अभोजि भुक्तम् // 92 // इन ( बरातियों) ने उस ( राजा भीम ) के घर में तुषार (बर्फ) की धारासे मर्दित शक्करके समान तथा अमृत-सरोवर से निकाले गये 'पङ्कके समान, बकेन (बहुत दिनोंकी व्यायी हुई ) भैसके दूधसे बने दहीको कण्ठ तक ( अच्छी तरह पेट भरकर ) भोजन किया / ( अथवा-..."तुषार-धारासे मर्दित शक्करको तथा अमृत-....बने दहीको..." / 'पयःशृतम्' पाठा०-उक्त गुण विशिष्ट शर्करा तथा बकेन भैसके पके हुए गर्म दूध और अमृत-सरोवरसे निकाले गये पङ्कके समान ( स्वादिष्टतम एवं गाढ़े ) ( दहीको ......") / [ तुषार-धारामर्दित होनेसे अत्यधिक शीतल तथा शुक्लवर्ण और अमृत सरोवरोद्धृत पङ्कसदृश होनेसे अधिक स्वादिष्ट और गाढ़ा दहीका होना सूचित होता है। बकेन भैसके दूध-दहीका मधुरतम तथा अधिक गाढ़ा होना तथा उसे शक्कर (बूरे ) के साथ भोजन करना लोकप्रसिद्ध है ] // 92 // 1. 'हय-' इति पाठान्तरम् / 2. '-वयःसुतम्' इति, '-पयः शृतम्' इति च पाठान्तरे
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________________ 1002 नैषधमहाकाव्यम् / तदन्तरन्तः सुषिरस्य बिन्दुभिः करम्बितं कल्पयता जगत्कृता / इतस्ततः स्पष्टमचोरि मायिना निरीक्ष्य तृष्णाचलजिह्वतामृता / / 3 / / तदिति / निरीक्ष्य दृष्ट्वा, सृष्टयादौ स्वसृष्टं दधि इति भावः। तृष्णया स्पृहया, दधिभोजनवासनया इत्यर्थः / चला चञ्चला, अधरप्रान्तलेहिनी जलस्राविणी चेति भावः। जिह्वा यस्य तस्य भावस्तत्तां, बिभर्ति धारयतीति तद्भता तद्धारिणा, दधिलुब्धेनेत्यर्थः / अत एव मायिना स्वचापल्यवञ्चनाचतुरेण, अथवा, दर्शकलो. कानां दृष्टिवञ्चनाचतुरेण, जगस्कृता स्रष्ट्रा, तत् दधि, अन्तरन्तः मध्ये मध्ये, सुषिरस्य / जातावेकवचनम् / सुषिराणां, छिद्राणामित्यर्थः। बिन्दुभिः मण्डलैः, कर. म्बितं मिश्रितं, कल्पयता रचयता, तद्दधि वत्त लच्छिद्रयुक्तं कुर्वता सता इत्यर्थः / इतस्ततः सर्वप्रदेशेभ्यः, स्पष्टं व्यक्तम् , अचोरि चोरितमिव, तद्दधि इति शेषः / सफेनदुग्धे दधिरूपेण परिणते तत्र छिद्राणि दृश्यन्ते, तच्चोत्प्रेक्ष्यते यत् ब्रह्मणा लोकचक्षुरगोचरतया इतस्ततो दधिस्थसारांशो भोक्तुमिच्छयाऽपहृतः, .अन्यथा कथ. मितस्ततस्तत्र छिद्राणि दृश्यन्ते इति ब्रह्मणोऽपि आकर्षकं माहिषदधि किमुतान्येषामिति भावः / स्पष्टमित्युत्प्रेक्षायाम् // 13 // (रचनाके समयमें ) उस ( दही ) को देखकर तृष्णा (दहीको खानेकी स्पृहा ) से चञ्चल जिह्वावाले मायावी ( दूसरोंकी दृष्टि बचाकर दहीके बीच-बीचसे सार भागको लेनेमें अतिशय चतुर ) ब्रह्माने बीच-बीच में छिद्रों की बिन्दुओंसे युक्त उस ( दही) को बनाते हुए इधर-उधरसे अर्थात् सर्वत्रसे चुरा-सा लिया है। [ब्रह्मा जब दहीकी रचना कर रहे थे, तब उसे देखकर उन्हें भी खाने की बलवती इच्छा हो गयी और वे अपनी इच्छाको नहीं रोक सकने के कारण उसके बीच-बीचमेंसे छेद करके दहीके उतने भागको निकाल लिया, ऐसा मालूम पड़ता है। इसी कारण इस दहीके बीच-बीचमें छिद्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं / दहीको ब्रह्माने स्वयं बनाया, उसे वे बड़े बूढ़े होते हुए भो तृष्णायुक्त हो मायाचारितासे चुरा लिये, इसीसे उसके अत्यधिक उचित दी है। स्वादिष्ट होनेका अनुमान होता है। अतः उस दहीको बारातियोंने कण्ठतक खाया / फेनयुक्त गर्म दूधको जमानेपर उसके बीच-बीचमें बहुतसे छिद्र हो जाते हैं, ऐसा नियम है ] // 93 // ददासि मे तन्न रुचेयदास्पदं न यत्र रागः सितयाऽपि किं तया / इतीरिणे बिम्बफलं रुचिच्छलाददायि बिम्बाधरयाऽरुचच्च तत् / / 94 // ददासीति / यत् , द्रव्यमिति शेषः / रुचेः अभिलाषस्य, आस्पदं पात्रं, विषयीभूतमित्यर्थः / तत् मे मां, न ददासि न यच्छसि, यत्र यस्मिन् द्रव्ये, रागः अनु. रागः, रुचिरित्यर्थः, न नास्ति, तया सितया शर्करयाऽपि, 'शर्करा सिता' इत्यमरः / किम् ? अलं, न किमपि प्रयोजनमित्यर्थः / रक्तवस्तुरागिणः किं सितवस्तुना ? इति च गम्यते / इतीरिणे इतिवादिने, 'अधरबिम्बचुम्बनेच्छया एवं भाषिणे रागिणे
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________________ षोडशः सर्गः। 1003 इत्यर्थः / रुचिच्छलात् अभिलाषव्याजात् , 'छलप्रयोगे छलप्रयोगः एव कर्तव्यः' इति न्यायात् इति भावः / बिम्बांसव अधरः यस्याः तया बिम्बाधरया बिम्बोष्ठया स्त्रिया, बिम्बफलम् ओष्ठोपमाफलम् , अदायि दत्तं, मिषान्तरेणाधरबिम्बं याचितं मिषान्तरात् बिम्बफलं दत्तम् इत्यर्थः, तत् बिम्बफलञ्च, अरुचत् तस्मै अरोचिष्ट, रुचिकरम. भूदित्यर्थः, तस्य प्रियाधरबिम्ब प्रतिनिधित्वादिति भावः। रुच दीप्तौ प्रीत्यर्थान्लङ 'धुद्भयो लुङि' इति परस्मैपदं, 'पुषादिद्युतादि-' इत्यादिना च्लेरङादेशः // 9 // ''जो ( पदार्थ, अधर ) रुचि ( अभिलाषा, पक्षा०-रुचिकर होने ) का स्थान है अर्थात् मुझे रुचता है, उसे मेरे लिए नहीं देती हो; जिसमें राग ( लालिमा, पक्षा०-अनुराग) नहीं है, उस सिता ( श्वेत पदार्थ, पक्षा०-शक्कर ) से भी क्या ? अर्थात् मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है; ( क्योंकि लाल वस्तु चाहनेवालेको श्वेत वस्तुसे, तथा पक्षा०-तुम्हारे अधरकी मधुरताका आस्वादन चाहनेवालेको शकरसे कोई प्रयोजन नही होता )' ऐसा कहनेवाले ( रागी व्यक्ति के लिए ) रुचि ( अभिलाष ) के कपटसे बिम्बफलके समान अधरवाली ( परोसनेवाली ) स्त्रीने ( लाल वर्णवाले ) बिम्बफलको दिया और वह उस रागीको रुचिकर हुआ। [ उस रागी युवकने कपटसे उस स्त्रीके अधरको मांगा तो 'शठे शाठयं समाचरेत्' नीतिके अनुसार उस स्त्रीने भी उसके लिए रक्तवर्ण अधरको न देकर बिम्बफल को दे दिया और वह सरस एवं स्वादिष्ट होनेसे या प्रियाधरतुल्य होनेसे उसको रुचिकर हुआ ] // 94 // समं ययोरिङ्गितवान् वयस्ययोस्तयोर्विहायोपहृतप्रतीङ्गिताम् / अकारि नाकूतमवारि सा यया विदग्धयाऽरञ्जि तयैव भाववित् // 6 // सममिति / ययोः वयस्ययोः सहचर्योः विषये, मम युगपत् , इङ्गितवान् हंगादिसंज्ञावान् , नयनभ्रमणादिचेष्टाविशेषं कुर्वन्नित्यर्थः / भाववित् गूढाभिप्रायाभिज्ञः, चातुर्यवेत्ता इत्यर्थः / कश्चित् विट इति शेषः / तयोः मध्ये उपहृतप्रतोगिता दत्ततद. भिप्रेताङ्गाकारसूचकप्रतिसंज्ञां, प्रथमवयस्यामिति भावः / विहाय परिहृत्य, जनस. माजे सखीसमक्षं चतुरिङ्गितादिकरणादियमचतुरेति निश्चित्य तो प्रत्यननुरागेण तां हित्वा इति भावः / यया विदग्धया चतुरया, आकूतं तदभिप्रेताङ्गीकारसूचकं प्रतीङ्गितं, न अकारि न कृतं, बहुजनसमक्षं तत्करणे प्रकाशभिया लज्जातिशयादिति भावः / किन्तु सा प्रथमा इति यावत् , अवारि वारिता, अयमस्यां विरक्तः मयि चानुरक्तः तत् कथमियं मत्प्रियं प्रति इङ्गितं करोतीति सापत्न्येय॑या जनसमक्षमिगितादिकरणमनुचितमिति व्याजेन द्वितीयया सा इङ्गितादिचेष्टातो निवारितेत्यर्थः, तया द्वितोययैव विदग्धया, अरञ्जि रञ्जितः, आकृष्टः इत्यर्थः / द्वितीयायास्तथाविधगूढभावदर्शनेन सन्तुष्टतया तस्यामेवानुरक्त इति भावः / एतेन प्रथमापेक्षया द्वितीया गम्भीरा सोऽपि भावज्ञः तत् युक्तम् एतदिति गम्यते // 95 // जिन दो सखियों के विषयमें एक साथ संकेत ( कटाक्ष आदिके द्वारा अनुरागसूचक 63 नै० उ०
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________________ 1004 नैषधमहाकाव्यम् / भावका प्रदर्शन ) करनेवाले भावज्ञानी ( कामी युवक ) ने उन दोनोंमेंसे प्रतिसंकेत करने वाली (प्रथमा सखीको ) छोड़कर उस विदग्धा सखीके साथ अनुरक्त हुआ, जिस ( दूसरी सखी ) ने अपने भावप्रदर्शन नहीं किया, अपितु ( भावप्रदर्शन करनेवाली ) उस मुखीको मना किया / [ किन्हीं दो सखियोंमें अनुरक्त किसी युवकने एक साथ ही अपनी चेष्टा. ओंसे अपना अनुरक्त होना सूचित किया। यह देख उन दोनों से एक सखीने सब लोगोंके सामने ही प्रत्युत्तर में स्वीकृतिसूचक अपना भाव प्रदर्शित किया और उसे भाव प्रदर्शित करती हुई देखकर 'यह युवक तो मुझमें अनुरक्त है तो तुम अपना भाव प्रदर्शित. कर इसे अपनी ओर क्यों आकृष्ट कर रही है ?' इस प्रकार सपत्नीत्वको मनमें रखतो हुई दूसरो सखोने उस भाव प्रदर्शित करने वाली प्रथमा सखीको 'तुम ऐसी निर्लज्ज हो कि सब लोगों के सामने आना कामानुराग इस पुरुष से प्रकट करती हो' ऐसा कहकर मना किया, उसे इस प्रकार मना करते देखकर दूसरेके भावको जाननेवाले उस चतुर युवकने 'ये दोनों मुझसे अनुराग करती हैं। किन्तु इनमें से सब लोगोंके सामने ही अपना भाव प्रदर्शित करनेसे प्रथमा सखी अविदग्ध ( चतुर नहीं ) है, और अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये व्याजान्तरसे मना करती हुई दूसरी सखो विदग्ध है, अत एव उस दूसरी सखीमें हो अनुरक्त हुआ / चतुर पुरुषका अचतुरा प्रथमा सखोको छोड़कर. चतुरा द्वितीया स्त्रीमें भनुरक्त होना उचित हा है ] // 95 // सखी प्रति स्माह युवेगिन्तेक्षिणी क्रमेण तेऽयं क्षमते न दित्सुताम् / विलोम तद्व्यञ्जनमर्प्यते त्वया वरं किमस्मै न नितान्तमर्थिने ? / / 6 / / सखीमिति / युवेगिन्तेक्षिगी युवाभिप्रायसूचकनयनादिचेष्टादर्शिनी, काचित् तरुणीति शेषः / सखी परिवेषिकां वयस्यां, प्रति आह स्म उवाच / 'लट् स्मे' इति भूते लट् / किमिति ? अयं युवा, ते तव सम्बन्धिनी, क्रमेण पारम्पर्येण, दित्सुतां परिविविक्षुतां, न क्षमते न सहते, एकमेकं कृत्वा उत्तरोत्तरक्रमेण परिवेषणविलम्ब सोढुं न शक्नोति इत्यर्थः / अतः त्वया नितान्तमर्थिने अत्यन्तव्यग्रतया याचकाय, अस्मै यूने, वरम् उत्कृष्टं, तद् व्यञ्जने निष्ठान, विलोम विपरीतं यथा तथा, व्युत्क्रमेण इत्यर्थः / किं न अर्यते ? कथं न दीयते ? अपि तु व्यग्राय शीघ्रदेयमिति व्याजोक्तिरिति भावः / अयं युवा, क्रमेण आलिङ्गनस्तनमर्दनचुम्बनादिव्यापारक. मेण, दित्सुतां मथुनाथ वराङ्गदानेच्छुतां, तहानविलम्बमित्यर्थः, न क्षमते न सहते, अतस्त्वया विलोम अरोमकम् , अत एव वरम् उत्कृष्टं, व्यञ्जनम् अवयवः, वराङ्गमित्यर्थः / 'व्यञ्जनं श्मश्रनिष्ठानचिह्वेष्ववयवेऽक्षरे' इति यादवः। नितान्तमर्थिने अस्मै किं न अर्यते ? अपि तु शीघ्रमेवार्पय इत्यर्थान्तरस्यापि विवक्षितत्वात् केवल प्रकृतश्लेषः॥ 96 // (कामी ) युवककी चेष्टाओंको देखनेवाली स्त्रीने सखीसे कहा-'यह ( युवक ) तुम्हारी क्रमशः परोसनेकी इच्छाको नहीं सहन करता है, अतएव अत्यधिक याचने ( मांगने ) वाले
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________________ षोडशः सर्गः। 1005 इस ( युवक ) के लिये क्रमको छोड़कर श्रेष्ठ व्यञ्जनको तुम क्यों नहीं देती हो ? पक्षा०... 'कहा-आलिङ्गन-चुम्बनादि बाह्य सम्भोगक्रमसे तुम्हारी मदनमन्दिर ( भगं) को देनेकी इच्छाको यह युवक नहीं सहन करता, अत एव तुम अधिक याचना करनेवाले अर्थात शीघ्र मैथुनेच्छुक इस (युवक ) के लिए श्रेष्ठ ( अथवा-अवर अर्थात् अधोभागस्थ ) तथा लोमरहित उस वराङ्ग (मदन-मन्दिर) को क्यों नहीं देती ?' [ यह युवक इतना. कामुक हो गया है कि तुम्हारे आलिङ्गनादिके क्रमसे मैथुनमें विलम्बको नहीं सहन कर सकता अतः तुम्हें आलिङ्गन-चुम्बनादि बाह्याङ्गसम्भोगके क्रमको छोड़कर इसके साथ शीघ्र मैथुन करना चाहिये ] // 96 / / समाप्तिलिप्येव भुजिक्रियाविधेर्दलोदरं वत्तु लयाऽऽलयीकृतम् | अलकृतं क्षीरवटैस्तदाऽश्नतां रराज पाकार्पितगैरिकश्रिया // 17 // समाप्तीति / तदा तत्काले, अश्नतां भुञानानां, जन्यामिति शेषः / दलोदरं कदलीपत्रादिभोजनपात्राभ्यन्तरं, पाकेन विविधसंस्कारकद्रव्यद्वारा पाकविशेषेण, अपिता सम्पादिता, गैरिकस्य शैलजरक्तवर्णधातुविशेषस्य, श्रीरिव श्रीः येषां तैरिति विभक्तिव्यत्ययेनान्वयः / पाकेन रक्तवर्णरित्यर्थः / तथा वत्तलया वत्त लैरिति विभक्तिव्यत्ययः / वृत्ताकारैः, वटानां वर्तुलत्वादिति भावः / क्षीरवटैः दुग्धपक्वमाषनि. प्पादितवटकाख्यपिष्टकविशेषैः, अलङकृतं शोभितं सत्, तदर्पणादिति भावः / पाकाथ रक्तवर्णसम्पादनार्थम् , अर्पितेन निक्षिप्तेन, गैरिकेण रक्तवर्णधातुविशेषेण, श्रीः रक्तकान्तिर्यस्यां तादृशया, तथा व लया वर्तलाकारया, वृत्ताकारः रक्तवर्णश्चिविशेषः लिपिशेषे क्रियते इति व्यवहारादिति भावः / भुजिक्रियाविधेः भुजधात्वर्थानुष्ठानस्य, भोजनव्यापारस्येत्यर्थः, समाप्तिलिप्या समाप्तिसूचकवर्णविशेषविन्यासेन लिप्यन्तरे प्रवृत्त्यभावात् , अन्यत्र-व्यञ्जनान्तरे रुच्यभावादिति भावः। आलयीकृतम् आस्पदीकृतं, चिह्नीकृतमित्यर्थः / दलोदरं तालपत्रादिलेख्यपत्राभ्यन्तरमिव, रराज शुशुभे, रक्तर्वर्णतादृशवटकैः शोभते स्म / ताहशवटकप्रदानानन्तरमेव जन्यानां तेषां व्यञ्जनान्तरभोजमप्रवृत्तिविनष्टेति भावः / अत्रोपमालङ्कारः // 17 // ____ उस समय भोजन करते हुए बरातियों के केले के पत्तेका मध्य भाग अधिक पकानेसे गेरुवत् लाल, भोजनके समाप्ति-सूचक लिखावटके समान क्षीरवटों ( दूध डालकर पकाये गये बड़ों ) से अलंकृत होकर ऐसा शोभित हुआ; जैसा लाल होने के लिए डाले गये गेरुसे शोभनेवाली समाप्तिसूचक लिपिसे ग्रन्थों के ताडपत्रादिका पत्र ( पन्ना ) शोभता है। [ इसका विशद अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ग्रन्थके अन्तमें 'छ // छ // छ / ' इत्यादि अक्षर या-॥०॥ // // ' इत्यादि गोलाकार चिह्नविशेष लिखनेसे उस ग्रन्थका पन्ना शोभता है और उससे उस ग्रन्थका समाप्त होना जाना जाता है, उसी प्रकार राजा भीमके यहाँ 1. 'तश्कमाम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1006 नैषधमहाकाव्यम् / भोजन करते हुए बरातियों को अधिक पकाने ( सेंकने ) से गेरुके समान लालवर्ण तथा आकारमें गोल-गोल क्षीरवट परोसे गये तो उनसे वह भोजनपात्रभूत केले आदिका पत्ता शोभित होने लगा और उन बड़ोंसे भोजनकर्ताओंको दूसरा कोई व्यञ्जन खानेकी रुचि नहीं रह गयी, अत एव वे 'बड़े' ही मानो भोजनके समाप्ति-सूचक लिपिसे हो गये / उन क्षीरवटों के परोसनेपर भोजनकर्ता बराती अन्य व्यञ्जनोंको छोड़कर केवल उसे ही खाने लगे] // 97 // चुचुम्ब नोर्वीवलयोवंशीं परं पुरोऽधिपारि प्रतिबिम्बतां विटः / पुनः पुनः पानकपानकैतवाचकार तञ्चम्बनचुकृतान्यपि // 68 / / चुचुम्बेति / विटः कश्चित् कामुकः, पुरः अग्रे, पार्याम् अधि अधिपारि कर्कयाँ, पानीयपाच्याम् इत्यर्थः / 'कर्करीपूरयोः पारी पादरज्ज्वाञ्च हस्तिनः' इति विश्वः / 'वारिवहनभाण्डम्' इति स्वामी / प्रतिबिम्बितां प्रतिफलिताम्, उविलयोर्वशी भूमण्डलोवंशी, सर्वोत्कृष्टरूपवतीमित्यर्थः / स्त्रीमिति शेषः / परं केवलं, न चुचुम्ब न चुम्बितवान् , किन्तु पुनः पुनः वारं वारं, पानकपानकैतवात् पानीयपानच्छलात्, तस्याः प्रतिबिम्बिताया भूमण्डलोर्वश्या इत्यर्थः / चुम्बने अधरसुधापाने, चुङकृतानि अपि चूषणचुङ्कारशब्दानपि, चकार कृतवान् // 98 // किसी विट (धूर्त ) ने आगे कसोरे ( पन्ना रखे हुए वर्तन ) में प्रतिबिम्बित हुई पृथ्वी मण्डलकी उर्वशी अर्थात् अत्यन्त सुन्दरी स्त्रीका केवल चुम्बन ही नहीं किया, किन्तु पन्ना पीने के कपटसे बार-बार उसके चुम्बनसम्बन्धी चुकृत ( 'चूं-धूं' ऐसा ध्वनि-विशेष ) को भी किया। [ कसोरेमें रक्खे हुए पन्ना पीने के कपटसे उस सुन्दरीके प्रतिबिम्बको चूमते हुए उस विटने चुम्बनकालिक 'चूं-चूँ' ध्वनि-विशेषको भी करके उसमें अपना अनुराग प्रकट किया ] // 98 / / घनैरमीषां परिवेषकैर्जनैरिवर्षि वर्षोपलगोलकावली / चलद्भुजाभूषणरत्नरोचिषा धृतेन्द्रचापैः श्रितचान्द्रसौरभा // 99 / / घनैरिति / चलन्त्यः परिवेषणार्थम् इतस्ततः भ्रमन्त्यः, याः भुजा बाहवः, तासु यानि भूषणरत्नानि रत्नखचितालङ्काराः, तेषां रोचिषा प्रभया एव, धृतः गृहीतः, इन्द्रचापः इन्द्रचाप इव इत्यर्थः / यः तादृशः, परिवेषन्तीति परिवेषकाः तैः अन्न. व्यञ्जनादिदातृभिः, जनैः लोकरेव, घनः स्त्रीजनरूपमेधैः, अमीषां भोक्तृणां कृते, श्रितचान्द्रसौरभा प्राप्तकर्पूरसम्बन्धिगन्धा, अन्यत्र-चन्द्र एव चान्द्रः, सूर एक सौर तयोर्भाः प्रभा, श्रिता व्याप्ता यया सा, करकाणां रात्रिदिनयोः सम्भाव्यमानस्वेन चन्द्रसूर्ययोः क्रमेण कान्तिव्याप्तत्वं सम्भवति, अथवा शैत्योज्ज्वलत्वाभ्यां तत्का. न्तिसदृशीति भावः / वर्षोपलाः करका इव, गोलकाः घुटिकाकाराः पिष्टकविशेषाः, तेषाम् भावली राशिः, अवर्षि वृष्टा, प्रदत्तेत्यर्थः // 99 //
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________________ षोडशः सर्गः। (परोसते समयं ) चञ्चल बाहुओंके भूषणोंमें जड़े हुए रत्नोंकी कान्तिसे इन्द्रधनुष ( की शोभा ) को प्राप्त किये हुए बहुतसे परोसनेवाले लोगों ( पक्षा-परोसनेवालेरूप मेघों ) ने इन ( भोजन करते हुए बरातियों ) के लिए सुगन्धि (पक्षा०-चन्द्रमा तथा सूर्यकी कान्ति ) से युक्त ( शीतल तथा दीप्तियुक्त होनेसे चन्द्रमा तथा सूर्यके सदृश, अथवाचन्द्रमाके समान मनोशतासे युक्त, अथवा-चन्द्रकान्त तथा सूर्यकान्त मणिकी शोभासे युक्त ) ओलोंके समान (गोले-गोले, शीतल एवं सन्तापहारक) लड्डुओं (पक्षा०-लड्डू रूपी ओलों ) के समूहोंको बरसाया अर्थात् परोसा। [ मेघ जब ओलोंको बरसाते हैं तो वे ( मेघ ) इन्द्रधनुषको धारण कर लेते हैं और वे ओले दिनमें सूर्य और रात्रिमें चन्द्रकी शोभासे युक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार परोसते समय बाहुके भूषणोंमें जड़े हुए रत्नोंकी शोमासे इन्द्रधनुषयुक्त मालूम पड़ते हुए बहुत-से परोसनेवाले लोगोंने उन भोजनकर्ता बरातियों के लिए कर्पूरकी सुगन्धियुक्त ओलोंके समान गोले-गोले एवं शीतल लड्डुओंको परोसा ] // 99 // कियद्वहु व्यञ्जनमेतदर्यते ? ममेति तृप्तर्वदतां पुनः पुनः / अमूनि सङ्घयातुमसावढौकि तैश्छलेन तेषां कठिनीव भूयसी // 10 // __ कियदिति / मम एतत् कियत् कतिपरिमाणं, बहु प्रभूतं, व्यञ्जनं शाकमांसादि. रूपतेमनादिकं, कति व्यञ्जनानीत्यर्थः। अयंते ? दीयते ? तृप्ता वयम् अतो नापरं दातव्यम् इति भावः / तृप्तेः भोजनजन्यसन्तोषात् हेतोः, इति एवं, पुनः पुनः वदतां वारं वारं कथयतां, तेषां भोक्तृणां, छलेन व्याजेन, तेषां तादृशवाक्येन कति व्यञ्जनानि अस्माभिर्दत्तानि ? इति सङ्ख्या जिज्ञासैवाभिप्राय इति व्याजेन इत्यर्थः। अमूनि व्यञ्जनानि, सङ्ख्यातुं गणयितुं, भूयसी बहुतरा, कठिनी इव करिका इव, भूयस्यः सङ्घयानघुटिकाः इवेत्यर्थः। 'करिका कठिनी' इति विश्वः। तैः परिवेषकैः, असौ गोलकावलिः, प्रागुप्तपिष्टकविशेषराशिरित्यर्थः। अढौकि ढौकिता, उपहृता इत्यर्थः / भवद्भिः व्यञ्जनबाहुल्यं कथ्यते, अतः आभिः कठिनीभिः तानि गणयेति च्छलेनेव भूयसी कठिनी अर्पितेवेति भावः / अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः // 10 // हमारे लिए यह कितना व्यञ्जन दे रहे हो ? ( हम तृप्त हो गये, अब मुझे कुछ नहीं चाहिये ) ऐसा तृप्तिके कारणसे बार-बार कहते हुर भोजनकर्ता बरातियों के लिए ('कितना व्यञ्जन दे रहे हो ?' ऐसा तुम लोग पूछते हो तो लो इनके द्वारा गिन लो कि हमने कितने व्यञ्जन दिये हैं, इस प्रकारके ) छलसे उन व्यजनोंको बहुत-सी खड़ियों (लिखनेके चाकों) को उढेल ( अधिक परिमाणमें दे ) दिया। [ जिस प्रकार बहुत अधिक पदार्थोकी गणना करनेमें असमर्थ व्यक्तिको खड़ियासे लिख-लिखकर गणना करनी पड़ती है, उसी प्रकार 'हम लोगोंने कितने व्यञ्जन परोसे' यह तुम गणना नहीं कर सकते हो तो लो इन ध्यक्ष नरूपी खड़ियोंसे गिन लो कि हम लोगोंने कितने व्यञ्जन परोस दिये। भोजनकर्ता
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________________ 1008 नैषधमहाकाव्यम् / बरातियों के तृप्त हो जाने के कारण बार-बार मना करने पर भी परोसनेवाले लोग आग्रहपूर्वक अधिक व्यञ्जनोंको परोस रहे थे ] // 10 // विदग्धबालेङ्गितगुप्तिचातुरीप्रवलिकोद्घाटनपाटवे हृदः / निजस्य टीकां प्रबबन्ध कामुकः स्पृशद्भिराकूतशतैस्तदौचितीम् / / 101 / / विदग्धेति / विदग्धबालायाः चतुराङ्गनायाः, इङ्गितगुप्तिचातुरो भ्रूभङ्गयाद्याकारगोपनचातुर्य, निगूढार्थचेष्टाप्रयोगचातुरीत्यर्थः / सा एव प्रवलिका दुर्बोध्यत्वात् प्रहेलिकापराख्यो निगूढार्थोक्तिविशेषः / 'प्रवल्हिका प्रहेलिका' इत्यमरः। तस्याः उद्घाटने बोधने, अर्थाद्भेदने इत्यर्थः। यत् पाटवं सामर्थ्य, तस्मिन् विषये, तत् तत्र, तादृशार्थोद्भदने इत्यर्थः / औचितीम् आनुकूल्यं, स्पृशद्भिः प्राप्तः, तदनुकूलैरित्यर्थः। तवेङ्गितगुप्तिचातुर्य मया ज्ञातमित्यर्थप्रकाशकैस्तदीयेणितानुरूपैः इति भावः / आकूतानां शतैः अभिप्रायव्यञ्जकः बहुविधेङ्गितः, कामुकः कश्चित् कामी, निजस्य आत्मीयस्य, हृदः हृदयस्य, टीका व्याख्याम् , अभिप्रायप्रकाशनमित्यर्थः / प्रबन्ध प्रकर्षेण कृतवान् , स्वहृदयं तस्य निवेदयामास इत्यर्थः / उचितोत्तरदानादेव प्रश्नार्थप्रकाशनात् तदेव तद्व्याख्यानमिति भावः // 101 // किसी ( चतुर कामुक ) ने चतुर बालाकी चेष्टाके अभिप्राय-चातुर्यरूपी पहेली (बुझौवल ) के स्पष्ट करनेकी चतुरताके विषयमें उसके योग्यता (तदनुकूलता) से युक्त सैकड़ों अभिप्रायोंसे अपने हृदयकी व्याख्या को कर दिया। ( अथवा-चतुर ( युवक ) तथा बाला-इन दोनों के अभिप्राय-चातुर्यरूपी..."। अथवा-क्रमशः चतुर (युवक) की चेष्टा तथा बाला की गुप्ति (चुपकेसे चेष्टा विशेष )-इन दोनों के चातुर्य " ) / [ किसी चतुर बालाने स्वाभाविक लज्जावश अपनी गुप्त चेष्टाद्वारा अपना अभिप्राय सूचित किया, उसे दूसरे कामुकने समझकर तदनुकूल बहुत-सी अभिप्रायसूचक चेष्टाओंसे अपने हृद्गत भावको उस प्रकार प्रकट किया, जिस प्रकार किसी गुप्ताभिप्रायवाली पहेलीको उसके अभि. प्रायको जाननेवाला व्यक्ति अनेक प्रकारकी व्याख्याकर स्पष्ट करता है। प्रकृतमें चतुर बाला के द्वारा गुप्त चेष्टा द्वारा अपना अनुराग प्रकट करनेपर कामुकने भी उसके अनुकूल बहुतसी स्पष्ट चेष्टाओं द्वारा अपने अनुरागको प्रकट किया अथवा-विदग्ध युवक तथा बालाकी गुप्त चेष्टाओं द्वारा उन दोनों के अभिप्रायको समझकर किसी अन्य कामुकने 'मैं तुम दोनों की गुप्त चेष्टाओंसे परस्पर अनुरागको समझ गया, अतः मैं उस युवकसे अधिक चतुर हूँ, इस कारण तुम उस युवकको छोड़कर मेरे साथ अनुराग करो' इस अभिप्रायसे स्पष्ट रूपसे बहुत-सी चेष्टाओंको किया ] // 101 // घृतप्लुते भोजनभाजने पुरःस्फुरत्पुरन्ध्रीप्रतिबिम्बिताकृतेः / युवा निधायोरसि लड्डुकद्वयं नखैलिलेखाथ ममर्द निर्दयम् / / 102 / / घृतेति / युवा कश्चित्तरुणः, पुरः अग्रेः, घृतेन प्लुते सिक्ते, भोजनभाजने भाजन
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________________ षोडशः सर्गः। 1006 पात्रे, स्फुरन्ती प्रकाशमाना, या पुरन्ध्रयाः अङ्गनायाः, प्रतिबिम्बिता प्रतिफलिता, आकृतिः शरीरं, तस्याः उरसि वक्षसि, लड्डुकद्वयं वर्तुं लाकृतिमिष्टान्नविशेषपिण्डयुग्मं, निधाय स्थापयित्वा, नखैः लिलेख विददार, अथ अनन्तरं, निर्दयम् अशिथिलं यथा तथेत्यर्थः / ममर्द पीडयामास, तदीयकुचकुम्भयुगलभावनयेति भावः // 102 // ( भोजन करनेवाले किसी वराती ) युवकने घृतसे व्याप्त भोजनपात्रमें सामने स्फुरित होती हुई ( परोसनेवाली ) स्त्री के प्रतिबिम्बित आकृति (शरीर) की छातीपर दो लड्डुओंको रखकर नाखूनोंसे लेखन किया ( खरोचा ) और बादमें निर्दयतापूर्वक अर्थात् अच्छी तरह मर्दन किया। [ 'जब हम दोनोंका समागम होगा तब इसी प्रकारसे तुम्हारे स्तनोंको मर्दन करूंगा' ऐसा, अथवा-'तुम्हारे स्तनोंको इस प्रकार मर्दित करना चाहता हूँ' ऐसा अपना अभिप्राय उस युवकने बतलाया ] // 102 // विलोकिते रागितरेण सस्मितं ह्रियाऽथ वैमुख्यमिते सखीजने | तदालिरानीय कुतोऽपि शाकरी करे ददौ तस्य विहस्य पुत्रिकाम् / / 10 // विलोकिते इति। सखी एव जनः तस्मिन् निजसख्यां, रागितरेण अत्यन्तानुरक्तेन, केनचित् कामुकेनेति शेषः / सस्मितम् ईषद्धास्यसहितं, विलोकिते दृष्टे, अथ विलोकनानन्तरं, हिया लज्जया, वैमुख्यं पराङ्मुखताम् , इते गते सति, एतेन तस्याः अपि तस्मिन् तथा अनुरागः सूचितः। तदालिः तस्य 'सखीजनस्य, आलि: सखी, कुतः अपि कस्मादपि स्थानात् , शार्करों शर्करामयीम् / विकारार्थात् ण्यप्र. स्ययः। पुत्रिका पाञ्चालिकां, कृत्रिमपुत्रीम् इत्यर्थः। तत्परिवेषणच्छलेनेति भावः। 'पाञ्चालिका पुत्रिका स्याद्वस्त्रदन्तादिभिः कृता' इत्यमरः। पुत्रीव प्रतिकृतिरस्याः सा पुत्रिका 'इवे प्रतिकृतौ' इति कन् 'केऽगः' इति ईकारहस्वः। आनीय सङ्ग्रह्य, तस्य रागितरस्य, करे पाणी, विहस्य किञ्चित् हसिस्वा, ददौ अर्पयामास / वमुख्यादननुरागसन्देहो न कर्त्तव्यः, परन्तु एवम् एषा सखी तव करगता यथा भवेत् तथा करिष्यामि इति सूचयामासेति भावः // 103 // अतिशय रागी ( किसी युवकके द्वारा (मुस्कुराकर देखी गयी सखीके लज्जासे मुख फेर देनेपर उसकी सखीने शक्करकी पुतलो ( जनाकार भक्ष्यपदार्थ) को लाकर हँसकर (परोसनेके व्याजसे ) उस ( रागो युवक ) के हाथमें दे दिया। [ 'इस शक्करकी पुतलीके समान अधर चुम्बनादिमें मधुर इस अपनी सखीको मैं तुम्हारे अधीन कर दूंगी, अत एव तुम इसे हस्तगत ही समझो' ऐसा, अथवा-'इस पुतलीके समान मुझे तुम अपने हाथमें आयी हुई अर्थात् वशवर्तिनी समझो' ऐसा संकेत किया ] // 103 // निरीक्ष्य रम्याः परिवेषिका ध्रुवं न भुक्तमेवैभिरवाप्तवृप्तिभिः / अशक्नुवद्भिबहुभुक्तवत्तया यथोज्झिता व्यञ्जनपुञ्जराजयः / / 104 / / निरीचयेति / बहुभुक्तवत्तया यथेष्टं कृतभोजनतया, अशक्नुवद्भिः निःशेषं
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________________ 1010 नैषधमहाकाव्यम् / भोक्तुम् अपारयद्भिः, जनान्तरैरिति शेषः / यथा व्यञ्जनपुञ्जराजयः शाकमांसाद्यपकरणराशीनां श्रेणयः, उज्झ्यन्ते इति शेषः, बहुलपरिवेषणादिति भावः / तथा एभिः भोक्तृभिः जन्यजनैरपि, रम्याः तमणीयाः, परिवेषिकाः परिवेषणकारिण्यः तरुण्यः, निरीक्ष्य विलोक्य एव, अवाप्ततृप्तिभिः तावतैव 'तृप्तैः सद्भिः, व्यञ्जनपुञ्जराजयः उज्झिताः त्यक्ताः, न भुक्तं न खादितं, 'ध्रुवम् इत्युत्प्रेक्षायाम् , अन्यथा कथमेते भोज्यराशयः पात्रेषु तथैव दृश्यन्ते इति भावः // 104 // ___ बहुत भोजन करनेसे ( थालमें परोसे गये सब व्यअ नोंको भोजन करनेमें ) असमर्थ इन ( भोजन करनेवाले बरातियों) ने व्यञ्जन-समूहके ढेरोंको जैसा छोड़ दिया है, उससे ऐसा ज्ञात होता है कि परोसनेवाली सुन्दरियोंको देखकर तृप्त हुए इन लोगोंने मानों भोजन किया ही नहीं है / [ भोजनकर्ता बरातियों ने बहुत-से भोज्य पदार्थोंको नहीं खा सकने के कारण बहुत मात्रामें जूठा छोड़ दिया ] // 104 / / पृथकप्रकारेङ्गितशंसिताशयो युवा ययोदासि तथाऽपि तापितः / ततो निराशः परिभावयन् परामये ! तयाऽतोषि सरोषयैव सः // 10 / / पृथगिति / यया स्त्रिया, पृथक्प्रकारेगितसंशिताशयः नानाविधचेष्टाप्रकाशिता. भिप्रायः, युवा कश्चित्तरुगः, उदासि प्रतीङ्गिताद्यकरणेन औदासीन्यं प्रापित इत्यर्थः, तयाऽपि रोषात् अनादरपरया अपि तयव स्त्रिया, तापितः सन्तापितः दुःखं प्रापितः इत्यर्थः, प्रतीङ्गितादर्शनेन स्वाभीष्टलाभनैराश्यात् दुःखितोऽभुदिति भावः, यो यत्रो. दासीनः तस्य तदलाभजन्यं दुःखं न भवति, प्रकृते तु तस्यामुदासीनस्यापि तयैव जनितमिति विरोधार्थकोऽपिशब्दः, ततः औदासीन्यात् , निराशः तत्प्राप्ती हताशः सन् , पराम् अन्यां, परिभावयन् इङ्गितादिना विभावयन् , सानुरागमवलोकयन् इति यावत्, सः युवा, सरोषया अन्यावलोकनरुष्टया, तयैव पूर्वया एव, अतोषि तोषितः, न तु द्वितीयया इति भावः, तोषयतेः कर्मणि लुङ / अये इति आश्चर्ये, औदासीन्यं जनयित्र्याऽपि दुःखं जनितं सरोषयव सन्तोषो जनित इति विरुद्धार्थद्वयसमावेश आश्चर्यकर इत्यर्थः। पूर्वया तदनुरक्तयाऽपि 'जनसमक्षमिङ्गितादिकरण. मयुक्तमिति बुद्धया पूर्व प्रतीङ्गिन्तादिना न सम्भावितः, अत एव युवा दुःखितः, किन्तु तस्या गूढाभिप्रायमज्ञात्वा इयं मय्यनुरागिणीति निश्चित्यान्यां प्रति तस्मिन् सानुरागं विलोकयति सति तदर्शनेन पूर्वा सा सरोषा जाता, सानुरागैव सरोषा भवतीति व्याप्तेः तस्या रोषदर्शनेनानुरागमनुमाय स सन्तुष्ट इति भावः // 105 // ___ अनेक प्रकारकी चेष्टाओंसे अपने अभिप्राय ( अनुराग) को बतलानेवाले युवकको ( उसके प्रति संकेतसे अपना अभिप्राय नहीं बतलानेवाली ) जिस स्त्रीने उदासीन कर दिया और उससे सन्तप्त ( यह स्त्री मुझे नहीं चाहती इस भावनासे दुखित ) हुआ, इसके बाद निराश होकर दूसरी स्त्रीको सानुराग देखते हुए उस युवकको क्रोधयुक्त उसी (पहली )
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________________ षोडशः सगः। 1011 स्त्रीने सन्तुष्ट कर दिया, यह आश्चर्य है / [ अनुरागी उस युवकके अनेक प्रकारकी चेष्टाओंके करनेपर बहुत लोगों के सामने लज्जावश उस स्त्रीने संकेत द्वारा अपना अनुराग प्रकट नहीं किया तो 'यह मुझसे अनुराग नहीं करती' ऐसा समझकर उस स्त्रीके विषयमें निराश उस युवकने दुखी हो दूसरी स्त्रीके प्रति अपना अनुराग प्रकट करने लगा, यह देख वह प्रथमा स्त्री क्रुद्व हो गयी कि 'यद्यपि इसमें अनुराग करती हूं और लज्जावश सबके सामने अपना भाव प्रदर्शित नहीं किया, अत एव यह युवक दूसरी स्त्रीमें अनुराग करने लगा।' यह देख उस युवकने 'पहली स्त्री ही मुझमें अनुराग करती है, मैंने पहले इसके मनोगत भावको नहीं समझकर व्यर्थ में उदासीन एवं दुःखित होकर दूसरी स्त्रीमें अनुराग करने लगा' ऐसी अपनी भूल समझकर पहली स्त्रीमें ही अनुराग करता हुआ सन्तुष्ट हो गया। उदासीन जिस स्त्रीसे दुःखित हुआ, क्रुद्ध उसी स्त्रीसे सन्तुष्ट किया गया' यह विरुद्ध विषय होनेसे आश्चर्य है और उसका निराकरण पूर्वोक्त प्रकारसे है ] // 175 // पयःस्मिता मण्डपमण्डलाम्बरा वटाननेन्दुः पृथुलड्डुकस्तनी / पदं रुचे ज्यभुजां भुजिक्रिया प्रिया बभूवोज्वलकूरहारिणी / / 106 / / पय इति / पयः पाथः क्षीरं वा, स्मितं हास्यं यस्याः सा, मण्डपमण्डलं जन्यजनानामाश्रयसमूह:: चन्द्रातपसमूहः एव इत्यर्थः / 'मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः' इत्यमरः, अम्बरं वस्त्रं यस्याः सा तादृशी, मण्डपानामावरकत्वात् शुभ्रत्वाच्चेति भावः, वटः घटकः एव, शुभ्रवत लपिष्टकविशेषः एव इत्यर्थः, आननेन्दुः आह्लादकरत्वात् मुखचन्द्रः यस्याः सा तादृशी, पृथू महान्तौ लड्डुको मिष्टान्नविशेषौ एव, स्तनौ यस्याः सा तादृशी, रुचेः पदम् अभिलाषास्पदं लावण्यास्पदन्च, उज्ज्वलैः शुभैः, कूरैः भक्तैः, 'अन्धः कूरं भक्तम्' इति हलायधः / हारिणी मनोहरा हारवती च, भुजि. क्रिया भोजनव्यापारः, भुज इति धातुनिर्देशेनार्थलक्षणा। भोज्यभुजां भोक्तृणां भोगिनाम्च, प्रीणातीति प्रिया तृप्तिकारिणी बल्लभा च, बभूव / रूपकालङ्कारः // 106 // दुग्ध ( या-स्वच्छ जल ) रूप स्मित ( मन्द मुस्कान ) वाली, मण्डप-समूहरूप ( पाठा०-अधिक आंच लगनेसे लाल-लाल बिन्दुओंसे युक्त पूआरूप अलङ्कारभूत ) वस्त्र. वाली, ( शुक्लवर्ण तथा आह्लादक होनेसे ) बड़े ( दही-बड़े ) रूप मुख चन्द्रवाली, बड़े-बड़े लड्डूरूपी स्तनोंवाली, रुचि ( कान्ति या-भोजनेच्छा, पक्षा०-अनुराग ) का स्थान अर्थात् रुचिकारिणी, शुक्लवर्ण भातसे मनोहर ( पक्षा०-शुक्ल वर्ण भातरूपी हार अर्थात् मुक्ता पक्षा०-वल्लभा) हुई / [ पक्षान्तर में सर्वत्र 'दुग्ध (या स्वच्छजल ) के समान है स्मित जिसका' इस प्रकार अर्थान्तर कल्पना करनी चाहिये / भोजनकर्ताओंको वहांका भोजन प्रिया स्त्रीके समान अत्यन्त रुचिकर हुआ ] // 106 / / 1. 'मण्डकमण्डनाम्बरा' इति 'प्रकाशे' व्याख्यातम् /
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________________ 1012 नैषधमहाकाव्यम् / चिरं युवाऽऽकूतशतैः कृतार्थनश्चिरं सरोषेङ्गितया च निर्बुतः। सृजन करक्षालनलीलयाऽञ्जलिं न्यषेचि किश्चिद्विधुताम्बुधारया।।१०७॥ चिरमिति। चिरं दीर्घकालं व्याप्य, आकूतशतैः इङ्गितसमूहैः, कृतार्थनः कृत. प्रार्थनः ततश्च सरोषेतिया रोषव्यञ्जकचेष्टावत्या, कयाचित्तरुण्या इति शेषः / निद्धतश्च निराकृतश्च, युवा कश्चित्तरुणः, करक्षालनलीलया हस्तप्रक्षालनव्याजेन इत्यर्थः, चिरं दीर्घकालं यावत् , अञ्जलिं करद्वयसंयोगं, सृजन् विदधन् सन् , अञ्ज. लिबन्धेन चिरं प्रार्थयमानः सन् इत्यर्थः / किञ्चिद्विधुतया ईपत् कम्पितया, अम्बुधा. रया जलधारया, धाराविधूननव्याजेन इत्यर्थः / न्यषेचि निषिक्तः। कोपानलशान्ति. ज्ञापनाय इति भावः, तरुण्या इति शेषः // 107 // बहुत देरतक सैकड़ों चेष्टाओंसे प्रार्थना करनेवाले ( उसके प्रार्थनाको अस्वीकृत कर ) क्रोधयुक्त चेष्टाओंवाली ( किसी तरु गीके द्वारा ) तिरस्कृत हुए ( किन्तु फिर भी ) हाथ धोने के बहानेसे अञ्जलि करते ( हाथ जोड़ते ) हुए युवकको थोड़ा-सा कम्पित पानीकी धारासे भिगों दिया। [युवकके सैकड़ों चेष्टाओंद्वारा प्रार्थना करने पर युवतीने उसकी इच्छाको क्रोधयुक्त चेष्टाओंसे अस्वीकार कर दिया तो पुनः .युवकने हाथ धोने के बहानेसे बार-बार हाथ जोड़कर सम्भोगार्थ प्रार्थना की, यह देख युवतीने 'तुम्हारी प्रार्थना मुझे स्वीकार है' ऐसा अभिप्राय हाथ धोने के लिए उसे पानी देते समय अपने हाथको थोड़ा कम्पितकर प्रकट किया / युवकने जब हाथ धोने के बहानेसे बार-बार हाथ जोड़कर प्रार्थना की तब युवतीने भी हाथ कम्पितकर संकेत कर दिया कि बार-बार हाथ मत जोड़ो, मुझे तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है, अथवा-उस स्त्रीने अपनी कोपाग्निको शान्त होनेका संकेत थोड़े जलधाराको कपाकर किया / हाथ धोनेसे यह सूचित होता है कि अब भोजन करना समाप्त हो गया है ] || 107 // न षड्विधः षिगजनस्य भोजने तथा यथा यौवतविभ्रमोद्भवः / / अपारशृङ्गारमयः समुन्मिषन भृशं रसस्तोषमधत्त सप्तमः / / 108 / / / न षड्विध इति / पिङ्गजनस्य विटजनस्य 'षिङ्गः पल्लविको विटः' इत्यमरः, भोजने भोजनकाले, षड़विधः षटप्रकारः, रसः मधुरादिरूपः, तथा तादृशं, तोषं प्रीति, नाधत्त न अपुषत् , पोषणार्थ लुडि लङ। यथा यादृशं, यवतीनां समूहः यौवतम् 'मिक्षादिभ्योऽण' इति अण / तत्र यवतीति सामर्थ्यात् 'भस्थाढे तद्धिते' इति पुव द्भावः / तस्य विभ्रमः विलासैः, उद्भवः सञ्जातः, पचाद्यच / भृशम् अत्यर्थ, समुन्मि. षन् समुज्जम्भमाणः, वर्धमान इत्यर्थः, अपारः अपरिमितः,शृङ्गारमयः शृङ्गारा नाम, सप्तमः रसः / अत्र सप्तमत्वं मधुरादिषड्सापेक्षया, न तु आलङ्कारिकोक्तरसापेक्षया षडरसातिरिक्तस्य रसस्याभावात् शृङ्गाररसस्यापि तदन्तर्गतत्वात् इति तात्पर्यम् / तोषम् अधत्त इत्यने नान्वय, एकोऽपि लोकोत्तरो बहूनतिशेते इति भावः // 108 //
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________________ षोडशः सर्गः। 1013 रसिक कामुक-समुदायके भोजनमें छः प्रकार ( मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, कसैला और चरपरा ) के रसोंने वैसी तृप्ति नही उत्पन्न की जैसी तृप्ति युवती-समूहके विलाससे उत्पन्न अत्यन्त बढ़ते हुए अपरिमित शृङ्गाररूप सातवें रसने की। [ कामुक जनोंकी मधुरादि षड्स भोजनकी अपेक्षा परोसनेवाली युवतियोंकी शृङ्गार चेष्टाओंसे अधिक आनन्द हुआ। प्रकृतमें मधुरादि छः रसोंकी अपेक्षासे 'शृङ्गार' को सातवां रस समझना चाहिये, न कि नाट्यशास्त्र में वर्णित रसोंकी अपेक्षासे अलौकिक एक पदार्थ भी अनेक पदार्थोंसे श्रेष्ठ हो जाता है, अत एव प्रकृतमें छः भोज्य पदार्थके रसोंसे एक शृङ्गार रस ही भोजनकर्ता रसिकों के लिए आनन्द पद होनेसे श्रेष्ठ हो गया ] // 108 // मुखे निधाय क्रमुकं नलानुगैरथौज्झि पर्णालिरवेक्ष्य वृश्चिकम् / दमाप्तिान्तमुखवासनिर्मितं भयाविलैः स्वभ्रमहासिताखिलैः / / 109 / / मुखे इति / अथ करक्षालनानन्तरं, नलानुगैः नलानुयायिभिः, जन्यजनैरिति शेषः क्रमुकं पूगफलं, मुखे वदने, निधाय दत्त्वा, दमेन दमयन्तीभ्रात्रा, अर्पितं दत्तम् , / अन्तःमुखस्य अन्तर्मुखं मुखाभ्यन्तरम्, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः। तद्वासयति सुगन्धी. करोतीति अन्तर्मुखवासं लवङ्गकक्कोलकर्पूरादिवासनाद्रव्यम् , कर्मण्यण / तेन निर्मितं कल्पितं, वृश्चिकं वृश्चिकाकृतिताम्बूलोपकरणसुगन्धिद्रव्यविशेषम् , अवेक्ष्य दृष्ट्वा, भयेन दंशनभीत्या, आविलेः आकुलैः, अत एव स्वभ्रमेण स्वस्य भ्रमेण, अवृश्चिके वृश्चिकज्ञानरूपनिजभ्रान्त्या इत्यर्थः, हासिताः जनितहासाः, अखिलाः समस्तदर्शकवृन्दा यैः तादृशैः सद्भिः, पर्णालिः नागवल्लीदलपङ्क्तिः, औज्झि उज्झिता, परित्यक्ता इत्यर्थः, उज्झ विसर्ग कर्मणि लुङ॥ 109 // इस ( हाथ धोने ) के बाद सुपारीको मुखमें लेकर दमयन्तीके छोटे भाई 'दम' के दाग दी गयी ( कपूर, लवङ्ग, कस्तूरी, कत्था जावित्री आदि ) मुखको सुगन्धित करनेवाले पदार्थों से बनाये गये बिच्छूको देखकर भय ( बिच्छूके 'डंक मारनेके भयसे घबराहट ) से व्याकुल ( अत एव ) अपने भयसे सबोंको हँसानेवाले नलानुगामियों (भोजनकर्ता बरातियों) ने पानके बीड़ेको फेंक दिया // 109 / / अमीषु तथ्यानृतरत्नजातयोविदर्भराट् चारुनितान्तचारुणोः / स्वयं गृहाणैकमिहेत्युदीर्य तवयं ददौ शेपजिघृक्षवे हसन् / / 110 // अमीविति / विदर्भराट विदर्भदेशाधीश्वरः भीमः, चारुनितान्तचारुणोः यथासङ्कचं रम्यातिरमणीययोः, इह अनयोः, तथ्यानृतरत्नजातयोः सत्यासत्यरत्नौघयोः मध्ये 'जातं जात्योधजन्मसु' इति विश्वः / एकं स्वयम् आत्मना, गृहाण स्वीकुरु, अमीषु वारयात्रिकेषु मध्ये, इति एवम् , उदीर्य उक्त्वा, शेषम् असत्यमेव, जिघृक्षवे गृहीतुमिच्छवे, कृत्रिमत्वेन तस्यैवातिचारुत्वादिति भावः / ग्रहः सनन्तात् 'सनाशं. 1. वराटरा' इतिट 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् /
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________________ 1014 नैषधमहाकाव्यम् / सभिक्ष उः' इति उप्रत्ययः, मधुपिपासादित्वात् द्वितीयासमासः। हसन् तस्य रत्नज्ञा. नाभावात् हास्यं कुर्वन् , तयोः कृत्रिमाकृत्रिमयोः, द्वयम् उभयमेव, ददौ अर्पया. मास / तत्र कृत्रिमं विनोदाय ददौ अन्यदौचित्यादिति भावः / / 110 // ___विदर्भनरेश ( भीम या 'दम' ) ने सुन्दर तथा अतिशय सुन्दर झूठे तथा सच्चे अर्थात् नलकी तथा असली दो रत्नसमूहोंमें-से 'एक स्वयं ( जो तुम्हें पसन्द आवे, उसे ) ले लो' ऐसा इन ( बरातियों ) में कहकर झूठे अर्थात् नकली ( रत्न ) को ग्रहण करनेके इच्छुक ( बराती आदमी ) के लिए हँसते हुए, उन दोनों रत्नोंको दे दिया। [ पहले 'इन दोनों रत्नोमें जो पसन्द हो, उसे तुम स्वयं ले लो' ऐसा विदर्भराजके कहनेपर उनके तारतम्यको नहीं पहचाननेवाले बरातीने अधिक चमकते हुए नकली रत्नको लेना चाहा, यह देख उसकी रत्नज्ञता नहीं होनेसे उसपर हंसते हुए विदर्भनरेशने उन दोनों रत्नोंको दे दिया। उनमें झूठे (नकली) रत्नको परिहाससे तथा सच्चे ( असली ) रत्नको उचित होनेसे दिया / इति द्विकृत्वः शुचिमिष्टभोजिनां दिनानि तेषां कतिचिन्मुदा ययुः / द्विरष्टसंवत्सरवारसुन्दरीपरीष्टिभिस्तुष्टिमुपेयुषां निशि / / 111 / / इतोति / इति पूर्वोक्तप्रकारेण, द्विकृत्वः द्विवारं, दिवा रात्रौ च इत्यर्थः, 'सङ्ख्याः याः क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृत्वसुच्' इति कृत्वसुच् / शुचि विशुद्धं, मिष्टं मधुरं, भुञ्जते अश्नन्ति इति तेषां विशुद्धलड्डुकादिभोजिनां, तथा निशि रात्री, द्विः द्विरावृत्ताः, अष्टसंवत्सराः यासां तासां षोडशवर्षाणां, वारसुन्दरीणां गणिकानां, परीष्टिभिः परिचर्याभिः, तस्कत कशुश्रूषाभिरित्यर्थः, 'परीष्टिः परिचर्यायां प्राकाम्येऽन्वेषणे स्त्रियाम्' इति मेदिनी। तुष्टिं प्रीतिम् , उपेयुषां प्राप्नुवतां, तेषां नलानुगानां, कतिचित् दिनानि कतिपयानि अहानि, मुदा हर्षेण, ययुः अतिवाहितानि बभूवुः // ___ इस प्रकार ( 16 / 49-190 ) दो बार अर्थात् दिन तथा रातमें विशुद्ध तथा मधुर भोजन करते हुए और रातमें षोडशपर्षीया वाराङ्गनाओंकी परिचर्या ( सेवा-सत्कार, अथवा-आलिङ्गन-चुम्बनादि सेवाकार्य ) से सन्तुष्ट उन (बरातियों ) के कई (5-6 ) दिन आनन्दसे बीत गये // 111 // उवास वैदर्भगृहेषु पञ्चषा निशाः कृशाङ्गी परिणीय तां नलः / अथ प्रतस्थे निषधान सहानया रथेन वाष्र्णेयगृहीतरश्मिना / / 112 / / उवासेति / नलः कृशाङ्गी तन्वङ्गी, तां दमयन्ती, परिणीय उदूह्य, वैदर्भगृहेषु भीमभवनेषु, पञ्चषाः पञ्च षट् वा, 'सङ्ख्ययाऽव्यया-' इत्यादिना बहुव्रीहिसमासे कृते 'बहुव्रीहौ सङ्खयेये डच' इति डच्समासान्तः। निशाः रात्रीः / अत्यन्तसंयोगे द्वितीया उवास तस्थौ / अय सप्तमाहे, अनया भम्या सह, वृष्णेः अपत्यं पुमान् वार्ष्णेयः तन्नामकनलसारथिः 'इतश्चानिज्' इति ढक् / तेन गृहीताः धृताः, रश्मयः
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________________ षोडशः सर्गः। 1015 प्रग्रहाः यस्य तादृशेन 'किरणप्रग्रहौ रश्मी' इत्यमरः। रथेन निषधान् तदाख्यनिजजनपदान् , प्रतस्थे जगाम // 112 // नलने कृशाङ्गी ( दमयन्ती ) के साथ विवाहकर विदर्भनरेशः ( राजा भीम ) के महलोंमें पांच-छः रात वास किया, इसके बाद उस ( दमयन्ती ) के साथ वार्ष्णेय नामक सारथिके द्वारा पकड़े गये रास (घोड़ोंके लगामकी डोरी) वाले रथसे निषध देश ( अपने राज्य ) को चले / / 112 / / परस्य न स्प्रष्टुमिमामधिक्रिया प्रिया शिशुः प्रांशुरसाविति ब्रुवन् / रथे स भमी स्वयमध्यरूरुहन्न तत् किलाश्लिक्षदिमां जनेक्षितः / / 113 / / __परस्येति / परस्य मदितरस्य लोकस्य, इमां पतिव्रतां भैमी, स्पष्टं परामष्टम्, अधिक्रिया अधिकारः, न, अस्तीति शेषः। प्रिया भमी, शिशुः, बाला, हस्वप्रमाणा इति भावः / असौ रथः, प्रांशुः उन्नतः, अत एव स्वयं रथारोहणे असमर्थति भावः / इति एवं, ब्रवन् किल वदन्निव, सः नलः, स्वयम् आत्मनैव, भैमी दमयन्ती, रथे अध्यरूरुहत् अधिरोहयामास, स्पर्शलोभादिति भावः। णिजन्तरुहधातोः लुडि 'णौ चडि' इत्युपधाहस्वः, 'दी| लघोः' इत्यभ्यासस्य दीर्घत्वम् / किन्तु तत् तदा, रथा. रोपणकाले इत्यर्थः, जनेक्षितः जनैः दृष्टः सन् , बहुभिर्जनः दृष्टत्वादिति भावः / इमां भैंमी, नाश्लिक्षत् न आलिङ्गष्ट, शालीनताविरोधिव्यवहारत्वादिति भावः / श्लिष आलिङ्गने इति श्लिषो लुङि च्लेः क्सादेशः // 113 // __ ( मेरे अतिरिक्त ) दूसरे किसीको इसे ( पतिव्रता दमयन्तीको ) छूनेका अधिकार नहीं है (और ) प्रिया ( दमयन्ती ) शिशु (छोटी) है तथा यह.( रथ ) ऊंचा है। ऐसा कहते हुए उस (नल ) ने दमयन्तीको स्वयं रथपर चढ़ाया और लोगोंको देखते हुए उसका मानों आलिङ्गन नहीं किया अर्थात् वास्तविक विचार करनेपर तो उस प्रकार कहकर उसे रथपर चढ़ाते समय आलिंगन कर ही लिया / / 113 // इति स्मरः शीघ्रमतिश्चकार तं वधूञ्च रोमाञ्चभरेण कर्कशौ / स्खलिष्यति स्निग्धतनुः प्रियादियं म्रदीयसी पीडनभीरुदोयुगात्॥११४।। इतीति / स्निग्धतनुः मसृणाङ्गो, म्रदीयसी अतिसुकोमला च, इयं भैमी, पीडनात् दृढतया धारणजन्यव्यथाप्राप्तेः, भीरु भयशीलं, दोर्य गं बाहुद्वयं यस्य तस्मात् नदीयसः पीडनासहत्वात् सुदृढधारणेन ब्यथाप्राप्तिशङ्कया शिथिलधारिण इति भावः / प्रियात् नलात् , स्खलिष्यति बृशिष्यति, इति मृदुतयाशिथिलधारणेन स्निग्धतनुरियं प्रियभुजान्तरात् संसिष्यते इति हेतोरिवेत्यर्थः / शीघ्रमतिः प्रत्युत्पन्न मतिः, स्मरः कामः, तं नलं, वधूं भैमीञ्च, रोमाञ्चभरेण पुलकातिशय्येन, कर्कशौ 1. 'इतीव तं शीघ्रमतिः स्मरोऽकरोद्वधूम्' इति, पूर्वाोत्तरार्द्धयोय॑त्यासेन पाठान्तरम्।
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________________ 1016 नैषधमहाकाव्यम् / खरस्पौं, अस्निग्धगात्रौ इत्यर्थः, चकार विदधे। अनयोः परस्पराङ्गसङ्गहेतुके रोमांचे स्खलनप्रतिबन्धार्थत्वमुत्प्रेक्षते // 114 // 'अतिशय कोमल तथा चिकने ( पक्षा-सस्नेह ) शरीरवाली यह ( दमयन्ती ) अधिक दबाने ( कसकर पकड़ने ) में भययुक्त बाहु द्वयवाले नल ( के हाथों ) से स्खलित ( फिसलकर गिर ) जायेगी' ऐसा ( विचारकर ) प्रत्युत्पन्नबुद्धि कामदेवने उस (नल ) तथा वधू ( दमयन्ती ) को अधिक रोमाञ्चसे कर्कश कर दिया। [ 'दमयन्ती अतिशय कोमल तथा स्निग्ध शरीरवाली है, अतः नल 'यदि इसे मैं कसकर पकडूंगा तो इसे कष्ट होगा' इस भयसे दनयन्तीको रथपर चढ़ाते समय कसकर नहीं पकड़ेंगे और ढोला पकड़नेसे यह नलके हाथसे फिसल ( सरक ) कर गिर पड़ेगी' इस विचार के मनमें आते ही प्रत्युत्पन्नमति कामदेव ने दोनोंको रोमांचितकर कर्कश ( रूक्ष शरीर युक्त ) कर दिया, जिसमें नलके हाथ से गिरने न पावे / कोमल तथा चिकनी वस्तुको अधिक दबाकर नहीं पकड़ने से फिसलकर गिर जाना सम्भव है, और उसीके कठोर या रूक्ष हो जानेपर गिरनेका भय नही रहता, अतः कामदेव का वैसा करना उचित ही था / दमयन्तीको रथपर चढ़ाते समय नल तथा दमयन्ती दोनोंको तत्काल ही सात्विक भावजन्य रोमाञ्च हो गया ] // 114 / / तथा किमाजन्म निजाङ्कवर्द्धितां प्रहित्य पुत्रीं पितरौ विषेदतुः ? / विसृज्य तौ तं दुहितुः पतिं यथा विनीततालक्षगुणीभवद्गुणम् / / 11 / / ___ तथेति / पितरौ भैम्या मातापितरौ 'पिता मात्रा' इति विकल्पादेकदेशः / आज. न्म जन्यप्रभृति, अभिविधावव्ययीभावः / निजांके स्वोत्संगे, वर्द्धितां पोषितां, पुत्री दुहितरम् / गौरादित्वादीकारः। प्रहित्य प्रस्थाप्य, हिनोतेः क्त्वो ल्यप। तथा ताक , विषेदत्तुः विषण्णौ बभूवतुः, किम् ? नेत्यर्थः, सदेलिटि 'अत एकहलमध्ये-' इत्यादिना एत्वाभ्यासलोपौ। यथा याहक् , तौ भैमीपितरौ, विनीततया विनय सम्पन्नतया, लक्षगुणीभवन्तः लक्षगुणत्वेन सम्पद्यमानाः, गुणाः शौर्यादयः यस्य तथोक्तं, दुहितुः पतिं जामातरम् 'विभाषा स्वसृपत्योः' इति विकल्पात् षष्ठया अलुक् / तं नलं, विसृज्य सम्प्रेष्य, विषेदतुरिति पूर्वक्रियया अन्वयः / कन्यावियोगापेक्षया गुणशालिजामातृवियोगस्तयोर्नितरां विषादकारणमभूदिति भावः // 115 // माता-पिता जन्मसे अपने गोदमें बढ़ायी हुई पुत्री ( दमयन्ती ) को भेजकर वैता दुःखित हुए क्या ? जैसा नम्रतासे लाख गुना होते हुए (शोर्यादि ) गुवाले कन्याके पति अर्थात् जामाता (नल) को भेजकर दुःखित हुए / [ जन्मसे गोदमें पाल-पोसकर बढ़ायी गयी पुत्री दमयन्तीके वियोगसे माता-पिताको उतना दुःख नहीं हुआ, जितना गुणवान् जामाता नलके वियोगसे हुआ ] // 115 // निजादनुव्रज्य स मण्डलावधेर्नलं निवृत्तौ चटुलापतां गतः /
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________________ षोडशः सर्गः। 1017 तडागकल्लोल इवानिलं तटाद्धृताऽऽनतिाववृते विदर्भराट् / / 116 / / निजादिति / नलम् अनुवज्य अनुसृत्य, निवृत्ती प्रत्यावर्तनसमये, चटु चाटु, प्रियवाक्यमित्यर्थः, लपति कथयतीति चटुलापः तस्य भावः तत्तां चाटुभाषिता, गतः प्राप्तः, मनोहरवाक्यवादी इत्यर्थः, 'कर्मण्यण' इति अणप्रत्ययः। सः विदर्भराट भीमः, ता स्वीकृता, आनतिः नलनमस्कारः येन तादृशः सन् , अनिलं वायुम् , अनुव्रज्य अनुयाय, चटुलाः चञ्चलाः, आपः जलानि यस्य तस्य भावः तत्तां चलज. लत्वं, गतः प्राप्तः, वातेनान्दोलिताप इत्यर्थः, 'ऋकपूर-' इत्यादिना समासान्तः / तडागस्य सरोवरस्य, कल्लोलः महोर्मिः 'अथोर्मिषु / महत्सूल्लोलकल्लोलौ' इत्यमरः, मृता प्राप्ता, आनतिस्तटाघातजन्यनमनं येन तादृशः सन् , तटात् तीरप्रदेशादिव, निजात् स्वकीयात् , मण्डलावधेः राष्ट्रसीमान्तात् , व्याववृते प्रतिनिवृत्तः // 16 // __ नलका अनुगमनकर लौटते समय प्रिय भाषण तथा नमस्कार करनेवाले वे विदर्भराज (पाठा०-विराटराज भीम ) राज्यकी सीमासे उस प्रकार लौट आये जिस प्रकार सरोवरका तरङ्ग वायुका अनुगमनकर लौटते समय चञ्चल जलयुक्त हो कर तीर (किनारे) से लौट आता है। [ राजा भोम नलको अपने राज्यकी सीमातक पहुंचाकर वापस लौट आये] // 116 // पिताऽऽत्मनः पुण्यमनापदः क्षमा धनं मनस्तुष्टिरथाखिलं नलः / अतः परं पुत्रि ! न कोऽपि तेऽहमित्युदरेष व्यसृजनिजौरसीम् / / 117 / / पितेति / पुत्रि ! हे वत्से ! आत्मनः तव, पुण्यं सुकृतमेव, पिता जनकः, हितकारित्वादहितनिवारकत्वाच्चेति भावः। क्षमाः सहिष्णुताः, अनापदः न विद्यन्ते आपदो याभ्यस्ताः आपन्निवारिका इत्यर्थः, मनस्तुष्टिः सन्तोषः, अलोभित्वमेव इत्यर्थः, धनं वित्तम् , अथ अनन्तरम्, एतत्परं किं बहु वच्मि इत्यर्थः, अखिलम् उक्तम् अनुक्तञ्च सर्वमेव, नलः नलः एव तव सर्वस्वम् अभीष्टदायित्वादिति भावः / अतः अस्मात् नलात् , परम् अन्यत् , न, अस्तीति शेषः, अहन्तु ते तव, कोऽपि यः कश्चिदेवेत्यर्थः / यद्वा-अतः परम् अत ऊर्ध्वम्, अद्यारभ्येत्यर्थः, अहं ते कोऽपि न मया सह तव कोऽपि सम्बन्धो नास्तीत्यर्थः, इति इत्थम् , उक्त्वेति शेषः / एषः भीमः, उदश्रुः उद्बाष्पः साश्रुनेत्रः सन् इत्यर्थः। निजाम् आत्मीयाम् उरसा निर्मितां 'पुत्रीम् 'उरसोऽण च' इत्यणप्रत्ययः, 'संज्ञाधिकारादभिधेयनियमः' इति काशिका व्यसृजद् विससर्ज, प्रेषयामासेत्यर्थः // 117 // 'हे पुत्रि ( दमयन्ति ) ! अपना अर्थात् तुम्हारा पुण्य (ही हित करने तथा अहितका निवारण करनेसे ) पिता है, क्षमा ( सहनशीलता ही) आपत्तियोंका निवारण करनेवाली है, सन्तोष ( अलोम ही ) धन है; और सब (पूर्वकथित तथा अकथित-सब कुछ ) नल (ही ) हैं / इस ( नल ) से भिन्न (तुम्हारा कोई ) नहीं है, मैं तुम्हारा कोई हूं अर्थात् 1. 'वराटराट्' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः /
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________________ 1018 नैषधमहाकाव्यम् / सामान्यतः अपरिचित-जैसा ही हूँ ( अथवा-अब ( आज ) से मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ अर्थात् मेरा तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा, नल हो आजसे तुम्हारे सब कुछ हैं ) इस प्रकार ( कहकर ) रोते हुए इस ( राजा भीम ) ने अपनी पुत्री ( दमयन्ती ) को छोड़ा अर्थात बिदा किय। // 117 // प्रियः प्रियकाचरणाच्चिरेण तां पितुः स्मरन्तीमचिकित्सदाधिषु / शंशाम सोऽम्बाविरहौर्वपावको न तु प्रियप्रेममहाम्बुधावपि / / 118 / / प्रिय इति / प्रियः नलः, प्रियकाचरणात् केवलप्रीतिजनकव्यवहारात् , शोकापनोदनाथं मनःप्रसादकव्यवहारं कृत्वेत्यर्थः, पितुः स्मरन्तीं पितरं स्मरन्तीम् इत्यर्थः, पित्र, शोचन्तीमिति यावत् / 'अधोगर्थदयेशां कर्मणि' इति कर्मणि षष्ठी / तां दम. यन्ती, चिरेण बहुकालेन, आधिषु पितृविरहजमनोव्यथासु विषये, अचिकित्सत् चिकित्सां कृतवान् , नलः सप्रेमसान्त्वनावचनेन दमयन्त्याः पितृविरहजदुःखं कथञ्चित् निवारयामास इत्यर्थः, कित निवासे इति धातोाधिप्रतीकारे अर्थ 'गुपतिजकिद्भयः सन्' इति सन् / तु किन्तु, सः अतिदुःसह इत्यर्थः, अम्बाविरहः मातृविच्छेद एव, औवपावकः वडवाग्निः, असह्यत्वादिति भावः। प्रियप्रेममहाम्बुधौ नलानुराग समुद्रेऽपि न शशाम न निववृते, नले अतिप्रियमाचरत्यपि तस्या मातृविरहजदुःखं नोपशान्तमित्यर्थः, कन्यानां पितृतो मातरि अनुरागाधिक्यात् तद्विरहो दुःसहः इति भावः / जलानलयोरेकवावस्थानविरोधेऽपि समुद्र वडवाग्नेरवस्थानं न विरुद्धं तस्य तत्रैव स्थानत्वादिति समुद्रे वडवाग्निर्न शान्त इति तात्पर्यम् // 118 // (प्रिय ( नल ) ने एकमात्र प्रिय करनेसे पिताका स्मरण करती हुई उस (दमयन्ती) के (पिताके विरहसे उत्पन्न ) दुःखको बहुत समय (दिनों ) में अर्थात् बहुत समय के बाद शान्त किया ( अथवा-प्रियने पिताका स्मरण करती हुई उसके दुःखको एकमात्र प्रिय करनेसे बहुत समयमें शान्त किया, अथवा-प्रियने बहुत दिनोंतक पिताका. शान्त किया ) / किन्तु ( सर्वविदित ) वह माताका वियोगरूपी वडवानल प्रिय ( नल ) के प्रेमरूपी महासमुद्र में भी नहीं शान्त हुआ (पाठा०-वैसा ही रहा ) / [ पुत्रियों के लिए पितृविरहकी अपेक्षा मातृ विरहके अधिक दुःखदायी होनेसे प्रियाचरणसे नलने यद्यपि दमयन्तीके पितृ-विरहजन्य दुःखको बहुत दिनों में दूर कर दिये, किन्तु मातृ-विरहजन्य दुःखको वे बहुत प्रेम करनेपर भी नहीं दूर कर सके / जिस प्रकार जलमें अग्निका रहना असम्भव होने पर भी समुद्र में वडवानल रहता ही है, उसी प्रकार नलके अधिकतम प्रेम करने पर भी दमयन्तीका मातृ-विरहजन्य दुःख बना ही रहा ] // 118 / / असौ महीभृबहुधातुमण्डितस्तया निजोपत्यकयेव कामपि | 1. 'तथास्त तन्मातृवियोगवाढवः स तु' इति, 'शशाम तन्मातृवियोगवाडवो न तु' इति च पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 1014 ... भुवा कुरङ्गेक्षणदन्तिचारयोर्बभार शोभां कृतपादसेवया // 116 // ___ असाविति / बहुधातुभिः सुवर्णादिभिः, मण्डितः अलङ्कृतः, एकत्र-सुवर्णादिन निर्मिताभरणेनालङ्कृतत्वात् , अन्यत्र-तत्तद्धातूनामाकरत्वेन तद्युक्तरवादिति भावः। असौ अयं, महीभृत् राजा नलः, पर्वतश्च, कुरङ्गस्येव मृगस्येव, ईक्षणं चतुः, अन्यत्रकुरगाणाम् ईक्षणं, दन्तिनः गजस्य इव, चारः गमनम् , अन्यत्र-दन्तिनां चारः गतिः, तयोः भुवा स्थानेन, मृगवत् नयनयोः गजवत् गमनस्य च आश्रयभूतया इत्यर्थः, मृगाच्या गजगामिन्या च इति भावः / अन्यत्र-मृगाणां दन्तिनाञ्च तत्र विद्यमानत्वेन तयोर्दर्शनगमनाश्रयभूतया इत्यर्थः, कृता विहिता,पादसेवा भतश्चरणसेवा, अन्यत्र-पादानां प्रत्यन्तपर्वतानां, सेवा सानिध्यमित्यर्थः, 'पादाः प्रत्यन्तपर्वताः' इत्यमरः / यया तादृश्या, निजया आत्मीयया, उपत्यकया आसनभूम्या इव, तया भैम्या, काम् अपि अनिर्वाच्यां, शोभा कान्ति, बभार धारयामास // 119 // अनेक प्रकारके धातु (सुवर्णनिर्मित रत्नजटित अलङ्कार ) से सुशोभित ये राजा ( नल) मृगदर्शन तथा गजगमनकी उत्पत्तिस्थान अर्थात् श्रेष्ठ मृगनयनी तथा गजगामिनी और चरण-सेवा करनेवाली सतत पाववर्तिनी उस ( दमयन्ती ) से उस प्रकार किसी ( अनिर्वचनीय ) शोमाको प्राप्त किये, जिस प्रकार (खानों के होनेसे ) अनेक प्रकारके धातुओं ( सुवर्ण, चांदी, ताँबा तथा गेरू आदि ) से शोभित पर्वत हरिणों के दर्शन तथा हाथियोंके गमनकी भूमि तथा प्रत्यन्तपर्वतोंसे सेवित अपनी उपत्यका (पर्वतकी समीपस्थ भूमि ) से किसी अनिर्वचनीय शोमाको प्राप्त करता है // 119 // तदेकतानस्य नृपस्य रक्षितुं चिरोढया भावमिवात्मनि श्रिया / विहाय सापत्न्यमरञ्जि भीमजा समग्रतद्वान्छितपूर्त्तिवृत्तिभिः / / 120 // तदिति / चिराय बहुकालात् , ऊढया तया परिणीतया च, श्रिया राज्यलक्ष्म्या तदेकतानस्य दमयन्त्येकवृत्तेः, 'एकत्तानोऽनन्यवृत्तिः' इत्यमरः / नृपस्य नलस्य, भावं चित्तवृत्तिम् , अनुरागमिति यावत्, आत्मनि स्वविषये, रक्षितुं स्थिरीकर्तुम् इव, इत्युत्प्रेक्षा / सापत्न्यं सपत्नीभावं, सपत्नीद्वेषमित्यर्थः, विहाय परित्यज्य, भीमजा भैमी, समग्राणां सर्वविधानां, तद्वान्छितानां दमयन्तीप्सितानामित्यर्थः, पूर्तिवृत्तिभिः पूरणव्यापारैः, अरञ्जि रञ्जिता, पतिचित्तानुरञ्जनाय सपत्नीः अपि उपासते साध्यः इति भावः // 120 // चिरस्वीकृत ( पक्षा०-चिरविवाहित ) राजलक्ष्मीने दमयन्तीमें अनुरक्त राजा ( नल) के अनुरागको मानो अपने में सुरक्षित रखनेके लिए सपत्नीत्व (सौतपना ) को छोड़कर उस ( दमयन्ती) की समस्त इच्छाओंको पूरी करनेसे दमयन्तीको प्रसन्न किया। [लोकव्यवहार में भी पति जिस स्त्रीमें अनुरक्त रहता है, उसकी चिरकाल पूर्व विवाहित भी दूसरी स्त्री 'इसके अनुकूल रहनेसे पति मेरे ऊपर प्रसन्न रहेंगे' इस अभिप्रायसे सपत्नीभावका 64 नै० उ०
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________________ 1020 नैषधमहाकाव्यम् / त्यागकर उस नवोढा पतिप्रिया स्त्रीकी इच्छाएं पूरी करती हुई उसे प्रसन्न रखती है। नल दमयन्तीमें अतिशय अनुरक्त हुए तथा वह दमयन्ती भी अपनी सब इच्छाओंकी पूर्ति होनेसे प्रसन्न हुई ] // 120 // मसारमालावलितोरणां पुरी निजाद्वियोगादिव लम्बितालकाम् | ददर्श पश्यामिव नैषधः पंथामथाश्रितोद्ग्रीविकमुन्नतैहैः // 121 // मसारेति / अथ अनन्तरं, दमयन्त्याश्चित्तप्रसादनानन्तरमित्यर्थः, नैषधः नला, मसारमालावलयः इन्द्रनीलमालाश्रेण्यः, तोरणेषु बहिरेषु यस्यास्ताहशीम् , इन्द्रनीलमणिभूषितबहिराम् , 'नीलमणिर्मसारः स्यात्' इति हारावली / अत एव निजात् स्वात् वियोगात् विच्छेदात् , नलविरहादित्यर्थः, लम्बितालकां संस्काराभावात् विस्त्रस्तकुन्तलाम इव स्थिताम् , इत्युत्प्रेक्षा / उन्नतैः तुङ्गैः, गृहैः प्रासादैः आश्रिता अवलम्बिता, उग्रीविका उद्ग्रीवीकरणेन दर्शनं यस्मिन् कर्मणि तत् यथा तथा, उद्ग्रीवयतेः 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात् 'धात्वर्थनिर्देशे ण्वुल्' इति वक्तव्यात् ण्वुल, ततः 'प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्य-'इतीकारः / पथां नलागमनमार्गाणाम, कृयो. गात् कर्मणि षष्ठी।पश्यतीति पश्यामवलोकिकाम् इव स्थिताम् , इत्युप्रेक्षा। पाघ्रा-' इत्यादिना शप्रत्यये पुनरन्येन 'पाघ्रा-'इत्यादिना हशेः पश्यादेशः। पुरी नगरं ददर्श अवलोकयामास / प्रोषितभक्त काः लम्बालकाः पतिमार्गान् प्रतीक्षन्ते इति भावः // नलने इन्द्रनीलमणियों (नीलमों) की मालाओंकी (पक्षा०-इन्द्रनीलमणियोंकी मालारूपी ) तोरणवाली ( अत एव ) अपने अर्थात् पति नलके वियोगसे लटकते हुए केशों. वाली और उन्नत भवनोंसे गर्दनको ऊंची करके मानो मार्गों ( नलके आनेके रास्तों ) को देखती हुई ( पाठा०-..."ऊँची करके देखती हुई प्रियाके समान) नगरीको देखा। [ सपत्नीक नलके आनेके समाचारसे सजायी गयी तथा ऊँचे-ऊँचे भवनोंवाली नगरी ऐसी मालूम पड़ती थी, जैसी पतिके परदेश जानेपर प्रोषितपतिका स्त्री केशोंको लटकाये हुए तथा गर्दनको ऊँचीकर पतिके मार्गको देखती है / अथवा-पतिके आनेके सुसमाचारको सुनकर वासकसज्जा ( भूषणादिसे सुभूषित ) स्त्री गर्दन ऊंचाकर जिस प्रकार पतिके मार्गको देखती है ] // 121 // पुरी निरीक्ष्यान्यमना मनागिति प्रियाय भैम्या निभृतं विसर्जितः / ययौ कटाक्षः सहसा निवर्त्तिना तदीक्षणेनार्द्धपथे समागमम् / / 122 / / पुरीमिति / पुरी नगरी, निरीक्ष्य दृष्ट्रा, मनाक ईषत् , अन्यमनाः विषयान्तरासक्तचित्तः, मत्स्वामीति शेषः, इति एवं, विविच्येति शेषः, भैम्या दमयन्त्या, प्रियाय नलाय, निभृतं गूढं, विसर्जितः प्रहितः, तदृष्टिपरिहाराय इति भावः। कटाक्षः अपाङ्गदर्शनं, सहसा अकस्मात् , निवर्तिना भैमी द्रष्टुं विषयान्तरात् समाकर्षिणा 1. 'प्रियाम्' इति पाठान्तरम्। 2. 'पुरीनिरीचया-'इति पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः समः / 1021 इत्यर्थः, तदीक्षणेन नलदृष्टया सह, अर्द्धपथे अर्द्धमार्गे, समागमं संयोगं, ययौ प्राप, दमयन्ती लज्जाभरात् नलसमक्षं तन्मुखं द्रष्टुं न शशाक, तं पुरीदर्शनेन अन्यमनस्कं विविच्य यदैव कटाक्षमकरोत् तदैव नलेनापि दृष्टिप्रत्यावर्तनात् तदद्दष्टया दृष्टिमेलनात् लजिता अभवत् इति निष्कर्षः / उभावपि अन्योऽन्याभिप्रायं जज्ञतः इति भावः // 122 // - पुरी ( अपनी राजधानी ) को देखकर ( पाठा०-देखनेसे ) थोड़ा विषयान्तरासक्त हैं ( अत एव इस समय मैं इन्हें अच्छी तरह देख लूं), ऐसा विचारकर प्रिय (नल को देखने ) के लिए चुपचाप किया ( दमयन्तीका ) कटाक्ष उस (पुरी) के देखनेसे एकाएक लौटे ( दमयन्तीको देखने के लिए नगरीका देखना छोड़कर बीचमें ही फिरे ) हुए नलके नेत्रसे आधे मार्गमें संभोगको पा लिया। [नलको पुरी देखनेमें कुछ आसक्त जानकर दमयन्तीने सोचा कि 'इस समय प्राणप्रियकी दृष्टि पुरीके देखने में आसक्त है अत एव इन्हें मैं इस सुअवसर पर अच्छी तरह देख लूं; क्योंकि ये जब मुझे देखते रहते हैं तब मैं लज्जावश इन्हें अच्छी तरह नहीं देख पाती' ऐसा विचारकर ज्योंही दमयन्तीने नलको देखने के लिए नेत्र उठाया, त्योंही दमयन्तीको देखने के लिए पुरीका देखना बीचमें ही छोड़कर नलने अपनी दृष्टि दमयन्तीकी ओर लौटा लिया और इस प्रकार दोनोंकी दृष्टियोंका आधे मार्गमें ही सम्मिलन हो गया और इससे दमयन्ती लज्जित हो गयी तथा दोनोंने परस्परके भावको समझ लिया / दमयन्ती तथा नलमें परस्पर इतना अधिक स्नेह था कि वे दोनों एक क्षण भी परस्परके देखनेके विघ्नको नहीं सहन कर सकते थे ] // 122 // अथ नगरधृतैरमात्यरत्नैः पथि समियाय स जाययाऽभिरामः / मधुरिव कुसुमश्रिया सनाथः क्रममिलितैरलिभिः कुतूहलोत्कः॥१२३।। अथेति / अथ पुरीनिरीक्षणानन्तरं, जायया भार्यया, अभिरामः रमणीयः, सः नलः, कुसुमश्रिया पुष्पसम्पदा, सनाथः युक्तः, मधुः वसन्तः, क्रमेण अनुक्रमेण, पारम्पर्येण इत्यर्थः, मिलितः एकत्र समागतैरित्यर्थः, कुतूहलोत्कैः कुतूहलाय कौतुकाय, मधुपानजनितानन्दलाभायेत्यर्थः, उत्कः उत्सुकैः, अन्यत्र-दमयन्तीसहितनलदर्शनार्थ साग्रहविस्मयेन, उत्कैः उत्सुकैः, अलिभिः मधुकरैरिव, नगरे तैः संरक्षणाय स्थितैः, ध्रियतेः कर्तरि क्तः / अमात्यरत्नैः मन्त्रिवर्यैः सह, पथि नगरपथे, राजमार्गे इत्यर्थः, समियाय सङ्गतः॥ 123 // ___ इस (पुरोको देखने ) के बाद स्त्री ( दमयन्ती) से मनोहर वे ( नल) कुतूहलसे उत्कण्ठित ( अथवा-जायासहित नल दर्शनके लिए उत्कण्ठित अथवा-जाया..."ऊपर गर्दन उठाये हुए ) नगरमें ( रक्षार्थ ) स्थापित क्रमशः आये हुए श्रेष्ठ मन्त्रियोंसे उस प्रकार मिले, जिस प्रकार (गुलाब-चम्पा आदि ) पुष्पोंकी शोभासे युक्त तथा मनोहर वसन्त ऋतु क्रमशः ( पशि बद्ध तू होकर ) आये हुए कौहलसे (या पुष्परसपानके आनन्द-लमा
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________________ 1022 नैषधमहाकाव्यम् / लिए उत्कण्ठित ) भ्रमरोंसे मिलता है। [ स्वयंवरमें जाते समय नगररक्षार्थ नियुक्त और उनके लौटनेपर स्त्रीसहित नलको देखने के कौतूहलसे उत्कण्ठित श्रेष्ठ मन्त्रिगण नलकी अगवानी करने के लिए आये तो उनसे नलका मिलाप हुआ ] // 123 // कियदपि कथयन् स्ववृत्तजातं श्रवणकुतूहलचनलेषु तेषु / कियदपि निजदेशवृत्तमेभ्यः श्रवणपथं स नयन् पुरी विवेश / / 124 / / कियदिति / सः नलः, श्रवणकुतूहलेन स्वयंवरवृत्तान्तश्रवणकौतूहलेन, चञ्चलेषु व्यग्रेषु, तेषु अमात्येषु विषये, स्ववृत्तजातं स्वचरितसमूहम्, इन्द्रादीनां दौत्यादि। रूपं मुख्यं कर्मसमूहमित्यर्थः, कियत् अपि स्तोक, सङ्क्षपेण इत्यर्थः, कथयन् वर्णयन्, तथा निजदेशवृत्तं स्वराष्ट्रवृत्तान्तम्, एभ्यः अमात्येभ्यः सकाशात्, कियत् अपि किञ्चित् , श्रवणपथं श्रुतिमार्ग, नयन् प्रापयन् , शृण्वन् इत्यर्थः, पुरी नगरं विवेश प्रविष्टवान् // 124 // ( स्वयंवर-वृत्तान्तको ) सुननेके कुतूहलमें चञ्चल उन ( मन्त्रियों ) से अपने समाचारसमूह ( पाठा०-स्वयंवरमें हुए समाचार ) को कुछ अर्थात् संक्षेपमें ( इन्द्रादिका दूत बनना तथा उनका कपटरूप धारण करना आदि मुख्य-मुख्य समाचार ) कहते हुए और इन (मन्त्रियों) से अपने देशके समाचारको कुछ अर्थात् मुख्य-मुख्य सुनते हुए वे नल पुरीमें प्रवेश किये। [ स्वयंवर के समाचारको सुनने के लिए कौतूहलवश वे मन्त्रिगण बहुत चन्नल हो रहे थे, अत एव उनको अपना मुख्य-मुख्य कुछ समाचार कहते तथा अपने देशका कुछ समाचार उससे सुनते हुए नलने राजधानीमें प्रवेश किया। बाहरसे आनेवालोंसे वहांके समाचार सुननेका कौतुक वहां नहीं गये हुए लोगोंमें होना और बाहरसे लौटे हुए व्यक्तिका अपने देशके समाचार सुननेकी इच्छा होना और परस्परमें एक दूसरेसे संक्षिप्त कहतेसुनते नगरमें प्रवेश करना लोक व्यवहार में भी देखा जाता है ] // 124 // अथ पथि पथि लाजैरात्मनो बाहुवल्लीमुकुलकुलसकुल्यैः पूजयन्त्यो जयेति / क्षितिपतिमुपनेमुस्तं दधाना जनानाममृतजलमृणालीसौकुमार्य कुमार्यः / / अथेति / अथ पुरप्रवेशानन्तरं पथि पथि प्रतिमार्गम्, अमृतजलस्य सुधोदकस्य, या मृणाली मृणालम्, अमृतजलोत्पन्ना या बिसतन्तुरित्यर्थः, तद्वत् सौकुमार्य कोमलतां, दधानाः धारयन्त्यः, कोमलाङ्गयः इत्यर्थः, कुमार्यः अविवाहिता नार्यः, आत्मनः स्वस्य, बाहुवल्लीनां भुजलतानां, मुकुलकुलसकुल्यैः कुड्मलोत्करतुल्यैः, लाजैः भृष्टधान्योद्भवः, जय विजयीभव, इति जयशब्दपूर्वमित्यर्थः, पूजयन्त्यः सत्यः, जनानां समागतलोकानां मध्ये, तं क्षितिपतिं नलम्, उपनेमुः उपतस्थिरे इत्यर्थः॥ इस ( पुरीमें प्रवेश करने ) के बाद प्रत्येक मार्गमें अमृतजलोत्पन्न बिसतन्तु ( मृणालकमलनाल ) को सुकुमारताको धारण करती हुई अर्थात् उक्त मृणालके समान कोमल 1. 'कथयनमुन्न जातम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ षोडशः सर्गः। 1023 कुमारियों ( अविवाहित कन्याओं ) ने अपनी बाहुलतारूपी कोरक-समूहके समान खीलोंसे 'विजयी होबो' ऐसा कहकर पूजा करती हुई लोगोंके बीचमें नलका सत्कार किया। ( अथवा धारण करती हुई लोगोंकी कन्याओंने पूजन करती हुई नलको नमस्कार किया ) / [ मार्ग में कुमारियों द्वारा खील बिखेरना मङ्गल-सूचक माना गया है ] // 125 // अभिनवदमयन्तीकान्तिजालावलोकप्रवणपुरपुरन्ध्रीवक्त्रचन्द्रान्वयेन / निखिलनगरसौधाट्टावलोचन्द्रशालाःक्षणमिव निजसंज्ञां सान्वयामन्वभूवन्॥ __ अभिनवेति / अभिनवायाः नवीनायाः, सद्यः समागतायाः इत्यर्थः / दमयन्त्याः भैम्याः, कान्तिजालस्य लावण्यराशेः अवलोकप्रवणानां दर्शनतत्पराणां, पुरपुरन्ध्रीणां पौराङ्गनानां, वक्त्रचन्द्रः, मुखेन्दुभिः, अन्वयेन योगेन, निखिलासु समग्रासु, नगरे पुरे, सौधाटावलीषु सुधाधवलिताहालकपतिषु, प्रासादोपहितनगरगृहश्रेणीषु इत्यर्थः। याः चन्द्रशालाः शिरोगृहाणि ताः, 'चन्द्रशाला शिरोगृहम्' इति हलायुधः। क्षणं क्षणकालं, तन्मुखचन्द्रयोगकालमात्रमिति भावः। निजां स्वां, संज्ञा नाम, चन्द्रशालाभिधानमित्यर्थः। सान्वयाम् अनुगतार्था, चन्द्राणां सम्बन्धिन्यः चन्द्रयुक्ता वा शाला इत्येवं सार्थामित्यर्थः / अन्वभूवन् अनुभूतवत्य इव // 126 // नयी दमयन्तीके कान्ति-समूहको देखनेमें तत्पर नारियों के मुखचन्द्रों के सम्बन्ध (संयोग) से सम्पूर्ण नगरके महलों ( प्रासादों ) की अट्टालिकाओंकी चन्द्रशालाओं ( छतों ) ने क्षणभर ( जबतक वे स्त्रियां वहां रहीं तब तक अर्थात् थोड़े समयतक ) सार्थक ('चन्द्रोंकी शालाएँ अथवा-चन्द्रयुक्त शालाएँ ऐसे अन्वर्थ) अपने नामोंको पा लिया। [ नवोढा दमयन्तीकी सुन्दरता देखने के लिए स्त्रियोंसे अटारियोंके छत ठसा-ठस भर गये ] // 126 // 'नषधनृपमुखेन्दुश्रीसुधां सौधवातायनविवरगरश्मिश्रेणिनालोपनीताम् / पपुरतुलपिपासापांशुलत्वोपरागान्यखिलपुरपुरन्ध्रोनेत्रनीलोत्पलानि // 127 / / निषधेति / अतुलया निरुपमया, अतिप्रबलयेत्यर्थः / पिपासया पानेच्छया, दर्शनलालसयेत्यर्थः। यत् पांशुलत्वं कलुषितत्वं, परपुरुषदर्शनाग्रहेण पापवासनावत्त्वमित्यर्थः। तत् एव उपरागः दुर्नयो व्यसनं वा येषां तादृशानि , 'उपरागस्तु पुंसि स्याद् राहुप्रासेऽर्कचन्द्रयोः। दुर्नये ग्रहकल्लोले व्यसनेऽपि निगद्यते।' इति मेदिनी। अखिलपुरपुरन्ध्रीणां समस्तपौराङ्गनानां, नेत्राणि चक्ष षि एव, नीलोत्प. लानि इन्दीवराणि, सौधवातायनविवरैः अट्टालिकागवाक्षरन्]ः, गच्छन्ति बहिनिःसरन्तीति तेषां सौधवातायनविवरगाणां, रश्मीनां, नयनप्रभाणां, श्रेणिभिः पतिभिः, एव, नालः सच्छिद्रेन्दीवरदण्डरूपनाडीविशेषः, उपनीताम् आकृष्टां, नेत्रसमीपं प्रापितामित्यर्थः। निषधनृपस्य नलस्य, मुखेन्दुश्रीसुधां मुखचन्द्रशोभामृतं, पपुः पीतवन्तः। साग्रहम् अद्राक्षुः इत्यर्थः // 127 // अत्यधिक प्यास ( नलको देखनेकी उत्कटेच्छा ) से उत्पन्न पशुलतारूपी दुर्नय ( पर
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________________ 1024 नैषधमहाकाव्यम् / पुरुष-दर्शनाग्रहसे पापवासनाभावरूपी दुर्व्यसन / पक्षा-शुष्ककण्ठमें ऊपर निकले हुए पराग-धूलि या-मकरन्द ) वाले समस्त नगरनारियोंके नेत्ररूपी नील-कमलोंने महलोंकी खिड़कियों के बिल में पहुँचती हुई किरणों की पंक्तिरूप कमलनालसे समीपमें प्राप्त ( लायी गयी ) निषध-राज (नल ) के मुखचन्द्रकान्तिरूपिणी अमृतका पान किया अर्थात् अच्छी तरह देखा / [ अतिशय प्यासे हुए व्यक्तिका कण्ठ सूख जाता है और उसके मुखके बाहर धूल-सी निकलने लगती है तो वह पानीके एकाएक पीनेपर कलेजा लगनेका भय होने के कारण कूप आदिके पानीको छिद्रसहित नलीसे धीरे-धीरे पीता है, वैसे ही स्त्रियोंने गवाक्षके बिलोंमें प्रविष्ट करते हुए किरण-समूहरूपी नालियोंसे नलके मुखकान्तिरूपी अमृतको पीया / कुमारियोंका समीप जाकर तथा पुरन्धियोंका गवाक्षों (खिड़कियों ) के बिलोंसे कनखी मात्रसे देखना अत्यन्त उचित ही है ] // 127 // अवनिपतिरथोर्ध्वणपाणिप्रबालस्खलितसुरभिलाजव्याजभाजःप्रतीच्छन्। उपरि कुसुमवृष्टीरेष वैमानिकानामभिनवकृतभैमीसौधभूमि विवेश / / 18 / / ___ अवनीति / अथ पुरप्रवेशानन्तरम् , एषः अयम् , अवनीपतिः भूपालः ऊर्चेषु उपरिगृहेषु, ये स्त्रैणाः स्त्रीसमूहाः। 'स्त्रीपुंसाभ्यां नमसुञो' इत्यादिना नजप्रत्ययः। तेषां पाणिप्रवालेभ्यः करकिसलयेभ्यः, स्खलिताः पतिताः, ये सुरभयः सुगन्धयः, लाजाः अक्षताः, तव्याजं तच्छलं, भजन्ते आश्रयन्तीति तद्भाजः, वैमानिकानां विमानैः चरतां देवानाम् / 'चरति' इति ठक् / उपरिष्टात् कुसुमवृष्टीः, पुष्पवर्षणमिव लाजवृष्टीरिति भावः / प्रतीच्छन् स्वीकुर्वन् , अभिनवकृतां प्रत्यग्रनिर्मितां, भैम्याः दमयन्त्याः , सौधभूमि प्रासाददेशं, विवेश प्रविष्टवान् // 128 // इस ( पुरीमें प्रवेश करने ) के बाद ये राजा नल ऊपरमें (पाठा०-वे राजा ( नल) राजमार्ग अर्थात मुख्य सड़ककी अट्टालिकाओंपर बैठे हुए स्त्री-समूहके हस्तपल्लवसे गिरती तथा सुगन्धित खीलों के व्याज ( छल ) को धारण करती हुई विमानगामी ( देवों ) की पुष्पवृष्टियोंको (शिरके ) ऊपरमें ( सादर ) स्वीकार करते हुए दमयन्तीके लिये नये बनाये गये महलके ऊपरी भूमि ( ऊपरके भाग) में प्रवेश किया। [शुभ शकुनके लिए कन्याओंद्वारा हाथरूप पल्लवोंसे गिरायी जाती हुई खीलोंको शुक्लवर्ण होने तथा ऊँचेसे गिरने तथा पल्लवों से पुष्पोंका गिरना उचित होनेसे पुष्पवृष्टि होना माना गया है ] // 128 // इति परिणामत्थं यानमेकत्र याने दरचकितकटाक्षप्रेक्षितञ्चानयोस्तत् / दिवि दिविषदधीशाः कौतुकेनावलोक्य प्रणिदधुरंथ गन्तुं नाकमानन्दसान्द्राः।। इतीति / दिविषदाम् अधीशाः देवाः, दिवि आकाशे, स्थित्वेति शेषः / अनयोः दमयन्तीनलयोः, इति एवंविध, परिणयं विवाहम् , इस्थम् उक्तप्रकारेण, एकत्र 1. 'रिख' इति पालन्तरम्।
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________________ षोडशः सर्गः1 1025 एकस्मिन् , याने रथे, यानं यात्रां, तथा तत् पूर्वोक्तं, दरचकितम् ईषत् सभयं, परस्परदृष्टिमेलनभयादिति भावः / कटाक्षप्रेक्षितम् अपाङ्गवीक्षणञ्च, कौतुकेन कुतूहलेन, अवलोक्य दृष्ट्वा, अथ भैमीनलयोः सोधप्रवेशानन्तरम् , आनन्दसान्द्राः आनन्दः पूर्णाः सन्तः, नाकं स्वर्गलोकं, गन्तुं प्रयातुं, प्रणिदधुः चिन्तयामासुः // 129 // देवोंके स्वामी (इन्द्रादि चारों देव) आकाशमें (ठहरकर ) इन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) के इस प्रकार विवाहको, इस प्रकार ( 16 / 113-127 ) एक रथमें गमनको और इस प्रकार ( 16 / 123) अचकित कटाक्षसे देखनेको कौतुकपूर्वक देखकर परमानन्दित हो इस ( उनके पूर्वोक्त कार्योको देखने ) के बाद पाठा०-मानों) स्वर्गको जानेके लिए विचार किये। [ 'प्रणिदधुरिव' इस पाठान्तरमें-देवोंने नवदम्पतीका उक्त कार्यकलाप देखकर आनन्दसे अतिशय हर्षित हो स्वर्गको जानेके लिए विचार-सा किया, वास्तविकमें उन्हें छोड़कर जानेकी इच्छा देवोंको नहीं होती थी, यह सूचित होता है। यद्यपि पहले ( स्वस्यामरैः"१४ 99 ) देवोंके स्वर्ग जाने का वर्णन किया गया है, तथापि उक्त देव स्वयंवर स्थानको छोड़कर दमयन्ती तथा नलके विवाहसे लेकर अबतक (16 / 128) के कार्यकलापको आकाशमें विमानपर बैठकर देखते रहे, यह 'दिवि ( आकाशमें )' पदसे सूचित होता है, अतः पूर्वापर कोई भी विरोध नहीं है। अथवा-नलने नववधू दमयन्तीके साथ नगरमें प्रवेश किया ओर इन्द्रादिदेव स्वर्गको गये तथा मार्गमें कलिसे उन देवोंका उत्तरप्रत्युत्तर हुआ, इस अग्रिम (सत्रहवें ) सर्गके प्रसङ्ग को सूचित करनेके लिए देवोंके स्वर्ग जानेका पुनः वर्णन किया गया है, जिससे अग्रिम (सत्रहर्वे) सर्गमें वक्ष्यमाण नल तथा कलिका परस्पर द्वेषारम्भ अप्रस्तुत न मालूम पड़े, अन्यथा कविसमयविरुद्ध होनेसे यह महा. काव्य सदोष कहा जायेगा] // 129 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / काश्मीरैर्महिते चतुर्दशतयी विद्यां विदद्भिर्महा काव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत् षोडशः // 130 // श्रीहर्षमिति / चतुर्दशतयों चतुर्दशावयवां, चतुर्दशविधाम् ‘इत्यर्थः। 'सङ्ख्याया अवयवे तयप्' इति तयप / 'टिड्ढाणजद्वयसदनअमात्रचतयपठकठक्करपः' इत्यादिना ङीप् / विद्यां विदद्भिः ज्ञानिभिः, काश्मीरैः काश्मीरदेशीयः, विद्वद्भिरिति शेषः / महिते पूजिते / तद्भुवि श्रीहर्षोत्पन्ने, तद्विरचिते इत्यर्थः / षोडशानां पूरणः - षोडशः / 'पूरणे डट्' इति डट् / गतमन्यत् // 130 // इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु' समाख्याने षोडशः सर्गः समाप्तः // 16 //
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________________ 1026 नैषधमहाकाव्यम् / कवीश्वर-समूहके.........किया, उसके रचित चौदह' विद्याओंको जाननेवाले अर्थात् सरस्वतीदेवीके जागरूक अधिष्ठानभूत कश्मीर देशमें उत्पन्न विद्वानोंसे पूजित' अर्थात् लेशमात्र भी दोषसे रहित और समस्त गुणसमूहोंसे पूर्ण नैषधीय अर्थात् नल ( पाठा०-राजा नल ) के चरित महाकाव्यमें षोडश सर्ग पूरा हुआ / ( शेष व्याख्या चतुर्थसर्गवत् समझनी चाहिये।) यह 'मणिप्रभा टीकामें 'नैषधचरित' का षोडश सर्ग समाप्त हुआ // 16 // सप्तदशः सर्गः। अथारभ्य वृथाप्रायं धरित्रीधावनश्रमम् / सुराः सरस्वदुल्लोल-लीला जग्मुर्यथाऽऽगतम् / / 1 // - अथेति / अथ स्वर्गलोकजिगमिषानन्तरं, नलदमयन्त्योः सौधप्रवेशानन्तरं वा, सुराः इन्द्रादयः, धरित्रीधावनश्रमं पृथिव्यामागमनायासं, वृथाप्रायं व्यर्थमिव, दम. यन्त्यलाभेऽपि नलदमयन्तीवरदानजन्यात्मगौरवरक्षणात् प्रायशब्दप्रयोगः, न तु सर्वथा वृथैवेति बोध्यम् / आरभ्य कृत्वा, मवेति यावत् , सरस्वदुल्लोलानां समुद्र महोर्माणां, लीला इव लीला येषां तथाभूताः सन्तः, यथाऽऽगतं यस्मादागतं तत्रैव इत्यर्थः। जग्मुः प्रतस्थिरे। सागरतरङ्गाः यथा वृथैव तट धाविस्वा व्यावर्त्तनेन यथाऽऽगतं गच्छन्ति तद् देवा अपि गता इत्यर्थः। दमयन्तीमलब्ध्वैव प्रत्यावृत्ता इति तात्पर्यम् // 1 // इस (स्वर्गलोकको जानेका विचार करने, या-नल-दमयन्तीको नवीन महलमें प्रवेश करने ) के बाद पृथ्वीपर दौड़ने अर्थात् जानेका व्यर्थ-सा परिश्रम करके समुद्रके तरङ्गतुल्य देव (इन्द्रादि चारों देव.) जैसे आये थे, वैसे चले गये। [ जिस प्रकार समुद्रका तरङ्ग तटको जाकर व्यर्थ ही ज्योंका त्यो वापस चला जाता है, उसी प्रकार देवलोग भी व्यर्थप्राय ही पृथ्वीपर आकर दमयन्तीको विना प्राप्त किए स्वर्गको वापस चले गये / दमयन्ती की स्तुतिसे प्रसन्न होकर नलको पतिरूपमें वरण करनेकी आशा देनेसे देवोंको मानरक्षा हो गयी, अन्यथा दमयन्तीको प्राप्त नहीं करनेसे देवोंको मर्यादा ही नष्ट हो जाती, अब उसके सुरक्षित रह जानेसे पृथ्वीका गमन करना सर्वथा व्यर्थ नहीं हुआ, इसी कारण 'प्रायः' शब्दका प्रयोग है ] // 1 // 1. मनुनोक्ताश्चतुर्दश विद्याः. . . 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणञ्च विद्यास्त्वेताश्चतुर्दश // इति / 2. एतदर्थ ग्रन्थस्यास्यैव भूमिका द्रष्टम्या।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1027 भैमी पत्ये भुवस्तस्मै चिरं चित्ते धृतामपि / विद्यामिव विनीताय न विषेदुः प्रदाय ते // 2 // . भैमीमिति / ते देवाः, चिरं दीर्घकालं, चित्ते मनसि, धृतां स्थापितामपि, आका. डितामपीत्यर्थः, अभ्यस्तामित्यर्थश्च / भैमी दमयन्ती, भुवः पत्ये भूपतये, तस्मै नलाय, विनीताय विनययुक्ताय शिष्याय, विद्याम् इव ज्ञानमिव, प्रदाय दत्त्वा, न विषेदुः नानुतापं जग्मुः। न हि महान्तो दत्त्वाऽनुतापिनः, न च तेषामदेयमस्ति इति भावः // 2 // वे (इन्द्रादि चारों देव ) चिरकालसे चित्तमें धारण की गयी अर्थात् चिराभिलषित भी दमयन्तीको उस भूपति ( नलके लिए ) देकर उस प्रकार विवाह नहीं किये; जिस प्रकार विनीत (शिष्य ) के लिए मनमें चिराभ्यस्त विद्याको देकर गुरु विषाद नहीं करता / [ बड़े लोग देकर पश्चात्ताप नहीं करते और उनको अदेय कुछ नहीं है, अर्थात् वे सभी कुछ दे सकते हैं / अथवा-जिस प्रकार गुरु चिराभ्यस्त विद्याको विनीत शिष्यके लिए देकर अनुताप नहीं करता, तथा वह विद्या भी उनके मनसे नहीं जाती; उसी प्रकार उस दमयन्ती को उन देवोंने विनीत नलके लिए देकर अनुताप नहीं किया, किन्तु वह सद्गुणयुक्त होनेसे उनके चित्तसे नहीं निकली (भूली ) ] // 2 // कान्तिमन्ति विमानानि भेजिरे भासुराः सुराः। . स्फटिकाद्रेस्तटानीव प्रतिबिम्बा विवस्वतः / / 3 // - क्रान्तिमन्तीति / विवस्वतः अर्कस्य, प्रतिबिम्बाः प्रतिच्छायाः, सूर्यस्यैकत्वेऽपि तटभेदेन प्रतिबिम्बाना बहुस्वं बोध्यम् ; स्फटिकाद्रेः कैलासस्य, तटानि भृगुप्रदेशा इव, भासुराः तैजसमूर्तयः, सुराः इन्द्रादयः, कान्तिमन्ति समुज्ज्वलानि, विमानानि व्योमयानानि, भेजिरे आरुरुहुरित्यर्थः / एतेन विमानानां तदधिष्ठातृणाञ्च अतितेज. स्वित्वमुक्तम् // 3 // तेजस्वी देवलोग ( रत्नादिके ) कान्तिवाले विमानोंको उस प्रकार प्राप्त किये ( चढ़े ), जिस प्रकार सूर्यके देदीप्यमान प्रतिबिम्ब कैलास पर्वतके तटको प्राप्त करते हैं। [इससे विमानों तथा विमानारूढ देवोंका भतिशय तेजस्वी होना सूचित होता है और प्रतितटपर प्रतिबिम्बित होनेसे विमानकी अधिकता प्रतीत होती है ] // 3 / / जवाजातेन वातेन बलाकृष्टबलाहकैः। ....... श्वसनात् स्वस्य शीघ्रत्वं रथै रेषामिवाकथि // 4 // 3. जवादिलि / जवात् निजवेगात् , जातेन समुस्थितेन, वातेन वायुना, बलात् भाकृष्टाः आविमा, बलाहकाः मेघाः मै ताइशैः, एषाम् इन्द्रादीनां रथैः विमानैः, स्वस्य आत्मनः, श्वसनाद् वायोरफि शीघ्रत्वं स्वरितगामित्वम् , अकथि अवादि
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________________ 1028 नैषधमहाकाव्यम् / इव, इत्युत्प्रेक्षा। स्ववेगजन्यवायोः स्वपश्चादत्तितया स्थानान्तु पुरोवर्तितया वाय्व. पेक्षया सुतरां शीघ्रगामित्वमिति भावः / कथेश्चौरादिकात् कर्मणि लुङ्, मित्त्वात् हस्वत्वम् // 4 // ( अपने ) वेगसे उत्पन्न हवासे बलपूर्वक मेघोंको आकृष्ट करनेवाले इन ( इन्द्रादि देवों) के रथोंने मानों वायुसे अपनी गतिको शीघ्र बतलाया। [ अपनेसे उत्पन्न वायुका बादमें तथा रथके आगे चलनेसे उक्त वायुकी अपेक्षा रथको गति तीव्र सूचित होती है ] / / 4 / / क्रमाद्दवीयसां तेषां तदानीं समदृश्यत / स्पष्टमष्टगुणैश्वर्यपर्यवस्यन्निवाणिमा // 5 // क्रमादिति / क्रमात् अनुक्रमात् , आनुपूर्व्या इत्यर्थः। उत्तरोत्तरं गमनादिति यावत् , 'क्रमश्चानुक्रमे शक्ती कल्पे चाक्रमणेऽपि च' इति मेदिनी। दवीयसां दवि. ठानां, दूरवर्तितराणामित्यर्थः / दूरशब्दादीयसुनि 'स्थूलदूर-'इत्यादिना यणादि. परलोपः पूर्वगुणश्च / तेषाम् इन्द्रादीनां, तदानीं दूरवर्त्तित्वभवनकाले, अणिमा अणुत्वम् , अष्टविधेषु ऐश्वर्येषु प्रथमोक्तैश्वर्यविशेष इत्यर्थः / अष्टगुणम् अणिमाद्यष्टगुणात्मकं, यत् ऐश्वयं वैभवं, निग्रहानुग्रहसामर्थ्यमिति यावत् / तस्मात् तन्मध्यात् इत्यर्थः। पर्यवस्यन् इव परिशिष्यमाण इव, लघिमादिसप्तविधात् पृथग्भूत इव इत्यर्थः / स्पष्टं व्यक्तं, समदृश्यत सन्दृष्टः। दूरे अणुत्वेन अवभाषादियमुस्प्रेक्षा // 5 // उस समय क्रमशः दूरस्थ उन ( देवों ) की अणिमा ( सूक्ष्मता, पक्षा०-आठ ऐश्वर्यो में से प्रथम ऐश्वर्य) आठ गुणैश्वर्यसे पृथग्भूत-सी दृष्टिगोचर हुई। [ दूर होती हुई वस्तु क्रमशः सूक्ष्म दृष्टिगोचर होती है / उन देवोंका आठ गुणैश्वर्यों से अणिमा नामक प्रथम ऐश्वर्य ही उस समय दृष्टिगोचर होता था / अथवा-उन रथोंको अणिमा (सूक्ष्मता) / इस अर्थमें देवों के सम्बन्धसे उन रथों में भी 'अणिमा' नामक ऐश्वर्य आ गया था ] // 5 // ततान विद्युता तेषां रथे पीतपताकताम् / लल्धकेतशिखोल्लेखा लेखा जलमुचः कचित् / / 6 // ततानेति / क्वचिद् गगनस्य कुत्रापि प्रदेशे, जलमुचः मेघस्य, लेखा श्रेणी, अब्धः प्राप्तः, केतुशिखाभिः ध्वजाः, उल्लेखो विदारणं यस्याः सा ताहशी सती, तेषाम् इन्द्रादीनां, रथे स्यन्दने, विद्यता तडिता करणेन, पीताः पीतवर्णाः, पताकाः ध्वजा येषां तेषां भावः तत्ता तां, ततान विस्तारयामास / ध्वजदण्डामोल्लेखने. नोत्थाः तडितो रथेषु पीतपताकाः इव रेजुरित्यर्थः // 6 // .. कहींपर ( आकाशके किसी भागमें ) ध्वजाग्रसे विदीर्ण मेघश्रेणिने उन (इन्द्रादि देवों) के रथपर बिजलीसे पीली पताकाको फैला दिया / [ आकाशमें जाते हुए देवों के रथके ऊपर लगी हुई ध्वजाके अग्रभागको रगड़से विदीर्ण हुई मेवपङ्किसे उत्पन्न विजली उम रथोंकी ध्वजाओंपर पीले कपड़ेको पताकाके समान प्रतीत हुई ] // 6 //
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1026 पुनः पुनर्मिलन्तीषु पथि पाथोदपङ्क्तिषु / नाकनाथरथालम्बि बभूवाभरणं धनुः / / 7 / / पुनः पुनरिति / नाकनाथरथालम्बि इन्द्रस्यन्दनस्थं, धनुः चापः, पथि गगन. मार्गे, पुनः पुनः वारं वारं, मिलन्तोषु संसज्यमानासु, पाथोदानां मेघानां, पङ्क्तिषु श्रेणीषु, आभरणं भुषणं, बभूव सञ्जज्ञे यद्यत् मेघवृन्दं रथेन सङ्गच्छते धनुः तस्य तस्य आभरणं बभूव इत्यर्थः / पूर्व कृत्रिमेन्द्रधनुर्योगः अद्य मुख्येन्द्रधनुर्योगो लब्धः इति भावः। अत्र ताशासम्बन्धे सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिरलङ्कारः॥७॥ स्वर्गाधीश (इन्द्र ) के रथपर स्थित धनुष (इन्द्रधनुष ) मार्ग ( आकाश ) में बारबार सम्बद्ध होती हुई मेघपतियोंमें उन ( मेघपतियों, अथवा-उस इन्द्ररथ ) का क्षणमात्र भूषण बन गया। [ पहले मेघपतियोंका कृत्रिम इन्द्रधनुषसे सम्बन्ध होता था, किन्तु इस समय वास्तविक इन्द्रधनुषसे सम्बन्ध हुआ, अतएव वे शोभने लगी ] // 7 // जले जलदजालानां वञिवनानुबिम्बनैः। जाने तत्कालजैस्तेषां जाताऽशनिसनाथता // 8 // जले इति / जलदजालानां मेघवृन्दानां, जले वारिणि, तत्कालजैः इन्द्रादिगमनकालजातैः, वज्रिवज्रस्य इन्द्रकुलिशस्य, अनुबिम्बनः, प्रतिबिम्बैः, तेषां जलदजालानाम् , अशनिसनाथता वज्रसाहित्य, वज्रयुक्तस्वमित्यर्थः / जाता सम्भूता, जाने इति मन्ये, इत्युत्प्रेक्षायाम् // 8 // मेघ-समूहके जलमें उस (इन्द्र-गमन) समयमें उत्पन्न इन्द्रके वज्रके प्रतिबिम्बोसे उन ( मेघ-समूहों ) की वज्रसनाथता हुई अर्थात् तभीसे मेघ वज्रयुक्त हुए ऐसा मैं मानता हूं // 8 // स्फुटं सावर्णिवंश्यानां कुलच्छत्रं महीभुजाम् / चक्रे दण्डभृतश्वम्बन दण्डश्चण्डरुचिं कचित् / / 6 / / स्फुटमिति / क्वचित् कुत्रचित् प्रदेशे, दण्डभृतः यमस्य, दण्डः अस्त्रविशेषः, चण्डरुचिं सूर्य, चुम्बन सूर्यमण्डलं स्पृशन् इत्यर्थः / सावर्णिः सूर्यपुत्रः अष्टमो मनुः, तद्वंश्यानां मनुवंशजानां, महीभुजां राज्ञां, कुलस्य वंशस्य, छत्रम् आतपत्रं, चक्रे विदधे / स्फुटमित्युस्प्रेक्षायाम् / अधःप्रदेशे दण्डसंयोगात् अर्कमण्डलंतवंश्यराजकुलस्य उद्धृतं छत्रमिव बभौ इत्यर्थः / इन्द्रादया क्रमात् मेघपथमतीव्य सूर्यमण्डलं प्राप्ता इति तात्पर्यम् // 9 // ____कीपर ( आकाशके किसी प्रदेशमें ) सूर्यको स्पर्श करता हुआ दण्डधारी ( यमराज ) का दण्ड उस (सूर्य) को सूर्यवंशी राजाओं के कुलचन (कुरुक्रमामत श्वेतच्छत्ररूप चिह्न, पक्षा०-गुलमेष्ठ )- कर दिया। [सूबण्डल मीचे स्थित यमरामा दण्ड जब देदीप्यमान स्वतापन गोषवार सर्व स्पर्क रखा था तो वह इण्डष्ट-श्वेतच्छा-सा
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________________ 1030 नैषधमहाकाव्यम् / शोभता था, उसीको कविने उत्प्रेक्षा की है कि सूर्यवंशी राजाओंका श्वेतच्छत्र-सा हुआ। सब इन्द्रादि देव सूर्यमण्डलमें पहुंच गये ] // 9 // नलभीमभुवोः प्रेमिण विस्मिताया दधौ दिवः / पाशिपाशः शिरःकम्पलस्तभूषश्रवः श्रियम् / / 10 // नलेति / पाशिनः वरुणस्य, पाशः वलयाकारपाशास्त्रं, नलभीमभुवोः नलभैम्योः प्रेरिण अन्योऽन्यानुरागे विषये, विस्मितायाः विस्मयाविष्टायाः,दिवः नभसः, शिरःकम्पेन मस्तकचालनेन, स्वस्तभूषस्य गलितावतंसस्य, श्रवसः श्रोत्रस्य, श्रियं शोभां, दधौ धारयामास / अत्र श्रियमिव श्रियमिति सादृश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः // 10 // वरुणका पाश ( अस्त्र विशेष ) नल तथा दमयन्तीके प्रेम ( के विषय ) में आश्चर्यित आकाशके शिरकंपानेसे गिरे हुए भूषणवाले कानकी शोभाको प्राप्त किया अर्थात् उसके ताटङ्करहित कानके समान वरुणपाश शोमता था // 10 // पवनस्कन्धमारुह्य नृत्यत्तरकरः शिखी। अनेन प्रापि भैमीति भ्रमञ्चक्रे नमःसदान् // 11 // आरुह्य अधिष्ठाय, नृत्यत्तराः अतिशयेन नृत्यन्तः, वायुवेगेन अत्यथं चञ्चला इत्यर्थः / कराः अंशवः हस्ताश्च यस्य सः तादृशः 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः। शिखो अग्निः,नभासदां खेचराणाम् , अनेन अग्निना, भैमी दमयन्ती, प्रापि प्राप्ता, अन्यथा कथमेतज्जम्भणमिति भावः / इति एवं, भ्रमं चक्रे भ्रान्ति जनयामास इत्यर्थः // 11 // . वायुके ( ताराचक्राधारभूत ) कन्धेपर चढ़कर अत्यन्त ऊपर उठती हुई ज्वाला ( पक्षा०-नाचते हुए हाथ ) वाली अग्नि 'इस ( अग्नि ) ने दमयन्तीको पा लिया' ऐसा भ्रम देवताओंको पैदा कर दिया / [ अग्निकी ऊपर उठती हुई ज्वालाओंको देखकर आकाशगामी देवोंको भ्रम हो रहा था कि 'इसने दमयन्तीको पा लिया है'। अन्य भी कोई व्यक्ति नववधूको पानेसे मित्रके कन्धेपर चढ़कर हाथोंको नचाया करता है। प्रकृतमें-अग्नि ताराचक्राधारभूत वायुके ऊपर चल रहा था और उसकी ज्वालाएं चारो ओर हिलती हुई फैल रही थी तो ऐसा ज्ञात होता था कि अग्नि अपने मित्र वायुके कन्धेपर चढ़कर हस्तस्थानीय भुजाओंको फैलाता हुआ नृत्य कर रहा है। ] // 11 // तत्कौँ भारती दूनौ विरहाद् भीमजागिराम् / अध्वनि ध्वनिभिर्वैगैरनुकल्पैव्य॑नोदयत् // 12 // . तदिति / भारती सरस्वती, भीमजागिरां दमयन्तीवचनाना, विरहात् अभावात् अश्रवणादिति यावत् / दूनी परितप्तौ, तेषां देवानां, कर्णौ श्रवणौ, अध्वनि आकाशमार्गे, अनुकल्पैः भैमीगिरां सदृशैः, तदपेक्षया हीनगुणैरित्यर्थः / कुशाभावे काशवत् प्रतिनिधिमिरिति भावः / 'मुख्यः स्यात प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु, ततोऽधमः' इत्य
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1031 मरः / वैणैः वीणासम्बन्धिभिः 'तस्येदम्' इत्यण् / ध्वनिभिः शब्दः, व्यनोदयत्, विनोदितवती // 12 // ___ सरस्वती देवीने दमयन्तीके वचनों के विरहसे सन्तप्त उन ( इन्द्रादि देवों ) के कानोंको ( दमयन्तीके वचनोंसे ) कुछ कम वीणास्वरोंसे मार्गमें विनोदित किया / ( बहलाया)। [ दमयन्तीके वचनोंके न सुननेसे उन इन्द्रादि देवों के दोनों कान सन्तप्त हो रहे थे, अतः सरस्वतीने दमयन्तीके वचनोंसे कम मधुर वीणाध्वनियोंसे उनके कानोंको विनोदित किया। लोकमें भी मुख्य वस्तुके अभावमें तत्तुल्य वस्तुसे काम चलाया जाता है; दमयन्तीके वचन सरस्वतीकी वीणाकी ध्वनिसे भी अधिक मधुर थे / सरस्वती देवी वीणा वजाती हुई इन्द्रादि देवों के साथ आकाशमार्गसे जा रही थी] // 12 // अथाऽऽयान्तमवैक्षन्त ते जनौघमसित्विषम् / .. तेषां प्रत्युद्गमप्रीत्या मिलव्योमेव मूर्तिमत् / / 13 // अथेति / अथ तादृशवाणीवीणाध्वनिश्रवणानन्तरं, ते देवाः, आयान्तम् आगच्छन्तम्, असेः खड्गस्य विट् इव स्विट प्रभा यस्य तादृशम् असिनिभकान्तिम्, असिवत् श्यामोज्ज्वलप्रभमित्यर्थः / जनौघं जनसमाज, तेषां देवानां, प्रत्युद्वमप्रीत्या प्रत्युद्गमनार्थ हर्षेण, मिलत् आगच्छत् , मूर्तिमत् विग्रहवत् , व्योम आकाशमिव, इत्युत्प्रेक्षा, अवक्षन्त अपश्यन् // 13 // ___ इस ( सरस्वती देवीके वीणा बजाने ) के बाद उन लोगों (इन्द्रादि चारों देव तथा सरस्वती देवी ) ने तलवार ( पाठा०-स्याही ) के समान कान्तिवाले (श्यामवर्ण या काले). उन ( चारों देव तथा सरस्वती देवी ) के प्रेमसे अगवानी करनेके लिए शरीरधारी आकाश. के समान आते हुए जन-समूहको देखा // 13 // अद्राक्षुराजिहानं ते स्मरमप्रेसरं सुराः। अक्षाविनयशिक्षार्थ कलिनेव पुरस्कृतम् / / 14 // अदातुरिति / ते सुराः इन्द्रादयः, आजिहानम् आगच्छन्तम्, ओहाङ्गता. विति धातोर्लटः शानजादेशः / अग्रेसरं जनौघपुरोवर्त्तिनम्, अत एव अक्षाणाम् इन्द्रियाणाम, अविनयस्य औद्धत्यस्य, दुर्व्यवहारस्य इत्यर्थः / अन्यत्र-अक्षाणां पाशकानाम्, आ सम्यक, विनयः विनीतता, स्ववशीकरणमित्यर्थः / तस्य 'अक्षो रथस्यावयवे पाशकेऽप्यक्षमिन्द्रिये' इति विश्वः / शिक्षार्थम् अभ्यासार्थ, कलिना कलिपुरुषेण पुरस्कृतं पूजितम्, अग्रतः कृतम् इव स्थितम् इत्यर्थः / स्मरं कामम, अद्रातुः अवालो किषत / हशेलुङि 'इरितो वा' इति विकल्पादभावपक्षे. सिचि वृद्धिः॥१४॥ उन लोगों (इन्द्रादि चारो देवों ) ने आगे-आगे आते हुए द्यूतों (पक्षा०-इन्द्रियों ) 1. 'जनौघं मषीविषम्' इति पाठान्तरम् / .... .........
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________________ 1032 नैषधमहाकाव्यम् / के सम्यक् विनय ( अथवा-अविनय ) की शिक्षाके लिए अर्थात् द्यूतको अपने वशमें करने ( अथवा-यूत-सम्बन्धी अविनय सिखाने ) के लिए कलियुगके द्वारा मानो आगे पूजितसत्कृत ( पक्षा०-आगे ) किये गये कामदेवको देखा / [ कामदेवको इन्द्रियोंको विकृत करने में निपुण होनेसे प्रकृतमें इन्द्रियवाचक 'अक्ष' शब्दके कपटसे द्यूत (जुए ) के विषयमें नलको अविनय सिखाने के लिए पाशोंके द्वारा नलका निग्रह करनेके लिए मानो कलिने उस कामदेवको आगे कर लिया ( या-पूजित किया ) है, ऐसे उस जन-समूहके आगे आते हुए कामदेवको उन इन्द्रादि देवोंने देखा ) // 14 // अगम्यार्थं तृणप्राणाः पृष्ठस्थीकृतभीह्रियः / शम्भलीभुक्तसर्वस्वा जना यत्पारिपाचकाः // 15 // अगम्येति / अगम्यार्थम् अगम्यागमनार्थम् इत्यर्थः। तृणप्राणाः तृणप्रायप्राणा, प्राणान् तृणवत् अविगणय्य अगम्यागन्तार इत्यर्थः, पृष्ठस्थीकृते पश्चाद् देशस्थीकृते, अविगणिते इति यावत् , भीहियो भयलज्जे यैः तादृशाः, लजाभयवर्जिताः इत्यर्थः, शम्भलीभिः कुट्टनीभिः 'कुट्टनी शम्भली समे' इत्यमरः। भुक्तं कवलीकृतमित्यर्थः, सर्वस्वं सर्वधनं येषां तादृशाः, जनाः लोकाः, यस्य स्मरस्य, पारिपार्श्वकाः परिपाववर्तिनः, परिजनाः इत्यर्थः, वयस्या इति यावत् / 'परिमुखञ्च' इति चकारात् ठक्॥ अगम्या ( सम्भोग करने के अयोग्य-रानी, या माता-वहन आदि) के लिए प्राणोंको तृणतुल्य समझनेवाले अर्थात् प्राणोंको तृणतुल्य तुच्छतम समझकर अगम्यागमन करनेवाले, भय तथा लज्जाको पीठ-पीछे किये हुए अर्थात् निर्भय तथा निर्लज्ज और कुट्टनियोंने जिनके सम्पूर्ण धनका भोग कर लिया है ऐसे लोग जिस ( कामदेव ) के पाश्र्ववर्ती ( मित्र या-अनुचर ) थे। ( उस कामदेवको उन देवोंने उस जनसमूहके आगे-आगे-आते हुए देखा) बिभर्ति लोकजिद्भावं बुद्धस्य स्पर्द्धयेव यः / यस्येशतुलयेवात्र कर्तृत्वमशरीरिणः // 16 // बिभर्तीति / यः स्मरः, बुद्धदेवेन जित इति भावः, बुद्धस्य सुगतस्य मारजित इत्यर्थः / सम्बन्धसामान्ये षष्ठी / स्पर्द्धया इव संहर्षणेनेव, जिगीषयेवेत्यर्थः, साम्येन इति वा, बुद्धेन सह शौर्यादिभिः समत्वाकाङ्क्षयेत्यर्थः, 'स्पर्धा संहर्षणेऽपि स्यात् साम्ये क्रमसमुन्नतौ' इति मेदिनी / लोकजिद्भावं सर्वलोकजेतृत्वं, विभर्ति धारयति / 'सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो मारजिल्लोकजिजिनः' इत्यमरोक्तेः / बुद्धस्य सर्वलोकजेतृ स्वादि. भावः / यस्य स्मरस्य, ईशतुलया इव ईश्वरसाम्यापेक्षया इवेत्यर्थः / देहदाहकारीश्वरस्पर्द्धयेवेति यावत्, शरीरं न भवतीति अशरीरि तस्य अशरीरिणः दग्धदेहत्वाद् अनङ्गस्य सतः, अत्र लोके, कर्तृत्वम् एकत्र-जेतृत्वम्, अन्यत्र-स्रष्टत्वम् उपादानादिगोचरापरोक्षज्ञानादिमत्वादेवेश्वरस्य कर्तत्वं शरीरमतन्त्रमिति तार्किकाः / पराभिः भताः तन्मत्सराः तस्साम्याय तद्वत् आचरन्तीति भावः // 16 //
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1033 ( बुद्धदेवसे जीता गया ) जो कामदेव मानों बुद्धदेव (मारजित्-कामविजयी) के साथ स्पर्धासे लोकजिद्भाव संसारको जीतनेका माव धारण करता है तथा (शिवजीके नेत्राग्निमें भस्म हो जानेसे ) शरीर रहित अर्थात् अनङ्ग जिस ( कामदेव ) का इस लोकमें (शरीर रहित ) शिवजी का कर्तृत्व है। [बुद्धदेव 'मारजित्' ( कामदेवविजयी) तथा 'लोकजित्' (संसारविजयी) है, अतः उन बुद्धदेवसे पराजित कामदेव 'मैं भी उस बुद्धदेवके समान ही हो जाऊं' ऐसी उनसे स्पर्धा करके समस्त लोगों पर विजय पाता हुआ 'लोकजित्' बन रहा है और वह कामदेव शिवजीके नेत्रकी अग्निसे भस्म होकर अशरीरी ( अनङ्ग) हो गया है और जिस प्रकार नैयायिकों के मतसे अशरीरी शिवजी ही लोकके स्रष्टा ( सृष्टिकर्ता ) हैं, उसी प्रकार यह कामदेव भी मानो उन (शिवजी ) के साथ स्पर्धा करता हुआ अशरीरी ( अनङ्ग) होकर इस संसार में कामियों के मनोविकार ( या-मैथुन द्वारा सब लोगों के प्रति ) कर्तृत्व धारण कर रहा है / लोक-व्यवहार में भी देखा जाता है कि प्रबल शत्रुसे पराजित व्यक्ति उसकी समानता करनेके लिए उससे स्पर्धा करता हुआ वैसा ही कार्य करता है, इसी प्रकार 'मारजित्' (बुद्धदेव ) 'लोकजित' हैं और शिवजी न्यायसिद्धान्तानुसार अशरीरी होकर सृष्टिकर्ता हैं, उसी प्रकार कामदेव भी क्रमशः 'लोकजित्' तथा 'अनङ्ग' होकर सब लोगोंमें मनोविकार करनेसे सृष्टिकर्ता हो रहा है / बुद्धदेव तथा शिवजीसे जीता गया कामदेव भी 'लोकजित्' होनेसे तथा अशरीरी अर्थात् 'अनङ्ग' होकर सृष्टिकर्ता होनेसे उन दोनों के समान ( अतिशय ) बलवान् है / दूसरेसे पराजित व्यक्तिका वैसे आचरणसे उसकी विजेता की समानता करना उचित ही है ] // 16 // ईश्वरस्य जगत् कृत्स्नं सृष्टिमाकुलयन्निमाम् / अस्ति योऽस्त्रीकृतस्त्रीकस्तस्य वरॅमनुस्मरन् / / 17 / / ( कुलकम् ) ईश्वरस्येति / यः स्मरः, तस्य ईश्वरस्य, वैरं शत्रुताम् , अनङ्गीकरणरूपमित्यर्थः, अनुस्मरन् मनःस्थीकुर्वन् , स्त्रियः न भवन्तीति अस्त्रियः, अ-स्वीकृताः स्त्रियो येन तादृशः सन् , अत्र स्त्रियाः स्त्रोत्वाभावकरणरूपः विरोधः, तत्परिहारस्तु-अस्त्राणि आयुधानि कृतानि इति अस्वीकृताः, अभूततद्भावे च्विः, अस्त्रीकृताः, स्त्रियः येन सः तादृशः अस्वीकृतस्त्रीकः सन् , 'नद्यतश्च' इति कप। ईश्वरस्य इमां स्त्रीपुंसारिमकाम् इत्यर्थः, सृष्टिं निर्माणं, कृत्स्नं जगत् आकुलयन् अस्थिरीकुर्वन् , अस्ति वर्तते / ईश्वरेण या स्त्रीकृता सा अनेनास्त्रीकृता इति ईश्वरप्रतिकूलाचरणेन, तथा ईश्वरेण त्रिपुरासुरवधकाले विष्णोर्मोहिनी मूर्तिरूपा स्त्री शस्त्रीकृता, अनेनापि स्त्रियः शस्त्रीकृता इत्येककार्यकारितया च ईश्वरेण सह स्पर्धामसी अकरोत् इति निष्कर्षः // 17 // स्त्रियोंको अम्नी करनेवाला जो ( कामदेव ) उस (शिवजी ) के वैर ( शरीरदाहकर अनङ्ग बनाना ) को स्मरण करता हुआ (पाठा०-मानों स्मरण करता हुआ) शिबजी की 1. 'वैरं स्मरनिव' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1034 नैषधमहाकाव्यम् / इस सृष्टि समस्त संसारको व्याकुल (पक्षा०-अपने वशीभूत ) करता हुआ वर्तमान है। शिवजीने जिसे स्त्री किया, कामदेव उसे अस्त्री (स्त्री-भिन्न ) करके उनके प्रति स्पर्धा कर रहा है, यहाँ स्त्रीको स्त्रीभिन्न करना विरोध है, उसका परिहार 'कामदेव स्त्रीको अस्त्र बनाया है। ऐसे अर्थसे करना चाहिये। अथवा-त्रिपुरासुरके वधके समय शिवजीने भी मोहिनी-रूपधारी विष्णु को अस्त्र बनाया था, उसी प्रकार यहाँ कामदेव मी स्त्रियोंको अस्त्र बनाकर शिवजीके प्रति स्पर्धा (समानता) कर रहा है। [इस शिवजीने मुझे भस्मकर अनङ्गतक बना दिया, अतः मैं इनकी कोई क्षति करने में समर्थ नहीं होनेसे इनकी बनायी हुई सृष्टि समस्त संसारको ही पीडितकर बदला चुका लूं ऐसी भावनासे कामदेव संसारको स्त्री. रूपी शस्त्रसे पीडित कर रहा है। लोकमें भी यदि कोई प्रबल शत्रुसे बदला नहीं चुका सकता तो उसके आश्रितोंसे ही बदला चुकाकर आत्मसन्तोष करता है ] // 17 // चक्रे शकादिनेत्राणां स्मरः पीतनलश्रियाम् / / अपि देवतवैद्याभ्यामचिकित्स्यमरोचकम् // 18 // चक्रे इति / स्मरः कामः, पीतनलश्रियां पानविषयीकृतनलकान्तीनां, साक्षात्कृत. नलसौन्दर्याणामित्यर्थः / शक्रादिनेत्राणाम् इन्द्रादिचक्षुषां, देवतवैद्याभ्याम् अश्विनीकुमाराभ्यामपि, अचिकित्स्यं चिकित्सितुम् अशक्यं, न 'रोचयते इति अरोचकं रोगविशेष, चक्रे जनयामास, नलरूपदर्शिभ्यः तेभ्यः स्मररूपं न अरोचत . इत्यर्थः / स्मरादपि रमणीयो नल इति भावः // 18 // कामदेवने नलकी.शोभाका पान किये हुए अर्थात नलकी शरीरशोभाको अच्छी तरह देखे हुए इन्द्रादिके नेत्रोंका 'अश्विनीकुमार' नामक स्वर्वैद्योंसे भी अचिकित्स्य (जिसकी चिकित्सा नहीं की जा सके ऐसा अर्थात् ला-इलाज) अरोचक (रुचिका अभाव अथवानहीं रुचने वाला रोग-विशेष ) कर दिया। [ कामकी अपेक्षा अतिशय सुन्दर नलको देख. कर लौटते हुए इन्द्रादि देवको नलापेक्षा हीन सौन्दर्यवाले कामदेवको देखकर प्रीति नहीं हुई / 'केवल कामदेवसे ही नल अधिक सुन्दर नहीं थे, किन्तु अश्विनीकुमारसे भी अधिक सुन्दर थे' यह भी ध्वनित होता है। कामदेवको देखकर भी इन्द्रादिदेव रुके नहीं और आगे चल दिये / लोकमें भी अतिशय सुन्दर वस्तु देखने के उपरान्त उससे हीन वस्तुको देखनेकी रुचि नहीं हुआ करती है ] // 18 // यत्तत् क्षिपन्तमुत्कम्पमुत्थायुकमथारुणम् / बुबुधुर्विबुधाः क्रोधमाक्रोशाक्रोशंघोषणम् // 16 // यदिति / अथ स्मरदर्शनानन्तरं, विबुधाः देवाः, यत्तत् यत्किञ्चित् लोष्टादिकं वस्तु इत्यर्थः / क्षिपन्तं दूरात् मुञ्चन्तं, परप्रहाराय इति भावः। उत्कम्पं कम्पितं, क्रोधावेगेन कम्पनस्य स्वाभाविकत्वादिति भावः / उत्थायुकं युद्धार्थम् उल्लम्फयन्तम्, १.'-दुश्चिकित्स्य-' इति पाठान्तरम्। 2. '-क्रोशभूषणम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1035 आक्रोशंक्रोशपरिमितदूरपर्यन्तं क्रोशमभिव्याप्य वा, आक्रोशस्य परनिन्दावादसहित. तिरस्कारस्य, घोषणा उच्चैरुच्चारणं यस्य तादृशम् , उच्चैः तर्जनसहकारेण परनिन्दा ददृशुः इत्यर्थः, निरुक्तचिह्वरयं क्रोध इति अवगतवन्तः इति तात्पर्यम् / बुधौवा. दिकालट // 19 // विबुधों (इन्द्रादि देवों, पक्षा०-विशिष्ट विद्वानों) ने जो कुछ (पत्थर, ढेला, काष्ठ आदि ) भी फेंकते हुए, कम्पित होते हुए, लड़ने के लिये तैयार ( खड़े उठे) हुए, ( क्रोधसे ) रक्त वर्ण और कोशों दूरतक पहुँचने वाले उच्च स्वरसे परनिन्दाको चिल्लाते हए ( पाठा०-- ... परनिन्दारूप भूषण वाले ) क्रोधको पहचाना। [ क्रोधी का उपर्युक्त स्वभाव होनेसे देवोंने 'यह क्रोध है' पहचाना ] // 19 // यमुपासत दन्तौष्पक्षतामृशिष्यचक्षुषः / भृकुटीफणिनीनादनिभनिःश्वासफूत्कृताः // 20 // यमिति / य क्रोध, दन्तैः ओष्ठस्य क्षतेन दंशनजवणेन, यत् असृक् रक्तं, तच्छिज्याणि तत्कल्पानि इत्यर्थः, चक्षि नेत्राणि येषां तादृशाः,भ्रकुटी एव भ्रसकोचनमेव, फणिनौ भुजङ्गी, तन्नादनिभानि तत्फूत्कारकल्पानि, निःश्वासफूत्कृतानि निःश्वासस्य फूत् इति प्रबलशब्दा येषां तादृशाः, परिजनाः इति शेषः, उपासत असेवत, आसेलुङ / तत्सेवका अपि ताशा एवेत्यर्थः // 20 // दांत से ओठ कटने पर उत्पन्न रक्तके समान नेत्रवाले तथा भ्रुकुटी (का सञ्चालन अर्थात् सङ्कुचित करना तथा फेंकना) रूपिणी सर्पिणीकी ध्वनि ( फुफकार) के समान श्वाससे फुफकार करते हुए व्यक्ति जिस ( क्रोध ) की उपासना करते थे ( 'उस क्रोधको देवोंने पहचाना' ऐसा पूर्व (17 / 19) श्लोकसे सम्बन्ध समझना चाहिये)। [ क्रोधमें दांतोंसे ओष्ठ का काटना नेत्रोंका रक्ततुल्य लाल होना, भृकुटी का बार-बार चढ़ना एवं सङ्कुचित होना तथा सर्पिणीके समान गर्म-गर्म फुत्कारयुक्त श्वास चलना स्वभाव होता है। उस क्रोधके परिजन भी वैसे ही थे] // 20 // दुर्ग कामाशुगेनापि दुर्लङ्घयमवलम्ब्य यः / दुर्वासोहृदयं लोकान् सेन्द्रानपि दिधक्षति / / 21 // दुर्गमिति / यः क्रोधः, कामाशुगेन कन्दर्पबाणेन अपि, दुर्लङ्गयं दुरतिक्रमम् , अजेयमित्यर्थः / दुर्वाससः तदाख्यस्य अतिक्रोधिनः मुनेः हृदयं चित्तम् एव, दुर्ग कोट्टम् , अवलम्ब आश्रित्य, सेन्द्रान् इन्द्रादिदेवतासहितानपि, लोकान् भुवनानि, त्रैलोक्यमित्यर्थः, दिधक्षति शापाग्निना दग्धुमिच्छति / दहतेः सनन्ताल्लटि ढत्वकत्व. भावाः / दुर्लङ्घयदुर्गावलम्बनो दुर्जेय इति भावः / नित्यक्रुद्धो भगवान् दुर्वासा दुईर्षश्चेति प्रसिद्धम् // 21 // 65 नै० उ०
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________________ 1036 नैषधमहाकाव्यम् / __ जो ( क्रोध ) कामबाणसे भी दुर्लङ्घय अर्थात् दुर्जय ( अतएव ) दुर्ग (किला, पक्षादुःखसे गम्य ) दुर्वासा मुनिके हृदय का अवलम्बनकर इन्द्रके साथ रसिकोंको भी जलानेकी इच्छा करता है। [ सदा क्रोधपूर्ण दुर्वासा मुनि शापसे इन्द्र सहित सब संसार को जलाने की जिस प्रकार इच्छा करते थे, उसी प्रकार यह क्रोध भी इच्छा करता है। पर्वतादि से दुर्गम भूमि ( या-किला ) बाणोंसे भी अजेय होती है ] // 21 // वैराग्यं यः करोत्युच्चै रञ्जनं जनयन्नपि। सूते सर्वेन्द्रियाच्छादि प्रज्वलन्नपि यस्तमः // 22 // वैराग्यमिति / यः क्रोधः, उच्चैः अत्यर्थ, रञ्जनं रागं, रक्तवर्णतामिति यावत् / जनयन् अपि उत्पादयन्नपि, वैराग्यं तदाहित्यं, करोति जनयतीति विरोधः, नैस्पृह्यं करोतीति तदाभासीकरणात् विरोधाभासोऽलङ्कारः, क्रुद्धस्य न कुत्रापि अनुरागाः इति भावः, तथा यः क्रोधः, प्रज्वलन् सन्धुत्तमाणोऽपि, प्रकाशमानः अपि इत्यर्थः, अन्तः.सन्तापयन्नपि इत्यर्थश्च, सर्वेन्द्रियाणि चतुरादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि आच्छादयतीति तदाच्छादि सर्वेन्द्रियवरकं, ज्ञानेन्द्रियाणामावरकमित्यर्थः, तमः मोहम् अन्धकारञ्च, सूते जनयति क्रोधान्धो न किञ्चित् पश्यतीति भावः / अत्र प्रज्वलत्तमः शब्दयोः अर्थभेदेन विरोधपरिहारान् पूर्ववदलङ्कारः // 22 // जो (क्रोध ) अत्यधिक लालिमाको पैदा करता हुआ भी वैराग्य अर्थात् रंग (लालिमा) का अमाव पैदा करता है तथा जो ( क्रोध ) प्रज्वलित ( प्रकाशित ) होता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियों ( नेत्रादि ) को आच्छादित करनेवाले अन्धकारको पैदा करता है / यहां 'लालिमाको पैदा करनेवाला उसके अभावको कैसे पैदा करेगा ? तथाप्रज्वलित होता हुआ नेत्रादिकी शक्तिको रोकनेवाले अन्धकारको कैसे पैदा करेगा ?' यह विरोध हुआ, उसका परिहार यह है कि-जो ( क्रोध ) मुख नेत्र आदिमें लालिमाको पैदा करता हुआ अर्थात् मुखनेत्रादिको लाल करता हुआ भी उद्वेग ( या निःस्पृहता ) पैदा करता है तथा प्रज्वलित होता अर्थात् अतिशय बढ़ता हुआ भी सब (बाहरी नेत्रादि तथा भीतरी ज्ञान ) इन्द्रियोंको आच्छादित करनेवाले अज्ञानको पैदा करता है / ( अथवा-जो क्रोध हिंसादि कार्यमें प्रीति पैदा करता हुआ भी ( अनिष्टोत्पादनके पश्चात्तापसे प्रायश्चित्त का कारणभूत ) वैराग्यको करता है तथा...)। [क्रोधसे मुख-नेत्रका लाल होना तथा उसके बढ़नेसे केवल नेत्रादिका ही नहीं, अपि तु ज्ञानतक का आच्छादित ( शक्तिहीन ) हो जाना सर्वविदित है। आशय यह हैं किक्रुद्धको कहीं भी अनुराग नहीं होता तथा क्रोधसे अन्धा कुछ भी देखता (या समझता ) नहीं हैं ] // 22 // पञ्चेषुविजयासक्तौ भवस्य क्रुध्यतो जयात् / येनान्यविगृहीतारिजयकालनयः श्रितः / / 23 // १.'-शक्त्यौ ' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1037 पञ्चेष्विति / येन क्रोधेन, पञ्चेषु विजयासक्तौ पञ्चेषु विजये कन्दपंपराभवे, या आसक्तिः तत्परता तस्यां, कन्दर्पभस्मीकरणाभिनिवेशे, क्रुध्यतः स्मराय कुप्यतः, भवस्य हरस्य कर्मणि षष्ठी। जयात् स्वाधीनीकरणात् हेतोः, अन्येन पुरुषान्तरेण, विगृहीतस्य आक्रान्तस्य, अरेः शत्रोः, जयकाले आयत्तीकरणसमये, यो नयः नीतिः सः, श्रितः अवलम्बितः, तत्कालोचिता नीतिराश्रिता इत्यर्थः / अन्यदा महादेवं जेतमशक्योऽपि स्मरविग्रहकाले स्मरहरं क्रोधो जिगाय तत्काले तस्य क्रोधवशीभूतस्वादिति भावः / अत्र कामन्दकः-'बलिना विगृहीतस्य द्विषता कृच्छ्रवर्तिनः / कुर्व. ताऽपचयं शत्रोरात्मच्छित्तिविशङ्कया // ' इति // 23 // जिस (क्रोध ) ने कामदेवके विजयमें संलग्न होने पर क्रुद्ध शिवजीको अपने वशमें करनेसे दूसरेके साथ युद्ध करते हुए शत्रुको विजय करने के अवसरकी नीतिको ग्रहण किया। [ 'जिस शत्रुको दूसरे समय में नहीं जीता जा सकता, तो जब वह किसी दूसरे शत्रुसे युद्ध करता हो उस समय उसे जीता जा सकता है। इस नीतिके अनुसार शिवजीको कभी भी नहीं जीत सकनेवाले क्रोधने जब वे (शिवजी ) कामदेवको विजय करने ( जलाने ) में आसक्त हुए तब उपयुक्त अवसर देखकर उनको जीत लिया अर्थात् उन्हें अपने अधीन कर लिया। जिसने शिवजीको भी अवसर पाकर हराकर अपने वशमें कर लिया, उस क्रोधके पराक्रम का फिर क्या कहना है ? // 23 // हस्तौ विस्तारयन्निभ्ये बिभ्यदर्द्धपथस्थवाक् / सूचयन् काकुमाकूतैर्लोभस्तत्र व्यलोकि तैः / / 24 / / हस्ताविति / तत्र जनौधे, तैः इन्द्रादिभिः, इभ्ये धनिके 'इभ्य आढयो धनी स्वामी' इत्यमरः / हस्तौ करो, विस्तारयन् प्रसारयन् , याञामुद्रया इति भावः। बिभ्यत् अयं कटूक्तिं करिष्यति न वेति स्यन् , अत एव अर्द्धपथस्थवाक् अोक्तवाक्यः, आफूतैः अभिप्रायविशेषैः, आत्मनो दैन्यज्ञापकचेष्टाविशेषरित्यर्थः। काकं शोकभीत्यादिजनितां स्वरविकृति, सूचयन् कुर्वन्नित्यर्थः, भयेन गद्दाभाषीत्यर्थः, लोभः विग्रहवान् तदाख्यरिपुविशेषः, व्यलोकि दृष्टः // 24 // ___उस ( जन-समूह ) में उनलोगों ( इन्द्रादि चारों देवों ) ने धनिकके ( सामने ) में दोनों हाथ पसारे हुए, ( यह देगा या नहीं, अथवा-कटु वचन तो नहीं कह देगा ? इस भावनासे ) डरते हुए ( अत एव ) आधी बातको कहे हुए तथा ( हाथ जोड़ने, पेट आदि दिखलाकर अपनेको भूखा बतलानेकी) चेष्टाओंसे दीन वचनोंको सूचित करते ( अस्पष्ट गद्गद वचन बोलते) हुए ( शरीरधारी) लोम को देखा // 24 // दैन्यस्तैन्यमया नित्यमत्याहारामयाविनः / भुञ्जानजनसाकूतपश्या यस्यानुजीविनः / / 25 // दैन्येति / दैन्यं दारिद्रय, स्तैन्यं स्तेयम् 'स्तेनात् यत् नलोपश्च' इत्यत्र स्तेनादिति
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________________ 1038 नैषधमहाकाव्यम् / योगविभागात् ष्यणप्रत्ययः। तदुभयमयाः तत्प्रचुराः, नित्यं सर्वदा, अत्याहारेण बहुभोजनेन, आमयाविनः अजीर्णादिरोगिणः 'आमयस्योपसङ्खयानं दीर्घश्व' इति विन् दीर्घश्च / तथा भुञ्जानानाम् अश्नतां, जनानां लोकानां, साकूतं साभिप्रायं, पश्यन्ति अवलोकयन्तीति पश्या द्रष्टारः / 'पाघ्रा-' इत्यादिना शप्रत्ययः, पश्य. देशश्च / जना इति शेषः / यस्य लोभस्य, अनुजीविनः अनुचराः // 25 // अतिशय दीनता तथा चोरीसे युक्त, सर्वदा अधिक भोजन करनेसे ( मन्दाग्नि आदि) रोगोंसे युक्त और भोजन करते हुए लोगोंको ( ये सभी भोजन पदार्थ खा जायेंगे मुझे नहीं देंगे क्या ?, इनके लिये कितने अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ परोसे गये हैं, मेरे लिए नहीं इत्यादि ) अभिप्रायसे देखते हुए लोग जिस ( लोभ ) के अनुजीवी थे, ( ऐसे लोभको उस जन-ममूहमें उन इन्द्रादि देवोंने देखा ऐसा सम्बन्ध पूर्व (16 / 24) श्लोकसे करना चाहिये)। धनिदानाम्बुवृष्टेयः पात्रपाणाववग्रहः / स्वान् दासानिव हा ! निःस्वान् विक्रीणीतेऽर्थवत्सु यः / / 26 / / धनिदानेति / यः लोभः, पात्रपाणी पात्रस्य सम्प्रदानाहजनस्य, पाणी हस्ते, निःस्वजनकरे इत्यर्थः : धनिनाम् अर्थशालिनां, दानाम्बुवृष्टेः त्यागोदकवर्षस्य, अवग्रहः प्रतिबन्धकस्वरूपः। 'वृष्टिवर्ष तद्विधातेऽवग्राहावग्रहौ समौ' इत्यमरः / प्रभूत. धनसत्त्वेऽपि लोभवशीभूतः सन् पात्रपाणी दानार्थोदकं नार्पयतीति भावः। तथा निःस्वान् धनहीनान् , स्वान् स्वजनान् , पुत्रदारादीनिति यावत् / दासान् इव किकरानिव, अनायासदेयान् इव इति यावत् / अर्थवत्सु आढयेषु, विक्रीणीते अर्थविनिमयेन ददाति, लोभात् इति भावः / हा! इति विषादे अहो लोभस्य वैचित्र्य मयी शक्तिरिति भावः / / 26 // जो ( लोम ) पात्र ( दान लेनेवाले) के हाथ पर धनिकों के दान-सम्बन्धी वृष्टिका प्रति. बन्धक है अर्थात् जिस लोभके कारण धनी व्यक्ति पात्रों के हाथमें सङ्कल्प करके दानजल नहीं अर्पण करता, जो ( लोभ ) निर्धन ( पाठा०-निर्धनताके कारणसे ) आत्मा ( अपने याअपने पुत्र स्त्री बान्धवादि) को धनवानों में दासके समान बेंच देता है, हाय ! ( 'उस लोभको देवोंने जन-समूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व (17 / 24 ) श्लोकसे करना चाहिये ) / __ एकद्विकरणे हेतु महापातकपञ्चके / न तृणे मन्यते कोपकामौ यः पञ्च कारयन् / / 27 / / एकेति / यः लोभः, पञ्च ब्रह्महत्यादीनि पञ्चापि महापातकानि, कारयन् नरादिना स्वयम् अनुष्ठापयन् , महापातकानां 'ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गानागमः / 1. 'निःस्वाद्' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1039 महान्ति पातकान्याहुस्तरसंसर्गी च पञ्चमः।' इत्युक्तानां ब्रह्महत्यादीनां, पञ्चके पञ्चकमध्ये, एकञ्च द्वे च एकद्वीनि / सङ्खयेयद्वन्द्वे बहुत्वोपजननात् बहुवचनम् / तेषाम् एकद्वीनां, यथासङ्ख्यम् एकस्य ब्रह्महननस्य द्वयोः पानागम्यागमनयोश्च, करणे अनुष्ठाने, हेतू कारणभूतौ, कोपकामौ क्रोधकामी, तृणे तृणतुल्यौ तुच्छौ इत्यर्थः। अपीति शेषः / न मन्यते न गणयति इत्यर्थः। न हि बहुकारी स्वल्पकारिणं गणयतीति भावः / कामक्रोधाभ्यामपि पापिष्ठो लोभ इति रहस्यम् // 27 // __ जो ( लोम ) पांच महापातकों को कराता हुआ एक (ब्रह्महत्या ) तथा दो ( अगम्यासम्भोग तथा ब्रह्महत्या, अथवा-मद्यादिपान और अगम्यासम्भोग ) को करनेमें कारण कोप तथा कामको तृण ( के समान तुच्छ ) मानता है / ( ‘ऐसे लोमको इन्द्रादि देवोंने जन समूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व (17 / 24) श्लोकसे करना चाहिये) / [ क्रोधके कारण ब्रह्महत्यारूप एक तथा कामके कारण अगम्या (गुरुपत्नी आदि ) के साथ सम्भोग तथा स्त्रीकामके कारण उसके पति ब्राह्मण का वध ( अथवा-कामके कारण मद्यादि पान तथा अगम्या ( गुरुपत्नी आदि ) के साथ सम्भोग ) रूप दो महापातकोंमें क्रमशः कोप तथा काम.कारण हैं और धनादिलोभसे ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी; रसलोभके कारण मदिरापान, स्त्रीलोभ अथवा स्त्रीजाति प्रदर्शित धनलोभके कारण गुरुपत्नी आदिके साथ सम्भोग और इष्ट-संग्रहके लोभके कारण इन चार पातककर्ताओं के साथ संसर्ग होता है, इस प्रकार लोमके कारण पाचों महापाप होते हैं और कोप तथा काम पूर्वोक्त प्रकारसे क्रमशः एक और दो महापातकोंके कारण हैं / अतः पांच महापातकों को करानेवाला लोभ क्रमशः एक तथा दो महापातकों के कारणभूत कोप तथा कामको तृणतुल्य तुच्छ मानता है। अधिक करनेवाला थोड़े करनेवाले को नहीं मानते, काम तथा क्रोधसे भी लोम महापापी है ] // 27 // यः सर्वेन्द्रियसमापि जिह्वां बह्ववलम्बते / तस्यामाचाय्यक यांच्यापटवे बटवेऽजितुम् / / 28 !! य इति / यः लोभः, सर्वेन्द्रियाणि चक्षुरादीनि पञ्चव, सद्म आश्रयः यस्य सः तादृशः सन् अपि, सर्वेन्द्रियाधिष्ठानोऽपि, जिह्वां रसनेन्द्रियमेव, बहु प्रचुरतया, अवलम्वते आश्रयति, प्रायेण तत्रैवास्ते इत्यर्थः / किमर्थम् ? तत्राह-तस्यां जिह्वा. याम् , अध्ययनशालाभूतायामिति भावः, याच्ञापटवे भिक्षानिपुणाय, बटवे ब्राह्मणाय, शिष्यभूताय इति भावः / आचार्यकं गुरुत्वम् , अर्जितुं लब्धुमिवेत्युत्प्रेक्षा। लुब्धब्राह्मणबटुभ्यः याज्ञवाणीशिक्षादानार्थं वागिन्द्रियमधिष्ठाय आचार्यों भूत्वा वर्तते इत्यर्थः / गुरबस्तु अध्ययनशालायां स्वशिष्येभ्यो विद्याशिक्षां ददतीति प्रसि. द्धम् / अत्रोपमोत्प्रेक्षाभ्यां सजातीयकाभ्यां वाक्यार्थयोः शब्दहेतुत्वात् शब्दार्थहेतु. ककाव्यलिङ्गमलङ्कारः सङ्कीर्यते इत्यलङ्कारत्रयस्य परस्परसम्बन्धेनाङ्गाङ्गिभावः // 28 // 1. 'याच्माचाटवे बटवे' इति, 'याच्जाबटवे पटवे' इति च पाठान्तरम् /
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________________ 1040 नैषधमहाकाव्यम् / सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें रहता हुआ भी जो (लोम ) याचनामें चतुर बटु (शिष्यभूत ब्राह्मणबालक ) में आचार्यत्व पाने के लिए अर्थात् उक्तरूप बटुके आचार्य बननेके लिए जिह्वामें अधिक रहता है। [ गन्धका लोभी नाक, सौन्दर्यादि रूपका लोभी नेत्र, कोमलादि स्पर्शका लोभी त्वक् इत्यादि प्रकारसे पांचों ( 'प्रकाश' के मतसे छहों) इन्द्रियोंमें रहनेवाला भी लोम जीममें अधिक निवास करता है, अर्थात लोभके कारण हो सभी लोग याचना करते समय प्रिय एवं स्तुतिपरक ( चापलूसीके ) वचन बोलते हैं। इसमें उत्प्रेक्षा की गयी है कि-जिस प्रकार गुरुकुल आदि विद्यामन्दिर में याचना ( भिक्षा मांगने ) में चतुर ब्रह्मचारी बालकका आचार्य सर्वदा निवास करता है, उसी प्रकार मानों लोभ याचनामें चतुर (प्रिय एवं चापलूसीके वचनोंको कहकर याचना करनेमें निपुण ) बालकके आचार्य वननेके लिए विद्यामन्दिर-स्थानीय उस जिह्वामें अधिक निवास करता है / अन्यत्र रहते हुए भी विद्यामन्दिर में विशेषरूपसे निवास करते हुए आचार्य शिष्योंको जिस प्रकार शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार सर्वेन्द्रियों में रहता हुआ भी जिह्वेन्द्रियमें अधिक रहता हुआ लोम लोगोंको याचना चातुर्यकी शिक्षा देता है ] // 28 // पथ्यां तथ्यामगृह्णन्तं मन्दं बन्धुप्रबोधनाम् / शून्यमाश्लिष्य नोभन्तं मोहमैक्षन्त हन्त ते / / 29 / / पथ्यामिति / ते देवाः, मन्दं मूढस्वभावम् , अत एव पथ्यां हितां, तथ्यां सत्यां युक्तियुक्तामिति यावत् / बन्धुप्रबोधनां सुहृदुपदेशम् , अगृह्णन्तम् अस्वीकुर्वाणम् , अशृण्वन्तमित्यर्थः / शून्यं यत्किञ्चित् तुच्छं वस्तु इत्यर्थः। आश्लिष्य अवलम्ब्य इत्यर्थः। न उज्झन्तं मौढ्यात् न त्यजन्तं, हन्तेति खेदे, मोहं मूर्तिमन्तं तदाख्यं चतुर्थरिपुम् , ऐक्षन्त अपश्यन् // 29 // ___ उनलोगों ( इन्द्रादि चारों देवों ) ने मन्द ( मूढ स्वभाववाले, अतएव ) हितकर एवं सत्य बान्धवोपदेश ( यह कार्य श्रेयस्कर होनेसे ग्राह्य तथा यह कार्य अनिष्टकर होनेसे त्याज्य है, इत्यादि हितकर एवं सत्य बन्धुमित्रादिके उपदेश ) को नहीं ग्रहण करते हुए तथा शून्य (तुच्छतम कोई वस्तु या अप्रामाणिक अनात्मभूत जड देह-इन्द्रियादिको अज्ञानवश आत्मस्वरूप ) मानकर ( मूर्खतावश हजारों बार समझानेपर भी नहीं छोड़ते हुए मोहको ( उस जनसमूहमें ) देखा, हाय ! खेद (या-आश्चर्य ) है / / 29 // श्वः श्वः प्राणप्रयाणेऽपि न स्मरन्ति स्मद्विषम् / मग्नाः कुटुम्बजम्बाल बालिशा यदुपसिनः / / 30 / / श्वः श्वः इति / यदुपासिनः यस्य मोहस्य सेवकाः, अत एव कुटुम्बजम्बाले पुत्रकलनादिरूपपङ्के। 'निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽत्री शादकर्दमौ' इत्यमरः। मग्नाः 1. 'न्तमन्धम्' इति 'प्रकाश' व्याख्यातं पाठान्तरम्। 2. 'शश्वत्' इति पाठान्तरम्। 3. 'स्मरद्विषः' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः / 1041 अन्तः प्रविष्टा इत्यर्थः। बालिशाः मूर्खाः, श्वः श्वः आगामिदिवसे आगामिदिवसे, परश्वः इत्यर्थो वा। प्राणानां जीवनस्य, प्रयाणे निष्क्रमणेऽपि जीवनत्यागेऽपि, स्मरद्विषं कामारिम् ईश्वरं शङ्करं, न स्मरन्ति न चिन्तयन्तीत्यर्थः // 30 // जिस (मोह ) के अनुचर कुटुम्बरूपी पङ्क में मग्न ( 'यह बालक क्या करेगा ? यह स्त्री क्या करेगी ? इस खेत, उद्यान आदिका क्या होगा ?' इत्यादि कुटुम्बकी चिन्तामें ही फंसा हुआ ) मूर्ख ( अथवा-स्वयं शानशून्य होनेसे दूसरेके सदुपदेशको नहीं स्वीकार करनेके कारण बालक ) कल कल अर्थात् कल और परसों (पाठा०-निरन्त) जीवके निकलते ( मरते ) रहनेपर भी शङ्करजीका स्मरण नहीं करते अर्थात् 'उत्पन्नका विनाश अवश्यम्भावी है' इस नीतिके अनुसार रोगी नहीं रहनेपर या सन्निपातादि असाध्य रोगके कारण मृत्युके सन्निहित रहनेपर भी उक्त प्रकारसे कुटुम्बके लिये ही चिन्तित रहते हुए लोकसमुद्रतारक शिवजीका स्मरण नहीं करते, ( ऐसे 'मोह को उन इन्द्रादि चारों देवोंने उस जन-समूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व ( 17 / 29 ) श्लोकसे करना चाहिये) // 30 // पुंसामलब्धनिवोणज्ञानदीपमयात्मनाम् / अन्तम्ापयति व्यक्तं यः कज्जलवदुज्ज्वलम् / / 31 / / पुंसामिति / यः मोहः, अलब्धः अप्राप्तः, निर्वाणज्ञानदीपमयः निर्वाणज्ञानं मोक्षविषयिणी बुद्धिः, तदेव दीपः प्रकाशकत्वात् प्रदीपः, तन्मयः तदात्मकः, आत्मा स्वभावः यैः तेषाम् अनात्मज्ञानां, विषयासक्तानामित्यर्थः / पुसाम् उज्ज्वलं स्वभावत एव निर्मलम् , अन्तः अन्तःकरणं, कजलवत् अञ्जनवत् , व्यक्तं स्फुटं, म्लापयति मलिनीकरोति मोक्षसाधनात्मसाक्षात्कारविघातकोऽयं दुरात्मेत्यर्थः // 31 // जो ( मोह ) मोक्ष-साधक ज्ञानरूपी दीपकको नहीं प्राप्त किये हुए अर्थात् अद्वैतज्ञानहीन (अथवा-अविनष्ट ज्ञानदीपकयुक्त आत्मावाले ) पुरुषोंके स्वभावतः निर्मल अन्तःकरण ( पक्षा०-मध्यभाग ) को कज्जलके समान स्पष्टतः मोहित (कालिमायुक्त) कर देता है ( 'ऐसे मोहको उन देवोंने उस जनसमूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व (17 / 29) श्लोकके साथ समझना चाहिये। [जिस प्रकार जलता हुआ दीपक अपने कजलके द्वारा अत्यन्त निर्मल पात्रके भी मध्यभागको कालिमायुक्त कर देता है, उसी प्रकार जो :मोह ज्ञानदीपकयुक्त आत्मावाले मुनियों के भी अतिशय शुद्ध मन को दूषित कर देता है, क्योंकि विश्वामित्रादिका मेनकादिको देखकर मोहित होनेको कथा पुराणों में उपलब्ध होती है / अत एव मोक्षसाधन आत्मसाक्षात्कारका विनाशक यह मोह है ] // 31 // ब्रह्मचारिणेतस्थायियतयो गृहिणं यथा। त्रयो यमुपजीवन्ति क्रोधलोभमनोभवाः / / 32 // १.'-वनस्थायि-' इति पागन्तरम् ,
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________________ 1042 नषधमहाकाव्यम्। ब्रह्मचारीति / ब्रह्मचारिव्रतस्थायियतयः ब्रह्मचारिवानप्रस्थभितुरूपाः, त्रयः आश्रमत्रयम् इत्यर्थः / गृहिणं गृहस्थाश्रमिणं, यथा इव, क्रोधलोभमनोभवाः क्रोध. लोभकामाः त्रयः, यं मोहम् , उपजीवन्ति आश्रित्य वर्तन्ते। मोहमूलास्ते तन्निवृत्ती तेऽपि निवर्तन्ते इति भावः // 32 // जिस प्रकार ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यासी तीनों ही ( भोजन-वस्त्रादिके लिये) गृहस्थका आश्रय करते हैं, उसी प्रकार क्रोध, लोभ तथा काम तीनों ही जिम ( मोह ) का आश्रय करते हैं ( 'उस मोहको देवोंने उस जन-समूहमें देखा ऐसा सम्बन्ध पूर्व ( 17 / 29) लोकसे समझना चाहिये ) / [ मोहसे हो क्रोध, लोभ तथा काम होते हैं ] // 32 / / जाग्रतामपि निद्रा यः पश्यतामपि योऽन्धता / श्रुते सत्यपि जाड्यं यः प्रकाशेऽपि च यस्तमः / / 33 / / जाग्रतामिति / यः मोहः, जाग्रतां प्रबुद्धानाम् अपि, निद्रा निन्द्रास्वरूपः, निद्राया इव सदसज्ञानविलोपकत्वादिति भावः। यः मोहः, पश्यतां चक्षुष्मताम् अपि, अन्धता तदाहित्यम्, अन्धो यथा :सुपथं कुपथं वा निश्चेतुं न शक्नोति तद्वदिति भावः। यः मोहः, ते शास्त्रे, शास्त्रज्ञाने इत्यर्थः। सत्यपि विद्यमानेऽपि, जाडयं, मोढयं, जडवत् शास्त्रविरुद्धकार्यकरणादिति भावः / यश्च मोहः, प्रकाशे आतपे, रौद्रे सत्यपि इत्यर्थः। तमश्च अन्धकारः, अन्धकारे यथा वस्तुज्ञानं न भवति तद्वदिति भावः / निद्रादिचतुष्टयकार्यकारित्वात् तद्वत् जागरचतुरादिभिरनिवर्त्यत्वाच्च प्रसिद्धनिद्रादिचतुष्टयविलक्षणः कोऽपि तत्समष्टिरिति निष्कर्षः // 33 // ___ जो ( मोह ) जागते ( सावधान रहते ) हुए लोगोंको भी निद्रा (निद्राके समान भलेबुरेके ज्ञानका नाशक ) है, जो ( मोह ) देखते हुए लोगोंका भी अन्धापना ( अन्धेके समान भले-बुरे मार्गको ज्ञानसे शून्य करनेवाला ) है, जो ( मोह ) शास्त्र (श्रवण ) होनेपर भी मूर्खता ( मूर्खके समान शास्त्रविरुद्ध कार्य में प्रवृत्त करनेवाला ) है और जो ( मोह ) प्रकाशमें भी अन्धकार ( अन्धकारके समान ग्राह्य-त्याज्य पदार्थोके ज्ञानसे रहित करनेवाला ) है; ( 'उस मोहको इन्द्रादि चारों देवोंने उस जन-समूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व ( 17 / 29) श्लोकसे करना चाहिये ) / [ निद्रादि चारोंके कार्यको करनेसे तथा उस प्रकार जागरणादिके द्वारा अनिवार्य होनेसे लोकप्रसिद्ध निद्रादिसे विलक्षण तत्समुदायरूप अनिर्वचनीय वह मोह है ] // 33 // (कुरुसैन्यं हरेणेव प्रागलजत नार्जुनः।। हतं येन जयन् कामस्तमोगुणजुषा जगत् / / 1 // ) . कुर्विति / तमोगुणजुषाऽज्ञानरूपतमोगुणसेविना येन मोहेन हतं जगत् जयन् 1. अयं श्लोको 'जीवातौ' न व्याख्यातः, इति मयाऽत्र 'प्रकाश' व्याख्यानमेवो. पन्यस्तमित्यवधेयम् / 2. इदं 'प्रकाश' व्याख्यानमिति बोध्यम् /
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________________ सप्तदश सर्गः। 1043 कामो नालजत / क इव-तमोगुणजुषा आश्रिततमोगुणेन हरेण संहारकारकेण रुद्रेण प्राप्तकालतया प्राक् हतं ग्रस्तं कुरुसैन्यं पश्चाद्विनाशयबर्जुन इव / मया इतमित्यभि. मानेन लज्ज नाप। अन्येन हतस्य पश्चात् स्वेन हनने हि लज्जा युक्ता / सा तु कामस्य न जातेत्यर्थः। मूढ एव कामपरवशो भवतीत्यर्थः। ईश्वरः प्राक्कुरुसैन्यं शूलेन हन्ति, पश्चाच्छरेणार्जुन इति द्रोणपर्वकथा / कुलकम् // 1 // तमोगुणप्रधान संहारक शिवजीसे पहले हत (ग्रस्त ) कुरुसेनाको जीतते हुए अर्जुनके समान तमोगुणी जिस ( मोह ) से पहले नष्ट (ग्रस्त ) संसारको जीतता हुआ कामदेव लज्जित नहीं हुआ। [ 'ब्रह्मा सत्वगुणी सृष्टिकर्ता, विष्णु रजोगुणी पालनकर्ता और शिव तमोगुणी संहारकर्ता हैं। ऐसा शास्त्रप्रमाण है / अत एव तमोगुण प्रधान शिवजी कौरवसेना को पहले मारते थे तो उसके बाद अर्जुन उसपर बाण चलाकर इसे मैंने मारा' ऐसा समझते हुए जिस प्रकार लज्जित नहीं होता था, उसी प्रकार पहले तमोगुणी मोहने ही समस्त संसारको अपने वश में कर लिया है, तदनन्तर उस जगत्को जीतता हुआ काम मैंने अपने बाणसे इसे जीता है ऐसा मानकर लज्जित नहीं होता है / वस्तुतः दूसरेके द्वारा मारे गयेको मारनेमें लज्जित होना उचित है, परन्तु कामदेव लज्जित नहीं हुआ। मोहके वशीभूत ( मूर्ख ) ही कामाधीन होता है, अतः कामदेवसे भी मोह ही प्रबल है ] // चिह्निताः कतिचिद्देवैः प्राचः परिचयादमी / अन्ये न केचनाचूडमेनःकञ्चकमेचकाः // 34 // ... चिह्निता इति / अमी पूर्वोक्तस्मरादयः, कतिचित कियत्सङ्ख्यकाः, देवैः इन्द्रादिभिः, प्राचः परिचयात् इन्द्रादीनां कामादिवशीभूतत्वेन पूर्वजातपरिचयात् , पूर्वा. नुभवजन्यसंस्कारादिति यावत् / चिह्निताः चिह्नविशेषैः परिज्ञाताः, प्रत्यभिज्ञाता इत्यर्थः। आचूडम् आशिखम् , एनःकञ्चकेन पापरूपकृष्णवर्णावरकवस्त्रेण, मेचकाः श्यामवर्णाः, अन्ये अपरे च, कामादिव्यतिरिक्ता इत्यर्थः। केचन केचित् , न, देवैः चिहिताः इति पूर्वेणान्वयः, नीलवस्त्रावृतशरीरत्वेन 'अमी ते' इति न प्रत्यभिज्ञाताः इत्यर्थः॥३४॥ ___ इन ( कामादि ) कुछको इन ( इन्द्रादि देवों) ने पूर्वपरिचयके कारण चिह्नविशेषोंसे पहचान लिया तथा चोटीतक पापरूप कञ्चुकसे कृष्णवर्णवाले कुछ दूसरों (कामादिसे भिन्नों या तदुपजीवी बौद्धादिकों ) को नहीं पहचाना। [इन्द्रादि देवोंको भी कामादिके वशीभूत होनेसे पूर्वपरिचय होना तथा उस कारण उन्हें पहचानना और चोटी (शिर ) तक कृष्णवर्णके वस्त्रसे ढके रहने के कारण कुछको नहीं पहचानना भी उचित है, क्योंकि काले वस्त्रसे चोटी तक ढके हुए व्यक्तिको पहचानना असम्भवप्राय है ] // 34 // तत्रोदीर्ण इवार्णोधौ सैन्येऽभ्यर्णमुपेयुषि / कस्याप्याकर्णयामासुस्ते वर्णान् कर्णकर्कशान् / / 35 //
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________________ 1044 नैषधमहाकाव्यम् / ___ तत्रेति / उदीणे उच्चलिते, अर्णोधौ अम्भोधौ इव, तत्र तस्मिन् , सन्ये स्मराधनुः गते सैन्ये, अभ्यर्णम् उपेयुषि समीपं गते सति, ते देवाः, कस्यापि अपरिज्ञातशरीरस्य कस्यचित् पुरुषस्य, चार्वाकस्येति भावः। कर्णकर्कशान् श्रुतिकठोरान् , वर्णान् वाक्यानि, आकर्णयामासुः शुश्रुवुः // 35 // मर्यादाहीन समुद्र के समान उस सेना (जन-समूह ) के समीप आनेपर उन लोगों (इन्द्रादिदेवों ) ने किसी (अपरिचित पुरुष-चार्वाक) के कर्णकटु वर्गों (वचनों) को सुना / / ग्रावोन्मजनवद्यज्ञ-फलेऽपि श्रुतिसत्यता / का श्रद्धा ? तत्र धीवृद्धाः ! कामाद्धा यत् खिलीकृतः / / 36 // अथ सप्तचत्वारिंशता श्लोकैस्तानेव वर्णानाह-ग्रावेत्यादि / धीवृद्धाः ! हे ज्ञान. वृद्धाः! यज्ञफले ज्योतिष्टोमादियज्ञाद्यनुष्ठानस्य फलभूतस्वर्गादौ विषये, श्रतिसत्यता वेदवाक्यस्य प्रामाण्यं, ग्रावोन्मजनवत् पाषाणप्लवनवत् , पाषाणप्लवनं यथा न प्रत्यक्षं, तद्वत् यज्ञफलं स्वर्गादिकमपि न प्रत्यक्षम् , अत एव तत्प्रतिपादिका अति. रपि 'ग्रावाणः प्लवन्ते' इति वाक्यवत् न प्रमाणमित्यर्थः / अपिशब्दोऽत्र निन्दायाम्; श्रुतिरियं मिथ्या इत्यर्थः / तत्र तत्फलप्रतिपादिकायां श्रुतौ, का श्रद्धा ? युष्माकं कः विश्वासः ? यत् यतः, कामाद्धा तृतीयपुरुषार्थमार्गः, यथेच्छव्यवहारमार्ग इति यावत् / खिलीकृतः प्रतिरुद्धः, श्रुत्वा इति शेषः। 'द्वे खिलाप्रहते समे' इत्यमरः / सिद्धं प्रमाणं विहाय तद्विरुद्धो न श्रद्धेयम् इत्यर्थः // 36 // ___ हे ज्ञानवृद्धो ! ( ज्योतिष्टोमादि ) यज्ञोंके फल ( स्वर्गादि ) के विषयमें वेदको सत्यता पत्थरके ( पानीमें ) तैरने के समान है, ( अतएव ) उसमें क्या विश्वास है, जो काममार्गको (तुम लोगों ) ने व्यर्थ कर दिया है। [जिस प्रकार पत्थर का पानीमें तैरना नहीं देखा जाता, उसी प्रकार ज्योतिष्टोमादि यज्ञों का फल स्वर्गादि भी प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता, अत एव तत्प्रतिपादिका अति ( वेद ) भी सत्य नहीं है, तब उसमें विश्वास भी नहीं करना चाहिये, अतएव वेदवचनके अप्रामाणिक होनेसे यज्ञकर्ता यजमान, ऋत्विक आदिको काम सेवन छोड़कर ब्रह्मचर्यादि नियमसे रहना व्यर्थ है। प्रत्यक्षसिद्ध प्रमाणको छोड़कर उसके विपरीत प्रमाणमें श्रद्धा करना मूर्खता है। 'धीवृद्धाः' ( ज्ञानवृद्ध ) व्यङ्गय वचन है अतः उसके विरुद्धार्थक होनेसे देवों को मूर्ख कहकर सम्बोधित किया गया है ] // 36 / / केनापि बोधिसत्त्वेन जातं सत्त्वेन हेतुना / यद्वेदमर्मभेदाय जगदे जगदस्थिरम् / / 37 / / केनेति / बोधिसत्त्वेन बुद्धेन / 'बुद्धस्तु श्रीधनः शास्ता बोधिसत्वो विनायकः' इति यादवः। केनापि अवाच्यमहिम्ना, जातं प्रादुर्भूतम् / भावे क्तः / अतः स एव श्रद्धेयवचन इति भावः / यत् यस्मात् , वेदस्य कालान्तरभाविफलभोगिनित्यात्म 1. 'फलेति' इति पाठान्तरम्। 2. 'जगाद' इति पाठन्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। साधकश्रुतेः, मर्मभेदाय रहस्योद्घाटनाय,प्रामाण्यभङ्गाय इति यावत् / सत्त्वेन हेतुना 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' इति कारणेन , जगत् इदं विश्वम् , अस्थिरं क्षणिकम् , इति जगदे गदितम् / अयं भावः-जगतः क्षणिकत्वे सिद्धे आत्मनोऽपि जगदन्तर्गततया क्षणिकत्वं सिद्धमेव, ततश्च येनात्मना पापं कृतं तस्यात्मनः क्षणोत्तरं नाशात् कथं तस्य फलभोगसम्भवः ? इति आत्मनः कालान्तरभाविफलभोगित्वस्यासम्भवात् तद्बोधक श्रुतेः कथं प्रामाण्यम् ? कथं वा पापात् भयम् ? अतो न पारलौकिकसुखा. शया हस्तगतम् ऐहिकं सुखं हातव्यमिति // 37 // बुद्ध अनिर्वचनीय महिमावाला हुआ, क्योंकि वेदके रहस्य को प्रकट करने के लिए अर्थात् उसकी प्रामाणिकता नष्ट करनेके लिए 'सत्त्व के कारण संसार अनित्य है' यह कहा है। ( अथवा-अज्ञाननामा जिनभट्टारक वेदके रहस्यके भेदन करनेके लिए हुए, क्योंकि सत्त्वके कारण संसार अनित्य है, . ऐसा उन्होंने कहा ) / [बौद्धसिद्धान्त यह है कि-'जो सत् ( विद्यमान् ) है, वह अनित्य है' अतएव यह संसार भी उक्त अनुमानसे अनित्य है और संसार के अन्तर्गत ही आत्माके होनेसे वह ( आत्मा) भी क्षणिक हुआ ऐसी स्थितिमें जिस आत्माने पाप या पुण्य किया वह तो क्षणमात्रके बाद नष्ट हो गया, अतएव पाप-पुण्य का फल भोक्ता आत्मा कदापि नहीं हो सकता, इस प्रकार 'दूसरे समयमें पाप-पुण्यका फल आत्मा भोगता है। ऐसा कहने वाली श्रुति भी अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती है, इस कारण पापसे डरकर पारलौकिक सुख पानेकी आशासे हस्तगत ऐहलौकिक सुखका त्याग नहीं करना चाहिये। यह चार्वाकभिन्न बौद्धसिद्धान्त है, अथवा-चार्वाकने ही अपने पूर्वोक्त (1736) वचनकी पुष्टि इस बौद्धमतके संवादसे की है ] // 37 // अग्निहोत्रं त्रयी तन्त्र त्रिदण्डं भस्मपुण्डकम् / प्रज्ञापौरुषनिःस्वानां जीवो जल्पति जीविकाः // 38 // __ सम्प्रति बृहस्पतिमतावलम्बनेन वैदिकं विडम्बयति अग्निहोत्रमिति / अग्निहोत्रम् अग्निहोत्राख्यो यागः, त्रयी त्रिवेदी, वेदत्रयमित्यर्थः / तन्त्रं तदर्थविचारात्मकं मीमांसाशास्त्रं, त्रिदण्डं संन्यासः / पात्रादिपाठात् नपुंसकत्वम् / भस्मनः भूतेः, भस्मकृतमित्यर्थः / पुण्डकं तिलकविशेषः, एतानि जीवः बृहस्पतिः, प्रज्ञापौरुषाभ्यां, बुद्धिपुरुषकाराभ्यां, निःस्वानां दरिद्राणां, तद्रहितानाम् इत्यर्थः / जीविकाः जीवनोपायाः, इति जल्पति ते। अतश्च नास्ति परलोकः इति निश्चयात् .यथेष्टचेष्टितमेव हित मिति भावः // 38 // अग्निहोत्र, त्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ), मीमांसा ( अथवा-वेदत्रयमें प्रतिपादित कर्मकलाप ), संन्यास, भस्मका तिलक (या-शैवव्रत ), ये सब बुद्धि के सामर्थ्य ( अथवा-बुद्धि तथा सामर्थ्य ) से हीन ( ठगकर, चोरीकर या बलात्कार ग्रहण करनेमें 1. 'त्रयीतन्त्रम्' इत्येकपदं वा।
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________________ 1046 नैषधमहाकाव्यम् / असमर्थ ) लोगोंकी जीविका है, ऐसा बृहस्पति' कहते हैं। [ अतएव परलोकके नहीं होनेसे इच्छानुसार कार्य करना चाहिये ] // 38 // शुद्धं वंशद्वयोशुद्धौ पित्रोः पित्रोर्यदेकशः / तदनन्तकुलादोषाददौषा जातिरस्ति का / / 36 / / शुद्धमिति / यत् यतः कारणात् , पित्रोः पित्रोः मातापितृपरम्परयोः मध्ये / निर्धारणे सप्तमी / वीप्सायां द्विरुक्तिः / पिता मात्रा' इत्येक शेषः / एकशः एकैकस्य, वंशद्वयीशुद्धौ उभयकुलशुद्धौ, पितृवंशमातामहवंशयोः विशुद्धितायां सत्यामित्यर्थः / शुद्ध निर्दोष, पुत्रं जायते इति शेषः / पुत्रस्यापि शुद्धता भवति इत्यर्थः। तत् तस्मात् अनन्तानाम् अशेषाणाम् , आमूलानामिति भावः / कुलानां वंशानाम् , अदोषात् दोपराहित्यात् , अदोषा निर्दोषा, जातिः जन्म, का अस्ति ? न काऽपि इत्यर्थः / यथाहुः-'अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे / कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना ? // ' इति // 39 // जिस कारण माता-पितामें से एक-एकके दोनों वंश (पिताका कुल तथा नानाका कुल ) का शुद्धि होने पर शुद्ध सन्तान होती है, उस कारण अनन्त वंशके दोष रहित होनेसे निदोष जाति ( जन्म ) कौन है ? अर्थात् कोई नहीं। ( अथवा-जिस कारण पिताके मातापिता ( पितामही तथा पितामह अर्थात् दादी-दादा) और माताके माता-पिता ( मातामही और मातामह अर्थात् नानी-नाना) और उन दोनों में से .एक-एकके माता-पिता इस प्रकार ब्रह्मातक प्रत्येक की शुद्धि की परीक्षा करनी चाहिये; उस कारण अनन्त वंशवाली में ( अत ( तथा इन्द्रचन्द्रादिके भी व्यभिचारका प्रमाण पुराणादिमें मिलने ) से कौन जाति निर्दोष है ? अर्थात् कोई भी जाति निर्दोष नहीं प्रतीत होती। अथवा-....."उस कारण ब्रह्मातक दोनों वंशके दोषरहित होनेसे जाति निर्दोष होती है, वह कौन-सी जाति है ? ( जिसे शुद्ध माना जाय) अर्थात् कोई भी नहीं। [ उक्त कारणोंसे शुद्ध जातिकाःमिलना अस. म्भव होनेसे सभी जाति सदोष हैं, अतएव जातिदोषका भय छोड़कर स्वेच्छापूर्वक व्यवहार करना चाहिये ] // 39 // 1. तदुक्तं बृहस्पतिना 'अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मपुण्डकम् / बुद्धिषौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः॥' इति / 2. 'शुद्धिवंश-' इति 'प्रकाश' व्याख्यातः पाठः साधु प्रतिभाति / 3 तदानन्त'-इति पाठः सम्यक् इति 'प्रकाश'। 4. अस्य नित्यपुंस्त्वेन अत्र 'सन्तानम् , अपत्यं' वा भवेदिति बोध्यम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1047 कामिनीवर्गसंसगैन कः सङ्क्रान्तपातकः ? | नाश्नाति स्नाति हा ! मोहात् कामक्षामव्रतं जगत् // 40 // . कामिनीति / किञ्च, कामिनीवर्गस्य पुरुषापेक्षया अष्टगुणकामस्य स्त्रीजातस्य, संसर्गः सम्बन्धैः, स्त्रीभिः सह एकत्र वासरित्यर्थः / कः पुमान् , सङ्क्रान्तपातकः प्राप्तपापः, पापाक्रान्त इत्यर्थः / न ? अपि तु सर्वः एव पातकी, 'संवत्सरात्त पतति पतितेन सहाचरन्' इति शास्त्रात् पतितस्त्रोसंसर्गेण सर्वोऽपि पातकी एवेति भावः / अव एव कामेन कन्दर्पण अभिलाषेण वा, क्षामतंव क्षीणव्रतं ,निष्फलवतं वा / 'क्षायो मः' इति निष्ठातकारस्य मकारः / जगत् इदं विश्वं, विश्ववासीत्यर्थः।मोहात् स्ववृत्तानाकलनात्, न अश्नाति उपवसति, तथा स्नाति च तीर्थादौ स्नानं करोति च, स्नानेन आस्मनः शुद्धत्वबुद्धयैव पुनः व्रतानि चरति इति भावः / हा इति खेदे / व्रतसहस्रे कृतेऽपि एकेनैव स्त्रीसंसर्गपातकेन सर्वनाश इति भावः॥४०॥ - ( पुरुषोंकी अपेक्षा अठगुने कामयुक्त ) स्त्री-समूहके ससाँसे कौन ( पुरुष ) पापयुक्त नहीं है ? ( अतिशय कामवासनायुक्त स्त्रियों के संसर्गसे सभी सांसर्गिक पापसे युक्त हैं, क्योंकि एक वर्ष पातकीके संसर्गसे पातकरहित भी पातकी हो जाता है)। काम (इच्छा, फल या कामवासना ) से क्षीण व्रतवाला ( पाठा०-...."क्षीण यह ) संसार मोह ( विचारशून्यता ) के 'कारण ( एकादशी आदि को) नहीं खाता है / और ( अमावस्या आदिको तीर्थो में ) स्नान करता है, हाय ! ( खेद है ) / [ स्वयं शुद्ध होनेपर भी स्त्रियोंके संसर्गसे, स्त्रियोंके भी कथञ्चित् शुद्ध होनेपर दुष्टादिके संसर्गसे पापरहित कोई भी नहीं है; अतएव एकादशी आदि तिथियोंमें व्रतोपवास तथा अमावस्या आदि तिथियोंमें प्रयागादि तीर्थोंमें स्नान करना अविचारपूर्ण होनेसे व्यर्थ ही है; इस कारण स्वेच्छासे यथेष्ट व्यवहार करना चाहिये // 40 // ईयया रक्षतो नारी धिक् कुलस्थितिदाम्भिकान् / स्मरान्धत्वाविशेषेऽपि तथा नरमरक्षतः / / 41 / / ईययेति / स्मरान्धत्वस्य कामविमूढत्वस्य, अविशेषेऽपि समानत्वेऽपि, स्त्रीपुंस. योरिति शेषः / ईय॑या पुरुषान्तरसंसर्गासहिष्णुतया, नारी स्त्रियं, रक्षतः निरुन्धतः, अवरोधमध्ये शासनवाक्येन वा इति शेषः / किन्तु नरं पुरुषं, तथा तद्वत् , अरक्षतः परस्त्रीसंसर्गात् अनिवारयतः, अथ च कुलस्य वंशस्य स्थितिः मर्यादा, विशुद्धिता इत्यर्थः / असाङ्कर्येणावस्थानमिति यावत् , तया तद्रूपेण, दम्भेन कैतवेन चरन्तीति तथोक्तान् स्त्रीमात्ररक्षणादेव जातेरसायं मन्यमानान वञ्चकान् / 'चरति' इति ठक। 'दम्भस्तु कैतवे कल्के' इति विश्वः / जनानिति शेषः / धिक् निन्दामीत्यर्थः / 'धिगु. 1. 'साममिदं जगत्' इति पाठो जीवातुसम्मतः इति म. म. शिवदत्तशर्माणः। . 2. 'नारीर्धि-' इति पाठान्तरम्।
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________________ 2048 नैषधमहाकाव्यम् / पर्यादिषु' इति द्वितीया। स्त्रीदोषादिव पुरुषदोषादपि कुलहानेरवश्यम्भाव्यत्वेऽपि एकत्राभिनिवेशे ईष्येव केवलं हेतुरिति भावः // 41 // ईर्ष्यावश स्त्री ( पाठा०-स्त्रियों ) को ( शासनसे या अन्तःपुरादिमें रखनेसे ) परपुरुष. संसर्गसे बचाते हुए कामान्धताके सामने होनेपर भी उस प्रकार ( स्त्रियों के समान ) पुरुषको (परस्त्री-संसर्गसे ) नहीं बचाते हुए कुल मर्यादा ( की रक्षा ) का दम्भ (मिथ्याभिमान करनेवालों को धिक्कार है / [ 'कामान्ध स्त्री यदि परपुरुषके साथ सम्भोग करोगी तो कुल मर्यादा नष्ट हो जायेगी' इस विचारसे शासन कर या अन्तःपुर आदि सुरक्षित स्थानोंमें रखकर स्त्री को परपुरुष या द्वितीय विवाहके पतिके संसर्गसे सुरक्षित रखने में और उस कामान्धाताको पुरुषमें भी स्त्रीके समान ही होनेसे पुरुष को उस स्त्रीके समान परस्त्री (दूसरे की स्त्री या दूसरी स्वविवाहिता स्त्री या वेश्यादि ) के संसर्गसे नहीं सुरक्षित रखनेमें केवल स्त्रीके प्रति ईर्ष्या और कुलमर्यादाके नष्ट होने का दम्म ही कारण है; अतः जिस प्रकार स्त्रीको द्वितीय विवाह करनेसे या परपुरुषके संसर्गसे रोका जाता है, उसी प्रकार पुरुषको भी द्वितीय विवाह करनेसे तथा परस्त्री (द्वितीय विवाहकी स्त्री, दूसरे की स्त्री या वेश्यादि अन्य स्त्री) के संसर्गसे रोकना उचित है, परन्तु ऐसा नहीं किया जाता, अत एव जिस प्रकार स्त्रीके परपुरुषका संसर्ग करनेपर कुलमर्यादा नष्ट हो सकती है, उसी प्रकार पुरुषके भी परस्त्री का संसर्ग करने पर कुलमर्यादा नष्ट हो सकती है ] / / 41 // परदारनिवृत्तिर्या सोऽयं स्वयमनाहतः / अहल्याकेलिलोलेन दम्मो दम्भोलिपाणिना // 42 / / परेति / या परदारेभ्यः परस्त्रीसंसर्गेभ्यः, निवृत्तिः उपरतिः, तदर्थमुपदेश इति यावत् , सः अयं परदारा अगम्या इत्यादिरूपः, दम्भः कपटोपदेशः इत्यर्थः, अहल्या. केलिलोलेन गौतमस्त्रीरतिलालसेन, दम्भोलिपाणिना वज्रधरेण इन्द्रेण, स्वयम् आत्मना, अनादृतः उपेक्षितः, अतो न पारदार्यम् अनाचार इति भावः // 42 // ( दूसरेकी स्त्री को देखना भी नहीं चाहिये, फिर स्पर्श करनेकी बात ही क्या है ? इत्यादि शास्त्रीय वचनोंसे ) जो परस्त्रीसे निवृत्ति ( के लिये उपदेश ) है, उस दम्भ ( परवञ्चक कपटोपदेश ) का अहल्याके साथ क्रीडा करनेमें तत्पर ५ज्रपाणि (इन्द्र ) ने स्वयं वही अनादर कर दिया / [ अतएव परस्त्री सम्भोग करने पर शास्त्रोंमें जो प्रायश्चित्त बतलाये है, वे भी व्यर्थ हैं, क्योंकि दूसरेको परस्त्री सम्भोग करनेका निषेध करनेसे और स्वयं वही कार्य करमेसे इन्द्राका उपहास भी सूचित होता है। अथ च-दन्द्र के हाथमें व्रज्र था, अतः समर्थ होनेसे उन्होंने परस्त्री-सम्भोग कर लिया, अतएव यह शास्त्रीय निषेध नहीं है, किन्तु असमर्थ होनेके कारण है ] // 42 // गुरुतल्पगतौ पापकल्पनां त्यजत द्विजाः!। येषां वः पत्युरत्युच्चैर्गुरुदारग्रहे ग्रहः // 43 //
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1046 गुरुतत्पेति / किञ्च, द्विजाः ! हे विप्राः ! गुरुतल्पगतौ गुरुदारगमने, 'तल्पं शय्याऽदृदारेषु' इत्यमरः, पापकल्पनां पातकसम्भावना, त्यजत जहीत / कुतः ? येषां द्विजानां, वः युष्माकं, पत्युः स्वामिनः, द्विजराजस्य चन्द्रस्य इत्यर्थः, 'तस्मात् सोमरा. जानो ब्राह्मणाः' इति श्रुतेः, गुरोः देवगुरोः बृहस्पतेः,दारग्रहे ताराख्यभार्थ्याभिगमने, अत्युच्चैः अतिमहान् , ग्रहः निर्बन्धः, तस्मात् अत्रापि न दोषबुद्धिः कार्या इति भावः // 43 // ___ हे ब्राह्मणो ! गुरु ( शिक्षक, दीक्षागुरु, पिता, चाचा, बड़ा भाई आदि ) की स्त्रीके साथ सम्भोग करने में पापकी कल्पना छोड़ो, ( क्योंकि ) जिन तुम लोगोंके स्वामी ( द्विजराज ) अर्थात् चन्द्रमाके अपने गुरु ( बृहस्पति ) की स्त्री ( तारा) के साथ सम्भोग करने में अत्यधिक साग्रह सुना जाता है / [ बृहस्पति देवोंके गुरु माने जाते हैं, उनकी तारा नामकी स्त्रीके साथ द्विजराज ( चन्द्रमा, पक्षा०-द्विजों अर्थात् ब्राह्मणों के राजा) ने सम्भोग किया 'यथा राजा तथा प्रजा' नीति के अनुसार तुमलोगोंको भी गुरुपत्नी के साथ सम्भोग करने में महापातक लगनेका भय छोड़ देना चाहिये / इन्द्रादिके पासमें वसिष्ठ आदि निवास करते हैं, उन्हीं को सम्बोधित कर 'द्विजाः' पद कहा गया है / यहां भी चन्द्रमाका उपहास किया गया है / 'ग्रहः' के स्थानमें 'गह' पाठ होने पर..."चन्द्रमाका अत्यधिक उत्सव होता है, या गुरुपत्नीसम्भोग करनेपर भी चन्द्रमाको तेजःसमूहका प्रतिदिन उदय होता ही है, वह उक्त कमसे पतित नहीं हुआ है ] // 43 // पौराणिक कथा-चन्द्रमाने बृहस्पतिकी पत्नी तारासे पुत्र उत्पन्न किया तो उस पुत्रको ग्रहण करनेके लिए इन्द्रादि देवोंने बहुत प्रयत्न किया. उस समय उनके प्रति बडे यद्धके आरम्भ करनवाल चन्द्रमाने अपने तेजःसमूह को प्रकट किया, बादमें ब्रह्माने बृहस्पतिकी उस स्त्री को चन्द्रमासे छुड़वा दिया, फिर भी उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्रको चन्द्रमाने ही प्राप्त किया, जिसका नाम 'बुध' है ] // पापात् तापा मुदः पुण्यात् परासोः स्युरिति अतिः / वैपरीत्यं ध्रवं साक्षात् तदाख्यात बलाबले // 44 // पापादिति / परासोः मृतस्य, पापात् ऐहिकपातकाचरणात्, तापाः दुःखानि, नरकयन्त्रणा इत्यर्थः, पुण्यात ऐहिकसुकृताचरणात् ,मुदः हर्षाः, स्वर्गः सुखानि इत्यर्थः, स्युः भवेयुः, इति एवं, श्रुतिः वेदः, आहेति शेषः, विधिनिषेधाभ्यासगम्यं तदित्यर्थः, किन्तु वैपरीत्यमुक्तश्रुतिवाक्यस्य विपर्ययं, पानागम्यागमनादिपापात् सुखं तथा यज्ञादिपुण्याद् दुःखन्चेति विपरीतफलमित्यर्थः, ध्रुवं सत्यम् एव, साक्षात् प्रत्यक्ष दृश्यते इति शेषः, तदित्यव्ययं तयोरित्यर्थः, तयोः प्रत्यक्षागमयोः, बलाबले बलवत्त्वं दौर्बल्यञ्च, आख्यात हे द्विजाः ! कथयत, ग्रावप्लवनवाक्यवत् प्रत्यक्षविरोधात यथा श्रुतिप्रत्यक्षयोर्विरोधे प्रत्यक्षस्यैव बलवत्त्वाच श्रुतिरिह दुर्बला, ततश्च पापजन्यसुखस्य प्रत्यक्षतया पापमेव सर्वैरनुष्ठातव्यमिति भावः // 44 //
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________________ 1050 नैषधमहाकाव्यम्। मृत प्राणीके पापसे दुःख तथा पुण्यसे सुख होते हैं, ऐसी श्रुति ( वेद ) कहता है ( पक्षा०-यह श्रुति है अर्थात् केवल सुना ही जाता है, उसमें प्रामाणिकता कोई नहीं है ), किन्तु इसमें विपरीतभाव ( पापसे सुख तथा पुण्यसे दुःख ) देखा जाता है, इस कारण ( अथवा-इन दोनोंके ) बलाबलको तुमलोग कहो / [ प्रयागादि तीर्थमें स्नानरूप धर्म करने से पुण्य तथा शास्त्र-विरुद्ध कार्य करनेसे दुःख होता है, ऐसा वेदका कथन कथन है, किन्तु यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि प्रातःकाल प्रयागादि तीर्थोंमें स्नान या तप आदि करनेसे दुःख तथा मद्य-पान, परस्त्री-सम्भोग आदि करनेसे आनन्द मिलता है, पुण्यसे परलोक होनेपर स्वर्गादि प्राप्तिरूप सुख मिलता है यह परोक्षकी बात है, अत एव प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाणमें प्रत्यक्ष प्रमाण बलवान् होनेसे यह मानना. पड़ेगा कि पापकर्नसे हो सुख तथा पुण्यकर्मसे दुःख मिलता है, अतः पापकर्ममें ही सबको प्रवृत्त होना चाहिये ] // 44 // सन्देहेऽप्यन्यदेहाप्तेविवज्यं वृजिनं यदि / त्यजत श्रोत्रियाः ! सत्रं हिंसांदूषणसंशयात्' / / 45 / / सन्देहे इति / अन्यदेहाप्तेः मृतस्य देहान्तरप्राप्तः, सन्देहेऽपि संशयेऽपि, पापकारी चेत् तदा मृत्वा देहान्तरमाश्रित्य नरकभोगी स्यादिति वादिनः, यः पापकारी स दग्ध एव, अतस्तस्य देहान्तरप्राप्त्यसम्भवेन नरकभोगस्याप्यसम्भवः, इति देहात्मवादिनः तत्प्रतिवादिनश्च तादृशविरुद्धवाक्यद्वयजन्यसन्देहे सत्यपि इत्यर्थः, यदि वृजिनं पारदाOदिपापं, 'पापं किल्विषकल्मषं कलुषं वृजिनैनोऽघम्' इत्यमरः / विवज्यं त्याज्यं, पाक्षिकदोषस्यापि परिहार्यत्वादिति भावः / तर्हि, श्रोत्रियाः ! हे छान्दसाः ! हे वेदाध्यायिनः ! इत्यर्थः / श्रोत्रियच्छान्दसौ समौ' इत्यमरः / छन्दो वेदमधीते इति छन्दसो वा श्रोत्रभावो निपात्यते 'तदधीते' इत्येतस्मिन्नर्थे घंश्च इति निपातनात् साधुः, हिंसादूषणसंशयात् जीवहत्याजनितपापशङ्कातः, वैधहिंसायामपि साङ्ख्यादिभिः प्रत्यवायाङ्गीकारादिति भावः / सत्रं यज्ञं, त्यजत जहीत, 'पाक्षिकोऽपि दोषः परिहर्त्तव्यः' इति न्यायादिति भावः / पारदार्यादेः पुनरहिंसात्मकत्वात् प्रत्युत सुखकरत्वाच्च न कश्चित् प्रत्यवायः इति तात्पर्यम् // 45 // - ( जन्मान्तरमें दुःखकी सम्भावनासे पाप नहीं करना चाहिये ऐसा कुछ लोग कहते हैं, तथा जो ( शरीर ) पाप करता है, वह तो मरने के बाद जला दिया जाता है, पुनः दूसरा शरीर मिलेगा, इसमें क्या विश्वास है ? इस प्रकारके दो मत होनेसे ) दूसरे देहकी प्राप्ति होनेमें सन्देह होनेसे ( पाक्षिक दोषका भी त्याग करना ठीक है इस न्यायसे ) यदि पापका त्याग करना चाहिये ( ऐसा तुमलोग कहते हो ) तो हे वेदपाठियो ( वशिष्ठ आदि महर्षियो) ! ( यदि हम यज्ञमें पशुओंको मारेंगे तो उससे भी सम्भवतः ) हिंसा होगी-इस सन्देहके होनेसे यज्ञको भी छोड़ दो / [ जिस प्रकार शरीरकी पुनः प्राप्ति होनेके सन्देह १.'-संश्रयात्' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1051 होनेपर पाक्षिक कर्मका भी त्याग करना न्यायसङ्गत होनेसे देहान्तरमें पापजन्य दुःख होनेके भयसे पापको यदि त्याज्य मानते हो तो यज्ञमें पशुहिंसा करनेसे भी 'अहिंसा परमो धर्म 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि'. इत्यादि श्रुति-स्मृतिवचनोंसे हिंसाका त्याग प्रतिपादित होनेसे उक्त यज्ञीय हिंसामें भी पाप होनेकी सम्भावना होनेसे वह यश भी तुमलोगोंको नहीं करना चाहिये और यदि ऐसा नहीं करते हो तो तुल्यन्यायसे पापका भी आचरण करो ] // .. यस्त्रिवेदीविदां वन्द्यः स व्यासोऽपि जजल्पवः। रामाया जातकामायाः प्रशस्ता हस्तधारणा / / 46 // / य इति / किञ्च, त्रयाणां वेदानां समाहारः त्रिवेदी, त्रिलोकीवत् प्रक्रिया / तद्विदा त्रयीवृद्धानां, वेदत्रयाभिज्ञानामित्यर्थः, यः वन्द्यः पूज्यः, श्रेष्ठ इत्यर्थः, सः व्यासोऽपि कृष्णद्वैपायनोऽपि, जातकामायाः रन्तुं जाताभिलाषायाः, रामायाः कामिन्याः; हस्तधारणा करग्रहणं, प्रशस्ता कर्तव्या, इति वः युष्माकं, जजल्प उक्तवान् , भारतादौ इति शेषः / 'स्मराता विह्वलां दीनां यो न कामयते स्त्रियम् / ब्रह्महा स तु विज्ञेयो व्यासो वचनमब्रवीत् // ' इति महाभारतादिवाक्यात् स्वयञ्च विचित्रवीर्यभार्याभिगमनेन पुत्रोत्पादनादिति भावः // 46 // . जो तीनों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ) जाननेवालोंके वन्दनीय हैं, उन व्यासने भी आपलोगोंसे 'कामुकी स्त्रीका हाथ ग्रहण करना ( पक्षा०-विवाह करना) श्रेष्ठ है' ऐसा कहा है / ( अथवा-जो तीनों वेद जाननेवाले आपलोगोंके वन्दनीय हैं, उस व्यासने भी...)। [जब वेदत्रयके ज्ञाताओं के वन्दनीय व्यासजी भी ('अपि' शब्दसे वाल्मीकि आदि भी ) कामुकी स्त्रीका ग्रहण करना श्रेष्ठ बतलाते हैं, तब 'इसे पाप समझना महान् भ्रम है ] / / 46 // सुकृते वः कथं श्रद्धा ? सुंरते च कथं न सा ? | तत् कमें पुरुषः कुय्योद् येनान्ते सुखमेधते // 47 // सुकृते इति / सुकृते तपोयज्ञादौ पुण्यकर्मणि, वः युष्मांक, कथं केन हेतुना, श्रद्धा विश्वासः ? सुरते स्त्रीसङ्गमादौ च, सा श्रद्धा, कथं न ? अस्तीति शेषः। तत्रव श्रद्धया भवितव्यम् इति भावः / कुतः ? पुरुषः नरः, तत् तादृशं,कर्म क्रियां, कुर्यात् आचरेत् , येन कर्मणा, अन्ते परिणामे, कर्मान्ते इत्यर्थः, सुखम् आनन्दम् , एधते बर्द्धते, सुखार्थमेव कर्म कुर्यात् इत्यर्थः / तच्च सुरतम् एव अनुभवसिद्धत्वात् , न सुकृतं वैपरीत्यादिति भावः // 47 // '. पुण्य ( चान्द्रायणादि व्रत ) में तुमलोगोंको कैसे. श्रद्धा (आत्म-विश्वास ) है तथा सुरत ( मैथुन-पाठा०-परदारासम्भोगरूप पाप) में वह श्रद्धा क्यों नहीं है, क्योंकि मनुष्यको वह काम करना चाहिये, जिससे अन्तमें सुख बढ़े। [ पुण्यमें प्रत्यक्षतः सुख नहीं 1. 'दुरिते' इति पाठान्तरम् / 66 नै० उ०
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________________ 1052 नंषधमहाकाव्यम्। देखे जाने तथा परस्त्रीसम्भोग आदि रतिमें (या पाप ) में तात्कालिक प्रत्यक्ष सुख देखे जानेसे परोक्ष पुण्यजन्य सुखकी अपेक्षा प्रत्यक्ष पापजन्य सुखमें ही तुमलोगोंको श्रद्धा करना उचित है; अतएव पुण्यकर्मकी अपेक्षा पापकर्ममें ही विश्वास करना चाहिये ] // 47 // बलात् कुरुत पापानि सन्तु तान्यकृतानि वः / ___ सर्वान् बलकृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् / / 48 // बलादिति / किञ्च, बलात् बलपूर्वकं, शास्त्रवाक्यमुपेत्य शास्त्रशासनमुपेक्ष्य इत्यर्थः, पापानि कलुषाणि, पापानाम्ना अभिहितानीत्यर्थः। कुरुत आचरत, तानि बलात् कृतपापानि, वः युष्माकम् , अकृतानि अनाचरितानि, सन्तु भवन्तु, अकृता. न्येव भविष्यन्तीत्यर्थः / कुतः ? सर्वान् निखिलान् , बलकृतान् बलपूर्वकमनुष्ठितान् अर्थान् व्यापारान् , अकृतान् अननुष्ठितान् , मनुः आदिस्मातः, अब्रवीत् उवाच, तस्मात् बलात् कृते दोषो नास्तीत्यर्थः। अत्र मनुः,-'बलादत्तं बलाद्भुक्तं बलात् यचापि लेखितम् / सर्वान् बलकृताननकृतान् मनुरब्रवीत् // ' यद्यपि बलात्कृतं व्यवहारपरावृत्तिपरमेतत् तथाऽपि पापमाकलयतां चार्वाकविषयतया प्रलपनमिति द्रष्टव्यम् // 48 // (तुमलोग ) बलपूर्वक भी पाप करो, वे ( बलपूर्वक किये गये पाप ) तुमलोगोंका नहीं किया हुआ होवे अर्थात् बलपूर्वक पाप करनेपर भी तुमलोगोंको तजन्य दोष नहीं लगे क्योंकि बलात्कारसे किये गये सब दोषों को मनुने नहीं किया हुआ बतलाया है। [ जब मुख्य स्मृतिकार मनु ही बलात्कारसे किये गये कर्मको नहीं किया गया कहते हैं तब उक्त रूपसे किये गये पापका भी दोष पापकर्ताको नहीं लगेगा, अतः बलात्कारसे भी परस्त्रीसम्भोग आदि पाप करना चाहिये / यहां यद्यपि मनुभगवान्का 'बलाद्दतं..... ( 81168) वचन बलात्कारसे किये गये व्यवहारपरावृत्तिके लिये है, तथापि पापको नहीं माननेवाला चावोंक उसके द्वारा छलसे अपने पक्षको पुष्ट करता है ] // 48 // स्वागमार्थेऽपि मा स्थास्मिस्तीर्थिकाः ! विचिकित्सवः / तं तमाचरतानन्दं स्वच्छन्दं यं यमिच्छथ / / 46 / / स्वेति / तीथिकाः ! हे शास्त्रिणः ! मत्वर्थीयष्ठकप्रत्ययः। 'तीर्थ शास्त्रध्वरक्षेत्रोपा. यनारीरजासु च / अवतारर्षिजुष्टाम्बुपात्रोपाध्यायमन्त्रिषु // ' 'इत्यमरः / अस्मिन् मनुप्रोक्त स्वागमार्थे बलात्कारलक्षणे स्वशास्त्रार्थेऽपि, विचिकित्सवः सांशयिकः / 'विचिकित्सा तु संशयः' इत्यमरः। कितः सन्नन्तादुप्रत्ययः। मा स्थ न भवथ, यूयमिति शेषः / अतः यं यम् आनन्दं परदारगमनादिकं सुखम् , इच्छथ वान्छथ, तं तम् आनन्दं, स्वच्छन्दं यथेच्छम् , आचरत अनुभवत इत्यर्थः // 19 // हे गुरुसम्प्रदायागतविद्या पढ़े हुए ( वसिष्ठादि मुनि)! अपने आश्रम (पूर्व श्लोकोक्त 1. अयं श्लोको मेदिन्यामुपलभ्यते न स्वमरकोशे /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1053 मनुप्रतिपादित सिद्धान्त ) में भी संशयालु मत होवो, (इस कारण ) जिस-जिस मानन्द (परस्त्री-सम्भोग जन्य सुख ) को चाहते हो, उस-उसका स्वच्छन्द (निर्वाधरूपसे) आचरण करो। [ मेरा ( चार्वाकका) मत तुमलोगोंके सम्प्रदायके विपरीत होनेसे यथाकथञ्चित् भले ही उसपर विश्वास नहीं करना उचित हो सकता है, परन्तु गुरुसम्प्रदायानुगत विद्या पढ़नेवाले तुमलोगोंको 'बलाहन्तं बलाद्भुक्त... ..( 8 / 168 ) इस मनुप्रतिपादित वचनमें तुमलोगोंको सन्देह करना कदापि उचित नहीं है और इस अवस्थामें उक्त वचना. नुसार स्वेच्छापूर्वक परस्त्रीसम्भोगादिरूप सुखका आनन्द तुमलोगोंको लेना चाहिये ] // 49 // श्रुतिस्मृत्यर्थबोधेषु कैकमत्यं महाधियाम ? | व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा सा नोपेक्ष्या सुखोन्मुखी // 50 // ननु मनुवचनस्य व्यवहारविषयस्वानायमर्थः, सम्प्रदायविरुद्धत्वात् इत्याक्षिपन्तं प्रत्याह-श्रुतीति / महाधियां तीक्ष्णबुद्धीनां पुंसां, श्रुतिस्मृत्यर्थानां वेदधर्मशास्त्रोक्त विषयाणां, बोधेषु ज्ञानेषु, ऐकमयं मतैक्यं, मतविरोधाभाव इत्यर्थः / क? कुत्र? न कापि, अपि तु सर्वत्रैव विसंवाद इति भावः। किन्तु व्याख्या पदवाक्यार्थप्रति. पादनं, बुद्धिबलापेक्षा ज्ञानौस्कानुसारिणी, ज्ञानस्य उत्कर्षापकर्षानुसारेण शास्त्रस्य विविधव्याख्या कत्त शक्यते यया परमतनिरसनेन स्वमतं स्थापयितुं युज्यते इति भावः / एवं स्थिते या व्याख्या सुखोन्मुखी सुखप्रवणा, आनन्दसाधिका इत्यर्थः / सा न उपेक्ष्या न त्याज्या, सा एवं ग्राहइत्यर्थः / अतः यथेच्छमाचरतेति भावः। वेदों तथा धर्मशास्त्रों के अर्थशानमें महामतिमानोंको भी एक मत कहा है अर्थात् कहीं नहीं ( अपितु विसंवाद ही है ) ऐसी स्थितिमें पद-वाक्यार्थ-निरूपण बुद्धिके आधिक्यके अनुसार है और सुखदायिनी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। [ मनुस्मृतिके उक्त वचनका वैसा अभिप्राय नहीं है, जैसा कि आपने पूर्व दो श्लोकोंमें प्रतिपादन किया है, इस प्रकार आक्षेप करनेवालेका खण्डन करनेके उद्देश्यसे यह वचन है। इसका तात्पर्य यह है कि बड़े-बड़े विद्वानोंको भी वेद तथा स्मृतियोंके अर्थक विषयमें एकमत नहीं है किन्तु शानोत्कर्षके अनुसार की गयी व्याख्याको ही सिद्धान्त माना जाता है, इसी कारण जिस वेदमन्त्रका अर्थ अद्वैतवादी अभेदपरक मानते हैं, उसीका अर्थ द्वैतवादी भेदपरक मानते हैं, इसी प्रकार स्मृतियोंमें भी एक मत नहीं है, अत एव जिस व्याख्याका अन्तिम परिणाम आनन्दप्रद हो, उसीका आश्रय करना बुद्धिमत्ता है, ऐसी स्थितिमें उक्त मनुवचनका मदुक्त आशय मानकर आनन्दप्रद परस्त्रीसम्भोग आदि करना मनुवचन विरुद्ध नहीं होनेसे दोषोत्पादक नहीं है, अतः वैसा स्वच्छन्द आचरण करना चाहिये ] // 50 // यस्मिन्नस्मीति धीदेहे तद्दाहे वः किमेनसा ? | क्वापि किं तत् फलं न स्यादात्मेति परसाक्षिके ? // 51 // नन्वेवं सुखालोक्यात पापाचरणे परनालिष्ट स्पादित्यवाह-यस्मिमिति / यस्मिन्
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / देहे शरीरे, अस्मीति धीः अहमिति बुद्धिः / 'अस्मीत्यव्ययमस्मदर्थानुवादे अहम\ऽपि' इति गणव्याख्याने / 'पादप्रहारमिति सुन्दरि! नास्मि दये' इत्यादिप्रयोगश्च / तस्य देहस्य, दाहे भस्मीभावे सति, वः युष्माकम् , एनसा पापेन, किम् ? कत्त शक्यते इति शेषः। गौरोऽहं कृशोऽहमित्यादिबुद्धिप्रामाण्याद्देहादतिरिक्तः फलभोक्ता पापेन नरकभोगादिकं न किञ्चिदपि कत्त शक्यते इति भावः / अथ पापपुण्यफलभोक्ता देहव्यतिरिक्त आत्माऽस्ति तत्रैव कर्मफलमिति चेत् तत्राह-क्वापीति / परसाक्षिके परो वेदादिः, साक्षी प्रमाणं यस्य तस्मिन् देहातिरिक्तया वेदप्रतिपादिते, क्वापि यत्र कुत्रचिदात्मान्तरेऽपि, आत्मेति हेतोः आत्मेति कृतनामतया, आत्मत्वावि भवेत् ?.अपि तु एकेनात्मना पापे कृते आत्मत्वेन तदविशेषात् आत्मान्तरस्यापि तत्फलभोक्तृत्वं कथं न स्यात् ? इत्यर्थः / देहातिरिक्तस्यात्मनः फलभोक्तृत्वाभावात् एतद्देहनाशे पापफलभोगस्यासम्भवाच्च यथेच्छमाचरतेति भावः // 51 // जिस देहमें ( मैं दुर्बल हूं, मोटा हूं, इत्यादि रूप ज्ञान होनेसे ) 'आत्मा', ऐसा विश्वास है अर्थात् जिस देहको 'आत्मा' मानते हो, उस ( देह ) के ( मरने के बाद ) जल जानेपर ( देहात्मवादी) तुमलोगोंको ( उस देहके द्वारा किये गये ) पापसे क्या प्रयोजन ? अर्थात वह पाप आपलोगोंका क्या कर सकता है ? और देहातिरिक्त वेदादि प्रतिपादित किसी दूसरे आत्मामें भी वह पाप-पुण्यजन्य फल क्यों नहीं होता ? अर्थात एक व्यक्तिके किये गये पापका फल दूसरे व्यक्तिको भी मिलना चाहिये, ऐसा नहीं होता, अतः देहातिरिक्त 'आत्मा' नामक कोई वस्तु नहीं है। [इसका आशय यह है कि-'देह ही आत्मा है, या देहाभिन्न अन्य कोई ?? यदि प्रथम पक्ष मानते हैं तो पापादि कर्म करने वाला शरीर मरनेपर जलकर भस्म हो जाता है, अत एव उस पापादि कर्मका फलभोक्ता कोई शेष नहीं रह जाता, अतः स्वच्छन्द होकर प्रत्यक्ष आनन्दादि फलप्रद परस्त्रीसम्भोग आदि करना चाहिये तथा यदि द्वितीय पक्ष ( देहातिरिक्त आत्माका होना ) मानते हैं तो वह देहातिरिक्त आत्मा स्वसाक्षिक है या परसाक्षिक ? इसमें भी प्रथम पक्ष मानकर 'अहं' ज्ञान देहविषयक ही होगा, क्योंकि देहभिन्न किसी दूसरेका आश्रय सिद्ध नहीं होता, इस कारण पापजन्य फल शरीरके भस्म हो जाने पर कुछ नहीं कर सकता, यही बात पुनः सिद्ध होती है / दूसरा पक्ष मानकर वेदादिसाक्षिक देहान्तर, कालान्तर या देशान्तरके फलभोक्ता होनेसे उस पापका नरक आदि फल वेदादिप्रतिपादित आत्माको होता है, ऐसा स्वीकार करते हैं तो वह आत्मा होनेके कारण ही फलभोक्ता होता है और सर्वगत आत्माके अविशेष होनेसे किसी 1. श्लोकोऽयमेवं विद्यते 'दासे कृतागसि भवत्युचितः प्रभूणां पादप्रहार इति सुन्दरि नास्मि दूये / ,' उपत्कठोरपुलकाङ्कुरकण्टकार्यद्भिद्यते मृदु पदं ननु सा व्यथा मे // ' इति /
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________________ * सप्तदशः सर्गः। 1055 एकका वह पापादिजन्य नरक आदि फल किसी दूसरे व्यक्तिको भी होना चाहिये, इस अवस्थामें भी स्वयं फलभोक्ता नहीं होने के कारण स्वच्छन्द होकर प्रत्यक्षतः आनन्ददायक परस्त्रीगमनादि पाप कर्म करने में कोई हानि नहीं होती ] // 51 // .... मृतः स्मरति कर्माणि मृते कर्मफलोमयः / अन्यभुक्तैर्मृते तृप्तिरित्यलं धूर्त्तवार्त्तया / / 52 / / नन्वत्रागमो बलवदस्ति प्रमाणमत आह-मृत इति / मृतः परेतः, कर्माणि स्वकृतानि, स्मरति आध्यायति, मृते परेते जन्ती, कर्मणां पापपुण्याधनुष्ठानानां, फलोर्मयः सुखदुःखसन्तानाः, भवन्तीति शेषः / अन्यभुक्तैः श्राद्धादिषु ब्राह्मणभो. जनः मृते प्रेते, तृप्तिः सन्तोषः, भवति इति शेषः। इति एवं, धूर्तवार्तया धूर्तानां परप्रतारणया स्वस्य उपजीविका निर्वाहतां, वार्तया वृत्तान्तेन, वाक्येन इति यावत् , अलं निष्प्रयोजनम् , आगमोऽपि कस्यचित् प्रलाप एव, अतो न विश्वसि. तम्यम् इति भावः / देहात्मवादिमते देहनाशे स्मृति भोग तृप्तीनां सामानाधिकरपयासम्भवात् तादृशवाक्यमप्रामाणिकमिति भावः // 52 // .. मृत प्राणी पूर्व जन्मोंका स्मरण करता है, मरनेपर (पुण्य-पापादिजन्य ) फलोंकी परम्परा होती है और ( ब्राह्मण आदि ) दूसरे लोगोंके भोजनसे मृत प्राणीकी तृप्ति होती है; ( स्वार्थसाधक ) धूर्तीकी यह बात व्यर्थ है। [ देहभिन्न 'आत्मा' नामक पदार्थ कोई भी नहीं होनेसे मरनेपर पूर्वजन्मस्मृति, पूर्वकृत पुण्य-पापादिकर्मोके फलोंको भोगना और श्राद्धादिमें ब्राह्मण आदिके खानेसे मृतात्माकी तृप्ति होना इत्यादि प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रीय वचन धूर्तीके बनाये हुए होनेसे अंश्रद्धेय हैं, अतः उनपर आस्था कर तदनुसार आचरण करना मूर्खता है ] // 52 // . एक सन्दिग्धयोस्तावद् भावि तत्रेष्टजन्मनि / __हेतूनाहः स्वमन्त्रादीनसाङ्गानन्यथा विटाः / / 53 // धौर्त्यप्रकारमेवाह-एकमित्यादि। सन्दिग्धयोः सम्भवासम्भवाभ्यां संशयितयोः, पुत्रादिलाभालाभरूपेष्टानिष्टफलयोर्मध्ये इति भावः। एकम् इष्टमनिष्टं वा अन्यतरत् फलमिति शेषः / तावत् अवश्यमेव, भावि भविष्यति, तत्र तयोर्मध्ये, इष्टजन्मनि इष्टसिद्धौ सति, विटाः धूर्ताः, स्वमन्त्रादीन् निजमन्त्रादिप्रयोगान् , हेतून कारणभूतान् , आहुः वदन्ति, मयेतन्मन्त्रजपादिकं कृतं तत एव तव पुत्रादीष्टलाभोऽभूदिति आत्मश्लाघां कुर्वन्तीति भावः। अन्यथा तदसिद्धौ, असाङ्गान् 1. 'जन्मानि' इति पाठान्तरम् / / 2. 'अन्यभुक्तानि' इति पाठान्तरम् / तथा 'अन्यभुक्तानि तत्तृप्तिः' इत्येवं मूलपाठः 'प्रतिभाति' इति म०म० शिवदत्तशर्माणः / 3. 'हेतुमाहुः' इति पाठान्तरम्।.
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________________ 1056 नैषधमहाकाव्यम् / अङ्गविकलान् , हेतून् आहुः इति पूर्ववाक्येनान्वयः। कार्योपयोगिनां तत्तद्वस्तूनामभावादेव फलं माभूदिति गृहस्थस्य दोषं प्रकटयन्तीति भावः // 53 // सन्देहयुक्त (पुत्रलामादिरूप इष्टकी सिद्धि होना या नहीं होना-रूप) दो कार्योंमें एक (सिद्धि या असिद्धि ) अवश्य ही होती है, उन दोनों में-से इष्टसिद्धि (पुत्रादिलाम ) होनेपर धूर्त ( मन्त्रजपादि करनेवाले ब्राह्मण आदि ) अपने मन्त्रको कारण ( मेरे मन्त्रजपादिके प्रमावसे तुम्हें पुत्रलाभादिरूप मनोरथ सिद्धि हुई है ऐसा ) कहते हैं, अन्यथा (पुत्रलामादि इष्टसिद्धि नहीं होनेपर ( मन्त्रोंको ) असाङ्ग ( अङ्गहीन-अमुक वस्तु के अमावसे तुम्हारी मनोरथसिद्धि नहीं हुई इत्यादि रूपसे मन्त्रोंकी अपरिपूर्णता ) बतलाते हैं ( यह बड़ी भारी धूर्तता है ) // 53 // जनेन जानताऽस्मीति कायं नायं त्वमित्यसौ। त्याज्यते ग्राह्यते चान्यदहो! श्रुत्याऽतिधूतया / / 54 // इत्थं कर्मकाण्डं विडम्ब्याज्ञानकाण्डं विडम्बयति, जनेनेति / अतिधूर्तया अति. प्रतारिकया, श्रुत्या वेदेन, प्रयोजकका / कायं देहम , अस्मि अहम , इति जानता अवगच्छता, गौरोऽहं कृशोऽहमित्याद्यहं प्रत्ययविषयः देह एव, न तु तदतिरिक्तः कश्चिदिति देहमेवात्मानं मन्यमानेनेत्यर्थः / जनेन पुंसा, प्रयोज्येन / अयं कायः, स्वम् आत्मा, न, भवतीति शेषः, इति अस्माद्धेतोः, असी कायः, स्याज्यते हाप्यते, 'अहं'प्रत्ययविषयत्वेन कायः परित्याज्यते इत्यर्थः / अन्यत् अपरं, देहात् अन्यत् आत्म. लक्षणं वस्तु इत्यर्थः / ग्राह्यते स्वीकार्यते च, 'अहं' प्रत्ययविषयतयेति शेषः / तत्त्व. मसीत्यादिवाक्यः अङ्गीकार्यते च इत्यर्थः / इत्यहो आश्चर्यम् ! सत्यस्य असत्यकरणात् असत्यस्य सत्यकरणाच आश्चर्यमेतत् // 54 // ( 'तत्त्वमसि', 'स वा एष महानज आत्मा' इत्यादि रूप ) अतिशय वञ्चक श्रुति, शरीरको 'मैं हूं' इस प्रकार जानते ( 'मैं मोटा हूं, मैं दुर्बल हूं' इत्यादि प्रत्ययसे शरीरको ही आत्मा मानते ) हुए व्यक्तिके द्वारा 'तुम यह (शरीर) नहीं हो इस प्रकार ( देहमें आत्मविषयक शानका ) त्याग कराती है तथा दूसरे ( शरीराभिन्न स्वानुभवविरुद्ध अप्रत्यक्ष तथा प्रमाणबहिर्भूत 'आत्मा' नामकी किसी अनिर्वचनीय वस्तु ) का ही ग्रहण कराती है, अहो ! आश्चर्य ( या-ऐसी धूर्ततापर खेद ) है। [इसका यह आशय है कि यद्यपि लोग 'मैं दुर्बल हूं, मैं मोटा हूँ' इत्यादि ज्ञान शरीरविषयक होनेसे शरीरको ही आत्मा जानते हैं, तथापि उक्त वेदवाक्य शरीरको आत्मा होनेका खण्डन कर तद्विलक्षण अप्रत्यक्ष एवं वचनागोचर किसी वस्तुको 'आत्मा' कहते हैं, अत एव अनुभवविरुद्ध होनेसे ये वेदवाक्य अत्यन्त धूर्त एवं अप्रामाणिक हैं ] // 54 // 1. इमौ (1753-54) श्लोको 'प्रकाश' कृता विपर्यासेन व्याख्याती।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1047 एकस्य विश्वपापेन सापेऽनन्ते निमज्जतः। कः श्रौतस्यात्मनो मीरा ! मरः स्याद्दुरितेन ते ? // 55 // एकस्येति / विश्वेषां यावता संसारिणां, पापेन परदारगमनादिरूपविविधपातकेन, अनन्तेऽक्षये, तापे नरकादिदुःखे, निमजतः अवगाहमानस्य, यावलोककृतपा. पजन्यानन्तदुःखमनुभवतः इत्यर्थः। श्रौतस्य 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म', 'नेह नानाऽस्ति किञ्चन' इत्यादि श्रुतिसिद्धस्य, एकस्य परमार्थतोऽद्वितीयस्य, हेतुगर्भविशेषणमेतत् / तथा हि-यतः सर्वदेहेषु आस्मा एक एव, अतः यावदेहावच्छेदे कृतानां यावत्पा. पानां फलभोक्ता स एवेति भावः। ते तव, स्वदुक्तस्य इत्यर्थः / मास्मनः परमात्मसं. ज्ञकस्य, भीरो! हे पापभयशील! दुरितेन पापेन, परदारगमनरूपैकमात्रपातकेन इति भावः / को भरः भारः स्यात् ? भवेत् ? देहातिरिक्तैकारमवादिमते नानादेहो. पाधिकृतनानापापसम्बन्धवत् आत्मनः एकेन पापेन न कोऽपि भारः स्यात् अतः यथेच्छं पापं कुरु इति निष्कर्षः // 55 // सबलोगोंके ( परस्त्रीसम्मोगादिरूप) पापसे ( नरक आदि ) अनन्त सन्तापमें डूबते हुए तुम्हारे ( एकात्मवादियोंके ) अभिमत वेदप्रमाणित आत्माको हे मीरो ( पाप कर्मसे नरक प्राप्तिरूप सन्तापसे डरनेवाले) ! कौन-सा भार ( बोझ) होगा ? [ 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म', 'नेह नानास्ति किञ्चन' इत्यादि वेदवाक्य आस्माके एकत्वका प्रतिपादन करते हैं, इस अवस्थामें सब लोग जो कुछ पाप करते हैं, उस पापसे वह एक आत्मा ही समस्त पापको भोगनेवाला सिद्ध होता है और जब ऐसी स्थिति है, तब यदि तुम परस्त्रीसम्मोगादिरूप पाप करोगे तो अनन्त लोगों के पापको भोगनेवाले उस आत्माके लिए कौन-सा अधिक बढ़ जायेगा क्योंकि बोझसे लदी हुई गाड़ीपर सूप रखनेसे उसका बोझ बढ़ना कोई भी व्यक्ति नहीं स्वीकार करता / अथवा-जब आत्मा एक ही है, तब दूसरे लोगोंके किये पुण्य के कारण सुखानुभव करनेवाले उसके लिए किसी एकके पाप कर्मसे कौन-सा बोझ हो जायेगा ? अर्थात् कुछ नहीं / अथवा-जब आत्मा एक ही है, तब कोई भी वस्तु संसारमें दूसरी या दूसरेकी नहीं है, इस अवस्थामें कोई भी परस्त्री नहीं, अतः स्वेच्छाचारसे समस्त स्त्रियों के साथ सम्भोग करनेपर भी कोई पाप नहीं होगा, अतः तुम्हें उस पापजन्य सन्तापसे डरना नहीं चाहिये ] // 55 // किन्ते वृन्तहृतात् पुष्पात् तन्मात्रे हि फलत्यदः। न्यस्य तन्मूय॑नन्यस्य न्यास्यमेवाश्मनो यदि / / 56 / / किमिति / हे याजक ! वृन्तहृतात् बन्धनावचितात, पुष्पात् चम्पकादिकुसु. मात् , पुष्पं वृन्तच्युतं कृत्वा इत्यर्थः / ल्यबलोथे पञ्चमी। ते स्वया, किं कुरिसतं कर्म कृतमित्यर्थः। 'किं कुत्सायां वितके च निषेधप्रश्नयोरपि' इति मेदिनी। हि यतः, 1. 'तापेनान्ते' इति पाठान्तरम् / 2. 'न्यस्य ते मूय॑नन्यस्य' इति पाठान्तरम् /
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________________ नैषधमहाकाव्यम। अदः इदं पुष्पं, मन्मात्रे तस्मिन् वृन्ते एव, फलति फलरूपेण परिणमति, न स्वन्यत्र / पुष्पं वृन्तच्युतं कृत्वा फलव्याघातसम्पादनाद्दोष एव कृतस्त्वयेति भावः / अथ अश्मनः देवताधिष्ठितस्य शालग्रामादिप्रस्तरस्य, मूनि शिरसि, न्यास्यम् अर्पणीयम् एव, यदि 'ऋहलोय॑न्' देवतापूजादिप्रयोजनमेव तत्कारणं चेदित्यर्थः। तत् तर्हि, अनन्यस्य तादृशप्रस्तरादभिन्नस्य स्वस्य एव, मूनि न्यस्य निधेहि अस्यतेर्लोटि सिचि हेर्लुक्। 'सर्व विष्णुमयं जगत्' इत्यादिवादिभवन्मते भेदस्य काल्पनिकतया सर्वत्रैव ईश्वरस्य वर्तमानतया च विष्णुशिलातः स्वच्छिरसः अभिन्नत्वात् अन्योपास. नापेक्षया वरं स्वयमुपभोग इति भावः // 56 // - वृन्त ( भेंटी ) से तोड़े गये फूलसे तुम्हें क्या प्रयोजन ( या-तुमने क्या साधा ) ? क्योंकि वह फूल वृन्तमें रहनेपर ही फलता है ( अन्यथा नहीं; अत एव वृन्तसे तोड़कर उसे फलनेसे वञ्चित करने के कारण तुमने लाभ उठाने के बदले हानि एवं पाप ही किया ), यदि इस (फूल) को दूसरे (शिवमूर्ति या शालग्रामादि ) शिला मस्तकपर रखना ही है तो उसे अपने ही मस्तकपर रखो। [ फूलको तोड़कर देवतापर चढ़ानेसे कुछ लाभ नहीं, क्योंकि वह फूल जब डण्ठलसे तोड़ लिया जाता है तो फलता नहीं, इस प्रकार एक फलकी उत्पत्तिको रोककर तुमने लाभके स्थानमें हानि ही प्राप्त की है। 'देवताके ऊपर फूल चढ़ानेसे अभीष्टलाभ होता है' इत्यादि भावनासे यदि तुम्हें उस फूलको तोड़कर किसी 'शिवलिङ्ग या शालग्रामकी शिलापर रखना ही है तो 'सर्व विष्णुमयं जगत्' इत्यादि सिद्धान्तके अनुसार उक्त देव तथा तुम्हारे शिरमें भेद नहीं होनेसे दूसरे पत्थरके ऊपर उस फूलको नहीं रखकर अपने ही शिरपर रखो, क्योंकि दूसरेकी सेवाकी अपेक्षा स्वयमेव उपभोग करना श्रेष्ठ है। अत एव देवपूजन आदि करना सब व्यर्थ होने से अपने मस्तकपर ही फूलको क्यों नहीं चढ़ाते ? इस प्रकार देव-पूजकोंका उपहास किया गया है ] / / 56 / / / तृणानीव घृणावादान् विधूनय बधूरनु / ___तवापि तादृशस्यैव का चिरं जनवञ्चना ? // 57 / / तृगानीति / वधुः कामिनीः, अनु लक्षीकृत्य, स्त्रीविषये इत्यर्थः। घृगावादान् 'हासोऽस्थिसन्दर्शनमक्षियुग्ममत्युज्ज्वलं तत् कलुषं वसायाः / स्तनौ च पीनौ पिशितौ च पिण्डी स्थानान्तरे किं नरकोऽपि योषित् // ' इत्यादिजुगुप्सावाक्यानि, 'घृणा जुगुप्साकृपयोः' इति यादवः। तृणानि इव असारतया यवसानीव विधूनय विसर्जय / 'धूञप्रीजोर्नुग्वक्तव्यः' / तव अपि भवतोऽपि, तादृशस्य नारीवत् असारतया जुगुप्सितस्य एव सतः, चिरम् अत्यन्तं, जनवञ्चना स्त्रीविषये विरक्तिसूचकप्रलापैः, लोकप्रतारणा, का ? किमर्था ? स्त्रीणां यादृशा निन्दावादाः तादृशास्तवापि, अतः स्त्रीनिन्दया लोकवञ्चना न युक्तेति भावः // 57 // / स्त्रियोंको लक्ष्यकर (स्त्रियोंका मुख थूकका घर, स्तन मांसग्रन्थि, हास अस्थि-दर्शन है
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________________ सप्तदशः सर्गः। 6059 इत्यादि रूपमें कथित ) निन्दावचनोंको तृणके समान (निःसार जानकर) छोड़ो, क्योंकि उसी प्रकार के ( निन्दनीय.) तुम्हारे लिये (स्त्रियां इस प्रकार निन्दनीय हैं इत्यादि ) चिरकाल तक मनुष्योंको वञ्चित करना कैसा है ? / [ स्त्रियोंके विषयमें बहुत प्रकारसे घृणित रूपमें उनका वर्णन कर उनका त्याग करना बतलाया गया है, किन्तु पुरुष भी वैसा ही-मुख थूकका घर, हास अस्थिदर्शनमात्र ही है, अत एव स्त्रियोंके विषयमें निःसार घृणित वचनोंको कहना अनुचित होनेसे उसका त्याग करना और उनका उपभोग कर आनन्दलाभ करना चाहिये ] // 57 // ___ कुरुध्वं कामदेवाज्ञा ब्रह्माद्यैरप्यलचिताम् / वेदोऽपि देवकोयाज्ञा तत्राज्ञाः ! कोऽधिकाऽहणा ? / / 58 / / . कुरुध्वमिति / अज्ञाः ! हे. मूढाः! ब्रह्माथैः विधातृप्रभृतिभिरपि, अलचिताम् अनतिकान्तां, कामदेवस्य कामः कन्दर्प एव, देवः देवता, तस्य आज्ञां नारीवशीभूतत्वरूपमादेशं, कुरुध्वं पालयत / न चायमवैदिकाचार इत्याह-वेदः अपि अतिरपि, देवस्य इयं देवकीया देवतासम्बन्धिनी, 'गहादिभ्यश्च' इति छप्रत्यये 'देवस्य च' इति कुगवक्तव्यः आज्ञा शासनं, 'श्रुतिः स्मृतिममैवाज्ञा' इति भगवद्वचनादिति भावः / तत्र देवाज्ञारूपे वेदे, अधिका कामदेवाज्ञातो बलवतीत्यर्थः / अर्हणा पूजा, समादर इत्यर्थः / का? किनिमित्ता ? इस्थम् आज्ञाद्वयस्याविशेषे कामदेवाज्ञा एव कार्या ब्रह्माद्यैरप्यङ्गीकृतत्वेन शिष्टपरिगृहीतत्वरूपप्रामाण्यात् प्रत्यक्षसुखहेतुत्वाच्चेति भावः // 58 // - "हे मूल् ! ब्रह्मा आदिसे भी अनुल्लखित कामरूप देवकी (स्त्रीपरवशतारूप ) आशाको करो, क्योंकि वेद भी देवकी ही आज्ञा है (इस प्रकार दोनोंके देवाज्ञा होनेके कारण ) उस ( वेदाज्ञा ) में अधिक मान्यता क्यों है अर्थात् दोनों आज्ञाओं के देवप्रतिपादित होनेसे किसी एकमे मान्यता तथा दूसरेमें अमान्यता रखनेका पक्षपात नहीं करना चाहिये / [ अथवा-उन ( वेदाज्ञा तथा देवाज्ञा ) में-से अधिक मान्यता किसमें है ?. 'यह कहो' अर्थात् किसी में नहीं, देवाज्ञा होने के कारण दोनों ही समान रूपसे मान्य हैं। अथवा-वेद तो ब्रह्मप्रतिपादित है तथा ब्रह्मादि भी कामदेवकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते, इस कारण ब्रह्मप्रतिपादित वेदाज्ञा तथा कामप्रतिपादित आशामें-से कामप्रतिपादित आशा ही ब्रह्मादि शिष्टसम्मत तथा प्रत्यक्षसुखप्रद होनेसे अधिक मान्य है अतः उसीका पालन करना चाहिये। पाठा०-उस ( कामाशा ) में कौनसी निन्दा है ? अर्थात् कुछ नहीं / चूंकि तुमलोग वेदाज्ञामें ही अधिक श्रद्धा रखते हो, तदपेक्षया श्रेष्ठ कामाशामें नहीं, अत एव तुमलोग 'मूर्ख' हो, इस प्रकार उपहास किया गया है / ] // 58 // 1. 'वेदो हि' इति पाठान्तरम्। 2. 'का विगर्हणा' इति पाठान्तरम् / 3. 'कुगागमः' इत्युचितम् / /
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________________ 1060 नैषधमहाकाव्यम् / प्रलापमपि वेदस्य भार्ग मन्यध्वमेव चेत् / केनाभाग्येन दुःखान्न विधीनपि तथेच्छथ ? // 59 // प्रलापमिति / हे मूढाः ! वेदस्य भागम् अंशविशेषम् , अर्थवादात्मकमिति भावः / प्रलापम् अनर्थकं वचः, अपि प्रश्ने, मन्यध्वं जानीथ एव, चेत् यदि, तदा केन कीदृशेन, अभाग्येन भाग्यविपर्ययेण, दुःखयन्तीति दुःखाः / पचाद्यच् / तान् दुःखान् दुःखकरार्थान् , विधीन् अपि विधिभागम् अपि, तथा तद्वत् प्रलापान् इत्यर्थः / न इच्छथ ? न मन्यध्वम् ? एकदेशोपहतानराशिवत् कृत्स्नस्यापि अनुपादे. यत्वादिति भावः // 59 // वेदके ( अर्थवादात्मक ) मागको यदि प्रलाप ( कार्यप्रतिपादक नहीं होनेसे निरर्थक ) मानते हो तो किस अमाग्यसे दुःखकारक दूसरे विधि ( अग्निष्टोमादि यशविधान-प्रतिपादक भाग ) को वैसा (प्रलाप अर्थात् अर्थवादात्मक होनेसे निरर्थक ) नहीं मानते हो। [ 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वाशनर्थक्यमेतदर्थानाम्' अर्थात् 'वेदके क्रियार्थक (क्रियाप्रतिपादक) होनेसे तद्भिन्न वचन अनर्थक है' इस पूर्वपक्षीय वचनानुसार 'सोऽरोदीत', 'यदरोदीत्' इत्यादि वचन अनर्थक हैं ऐसा पूर्वपक्ष होनेपर 'विधिना त्वेकवाक्यत्वात्' अर्थात् विधिके साथ एकवाक्यता होनेसे वे वचन स्तुत्यर्थक होनेसे अर्थवाद मानते हैं, फिर भी उनको जिस प्रकार कार्यप्रतिपादक नहीं होनेसे निरर्थक मानते हो, उसी प्रकार 'अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' अर्थात् 'स्वर्ग चाहनेवाला अग्निष्टोम यज्ञ करे' इत्यादि विधिवाक्योंको भी निरर्थक मानना चाहिये, क्योंकि वेदके किसी भागको सार्थक तथा तदितर भागको निरर्थक मानना अनुचित एवं अभाग्यका सूचक है, अत एव सभी वेदवचनको तुमलोग निरर्थक मानकर स्वेच्छापूर्वक कार्य करो] // 59 // श्रति श्रद्दध्वं विक्षिप्ताः प्रक्षिप्तां ब्रूथ च स्वयम् / मीमांसामांसलप्रज्ञास्तां यूपद्विपदापिनीम् / / 60 / / श्रुतिमिति / हे मीमांसया जैमिनिप्रोक्ततत्वनिर्णायकग्रन्थभेदाध्ययनेन, मांसल. प्रज्ञाः! परिपुष्टबुद्धयः ! स्थूलबुद्धयः ! इति परिहासोक्तिः / विक्षिप्ताः वादिनिराकृताः भ्रान्ताः सन्तः, श्रुतिं वेदं, श्रद्दध्वं विश्वसिथ, अथ च यूपद्विपदापिनी यूपसम्बन्धिहस्तिदानप्रतिपादिका, 'यूपे यूपे हस्तिनो बद्ध्वा विग्भ्यो दद्याद' इत्यादिवादिनीमित्यर्थः / तां श्रति, स्वयम् आत्मनैव, वेदप्रामाण्यं स्वीकुर्वाणः स्वयमेव इत्यर्थः। प्रक्षिप्तां विप्लुतार्थां, केनचित् लुब्धेन वेदान्तनिवेशितां न तु ईश्वरप्रणीतामित्यर्थः / अथ च वदथ च, तत् कुतो वेदस्य प्रामाण्यमिति भावः // 6 // हे मीमांसासे परिपुष्ट ( पक्षा०-स्थूल ) बुद्धिवाले ! विक्षिप्त ( प्रतिपक्षियोंसे पराजित होकर भ्रान्तचित्त, तुम लोग ) वेदमें श्रद्धा करते अर्थात् वेदवचनोंको प्रमाण मानते हो तथा 1. 'मन्यध्व एव' इति पाठान्तरम्। 2. 'श्रहस्थ' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सगः। 1061 प्रत्येक यशस्तम्भमें हाथी बाँधकर ऋत्विजों के लिये दिलानेवाली श्रुति ( वेदवचन) को स्वयमेव प्रक्षिप्त कहते हो। [ ऐसा श्रुतिके विषयमें भेदभाव क्यों करते हो? यह ठीक नहीं / वेदमें विधिवाक्य कहने के बाद 'यूपे यूपे इस्तिनो बद्ध्वा ऋत्विग्भ्यो दयात्' अर्थात 'प्रत्येक यूपमें हाथी बांधकर ऋत्विजों के लिये दे' इस वचनको 'यह वेदमूलक नहीं है, लोभपूर्वक उन्हीं लोगोंके द्वारा यह कहा गया है। ऐसा कहकर अर्थवाद मानना युक्तिसंगत नहीं है ] // 6 // को हि वेत्तोऽस्त्यमुष्मिन् वा लोक इत्याह या अतिः।। तत्प्रामाण्यादमुं लोकं लोकः प्रत्येति वा कथम् ? / / 61 // __ को हीति / किञ्च, को हवा को जनः अमुग्मिन् लोके परलोकविषये, वेत्ता ज्ञाता, अस्ति ? विद्यते ? न कोऽपि परलोकतत्त्वाभिज्ञ इत्यर्थः / इति एवं, या श्र तिः वेदः, आह कथयति, तस्याः एवं सन्दिहानायाः. श्रुतेः, प्रामाण्यात् प्रमाणावलम्बनात् , अमुं लोक परलोक, लोकः जनः, कथं वा केन वा प्रकारेण, प्रत्येति ? विश्वसिति ? न प्रत्ययाः परलोक इत्यर्थः / अतः प्रतिष्ठावादिनी श्रुतिर्ने श्रद्धया इति भावः // 61 // 'इस परलोकके विषयमें कौन जानता है ?? अर्थात् 'परलोकका तत्त्वज्ञाता कोई नहीं है। ऐसी जो श्रुति कहती है, उस ( श्रुति ) के प्रमाणसे इस परलोकके विषयमें कौन विश्वास करेगा ? अर्थात् कोई नहीं। ['को हि तद यद्यमुष्मिलोकेऽस्ति वा न वा', 'दिक्षवतीकाशान् करोति' इत्यादि श्रुतियोंसे ही परलोकके विषयमें सन्देह होता है तो कौन विश पुरुष उस सन्देहजनक श्रुतिके प्रमाणसे उस परलोकके अस्तित्वको स्वीकार करेगा ? अर्थात् कोई भी विश पुरुष उस परलोकके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करेगा, किन्तु तुम्हीं लोगों जैसा स्थूलबुद्धि व्यक्ति उसे स्वीकार करेगा। इस प्रकार इन तीन ( 1759-61) श्लोकोंसे मीमांसकों के मतका खण्डन किया है ] // 61 // धर्माधर्मों मनुजेल्पन्नशक्यार्जनवर्जनौ / व्याजान्मण्डलदण्डार्थी श्रद्दधायि मुधा बुधैः // 62 / / एवं श्रुतेरप्रामाण्यमुक्त्वा स्मृतेरप्याह-धर्मत्यादि / व्याजात् कैतवात् , धर्मा. धर्मोपदेशमपदिश्येत्यर्थः। मण्डलस्य राष्ट्रस्य, राष्टवासिलोकस्येत्यर्थः / दण्डार्थी दमार्थी, शासननिमित्तमित्यर्थः। लोकस्य विधिनिषेधातिक्रमजन्यमपराधं निमित्ती. कृत्य प्रायश्चित्तादिद्वारा धनाभिलाषुकः सन् इति भावः / अशक्ये कर्तुः असाध्ये, अर्जनवर्जने यथासङ्ख्यं करणाकरणे ययोः तादृशी, धर्माधर्मों पुण्यपापे, धर्मो यागा. दिकः बहुधनव्ययायाससाध्यत्वात् अर्जितुमशक्यः, अधर्मः परदारादिगमनाद्यात्मकः इन्द्रियनिग्रहं कर्तुमशक्यत्वात सुखकारणत्वास वर्जितुमशक्य इति भावः / जरुपन् 1. 'वेदा-इति पाठान्तरम् / 2. 'श्रधे वा' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1062 नैषधमहाकाव्यम्। कथयन् यथासङ्घयम् अयंत्वेन वय॑त्वेन च उपदिशन् इत्यर्थः / मनुः आदिस्मृ. तिकर्ता, बुधैः विद्वद्भिः, मुधा वृथैव, श्रद्दधायि अद्धितः, आहत इत्यर्थः / परदाराभिगमनादिरूपमधर्म प्रत्यक्षसुखजनकतया सर्व एवाचरन्ति इति ज्ञात्वा तजन्यकल्पितदुरितपरिहारमपदिश्य धनलाभार्थं प्रायश्चित्तात्मको दण्डो .मनुना विहितः, न तु सदधर्मम् , अतो मनुवचनमूला स्मृतिर्न प्रमाणमिति भावः // 62 // (पूर्व तीन श्लोकों ( 1759-61 ) से वेदकी प्रामाणिकताका खण्डन कर अब स्मृतिकी प्रामाणिकताका खण्डन करता है-) व्याज अर्थात् धर्म-अधर्मके प्रतिपादनके कपट से राष्ट्र ( वासियों ) के शासन के लिए (धर्म-अधर्मको कारण बतलाकर प्रायश्चित्त आदिके द्वारा धनका लोभी ) तथा असाध्य धर्म और अधर्मको कहनेवाले मनुका पण्डितों ( पक्षा०-मूों ) ने व्यर्थ आदर किया है। [ बहुत धनव्यय होनेसे तथा शीत-आतप-भूख-प्यास आदिके असह्य होनेसे अग्निष्टोमादि यज्ञरूप धर्मको और इन्द्रियनिग्रह असाध्य होनेसे एवं प्रत्यक्ष सुखदायी होनेसे परस्त्रीगमनादि रूप अधर्मको ग्रहण तथा त्याग करना अशय है; अतः उनका प्रतिपादन जो राष्टवासियों के शासनको निमित्तकर धर्म-अधर्मके व्याजसे मनुने धनलोभके कारण किया है; उस मनुपर विद्वान् लोग व्यर्थ श्रद्धा करते हैं अर्थात् श्रद्धा नहीं करते, अथवा श्रद्धा नहीं करनी चाहिये, अथवा-'अबुधैः' पदच्छेद करके उसपर मूर्खलोग व्यर्थ श्रद्धा करते हैं अर्थात् कोई भी विद्वान् श्रद्धा नहीं करता। इस कारण आदि स्मृतिकार ब्रह्मपुत्र मनुका धर्माधर्म प्रतिपादनपरक प्रायश्चित्तादिकथन अश्रद्धेय है ] / / 62 / / व्यासस्यैव गिरा तस्मिन् श्रद्धेत्यद्धा स्थ तान्त्रिकाः / मत्स्यस्याप्युपदेश्यान् वः को मत्स्यानपि भाषताम् / / 63 / / व्यासस्येति / व्यासस्य धीवरकन्याव्यभिचारोत्पन्नस्य भ्रातृपत्न्यां सुतोत्पादयितुः स्वयमेव व्यभिचाररतस्य पराशरपुत्रस्यैव, गिरा वाचा, पुराणवाक्येन, मनूक्तं ग्राह्यम् इत्युक्त्या वा इत्यर्थः / तस्मिन् परलोके धर्मे वा, श्रद्धा आदरबुद्धिः, इति एवं, तान्त्रिकाः शास्त्रवेदिनो युक्तिज्ञाः। 'तदधीते तद्वेद' इति ठक। स्थ भवथ, इति अद्धा सत्यम् / पुराणसामान्यमुपहस्य विशेषपुराणमुपहसति-मत्स्यस्य मीनस्यापि, मत्स्यरूपधारिणो विष्णोर्वाक्यरूपस्य मत्स्यपुराणस्यापीत्यर्थः। उपदेश्यान् अनुशासनीयान् , अत एव मत्स्यान् मत्स्यपायान् , वः युष्मान् , कः सुधीः, अपि प्रश्ने, भाषताम् ? आलपतु ? न कोऽपि इत्यर्थः। मत्स्याः कस्यापि न सम्भाष्याः इति भावः। मत्स्यः उपदेष्टा इति स्वकपोलकल्पितं वदन् व्यासो न श्रद्धेयवचन इति तात्पर्यम् // 63 // (निषाद-कन्या के साथ व्यभिचार करनेसे उत्पन्न तथा भ्रातृ-पत्नीमें पुत्रोत्पादन करनेसे स्वयं भी व्यभिचार परायण ) व्यासके ही वचन ( पुराण अथवा-'मनुका कथन ग्राह्य है। इस कथन ) से उस (धर्म या व्यासवचन%Dपुराण, अथवा व्यास ) में सचमुच तान्त्रिक ( तन्त्रशास्त्रके विद्वान् , पक्षा-सूत बुननेका काम करनेवाले जुलाहे अर्थात् जुलाहेके
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________________ * सप्तदर्शः सर्गः / समान मूर्ख) तुम श्रद्धा करते हो, तब मत्स्य (रूपधारी विष्णु, पक्षा०-मछली) के उपदेश्य अर्थात् शिष्य ( अत एव मत्स्यरूप = मछलीरूप ) तुमलोगों के साथ कौन भाषण करे ? अर्थात् कोई नहीं। [ निषाद-कन्याके साथ व्यभिचार करनेपर उत्पन्न होनेसे तथा भ्रातृपत्नीमें पुत्रोत्पादन करनेके कारण स्वयं भी व्यभिचारी होनेसे व्यासके वचनरूप महाभारतादि ग्रन्थ भी अश्रद्धेय हैं और मत्यरूपधारी विष्णुद्वारा प्रतिपादित मत्स्य पुराणके उपदेशाई होनेसे मत्स्यप्राय अर्थात् अतिशय तुच्छ तुमलोगों के साथ कौन बातचीत करे ? एक तो मत्स्य ( मछली ) ही जलचरोंमें हीन एवं तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होनेसे बातचीत करनेके अयोग्य है, किन्तु तुमलोग तो उस ( मत्स्य-मत्स्यरूपधारी विष्णु ) के शिष्य हो, अत एव अतिनीच तुमलोगोंके साथ बातचीत भी कौन करे ? अर्थात् तुमलोग सम्माषणके भी योग्य नहीं हो / अथवा-श्लोकके पूर्वाद्धसे व्यासोक्त महाभारतादि पुराणोंकी निन्दा करनेके बाद उत्तराद्धंसे मनु आदि स्मृतिकारोंकी ही निन्दा करते हुए कह रहा है किमत्स्य ( मत्स्यरूपधारी विष्णु ) के भी उपदेश्य अर्थात् अनुशासनीय तुमलोगों ( मनु आदि स्मृतिकारों) के साथ बातचीत भी कौन करे ? / 'मनु'के उपदेश्य होनेसे जिस प्रकार सभी 'मानव' कहलाते हैं, उसी प्रकार 'मत्स्य' (मत्स्यरूपधारी विष्णु ) के शासित उपदेश्य होनेसे यहांपर सबको 'मत्स्य' कहकर उनका उपहास किया गया है ] // 63 // पण्डितः पाण्डवानां स व्यासश्चाटुपटुः कविः / निनिन्द तेषु निन्दत्सु स्तुवत्सु स्तुतवान्न किम् || 64 // पुनर्व्यासमेव विडम्बयति-पण्डित इत्यादि / पाण्डवानां युधिष्ठिरादीनां, चाटु पटुः मिथ्यास्तुतिवादकुशलः, कविः उत्प्रेक्षितार्थवर्णयिता, पण्डितः पाण्डितमानी, स भवतामाप्ततम इत्यर्थः / व्यासः महाभारतकारः, अपि इति शेषः / तेषु पाण्डवेषु, निन्दस्सु दुर्योधनादीन् आक्षिपत्सु, न निनिन्द किम् ? न परिववाद किम् ? दुर्योध. नादीनिति शेषः / तेषु पाण्डवेषु, स्तुवत्सु कृष्णादीन् स्तुतिं कुर्वत्सु सत्सु, न स्तुतवान् किम् ? स्तुतिं न कृतवान् किम् ? कृष्णादीनिति शेषः / तेषां निन्द्यान् निन्दन् स्तुत्यांश्च स्तुवन व्यासोऽपि पाण्डवपक्षपाती . कश्चित् कविन आप्ततमः यथार्थवादीति भावः // 64 // - पाण्डवोंकी चापलूसीमें चतुर, कवि एवं पण्डित व्यासने उन (पाण्डवों) के ( दुर्योधनादि की ) निन्दा करते रहनेपर ( उन दुर्योधनादिकी) निन्दा नहीं की है क्या ? ( कृष्णादिकी) प्रशंसा करते रहनेपर ( उन कृष्णादिकी) प्रशंसा नहीं की है क्या ? / [ महाभारत आदि के रचयिता व्यास बुद्धिमान् एवं स्वामी पाण्डवोंकी चापलूसी करने में चतुर कवि था, अतः पाण्डवोंने दुर्योधनादिकी निन्दा तथा कृष्णादिकी स्तुति की, तदनुसार ही स्वामी पाण्डवोंको प्रसन्न करनेकी नीति अपनानेवाले चाटुकारी व्यासने भी महाभारतादिमें दुर्योधनादिको निन्दा तथा कृष्णादिकी स्तुति ( प्रशंसा) की है; अतः व्यास स्वयं
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________________ 1064 नैषधमहाकाव्यम् / आप्त नहीं हैं तो उसके कथित महामारतादि ग्रन्थ-पुराणादि किस प्रकार प्रामाणिक हो सकते हैं ? अर्थात् वे सभी अप्रामाणिक तथा अश्रद्धय हैं ] // 64 // न भ्रातुः किल देव्यां स व्यासः कामात् समासजत् | दासीरतस्तदासीद्यन्मात्रा तत्राप्यदेशि किम् // 65 // कामचारी च स इत्याह-नेति / सः प्रसिद्धपारदारिकः, व्यासः सत्यवतीनन्दनः भ्रातुः विचित्रवीर्यस्य, देव्यां महिष्यां, कामात् स्मरावेगात् , न समासजत् किल ? न आसक्तः किम् ? / गुर्वेनुज्ञानान दोषश्चेत् तत्राह-तदा तत्काले, विचित्रवीर्यस्य पत्न्यां सुतोत्पत्तिकाले इत्यर्थः / दासीरतः दास्यां विदुरमातरि, रतः आसक्तः, आसीत् अभूत् , विदुरोत्पादायेति भावः / इति यत् तत्रापि दासीगमनेऽपि, मात्रा सत्यवत्या, अदेशि किम् ? आदिष्टः किम् ? अपि तु नादिष्ट इत्यर्थः / उभयत्रैव कामपरवशत्वात् प्रवृत्तस्य एवम्भूतदुश्चरित्रजनस्याप्ततमत्वासम्भवात् तद्वचनमप्रमाणमिति भावः // 65 // (तुमलोगोंका आप्ततम ) व्यास भाई (विचित्रवीर्य) की स्त्री में कामाधीन होकर नहीं आसक्त हुआ था क्या ? अर्थात् कामाधीन होकर ही विचित्रवीर्यकी पत्नीके साथ सम्भोग करनेमें व्यास आसक्त हुआ था, (योंकि यदि ऐसा नहीं होता और माताकी आशासे नियोग द्वारा विचित्रवीर्यकी खीमें सन्तानोत्पादनके लिए वह व्यास प्रवृत्त हुआ होता तो) उस (पुत्रके उत्पादनके ) समयमें ( वह व्यास ) जो दासी (विदुरकी माता ) में अनुरक्त हुआ, उसमें (विदुरमाताके साथ सम्भोग कर पुत्रोत्पादन करनेमें ) भी माताने आदेश दिया था क्या ? अर्थात् नहीं, ( अत एव जिस प्रकार दासी विदुरमाता) में अनुरक्त होने में व्यासका कामातुर होना ही कारण है, उसी प्रकार भाई विचित्रवीर्यकी स्त्रीके साथ सम्भोग करने में भी व्यासका कामातुर होना ही कारण है, माताकी आज्ञासे नियोग द्वारा पुत्रोत्पादन करना आदि नहीं ] // 65 // पौराणिक कथा-भीष्म पितामहने पिताके सुखके .निमित्त निषादराजकी कन्याके साथ विवाह करने के लिए आजन्म ब्रह्मचारी रहनेकी प्रतिज्ञा कर ली थी और राजा विचित्रवीर्य स्वयं सन्तानोत्पादनमें असमर्थ थे, इस प्रकार भविष्यमें 'सन्तान होनेकी कोई आशा नहीं होनेसे सन्तानोच्छेदके भयसे विह्वल सत्यवती (व्यासकी माता) ने व्यासको बुलाकर सन्तानोत्पादन करने के लिए आदेश दिया और उनकी आशा मानकर व्यासने भाई विचित्रवीर्यकी स्त्रीसे 'धृतराष्ट्र' तथा 'पाण्डु' नामके दो पुत्रोंको तथा उस विचित्रवीर्यकी 1. तदुक्तं मनुना-'देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यनियुक्तया। एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथञ्चन // इति (मनु० 4 / 59) एतद्विषये विशेषजिज्ञासुभिर्मन्वर्थमुक्तावली मत्कृतो 'मणिप्रभा ख्यो मनुस्मृत्यनुवादो वा द्रष्टव्यः।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 2065 दासीमें 'विदुर' नामक एक पुत्रको उत्पन्न किया। विशेष कथाप्रसङ्ग महामारतसे ज्ञात करना चाहिये। देवैर्द्विजैः कृता ग्रन्थाः पन्था येषां तदाहतौ / गां नतैः किं न तैर्व्यक्तं ततोऽप्यात्माऽधरीकृतः // 66 // देवैरिति / हे मूढाः! येषां वः, देवैः ब्रह्मादिभिः, द्विजैः व्यासादिभिश्च, कृताः रचिताः, ग्रन्थाः पुस्तकानि, 'गां प्रणमेत्' इत्यादि स्मृतयः इति यावत् / पन्थाः प्रमाणं, धर्माधर्मोपदेष्टा इत्यर्थः। तदाहती तदादरनिमित्तं, तस्मिन् ग्रन्थे श्रद्धाहेतोरित्यर्थः / निमित्तार्थे सप्तमी। गां धेनुं नतैः प्रणतः, तैः भवद्भिः, ततः गोः अपि, आस्मा स्वं, व्यक्तं स्फुटम् , अधरीकृतःहीनीकृतः, न किम् ? अपि तु कृतः एव इत्यर्थः। पशुप्रणामात् पशोरपि निकृष्टता स्यात् , न चास्य किश्चित् फलमस्तीति भावः // 66 // ( ब्रह्मा आदि ) देवों तथा ( याज्ञवल्क्य व्यास आदि ) ब्राह्मणों के बनाये गये जो ग्रंथ (श्रुति-स्मृति-पुराण) .जिन तुमलोगों के लिए प्रमाणभूत है, उन ग्रन्थों के आदरमें गायोंको प्रणाम करते ( गायोंसे नम्र अर्थात् हीन होते) हुऐ तुमलोगोंने स्पष्टरूपमें उन ( पशु-गायों) से भी अपनेको नीचा (हीन ) नहीं कर दिया क्या ? अर्थात् तुमलोगोंने गायोंको प्रणाम कर अपनेको उनसे भी अवश्यमेव हीन कर दिया। [अथवा-देवों तथा ब्राह्मणों के बनाये गये जो ग्रंथ जिन तुमलोगों के लिए प्रमाण है, उन देवों तथा ब्राह्मणों के अर्थात यज्ञादि द्वारा देवोंके तथा दान-पूजनादिद्वारा ब्राह्मणों के आदर करनेमें मार्ग है अर्थात उन देवों तथा ब्राह्मणोंने यश-दानादिद्वारा अपना आदर कराने के लिए उन ग्रन्थोंको बनाया है, जिसे तुमलोग प्रमाण मानते हो। उन ग्रंथोंके कथनानुसार गौको प्रणाम करते हुए तुमलोगोंने उनसे अपनेको स्पष्ट हो हीन नहीं किया क्या ? अर्थात् अवश्यमेव पशुको प्रणामकर अपनेको उनसे हीन बना लिया। जो जिससे नष्ट होता है, वह उससे अवश्य ही हीन (तुच्छ ) माना जाता है; अत एव गौसे नम्र होकर तुमलोगोंने उस पशु गौसे भी अपनेको हीन बना लिया अर्थात तुमलोग पशुसे भी गये-गुजरे हो गये ] // 66 // . साधु कामुकत्ता मुक्ता शान्तस्वान्तैर्मखोन्मुखैः। सारङ्गलोचनासारां दिवं प्रेत्यापि लिप्सुभिः ? // 67 // साध्विति / शान्तस्वान्तैः संयतचित्तैः, विषयभोगनिवृत्तचित्तैरित्यर्थः। मखो. न्मुखैः क्रतुप्रवणैः, याज्ञिकैरित्यर्थः / प्रेत्य मृत्वाऽपि, अन्ये तु इह जन्मन्येव परस्त्रीकामुकाः, याज्ञिकास्तु परजन्मन्यपि कामुका इति अपेरर्थः। सारङ्गलोचनाः मृगाच्यः स्त्रियः एव, साराः श्रेष्ठांशाः यस्यां तादृशी, दिवं स्वर्ग, लिप्सुभिः लब्धुमिच्छुभिः सनिः कामुकता अभिस्विरतिः, कामपरतन्त्रता इत्यर्थः। साधु सम्यक् यथा तथा, मुक्ता ? त्यका ? इति काकुः, नैव त्यक्ता इत्यर्थः। इति सिदं विहाय साध्यप्रवृत्तेरुप. हासः। तस्मात् यागकाले ब्रह्मचर्यादिकम् नात्मानमात्रफळं न चान्यत् किमपि इति भावः // 7 //
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________________ 1066 नैषधमहाकाव्यम् / शान्त चित्तवाले (विषयभोगशून्य ) तथा मरकर भी मृगलोचनी है सार जिसमें ऐसे स्वर्गको चाहनेवाले यज्ञकर्ताओंने कामुकता (कामीपने) का अच्छी तरह त्याग किया ? अर्थात् नहीं किया, ( अथवा-सुखदायिनी होनेसे श्रेष्ठ कामुकताको नहीं छोडा,' अथा-कामुकता को नहीं छोड़ा, यह ठीक है)। [इन्द्रियोंका दमनकर संयतचित्त एवं ब्रह्मचर्यधारण कर यज्ञकर्ता लोग स्वर्ग पानेके लिए यज्ञ करते हैं, किन्तु उस स्वर्गमें सारभूत पदार्थ मृगनयनी अप्सराएँ ही हैं और उन्हींको प्राप्तकर आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए ही यज्ञ किया जाता है, इससे यह प्रमाणित होता है कि यज्ञकर्तालोग यद्यपि इस जन्ममें इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए ब्रह्मचर्य धारणकर यज्ञ करते हैं तथापि मरकर भी वे मृगनयनी स्त्रियों ( अप्सराओं) के साथ सम्भोग करने के लिए ही यज्ञ करते हैं, अत एव जो मरकर भी स्त्रीकी कामुकताका त्याग नहीं कर सकते, वे भला जीवित रहते हुए इन्द्रियनिग्रहकर कामुकताका त्याग क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं; अतएव वे यज्ञकर्ता अतिशय कामुक हैं और उनका यज्ञ करते समय ब्रह्मचर्यादि पालन करना ढोंग तथा आत्मवञ्चनामात्र है ] // 67 // उभयी प्रकृतिः कामे सज्जेदिति मुनेर्मतम् | अपवर्गे तृतीयेति भणतः पाणिनेरपि // 68 // उभयीति / 'अपवर्गे तृतीया, इति भणतः कथयतः, सूत्रं कुर्वतः इत्यर्थः / पाणिनेः तदाख्यस्य प्रसिद्धवैयाकरणस्य, मुनेः ऋषेरपि, उभयी प्रकृतिः स्त्रीपुंसात्मिका द्वयी योनिः, कामे कामात्मके तृतीयपुरुषार्थे, इत्यर्थः। मिथुनधर्म मथुने वा, सज्जेत् आसक्ता भवेत् , स्त्री पुमांश्च द्वयं कामासक्तो भवेदित्यर्थः। इति मतम् अभिप्रायः स्फुटमेव इत्यर्थः। तथा तृतीया प्रकृतिः शण्ढः, क्लीब इत्यर्थः / 'तृतीया प्रकृतिः शण्ढः क्लीबं पण्डो नपुंसकम्' इत्यमरः / अपवर्गे मोक्षे, नपुंसकत्वेन मैथुनाशक्तत्वात् ब्रह्मचर्यादिद्वारा मोक्षलाभायेत्यर्थः। सज्जेत् इति पाणिनिसूत्रार्थेन उभयी प्रथमद्वितीया, प्रकृतिः स्त्रीपुंसात्मिका योनिरित्यर्थः। कामे सज्जेत् इति पारिशेष्याद् बोध्यते इति भावः। सूत्रस्थशब्दच्छलेन ताहशविकृतार्थं परिकल्प्या स्वमतसमर्थन कृतम् , वस्तुतस्तु 'अपवर्ग फलप्राप्तौ तृतीया विभक्ति'रिति तत्सूत्रस्यार्थः / तथा च वृथा कामं विहाय अपवर्गे प्रवर्त्तमाना यूयं नपुंसका हताः स्थेति भावः / / 68 // ___ 'अपवर्गे तृतीया (पा० सू० 2 / 3 / 6)' ऐसा कहते हुए पाणिनि मुनिका भी 'स्त्री-पुरुष काम ( मैथुनरूप तृतीय पुरुषार्थ) में आसक्त होवें', ऐसा मत (सिद्धान्त) है। [ यद्यपि उक्त पाणिनि-सूत्रका फलप्राप्ति द्योत्य रहनेपर काल तथा मार्गके अत्यन्त संयोगमें तृतीया विभक्ति होती है' (जैसे-अह्नाऽनुवाकोऽधीतः, क्रोशेनानुवाकोऽधीतः...... ) तथापि शब्द- 1. अन्नार्थे 'साधुकामुकताऽमुक्ता' इत्येवं पाठोऽङ्गीकार्यः। 2. अन्नाथै साधुकामुकताऽमुक्ता' इत्येवं पाठः स्वीकार्यः।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1067 च्छलसे चार्वाक कलिमुखसे अपने सिद्धान्तका प्रतिपादन करता हुआ उक्त सूत्रका वह अर्थ करता है कि–'तृतीया प्रकृतिः षण्ढः ( अमर० 2 / 6 / 39) इस कोषप्रामाण्यसे तृतीया प्रकृति अर्थात् नपुंसक व्यक्ति ( काममें असमर्थ होने के कारण ) मोक्षमें आसक्त होवे' और 'शेष उभयी प्रकृति अर्थात् स्त्री-पुरुष व्यक्ति कामसेवन ( मैथुन करने ) में समर्थ होने के कारण काम-सेवन ही करें। ऐसा मैरे (चार्वाकके ) ही आचार्योका नहीं अपितु तुमलोगों के सर्वमान्य पाणिनि मुनिका भी मत है / यह 'अपि' शब्दसे ध्वनित होता है। अथ च'धर्मार्थकाममोक्षाः स्युः' इस वचनमें 'मोक्ष' अर्थात् अपवर्गके अव्यवहित पूर्व 'काम' का कथन होनेसे 'तृतीय प्रकृति' अर्थात् नपुंसक व्यक्ति मोक्षका और शेष दो प्रकृति अर्थात् स्त्री-पुरुष व्यक्ति कामका सेवन करें यह पाणिनिका भी मत है ] // 68 // बिभ्रत्युपरि यानाय जना जनितमजनाः / विग्रहायाग्रतः पश्चाद्गत्वरोरभ्रविभ्रमम् / / 66 // बिभ्रतीति / उपरि यानाय ऊर्ध्वलोकगमनाय, जनितमजनाः निमग्नाः, तीर्थो. दकेषु कृतस्नानाः इत्यर्थः / अधः गच्छन्तः इति भावः। जनाः स्वर्गार्थिनो लोकाः, अग्रतः पुरतः, सम्मुखे इत्यर्थः, विग्रहाय युद्धाय, सम्मुखयुद्धाय इत्यर्थः, पश्चाद्व. राणां पश्चाद्वामिनाम् / 'गस्वरश्च' इति क्वरबन्तो निपातः, उरभ्राणों मेषाणां, विभ्र. ममिव विभ्रमं चेष्टां, बिभ्रति दधतीति निदर्शनालङ्कारः, स चोर्ध्वगमनाय अधो गच्छत इति स्थूलबुद्धीनां स्थूलबुद्धिप्रयासरूपविचित्रालङ्कारोत्थापित इति सङ्करः; तेन तेषामविमृश्यकारिवं व्यज्यते.इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 19 // (अब वह गङ्गादिमें स्नान करनेको निन्दा करता है-) ऊपर (पक्षा०-स्वर्ग) जाने के लिये मज्जन किये ( डुबकी लगाये, पक्षा०-नीचेकी ओर गये) हुए लोग आगे अर्थात सामनेमें युद्ध के लिए पीछे हटनेवाले भेड़ेकी चेष्टा ( समानता) को धारण करते (भेडेके समान आकृतिवाले, अथच-भेड़ेके समान मूर्ख मालूम पड़ते) हैं। [ किसीको ऊपर जाने के लिए ऊपरकी ओर उठना उचित है, न कि नीचेकी ओर बैठना, किन्तु ऊपर अर्थात स्वर्ग को जानेके लिए जो लोग गङ्गा आदि तीर्थोंमें डुबकी लगाते (नीचेकी ओर झुकते ) हैं, वे लोग आकृति तथा बुद्धिमें उस भेड़ेके समान हैं जो आगेकी ओर युद्ध करनेके लिए पीछेको हटता है। जब कोई पानी में डुबकी लगाने के लिए शीतबाथासे शिरके पीछे तथा कटिपर हाथ रखता है, अथवा-जलमें अघमर्षण करते समय नाकपर दहिना हाथ और पीठपर बायां हाथ रखता है तब वह आकारमें युद्धार्थ पीछे सरकते हुए भेड़ेके समान मालूम पड़ता है / अथच-गङ्गादिसे स्नान करनेसे स्वर्गादि प्राप्ति नहीं होनेके कारण वे स्नानकर्ता भेडेके समान महामूर्ख हैं ] // 69 // कः शमः ? क्रियतां प्राज्ञाः ! प्रियाप्राप्ती परिश्रमः / 1. 'विग्रहस्या-' इति पाठान्तरम् / 2. 'प्रियाप्रीतौ' इति पाठान्तरम् / 67 नै० उ०
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________________ 1068 नैषधमहाकाव्यम् / भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः // 70 // क इति / प्राज्ञाः! हे प्रज्ञावन्तः ! इति सोपहासमामन्त्रणं, प्रकृष्टज्ञानहीनाः इत्यर्थः, 'प्रज्ञाश्रद्धा' इत्यादिना मत्वर्थीयो णप्रत्ययः शमः शान्तिः, वैराग्यमित्यर्थः, कः ? न कोऽपीत्यर्थः। शमावलम्बनस्य न किमपि फलमस्तीति भावः। प्रियाप्राप्तौ इष्टस्त्रीसङ्गती, परिश्रमः प्रयासः, क्रियतां विधीयताम् / न च तत्पापेन नरकयातनाप्राप्तिशङ्का कार्यत्याह-भस्मीसूनस्य दग्धस्य, देहस्य कायस्य, आत्मभूतस्य इति यावत् / पुनः भूयः, आगमन परलो के प्रत्यावर्त्तनं, कुतः ? कथं सम्भवेदित्यर्थः ? / देहात्मवादिमते परलोकसद्भावेऽपि यस्मिन् देहे पापं कृतं तस्यैव भस्मीभूतत्वेन कथं पापफलभोगसम्भवः ?, देहातिरिक्तात्मवादिमते तु परलोकस्यवाभावात् पापफलभोगार्थ कृमिकीटादिदेहप्राप्तिः कथं सम्भवेत् ? इति पुनरुद्भवः श्रम एव इति निष्कर्षः॥ हे प्राशो ( अधिक ज्ञानवानों-उपहाससे मूखौं, अथवा-'प्र+अज्ञ' पदच्छेदकर हे महामूर्यो ) शान्ति अर्थात् वैराग्य क्या है ? अर्थात् यज्ञादि करनेसे मरने के बाद स्वर्ग पाकर देवाङ्गनासङ्गमकी इच्छा बने रहने के कारण शान्ति-वैराग्य कुछ भी नहीं है, अत एव प्रिया (स्त्री) को पाने ( पाठा०-स्त्रीके साथ प्रेम करने ) में अधिक श्रम (प्रयत्न ) करो, ( परस्त्री-सम्भोग करनेपर नरकादि पानेका भय भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि-) जले हुए शरीरका फिर आना ( परलोकमें शरीरान्तर ग्रहण करना ) कैसे होता है ? अर्थात् नहीं होता। [यज्ञकर्ता यज्ञ करके मरने के बाद स्वर्गमें भी देवाङ्गनाके साथ सम्भोग करनेकी इच्छा करते हैं, अतः वैराग्य कहीं भी नहीं है / इसलिए स्त्रीके साथ सम्भोग करनेके लिए भरपूर उपाय करना चाहिये / मरनेपर दूसरा शरीर धारणकर परस्त्रीसम्भोगजन्य पापके कारण दुःख भोगनेकी शङ्का भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि देहको ही आत्मा माननेवालोंके मतमें परलोक रहनेपर भी पापकर्ता देहके भस्म हो जानेके कारण तथा देहसे भिन्न आत्मा माननेवालोंके मतमें परलोकका ही अभाव होनेके कारण दूसरे देहको पाकर दुःख भोगना सम्भव ही नहीं है, अत एव जीवनपर्यन्त यथेष्ट स्त्रीसम्भोगादि करना चाहिये ] // 70 // एनसाऽनेन तिर्यक् स्यादित्यादिः का विभीषिका ? | राजिलोऽपि हि राजेव स्वः सुखी सुखहेतुभिः // 71 // अस्तु वा नरकभोगार्थ यातनाशरीरं तत्रापि सुखमेवेत्याह-एनसेति / अनेन एवं विधेन, एनसा पापेन, तिर्यक कृमिकीटादियातनाशरीरं स्याद् भवेत् , इत्यादिः एतत्प्रभृतिः, का विभीषिका ? किं ब्रासनम् ? अनिष्टाजनकत्वात् तदकिञ्चित्करमित्यर्थः, विपूर्वात् भीषयतेर्धात्वर्थनिर्देशे ण्वुल कात् पूर्वस्येकारः। हि तथा हि, 1. 'भूतस्य' इति पाठान्तरम् / 2. अयं श्लोकः 'प्रकाश' कृता 'उभयी प्रकृति.. (1768)' तः प्राग्व्याख्यातः। 3. 'प्रत्ययस्थात्कारपूर्वस्य' इत्यनेन सूत्रेणेति बोध्यम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1066 'राजिलः दुण्डुभाख्यः निर्विषः सोऽपि / 'समौ राजिलकुण्डभौ' इत्यमरः / स्वैः आत्मीयः, स्वजात्यनुरूपैरित्यर्थः। सुखहेतुभिः जलविहारभकभक्षणसजातीयरमणीसम्भोगादिभिः सुखसाधनैः, राजा इव नृपतिवत् , सुखी सुखवान् , सुखमनुभवतीत्यर्थः। तिरश्वामपि शरीरेन्द्रियाभिमानिनां सुखानुभूतिरस्ति / अतः तिर्यगयोनित्वे प्राप्तेऽपि तद्धेतोः पापात् न भेतव्यम् इति भावः // 71 // ___इस ( परस्त्री-सम्मोग, ब्रह्महत्यादि ) पापसे तिर्यग् योनि होगी, इसमें कौन-सा भय है, क्योंकि ( स्वजातिवालोंमें हीनतम ) राजिल अर्थात् डोंड़ साँप भी अपने ( अनुकूल मण्डूकादि भक्षण एवं स्त्रीसम्भोग आदि ) सुखके कारणोंसे राजाके समान सुखी रहता है। [अतः परस्त्री-गमन, ब्रह्महत्यादि पापसे तिर्यग् योनि प्राप्त करनेपर अपार दुःख भोगने पड़ते हैं, इत्यादि भय करना व्यर्थका भ्रम है ] // 71 // हताश्चेदिवि दीव्यन्ति दैत्या दैत्यारिणा रणे / तत्रापि तेन युध्यन्तां हता अपि तथैव तु / / 72 / / अन्यच्च शास्त्रं विडम्बयति-हता इति / रणे युद्धे, हताः विनष्टाः, शूरा इति शेषः / दिवि स्वर्गे, दीव्यन्ति क्रोडन्ति, चेत् यदि, दिव्यदेहं प्राप्येति भावः / तर्हि दैत्यारिणा विष्णुना, हताः रणे विनष्टाः, देत्याः असुराः, पापकारिण इति भावः / तत्रापि स्वर्गेऽपि, तेन विष्णुना सह, युध्यन्तां युध्येरन् , रणे हतत्वात् दिव्यदे प्राप्य इति भावः। यस्मात् हता रणे विनष्टा अपि, ते देत्याः, तथैव सम्मुखरण. हतस्वात् स्वर्ग जीवनविशिष्टा एव; मरणसमयेऽपि देत्यारिणा सह शत्रुभावस्य हृदये वर्तमानतया स्वर्गगमनेऽपि असुरभावस्य वर्तमानत्वात् , तत्रापि तेन सह सङ्ग्राम. यितव्यमेव, न चैतदस्ति, तस्मादपि शास्त्रं मृषा इति निष्कर्षः // 72 // __ यदि युद्ध में मारे गये ( शूरवीर ) स्वर्ग में कोड़ा करते हैं तो (विष्णुके द्वारा मारे गये भी हिरण्यकशिपु आदि ) दैत्य उस स्वर्गमें भी ( देवरूप देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर भी मरणकालमें भी आसुर भाव रहनेसे ) उस विष्णुके साथमें उसी प्रकार युद्ध करें। [युद्धमें शरीर त्यागकर शूरवीर स्वर्गमें जाते हैं इस सिद्धान्तके अनुसार विष्णु भगवान्ने जिन हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंको युद्ध में मारा है, वे भी स्वर्गमें जाकर देव हुए होंगे, किन्तु मरने के समयमें आसुर भाव बने रहने के कारण देवशरोर पा लेनेपर भी उस आसुर भावका त्याग नहीं होनेसे वहां स्वर्गमें भी उन दैत्योंको देवों तथा विष्णु भगवान्के साथ युद्ध करना उचित था, किन्तु ऐसा होनेका प्रमाण किसो पुराणादिमें नहीं मिलनेसे ज्ञात होता है कि युद्धमें मरनेपर देव होकर स्वर्गमें क्रीड़ा करनेकी कल्पना केवल भ्रममात्र है ] // 72 // स्वञ्च ब्रह्म च संसारे मुक्तौ तु ब्रह्म केवलन् / 1. 'हतावपि' इति पाठान्तरम् / 2. यं यं वापि रमरन् भावं त्यजस्यन्ते कले. वरम्' इत्यादि भगवद्गीतोक्तेरिति बोध्यम् /
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________________ 1040 नैषधमहाकाव्यम् / इति स्वोच्छित्तिमुक्तथुक्ति वैदग्धी वेदवादिनाम् / / 73 // अथ मायावादिवेदान्तसिद्धान्तविशेषं विडम्बयति-स्वमित्यादि / संसारे संसाराव. स्थायां, स्वञ्च जीवात्मप्रपञ्चश्व, ब्रह्म च अनाद्यविद्याविलासवासनाविद्यमानभेदं ब्रह्म च इति द्वयमेव, तथा मुक्तौ मोक्षावस्थायान्तु, केवलं जीवात्मारञ्चरहितम् एकं, ब्रह्म, उभयत्रापि वर्तते इति शेषः / यथा आकाशस्थ घटाद्यपाधिनिवृत्तौ घटाकाशादिनिवृत्या आकाशमात्रेणावस्थानं तथा ब्रह्मात्मनः संसारोपाधिनिवृत्ती जीवात्मनिवृत्त्या 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' इत्यादिना ब्रह्मात्मस्वरूपेणेव अवस्थानं भवतीत्यर्थः / इति वेदवादिनां वेदान्तशास्त्रिणां, स्वस्य जीवस्य, उच्छित्तिः विनाश एव, मुक्तिः, मोक्षः, तस्याः उक्तौ प्रतिपादने, वैदग्धी वदग्ध्यं, वाक्चातुर्यमित्यर्थः / 'गुणवत्र-' इत्या. दिना ष्य , स्त्रीत्वविवक्षायां 'विद्वौरादिभ्यश्च' इति डोः। दृश्यते इति शेषः / यस्य जीवात्मनः कृते सर्वमेव, तस्यैव उच्छेदः प्रतिपादित इत्यहो वाक्चातुर्यमित्युपहासः।। संसारदशामें जीवात्मस्वरूप प्रपञ्च तथा ब्रह्म-दोनों ही हैं मुक्ति होनेपर (जीवात्मस्वरूपप्रपञ्चरहित ) केवल ब्रह्म ही है, यह वेदान्तियोंका स्व ( आत्मा जीवात्मा ) का अभावरूप मुक्तिके कथनमें बड़ा भारी चातुर्य है / [ जिस प्रकार घटकाशको घटोपाधिके निवृत्त हो जानेपर केवल आकाश हा रह जाता है, उसी प्रकार वेदान्तियोंके मतसे संसारोपाधिके निवृत्त हो जानेपर स्त्र = जीवात्माकी भी निवृत्त हो जानेके बाद केवल शुद्ध ब्रह्म ही रह जाता है यही 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' श्रुतिका अभिप्राय है / उसको खण्डन करता हुआ चार्वाक कलिके मुखसे कहलवाता है कि मुक्ति-दशामें स्व-जीवात्माका अर्थात् अपना ही उच्छेद कहलानेवाले वेदान्तियोंका मुक्तिकथनमें बड़ा चातुर्य है, अर्थात् जो अपना ही उच्छेद स्वयं स्वीकार करता है, वह चतुर नहीं, किन्तु महामूर्ख है, इस प्रकार वेदान्तियोंका यहाँ उपहास किया है, क्योंकि लोकमें भो जो कोई व्यक्ति अपना ही उच्छेद (विनाश ) स्वीकार कर दूसरेकी स्थिति स्वीकार करता है उसे मूर्ख ही माना जाता है ] // 73 // मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / गोतमं तमवेतैव यथा वित्थ तथैव सः / / 74 // न्याय-वैशेषिकसम्मतां मुक्तिं दूषयति-मुक्तये इति / यः शास्त्रकर्ता, सचेतसां प्राणिनां, शिलात्वाय सुखदुःखादिसंवेदनाभावात् पाषाणावस्थास्वरूपाय, मुक्तये मोक्षाय, शास्त्रं न्यायशास्त्रम, ऊचे प्रणिनाय, तत्वज्ञानेन मिथ्याज्ञानदोषादीनां क्रमशो विनाशात् 'तदत्यन्तवियोज्ञोऽपवर्गः' इति सूत्रेण आत्यन्तिकदुःखनिवृत्तिरूपामुक्तिः गौतमेन व्यवस्थापिता, तेन च नवविधात्मविशेषगुणोच्छेइरूपा मुक्ति प्रतिपाद्यते, इत्य भुक्तस्य पापामसहशत्वमायातमिति साकः / तं तच्छास्त्रकर्तारं मुनि, गोतम मेव न केवलं नाग्नेव गोतमं किन्तु अर्थतोऽपि गोतममेव उत्कृष्टगावमेव इत्यर्थः / 1. 'तमवेक्ष्यैव' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1071 अवेत जानीत / अवपूर्वादिणो मध्यमपुरुषबहुवचनम् / एवञ्च सति यथा विस्थ तं गोपशुश्रेष्ठत्वेन यथा जानीथ / वेत्तेः पूर्ववद्रपम् / सः तथा एव मन्मतेऽपि सः अर्थतोऽपि गोतमः गोपशुश्रेष्ठ एव, शिलावस्थास्वरूपमोक्षोपदेशाद् गोतमः पशुतमः, मूढतमः एवेत्यर्थः / यौगिकोऽयं शब्दो न तु योगरूढः, वैशेषिका अपि न्यायमतानुसारितया तद्पा इति भावः॥ 74 // जिस ( न्याय वैशेषिककार गोतम मुनि ) ने चेतनायुक्त प्राणियोंके ( सुख-दुःखादिका अनुभव नहीं होनेसे ) पाषाणस्वरूपा मुक्तिके लिए ( न्यायवैशेषिक ) ग्रन्थ बनाया, उसे गोतम ( 'गोतम' नामक मुनि, पक्षा०-विशिष्ट गौ पशु ) ही जाने और जैसा (गोतम = उस नामवाले मुनि, पक्षा०-विशिष्ट गौ पशु ) जानते हो, वह वैसा ( महापशु) ही है। [ न्यायवैशेषिककार गौतम मुनिका सिद्धान्त है कि 'मुक्ति होनेपर तत्वज्ञान हो जानेसे प्राणीको मिथ्या सुख-दुःखादिका अनुभव नहीं होता' यही 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः' वाक्यका आशय है, उसीका कलि के मुखसे उपहास करता हुआ चार्वाक कहता है कि प्राणीको यदि सुख-दुःखका अनुभव ही नहीं होता तो वह पाषाणतुल्य है और उसे ही मुक्ति मरनेवाला गोतम मुनि केवल नामसे ही 'गोतम' (विशिष्ट गोरूप पशु ) नहीं है, किन्तु अर्थसे भी 'गोतम' (विशिष्ट गोरूप पशु ) है ] // 74 // दारा हरिहरादीनां तन्मग्नमनसो भृशम् / किं न मुक्ताः ? पुनः सन्ति कारागारे मनोभुवः / / 75 / / हरिहरहिरण्यगर्भोपासनया मुक्तिरिति मतं निरस्यति-दारा इति / हरिहरादीनां दाराः लचम्यादयः स्त्रियः, भृशम् अत्यर्थ, तेषु हरिहरादिषु एव, मनमनसः लग्न. चित्ताः, तद्भावभाविताः सन्तः अपि इत्यर्थः / किं कथं, न मुक्ताः ? मोक्ष न प्राप्ताः? प्रत्युत मुक्तिः दूरे आस्तां, मनोभुवः कामस्य, कारागारे बन्धनालये / 'कारा स्याद् बन्धनालये' इत्यमरः / पुनः सन्ति सदैव कामपरवशा वर्तन्ते, अतो हरिहरायपामनया मुक्तिप्रतिपादकं ततच्छास्त्र मिथ्यैवेति भावः // 75 // विष्णु तथा शिव आदिकी ( लक्ष्मी, गौरी आदि) स्त्रियां उन (विष्णु तथा शिव आदि ) में अत्यन्त संलग्नचित्ता हैं तो वे क्यों नहीं मुक्त हो गयीं ? (प्रत्युत) वे तो कामदेवके कारागार ( जेल = बन्धन ) में हैं अर्थात् कामके परवश हैं। [विष्णु तथा शिव आदिके ध्यान-पूजन आदिसे ही मुक्ति होती तो उनमें सत संलग्नचित्तवाली उनकी श्री लक्ष्मी, गौरी आदिको भी मुक्त हो जाना चाहिये था, किन्तु देखा जाता है कि वे मुक्त नहीं, अपितु कामके पराधीन हैं, अत एव 'सकृदुच्चरितं येन 'शिव' इत्यक्षरद्वयम्' तथा 'मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यः स मामेति पाण्डव' इत्यादि शिव तथा विष्णु आदिकी उपासनासे मुक्तिप्राप्ति बतलानेवाले शास्त्र मी मिथ्या ही हैं ] // 75 // देवश्चेदस्ति सर्वज्ञः करुणाभागबन्ध्यवाक् / तत् किं वाग्व्ययमात्रानः कृतार्थयति नार्थिनः 1 // 76 / /
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________________ 1072 नैषधमहाकाव्यम् / ..किञ्च, न्यायमतसिद्ध ईश्वरोऽपि नास्ति यत्प्रसादात् मुच्येमहीत्याह-देव इति / सर्वज्ञः भूतभविष्यद्वर्त्तमानयावद्वस्तुविषयकज्ञानवान् , करुणाभाक कारुणिकः, वैष. म्य धुण्यरहितबुद्धिः इत्यर्थः / अबन्ध्यवाक् अमोघवचनः, वेदरूपसत्यवचन इत्यर्थः / यथोक्तार्थसम्पादकवचन इत्यों वा, देवः ईश्वरः, अस्ति विद्यते, चेत् यदि, तत् तर्हि, अर्थिनः मोक्षार्थिनः, नः अस्मान् , वागव्ययमात्राद् भवन्तो मुक्ता भवन्विति वाक्यो. वारणमात्रेण, किं कथं, न कृतार्थयति ? न मोचयतीत्यर्थः / स सर्वज्ञादिविशेषणत्रयविशिष्टोऽपि याद न मोचयितुं समर्थो भवति, तदा स नास्त्येवेति भावः // 76 / / सर्वज्ञ ( भूत भविष्य वर्तमानके समस्त कार्योको जाननेवाला), दयालु और ( वेदरूप) सत्यवचनवाला ( अथवा-सदा-सर्वदा सफल वचनवाला ) देव ( ईश्वर ) है तो वह मुशिमुक्ति के इच्छुक हम लोगोंको केवल वचनमात्रसे ( 'तुम लोग मुक्त हो गये' इतना कहनेमात्र ) क्यों नही कृतार्थ करता है ? [ यदि वह नैयायिक-सम्मत उक्त गुणों वाला 'ईश्वर' होता तो केवल वचनमात्रसे हमलोगों को मुक्त कर देता, किन्तु ऐसा नहीं करता इसलिए मानना पड़ता है कि 'ईश्वर' नामक कोई देव नहीं है ] // 76 // अविनां भावयन् दुःखं स्वकमजमपीश्वरः / स्यादकारणवैरी नै कारणादपरे परे / / 77 / / कर्ममीमांसकमतं दूषयति-भविनामिति / भविनां संसारिणां, स्वकर्मजं निज कर्मजातम् अपि, दुःखं क्लेशं, भावयन् दुःखोत्पत्तौ औदासीन्यं विहाय निमित्तं भवन् : दुःखोत्पत्तौ प्रवर्तयन् वा, ईश्वरः नः अस्माकम् , अकारणात् अहेतोः, वैरी शत्रुः, स्थात् भवेत् , अपरे अन्ये, कारणात् अन्योऽन्यापकारलक्षणात् निमित्तात् , परे वैरिणः, भवन्ति इति शेषः / अतः सोऽपि न विश्वसनीयः इति भावः // 77 // संसारियों के अपने कर्मजन्य दुःखोंकी प्राप्त करता हुआ अर्थात् स्वकर्मानुसार दुःख भोगनेमें निमित्त होता हुआ ईश्वर हमलोगोंका अकारण शत्रु बनता है, दूसरे लोग तो (स्त्री-धनादिके अपहरण आदिरूप परस्पर अपकार करने के ) कारणसे वैरी होते हैं। [संसारियोंको यदि अपने-अपने कर्मानुसार दुःखादि भोगना हो है तो ईश्वरका उस दुःखको संसारियों के द्वारा भोगनेमें निमिता होना केवल हम संसारियोंके साथमें अकारण द्वेष करना ही है, अतः दूसरे लोग तो परस्परमें अपकार करने के कारण किसीका वैरी बनते हैं, किन्तु वह ईश्वर तो अकारण ही दुःख भोग कराने में निमित होकर हम संसारियों के साथ द्वेष करता है, अत एव 'वह ईश्वर कारुणिक आदि गुणोंसे युक्त है' यह कथन सर्वथा मिथ्या है, इस कारण दुःख भोग करने में कर्मकी प्रधानता होनेसे ईश्वर है ही नहीं ] // 77 // 1. 'कारणवैरी न' इति पाठे काका व्याख्येयम् , इति सुखावबोधा इति म० म० शिवदत्तशर्माणः / तत्र तथा पाठाङ्गीकारे छन्दोभङ्गात् 'स्यान्न कारणवैरी नः' इति पाठः साधुः प्रतिभाति /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1073 तर्काप्रतिष्ठया साम्यादन्योऽन्यस्य व्यतिघ्नताम् / नाप्रामाण्यं मतानां स्यात् केषां सत्प्रतिपक्षयन् ? // 78 // किञ्च, सर्वाण्यप्यास्तिकमतानि परस्परविरोधादप्रामाण्यान्येवेत्याह-तर्केति / तर्कस्य प्रामाण्योपपादकयुक्तः, अप्रतिष्ठया अनन्ततया, एकत्र परिनिष्ठितत्वाभावेन कारणेन इत्यर्थः / यत् साम्यं तुल्यत्वं, व्याप्तिपक्षतादिरूपसमबलत्वमित्यर्थः / तस्मात् हेतोः, अन्योऽन्यस्य परस्परस्य, व्यतिघ्नतां दूषयतां, विरोधिप्रमाणसद्भावेन परस्परं फलनिश्चयं प्रतिरुन्धतामित्यर्थः / 'सर्वनाम्नी वृत्तिमात्रे द्वे भवतः' इति अन्य शब्दस्य द्विरुक्तिः, पूर्वपदात् प्रथमैकवचनं, शेषे कर्मणि षष्ठी, कर्मव्यतीहारे द्योतना. र्थोऽप्युपसर्गप्रयोगः, 'इतरेतरान्योऽन्योपपदाच्च' इति प्रतिषेधात् कर्मव्यतीहारेऽप्या. स्मनेपदाभावः / केषां मतानां दर्शनानां, सत्प्रतिपक्षवत् सन् वर्तमानः, प्रतिपक्ष: विरोधिसाध्यसाधको हेतुर्यस्य स सत्प्रतिपक्षस्तद्वत् मिथः प्रतिरुद्धसाध्यसाधकहेतू. नाम् इव, अप्रामाण्यम् अनैकान्तिकत्वं न स्यात् ? अपि तु सर्वेषामेव तत् स्यादेव इत्यर्थः तथा हि वैशेषिकादयो यथा कार्यत्वहेतुना घटादिदृष्टान्तेन शब्दस्यानित्यत्वं प्रमाणयन्ति, तथा मीमांसका अपि निरवयवत्वादिहेतुना आत्माकाशादिदृष्टान्तेन शब्दस्य नित्यत्वं व्यवस्थापयन्ति, इत्थञ्च तादृशमतद्वयस्य समबलतया एकत्र प्रामा. ण्यनिश्चयाभावेन च तदुत्तरं मध्यस्थस्य शब्दो नित्यो न वेति संशयोत्पादात् निश्चयरूपफलोत्पादविरहात् तादृशमतद्वये एव अप्रामाण्यज्ञानं जायते इति भावः // 7 // तर्क (प्रमाण्योपपादक युक्ति) के अनन्त होनेसे समानताके कारण (सुन्दोपसुन्द न्यायसे ) परस्परको दूषित करते (विरोधी प्रमाण होनेसे परस्परमें फल-निश्चय नहीं करते ) हुए किन मतों ( सिद्धान्तों अर्थात् प्रमाणाभावसे समान अनुमानादिका, अथवास व-असत्व, एकात्म्य-नानात्म्य, ईश्वरत्व-अनीश्वरत्व आदि ) का सत्प्रतिपक्षके समान अप्रामाण्य (प्रमाणाभावत्व ) नहीं होगा ? अर्थात् सबका अप्रामाण्य हो जायेगा। [इसका आशय यह है कि जिस प्रकार वैशेषिक घट आदिका दृष्टान्त देते हुए कार्य होनेसे शब्दको अनित्य मानते हैं और मीमांसक आत्मा आदिका दृष्टान्त देते हुए निरवयव होनेसे शब्दको नित्य मानते हैं, इस अवस्थामें पूर्वोक्त दोनों मतोंके समबल होनेसे किसी एक प्रामाण्यनिश्चय नहीं होनेके कारण तटस्थ (वैशेषिक तथा मीमांसकसे भिन्न तृतीय) व्यक्तिको 'शब्द नित्य है या अनित्य ? ऐसा सन्देह होनेपर उक्त दोनों मतोंमें अप्रामाण्य बुद्धि हो जाती है, उसी प्रकार प्रामाण्यनिश्चायक तर्कोंकी अनेकता होनेसे और सबमें समानता होनेसे उन सभी मतोंका अप्रामाण्य हो जायेगा] // 78 // अक्रोधं शिक्षयन्त्यन्यान् क्रोधना ये तपोधनाः। निर्धनास्ते धनायेव धातुवादोपदेशिनः // 79 // अक्रोधमिति / क्रोधनाः स्वयं कोपनशीलाः / 'धमण्डार्थेभ्यश्च' इति युच् / ये
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________________ 1074 नैषधमहाकाव्यम् / तपोधनाः दुर्वासाप्रभृतयः, अन्यान् इतरान् , अक्रोधं सर्वानर्थहेतुत्वात् क्रोधः परि. हर्त्तव्य इत्यादिना क्रोधपरिहारं, शिक्षयन्ति उपदिशन्ति / 'विशासि-' इति द्विका मकत्वम् / ते मुनयः, निर्धनाः स्वयं निःस्वाः जनाः, धनायें धनार्थ, धातुवादोपदे. शिनः ईदृशप्रक्रियातो लौहः स्वर्णो भवेदित्यादिना परेषां धातुविद्योपदेष्टारः इव, उप. हास्या भवन्ति इति शेषः / धातुविद्योपदेष्टस्ताहशप्रक्रिया यदि फलवती स्यात् तदा स्वस्य कथं निर्धनत्वमिति स यथा उपहास्यः तद्वत् उपहास्याः स्युरिति भावः // 79 // सर्वदा क्रोध करनेवाले (दुर्वासा आदि ) जो तपस्वी लोग दूसरोंको क्रोध नहीं करनेकी शिक्षा देते हैं ( पाठा०-दूसरोंसे क्रोध नहीं करनेकी शिक्षा दिलवाते हैं ), वे निर्धन तपस्वी धन (पाने ) के लिए ही धातुवाद (क्रिया-विशेष के द्वारा लोहे आदि हीनजातीय धातुको चाँदी-सोना आदि उत्तम जातीय धातु बना देने ) का उपदेश देते हैं। [ जिस प्रकार स्वयं निर्धन कोई व्यक्ति 'इस विधिसे लोहा-ताँबा आदि हीनधातु चाँदी-सोना आदि उत्तम धातु बन जाता है। ऐसा उपदेश किसीको देते हैं किन्त स्वयं उस विधि द्वारा सोना बनाकर धनवान् नहीं हो जाते तो यही मानना पड़ेगा कि यह धन लेने के लिए मुझे ठग रहा है अन्यथा स्वयमेव सोना बनाकर धनी क्यों नहीं हो जाता ? उसी प्रकार दुर्वासा आदि मुनि जो सर्वदा क्रोध करते देखे गये हैं, वे जो दूसरोंको उपदेश देते हैं या दिखलाते हैं कि क्रोधका सर्वथा त्याग करना चाहिये, यह उनका उपदेश दूसरेको वञ्चित करना मात्र है वास्तविक नहीं, अतः उनका उपदेश भी मानने योग्य नहीं है ] // 79 // किं वित्तं दत्त ? तुष्टयमदातरि हरिप्रिया / दत्त्वा सर्व धनं मुग्धो बन्धनं लब्धवान बलिः / / 80 // किमिति / हे वदान्याः! वित्तं धनं, किं किमर्थं, दत्त ? वितरत ? न दातव्यमिस्यर्थः / सम्प्रश्ने लोट / न च अदाने लक्ष्मीनोभ आशङ्कनीय इत्याह-यतः इयं वित्तरूपा, हरिप्रिया लक्ष्मीः, अदातरि कृपणे एव, तुष्टा प्रसन्ना, अदानेनैव तुप्यती. त्यर्थः / तथा हि, मुग्धः मूढः, दानव्यसनीति भावः / बलिः वैरोचनिः, सर्वं धनं सर्वस्वं, दत्त्वा प्रदाय, वामनरूपाय विष्णवे इति भावः / बन्धनं संयमनं, लब्धवान् प्राप्तवान , त्रिविक्रमेण तेनैव बद्धः इत्यर्थः / दानविधायकं शास्त्रमपि तथा प्रमाणम् , एवञ्च कृपणे सम्पदपाया लदम्या अवस्थानदर्शनाद् दानं न कर्त्तव्यमेवेति भावः // 8 // (तुमलोग ) धनको क्यों देते ( यज्ञादिमें सत्पात्रों के लिए दक्षिणादिरूपमें दान करते ) हो ? अर्थात् ऐसा मत करो, ( क्योंकि ) यह विष्णुप्रिया ( लक्ष्मी) दान ( उपभोग आदि) नहीं करनेवाले ( कृपण ) पर ही प्रसन्न रहती ( उसके पास सदा निवास करती ) है। दानव्यसनी अर्थात् महादानी ( अथ च-दान महत्त्व प्रतिपादक स्मृति-पुराणादिमें श्रद्धालु) बलि सम्पूर्ण धन दान करके ( वामनके द्वारा) बन्धनको प्राप्त हुआ। [ यह देखा गया है कि जो धनका दान तथा उपभोग नहीं करते, उन्हीं कृपणों के यहां लक्ष्मी रहती हैं, और
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1075 दान करनेवाले निर्धन होकर दुःखी रहते हैं, उदाहरणार्थ ( पृथ्वीरूप) सम्पूर्ण धनको वामनके लिए दान करनेवाला मूर्ख बलि वाग्बद्ध हुआ ( या वामनसे बांधा गया) और उसे पातालमें जाना पड़ा। इससे यह प्रमाणित होता है कि जिस स्मृतिपुराण शास्त्रमें दानकी श्रेष्ठता बतलायी गयी है, उसी स्मृति-पुराण शास्त्रमें दान करनेसे बलिके बांधे जाकर दुःख पानेके उदाहरण मिलते हैं, अत एव यज्ञादिमें दान करना निष्फल एवं दुःखमात्र फलदाता है / इस श्लोकमें लक्ष्मीके लिए 'हरिप्रया' शब्दका प्रयोग होनेसे पतिके मांगनेपर धन देनेवाले बलिके ऊपर लक्ष्मीको प्रसन्न होकर सुख पहुंचना चाहिये था, किन्तु उलटे विष्णुकी प्रिया लक्ष्मीको बलिने उसे ( लक्ष्मीको ) उस ( लक्ष्मी) के पति (वामनरूपी श्रीविष्णु) के पास पहुंचाकर भी बन्धन प्राप्त किया, अतः जो लक्ष्मीको किसीके लिए नहीं देता, उसीपर वह प्रसन्न रहती हैं यह सूचित होता है / अत एव दानादि करना व्यर्थ है ] // 8 // पौराणिक कथा-दैत्यराज बलि यज्ञ कर रहा था, उसके प्रभावसे भयात इन्द्रकी प्रार्थना करनेपर विष्णु भगवान् वामनका रूप धारणकर उस बलिकी यज्ञशालामें गये और उससे साढ़े तीन पैर भूमिको दानमें मांगा। अपने कुलगुरु शुक्राचार्यके बारबार निषेध करनेपर भी यज्ञमें पधारे हुए याचक ब्राह्मणको निराश लौटाना अनुचित मानकर बलिने उतनी भूमि दानमें दे दी तब वामनने विराट रूप धारणकर तीन पैरसे तीनों लोकों को माप लिया तथा शेष आधे पैरके स्थानमें बलिकी पीठ मापकर उन्हें पाताललोकमें भेज दिया। दोग्धा द्रोग्धा च सर्वोऽयं धनिनश्चेतसा जनः / विसृज्य लोभसङ्खोभमेकद्वा यद्यदासते / / 81 // दोग्धेति / अयं परिदृश्यमानः, सर्वः निखिलः जनः, लोकः, धनिनः धनिकान् , दोग्धा दोहनशीलः, परोपकारस्य कर्त्तव्यताद्युपदेशादिना धनिभ्यो नित्यं धनसंग्रह करोतीत्यर्थः, तथा चेतसा मनसा, द्रोग्धा च द्रोह करणशीलश्च, अनिष्टचिन्तनपर इत्यर्थः / कथमेनं वञ्चयित्वा एतस्य धनादिकं संगृह्णीयामित्येवं मनसि तस्यानिष्टं चिन्तयतमिति भावः / ताच्छील्ये तृन् , अत एत्र 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः। कदाचिदेतस्य व्यभिचारोऽपि दृश्यते इत्याह-लोभसक्षोभं धनाभिलाषजन्यं मानसचाञ्चल्यं, बिसृज्य विहाय, संयम्य इत्यर्थः / एको द्वौ वा येषां ते एकद्वाः, न तु तृतीयः इति भावः / 'सङ्खघयाव्यय-' इत्यादिना बहुव्रीही, 'बहुव्रीही सङ्खयेये' इति डचसमासान्तः। यदि सम्भावनायाम् ' उदासते निःस्पृहाः तिष्ठन्ति, तादृशलोभसक्षोभरहितो जनः अत्यल्प एव इति सम्भावयामि इति भावः / तथा च प्रतारकाणामुदरपूरको दानधर्मः सत्पात्राभावात् त्याज्य एवेति निष्कर्षः // 81 // ये सभी लोग धनिकोंसे (धन-दानादिका उपदेश देकर धनको) दुहनेवाले ( येन केनापि प्रकारेण धनको लेनेवाले ) ओर मनसे द्रोह करनेवाले अर्थात् किस प्रकार इसका 1. 'विषज्य' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1076 नैषधमहाकाव्यम् / सम्पूर्ण धन मुझे प्राप्त हो जायेगा, यह इतना धनवान् होकर सुखी कैसे हो गया ? इत्यादि सोचते हुए बैर करनेवाले हैं / लोभ (धनिकोंसे येन केनापि प्रकारेण धन लेनेकी प्रवृत्ति, अथवा कृपणताके परवश होकर धनको सुरक्षित रखने ) के संक्षोभको छोड़कर (पाठा०बलात्कारसे रोककर ) धनिकोसे धन लेने में यदि कोई उदासीन होते हैं तो वैसे केवल एक या दो ही हैं, अधिक नहीं [ अत एव दानादि करने का उपदेश वञ्चना एवं अपनो उदरपूर्तिका साधनमात्र है, परलोकमें सुखोत्पादक नहीं, इस कारण दान करना नहीं चाहिये ] / / 81 // देन्यस्यायुष्यमस्तैन्यमभक्ष्यं कुक्षिवञ्चना / स्वाच्छन्द्यमृच्छतानन्द-कन्दलीकन्दमेककम्।। 82 / / दैन्यस्येति / अस्तैन्यम् अस्तेयं, चौर्याभावः इत्यर्थः / क्वचित् प्रप्तज्य प्रतिषेधेऽपि मसमास इष्यते अहिंसेतिवत् / दन्यस्य दारिद्रयस्य, आयुषे हितम् आयुष्यं वृद्धिकारकमित्यर्थः / चौर्य विना दैन्यं नापयातीति भावः / हितार्थे यत्-प्रत्ययः / अभक्ष्य लशुनग्राम्यशूकरादिभोजनविरतिः, कुक्षः जठरस्य, वञ्चना प्रतारणा एव, सुस्वादुवा स्तुभोजनपरित्यागात् जठरमेव वञ्चितं भवति, न तु ततः कश्चित् धर्म इति भावः अतः आनन्दकन्दलीकन्दम् आनन्दाङ्करमूलसकलसुखबीजभूतमित्यर्थः, एककस् एक. मात्रम् , असहाये कन्-प्रत्ययः। स्वाच्छन्द्यं स्वेच्छाचारित्वम् , ऋच्छत अवलम्बध्वम् , श्रुतिस्मृतिपुराणादिप्रतिपादितान् निषेधान् उल्लङ्घय सकलसुखनिदानं स्वेच्छाचारित्वमेव कुरुतेति भावः // 82 // ___ अचौर्य ( चोरी नहीं करना ) दीनताकी आयुका हितकारी है (चोरी नहीं करनेसे दीनता बहुत दिनोंतक बनी रहती है, अतः चोरी करके दीनता ( दरिद्रता ) को दूर करना चाहिये ), अमक्ष्य ( लशुन, प्याज, ग्राम्यसूकर आदि अभक्ष्य हैं यह कथन ) पेटको वञ्चित करना ( ठगना ) ही है ( सुस्वादु एवं पुष्टिकारक लहसुन, प्याज, ग्राम्यसूकरका मांस आदि नहीं खाना पेटको ठगना है, अतः इनको अभक्ष्य बतलानेवाले धर्मशास्त्र वचनोंकी अवहेलना करके इनका भक्षण करना चाहिये / अधिक क्या कहा जाय-) आनन्दकन्दका मूल स्वच्छ. न्दता ( श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त धर्मका त्यागकर स्वेच्छाचरिता जो कुछ भी खाना, जिस किसीके साथ सम्भोग करना आदि ) का आश्रय करो / / 82 // इत्थमाकर्ण्य दुर्वर्णान् शक्रः सक्रोधतां दधे / अवोचदुच्चैः कस्कोऽयं धर्ममर्माणि कृन्तति ? / / 83 // इत्थमिति / शक्रः इन्द्रः, इत्थम् एवंविधान् , दुर्वर्णान् वेदादिदूषकाणि चार्वाकदुर्वाक्यानि, आकर्ण्य श्रुत्वा, सक्रोधतां दधे चुक्रोध / कः ? अयं वेदादिदूषकः जनः, कः ? क इत्यस्य कोपे द्विरुक्तिः / 'कस्कादिषु च' इति सकारः। धर्ममर्माणि अति १.'-धं विन्दता-' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1077 सारभूतानि धर्मरहस्यानि, कृन्तति ? छिनत्ति ? इति उच्चैः तारम् , अबोचत् अकथ. यत् , शक्र इति शेषः // 83 // इस प्रकार ( 17 / 36-82, श्रुति-स्मृति-पुराण-प्रतिपादित धर्मकी निन्दा करनेवाले ) दूषित अक्षरोंको सुनकर इन्द्र क्रद्ध हो गये और 'धर्मकी जड़को यह कौन काट रहा है ?? ऐसा ऊँचे स्वरसे बोले / / 83 // लोकत्रयीं त्रयीनेत्रां वज्रवीर्यस्फुरत्करे / ___ क इत्थं भाषते पाक-शासने मयि शासति ? // 4 // लोकेति। त्रयीनेत्रां बाह्यप्रत्यक्षाविषयपदार्थज्ञापकवेदत्रयचतुषं, लोकत्रयों त्रिलोकी, वज्रवीर्येण कुलिशप्रभावेण, स्फुरत्कारे दीप्यमानहस्ते, पाकशासने पाकासुर. घातिनि, एतेन धर्मदूषकाणां हननसामर्थ्य स्वस्य सूचितम् / मयि देवेन्द्रे शासति दण्डयति, धर्मसंस्थापनपूर्वकं पालयति सतीत्यर्थः / क इत्थम् एवं, धर्मदूषणादिरूप. मित्यर्थः / भाषते ? प्रलपति ? // 84 // त्रयी ( ऋक् यजुष और सामवेद ) हैं नेत्र जिसके ऐसे तीनों लोकोंका वज्रके बलसे स्फुरित होते हुए बाहुवाले मुझ इन्द्र के शासन करते रहनेपर कौन ऐसा (17 / 36-82) कहता है ? [ त्रयीको लोकका नेत्र कहनेसे वेदकी लोकका सच्चा मार्ग-प्रदर्शक होना तथा वज्रके बलसे स्फुरित होते हुए बाहुवाला कहनेसे ऐसे धर्ममूलोच्छेदक वचन कहनेवालेका दण्डित करमेकी शक्ति होना एवं मुझको कहनेसे क्रोधपूर्वक वज्रका स्पर्शकर उक्त वाक्य कहना सूचित होता है ] // 84 // वर्णासङ्कीर्णतायां वा जात्यलोपेऽन्यथाऽपि वा / ब्रह्महादेः परीक्षासु भङ्गमङ्ग! प्रमाणय // 85 // . 'शुद्धं वंशद्वयीशुद्धौ इत्यादिश्लोकद्वयेन (1739-40) यत् सर्वस्यैव जातिदूषणमुक्तं तत् परिहरति-वर्णेत्यादि। वर्णानां ब्राह्मणादिवर्णानाम्, असङ्कीर्णतायाम् असाथै वा, योनिसाङ्कर्याभावे वा इत्यर्थः / अन्यथाऽपि प्रकारान्तरेणापि वा, वाणिज्यादिनिषिद्धवृत्याश्रयणेन इत्यर्थः, जात्यलोपे जातिभ्रंशाभावे, जातिशुद्धिविषये इत्यर्थः / ब्रह्महादेः ब्रह्महत्यादिकारिणः पापिनः, परीक्षासु तुलादिदिव्यबाधनेषु, भङ्गं पराजयम् , अङ्ग ! भोः !, प्रमाणय प्रमाणवेनावाच्छ इत्यर्थः / यदि ब्राह्मणत्वादि. जातिशुद्धिन स्यात् , तदा नाहं ब्राह्मणहन्तेति दिव्यकारिणः ब्राह्मणादिहन्तु शुद्धस्वादिज्ञापकेषु स्मृतिशास्त्रायुक्तेषु जलानलतुलादिदिव्यशोधनेषु कथं पराजयः स्यात् ? अतस्तत्र पराजय एव जातिशुद्धौ प्रमाणमिति भावः / / 85 // (अब पूर्वोक्त (18139-40 ) पक्षोंका अग्रिम दो (17385-85) श्लोकोंसे खण्डन करते हैं-) हे अङ्ग ! वर्णोका साकर्य (धर्मसङ्कीर्णता) नहीं होनेपर अथवा प्रकारान्तरसे अर्थात् व्यापार आदि स्वजनित विरुद्ध निषिद्ध वृत्तिका आश्रय करनेसे नातिनाश नहीं
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________________ 1078 नैषधमहाकाव्यम् / होनेपर ( अथवा-वर्णोका साङ्कर्य नहीं होनेपर ) जातिनाश नहीं होनेपर या प्रकारान्तर ( वर्गों का साङ्कर्य होने ) से जातिनाश होनेपर ब्रह्मघाती आदिकी परीक्षाओंमें पराजयको प्रमाण मानो। [ब्रह्महत्या आदि पापोंके करनेपर अग्नि, जल आदि द्वारा परीक्षा की जाती है, उसे 'दिव्य' कहा जाता है। उस 'दिव्य' परीक्षा के समय यदि ब्रह्मघातीका हाथ नहीं जलता या वह जलमें नहीं डूबता तो उसे ब्रह्मघाती नहीं माना जाता, इस कारण यदि वर्णसङ्करता होनेसे ब्राह्मणादिकी शुद्ध जातिका हो लोप हो जाय तो वह 'दिव्य' परीक्षा किस प्रकार होगी ? अत एव उस वर्णसाकार्यको रोककर जातिशुद्धि रखनी ही पड़ेगी, अथवा-उस दिव्य परीक्षाके समय ब्रह्मघातीका हाथ जल जाता है और जो ब्रह्मघाती नहीं होता उसका हाथ नहीं जलता है, इस कारण उसे ही जातिशुद्धि में प्रमाण मानना चाहिये / 'अङ्ग' यह सम्बोधन वचन प्रतिकूलतासूचक है // 85 // ब्राह्मण्यादिप्रंसिद्धाया गन्ता यन्नेक्षते जयम् / तद्विशुद्धिमशेषस्य वर्णवंशस्य शंसति / / 86 // ब्राह्मण्यादीति / किञ्च, ब्राह्मणी आदिः यस्याः सा ब्राह्मण्यादिः, क्षत्रियादिली, सा चासौ प्रसिद्धा चेति तस्याः प्रख्यातब्राह्मण्यादिस्त्रियाः, गन्ता सम्भोक्ता, जन इति शेषः / जयं दिव्यपरीक्षणे जिनविजयं, न ईक्षते न पश्यति, ब्राह्मण्यादिगन्ता परीक्षासु कुत्रापि विजयं न लभते इत्यर्थः। इति यत् , तत् पराजयनम् एव जया. दर्शनमेव वा, अशेषस्य सबलस्य, वर्णवंशस्य ब्राह्मणादिकुलस्य, विशुद्धिं मातापित्रा. दिपरम्परया निर्दोषत्वं, शंसति कथयति, अन्यथा कथं तद्गन्तुः पातकित्वशंसी पराजयः ? इति भावः // 86 // ब्राह्मणी आदि ( अथवा-ब्राह्मणत्व आदि जाति ) से प्रसिद्ध स्त्रीका सम्भोग करनेवाला जो ( दिव्य शपथ लेते समय ) विजयी नहीं होता, वही ( उसका पराजय होना ही ) सम्पूर्ण वर्ण ( ब्रह्मणादि ) वंशकी विशुद्धिको कहता है / [ ब्राह्मणी आदिके साथ सम्भोग करनेवाला पुरुष जब दिव्य परीक्षा देने अर्थात् तप्तलौह हाथमें लेकर या जलमें डूबकी लगाकर शपथ करनेमें हार जाता है अर्थात तप्पलौहसे जल जाता और पानो में डूब जाता है ( और इसके विपरीत ब्राह्मणी आदि के साथ सम्भोग नहीं करनेवाला पुरुष उक्तदिव्य परीक्षामें विजयी हो जाता अर्थात् न तो तप्तलौहसे जलता या न पानी में डूबता ही है ), यही ब्राह्मण आदि रो की शुद्धि ( वर्णसङ्करताका अभाव ) होना बतला रहा है ] 11 86 // जलानलपरीक्षादौ संवादो वेदवेदिते। गलहस्तितनास्तिक्यां धिर धियं कुरुते न ते ? // 87 / / 1. एतदर्थ मनुस्मृतिः (8 / 114-115), याज्ञवल्क्यस्मृतिः (व्यवहाराध्याये 95-113) च द्रष्टव्ये / 2. '-प्रसिद्धायां' इति पाठान्तरम् / 3. 'यन्नेच्यते जयम्' इति पाठान्तरम्।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1076 जलेति / किञ्च, वेदवेदिते श्रुतिप्रतिपादिते, जलानलपरीक्षादौ जलाग्न्याविदिष्य. शोधनादौ, आदिशब्दात् प्रत्यक्षफलक-कारीर्यादिसंग्रहः / संवादः शुद्धाशुद्धवृष्टयादि. दर्शनरूपः व्यापार इत्यर्थः / ते तव, धियं मतिं, गलहस्तेन तुल्यं गलहस्तितं गले हस्तं दत्वा बलाद् दूरीकृतम् , नास्तिक्यं परलोको नास्तीत्यादिप्रकारकं ज्ञानं यस्याः ताम् आस्तिक्यबुद्धिमित्यर्थः / न कुरुते ! धिक अतो निन्दामीत्यर्थः / त्वामिति शेषः। 'धिनिर्भर्त्सननिन्दयोः' इत्यमरः / वेदबोधितजलदिन्ये तु पापाभिशस्तः पुरुषः जले निमजता पुरुषान्तरेण आकर्णपूर्णधनुर्मुक्तशरप्रत्यानयनमपेक्षमाणः सन् यदि अप्रत्यानीतशरो जलादुन्मजति तदा सः अशुद्धः, प्रत्यानीतशरो यदि उन्मजति तदा शुद्ध एव, इत्थमेव च तत्र प्रत्यक्षं दृश्यते इत्येव संवादः / अग्निदिव्येऽपि तप्तलोहादौ दाहादाहाभ्याम् अशुद्धिशुद्धी प्रत्यक्षदृश्ये / एवम् अनावृष्टयादौ कारीदियागे कृते वृष्टिदृश्यते इत्यादिकप्रत्यक्षफलकवेदबोधितकार्यदर्शनात् तव नास्तिक्यबुद्धिर्नापया. तीति धिक इति भावः // 87 // वेदप्रतिपादित जल तथा अग्निसे ( की गयी दिव्य ) परीक्षा आदि ( 'आदि' शब्दसे 'कारीर्यादि' यशका संग्रह है ) में संवाद (शुद्ध-अशुद्धकी निर्णयरूप सङ्गति ) तुम्हारी बुद्धिको अर्द्धचन्द्र ( गर्दनियां ) देकर निकाली गयी नास्तिकतावाली अर्थात् बलात्कारपूर्वक नास्तिकतासे शून्य नहीं करता है, ( अतएव ऐसा संवाद होनेपर भी महामूर्खता करनेवाले तुमको ) धिक्कार है। [ अथवा-तुम्हारी निन्दित वुद्धिको बलात्कारपूर्वक नास्तिकतासे शून्य नहीं करता ? अर्थात् करता ही है अथवा-हे कु-रुते ( कुत्सित शब्दवाले अर्थात् मिन्दित वाक्य कहनेवाले ) / तथा हे अ-नते ( नम्रता-हीन ) ! वेदप्रतिपादित जल-अग्निपरीक्षादिमें संवाद है, अत एव नास्तिकताको गलासे लिपटायी (हठपूर्वक ग्रहणकी ) हुई (नास्तिकतायुक्त ) बुद्धिको धिक्कार है ] // 87 / / सत्येव पतियोगादौ गर्भादेरध्रवोदयात्।। आक्षिप्तं नास्तिकाः ! कर्म न किं मर्म भिनत्ति वः ? // 88 / / सतीति / नास्तिकाः ! हे नास्तिपरलोकाः ! 'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' इति ठक्। पतियोगादौ भर्तृसहवासादिकारणसाकल्ये, सति एवं विद्यमानेऽपि, एव शब्दोऽत्र अप्यर्थे बोध्यः / आदिशब्दान्मेघोदयादिप्रत्यक्षीभूतकारणकलापे सत्यपि इति भावः / गर्भादेः अध्रवोदयात् अनिश्चितोत्पत्तिकस्वात् , कदाचित्कोत्पन्नगर्भादि. कार्यादित्यर्थः। आदिशब्दात् वृष्टयादिकार्यसंग्रहः। आक्षिप्तम् अर्थापत्तिसिद्धम् , अर्थापत्तिप्रमाणसिद्धं स्त्रीपुरुषसहवासादिरूपदृष्टकारणकलापसद्भावेऽपि गर्भोदयादि. रूपकार्यस्य कादाचित्कावं धर्माधर्मरूपादृष्टकारणं विनाऽनुपपन्नम् इत्यनुपपत्तिज्ञानरूपावर्थापत्तिप्रमाणात् प्रमितमित्यर्थः। कर्म धर्माधर्मरूपजन्मान्तरीयादृष्टं, वः युष्माकं नास्तिकानां, मर्म हृदयं, हृद्गतसंशयमिति यावत् / न भिनत्ति किम् ! न छिनत्ति किम् ? एतेनैव अदृष्टमस्तीति बोद्धव्यम् इति भावः // 8 //
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________________ 1080 नैषधमहाकाव्यम् / ( अब 'मृते कर्मफलोर्मयः ( 17152 )' इत्यादि पक्षका खण्डन करते हैं-) हे नास्तिको ! पति-सहवास आदिके होनेपर भी गर्भ आदिका धारण होना अनिश्चित होनेसे आक्षिप्त ( अर्थापतिका प्रमाणसे सिद्ध ) कर्म (धर्माधर्मरूप जन्मान्तरीय अदृष्ट) तुमलोगोंके मर्म ( हृदय ) को क्यों नहीं भेदन करता ? ( अर्थात् ऐसे प्रमाणसे सचेतत पुरुषके हृदयका भेदन होना चाहिये ) पर तुमलोगों के हृदयका भेदन नहीं होता, अत एव तुमलोग महामूर्ख या वज्रहृदय हो / अथवा-तुमलोगोंके हृदयका भेदन क्यों नहीं करता ? अथवातुमलोगों के मर्म ( नास्तिकवादात्मक दर्शनरहस्य ) अर्थात् सिद्धान्तका भेदन ( खण्डन ) नहीं करता ? अर्थात् अवश्य ही करता है। [ऋतुकालमें पतिपत्नीके सहवास होने पर भी जन्मान्तरीय अदृष्टवश सन्तान प्राप्तिका योग नहीं रहनेपर यह गर्भाधान नहीं होता, अत एव मानना पड़ेगा कि जन्मान्तरीय अदृष्ट भी सन्तानोत्पत्ति आदिमें कारण है ] // 88 // याचतः स्वं गयाश्राद्धं भूतस्याविश्य कञ्चन / नानादेशजनोपज्ञाः प्रत्येषि न कथाः कथम् ? / / 89 / / यदुक्तम् 'अन्यभुक्तैर्मृते तृप्तिरित्यलं धूर्त्तवार्त्तया' (17152 ) इत्यादि, तनोत्तरमाह-याचत इति / कञ्चन कमपि जनम् , आविश्य अधिष्ठाय, स्वं स्वकीयं, गया. श्राद्धं गयातीर्थे पिण्डदानं, याचतः प्रार्थयमानस्य, अहं पापवशात् प्रेतयोनि प्राप्तोऽस्मि, अतो मम सद्गत्यर्थं गयायां श्राद्धं त्वया कार्यमित्यादि प्रार्थयमानस्य इत्यर्थः / भूतस्य भूतयोनि प्राप्तवतः प्रेतस्य सम्बन्धिनीः, नानादेशजनोपज्ञाः नाना. देशजनाः विविध देशवासिलोका एव, उपज्ञा आद्यं ज्ञानं, प्रमाणमिति यावत् / यासां तादृशीः, तत्प्रमाणकाः इत्यर्थः / 'उपज्ञा ज्ञानभायं स्यात्' इत्यमरः। कथाः उपा. ख्यानानि, गयाश्राद्धात् अमुकस्य मुक्तिरासीत् इत्येवंरूपान् आलापान इत्यर्थः / कथं न प्रत्येषि ? विश्वसिषि ? प्रत्येतव्य एवायमर्थः प्रामाणिकसंवादादिति निष्कर्षः // 89 // ( अब 'मृतः स्मरति जन्मानि', 'अन्यमुक्तैर्मृते तृप्तिः ( 1752 ), 'सन्देहेऽप्यन्यदेहाप्तेः ( 17145 )' इत्यादिका खण्डन करते हैं-) किसी किसी ( स्वजन या तटस्थ तृतीय व्यक्ति ) में आविष्ट होकर ( सूक्ष्मरूप होनेसे उसके शरीर में प्रवेशकर ) अपने गयाश्राद्ध की याचना करते हुए प्रेत ( पापवश प्रेतयोनिको.प्राप्त जीव ) की अनेक देशके लोगोंकी सुनी या जानी हुई कथाओं ( समाचारों, सम्बादों) को तुमलोग क्यों नहीं विश्वास करते हो ! / [ अनेक स्थानों एवं लोगों में यह देखा जाता है कि अपने पापकर्मके कारण सद्गतिको नहीं पानेसे प्रेत हुआ जीव किसी स्वजन आदिके शरीरपर आविष्ट होकर कहता है कि 'हमारा गयाश्राद्ध कर दो तो मेरी सद्गति हो जायगी और मैं इसे छोड़ दूंगा, अथवा मैंने पहले जन्म में अमुक स्थान पर इतना धन गाड़ रक्खा है इत्यादि' और उसके कथनकी सत्यता भी वैसा करनेपर हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि जीव मरणके बाद भी अपने पूर्व जन्मों या कर्मोंको स्मरण करता है, दूसरे (ब्राह्मणादि जनों ) के भोजन करानेसे जीवकी तृप्ति होती है और मरने के बाद जीवको दूसरा शरीर प्राप्त होता है ] // 89 //
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________________ सप्तदशः सर्गः / 1081 नीतानां यमदूतेन नामभ्रान्तेरुपागतौ / श्रद्धत्से संवदन्तीं न परलोककथां कथम् ? // 60 // __'को हि वेत्ताऽस्त्यमुष्मिन् ( 1761) इत्यादेरुत्तरमाह-नीतानामिति / यमदूतेन यमकिङ्करेण, नाम्ना धर्मराजः यन्नामकपुरुषाणां, स्थूलशरीरात् लिङ्गशरीरमाकष्टु'दूतं प्रेषयामास अन्येषामपि केषाञ्चित् तान्येव नामानि इति नामसाम्येन, भ्रान्तः भ्रमात् हेतोः, नीतानां यमसन्निधिं प्रापितानाम् , आनेतन्यपुरुषेभ्यः अन्येषां जनानामिति भावः। उपागतो पुनर्मर्त्यलोकप्रत्यागमनविषये, एतेषां नामसहशान् यान आनेतुं त्वं प्रेषितः एते ते न भवन्ति, अत एतान् मर्त्यलोकं नीत्वा स्व-स्वस्थूलशरीरे प्रवेशयेति यमाज्ञया सद्यः एव पुनः स्वदेहसक्रान्तिविषयेइत्यर्थः / संवदन्ती श्रतिस्मृतिपुराणादिषु श्रुतस्वर्गनरकादिकथया सह समानार्थीभवन्ती, परलोककथां यमलोकात् प्रत्यावृत्तपुरुषोक्तां स्वर्गनरकादेरस्तित्ववार्ता, कथं न श्रद्धत्से ? न प्रत्येषि ? अतस्ताहशवाक्यस्य सत्यत्वादेव परलोकमस्त्येवेति भावः // (अब 'को हि वेत्ताऽस्त्यमुष्मिन् ( 1761)' इत्यादिका उत्तर देते हैं-) यमदूतके द्वारा नामके भ्रमसे यमके पास पहुंचाये गये लोगोंका ( वेद-पुराणादि कथनके साथ) संवाद करती ( मिलती-जुलती) हुई परलोककी कथा ( चर्चा ) का क्यों नहीं विश्वास करते हो ? [ कभी-कभी यह देखा जाता है कि कोई व्यक्ति मर जाता है नाड़ी आदिकी परीक्षा कुशलतम वैद्यों-डाक्टरों द्वारा करनेसे उसके मरनेका निश्चय किये जानेपर भी वह व्यक्ति कुछ समय बाद जीवित हो जाता है और पूछनेपर या स्वयं ही वह कहने लगता है कि मुझे यमदूत यमपुरीमें ले गये थे, किन्तु यमराजने कहा कि 'मैंने इस नामसे दूसरे व्यक्तिको लानेके लिए कहा था, इसे नहीं; अत एव इसको पुनः पूर्व शरीरमें प्रविष्ट कराकर मिलता है वैसा ही उसे बतलाता है,' अत एव परलोकके होने में तुम लोगोंको विश्वास करना चाहिये ] // 90 // जज्वाल ज्वलनः क्रोधादाचख्यौ चाक्षिपन्नमुम् | किमात्थ रे ! किमात्थेदमस्मदग्रे निरर्गलम् ? // 11 // जज्वालेति / अथ ज्वलनः अग्निः, क्रोधात् कोपात् , जज्वाल दिदोपे, तथा अमुं चार्वाकम्, आक्षिपन् परुषवाक्यैरधिक्षिपन् , आचख्ये च जगाद च, रे इति तुच्छसम्बोधने; रे चार्वाक ! किमात्थ ? अस्मदने मम पुरतः, निरर्गलम् अप्रतिबन्धम् , अबाधं यथा तथेस्यर्थः / इदम् उक्तरूपं वेदादिविरुद्धमित्यर्थः। किम् आत्थ ? किं प्रलपसि ! इत्यर्थः / कोपे द्विरुतिः // 9 // 1. एवंविधा घटना प्रायः पञ्चविंशतिवर्षेभ्यः पूर्वमस्मपितृव्यपरन्या सह घटिताऽऽसीदिति मे परलोकास्तित्वे नितरां प्रत्ययः / (अनुवादका)
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________________ 1082 नैषधमहाकाव्यम् / (इस प्रकार ( 17183-90 ) इन्द्रके कहने के बाद ) अग्निदेव क्रोधसे जलने लगे और इस ( चार्वाक ) का तिरस्कार करते हुए बोले-रे ! तूने मेरे सामने निरर्गल क्या कहा है ? क्या कहा है ? [ 'रे' सम्बोधनसे, तथा 'क्या कहा है ?' इस वचनके दो बार कहनेसे क्रोधकी अधिकता और उससे स्वतः ज्वलनशील अग्निका अधिक ज्वलित होना सिद्ध होता है ] // 91|| महापराकिणः श्रौत-धमकबलजीविनः / क्षणाभक्षणमूर्खाल ! स्मरन विस्मयसेऽपि न ? / / 62 / / अथ यदन्यत् प्रलपितम् 'अग्निहोत्रं त्रयी' (1738) इत्यादि तत् निराचष्टेमहापराकिण इति / हे क्षणम् अत्यल्पसमयम् , अभक्षणे अभोजने, मूर्छाल ! मूर्छामापन्न ! म्रियमाण ! इत्यर्थः / 'सिध्मादिभ्यश्च' इति सूत्रस्य:सिध्माद्यन्तर्गणे 'क्षुद्रजन्तूपतापाच' इति पाठात् उपतापवाचकात् मूर्छाशब्दात् लचप्रत्ययः। श्रौत. श्रतिचोदितः, धर्मः आचारः एव, अनुष्ठानमेवेत्यर्थः / 'धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचारसोमपाः' इत्यमरः। एकं केवलं, वलं सामर्थ्य, तेन जीवन्तीति तादृशान् श्रौत. धमकबलजीविनः वैदिकधर्मानुष्ठानमाहात्म्यादेव प्राणधारिणः, महान्तः महात्मान इत्यर्थः। ये पराकिणः मासोपवासनिष्पाद्यतदाख्यव्रतिनः तान् , स्मरन् चिन्तयन् अपि, न विस्मयसे ? न चित्रीयसे / धर्मोपजीविनी वैदिकाश्विरम् अभोजिनोऽपि धर्मानुष्ठानजनितमनोबलादेव जीवन्ति अतो धर्मस्य अस्तित्वे न कोऽपि संशय इति भावः // 92 // ( अब 'अग्निहोत्रं त्रयो तन्त्रम् ( 17638)', 'नाश्नाति स्नाति (17 / 40 )' इत्यादि आक्षेपोंका उत्तर देते हैं-) हे क्षणभर भोजन नहीं करनेपर मूछित होनेवाले ( नास्तिक चार्वाक ) ! एकमात्र वेदप्रतिपादित धर्मके बलपर जीनेवाले महापराक व्रत करनेवालोंका स्मरणकर आश्चर्यित भी नहीं होते हो ? ( अथवा पाठा०-तुम क्यों नहीं आश्चर्यित होते हो ? ) अर्थात् उन महापराक व्रत करनेवालों के स्मरणमात्रसे तुम्हें आश्चर्यित होना चाहिये, ( पर तुम आश्चर्यित नहीं होते, अत एव मूर्ख हो)। [जो तुम क्षणमात्र भी भोजन नहीं कहनेपर भूखसे मूर्छित हो जाते हो, ऐसे तुमको वेदोक्त धर्मके बलपर बारह दिन तक उपवास करनेसे साध्य महापराक आदि ब्रत करनेवालों को देखकर आश्चर्यित होना तथा वेदोक्त धर्मपर विश्वास भी करना चाहिये ] // 92 // पुत्रेष्टिश्येनकारीरी-मुखा दृष्टफला मखाः। न वः किं धर्मसन्देह-मन्देहजयभानवः // 63 // पुनेष्टीति / हे नास्तिकाः ! पुत्रेष्टिः पुत्रकामयागः, श्येनः शत्रुमारणार्थं तदाख्य. 1. 'न किम् ?' इति पाठान्तरम्। 2. 'पयोश्च' इति पाठः साधीयान् , तथैव गणपाठ उपलब्धेः /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1083 ऋतुविशेषः, कारीरी वृष्टिकामेष्टिः, ता मुखम् आदिः येषां ते पुत्रेष्टिश्येनकारीरीमुखाः पुत्रेष्टिश्येनकारीरीप्रभृतयः, दृष्टफलाः दृष्टं प्रत्यक्षीभूतं, फलं सुतोत्पत्तिशत्रुमारणवृष्टिरूपं फलं येषां तादृशाः, मखाः क्रतवः, वः युष्माकं नास्तिकानां, धर्मस्य सदनुष्ठान. जनितफलदातुरित्यर्थः / सदनुष्ठानजनितसुफलस्येत्यर्थो वा, यः सन्देहः धर्मोऽस्ति न वेति संशयः, स एव सन्देहाः सन्ध्याद्वथे सूर्यग्रासार्थमुत्पद्यमानाः तेन सह युध्यमानाश्च राक्षसविशेषाः, तेषां जये निराशे, विनाशसम्पादने इत्यर्थः / भानवः सूर्याः, सूर्यवत् विनाशकाः इत्यर्थः / न किम् ? भवन्तीति शेषः / 'तिस्रः कोटयोऽर्द्धकोटी च मन्देहा नाम राक्षसाः। उदयन्तं सहस्रांशुमभियुध्यन्ति ते सदा // गायत्र्या चाभिमन्भ्योऽघं जलं त्रिः सन्ध्ययोः क्षिपेत् / तेन शाम्यन्ति ते दैत्या वज्रीभूतेन वारिणा॥' इत्यादिशास्त्रात् गायव्यभिमन्त्रित जल प्रक्षेपात् तेषां नाशः, तदुत्तरमेव सूर्योदयेन सूर्य एव तान् नाशयतीत्युच्यते, एवञ्च सूर्यो यथा तन्नाशकः तद्वत् यागोऽपि भव. दीयधर्मसन्देहनाशको भवतु इत्यर्थः / दृष्टफलयागानां फलनिश्चयदर्शनात् अदृष्टफलयागादी तज्जन्यादृष्टेऽपि वा सन्देहो न कर्तव्य इति भावः // 93 // पुत्रेष्टि, श्येन, कारीरी आदि प्रत्यक्ष देखे गये फलवाले यश तुम लोगोंके धर्मविषयक सन्देहरूपी मन्देह नामक राक्षसोंके जीतने में सूर्यरूप नहीं होते हैं क्या ? [इसका आशय यह है कि-पुत्रेष्टि यज्ञसे पुत्रप्राप्ति, श्येनयज्ञसे शत्रुनाश और कारीरी यशसे वृष्टिरूपी फल प्रत्यक्षमें देखा गया है, अत एव इन यज्ञों के प्रत्यक्ष फलोंको देखकर भी तुमलोगोंका धर्म (श्रुति-स्मृति प्रतिपादित यज्ञादिका अयुष्ठानरूप आचार ) के सन्देह उस प्रकार नष्ट नहीं हो जाते, जिस प्रकार उदय होनेसे पूर्व सूर्य ( की किरणें ) सामने लड़ते हुए 'मन्देह' नामक साढ़े तीन करोड़ राक्षसोंको नष्ट करते हैं। उन यशोंके फलोंको देखकर तुम लोगोंका धर्मविषयक सन्देह दूर हो जाना चाहिये ] // 93 // दण्डताण्डवनैः कुर्वन् स्फुलिङ्गालिङ्गितं नमः / निर्ममेऽथ गिर।मूर्मीभिन्नमर्मेव धर्मराट् || 64 || दण्डेति / अथ अग्निवाक्यानन्तरं, धर्मराट यमः, भिन्नमर्मा चार्वाकप्रलापैः विदीजीवस्थान इव सन् , दण्डस्य स्वकीयास्त्रस्य, ताण्डवनैः भ्रामणैः, नमः आकाशप्रदेशं, स्फुलिङ्गालिङ्गितम् अग्निकणाकीण, कुर्वत् सम्पादयन् , गिराम् ऊर्मीः वाकप. रम्पराः, निर्ममे रचयामास, उवाच इत्यर्थः // 94 // इस ( प्रकार ( 1792-93) अग्नि के कहने ) के बाद दण्ड ( अपने अस्त्र-विशेष ) को घुमानेसे आकाशको चिनगारियोंसे व्याप्त करते हुए (तथा चार्वाकके वेदविरुद्ध वचनोंसे ) मिन्न मर्मसे होते हुए धर्मराज वचन-समूहको बोले // 94 // तिष्ठ भोस्तिष्ठ कण्ठोष्ठं कुण्ठयामि हठादहम् / 1. 'दयम्' इति पाठान्तरम् / 68 नै० उ०
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________________ 1084 नैषधमहाकाव्यम् / अपष्ठु पठतः पाट्य मधिगोष्ठि शठस्य ते || 65 // तिष्ठेति / भोः पातकापसद ! तिष्ठ तिष्ठ अपेक्षस्व अपेचस्व / कोपे द्विरुक्तिः / अधिगोष्ठि सभायाम् , इन्द्रादिदेवसमाजे इत्यर्थः / विभक्त्यर्थे अव्ययीभावः / अप्रतिष्ठ गीति अपष्ठः प्रतिकूलं, विरुद्वार्थ कमिति यावत् / 'अपदुःसुषु स्थः' इति तिष्ठः ओगादिक उप्रत्यये 'आतो लोपः इटि च' इत्याकारलोपः, 'उपसर्गात् सुनोति-' इत्यादिना पत्वम् / 'प्रसव्यं प्रतिकूलं स्यादपसव्यमपष्टु च' इत्ममरः / पाठ्यं पठनी. यप्रबन्धं, पठनः वाचयतः, शठस्य धूर्तस्य, ते तव, कण्ठश्च ओष्ठौ च कण्ठोष्ठम् / प्राण्यङ्गत्वात् एकवद्भावः / अहं हठात् प्रसभं, बलादित्यर्थः / 'पाणिकप्रलभौ हठो' इति वैजयन्ती / कुण्ठयामि स्ताभयामि / वर्तमान सामीप्ये भविष्यति लट // 9 // हे ( नास्तिक चार्वाक) ! ठहरो, ठहरो, (इन्द्रादि देवोंको ) समामें प्रतिकूल ( वेदादि. विरुद्ध ) पठनीय विषयको बोलते हुए शठ ( केरल वाक्छ से अन्यथा अर्थ बतलानेवाले) तुम्हारे कण्ठ और ओष्ठों को मैं ( पाठा-पह-मैं ) बलात्कारसे कुण्ठित करता हूँ अर्थात दण्डास्त्र द्वारा चूर्णित ( अथवा-शास्त्र युक्ति के द्वारा वैसा कहने में असमर्थ ) करता हूँ // 95 / वेदैस्तद्वेषिभिस्तद्वत् स्थिरं मतशतैः कृतम् / परं कस्ते परं वाचा लोकं लोकायत ! त्यजेत् ? / / 66 / / वेदैरिति / लोकायत ! लोकेषु भुवनेषु, आयतं विस्तृतम् , अनायासपाध्यावादितिभावः / मतं यस्य स तत्पघुद्वा / लोकेषु अपत ! असंयत! स्वेच्छाचारिन् ! इत्यर्थो वा / हे चार्वाक ! इत्यर्थः / वेदैः श्रुतिभिः, वे दोक्तैरित्यर्थः / तद्वेषिभिः वेदः विधिभिः, बौद्धादिदर्शनोक्तैरित्यर्थः। तथा तद्वत् वेदतुल्यैरन्य श्वेत्यर्थः / मतशतैः विविधमतैः, स्थिरं कृतं व्यवस्थापित, परं लोकं स्वर्गादिस्वरूपमित्यर्थः। परं केवलं, ते तव, वाचा प्रलापवाक्येन, कः त्यजेत् ? कः जह्यात् ? न कोऽपोत्यर्थः / बहुजनस. माइतमतस्यैव प्रामाणिकत्वादिति भावः // 96 // (अब अग्रिम तीन ( 17.96-98 ) श्लोकोंसे 'को हि वेत्ताऽत्स्यमुष्मिन् (1761)' तथा 'तर्का प्रतिष्ठया ( 17 / 7.)' इत्यादि वचनों का उतर देते हैं-) हे लोकायत ( सीया होनेने संमार में फैले हुए मतवाले, अथवा-संसारमें अत्यन्त संयमहीन चार्वाक )! वेदों तथा उसी प्रकार उन ( वेदों ) के वेष ( वेदानुकूल ) स्मृति पुराणादि सैकड़ों मतोंसे स्थिर किये गये उ परलोकको केवल तुम्हारे कहनेमात्रसे कौन छोड़ेगा ? [ जिसे वेदों तथा तदनुगामी स्मृतिपुराणादि शास्त्र ने निश्चित कर दिया है, उस श्रेष्ठ परलोकको कोई विमान् नहीं छोड़ सकता, हां तुम्हारे-जैसा मूर्ख ही छोड़ सकता है ] // 96 // असंज्ज्ञानाल्प ! भूयिष्ठपान्थवैमत्यमेत्य यम् / लोके प्रयासि पन्थानं परलोके न तं कुतः ? // 67 // 1. 'समज्ञानाल्पभूयिष्ठ-' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1085 . असदिति / असज्ज्ञानेन मन्दबुद्धया, अल्पः क्षुद्रः, नीच इत्यर्थः, तरसम्बुद्धौ असज्ज्ञानाल्प! रे नीचप्रकृतिनास्तिक ! लोके इहलोके, भूयिष्ठाः बहवः, अधिकसङ्घयकाः एव जना इत्यर्थः। पान्थाः परलोकपथिकाः, आस्तिकाः इत्यर्थः। तेषां वैमत्यं मार्गभेदविषयकमतविरोधम्, एत्य प्राप्य, सर्वसम्मतं मार्गम् उत्सृज्य इत्यर्थः / यं पन्थानं दुर्मागे, प्रयासि अनुयासि, परलोके अमुत्रापि, तं पन्थानं, कुतः कस्मात् , न प्रयासि ? इति पूर्वक्रियया अन्वयः, प्रयास्यन्नेव तत्फलमनुभविष्यसीत्यर्थः / इह प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो मतः' इति शास्त्रात् अहमेव नियन्ता इति भावः॥ ___हे असत् शानसे नीच (मन्द बुद्धिसे क्षुद्र चार्वाक) ! इस लोकमें बहुत पथिकों ( आस्तिक लोगों ) के विरुद्ध बहुतसे आस्तिकोंसे सम्मत सिद्धान्तके प्रतिकूल मतको ग्रहणकर जिस मार्ग ( कुमार्ग) पर चल रहे हो, परलोकमें भी उसी मार्गसे क्यों नहीं चलते ? [ यदि परलोकके विषयमें भी उसी सर्वास्तिक प्रतिकूलमार्गका आश्रयकर चलोगे तत्काल उसका फल भोगोगे, क्योंकि मैं गुप्त पाप करनेवालोंका भी शासक हूँ। अथवा पाठा०-एक मार्ग के विषयमें समान ज्ञानवाले थोड़ेसे तथा बहुतसे पथिकों के विरोधको प्राप्तकर अर्थात् जानकर इस लोकमें जिस मार्गपर चलते हो, उसी मार्ग पर परलोकके विषय में भी क्यों नहीं चलते ? जिस प्रकार 'अमुक स्थानको कौन मार्ग जायेगा ?? ऐसा किसी मार्ग नहों जाननेवालेके पूछनेपर थोड़े-से लोगों के एक मार्ग तथा बहुतसे लोगोंके दूसरा मार्ग बतलाने पर वह गन्तव्य स्थानके मार्गको नहीं जाननेवाला पथिक बहुतसे लोगों के बतलाये हुए दूसरे मार्गपर ही गमन करता है थोड़े-से लोगों के बतलाये मार्गसे गमन नहीं करता; उसी तरह हे नास्तिक चार्वाक ! तुम परलोकके विषयमें भी थोड़े-से लोगों के बतलाये हुए मार्गको छोड़कर बहुत-से लोगों के बतलाये हुए (वेद-स्मृति-पुराण-प्रतिपादित) मार्गसे ही क्यों नहीं चलने ?, अर्थात बहुसम्मत परलोकको तुम्हें स्वीकार करना चाहिये ] // 97 // स्वकन्यामन्यसात्कत्तु विश्वानुमतिदृश्वनः / लो के परत्र लोकस्य कस्य न स्याद् दृढं मनः ? // 6 // स्वेति / स्वकन्यां निजदुहितरम् , अन्यसास्कत्तुंम् अन्यस्मै दातुम् इत्यर्थः / 'देये त्रा च' इति साति-प्रत्ययः। विश्वानुमतिं सर्वलोकसम्मतिं दृष्टवानिति विश्वानुमतिदृश्वा तस्य विश्वानुमतिदृश्वनः, 'ब्राह्मे विवाहे आहूय दीयते शक्त्यलङ्कृता / तजः पुनात्युभयतः पुरुषानेकविंशतिम् // त्रीण्याहुरतिदानानि कन्या पृथ्वी सरस्वती' इत्यादि सर्वशास्त्रसम्मतिद्रष्टुः इत्यर्थः / 'दृशेः क्वनिप्' कस्य लोकस्य जनस्य, मनः चित्तं, परन लोके परलोके, दृढं स्थिरं, स्थिरविश्वासीत्यर्थः। न स्यात् ? न भवेत् ? अपि तु सर्वेषामेव स्यादेव, परलोकभयेनैव सर्वो जनः स्वदुहितरमन्यस्मै ददाति यदि परलोको. नाभविष्यत् तदा स्वदुहितरमन्यस्मै काथमदास्यत् ? स्वेनव
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________________ 1086 नैषधमहाकाव्यम् / स्वदुहितुः पाणिग्रहणमापद्येत, अतः सर्वसम्मतिदर्शनात् परलोकोऽङ्गीकर्तव्य एक भवतेति भावः // 98 // ( उक्त बहुसम्मतिको ही प्रदर्शित करते हैं-) अपनी कन्याको दूसरे अर्थात् वरको देने के लिए सबों ( वेद-रमृति-पुराणों तथा लोगों ) के सम्मतिको देखे (तथा वैसा ही करते ) हुए किस व्यक्तिका मन परलोकके विषयमें निश्चल नहीं होता है ? अर्थात् समीका-तुम्हारा भी-होता है / [ यदि कन्याको वर के लिए देनेका सर्वसम्मत विधान अभीष्ट नहीं होता तो संसार में कोई भी व्यक्ति उसे दूसरेके लिए न देकर उसके साथ रवयं विवाह कर लेता, परन्तु ऐसा कोई एक भी- यहां तक कि परलोक को नहीं माननेवाले तुम (नास्तिक ) भी-नहीं करते हो, अत एव मानना पड़ता है कि सर्वसम्मत परलोक है, इस कारण तुम्हें दुराग्रह छोड़कर उस पर लोकको स्वीकार करना ही चाहिये ] // 98 // कस्मिन्नपि मते सत्ये हताः सर्वमतत्यजः / तदृष्टया व्यर्थतामात्रमनर्थस्तु न धर्मजः || 66 || ननु नास्तिकानामिह तावत् सुखं सिद्धम् , आस्तिकानान्तु तन्नास्ति, आमुष्मिकन्तु सन्दिग्धं तथा च वृथाऽनुष्ठानक्लेश इति कुतो दाढयमित्यत्राह-कस्मिन्नपीति / कस्मिन्नपि आस्तिकमतमध्ये कस्मिंश्चिदपि, मते कन्यादानविधिमातृगमननिषेधादि. रूपे परलोकसाधकमते, सत्ये प्रकाणवेनाङ्गीकृते सति, सर्वमतत्यजः, परस्परविरोधात् सर्वमप्रमाणमित्यादिरीत्या सर्वास्तिकमतत्याजिनः, नास्तिका इति शेषः / हताः विनष्टाः, परलोकभ्रष्टा इति यावत् / स्युः भवेयुः। यदि परलोकः स्यात् तदा सर्वास्तिकमतत्यागेन यूयं पारलौकिक सुखास्वादादिभ्यो वञ्चिता भवेतेति भावः। तदृष्ट्या सर्वास्तिकमताप्रामाण्यदर्शनेन तु, व्यर्थतामात्रम् अनुष्ठानवैयर्थ्यमेव, यदि परलोकसाधकं सर्वास्तिकमतमप्रमाणं स्यात् तदाऽस्माकं यागाद्यनुष्ठानस्य निष्फलत्वमात्रं न तु ततः किञ्चिदनिष्टं भवेदिति भावः / कुतो नानिष्टमित्यत आहअनर्थ इति / धर्मजः धर्मोपचारजन्यः, धमानुष्ठानजन्य इति यावत् / अनर्थः विपत्तिस्तु, परलोकभ्रंशरूपः अनिष्टव्यापारस्तु इत्यर्थः। न नास्त्येव, परलोकासत्वपोऽस्माकं धर्मानुष्ठानजन्यः न कश्चिदनः, परलोकसत्त्वपक्षे तु युप्माकं धर्माननुटानेन परलोकभ्रंशरूपः अनर्थ इत्यपि बोद्धव्यम् , एतच्च पाक्षिकत्वमभ्युपेत्योक्तम् / परमार्थतरतु आस्तिकमतमेव ग्राह्यम् इति भावः // 99 // ( अब दो ( 17.99-100 ) श्लोकोंसे 'श्रुतिस्मृत्यर्थ-( 17 / 50)' तथा 'तर्काप्रतिष्ठया (17 / 78 )' इत्यादि आक्षेपोंका उत्तर देते हैं आस्तिक मतोंमें-से ) किसी भी मत ( 'कन्याको दूसरे के लिए दान देना चाहिये' इस विधिपरक तथा 'माताके साथ सम्भोग नहीं करना चाहिये' इस निषेधपरक वेदाधुक्त परलोकसाधक आस्तिक-सिद्धान्त) को सत्य मान लेनेपर परस्पर विरुद्ध होनेसे सब मतका त्याग करनेवाले नास्तिक लोग मारे गये अर्थात् परलोकसे भ्रष्ट हो गये। उस दृष्टिसे अर्थात् सब आस्तिक मतोंको प्रमाण नहीं
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________________ ' सप्तदशः सर्गः। 1087 माननेसे ( यज्ञादिके अनुष्ठान करने की ही ) व्यर्थता होगी अर्थात् यदि परलोक वास्तविकमें नहीं होगा तो आस्तिकोंका यज्ञादिका केवल अनुष्ठान करना ही व्यर्थ होगा ( इस वैयर्थ्यके अतिरिक्त आस्तिकोंको अन्य कोई हानि नहीं होगी ) और धर्मानुष्ठानसे उत्पन्न अनर्थ ( परलोकनाशरूप अनिष्ट व्यापार ) तो नहीं होगा। [ परस्पर विरोध होने के कारण नास्तिक सब आस्तिक मतोंको अप्रमाण मानते हैं, किन्तु 'कन्यादान करना, तथा माताके साथ सम्भोग नहीं करना' इस आस्तिकके विधि-निषेधपरक मतोंको वे नास्तिक भी स्वीकार करते हैं / इस कारण उक्त 'कन्यादान तथा मातृसंभोगनिषेधको सत्य अर्थात् परलोक-साधक माननेवाले नास्तिक यदि परस्पर विरोध होनेसे अन्य आस्तिकसिद्धान्तों का त्याग करते हैं तो वे परलोकभ्रष्ट होनेसे नष्ट हो गये / और यदि नास्तिकों के मतके अनुसार वास्तविकमें परलोक नहीं है, यथापि आस्तिकों के द्वारा किये गये यज्ञका अनुष्ठान ही व्यर्थ होगा, इसके अतिरिक्त दूसरी कोई हानि नहीं होगी, धर्मजन्य अनर्थ तो होगा ही नहीं। इसके विपरीत यदि सर्वास्तिकसम्मत परलोक है तो यशानुष्ठानसे अस्तिकोंको स्वर्ग-सुख-प्राप्ति अवश्य होगी, तथा नास्तिक को उस परलोकमें विश्वास नहीं होनेसे यशानुष्ठान करते ही नहीं, अतः वे परलोकके सुखसे अवश्यमेव वञ्चित होंगे। इस कारण यशानुष्ठान करना ही चाहिये / यह कथन भी 'तुष्यदुर्जन' न्यायसे ही है, वास्तविकमें तो परलोकके अस्तित्वमें आस्तिकोंको लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ] / / 99 / / कापि सर्वैरवैमत्यात् पातित्यादन्यथा कचित् / स्थातव्यं श्रौत एव स्याद्ध में शेषेऽपि तत्कृते / / 100 // उपसंहरति-क्वापीति / क्वापि कुत्रापि, अहिंसाकन्यादानादिरूपे वैदिकानुष्ठानविषये इति यावत् / अवैमत्यात् सर्वेषामैकमत्यात् , तथा क्वचित् कुत्रापि विषये, अन्यथा वैमत्येऽपि, पातित्यात् वर्णाश्रमाधिकारे विहिताकरणनिषिद्धाचरणजन्यप्रत्यवायभयात् , तथा शेषेऽपि नित्यनैमित्तिकातिरिक्ते ज्योतिष्टोमादावपि, अथवा शेषे वेदविहितातिरिक्त स्मात्तऽपि धर्म, तत्कृते वेदकृते, वेदविहि तत्वाविशेषे इति यावत् / हेतुगर्भविशेषगमेतत् / श्रौते एव धर्मे वैदिकमते, सर्वैः नास्तकैरपि, स्थातव्यं वर्तितव्यं, स्यात् भवेत् , स एव ग्राह्यः इत्यर्थः / 'तयोरेव कृत्यक्तखलाः ' इति भावे कृत्यस्तव्यत्प्रत्ययः / विहितानामहिंसादीनां केषाञ्चित् श्रौतस्मातधर्माणां भवद्भिरपि वर्जनात् तदृष्टान्तेन श्रुतिस्मृतिविहितेषु अन्येषु विधिनिषेधांशेष्वपि श्रौतस्मा विशेषादेव स्थातव्यं स्यात् , तस्कृताः शेषा धर्मा अपि अवश्यमङ्गीकार्या इति भावः // 10 // किसी ( अहिंसा, कन्यादान आदि ) धर्मके विषयमें सबका एकमत होनेसे तथा किसी 1. 'तस्कृतेः' इति पाटान्तरम् /
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________________ 1088 नैषधमहाकाव्यम् / धर्मके विषय में (विहितका त्यान तथा निषिद्धका आचरण करनेसे पाप होनेके भयसे बाकी (नित्य-नैमित्तिकभिन्न ज्योतिष्टोम आदि, अथवा-वेद-विहितसे भिन्न स्मृति-पुराणप्रतिपादित ) वैदिक धर्ममें ही स्थिर रहना ( उसका आचरण करना) चाहिये / [ श्रुतिस्मृति-प्रतिपादित कन्यादान अहिंसा आदि धर्मका पालन तथा मातृगमन आदि धर्मका त्याग आपलोग भी करते ही हैं, अतः शेष ज्योतिष्टोमादिका भी आचरण श्रुति-स्मृति- प्रतिपादित होने के कारण करना ही चाहिये / अथवा पाठा०-एकमत होनेके कारण सब ( नास्तिकों) को भी किसी ( अहिंसा, कन्यादान आदि ) वेदप्रतिपादित अधर्ममें ही स्थिर रहना चाहिये, तथा विहित धर्मके त्याग और निषिद्ध धर्मका आचरण करनेपर पाप लगनेके भयसे परस्परविरुद्ध मत होनेपर भी वेदप्रतिपादित धर्म में ही स्थित रहना चाहिये और वेद-प्रतिपादित होने के कारण शेष काम्यधर्म ( ज्योतिष्टोमादि यज्ञ) में ही स्थित रहना चाहिये / इस प्रकार इस इलोकसे 'जो न जानताऽस्मीति' 'एकस्य विश्वपापेन' ( 17:54-55)' तथा 'स्वञ्च ब्रह च ( 17.73)' इत्यादि आक्षेपोंका उत्तर दे दिया गया है ] // 10 // बभाण वरुणः क्रोधादरुणः करुणोग्झितम | किं न प्रचण्डात् पाषण्ड-पाश ! पाशाद् विभेषि नः ? 11011 बभाणेति / अथ वरुणः जलेशः, क्रोधात् रोषात , अरुणः रक्ताङ्गः सन् , करुणो. ज्झितम् उज्झितकरुणं, निष्कृषं यथा तथा इत्यर्थः / बभाण उवाच / तदेवाह-याप्यः कुत्सितः, पाषण्डः वेदबाह्यापसदा, पाषण्डपाशः।'याप्ये पाशप' तत्सन्बुद्धौ पापण्डपाश! रे नास्तिकाधम ! प्रचण्डात् भयङ्करात् , नः अस्माकं, पाशात् पाशायुधात . न बिभेपि किम् ? न त्रस्यसि किम् ? 'निजपाशेन बध्नाति वरुणः पापकारिणः इति किं न श्रुतम् ? इति भावः // 101 // ___ इस ( यमके इस प्रकार ( 17 / 95-100 ) कहो ) के बाद क्रोधसे लाल होकर वरुण निर्दयतापूर्वक कहा-हे निन्दित पाषण्डवाले ( नास्तिकाधम चार्वाक ) ! मेरे भयङ्कर पाइ (शास्त्रविशेष ) हे नहीं डरते हो क्या ? // 101 / / मानवाशक्यनिर्माणा कूर्माद्यङ्कबिला शिला / न श्रद्धापयते मुग्धस्तिथिकाध्वनि वः कथम् ? / / 102 / / मानवेति / मुग्धाः ! रे मूढाः !, मानवानां नराणाम् , अशक्यनिर्माणा निर्मातुम अशक्या, कूर्मादि कच्छपवराहादि, अङ्क चिह्नं यस्य तादृशं, बिलं विवरं, चक्रमिति यावत् / यस्याः तादृशी, शिला पाषाणखण्डः, गण्डकाख्यनदीविशेषसम्भूता शालग्रामशिला इत्यर्थः / व युष्मान् , तिर्थिकाध्वनि श्रोत्रियमार्ग कथम् , न श्रद्धापयते ? न विश्वासयति ? शास्त्रोलक्तज्ञणसंवादिस्वादिति भावः // 102 // ( अब 'देवश्चेदस्ति सर्वज्ञः ( 17 / 76 ) का उत्तर देते हैं-) अरे मूर्यो ! मनुष्योंसे नहीं 1. 'पाखण्डपाश' इति कवर्गमध्यः 'प्रकाश' सम्मतः पाठः /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1089 बनायी जा सकने वाली कच्छप आदि (वाराह, नरसिंह 'आदि) के चियुक्त बिलोंवाली ( गण्डकी नदीसे निकलनेवाली ) शिला ( शालग्रामकी मूर्ति ) तुम लोगोंको ईश्वरमार्गमें (अथवा-वैदिकमार्गमें ) क्यों नहीं विश्वास कराती है। [गण्डकी नदीमें मिलनेवाली मनुष्योंसे नहीं बनाये जा सकनेवाले कच्छप, वराह, नरसिंह आदि चिह्नोंसे युक्त बिलोंवाली शालग्रामकी मूर्तिको देखकर भी तुम लोगोंको ईश्वर (या-वैदिकधर्म ) में विश्वास नहीं होता, अत एव तुम लोग महामूर्ख मालूम पड़ते हो ] // 102 // शतक्रतूरुजाद्याख्या-विख्याति स्तिकाः ? कथम् / श्रुतिवृत्तान्तसंवादैन वश्चमदचीकरत् ? // 103 / / शतेति / नास्तिकाः ! रे नास्तिपरलोकाः ! शतक्रतुः शताश्वमेधयज्ञकारी इन्द्रः, उरुजः विष्णोरूरुदेशसम्भूतः वैश्यः, स आदियषां ते ब्राह्मणक्षत्रियादयः तेषामाख्याः शतक्रतुः उरुजः बाहुजः मुखजः पादज इत्यादीनि नामानि, तासां विख्यातिः प्रसिद्धिः, अतिवृत्तान्त संवादैः श्रतिषु वेदेषु, याशा वृत्तान्ताः 'शताश्वमेधक्रतुकारी इन्द्रो भवति' इतीन्द्ररयेच शतऋतुत्वं 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्' इत्यादिना ब्राह्मणस्यैव मुखजस्वं वैश्यस्यैवोरजत्वम् इत्यादयो वेदोक्ता इतिहासाः, तेषां संवादः श्रत्युक्तवृत्तान्तेन सह लोक व्यवहारस्य मेलनदर्शनरित्यर्थः / लोकेन इन्द्रस्यैव शतक्रतुनाम व्यवहियते न तु अन्यदेवानां, ब्राह्मणस्यैव मुखजत्वं व्यवहियते न स्वन्यवर्णानाम् इत्यादिव्यवहार करणैरिति यावत् / व युष्मान् , कथं न चमदची. करत ? न व्य सिरम यत् ? श्रुतिवृत्तान्तरय लोकस्यवहारेण ऐवयदर्शनात् कथं श्रुतिः प्रमाणस्वेन युष्माभिः न स्वीक्रियते ? इति भावः // 103 // __ हे नास्तिको ! शतवतु ( सौ अश्वमेध यज्ञ करनेवाला = इन्द्र) तथा ऊरुज (विष्णुके करसे उत्पन्न वैश्य ) आदि (मुखजब्राह्मण, बाहुज-क्षत्रिय और पज्ज-शूद्र ) नामकी प्रसिद्ध वैदिक वचनसे सङ्गत होने के कारण तुम लोगोंको क्यों नहीं आश्चर्यित (होनेसे वेदमें विश्वास युक्त ) करती है / ( अथवा-शतक्रतु अर्थात् इन्द्र आदि ( अग्नि, धर्मराज, मैं= वरुण आदि देव ) तथा उरुजा अर्थात् उर्वशी आदि ( मेनका, तिलोत्तमा, रम्भा आदि अप्सराएँ ) नामों की प्रसिद्धि...........")। [ 'शताश्वमेधवारीन्द्रो भवति' (सौ अश्वमेध यज्ञ करनेवाला इन्द्र होता है ) ऐसे वैदिक वचन के अनुसार लोकमें भी 'शतक्रतु' शब्द 'इन्द्र' के लिए ही प्रसिद्ध है तथा 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्..... ...' (विष्णुके मुखसे ब्राह्मण, बाहुसे क्षत्रिय, ऊरुसे वैश्य और 'चरणसे शूद्र उत्पन्न हुए ) इस वैदिक वचनके अनुसार लोकमें भी 'उरुज' शब्द 'वैश्य' के लिए ( इसी प्रकार 'मुखज' शब्द ब्राह्मण के लिए, 'बाहुज' - शब्द क्षत्रियके लिए और 'पज्ज' शब्द शूद्रके लिए) ही प्रसिद्ध है इन प्रसिद्धि यों को देखकर भी तुम नास्तिक लोगों को अपने मतको त्यागनेके लिए आश्चर्यित होकर और वैदिक मतपर विश्वास करना चाहिये। द्वितीय अर्थमें-वेदों में इन्द्रादि देव तथा उर्वशी
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________________ 1010 नैषधमहाकाव्यम् / आदि अप्पराओं को स्वर्गमें रहने का वर्णन मिलता है, उन इन्द्र, भग्नि, धर्मराज आदि देवों तथा उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराओं को यहां प्रत्यक्षमें देखकर भी तुम लोगोंको आश्चर्य तथा वैदिक वचनों पर विश्वास होना चाहिये, वह नहीं होता, अतः तुम लोग जडतम हो ] // 103 // तत्तज्जनकृतावेशान् गयाश्राद्धादियाचिनः / भूताननुभवन्तोऽपि कथं श्रद्धःथ न श्रुतीः ? / / 104 / श्रुतेः प्रामाण्यमेव कुतः ? इत्याशङ्कय तदेव द्वाभ्यामुपपादयति-तदित्यादि / तेषु तेषु जनेषु लोकेषु, कृतावेशान् तन्मुखेन यत्किञ्चित् 'याचितुं कृताधिष्ठानान् , गयाश्राद्धादियाचिनः प्रेतत्वादिविमोचककर्मयाचकान् , भूतान् प्रेतयोनिभेदान् , अनुभवन्तः प्रत्यक्षेग पश्यन्तः अपि, अतीः तद्विधायकवेदान् , कथं न श्रद्धत्य ? न विश्वसिथ ? // 104 // उन-उन ( स्वजनों या तटस्थ तृतीय लोगों ) में आविष्ट तथा ( अपनी सद्गति ह ने के लिए ) गया श्राद्धादि की याचना करते हुए (प्रेतादि योनियोंको प्राप्त ) जीवों को देखते हुए भी तुम ल ग वेदों पर क्यों नहीं श्रद्धा (विश्वास) करते हो ? [ इस वचनको वरुणोक्त होनेसे 'या वतः एवं गयाश्राद्धं' (17189) इस इन्द्रोक्त वचनके साथ पुनरुक्ति नहीं समझनी चाहिये / इसी प्रकार अग्रिम वचन के विषय में भी जानना चाहिये ] // 104 / / नामभ्रमाद् यमं नीतानथ स्वतनुमागतान् / संवादवादिनो जीवान् वीक्ष्य मा त्यजत श्रुतीः / / 105 // नामेति / किञ्च, नामभ्रमात् नामसाम्यकृतभ्रान्तः, यमं 'परेतराजम् , नीतान् यमदूतैः प्रापितान् , अथ अनन्तरम्, भ्रान्तिशोधनार्थ यमेन पुनः मर्त्यलोकप्रेरणा. नन्तरमित्यर्थः / स्वतनुम् आगतान् अप्राप्तकालत्वात् पुनर्यमाज्ञया स्वशरीरं प्रवि. ष्टान् , संवादवादिनः वेदोक्त्या सह ऐक्यवादियमलोकवृत्तान्तकथकान् , जीवान् मान् , वीक्ष्य अवलोक्य, श्रुतीः वेदान् , मात्यजत न जहीत, एकत्र प्रामाण्यदर्श नादत्राप्यश्रद्धा न कार्या इति भावः // 105 // नामके भ्रम ( सादृश्य) होनेसे यमराज के पास पहुँचाये गये इसके बाद ( असमयमें मृत्यु होनेसे ) पुनः अपने पूर्व शरोरमें लौटे हुए ( वेद-स्मृति-पुरागादि शास्त्रोंमें प्रतिपादित स्वर्ग-नरकादिके समान ही ) सङ्गन कहते ( स्वर्गादि-वर्णन करते ) हुए जीवोंको देखकर वेदों ( तथा तन्मूलक स्मृति आदि शास्त्रों ) का त्याग मत करो ( उन्हें अप्रामाणिक मत कहा, किन्तु उन पर विश्वास करा ) // 105 // संरम्भैर्जम्भजैत्रादेः स्तभ्यमानाद् बलाद् बलन् / 1. 'राजाहःसखिभ्यष्टच' इति टचि ‘परेतराजम्' इत्यस्यैवौचित्यान्मया प्राक्तनः 'परेतराजानम्' इति पाठस्त्यक्तः।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1061 मुंनि बद्धाञ्जलिर्देवानथैवं कश्चिदूचितवाम् / / 106 // संरम्भैरिति / अथ वरुणवाक्यानन्तरम् , जन्मजैत्रादेः जम्भासुरविजयीन्द्रादि. देववर्गस्य, संरम्भैः कोः 'संरम्भः सम्भ्रमे कोपे, इति विश्वः / स्तभ्यमानात् , पुरश्च. लितुं प्रतिबध्तमानात् , बलात् कलिसैन्यात् , बलन् निर्गच्छन् , कश्चित् धूर्तः नन्दी, मूर्ध्नि शिरसि, बद्धाञ्जलिः कृताञ्जलिःसन् , नमस्कृत्य इत्यर्थः / देवान् इन्द्रादीन् , एवं वक्ष्यमाणम् , ऊचिवान् उक्तवान् / बुवः वसुः // 106 // इस (इन्द्रादि देवोंके इस प्रकार ( 1784-105) कहने ) के बाद आगे बढ़नेसे रोकी गयी सेनासे पृथक् होकर ( कुछ आगे बढ़कर ) कोई (पापरूप होनेसे अज्ञात नामा बन्दी या-चार्वाक ) सिरपर हाथ जोड़कर अर्थात् नमस्कार कर देवोंसे इस प्रकार (17 / 107) बोला // 106 // नापरधी-पराधीनो जनोऽयं नाकनायकाः!। कालस्याहं कलेवन्दी तच्चाटुचटुलाननः / / 107 // यदचिवान् तदाह-नेति / नाकनायकाः ! हे देवाः!' अयं जनः अहमित्यर्थः / पराधीनः परवशः, अतो न अपराधी न दोषी, अहम् अयं जनः, कलेः कालस्य कलि-, युगाधिदेवस्य, तच्चाटुभिः तस्य कले, चाटुभिः प्रियवादैः, चटुलाननः चपलमुखः, स्वामिचित्तानुकूलवादीत्यर्थः / वन्दी स्तुतिपाठकः, अतोऽहं क्षन्तव्य इति भावः। स्वामिचित्तानुरक्षनाथं वेदादिदूषणं कृतं न तु स्वतः, अतो नाहं भवद्भिर्दण्डनीय इति निष्कर्षः // 107 // ___हे स्वर्गाधीश देवो ! कालिकाल ( कलियुग ) का वन्दी ( स्तुतिपाठक, अतएव ) उसके प्रियभाषण ( चापलूसी) में चञ्चल मुखवाला अर्थात् कलिकी बढ़-बढ़कर चापलूसी करने. वाला पराधीन यह मनुष्य ( मैं ) अपराधी नहीं है।' [ उस वन्दी ने इन्द्रादिको नमस्कार कर कहा कि मैं तो कलियुगका वन्दी होने के कारण पराधीन हूँ, और उसी की सदा चापलूसी किया करता हूँ, इसी कारण मैंने वेदादि की निन्दा की है, अतएव मेरी पराधीनता को जानकर आप लोग मुझे दण्डित न करें] // 107 // इति तस्मिन् वदत्येव देवाः स्यन्दनमन्दिरम् / कलिमाकलयाञ्चक्रुापरञ्चापरं पुरः / / 108 / / इतीति / तस्मिन् वन्दिनि, इति इत्थं, वदति जल्पति एव सति, देवाः इन्द्रादयः, स्यन्दनमन्दिरं रथमध्यस्थं, कलिं कलियुगाधिष्ठातारं, तथा अपरं ततः अन्यं, द्वापरं द्वापरयुगाधिदेवञ्च, पुरः अग्रे, आकलयाचक्रः ददृशुः॥ 108 // उस ( वन्दी ) के इस प्रकार ( 17 / 107 ) कहते रहनेपर ही अर्थात् कहने के बाद 1. 'मूर्द्धबद्धा-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1012 नैषधमहाकाव्यम् / तत्काल ही देवोंने रथमें बैठे हुए कलि तथा दूसरे द्वापर (कलियुगाधिष्ठातृ देव तथा दूसरे दापरके अधिष्ठातृ देव ) को देखा // 108 // सन्ददर्शोन्नमद्ग्रीवः श्रीबहुत्वकृताद्भुतान् | तत्तत्पापपरीतस्तान् नाकीयान् नारकीव सः / / 109 // सन्ददर्शति / नरकः अस्य अस्तीति नारकी नरकस्थः जन इव, तैः तैः पापैः ब्रह्महत्यादिभिः पातकैः, परीतः परिवेष्टितः, सः कलिः, श्रीबहुत्वेन सौन्दर्यबाहुल्येन, कृताद्भुतान् जनितविस्मयान् , रूपातिशयेन दर्शवान विस्मयोपादकानित्यर्थः / नाकीयान् स्वर्गरथान , तान् इन्द्रादीन् , उन्नमद्ग्रीवः उत्कन्धरः सन् , सन्ददर्श अवलोकयामास // 109 // नरकस्थ प्राणीके समान उन-उन ( ब्रह्महत्यादि ) पापोंसे व्याप्त उस कलिने अत्यधिक शरीर सौन्दर्य ( या-सम्पत्ति-बाहुल्य ) से विस्मित करनेवाले ( इन्द्रादि ) देवोंको ऊपर शिर उठाकर देखा / [ ब्रह्महत्यादि पापोंसे कण्ठपर्यन्त नरक में डबा हुआ प्राणी जिस प्रकार ऊपर की ओर गर्दन उठाकर शरीर-सौन्दर्यसे विस्मित करनेवाले पुण्यात्माओंको देखता तथा अनुताप करते हुए सोचता है कि पुण्यके कारण इनका शरीर सौन्दर्य ऐसा उत्तम है और पापके कारण हमारा ऐसा हीन है, उसी प्रकार कलिने भी देवोंको देखा तथा मनमें सोचा ] // 109 // गुरुबीडावलीढः प्रागभून्नमितमस्तकः / स त्रिशङ्करिवाक्रान्तस्तेजसैव विडोजसः // 110 / / गुर्विति / सः कलिः, प्राक् प्रथम, दर्शनमात्रमेवेत्यर्थः / गुा प्रबलया, बीडया लज्जया, देवानां वैमुख्यजनितया इति भावः / 'मन्दाक्षं ह्रीस्त्रपा ब्रीडा लज्जा' इत्यमरः / अवलीढः ग्रस्तः, पश्चात् विडोजसः इन्द्रस्थ, तेजसा एव प्रभावेणव, आक्रान्तः अभिभूतः सन्, त्रिशङ्कः इन्द्रतेजसा स्वर्गात् भ्रंशितः नमितमस्तकः सूर्यवंशीयो राजविशेष इव, नमितमस्तकः अवनतशिराः, अभूत् अजायत // 110 // __ वह ( कलि ) पहले ( इन्द्रादिको देखते ही) अधिक लज्जित हुआ तथा ( बादमे इन्द्र के तेजसे ही आक्रान्त होकर त्रिशङ्कके समान नतमस्तक हो गया ( पाठा०-इन्द्रादे तुच्छ देवता मेरे सामने क्या हैं ? इस भावनासे ) पहले ( इन्द्रादिके विषयमें पक्षा--- गुरु = वसिष्ठ मुनि के विषयमें ) अधिक अवज्ञायुक्त (किन्तु उनको देखते ही ) इन्द्र के तेजसे आक्रान्त त्रिशङ्कु के समान नतमस्तक हो गया / [जिस प्रकार विश्वामित्रको ऋत्विक बनाकर ईक्ष्वाकुवंशीय राजा त्रिशङ्कु सशरीर स्वर्ग में जाता हुआ इन्द्र के तेजसे ध्वरत होकर नतमस्तक हो गया (नीचे मस्तक करके गिरने लगा), उसी प्रकार कलि भी इन्द्र के तेजसे ही इच्छा नहीं रहते हुए भी लज्जित हो इन्द्र तेजसे ध्वस्त होकर नतमस्तक 1. '- न्नत ग्रीवः' इति पाठान्तरम्। 2. 'गुरुरीढा-' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 6 गया (इन्द्रको नमस्कार किया)। अर्थान्तरमें-जिस प्रकार गुरु वसिष्ठ मुनिके शापसे: चण्डाल बना हुआ राजा त्रिशङ्क उनके विषयमें अवचा युक्त हो विश्वामित्रसे यश कराकर सशरीर स्वर्गको जाता हुआ इन्द्रके तेजसे ध्वस्त होकर नतमस्तक हो गया (नीचेकी ओर मस्तककर स्वर्गसे पृथ्वीमें गिरने लगा) उसी प्रकार कलि भी इन्द्र के विषयमें पहले अधिक अवज्ञा युक्त होकर भी बादमें इन्द्र के तेजसे आक्रान्त हुएके समान नतमस्तक हो गया अर्थात इन्द्रको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ] // 110 // पौराणिक कथा-पहले इक्ष्वाकुवंशीय राजा त्रिशङ्क पर क्रुद्ध उसके गुरु वसिष्ठ मुनिने शाप देकर उसे चण्डाल बना दिया, तदनन्तर सशरीर स्वर्ग जानेका इच्छुक उसने विश्वामित्रको यज्ञमें आचार्य बनाकर यज्ञ किया और विश्वामित्रके मन्त्र बलसे सशरीर स्वर्ग जाने लगा तो इन्द्रने स्वर्गमें रहनेका अधिकारी नहीं होनेके कारण उसे भूमिपर गिरनेका आदेश दिया और वह उलटा मुखकर (नतमस्तक होकर ) भूमिपर गिरने लगा। यह कथा महाभारतमें आयी है। विमुखान् द्रष्टुमप्येनं जनङ्गममिव द्विजान् | एष मत्तः सहेलं तानुपेत्य समभाषत / / 111 / / विमुखानिति / जनात् गच्छति इति जनङ्गमः चण्डालः तम् / 'गमश्व' इति संज्ञायां खच्प्रत्यय इति क्षीरस्वामी। 'चण्डालप्लवमातङ्गदिवाकीर्तिजनङ्गमाः' इत्यमरः / द्रष्टुम् ईक्षितुम् अपि, विमुखान् परावत्तिताननान् , द्विजान् विप्रादीन् इव, एनं कलिं, द्रष्टुमपि किमुत सम्भाषितुं स्पष्टुं वेति भावः। विमुखान् तान् इन्द्रादीन् , मत्तः मदान्धः, एषः कालः, सहेलं सावज्ञम् / 'हेलाऽवज्ञाविलासयोः' इति विश्वः / उपेत्य समागत्य, समभाषत सम्भाषितवान् // 111 // ___चण्डालको देखने के लिए भी ( सम्माषण तथा स्पर्श करने की बात तो बड़ी दूर है) विमुख द्विजों के समान इस ( कलि ) को देखनेके लिए भी विमुख उन (इन्द्रादि देवों ) के पास जाकर मतवाला वह कलि अवज्ञापूर्वक बोलने लगा / ( अथवा पाठा०-देखनेके लिए: भी विमुख द्विजोंके पास ( मदपानसे) मतवाले चण्डालके समान देखने के लिए भी विमुख उन इन्द्रादि देवोंके पास जाकर उन्मत्त कलि अवज्ञापूर्वक बोलने लगा)॥ 111 / / स्वस्ति वास्तोष्पते ! तुभ्यं ? शिखिन्नस्ति न खिन्नता ? / सखे काल ! सुखेनासि? पाशहस्त ! मुदस्तव ? / / 112 / / स्वस्तीति / वास्तोष्पते ! वास्तोः गृहक्षेत्रस्य, पतिः अधिष्ठाता तत्सम्बुद्धौ, हे भुवस्पते ! इन्द्र !, 'वास्तोष्पतिगृहमेधाच्छच' इत्यस्मादेव निपातनादलुकि षत्वम् / 'इन्द्रो मरुत्वान्मघवा विडोजाः पाकशासनः। वास्तोष्पतिः सुरपतिर्बलारातिः शची. पतिः // ' इत्यमरः / तुभ्यं स्वस्ति क्षेमम् , अस्ति कञ्चित् ? इति शेषः। 'नमः 1. 'जनगम इव' इति पाठान्तरम् //
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________________ 1094 नैषधमहाकाव्यम् / स्वस्ति-' इत्यादिना चतुर्थी। 'स्वस्त्याशीः चेमपुण्यादौ' इत्यमरः / शिखिन् ! हे अग्ने ! खिन्नता खेदः, न अस्ति, कञ्चित् ? इति शेषः / सखे काल! हे सुहृत् यम ! सुखेन प्रीस्या, असि वर्तसे, किम् ? इति शेषः / पाशहस्त ! हे वरुण ! तव भवतः, मुदः मोदाः, सन्ति किम् ? इति शेषः / सर्वत्र काकुरनुसन्धे या // 112 // ____ हे वास्तोष्पते (गृहपति इन्द्र)! तुम्हारा कल्याण तो है ? हे शिखिन् (ज्वालावाले अग्नि ) ! तुम्हें खिन्नता तो नहीं है ? हे मित्र काल ( यमरान ) ! सुखले हो न ? हे पाशहस्त (हाथमें पाश' नामक आयुध लिये हुए वरुण ) ! आनन्द तो हैं ? / [ उक्त चारों सम्बुद्धि शब्दोंसे क्रमशः इन्द्र का केवल गृहपति मात्र होना, अग्निका ज्वाला ( अकिञ्चित्कर ज्वाला) वाला होना, यमका कृष्णवर्ण होनेसे कुरितत रूपवाला होना और वरुणका केवल हाथ में अकिञ्चित्कर पाश आयुध लिये हुए होना उस कलि ने सूचित किया है, तथा इन्द्र के लिए 'स्वस्ति' प्रश्न करनेसे इन्द्रका स्वामिख या कलिका ब्राह्मणत्व द्योतित होता है तथा अपने समान कृष्ण वगंवाले यमराज के लिए 'सखि' (मित्र ) बन्दका प्रयोग किया है, उत्तर्मो के साथ कुशल-प्रश्न होता है, उनके साथ समता होती है यहां पर कलिको श्रेष्ठता घोतित होती है, इस प्रकार कलिने इन्द्रादिके विषय में अवज्ञाको प्रकट किया ] / / 112 / / स्वयंवरमहे भैमी-वरणाय त्वरामहे / तदस्माननुमन्यध्वमध्वने तत्र धाविने || 113 / / स्वयमिति / हे देवाः ! स्वयंवरः एव आत्मना पतिवरणमेव, महः उत्सवः तस्मिन् , स्वयंवराय महः तस्मिन् इति वा / भैमीवरणाय दमयन्ती भार्यान्वेन वरीतुं, वरामहे स्वरां कुर्महे, शीघ्र याम इत्यर्थः / तत् तस्मात् , अस्मान् तत्र धाविने स्वयंवरगामिने, अध्वने अवगमनाय इत्यर्थः / अनुमन्यध्वम् अनुजानीध्वम् // 113 // हम स्वयंवरोत्सव में दमयन्तीको वरण करने के लिए शोवता कर रहे हैं अर्थत् शीत्र जा रहे हैं, इस कारण वहां जानेवाले मार्ग के लिए तुम लोग हमें अनुमति दो। [ शीत्रताके कारणसे हो हम तुम लोगों के साथ विशेष सम्मान करना नहीं चाहते, इस कारग तुम लोग इस समयमें मुझे वहां जाने की अनुमति दो ] / 113 / / तेऽवज्ञाय तमस्यच्चैरहवार मकारणम् / ऊचिरेऽतिचिरेणैन स्मित्वा दृष्टमुखा मिथः / / 114 / / ते इति / ते देवाः, अस्य कले, तं पूर्वोक्तम् , उच्चैः उत्कटम् , अकारणम् अहेतु. कम् , अहङ्कारं गर्वम् , अवज्ञाय अविगगरप. आ एवं अतिचिरेण अतिविलम्बेन, पापिष्ठोऽयं कथमस्माभिः सम्भाष्य इति बुदया इति भावः। मियो दृष्टमुखाः परस्परमुखावलोकिनः सन्तः, स्मिस्वा मूढोऽयं स्वयंवरवात्तों करोतीति ईषत् हसित्वा, एनं कलिम् , चिरे ऊचुः // 114 // वे ( इन्द्रादि देव ) कलिके निष्कारण महान् अहङ्कारकी अवज्ञाकर (अथवा-निष्कारण अहङ्कारकी अधिक अवज्ञाकर ) परस्पर में एक दूसरेके मुखको देखकर थोड़ा हँसकर ('इस
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________________ सप्तदशः सर्गः। पापीके साथ सम्भाषण भी हम लोग किस प्रकार करें इस विचारसे ) अत्यन्त विलम्बकर इस कलिसे बोले // 114 // . पुनर्वक्ष्यसिामामैवाक्यमुद्रक्ष्यसे नु सः ? / - सृष्टवान् परमेष्टी यं नैष्ठिकब्रह्मचारिणम् / / 115 // पुनरिति / हे कले! पुनः भूयः, एवं स्वयंवरार्थ गमिष्यामीत्येवंरूपं, मा मा वक्ष्यसि नैव वक्तव्यम् , कोपे द्विरुक्तिः। 'अनवक्लुप्त्यमर्षयोरकिंवृत्तेऽपि' इत्यमार्थे वचेलृट् / कुतः ? परमे तिष्ठतीति परमेष्ठी पितामहः / 'परमेस्थः कित्' इति इनिः। 'अम्बाम्बगोभूमि-' इति षत्वम् / यं वां, नैष्ठिकब्रह्मचारिणं यावज्जीवं ब्रह्मचर्यण अवतिष्ठमानं, सृष्टवान् निर्मितवान् ,सि. त्व, कथं नु केन प्रकारेण, उद्वयसे? परिणेष्वसि ? वहेलृट् / तेन चालल्यशासनेन कृतयुगादयोऽपि निष्कलत्रा एवं सृष्टाः, अतस्तव स्वयंवरवार्ता नैव कर्तव्या नैष्ठिकब्रह्मचारिव्रतस्य हानिभयात् इति भावः॥१५॥ (हे कले ! ) फिर ऐसा ( मैं दमयन्तीको वरण करने स्वयंवरोत्सवमें शीघ्र जा रहा हूँ यह वचन ) मत प.हना, क्योंकि वह तुम (उस दमयन्तीको) वरण कैसे करोगे ? जिसे ब्रह्माने नैष्ठिक ( आजन्म गुरुकुलमें रहनेवाला) ब्रह्मचारी रचा है / [ यदि नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर भी तुम विवाह करोगे तो तुम्हारा ब्रह्मचर्य व्रत भ्रष्ट होनेसे तुम "अवकीर्णी' हो जावोगे, अतः विवाह करने के लिए जानेकी बात पुनः कदापि मत करना ] // 115 // द्रोहिणं द्रुहिणो वेत्तु त्वामाकावकीर्णिनम् / त्वज्जनैरपि वा धातुः सेतुर्लङ्घन्यस्त्वया ने किम् ? // 116 // द्रोहिणमिति / वा अथवा, त्वज्जनः तव भृत्यैः कामक्रोधादिभिरपि,भृत्यत्वादतिछुट्टैरपीति भावः। धातुः ब्रह्मणः, सेतुः मर्यादा, नियोग इति यावत् , लङ्घयः लवयितुं शक्यः / 'शकि लिङ्गच' इति चकारात् शक्याथै कृत्प्रत्ययः। सुतरां त्वया तत्स्वामिना भवताऽपि, न किम् ? स सेतुः किं न लवयः ? अपि तु लयः एवं इत्यर्थः / यस्य क्षुद्रभृत्यैरपि स्रष्टुराज्ञालकनं सम्भाव्यते, तेनापि तदाज्ञालङ्घनं नासम्भाव्यमिति भावः। किन्तु द्रुहिणः ब्रह्मा, त्वाम् अवकीर्ण स्खलितम् अनेनेत्यवकीर्णी क्षतव्रतः / 'इष्टादिभ्यश्च' इति इनिप्रत्ययः। तम् अवकीर्णिनं क्षतव्रतम्, व्रत. लचिनमित्यर्थः। 'अवकीर्णी क्षतवतः' इत्यमरः। आकण्यं श्रुत्वा, द्रोहिणम् आज्ञा. लङ्घनापराधिनम् , वेत्त जानातु, ज्ञात्वा च यत् कर्तव्यं तत् करोतु इति भावः // 116 // अथवा तुम्हारे भृत्यलोग ( काम, क्रोध, लोम आदि अतिशय क्षुद्र लोग) भी ब्रह्माकी मर्यादाको लाँघ सकते हैं तो तुम नहीं लाँघ सकते क्या ? अर्थात् तुम्हारे अतिक्षुद्र कामक्रोध आदि अनुचर भी जब ब्रह्माकी मर्यादा तोड़ सकते हैं तो उनके स्वामी तुम्हारे लिए 1. तदुक्तम्-'अवकीर्णी भवेद्गत्वा ब्रह्मचारी च योषितम् / ' इति / 2. 'तु किम् ?' इति पाठातरम् /
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________________ 2066 नैषधमहाकाव्यम् / ब्रह्माकी मर्यादा तोड़ना कौन बड़ी बात है ? (किन्तु ऐसा करनेपर) ब्रह्मा तुझे अवकीणों (स्त्री-सम्मोग करनेसे नष्ट ब्रह्मचर्य व्रतवाला) सुनकर द्रोह करनेवाला जाने ( और ऐसा जानकर जैसा उचित हो वैसा करें अर्थात् तुम्हें दण्डित करें ) / अथवा-ब्रह्मा तुमको अवकीणी सुनकर तुम्हें द्रोही ( वैर करनेवाला) जाने और जब तुम्हारे ( नीच ) भृत्य ( काम क्रोधादि ) भी ब्रह्माकी मर्यादाको तोड़ते हैं तो तुम नहीं तोड़ोगे क्या ? अर्थात् तुम्हें ब्रह्माकी मर्यादाको तोड़ना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। अथवा-तुम्हारे (नीच कामक्रोधादि ) भृत्योंको भी ब्रह्माकी मर्यादाको नहीं तोड़ना चाहिये, फिर तुम्हें नहीं तोड़ना चाहिये ( यह क्या कहना है अर्थात् जब तुम्हारे नीच भृत्योंको ही ब्रह्माकी मर्यादा नहीं तोड़नी चाहिये तो -समझेंगे पवं दण्डित करेंगे, इस कारण भी तुमको दमयन्तीके विवाहकी बात फिर कभी भी नहीं करनी चाहिये ) // 116 // अतिवृत्तः स वृत्तान्तस्त्रैलोक्ययुवगर्वनुत् / आगच्छतामपादानं न स्वयंवर एव नः / / 117 / / अतीति / भवतु तावत् , त्रैलोक्ये त्रिलोकमध्ये, ये युवानः यावन्तस्तरुणाः, तेषां गर्वनुत् सौन्दर्याहङ्कारहन्ता, भैमीकर्तृकप्रत्याख्यानादिति भाषः। सः वृत्तान्तः स्वयंवरप्रसङ्गः, अतिवृत्तः अतीतः। कथं त्वया ज्ञातम् ? इत्याह-आगच्छताम् आयातानां, नः अस्माकं, सः प्रसिद्धः, स्वयंवरः एव स्वयंवरस्थानमेव, अपादानम् आगमनक्रियाया अवधिसूतः, ततः एव आगच्छामः इत्यर्थः॥ 117 // त्रिलोकीके ( एक नल को छोड़कर शेष समस्त ) युवकों के अहङ्कारको मदित करनेवाला वह ( दनयन्तीका स्वयंवरोत्सव ) समाप्त हो गया, (क्योंकि ) वह स्वयंवर ही ( वापस ) आते हुए हमलोगोंका अपादान (पृथक होने में निश्चल अवधि ) है। [हमलोग उसी स्वयंवरसे आ रहे हैं, अतएव वहांका वृत्तान्त हमें ठीक-ठीक ज्ञात है कि वह स्वयंवर समाप्त हो गया, इस कारण भी तुम्हें वहां जानेकी बात करना व्यर्थ है ] // 117 // नागेषु सानुरागेषु पश्यत्सु दिविषत्सु च / भूमिपालं नलं भैमी वरं साऽववरत् वरम् / / 118 / / नागेष्विति / सानुरागेषु, अनुरागयुक्तेषु, नागेषु, नागकुमारेषु, दिविषत्सु देवेषु च, पश्यत्सु अवलोकयत्सु, पश्यतः तान् सर्वाननादृत्येत्यर्थः। 'षष्ठी चानादरे' इति चकारात् अनादरे सप्तमी। सा भैमी दमयन्ती, वरं नागाद्यपेक्षया श्रेष्ठम् , भूमिपालं चक्रवत्तिनम, नलं निषेधशम्, वरं वोढारम्, अववरत् वृणोतिस्म / वरयतेश्चौरादिः कात् ईप्सायाम् अदन्तालङ, अग्लोपत्वेनासन्वद्भावादित्वदीर्घयोरभावः // 118 // 1. 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' (पा. सू. 24) इति पाणिन्युक्तेरिति भावः। 2. 'नरं' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। अनुरागयुक्त [ वासुकी आदि ) नागों तथा हमारे अर्थात् इन्द्रादि चारों देवोंके देखते रहनेपर ( अथवा-नागों तथा हम देवों के अनुरागके साथ देखते रहने पर सबका अनादर करके ) उस दमयन्तीने श्रेष्ठ वर राजा नल ( पाठा०-नर-मनुष्य, 'र-जु' के अभेद होनेसे 'नल' ) को वर लिया है। [ उस स्वयंवरोत्सव में वासुकि आदि नाग तथा हम लोगइन्द्रादि देव-भो सम्मिलित होकर उसे वरने के लिए अनुरागसे देखते ही रह गये, किन्तु सबका त्यागकर उसने श्रेष्ठ राजा नल को अच्छी तरह वरण कर लिया, जब वासुकि आदि देवों तथा इन्द्रादि-हम लोगोंको-ही उसने वरण नहीं किया तो मर्त्यलोकवासी अन्य राजाओं के विषय में कहना ही क्या है ? इसीसे हमने पहले ( 17.117 ) कहा कि त्रिलोकीके युवकों के अहङ्कारको मर्दन करनेवाला स्वयंवर हो चुका ] // 118 // भुजगेशानसद्वेशान् वानरानितरान् नरान् / अमरान पामरान भैमी नलं वेद गुणोज्वलम् / / 116 // .. भुजगेति / भैमी दमयन्ती, भुजगेशान् वासुकिप्रमुखमहानागान् , असद्देशान् अपकृष्टपरिच्छदान् , वैरूप्यादमनोज्ञाकृतीन् इत्यर्थः / इतरान् नलात् अन्यान् , नरान् मानवान् , नरेन्द्रान् इति यावत् / वानरान् मटान् , चापल्यनिगुंगत्वाभ्यां मर्कटतुल्यान् इत्यर्थः / तथा अमरान् इन्द्रादीन् देवान् , पामरान नीचान / 'विवर्ग: पामरो नीचः' इत्यमरः। वेद वेत्ति / 'विदो लटो वा' इति णलादेशः। नलं केवलं नलनृपतिम् एव, गुणोज्ज्वलं गुणाढ्यम् , वेद इति पूर्वक्रियया अन्वयः॥ 119 // __ दमयन्ती (वासुकि आदि ) नागोंको असुन्दर 'वेश ( कञ्चुरू) वाला, (नलेर) मनुष्यों को ( चञ्चलतायुक्त, एवं सद्गुणहीन होनेसे ) वानर ( के तुल्य ), देवोंको नीच और नलको गुणोंसे उज्ज्वल समझती है ( अथवा समझा था ) // 119 // इति श्रुत्वा स रोषान्धः परमश्वरमं युगम् / जगन्नाशनिशारुद्र-मुद्रस्तानुक्तवानदः / / 120 // ___ इतीति / इति इदं, श्रस्वा आकर्ण्य, परमः उत्कट इत्यर्थः / रोग क्रोधेन, अन्धः दृष्टिशक्तिहीनः, हिताहितविवेचनापरिशून्य इत्यर्थः / अज्ञानपरवशः इति यावत् / चरमम् अन्त्यम्, युगं चतुर्थ युगमित्यर्थः / सः कलिः, जगन्नाशनिशा त्रिभुवनध्वंसकारिणी रात्रिः, कालरात्रिरित्यर्थः / तत्र रुद्रः प्रलयकाले संहारमूर्तिः शिवः, तस्य मुद्रा इव मुद्रा चिह्नम्, आकारः इति यावत् यस्य सः तादृशः सन् , तान् इन्द्रादीन्, अदः वक्ष्यमाणं वाक्यम्, उक्तवान् कथितवान् // 120 // - यह (17 / 115-119) सुनकर क्रोधान्ध ( अत एव सदसद्विचारहीन ), उत्कट अर्थात भयङ्कर वह अन्तिम युग अर्थात् कलि संसारनाशिनी रात्रि (कालरात्रि) में रुद्रके समान .(भयङ्कर) प्रकृतिवाला होता हुआ उन (हन्द्रादि देवों) से ऐसा (17 / 121-131) बोला // 11 // कयाऽपि क्रीडतु ब्रह्मा दिव्याः स्त्रीर्दीव्यत स्वयम् /
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________________ 1890 नैषधमहाकाव्यम् / कलिस्तु चरतु ब्रह्म प्रैतु चातिप्रियाय वः / / 121 / / यदुक्तं 'पुनर्वक्ष्यसि' इत्यादिना श्लोकद्वयेन (17 / 115-116) तत्रोत्तरं सोल्लुण्ठ माह-कयाऽपीत्यादिना श्लोकद्वयन / हे देवाः ! ब्रह्मा स्रष्टा, कयाऽपि अगम्ययाऽपीति भावः। 'प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यगात्' इति श्रुतेः, क्रीडतु रमताम् , स्वयं यूयञ्च इत्यर्थः। दिव्याः स्वर्गीयाः, स्त्रीः नारी:, दिव्याभिः वेश्याभिरिति भावः / 'कर्मच' इति करणस्य कर्मस्वम्। दीव्यत क्रीडत, कलिस्तु अहं पुनरित्यर्थः, वः युस्माकम् , अतिप्रियाय अत्यन्तप्रीतिजननाय, ब्रह्म चरतु ब्रह्मचर्यमवलम्ब्य तिष्ठतु, प्रेतु म्रियताञ्च // 121 // (पहले कलि इन्द्रोक्त 'पुनर्वक्ष्यसि.' इत्यादि (17 / 115-116) श्लोकोंका उत्तर दे रहा है-) ब्रह्मा किसी स्त्री ( अतिसुन्दरी गायत्री' आदि, अथवा-सम्भोगके अयोग्या हे.नेसे अग्राह्य नामवाली, अथवा-पुत्री सरस्वती) के साथ क्रीडा करें, (तुमलोग भी) दिव्य स्त्रियों ( अतिशय सुन्दरियों, अथवा-स्वर्गीय रम्भा आदि अप्सराओं, अथवाअतिसुन्दरी 'अहल्या' आदि परस्त्रियों ) के साथ स्वयं ( स्वच्छन्दतापूर्वक ) क्रीडा करो, किन्तु कलि तुमलोगोंके अतिशय प्रिय करने के लिए ब्रह्मचर्य धारण करे और ( अन्तमें ) मर जाय / [पाठा-कलि तो ब्रह्मचर्य धारण करे, या तुमलोगों के अतिप्रियता (प्रसन्नता ) के लिए मर जाय / अथवा-ब्रह्मा तथा तुम लोग तो यथेष्ट स्वच्छन्दतापूर्वक सुन्दरियों के साथ भोग-विलासकर आनन्द मनाओ और मैं कलि तुम लोगोंकी प्रसन्नता ( मर्यादा रक्षा ) के लिए. यावज्जीवन ब्रह्मचारी रहूं और अन्तमें मर जाऊं। अथवा-ब्रह्मा तथा तुम लोग स्वच्छन्दतापूर्वक सुन्दरियों के साथ आनन्द मनाओ, मैं कलि तुम लोगोंकी अतिशय प्रिय ( दमयन्ती ) के लिए मर जाऊंगा किन्तु स्वेच्छाचरण नहीं करूंगा इत्यादि प्रकारसे कलिने इन्द्रादिका उपहास किया ] // 121 / / / चर्येव कतमेयं वः परस्मै धर्मदेशिनाम् ? / / स्वयं तत् कुर्वतां सर्व श्रोतुं यद् बिभितः श्रुती / / 122 / / ततः किम् ? तत्राह चर्येवेति / परस्मै अन्यस्मै, धर्मदेशिनां स्वसुतादिगमनं न कार्यमित्यादिरूपमाचारमुपदिशताम् , स्वयं तु आत्मना पुनः, यत् कर्म, ब्रह्महत्या. गुरुदारगमनादिरूपमित्यर्थः। श्रुती कौँ अपि, श्रोतुम् आकर्णयितुम् , बिभितः त्रस्यतः / 'भियोऽन्यतरस्याम्' इति विकल्पादिकारः। तत् सर्वं ब्रह्महत्यापारदार्यादिकम् , कुर्वताम् आचरताम् , 'अहल्यायै जार' इति श्रुतेः। वायुष्माकम् , इयम् एषा, चर्या आचारः, रीतिरिति यावत् , कतमेव ? कीदृशीव ? अवाच्या इत्यर्थः / स्वयमनाचारिणां युष्माकं परोपदेशवचनं न ग्राह्यम् इति भावः // 122 // 1. 'वाति-' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। दूसरेके लिए धर्मोपदेश करनेवाले तथा जिस कर्म ( पुत्र्यादिसम्भोग ) को सुनने के लिए कान भी डरते हैं, उन सब कर्मोको स्वयं करते हुए तुमलोगोंका आचरण ही क्या है ? [ तुमलोग केवल धर्माचरण करने के लिए दूसरोंको उपदेश देते हो, किन्तु स्वयं ऐसे निन्दि. ततम कर्म करते हो, जिन्हें सुननेसे कान भी डर जाते हैं, अतः तुमलोगोंका उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है ] // 122 // तत्र स्वयंवरेऽलम्भि भुवः श्रानैषधेन सा। जगता ह्रीश्च युष्माभिाभस्तुल्याभ एव वः // 123 / / यदुक्तम् 'अतिवृत्तः स वृत्तान्तः' इत्यादिना श्लोकत्रयेण (17 / 117-119) तत्रोत्तरं प्रपञ्चेनाह-तत्रेत्यादिभिः षोडशभिः / हे देवाः ! तत्र स्वयंवरे दमयन्तीकत्त केप्सितपतिवरणे, भुवः श्रीः भूलोकलक्ष्मीः, सा भैमी, नैषधेन नलेन, अलम्भि लब्धा / लभेय॑न्तात् कर्मणि लुङि 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति विकल्पान्नुमागमः / युष्माभिश्च भवद्भिस्तु, जगतः त्रिलोकस्य, हीः लज्जा, त्रैलोक्ये यावती लज्जा वर्तते सा इत्यर्थः / अलम्भि इति पूर्वेणान्वयः / स्वर्लोकलज्जाकरमिदमवमानमिति भावः / एवञ्च वः युष्माकं, नलस्य देवानाञ्च इत्यर्थः / स च यूयन्चेति तेषां युष्माकमिति तदायेकशेषः / लाभः फलप्राप्तिः, तुल्याभः समानरूप एव, एकविधः एव इत्यर्थः / श्री-हीति शकार-हकारयोः विभिन्नतामात्रमन्यत् तुल्यमिति भावः // 123 // (अब कलि इन्द्रोक्त 'अतिवृत्तः सः वृत्तान्तः' इत्यादि तीन (171117-119 ) इलोकों. का उत्तर 'तत्र स्वयंवरे' आदि नव ( 17 / 123 / 131) श्लोकोंसे देना है-) उस स्वयंवर में नलने संसारकी लक्ष्मी ( दमयन्ती) को और तुमलोगोंने संसारकी ( अथवा-संसारसे) लज्जाको प्राप्त किया, ( इस प्रकार ) तुमलोगों ( तुम इन्द्रादि देवों तथा नल ) का लाभ समान ही है / [ नलने संसारकी लक्ष्लीरूपा दमयन्तीको पाया और तुमलोग उसे नही पानेके कारण संसारके लोगोंसे लज्जा प्राप्त किये अर्थात् संसार में लज्जित हुए, इस प्रकार 'श्री' तथा 'ही' दोनों में केवल 'शकार-हकार' का भेद है, शेष लाभ दोनों पक्षोंका समान ही है, अर्थात् स्वयंवर में जाकर भी तुमलोगोंके सामने ही नलने दमयन्तीको प्राप्त कर लिया तथा तुमलोग उसे नहीं पानेसे अत्यन्त लज्जित हुए, अतएव तुमलोगोंका दर्प व्यर्थ है ] // 123 // दुरान्नः प्रेक्ष्य यौष्माकी युक्तेयं वक्त्रवत्रणा। लजयैवासमर्थानां मुखमास्माकमोक्षितुम् / / 124 // 1. 'नवमिः' इत्येवोचितम् , षोडशश्लोकानांमध्ये श्लोकत्रयेण (17 / 132-134) सरस्वतीभाषणवर्णनात् / 2. 'युष्माकम्' इति पाठः साधुः' इति 'प्रकाश'कारः'। 3. 'लज्जयेवा-' इति पाठान्तरम् / 66 नै० उ०
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________________ 1100 नैषधमहाकाव्यम् / दूरादिति / हे देवाः !दूरात विप्रकृष्टदेशात् , नः अस्मान् , प्रेक्ष्य दृष्ट्वा, युष्माकम् इयं यौष्माकी भवदीया / 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्याम्' इत्यणप्रायये 'तस्मिन्नणि च' इत्यादिना युष्माकादेशे 'टिड्ढाणा' इत्यादिना ङीप् / इयम् एषा, वक्त्राणां मुखा. नां वक्रणा वकीकरणम् , निर्यङमुग्वत्वमित्यर्थः / 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात् युच् / लजया एव व्रोडावशेनैव, दमयन्त्या अवृतत्वादिति भावः। अस्माकम् इदम् आस्माकम् , यौष्माकीवत् प्रक्रिया / मुखम् आननम् , ईक्षितुं द्रष्टम् , असमर्थानाम् , अशक्यानां युष्माकमिति शेषः / अथवा समासान्तगततया गुगोभूतस्य यौष्माकात्यत्र युष्मच्छब्दस्य विशे गम् ; युक्ता उचिता // 124 // (आते हुए ) हमलोगों को दूरसे ही देखकर लज्जासे हो (पाठा० -मानो लज्जाले ) हमलोगों के मुखको देखने के लिए असमर्थ तुमलोगों को यह विमुखता ( हमलोगोंके सामनेसे मुख फेर लेना ) उचित ही है / [ दमयन्तीने स्वयंवरमें गये हुए तुमलोगों का वरण नहीं किया है, अतएव तुमलोग अतिशय लज्जित हो और इसी कारण आते हुए हमलोगों को दूरसे हा देखकर अपना मुख फेर लिये हो यह तुमलोगों के लिए उचित ही है। लोकमें भी कोई अतिशय लज्जित व्यक्ति परिचित जनको आते हुए दूरसे ही देखकर मुख माड़ लेता है / यद्यपि देवोंने होन कलिको नहीं देखने के लिये मुख फेर लिया था ( 17.111 ), तथापि उसको कलि अन्यथा समर्थन करते हुए इस प्रकार कह रहा है ] // 124 / / स्थितं अवद्भिः पश्यद्भिः कथं भास्तदसाम्प्रतम् / निदग्धा दुर्विदग्धा किं सा हशा न ज्वलत्क्रुधा ? // 125 / / स्थितमिति / भोः देवाः! पश्यद्भिः अवलोकयद्भिः, नलवरणमिति शेषः / भवद्भिः युष्माभिः, कथं केन प्रकारेण, स्थितम् ? उदासितम् ? भावे क्तः। तद् औदासीन्यम् , असाम्प्रतम् अयुक्तम् / किं तर्हि तदा कार्यम् ? तदाह-दुर्विदग्धा दुविनीता सा भैमी, ज्वलत्क्रया दोप्यमानकोपया, कोपप्रज्वलितया इत्यर्थः। दृशा हवा, किं कथं, न निदग्धा ? न भस्मोकृता ? दग्धुमेव उचिता इत्यर्थः // 12 // ___ हे देवो ! उसे ( नलवरणको , देखते हुए तुमलोग क्यों उदासीन रहे ! ( अथवा-कैसे दहरे रहे ) ? यह अनुचित हुआ, दुविनीत उस ( दमयन्ती ) को क्रोधसे जलती हुई दृष्टिसे भस्म क्यों नहीं कर दिया ? / [ जिस दमयन्तीने तुमलोगोंका त्यागकर सामान्यतम मनुष्य नरका वरण किया और उसे तुमलोग चुपचाप उदासीन होकर देखते रहे, सशक्त होकर भी क्रोधसे भस्म नहीं कर दिया, यह उचित नहीं किया ] // 125 // महावंशाननादृत्य महान्तमभिलाषुका / स्वीचकार कथङ्कारमहो ! सा तरलं नलम् // 126 // दाह्यत्वे हेतुमाह-महेति / महान्तम् उत्कृष्टपुरुषम, वरीमति शेषः। अभिलापुका कामयमाना। 'लषपत-' इत्यादिना उकङ्प्रत्ययः, 'न लोका-' इत्यादिना
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________________ सप्तदशः सर्गः। 6101 षष्ठीप्रतिषेधः / सा भैमी, महावंशान् उत्कृष्ट कुलान् , सर्वलोकवरेण्यप्रजापतिकश्यप. सुतान् इति भावः / युष्मान् इति शेषः / महतः वेणन् च / 'वंशो वेणौ कुले वर्ग तुदतृणविशेषञ्च / 'नलः पोटगले राज्ञि' इति विश्वः / कथङ्कारं कथम् इत्यर्थः / 'अन्यथैवंकथम् -' इत्यादिना णमुलप्रत्ययः / स्वीचकार ! बब्रे ? अहो! इत्याश्चर्ये / प्रखरनदीस्रोतसा नीयमानस्य वेण्ववलम्बनं परित्यज्य तृणावलम्बनवदुपहास्यमिदं चेष्टितमिति भावः // 126 // (कुल शील आदिसे ) बड़ेको चाहनेवालो ( दमयन्ती ) महावंश ( कश्यप मुनि के कुलमें उत्पन्न होनेसे श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, पक्षा-बड़े बांस) आपलोगोंका छोड़कर चञ्चल ( मनुष्य होनेसे चपल स्वभाववाले, पक्षा० --थोड़ो हवासे भा हिलनेवाले ) नल (निषधेश्वर, पक्षा०–'नल' नामक तृग-विशेष ) को किस प्रकार स्वीकार किया ? यह आश्चर्य है। [बड़ेको चाहनेवाला व्यक्तिका बड़े बांसको छोड़कर चञ्चल 'नल' नामक तृगको स्वीकार करने के समान श्रेष्ठ कुलको चाहनेवाली दमयन्ताका कश्यप मुनि-जैसे श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न तुम अतएव उपहासास्पद है ] // 126 // भवादृशैदिशामीशैम॒ग्यमाणां मृगेक्षणाम् / स्वीकुर्वाणः कथं सोढः कृतरीढस्तृणं नलः ? / / 127 // भवाहशेरिति / भवाशेः भवद्विधैः, दिशाम् ईशैः दिकपालैः, मृग्यमाणां काम्य. मानाम् , मृगेक्षणां हरिणलोचनाम्, भैमीमिति शेषः / स्वीकुर्वाणः गृह्णन् , अत एवं कृतरीढः भवतां कृतावज्ञः। रीढाऽवमाननाऽवज्ञा' इत्यमरः / 'कृतवाडः' इति पाठे-जनितलज्जः, दमयन्तीकत क प्रत्याख्यानात् युष्माननादृस्य नलत कदमयन्ती. ग्रहणाच्च लजा इति बोध्यम् / तृणं तृगकल्पः, नलः नैषधः, कथं केन प्रकारेण सोढः ? क्षान्तः ? भवद्भिरिति शेषः / महद्भिः हि परिभवो न सोढव्यः इत्यर्थः // 27 // ____ आप लोगों-जैसे दिक्पालोंने कामिनी मृगलोचनी ( दमयन्तो) को स्वीकार करते हुए ( अत एव आप लोगोंको) अवज्ञात (पाठा०-लज्जित ) किये हुए तृण (के समान निस्सार ) नलको किस प्रकार सहन किया ? / [ समर्थ दिक्पाल होते हुए भी कामिनीको स्वीकार कर आप लोगोंकी अवज्ञा करनेवाले निबल नलको आप लोगोंने क्षमा कर दिया यह उचित नहीं किया ] // 12 // दारुणः कूटमाश्रित्य शिखी साक्षीभवन्नपि / नावहत् किं तदुद्वाहे कूटसाक्षिक्रियामयम् ? / / 128 // दारुण इति / अयं पुरोवर्ती, शिखी शिखावान् अग्निः, दारुणः काष्ठस्य, कूटं राशिम् , आश्रित्य अवलम्ब्य, अन्यत्र-दारुणः पापकार्यकारित्वात् करकर्मा, पुरुषः
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________________ 1102 नैषधमहाकाव्यम् / इति शेषः / कूटं कपटम् , आश्रित्य अवलम्ब्य, साक्षीभवन्नपि प्रत्यक्षद्रष्टा सन् अपि, अग्निसाक्षिके विवाहे व्यवहारे च साक्षीभवन्नपि इति भावः / तदुद्वाहे तयोः दमय. न्तीनलयोः विवाहे, कूटसाक्षिणः मिथ्यासाक्षिणः, क्रियां चेष्टितम् , नलेन दमयन्ती नोढा किन्तु अन्येनोढा इत्याद्यनृतवचनव्यापारमित्यर्थः। किं कथम , नावहत् ? नावलम्बत ? शिखिनस्तागकूटसाक्षिदाने च भवतां दमयन्तीलाभः स्यादेव यतः कूटसाक्षी परकीयं वस्तु अन्यरम दापयतीति भावः // 128 // दारुण ( प्रज्वलित होनेसे भयङ्कर, पक्षा०-क्रूरकर्म करनेवाला) यह अग्नि कूट (काष्ठराशि, पक्षा०-कपट ) का आश्रयकर साक्षी होता हुआ भी उस विवाहमें ( अथवाउन दोनों के, या-उस नलके, या-उस दमयन्तीके विवाहमें; पक्षा०-उस साक्षित्वके निर्वाह करने में ) कपट साक्षी के कार्यको क्यों नहीं ग्रहण किया ? / [जिस प्रकार कर कर्मा पुरुष कपटपूर्वक किसी व्यवहार (मुकदमे ) में साक्षी होकर भी उसके निर्वाह ( यथार्थत्वको पूरा) करने में कपटी साक्षी बनकर दूसरेकी वस्तु दूसरेको दिलवा देता है,, उसी प्रकार दारुण यह अग्नि काष्ठ-राशिको पाकर उनके विवाहमें साक्षी होता हुआ मी कपटी साक्षी का काम क्यों नहीं किया ? अर्थात यह क्यों नहीं कह दिया कि 'दमयन्तीका नल के साथ विवाह नहीं हुआ है, किन्तु इस ( आप लोगोंमेंसे किसी एक ) देवके साथ हुआ है; यदि वह ऐसा कहता तो अवश्य ही वह दमयन्ती आप लोगों से किसी एक.को प्राप्त हो जाती, परन्तु इसने ऐसा नहीं किया, अत एव अत्यन्त अनुचित किया ] // 128 / / अहो ! महःसहायानां सम्भूता भवतामपि / क्षमैवास्मै कलङ्काय देवस्येवामृतद्युतेः / / 129 / / अहो इति / भो देवाः ! महःसहायानां तेजस्विनामपि, भवतां युष्माकम, अमृ. तद्युतेः सुधाकरस्य, देवस्य इन्दोः इव, क्षमा क्षान्तिः एव, अन्यत्र-क्षितिः एव 'क्षितिक्षान्त्योः क्षमा' इत्यमरः / अस्मै इन्द्रादिदेवेषु सत्स्वपि दमयन्त्या नलो वृत इति स्वीकृत परिभवरूपाय, कलङ्काय अपवादाय, अयशसे इत्यर्थः / अन्यत्र-कलकाय अङ्काय, कृष्णवर्णचिह्नविशेषायेत्यर्थः / चन्द्रे श्यामिका भूच्छायवेति केचित् / 'कलङ्कोऽङ्कापवादयोः' इत्यमरः / सम्भूता सञ्जाता, इत्यहो! खेदे / क्षमाया गुणभूतत्वेऽपि समयविशेष क्षमाकरणात् स्त्रियः अपि न गणयन्तीति भावः // 129 // तेजस्वी भी आप लोगोंकी ( अथवा-तेजस्वी आप लोगोंकी भी) क्षमा ही उस प्रकार इस कलङ्क ( दमयन्तीने इन्द्रादि देवोंका त्यागकर नलको वरणकर लिया ऐसे अपयश, या-नलकृत आपलोगोंके अनादर, अथवा-लज्जाके कारण हमलोगों के समक्ष विमुखता ग्रहणरूप कलङ्क) के लिये हुई, जिस प्रकार तेजस्वी देव चन्द्रमाको कलङ्क (कालिमा) के लिए पृथ्वी होती है, अहो, खेद है। [ यदि आप लोग क्षमा नहीं करते तो अपने तेजसे नलको पराभूतकर इस प्रकार कलङ्कित नहीं होते, अतएव गुणरूप भी क्षमा अस्था
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1103 नमें प्रयुक्त होनेसे दोषाधायक ही हुई। चन्द्रमामें पृथ्वीको छाया हो कलङ्करूपसे दृष्टिगोचर होती है, ऐसा ज्योतिःशास्त्रका सिद्धान्त है ] // 129 / / .. . सा वव्रे यं तमुत्सृज्य मह्यमीया॑जुषः स्थ किम् ? / तागःसद्मनस्तस्माच्छद्मनाऽद्याऽऽच्छिनद्धि ताम् / / 130 / / सेति / हे देवाः ! सा भैमी, यं नलम् , वव्रे पतित्वेन वृतवनी, तम् अपराधिनं तं नलम् ; उत्सृज्य विहाय, किं किमर्थम् मह्यं मां प्रति / 'कधदुह-' इत्यादिना सम्प्रदानत्वाञ्चतुर्थी / ईाजुषः अक्षान्तिभाजः, कोपपरवशा इत्यर्थः / स्थ ? भवथ ? ब्रत कथयत, यूयमिति शेषः / अस्तु तावत् , आगःसमनः अपराधमन्दिरात् , भव. दनादररूपदोषाकरादित्यर्थः। तस्मात् नलात् , अद्य अस्मिन्नेव अहनि, तां भैमीम् / छद्मना कपटेन, आच्छिनमि आहरामि, आनयामीत्यर्थः, अहमेवेति शेषः / सामीप्ये वत्तमाननिदेशः // 130 // ___ उस ( दमयन्ती ) ने जिसको वरण किया उस ( अपराधी नल ) को छोड़कर तुमलोग मेरे साथ क्यों ईर्ष्यालु हो ? कहो; अपराधके घर ( आप लोगों का अनादर दमयन्तीके साथ विवाह करनेसे महापराधी ) उस ( नल) से उस (दमयन्तीको) कपटसे आज (अभी) लाता हूँ ( अथवा-हमलोगों ( तुमलोगोंका तथा मेरा भी) की अपराधिनी ( हमलोगोंका त्यागकर नल के साथ विवाह करने के कारण हमलोगोंके साथ महान् अपराध करनेवाली) उस ( दमयन्ती ) को कपट के द्वारा नल से (पृथक कर ) आज लाता हूँ / इस पक्षमें 'आगःसभ' शब्द 'ताम्' का विशेषण तथा 'नः' शब्दका पृथक् पद मानना चाहिये ) // 130 / / यतध्वं सहकत्तु मां पाञ्चाली पाण्डवैरिव / साऽपि पञ्चभिरस्माभिः संविभज्यैव भुज्यताम् / / 131 / / ततः किमस्माकम् ? अत आह-यतध्वमिति / अत्र 'ततश्च' इति पदमध्याहृत्य पूर्वश्लोकेन सह सङ्गतिः रक्षणीया, ततश्च कपटेन दमयन्त्यानयनानन्तरमित्यर्थः / पाञ्चाली द्रौपदी, पाण्डवैः युधिष्ठिरादिभिः पञ्चभिरिव, सा भैमी अपि, अस्माभिः पञ्चभिरेव मया तथा युष्माभिः चतुर्भिश्च / त्यदायेकशेषः संविभज्य विभागं कृत्वा, पृथक् पृथक् समयं निर्दिश्य इत्यर्थः / भुज्यतां रम्यतामिति यावत् / अतो मां सहकत्तु भैम्यानयने सहायोभवितुम् , यतध्वं चेष्टध्वम् , दमयन्त्यानयने माम् अनुमन्यध्वम् इति भावः // // 131 // (इस कारण ) पांच पाण्डवोंने जिस प्रकार समय-विभागकर द्रौपदीका सम्भोग किया, उसी प्रकार हम पांचों भी समय-विभागकर उस ( दमयन्ती) का सम्भोग करें, इसके लिये तुमलोग यत्न करो अर्थात् मुझे नलसे कपटपूर्वक छोनकर दमयन्तीको लाने के लिए सहायता करो (या-अनुमति दो ) / [इस प्रकार दमयन्तीको प्राप्त करनेपर तुम लोगोंको भा निराश नहीं होना पड़ेगा, तथा युधिष्ठिरादि पांच पतियों के साथ समय-विमा.
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________________ 1104 नैषधमहाकाव्यम् / गकर सम्भोग करनेपर द्रौपदीके समान उस दमयन्तीका भी सतीत्व नष्ट नहीं होगा और न हमलोगों ( पांचों ) को ही परदारगमनजन्य दोष होगा, अत एव तुमलोगोंकी मेरे कार्यमें सहायता देनी चाहिये / यद्यपि सत्ययुगमें होनेवाले नल-दमयन्तीके बाद द्वापरयुगमें होनेवाले पाण्डवों तथा द्रौपदीका प्रादुर्भाव हुआ, तथापि भविष्य-कालज्ञ होनेसे अथवा कल्पभेदसे पूर्व कल्पमें व्यतीत पाण्डव-द्रौपदीके प्रादुर्भावका स्मरण होनेसे कलिका वैमा दृष्टान्त देना असङ्गत नहीं मानना चाहिये ] // 131 // अथापरिवृढा सोढुं मूर्खतां मुखरस्य ताम् / चक्रे गिरा शराघात भारती सारतीव्रया // 132 // अथेति / अथ कलिप्रलापानन्तरम् , भारती सरस्वती, मुखरस्य दुर्मुखस्य, अप्रियवादिन इत्यर्थः। प्रलपतः इति यावत् / कलेरिति शेषः / 'दुर्मुखे मुखराबद्धमुखौ' इत्यमरः / तां तादृशीम् , मूर्खतां मूढताम्, सोढुं क्षन्तुम्, अपरिवृढ़ा अप्रभुः, असमर्था सतीत्यर्थः। 'प्रभो परिवृढः' इति निपातनात् साधुः / 'प्रभुः परिवृढोऽधिपः' इत्यमरः / सारेण न्यायेन, न्यायसङ्गतत्वेनेत्यर्थः, यथार्थत्वेनेति यावत् / 'सारो बले स्थिरांशे च न्याये क्लीबं वरे त्रिषुः' इत्यमरः / तीव्रया तीक्ष्णया, अथवा सारया गुर्वर्थप्रतिपातकत्वेन श्रेष्ठया, तीव्रया परुषत्वात् दुःसहया च, गिरा वाचा एक, शराघातं बाणप्रहारम् , चक्र कृतवती, वाकसायकेन तं विव्याध इत्यर्थः // 132 // ___ इसके ( कलि के इस प्रकार ( 17121-131 ) कहनेके ) बाद बकवादी उस (कलि) की मूर्खता ( से पूर्ण निन्दित वचनों) को सहने में असमर्थ अर्थात् नहीं सह सकनेवाली सरस्वती देवी सार ( न्याययुक्त, या-गभीरार्थयुक्त) होनेसे तीक्ष्ण ( अथवा-उक्त कारणसे श्रेष्ठ तथा कठोर होनेसे तीब्र ) वाणी ( 17 / 133 ) से बाण-प्रहार किया अर्थात् वामके समान सारगर्भित एवं तीक्ष्ण वचनोंसे कलिको पीडित किया / 132 / / कीति भेमी वरांश्चास्म दातुमेवागमनमी। नं लीढे धीरवंदग्धीं धीरंगम्भीरगाहिनी / / 133 // कीर्तिमिति / रे शठ ! अमी देवाः, अस्मै नलाय, कीर्ति पुण्यश्लोकताम् , भैमी दमयन्तीम, तथा वरान् ईप्सितान् च, दातु वितरितुम् एव, अगमन् स्वयंवरसमां गतवन्तः, न तु स्वयं तां परिणेतुमिति भावः / गमेर्लुङ, इदित्वात् चलेरङादेशः। तथा हि, अगम्भीरगाहिनी उत्तानग्राहिणी, गूढार्थ बोधुमसमर्था यथास्थूलग्राहिणीत्यर्थः / धीः त्वादृशां बुद्धिः, धीराणां मनीषिणाम , वैदग्धीं चातुर्यम्, गूढाभिप्रायमित्यर्थः / न लाढे न आस्वादयति, न वेत्ति इत्यर्थः // 133 / / ये ( इन्द्रादि देव ) नलके लिऐ दमयन्तीको, ( दमयन्तीका अभिलाषी होते हुए भी 1. 'भारतीव्रया' इति पाठान्तरम् / 2. 'न लेढि' इति, 'नालीढ' इति च पाटा० / 3. 'धीरगम्भीरगाहिनीम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः / 1105 नलने इन्द्रका दूत बनकर दमयन्तीके पास जाकर निष्कपट हो दूतकार्य किया, अतः नलके समान कोई धीर नहीं है ऐसी ) कीतिको तथा वरों (14 / 70-91 ) को देने के लिए ही ( स्वयंवरमें ) गये थे। ( दमयन्तीको वरण करने के लिए नहीं गये थे। अगम्भीरग्राहिणी (गूढाभिप्रायको नहीं समझनेवाली तुझ-जैसे लोगोंकी ) बुद्धि धीरों ( इन्द्रादि-जैसे गम्भीरा. शयवालों ) की बुद्धिकी चतुरताको नहीं जानती है / [ अथवा-हे अधीर ! अगम्भीरग्राहिणी बुद्धि ( इन्द्रादि-जैसे चतुर लोगोंके ) .बुद्धिचातुर्यको नहीं जानती है। अथवा-हे धीर ! ( काकुसे हे अधीर ! ) गम्भीरग्राहिणी (गूढार्थको समझनेवाली ) धीरोकी चतुरताको नहीं जानती ? अर्थात् जानती है, अतः तुम्हारी बुद्धि गम्भीरग्राहिणी नहीं है, इससे धीर इन इन्द्रादि देवों की बुद्धिके चातुर्यको नहीं समझती। यही कारण है कि तुम ऐसा कह रहे हो ] // 133 // वाग्मिनी जडजिह्वस्तां प्रतिवक्तमशक्तिमान् / लीलावहेलितां कृत्वा देवानेवावदत् कलिः / / 134 // वाग्मिनीमिति / जडजिह्वः 'अपगल्भवाक, वाक्प्रयोगानभिज्ञः इत्यर्थः / कलिः कलियुगम्, वाग्मिनी प्रगल्भवाचम् , तां भारती सरस्वतीम् , प्रतिवक्तं प्रत्युत्तरं दातुम् , अशक्तिमान् असमर्थः सन् , लोल्या विलासेन, उपेक्षाप्रदर्शनरूपचेष्टितविशेषेण इत्यर्थः / अवहेलिताम अवज्ञाताम् , स्त्रियमित्येवमवधीरितामित्यर्थः / कृत्वा विधाय, अगणयन्निवेत्यर्थः / देवान् इन्द्रादीन् एव, अवदत् उवाच // 134 // जड जिह्वावाला ( अप्रगल्भ वचन ) काल वाग्मिनी (श्रेष्ठ वचन बोलनेवाली) उस ( सरस्वती देवी ) से प्रत्युत्तर देने में असमर्थ होता हुआ उपेक्षा दिखानेसे अपमानित (स्त्रीकी बातोंका उत्तर देना पुरुष के लिए उचित नहीं है मानों इस बुद्धिसे सरस्वती देवीको उत्तर देनेमें अवमानित ) करता हुआ देवोंसे ही बोला // 134 / / प्रौछि वाञ्छितमस्माभिरपि तां प्रति सम्प्रति / तस्मिन नले न लेशोऽपि कारुण्यस्यास्ति नः पुनः / / 135 // प्रौन्छीति / सम्प्रति अधुना, अस्माभिः अपि तां भैमी प्रति, वान्छितम् इच्छा. प्रौन्छि प्रोन्छितम् , परित्यक्तमिति यावत् / उच्छतेः कर्मणि लुङ / पुनः किन्तु, तस्मिन् तादृशदुष्कार्यकारिणि इत्यर्थः / नले नैषधे, यः अस्माकं, कारुण्यस्य कृपायाः, लेशः बिन्दुमात्रम् अपि, न अस्ति नैव विद्यते // 135 // इस समय हमने भी उस ( दमयन्ती) से इच्छाको हटा लिया अर्थात् हम भी दमयन्ती को नहीं चाहते, किन्तु ( अपमान करनेसे अपराधी ) नलके प्रति हमारी करुणाका लेश भी नहीं है अर्थात् नलपर मैं लेशमात्र भी करुणा नहीं करता हूं, ( अतः नलसे बदला लेने के लिए आपलोग मेरी सहायता करें)॥ 135 // 'वृत्ते कर्मणि कुर्मः किं ? तदा नाभूम तत्र यत् / कालोचितमिदानीं नः शृणुतालोचितं सुराः!॥ 136 //
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________________ 1106 नैषधमहाकाव्यम् / अकरुणस्तं कृतार्थं किं करिष्यतीत्याशङ्कयाह-वृत्ते इति / सुराः ! हे देवाः!, वृत्ते गते, कर्मणि भैमीवरगक्रिपायाम् , कि कुर्मः ? किं सम्पादयामः ? इदानों न किञ्चित् कत्त शक्नुम इत्यर्थः / यत् यस्मात् , तदा तकाले, तत्र स्वयंवरे न अभूम भैम्या नले बृतेऽपि एतत्समयापयोगि, आलोचितं विचारं पुनः / भावे क्तः / शृगुत आकर्णयत // 136 // ( दमयन्ती-परिणयरूप ) कर्मके समाप्त हो जानेपर हम क्या करें ? ( परस्त्रो दमयन्ती के साथ मुझे कुछ नहीं करना चाहिये, इसोसे तदिषयक इच्छा को मैंने छोड़ दिया है ), जो हम उस समय ( स्वयंवर कालमें ) नहीं थे ( यदि हम स्वयंवर कालमें उपस्थित होते तो दनयन्तीका विवाह नलके माथ कदापि नहीं होने देते, इस कारण 'गतं न शो वामि' नीतिके अनुसार अतीतके विषयमें पश्चात्ताप करना व्यर्थ है ), किन्तु हे देवो! इस समय समयानुसार मेरे विचारको तुमलोग सुनो // 136 // प्रतिज्ञेयं नले विज्ञाः ! कलेविज्ञायनां मम | तेन भैमीञ्च भूमिश्च त्याजयामि जयामि तम् / / 137 / / प्रतिज्ञेति / विज्ञाः ! हे विबुधाः ! नले नलविषये, कलेः कलियुगाधिदेवस्य, मम ने, इयम एषा, प्रतिज्ञा शपथः, विज्ञायताम् अवधार्यताम् / तामेवाह-तेन नलेन, प्रयोज्येन / भमीञ्च दमयन्तीञ्च, भूमिञ्च राज्यञ्च, त्याजयामि विसर्जयामि, एवञ्च तं नलम्, जयामि आत्माधीनीकरोमि, उभयत्र भविष्यत्सामोप्ये वत्तमान प्रत्ययः। हे विद्वान् ( देवो!) नल के विषय में मुझ कलिकी इस प्रतिज्ञाको तुमलोग मालूम करो कि-'मैं नलसे दमयन्ती तथा पृथ्वी ( राज्य ) को शीघ्र ही छोड़वाऊंगा, ( तथा इस प्रकार ) उस ( नल ) को जीत लूंगा' // 137 // नैषधेन विरोधं मे चण्डतामण्डितौजसः / जगन्ति हन्त गायन्तु रवेः कैरववैरवत् / / 138 / नैपधेनेति / चण्डतामण्डितौजसः क्रौर्योपस्कृततेजसः, मे मम कलेः, नैषधेन नलेन सह, विरोधं वैरम् , रवेः सूर्यस्य, करवः कुमुदैः, वैरवत् शत्रुनातुल्यम , जगन्ति लोकाः, गायन्तु उच्चैर्युष्यन्तु इत्यर्थः / हन्तेति हर्षे / / 138 / / / चण्डता ( दमयन्ती तथा राज्यको छुड़ाकर पीड़ित करनेसे क्रूरता ) से संयुक्त तेजवाले मेरे नलके साथ विरोधको तीनों लोक उस प्रकार गावे ( उच्च स्वरसे कहें , जिस प्रकार तीक्ष्णतासे संयुक्त तेजवाले सूर्यके कुमुदोंके साथ विरोधको तीनों लोक गाते हैं; हन्त-खेद है ! ( अथवा-इस प्रकार नलका विजय करनेसे हर्ष है)। [ यद्यपि हीनतेजा होनेसे अयोग्य नल के साथ मुझे विरोध करना तीनों लोकोंमें अपयश ही होगा तथापि खेद है कि-नलके
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1107 साथ मुझे उसी प्रकार विरोध करना ही पड़ेगा, जिस प्रकार होनबल कुमुदके साथ प्रचण्ड तेजस्वी सूर्य विरोध करते हैं // 138 // द्वापरः साधुकारेण तद्विकारमदीदिपत् / / प्रणीय श्रवणे पाणिमवोचन्नमुचेः रिपुः / / 136 / / द्वापर इति / द्वापरः कलेः सहचारितृतीययुगाधिदेवः, साधुकारेण 'साधु' इति शब्दोचारणेन, तस्य कले, विकारं प्रलापम् , अदोदिपत् अवावृधत् / दीप्यतेगौं चडि 'भ्राजभासभाषदीपजोव-' इत्यादिना विकल्पादुपधाहस्वः, 'दी? लघोः' इत्यभ्यासदीर्घः / अथ नमुचेः रिपुः इन्द्रः, श्रवणे कर्णे, पाणिं करम् , प्रणीय निधाय, पाणिभ्यां कौँ पिधाय इत्यर्थः / अवोचत् अचीकथत् // 39 // ___ द्वापर ( तृतीय युगके अधिष्ठातृ देव ) ने साधुकारसे ( तुम्हारा विचार बहुत ठीक है, ऐसा कहनेसे ) उस कलिके ( नल के साथ विरोधरूप) विकारको प्रदीप्त कर दिया / फिर इन्द्र ( उस वचनको श्रवण करनेमें भी दोष मानते हुएके समान ) कानपर हाथ रखकर अर्थात् कानोंको हाथोंसे बन्दकर बोले // 139 / / यहत्तेऽल्पमनल्पाय तदत्ते ह्रियमात्मने / / 140 / / विस्मेयेति / हे कले ! विस्मेयमतिः विस्मयनीयबुद्धिः, स्वमिति शेषः / अस्मासु वैलक्ष्यं स लज्जत्वम्, ईक्षसे पश्यसि, साधु 'जगतो होस्तु युष्माभिः' इति यदुक्तं तत् साधु उक्तम् इत्यर्थः / कुतः ? अनल्पाय महार्हाय, अल्पं स्तोकम् यत् दत्ते अपयति, तत् अल्पदत्तम् , आत्मने अल्पदात्रे जनाय, हियं लज्जाम् , दत्ते जनयतीत्यर्थः / अधिकदानार्हाय अल्पदानस्य दातुरेव ह्रीकरत्वात् महते नलाय कीादिकमल्पमेव प्रदत्तमित्यस्माकं लज्जा युक्तैवेति भावः // 140 // विस्मयनीय बुद्धि तुम जो हमलोगोंमें लज्जाको देखते हो वह ठोक ही है ( दूसरेके हृद्गताभिप्रायको जानने के कारण तुम्हारी बुद्धि हमलोगोंको विस्मित करती है)। बडेके लिये जो थोड़ा ( या तुच्छ पदार्थको ) दिया जाता है, वह ( तुच्छ पदार्थका देना ही ) अपने ( दाताके ) लिए लज्जाको देता है अर्थात बड़ेके लिए तुच्छ पदार्थ देनेसे दाताको लज्जित होना पड़ता है। [नल बहुत महान् हैं, अस एव उनके लिए हमलोगोंको कोई महान् पदार्थ देना चाहिये था, किन्तु हमलोग वैसा नहीं करके उनके लिए दमयन्तीको, कुछ कीर्तिको तथा वरोंको ही दे सके है; अत एव हमलोग इस तुच्छदानके करनेसे वास्तविकमै लज्जित हो रहे हैं और हमलोगोंका लज्जित होना तुमने पहचान लिया, इसलिए तुम्हारी पराशयवेदिनी बुद्धिपर हमलोगोंको विस्मय हो रहा है / इस प्रकार कहकर इन्द्रने नल के महत्त्वको अत्यधिक बढ़ा दिया / अथवा-अनल्प (जिसकी अपेक्षा छोटा नहीं है ऐसा अर्थात् अतिशय "तुच्छ ) तुम्हारे लिए जो हमने 'कस्कोऽयं धर्ममर्माणि कृन्तति ( 17.83)' इत्यादि थोड़ा-सा
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________________ 1108 नैषधमहाकाव्यम्। उपालम्भ दिया, अत एव हमें लज्जा हो रही है, क्योंकि अधिक उपालम्भ देनेयोग्य तुम्हारे लिए थोड़ा उपालम्भ देनेसे हम लज्जित हैं तथा इसे तुमने पहचान लिया, अतः पराशयवेदिनी तुम्हारी बुद्धि विस्मय उत्पन्न करती है। अथवा-अतिहीन के लिए जो कुछ थोड़ा दिया जाता है, वह देना दाताके लिए लज्जाको देता है, प्रकृतमें सम्भाषणके भी अयोग्य तुमको हमने जो उपालम्भ दिया, वास्तविकमें वैसा करना भी अनुचित होनेसे हम लज्जित हो रहे है और तुमने इसको जान लिया, अतः तुम्हारी उक्त बुद्धिपर हमें विस्मय हो रहा है ] // 140 // फलसीमां चतुर्वर्ग यच्छतांशाऽपि यच्छति | नलस्यास्मदुपघ्ना सा भक्तिभूताऽवकेशिनी / / 141 / / ततः किमत आह-फलेति / यच्छतांशः यस्याः भक्तेः, शततमांशः अपि / सङ्घयाशब्दस्य वृत्तिविषये पूरणार्थत्वं त्रिभागवत् / फलसीमा फलावधिम् , चरमः फलरूपमिति यावत् / चतुर्वर्ग धर्मार्थकाममोक्षरूपपुरुषार्थचतुष्टयम् , यच्छति ददाति नलाय दातुमर्हतीत्यर्थः / 'पाघ्रा-' इत्यादिना यच्छादेशः / वयम् उपनः आश्रयः यस्याः सा अस्मदुपध्ना अस्मद्विषया, 'उपघ्न आश्रये' इति निपातः / नलस्य नष. घस्य, सा प्रकर्षतां गता, भक्तिः सेवादिशेषः इत्यर्थः / अव शून्यम् ईष्ट इत्यवके. शिनी निष्फला / 'सुप्यजाती णिनिस्ताच्छील्ये' इति गिनिः 'ऋन्नेभ्यो डीप' इति ङीप् / 'बन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः / भूता सञ्जाता, लस्यास्मद्विश्यकभक्तः शततमांशेनापि सन्तुष्टंरस्माभिः चतुर्वोऽपि नलाच दातुं शक्यते, किन्तु चतुर्वर्गादधिकस्य फलस्याभावात् प्रकृष्टायास्तद्भतेरुचित फलस्य दातुमसामर्थात् तद्भक्तिः निष्फलैव सञ्जातेत्यर्थः / तद्भक्तेः चतुर्वर्गदानरूपम अपि फल न पर्याप्तं किं पुनर्भमीदानमिति ऋणिनाम अस्माकं युक्ता एव हीः इति भावः // 141 // जिस भक्तिका शतांश भी फलकी चरम सीमा चतुर्वर्ग ( अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ) को (नलके लिए ) देने के लिए समर्थ हैं, हमलोगों का गयी वह नलकी भक्ति निष्फल हो गयी। [ अपने में की गयी नलभक्तिके शतांशसे भी अति सन्तुष्ट होकर हमलोग उनके लिए सर्वोत्तम फल चतुर्वर्ग दे सकते थे, किन्त हतनी अधिक की गयी नलकृत भक्तिमे भो हमलोगोंने उसके लिए केवल दमयन्तीको कुछ कीर्ति (पूर्णश्लोकत्व) तथा वरों को (14 7091) ही दिया; अत एव नलकी भक्ति निष्फल हो गयी / अथवा-जिस भक्ति के शतांशसे भी वशीभूत हमलोगोंसे प्राप्त-सामर्थ्य नल दूमरोंके लिए चरम फल चतुर्वर्गको भा देना ( दे सकता ] है, वह भक्ति ( तदधिक फल नहीं दे सकनेसे ) निष्फल हो गयी। अथवा पाठा०-वह नल भी चतुर्वर्गको देते हुए हमलोगों के लिए किये जाते हुए कमों के चरम फलको ब्रह्मार्पणरूपसे देता है, उसीके फिर प्रत्यर्पण करने ( लौटाने ) से नल तथा हमलोगों 1. 'यच्छता सोऽपि' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1106 में समानता ही रह गयी, किन्तु नलकी हमलोगोंमें निरतिशय भक्ति कर्ममात्रका ब्रह्मार्पण करनेसे फलाभिसन्धिरहित होने के कारण निष्फल ही हो गयी। इस कारणसे हमलोगोंका लज्जित होना उचित ही है ] // 141 // भव्यो न व्यवसायस्ते नेले साधुमतौ कले! लोकपालविशालोऽसौ निषधानां सुधाकरः / / 142 / / भव्य इति / हे कले! साधुमतौ रागद्वेषादिशून्यत्वात पवित्रचेतसि, नले नैषधे, ते तव, व्यवसायः चेष्टितम् , विरोधकरणोद्योगः इत्यर्थः। न भव्यः न श्रेयः, न परिणामशुभावह इयर्थः। कुतः ? निषधानां निषधाख्यजनपदानाम, सुधाकरः चन्द्रः, आह्लादकत्वात् चन्द्रसदृश इत्यर्थः / असौ नलः, लोकपालविशालः लोकपाला इन्द्रादयो दिक्पाला इत्यर्थः। तद्वत् विशेषेण शालते शोभते इति तादृशः, तदंशत्वात इति भावः / अतः तदपकारो न परिणामश्रेयस्करः इति निष्कर्षः // 142 // हे कले ! सद्बुद्धिमान् नलमें तुम्हारा उद्योग (विरोध करना ) श्रेष्ठफलप्रद नहीं है। ( अथवा प्रथम पाठा०-हे असाधुबुद्धे कले ! नलमें........... / द्वितीय पाठा.-हे कले ! नलमें तुम्हारा उद्योग साधु ( सज्जन-सम्मत ) तथा श्रेष्ठ फलप्रद नहीं है ) / निषधदेशवासि.. योंका सुधाकर ( आह्लादक होनेसे चन्द्ररूप ) यह ( नल ) लोकपालों के समान विशेषरूपसे शोभनशील है / (इस कारण ऐसे महापुरुषके अपकारकी बात सोचना अच्छा फल देनेवाला नहीं है ) // 142 // न पश्यामः कलेस्तस्मिन्नवकाशं क्षमाभृति / निचिताखिलधर्मे च द्वापरस्योदयं वयम् / / 143 // नेति / किञ्च, क्षमाभृति पृथिवीपाले शान्तिशीले च, तस्मिन् नले, कलेः कलियुगाधिपतेः कलहस्य च / 'कलिःखी कलिकायां न शूराजिकलहे युगे' इति मेदिनी। अवकाशं छिद्रम् , आक्रमणावसरमित्यर्थः / वयं न पश्यामः न ईक्षामहे, धर्मेण भूमि पालयतः क्षान्तस्य कुतः कलिदोषः कलहो वेति भावः / किञ्च, निचिताः उपाजिताः निश्चिताश्च, अखिलाः कृत्स्नाः, धर्माःपुण्यकर्माणि उपनिषदश्व, वेदस्य गढार्थाः इत्यर्थः / येन तादृशे, नले द्वापरस्य भवन्मित्रस्य तृतीययुगस्य, सन्देहस्य च, उदयम् आक्रमणावकाशं प्रकाशञ्च, वयं न, पश्यामः / द्वापरौ युगसंशयौ' इत्यमरयादवी। शान्तिशीले नले कलहस्यावकाशो न, निश्चितसकलधर्मरहस्ये च नले धर्मसन्देहस्यापि उदयो न सम्भवतीत्यर्थः॥१४३॥ क्षमावान् ( पृथ्वीपति, या-क्षमा करनेवाले ) उस ( नल ) में कलि ( तुम्हारा, पक्षा०कलहका ) अवकाश ( प्रवेश या अवसर ) हमलोग नहीं देखते हैं। और सम्पूर्ण धर्मों के सङ्ग्रहकर्ता उस (नल ) में द्वापर ( तेरे सहायक तृतीय युग, पक्षा०-सन्देह ) का भी 1. 'नलेऽसाधुमते' इति 'न साधुमतः' इति च पाठान्तरम् /
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________________ 1110 नैषधमहाकाव्यम् / अवकाश हमलोग नहीं देखते हैं। [नल क्षमाशील है, अतः तुम्हें या कलहको उसमें स्थान मिलेगा, ऐसा हमलोग नहीं मानते, ओर इसा प्रकार वह नठ सदा सर्वविय श्रोतस्मात धर्मका पालन करनेवाला है, अतः द्वापर (तुम्हारो सहायता करनेवाले तृतीय युग, या सन्देह ) को स्थान भी मिलेगा, ऐसा हमलोग नहीं मानते। क्षमा करनेवाले में कलह तथा शास्त्र-सम्मत सब धर्म पालनेवाले में सन्देहको अवसर मिलना असम्भ। होनेसे तुम दोनोंका नल के साथ विरोध करनेका प्रयत्न व्यर्थ ही होगा, ऐसा हमलोगोंका विचार है, अतएव तुमलोगोंको ऐसे असत्प्रयत्नका विवार छोड़ देना चाहिये / यद्यपि इन्द्र भविष्यमें होने वाले नलके राजभङ्ग तथा दमयन्तो-विरहको जानते थे तथापि कलिके उत्साहको भङ्ग करने के लिये उन्होंने वैसा कहा, अथवा-'न पश्यामः' ( हमलोग ) नहीं देखते हैं ) ऐसो वर्तमान कालिक क्रियाले निकट भविष्यमें तुम्हें या द्वापरको उक्त गुणवाले नल में अवकाश नहीं होगा ऐसा इन्द्र सूचित कर रहे हैं ] // 143 // . सा विनीततमा भैमी व्यानर्थग्रहैरहो ! / / कथं भवद्विधैर्बाध्या प्रमितिविभ्रमैरिव ? // 144 / / . सेति / किञ्च, विनीततमा अतिशयेन विनम्रा, उपमानपने च-विनीतं निरा. कृतं, तमः अज्ञानं यया सा भ्रमज्ञाननिरासिनीत्यर्थः / सा भैमी दमयन्ती, व्यर्थः निष्फलः अनर्थग्रहः वैराचरणरूपाकार्याभिनिवेशः येषां तादृशः, पक्षान्तरे चव्यर्थो निष्फलः, अनर्थस्य शुक्तौ रजतादेः निष्प्रयोजनस्य, ग्रहो ज्ञानं येषां तादृशः, भवद्विधैः युष्मादृशैः, प्रमितिः प्रमाज्ञानम् , सम्यगनुभूतिरिति यावत् / विभ्रमः मिथ्याज्ञानः इव, कथं केन प्रकारेण, बाध्या बाधितुं पीडयितुं शक्या ? नैव शक्ये. त्यर्थः। अहो ! इत्याश्चर्ये; पातिव्रत्यतेजसो दुर्षत्वादिति भावः // 144 // ' जिस प्रकार (शुक्तिमें रजतज्ञानको दूर करनेवाले) प्रमाशानको ( रजतमें शुक्तिका ज्ञानरूप ) विशिष्ट भ्रम ज्ञान नहीं बाधित कर सकते, उसी प्रकार अतिशय विनम्र उस (दमयन्ती) को व्यर्थ ही वैराचरणरूप दुराग्रहवाले तुम्हारे-जैसे लोग किस प्रकार बाधित (पीड़ित ) कर सकते हैं ? अहो ! आश्चर्य (या-खेद) है। [प्रमात्मक ज्ञानको भ्रमात्मक ज्ञान के समान विनोततम पतिव्रता दमयन्तीको व्यर्थ विरोधाचरणके दुराग्रही तुमलोग नहीं बावित कर सकते, अहो ! आश्चर्य ( या-खेद ) है कि तुमलोग ऐसा दुष्प्रयत्न करना चाहते हो / 'भवद्विधैः' इस बहुवचनान्त पदसे तुम्हारे जैसे अनेक लोग भो उस दमयन्ताको पीडित नहीं कर सकते तो अकेले तुम कैसे कर सकते हो ? अत एव साध्वी दमयन्तोको पीडित (नलसे पृथक्कर दुःखित ) करनेका दुर्विचार तुम्हें छोड़ देना चाहिये ] // 144 // तं नासत्ययुगं तां वा त्रेता स्पद्धितुमर्हति / एकप्रकाशधर्माण न कलिद्वापरौ ! युवाम् / / 145 // तमिति / कलिद्वापरौ ! हे युगविशेषौ !, एकः केवला, प्रकाश उज्ज्वलः प्रसिद्धो
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________________ समदशः सर्गः। 1111 वा, धर्मो न्यायः, न्यायविचार इत्यर्थः। पुण्यं वा स्वभावो वा यस्य तम् एकप्रकाशधर्माणम् , एतत दमयस्यामपि योज्यम् / 'धर्मादनिच केवलात्' इत्यनिन् / 'धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचारसोमपाः' इत्यमरः। तं नलम्, तां दमयन्ती वा, नासत्ययुगं न असत्यं नासत्यं किन्तु सत्यमेव, युगं सत्ययुगमित्यर्थः / तथा त्रेता त्रेतायुगाप, स्पद्धितुमर्हति तुलयितुं योग्यं भवति, न तु जेतुमिति भावः। युवा कलि द्वापरौ युगे, न, तं तां वा स्पखितुं नाहथ इति विभक्तिविपरिणामेनान्वयः / अथवा-असत्यस्य युगं कृतयुगापेक्षया अधर्मयुगम्, त्रेता युगविशेषः अग्नित्रयञ्च / 'नेताग्नित्रितये युगे' इत्यमरः। स्पद्धितुं नाहति, नासत्ययोर्युगमश्विनोयञ्च, तं नलम्, स्पद्धितुम अर्हति सौन्दयणेति च गम्यते / सुतरां युवां कलि द्वापरौ न स्पर्द्धि तुमर्हथ इत्यर्थः // 145 // हे कलि तथा द्वापर युग ! एक प्रसिद्ध (या-उज्ज्वल ) धर्म ( पुण्य, या-स्वभाव ) वाले उस (नल) को तथा एक प्रसिद्ध धर्मवाली उस (दमयन्ती) को सत्ययुग समानता कर सकता हैं, (चतुर्थाश धर्महीन) त्रेतायुग स्पर्धा तो कर सकता है किन्तु जीत नहीं सकता और तुम दोनों (द्वापर तथा कलियुग) तो (अतिशय हीन होनेसे ) स्पर्धा भी नहीं कर सकते हो। ( अथवा-उक्त गुणवाले उस नल तथा दमयन्तीके साथ सत्ययुग तथा त्रेतायुग तो स्प कर सकते हैं, किन्तु तुम दोनों स्पर्दा भी नहीं कर सकते। ( अथवा-(सत्ययुगको अपेक्षा अधर्मयुक्त होनेसे ) असत्य युग त्रेता उन दोनोंके साथ स्पर्धा कर सकता है ........ [ अथवा-नासत्य = अश्विनीकुमार का युगबोड़ी अर्थात अश्विनीकुमारद्वय तथा त्रेता ( गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिण नामसे प्रसिद्ध अग्नित्रय ) मुख्य प्रसिद्ध (या-उज्ज्वल) धर्म ( शरीर सौन्दर्य, या तेज ) वाले उस नल तथा वैसी ही दमयन्तीके साथ स्पर्द्धा कर सकते हैं अर्थात् सम्मिलित दोनों .अश्विनीकुमार और सम्मिलित तीनों अग्नि क्रमशः शरीर-सौन्दर्य तथा तेजसे युक्त गुणवाले नल-दलयन्तीके साथ स्पर्धा कर सकते हैं (फिर भी जीत नहीं सकते ) और उनमेंसे कोई अकेला तो स्पर्द्धा भी नहीं कर सकता, जीतना तो दूर रहे और तुम दोनों पापाधिक्ययुक्त होनेसे स्पर्धा भी नहीं कर सकते हो। अथवापूर्णतः प्रकृष्ट शोभमान धर्मवाले नल तथा वैसी दमयन्तीके साथ सत्ययुग ( अन्तिम समय सत्ययुगमें भी असत्यका कुछ अंश आजानेसे और (चतुर्थाश असत्ययुक्त होनेसे ) त्रेतायुग भी स्पर्धा नहीं कर सकते तो फिर तुम दोनों (कलि तथा द्वापर युग) तो अत्यधिक असत्यांशयुक्त होनेसे उक्त गुणवाले उन नल-दमयन्तीके साथ कदापि स्पर्धा करने के योग्य भी नहीं हो। अथवा-पुरुष कलि तथा दापरका नलके साथ और स्त्री त्रेताका दमयन्तीके साथ स्पर्धा करनेका सम्बन्ध करना चाहिये। अथवा-विरुद्ध तथा अनिश्चित धर्मके होने पर वहां कलह तथा सन्देह हो सकते हैं, किन्तु नल तथा दययन्ती तो शास्त्रानुकूल एवं निश्चित प्रकृष्ट धर्मवाले हैं, अत एव वहां तुम दोनोंको अवसर नहीं होनेसे उनके साथ तुमः दोनों स्पर्धा नहीं कर सकते ] . 145 //
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________________ 1112 नैषधमहाकाव्यम् / करिष्येऽवश्यमित्युक्त्वा करिष्यभपि दुष्यसि / दृष्टादृष्टा हि नायत्ताः का या हेतवस्तव / / 146 / / करिष्य इति / हे कले! अवश्यं निश्चितम् , करिष्ये विधास्यामि, इत्युक्त्वा एवं कथयित्वा, सर्वथा पापं करिष्यामि इति प्रतिज्ञाय इत्यर्थः। करिष्यन् अपि चिकीर्षुरपि, दुष्यसि दुष्टोऽसि, किमुत कृत्वा इति भावः। हि तथा हि, कार्यस्य इमे कार्यायाः कार्योत्पादनयोग्याः। 'वृद्धाच्छा' दृष्टादृष्टा लक्षितालक्षिताः, हेतवः कारणानि, दण्डचीवरादयो दृष्टहेतवः, कालकर्मेश्वरेच्छादयोऽदृष्टा हेतवः इत्यर्थः / वशाच्च स्वयमेव सम्पाद्यते, न तु त्वया सम्पादयितुं शक्या, तथा च करिष्येऽवश्यमित्युक्त्वा पापकार्येऽकृतेऽपि मनसि तच्चिन्तया मुखे तदुच्चारणेन च भवद्विधानां पातकं जातमिति भावः / / 146 // ___(मैं नल का अपकार) करूंगा' ऐसा कहकर उसे करनेकी इच्छा करते हुए भी तुम दोषी होवोगे। ( अथवा-......."उसे नहीं करनेको इच्छा करते..........क्योंकिप्रथम पक्षमें-नलापकार करनेको कहकर यदि उसे करने की इच्छा करोगे तो पुण्यात्मा नलके अपकारकी भावना मनमें तथा कार्यरूपमें करनेसे भी तुम्हें दोष होगा, और दूसरे पक्षमें-नलापकार करमेको कहकर नहीं करनेकी इच्छा करोगे तो भी प्रतिज्ञामङ्ग करने के कारण तथा महात्मा नलका अपकार करनेको कहने के कारण वाचिक दोष होगा, और नलाप. कार यदि करोगे तो दोष होगा .इस विषयमें सन्देह ही क्या रह जाता हैं ?) / क्योंकि (घटादि ) कार्य-सम्बन्धी दृष्ट (मिट्टी, चक्र, दण्ड, चीवर, चक्र, जल आदि) और अदृष्ट ( देश, काल, ईश्वरेच्छा आदि ) कारण तुम्हारे अधीन नहीं हैं / [ कार्य-साधक दृष्ट सामग्री. को ही तुम जुटा सकते हो, अदृष्ट सामग्रीको नहों, अत एव यदि नल-दमयन्तीके भाग्यमें दुःख नहीं लिखा होगा तो उन्हें पीडित करनेकी इच्छा करके भो तुम उत्त प्रकार दोषभागी बनोगे ही, जिस प्रकार ब्रह्महत्यादि पाप करनेकी इच्छा करके उसे नहीं करनेवाला भी मनुष्य पापभागी होता है। इसके विपरीत यदि नल-दमयन्तीके भाग्यमें दुःख होना लिखा ही होगा तो वह तुम्हारे उद्योग नहीं करनेपर भी होगा हो, किन्तु उसमें निमित्त बन से तुम्हें दोषभागी होना पड़ेगा। इस कारण नल-दमयन्तीके अपकार करनेकी भावना तुम्हें नहीं करनी चाहिये ] // 146 // द्रोहं मोहेन यस्तस्मिन्नाचरेदचिरेण सः / तत्पापसम्भवं तापमाप्नुयादनयात् ततः // 147 // द्रोहमिति / किञ्च, .यः यो जनः, मोहेन अज्ञतावशेन, मौख्यतया इत्यर्थः / तस्मिन् नले विषये, द्राहम् अपकारम् , आचरेत् विदधीत, सः जनः, अचिरेण शोब. 1.:. "त्युक्ति' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1113 मेव ततः तस्मात् , अनयात् दुर्नयात् हेतोः, तत्पापसम्भवं नल द्रोहजन्यपातकसम्भूः तम् , तापं तीव्रयातनाम् , आप्नुयात् लभेत // 147 // ___ जो उस (पुण्यश्लोक नल ) के विषयमें अज्ञान (भी) द्रोह करता है, वह उस (द्रोहके करने ) से उस पापसे उत्पन्न सन्तापको शीघ्र ही प्राप्त करता है। [ अथवा-हे मोहेन = मोह+हन = मोहाधिपते अर्थात् महामूख कलि ! याद अज्ञानसे भो नल के साथ द्रोह करनेवाला शीघ्र सन्तापको पाता है तो तुम ज्ञानपूर्वक उनके साथ द्रोह करके सन्ताप नहीं पावोगे यह हो नहीं सकता, अत एव तुम्हें नल द्रोह-भावनाको सर्वथा छोड़ देनी चाहिये] / / 147 / / युगशेष ! तव द्वेषस्तस्मिन्नेष न साम्प्रतम् / भविता न हितायैतद्वैरं ते वैरसेनिना / / 148 // युगेति / युगशेष ! युगानां सत्यादीनां शेषः चरम ! हे कले ?, तस्मिन् नले तव ते, एषः अयम् , देषः द्रोहबुद्धिः, न साम्प्रतं न युक्तम् , वैरसेनिना नलेन सह, एतत् वैरं विरोधः, ते तव, हिताय मङ्गलाय, न भविता न भविष्यति // 148 // ___हे अन्तिम युग ( कति) ! उस (नल) के विषयमें तुम्हारा यह द्वेष अनुचित (अथवाअसामयिक ) है, वीरसेन-पुत्र (नल ) के साथ यह विरोध तुम्हारे हितके लिए नहीं होगा / / 148 // तत्र यामीत्यसज्ज्ञानं राजसं परिहार्यताम् / इति तत्र गतो मा गा राजसंसदि हास्यताम् / / 146 // तत्रेति / हे कले ! तत्र स्वयंवरे, यामि यास्यामि, सामीप्ये वर्तमानप्रयोगः / इति एवम्भूनम् , राजसं रजःप्रयुक्तम् , असत् ज्ञानं दुबुद्धिः, परिहार्यतां निरस्य. ताम् , इति असज्जानात् , तत्र राजसंसदि राजसभायाम् , गतः उपस्थितः सन् , हास्यताम् उपहास्यताम् , मा गाः न गच्छेः / / 149 // ___(मैं ) वहां ( स्वयंवर सभामें ) जाता हूं' ऐसे अशुभ एवं राजम विचारको छोड़ दो ( पाठ।०--......"राजस वर्तमान विचारको यहीं पर छोड़ दो। अथवा-...........ऐसा विचार राजस होनेसे अशुभ है, ( इस कारण उस विचारको छोड़कर ) यहीं रहो अर्थात् स्वयंवरमें मत जाओ, यही शुभ है)। उस राजसभामें जाकर हास्यभावको मत प्राप्त करो // 149 / / (गत्वान्तरा नलं भैमी नाकस्मात्त्वं प्रवेक्ष्यसि / षण्णां चक्रमसंयुक्तं पठ्यमानं डंकारवत // 1 // ) 1. 'साम्प्रतः' इति पाठान्तरम् / 2. 'सदिहास्यताम्' इति पाठान्तरम् / ३..'टकारवत्' इति पाठान्तरम् / 4. अयं श्लोकः क्षेपक इति 'प्रकाश'कृता स्वय. मेव स्वीकृतम् , अन एव मल्लिनाथे नायं श्लोको न व्याख्यात इत्यतो मया 'प्रकाश' व्याख्यया स हैवायमिहोपस्थापित इत्यवधेयम् /
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________________ 1114 नैषधमहाकाव्यम् / गरवेति / हे कले ! निषधदेशान् गत्वा प्राप्य नलं भैमीमन्तरा नलभैम्योर्मध्येऽकस्माच्छीघ्र दुरितलक्षणकारणमन्तरेण वा त्वं न प्रवेक्ष्यसि / नलस्य पुण्यश्लोकस्वात् , भैम्याश्च पातिव्रत्यादिधर्मयुक्तत्वात्., तौ पराभवितुं न शक्नोषीत्यर्थः। इव-असंयुक्तं पूर्व विसन्धितया पृथक्कृतप्रकृतिप्रत्ययविभागं पश्चात्पठ्यमानं संहि. तया प्रयोगार्हम् / उच्चार्यमाणमिति यावत् / एवम्भूतं षण्णां चक्रं षण्णामिति शब्द. स्वरूपस्थवर्णवृन्दमन्तरा मध्ये डकारवत् / डकारो वर्णो यथाऽकस्माद्विधिमन्तरेण न प्रविशतीति साधोपमा। 'षष्' शब्दात् 'षट्चतुर्व्यश्च' इति नुटि तत्सहित आमि 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' इति पूर्वपदस्य पदत्वात् 'झलां जशोऽन्ते' इति जश्त्वेन षकारस्य डकारे 'न पदान्तात्' इति निषेधस्य 'अनाम्नवति-' इति निषेधात् 'ष्टुना ष्टुः' इति ष्टुत्वेन नाम्न कारस्य णकारादेशे 'यरोऽनुनासिके-' इति डकारस्याप्यनुनासिकस्य व्यवस्थित विकल्पत्वादनुनासिकस्यात्र नित्यत्वेन णकारे जाते सर्वथापि न स्वेन रूपेण 'षण्णाम्' इति पदमध्ये डकारो यथा प्रवेशं लभते, तथा तयोर्मध्ये त्वमपीत्याशयः / अन्यथा विकल्पत्वात्पक्षे 'षड्णाम्' इति स्यात्तन्मा भूदि. त्यत्र व्यवस्थितविभाषाऽङ्गीकरणीया / षण्णां चेति चकारो भैमी चेति योज्यः / तथा च-क्रमेण परिपाट्यां संयुक्तं षण्णामिति कर्मभूतं शब्दस्वरूपमन्तरा डकारो यथा न प्रविशति / असंयुक्तावस्थायां यद्यपि स्वेन रूपेणावस्थानं वर्तते, तथापि संयुक्तावस्थायां नास्तीत्यर्थ इति वा / षण्णामित्यत्र प्रकृतिप्रत्ययदशायामकस्मादागन्तुकादेशरूपतया डकारो यथा प्रविशति, तथा त्वं न प्रविशसि इति वैधोपमया वा व्याख्येयम् / 'कारवत्' इति पाठे 'वाऽवसाने' इत्यवसान इव चवविकल्पात् , खरश्चाभावात् षट , षटस्वित्यादिवत् षण्णामित्यत्र खरवसानयोरभावाहकारो यथा न प्रविशतीति साधोपमेव / क्षेपकोऽयम् / नलं भैमीम्, 'अन्तराऽन्तरेण-' इति द्वितीया // 3 // तुम (निषध देशको ) जाकर भी नल तथा दमयन्तीके मध्यमें एकाएक ) अतिशीघ्र, या उनके अशुमोदयके विना, पक्षा०-विना विकृतरूप धारण किये ) उस प्रकार नहीं प्रवेश पावोगे, जिस प्रकार ( पहले ) असंयुक्त ( तथा वादमें संहिता कार्य अर्थात् सिद्धि करके ) पढे जाते हुए 'षण्णाम्' पदके अक्षर-समुदायके मध्य में ( आदेश रूप विकार होनेके विना) डकार नहीं प्रवेश पाता है। [ जिस प्रकार पहले (षष् न् आम् , या षड् न् आम् इस असंयुक्तावस्थामें ) रहनेवाला डकार विना 'ण' काररूप विकार प्राप्त किये सिद्ध हुए 'षण्णाम् प्रयोगमें प्रवेश नहीं पाता अर्थात् 'षड्णाम्' ऐसा रूप नहीं बनता, उसी प्रकार नल तथा दमयन्तीके बीचमें तम भी विना विकृत हुए (रूपान्तर धारण किये) प्रवेश नहीं पा सकोगे। अथवा-'षण्णाम्' प्रयोगके मध्यमें जिस प्रकार 'ड'कार 'ण' आदेशरूप विकारको पाकर प्रवेश कर जाता है, उस प्रकार तुम नल तथा दमयन्तीके मध्यमें प्रवेश नहीं कर सकोगे, इस प्रकार वैधम्योपमासे अर्थ करना चाहिये ] // 1 //
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________________ सप्तदशः सर्गः। अपरेऽपि दिशामीशा वाचमेनां शचीपतेः। अन्वमन्यन्त किन्त्वेनां नादत्त युगयोयुगम् / / 150 // अपरे इति / दिशां ककुभाम् , अपरे अन्ये, ईशाः अधिपाः, अग्न्यादयोऽपीत्यर्थः / शचीपतेः इन्द्रस्य, एनां पूर्वोक्ताम् , वाचम् उपदेशवचनम् , अन्वमन्यन्त अन्वमो. दन्त, इन्द्रवाक्यं युक्ततया अभ्यनन्दन इत्यर्थः / तेऽपि तथैव ऊचुः इति भावः / किन्तु एनां वाचम् , युगयोः कलिद्वापरयोः युगं युग्मम् / कर्त, न आदत्त न अगृ. हात् , न स्वीचकार इत्यर्थः // 150 // दूसरे ( अग्नि, यम, वरुण ) दिक्पालोंने भी इन्द्रके वचनका अभिनन्दन ('इन्द्रका कथन ठीक है' ऐसा समन ) किया, किन्तु वे दोनों युग (कलि तथा द्वापर ) इसको स्वीकार नहीं किये। [ देवराज इन्द्रके कहे हुए तथा दिक्पालोंसे समर्थित वचनको भी ग्रहण नहीं कर से 'किन्तु' शब्दद्वारा कलि तथा द्वापर युगोंकी महामूर्खता सूचित होती है ] // 150 // कलिं प्रति कलिं देवा देवान् प्रत्येकशः कलिः / सोपहासं समैर्वणरित्थं व्यरचयन्मिथः / / 151 // कलिमिति / देवाः इन्द्रादयः, कलिं कलियुगं प्रति, कलिश्च देवान् प्रति एकशः प्रत्येकम् वीप्सायां शस् / समः वर्ण: उभयसाधारणशब्दः, श्लिष्टाक्षरैरित्यर्थः। इत्थं वक्ष्यमाणभङ्गया, मिथः परस्परम् , सोपहासम् उपहाससहितम् , कलिं कलहम् , न्यरचयन् अकुर्वन् // 15 // देव (इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण) कलियुगके साथ तथा कलियुग प्रत्येक देवों (इन्द्रादि चारों देवों) के साथ परस्परमें उपहासपूर्वक समान (श्लिष्ट) अक्षरोंसे इस प्रकार ( 17 / 152-155) कलह (विवाद ) करने लगे [इन्द्रादि प्रत्येक देवने जिस वचनसे कलियुगका उपहास किया, कलिने भी उसी वचनसे इन्द्रादि प्रत्येक देवका उपहास किया ] // तत्रागमनमेवाह वैरसेनौ तया वृते / उद्वेगेन विमानेन किमनेनापि धावता ? // 152 / / कलहप्रकारमेवाह-तत्रेति / हे कले ! तया भैम्या, वैरसेनौ नले, वृते भत्तत्वेन स्वीकृते सति, तत्र स्वयंवरे, अगमनम् अप्रयाणम् एव, अह युक्तम् , अत एवं उद्वे. गेन उत्कटजवेन, धावता शीघ्रं गच्छता, अनेन विमानेन व्योमयानेन, किम् ? किं प्रयोजनम् ? इदानीं तत्र गमनं निष्फलमित्यर्थः। ___ अन्यत्र-हे इन्द्र ! तन्त्र स्वयंवरे, तया वैरसे नौ वृते सति आगमनं ततः प्रत्यावनिमेव, गमेय॑न्तात् ल्युट / अहं युक्तम् , अथवा, अगमनमेव स्वर्ग प्रति गमना. भाव एव, अहं भैमीलाभार्थं पृथिव्यागतैः भवद्भिव्यर्थमनोरथत्वेन इन्द्राण्यादिसविधे मुखं दर्शयितुमशक्यत्वात् सर्वथा स्वर्गो न गन्तव्य एवेति भावः / तथा अपिधा 70 न० उ०
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________________ 1116 नैषधमहाकाव्यम् / अपिधानम् , आच्छादनमित्यर्थः, 'आतश्वोपसर्गे' इत्यङ्प्रत्ययः / तद्वता आच्छादन. वता, निगृहितेन इत्यर्थः / विमानेन मानरहितेन, अनेन मुखदर्शनानुमितेन, उद्वे. गेन चित्तवाञ्चल्येन, अपमानजनितमनःक्षोभेगेत्यर्थः / किम् ? अलम् , तद्गोपनं उपर्थमेवेन्यर्थः / धैर्यावलम्बनेन भैम्यलाभजन्यदुःखं संवृतमपि मया भावदर्शनादिना सम्यगनुमितमेव, सुतरां दुःखमोपनं व्यर्थमेवेति भावः / अत्र द्वयोः अर्थयोः प्रकृत. वात् केवलप्रकृतश्लेषः // 152 // (इन्द्र ने कलिसे कहा-) उस ( दमयन्ती ) के द्वारा नलको वरण कर लेने पर वहां ( स्वयंवरमें ) तुम्हारा नहीं जाना ही उचित है, ( अत एव ) तीव्रगामो ओर दौड़ते हुए इस विमान (आकाशगामो रथ ) से भो क्या लाभ है ? अर्थात् जब दमयन्तोने नलको वरण कर लिया तत्र तीव्रगामो विमानसे जाने पर भी कोई लाभ नहीं है, अत एव तुम वहां पर मत जावो / [ अथवा-उस दमयन्तीद्वारा नलको नहों वरण करनेपर तुम्हारा वहां पहुं वना उचित था। उस समय पहुंचनेपर यथाकथञ्चित् सम्भव था कि वह तुम्हें हो वरतो, किन्तु नलको वर लेनेपर अब शीघ्रगामी रथसे भी जाना व्यर्थ हो है, अर्थात् तुम अबतक कहां थे / जो समय बीतनेपर व्यर्थ हो जानेको शीघ्रता कर रहे हो। इस प्रकार इन्द्रने कलि का उपहास किया]॥ (कलिने इन्द्रसे कहा-) वहां ( स्वयंवरमें ) उस ( दमयन्ती) के द्वारा नलका वरण किये जानेपर तुम्हारा लौटना हो उचित है [ अथवा-(स्वर्गको ) नहीं जाना ही उचित है ( क्योंकि इन्द्राणी का त्यागकर दमयन्तीके साथ विवाह करने के लिए पृथ्वी लोकपर जाकर उसके वरण नहीं करनेपर कौन-सा मुख इन्द्राणीको दिखलावोगे ? ) तथा छिपाये जाते हुए ( अथवा-नहीं छिपाये जाते हुर अर्थात स्पष्टतया परिलक्षित होते हुर) मानहोन इस तीव्र व्याकुलताते क्या ( लाभ ) है ? (धैर्यावलम्बनादिके द्वारा दमयन्तीको नहीं पाने का दुःख मुझसे छिपाना व्यर्थ है, क्योंकि तुम्हारे छिपानेपर भो दुःखको मैंने मालूम कर लिया है ) / अथवा-हे विमानेन (विमान x इन = अपमानितों के स्वामी अर्थात अतिशय अपमानित इन्द्र)।] // 152 // पुरा यासि वरीतुं यामग्र एव तया वृते / अन्यस्मिन् भवतो हाऽऽस्यं वृत्तमेतत्त्रपाकरम् // 153 / / पुरेति / हे कले ! यां भैमीम् , वरोतुं पत्नीस्वेन स्वीकतम् , पुरा आगामिनि, शीघ्रमेवेत्यर्थः / यासि यास्यसि, 'यावरपुरा-' इति भविष्यति लट् / 'निकटागामिके पुरा' इत्यमरः / तया भैम्या, अग्रे एव तवागमनात् प्राक् एव, अन्यस्मिन् पुरुषान्तरे, वृते स्वीकृते सति, पायाः लज्जायाः, आकरम् आकरायितमित्यर्थः। वृत्तंजातम् एतत् 1. 'हास्यम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ / सप्तदशः सर्गः। 1117 पुरोवर्ति, भवतः तव, आस्यं मुखम् , हा ! शोचामः इत्यर्थः / 'अभितः परितः-' इत्यादिना हा-शब्दयोगे द्वितीया / 'हा विषादशुगर्तिषु' इत्यमरः। ___ अन्यत्र-हे वह्ने ! पुरा पूर्वम् , यां वरीतुम्, यासी, आयासीः, 'पुरि लुङ् चास्मे' इति भूते लट् / स्वमिति शेषः / तया अग्रे एव तव समक्षमेव, अन्यस्मिन् नले, वृते सति भवतस्तव, एतत् प्रत्यक्षदृश्यम् , वृत्तं वत्तलाकारम्, आस्य मुखम् , त्रपामाकरोतीति त्रपाकर लज्जाकरम् , जातमिति शेषः, अत एव हा! शोचामीत्यर्थः // 153 // (अग्निने कलिसे कहा-) तुम जिस ( दमयन्ती ) को वरण करने के लिए जावोगे, उससे दूसरे ( नल ) के पहले हो वरण कर लिये जानेपर लज्जाका आकर यह तुम्हारा मुख हो गया, हा ! [ इसके लिए हम दुःख प्रकट करते हैं। अथवा पाठा०-.""जाने पर तुम्हारा यह ( स्वयंवर में जाना) लज्जा करने वाला (या-लज्जाकी खान ) हास्य हो गया / अथवा-"""तुम्हारा यह वृत्त (आचरण-स्वयंवरमें जाना ) लज्जाकारक और हास्य का कारण होगा / दमयन्तीके द्वारा नलका वरण कर लिये जानेपर अब स्वयंवर में तुम्हारे जा तेसे तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा ओर लोग तुम्हारा उपहास करेंगे, अत एव तुम वहां मत जावो ] // (कलिने अग्नि से कहा-) पहले जिस ( दमयन्ती) को वरण करनेके लिए तुम गये थे, उसके द्वारा ( तुम्हारे ) सामने ही दूसरे ( नल ) को वरण कर लिये जानेपर यह गोलाकार मुख लज्जाकारक ( अथवा-लज्जाका आकर = खान) हो गया, हाय ! [ इसका मैं शोक कर रहा हूँ। अथवा-....."जानेपर यह तुम्हारा वृत्त ( स्वर्गको पुनः प्रत्यावर्तनरूप आचरण ) त्राऽकर (अलज्जाकारक ) है ? अर्थात् कदापि नहीं, अत एव ऐसी घटना होनेपर तुम्हें लज्जा होनो से चाहिये / अथ च अपनी स्त्री (स्वाहा ) को स्वर्गमें जाकर कैसे अपना मुख दिखलावोगे ! हाय खेर है / अथवा-पहले ( स्वयंवरमें अपने पहुँच नेके पूर्व) रत्नाधिका उपहार भेजकर जिस दमयन्ती के पास गये थे,....... | अथवा तुम्हारा मुख तथा आचरण-दोनों ही लज्जाकारक हैं ] // 153 // . पत्यौ तया वृतेऽन्यस्मिन् यदर्थ गतवानसि / भवतः कोपरोधस्तादक्षमस्य वृथारुषः // 154 // पत्याविति / हे ! यदर्थ यद्वैमीनिमित्तम् गतवान् गमनवान् , गमनपरः इत्यर्थः, भावविहितगतशब्दात् मतुपप्रत्ययः / असि भवसि, यां वरीतुं गच्छसीत्यर्थः। तया भैम्या, अन्यस्मिन् पत्यौ पूर्वमेव वृते सति, अनमस्य प्रतीकाराशक्तस्य, अत एव वृथारुषः निष्फलकोपस्य, भवतः तव, कोपरोधः क्रोधस्य उपशमः, तात् अस्तु, इदानी कोपो न कार्य इत्यर्थः / अस्तेर्लोटि तातडादेशः। __ अन्यत्र तु-हे यम ! यदर्थ गतवानसि पूर्व गतोऽसि, भूते क्तवतुः। अतमत्प भवतः तव, अधस्तात् अधरः, होनः इत्यर्थः, 'दिक्छन्देभ्यः सतमी-' इत्यादिना अधरशब्दात् प्रथमार्थ अस्तातिप्रत्ययः, 'अस्ताति च' इत्यधरस्याधादेशः, षष्ठयत
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________________ 1118 नैषधमहाकाव्यम् / सर्थप्रत्ययेन' इति तद्योगे षष्ठी / अपरः कः ? अन्यः कः ? स्वत्तः अधमः कश्चिन्नास्ति इत्यर्थः / समानमन्यत् // 154 / / (यमने कलिसे कहा-) जिस ( दमयन्ती ) के लिए गतवान् गमन करनेमें प्रयत्नवान् हो अर्थात् जिसके लिए जा रहे हो, उस (दमयन्ती) के द्वारा दूसरे पति (नल) को वरण किये जानेपर असमर्थ ( अथवा-क्षमाहीन ) और व्यर्थ क्रोध करनेवाले तुम्हारे क्रोध का अवरोध हो अर्थात तुम्हारा क्रोध रुके ( तुम क्रोध मत करो)। [यद्यपि नल ने तुम्हारा कोई अपकार नहीं किया है, तथापि क्षमाहीन होकर ( या असमर्थ होकर भी) व्यर्थ क्रोध करनेवाले (मको क्रोध नहीं करना चाहिये ] // (कलिने यमसे कहा-)जिस ( दमयन्ती ) के लिए तुम गये थे, उसके द्वारा दूसरे पति ( नल ) का वरण किये जानेपर असमर्थ एवं व्यर्थ क्रोधबाले तुमसे होन (नीच या तुच्छ ) दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं। [ अथवा-तुमसे हीन कौन होवे ? ( इस पक्षमें 'रतात' क्रिया पद पृथक् समझना चाहिये ) / अथवा-."जानेपर तुमसे हीन कौन होवे ? (क्योंकि ) अक्षम ( भूमि-स्पर्श नहीं करनेवाले अर्थात देव ) तुम्हारा क्रोध ( 17.95) भ्यर्थ है ( हमारे-जैसे लोगोंका ही क्रोध करना सफल है, न कि तुमलोगोंका)। अथवातुमसे हीन कौन है ? ( अत एव ) हे अक्षम ( असहनशील यम ) ! व्यर्थमें (हमलोगों के प्रति ) क्रोधको नष्ट करो अर्थात् हमलोगों के प्रति क्रोध मत करो। इस अर्थमें 'षोऽन्तकर्मणि' धार के लोट् लकारके मध्यम पुरुषके एक वचनका 'स्य' क्रियापद पृथक् समझना चाहिये] // 154 / / यासि स्मरं जयन् कान्त्या योजनौघं महार्वता / __समूढस्त्वं वृतेऽन्यस्मिन् किं न हीस्तेऽत्र पामर ! // 155 / / यासीति / पामर ! हे नीच ! कले ! 'विवर्णः पामरो नीचः' इत्यमरः / त्वं कान्त्या सौन्दर्येण, स्मरं कर्दपम् , जयन् अधरीकुर्वन् , प्रसाधनविशेषेण स्मरादपि अधिकरूपवान् सन् इत्यर्थः / तथा महार्वता महाश्वेन, विमानेन इति शेषः / समूढः सम्यक वाहितश्च सन् ,योजनानां चतुष्कोशाध्वमानानाम् , ओघसमूहम् , बहयोजन. मित्यर्थः / 'योजनं परमात्मनि / चतुष्कोश्याञ्च योगे च' इति मेदिनी। यासि गच्छसि, किन्तु अत्र स्वयंवरे, अन्यस्मिन् वृते सति ते हीःलज्जा, न किम् ? भविष्य तीति शेषः। अन्यत्र तु-अत्रप ! हे निर्लज्ज !, अमर ! वरुण !, यः त्वं कान्त्या निजदेहसौन्द. यण, जनौघं जनसङ्घम , रञ्जयन् प्रीणयन् , महार्वता 'बृहदश्वेन , यासि स्म स्वयंवरमयासीः, स त्वं मूढः मूर्खः, असि इति शेषः / अत्र अन्यस्मिन् वृते तव हीः. न किम् ? पूर्ववदलङ्कारः // 155 // (वरुणने कलिसे कहा-)हे नीच ! ( शरीरकी) कान्तिसे कामदेवको जीतते हुए (विपरीत लक्षणासे अत्यन्त कृष्ण वर्ण होनेके कारण कामदेवको नहीं जीतते हुए) तथा
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________________ सप्तदशः सर्गः! 1116 बड़े घोड़ोंवाले रथसे ढोए ( लाये ) गये तुम (दमयन्तीके द्वारा) दूसरे ( नल) के वरण कर लिये जानेपर अनेक योजन अर्थात् बहुत दूर जा रहे हो इस विषयमें ( अथवा-यहां पर ) तुम्हें लज्जा नहीं होती ? अर्थात् लज्जा होनी चाहिये (वह नहीं हो रही है, अत' एव तुम अतिशय निर्लज्ज हो। अथवा-लज्जा नहीं होगी ? अर्थात् अवश्यमेव लज्जा होगी, अतएव तुम्हें नहीं जाना चाहिये। अथवा-कान्तिसे जन-समूह (अपने सहचर सैनिकों) को तथा कामदेवको भी जीतते हुए दूसरेको वरण कर लिये जानेपर जो तुम बड़े घोड़ोंवाले रथसे जा रहे हो यह तुम मूर्ख हो." ) // (कलिने वरुणसे कहा-) हे निर्लज्ज (वरुण) ! कान्ति ( शरीरशोभा ) से जनसमूहको अथवा-योजनसमूहको अर्थात् सुदूरतक रञ्जित करते हुए जो तुम बड़े घोड़ों वाले रथसे ( अथवा-श्यावकर्णादि घोड़ेसे स्वयंवर ) को जाते थे, वह तुम मूर्ख हो, ( क्योंकि ) इस स्वयंवरसे दूसरेके वरण करलिये जाने पर तुम्हें लज्जा नहीं होती? अर्थात् मैं तो उस समय स्वयंवर में नहीं था, किन्तु तुम्हारे सामने ही दूसरेका वरण हुआ, अतरव तुम्हें लज्जा आनी ही चाहिये। [अथवा-हे अत्रपामर ( लज्जाके अभाव अर्थात् निर्लज्जतासे नहीं मरनेवाले वरुग)! यदि दूसरे किसीके लिए ऐसी लज्जाका प्रसङ्ग आता तो वह मर जाता, किन्तु निर्लज्ज होने के कारण ही नहीं मरे हो, इससे वरुणका कलिने अत्यन्त उपहास किया / अथवा-हे अत्रपामर (लज्जासे हम जैसे लोगोंको) रोग देनेवाला अर्थात् दुःखित करनेवाला वरुण)! तुम्हारे इस कर्मसे हमलोग भी दुःखित हो जाते हैं, किन्तु तुम दुःखित नहीं होते, अतः आश्चर्य है, या तुम बहुत नीच हो] // 155 // नलं प्रत्यनपेतात्तिं तार्तीयोकतुरीययोः / युगयोयुगलं बुद्ध्वा दिवि देवा धियं दधुः // 156 / / नलमिति / अथ देवाः इन्द्रादयः, तार्तीयोकतुरीययोः तृतीयचतुर्थयोः, 'तीयादी. का स्वार्थे वा वाच्यः' इत्यनेन तार्तीयीकसिद्धिः। 'चतुरश्छयता वाऽऽद्यपरलोपश्च' इस्यनेन तुरीयसिद्धिः। युगयोः द्वापरकल्योः , युगलं द्वयम्, कर्म। नलं प्रति अनपेता अनपगता, अस्मद्वाक्येनापि न रीभूतेत्यर्थः / आर्तिः पीडनेच्छा यस्य तत् तादृशम्, बुद्ध्वा विविच्य, दिवि स्वर्गे, धियं मतिम् , दधुः कृतवन्तः, दिवं गन्तुम ऐषुरित्यर्थः // 156 // (इन्द्रादि चारो) देवोंने तृतीय तथा चतुर्थ युगों अर्थात् द्वापरयुग तथा कलियुगको नलको पीडित करनेके विचारको नहीं छोड़नेवाला समझकर स्वर्ग जानेका विचार किया। [हमारे बहुत समझानेपर भी ये द्वापर तथा कलि नलको पीडित करनेके विचारको नहीं छोड़ रहे हैं, और इससे अधिक हम कर ही क्या सकते हैं ? नलका जैसा होनहार होगा, वह होकर ही रहेगा, ऐसा सोचकर (इन्द्रादि चारो) देव स्वर्ग जाने की इच्छा किये ] // 156 //
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________________ 1120 नैषधमहाकाव्यम् / द्वापरैकपरीवारः कलिमत्सरमूच्छितः / नलनिग्राहिणीं यात्रां जग्राह पहिलः किल // 157 / / - द्वापरेति / मत्सरमूञ्छितः मूर्चिछतमत्सरः, प्रवृद्धनलशुभद्वेष इत्यर्थः / नलनिर्या तनाय दृढसङ्कल्प इति यावत् / आहितान्यादिषु द्रष्टव्यः। अत एव ग्रहिलः आग्रहवान् , पिच्छादित्वात् मत्वर्थीय इलचप्रत्ययः। कलिः चतुर्थयुगम् , 'द्वापरस्तृतीय युगम् एव, एकः केवलः, परीवारः परिजनः यस्य तादृशः, द्वापरमात्रसहायः सन्निस्यर्थः / नलनिग्राहिणी नलनिग्रहार्थाम् इत्यर्थः / यात्रां गमनम्, जग्राह स्वीचकार, किल खलु // 157 // मत्सर ( नल-विषयक द्वेष ) से मूच्छित (मृततुल्य, अथवा-(नलके प्रति ) बढ़े हुए मत्सरवाला), आग्रही ( इन्द्रादिके बहुत समझाने तथा मना करनेपर भी अपने दुराग्रहको नहीं छोड़नेवाला अर्थात् महाहठी) तथा (काम क्रोधादि अपने सैनिकोंको लौटानेसे ) द्वापरमात्र के साथ कलि नलको निगृहीत करनेवाली यात्राको स्वीकार किया अर्थात् नलको जीतने के लिए केवल द्वापरको अपने साथमें लेकर चल पड़ा // 157 / / नलेष्टापूर्तसम्पूर्तेर्दूरदुर्गानमुं प्रति / / निषेधन निषधान् गन्तुं विघ्नः सञ्जघटे घनः / / 158 / / ___ नलेति / नलस्य वैरसेनेः, इष्टापूर्ताभ्यां क्रतुखातादिधर्मकर्मभ्याम् / 'अथ ऋतु. कर्मेष्टं पूर्त खातादिकमणि' इत्यमरः। सम्पूर्तः सम्यक् पूर्णत्वात् , बहुधर्मानुष्ठान. चिह्नव्याप्तत्वादित्यर्थः / अमुं पापरूपं कलिं प्रति, दूरमत्यर्थ, दुःखेन गच्छन्ति एन्विति दुर्गाः / 'सुदुरोरधिकरणे' इति डप्रत्ययः / तान् दूरदुर्गान् अतिदुर्गमान् , निषधान् देशान् , गन्तुं प्रयातुम, निषेधन निवारयन् , गमनं प्रतिबध्ननिवेत्यर्थः / घनः निर न्तरः, विघ्नः प्रत्यूहः, सञ्जघटे. वक्ष्यमाणरीत्या घटितवानित्यर्थः / धर्मगुप्ततया निष.' धदेशाः कलिना दुष्प्रवेशा बभूवुरिति निष्कर्षः // 158 // नलके इष्टपूर्त ( यज्ञ तथा तडागादि धर्मकार्य) की सम्पूर्णताके कारण इस (पापी कलि ) के प्रति अत्यन्त दुर्गम निषध देशको जाने के लिए निषेध करता हुआ महान् ( वक्ष्यमाण (17160-204 ) बहुत-मा) विघ्न हुआ। ( अथ च-जलपूर्ण होनेसे दूर देश जाने के लिए मेघ विघ्नरूप होकर मना करने लगा)। [ पुण्यश्लोक नलके धर्मकार्यों के कारण कलिका वहां पहुंचने में बहुत कठिनाई हुई ] // 158 // ( मण्डलं निषधेन्द्रस्य चन्द्रस्येवामलं कलिः। प्राप भ्लापयितुं पापः स्वर्भानुरिव संग्रहात् // 1 // ) मण्डलमिति / पापः कलिः पापग्रहमध्ये गणितत्वात्पापः स्वर्भानुरिवामलं निष्पापं 1. 'स ग्रहात्' इति पाठान्तरम् / 2. अयं श्लोकः 'प्रकाश'कृता नारायणभट्टेन व्याख्यात इति मयाऽत्र स्थापितः /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1121 विषधेन्द्रस्य मण्डलं राष्ट्रम् , अमलं परिपूर्णप्रकाशं चन्द्रस्य मण्डलं बिम्बमिव संग्रहादठाद् ग्रहणयोगवशारच ग्लापयितुं विनाशयितुं ग्रसितुं च प्राप // 1 // ___ पापी कलि निषधेश्वर (नल ) के निष्पाप ( दोषरहित ) राज्यको इठ (दुराग्रह ) से नष्ट करने के लिए उस प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार (ज्योतिःशास्त्रके अनुसार पापग्रह होनेसे ) पाप राहु चन्द्रमाके स्वच्छ बिम्बको ग्रहणयोग होनेसे ग्रसित करने के लिए प्राप्त करता है / [ राहु तथा चन्द्रमाकी उपमासे सूचित होता है कि-जिस प्रकार ग्रहणका योग आनेपर राहु परिपूर्ण एवं निर्मल चन्द्रबिम्बको अवश्यमेव मलिन कर देता है, उसे कोई नहीं रोक सकता, किन्तु कुछ समय बाद ही वह चन्द्र राहुमुक्त होकर पुनः विमल कान्तिको पूर्ववत् प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार पापी काल नल के निर्मल राज्यको बहुत प्रयत्न करनेपर मी अवश्यमैव दूषित करेगा अर्थात् नल-दमयन्तीको अवश्यमेव पीड़ित करेगा; किन्तु चन्द्र के समान ही नल थोड़े दिनोंके अनन्तर ही कलि-पीडासे मुक्त होकर पुनः अपना राज्य पूर्ववत् प्रासकर दमयन्तीके साथ सुखभोग करेंगे ] // 1 // कियताऽथ च कालेन कालः कलिरुपेयिवान् / भैमीमत रहमानी राजधानी महीभुजः / / 156 / / कियतेति / अथ देवानां सन्निधानात प्रस्थानानन्तरम् , कियता च कालेन किञ्चि स्कालेऽतीते इत्यर्थः / अहंमानी अहङ्कारी, कलिः कालः युगात्मकसमयरूपः पापा. स्मकत्वात् श्यामरूपो वा, भैमीमत्त दमयन्तीपतेः, महीभुजः राज्ञो नलस्य, राजानः धीयन्ते अस्यामिति राजधानी नगरी ताम् , 'करणाधिकरणयोश्च' इत्यधिकरणार्थे ल्युट / उपेयिवान् उपगतः, निपातनात् साधुः॥ 159 // इस ( समीपसे देवों के प्रस्थान करने, अथवा-विघ्न-समूहको पार करने ) के बाद कुछ समयमें (नलको पीडित करनेके विषयमें ) अहङ्कारी तथा समयरूप ( अथवापापात्मक होने कृष्णवर्ण, अथवा-दारुणकर्मा होने से यमतुल्य ) कलि दमयन्तीभर्ता भूपति (नल ) की राजधानीको प्राप्त किया ( राजधानी में पहुंचा ) / [ 'भैमीभर्तुः' तथा 'महीभुजः' इन दो विशेषणोंसे नलसे दमयन्ती तथा पृथ्वीका सम्बन्ध छुड़ाने में कलिका विशेष आग्रह संचित होता है ] // 159 // वेदानुच्चरतां तत्र मुखादाकर्णयन् पदम् / न प्रसारयितुं कालः कालः पदमपारयत् / / 160 / / अथ पुरप्रवेशे विघ्न प्रकारमाह-वेदानिति / तत्र राजधान्याम् , वेदान् श्रुती:, उभरताम् उच्चारयताम., अधीयानानां श्रोत्रियाणाम् इत्यर्थः / मुखात् वदनात् , पदं मन्त्रचतुर्थाशापराख्यं पदजातम् , आकर्णयन् शृण्वन् , कालः समयात्मकः पापात्मको 1. कियतापि' इति पाठान्तरम्। 2. 'वेदानुद्धरताम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1122 नैषधमहाकाव्यम् / वा, कलिः जघन्ययुगम् , पदं चरणम् , प्रसारयितुं विस्तारयियुम् , म अपारयत् न अशक्नोत् // 160 // (अब कलिके विघ्नोंका वर्णन करते हैं-) वहां (नलकी राजधानीमें ) वेदोंका उच्चारण ( पाठा०-उद्धरण-उधरणी आवृत्ति ) करनेवाले ( वेदपाठियों) के मुखसे पद ( पदकारकृत संहिताविभागरूप 'पद' संशक मन्त्रांश-विशेष ) को सुनता हुआ काल ( पाप होनेसे कृष्णवर्ण या समयरूप या दारुण कर्म करनेसे यमतुल्य ) कलि ( एक ) पैर फैलाने ( आगे बढ़ानेचलने ) के लिए भी समर्थ नहीं हुआ। [ राजधानी में श्रोत्रियोच्चार्यमाण 'पद' संज्ञक मन्त्रमागको सुनकर कलि एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सका। इसने नलकी राजधानीकी धर्म-परिपूर्णता तथा कलि के लिए विघ्न-बाहुल्य सूचित होता है ] // 160 // अतिपाठकवक्त्रेभ्यस्तत्राकणयतः क्रमम् | क्रमः सङ्कचितस्तस्य पुरे दूरमवर्तत / / 161 // श्रुतीति / तत्र पुरे, श्रुतिपाठकवक्त्रेभ्यः वेदाध्येतृमुखेभ्यः, क्रमम् उभयापराख्यं पदजातम् , आकणेयतः शृण्वतः, तस्य कले, क्रमः पादन्यासः, सङ्कुचितः प्रतिबद्धः सन् , दूरम अवर्तत प्रवेशाशस्या दूरे स्थितः इत्यर्थः / वेदध्वनिप्रभावेणेति भावः / / __उस पुर ( नलकी राजधानी.) में वेदाध्यापकोंके मुखसे 'क्रम' संशक मन्त्रमागको सुनते हुए उस ( कलि ) का पैर ( अथवा-गमन ) अत्यन्त सङ्कुचित हो गया। [ वेदाध्यापकोक्त 'कम' को सुनने के कारण उत्पन्न भयसे कलि एक पग भी आगे नहीं बढ़ सका, उस स्थानसे शीघ्र ही निवृत्त हो गया ] // 161 // तावद्गतिधृताटोपा पादयोस्तेन संहिता / न वेदपाठिकण्ठेभ्यो यावदश्रावि संहिता // 162 // तावदिति / तावत् तत्पर्यन्नम् , तेन कलिना, पादयोः'चरणयोः, ताटोपा साड. म्बरा, सदर्पा इति यावत् , गतिः विहरणम , संहिता सन्ता, अवलम्बितुं शक्का इत्यर्थः / यावत् यत्पर्यन्तं, वेदपाठिनाम वेदाध्येतणाम , कण्ठेभ्यः मुखेभ्यः, संहिता पूर्वोक्तपदकमरूपावस्थाद्वयविलक्ष गा ऋगादिरूपा, न अश्रावि न श्रुता, तच्छणोते. स्तूभय एवं पादयोरिति भावः / तदेतदारण्यके-'श्रुतम् अन्नाद्य कामो निर्भुजं बयात् स्वर्गकामः प्रतृण्वन् उभयमन्तरेण' इति // 162 // . ___ कलिने तबतक ( उस समयतक या उस स्थानतक ) चरणद्वयकी गतिको आडम्बरसहित ग्रहण किया अर्थात् तभीतक ( या वहीतक ) शीघ्रगतिसे चला, जबतक (जिस समय तक या जिस स्थानतक ) वेदपाठियों के कण्ठसे 'पद-क्रम' की अवस्थाले विलक्षण 'ऋकू' आदि संहिताको नहीं सुना / [ जिस समय (या-स्थान ] तक कलि श्रोत्रियकण्ठोच्चरित 'संहिता' को नहीं सुना, उस समय (या स्थान ) तक हो वह तीव्रगतिसे चला, 'संहिता' सुननेके बाद उसका गतिमङ्ग हो गया ] // 162 / /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1123 तस्य होमाज्यगन्धेन नासा नाशमिवागमत | तत्रातत दृशौ नासौ क्रतुधूमकदर्थिते // 163 / / तस्येति / तत्र पुरे, होमाज्यगन्धेन होमसम्बन्धिघृतपरिमलेन, तस्य कले, नासा घ्राणेन्द्रियम् , नाशं विध्वस्तम् , अगमत् इव प्रापदिव, तथा असौ कलिः, ऋतुधूमेन, यज्ञधूमेन, कदर्थिते दूषिते, अन्धीभूते इत्यर्थः, दृशौ नेत्रे, नातत न अतनिष्ट, नोन्मीलयितुं शक्त इत्यर्थः, हव्यगन्धयज्ञधूमाघसहिष्णुतया इति भावः / तनोतेलुंङि तङ , 'तनादिभ्यस्तथासोः' इति सिचो लुक / पने-'अनुदात्तोपदेशइत्यादिना अनुनासिकलोषः // 163 // ___ उस नगरमें उस ( कलि) की नाक हवनके घृतके सुगन्धिसे नष्ट-सी ( मृतकल्प, अथवा-नष्ट ही ) हो गयी, और वह कलि यशधूमसे पीड़ित दोनों नेत्रों को भी नहीं खोला अर्थात् कुछ नहीं देख सका / [ हवनके घृतके गन्ध तथा यज्ञके धूमसे पापी कलि अतिशय व्यथित हुआ ] // 163 // अतिथीनां पदाम्भोभिरिमं प्रत्यतिपिच्छिले / अङ्गणे गृहिणामत्र खलेनानेन चस्खले // 164 // अतिथीनामिति / अत्र पुरे, अतिथीनां.गृहागतपान्थानाम् , पदाम्भोभिः चरणप्रक्षालनोदकैः, इमं कलिं प्रति, न तु धार्मिकान् प्रतीति भावः, अतिपिच्छिले सर्वदा जलात्वात् विजिले, अतिमहणे इत्यर्थः, पिच्छादित्वादिलच्प्रत्ययः / गृहिणां गृहस्थानाम्, अङ्गणे चत्वरे, खलेन दुर्जनेन, अनेन कलिना, चस्खले स्खलितम् , पतितमित्यर्थः, भावे लिट् // 164 // वहांपर ( उस नगर में ) अतिथियों ( के चरण धोने ) के जलसे इस (पापी कलि ) के प्रति अतिशय पिच्छिल (रपट-बिछिलाहटसे युक्त) गृहस्थों के आँगनमें दुष्ट कलि स्खलित हो गया। [ गृहस्थों के पवित्रतम आँगनमें नहीं प्रवेश कर सका ] // 164 / / पुटपाकमिव प्राप क्रतुशुष्ममहोष्मभिः / तत्प्रत्यङ्गमिवाकर्ति पूर्वोमिव्यजनानिलैः / / 165 / / पुटेति / क्रतुषु यज्ञेषु, शुष्मणाम् अग्नीनाम् , 'अग्निर्वैश्वानरो वह्निोतिहोत्रो धनञ्जयः / बर्हिः शुष्मा कृष्णवर्मा' इत्यमरः। महोष्मभिः प्रबलसन्तापैः, पुटपाकं निरुद्धमुखपात्रे अन्तर्धूमपाकमित्यर्थः / प्राप लेभे इवेत्युत्प्रेक्षा, कलिरिति शेषः, तथा पूर्तानां वापीतडागादीनाम्, ऊर्मयः तरङ्गा एव, व्यजनानि तालवृन्तानि, तेषाम् अनिलैः वायुभिः, तत्प्रत्यङ्गं तस्य कलेः अङ्गजातम् / वीप्सायामव्ययीभावः / अकर्ति इव छिन्नमिवेत्युत्प्रेक्षा। कृती छेदने इति धातोः कर्मणि लुङ // 165. // यशाग्निके तीव्र सन्तापोंसे मानो ( पाठा०-इस (कलि ) ने) पुटपाकको प्राप्त किया 1. 'पुटपाकमसौ' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1124 नैषधमहाकाव्यम् / (दोनों पार्दभागों तथा आगे पीछेके भवनों में किये जाते हुए यज्ञोंकी अग्निके तीव्रतम सन्तापसे वह उस प्रकार सन्तप्त हुआ जिस प्रकार बन्द हुए दो पात्रों के बीच रखी हुई दवा अपने चारो और जलायी गयी अम्बिके सन्तापसे सन्तप्त होती है)। और पूर्त ( तडाग, वापी आदि ) के तरङ्गरूप पङ्खोंकी वायुओंसे उस कलिका प्रत्येक अङ्ग मानो काटा गया हो (प्रत्येक शरीरको काटने के समान नगर के स्टागादिके तरङ्गोंकी वायुसे वह कलि पीडित हुआ)॥ 165 // पितृणां तर्पणे वर्णैः कीर्णाद् वेश्मनि वेश्मनि | कालादिव तिलात् कालाद् दूरमत्रसदन सः / / 166 / / पितृणामिति / सः कलिः, अत्र पुरे, वेश्मनि वेश्मनि गृहे गृहे, वीप्सायां द्विर्भावः / वर्णैः ब्राह्मणादिवर्णचतुष्टयः, पितृणां पितृपितामहादीनाम् अग्निष्वात्तादीनां पितृलोकानाञ्च, तर्पणे तर्पणकर्मणि, पितनुद्दिश्य तत्तप्त्यर्थ सतिलोदकदान. रूपपैयक्रियाविशेषे इत्यर्थः / कीर्णात् विक्षिप्तात् , कालात् तिलात् कृष्णतिलात् , कालात् मृत्योरिव 'कालो मृत्यौ महाकाले समये यमकृष्णयोः' इति विश्वः / दूरमत्यर्थम् , असत् त्रस्तः // 166 // यहॉपर ( नलकी राजधानी में ) प्रत्येक गृहमें (ब्राह्मणादि ) वर्गों के द्वारा ( अग्निष्वा. तादि तथा पिता-पितामहादि ) पितरों के तर्पणमें दिये गये काले ( कृष्ण वर्णवाले ) तिलोंसे काल ( यमराज ) के समान अत्यन्त डर गया। [ वर्गों के द्वारा प्रत्येक गृहमें पितृतर्पणकालमें काले तिल से कलि उस प्रकार अत्यन्त डरा, जिस प्रकार काले वर्णवाले यमराजसे कोई डता है ] // 166 // स्नातणां तिलकर्मेने स्वमन्तीर्णमेव सः / कृपाणीभूय हृदयं प्रविष्टैरिव तस्य तैः // 16 // स्नातृणामिति / कृपाणीभूय खगीभूय, तस्य कले, हृदयं वक्षःस्थलं, प्रविष्टैः कृतप्रवेशैः इव स्थितैः, तैः प्रसिद्धः, स्नातॄणां स्नायिनां, कृतस्नानानामित्यर्थः / तिलका उर्ध्वपुण्डादिभिः, सः कलिः, स्वम् आत्मानम् , अन्तः वक्षसि, दीर्णमेव पाटितमेव, मेने बुबुधे // 167 // वहांपर उस कलिने स्नानकर्ताओंके तलवार होकर मानो हृदय में प्रविष्ट हुए (खड्गाकार ईषद्वक्र गोपीचन्दन-भस्मादि द्वारा किये गये ) तिलकोंसे अपनेको हृदयमें विदीर्ण हुआ ही समझा। [ स्नानकर्ताओं के खड्गाकार कुछ टेड़े तिलकोको देखकर कलि अत्यन्त पीडित हुआ ] // 167 / पुमांसं मुमुदे तत्र विन्दन् मिथ्यावदावदम् / स्त्रियं प्रति तथा वीक्ष्य तमथ म्लानवानयम् // 168 // 1. 'तर्पणैः' इति पाठान्तरम्। 2. विदन्' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1125 पुमांसमिति / अयं कलिः, तत्र पुरे, मिथ्या अनृतम् , तस्याः, वदावदं वक्तारम् , 'चरिचलिपतिवदीनां वा द्वित्वमच्याक् चाभ्यासस्येति वक्तव्यम्' इति साधुः / 'वदो वदावदो वका' इत्यमरः / पुमांसं नरम , विन्दन् ‘प्राप्नुवन् , मिथ्यावादिनं लोकं पश्यन् इत्यर्थः / मुमुदे तुतोष, तदद्वारा प्रवेष्टुमैच्छदिति भावः / अथ हर्षलाभानन्तरमेव, तं पुरुषं, खियं नारी प्रति, तथा मिथ्या वदन्तम् , वीक्ष्य दृष्ट्वा, तस्य तई. मिथ्यां नोक्ति ज्ञात्वेत्यर्थः / ग्लानवान म्लानः, विषण्ण इत्यर्थः। 'संयोगादेरातो धातोः' इति निष्ठानत्वम् / अभूत इति शेषः। लिया सह नर्मोक्तो मिथ्याभाषणे दोषाभावादिति भावः // 168 // वहां पर मिथ्या बोलते हुए पुरुषको प्रार करता (पा०-जानता हुआ) यह ( कलि) प्रसन्न हुआ, इसके बाद (मुरतमें) स्त्रीके प्रति वैसा (मिथ्याभाषी) देखकर खिन्न हो गया। [ स्त्रीके प्रति रतिकाल में मिथ्या नर्मवचन बोलना दोषकारक नहीं होनेसे वैसा मिथ्यावचन बोलनेवाले पुरुषको पाकर कलि सुरतकालका नर्मोक्ति नहीं समझकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, किन्तु बाद में यह रतिकाल में स्त्रीसे परिहासमें मिथ्या वचन बोल रहा है। यह देखकर अत्यन्त खिन्न हो गया, क्योंकि बहुत देरके बाद नगरमें प्रवेश करनेका जो एक सहारा मिला था, वह भी दूर हो गया ] // 168 / / यज्ञयूपघना एजज्ञौ स पुरं शङ्कुसङ्घलाम् / जनैर्धर्मधनैः कीर्णाव्यालंक्रोडीकृताञ्च ताम् / / 169 // __ यज्ञेति / सः कलिः, यज्ञयूपः यज्ञीयपशुबन्धनस्तम्भः, घनां निरन्तराम् , व्या. सामित्यर्थः / पुरं नगरीम् , शङ्कसङ्खलाम् ‘अस्त्रविशेषाकीर्णामिव, तथा धर्मधनैः धार्मिकैः, जनैः लोकैः, कीर्णा व्याप्ताम , तां पुरीम् , व्यालेः सः श्वापदैः वा, 'व्यालो भुजङ्गमे करे श्वापदे दुष्टदन्ति नि' इति विश्वः / क्रोडीकृताम् अङ्कीकृतामिव, जज्ञो ज्ञातवान् , तद्वत् दुरासदाम् अमन्यतेत्यर्थः // 169 // ___ उस (क.लि ) ने यशके पशु बांधनेबाले ( कत्था, गूलर आदिके) खम्बोंसे व्याप्त उस पुरीको कीलों से व्याप्तके समान तथा धार्मिक लोगोंसे व्याप्त उस पुरीको व्यालों ( सौ यामतवाले हाथियों, या-व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं) से भरी हुई समझा। [जिस प्रकार शङ्कव्याप्त तथा सर्पो (या- मतवाले हाथियों, या-क्रूर व्याघ्रादि पशुओं) से व्याप्त वनभूमिमें चलना ( या-प्रवेश करना) अतिशय कष्टकर होता है, उसी प्रकार यज्ञके पशु बांधनेवाले खम्बोसे तथा धार्मिक जनोंसे व्याप्त उस पुरीमें चलना (या-प्रवेश करना) कलिके लिए अतिशय कष्टकर हुआ ] // 169 // स पार्श्वमशकद् गन्तुं न वराकः पराकिणाम् / मासोपवासिनां छाया-लङ्घने घनमस्खलत् / / 170 / / 1. 'व्याड-' इति पाठअन्तरम् /
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________________ 2126 नंषधमहाकाव्यम् / __स इति / वराकः तुच्छः, सः कलिः, पराकियां कृच्छ्वतविशेषचारिगाम् , 'द्वादः शाहोपवासस्तु पराकः परिकीर्तितः' इति स्मरणात् / पाश्च समोपम् , गन्तुं यातुम् , न अशकत् न समर्थोऽभूत् / शक्नोलिदित्वात् उलेरडादेशः / तथा मासोपवासिनां मासं व्याप्य अनशनव्रतिनान्तु, छायालङ्घने प्रतिबिम्बाक्रमणेऽपि, घनं भृशम् , अस्खलत् अभ्रंशत् , दुरासदत्वात् तपस्विनाम् इति भावः // 170 // (कहीं भी स्थान नहीं मिलनेसे ) अतिशय दोन वह ( कलि) 'पराक' व्रतियों ( बारह दिन तक उपवास रहनेका व्रत करनेवालों ) के पास नहीं जा सका, और मास भर उपवास करनेवालोंकी तो छाया ( परछाही ) को मो लाँघने में अत्यन्त स्खलित हो गया अर्थात् उनकी परछाही को भी नहीं लाँघ सका // 170 // आवाहितां द्विजैस्तत्र गायत्रीमकमण्डलात् / स सन्निदधतीं पश्यन् दृष्टनष्टोऽभवद्भिया / / 171 / / आवाहितामिति / सः कलिः, तत्र पुरे, द्विजैः विप्रैः, आवाहिताम् आहूताम् , अत एव अर्कमण्डलात् सूर्यविम्बात् , सविदधतीं समीपमागच्छन्तीम् , गायत्री गायत्रीदेवीम् , पश्यन् अवलोकयन् , भिया भयेन, तत्प्रभावादिति भावः। दृष्टनष्टः पूर्व दृष्टः ईक्षितः, अनन्तरं नष्टः अदृष्टः, सयः एव अदर्शनं गतः इत्यर्थः। स्नातानुलिप्तवत् पूर्वकालसमासः। अभवत् अजायत // 171 // ___ वहांपर द्विजों ( ब्राह्मणादि तीन वर्णों ) के द्वारा 'आवाहित तथा (उनकी अतिशयिता भक्ति के कारण ) सूर्यमण्डलसे ( निकलकर उनके) पास आतो हुई ( प्रातःसन्ध्याकी अधि. देवता ) 'गायत्री' को देखता हुआ वह कलि ( उस गायत्रीके) भयसे पहले देखा गया और बादमें नष्ट हो गया अर्थात् मागकर कहीं छिप गया। [ प्रातः सन्ध्यावन्दन करते हुए द्विजों को देख कर वह कलि गायत्रोके भयसे वहांसे भागकर छिप गया ] // 171 / / स गृहे गृहिणां पूर्णे घने वैखानसैवते / यत्याधारेऽमरागारे कापि न स्थानमानशे / / 172 / / स इति / सः कलिः, गृहिणां पूर्ण गृहस्थैः व्याप्ते, सम्बन्धसामान्ये षष्ठो। गृहे भवने, तया वैवानसै वानप्रस्थैः, वैखानसो वनेवासो वानप्रस्थश्च तापसः' इति यादवः / वृते वेष्टिते, घने निरन्तरे, 'घने' इत्यत्र 'वने' इति पाठः साधुः / तथा 1. 'आगच्छ वरदे ! देवि ! यक्षरे ! ब्रह्मवादिनि ! ___गायत्रि ! च्छन्दसां मातब्रह्मविद्ये! नमोऽस्तु ते // ' इत्यनेन 'तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि धामनामासि प्रियं देवानामनाराष्टं देवयज. नमसि' इत्यनेन मन्त्रेण वेति बोध्यम् / 2. 'गृहिमिः' इति पाठान्तरम् / 3. 'वने वैश्वानसैघने' इति 'प्रकाश' व्याख्यासम्मतः पाठः।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1127 यतिनां संन्यासिनाम् , आधारे आश्रये, यस्यधिष्ठते इत्यर्थः। अमरागारे देवालये, क्वापि कुत्रापि, स्थानं स्थितिम , न आनशे न लेभे, 'अत आदेः' इत्यभ्यासदीर्घः, 'अश्नोतेश्च' इति नुडागमः // 172 // उस ( कलि ) ने गृहस्थोंके ( पाठा०-गृहस्थोंसे ) परिपूर्ण घरमें, वानप्रस्थोंसे व्याप्त घने ( वनों ) में और यतियों ( संन्यासियों) से आश्रित देवालयों में कहीं भी स्थान (ठहरने का आश्रय ) नहीं पाया // 172 // हिंसागवीं मंखे वीक्ष्य रिरंसुर्धावति स्म सः / सा तु सौम्यवृषासक्ता खरं दूरं निरास तम् / / 173 / / हिंसेति / सः कलिः, मखे गोमेधाख्ययज्ञे, हिंसाया गौः तां हिंसागवीम भालम्भार्था गाम् इत्यर्थः / 'गोरतद्धितलुकि' इति समासान्तष्टच / वीच्य दृष्ट्वा, रिरंसुः चित्तविनोदनेच्छुः सन् इत्यर्थः / निजाधिपत्यसूचकं गोवधोद्यमं दृष्ट्वेति भावः / अन्यत्र-रन्तुम् इच्छुः, विहत्तम इच्छुरित्यर्थः / रमेः सनन्तादुप्रत्ययः / धावति स्म द्वतम् अगात् , सा गौस्तु, सौम्यः सोमदवतो यागः, सः एव वृषःधर्मः, तत्र आसक्ता सङ्गता, धर्माभिलाषिणी सतीत्यर्थः / सुन्दरवृषभाक्रान्ता चेति गम्यते। 'वृषो धर्म बलीवः' इति मेदिनी / बलीवर्दो वृषभः। अत एव खरं रलयोरभेदात् खलम् , क्ररमित्यर्थः, खरं गर्दभच, तं कलिम , दूरं विप्रकृष्टदेशम् , निरास निविक्षेप वृषाक्रान्ताया गोविजातीयत्वात् खरनिराकरणं युक्तमिति भावः॥ 173 // __ वह ( कलि ) 'गोमैध' नामक यशमें हिंसाथै लायी गयी गौको देखकर रमण करने (गो-. वधरूप स्व-मनोऽनुकूल कर्म समझकर प्रसन्न होने) की इच्छा किया, किन्तु सोमदेवता ( यागरूप ) धर्म में आसक्त अर्थात् धर्माभिलाषिणी उस गौने खर ( अतिशय क्रूर, पक्षा'रल' में भेद नहीं होनेसे खल अर्थात् दुष्ट ) उसको अत्यन्त ( पाठा०-दूरसे ही ) तिरस्कृता कर दिया / ( पक्षा०-वह कलि यशमें हिंसार्थ लायी गयी गौको देखकर रमण (मैथुन ) करनेकी इच्छा करता हुआ दौड़ा, किन्तु वृषभ (साँड़) में आसक्त उस (गौ) ने गधे ( के तल्य, या गधारूप ) उस ( कलि ) को अत्यन्त (पाठ।०-दूरसे ही ) तिरस्कृत कर दिया (सुन्दर वृषभासक्त गौका विजातीय गधेको तिरस्कृत करना उचित ही है ) / अथवा पाठा-( याज्ञिक ब्राह्मणों के मुखमें अर्थात मुखसे उच्चारित हिंसार्थक ('अग्नीषोमीयं पशु. मालभेत' इत्यादि ) वाणीको सुनकर रमण करने ( ये पशुहिंसारूप मेरा प्रिय कार्य करने का समर्थन करते हैं, ऐसा समझकर प्रसन्न होने ) की इच्छा करता हुआ दौड़ा, किन्तु सोमदेवताक यज्ञरूप धर्ममें आसक्त अर्थात् उक्त धर्म-सम्बन्धिनी उस वाणीने ( बादमें 'यह पशुहिंसारूप मेरा प्रिय कार्य करनेवाली वाणी नहीं है, किन्तु धर्मसम्बन्धिनी वाणी है। ऐसा जाननेपर ) अखर अर्थात् निस्तेज उस कलिका अत्यन्त (पाठा०-दूरसे ही ) तिरस्कार कर दिया)।। 173 // 1. 'मुखे' इति.पाठान्तरम् / 2. 'दूराधिरास' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1128 नैषधमहाकाव्यम् / गपि नापश्यदन्विष्यन् हिंसानात्मप्रियामसौ / स्वमित्रं तत्र न प्रापदपि मूर्खमुखे कलिम् / / 174 / / क्कापीति / असौ कलिः, तत्र पुरे, क्वापि कस्मिन्नपि स्थाने, आत्मनः स्वस्य, प्रियाम् इष्टाम् , हिंसां जीवहत्यादिरूपाम् , अन्विष्यन् मृग्यमागोऽपि, न अपश्यत् न अवालोकयत् , तथा मूर्खमुखे मूढ वक्त्रेऽपि, स्वस्य निजस्य मित्रं सखायम् , अनु. कूलमिति यावत् / कलिं कलहञ्च, न प्राफ्न् न अलम्भिष्ट, प्रजानां तथा नियम. नादिति भावः // 174 // वह ( कलि ) वहां पर अपनी प्रिय हिंसाको ढूंढ़ता हुमा ( ढूंढ़कर ) कहीं भी नहीं देखा तथा मूर्खके मुख में भी अपने मित्र (प्रिय) कलहको नहीं पाया। [वहां की प्रजा इतनी सुशासित थी कि ढूंढ़नेसे भी कहों पर हिंसा होतो हुई तथा मूर्ख मी कलह करता हुआ नहीं दिखलायी पड़ा ] // 174 // मौनेन व्रतनिष्ठानां स्वाक्रोशं मन्यते स्म सः / वन्द्यवन्दारुभिजज्ञो स्वशिरश्च पदाहतम् / / 105 / / मौनेनेति / सः कलिः, व्रतनिष्ठानां नियमावलम्बिनाम , मौनेन वाकसंयमनेन, स्वस्य आत्मनः, आक्रोशं शापम , मन्यते स्म बुध्यते स्म, मौनिनो भूत्वा माते अशपन् इति अमन्यत इत्यर्थः। तथा वन्धानाम् अभिवाद्यानाम् ,..वन्दारुभिः वन्दनशीलैः, गुरुजनान् नमस्कुर्वद्भिर्जनरित्यर्थः। शृवन्द्योरारु'स्वशिरः निजमस्तकञ्च, पदेन चरणेन, आहतं ताडितमिव, जज्ञो मेने / तत् सर्व शास्त्रविधिपालनं तस्य ताहण्दुःख जनकं सजातम् इति भावः // 175 // उस ( कलि ) ने व्रतियों के मौनसे अपना आक्रोश ( ये मुझे गाली दे रहे हैं ऐसा) माना तथा वन्दनीयों ( देवों तथा माता, पिना आदि गुरुजनों) को बन्दना करनेवालों से अपने मस्तकको पैरसे मारा गया माना / / 175 / / / मुनीनां स बंसीः पाणौ पश्यन्नाचामतामपः / मेने घनैरमी हन्तुं शप्तुं मामद्विरुद्यताः / / 176 // मुनीनामिति / सः कलिः, मुनीनां तापसानाम्, पाणौ करे, वृसीः आसनानि, उपवेशनाथं गृहीताः इति भावः / 'तिनामासनं वृसो'. इत्यमरः / तथा आचामताम् उपस्पृशताम् , एषां पाणी इति शेषः / अपश्च जलानि, पश्यन् अवलोकयन् , अमी मुनयः, मां घनैः मुद्गरैः, 'द्रुवगे मुद्रघनौ' इति वैजयन्ती। हन्तुं ताडयितुम्, तथा अद्भिः जलैः, शपतुञ्च अभिशापं दातुञ्च, उद्यताः प्रवृत्ताः, इति मेने बुबुधे / ताग्दुःखं प्राप इत्यर्थः // 176 // 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'कृता 'हिंसागवीं' (1773) इत्यस्मात्पूर्वमेव पठितो व्याख्यातश्च / 2. 'ऋषीणाम्' इति पालन्तरम् / 3. 'कुशान्' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1126 . मुनियों के हाथमें ( कृष्णमृगचर्म या कुशादिके बने ) आसनों (पाठा०-कुशाओं) को तथा आचमन करते हुए ( उन्हीं या दूसरे मुनियों के हाथ में ) जल को देखता हुभा वह (कलि) 'ये मुझे मुद्गरोंसे मारने तथा जलसे शाप देने के लिए उद्यत है' ऐसा समझा // 176 // मौञ्जोभृतो धृताषाढानाशशङ्के स वर्णिनः। रज्ज्वाऽमी बधुमायान्ति हन्तुं दण्डेन मां ततः // 177 / / मौनीति / सः 'कलिः, मौनोभृतः मुअतृगनिर्मितमेखलाधारिणः, ताषाढान् गृहीतपालाशदण्डान् / 'विशाखाषाढादम् मन्थदण्डयाः' इत्यगप्रत्ययः / 'पालाशो दण्ड आषाढः' इत्यमरः। वर्णिनः ब्रह्मचारिणः, 'वर्गाद् ब्रह्मचारिणि' इति इनिप्रत्ययः। दृष्ट्वेति शेषः। अमी वर्णिनः, मां रवा पाशेन, मुनमयेनेति भावः / बर्दू संयन्तुम् , ततः बन्धनानन्तरम् , दण्डेन पालाशयष्टया, हन्तुं ताडयितुञ्च, आयान्ति आगच्छन्ति, इति आशशङ्के सन्दिदेह तथा विव्यथे इत्यर्थः // 177 // ___ उस ( कलि ) ने मूंनको बनो मेखलाको पहने तथा पालाशदण्ड को लिये हुए ब्रह्मवारियोंको माना कि-'ये मुझे (पहले ) रस्सोसे बाँधने के लिये और इसके बाद इण्डेसे मारने के लिए आ रहे हैं / ( पाठा०-"हुए लोगोंको ब्रह्म वारी नहीं माना, किन्तु-'ये "आ रहे हैं। ऐसा माना) // 177 / / दृष्ट्वा पुरः पुरोडाशमासोदुत्त्रासदुर्मनाः / मन्कानः फणिनोस्त्रस्तः स मुमोचायू च स्वचः / / 178 // दृष्ट्वेति / सः कलिः, पुरः अग्रे, पुरोडाशं यज्ञोयपिष्ट कपिण्डविशेषम् , 'पुरोडाशो हविर्भेदे चमस्यां पिष्टकस्य च / रसे सोमलतायाञ्च हुतशेषे च कीर्तितः // ' इति विश्वः। दृष्ट्वा अवलोक्य, उत्त्रासेन भयेन, दुमनाः विह्वलः आसीत् अभूत्, स्वधातार्थ पाषाणभ्रमादिति भावः। तथा सुचः होमादिशात्राणि, फणिनीः भुजङ्गी, मन्वानः शङ्कमानः, स्तः भीतः सन् , अश्रु बाष्पम् , मुमोच च तस्याज च / अत्र सूतु फणिनीभ्रान्न्या भ्रान्तिमदलङ्कारः॥ 178 // वह ( कलि ) वहांपर सामने पुरोडाश (हवनीय हविष्य ) को देख ( उसे वज्रमय गोला समझ ) कर अतिशय भयसे विह्वल हो गया तथा ( सर्पफगाकार ) नुवाओंको सर्पिणी मानता हुआ आँसू भी गिरा दिया अर्थात् 'ये साँपिन मुझे डंस देंगी' ऐसा मानकर रोने भी ला॥ 178 // आनन्दन्मदिरादानं विन्दन्नेष द्विजन्मनः / दृष्टा सौत्रामणोमिष्टिं तं कुर्वन्तमयत / / 176 / / :: आनन्ददिति / एषः कलिः, द्विजन्मनः ब्राह्मगस्य, मदिरायाः सुरायाः, आदानं ग्रहणम् , विन्दन् जानन् , पश्यन् इत्यर्थः / आनन्दत् अमोदत, शास्त्रमर्यादालनं दृष्ट्वोति भावः / अथ तं मदिरामाददानं ब्राह्मगम् , सौत्रामगी सौत्रामण्यास्याम,
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________________ 1130 नैषधमहाकाव्यम् / इष्टिं यागम , कुर्वन्तं सम्पादयन्तम् , दृष्ट्वा अवलोक्य, ज्ञात्वा इत्यर्थः। अदूयत पर्यंतप्यत, 'सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्' इति श्रुतेः। तस्मिन् यज्ञे सुराग्रहणस्य शास्त्र. विहितत्वेन पापाभावात् निराशोऽभूत् इति भावः // 179 // ___ यह ( कलि ) ब्राह्मणको मदिरा लेता हुआ जान ( देख ) कर प्रसन्न हुआ, (किन्तु बाद में उस मदिरासे ) इन्द्रयाग करते हुए उस (ब्राह्मण ) को देखकर ( उस यागमें मदिराका निषेध नहीं होनेसे शास्त्रोक्त धर्मकार्य होता हुआ समझकर ) सन्तप्त हो गया / / 179 / / अपश्यद् यावतो ब्रह्म-विदा ब्रह्माजलीनसौ। ___ उदडीयन्त तावन्तस्तस्यात्राञ्जलयो हृदः // 180 / / अपश्यदिति / असौ कलिः, ब्रह्मविदां वेदाध्यायिनाम् , यावतः यावत्सङ्ख्यकान् , ब्रह्माञ्जलीन् वेदाध्ययनकालीनपाणिद्वयसम्पुटान् / 'संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माक्षलिः स्मृतः' इति स्मरणात् / 'अञ्जलिः पाठे ब्रह्माञ्जलिः' इत्यमरः। अपश्यत् ऐचत, तस्य कले, 'हृदः हृदयात् , तावन्तः तावत्सङ्ख्यकाः, अस्राञ्जलयः रक्ताञ्ज. ख्या, उदडीयन्त उड्डीनाः, निर्गता इत्यर्थः // 18 // इस ( कलि ) ने वेद पढ़नेवाले छात्रों के जितनी ब्रह्माञ्जलियोंको देखा, उसके हृदयसे उतनी ही रक्तकी अञ्जलियां निकल पड़ी अर्थात् उसका हृदय वेदपाठी छात्रोंको देखकर विदीर्ण हो गया। तथा उसके शरीरका रक्त सूख गया [ वेदाध्ययनके आरम्भ तथा अन्तमें गुरुके चरणद्वयकी वन्दनाकर पढ़ते समय हाथ जोड़ने को 'ब्रह्माजलि' कहते हैं ] // 180 / / / स्नातकं घातुकं जज्ञे जज्ञौ दान्तं कृतान्तवत् / वाचंयमस्य दृष्ट्यैव यमस्येव बिभाय सः / / 181 // स्नातकमिति / सः कलिः, स्नातकं समाप्तवेदं जनम् , 'स्नाताद्वेदसमासौ" इति कन्प्रत्ययः / धातुकं स्वस्य हन्तारम् , 'लषपत-' इत्यादिना उकन्प्रत्ययः / जज्ञे मेने, दान्तं तपाक्लेशसहं, तपस्विनमित्यर्थः / 'तपाक्लेशसहो दान्तः' इत्यमरः / कृतान्त. वत् यमतुल्यम , जज्ञौ बुबुधे, तथा वाचं यच्छतीति वाचंयमः मौनव्रती तस्य, 'वाचि यमो व्रते' इति खच्प्रत्ययः। 'वाचंयमपुरन्दरौ च' इति निपातनात् साधुः / दृष्टयैव दर्शनेनेव, यमस्येव शमनस्येव, बिभाय भीतवान् , भियो लिट् / सर्वत्रैषां तपःप्रभावस्य दुर्द्धर्षत्वात् भीतिरिति द्रष्टव्यम् / / 181 // 1. 'तदत्र-' इति पाठ उपेक्ष्यः, इति 'प्रकाश'कारः। 2. 'सातवेदसमाप्तौ' इत्युचितम् / यावादिगणे एतत्सूत्रस्यैव दर्शनात् / अत एवामरकोषव्याख्याने भानुजिदीक्षितः-'साताद्वेदसमाप्तौ' इति कन् इति मुकुटः, तन्न, उकवचनादर्शनात् , इत्याह 'स्नातक' शब्दस्य व्याख्यायाम् (अमर 21743) / तत्रव क्षीरस्वामिना च-'स्नानवेदसमाप्तौ' इति यावादिस्वारकन् , इत्युक्तम् / -/
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1131 वह ( कलि ) स्नातक ( विद्यास्नातक, व्रतस्नातक और उभयस्नातक ) को घातक ( अपने अर्थात् कलिको मारनेवाला ) समझा, दान्त (तपस्याके क्लेशको सहनेवाले तपस्वी ) को यमराजके समान ( प्राणनाशक ) समझा और वाचंयम (व्रतमें मौन धारण किये हुए ) की दृष्टि ( देखने ) से ही यमराजको दृष्टि के समान डर गय।। ( वाचंयम व्रतियों के द्वारा अपने देखे जानेपर या स्वयं वाचंयम व्रतियों को देखे जानेपर कलि उस प्रकार डर गया, जिस प्रकार यमके द्वारा अपने देखे जाने पर या स्वयं यमको देखकर डर गया हो। उन सबके ताके प्रभावसे पापात्मा कलिको बहुत भय हो गया ] // 181 // स पाषण्ड जनान्वेषी प्राप्नुवन् वेदपण्डितम् / जलाथीवानलं प्राप्य पापस्तापादपासरत् / / 182 // स इति / पापः क्रूरः, सः कलिः, पाषण्डजनान्वेषी शास्त्रदूषकजनानुसन्धायी सन् , वेदपण्डितं वैदिक, प्राप्नुवन् लभमानः, पश्यन्नित्यर्थः। जलार्थी पानीया. भिलाषी, जन इति शेषः / अनलम् अग्निम् , प्राप्येव लब्ध्वेव, तापात् तत्तेजोजन्य. सन्तापाद्धेतोः, अपासरत् अपसृतः / ब्रह्मतेजसः पाषण्डदाहकत्वादिति भावः॥१८२॥ पाखण्डी लोगोंको खोजता हुआ पापी वह कलि वेदके विद्वानों को पाकर ( उनके तपः. प्रभाव जन्य ) तापसे उस प्रकार दूर हट गया, जिस प्रकार पानीको चाहता हुआ व्यक्ति अग्निको पाकर ( उसके ) तापसे दूर हटता है / / 182 / / तत्र ब्रह्महणं पश्यन्नतिसन्तोषमानशे / निर्वर्ण्य सर्वमेधस्य यज्वानं ज्वलति स्म सः // 183 / / तत्रेति / सः कलिः, तत्र पुरे, ब्रह्महणं ब्राह्मणं घातयन्तम् , जनमिति शेषः / 'ब्रह्मऋगवृत्रेषु-' इति क्विप / पश्यन् विलोकयन् , अति अतितराम , सन्तोष हर्षम् , आनशे प्राप इत्यर्थः / अथ तं ब्रह्महणं सर्वमेधस्य सर्वमेधाख्ययागस्य, यज्वानं विधिनेष्टवन्तम् , यथाविधि होतारमित्यर्थः। निर्वये निश्चित्य, ज्वलति स्म सन्तप्तोऽभूत् , 'ब्रह्मणे ब्राह्मगमालभेत' इति श्रुत्या सर्वमेधे ब्राह्मणादिसर्वालम्भविधानात् तस्य धर्मत्वादिति भावः // 183 // ___वहां पर वह ( कलि ) ब्रह्मघातीको देखता हुआ अत्यन्त सन्तोष को प्राप्त किया, किन्तु उसे विधिपूर्वक किये जाते हुए सर्वमेधयश निश्चितकर अर्थात् जानकर ' ज्वरात ( सन्तप्त ) हो गया // 183 // यतिहस्तस्थितैस्तस्य राम्भैरारम्भि तर्जना / दुर्जनस्याजनि क्लिष्टिहिणां वेदयष्टिभिः॥ 184 // यतीति / दुर्जनस्य खलस्य, तस्य कलेः, यतीनां मस्करिणाम , परिव्राजकानामित्यर्थः / हस्तेषु, करेषु, स्थितैः वर्तमानैः, राम्भैः वेणुदण्डैः, 'त्रिदण्डेन कमण्डलु' इति स्मृतेरिति भावः / 'राम्भस्तु वैणवः' इत्यमरः। तर्जना त्रासनम् , आरम्भि 71 नै० उ०
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________________ 1132 नैषधमहाकाव्यम् / कृतेत्यर्थः / तथा गृहिणां गृहस्थाश्रमिणाम् , वेदयष्टिभिः सन्दर्भवेणुदण्डैश्च, 'वेणुमान् स कमण्डलुः' इति स्मृतेः, इति भावः / क्लिष्टिः क्लेशः, अजनि जनिता जनेय॑न्तात् कर्मणि लुङ् / 'यतिः पाराशरी भीमस्तस्कर्म मस्करी यतिः / बद्धदर्भा वेदयष्टिर्दम्भो राम्भस्तु वैणवः // ' इति सर्वत्र यादवः // 184 // __ संन्यासियोंके हाथमें स्थित बांसके दण्डों उस ( कलि ) को भसित करने लगे और गृहियों (गृहाश्रमियों-गृहस्थों ) की वेदयष्टियों ( वेदरूप छड़ियों, अथवा-वेदोंके 'क्रम, जटा' रूप यष्टियों ) से दुष्ट ( उस कलि ) को क्लेश हुआ // 184 / / मण्डलत्यागमेवैच्छद् वीक्ष्य स्थण्डिलशायिनः / पवित्रालोकनादेष पवित्रासमविन्दत / / 185 / / __ मण्डलेति / एषः कलिः, स्थण्डिलशायिनः अनास्तृतभूमिशयनवतिनः। 'व्रते' इति इनिः / 'यः स्थण्डिले व्रतवशाच्छेते स्थण्डिलशाययसौ' इत्यमरः / वाच्य दृष्ट्वा, मण्डलस्यागं देशस्यागम् एव, ऐच्छत् अवाञ्छत् , तथा पवित्राणां कुशानाम् , 'अस्त्री कुशं कुथो दर्भः पवित्रम्' इत्यमरः / आलोकनात् दर्शनात् , पवेः कुलिशात् , त्रासं भयम् , अविन्दत अलभत / 'यथा शककरे वज्र तथा विप्रकरे कुशाः' इति स्मृते. रिति भावः // 185 // यह ( कलि ) बिस्तर ( कुशासन आदि ) रहित भूमिपर सोनेवाले व्रतियों को देखकर (नलके ) राज्यको ही छोड़ने की इच्छा किया तथा पवित्रके देखनेले वज्रले उत्पन्न भयके समान भयको प्राप्त किया। [ गर्भरहित अग्रभाग युक्त कुशद्वयको 'पवित्र' संज्ञा है। 'इन्द्रके हाथसे वज्रके समान ब्राह्मणों के हाथमें कुशा है' ऐसे स्मृतिके कहनेसे वह कलि वज्रसे-के समान उन कुशाओंसे डर गया ] // 185 // ___ अपश्यजिनमन्विष्यन्नजिनं ब्रह्मचारिणाम्।। क्षपणार्थी सदीक्षस्य स चाक्षपणमक्षत / / 186 / / अपश्यदिति / सः कलिः, जिनं जिनाख्यं बौद्धदैवतम् , स्वमित्रमिति भावः / अन्विष्यन् मृग्यन् , ब्रह्मचारिणां ब्रह्मचर्यपरायणानाम् , अजिनम् आसनार्थ मृगः चर्म, जिनराहित्यञ्च, अपश्यत् ऐक्षत, किञ्च क्षपणार्थी स्वमित्रबौद्धसंन्यासिनोऽन्वेषी, सदीक्षस्य दीक्षितस्य राज्ञः, अक्षपणं पाशकदेवनम् , 'क्षपणकराहित्यञ्च, ऐक्षत अपश्यत् , ''राजसूये अभिषेचनीये अष्टावक्षेदर्दीष्यन्तीति श्रवणात् ; तदुभयमप्यस्य दुःसहमिति भावः // 186 // __ वह ( कलि ) जिन (बौद्ध-विशेष ) को खोजता हुआ, ब्रह्मवारियों के ओढ़नेका मृगचर्म ( पक्षा०-जिनाभाव ) को ही देखा तथा क्षपणको चाहता (खोजता) हुआ, (राजस्य यशमें ) दीक्षित (राजा) के अक्षपण ( जुएके दावपर रखे हुए धनराशि, पक्षा०-क्षपणा 1. 'राजसूये यजमानोऽर्दीव्यतीति श्रुतेरिति 'प्रकाश' व्याख्या।
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1133 भाव ) को देखा। [ राजसूय यज्ञ में जुआ खेलना दोषप्रद नहीं माना गया है, अत उन्हें देखकर कलिको स्वपक्षीय किसीके नहीं मिलनेसे उसके लिए वहां सभी दुःखदायी ही हुए ] // - जपतामक्षमालासु बीजाकर्षणदर्शनात् / स जीवाकृष्टिकष्टानि विपरीतहगन्वभूत् / / 187 // जपतामिति / विपरीतहक् वेदविरुद्धदर्शी, सः कलिः, जपताम् इष्टमन्त्रस्य असकृदुच्चारणं कुर्वताम् , जनानामिति शेषः / अक्षमालासु जपमालिकासु, स्थितानां बीजानां पद्मा दिबीजानाम् , जपसङ्ख्यानार्थानामिति भावः / आकर्षणस्य आकृष्टः, पुनः पुनर्धामणस्येति यावत् / दर्शनात् अवलोकनान् , जीवाकृष्टिकष्टानि निजप्राणाकर्षणदुःखानि, अन्वभूत् अनुभूतवान् // 187 // वेदके विपरीत देखनेवाला वह ( कलि ) अक्षमालाओं (रुद्राक्ष, पद्माक्ष इत्यादि मालाओं) में ( गायत्री आदि मन्त्र ) जपनेवालोंके ( मन्त्र-गणनाके लिए) बीजों (मनियों ) का खींचना ( फेरना) देखनेसे अपने जीवके खींचने ( बाहर निकाले जाने ) के कष्टोंका अनुभव किया। [ गाययादि मन्त्र जपना देखकर वेदविरुद्ध द्रष्टा कलिको अपने प्राणों के निकलनेके समान कष्ट हुआ ] // 187 / / त्रिसन्ध्यं तत्र विप्राणां स पश्यन्नघमर्षणम् / परमैच्छद् दृशोरेव निजयोरपकर्षणम् / / 188 / / त्रिसन्ध्यमिति / स कलिः, तत्र पुरे, त्रिसन्ध्यं सन्ध्यात्रये, 'समाहारैकरवे वा तस्य' इति नपुंसकत्वम् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / विप्राणां ब्राह्मणानाम् , अघमर्षणं तत्तन्मन्त्रसाध्यं पापहरं चुलुकोदकेन नासास्पर्शाभिमन्त्रितं क्रियाविशेषम्, पश्यन् अवलोकयन् , परं केवलम् , निजयोः दृशोरेव स्वनेत्रयोरेव, अपकर्षणम् उत्पाटनम् , ऐच्छत् अवान्छत् / अघमर्षणक्रियां दृष्ट्वा नेत्रोत्पाटनवदुःखमाप इति भावः // 14 // वह ( कलि ) वहां पर तीनों सन्ध्याओं (प्रातःसन्ध्या, मध्याह्नसन्ध्या और सायंसन्ध्या) में ब्राह्मगोंका अघमर्षण ( 'ऋतञ्च सत्यञ्चाभि द्वात्....' मन्त्रसे चुल्लूमें जल लेकर नासिका स्पर्श करते हुए क्रिया-विशेष करना ) देखकर केवल अपने नेत्रोंको ही निकालना चाहा [पाठा०-नेत्रोंको निकालना ही अच्छा माना ) अर्थात् अपने नेत्रों को निकालनेसे भी अधिक दुःखको प्राप्त किया // 188 // अद्राक्षोत् तत्र कश्चिन्न कलिः परिचितं कचित् / भैमीनलव्यलीकाणु-प्रश्नकामः परिभ्रमन् // 189 // अद्राक्षीदिति / कलिः युगाधमः, भैमीनलयोः दमयन्तीनैषधयोः, व्यलीकाणोः अकार्यलेशस्य, किञ्चिन्मात्रदोषस्यापीत्यर्थः / 'व्यलीकमप्रियाकार्यवैलक्ष्येष्वपि पीढने' 1. 'वरमैच्छत्' इति पाठान्तरम्। 2. 'किञ्चिन्न' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1134 नैषधमहाकाव्यम् / इति विश्वः / प्रश्नं पृच्छाम् , कामयते वान्छति इति तत्कामः सन् , 'शीलिकामिभक्ष्याचरिभ्यो णः' / तत्र पुरे, परिभ्रमन् विचरन् , क्वचित् कुत्रापि, कञ्चिदपि कमपि, परिचितं संस्तुतम् , जनमिति शेषः / न अद्राक्षीत् न ऐक्षिष्ट // 189 // ___ कलि दमयन्ती तथा नलके लेशमात्र भी दोषको पूछनेकी इच्छा कर उस नगरीमें घूमता हुआ कहींपर किसी परिचित ( उनके लेशमात्र भी दोष जानकार, अथवा-अपने सुपरिचित ) नहीं देखा / ( अथवा- 'घूमता हुआ कहींपर (किसी व्यक्तिमें-दमयन्ती, नल तथा वहांके निवासियोंमें ) कुछ भी ( थोड़ा भी दोष ) नहीं देखा अर्थात् वहां के सभी लोगोंको सर्वथा दोषहीन ही देखा ) / / 189 / / तपःस्वाध्याययज्ञानामकाण्डद्विष्ट तापसः / / स्वविद्विषां श्रियं तस्मिन् पश्यन्नुपतताप सः // 190 / / तप इति / अकाण्डे अनवसरे, अकारणमित्यर्थः / द्विष्टा विरुद्धाः, तापसाः तपस्विनः येन तादृशः, सः कलिः, तस्मिन् पुरे, स्वविद्विषां निजविरोधिनाम्, तपः चान्द्रायणादिचर्या, स्वाध्यायः वेदपाठः, यज्ञाः सोमादयः तेषाम् , श्रियं समृद्धिम् , पश्यन् अवलोकयन् उपतताप सन्तप्तो बभूव, शत्रुवृद्धरसहनीयत्वादिति भावः 190 ___ अकारण तपस्वियों के साथ द्वेष करने वाला कलि उस पुरीमें अपने वैरी तप, स्वाध्याय और यज्ञकी सम्पत्ति ( अथवा-उन्नति ) को देखकर (शत्रु-समृद्धिको सहन नहीं कर सकने के कारण ) सन्तप्त हुआ। [ पञ्चाग्नि आदिले साध्य 'तप', वेदादिका पढ़ना 'स्वाध्याय' और देवोंके उद्देश्यसे द्रव्यत्याग करना 'यज्ञ' कहलाता है ] // 190 // कम्र तत्रोपनम्राया विश्वस्या वीक्ष्य तुष्टवान् / स मम्लौ तं विभाव्याथ वामदेवाभ्युपासकम् / / 191 // कनमिति / स कलिः, तत्र पुरे, उपनम्रायाः उपासकस्य समीपं स्वयमागतायाः, विश्वस्याः सर्वस्याः, सजातीयाया विजातीयायाः गम्यायाः अगम्यायाश्चेत्यर्थः, स्त्रिया इति शेषः / कनं कमितारम् , रन्तारमित्यर्थः / कञ्चन पुरुषमिति शेषः / 'नमिकम्पि-' इत्यादिना रप्रत्ययः / वीक्ष्य दृष्ट्वा, तुष्टवान् तुतोष, तस्य महापातकित्वेन स्वाश्रयलाभाशयेति भावः / अथ अनन्तरम्, विशेषनिरीक्षणानन्तरमित्यर्थः। तं कदं पुरुषम , वामदेवः तन्नामदेवताविशेषः, तस्य अभ्युपासकं पूजकम् , विभाव्य विमृश्य, मम्ली विषसाद / तदुपासकानां 'न कान्चन स्वयमागतां परिहरेत्' इति श्रतेस्तदुपभोगस्य धय॑स्वादिति भावः // 191 // . 7 वह ( कलि ) वहांपर उपासकके समीप आयी हुई सर्व जातिवालों के साथ सम्भोग करनेवाली स्त्रीके कामुक ( किसी पुरुष ) को देखकर ( यह महापातकी होनेसे मेरे पक्षका है 1. 'वामदेव्या-' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1135 ऐसा समझकर पहले ) प्रसन्न हुआ, (किन्तु ) बादमें उसको 'वामदेव' नामक देवता-विशेष ( अथवा पाठा०-'वामदेव'से दृष्ट 'साम'-विशेष) का उपासक जानकर ( 'वामदेवोपासने सर्वाः स्त्रिय उप्रसीदन्ति' इस श्रुतिके अनुसार धर्म-विरुद्ध काम करनेवाला नहीं होनेसे अपना विपक्षी धर्मात्मा मानकर ) खिन्न हो गया // 191 // वैरिणी शुचिता तस्मै न प्रवेशं ददौ भुवि / न वेदध्वनिरालम्बमम्बरे विततार च / / 162 // वैरिणीति / वैरिणी विरोधिनी, कलेरिति भावः / शुचिता लोकानां बाह्याभ्यः न्तरशुद्धता गोमयाद्यनुलेपनादिजनितभूमिशुद्धता च, तस्मै कलये, भुवि निषधः भूमौ, प्रवेशम् अन्तर्गमनम् न ददौ न दत्तवती, तथा अम्बरे च नगरसम्बन्धिनभसि च, वेदध्वनिः ब्रह्मघोषः, आलम्बम् आलम्बनम् , अवस्थानावकाशमित्यर्थः / न वित. तार न ददौ // 192 // (कलिकी) विरोधिनी पवित्रता ( लोगोंकी गोबर आदिके द्वारा लीपने-पोतनेसे बाहरी शुद्धि तथा रागदेषादि-शून्य होनेसे आभ्यन्तर शुद्धि) ने उस ( कलि ) के लिए पृथ्वीपर प्रवेश नहीं दिया अर्थात शुद्धिके कारण कलि पृथ्वीपर नहीं ठहर सका और ( आकाशतक गूंजती हुई ) वेदध्वनिने आकाशमें ( भी उस कलिके लिए ) आश्रय नहीं दिया // 192 // दर्शम्य दर्शनात् कष्टमग्निष्टोमस्य चानशे / जुघूर्णे पौर्णमासेक्षी सौमं सोऽमन्यतान्तकम् // 13 // अनन्तरश्लोकद्वयं 'प्रतिप्तमिति पूर्वैरुपेक्षितम् , तथाऽपि कचित् स्थितस्वात् व्याख्यायते-दर्शस्येत्यादि / सः कलिः, दर्शस्य दर्शयागस्य, तथा अग्निष्टोमस्य तदा ख्ययागविशेषस्य च, दर्शनात् अवलोकनात्, कष्टं महत् दुःखम् , आनशे प्राप तथा पौर्णमासं पूर्णमासेष्टिम् , ईक्षते पश्यति इति पौर्णमासेक्षी पौर्णमासयागदर्शी सन् , जुघणे बभ्राम, मूञ्छितप्रायोऽभूदित्यर्थः। तथा सौमं सोमयागञ्च, अन्तकं मृत्युम् , अमन्यत अबुध्यत, मरणयातनामिव यातनामन्वभूदित्यर्थः // 193 // __'दर्श' ( अमावस्या तिथिका यश ) तथा 'अग्निष्टोम' यश के देखनेसे कलिको कष्ट हुआ, 'पौर्णमास' (पूर्णिमाको होनेवाले यश ) को देखनेवाला वह ( कलि ) चकरा गया अर्थात् 'पौर्णमास' यज्ञको देखनेसे कलिको चक्कर आ गया और 'सोम' यज्ञको उसने मरण ही माना अर्थात् सोमयशसे मरणके समान यातनाको प्राप्त किया। [उन यशोंको देखनेसे कलिको वर्णनातीत कष्ट हुआ / लोकमें भी किसी व्यक्तिको पहले ज्वरादिजन्य कष्ट, तदनन्तर चक्कर (मूर्छा) और अन्तमें मरण होता है, सो कलिको भो क्रमशः वैसा पीड़ित होना ठीक ही है ] // 193 // 1. परं 'प्रकाश'कृता तु व्याख्यातमेवेति बोध्यम् /
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________________ 1136 नैषधमहाकाव्यम् / तेनादृश्यन्त वीरना न तु वीरहणो जिनाः / नापश्यत् सोऽभिनिमुक्तान् जीवन्मुक्तानवक्षत / / 164 // तेनेति / तेन कलिना, वीरघ्नाः क्षात्रधर्मानुसारेण रणे वीरघातिनः, जनाः इति शेषः, 'अमनुष्यकत्त के च' इति चकारादच , अत एव 'क्वधिन्मनुष्यकत्त के ध' इति कौमारं सूत्रम् / अदृश्यन्त 'ऐच्यन्त, तु किन्तु, वीरहणः क्षत्रियघातिनः, जिनाः भट्टभास्कराः अग्नित्यागिनः वा वीर हा वा, 'एष देवानां योऽग्निमुद्वासयत' इति श्रतेरित्यनेन उपलक्षिता इति यावत् , न, अदृश्यन्त इति पूर्वक्रियया अन्वयः / सः कलिः, अभिनिमुक्तान् यान् सुप्तान् अभि सूर्योऽस्तमेति ते अभिनिर्मुक्ताः तान् , मुञ्चतेः कर्मणि क्तः / सूर्यास्तकाले निद्रितान् आचारहीनान् , न अपश्यत् न व्यलो. कयत् , किन्तु जीवन्मुक्तान् आत्मारामान पुण्यान् , जनान् , अवैक्षत अपश्यत् 194 उस ( कलि ) ने ( युद्ध में ) शुरवीरोंको मारनेवाले लोगोंको देखा, (किन्तु ) क्षत्रियोंको मारनेवाले भट्टभास्करोंको नहीं देखा ( अथवा-सदाचार अथवा-अग्निहोत्रका त्याग करने. वालों को नहीं देखा / अथवा-वीरोंको मार सकनेवाले लोगोंको देखा, किन्तु वीरोंको मारे हुए लोगों को नहीं देखा-इससे यह सूचित होता है कि यद्यपि उस राष्ट्रमें ऐसे वीर थे जो वीरों को युद्ध में मार सकते थे, किन्तु इतना सुशासन एवं शान्त तथा धर्मप्राण राज्य था कि सभी लोग भाईचारेके नातेसे रहते थे, किसी वीरको कोई दूसरा वीर मारता नहीं था ) / तथा अभिनिर्मुक्त (सूर्यास्त होनेतक सोनेवाले, अत एव अधार्मिक ) लोगोंको नहीं देखा और जीवन्मुक्तों (जीवितावस्थामें विषयपरित्यागी होनेसे आत्माराम ब्रह्मशानियों ) को देखा // 194 // स तुतोषाश्नतो विप्रान् दृष्ट्वा स्पृष्टपरस्परान् | होमशेषीभवत्सोम भुजस्तान् वीक्ष्य दूनवान् / / 165 / / स इति / सः कलिः, स्पृष्टं कृतस्पर्शम् परस्परम् अन्योऽन्यं यैः तान् स्पृष्टपरस्परान् परस्परस्पर्शपूर्वकमित्यर्थः / अश्नतः भक्षयतः, विप्रान् ब्राह्मणान् , दृष्ट्वा विलो. क्य, तुरोष मुमुदे, भोजनकाले परस्परस्पर्शस्य निषेधात् तद्विपरीतव्यवहारिणस्तान् दृष्ट्वा स्वाश्रयलाभाशया सन्तुष्ट इत्यर्थः / अथ तान् पूर्वोक्तप्रकारेणानतो विप्रान् , होमशेषीभवन्तं होमावशिष्टम् , सोमं सोमलताचूर्णम् , भुञ्जते अश्नन्ति इति भुजः, वीय दृष्ट्वा, ज्ञात्वा इति यावत् / दूनवान् परतप्तवान् , दुःखमनुभूतवानित्यर्थः / 'न सोमेनोच्छिष्टो भवति' इति श्रुतेः, 'इनुदण्डे तिले सोमे नोच्छिष्टो मनुरब्रवीत्' इति स्मृतेश्च सोमभक्षणे परस्परस्पर्शदोषाभावादिति भावः // 195 // वह ( कलि ) परस्परमें स्पर्शकर खाते हुए ब्राह्मणों को देखकर ( अधर्माचारयुक्त होनेसे भाश्रयप्राप्तिकी सम्भावनाकर ) सन्तुष्ट हुआ, (किन्तु ) होम करनेपर बचे हुए सोमलता 1. 'जनाः' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः / 1137 चूर्णको खाते हुए उनको देखकर ( वैसा करना धर्मविरुद्ध नहीं होनेसे अपने आश्रय पानेकी आशा नष्ट हो जानेसे ) व्यथित हुआ // 195 // दृष्ट्वा जनं रजोजुष्टं तुष्टि प्राप्नोज्झटित्यसौ / - तं पश्यन् पावनस्नानावस्थं दुःस्थस्ततोऽभवत् / / 166 // दृष्ट्वति / असौ कलिः, रजोभिः धूलिभिः, जुष्टं सेवितम् , व्याप्तमिति यावत् / जनं लोकम् , दृष्ट्वा वीक्ष्य, झटिति द्राक् , तुष्टिं सन्तोषम्, प्राप्नोत् अलभत, धूलि. मलिनं जनं दृष्ट्वा जनोऽयं निषिद्धच्छागखरादिखुरोस्थधूलिध्याप्त इति निश्चित्य स्वाश्रयः लाभसम्भावनया तुतोषेत्यर्थः / ततः विशेषनिरीक्षणानन्तरमित्यर्थः / तं रजोजुष्टं जनम् , पावनं पवनसम्बन्धि, यत् स्नानं गोरजःस्नानमित्यर्थः / तादृशी. अवस्था दशा यस्य तादृशम् , वायव्यस्नाननिरतमित्यर्थः / पश्यन् विलोकयन् , जानन् इत्यर्थः / दुःस्थः दूनः, दुःखित इत्यर्थः / अभवत् अजायत / 'वारुणन्तु जलस्नान. मापो हिष्टेति मान्त्रिकम् / वायव्यं गोरजःस्नानमाग्नेयं भस्मनोदितम् // यत्तु सातपवर्षेग दिव्यं तदिति पञ्चधा॥' इति मनूक्तपञ्चविधस्नानान्तर्गतस्य वायव्यस्नानस्य वैधत्वात् तदवस्थं तं दृष्ट्वा दुःखितोऽभवदित्यर्थः // 196 // __ वह ( कलि ) धूलिसे व्याप्त मनुष्यको देख (पाठा०-सुन) कर (रजस्वला स्त्रीके रजसे, अथवा गधे आदिके अपवित्र धूलिसे व्याप्त समझकर अपने आश्रय मिलनेकी आशासे) झट सन्तोषको प्राप्त किया अर्थात् प्रसन्न हो गया, (किन्तु ) बादमें (विचार करनेपर) वायु-स्नान किये हुए उसे देखता अर्थात् जानता हुआ वह ( कलि ) दुःखित हो गया। [ गौओं के खुरसे उड़ती हुई धूलिके द्वारा स्नान करनेको 'वायव्य' स्नान स्मृतिकारों ने कहा है ] // 196 // . अधावत् कापि गां वीक्ष्य हन्यमानामयं मुदा / अतिथिभ्यस्तु तां बुद्ध्वा मन्दं मन्दो न्यवर्त्तत // 17 // अधावदिति / मन्दः मूढः, अयं कलिः, कापि कुत्रचित् प्रदेशे, गां सौरभेयीम् , हन्यमानाम् आलभ्यमानाम् , वीक्ष्य दृष्ट्वा, मुदा हर्षेण, अधावत् द्रुतमगच्छत् / तु किन्तु, तो गाम् , अतिथिभ्यः अतिथ्यर्थ हन्यमानाम् , बुद्ध्वा ज्ञात्वा, मन्दं शनैः शनैः, न्यवर्तत व्यरमत् , सखेदं प्रत्यागच्छदित्यर्थः / 'महोतं वा महाजं वा श्रोत्रियायोपकल्पयेत्' इति विधानादिति भावः // 197 // ___ यह ( कलि ) किसी स्थानपर मारी जाती हुई गायको देखकर ( उसे अधर्म कार्य होनेसे अपने आश्रयलामकी आशा कर ) हर्षसे दौड़ा, (किन्तु ) उसको (पाठा०-वैसा करना) अतिथियों के लिए जानकर मूर्ख ( वह कलि ) लौट आया ( अथवा-शीघ्र लौट आया ) / 1. 'श्रस्वा' इति पाठान्तरम्। 2. 'प्राप्तो' इति पाठान्तरम् / 3. मनुस्मृताविदं वचनं नोपलभ्यते /
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________________ 1138 नषधमहाकाव्यम् / [ अतिथियों के लिए बैल, वत्स तरी या बकरे का मांस देना शास्त्र-विहित होने से उसे धर्मकार्य समझकर कलि वापस आ गया। 'उत्तररामचरित' नाटकमें भो वसिष्ठ मुनिके लिये वत्सतरीको मारने का वर्णन मिलता है / किन्तु कलियुगमें देवरसे पुत्रोत्पत्ति, मांससे श्राद्ध करने तथा अतिथिको मांस भोजन कराने का स्मृतिकारोंने निषेध किया है, अतः यह प्रसङ्ग सत्ययुगका होनेसे धर्मोपेत है ] // 197 / / हृष्टवान् स द्विजं दृष्ट्वा नित्यनैमित्तिकत्य जम् | यजमानं निरूप्येणं दूरं दीनमुखोऽद्रवत् / / 168 / / हृष्टवानिति / सः कलिः, नित्यनैमित्तिकत्यजं दानहोमादिकर्मत्यागिनम् , विप् / द्विज विप्रम् , दृष्ट्वा वीचय, हृष्टवान् मुमुदे / अथ एनं पूर्वोक्तद्विजम् , यजमानं यज्ञे दीक्षितम् , निरूप्य निश्चिस्य, दीनमुखः विषण्णवदनः सन् , दूरं विप्रकृष्ट देशम् , अद्रवत् अधावत् , पलायत इत्यर्थः / दीक्षितो न ददाति न जुहोति न वदतीति दीक्षितस्य तनिषेधे तेन दोषाभावादिति भावः // 198 // वह ( कलि ) नित्य नैमित्तिक ( दान, अग्निहोत्र आदि ) कर्मका त्याग करनेवाले द्विजको देखकर हर्षित हुआ, (किन्तु बादमें ) उसे यजमान (यश करते हुए-यशमें दीक्षित ) निश्चितकर दोन मुख होता हुआ दूर हट गया। [यशमें दोक्षिा द्विजको नित्य, नैमित्तिक कर्मका त्याग करना धर्म-विरुद्ध नहीं होने से उदास होकर यहांसे कलि भाग गया ] // 198 // आननन्द निरीक्ष्यायं पुरे तत्रात्मघातिनम् / सर्वस्वारस्य यज्यानमेनं दृष्ट्वाऽथ विव्यथे।। 166 / / / आननन्देति / अयं कलिः, तत्र तस्मिन् , पुरे राजधान्याम् , आत्मघातिनम् आत्मविनाशिनम्, निरीक्ष्य विलोक्य, आननन्द स्वाश्रयलाभाशया तुतोष / अथ एनम् आत्मघातिनम् , सर्वस्वारस्य सर्वस्वारनामारमाहुतिकयागविशेषस्य, तथा रघुवंशेऽप्युक्तं-'यो मन्त्रपूतां तनुमयहौषीत्' इति / यज्वानं यागका. रिणम् , दृष्ट्वा वीचय, तद्याजिनं विदित्वेत्यर्थः / विव्यथे सन्तताप / 'सः अन्त्येष्टौ सर्वस्वाराख्ये यज्ञे आत्मानमेव पशुमन्त्रैः संस्कृतं घातयित्वा यज्ञभागमर्पयति' इति श्रुतेः / तत्रात्मघातस्य वैधत्वेन दोषाभावाद् व्यथितोऽभवदित्यर्थः / / 199 // __यह ( कलि ) उस नगरमें आत्मघाती (आत्महत्या करनेवाले ) को देख कर प्रसन्न हुआ, ( किन्तु ) बाद में 'सर्वस्वार' नामक यश करते हुए उसे देख ( समझ ) कर दुःखित हो गया। [ 'सर्वस्वार' यज्ञमें पशुमन्त्रसे संस्कारप्राप्त व्यक्तिका अपनेको मारकर यज्ञभागार्पण करने पर उस आत्महत्याको धर्मविरुद्ध नहीं होनेसे वह कलि दुःखित हुआ। किन्तु उक्त यश करनेका अधिकार औषधादि सेवनसे भी स्वस्थ नहीं होनेवाले किसी असाध्य रोगसे युक्त मरणासन्न पुरुषको ही है, स्वस्थ पुरुषको नहीं ] // 199 / /
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________________ 1136 सप्तदशः सर्गः। क्रतौ महाव्रते पश्यन् ब्रह्मचारीत्वरीरतम् | जज्ञौ यज्ञक्रियामज्ञः स भाण्डाकाण्डताण्डवम् // 200 // क्रताविति / अज्ञः मूर्खः, सः कलिः, महाव्रते महाव्रताख्ये, ऋतौ यागे, ब्रह्मचा. रिणः वर्णिनः, इस्वर्याः कुछटायाश्च, रतं मैथुनम् , 'महावते ब्रह्मचारिपुंश्चल्योः सम्प्र. वादः' इति श्रतिविहितं ग्राम्यभाषणादिकं वा, 'इणन जिमतिभ्यः करप्' / 'असती कुलटेवरी' इत्यमरः। पश्यन् विलोकयन् , यज्ञक्रियां यागव्यापारम् , भाण्डानाम् अश्लीलभाषिणाम् , अकाण्डताण्डवम् असमयकृतोद्भुतनृत्यमिव, जज्ञौ मेने, भण्डचे. ष्टितममन्यतेत्यर्थः // 20 // मूर्ख वह ( कलि ) 'महाव्रत' नामक यज्ञमें ब्रह्मचारी तथा पुंश्चली स्त्रीके रत ( मैथुन, अथवा-अश्लील सम्भाषण ) को देखता हुआ यज्ञकार्यको भाँड़ोंका असामयिक नृत्य ही माना। [जिस प्रकार भाँड़लोग सबके समक्ष अश्लील गाली-गलौज करते हैं, कलिने 'महाक्रतु' यज्ञमें ब्रह्मचारी तथा व्यभिचारिणीके रतको देखकर उक्त यशको भी वैसा ही समझा, क्योंकि वह मूर्ख था; किन्तु 'महाव्रते ब्रह्मचारिपुंश्चल्योः सम्प्रवादः' इस उपनिष. द्वाक्यानुसार वैसा करना धर्म-प्रतिकूल नहीं था ] // 200 // यज्वभार्याश्वमेधाश्व.लिङ्गालिङ्गिवराङ्गतान् / दृष्ट्वाऽऽचष्ट स कर्तारं श्रुतेर्भण्डमपण्डितः / / 201 / / यज्वेति / अपण्डितः मूर्खः, सः कलिः, यज्वभार्यायाः यजमानस्य पत्न्याः, अश्वमेधे तदाख्ययज्ञे, अश्वस्य यज्ञियाश्वस्य, लिङ्गेन मेहनेन, आलिङ्गिवराङ्गता संयोजितयोनिताम् , 'निरायत्याश्वस्य शिश्नं महिष्युपस्थे निधत्ते' इति श्रुतिविहितामिति भावः / दृष्ट्वा वीचय, श्रुतेः कर्तारं वेदप्रणेतारम् , भण्डम् असजनम् , अश्लीलवि. षयोपदेष्टारमिति यावत् / आचष्ट अकथयत्। केनचित् भण्डेन प्रणीताः वेदाः इति बभाषे इत्यर्थः // 201 // यज्ञकर्ताको स्त्रीके वराङ्गसे अश्वमेधके घोड़ेके शिश्नको संस्पृष्ट देखकर अपण्डित ( श्रुतिविधानका अश ) वह कलि ( अपने सहचर द्वापरसे, या स्वयं अपने प्रति) वेद बनानेवाले ( ईश्वर ) को माँड़ कहा / [ अश्वमेध यज्ञमें वैसा करने का विधान है, अतः राजाशाके समान वेदाज्ञाके बिना विकल्प किये स्वीकार करनेका मनुवचन होनेसे वैसा करना धर्मविरुद्ध नहीं था, किन्तु श्रुतिको नहीं जाननेवाला कलि अज्ञताके कारण वेदकर्ता को ही भण्ड कहने लगा] // 201 // अथ भीमज या जुष्टं व्यलोकत कलिनलम् / दुष्टग्भिर्दुरालोकं प्रभयेव प्रभाविभुम् / / 202 / / 1. 'भण्डा-' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः /
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________________ 1140 नेषधमहाकाव्यम् / अथेति / अथ पूर्वोक्तरूपदर्शनानन्तरम् , कलिः चतुर्थयुगाधिपतिः, भीमजया भैम्या, जुष्टं सेवितम् , दुष्टग्भिः पापदृष्टिभिः, अन्यत्र-रोगोपहत दृष्टिभिः, दुरालोकं दुर्दर्शनम् , नलं वैरसे निम् , प्रभया दीप्त्या सूर्यभार्यया संज्ञादेव्या च जुष्टं प्रभाविभं प्रभाकर, सूर्यम् इवेत्यर्थः / व्यलोकत अपश्यत् // 202 // . इस ( नगर में परिभ्रमण करनेपर स्वपक्षीय किसी अधर्मकृत्यको नहीं देखने ) के बाद कलिने प्रकृष्ट कान्तिवाली भीमकुमारी ( दमयन्ती ) से युक्त तथा ( राग-द्वेषादिसे कलिके समान ) दूषित दृष्टिवालोंसे कठिनताले देखे जाने योग्य नलको उस प्रकार देखा, जिस प्रकार प्रकृष्ट तेज ( या-'संज्ञा' नामकी अपनी स्त्री ) से युक्त ( काच, कामला आदि रोगोंसे) दूषित दृष्टि ( नेत्र ) वालोंसे प्रभापति ( सूर्य ) को कोई देखता है। [प्रभासे सेवित सूर्य के साथ दमयन्तीसे सेवित नलकी उपमा देने से यह ध्वनित होता है कि समय (रात्रि) के बिना आये जिस प्रकार सूर्यको प्रमासे कोई पृथक् नहीं कर सकता और पृथक् होनेपर भी कुछ समयके बाद पुनः प्रभासे वह सूर्य पूर्ववत् संयुक्त हो जाता है उसी प्रकार नलको भी दमयन्तीसे कलि बिना समय आये पृथक् नहीं कर सकेगा, और फिर नियत समय बीत जानेपर नल पुनः पूर्ववत दमयन्तीको प्राप्त करेंगे] // 202 // तयोः सौहार्दसान्द्रत्वं पश्यन् शल्यमिवानशे / ___ मर्मच्छेदमिवानच्छ स निर्मोक्तिभिमिथः / / 203 / / तयोरिति / सः कलिः, तयोः, भैमीनलयोः, सुहृदोः भावः सौहार्द प्रेम, 'युवादि. भ्योऽण', 'हृद्भग-' इत्यादिना उभयपदवृद्धिः। तस्य सान्द्रत्वं घनत्वम् , पूर्णस्वमि. त्यर्थः। सौहार्दोत्कर्षमिति यावत् / पश्यन् अवलोकयन् , शल्यम् अस्त्रविशेषाघातम् , आनशे इव प्राप इव / तथा मिथः परस्परम् , तयोः भैमीनलयोः, नर्मोक्तिभिः परिहासविशेषैः, मर्मच्छेदं हृदयच्छेदनम् , आनई इव प्राप इव / अनुब. भूव इवेत्यर्थः // 203 // उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती ) के सौहार्दकी सघनता ( परिपूर्णता ) को देखता हुआ वह ( कलि ) काँटा चुभे हुएके समान पीड़ित हुआ और उनके नोक्तियों ( रतिकालिक परिहास वचनों-पाठा० - नर्म-समूहों ) से (हृदयादि ) मर्मस्थलों के काटे जाने के समान अनुभव किया / 203 // अमर्षादात्मनो दोषात् तयोस्तेजस्वितागुणात् / स्प्रष्टुं दृशाऽप्यनीशस्तौ तस्मादप्यचलत् कलिः / / 204 // अमर्षादिति / कलिः कलियुगम् , अमर्षात् क्रोधात् आत्मनः स्वस्य, दोषात् पापिष्ठत्वापराधात् , तयोः भैमीनलयोः, तेजस्वितागुणाञ्च प्रभावसम्पन्नत्वाच्च, तौ भैमीनलौ, दृशाऽपि दृष्ट्याऽपि, किमुत करेणेति भावः / स्पष्टुं पराम्रष्टुम् , द्रष्टुमपि 1. 'तन्नर्मोर्मि-' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1141 इत्यर्थः / अनीशः अक्षमः सन् , तस्मादपि तत्स्थानादपि, अचलत् पलायत // 204 // क्रोध (नल दमयन्तीके नर्म-परिहासादि नहीं सह सकने के कारण उत्पन्न रोष ), अपने ( महापातकादि रूप ) दोष तथा उन दोनोंकी तेजस्विताके गुण ( शरीरसौन्दर्यादि तथा नल के क्षत्रियत्वादिजन्य और दमयन्तीके पातिव्रत्यादिजन्य तेज आदि होने ) से उन्हें नेत्रसे मी स्पर्श करने अर्थात् देखने में भी असमर्थ कलि वहां ( नलके पास या नलके महल ) से चल पड़ा ( भाग चला ) [ लोकमें भी क्रोधी, दोषी एवं किसीके तेजसे मलिन या चकाचौंधयुक्तः कोई व्यक्ति उसके पास नहीं ठहरता ] // 204 / / अगच्छदाश्रयान्वेषी नलद्वेषी स निःश्वसन् / अभिरामं गृहारामं तस्य रामसमश्रियः / / 205 / / ___ अगच्छदिति / नलद्वेषी निषधेशविरोधी, अत एव आश्रयान्वेषी नलनिर्यातनाथ तत्र निवासार्थी, सः कलिः, निःश्वसन् कुत्रापि तदलाभात् उच्छवपन् सन् , रामः समश्रियः रामचन्द्रसमानकान्तः, तस्य नलस्य, अभिरामं रमणीयम् , गृहाराम प्रासादसमीपवर्तिक्रीडावनम् , अगच्छत् प्रायात् / कवेरेतत्काव्यप्रणयनकाले रामस्य सम्भूनत्वेन सृष्टिप्रवाहस्य अनादित्वेन वा सत्ययुगीनस्य नलस्य रामसादृश्यं बोध्यम् // 205 // नलका विरोधी (नलको पीड़ित करने के लिए ) वहां अपने आश्रय (स्थिति ) को खोजनेवाला (किन्तु कहीं आश्रय नहीं मिलनेसे ) निःश्वास (लम्बा लम्बा श्वास) लेता हुआ वह कलि रामके समान श्री ( शरीरशोभा या-राजसम्पत्ति ) वाले उस ( नल ) के महलके. पाश्ववतों कोडोपवनको गया। [ पास रहनेसे दोषान्वेषण सरल समझकर नलके महलके पासवाले उद्यान में ठहरा / सत्ययुगमें स्थित नलसे त्रेतायुगमें स्थित परवती रामका उपमान यद्यपि सङ्गत नहीं होता, तथापि कविकी अपेक्षा या कल्पभेदसे रामको पूर्ववर्ती.मानकर नळके साथ रामको उपमा दिया जाना असङ्गत नहीं होता ] // 205 // रक्षिलक्षवृतत्वेन बाधनं न तपोधनैः / मेने मानी मनाक् तत्र स्वानुकूलं कलिः किल / / 206 / / रक्षीति / रक्षिणां गृहपालानाम् , लक्षण शतसहस्रग, बहुराङ्ख्यकप्रासादरक्षिपु. रुषेणेत्यर्थः / यत् वृतत्वं परिवेष्टितत्वं तेन हेतुना, तत्र गृहारामे, तपोधनैः तपस्विभिः कत्तभिः, बाधनं पीडनम् न, अस्ति स्वस्येति शेषः / प्रासादसमीपवर्तितया बहुजन. संकुलत्वेन नित्यं धर्मकार्यनिरतानां निर्जनप्रियाणां तपस्विनामभावात् धर्मद्वेषिकले बाधाभावः इति भावः / अत एव मानी अभिमानवान् , अहङ्कारीत्यर्थः / कलिः अन्त्ययुगम् , मनाक ईषत् , स्वस्य अनुकूलं प्रियम् , अभीष्टसाधनयोग्यस्थानमित्या थः / मेने बुबुधे किल, तमाराममिति शेषः / सर्वदा वैधकार्यकारिणां मुनीनां तत्र सद्भावे धर्मकार्यासहिष्णुः कलिः तत्रारामे वस्तुं न शक्नुयात् , रक्षिबाधने सत्यपि
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / तत्रादृश्यतया प्रवेष्टु सर्वदा धर्मालोचनाविरहेण तत्र निर्बाधं वस्तुञ्च शक्नुयात् एवम् आरामादन्यत्र सर्वत्रेव धर्माचरणदर्शनात् तदपेक्षया आरामे वासस्य ईषत् स्वानुकूलत्वमिति भावः // 206 // मानी कलिने उस ( उपवन ) को लाखों रक्षकों (पहरेदारों ) से घिरा हुआ होनेसे (एकान्तप्रिय धर्मसाधक ) तपस्वियों की बाधासे रहित अत एव कुछ अनुकूल माना / ( अथवा-मानी कलिने उस उपवनमें लाखों रक्षकोंसे घिरा हुआ होनेसे बाधा ( के साथ अपनी स्थिति ) मानी, किन्तु तपस्वियोंसे बाधा नहीं मानी, अत एव उसको थोड़ा अपने अनुकूल माना ) / [ मानी कलिने यह समझा कि यहां लाखों पहरेदार पहरा दे रहे हैं, अत एव बहुत लोगों के आवागमन होनेसे एकान्तमें धर्मा वरण करना पसन्द करनेवाले तपस्वी यहां नहीं आवेंगे और अन्यत्र सर्वत्र धर्माचरण होते रहनेसे मुझे कहीं ठहरनेका स्थान नहीं मिलता, इस कारण यह उपवन ही मेरे ठहरने के लिये कुछ उपयुक्त है, वहां भी कभी-कभी नल-दमयन्तीके आने तथा रक्षकों के भी धर्मात्मा ही होनेसे उसे पूर्ण उपयुक्त नहीं समझा, किन्तु थोड़ा ही उपयुक्त समझा / अथवा-यहां लाखों पहरेदारोंसे ही हमें रहने में बाधा है। एकान्तप्रिय तपस्वियोंके यहां नहीं आने के कारण तज्जन्य बाधा नहीं है, अत एव अन्तर्धान होकर प्रवेश करने तथा रहनेकी शक्ति होने से पहरेदार की बाधा तो मैं दूर कर सकता हूँ, किन्तु उस शक्तिका तपस्वियोंके समीप वश नहीं चल सक से तज्जन्य बाधाको मैं दूर नहीं कर सकता; अत एव यह स्थान मेरे ठहरनेके लिए पूर्णतया उपयुक्त नहीं होते हुए भी कुछ तो उपयुक्त है ही, ऐसा कलिने समझा ] // 206 // दलपुष्पफलैर्देवद्विजपूजाभिसन्धिना। . स नलेनार्जितान् प्राप तत्र नाक्रमितुं दुमान् // 207 / / दलेति / सः कलिः, तत्र गृहारामे, दलैः पत्रैः, कुसुमैः, फलैः शस्यैश्च, देवानां हरिहरादीनाम्, द्विजानां ब्राह्मणानाञ्च, पूजायाः अर्चनायाः अभिसन्धिना अभिप्रायेण हेतुना, नलेन नेषधेन, अर्जितान् रोपितान् , दुमान् वृक्षान् , बिभीतकेतरानिति भावः / आक्रमितुम् अधिष्ठातुम् , न प्राप न शशाक इत्यर्थः / तेषां धर्मकार्योपयो. गित्वेन स्वस्य च पापरूपत्वेन तानारोढुं नापारयदित्यर्थः // 207 // ___ वह कलि नलके द्वारा पत्र ( बिल्वपत्र आदि ), पुष्प (चम्पा, गुलाब, केतकी जुही आदि) तथा फल ( आम, अनार, सेव, जम्बीर आदि ) से देवों तथा ब्राह्मगादि अतिथियोंकी पूजाके लक्ष्यसे रोपे गये पेडोंको ठहरने के लिए नहीं प्राप्त किया अर्थात् उन पेड़ोंपर नहीं ठहर सका // अथ सर्वोद्भिदासत्ति-पूरणाय स रोपितम् / बिभीतकं ददशैकं कुटं धर्मेऽप्यकर्मठम् / / 208 // अथेति। अथ उद्यानप्रवेशानन्तरम्, सः कलिः, कर्मणि घटते इति कर्मठं कर्मक्षम, तन्न भवतीति अकर्मठम् , 'कर्मणि घटोऽठच्' इति सप्तम्यन्तकर्मशब्दात् अठच्प्रत्ययः /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1143 धर्मे धर्मकाय, अकर्मठमपि अनुपयुक्तमपि, सर्वेषां समस्तजातीयानाम , उद्भिदा तरुगुल्मलतादीनाम् , भासत्तेः विद्यमानतायाः, पूरणाय पूर्तये, रोपितम् अर्जितम् , अत्रोद्याने सर्वविधतरुगुल्मादयः सन्तीति कीतिस्थापनायारोपितं न तु देवद्विजपूजा. घर्थम् , तत्पत्रादीनां देवपूजाद्यनहत्वादिति भावः। बिभीतकं कर्षफलं नाम, एकं कञ्चित् , कुटं वृतम् / वृक्षो महीरुहः शाखी, अनोकहः कुटः शालः' इत्यमरः / ददर्श अवलोकयामास // 208 / / उस ( कलि ) ने उस ( उपवन ) में धर्मकार्य में उपयुक्त नहीं होनेपर मी समस्त उद्भिद् ( वृक्ष, लता, गुल्म, क्षुप आदि ) की पूर्ति के लिए (इस उपवनमें सब प्रकारके उद्भिद् हैं। इस उद्देश्यसे ) रोपे गये एक बहेड़ेके पेड़को देखा / 208 // स तं नैषधसौधस्य निकटं निष्कुटध्वजम् / बह मेने निज तस्मिन् कलिरालम्बनं वने / 206 / / स इति / सः कलिः, तस्मिन् वने गृहारामे, नैषधसोधस्य नलप्रासादस्य, निकटं नेदिष्ठम् , निष्कुटस्य गृहारामस्य, 'गृहारामस्तु निष्कुटः' इत्यमरः / ध्वज चिह्नस्वरूपमित्यर्थः / तं बिभीतकम् , निजम् आत्मीयम , आलम्बनम् आश्रयम् , बहु अधिक यथा तथा, मेने विवेचयामास। धर्मकार्यानुपयोगिनि तत्र सुखवाससम्भवात् अत्युच्चे तस्मिन्नवस्थानेन नलदोषविचारसम्भवाच्च तं स्वावलम्बनं बहु मेने इति भावः // उस ( कलि ) ने उस ( उपवन) में नल के महलके समीपवर्ती तथा (ऊँचा होनेसे ) उपवनके ध्वजस्वरूप उस (बहेड़ेके पेड़) को अपना अच्छा आश्रय (रहनेका स्थान) माना ! [ उस बहेड़ेके पेड़को धर्मानुपयुक्त होनेसे तथा नल के प्रासादके समीपवर्ती एवं ऊँचा होने के कारण वहां रहकर नलके दोषका निरीक्षण सरल होनेसे अपने लिए उपयुक्त अवलम्ब माना] // 209 // निष्पदस्य कलेस्तत्र स्थानदानात् बिभीतकः / कलिद्रुमः परं नासीदासीत् कल्पद्रुमोऽपि सः / / 210 // निष्पदस्येति / सः कलिवासत्वात् प्रसिद्धः, बिभीतकः कर्षफलवृक्षः निष्पदस्थ निराश्रयस्य, क्वचिदपि स्थानमप्राप्तवत इत्यर्थः / कलेः युगाधमस्य, तत्र आरामे, स्थानदानात् आवासप्रदानात् , परं केवलम् , कलिद्रुमः तत्र वासात् कलिसम्बन्धि. वृक्ष एव, 'त्रिलिङ्गस्तु बिभीतकः। नाऽक्षस्तुषः कर्षफलो भूतावासः कलिद्रुमः // ' इत्यमरः / न आसीत् न अभवत् , किन्तु कल्पद्रुमः कल्पवृक्षोऽपि, आसीत् अभवत् / वासरूपसङ्कल्पितार्थदानादिति भावः // 210 // _ वह बहेड़ेका पेड़ ( सर्वत्र धर्माचरण होनेसे ) पैर रखनेके लिए भी असमर्थ अर्थात् निराश्रय, पाठा०-(ठहरनेका स्थान नहीं पानेके कारण) स्पन्दरहित अर्थात् ( हिलने 1. 'निष्पन्दस्य' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1144 नैषधमहाकाव्यम् / डोलने में भी असमर्थ ) कलि के लिए केवल कलिद्रुम ( कलि-सम्बन्धी वृक्ष ) हो नहीं हुआ, किन्तु उत्तम आश्रय देनेसे ( कल्पद्रुम ) मो हुआ / [ अन्य भो कोई किसो निराश्रित के लिए आश्रय देकर वह उसके लिए कल्पद्रुम कहा जाता है ] // 210 / / ददौ पदेन धर्मस्य 'स्थातुमे केन यत् कलिः / एकः सोऽपि तदा तस्य पदं मन्येऽमिलत् ततः / / 211 / / ददाविति / यत् यस्मात् कलिः युगाधमः, धर्मस्य पुण्यस्य, एकेन पदेन चतुर्थां. शेन, स्थातुं वर्तितुम , ददौ दत्तवान् , सृष्टिप्रवाहस्य अनादितया प्राक्तन कलियुगे कलिः धर्मस्य एकेन पदेन स्थानमर्पितवानित्यर्थः / ततः तस्मात् , तदा नल राज्य. काले परवर्तिसत्ययुगे, एकः केवलः, सोऽपि विभीतकतोव, तस्य कले, पदं स्थानम्, अमिलत् जातम् , एकपरस्थानदानात् एकवृक्षरूरस्थान प्राप्तमित्यर्थः / इति मन्ये विवेचयामि, अहमिति शेषः / दानानुरूपं फलमश्नुते इति भावः // 211 // जिस कलिने ( समय-प्रवाहके अनादि होनेसे पूर्व कल्पमें ) धर्मके लए एक पादसे ठहरनेका स्थान दिया था, उसमें वह (बहेड़ा) मो कलि के ठहरने के लिर एक पाद ही मिला, ऐसा मैं मानता हूँ। [ 'जो व्यक्ति पूर्व जन्म में जितना दान करता है, जन्मान्तर में उसे उतना ही वह द्रव्य मिलता है। इस विधान के अनुसार कलि को मा एक पादसे ठहरने के लिए ही वह बहेड़े का पेड़ प्राप्त हुआ, क्योंकि कलि ने पूर्व जन्म में धर्म के लिए एक पादसे ही ठहरनेका स्थान दिया था। 'सत्ययुगमें चारों पादोंसे, त्रेतामें तोन पादोंसे, द्वापरमें दो पादोंसे और कलिमें एक पादसे धर्मका अवस्थान रहता है' ऐसे शास्त्र सिद्वान्तके आधार पर उक्त उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 211 // ___ उद्भिद्विरचितावासः कपोतादिव तत्र सः | राज्ञः साग्नेर्द्विजात तस्मात् सन्त्रासं प्राप दीक्षिनात || 212 / / उद्धिदिति / उद्भिदि बिभीतकवृते, विरचितावासः कल्पितस्थितिः, अन्यत्रउद्भिदा तृगगुल्मादिना, विरचितावासः निर्मितगृहः, सः कलिः, कश्चित् पुरुषश्व, साग्नेः आहिताग्नेः, सजाठराग्नेश्व, द्विजात् द्विजातेः क्षत्रियात् , अण्डजाच, दीक्षितात् अग्निहोत्रे कृतदीक्षात् , अन्यत्र-ईक्षितात् गृहोपरि दृष्टात् , तस्मात् राज्ञः नलात् , कपोतात अङ्गारभक्षिपारावतविशेषादिव, सन्त्रासम् अभिशापभयम् , गृहे अग्निसं. योगभयञ्च, प्राप लेभे, लिट् / अन्यत्र-प्रापत् अलम्भिष्ट; इति, लुङ् / अत्र साग्नेर्दी तितादिति विशेषगद्वयेन नलस्य कलिं प्रति तपःप्रभावजन्याभिशापप्रदानसामर्थ्य राज्ञो द्विजादिति विशेषणद्वयेन च तस्य क्षत्रियराजोचितदण्डदानसामथ्य सूचितम्॥ बहेड़ेके पेड़पर निवासस्थानको बनाया हुआ कलि अग्निहोत्र करनेवाले, यज्ञमें दीक्षित, 1. 'स्थानमेकेन' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1145 क्षत्रिय राजा (नल ) से उस प्रकार अधिक भयको प्राप्त किया, जिस प्रकार तृग-गुल्मादिसे घरको बनाया हुआ पुरुष, अग्निसहित ('कबूतरके पेटमें अग्नि रहती है। ऐसा लोकख्याति है-इसी कारण वह कङ्कड़ आदिको भी पचा डालता है, अथवा-अग्नि लिये हुए ) देखे गये पक्षी कबूतर से डरता है / ( अथवा-बहेड़ेपर स्थित वह कलि राजाके अग्निहोत्री राजाके यज्ञमें दीक्षित द्विज 'गौतम' नामक पुरोहितसे .बहुत डर गया। अथवा-अग्नि-सहित गृहादिके ऊपर देखे गये कबूतर पक्षीसे तृण-गुलम आदिके घरको बनाया हुआ पुरुष (इसका बैठना घरमें आग लगनेका अशुभ शकुन सूचित करता है इस भयसे ) बहुत डर जाता है, वैसा वह कलि भी बहुत डर गया)। [ 'राज्ञः' तथा 'द्विजात' नलका विशेषण द्वार। ( नलको राजा तथा क्षत्रिय कहने ). से उसका स्वाभाविक दण्ड दानका सामर्थ्य होना और 'साग्नि' तथा 'दीक्षित' विशेषण होने ( अग्निहोत्री और यशमें दीक्षित कहने ) से तपोजन्य प्रभावसे शापद्वारा दण्डित करनेका सामर्थ्य होना सूचित होता है ] // 212 // बिभीतकमधिष्ठाय तथाभूतेन तिष्ठता / तेन भीमभुवोऽभीकः स राजर्षिरधर्षि न / / 213 / / बिभीतकमिति / तथाभूतेन नलरन्ध्रान्वेषिणा, अत एव बिभीतकम् अक्षवृक्षम् , अधिष्ठाय अधिरुह्य, तिष्ठता विद्यमानेन, तेन कलिना, भीमभुवः भैम्याः, अभिकामयते इति अभीकः कमिता, कामुक इत्यर्थः / 'अनुकाभिकाभीकः कमिता' इति कन्प्रत्ययान्तो निपातनात् साधुः / 'कामुके कमिताऽनुकः / कम्रः कामयिताऽभीकः' इत्य. मरः। सः राजर्षिः मुनितुल्यो राजा नलः, न अधर्षि न अभ्यभावि, न पीडयितुं शक्त इत्यर्थः / भूतावासापराख्यं बिभीतकवृक्षमाश्रित्य तिष्ठता तथा तादृशेन, अतिमहता इत्यर्थः। भूतेन देवयोनिविशेषेण भीमभुवो भयङ्करस्थानात् , अभीको निर्भीकः, राजर्षिः राजश्रेष्ठः, धार्मिकः इत्यर्थः / भूतापसारकमन्त्रवादी इत्यर्थो वा, न पराभूयते इति ध्वनिः, तेन च राजमन्त्रवादिनोरौपम्यं गम्यते // 213 // ___उस प्रकार ( नलद्वेषेच्छुक, या-नलका छिद्रान्वेषी) तथा बहेड़ेके पेड़का आश्रयकर रहते हुए उस कलिने भीम कुमारी ( दमयन्ती) के कामुक उस राजर्षि ( राजा होते हुए भी सदा धर्माचरणमें संलग्न रहनेसे ऋषिरूप या ऋषितुल्य नल) को पराजित नहीं कर सका। (पक्षा०-भूनावास ( भूतोंका आवास स्थान अर्थात् बहेड़े) पर रहनेवाले भयङ्कर (या-अतिमहान् ) उस प्रेतयोनि प्राप्त भूतने भयङ्कर भूमि ( अथवा-भयके उत्पत्तिस्थान, अथवा-रणभूमि, अथवा-शङ्करजीकी भूमि) से निमीक उस (धर्माचरणादि या-भूतप्रेतादि निवारक-मन्त्रशानमें सुप्रसिद्ध ) राजर्षि (नल).को पराभूत नहीं किया)॥ 213 / / तमालम्बनमासाद्य वैदर्भीनिषधेशयोः कलुषं कलिरन्विष्यन्नवात्सीद् वत्सरन् बहून् || 214 / /
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________________ 1146 नैषधमहाकाव्यम् / तमिति / कलिः तुरीययुगम् , तं वृक्षम्, आलम्बनम् आश्रयम्, आसाद्य प्राप्य, वैदर्भीनिषधेशयोः भैमीनलयोः, कलुषं दुष्कृतम् , पापानुष्ठानमित्यर्थः / अन्विष्यन् अनुसन्दधन् , बहून अनेकान् , वत्सरान् वर्षान् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / अवात्सीत् उवास, वसेर्तुङि सिचि, 'सः स्यार्द्धधातुके' इति सस्य तत्वम् , 'वदव्रज-' इत्या. दिना वृद्धिः // 214 // ___ उस ( बहेड़ेके पेड़ ) का आश्रय पाकर दमयन्ती तथा निषधराज ( नल ) के छिद्र ( दोष ) को खोजता हुआ कलि बहुत वर्पोतक निवास किया [ इससे नल दमयन्तीकी अतिशय धर्माचरणपरायणता तथा कलिकी उनको पीडित करनेके अत्यधिक हठशीलता सूचित होती है [ // 214 // यथाऽऽसीत् कानने तत्र विनिद्रकलिका लता | तथा नलच्छलासक्ति-विनिद्रकलिकालता / / 215 // यथेति.। तत्र तस्मिन् , कानने वने, यथा विनिद्रकलिका उन्निद्रकोरका, लता व्रततिः, आसीत् अवर्तत; तथा तद्वदेव, नलस्य वैरसेनेः, छले छलने, रन्ध्रान्वेषणे इत्यर्थः / आसक्त्या अभिनिवेशेन, विनिद्रः जागरूकः, सततमप्रमत्त इत्यर्थः। कलिः कलिरूपः, कालः समयो यस्मिन् तस्य भावः तत्ता, आसीत् इति शेषः। अत्रार्थभेदेऽपि विनिद्रकलिकालतेति शब्दमात्रसाम्यात्तथेति साहश्यमुक्तम् // 215 // ____ उस उद्यानमें जिस प्रकार लता विकसित हुई कलियोंवाली थी, उसी प्रकार नल को वञ्चित करनेमें आसक्त कलि भी जागरूक था / 215 / / दोष नलस्य जिज्ञासुर्बधीज द्वापरः क्षितौ / नौदोषः कोऽपि लोकस्य मुखेऽस्तीति दुराशया // 216 // __दोषमिति / अथ द्वापरः तृतीययुगमपि, नलस्य नैषधस्य, दोषम् अनाचारम् , जिज्ञासुः ज्ञातुमिच्छुः सन् , लोकस्य जनस्य, मुखे वाचि, अदोषः निर्दोषः, कोऽपि कश्चिदपि, नास्ति न विद्यते, इति दुराशया दुष्टवाञ्छया, लोको हि सर्वत्र दोषदृष्टिपरत्वात् सर्वथा दोषलेशं चयति वक्ष्यति चेति दुराग्रहेण इत्यर्थः / तितौ भुवि, बभ्राज रराज, बभ्रामेति यावत् // 216 // नलके दोषको जाननेका इच्छुक द्वापर ( कलियुग सहायक होकर साथमें आया हुआ तृतीय युगका अधिष्ठाता देव-विशेष ) 'लोगों के मुखमें कोई भी निर्दोष नहीं है ( पाठा०कोई ( किसी मनुष्य-विषयक ) दोष नहीं है क्या ? अर्थात् है ही )' इस दुराशाले पृथ्वीपर शोभने विराजमान रहने अर्थात् ठहरने (पाठा०-घूमने) लगा। [ द्वापरने सोचा कि 'सब लोग जिसे निर्दोष मानें ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, अतः नलके दोषको मैं किसीके मुखसे अवश्य सुनूंगा' इसी दुराशासे वह नगरमें घूमने लगा ] // 216 / / 1. 'बभ्राम' इति पाठान्तरम्। 2. 'न दोषः' इति पाठान्तरम् /
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________________ सप्तदशः सर्गः। 1147 अमुष्मिन्नारामे सततनिपतदोहदतया प्रसूनैरुन्निद्रैरनिशममृतांशुप्रतिभटे / असौ बद्धालम्बः कलिरजनि कादम्बविहग च्छदच्छायाभ्यङ्गोचितरुचितया लाउछनमृगः / / 217 // अमुस्मिन्निति / सततम् अविरतम् , निपतद्दोहदतया मिलधूपादिसंस्कारतया. 'तरुगुल्मस्तादीनामकाले कुश्लेः कृतम् / पुष्पाद्युत्पादक द्रव्यं दोहदं स्यात्त तस्त्रिया।' इति शब्दावः। उनिः विकसितैः, प्रसूने कुसुमैः, अनिशं निरन्तरम् , अमृतांशुप्रतिभटे चन्द्ररपद्धिनि, चन्द्रकल्पे इत्यर्थः। अमुष्मिन् अस्मिन् , भारामे होद्याने, बद्धालयः कृताश्रयः, असौ कालः युगशेषः, कादम्बविहगस्य कलहंसस्य, यः छदः पक्षः, धूम्रवः इति भावः। तस्य छाया कान्तिः, तया अभ्यड़े लेपने, सचिता श्यरता, रुचिः स्पृहा यस्य तस्य भावः तत्ता, तया कलहंसपक्षवत् कृष्ण. वर्णतया इत्यर्थः / लाग्छन् मृगः कर शशः, अजनि जमितः / चन्द्रे करवत् उद्या. नचन्द्रस्य अयं कृष्णव वरकरूपः भृत इति भावः // 217 // सर्वदा दिये जाते हुए दोहदों ( वृक्षोंको फूलने-फल नेके लिये धूप, खलीका पानी आदि साधन-विशेषों ) के कारण विकसित पुष्पोंसे निरन्तर चन्द्र के समान ( स्वच्छ कान्तिवाले ) उस उद्यान में बसता हुआ वह कलि कृष्णवर्णवाले हंसजातीय पक्षीके पडोंकी कान्तिके योग्य (या-कान्तिसे निरन्तर तैलादिके समान लिप्त ) कान्ति लान्छन-सम्बन्धी मृग हो गया। [जिस प्रकार स्वच्छ चन्द्रमें कृष्णवर्ण मृग है, उसी प्रकार सर्वदा दोहद देते रहने से विकसित पुष्पोंसे स्वच्छ (चन्द्र स्थानीय ) उस उद्यान में भति कृष्णवर्ण वह कलि लान्छनमृग हो गया। स्वच्छ चन्द्रमें जिस प्रकार कृष्ण वर्ण मृग कलङ्करूप है, उसी प्रकार निर्दोष उस उद्यानमें वह ही कलङ्क ( दोष ) हुआ ] // 217 // स्फारे ताशि वैरसेनिनगरे पुण्यैः प्रजानां धनं विघ्नं लब्धवतश्चिरादुपनतिस्तस्मिन् किलासीत् कलेः / एतस्मिन् पुनरन्तरेऽन्तरमितानन्दः स भैमीनला. वाराद्ध व्यधित स्मरः श्रतिशिखावन्दारुचूडं धनुः // 218 // रफारे इति / ताशि तथाभूते, रफारे विशाले, वैरसेनेः नलस्य, नगरे पुरे, निष. घराज्ये इत्यर्थः, प्रजानां लोकानाम् , पुष्यैः धमेरेव, घनं निरन्तरम्, विघ्नं कार्यप्रति, बन्धम् , बन्धवतः प्राप्तवतः, अपूर्णमनोरथस्य इत्यर्थः / कलेः कलियुगस्य, तस्मिन्नचाने, चिरात बहुकालम् , उपनतिः स्थितिः, अभूत् आसीत् किल, एतस्मिन् अन्तरे अस्मिन् अवकाशे पुनः, अन्तः अन्तःकरणे, अमितानन्दः अतिहृष्टः, सः भमोंघलक्ष्यः, स्मरः कन्दर्पः, भैमीनलो दमयन्तीनैषधी, आराधुम् उपासितुम , वशीकर्तमिति यावत् / श्रुतिशिखाम भाकर्णाग्रम , वनदारू उपनता इति यावत् / चूता कोटिः यस्य 72 नै० उ०
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________________ 1148 नैषधमहाकाव्यम् / तत् तादृशम् , आकांकृष्टम् इत्यर्थः / धनुः चापन , अधिन विहितवान् , बाणेन पयाजितवानित्यर्थः / क ले राक्रम गात् प्राक् तौ यथा कामं कामसुखम् अन्वभूनाम् इति निष्कपः // 28 // विशाल वैसो ( धर्म परिपूर्ण ) नलकी राजधानी में प्रजाओंके पुण्योंसे ( अथवा-प्रजाओंके पुण्योंसे वैसो विशाल नल की राजधानी में ) बहुत (निरन्तर ) विघ्न प्राप्त करते हुए कलिका उस उद्यान में बहुत समय तक निवास हुभा अर्थात् उस उद्यान में उक्त प्रकारसे कलि बहुत दिनोंतक ठहरा। इसी बीच में ( कलिके वहां निवास करते रहने पर हो ) अन्तःकरण ( हृदय ) में अतिशय प्रसन्न कामदेव दमयन्ती तथा नलको सेवा (या-उन्हें पीडित या वशोभून) करने के लिए धनुष को छोरको कांग्रतक चढ़ाया। [ कलिके आक्रमण करने के पहले उन चिरविरही तथा उत्कण्ठित चित्तवाले दोनों (नल तथा दमयन्ती ) ने कामसुखको प्राप्त किया। यहांपर नल दमयन्तोके कामाराधनका प्रसङ्ग लाकर कविने अग्रिम सर्ग में वर्णनीय उनके सम्भोग-वर्णनको सूचित किया है। भविष्यमें होनेवाले कलिकृत नल-परा. भवसे नायकका अपकर्ष ( हीनता ) सूचित होता है, उसके अवर्णनीय होनेसे कविने उसे यहां पर नहीं कहा है ] // 218 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रोडीरः सुषुवे जितेन्द्रिय चयं मामल्लदेवी च यम् / यातः समदशः स्वसुः सुसहशि छन्दःप्रशस्तेमहा काव्ये तद्भुवि नेषधोय चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 216 // श्रीहर्षमिति / स्वसुः सोदाः, एकत्त खात् एको दरवन्यपदेशः / छन्दःप्रशस्तेः छन्दोबद्वराज चरितवर्गनाप्रन्यस्य, स्वकतेरिति भावः। सुपहशि अत्यन्त तत्स. दृशे / तस्मात् श्रीहर्षात् भवतीति तद्भुवि / व्याख्यातमन्यत् // 219 // इति मल्लिनाथसूरिविवरिते 'जीवातु' समाख्याने सप्तदशः सर्गः समासः // 17 // कवीश्वर-समूहके..."किया, उसके रचित ( एक कविरचित ) होनेसे वहनरूप छन्दःप्रशस्ति (छन्दोबद्ध राजचरितका वर्णनात्मक ग्रन्थ, या-छन्दोरचनाके क्रमस्वरूपका निरूपण करनेवाला ग्रन्थविशेष, या-छिदप्रशस्ति अर्थात् 'छिद' नामक राजाको प्रशस्तिका वर्णनात्मक ग्रन्थ ) के सर्वथा (सब प्रकारसे ) समान, सुन्दर नलके "यह सप्तदश सर्ग समाप्त हुआ // 219 // यह 'मणिप्रभा' टोकामें 'नैषध-चरित' का सप्तदश सर्ग समाप्त हुआ // 17 // 1. 'छिन्दप्रशस्ते-' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः सोऽयमित्थमथ 'भीम नन्दिनी दारसारमधिगम्य नैषधः / तां तृतीयपुरुषार्थवारिधेः पारलम्भनतरीमरीरमत् / / 1 // . सोऽयमिति / अथ इति वाक्यारम्भे अध्यायारम्भे वा, सः प्रसिद्धः, अयं नैषधः नलः, इत्थम् एवम्, पूर्ववर्णित प्रकारेगेत्यर्थः / दारमारं दारेषु स्त्रीषु, सारं वरम् , श्रेष्ठमित्यर्थः / स्त्रोरत्नमिति यावत् / 'सारो बले स्थिरांशे च न्याये .सारं वरे तथा' इति शाश्वनः / भीम नन्दिनीं भैमोम् / नन्द्यादित्वात् ल्युट्पत्ययः / अधिगम्य प्राप्य, तृतीयपुरुषार्थवारिधेः कामसागरस्य, पारलम्भने परतोरप्राप्तौ, नरी नावम् , तरणी. स्वरूपामित्यर्थः। तां दमयन्तीम् , अरीरमत् रमयामास, रमे 9 चङ / अस्मिन् सर्गे रथोद्धतावृत्तम् -रो नराविह रथोद्धता लगौ' इति लक्ष णात् // 1 // ( उक्त शरीरमौन्दर्य-प्रमातिशयादिसे ) प्रसिद्ध वह नल इस प्रकार ( देवेन्द्रादिके समक्ष ) स्त्रीरत्न भीमकुमारी ( दमयन्तो ) को पाकर कामसमुद्रके पार जाने में नौकारूपिणी उस ( दमयन्नी ) को रमण कराने लगे। [विना नौकाके ममुदका पार जाना जिस प्रकार असम्भवहै, शरीर सौन्दर्यादि उत्कृष्ट गुणवाली दमयन्तोके विना नलका कामसमुद्र के पार जाना ( परम सुख पद कामसेवन करना ) असम्भव है / इससे दमयन्तोके शरीर सौन्दर्यादिका सर्वोत्कृष्ट होना सूचित होता है ] // 1 // आत्मवित्सह तया दिवानिशं भोगभागपि न पापमाप सः / आहता हि विषयैकतानता ज्ञानधोतमनसं न लिम्पति // 2 // आत्मेति / आत्मवित् आत्मज्ञानी, जीव ब्रह्माभेदबुद्धिशाली इति यावत् / सः नलः, तया भैम्या सह, दिवानिशम् अहोरात्रम् , द्वन्द्वकवद्भावः। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। भोगभाक् अपि विषयसुखमनुभवन् अपात्यर्थः, 'भजो वि.' पापम् इन्द्रि यानिग्रह जनितप्रत्यवायम् , न आप न लेभे / ननु 'अनिग्रहाच्वेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति' इति निषेधात् कथं दिवानिशं विषय लोलुपस्य न पापमत आहआहृतेति / हि तथाहि, आहृता कृत्रिमा, विषयेषु शब्दादिषु, एकतानता एकाग्रता, "एकतानाऽनन्यवृत्तिरेकाकायनावपि' इत्यमरः / ज्ञानेन तत्वबुद्ध्या, धातमनसं निमलान्तःकरणम् , जनमिति शेषः / न लिम्पति न स्पृशति, न पातयति इत्यर्थः। 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा' इति भगवचनादिति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूवोऽर्थान्तरन्यासः // 2 // __ आत्मशाना ( जोवात्मा तथा परमात्मामें अभेद बुद्धि रखनेवाले ) वे (नल ) उस - 1. अत्र-नन्दनाम्' इति पाठो 'जोवातु-सुखावबोधा' सम्मतः इति म. म... शिवदत्तशर्माणः। 2. 'पारतारणतरी-' इति पाठान्तरम् /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / (दमयन्ती ) के साथ रात-दिन भोग करते हुए भी पाप ( दिवा-मैथुनादि जन्य दोष ) को नहीं प्राप्त किये क्योंकि विषयोंमें कृत्रिम एकाग्रता ज्ञानसे धोए गये ( अत एव स्वच्छ ) मनवालेको दूषित नहीं करती // 2 // न्यस्य मन्त्रिषु स राज्यमादरादारराध मदनं प्रियासखः / नैकवर्णर्माणकोटिकुट्टिमे हेमभूमिभृति सौधभूधरे / / 3 / / न्यस्येति / सः राजा, मन्त्रिषु अमात्येषु, राज्यं राज्यभारम् , न्यस्य निधाय, नैकवर्णाः अनेकवर्णाः, नार्थस्य न शब्दस्य सुप्सुपेति समासः। मणिकोटयः अस. यरत्नानि यस्मिन् तादृशम् , कुहिम बद्धभूमिः यस्मिन् तथोक्ते, हेमभूमिभृति सुवर्णमयभृ र वते, भृनः धिप / सौधः प्रसाद एवः, भूधरः पर्वतः तस्मिन् , पर्वतसदृशे अत्युच्चप्रासादे, प्रियासखः मीद्वितीयाः सन् , आदरात् आग्रहादित्यर्थः / मदनं कन्दर्पम् , आरराध सिषेवे, शच्या मेरौ इन्द्र इव स भेन्या सह तत्र सौधे रतिसुखमन्वभूदिति भावः // 3 // __वह ( राजा नल ) मन्त्रियों में राज्य ( सञ्चालनका भार ) देकर अनेक वर्णवाले करोड़ों रत्नोंसे जड़े हुए * फर्शवाले तथा सुवर्णमयीभूमिवाले प्रासादरूपी पर्वत अर्थात् पर्वततुल्य अत्युन्नत प्रासादपर प्रिया ( दमयन्ती) के साथ होकर कामदेवकी आराधना करने लगे। [जिस प्रकार इन्द्राणीसे युक्त इन्द्र करोड़ों मणियोंसे युक्त सुवर्णमयीभूमिवाले सुमेरु पर्वतपर कामाराधन ( रतिसुखानुभव ) करता है, उसी प्रकार नल भी मन्त्रियों को राज्यभार सौंपकर सुमेरुवत् प्रासाद में दमयन्तीके साथ कामसुख भोगने लगे] // 3 // वीरसेनसुतकण्ठभूषणीभूतदिव्यमणिपंक्तिशक्तिभिः / कामनोपनमदर्थतागुणाद् यस्तृणीकृतसुपर्वपर्वतः // 4 // अथ चतुर्विंशतिश्लोक्या सौधं वर्णयति-वीरेत्यादि / यः सौधः, वीरसेनसुतस्य नलस्य, कण्ठभूषणीभूतायाः गलदेशस्य आमरणस्वरूपायाः, दिव्यायाः, अली, किक्याः, मणिपंक्तेः रत्नमालिकायाः, शक्तिभिः अचिन्त्यप्रभावैः, कामनया सङ्कल्प. मात्रेणैव, उपनमदर्थता सम्प्राप्तेष्टवस्तुता; सैव गुणः उत्कर्षः तस्मात , तृणीकृतः अवधीरितः, सुपर्वपर्वतः सुराचलः, सुमेरुभूधरः इत्यर्थः / येन तादृशः, न केवलमो. प्रत्येन सम्पदाऽपि सुमेरोरधिकः सः इति निष्कर्षः // 4 // जिस (प्रासाद ) ने नल के कण्ठभूषण दिव्य ( अत्युत्तम ) मणियों ( दहेज में राजा भीमके दिये हुए चिन्तामणियों) की मालाको शक्तियों ( अलौकिक प्रभावों ) के इच्छामात्रासे मिलते हुए पदार्थरूपी गुणसे सुमेरु पर्वतको भी तृणवत् (तिरस्कृत ) कर दिया था। - [जो नलप्रासाद केवल ऊँचाईमें ही नहीं, किन्तु सम्पत्तिमें भी सुमेरुपर्वतसे श्रेष्ठ था, - - .. 'महाकुलकेने ति शेषः।
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1151 क्योकि सुमेरुपर्वतमें एक चिन्तामणि थी और यहाँ नलके कण्ठमें अनेक चिन्तामणियोंकी माला थी] // 4 // धूपितं यदुदराम्बर चिरं मेचकैरगुरुसारदारुभिः / जालजालधृतचन्द्रचन्दनक्षोदमेदुरसमीरशीतलम् // 5 // धूपितमिति / यस्य सौधस्य, उदराम्बरम् अभ्यन्तराकाशम् , मध्यदेशमित्यर्थः / चिरं नित्यम् , मेचकैः कृष्णः, अगुरुगः तदाख्यचन्दनविशेषस्य, सारदारुभिः अभ्य. न्तरस्थहढकाष्ठः, धूपितं तधूमवासितमित्यर्थः / किञ्च, जालजालेषु गवारसमूडेषु, धृतैः स्थितैः, चन्द्रचन्दनक्षोदैः कर्पूरश्रोखण्डचूर्णैः, मेदुरेण सान्द्रस्निग्धेन, मृदुसुरभिणेति यावत् / समीरेण वायुना, शीतलं हिमम् , दूरोभूतधूपजसन्तापमित्यर्थः॥२॥ जिस प्रासादका भीतरी भाग कृष्णवर्ण अगरुके श्रेष्ठ काष्ठोसे धूपित और खिड़कियों की पंक्तियोंमें रखे हुए कर्पूर तथा चन्द्रमाको धूलिसे सान्द्र ( अतिशय) सुगन्धि वायुसे शीतल था अर्थात् जिस प्रासादके भीतरमें श्रेष्ठ कृष्णागरुका धूप दिया गया था और खिड़कियों पर कपूर तथा चन्दनकी धूलियों के ढेर रखनेसे जिसका भीतरी भाग सुगन्धपूर्ण एवं शीतल था / क्यापि कामशरवृत्तवर्त्तयो यं महासुरभितैलदीपिकाः / तेनिरे वितिमिरं स्मरस्फुरदोःप्रतापनिकराङ्करश्रियः / / 6 // क्वापीति / कामशरः चुनमुकुलः, कर्पूरविशेषः इति वा, तेन वृत्ताः निष्पन्नाः, वर्तयः दशाः यासां तादृश्यः, महासुरभीणि अतिशयसुगन्धीनि, तैलानि तिल जानि यासां तादृश्यः, दीपिकाः प्रदोपाः, स्मरस्थ कामस्य, स्फुरतोः स्पन्दमानयोः, भैमीनलव्यधार्थ चलितयारित्यर्थः / दोषोः भुजयोः, प्रतापनिकरस्य तेजोराशेः, अङ्कुराणां प्रराहाणाम्, श्रीः शोभा इव, श्रोः, यासांतादृश्यः सत्यः, यं सौधम् क्वापि कुत्रवित्, भैमीनलालकृतदेशे इत्यर्थः / वितिमिरं तमोराहित्यम् , तेनिरे चक्रिरे // 6 // जिस (प्रासाद ) कामशर (आम्रमजरो, अथवा-अनेकोषधिनिर्मिन धूर-विशेष', अथवा-कर्पूर ) से बनायी गयी ( अथवा-कामबाणके समान गोलकृति ) बत्तियोंवाले ( नल तथा दमयन्तीको पृथक करने के लिए ) स्फुरित होते हुए काम-बाहुके प्रताप-समूहाङ्करके समान शोभावाले महासुगन्धि तेलके दीपक कहींपर (नल-दमयन्तीके पासमें ) अन्धकार रहित (प्रकाशमान ) करते थे // 6 // कुकुमैणमदपकलेपिताः क्षालिताश्च हिमवालुकाऽम्बुभिः / १.-न्तरम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'काम शरारूपरनिर्माण सामग्रोः 'प्रकाश' च्याख्यायां लिखितास्तद्यथा 'पुरसर्जाभयालाक्षानखान्जादिजटागदैः / ‘समैः समधुभिधूपो मतः 'कामशरा भिधः // ' इति / ३.-बालुकांशुभिः' इति पाठे...."। अत्र शाब्दोऽपि क्रमो घटते, इति . 'प्रकाश' कृत् /
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________________ 1152 नैषधमहाकाव्यम् / रेजुरध्वततशैलजस्रजो यस्य मुग्धमणिकुट्टिमा भुवः // 7 // कुङ्कुमेति / कुङ्कुमणमदयोः काश्मीरजकस्तूरिकयोः, पङ्केन कर्दमेन, घृष्टवुङ्कुमम्गमदास्यामित्यर्थ: / लेपिताः दिग्धाः, च किच, हिमबालुकाऽम्बुभिः कर्परोदकः 'अथ करमस्त्रियाम् / घनसारश्चन्द्रज्ञः सिताभ्रो हिमबालुका' इत्यमरः / क्षालिताः धौताः, तथा अध्वसु प्रवेशमागषु, तताः विस्तृताः, शैलजस्य शेले यस्य, शिलाकुसुमाख्य. गन्धद्रव्य स्येत्यर्थः / सूजः माला यासु तादृश्यः, तथा मुग्धाः सुन्दराः, मणीन नानाम , ममिया इत्यर्थः। कुट्टिमाः निबद्धप्रदेशाः यासु तादृश्यः। 'कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूः' इति यादवः / यस्य सोधस्य, भुवः अङ्गणादिप्रदेशा इत्यर्थः / रेजुः शुशुभिरे। चूतवृक्षवत सामान्य विशेषभावादपौनरुक्त्यम् / समृद्धिमद्वस्तुवर्णनादुदात्तालङ्कारः // 7 // कुङ्कुम तथा कस्तूरी के पङ्कसे लिपी गयी कपूरचूर्ण के पानीसे धोयी गयी ( नल के आनेके) मार्गमे फैलायी गयी पर्वतपर होनेवाले ( अतिसुरभि मालती आदि, या-गन्धद्रव्य-विशेष की मालावाली और मनोहर मणियों के बने फर्शवाली जिस (प्रासाद ) की ( पाठ10जहांपर ) भूमि (आङ्गण आदि ) शोभती थी। [प्रकृत पाठमें 'अतिशय स्निग्धता तथा सुगन्धिके लिए कुङ्कुम-करतूरी-पकसे लीपना, तदन्तर पङ्ककी पिच्छिलता दूर करने के लिए कर्पूर-बालुका-जलसे धोकर पङ्कको दूर एवं अतिशयित सुगन्धित करना और नल तथा दमयन्तीके चरणों के अत्यन्त मृदु होनेसे चलने में कष्टानुभव होनेके भयसे मणिमयी भूमिमें पर्वतोत्पन्न मालत्यादि सुरमित पुष्प-समूहोंको बिछाकर उसे मृदुतम बनाना' अर्थ होता है, किन्तु इस क्रममें अर्धक्रम ठीक नहीं प्रतीत होता, इससे 'पाठक्रमादर्थक्रमो बलीयान्। ( पाठक्रमसे अर्थक्रम अधिक बलवान् होता है ) इस न्यायसे पहले कर्पूर-बालुकाजलसे धोकर गोमयादिस्थानीय कुङ्कुमकरतूरीपकसे लीपना और सबके अन्तमें कुसुम-समूहको बिछाना अर्थक्रम मानना सुन्दर है। अथवा- 'बालुकांशुभिः' पाठमें तो क्रम-परिवर्तन किये बिना ही पहले कुङ्कुम-करतूरी-पडसे लीपकर पिच्छिलता दूर करने के लिए कर्पूर-बालुकाओंसे उसे सुखाना और पुष्प-समूह बिछाकर मृदुतम करना' अर्थ होता है, इसी कारण 'प्रकाश' कारने इस पाटकी व्याख्या करके 'अत्र शाब्दोऽपि क्रमो घटते' अर्थात् 'इस पाटमें शाब्दिक क्रम भी संघटित होता है। ऐसा कहा है ] // 7 // नैषधाङ्गपरिमर्दमेदुरामोदमार्दवमनोज्ञवर्णया / यद्भुवः कचन सूनशय्ययाऽभाजि भालतिलकप्रगल्भता / / 8 / / नैषधेति / नैषधस्य नलस्य, अङ्गपरिमर्दन शरीरमर्दनेन, अङ्गलोठनेनेत्यर्थः / मेदुरः सान्द्रः, आमोदः गधा, मार्दवं मृदुत्वम् , मनोज्ञः मनोरमः, वर्णश्व शौभ्रयच्चेत्यर्थः / यस्याः तादृश्या, सूनशय्यया कुसुमशयनेन, यस्य सोधस्य, भुवः प्रदेशवि. 1. 'यत्र' इति पाठान्तरम् / 2. यान्ति भालातलकप्रगल्मताम् इति पाठान्तरमा
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1153 शेषाः, ववचन वुचित् , नलस्य शयन स्थाने इति यावत् , भालतिलकस्य ललाटदेशे तिरवधारणस्य, प्रगल्भता स्पर्धा, शोभेति यावत् / अभाजि प्राता इति निद. शनालङ्कारः॥८॥ नलके शरीरस्पर्श (शयनकालमें शरीरके परिमर्दन) से अत्यधिक गन्ध, कोमलता, मनोज्ञता और अम्लान वर्णवाली पुष्पशय्याने कहींपर ( नलशयनस्थानमें ) जिस (प्रासाद ) की भूमिके ललाटतिलक की प्रगल्भता ( अत्यधिक समानता ) को प्राप्त किया। [ स्वयंवर में बरुणके दिये हुए 'अम्लानिरामोदभरश्च (14 / 85 ) के अनुसार नल के शरीरस्पर्शसे उनकी शय्याके पुष्पों में उक्त गुण आजानेसे उस पुष्पशय्याने उस प्रासाद भूमिके ललाटरथ तिलव की शोभाको प्राप्त किया। पाठा०-उक्त गुणवाली पुष्पवय्याके द्वारा जिस प्रासादकी भूमि ललाटस्थ तिलककी शोभाको प्राप्त होती है ] // 8 // कापि यन्निकटनिष्कुटरफुटरकोरकप्रकरसौरभोमिभिः / सान्द्रमध्रियत भीमन्दिनीनासिकापुटवुटीकुटुम्बिता // 9 // क्वापीति / क्वापि क्वचित् प्रदेशे, यस्य सोधस्य, निकटे समीपस्थे, निष्कुटे गृहारामे, स्फुटतां विकशताम् , कोरकप्रकरा कलि कानिवहानाम , सौरभोमिभिः परिमलपरम्पराभिः, सान्द्रं निरन्तरम् , भीमनन्दिनी भेमी, तस्याः नासिकापुटयोः नासामध्रयोः, कुटीवुटुम्बिता गाहस्थ्यम् , निस्यस्थायित्वमित्यर्थः / अधियत धारि, नन्दनविहारसुखम् अनुभूयते तया इति भावः // 9 // किसी स्थानपर जिस (प्रासाद ) के समीपमें गृहोद्यान के विकसित होते हुए कलिका. समूहके सुगन्धसमुदायसे सम्यक् प्रकार से दमयन्तीके नासिकापुटरूपी स्की गृहके कुटुम्बि. त्वको धारण किया ) [ उस प्रासाद के गृहोद्यानमें विकसित होते हुए कोरक-समूहके नानाविधि सौरमको दमयन्तीने अपने नास्किासे सूंघा, उस्की कविने कल्पना की है कि वे सौरभसमूह उस दमयन्ती के नासापुट में इस प्रकार निवास किये, जिस प्रकार एक कुटी (लघुतम घर ) में बहुत बड़ा कुटुम्ब बड़ी सङ्कीर्णतासे निवास करता है। अथवा-वे सौरभ. समूह दमयन्तीके नासापुटरूपी गृहके कुटुम्बी बने अर्थात् दमयन्तीके नासापट में जैसा सौरभ था, वैसा ही उस कलिका-समूहका भी सौरभ होनेसे वह वलिका- सौरभ-समूह स्के नासापुटरूपी गृहका कुटुम्बी बना ( उसकी समानताको प्राप्त किया )] // 9 // रुद्धसवेऋतुवृक्षवाटिकाकीरकृत्तसहकारशीकरैः / यजुषः स्म कुलमुख्यमाशुगो घ्राणवातमुपदाभिरश्चति / / 10 / / रुदेति / आशुगः वायुः, बहिरो वायुरिति भावः / 'आशुगोऽके शरे वायौ' इति यादवः / वुलमुख्यं वंशमध्ये श्रेष्टम् , नरदमयन्त्योः तत्परिजनानाञ्च साधे 1. 'सान्द्रमाद्रियत' इति पाठान्तरम्। 2. 'ऋद्ध-' इति पाठान्तरम् / 3. 'प्राग-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1154 नैषधमहाकाव्यम् / स्थानलाभादिति भावः / यजुषः यत्सौधसेविनः, जनस्य इति शेषः, घ्राणवावं निःश्वासमारुतम् , रुद्धाः अवरुद्धाः, एकत्र सम्भूय स्थिता इत्यर्थः / रुः कर्मणि क्तः। 'ऋद्धा' इति पाठे-ऋद्धाः समृद्धाः, ऋध्यतेः कर्तरि क्तः। सर्वे समस्ताः, ऋतवः वसन्तादयः यस्यां ताहश्याम् , 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः / एकत्रावस्थितषडतुकायामित्यर्थः / वृक्षवाटिकायां गृहसंलानोपवने, कारैः शुभैः, कृत्तानां खण्डितानाम् , सहकाराणां सुरभिचूनवृक्षाणाम् , शोकरैः अम्बुकगैः, जलक गामिश्रितमृदुसोरभैरे. वेत्यर्थः / उपदाभिः उपायनैः, अञ्चति स्म पूजयति स्म // 10 // वायु कुलश्रेष्ठ जिस नल ( या-दमयन्ती ) के निःश्वासको रोकी गयो (पाठा०समृद्धिको प्राप्त हुई ) सम्पूर्ण ऋतुओंवाले गृहोद्यान में शुर्कोद्वारा कुतरे गये आम ( के फल, या-मञ्जरी ) के जलकण ( पराग, या-कलरसके कग ) रूा आहारोंसे पूजा करती थी। [ अथवा पाठा०-वायु समृद्ध समस्त ऋतुओं वाले गृहोद्यानमें शुोंसे कुतरे गये आमरूपी उपदासे जिस (प्रासाद ) पर रहने वाले ( नल, या-दमयन्ती, या दूपरे ) के कुलाद प्राणवायुकी पूजा करती थी / निःश्वास ( या-पाठा०-पागवायु ) को भो वायुस्वरूा होने से एय उस वायु की अपेक्षा नल या-दमयन्तीके निःश्वासके अतिशय सौरभयुक्त (पाठा०प्राणवायु के अतिशय मूल्यवान् ) हानेसे वह (निःश्वास, या-बागवायु) उद्यान वायु के कुलमें श्रेष्ठ है, और कुलमें श्रेष्ठका अनेकविध उपहारसे पूजन करना उचित होनेसे बाह्य वायुद्वारा निःश्वास ( या-प्राणवायु ) का पूजन करना कहा गया है ] // 10 // कुत्रचित् कनकनिर्मिताखिलः क्यापि यो विमलरत्नजः किल / कुत्रचिद्रचितचित्र शालिकः क्यापि चास्थिरविधेन्द्रजालिकः // 11 // कुत्रचिदिति / यः सोधः, कुत्रचित् क्वापि प्रदेशे, कनकनिर्मितं सुवर्गमयम् , अखिल समग्रांशं यस्य सः तादृशः, क्वापि कुत्रचित् प्रदेशे, विमलरटनेभ्यः उज्ज्वल. मणिभ्यः, जातः निर्मितः, भास्वररत्नघटित इत्यर्थः / किल इति प्रसिद्धः / कुत्रचित् कस्मिन्नपि भागे, रविताः निर्मिताः, चित्रशालिकाः आलेख्यगृहाः यस्य तादृशः, बहुचित्रसमन्वितगृहविशिष्टः चित्राङ्कितगृहविशिष्टो वा इत्यर्थः। क्वापि च कस्मि. श्चिद् भागे, अस्थिरविधः क्षणे क्षगे परिवर्तितप्रकारः, कदाचित् तमसः कदाचिदालो. कस्य प्रकाशादिरूपः इत्यर्थः / ऐन्द्रजालिकः इन्द्रजालवान् , प्रतिक्ष गमन्यथाऽन्यथा प्रतीयमानत्वात् आश्चर्यदर्शनः इत्यर्थः / मत्वर्थीयष्ठन् // 11 // ___ जो प्रासाद कहींपर सर्वत्र (ऊपर-नीचे) सुवर्णसे बनाया हुआ था, कहींपर निर्मल ( श्रेष्ट ) रत्नोंसे बनाया गया था, कहोंपर चित्रित पुतलियोंवाला ( या-चित्रोंसे शोभनेवाला) था और कॉपर अस्थिर कान्ति (कभी प्रकाश, कभी अन्धकार अर्थात धूपछाँह कपड़ेके... समान प्रतिक्षण परिवर्तनशील कान्ति ) वाला होनेसे ऐन्द्रजालिक (जादूगर ) के समान ( देखनेमें विस्मयजनक) था // 11 //
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1155 चित्रतत्तदनुकार्यविभ्रमाधायिनैकविधरूपरूपकम् / वोक्ष्य यं बहु धुवन शिरो जरावातको विधिरकल्पि शिल्पिराट् // 12 // चित्रेति / चित्रेषु आलेख्येषु, तेषां तेषाम् अन्यत्र दृष्टानां प्रसिद्धानां वा, अनुका. र्याणाम् अनुकरणयोग्यानां राजर्षिमनुष्यादीनाम् , विभ्रमस्य विलासस्य, आधायोनि उत्पादकानि, नेकविधरूपाणि नानाप्रकारस्वरूपागि, रूपाण्येवेति रूपकाणि प्रतिकृतयः यस्मिन् तादृशम् , यं सौधम् , वोच्य दृष्ट्वा, बहु पुनःपुन:, शिरः मस्तकम् , धुवन् कम्पयन् , शिल्पिराट् कारुश्रेष्ठः, विधिः स्रष्टा, जरया वा केन, वातकी वातरोगी, वेपथुवाताकान्त इत्यर्थः / 'वातातिसाराभ्यां कुक च' इति कुक, चकारात् इनिप्रत्ययश्च / इति अकल्पि अतर्कि, देवादिभिरिति शेषः। सौधशिल्पिनः आश्चर्यशिल्पनैपुण्यं दृष्ट्वा विस्मयवशात् तदा शिल्पिश्रेष्ठेन विधात्रा अपि पुनः पुनः शिरः कम्पितम् इत्यर्थः // 12 // चित्रों में ( या-आश्चर्यकारक ) उन-उन ( अथवा-'चित्रं तन्वन्ति' ऐसा विग्रह करके 'चित्रतत्' अर्थात् आश्चर्यवर्द्धक उन ) अनुकरणीय ( मनुष्य, देवादि) के विलास (याअतिशय भ्रम ) के उत्पादक अनेकरूप ( नानारूप) प्रतिमाओंवाले जिस (प्रासाद ) को देखकर ( देवोंने या-मनुष्यों ने या वहां रहते हुए कलिने) बहुत शिर कँपाते हुए, वार्द्धक्यरूप वातरोगी, शिल्पियोंमें श्रेष्ठतम ब्रह्म (या-विश्वकर्मा) की कल्पना की। [अनेकविध अनेक अनेकरणीय चित्रादियुक्त प्रासादको देखकर देवों या-दर्शकों ने कल्पना की कि-से वृद्धत्वरूपी वातरोगयुक्त शिलिश्रेष्ठ ब्रह्मा ( या-विश्वकर्मा) ने बनाया है ] // 12 // भित्तिगभगृहगोपितैजनैर्यः कृताद्भुतकथादिकौतुकः / सूत्रयन्त्रजविशिष्टचेष्टयाऽऽश्चयसञ्जिबहुशालभञ्जिकः // 13 // ___ भित्तीति / यः सौधः, भित्तिगर्भेषु कुड्याभ्यन्तरेषु, ये गृहाः कक्षाः, तेषु गोपितैः गुप्तभावेनावस्थितैः, जनैः लोकः, कृतं विहितम् , अद्भुत कथादिकौतुकं विस्मयजन. कभाषणादिकुतूहलं येन सः तादृशः, स्वयमेव सौधः कथतीति भ्रान्तिकरः इत्यर्थः / 'कौतूहलं कौतुकञ्च कुतुकञ्च कुतूहलम्' इत्यमरः। किञ्च, सूत्राणां यन्त्रेग तन्तुनिर्मितयन्त्रविशेषेण, जाता उत्पादिता, या विशिष्टचेष्टा हसितनिमेषोन्मेषादिरूपासाधा. रणक्रियाविशेषा तया, आश्चर्य विस्मयम, सञ्जयन्ति उत्पादयन्तीति तत्सर्जिन्यः, बह्वयः अनेकाः, शालभञ्जिकाः दारुपुत्रिकाः यत्र सः तादृशः // 13 // . जो (प्रासाद ) दीवालों के भीतर बने गृहोंमें छिपाये गये लोगोंसे आश्चर्यजनक कथाकौतुक करनेवाला था और तारोंके यन्त्रजन्य विविध चेष्टा (आलिङ्गन, चुम्बनादि कार्यों) से आश्चर्यजनक बहुत पुतलियों ( काष्ठादिरचित मूर्तियों). वाला था। [जिस प्रासादकी दीवालोके भीतर बनाये गये तथा गृहोंमें छिपे मनुष्य वार्तादि करते थे तो मालूम पड़ता 1. '-धाय्यनेक-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1956 नैषधमहाकाव्यम् / था कि ये दीवाने ही परस्पर व थादि कर रही है तथा तारों के द्वारा सञ्चालित पुतलियाँ अनेक प्रकारकी चेष्टाएँ करके आश्चयित करती थीं, ऐसा वह गृहोद्यान था ] // 13 // तामसीष्वपि तमीषु भित्तिगै रत्नरश्मिभिरमन्दचन्द्रिकः / यस्तपेऽपि जलयन्त्रपातुकासारदूरधुततापतन्द्रिकः / / 14 / / तामसीरिवति / यः सौधः, तामसीषु तमस्विनीषु अपि, ज्योत्स्नादिभ्य उपस. यानम' इति मत्वर्थीयोःण-प्रत्ययः / तमीषु रात्रिए, भित्तिर्गः कुडयगतः, रत्नर. श्मिभिः मणिप्रभाभिः, अमन्दा प्रभूता, चन्द्रिका ज्योत्स्ना यस्य तादृशः, तथा तपेऽपि ग्रीमेऽपि, जलयात्रेभ्यः जलोत्सारक यन्त्रविशेषेश्यः, कृत्रिमप्रस्रवणेभ्यः इत्यर्थः / पातुकैः पतनशीलैः, भासा धारासम्पातः, दूरम अतिशयेन, धुता निरा.. कृता, तापतन्द्रिका ग्रीमजनितमोहप्रायावस्था यस्य सः तादृशः // 14 // जो ( प्रासाद ) अन्धकार युक्त रात्रियों में भी दीवालों में जड़े गये रत्नोंकी किरणोंसे तीव्र चाँदनी ( प्रकाश ) से युक्त था और ग्रीष्मकाल में भी फौव्वारोंसे गिरती हुई जलधारावृष्टि से दूरसे ही सन्तापकी तन्द्रा ( अवस्था ) को नष्ट कर देता था // 14 // यत्र पुष्पशरशास्त्रकारिका शारिकाऽध्युषितनागदन्तिका / भीमजानिषधसार्वभौमयोः प्रत्यवैक्षत रते कृताकृते / / 15 / / यत्रेति / यत्र सौधे, पुष्पशरशास्त्रस्य वात्स्यायनादिप्रणीतकामतन्त्रस्य, कारिका. की, प्रायश एव लोकमुखे श्रवणात् तत्पुनरुक्तिकारिणीत्यर्थः / तथा अन्युषिताः अधिष्ठिता, नागदन्तिका भित्तिनिर्गतदारुविशेषः यया तादृशी 'नागदन्ती द्विपरदे गृहानिर्गतदारुणि' इति मेदिनी। शारिका शारीतिख्यातः पक्षिविशेषः / 'शारिका शारी' इति यादवः / भीमजानिषधसार्वभौमयोः भैमीनल्योः, रते सुरते, कृताकृते विहिताविहिते, कामशास्त्रानुसारेण सुरतमनुष्टितं न वा इत्यादिरूपे इत्यर्थः / प्रत्यवै. सत निपुणभावेनापश्यत् / इदं कृतम् इदं न कृतम् इति अनुसन्दधे इत्यर्थः // 5 // जिस (प्रासाद ) पर कामशास्त्रको करनेवाली (पक्षा०-वात्स्यायनकृत कामशास्त्रके श्लोकरूपिणी ) तथा दीवालों की खुटियोपर (या-पिजड़ों में ) बैठी हुई सारिका पक्षी दमयन्ती और निषधेश्वर नलके किये गये तथा नहीं किये गये रत ( अथवा-विये गये तथा नहीं किये गये रसविषयक कार्य) को देखती थी। [शास्त्रमें इलोक रूपमें कारिका होती है, यथा-साङ्खयकारिका, कारिकावली आदि / तथा-यशमें यशीय शास्त्रोक्त कार्यके न्यूनाधिक्यको देखनेवाला ब्रह्मा होता है, वैसे वह सारिका ( मैना) पक्षी थी। दमयन्ती तथा नसके रतका वह सारिका अनुकरण करती थी ] / / 15 / / यत्र मत्तकलविङ्कशारिकाश्लेष्यकेलिपुनरुक्तिवत्तयोः / कापि दृष्टिभिरवापि वापिकोत्तंसहसमिथुनस्मरोत्सवः / / 16 / / 1. 'शीलिताश्लील-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1157 : अष्टादशः सर्गः। यन्त्रेति / यत्र सौधे, क्वापि कुत्रचित प्रदेशे, तयोः भैमीनलयोः, दृष्टिभिः दर्शनैः वापिकोत्तंसानां दीपिकालङ्काराणाम् , हंसमिथुनानां हसद्वन्द्वानाम् , स्मरोत्सवः सुरत केलिः, मत्तानां हृष्टानाम् , कलविङ्कानां चटकानाम् , तथा शारिकाणां पक्षिविशेषाणाञ्च, आश्लेष्यकेलिभिः ग्राम्यक्रीडाभिः, पुनरुक्तिवत् पौनरुक्त्यमिव, अवापिण अबोधि तत्तुल्यम् अदशि इत्यर्थः // 16 // जहांपर मतवाले चटका (गोरैया ) तथा सारिका ( मैना ) पक्षियों ( पाठा०-जहांपर मतवाले चटका पक्षियों ) की अश्लील क्रीडाओंसे ( या-क्रीडाओंकी) पुनरुक्तिसे युक्तः (या- के समान ) वापीके भूषणरूप हंसोंकी जोड़ीके कामोत्सवको उन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) ने कहींपर देखा / [ उन्होंने पहले चटका तथा मैनाको तदनन्तर वापीभूषण हंसमिथुनकी आलिङ्गनादिहीन मैथुन क्रीडाको देखा ] // 16 // यत्र वैणरववैणवस्वरैहूकृतैरुपवनीपिकालिनाम् / कङ्कणालिकल हैश्च नृत्यतां गोपितं सुरतकूजितं तयोः // 17 // / यत्रेति / यत्र सौधे, वैणैः वीणासम्बन्धिभिः, रवैः शब्दैः, वैण्वैः वेणुसम्बन्धिभिर स्वरैः ध्वनिभिः, तथा उपवन्याम आरामे, पिकानां कोकिलानाम् , अलिनां भृङ्गाणाञ्च, हुड्तैः हङ्कारः, तथा नृत्यतां नर्तकीजनानाम् , कङ्कणालिकल हैः करभूषणा. वलीकलकलें श्च, तयोः दम्पत्योः, सुरतकूजितं शृङ्गारकालिकणितादिशब्दः, गोपितं तिरस्कृतम् / अतो न विनम्भविघातः इति भावः॥ 17 // जहांपर वीणाकी झङ्कार, बांसोंकी ध्वनि और उपवनमें रहनेवाले कोयलों तथा भ्रमरोंके हुङ्कार-गुञ्जनौसे, एवं नृत्य करनेवालों ( स्त्री-पुरुषों ) के कङ्कण-कलह ( क्रीडा कलहमें उत्पन्न कङ्कण समूहके झनकारों) से उन दोनों (नल तथा दमयन्ती) का सुरतकूजित ( रतिकालिक अव्यक्त कण्ठध्वनि ) छिप ( पाठा०-मन्द पड़) गया अर्थात् उक्त ध्वनियोंसें. इन दोनोंका सुरतकूजित दूसरोंको सुनायी नहीं पड़ा // 17 // (सीत्कृतान्यशृणुतां विशङ्कयोर्यत्प्रतिष्टितरतिस्मरार्चयोः / जालकैरपवरान्तरेऽपि तौं त्याजिनैः कपटकुड्यतां निशि // 1 // ) / सीतानीति / अपवरान्तरे गर्भगृहमध्ये रतिस्मरप्रतिमागृहापेक्षयाऽन्यस्मिन वा गृहे स्थितावपि तो भैमीनलो दिवा गवाक्षेष्वपि भित्तिभ्रमादच्छिद्रगृहनिवास. वादन्यानाकर्णन बुद्या विशडयोः काहितयोः ससम्भ्रमं कूजनादिकुर्वतोः यस्मि सौधे प्रतिष्टितयोः पुरोधसा मन्त्रसामर्थ्याच्चैतन्यमवलम्ब्य प्रतिमायां कृताधिष्टा नयोः रतिस्मरयोय अचे सुवर्णादिरचितप्रतिमे तयोः सीस्कृतानि नखदन्तजपीडानु मावसचकानि सीच्छब्दाभिनेयानि शब्दितानि निशि रात्री कपटकुड्यतामलीक . 1. 'कुडिजतम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'प्रकाश' व्याख्यासहित एवायं श्लोकोऽत्र स्थापितः।
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________________ 1158 नैषधमहाकाव्यम् / भित्तिभ्रमं त्याजितैर्जालकैर्गवाक्षः कृत्वा अशृगताम् / दिने रजतादिभितोनां मगोनां वा भासा छादितानि जालानि भित्तितुल्यानि भवन्ति, रात्रौ तु रजतादिभित्तीनां तादृशप्रकाशाभावात्ताभिरेव कपटकुड्यत्वं त्याजितानि जलरूपेणैव प्रतीयन्ते / ततश्च प्रतिष्ठासामात्सचेतनौ सुरतलोलुपौ रतिस्मरावपि गवाक्षेषु दिवा जातभित्तिभ्रमा बुभावपि कुड्यभ्रमेणाविचार्येच विशङ्को यत्र सुरतं चक्रतुः, जालमार्गेण शब्दसञ्चाराच तत्कूजितानि तौ शुश्रुवतुरिति भावः। पुरोधसो मन्त्रप्रभावश्च सूचितः / तण्डुलचूर्णादिमण्डलिप्तं चित्रमय वस्त्रं कपटकुड्यम् / दिवोष्मप्रवेशभिया गवाक्षेषु चित्रपटा ध्रियन्ते रात्रौ च पवनागमनार्थमपनीयन्ते, तथा च दिनवद्रात्रावपि कुडबा. बुद्धया विशकं मणितानि चक्रतुरिति वा। अपगोत्याच्छादयतीत्यपवरो गृहगर्भ पचाद्यच / 'प्रतिकृतिरर्चा पुंसि-' इत्याचमरः // 1 // गर्भगृहके मध्य ( अथवा-रति-स्मर-प्रतिमा के पार्श्ववर्ती गृह ) में दमयन्ती तथा नलने जड़े हुए रत्नोंकी किरणोंसे (दिनमें मो खिड़कियों को दोवाल समझने के कारण) निःशङ्क ( दूसरा कोई मेरे रति-कूजितको इस निश्छिद्र घरमें-से नहीं सुन सकता इस प्रकार शङ्कारहित ), जिस (प्रासाद ) में प्रतिष्ठित (नल-पुरोहित के द्वारा प्राणप्रतिष्ठाप्राप्त ) रति तथा कामदेवकी ( स्वर्णादिरचित ) मूर्तियों के 'सीत्कृतों' (रतिकालिक दन्त तथा नखादिके क्षतसे उत्पन्न 'सीत् , सीत-' शब्द-विशेषों) को सुना तथा रात्रिमें रजत आदिकी बनी दीवालोंमें वैसा प्रकाश नहीं रहनेसे कपटकुड्यताको छोड़ ( भ्रान्तिजन्य दोवाल ) के भ्रमको दूर करनेवाली खिड़कियोंसे उक्त सीत्कृतों को सुना। अथवा-सूर्यादि-सन्तापके निवारणार्थ खिड़कियोंपर डाले गये चित्रित पर्दोको ही रतिस्मर दोवाल समझकर निःशङ्क हो क्रीडा करते थे और रात्रिमें वायु आने के लिए उन पर्दो को हटा दे नेपर प्रकाश नहीं रहनेसे खिड़कियोंको ही रति-स्मर दीवाल समझकर निश्शत हो कोडा करते थे और उस गृहके पार्ववर्ती गृहमें स्थित नल तथा दमयन्ती उन दोनों ( रति-स्मर) के सीकृतोंको सुनते ते। [प्रतिमाओं में मन्त्रद्वारा प्राणसञ्चार करनेसे नलपुरोहितका प्रभावातिशय सूचित होता है ] // 1 // कृष्णसारमृगशृङ्गभङ्गरा स्वादुरुजवलरसैकसारणिः / नानिशं त्रुटति यत्पुरः पुरा किनरोविकटगीतिझकृतिः / / 18 / / कृष्णेति / यत्पुरः यस्य सौधस्य सम्मुखदेशे, कृष्णसारमृगस्य कालसारख्यहरिजस्य, शृङ्गवत् विषाण इव, भङ्गुरा भगवती, अतिवति यावत् / एकत्र-कण्ठस्व. रस्य कम्पनविशेषेग तथोचारणात् , अन्यत्र-स्वभावादिति भावः / अत एव उबलरसस्य शृङ्गाररसस्य, 'शृङ्गारः शुचिरुज्वलः' इत्यमरः / एका मुख्या, सारणिः कुल्या, स्वल्पनदीत्यर्थः, 'प्रसारण्यां स्वपनद्याञ्च सारगिः' इति मेदिनो। शृङ्गार. 1. '-सारिणी' इति पाठान्तरम् / 2. 'यन्मुखे' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। . . 1156 रसात्मिका इति भावः / स्वादुः मधुरा, किनारीणां किन्नरस्त्रीणाम् , देवगायिकानामित्यर्थः, विकटा विपुला, गीतस्य गानस्य, झकृतिः झङ्काराख्यस्वरः, अनुकारिश. ब्दोऽयम , अनिशं नित्यम् , पुरा अतीते वर्तमाने भाविनि वा इत्यर्थः / न त्रुटति न छिनत्ति, न विविछना इत्यर्थः / 'पुरि लुङचास्मे' इति भूते लट् / अत्र गीतझङकृतेः शृङ्गाररससारणित्वेन रूपकालङ्कारः // 18 // जिस ( प्रासाद ) के सामने (आरोह-अवरोह क्रमके कारण ) कृष्णसार मृगके सींगके समान टेढ़ा, कर्णप्रिय, किन्नरियों के उच्च स्वरवाले गीतके शङ्कार से युक्त शृङ्गार रसका मुख्य प्रवाह सर्वदा नहीं टूटता था, (पक्षा०-जिसके सामने कृष्णसार मृगके सींगके समान टेढ़ी, मधुर ( स्वादिष्ट ), निर्मल जलवाली, किन्नरियों के समान बहुत-सी भ्रमरियोंके तीव्र गुञ्जनके झङ्कारसे युक्त एक नहर सर्वदा नहीं विछिन्न होती थी अर्थात कभी नहीं सूखती थी)। [ मधुर गान करती हुई दमयन्तीसे गान सीखने के लिए आयी हुई किन्नरियाँ जिस प्रासादके द्वारपर सर्वदा गान करती थीं (अत एव ) जिसका द्वार उनकी ध्वनिसे त्रिकालमें परिपूर्ण रहता था। पक्षान्तरका अर्थ स्पष्ट है। आगे 'तुङ्गप्रासादवासात् (21 / 129), श्लोकद्वारा प्रासादके आगे नहरका वर्णन होनेसे यहां पक्षान्तरसे नहर का वर्णन किया गया समझना चाहिये ] // 18 // भित्तिचित्रलिखिताखिलकमा यत्र तस्थुरितिहाससङ्कथाः / पद्मनन्दनसुतारिरंसुताऽमन्दसाहसहसन्मनोभुवः // 16 / / भित्तीति / यत्र सौधे, भित्तिषु कुड्येषु, चित्रलिखिता आलेख्यरूपतया अङ्किताः, अखिलाः सकलाः, क्रमाः अनुक्रमाः, पूर्वापरघटनाविशेषाः इत्यर्थः / यासां तादृश्या, पभनन्दनस्य पनयोनेः ब्रह्मणः, तस्य विष्णुनाभिकमलोत्पन्नत्वादिति भावः। सुतया कन्यया भारत्या, रिरंसुतारन्तुमिच्छुता, सा एव अमन्दं महन् , साहसम् अविमृष्य. कारित्वम् , तेन हसन् स्वप्रयाससाफल्यसन्तोषात् स्मयमानः, मनोभूः कामः यासु तथाभूताः, इतिहाससङ्कथाः पुरावृत्तोतवृत्तान्ताः, तस्थुः विद्यन्ते स्म / यस्य सौधस्य भित्तो कामस्य ब्रह्मणोऽपि पराभवादिप्रभावःचित्रकरेण अङ्कितः अवर्तत इत्यर्थः॥१९॥ जहाँपर दीवालोंके चित्रोंमें लिखित सम्पूर्ण क्रमवाली, ब्रह्माकी पुत्री (सरस्वती ) के साथ रमणेच्छारूप महान् साहससे हँसते हुए कामदेववाली, इतिहासकी विस्तृत कथा थी, ( अथवा-...."रमणेच्छा उत्पन्न करने ) से महासाहसी एवं (वैसा करनेसे अपने पराक्रमसफलता पर ) हँसते (आनन्दित होते) हुए कामदेववाली....... ) / [जिस प्रासादकी दीवालोसे वृद्धतम ब्रह्माकी भी पुत्रीके साथ रमणेच्छाकी कथा क्रमशः चित्रित है, जिसमें ब्रह्माके महासाहस (अविचारित कार्य) पर अपनी सफलतासे हँसता हुआ कामदेव भी 1. ""रसस्मरणीयस्वेन रूपणादुपकाखकार' इति 'जीवातुरिति म० म०. शिवदत्तशर्मामा।
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________________ 1160 नैषधमहांकाव्यम् / चित्रित है ( अथवा-ब्रह्माकी उक्त इच्छा होने पर अपने महामाहसको सफलताले सता टु कामदेव मी चित्रित है ) / ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वतोदेवो के साथ रति करना चाहा था। यह कथा मत्स्यपुराणमें मिलती है ] / / 19 / / : पुष्पकाण्डजयडिण्डिमायितं यत्र गौतमकलत्रगामिनः / पारदारिकविलाससाहसं देवभर्तुरुदति भित्तिषु // 20 // पुष्पेति / यत्र सौधे, भित्तिषु कुडयेषु, पुष्पकाण्डस्य कुसुमेषोः, जयडिण्डिमायितुं विजयवोषकडिण्डिमाख्यवाद्यविशेषवत् आचरितम्। 'उपमानादाचारे'इति क्यजन्तात् कतरिक्तः। गौतमकलत्रगामिनः अहल्यागन्तुः, देवभर्तुः, इन्द्रस्य, परदारान् गच्छतीति पारदारिकः / 'गच्छतो परदारादिभ्यः' इत्युपसङ्ख्यानात् ठक् / तस्य विलासः विजृम्भगम्, तत् एव साहसं हठकारिता, उदटङ्कि उदृङ्कितम्, अङ्कितम् इत्यर्थः। चित्रशिल्पिभिरिति शेषः। ब्रह्मादिकीटपर्यन्तं जगत् कामोन्मत्तमिति ज्ञापनार्थः तथा दम्पत्योः हर्षजननार्थञ्च सर्वमेतत् 'वृत्तान्तं तत्र लिखितम् इति भावः // 20 // : जहां ( जिस प्रासादको सुवर्णादिरचित ) दीवालोंपर .कामदेव-विजयके डिण्डिमके समान, अहल्याके कामुक देवेन्द्रका परस्त्रो-गमनरूप साहस खोदकर लिखा गया है। [ देवराज इन्द्रको भी जिम कामदेवने पराजित कर मुनिपरनोके साथ सम्भोग कराया, उस कामदेव का पूजन तुम दोन ( नल-दमयन्ती) को मनोयोगसे सर्वदा करना चाहिये, यह कामोद्दीपक कथा स्वर्णादिरचित दीवालोंपर खो दी गयो है ] // 20 // / उच्चलत्कलरवालि कैतवाद् वैजयन्तविजयाजिंता जगत् / / यस्य कीर्तिरवदायति स्म सा कार्तिकीतिथिनिशीथिनोस्वसा / / 2 / / उच्चलदिति / कृत्तिकाभिः नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी कार्तिकी। 'नक्षत्रेग युक्तः कालः' इत्यण। सा एवं तिथिः पूर्णिमा, तस्याः निशीथिनो रात्रिः, तस्याः . स्वप्सा भगिनी, तत्सदृशी सुशुभ्रा इत्यर्थः। तथा वैनयन्तस्य इन्द्रप्रासादस्य 'स्यात् प्रासादो वैजयन्तः' इत्यमरः। विजयेन पराभवेण, औन्नत्येन सौन्दर्येण व इति भावः / अर्जिना लब्धेत्यर्थः / यस्य सौधस्य, सा प्रसिद्धा, कीर्तिः यशः, धवलतेति यावत् / 'यशसि धवलता वर्ण्यते हासकीयोः' इत्युक्तेरिति भावः। उच्चलताम् उडडीयमानानाम्, कलरवालीनां पारवातश्रेणीनाम्, कैतवात् व्याजात् , इत्यपह्नवभेदः / जगत् भुवनम्, अवदायति स्म शोधयति स्म, शुभ्रोकरोति स्म इत्यर्थः / सौधोपरि उड्डीयमाना एते तावत् पारावता न भवन्ति, परन्तु एतस्य शरचन्द्रचन्द्रिकातुल्या कीतिरेवेति भावः / देप शोधने इत्यस्य लट् // 3 // कार्किको पूर्णिमाको रात्रिके समान ( अतिशय शुम ) तथा ( उच्चता एवं सौन्दर्यके द्वारा) १.'-कामिनः' इति पाठान्तरम् / 2. -उच्छल-' इति पाठान्तरम् /
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________________ / अष्टादशः सर्गः। 1961 इन्द्रप्रासादके विजयसे प्राप्त हुई जिस (प्रासाद ) को कोर्ति उड़ते हुए कबूतरों के झुण्डके बहानेसे संसारको उज्ज्वल करती थो। [ये कबूतर नहों उड़ते; किन्तु इन्द्रप्रासाद-विजय जन्य इस प्रासादको शुम कोर्ति ऊररको बढ़ रही थी ] // 21 // गोरभानुगुरुगेहिनास्म रोद्भूतभावमितिवृत्तमाश्रिताः | रेजिरे यदाजरेऽभि नोतिभिनाटेका भरतभारतोसुधाः / / 22 // गौरेति / यस्प सौवस्य, अजिरे प्राङ्गगे, गौरभानोः सिताशोः, चन्द्रस्येत्यर्थः / गुरुगहिन्यां बृहस्पतिपत्न्यां तारायाम्, स्मरोद्भूतभाव कामजव्यापारमेव, इतिवृत्तं वर्गनोयविश्यम्, आश्रिताः अवलम्बिताः, तदुर्गनपराः इत्यर्थः / भरतमारतोसुधाः नाट्य शास्त्रस्य सारभूनाः अमृतकल्पाः, नाटिकाः चतुरङ्करूपकविशेषाः, 'चतुरका तु नाटिका' इत्युक्तलक्ष गात्, अभिनीतिभिः अभिनयैः, रेजिरे शुशुभिरे // 22 // चन्द्रमाका गुरुपत्नो (तारा) में कामजन्य (पाठा०-कामविषक मर्यादोलङ्घन भावरूप ) इतिहास का आश्रय किया हुआ नाट्यशास्त्र में अमृतरूप चार अङ्कोंवाला लघु नाटक-विशेष जिस (प्रासाद) प्राङ्गगने अभिनात (प्रदर्शित ) होनेसे शोभते थे / (अथवाचन्द्रमा तथा गुरुपत्नी ( तारा) के कामज मात्र (पाठा०-कामका अमर्यादित) भावरूप इतिहास....") // 22 // पौराणिक कथा-कामरोडित चन्द्रमाने ए5 समय 'तारा' नामको गुरुपत्नी के साथ सम्भोग किया, जिससे 'बुध' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। शम्भुदारुवनसम्भूजिक्रियामाधत्रजवधूविलासयोः / - गुम्फितरुशनसा सुभाषितर्यस्य हाटकविटङ्कमङ्कितम् / / 23 / / / शम्भुदाविति / यस्य सौधस्य, हाटकविटकं हिरण्मयकपोतपालिका, 'हिरण्यं हेम हाट कम्' 'करोतपालिकायान्तु विटङ्क पुनपुंसकम्' इति चामरः। शम्भोः हरस्य, दारूबने देवदारुकानने, सम्भुजिकिरा कोच नोभिः सह सम्भोगण्यापारः, माधवस्य श्रीकृष्णस्य, व्रजवधूविलासः गो गङ्गनाविहारश्च तयोः विषये, उशनसा शुक्राचार्य ग, गुम्फितः विरवितः, सुभाषितैः सूक्तः, शिवगविहारवर्ग रित्यर्थः, अङ्कितं चित्रितम् / तत्र लिखितम् इत्यर्थः // 23 // * जिस (प्रासाद ) को अर्गावित करोतपालो, शिवजोकी (मन्दरकन्दरामें ) दारुवनसे (पार्वती के साथ दिव्य सहस्र वर्ष पर्यन ) सम्भोग क्रियाका तथा श्रीकृष्णजो के व्रजबालाओं के साथ विलास ( राप्त कोडा) का शुका वार्य के द्वारा बनाये गये (इलोकमय) सुमाषितोंसे पूर्ण थी अर्थात जिसके सुवर्गमयो कोतपालियापर शिवक्रोडा तथा कृष्णको रासलीलाके कवि शुका वार्यकृत सुन्दर वर्णन लिखे गये थे // 23 // १.'-स्मरोवृत्त--' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1162 / नैषधमहाकाव्यम् / अह्निभानुभुवि दासदारिकां यच्चरः परिचरन्तमुज्जगौ / कालदेशविषयासहस्मरादुत्सुकं शुकपितामहं शुकः / / 24 / / अह्वीति / यञ्चरः यत्सौधचारी, शुकः कीरः, कालः रात्र्यादिः, देशः निर्जना दः, विषयः उपभोग्याया नार्या अवस्थादिः, तेषाम् असहात् अक्षमात्, योग्यायोग्य. विचारविलम्बासहिष्णोरित्यर्थः / स्मरात् कामातू, कामताडनादित्यर्थः / उत्सुकम् इच्छापूरणयोद्युक्तम् / 'इष्टाथोंयुक्त उत्सुकः' इत्यमरः। अत एव अति दिवेव, न रात्रौ इति भावः / 'भानुभुवि सूर्यतनयायां यमुनायाम, यमुनामध्यस्थद्वीपे इत्यर्थः / न विविक्ते इति भावः / 'कालिन्दी सूर्यतनया यमुना शमनस्वसा' इत्यमरः दासदारिका कैवर्तकन्याम, सत्यवतीमित्यर्थः / न तु कुलीनामिति भावः / 'कैवर्ते दासधीवरौ' इत्यमरः / परिचरन्तं सेवमानम्, रमयन्तमिति यावत् / शुकपितामहं व्यासपितरं पराशरम् 'शुको व्यासुते कीरे' इति विश्वः / उज्जगी गायति स्म / पराशरस्य दासराजकन्यकासमागमं पुराणादी श्रुतं पुनः पुनरुच्चैः पपाठेत्यर्थः // 24 // __जहाँ रहनेवाला शुक (तोता), कामदेव ( जन्य विकार ) में समय, देश तथा विषयको नहीं सहनेवाले ( अत एव ) दिनमें यमुना (के द्वीप ) में धीवरकन्या (योजनगन्धासत्यवती) के साथ सम्भोग करते हुए शुकदेवजीके पितामह (महर्षिन्यासके पिता) का उच्च स्वरसे गान करता (नामोच्चारण करता) था अर्थात् उनके उक्त सम्भोगको कहता था। [यद्यपि शास्त्रमें रात्रिमें, तीर्थस्थानादिसे भिन्न एकान्त स्वगृहादिमें तथा स्वस्त्रीके साथ ही सम्भोग का विधान और दिनमें, तीर्थस्थानमें और परस्त्री-उसमें भी निषाद (शूद्र ) कन्याके साथ सम्भोग करनेका निषेध किया गया है, किन्तु काम-पीडित महर्षि व्यासजीके पिताने काल (दिन ), देश ( तीर्थस्थान-यमुना नदी) और विषय (शूद्रकन्या) होनेका विचार छोड़. कर जो उसके साथ सम्भोग किया था इस बातको महाभारतकी कथा सुननेसे शीघ्र शिक्षा ग्रहण करनेवाला जिस प्रासादपर रहने वाला तोता भी उच्च स्वरसे कह रहा था। लोकमें भी कोई सज्जन बुरे कर्म करनेवाले अपने पितामहकी भी निन्दा करता फिरता है ] // 24 // नीतमेव करलभ्यपारतामप्रतीर्य मुनयस्तपोऽर्णवम् / / अप्सरःकुचघटावलम्बनात् स्थायिनः वचन यत्र चित्रगाः // 25 // नीतमिति / यत्र सौधे, वचन कुत्रचित् प्रदेशे, करलभ्यपारतां पाणिप्राप्यचरमसीमात्वम्, अचिरमेव लप्स्यमानफलस्वमित्यर्थः, नीतमेव प्राप्तमेव, तीर्णप्रायमेवे. स्यर्थः / तपोऽर्णवं तपस्यासागरम्, अप्रतीर्य अनुत्तीर्य, तपस्यातो विरस्येत्यर्थः / अप्सरसां स्वर्वेश्यानां, कुचाः स्तना एव, घटाः कुम्भाः, तेषाम् अवलम्बनात् माश्रयात्, स्थायिनः अवतिष्ठमानाः, विश्रामपरा इत्यर्थः। तरणश्रान्ताः घटादिकम. "चलम्ब्य विश्राम्यन्तीति प्रसिदिः / मुनयः विश्वामित्रादयः, चित्रगाः आलेल्यवर्तिनः, चित्रे अङ्किताः विद्यन्ते स्म इत्यर्थः // 25 //
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1163 जहांपर किसी प्रदेशमें हाथसे (तैरकर ) प्राप्त होने योग्य परतीर अर्थात् अतिशय निकट ( समाप्तप्राय ) फलवाले तपस्यारूपी समुद्रको पार नहीं करके (इन्द्र के द्वारा तपस्यामें विघ्न करने के लिए भेजी हुई मेनका आदि ) अप्सराओं के स्तनरूपी घटों (पक्षा०-घटतल्य स्तनों) को ग्रहणकर ठहरे हुए मुनिलोग चित्रित थे। [ जिस प्रकार समुद्रको कठिन परिश्रमसे पार करता हुआ कोई व्यक्ति समुद्रके हाथसे ही पार करने योग्य अर्थात् अत्यन्त निकटस्थ दूसरे किनारे तक तैरकर नहीं पहुँचता, किन्तु घटादिका आश्रय लेकर वहीं ( दूसरे किनारेके पास ही) विश्राम करने लगता है, उसीप्रकार बहुत दिनोंसे की गयी तपस्यासे शीघ्र ही मिलनेवाले उसके फलको नहीं प्राप्तकर अप्सराओं के घटतुल्य स्तनोकों पकड़े हुए अनेक मुनि चित्रित थे। समाप्तप्राय तपवाले उन महातपस्वियोंका चित्र बनाया गया था, नो अप्सराओंका स्तन ग्रहण कर उनके साथ रमण करते थे] // 25 // ( स्वामिना च वहता च तं मया स स्मरः सुरतवर्णनाजितः। योऽयमीहगिति नृत्यते स्म यत्ककिना मुरजनिस्वनैर्घनैः // 1 // ') स्वामिनेति / यस्य सौधस्य सम्बन्धिना केकिना क्रीडामयुरेणेति हेतोर्घनर्निबिडेर्मुरजस्वनैर्मृदङ्गध्वनिभिः, अथ च तैरेव मेधैर्नृत्यते स्म / इति किम्-योऽयमीइग्ब्रह्मादिवशीकारकारी स महाप्रभावः स्मरः स्वामिना कार्तिकेयेण प्रभुणा च तदी. ययानस्वेन तं वहता पृष्ठेन धारयता मया मयूरेण च सुरतवर्जनाजित इति / चावन्योन्यसमुजये। कुमारस्य नैष्ठिकब्रह्मचारित्वान्मयूराणां च वर्षतुकामभाजां नेत्रोपान्तरन्ध्रमांगेंण निर्गच्छतामश्रमयशुक्रबिन्दूनां मयूरीमुखग्रहणमात्रेण गर्भसम्भूते लिङ्गसङ्कर्षणरूपरतपरित्यागो जयहेतुः। मयूराश्च मेघशब्दभ्रान्त्या मृदङ्गाशब्दैर्नृत्यन्ति // 1 // जिस (प्रासाद ) का मयूर 'स्वामी' ( कार्तिकेय, पक्षा-मेरे प्रभु) ने तथा उनको ढोते हुए मैंने जो यह ऐसा ( ब्रह्मा आदिको भी कामपरवश करनेके कारण सुप्रसिद्ध ) है 'उस 'कामदेवको सुरतत्यागसे जीत लिया है। इस विजयभावनासे मृदङ्गध्वनिरूप मेघ (यामेषके गर्जनतल्य मृदङ्गध्वनि ) से नाचता था। [ कामदेव ब्रह्मा, देवेन्द्र, महातपस्वी व्यास, विश्वामित्र आदिको भी कामपरवश करनेसे महापराक्रमी प्रसिद्ध हो रहा है, उस कामदेवको भी मेरे प्रभु कार्तिकेयने तथा आदरातिशयसे उनका वाहन होकर उनको ढोनेवाले मैंने भी जीत लिया है, क्योंकि हम दोनों रति नहीं करते / यहांपर नैष्ठिक ब्रह्मचारी होनेसे कार्तिकेयको तथा मेघतुल्य मृदङ्ग के शब्दसे नाचते हुए मयूरके नेत्रसे गिरे हुए वीर्यरूप अश्रुबिन्दुको मुखसे ग्रहण करने मात्रसे मयूरीको गर्भवती होनेके कारण योनि-शिश्न-सम्बन्धरूप रतिका त्याग करनेसे मयूरको सुरतका त्याग करनेवाला कामविजेता समझना चाहिये ] // 1 // 1. मया 'प्रकाश' व्याख्यया सहायं श्लोकोऽत्र स्थापितः। 73 नै० उ०
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________________ 1164 नैषधमहाकाव्यम् / यत्र वीक्ष्य नलभीमसम्भवे मुह्यतो रतिरतीशयोरपि | स्पर्द्धयेव जयतोर्जयाय ते कामकामरमणीबभूवतुः / / 26 // यति / यत्र सौधे, नलभीमसम्भवे निषधेश भन्यो, वीच्य दृष्ट्वा. मुह्यतोः मोहं गच्छतोः, रूपदर्शनात् विस्मयविमूढयोरित्यर्थः / अत एव स्पर्द्धया साम्येनेव, तुल्य. ताभिमानेनेवेत्यर्थः / जयतोः अभिभवतोः, रतिरतीशयोः रतिकामयोरपि, जयाय अभिभवाय, ते नलदमयन्स्यो, कामकामरमणीबभूवतुः तज्जयाय स्वमन्ये ततोऽप्युस्कृष्ट कन्दर्पकन्दर्पस्त्रियौ जज्ञाते, ते अतिशय्य स्थिते इत्यर्थः / अभूनतदावेच्विः // 26 // जहाँपर नल तथा दमयन्तो को देख कर ( सुरत के लिए ) मोहित होते हुए ( अथवाब्रनयुक्त होते हुए, अथवा-अपनी अपेक्षा उनका अतिशय शरीरसौन्दर्य होनेसे आश्चर्य के कारण मोहित होते हुए ) और मानो स से जीतते हुए कामदेव तथा रतिको जीतने के लिए वे दोनों (नल तथा दमयन्ती ) कामदेव तथा रति हो गये। [नल तथा दमयन्तोके शरीरसौन्दर्य ( या-उनकी रति ) को देखकर कामदेव तथा रति भी आश्चर्यसे (या-सम्भोग करनेके लिये ) मोहित हो गये और उनको मानो ईयासे जीतने लगे तो वे नल तथा दमयन्तो भो उक्तरूप कामदेव तथा रतिको जोतने के लिए स्वयं भो उनसे उत्कृष्ट कामदेव तथा रति हो गये] // 26 // तत्र सौधसुरभूधरे तयोराविरासुरथ कामकेलयः / ये महाकविमिरप्यवीक्षिताः पांशुलाभिरपि ये न शिक्षिताः // 27 // तत्रेति / तत्र तस्मिन् , सौरभूधो मेहतुल्यप्रासादे, तयोः भैमीनलयोः, काम केलयः अनङ्गक्रीडाः / 'द्रव केलिपरिहासा:क्रीडा खेला च' इत्यमरः / अथ आरम्भे कार्थेन वा, अविरासुः आविर्बभूवुः, विहारस्य प्रथमप्रवृत्तिः कास्यन वा प्रवृत्तिरभूदित्यर्थः / प्रादुराविःशभयोः कृस्वस्तिपरनियमात्तत्राम्प्रत्ययवत् कृभ्वस्तिग्रहण. सामर्थ्यात् नास्ति भूभावः / ये केलयः, महाकविभिः वात्स्यायनशास्त्रज्ञैरपि, अवो. क्षिताः अदृष्टाः, वर्णितुमशक्ता इत्यर्थः। तथा ये पांशुलाभिः कुलटाभिरपि, न शिक्षिताः न अभ्यस्ताः, एतेन वर्णयिष्यमाणकाम केलीनाम साधारणत्वं सूच्यते // 27 // उस प्रासादरूपी सुमेरुपर उन दोनों (नल तथा दमयन्ती) की वे कामक्रोड़ाएं होने लगीं, जिनको महाकवि ( कामशास्त्र के रचयिता वात्स्यायन आदि, या-कालिदास आदि) ने भी नहीं देखा ( बुद्धिगोचर किया ) था, तथा ( अनेक जारों के संसर्ग होने पर ) पुंश्चलो (अनेक रतिपण्डिता व्यभिचारिणी स्त्रियों) ने भी नहों सोखा था। [ 'कवयः किं न पश्यन्ति' (कविलोग क्या नहीं देखते अर्थात् सूक्ष्मसे सूक्ष्म वस्तु भो कवियों की बुद्धिमें स्फुरित होता है) नातिके अनुसार महाकविलोगकी बुद्धि में भी जो कामक्रीडा स्फुरित नहीं हुई थी, तथा अनेक पुरुषों के साथ सम्भोग करनेसे व्यभिचारिणो स्त्रियां अधिक क्रोडाचतुर होती है,
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________________ अष्टादशः सर्गः / 1165 किन्तु जिन कामकीडाओंको उन्होंने भी नहीं सीखा था, अलौकिक उन कामक्रीडाओं को वे ( नल-दमयन्ती ) करने लगे ] // 27 // पौरुषं दधति योषिता नले स्वामिनी श्रिततदीयभावया / यूनि शैशवमतीर्णया कियत्प्रापि भौमसुतया न साध्वसम् / / 28 // पौरुषमिति / पौरुषं पुरुषत्वम् , युवादित्वादण्प्रत्ययः। दधति दधाने, यूनि तरुणे, स्वामिनि पत्यौ, नले नैषधविषये, क्रमात् योषिता स्त्रिया, भीरुस्वभावया इत्यर्थः। शैशवम् अतोर्णया अद्यापि अनुत्तीर्णबाल्यया / कतरिक्तः / श्रितः अवल. म्बितः, तदीयभावः नलाभिप्रायः, तदधीनस्वमिति यावत् / यया तादृश्या, अस्वतत्रया इत्यर्थः। भीमसुतया भैम्या, साध्वसं सङ्गमभयम् , कियत् किञ्चिन्मात्रम् , न प्रापि न अलम्भि, परन्तु महदेव भयं प्रापि इति भावः। तच रसीभवतः स्थायिनः अङ्ग पत्युः अत्यानन्दकरच इति प्रपञ्चितं कुमारसम्भवसञ्जोवन्यां 'भावसाध्वसपरिग्रहात्' इत्यत्र / अत्र भयहेतूनां नलगतपौरुषादीनां त्रयाणां भैमीगतस्त्रीत्वादीनां त्रयाणाञ्च यथासङ्घयं सम्बन्धात् यथासङ्ख्यालङ्कारः // 28 // पुरुषार्थको प्राप्त अर्थात् बलवान् , तरुण तथा स्वामी ( राजा, पक्षा०-पति ) नलके विषयमें (क्रमशः) स्त्री ( होनेसे भीरु ), बाल्यावस्थाका त्याग नहीं की हुई अर्थात् प्रौढत्वको अप्राप्त, उनके भावका आश्रयकी हुई अर्थात् नलाधीन दमयन्तीने कुछ भय नहीं प्राप्त किया ? अर्थात् थोड़ा भय प्राप्त किया ही। [जिस प्रकार बलवान् , युवक और मालिकसे भीरु, बाल्यावस्थायुक्त और दासभावप्राप्त व्यक्ति कुछ भय करता ही है, उसी प्रकार उक्त गुणयुक्त नलसे उक्त गुणवाली दमयन्तीने थोड़ा भय किया अर्थात् 'प्रथम सुरतमें न मालूम क्या होगा ?' इस प्रकार दमयन्तीको अपनी अप्रौढताके कारण थोड़ा भय लगा। प्रथम सुरतमें स्त्रीका मययुक्त होना उचित ही है ] // 28 // दूत्यसङ्गतिगतं यदात्मना प्रागशिश्रवदियं प्रियं गिरः। तं विचिन्त्य विनयव्ययं हिया न स्म वेद करवाणि कीदृशम् / / 26 / / दूत्येति / इयं दमयन्ती, प्राक् स्वयंवरात् पूर्वम् , दूत्ये इन्द्रस्य दूतकर्मणि, सङ्गतिगतं समागमंप्राप्तम् , प्रियं नलम् , आत्मना स्वयम् , गिरः नवसर्गोक्तवा. क्यानि, हृदयनिहितसप्रेमभाषणानीति यावत् , अशिश्रवत् श्रावयति स्म / शृणो. तेौँ चङ्यपधाया हास्वे सन्वद्भावः, 'स्त्रवतिशृणोति-' इत्यादिना विकल्पादभ्यासस्यत्वम् / इति यत् ,तं पूर्वकृतम् , विनयव्ययम् अविनयम् , प्रगल्भतामिति यावत् विचिन्त्य अनुस्मृत्य, हिया लज या, सा भैमो, कीदृशं किम् , करवाणि विदधानि, इति न वेद स्म न बुबुधे। शालीनताऽभावस्मरणात् लजया इतिकर्तव्यताविमूढा अभवदित्यर्थः // 29 // ___ इस ( दमयन्ती) ने ( स्वयंवरसे ) पहले ( इन्द्रादि देवोंके ) दूतकार्यमें मिले हुए प्रिय
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / (नल ) से जो स्वयं ( नवमसोक्त ) वचनोंको कहा था, उस अविनय (प्रगल्भता ) को सोचकर लज्जासे 'मैं क्या करूं ? ऐसा ( वह ) कुछ नहीं जान सकी। [ नलके इन्द्रादिका दूत बनकर अपने महल में आने के बाद दमयन्तीने जो अपने विरहप्रकाशक वचनों को कहा था, उस धृष्टताको सोचकर 'मुझे इस समय क्या करना चाहिये' इस बातको लज्जित वह दमयन्ती नहीं समझ सकी। नवसङ्गममें स्वाभाविक लज्जाने पूर्वोक्त वचनके स्मरण से दम. यन्ती को किंकर्तव्यमूढ बना दिया ] // 29 // यत् तया सदसि नैषधः स्वयं प्राग्वृतः सपदि वीतलजया / तन्निज मनसिकृत्य चापलं सा शशाक न विलोकितुं नलम / / 30 // यदिति / किञ्च, तया भैग्या, प्राक पूर्वम् , स्वयंवरकाले इत्यर्थः / सदसि स्वयंघरसभायाम् , सपदि सहसा, वीतलज्जया विगतत्रपया सत्या, नैषधः नलः, स्वयम् भास्मना, नलककयाजाऽभावेऽपि इति भावः / वृतः पतित्वेन स्वीकृतः, इति यत् तत् स्वयंवरणरूपम् , निजम् आत्मीयम, चापलं धाष्टर्यम् , मनसिकृत्य हृदि निधाय 'मनस्याधान उरसिमनसी' इति समासे क्त्वो ल्यबादेशः। सा भैमी, नलं नैषधम् , विलोकितुं द्रष्टुमपि, न शशाक न चक्षमे // 30 // वीतलज्जा ( लज्जाहीना ) उस (दमयन्ती) ने जो पहले स्वयंवर सभामें नलको स्वयं ( विना किसीकी प्रेरणा किये ही) वरण कर लिया, अपनी उस चपलताको सोचकर वह ( दमयन्ती) नलको देखने में भी समर्थ नहीं हुई। [ उस तीनों लोकोसे आये हुए सहस्रों पुरुषों के सामने मैंने लज्जा छोड़कर नलको बिना किसीकी प्रेरणा किये ही वरण कर लिया, यह स्मरण कर अतिशय लज्जित वह दमयन्ती दलको देख भी नहीं सकी। इन दोनों श्लोकोंसे दमयन्तीकी लज्जाका आधिक्य बतलानेसे उसका उत्तम नायिका होना सूचित होता है ] // 30 // आसने मणिमरीचिमांसले यां दिशं स परिरभ्य तस्थिवान् | तामसूयितवतीव मानिनी न.व्यलोकयदियं मनागपि / / 31 // आसने इति / सः नलः, मणिमरीचिभिः रत्नकिरणैः, मांसले सान्द्रे, समुद्भा. सिते इत्यर्थः / आसने मणिपीठे, यां दिशं ककुभम् , परिरभ्य आश्रित्य इत्यर्थः / तस्थिवान् उपविवेश, यहिगाभिमुख्येनावस्थित इत्यर्थः। मानिनी अभिमानवती, इयं दमयन्ती, तां प्रियपरिरब्धां दिशम् , असूयितवतीव दिशः स्त्रीत्वेन सापल्यात् ईयितवतीव इत्युत्प्रेक्षा, मनाईप ईषदपि, न व्यलोकयत् न अपश्यत् , नलन्तु किमु वक्तव्यमिति भावः // 33 // (अनुरागाधिक्यसे एक बड़े आसनपर बैठे हुए उन दोनोंमेंसे ) नल मणियोंकी किरणोंसे व्याप्त आसनपर (आसनके एक भागमें ) जिस दिशाका आलिङ्गनकर अर्थात् दिशाकी ओर बैठे थे, अपने प्रिय नलद्वारा आलिङ्गित होनेसे उस दिशामें ( सपत्नीमाक
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1167 करके ) असूयायुक्त होती हुई सी मानिनी उस ( दमयन्ती) ने उस (दिशा) को थोड़ा भी नहीं देखा / [ यद्यपि लज्जाके कारण दमयन्तीने उस तरफ नहीं देखा, किन्तु कविने उस दिशारूपिणी नायिकाको उस ( दमयन्ती ) के पति (नल ) द्वारा आलिङ्गित होनेसे दमयन्तीने उस दिशाको अपनी सपत्नी मानकर ईष्या की और स्वयं मानिनी होनेसे उस ( सपत्नीरूपिणी ) दिशाको देखातक नहीं ऐसी उत्प्रेक्षा की है। लोकमें भी सभी स्त्रियां पतिके द्वारा आलिङ्गित स्त्रीको सपत्नी मानकर उसके साथ ईष्यालु होती तथा उसकी ओर देखती तक नहीं, अत एव दमयन्तीका वैसा करना उचित ही है ] // 31 // ह्रोसरिन्निजनिमज्जनोचितं मौलिदूरनमनं दधानया / द्वारि चित्र युवतिश्रिया तया भर्तृहूतिशतमश्रुतीकृतम् // 32 // हीति / हीसरिति लज्जानद्याम् , निजस्य आत्मनः, निमज्जनं निमग्नीभवनम् , तस्य उचितं योग्यम् , लज्जाप्रयुक्तत्वात् मौलिनमनस्येति भावः। मौले मूदुजः, दूरम् अत्यर्थम् नमनं नतिम् , दधान या धारयन्त्या, अत एव द्वारि द्वारदेशे, चित्र युवतेः आलेख्यलिखितायाः तरुण्याः, श्रोरिव श्रोः कान्ति : यस्याः तथाभूतया, तद्वन्निश्चलया इत्यर्थः। तथा भैम्या, भतः नलस्य, हूतिशतं पुनः पुनराह्वानम्। 'हूतिराकारणाह्वानम्' इत्यमरः। अश्रुतीकृतं न श्रवणविषयीकृतम् , श्रुतमपि लज्जया प्रत्युत्तराप्रदानात् अगमनाच्च अश्रतमिव कृतमित्यर्थः / हिया प्रियं न किञ्चित् प्रत्युवाच इति निष्कर्षः। अभूततद्भावे विः // 32 // (निरन्तर प्रवाहित होनेसे ) लज्जारूपी नदी में आने डूबने ( स्नान करने) के योग्य अत्यन्त दूरतक नतमुखी तथा द्वारपर चित्रलिखित युवतिके समान हुई उस दमयन्तीने पति ( नल) के सैकड़ों आह्वानों (प्रिये दमयन्ति ! शीघ्र आओ...' इत्यादि नलकृत बुलाने ) को अनसुनी कर दिया। [जिस प्रकार नदीमें स्नान करनेवाला व्यक्ति डुबकी लगाते समय मुखको नाभितक नोचे कर लेता है, उसी प्रकार लज्जावती दमयन्ती ने मुखको अधिक नीचा कर लिया। तथा नलके बार-बार बुलानेपर भी उस प्रकार उस नलके बातको अनसुनी कर दिया और उनके पास न गयी और न कुछ उत्तर ही दिया जिस प्रकार द्वारपर बनायी गयी स्त्रीकी मूर्ति हो / लज्जावती अत एव नम्रमुखी दमयन्ती नलके बार-बार बुलानेपर भी उनकी बातको अनसुनी कर न तो उनके पास गयी और न उनकी बातोंका उत्तर ही दिया ] // 32 / / वेश्म पत्युरविशन्न साध्व साद् वेशिताऽपि शयनं बभाज न | भाजिताऽपि सविधं न साऽस्वपत् स्वापिताऽपि न च सम्मुखाऽभवत् / / वेश्मेति / सा भैमी, साध्वसात् भयात् , पत्युः भत्त:, वेश्म गृहम् , न अविशत् न प्रविष्टवती, वेशिताऽपि सखीभिः कथञ्चित् गृहान्तः प्रापिताऽपि शयनं तल्पम न बभाज न सिषेवे, शय्यायां न अगच्छदित्यर्थः। भाजिताऽपि सखीभिरनुनयादिना
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________________ 1168 नैषधमहाकाव्यम् / शयनं प्रापिताऽपि, सविधं समीपम् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। न अस्वपत् न अशेत 'स्वापः शयननिद्रयोः' इति मेदिनी। स्वापिताऽपि सखीभिः समीपे शायिताऽपि, सम्मुखा अभिमुखी, न अभवत् न बभूव / एतेन नवोढाया मौग्ध्यात् लज्जाविजितमन्मथस्वमुक्तम् // 33 // ___ वह दमयन्ती भयसे पति ( नल ) के भवन ( विलासगृह ) में नहीं गयी, ( नल या सखियोंसे ) प्रविष्ट करानेपर भी शय्यापर नहीं गयी, ( नल या सखियोंसे ) शय्यापर पहुंचायी गयी भी शयन नहीं किया और ( नल या सखियोंसे ) सुलायी गयी भी सामने मुखकर नहीं शयन किया अर्थात् पीठ फेरकर सोयी। नवोढा स्त्रीकी यह प्रकृति होती है / / ( केवलं न खलु भीमनन्दिनी दूरमत्रपत नैषधं प्रति / भीमजाहदि जितः स्त्रिया हिया मन्मथोऽपि नियतं स लज्जितः।।१।।) केवलमिति / भीमनन्दिनी केवलं नैषधं प्रत्युद्दिश्य दूरं नितरामत्रपत लज्जां प्राप्नोति न, किन्तु भीमजाहृदि वर्तमानया हिया लज्जारूपया स्त्रिया जिनः खलु जित एव सोऽतिप्रसिद्धपराक्रमो हृद्येव वर्तमानो मन्मथोऽपि नियतं बहुकालं लज्जितः। अथ च-मनो मथ्नाति पीडयतीति मन्मथः पृषोदरादिः / एवं विधोऽपि जिता लज्जितः सङ्कचितश्चेति चित्रम्। होवशान्नलविषयोऽतिपीडाकरोऽपि कामो बहुकालं तामभिभवति स्मेति भावः। अन्योऽपि स्त्रिया जितो लज्जते // 1 // केवल भीमनन्दिनी ( दमयन्ती) ही नलसे अत्यन्त लज्जित नहीं हुई, किन्तु दमयन्तीके हृदयमें स्थित लज्जारूपिणी स्त्रीसे जीता गया वह ( अतिशय प्रसिद्ध पराक्रमी) मन्मथ (चित्तको मथित = पीड़ित करनेवाला, कामदेव ) भी निश्चितरूपसे (या-अत्यधिक) लज्जित हो गया / [ स्त्रीरूपी लज्जासे पराजित प्रसिद्ध पराक्रमी कामदेवका लज्जित होना उचित आत्मनाऽपि हरदारसुन्दरी यत् किमप्यभिललाष चेष्टितुम् / स्वामिना यदि तदर्थमथिता मुद्रितस्तदनया तदुद्यमः / / 34 / / आत्मनेति / हरदाराः पार्वती इव, सुन्दरी सुरूपा, सा भैमीति शेषः / आत्मना स्वयमपि, यत् किमपि चेष्टितुं यत् किञ्चन कटाक्षवीक्षणादि कतम् , अभिललाष स्पृहयामास, किन्तु स्वामिना पत्या, तदर्थ तन्निमित्तम् , अर्थिता यदि प्राथिता चेत् / तत् तदैव, अनया भैग्या, तदुद्यमः तस्य नलस्य, उद्यमः चेष्टा, स्वकीयकटाक्षवीक्षणादिचेष्टा वा, मुद्रितः प्रतिबद्धः, निरुद्धीकृतः इत्यर्थः / स्वयं चिकीर्षितमपि लज्जावशात् न करोति इति निष्कर्षः // 34 // शिवपत्नी ( पार्वती) के समान सुन्दरी ( दमयन्ती ) ने स्वयं भी जो कुछ चेष्टा ( कटाक्षदर्शन आलिङ्गन, चुम्बन आदि ) करना चाहा, (किन्तु ) पति (नल ) द्वारा उसीके 1. 'प्रकाश' व्याख्यासहित एवायं श्लोकोऽन्त्र स्थापितः /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1166 लिए प्रार्थित उस ( दमयन्ती ) ने उस ( नल ) के उस उद्यम ( कटाक्षदर्शन, आलिङ्गन, चुम्बनादि करने ) को रोक दिया / [ स्वयं चिकीर्षित भी आलिङ्गन आदिको नलके द्वारा करने की चाहना करने पर उन्हें वैसा करनेमे रोक दिया ] // 34 // ह्रीभराद् विमुखग तया भियं सञ्चितामननुरागशङ्किनि / स स्वचेतसि लुलोप संस्मरन दूत्यकालकलितं तदाशयम् // 35 // हीभरादिति / सः नलः, हीभरात् लजातिशयात , विमखया प्रतिकूल या, तया भैम्या, अननुरागशङ्किनि वैमुख्यदर्शनात् अनुरागाभावसन्देहिनि, स्वचेतसि निजमनसि, सञ्चिता पुञ्जीकृताम , भियं विरागसम्भावनाजनितं भयम , दृत्यकाले दूतकर्मसमये, कलितम् अवगतम , तस्याः भैग्याः, आशयं चित्तवृत्तिम् संस्मरन् सञ्चि. न्तयन् , लुलोप विनाशयामास / तदनुरागस्य स्मरणेन भयं नुनोद इत्यर्थः // 35 // ( अपने इन्द्रादिके ) दूतकर्म के समयमें निश्चित दमयन्तीके अभिप्राय ( रव-विषयक दृढतमानुराग) को स्मरण करते हुए उस (नल) ने लज्जाधिक्यसे पराङ्मुखी उस (दमयन्ती) के द्वारा अनुरागका भाव सोचनेवाले अपने चित्र में उत्पन्न हुए भयको दूर कर दिया। [ पहिले तो लज्जासे दमयन्तीको विमुख होती हुई देखकर नलके हृदयमें भय उत्पन्न हुआ कि 'यह मुझसे अनुराग नहीं करती है क्या ? किन्तु इस भयको अपने दूतकालमें देखे गये दमयन्तीके अटल अनुरागको स्मरणकर दूर कर दिया ] // 35 // पार्श्वमागमि निजं सहालिभिस्तेन पूर्वमथ सा तयैकया / क्वापि तामपि नियुज्य मायिना स्वात्ममात्रसचिवाऽवशेषिता // 36 / / पार्श्वमिति / मायिना कपटपटुना, चतुरेणेत्यर्थः / तेन नलेन, सा भैमी, पूर्वम् आदौ, आलिभिः बहीभिः सखीभिः सह, निजं पाश्व स्वसमीपम् , आगमि आगमिता, आनीतेत्यर्थः / गमेय॑न्तात् कमणि लुङ 'मित्त्वात् हस्वत्वम् / अथ अन्यासां सखीनां कार्यव्यपदेशेन प्रस्थापनानन्तरम् , एकया एकमात्रया, तया आल्या सह, अवशेषिता अवशिष्टीकृता / अथ ताम् एकामपि आलिम् , क्वापि ताम्बूलानयनादि. रूपे कस्मिन्नपि कर्मणि, नियुज्य सम्प्रेष्य,स्वात्ममानं केवलं स्वयमेव, सचिवः सहायः, सहचर इत्यर्थः / यस्याः सा तादृशी, चक्रे इति शेषः। विविक्तमकरोदित्यर्थः // 36 // ( भयसे अपने समीप नहीं आती हुई दमयन्तीको पास बुलाने के लिए ) कपट करनेवाले नलने पहले सखियों के साथ उस ( दमयन्ती) को निकट बुलवाया, इसके अनन्तर (व्याजान्तरसे अन्य सखियोंको भेजकर ) एक सखीके साथ उसे अपने पास किया और ( कुछ समय बाद पहलेसे थोड़ा अधिक विश्वास प्राप्त कर लेनेपर ) उस सखीको भी कहीं पर 1. 'चिण्णमुलोदोऽन्यतरस्याम्' इत्यनेन दीर्घ इत्यवधेयम् / अत्र 'विभाषा विष्णमुलोः इति दीर्घविकल्पात्पक्षे हस्व इति वदन् 'प्रकाशः' कारस्तु भ्रान्तस्तेन नुम्विधानाद्दी;विधानाञ्च /
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________________ 1170 नंषधमहाकाव्यम्। (पान, माल्य आदि लाने के लिए ) नियुक्तकर उस दमयन्तीके साथ केवल स्वयं ही रह गये / / 36 // __ सन्निधावपि निजे निवेशितामालिभिः कुसुमशस्त्रशास्त्रवित् / आनयद् व्यवधिमानिव प्रियामङ्कपालिबलयेन सनिधिम् / / 37 // सन्निधाविति / कुसुमशस्त्रशास्त्रवित् कामतन्त्रपारगः नलः, आलिभिः सहच. रीभिः, निजे सन्निधौ स्वसमीपे, निवेशितां स्थापितामपि, प्रियां दमयन्तीम् , व्यव. धिमान् इव असन्निहितः इव, अङ्कपालिः पृष्ठदेशस्पशपूर्वकालिङ्गन विशेषः, तद्रूपेण वलयेन बलयाकारवेष्टनेन, सन्निधिं स्वसमीपम् , आनयत् आनीतवान् / 'आदौ रतं 'बाह्यमेव प्रयोज्यं तत्रापि चालिङ्गनमेव पूर्वम्' 'तथा सामीप्यगां भीरुं नवोढां सबि. धावयत् / विश्वासच्छद्मना गाढालिङ्गनात् त्याजयेद् भयम् / ' इति कामशास्त्रादिति भावः // 37 // सखियों द्वारा अपने ( नलके ) पास में पहुंचायो गयो प्रिया ( दमयन्ती) को स्वयं पृथक बैठे हुए-से कामशास्त्रज्ञ नलने अङ्कमालोमें घेरने ( पीठ के पोछेझे पकड़कर अपने क्रोड़ में करने ) से समीपमें कर लिया। [ यद्यपि सखियोंने नलके पासमें दमयन्तीको पहुंचा दिया था, तथापि अपनेको प्रियासे दूरस्थ-सा मानकर कामशास्त्रज्ञ नलने पीछेसे दमयन्तीको पकड़कर गोदमें या-अत्यन्त पासमें बैठा लिया ] // 37 // प्रागचुम्बदलि के हिया नतां तां क्रमादरनतां कपोलयोः। तेन विश्वसितमानसां झटित्यानने स परिचुम्ब्य सिष्मिये // 38 // प्रागिति / स नलः, हिया लज्जया, नतां नम्रमुखोम् , तां भैमोम् , प्राक् पूर्वम् , अलिके ललाटपट्टके / ललाटमलिक गोधिः' इत्यमरः। अचुम्बत् चुम्बितवान् , अथ क्रमात् क्रमशः, दरनताम् ईषदवनताम् , पूर्वापे क्या किञ्चिदुन्नमितमुखीमित्यर्थः / कपोलयोः गण्डयोः, तामचुम्बदिति पूर्वगान्वयः / तेन पूर्वोक्त रूपमृदुव्यवहारेणेत्यर्थः। विश्वसितमानसां विस्तब्धचित्ताम् , तामिति शेषः / झटिति द्राक, आनने मुखे, परि. चुम्ब्य चुम्बयिस्वा, सिम्मिये स्मितवान् ,अधरचुम्बनहर्षात् ईषत् जहालेत्यर्थः / अनुप्रवेश लाभात् इति भावः // 38 // उस ( नल ) ने लज्जासे अतिशय नीचे मुख की हुई दमयन्तीको पहले ललाटमें, (फिर कुछ विश्वास उत्पन्न हो जानेसे ) कुछ नम्र ( पूर्वापेक्षा कुछ ऊपर ) मुखको हुई उसके दोनों कपोलोंमें और उससे विश्वस्त चित्तवाली उसको झट मुख में चुम्बन करके थोड़ा-सा मुस्कुरा दिया। [ 'अबतक जिस मुखचुम्बनके लिये मुझे लालायित रहनेपर भो तुम पास भी नहीं आती थी, उस मुखका चुम्बन अब मैंने कर लिया' इस आशयसे थोड़ा 1. 'वाह्यमिह' इति 'प्रकाश' कृत् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1171 हँस दिया / अधिक हँसनेपर दमयन्तीको पुनः मयभीत होनेको आशङ्कासे कामशास्त्रज्ञ नलने थोड़ा ही हँसा] // 38 // लज्जया प्रथममेत्य हूकृतः साध्वसेन बलिनाऽथ तर्जितः / किश्चिदुच्छ्वसित एव तद्धृदि न्यग्बभूव पुनरर्भकः स्मरः // 36 // लजयेति / अर्भकः शिशुः, अप्रगल्भावस्थत्वात् तथा रूपणम् / स्मरः कामः, तस्याः दमयन्त्याः , हृदि चेतसि, किञ्चित् ईषत् , उच्छवसितः स्फुरित एव पूर्वोक्तचु. म्बनाद्यपलालनेन किश्चिदुल्लसितः सन् एवेत्यर्थः / प्रथमम् आदौ, लजया हिया, एत्य आगत्य, हूकृतः हङ्कारेण वारितः, अथ तदनन्तरम् , तथाऽप्युल्लसने बलिना ततोऽपि प्रबलेन, साध्वसेन त्रासेन, तर्जितः भर्सितः सन् , पुनः भूयः, न्यग्बभूव सम्चुकोच प्रशशामेत्यर्थः // 39 // उस ( दमयन्ती) के हृदयमें (पूर्वोक्त ( 18137-38) आलिङ्गन-चुम्बनादिव्यापारसे ) थोड़ा बढ़ा हुआ (अत एव ) बालक ( कुछ समय पहले उत्पन्न ) कामदेव आकर पहले लज्जासे डराया गया और बाद में अधिक मयसे तर्जित किया गया अत एव सङ्कुचित हो गया। [नल के आलिङ्गन चुम्बनादि करनेपर आनन्दसे दमयन्तीके हृदयमें थोड़ा काम उत्पन्न हुआ, किन्तु पहले लज्जासे कुछ ( बहुत थोड़ा ) दबा, बाद में अधिक भय होनेसे अधिक दबकर सङ्कुचित हो गया। जिस प्रकार थोड़ी आयुवाला बालक माताके पास आता है तो वह पहले माताके हुङ्कारसे तदनन्तर अधिक तर्जित होनेपर भयसे सङ्कुचित हो जाता है, वही दशा थोड़े समय पहले दमयन्तीके हृदयमें उत्पन्न होने वाले बालरूप कामदेवकी हुई। दमयन्तीन नलकृत आलिङ्गन-चुम्बनादिसे अपने हृदयमें उत्पन्न कामको लज्जा तथा अतिशय वल्लभस्य भुजयोः स्मरोत्सवे दित्सतोः प्रसभमङ्कपालिकाम् / एककाश्चरमरोधि बालया तल्पयन्त्रणनिरन्तरालया / / 40 // वल्लभस्येति / स्मरोत्सवे सुरतारम्भे, प्रसभं बलात् , अङ्कपालिकाम् आलिङ्गनम्। 'सम्परीरम्भ आश्लेषः परिष्वङ्गः प्रगूहनम् / आलिङ्गनमपि क्रोडीकरणन्चाङ्कपास्यपि॥' इति यादवः / दिसतोः दातुमिच्छतोः, आलिङ्गनप्रवृत्तयोरित्यर्थः / ददातेः सनन्ताल्लटः शत्रादेशः, 'सनि मीमा-' इत्यादिना इत्वेऽभ्यासलोपः / वल्लभस्य प्रियस्य, भुजयोः बाह्वोः, एककः एको भुजः, असहाये कन्-प्रत्ययः / तल्पयन्त्रणे शय्यानिरो. धने, शय्याऽऽम्लेषणे इत्यर्थः / निरन्तरालया अव्यवधानया, दृढरूपेण निरन्तराश्लिष्ट तल्पया इत्यर्थः / बालया तरुण्या भैग्या, चिरं दीर्घकालम, अरोधि निरुद्धः, तल्पमाश्लिष्य प्रियस्य एकं करमरुणत् इत्यर्थः / भैम्याः पृष्ठदेशशय्ययोर्मध्ये अन्तरालाभावात् जलः एकं हस्तं तत्र प्रवेश्य दमयन्तीमालिङ्गितुं न समर्थ इति भावः // 40 // कामोत्सवमें बलात्कारसे अङ्कपालिका देने (अकवारमें लेकर आलिङ्गन करने) के
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________________ 1972 नैषधमहाकाव्यम् / इच्छुक प्रियके दोनों भुजाओं में से एक भुजाको शय्यासे अपनी पीठको अत्यधिक दबायी हुई अबला दमयन्तीने बहुत देरतक रोका / [ शय्यापर लेटी हुई दमयन्तीका आलिङ्गन करने के लिए नलने दोनों बाहुओंको (एक नीचे दमयन्तीकी पीठकी ओर तथा दूसरा ऊपर करके ) फैलाया, किन्तु अबला वह दमयन्ती एक साथ दोनों बाहुओं को रोकने में असमर्थ होनेके कारण इशय्यासे अपनी पीठको इतने जोरसे दबाकर सटा दिया कि नलका एक बाहु उसकी पीठके नीचे नहीं घुस सका, अत एव एक हाथसे वे नल उसका आलिङ्गन नही कर सके / अथवा-उक्त प्रकार से तो उस अबला दमयन्तीने प्रियके एक हाथ रोका और दूसरे हाथको अपने दोनों हाथोंसे रोका, इस प्रकार उसने नलको आलिङ्गन करनेसे रोक दिया ] // 40 // हारमाधिमविलोकने मृषा कौतुकं किमपि नाटयन्त्रयम् / कण्ठमूलमदसीयमस्पृशत् पाणिनोपकुचधाविना धवः // 4 // हारेति / धवः पतिः, अयं नलः, हारस्य मुक्तावल्याः, साधिम्नः अतिशयन साधुतायाः, रमणीयताया इत्यर्थः। विलोकने दर्शने, परीक्षार्थमित्यर्थः / किमपि अनिर्दिष्टमित्यर्थः। मृषा मिथ्या, कौतुकं कुतूहलम् , नाटयन् प्रदर्शवन्नित्यर्थः / वस्तुतस्तु पीडनाभिप्रायेणैवेति भावः / उपकुचं कुचसमीपे, धावति द्रुतं गच्छतीति तद्धाविना स्तनसमीपगामिना, पाणिना करेण, अमुष्याः इदम् अदसी दमयन्ती, सम्बन्धि / 'त्यदादीनि च' इति वृद्धसंज्ञायां 'वृद्धाच्छः' इति छप्रत्ययः / कण्ठमलं गलाधोभागम् , उरःस्थलमित्यर्थः / अस्पृशत् स्पृष्टवान् // 41 // हारकी श्रेष्ठता ( पाठा-सुन्दरता ) को देखने में झूठे ही कौतूहलका अभिनय करते हुए पति इस (नल ) ने स्तनों के पासमें दौडते हुए (शीघ्र पहूँचे हुए) हाथसे इस ( दमयन्ती ) के कण्ठमूल ( हृदयोपरिस्थ भाग ) को छू लिया // 41 / / यत् त्वयाऽस्मि सदसि स्रजाऽञ्चितस्तन्मयाऽपि भवदहणाऽर्हति / इत्युदीर्य निजहारमर्पयन्नस्पृशत् स तदुरोजकोरको / / 42 / / यदिति / हे प्रिये ! यत् यस्मात् , त्वया भवत्या, सदसि स्वयंवरसभायाम् , स्रजा वरणमालया, अञ्चितः पजितः, 'अञ्चेः पूजावाम्' इतोडागमः, 'नाम्चेः पूजा. याम्' इत्यनुनासिकलोपप्रतिषेधः / अस्मि भवाभि, अहमिति शेषः / तत् तस्मात् , मयाऽपि भवत्याः तव, अर्हणा पूजा / 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' / अर्हति युज्यते, इति एवम्, उदीर्य उक्त्वा, निजं स्वकम् , हारं कण्ठभूषाम् , अर्पयन् ददत् , गलदेशे सन्निधापयन्नित्यर्थः / सः नलः, तस्याः दमयन्त्याः, उरोजकोरको कुचकुड्: मली, अस्पृशत् स्पृष्टवान् // 42 // 'स्वयंवर सभामें जो तुमने वरणमालासे मेरी पूजा की ( मुझे वरणमाला पहनाकर १.'-चारिम-' इति पाठान्तरम्। 2. 'कृता' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1173 सत्कार किया ), उस कारण मुझे भी तेरी पूजा ( अपना हार पहनाकर तेरा आदर ) करना उचित है' ऐसा कहकर अपने हारको पहनाते हुए उस (नल ) ने उस (दमयन्ती ) के कोरकतुल्य ( छोटे-छोटे) दोनों स्तनोंका स्पर्श किया // 42 // नीविसीम्नि निहितं स निद्रया सुध्रुवो निशि निषिद्धसंविदः ! कम्पितं शयमपासयन्निजंदोलनर्जनितबोधयाऽनया / / 43 // नीवीति / सः नलः, निशि रात्री, निद्रया स्वापेन,निषिद्धसंविदः निवृत्तसंज्ञायाः, सुभ्रवः सुन्दरभ्रशालिन्याः प्रियायाः, नीविसीम्नि कटीवस्त्रप्रन्थिसमीपे, निहितं स्थापितम् , उन्मोचनाय इति भावः। अत एव कम्पितं सत्त्वोदयात् सकम्पम्, निजं स्वीयम् , शयं पाणिम्, दोलनः पाणिकम्पनैः, कम्पनाद्धेतोः दमयन्त्याः गात्रे सहसा संलग्नत्वात् इति भावः / जनितबोधया प्रबुद्धया, अनया भैम्या, प्रयोज्यया / अपासयत् अपासारयत् // 43 // रात्रिमें निद्रासे चेतनाशून्य सुन्दर भ्रवाली (दमयन्ती ) के नीवि (फुफुनी-नाभिके नीचेवाली वस्त्रग्रन्थि ) पर ( उसे खोलनेके लिए) रखे हुए (किन्तु सात्त्विक भावोदयजन्य ) कम्पनसे युक्त अपने हाथको ( पाठा०-हाथको आनन्द प्राप्त करते हुए ) उस नलने हिलनेसे जगी हुई उस दमयन्तीसे हटा ( पाठा०-छुड़ा) लिया // 43 // स प्रियोरुयुगकञ्चकांशुके न्यस्य दृष्टिमथ सिध्मिये नृपः / आववार तदथाम्बराञ्चलैः सा निरावृतिरिव पावृता / / 44 // स इति / सः नृपः नलः, प्रियायाः दमयन्त्याः, ऊरुयुगस्य सक्थिद्वयस्य, कञ्चुके चोलके, आवरके इत्यर्थः / अंशुके सूक्ष्मवस्ने, दृष्टि नेत्रम्, न्यस्य निक्षिप्य, सिध्मिये स्मितवान् , सूक्ष्मवस्त्राभ्यन्तरात ऊरुयुगसौन्दयं दृष्ट्वा आनन्दोदयादिति भावः / अथ दर्शनानन्तरम् , सा दमयन्ती, निरावृतिरिव आवरणरहितेव, साक्षादृष्टोरुयुगा इवेत्यर्थः / अत एव पावृता लज्जामग्ना सती, तदूरुयुगम् , अम्बराञ्चलै वस्त्र. प्रान्तः, आववार आच्छादयामास / आवृतमपि अनावृतमितीव आवृणोदिति त्रपातिशयोक्तिः // 44 // ___ इस ( नीविसे हाथ हटाने ) के बाद उस (नल) ने प्रिया (दमयन्ती) के उरुद्वयको छिपानेवाले वस्त्रमें दृष्टि रखकर अर्थात पहने हुए वस्त्रको देखकर ( अत्यन्त महीन वस्त्र होनेसे दृश्यमान ऊरुद्वयको देखनेसे उत्पन्न आनन्दके कारण, अथवा-अत्यन्त महीन वस्त्र होनेसे मैं आच्छादित भी तुम्हारे रुदयको देख सकता हूँ-इस भावसे) मुस्कुरा दिया। इसके बाद आवरणरहित-सी लज्जित उस (दमयन्ती) ने उस (ऊरुदय, या-ऊरुद्वयावरक वस) को वस्रके अबलों (प्रान्त भागों) से आवृत कर लिया / [ उक्त आशयसे १.'-मपास बन्नयम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1174 नंषधमहाकाव्यम्। जलके मुस्कुराने पर 'मैंने वस्त्र नहीं पहना है' मानो ऐसा समझती हुई अत एव लज्जित उस दमयन्तीने वस्त्रका कई तह करके उनसे उसे ढक लिया ] // 44 // बुद्धिमान व्यधित तां क्रमादयं किञ्चिदित्थमपगीतसाध्व साम् | किन तन्मनसि चित्तजन्मना होरनामि धनुषा समं मनाक् // 45 // अथ शनैौग्ध्यत्यागान्मावस्था प्रापितेत्याह-बुद्धिमानिति / बुद्धिमान् उपा. यज्ञः, अयं नलः, तां प्रियाम्,क्रमात् क्रमशः, इत्थम् उक्तरीत्या,किञ्चित् ईषत्, अपनी. तसाध्वसाम् अपसारितभयाम, व्यधित विहितवान् / किञ्च, चित्तजन्मना कामेनापि, तस्याः भैम्याः, मनसि चेतसि, होः लज्जा, धनुषा समं चापेन सह, मनाक ईषत्, अनामि नामिता, एकत्र-अल्पीकृता, अन्यत्र-न्युजीकृतेत्यर्थः / 'ज्वलह्वल-' इति वातिकात् मित्वाभावपक्षे वृद्धिः / शनैर्लज्जानमनेन कामः स्वयमुस्थितः इति भावः / अत्राहि हीनमन-धनुनमनयोः कार्यकारणयोःपोर्वापर्यविपर्ययेण सहोक्त्यलङ्कारः।।४५॥ ( कामशास्त्रोक्त उपायोंसे कन्याको विश्वासयुक्त करने में चतुर ) नलने उम ( दमयन्तो) को क्रमशः इस प्रकार कुछ निर्भय कर दिया तथा उसके मन में कामदेवने भो (वहीं पर स्थित उसकी ( लज्जाको अपने धनुष के साथ झुका दिया। [ क्रमशः कामवृद्धि होनेपर दमयन्तीकी लज्जा कुछ कम हो गयी ] / / 45 / / लिपिमये इसति तेन न स्म सा प्रीणितापि परिहासभाषणेः।। स्वे हि दर्शयति ते परेण काऽनय॑दन्तकुरुविन्दमालिके / / 46 / / सिमिये इति / सा भैभी, तेन नलेन, परिहासभाषणैः नर्मोक्तिभिः, प्रीणिता हर्षिताऽपि / प्राजौ ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, 'धूजप्रीमोनुंग वक्तव्यः'। सिब्मिये स्मितवती, न तु हसति स्म न जहास, स्मितमात्रमकरोत् न तु हसितवतीति गाम्भीयोक्तिः / हसितं लक्ष्यदशनं स्मितञ्च 'न तथा इति उभयो दः / हि तथाहि, का स्त्री, स्वे आत्मीये, ते अतिसुन्दरे इत्यर्थः। अनाः अतिसुन्दरत्वात् बहुमुल्याः , दन्ताः दशना एव, कुरु विन्दाः पद्मरागाः, ताम्बूलरक्षितत्वादिति भावः / 'कुरुविन्दस्तु मुस्तायां पद्मरागे' इति यादवः / तेषां मालिके मालाद्वयम्, दन्तपक्तिद्वयमित्यर्थः / परेण अन्येन, दर्शयति ? दर्शनविषयीकरोति ? नैव दर्शयतीत्यर्थः / 'अगौ यः कर्ता' इति कर्तृसंज्ञानुवादेन कर्मत्वविधानात् संज्ञापूर्वकविधेनित्यत्वात् परेण इत्यत्र दृशेबुद्धयर्थत्वात् ‘गतिबुद्धि-' इत्यादिना 'प्राप्तकर्मत्वाभावः // 46 / / ___ वह ( दमयन्ती ) उस ( नल ) के द्वारा परिहास वचनों (प्रिय नर्मोक्तियों) से प्रसन्न 1. अत्र म०म० शिवदत्तशर्माणः-'स्थितस्य गत्यन्वेषणमि'दम् / वस्तुतस्तु 'स्वे यदर्शयत' इति पाठसत्वेन 'अभिवादिदृशोरात्मनेपदे वा' इति विकल्पेन कर्मत्वा. भावः / किञ्च संज्ञायां अनूद्यमानतायामेव 'संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः' इत्यङ्गीकारे “ओर्गुणः' इति धार्मिकग्राहकमानविरोधः' इत्याहुः। .
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1175 की गयी भी केवल मुस्कुरायो, हँसी नहीं, क्योंकि कौन ( कुलीन स्त्री) अतिप्रसिद्ध (याअतिसुन्दर ), अपनी अमूल्य दन्तरूपी पारागमणियोंकी माला दूसरेको दिखलाती है ? [ कोई भी कुलीन स्त्री हँसकर पान खानेसे रक्तवर्ण अत एव पद्मराग मणितुल्य दन्तपंक्तियोंकी दूसरे ( पुरुष ) से नहीं दिखलाती, अर्थात पुरुषके सामने ऐसा नहीं हँसती कि सब दाँत दिखलायी पड़ें, अतएव दमयन्तीका वैसा करना भी उत्तम स्त्री होनेका सूचक है / लोकमें भी कोई व्यक्ति अपनी अमूल्य पद्मराग मणियोंकी माला दूसरेको नहीं दिखलाता है] It वीक्ष्य भीमतनयास्तनद्वयं मग्नहारमणिमुद्रयाऽङ्कितम् / सोढकान्तपरिरम्भगाढता सा त्वमानि सुमुखी सखीजनैः // 4 // वीक्ष्येति / सखीजनैः सहचरीभिः, भीमतनयास्तनद्वयं भैम्याः कुचयुगलम् , मग्नानां नलोरसा दृढनिपीडनात् अन्तःप्रविष्टानाम् , हारमणीनां कण्टभूषणस्थितरस्नानाम , मुद्रया चिह्न, मङ्कितं चिहितम् , वीचय दृष्ट्वा, सुमुखी सुवदना, सा भैमी, सोढा क्षान्ता, सोढुं समर्था इत्यर्थः / कान्तस्य प्रियस्य, यः परिरम्भः आलिङ्गनम् , तस्य गाढता दाढयं यया सा तादृशी, इति अमानि अबोधि / गाढपरिरम्भ विना स्तनयोस्तादृशचिह्वासम्भवः इत्यनुमितमित्यर्थः॥४७॥ सखियोंने दमयन्तीके दोनों स्तनोंमें गड़े हुए हारके मणियोंसे चिह्नित देखकर 'सुमुखी (प्रसन्न मुखमुद्रावाली) इस ( दमयन्ती) ने प्रिय (नल ) के गाढालिङ्गनको सहन कर लिया है। ऐसा अनुमान किया / [ 'स्मुखी' पदसे पतिकृत गाढालिङ्गनसे दमयन्तीका प्रसन होना ध्वनित होता है ] // 47 // याचते स्म परिधापिकाः सखोः सा स्वनीविनिबिडक्रियां यथा / अन्वमिन्वत तथा विहस्य ता वृत्तमत्र पतिपाणिचापलम् // 48 // __ याचते इति / सा दमयन्ती, परिधापिकाः वनपरिधापनकारिकाः, सखीः सहचरीः, यथा यादृशभावेन, स्वस्या पात्मनः, नीवेः वस्त्रग्रन्थेः, निबिडक्रियां दृढतासम्पादनम् , याचते रम प्रार्थयामास, तथा तेनैव कृत्वेत्यर्थः। ताः सख्यः, विहस्य मध्यमस्मितं कृत्वा, अन्न नीविदेशे, पत्युः भत्तः, पाणिचापलं करचाञ्चल्यम् , नीवि. ग्रन्थेराकर्षणमित्यर्थः / वृत्तं भूतम् , अन्वमिन्वत इत्यनुमितवत्यः, अन्यथा एतत्प्रा. र्थनाऽनुपपत्तेरिति भावः / मिनोते तङ॥४८॥ ___ उस ( दमयन्ती) ने वस्त्र पहनानेवाली सखियोंसे जो ( पाठा०-जव ) अपनी नीविकी गांठको कसकर बांधने के लिए कहा, तो (पाठा०-तब) उन (सखियों) ने हँसकर 'इस नीवि-देशमें पतिका हाथ चञ्चल हुआ है' अर्थात् 'इसको नलने हठपूर्वक खोलने के लिए हाथ बढ़ाया है। ऐसा अनुमान किया // 48 // 9. 'यदा' इति पाठान्तरम्। 2. 'तदा' इति पाठान्तरम् /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / कुर्वती निचुलितं हिया कियत् सौहृदात् विवृतसौरभ कियत् / . कुडमलोनिमषितसूनसेविनी पद्मिनी जयति सा स्म पद्मिनी / / 46 // कुर्वतोति / पद्मिनी पद्मिनीस्त्रीजातीया, सा भैमी, कियत् किञ्चित् रात्रिवृत्तम् , हिया लज्जया, निचुलितं सखी समीपेऽपि निगूहितम् , कियत् किञ्चिच्च, सुहृदो भावः सौहृदं तस्मात् सौहृदात् सौहार्दात् , प्रणयाधिक्यादित्यर्थः। युवादित्वादग्प्रत्ययः। हृदयस्य 'हृदयस्य हल्ले वयदणलासेषु' इति हृद्भावे बाहूलकान्नोभयपदः बृद्धिः / विवृतं प्रकटितम् , सौरभं मनोज्ञवं सौगन्ध्यञ्च यस्य तत् तादृशम् , कुर्वती विदधती सती, कुडमलानि मुकुलानि, उन्मिषितसूनानि प्रस्फुटितकुसुमानि च, सेवते भजते इति तादृशीम , पद्मनी कमलिनीम् , जयति स्म विजितवती, किय. कलिकाट्या कियद्विकसितकमलाढ्या च कमलिनीव सा बभौ इत्यर्थः / रहस्यगोपने कलिकातुल्यं रहस्यप्रकटने च विकशितपद्मतुल्यमिति भावः // 49 // ( कामशास्त्रोक्त ) पभिनी-जातीया उस ( दमयन्ती) ने लज्जासे ( रात्रिमें पतिके साथ किये गये रति-विषयक ) कुछ ( सम्भोगादि ) को अप्रकाश करतो हुई तथा सौहार्द ( सखि. भाव ) से कुछ ( आलिङ्गनादि कर्म ) को प्रकटित कामशास्त्रोक्त कुशलतावाला ( पक्षासुगन्ध वाला ) करती हुई अर्थात् आलिङ्गनादि कुछ सम्भोग-सुखको सखी होने के कारण उन सखियोंसे बतलाती हुई, कोरक तथा स्वल्पविकसित पुष्पवालो कमलिनोको जीत लिया। जिस प्रकार कमलिनी कोरकावस्थामें अपने गन्धको प्रकटित नहीं करती तथा कुछ विकसित होनेपर उसे प्रकटित करती है, उसी प्रकार दमयन्ती भी लज्जावश पतिके साथ हुए रतिकालिक कुछ (चुम्बनादि ) भावको छिपाती थी और सखी होने के कारण प्रेमवश कुछ ( आलिङ्गनादि ) कर्मको उनसे प्रकट करती ( कहती) थी, इस प्रकार 'पद्मिनी' जातीया दमयन्ती पद्मिनीके तुल्य हुई / / 49 / / . नाविलोक्य नलमासितुं स्मरोहीन वीक्षितुमदान्मृगीदृशः। तदशः पतिदिशाऽचलन्नथ वीडिताः समकुचन्मुहुः पथः / / 50 / / नेति / स्मरः कामः, मृगीदृशः हरिणलोचनायाः भैम्याः सम्बन्धे, नलं नैषधम् , अविलोक्य अदृष्ट्वा, आसितुं स्थातुम् , न अदात् न दत्तवान् , होः लज्जा पुनः, वीक्षितुं द्रष्टुम , न अदात् , अत एष तस्याः दमयन्त्याः , दृशः दृष्टयः, पतिदिशा स्वामिनं प्रतीत्यर्थः / मुहुः पुनः पुनः, अचलन् अगच्छन् / अथ 'अनन्तरमेव, ब्रीडिताः लज्जिता सत्यः, पथः तन्मार्गात , समकुचन् सङ्कुचिताः अभवन् / अतीव कौतुकमिदमित्याशयः // 50 // 1. 'बीक्षितुमदत्त सुभ्रवः' इति पाठान्तरम् / अत्र 'प्रकाश' कारः-'वीच्यते स्म' इति पाठः सुयोजः। यद् यस्माद्विलोकननिमित्त तत्र तत्र वस्तुनि नेत्रे ददत्या स बीयते स्मैव, तस्माल्लक्ष्यतां परोक्षतां च नानायीति वा, इत्याह /
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________________ अष्टादशः सर्गः। - जिस कारण कामदेवने नलको विना देखे दमयन्तीको ठहरनेका स्थान नहीं दिया (कामप्रेरित दमयन्ती नलको बिना देखे नहीं ठहर सकती थी, अत एव सदा नलको देखना चाहती थी ), किन्तु लज्जाने उस ( नल ) को देखने का स्थान नहीं दिया ( किन्तु लज्जावश वह दमयन्ती नलको नहीं देख पाती थी ); उस कारण उस ( दमयन्ती) की दृष्टियां नलकी ओर बढ़ों, ( नलको दमयन्तीने बार-बार देखने के लिए उधर नेत्र फैलाये), इसके बाद लज्जित वे ( दमयन्तोको दृष्टियां ) फिर मार्गले हो सङ्कुचित हो गयी ( कर लौट आयो / अर्थात् नलका सामना होते ही उनको बिना देखे ही दमयन्तीने 'लज्जासे अपने नेत्राको उबरसे फेर लिया ) / [ इससे काम तथा लज्जाका समान बल होनेसे भावसन्धिमें दमयन्तीका रहना सूचित होता है ] // 50 // नानया पतिरनायि नेत्रयोर्लक्ष्यतामपि परोक्षतामपि / वीक्ष्यते स खलु यद्विलोकने तत्र तत्र नयने ददानया // 51 // नेति / अनया भैम्या, पतिः नलः, नेत्रयोः नयनयोः, लचयतां विषयतामपि, न अनायि न नीतः, लज्जावशादिति भावः / तथा परोक्षताम् अविषयतामपि, न राकरणे प्रकारान्तराभावात् कथमेषोक्तिः सङ्गच्छते ? इत्याह-यत् यस्मात् , विलोकने दर्शने निमित्ते, दर्शनार्थमित्यर्थः / तत्र तत्र तेषु तेषु विषयेषु, आदर्शादौ इति भावः / नयने ददानया दत्तदृष्टया तया, स मलः, आदर्शादौ प्रतिबिम्बित इति भावः / वीच्यते स्म अवलोक्यते स्म खलु / अवर्जनीयता वीक्षितः एव प्राय इति भावः // 51 // इस ( दमयन्ती ) ने पति ( नल ) को नेत्रोंका लक्ष्य नहीं किया अर्थात् नलको नहीं देखा और उनको परोक्ष भा नहीं किया अर्थात् अप्रत्यक्ष भो नहीं किया-देखा भो; क्योंकि जिस-जिस ( दर्पण, मणिस्तम्भादि रूप) दर्शन-निमित्तोंमें वह (नल ) दृष्टिगोचर होते थे, उस-उस (दपेण, मणिस्तम्भादिरूप दर्शन-निमित्तक पदार्थों ) को यह (दमयन्ती) देखती थी। [लज्जावश यद्यपि दमयन्तीने नलको सामनेसे नहीं देखा, किन्तु दर्पण तथा मणिस्तम्मों में प्रतिबिम्बित नलको देखा ही / इस कारण उसका नळको प्रत्यक्ष तथा परोक्षदोनों करना असङ्गत चहीं होता ] // 51 // ___ वासरे विरहनिःसहा निशां कान्तयोगसमयं समैहत / - सा हिया निशि पुनर्दिनोदयं वाञ्छति स्म पति केलिलज्जिता // 52 / / वासरे इति / सा भैमी, वासरे दिवसे, विरहस्य विच्छेदस्य, निःसहा सहनास. मर्था सती / पचाद्यच / कान्तयोगसमयं प्रियसमागमकालम् , निशां रात्रिम, समहत ऐच्छत् , निशि पुनः रात्रौ तु, पत्युः भर्तुः, केलिषु अनङ्गकोडासु, लज्जिता 1. 'कान्तसङ्गसमयम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1178 नैषधमहाकाव्यम् / प्राप्तलज्जा सती, हिया सहजलज्जया, दिनोदयं दिवसप्रादुर्भावम्, वान्छति स्म अभिललाष / विचित्रा हि नवोढानां चित्तवृत्तिरिति भावः // 52 // वह ( दमयन्ती ) दिनमें ( नलके) विरहको सहने में असमर्थ होकर पतिके संयोगकाल रात्रिको चाहती थी और रात्रिमें पति ( नल ) की कामकेलिसे लज्जित होती हुई लज्जासे दिनके प्रादुर्भावको चाहती थी / / 52 / / तत् करोमि परमभ्युपैषि यन्मा ह्रियं व्रज भियं परित्यज / आलिवर्ग इव तेऽहमित्यमूं शश्वदाश्वसनमूचिवान् नलः / / 53 / / तदिति / हे प्रिये ! यत् चुम्बनादिषु यत् किञ्चिन्मात्रम् , अभ्युपैषि स्वीकरोषि, अनुमोदसे इत्यर्थः / त्वमिति शेषः / परं केवलम्, तत् तन्मात्रमेव, करोमि सम्पादयामि, अहमिति शेषः / न पुनस्तवानभिप्रेतं किञ्चिदपि करोमीति भावः / अत एव हियं लज्जाम्, मा न, व्रज गच्छ, भियं त्रासञ्च, परित्यज दूरीकुरु, अहं ते तव, आलि. वर्गः सखीजनः इव, विश्रम्भभाजनमिति भावः। नलः नैषधः, अमूं प्रियाम, इति एवम् , शश्वत् मुहुर्मुहुः / 'मुहुः पुनः पुनः शश्वत्' इत्यमरः। आश्वसनं सान्त्वनाव. चनम् , उचिवान् उवाच // 53 // (हे प्रिये दमयन्ति ! ) मैं केवल (आलिङ्गन, चुम्बन आदिमेंसे ) वही करूँगा, जिसे तुम स्वीकार करोगी, लज्जा मत करो, (पुरुषके शरीरस्पर्शसे न मालूम क्या होगा ?, याये मेरी इच्छाके विरुद्ध भी कुछ व्वापार करेंगे इत्यादि शङ्कासे उत्पन्न होनेवाले ) भयको छोड़ो, मैं भी तुम्हारी सखियों के समान ही हूँ। ( पाठा०-इस (आलिङ्गन, चुम्बनादि)के विषयमें मैं तुम्हारी सखी ही हूँ;-इस कारण जैसे सखीके आलिङ्गन-चुम्बनादि करनेपर तुमको लज्जा या भय नहीं होता, उसी प्रकार सखीरूप मुझसे भी लज्जा या भय तुम्हें नहीं करना चाहिये / ' इस प्रकार आश्वासनयुक्त वचनको नल दमयन्तीसे बराबर कहते थे) // 53 // येन तन्मदनवह्निना स्थितं ह्रीमहौषधिनिरुद्धशक्तिना / सिद्धिमडिरुदतेजि तैः पुनः स प्रियप्रियवचोऽभिमन्त्रणः // 54 / / येनेति / येन तन्मदनवह्निना तस्याः दमदन्त्याः , कामाग्निना, हीः * लज्जा एव, महौषधिः अव्यर्थभेषजम्, तया निरुद्धशक्तिना प्रतिवद्धवीर्यण सता, स्थितं तस्थे। भावे क्तः / सः मदनवह्निः, सिद्धिमद्भिः साफल्यजनकशक्तियुक्तः, तैः पूवोक्तैः प्रियस्य पत्युः, प्रियवचोभिः एव सप्रेमभाषणेरेव, अभिमन्त्रणः मन्त्रप्रयोगैः, पुनः भूयः, उद. तेजि उत्तेजितः। तिज निशाने इति धातोय॑न्तात कर्मणि लुङ। औषधप्रतिबद्धोऽग्निः प्रतिमन्त्रेण पुनरुद्दीपितो भवतीति लोके दृश्यते / रूपकालङ्कारः // 54 // ___ लज्जारूप महौषधिसे निरुद्ध शक्तिवाली जो दमयन्तीकी कामाग्नि दबी थी, उसे सिद्धिप्राप्त नलके प्रियवचनरूप मन्त्र के प्रयोगने फिर उत्तेजित कर दिया। [ जिसप्रकार 1. 'इह' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1179 किसी ओषधिके संसर्गसे अग्निका तेज मन्द पड़ जाता है, किन्तु सिद्ध किये हुए मन्त्रों के प्रयोग करनेपर वह पुनः उद्दीप्त होकर जलने लगती है; उसी प्रकार लज्जावश मन्द पड़ी हुई दमयन्तीकी कामाग्निको नलने उक्त प्रियवचनोंसे दूर कर दिया। यहाँ कामदेवको अग्नि, लज्जाको महौषधि तथा प्रियवचनों को सिद्ध मन्त्र समझना चाहिये ] // 54 // .. यद्विधूय दयितार्पित कर दोर्द्वयेन पिदधे कुचौ दृढम् / / पार्श्वगं प्रियमपास्य सा ह्रिया तं हृदि स्थितमिवालिलिङ्ग तत् // 55 / / यदिति / सा भैमी, दयितेन प्रियेण, अर्पितम् उरसि स्थापितम, करं पाणिम्, विधूय अपसार्य, दोद्धयेन निजभुजयुगेन, कुचौ स्तनौ, दृढम् अशिथिलं यथा तथा, यत् पिदधे आच्छादयामास, तत् तेन कुचपिधानेन इत्यर्थः। एवमवगम्यते यदिति शेषः / हिया लज्जया, पार्श्वगं बहिःसमीपस्थम्, प्रियं नलम्, अपास्य निरस्य, हृदि हृदयमध्ये, स्थितं वर्तमानम्, प्रियम्, आलिलिङ्ग इव आलिङ्गिन्तवतीव, इत्युप्रेता। अन्तरालस्थितस्य आलिङ्गने अन्यैर्दर्शनसम्भावनाविरहात् लब्जाऽभावेन हृदयाभ्यः न्तरस्थं नलं दृढरूपेण आलिङ्गितवतीवेति भावः // 55 // जिस कारण उस ( दमयन्ती ) ने पति ( नल ) के द्वारा ( वक्षःस्थलपर ) रखे हुए हाथको हटाकर ( अपने ) दोनों हाथोंसे दोनों स्तनोंको अच्छी तरह ढक लिया, उस कारण पार्श्ववर्ती ( बहिःस्थित ) प्रियको ( बहिःस्थित प्रियको आलिङ्गन करनेपर दूसरा कोई देख लेगा' इस भावनावश उत्पन्न ) लज्जासे दूरकर मानों हृदयमें स्थित प्रिय ( नल ) को आलि. ङ्गन कर लिया। [ आलिङ्गनादिकी प्रार्थना करने पर स्त्रियोंका निषेध करना कामोद्दीपन होता है / अथ च-स्तनमर्दनार्थ तत्पर नलका काम दमयन्तीके द्वारा स्तनोंको छिपानेपर भी दमयन्तीका आलिङ्गन करनेके समान बढ़ गया ] // 55 / / अन्यदस्मि भवतीं न याचिता वारमेकमधरं धयामि ते / इत्यसिस्वददुपांशु काकुवाक् सोपमर्दहठवृत्तिरेव तम् / / 56 // अन्यदिति / हे प्रिये ! भवती त्वाम्, अन्यत् अपरं किमपि, याचिता अर्थयिता। तृन , दुहादित्वात् द्विकर्मता / न अस्मि न भवामि, किन्तु वारमेकम् एकवारमात्रम्, ते तव, अधरं दन्तच्छदम्, धयामि पिबामि / धेट पाने इत्यस्य भविष्यत्सामीप्ये लट / इति इत्थम, उपांशु रहसि, काकुः अनुनयेन विकृतस्वरा, वाक वचनं यस्य तादृशः, नलः इति शेषः / उपमर्दै कुचपीडने, हठेन अनुमतिमनपेक्ष्यैव बलात्कारेण, वृत्तिः प्रवृत्तिः, तया सह इति सः तादृशः सन् एव, तम् अधरम्, असिस्वदत् स्वादिः तवान् , चुचुम्बेत्यर्थः / स्वदेो चड्यपधाया ह्रस्वः॥५६॥ ___ 'और कुछ मैं तुमसे नहीं याचना करूँगा, ( केवल ) एक बार तुम्हारा अधरपान करता हूं' इस प्रकार एकान्तमें (या-प्रार्थनाकी दीनतासे ) काकु ( दीनवचन ) बोलनेवाले नल 1. 'अन्यदास्मि' इति पाठान्तरम्। 2. सोऽयमर्द्धहठ-' इति पाठान्तरम् / 74 नै० उ०
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________________ 1180 नैषधमहाकाव्यम् / गाढ़ालिङ्गनमें हठवृत्ति हो ( बलात् अर्थात् दमयन्तीकी अनुमतिके बिना ही आलिङ्गन कर ) उस ( अधर ) का स्वाद ले लिया अर्थात् अधरचुम्बन कर लिया। [ अथवा-दमयन्तीके द्वारा केवल एक बार अधरपान करनेकी अनुमति प्राप्तकर नलने एक बारसे अधिक अधरपान तथा आलिङ्गन आदि व्यापारको भी बलात्कारसे ( बिना अनुमतिके ) कर लिया। अथवा - एक बार अधरपान करनेके लिए दमयन्तीसे अनुमति पाकर पहले आलिङ्गन, नखक्षत आदिको हठपूर्वक करके अन्तमें अधरपान कर लिया / 'अन्यदा' पाठा०-'फिर दूसरे समयमें अधरपानकी याचना भी नहीं करूंगा', यह अर्थ करना चाहिये / 'सोऽयमर्द्ध-' पाठा०-वे नल कुछ हठयुक्त आलिङ्गनादि व्यापार किये-ऐसा अर्थ करना चाहिये ] // 56 // (पीततावकमुखासवोऽधुना भृत्य एष निजकृत्यमर्हति / तत्करोमि भवदूरुमित्यसौ तत्र सन्न्यधित पाणिपल्लवम् // 1 // ') पीतेति / असौ नल इत्युक्तिव्याजेन तत्रोरौ पाणिपल्लवं मृदुसुखस्पर्शतया पल्लवतुल्यं पाणिं सन्न्यधित स्प्रष्टुं सन्निवेशितवान् / इति किम् ?-हे भेमि !, एष भृत्यो मल्लक्षणो दासः; पीतस्तावकमुखमेवासवो मद्यं येन, अथ च-पीतस्त्वदीयमुखस्य सुरागण्डूषो येन, एवम्भूतः सन्नधुना निजकृत्यं चरणसंवाहनादिरूपं भृत्यसम्बन्धिकार्य कर्तुमर्हस्युचितो भवति / तत्तस्माद् गृहारामपुष्पावचयादिना खिन्नं भबदूरु त्वदीयमूरुं करोमि संवाहयामि। अथ च-सामर्थ्यादूचं करोमीति / अनेकार्थस्वास्करोति संवाहनार्थः / अन्योऽपि भृत्यो भुक्तमुखोच्छिष्टञ्चरणसंवाहनं करोति // 1 // इस तमय तुम्हारे मुखरूपी ( पक्षा०-मुखोच्छिष्ट अर्थात पीनेसे बचे हुए ) मद्यका पान किया हुआ यह ( मल्लक्षण अर्थात् नलरूप ) दार अपना कार्य ( स्वामिनीरूपिणी तुम्हारे चरणों को दबाना ) करने के योग्य है, ( अथ च-सामर्थ्य होनेसे इससे अधिक कार्य करनेके योग्य है ), यह कहकर इस ( नल ) ने वहांपर ( दमयन्वोके ऊरुद्वयपर सुख-स्पर्श होनेसे) पल्लवोपम हाथको रख दिया। [ लोकमें भी कोई दास मालिकके उच्छिष्टका भोजन कर के उसके पैरको दबाकर उसे पीड़ा-रहित करता है ] // 1 // चुम्बनादिषु बभूव नाम किं ? तवृथा भयमिहापि मा कृथाः / आलपन्निति तदीयमादिम स व्यधत्त रसनावलिव्ययम् / / 57 / / चुम्बनेति / हे प्रिये ! चुम्बनादिषु अधरपानादिषु कृतेषु, किं नाम तव किमनिष्टमित्यर्थः / नाम इति प्रश्ने, बभूव ? सञ्जातम् ? न किञ्चिदपीत्यर्थः / तत् तस्मात् , इह करिष्यमाणे अस्मिन् सुरतेऽपि, वृथा मिथ्या, भयं शङ्काम् , मा कृथाः न कुरु, इति 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यासहित एवात्र मया स्थापितः / 2. 'इत्युदीर्य रसनावलिव्ययं निर्ममे मृगदृशोऽययादिमम्' इति 'प्रकाश' कृता व्याख्यातः पाठः।.
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1181 एवम् , आलपन् उदीरयन्नेव, स नलः, तदीयं तस्याः प्रियायाः इदं दमयन्तीसम्ब. न्धिनम् , आदिमम् आद्यम् / 'अग्रादिपश्चाड्डिमच्' इति वार्तिकवचनात् डिमचप्रत्ययः। रसनावलिव्ययंकाञ्चीदाममोचनम् , व्यधत्त चकार / रन्तुमिति भावः॥५७॥ ___(हे प्रिये दमयन्ती!) चुम्बन आदि (आलिङ्गन, स्तनमर्दन आदि ) में क्या ( तुम्हारा कौन-सा अनिष्ट ) हुआ ? अर्थात् कुछ नहीं, अनिष्ट नहीं हुआ, इस कारण इस ( किये जानेवाले सुरत, या-करधनी खोलने, या ऊरुसंवाहन ) में व्यर्थ भयको मत करो' ऐसा कहकर इस नलने ( लज्जादिके कारण अतिशय चपल) मृगनेत्रके तुल्य नेत्रबाली ( दमयन्तीकी) करधनीको पहली बार ( सर्वप्रथम ) खोला। अस्तिवाम्यभरमस्तिकौतुकं साऽस्तिधर्मजलमस्तिवेपथु / अस्तिभीति रतमस्तिवान्छितं प्रापदस्तिसुखमस्तिपीडनम् / / 58 / / अस्तीति / सा भैमी, अस्ति विद्यमानः, वाम्यस्य सर्वेष्वेव व्यापारेषु प्रतिकूल. तायाः, भरः आतिशय्यं यस्मिन् तत् तादृशम्, 'अस्ति' इति विभक्तिप्रतिरूपकं विद्यमानार्थकमव्ययम् , ''अस्तिक्षीराक्षीरादयश्च' इति वचनात् बहुव्रीहिः / एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् / अस्ति विद्यमानं, कौतुकम् औत्सुक्यं यस्मिन् तत् तादृशम्, अस्ति धर्मजलं स्वेदवारि, श्रमजनितमिति भावः। यस्मिन् तत् तादृशम् , अस्ति वेपथुः कम्पः, शब्दोऽयं सात्विकमात्रोपलक्षणम् , यस्मिन् तत् तादृशम्, अस्ति भीतिः भयं यस्मिन् तत् तादृशम् , अस्ति वान्छितम् ईप्सितं यस्मिन् तत् तादृशम्, अस्ति सुखम् मान. न्दानुभवो यस्मिन् तत् तादृशम् , अस्ति पीडनं नखदन्तक्षतादिव्यथा यस्मिन् तन् तादृशम् , रतम् एवम्भूतं सुरतसम्भोगम, प्रापत् अलम्भिष्ट / नलादिति शेषः // 5 // ___ उस ( दमयन्ती) ने (पहले ) अतिशय प्रतिकूलतायुक्त ( अनन्तर सुरतारम्भकालमें पूर्वानुभूत नहीं होनेसे ) कौतूहलयुक्त (तदनन्तर सात्त्विक भाव उत्पन्न होनेसे परिश्रमजन्य ) स्वेदयुक्त तथा कम्पयुक्त ( तदनन्तर सुरतके आरम्भ हो जानेपर पूर्वजात भय दूर होनेपर भी आगे क्या होगा ? एवंभूत ) भययुक्त ( सुखकारण होनेसे ) अभिलाषायुक्त, (समरस सुरतके होनेसे ) सुखयुक्त और ( उससे भो अतिशय गाढालिङ्गनादि होनेसे ) पीडायुक्त सम्भोगको प्राप्त किया। (दमयन्तीने सर्वप्रथम उक्तरूप मैथुन किया)॥५८ // हीस्तवेयमुचितैव यन्नवस्तावके मनसि मत्समागमः। तत्तु नित्रपमजस्रसङ्गमात बीडमावहति मामकं मनः // 59 / / हीरिति / हे प्रिये ! यत् यस्मात् , तावके त्वदीये, मनसि चेत्तसि, मत्समागमः मम सङ्गतिः, नवः साम्प्रतिकः, इति सोलुण्ठोक्तिः , तत् तस्मात् , तव ते, इयम् 1. 'अस्तिक्षीरादयश्च' इत्येवोचितम् / सिद्धान्तकौमुद्यान्तु 'अनेकमन्यपदार्थे' इति सूवस्योदाहरणे 'अस्ति' इति विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययम् / 'अस्तिक्षीरा गौः' इत्युक्तं भट्टोनिदीक्षितेन।
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________________ 1982 नैषधमहाकाव्यम् / एषा, ही लज्जा, उचिता अनुरूपा एव / तु किन्तु, अजनसङ्गमात् एतावन्तं कालं सदैव मनसा नित्यसमागमात् हेतोः, निस्पं निर्लज्जम्, मामकं मदीयम् , मनोऽपि वीडं लज्जाम, आवहति प्राप्नोति। त्वया सह बहिरभिनवसमागमादिति भावः॥५९॥ (हे प्रिये ! ) जिस कारण तुम्हारे मनमें मेरे साथ यह नया ( पहला ) समागम है, अत एव तुम्हें ( अथवा-जिस कारण मेरे साथ यह नया समागम है, अत एव तुम्हारे मनमें ) यह लज्जा होना उचित ही है / किन्तु ( विवाह से पहले भी स्वप्नादिमें ) निरन्तर सङ्गम होनेसे निर्लज्ज मेरा मन भी ( अथवा-... 'मन ) जो लज्जित होता है, यह उचित नहीं है, क्योंकि तुम्हारे साथ यह वाह्य समागम हो पहला है, आभ्यन्तरिक तुम्हारा समागम तो सदास्वप्नादिमें होता ही था ) // 59 / / इत्युपालभत सम्भुजिक्रियारम्भविघ्नघनलज्जितैर्जिताम् | तां तथा स चतुरो न सा यथा ऋतुमेव तमनु त्रपामयात् / / 60 / / इतीति / सम्भुजिक्रियारम्भस्य सम्भोगव्यापारोपक्रमस्य, विघ्नैः प्रतिबन्धकीभूतैः, घनलज्जितैः प्रगाढलज्जाभिः जिताम् अभिभूताम् , तां प्रियाम, चतुरः परिहासनिपुणः, स नलः, तथा तादृशरूपेग, उपालभत अभ्ययुक्त, यथा येन कृत्वा, सा प्रिया, तम् अनु नलं प्रति, त्रप्तुमेव लज्जितुमेव / ऊदित्वात् विकल्पादिडभावः / त्र लज्जाम्, अयात् अगच्छत, प्राप्तवतीत्यर्थः / पुनरपि उपालम्भजनितलज्जाभयात् त्रपां जही इति भावः // 60 // इस प्रकार चतुर नलने सम्भोग कार्यके आरम्भमें प्रतिबन्धक अतिशय लज्जा ( याअतिशय लज्जाजन्य शरीरादि सङ्कोच ) से देवी हुई उस (प्रिया दमयन्ती ) की वैसा उपालम्म दिया, जिससे उस ( दमयन्ती ) ने उस (नल ) के प्रति लज्जा करनेसे ही लज्जित हुई अर्थात् लज्जाको छोड़ दिया। [नलोक्त उक्त ( 1859 ) उपालम्भको सुनकर दमयन्तीने सोचा कि मेरे लज्जित होनेसे इनके मन में अन्यथा भाव उत्पन्न होते हैं, अत एवं वह लज्जा छोड़कर सम्भोग करने लगी ] // 60 // (बाहुवक्त्रजघनस्तनाघितद्वन्धगन्धरतसङ्गतानतीः / इच्छरुत्सुकजने दिने स्मिते वीक्षितेति समकेति तेन सा / / 1 / / ) बाह्विति / तेन दीक्षिता सा भैमी इति पूर्वोक्तप्रकारेण समकेति सक्केतिता। इति किम् ?-हे भैमि ! उत्सुकाः स्वस्वकार्यसाधनोत्साहवन्तो.जना यत्र रात्रिवृत्ता. कर्णनाद्यर्थमुत्सुकः सखीजनो यत्रैवंविधो वा दिने दिवसेऽपि ते सम्बन्धिनीः बाहू च वक्त्रश्च जघनञ्च स्तनौ चाख़ी च तस्य बाहादेः कामशास्त्रप्रसिद्धा ये बन्धा नागपाशादीनि करणानि तेषां गन्धो लेशो विद्यते यत्र तादृशं रतं तेन सङ्गता मिलिताश्च ता आनतयश्च नितरां नम्रत्वानि कौशलातिशयनिर्मितानवयवनम्रीभावान् / 1. श्लोकोऽयं मया 'प्रकाश' व्याख्यया सहैवान स्थापितः।
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1183 सङ्गता इति पृथग्वा / नतीरिच्छुरभिलाषुकोऽस्मीति / स्मित इति भैमीसम्बोधन वा रात्रिकृतबन्धरतप्रत्यभिज्ञानं यथा भवति वीक्षणमात्रेणेङ्गितं कृत्वाऽनुरागातिशयाहिनेऽपि स्वीयं ताशरताभिलाषं तां प्रति ज्ञापितवानिति भावः। यद्वाबाहादेस्ताः प्रसिद्धाः क्रमेण बन्धश्व, गन्धश्च, रतञ्च, सङ्गतञ्च, आनतिश्च, ताः। बाहोर्नागपाशादिबन्धः, वक्त्रस्य गन्धः पद्मिनीत्वात्सौरभम, जघनस्य रतम् , स्तनयोः सङ्गतं श्लेषः, चरणयोः पतनमानतिश्चेत्यर्थः / त्वसम्बन्धिनीस्ताः स्वस्वव्या. पारकरणमात्रनिरता दुश्चित्ता जना यत्रैवम्भूते दिनेपीच्छुरस्मीति वीक्षिता साऽनेन स्वा शयं ज्ञापितेति भावः / यद्वा-त्वां (यदेव) पश्यामि, तदेव ममैवं वान्छोदेति स्वदर्शनमेव सम्भोगसमय इति च ज्ञापितेति भावः। 'उत्सुकसखीजनेऽस्मिते वीडितेति पाठे-रात्रिवृत्तप्रश्नवान्छागोपनार्थ तस्माल्लज्जा मा भूदित्यस्मिते स्मितरहित एवंविधे ज्ञातुमेवोत्सुके सखीजने सखीजनसन्निधौ पूर्वोक्तप्रकारेण सा तेन सङ्केतिता शब्दिता। तद्रात्रावाचरितं बाहुबन्धादि तदिदानीमिच्छुरस्मीति रात्रिवृत्तज्ञापनार्थ सखीसन्निधावेवमुवाचेत्यर्थः / अत एव सा वीडिता / उत्सुके सखीजने स्मिते प्रारब्धहास्ये सति वीडितेति वा / हे भैमि !ते बाह्वादिबन्धादीन् दिने वीक्षिता द्रष्टा एवम्भूतोऽभिलाषुकोऽस्मि / रात्रौ यद्यपि कृताः, तथापि न दृष्टास्त. स्मादिने यदर्शनेच्छुरस्मीत्येवं सा तेन शब्दिता। न परमहमेव, किन्तु स्वत्सखीजनोऽ. पीत्युत्सुकपदेन सूचितमिति वा / व्याख्यानानन्तरं ग्रन्थगौरवभयानोक्तम् / नतीरित्यत्र इच्छुर्वीक्षितेत्येताभ्यां योगे 'न लोका-' इति षष्ठीनिषेधः // 1 // अपने-अपने काम करनेके लिये उत्सुक लोगोंवाले ( अथवा-रात्रिमें हुए तुम्हारे सङ्गमवृत्तान्तको जानने के लिए उत्सुक सखियोंवाले ) दिनमें तुम्हारे भुजाद्वय, मुख, जषनद्वय, स्तनद्वय और चरणद्वयके (कामशास्त्र-प्रसिद्ध नागपाशादिरूप ) आसन-विशेषोंसे युक्त सुरतसे संयुक्त कुशलताधिक्यसे निर्मित नम्रताओंको ( अथवा-सुरतको तथा सङ्गत आनतियोंको मैं देखना चाहता हूं' इस प्रकार दमयन्तीको देखकर नलने सङ्केत किया। अथवा-....."दिनमें क्रमशः वाहुओंके ( नागपशादि ) बन्ध अर्थात् कामशास्त्रोक्त आसनविशेष ), मुखका ( 'पद्मिनी' जातीया स्त्री होनेसे ) सौरम, जघनोंका ‘रत, स्तोंका मिलना (श्लिष्ट होना ) और चरणोंकी आनति ( नम्रता-झुकना ) इन सबोंको मैं देखना चाहता हूं..... / अथवा-जब तुमको देखता हूं, तभी हमें उक्त इच्छा होती है अर्थात तुम्हें देखनेका समय ही सम्भोगका समय है, ऐसा नलने दमयन्तीको देखकर सङ्कत किया। पाठा०-(रात्रिमें हुए तुम्हारे सम्भोगवृत्तान्तको पूछनेकी इच्छाको छिपानेके लिए उससे लज्जा न हो इस कारण ) तुम्हारी सखियों के हासरहित होनेपर अर्थात् सखियों के सामने ही उक्तरूपसे नलने दमयन्तीको सङ्केत किया, अत एव वह ( दमयन्ती ) लज्जित हो गयी। अथवा-नलके वैसा कहनेपर उत्सुक सखियां हंसने लगी, तब वह लज्जित हो गयी।
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________________ 1184 नैषधमहाकाव्यम् / अथवा-तुम्हारे बाहु आदिके बन्धादि (नागपाशादि आसन-विशेष ) आदिको मैं दिनमें भी देखूगा, क्योंकि रात्रिमें मैं नहीं देख सका तथा उत्सुक सखियां भी देखेंगी ऐसा नलने सङ्केत किया ] // 1 // प्रातरात्मशयनाद्विनिर्यती सन्निरुध्य यदसाध्यमन्यदा / तन्मुखार्पणमुखं सुखं भुवो जम्भजित् क्षितिशचीमचीकरत् // 61 / / प्रातरिति / भुवः पृथिव्याः, जम्भजित् इन्द्रः, नलः इत्यर्थः / प्रातः प्रभातसमये, आत्मशयनात् निजशय्यायाः, विनियंती निर्गच्छन्तीम्, क्षितिशची भूलोकेन्द्राणीम् स्मिन् समये, गृहानिर्गमनानन्तरमित्यर्थः / यत् यादृशं सुखम्, असाध्यं कर्तमशक्यम्, सखीसमीपे अवस्थानादिति भावः / तत् अनुभूतचरम्, मुखार्पणमुखं दमयन्तीमवरुध्य तया निजमुखचुम्बनादिकमकारयदित्यर्थः / करोतेौँ चङयपधाहस्वादि / 'हक्रोरन्यतरस्याम्' इति विकल्पादणिकतः कर्मत्वम् // 61 // (दमयन्ती ) को रोककर जो ( सुख ) दूसरे समयमें (रात्रिमें लज्जा, भय आदिके कारण) असाध्य था, उस मुखचुम्बन आदि सुखको दमयन्तीसे कराया [ अथवा-यदि तुम इस समय (रात्रिके अन्तमें ) मेरा कहना करोगी तभी तुम्हें अलभ्य पदार्थ तुम्हें दूंगा, (यातभी बाहर जाने दूंगा), अन्यथा नहीं; यह सुनकर दमयन्तीने सोचा कि यदि मैं इनका कहना नहीं मानती तो ये मुझे बाहर नहीं जाने देंगे, और अब प्रातःकाल हो जानेसे सखियों के आनेका समय है। यह विचारकर नलको मुखचुम्बनादि देकर वह दमयन्ती बाहर चली गयी / अथवा-नलने 'अपने मुख-चुम्बन आदि दमयन्तीद्वारा कराने से जो सुख होगा, वह सुख दिनमें सखियों के सामने असाध्य है' यह सोचकर दमयन्ती में वह सुख करवाया ] / / 61 // नायकस्य शयनादहर्मुखे निर्गता मुदमुदीक्ष्य सुभ्रुवाम् | आत्मना निजैनवस्मरोत्सवस्मारिणीयमहणीयत स्वयम् / / 62 // नायकस्येति / अहर्मुखे उपसि। 'रोऽसुपि' इत्यो नकारस्य रेफादेशः / नायकस्य पत्युः, शयनात् शय्यायाः, निर्गता निःसृता, इयं भैमी, सुध्रुवां सुलोचनानां सस्त्रीनाम् , मुदं हर्षम् , स्वसम्भोगचिह्नदर्शनजन्यमिति भावः / उदीच्य आलोक्य, आत्मना मनसा, 'आत्मा मुंसि स्वभावे च प्रयत्नमनसोरपि' इति मेदिनी / निज स्वकीयम् , नवं नूतनं सद्यस्कं वा, स्मरोत्सवं सम्भोगानन्दम् , स्मरति चिन्तयतीति 1. 'निजधव-' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1185 ताशी सती, स्वयम् एव आत्मनैव, अहणीयत तत्प्रकाशनात् अजिहत्। 'त्रपायां हृणीडिति जिह्वेति लज्जते / हृणीयते' इति भट्टमल्लः। कण्डवादियगन्तत्वाल्लङ, नायक ( पति-नल ) के शयनसे प्रातःकाल निकली हुई यह ( दमयन्ती) सुन्दरियों के (रात्रिमें स्व-स्वनायकके साथ सम्भोग करनेसे उत्पन्न) हर्षको देखकर अपने नवीन (पाठापतिके साथ) कामोत्सवका स्मरण करती हुई स्वयं लज्जित हुई // 62 // तां मिथोऽभिदधतीं सखी: प्रियस्यात्मनश्च स निशाविचेष्टितम् / पार्श्वगः सुरवरात् पिधां दधद् दृश्यतां श्रुतकथो हसन् गतः // 63 / / तामिति / पार्श्वगः समीपस्थोऽपि, सुराणाम् इन्द्रादीनाम् , वरात् वरप्रसादात्, पिधाम अन्तर्धाम , 'आतश्चोपसर्गे' इत्यङ प्रत्ययः / 'वष्टि भागुरिरल्लोपम्' इत्यकार: लोपः / दधत् धारयन् , सः नलः, प्रियस्य पत्युः, आत्मनश्च मिजायाश्च, निशाविचे. ष्टितं रात्रिवृत्तम , मिथः रहसि, सखीः सहचरीः, अभिदधतीं भाषमाणाम सखीभ्यः कथयन्तीमित्यर्थः / अवेरर्थवत्वाद् द्विकर्मकत्वम् / तां प्रियाम् , श्रतकथः आकर्णितप्रियावचनः, अत एव हसन् उच्च हास्यं कुर्वन् सन् , दृश्यतां तासां नयनगोचरताम्, गतः प्राप्तः // 63 // देवों के द्वारा दिये गये 'कूट कायमपहाय'-(१४१ 94 ) वरदानसे अन्तर्धान हो समीपमें स्थित नल, परस्परमें रात्रिमें किये गये प्रिय (नल) तथा अपने ( सुरत-सम्बन्धी) व्यापारोंको सखियोंसे कहती हुई उस (दमयन्ती ) को वह वार्तालाप सुनकर हँसते हुए प्रत्यक्ष हो गये // 63 // चक्रदारविरहेक्षणक्षण बिभ्यती धवहसाय साऽभवत् / क्वापि वस्तुनि वदत्यनागतं चित्तमुद्यदनिमित्तवैकृतम् / / 64 // अथास्याः प्रियविरहासहिष्णुतामाह-चक्रेति / चक्रदाराणां रात्रौ चक्रवाकव. नितायाः, विरहेक्षणक्षणे वियोगदर्शनकाले, विभ्यती स्वस्या अपि कदाचिन्नलेन विरहसम्भावनया त्रस्यन्ती, सा भेमी, धवस्य नलस्य, हसाय हास्याय, अभवत् अजायत, प्रियाया अकाण्डत्रासदर्शनात् प्रियो जहास इत्यर्थः / 'स्वनहसोर्वा' इति विकल्पादपप्रत्ययः / अथवा युक्तमेतत् भयमित्याह-वापि कुत्रचित् , वस्तुनि विषये, उद्यत् उत्पद्यमानम् , अनिमित्तवैकृतम् आकस्मिकविकारः यस्य तत् तारक, चित्तं मनः कत्त, अनागतं भाविशुभाशुभादिकमेव, वदति ज्ञापयतीत्यर्थः / चक्रविरहदर्श नात् आशङ्कितनिज आगामिविरह एव भयहेतुभूत इति तात्पर्यम् // 64 // चकई पक्षोके वियोगको देखनेके समयमें अर्थात् सायंकालमें ('मेरे प्रियके साथ भी 1. 'कथोऽहसद्गतः' इति पाठान्तरम्। /
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________________ 1186 नैषधमहाकाव्यम् / कहीं इसी तरह विरह न हो जाय' इस आशङ्कासे ) डरती हुई वह ( दमयन्ती) पति ( नल) की हँसीके लिए हुई अर्थात् उस प्रकार डरती हुई उसे देखकर नल हँसने लगे ( पा.डरती हुई प्रियाका आलिङ्गनकर उस ( नल ) ने नहीं छोड़ा अर्थात् उसके भयको दूर करने के लिए बहुत देर तक आलिङ्गन किये रहे-लोकमें भी डरे हुए व्यक्तिके डरको दूर होने के लिये उसका हितचिन्तक व्यक्ति उसे गोद आदिमें लेकर दबाये रहता है ) / अकारण उत्पन्न होते हुए विकारवाला चित्त किसी पदार्थके ( विषय में ) भविष्य ( होनहार ) को कह देता है। [इससे कलिकरिष्यमाण नल-दमयन्तीका भावी विरह सूचित होता है ] // 64 // 'चुम्बितं न मुखमाचकर्ष यत् पत्युरन्तरमृतं ववर्षे तत् / सा नुनोद न भुजं यदर्पितं तेन तस्य किमभून्न तर्पितम् ? / / 65 / / चम्बितमिति / सा भैमी, चुम्बितं नलेन चुम्बितुमारब्धम् , 'चुम्बितुम्' इति पाठे-चुम्बितुं नलेनाधरं पातुमुद्यते सतीत्यर्थः / मुखं निजाननम् , न आचकर्ष न अपासारयत् / इति यत् तत् चुम्ब्यमानमुखस्य अनाकर्षणमेव, पत्युः नलस्य, अन्तः अन्तःकरणे, अमृतं सुधाम , ववर्ष निषिषेच, तत्तुल्यमानन्दमजनयदित्यर्थः। तथा अर्पितं स्तनोपरि न्यस्तम् , भुजं नलकरम् यत् न नुनोद न निरास, तेन भुजानप. सारणेन, तस्य नलस्य सम्बन्धि, किं किं वस्तु, अङ्गं वा चित्तं वा इत्यर्थः। न तर्पितम् अभूत् ? न आप्यायितम् अभूत् ? अपि तु सर्वाङ्गसन्तपंणमेवाभूदित्यर्थः // 65 // (क्रमशः लज्जा तथा भयको दूरकी हुई) उस (दमयन्ती) ने चूमे जाते हुए (पाठा०नल द्वारा चूमने के लिये तत्पर ) मुखको जो नहीं हटाया, वह पति ( नल ) के अन्तःकरणमें अमृत वर्षा कर दिया अर्थात् उससे अमृन वर्षा-जैसा नलको आनन्द हुआ। और ( स्तनादिपर ) नलके द्वारा अर्पित ( बढ़ाये गये ) हाथको जो नहीं हटाया, उससे उस (नल) का क्या (मन, या शरीरादि ) नहीं तर्पित ( अतिशय सन्तुष्ट ) हुआ ? अर्थात् नलका मन (या-प्रत्यङ्ग ) अतिशय सन्तुष्ट ही हुआ // 65 // नीतयोः स्तनपिधानतां तया दातुमाप भुजयोः करं परम् / वीतबाहुनि ततो हृदंशुके.केवलेऽप्यथ स तत्कुचद्वये / / 66 / / नीतयोरिति / सः नला, तया भैम्या, स्तनपिधानतां कुचावरणताम् , नीतयोः प्रापितयोः,भुजयोः तहोर्युगयोः, परं केवलम् , प्रथममिति भावः / भादौ केवलं कुच. स्थ भुजोपरि इति निष्कर्षः / ततः अनन्तरम् ,वीतबाहुनि अपसारितभुजे, शनैः शनैः नले नेति भावः / हृदंशुके स्तनावरकवस्त्रे, अथ तदनन्तरम् केवलेऽपि अपसारितांशुः कत्वात् उन्मुक्तेऽपि इति भावः। तस्कुचद्वये दमयन्तीस्तनयुगले, करं हस्तम् , दातुम् अर्पयितुम् , आप शशाक इत्यर्थः / दमयन्त्या अपि क्रमशो मन्मथोदयेन लज्जाजन्यः 1. 'चुम्बितुम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1187 सङ्कोचापगमादिति भावः। अत्रैकस्य करस्य क्रमादनेकेषु भुजांशुककुचेषु वृत्तिकथ. नात् 'क्रमेणैकमनेकस्मिन्' इत्याद्यक्तलक्षणः पर्यायालङ्कारभेदः // 66 // नलने स्तनोंको ढके हुए दमयन्तीके हाथों को पहले छुआ, अनन्तर (दमयन्तीके) स्तनोंको ढाँकनेवाले कपड़ों को छुआ और सबसे बादमें वस्त्रावरण रहित ( दमयन्ती के ) स्तनोंको छुआ। [ दमयन्तीने लज्जावश कपड़ेसे ढके हुए स्तनोंको हाथसे मी ढक लिया था, अत एव नलसे क्रमशः पहले उसके हाथोंका अनन्तर कपड़ेका और बादमें वस्त्ररहित स्तनोंका स्पर्श किया ] // 66 // याचनान्न ददती नखार्पणं तां विधाय कथयाऽन्यचेतसम् / वक्षसि न्यसितुमात्ततत्करः स्वं बिभेद मुमुदे स तन्नखैः / / 67 // याचनादिति / स नलः, याचनात् मां नखेन विदारय इति प्रार्थनाकरणादपि, नखार्पणं नखेन भेदनम् , न ददतीं नार्पयन्तीम् , स्नेहवशात् नखक्षतमकुर्वतीमित्यर्थः। तां प्रियाम् कथया विविधालापप्रसङ्गेन / 'चिन्तिपूजिकथि-' इत्यादिना अङप्रत्ययः। अन्यचेतसम् अन्यमानसाम् , 'प्रसङ्गान्तरन्यासक्तचित्तामित्यर्थः / विधाय कृत्वा, वक्षसि स्वोरसि, न्यसितुं स्थापयितुम् , आत्ततस्करः गृहीतभैमीपाणिः सन् , तन्नखैः प्रियाया एव नखैः, स्वम् आत्मानम् , बिभेद अभिनत् , व्यवारयदि. त्यर्थः / मुमुदे च ननन्द च // 67 // ( 'तुम भी मेरे वक्षःस्थलपर नखक्षत करो' ऐसी) याचना करनेपर भी (प्रेम या लज्जासे) नखक्षत नहीं करती हुई उस ( दमयन्ती) को नलने दूमरी तरहकी बातोंसे कथासक्त चित्तवाली करके ( अपने ) वक्षःस्थलपर उसका हाथ रखकर तथा अपने (वक्षःस्थल) का ( उसके ही नोसे) भेदनकर आनन्दको प्राप्त किया // 67 // स प्रसह्य हृदयापवारकं हत्तमक्षमत सुभ्रवो बहिः / होमयं न तु तदीयमान्तरं तद्विनेतुमभवत् प्रभुः प्रभुः॥ 6 // स इति / प्रभुः स्वामी, सः नलः, सुभ्रवः सुलोचनायाः प्रियायाः, बहिः बाह्यम् , हृदयापवारकं वक्षोदेशाच्छादकम् , स्तनावरणवस्त्रमित्यर्थः / प्रसह्य बलात्, हत्तम् अपसारयितुम् , अक्षमत अशक्नोत् , तु किन्तु, तदीयं दमयन्तीयम् , आन्त. रम अन्तर्वर्ति, हीमयं लज्जारूपम् , तत हृदयापवारकम् , विनेतुम् , अपसारयितुम्, न प्रभुः न समर्थः, अभवत् अजायत / तस्य सहजत्वादिति भावः // 68 // ____ पति वे ( नल) वक्षःस्थलको ढकने वाले दमयन्तीके बाहरी आवरण ( वस्त्र) को तो हठसे हटा सके, किन्तु लज्जारूप उसके भीतरी आवरणको नहीं हटा सके / [ यद्यपि विश्वास उत्पन्न होनेसे वे दमयन्तीके वक्षःस्थलके आवरणवस्त्रको किसी प्रकार हटा नहीं सके, किन्तु स्वाभाविक लज्जाको नहीं हटा सके, अतः वक्षःस्थलका स्पर्श करने पर वह दमयन्ती पुनः लज्जित हो ही गयी] // 68 // .
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________________ 1188 नैषधमहाकाव्यम् / सा स्मरेण बलिनाऽप्यहापिता ह्रीक्षमे भृशमशोभताबला | भाति चापि वसनं विना न तु ब्रीडधैयपरिवजने जनः // 69 // सेति / बलिना प्रबलेनापि, स्मरेण कामेन, ही क्षमे लज्जाधैर्य, अहापिता अत्या. जिता, त्यजयितुमचमेत्यर्थः। जहातेय॑न्तात् पुगि द्विकर्मकादप्रधाने कर्मणि क्तः / अबला दुर्बला, सा भैमी, भृशम् अस्यर्थम् , अशोभत अराजत, 'नारीणां भूषणं लज्जा' इति नीतिशास्त्रोक्तेरिति भावः / तथा हि जनः लोकः, वसनं वस्त्रम् , विनाs. पि ऋतेऽपि, भाति शोभते, तु किन्तु, व्रीडधैर्ययोः लज्जाधीरवयोः, परिवर्जने परि त्यागे, न च नैव, भातीति अन्वयः // 69 // बलवान् ( पक्षा०-बढ़े हुए ) कामदेवके द्वारा लज्जा तथा धैर्यका त्याग नहीं की हुई वह अबला ( स्त्री दमयन्ती, पक्षा०-निर्बल) अत्यन्त शोभित हुई; क्योंकि कपड़ेके बिना भी मनुष्य शोभता है, किन्तु लज्जा तथा धैर्यके छोड़नेसे ( पाठा०-छोड़नेपर ) नहीं शोमता // 69 // आत्थ नेति रतेयाचितं न यन्मामतोऽनुमतवत्यसि स्फुटम | इत्यमुं तदभिलापनोत्सुकं धूनितेन शिरसा निरास सा / / 70 // आत्थेति / हे प्रिये ! मां रतयाचितं सुरतमिक्षाम् , यत् यतः, न इति, 'न दास्यामि' इति, न आत्थ न ब्रवीषि, मम सुरतप्रार्थनायां न दास्यामि इति यत् त्वं न वदसीत्यर्थः। अतः अप्रतिषेधाद्धेतोः, म्फुटं व्यक्तम् , अनुमतवती स्वीकृतवती, असि भवसि, 'अप्रतिषिद्धं परमतम् अनुमतं भवति' इति न्यायात् इति भावः। इति इत्थम् , तस्याः दमयन्त्याः , तस्य अप्रतिषेधवचनस्येत्यर्थो वा, अभिलापनाय वाचनाय, उत्सुकम् उद्युक्तम् , आग्रहान्वितमित्यर्थः / अमुं प्रियम् , सा भैमी, धूनितेन कम्पितेन / 'धूज-प्रीमोर्नुग्वक्तव्यः'। शिरसा मूर्ना, निषेधसूचकशिर श्वालनेनेत्यर्थः / निरास प्रत्याख्यातवती / अहो ! अत्यन्ताभिमतार्थेऽपि निषेधशीलता स्त्रीणामिति भावः // 70 // ___(हे प्रिये ? ) मेरी सुरतभिक्षाका जो तुम निषेध नहीं कर रही हो, इससे स्पष्ट ही तुमने मुझको ( उस सुरतके लिए ) अनुमति दे चुकी' इस प्रकार उस (दमयन्ती, अथवास्वीकृति वचन ) के कहवाने के उत्सुक इस ( नल ) को उस ( दमयन्ती ) ने (निषेध-सूचक) शिरःकम्पनसे मना कर दिया। [नलके दमयन्तीसे सुरतयाचना करनेपर जब उसने कोई उत्तर नहीं दिया तो 'अप्रतिषिद्धं परवचनमनुमतं भवति' ( दूसरेके वचनका निषेध नहीं किया जाता तो वह स्वीकृत समझा जाता है ) इस न्यायके अनुसार उसके निषेधात्मक भावको समझते हुए भी उसको स्पष्ट कहलाने के लिए उत्कण्ठित नलने कहा कि-'तुम ने सुरतका निषेध नहीं किया, अत एव उसे तुम स्वीकार कर रही हो, ऐसा मैं समझता हूं' किन्तु 1. 'परिवर्जनः' इति पाठान्तरम्। 2. 'रतयाचिनम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1186 अष्टादशः सर्गः। फिर भी लज्जाशीला दमयन्तीने कुछ नहीं कहकर केवल शिर हिलाकर निषेध कर दिया। अथवा-..."हुए भी उससे परिहास-भाषण करने के लिए उत्सुक नलने....."] // 70 // या शिरोविधुतिराह नेति ते सा मया न किमियं समाकलि ? / तनिषेधसमसङ्घयताविधिय॑क्तमेव तव वक्ति वाछितम् / / 71 / / येति / हे प्रिये ! ते तंव, या शिरोविधुतिः निषेधसूचकमस्तकचालनम् / की। न इति आह न दास्यामि इति निषेधं ब्रूते, सा इयं शिरोविधुतिः, मया न समा. कलि किम् ? न सम्यक अबोधि किम् ? अपि तु गृहीताथैव इत्यर्थः। कलयतेः कर्मणि लुङ्ग। किं त्वया समाकलि ? इत्याह-तस्य शिरोविधुतिद्वयरूपस्य प्रतिपाघस्य, निषेधस्य असम्मते, समसङ्घयतया प्रतिपादकस्य नोऽपि द्विसङ्ख्यतया, प्रतिपादितो विधिः विधानम् / 'द्वौ नौ प्रकृतमथं गमयतः' इति न्यायात् सुरतानुमोदनरूप इत्यर्थः / तव वान्छितम् अभिलाषम्, व्यक्तं स्फुटमेव, वक्ति कथयति / वचेर्लट / निषेधार्थमपि वारद्वयशिरोविधूननं ते सम्मतिमेव सूचयति, नजद्वयेन प्रकृतार्थस्य गम्यमानत्वादिति भावः // 71 // निषेधार्थक तुम्हारे शिरःकम्पनने जो 'नहीं' (सुरत मत करो) ऐसा कहा, उसे मैं ने नहीं समझा क्या ? अर्थात् शिरःकम्पनके द्वारा सुरतनिषेध करनेका तुम्हारा आशय मैंने समझ लिया है, ( वह आशय यह है कि-) उस (शिरःकम्पन ) का दो बार निषेध करना ( सुरत करनेकी स्वीकृतिरूप ) तुम्हारे चाहनाको स्पष्ट ही कह रहा है। [ नलके पूर्वोक्त ( 18170 ) वचन कहने पर जब दमयन्तीने शिरःकम्पन द्वारा निषेध कर दिया तब पुनः उसके साथ परिहासमाषणार्थ उत्सुक नल ने कहा कि तुमने शिर हिलाकर दो बार निषेध किया है, अतः द्वौ नौ प्रकृतमर्थ गमयतः' (दो निषेध प्रकृत अर्थ का समर्थन करते हैं) न्यायके अनुसार तुम सुरतकी स्वीकृति दे रही हो अर्थात् 'सुरत स्वीकार नहीं है, ऐसा नहीं है' इस वचनमें आये हुए दो निषेधोंसे सुरतकी स्वीकृति स्पष्ट ही ज्ञात होती है ] // 71 / / नात्थ नात्थ शृणवानि तेन किं ते न वाचमिति तां निगद्य सः / सा स्म दूत्यगतमाह तं यथा तज्जगाद मृदुभिस्तदुक्तिभिः / / 72 / / नेति / हे प्रिये ! न आत्थ मया सह त्वं न आलपसि, न आस्थ नैव कथयसि, तेन अनालपनेन हेतुना, ते तव, वाचं वचनम्, न शृणवानि किम् ? न शृणुयां किम् ? अपि तु शृणुयामेव, इत्यसम्भावनानिषेधः। सः नलः, तो प्रियाम् , इति एवम् , निगद्य उक्त्वा, सा भैमी, दूत्यगतं दूतरूपेण दमयन्तीसमीपमुपस्थितम्, तम् आस्मानं नलम्, यथा नवमसर्गोक्तेन येन प्रकारेण, आह स्म उक्तवती, तत् सर्वम् , मृदुभिः नम्राभिः, तस्याः दमयन्त्या एव, उक्तिभिः कथाभिः, दमयन्तीवा 1. 'सङ्घयता विधिम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1160 नैषधमहाकाव्यम् / क्यानुकरणैरित्यर्थः / जगाद उवाच / तदा मत्समीपे वाक्यमुच्चार्य इदानीमनुच्चारणे न किमपि फलम् , अतोऽवश्यमेव मया सह आलपिष्यसीति भावः // 72 // (हे प्रिये ! तुम ) 'नहीं बोलती हो, नहीं बोलती हो', इस कारण अर्थात् 'तुम्हारे नहीं बोलनेसे तुम्हारे वचनको मैं नहीं सुनता हूं क्या ? अर्थात् अवश्य सुनता हूं' इस प्रकार उस दमयन्तीसे कहकर नलने 'दूतभावसे गये हुए नलसे दमयन्तीने जैसा ( 'तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे' ( 9.66 ) इत्यादि मृदु वचन )' कहा था, वही वचन उस दमयन्तीकी मृदूक्तियोंसे कहा अर्थात् दमयन्तीने दूत बनकर गये हुए नलसे जैसे मृदु वचन कहे थे, वैसे ही मृदु वचन नलने भी दमयन्तीसे कहे / / 72 // नीविसोम्नि निबिडं पुराऽरुणत् पाणिनाऽथ शिथिलेन तत्करम् / सा क्रमेण न न नेति वादिनी विघ्नमाचरदमुष्य केवलम् / / 73 / / नीवीति / सा दमयन्ती, नीविसीम्नि कटीवस्त्रग्रन्थिसमीपे, तत्करं प्रियहस्तम्, ग्रन्थिमोचनाय उपस्थितमिति भावः। पुरा प्रथमम्, पाणिना स्वकरेण, निबिडं दृढं यथा तथा, अरुणतू रुद्धवती। रुणद्धेः कर्तरि लङ। अथ कियदिनानन्तरम् , शिथिलेन श्लथेन, अहढेनेत्यर्थः, पाणिना अरुणदित्यन्वयः। क्रमेण क्रमशः भयभ. ड्रेन, तत्परमित्यर्थः। केवलं न न नेति वादिनी केवलं वाचिकनिषेधम् एवं 'कुर्वती सती, अमुष्य प्रियकरव्यापारस्य, विघ्नं नीविमोचनप्रतिबन्धम् , आचरत् अकुर्वदि. त्यर्थः क्रमशो लज्जापगमात् वाङमात्रेणेव केवलं विघ्नमाचरत् न तु अङ्गेनेति भावः / अत्रैकस्मिन् नीविदेशे क्रमादनेकव्यापारसम्बन्धोक्तेः पर्यायालङ्कारभेदः // 73 // ____उस ( दमयन्ती ) ने पहले नीवि ( नाभिके नीचे बँधी हुई वस्त्रग्रन्थि ) के पासमें ( उसे खेलने के लिए पहुंचे हुए ) नलके हाथको कड़े हाथसे रोका, इसके बाद ( लज्जा एवं भय के कुछ कम हो जानेपर ) ढीले हाथसे रोका और क्रमशः (कुछ दिनों के बाद, लज्जा एवं भय के अधिक कम हो जानेपर ) 'नहीं, नहीं' ऐसा कहती हुई उस ( दमयन्ती) ने इस ( नल, या-नलकर ) के विघ्नको किया अर्थात् रोका / / 73 // रूपवेषवसनाङ्गवासनाभूषणादिषु पृथग्विदग्धताम् / साऽन्यदिव्ययुवतिभ्रमक्षमा नित्यमेत्य तमगान्नवा नवा / / 74 // रूयेति / रूपं सौन्दर्यम , वेषः विविधप्रकारनेपथ्यम् , वसनं वस्त्रम् , अङ्गवा. सना धूपादिना शरीरसंस्कारः, भूषणं कङ्कगादि, तानि आदिः येषां तेषु विविधप्र. कारप्रसाधनादिषु विषयेषु, नित्यं प्रत्यहमेव, पृथक् भिन्नभिन्नरूपाम् , विदग्धतां कुशलिताम् , एत्य प्राप्य, प्रत्यहमेव नवनववेशरचनां कुर्वतीत्यर्थः। अत एव नवा नवा नूतना नूतना सती, आभीक्ष्ण्ये द्विर्भावः / सा भैमी, अन्या अपरा काचित् , दिव्या स्वर्गीया, युवतिः तरुणी, उर्वश्यादिरित्यर्थः। इति भ्रमे भ्रान्तिजनने, 1. 'क्षमाम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1191 क्षमा समर्था सती, तं नलम् , अगात् अगच्छत् , समतोषयदित्यर्थः / इणो गा लुङ्॥७४॥ रूप ( देववरदान (14 / 91 ) से विविध शरीरधारणसे उत्पन्न सौन्दर्य ), वेष (महा. राष्ट्र, गुजरात, लाट आदि देशवाली स्त्रियों के भूषण-वस्त्रादिसे शृङ्गाररचना ), वस्त्र (नीले, लाल, पीले, श्वेत, चित्रित आदि विविध रंग-विरंगे कपड़े), अङ्गवासना (चन्दन, कपूर, कस्तूरी, कुङ्कुमादिसे तथा अगर-तगर-चन्दनादि निर्मित धूपोंसे शरीरको सुरभित करना) और भूषण ( अनेकविध मुक्ता, हीरा, पन्ना, माणिक्य आदि जड़े हुए सुवर्णमय अलङ्कार) आदि ( अनेकविध भाषा, गायन कला आदि ) में अलग-अलग चतुरताको करती हुई तथा दूसरी दिव्याङ्गना (उर्वशी, मेना, रम्भा, तिलोत्तमा आदि अप्सराओं या-परमसुन्दरी) युवतियों के भ्रमको उत्पन्न करनेवाली अतएव नयी-सी वह दमयन्ती उस ( नल ) के पास गयी अर्थात दमयन्तीने उन्हें उक्त प्रकारसे दिव्याङ्गनाओं के समान सन्तुष्ट किया / / 74 / / इङ्गितेन निजरागसागरं संविभाव्य चटुभिर्गुणज्ञताम् | भक्तताञ्च परिचर्ययाऽनिशं साऽधिकाधिकवशं व्यधत्त तम् / / 75 / / इङ्गितेनेति / सा भैमी, अनिशं निरन्तरम्, इङ्गितेन कटाक्षवीक्षणादिचेष्टितेन, निजं स्वकीयम् , रागसागरम अनुरागार्णवम्, सागरवदसीममनुरागाधिक्यमित्यर्थः / चटुभिः प्रियवादैः, गुणज्ञतां पत्युः गुणाभिज्ञताम् , तथा परिचर्यया सेवया, भक्त. ताञ्च तस्मिन् भक्तिमत्त्वञ्च, संविभाव्य सम्यग ज्ञापयित्वा, तं प्रियम , अधिकाधिकवशम् उत्तरोत्तरमधिकायत्तम् / 'प्रकारे गुणवचनस्य' इति द्विरुक्तिः, कर्मधारयवद्धावात् सुपो लुक / व्यधत्त अकरोत् / इङ्गिताद्यनुमितैः। रागादिगुणस्तस्याः सोऽत्यन्तव. शंवदोऽभूत् इति निष्कर्षः // 75 // उस ( दमयन्ती ) ने चेष्टासे अपने अनुरागके समुद्ररूप नलको प्रियभाषणोंसे अपनी गुणज्ञता ( गुणग्राहकता) को तथा सेवासे (पतिविषयिणी अपनी) भक्तियुक्तताको प्रकटित. कर उस ( नल ) को सर्वदा अत्यधिक अपने वशमें कर लिया। [ यहांपर 'चेष्टा' से-सखि आदिसे पतिके गुणों का वर्णन करते हुए भाषण करना, उनके दोषका अपलाप करना (मिथ्या बतलाना ), पतिके बादमें सोना तथा सोकर पतिसे पहले उठना, पतिके आनेपर प्रसन्न होना, बाहर जाने पर उदासीन होना और सुख-दुःखमें समान रहना आदि; 'प्रियभाषण' सेआपके ऐसा सुन्दर, महादानी, वीर सब कलाओंका पण्डित एवं तेजस्वी दूसरा कोई नहीं है, इत्यादि अनुकूल वचन कहना; तथा 'सेवा' से-पलेसे हवा करना, चरण दबाना, पानवीड़ा आदि देना; का ग्रहण करना चाहिये। इनके द्वारा दमयन्तीने नकको सर्वदा अपने वशमें कर लिया]।। 75 // स्वाङ्गमर्पयितुमेत्य वामतां रोषितं प्रियमथानुनीय सा / 1. अत्र इतः प्राक् 'यस्कियां प्रति यदनजस्तया (?) स्वस्वरस्य लघुतां
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________________ 1162 नैषधमहाकाव्यम् / आतदीयहठसम्बुभुक्षुतं नान्वमन्यत पुनस्तमर्थिनम् / / 76 / / स्वाङ्गमिति / सा दमयन्ती, स्वाङ्गं निजवराङ्गादिकम्, अर्पयितुं नलकत्त कस्पर्श ताधथं प्रदातुम् , वामता प्रतिकूलताम् , असम्मतिमित्यर्थः / एत्य प्राप्य, अथ तद. नन्तरम्, रोषितम् इच्छाऽपूरणात् कोपितम, प्रियं पतिम, अनुनीय चरणधारणादिना प्रसाद्य, पुनः भूयः, अर्थिनम् अङ्गार्पणयाचिनम, तं प्रियम , तदीया प्रियसम्बन्धिनी, या हठात् बलात् , सम्बुभुक्षुता सम्भोक्तुमिच्छा, तावत् पर्यन्तम् आतदीयहठसम्बु. भुतुतम्, यावत् स बलपूर्वकं न सम्भोक्तुमैच्छत् तावत्पर्यन्तमित्यर्थः / 'आङ् मर्यादाऽभिविष्योः' इत्यव्ययीभावेन नपुंसकहस्वत्वम् / न अन्वमन्यत न अनुमो. दितवती / व्यवहारोऽयं सम्भोगपिपासावर्द्धनार्थमिति भावः॥ 76 // ___ उस ( दमयन्ती ) ने अपने ( दमयन्तीके) शरीर ( रतिमन्दिर, या-स्तनादि ) को देने के लिए याचक ( 'तुम अपने अमुक शरीरका सम्भोगार्थ अर्पण करो' ऐसी याचना करते हुए ) प्रतिकूलताको प्राप्त होकर अर्थात् देनेका निषेधकर ( अतएव ) क्रोधित प्रिय (नल ) को अनुनीतकर (चरणों पर गिरने, या हाथ जोड़ने आदिसे प्रसन्नकर ) फिर उस ( अङ्गको देने के लिए ) याचना करनेवाले नलको तबतक अनुमति नहीं दी, जबतक उन्होंने बलात्कार से सम्भोग करनेको इच्छा नहीं की। [ नलने दमयन्तीसे उसके काममन्दिर आदि शरीरकी याचना की तो उसने मनाकर दिया, इससे नल कुछ रुष्ट हो गये तो उनको दमयन्तीन अनुनयसे प्रसन्न कर लिया, तदनन्तर जब वे पुनः सम्भोगार्थ उस अङ्गकी याचना करने लगे तब दमयन्तीने तबसक उनको उक्त कार्य के लिए अपनी अनुमति नहीं दी, जबतक उन्होंने हठपूर्वक सम्भोग की इच्छा नहीं की। इस प्रकार निषेध, अनुनयादि करनेसे अनुरागवृद्धि होती है और सम्भोगमें भी अधिक आनन्द आता है ] / / 76 / / आद्यसङ्गमसमादराण्यधाद् वल्लभाय दधती कथञ्चन / अङ्गकानि घनमानवामताब्रीडलम्भितदुरापतानि सा / / 77 // आद्येति / सा नलप्रिया, घनैः प्रगाढः मानवामतात्रीडः प्रणयकोपप्रतिकूलतात. पाभिः, लम्भिता प्रापिता, दुरापता दौलभ्यं येषां तादृशानि, अङ्गकानि सदयभोग्यानि सुकुमारावयवानीत्यर्थः / हस्वे अनुकम्पायां वा कन् / वल्लभाय प्रियनलाय, कथञ्चन लज्जावशात् कृच्छ्रेण, दधती धारयन्ती, ददती सतीत्यर्थः / आद्यसङ्गमेन प्रथमसम्भोगकालेन, समः तुल्यः, आदरः प्राप्त्याग्रहः येषां ताशानि, अधात् पृतवती। प्रथमसङ्गमतुल्यादरं प्राप्तानीव स्वाङ्गानि प्रियाय अर्पित. वतीति भावः / / 77 // दधानया / पत्युरन्वहमहीयत स्फुटं तत्किलाहियत तस्य मानसम् // ' इत्यधिकः श्लोकः क्वापि दृश्यते, इति म०म० शिवदत्तशर्माण आहुः। 1. 'ताम्'-इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1163 अधिक प्रणयकलह (शरीरादि दानमें ) प्रतिकूलता ( अथवा-अधिक प्रणयकलहके कारण शरीरादि दानमें प्रतिकूलता ) तथा लज्जासे दुष्प्राप्य ( अपने ) सुकुमारतम शरीरोंको प्रियतम ( नल ) के लिए देती हुई उस ( दमयन्ती ) ने प्रथम सङ्गमके समान आदरको प्राप्त करावा / [ प्रणय कलहादिके कारण दुष्प्राप्य दमयन्तीके सुकुमारतम अंगोंको पाकर सम्भोगेच्छार्थ वृद्धिंगत कामवाले नलने प्रथम सम्भोगके अत्यधिक प्रसन्नताको प्राप्त किया ] // 77 // पत्युरागिरिशमातरु क्रमात् स्वस्य चागिरिजमालतं वपुः / तस्य चाहमखिलं पतिव्रता क्रीडति स्म तपसा विधाय सा // 78 // पत्युरिति / पतिव्रता साध्वी, सा दमयन्ती, तपसा पतिसेवारूपेण तपस्याप्रभावेण, क्रमात् क्रमानुसारेण, औचित्यानुसारेणेत्यर्थः / पत्युः नलस्य, आगिरिशं शङ्करमारभ्य, आतरु वृक्षपर्यन्तम् , स्वस्य आत्मनश्च, आगिरिजं गिरिजाम् अम्बिका. मारभ्य, आलतं लतापर्यन्तम् / सर्वत्राभिविधावव्ययीभावः। वपुः देवगन्धर्वोरग. मृगविहगादिद्वन्द्वशरीरम् , तथा तस्य वपुषः, अहम् अनुरूपम् , अखिलञ्च समग्रं क्रीडासाधनश्चेत्यर्थः। विधाय कृत्वा. क्रीडति स्म चिक्रीड, पत्युर्गिरिशस्वरूपत्वे स्वस्य गिरिजास्वरूपत्वं तथा तदनुरूपं व्याघ्रचर्मादिरूपशय्यादिकम् , तथा नलस्य वृक्षस्वरूपत्वे स्वस्य लतास्वरूपत्वञ्च सम्पाद्य सा इच्छानुरूपं रेमे / निरङ्कुशमहि. मत्वात् पतिव्रतानामिति भावः // 78 // ___ पतिव्रता वह ( दमयन्ती) पतिके शरीरको शिवजीसे लेकर वृक्षतक ( अथवा-वृक्षसे लेकर शिवतक ) तथा अपने शरीरको पार्वतीसे लेकर लतातक ( अथवा-लतासे लेकर पार्वतीतक ) क्रमशः ( पतिसेवारूप ) तपस्याके द्वारा उस (नल) के योग्य बनाकर क्रीडा करने लगी। [ दमयन्ती पतिव्रता थी, अतः पतिसेवारूप तपस्यासे देवप्राप्त वरदान (14 // 91 ) से अपने शरीरको सर्वथा नलके अनुरूप बनाकर क्रीडा करती थी, यथा-नल शिवरूप होते थे तो वह पार्वतीरूपिणी हो जाती थी और नल वृक्षरूप होते थे तो वह लतारूपिणी हो जाती थी, इसी प्रकार क्रमशः शिवसे वृक्षपर्यन्त नलका शरीर होनेपर वह दमयन्ती पार्वतीसे लतापर्यन्त शरीर धारणकर तथा तदनुरूप ही वेश-भूषा-भाषा आदिको भी ग्रहणकर उनके साथ तद्रप होकर रमण करती थी। पतिव्रताके लिए कोई कर्म असाध्य नहीं है / / 78 // न स्थली न जलधिन काननं नाद्रिभून विषयो न विष्टपम् / क्रीडिता नं सह यत्र तेन सा सा विधैव न यया यया न वा // 6 // नेति / सा भैमी, तेन नलेन सह, यत्र यस्मिन् प्रदेशे, न क्रीडिता न क्रीडितवती / कर्तरि कः। सा ताहशी, स्थली अकृत्रिमभूमिः, स्थलदेश इत्यर्थः, न / 'जानपद-'इस्यादिना अकृत्रिमार्थ ङीष् / स जलधिः नदीसागरतडागादिजलाधार
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________________ 1164 नैषधमहाकाव्यम् / इत्यर्थः / न, तत् काननं वनम्, न, सा अद्रिभूः पर्वतसानुः, न, स विषयः देशः, न, तत् विष्टपं जगत् , न, सर्वत्र आसीदिति शेषः / किञ्च सा ताहशी, विधैव प्रकारः एव, न, आसीदिति शेषः / यया यया विधया धेनुकादिबन्धप्रकारेण, न वा, क्रीडिता इति शेषः / तेन सह सर्वत्रैव विजहार इत्यर्थः // 79 // ___ उस ( दमयन्ती) ने उस ( नल ) के साथ जहां पर क्रीडा नहीं की; ऐसा कोई स्थली ( अकृत्रिम भूमि ) समुद्र (कूपादि लघु जलाशयसे लेकर समुद्रतक महाजलाशय ), वन, पर्वतीय भूमि, देश अथवा लोक ( भू , भुवः, स्वः ये तीन; अथवा-भू , भुवः, स्वः, महः, जनः, तप और सत्य ये सात लोक ) नहीं था और वह (कामशास्त्रोक्त धेनुकादिबन्धरूप ) प्रकार नही था; जिस-जिस प्रकारसे उसने नलके साथ क्रीडा नहीं की हो [ दमयन्तीने नलके साथमें सब प्रकार की क्रीडाएँ सर्वत्र की ] / / 79 / / नम्रयांशुकविकर्षिणि प्रिये वक्त्रवातहतदीप्तदीपया / भर्तु मौलिमणिदीपितास्तया विस्मयेन ककुभो निभालिताः / / 80 // नम्रयति / प्रिये नले, अंशुकविकर्षिणि परिहितवसनाकर्षगकारिणि सति, नम्रया नतया, गूढाङ्गगोपनाय अवनतपूर्वकायया इत्यर्थः / तथा वक्त्रवातेन मुखमारुतेन, फुस्कारेणेत्यर्थः / हतः निर्वापितः, दीप्तः प्रज्वलितः, दीपः प्रदीपः यया तथाभूतया, तया भैम्या, भत्तु मौलिमणिभिः पत्युर्मुकुटस्थरस्नैः, दीपिताः प्रकाशिताः, ककुभः दिशः, विस्मयेन दीपे निर्वापितेऽपि कथामालोकप्रकाश इत्याश्चर्येण, निभालिताः दृष्टाः // 8 // (गुप्तांगके दर्शनार्थ) प्रियके वस्त्र खोंचते रहने पर ( उस गुप्तांगको नहीं देखे जाने के लिए ) झुकी हुई तथा फूंककर जलते हुए दीपकको बुझाई हुई उस दमयन्तीने पति ( नल) के मुकुटमै जड़े हुए रत्नोंसे प्रकाशमान दिशाओंको आश्चर्यसे देखा / [ अन्धकार होने के लिए किये गये दोप्रनिर्वाणरूप अपने प्रयत्नको नलके मुकुटरत्नोंसे प्रकाशमान दिशाओंको देख दमयन्ती आश्चर्यिंत हो गयी ] // 80 // कान्तमूर्ध्नि दधती पिधित्सया तन्मणेः श्रवणपूरमुत्पलम् | रन्तुमर्चनमिवाचरत पुरः सा स्ववल्लभतनोमनोभवः / / 81 // कान्तेति / सा भैमी, तस्य भत्त मौलिस्थितस्य, मणेः रत्नस्य, पिधित्सया पिधा. तुम् आवरितुम् इच्छया, कान्तस्य प्रियस्य, मूदुनि शिरसि, श्रवणपूरं निजकर्णभूषणीभूतम्, उत्पलं नीलोत्पलम्, दधती स्थापयन्ती सती, रन्तुं रतिकर्म कर्तुम्, पुरः कर्मप्रारम्भे, स्ववल्लभः निजपतिः एव, तनुः मूर्तिः यस्य तादृशस्य नलमूतः, मनोभुवः कामस्य, रत्यधिदेवतस्य इति यावत् / अर्चनं पूजनम्, आचरत् इव अन्वतिष्ठदिव इत्युत्प्रेक्षा // 1 // पति ( नल ) के मस्तकमें उस (प्रकाशमान-१८८०) रनको ढकनेको इच्छासे
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1165 ( अपने ) कर्णभूषण-कमलको ऊपर करती हुई उस ( दमयन्ती ) ने रमण करनेके लिए अपने पति ( नल ) के शरीरधारी कामदेवका मानो पहले पूजन किया। [ फूंककर दीपकके बुझा देने पर भी नलके मुकुटस्थ रत्नसे प्रकाश होता हुआ देखकर दमयन्तीने जब अपने कर्णोत्पलसे उस रत्नको ढक दिया, तब वह ऐसा प्रतीत होता था कि दमयन्ती रमण करनेके लिए नल देहधारी कामदेव की मानो पहले . पूजा की हो। किसी कार्य के आरम्भ में उसके निर्विघ्न समाप्त होनेके लिए तत्सम्बन्धी देवके मस्तकपर फूल चढ़ाकर पूजन करना शास्त्र. सम्मत होनेसे साध्वी दमयन्तीका भी रमण करने के पहले उस रमण-क्रियाको निर्विधन होने के लिए तत्सम्बन्धी देव ( काम ) की पूजा करना उचित ही है ] // 81 // तं पिधाय मुदिताऽथ पार्श्वयोर्वीक्ष्य दीपमुभयत्र सा स्वयोः / चित्तमाप कुतुकाद्भुतत्रपाऽऽतङ्कसङ्कटनिवेशितस्मरम् / / 82 // तमिति / सा भैमी, तं दिगुद्भासकं शिरोमणिम् , पिधाय कर्णोत्पलेन आच्छाद्य, मुदिता अन्धकारसम्भावना हृष्टा, अभूदिति शेषः / अथ अनन्तरम्, स्वयोः स्वकीययोः, उभयत्र उभयोः, पार्श्वयोः दीपं प्रज्वलितप्रदीपद्वयमित्यर्थः / वीक्ष्य दृष्ट्वा, कुतुकम्, अकस्माद्दीपदर्शनात् कौतुकम्, अद्भुतं निर्वापितस्यापि पुनः प्राद. र्भावादाश्चर्यम् , त्रपा पत्या विवस्त्रीकरणात् लज्जा, आतङ्कः कोऽयमदृष्टपूर्वव्यापार इति शङ्का, तेषां सङ्कटे सम्बाधे, परस्परसङ्घर्षे इत्यर्थः / निवेशितः संस्थापितः, निरुद्ध इत्यर्थः / स्मरः कामः यस्मिन् तत् ताहक, चित्तं मनोभावम् , आप प्राप्तवती। तथा प्रवृद्धोऽपि कामः तदा किञ्चित् सङ्कुचितः इव आसीत् इति भावः // 82 // __वह ( दमयन्ती ) उस ( पतिमुकुटजटित रत्न ) को ढककर प्रसन्न हुई, इसके बाद उसने अपने दोनों भागोंमें दीपकोंको देखकर (अकस्मात् दीपकों के देखनेसे ) कौतुक (दीपकके बुझनेपर पुनः दीपकोंके जलनेसे हा ! यह क्या हुआ ? ऐसा ) आश्चर्य, ( पतिके द्वारा वस्त्रहीन किये जानेसे उत्पन्न ) लज्जा, ( यह विचित्र घटना किस प्रकार हो गयी ? ऐसा ) भय-इनके समुदायमें स्थित कामयुक्त चित्तवाली हो गयी अर्थात् उसके देखने पर कौतुक आदिसे दमयन्तीका बढा हुआ भी काम कुछ सङ्कुचित हो गया // 82 // एककस्य शमने परं पुनर्जाग्रतं शमितमप्यवेक्ष्य तम् | जातवह्निवरसंस्मृतिः शिरः सा विधूय निमिमील केवलम् // 3 // एककस्येति / एककस्य तयोरेकस्य, दीपस्य, प्रदीपस्य, शमने निर्वापणे कृते सति, शमितमपि पूर्व निर्वापितमपि, परम् अपरम् , तं दीपम् , पुनः भूयः, जाग्रतं नलमायया प्रज्वलन्तम् , 'नाभ्यस्ताच्छतुः' इति नुमः प्रतिषेधः / अवेक्ष्य विलोक्य, जाता उत्पन्ना, वढेः अग्नेः, वरस्य 'या दाहपाकौपयिकी तनुः' इत्यादिनोक्तवरदानस्य, संस्मृतिः सम्यक् स्मरणं यस्याः सा तादृशी, सा भैमी, शिरः मस्तकम् , 75 नै० उ०
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________________ 1196 नैषधमहाकाव्यम् / विधूय कम्पयित्वा, स्मरणं नाटयित्त्वा दुर्वारत्वं निश्चित्येति भावः / केवलं निमिमील स्वयं निमीलिताक्षी जाता / स्वाभाविकलज्जावशादिति भावः // 83 // (उन दोनों दीपकोंमें- से ) एकको / ( वस्त्राञ्चल या-मुखवायुसे ) बुझाने पर फिर बुझे हुए भी उस दीपकको ( नलकी इच्छामात्रसे ) जलता हुआ देखकर ( स्वयम्वरमें दिये हुए ) अग्नि के वरदान (14 / 74) का स्मरण होनेपर दमयन्तीने ( अरे ! अग्निके द्वारा नलके लिये दिये हुए वरदानके प्रभावसे ऐसा हो रहा है, इस अभिप्रायसे ) शिरको हिलाकर (दीपक बुझाकर अन्धकार करना अशक्य होनेसे तुलसीदासके 'मूंदे आँख कहीं कोउ नाही' इस वचनके अनुसार ) केवल आँखोंको बन्द कर लिया // 83 // पश्य भीरु ! न मयाऽपि दृश्यते यनिमेषितवती दृशावसि | इत्यनेन परिहस्य सा तमः संविधाय समभोजि लजिता // 4 // पश्येति / भीरु ! हे वराङ्गने ! लज्जाया वराङ्गनाभूषणत्वादिति भावः। 'भियः क्रक्लुकनौ' इति क्रप्रत्ययः, ततः उङन्तत्वात् नदीत्वात् ह्रस्वः / 'भीरुराः त्रिलिङ्गः स्यात् वरयोषिति योषिति' इति मेदिनी / यत् यतः, दृशौ नयनद्वयम् , निमेषितवती लज्जया निमीलितवती, असि भवसि, त्वमिति शेषः / मम दर्शनभयादिति भावः। तत् तत एव, मया अपि न दृश्यसे अवलोक्यसे , स्वमिति शेषः / त्वन्निमीलने सर्व स्यान्धकारावृतत्वादिति भावः / पश्य अवलोकय, इति इत्थम , अनेन नलेन, परिहस्य उपहस्य, तमः अन्धकारम् , संविधाय निर्माय, लज्जिता वीडिती, सा दमयन्ती, समभोजि सम्भक्ता / अन्यथा उभयोस्तुल्यप्रीतेरयोगादिति भावः // 84 / / हे भीरु ( लज्जाकातर दमयन्ती) ! जो तुमने नेत्रोंको बन्द कर लिया है, उससे मैं भी तुमको नहीं देखता हूँ ( अथवा-तुमने नेत्रोंको बन्द कर लिया है और मैं नहीं देखता हूँ, यह आश्चर्यकी बात है / अथवा-तुमने नेत्रोंको बन्द किया है, इससे मैं भी तुमको नहीं देखता ? अर्थात् तुम्हें तो मैं देख ही रहा हूँ। अथवा-कोई व्यक्ति अपने शरीर के अदर्शनार्थ उस शरीरको ही वस्त्रादिसे छिपाता है, परन्तु तुमने शरीरको नहीं छिपाकर नेत्रोंको बन्द किया है, अत एव मैंने तो तुम्हारे अङ्गोंको अच्छी तरह देख ही लिया है, तुम्हारे नेत्र बन्द करनेसे कोई लाम नहीं हुआ ? ) इस प्रकार परिहासकर ( इच्छामात्रसे दीपकोंके बुझानेपर ) अन्धकार करके नलने लज्जित हुई उस दमयन्ती के साथ सम्भोग किया // 84 // चुम्ब्यसेऽयमयमङ्कथसे नखैः श्लिष्यसेऽयमयमय॑से हृदि / नो पुनर्न करवाणि ते गिरं हुं त्यज त्यज तवास्मि किङ्करा / / 85 / / अथान्धकारकल्पनायाः फलं युग्मेनाह-चुम्ब्यसे इत्यादि / हे प्रियतम ! इत्यामन्त्रणपदमूहनीयम् / अयं स्वम् , चुम्ब्यसे तव अधरः पीयते ; अयं त्वम् , नखः अयसे क्षतकरणेन चिह्नयसे; अयं स्वम् , श्लिष्यसे मालिङ्गयसे; अयं त्वम्, हृदि उरसि अयंसे स्थाप्यसे इत्यर्थः / सर्वत्र मयेति शेषः / ते तव, गिरं वाक्य चम्बनादि
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________________ अष्टादशः सर्गः / 1167 प्रार्थनारूपामित्यर्थः / पुनः न करवाणि ? न पालयामि ? इति नो न, अवश्यमेव करवाणीत्यर्थः / हुमिति अनुनये, त्यज त्यज मां मुश्च मुञ्च, ते तव, किकरा दासी। 'किंयत्तद्वहुषु कृमोऽविधानम्' इत्यचप्रत्यये टाप / अस्मि भवामि / अतस्तवाभिलाषः सर्वथैव पूरणीयो मयेति भावः // 85 // ___ 'यह मैं तुमको चुम्बन करती हूँ , यह मैं तुमको नखोंसे चिह्नित करती हूँ, यह मैं तुम्हारा आलिङ्गन करती हूँ, यह मैं तुम्हें हृदयपर रखती हूँ' फिर तुम्हारी बात नहीं करूँगी ऐसा नहीं होगा अर्थात् फिर मैं तुम्हारी सुरतयाचनाको बातको मानूंगो हो, हुं, छोड़ो-छोड़ो, तुम्हारी मैं दासी हूँ-' // 85 // इत्यलीकरतकातरा प्रियं विप्रलभ्य सुरते ह्रियं च सा | चुम्बनादि वितातर मायिनी किं विदग्धमनसामगोचरः ? // 86 // __ इतीति / इति इत्थम् , अलीकं मिथ्या यथा तथा, रते रमणे, कातरा असमर्था, कपटेनैव रतकातयं नाटयन्ती न पुनस्तत्वत इति भावः / मायिनी वाक्छलचतुरा, सा भैमी, सुरते रमणकाले, प्रियं नलम् , हियञ्च लज्जाञ्च, विप्रलभ्य प्रतार्य, चुम्बा नादि केवलमधरपानादिकमेवेत्यर्थः। विततार नलाय ददौ। मध्यानायिकाभाव. स्वेऽपि मुग्धावप्रकटनात् प्रकृतसुरताकरणेन प्रियविप्रलम्भः, किञ्च चुम्बनादिषु लज्जातिशयसम्भवेऽपि तदेवलम्बनाभावात् लज्जाविप्रलम्भ इति भावः। तथा हि विदग्धानि कालोचितव्यवहारकुशलानि, मनांसि धियः येषां तादृशानाम् , जनाना. मिति शेषः। किं वैदग्ध्यम् , अगोचरः ? अविषयः ? न किमपीत्यर्थः / अत एव सा विस्रब्धं विहत्त शशाक इति भावः // 86 // इस प्रकार ( 1885) व्यर्थ ही रतमें (पाठा०-अत्यधिक व्यर्थ ) कातर मायावती उस ( दमयन्ती ) ने सुरतमें पति ( नल ) को तथा लज्जाको वञ्चितकर चुम्बन आदि दिया; चतुरचितवाले व्यक्तियों का क्या अविषय है ? अर्थात् चतुर व्यक्ति क्या नहीं कर सकते हैं ? [ मध्या नायिका होनेपर भी मुग्धाभावको प्रकट करके केवल चुम्बनादि देकर प्रकृत सुरतको टाल देनेसे प्रिय ( नल ) को तथा चुम्बनादिमें लज्जाधिक्यकी सम्भावना होनेपर भी उसका अवलम्बन नहीं करनेसे लज्जाको वञ्चित करना कहा गया है / इसका अभिप्राय यह है किसुरतके विषयमें बलात्कार करनेके भयसे डरी हुई यह जिस किसी प्रकार अपनेको मुझसे छुड़ाने के लिए ही ऐसा कहती है। जिस प्रकार अप्रौढ़ा यह दमयन्ती प्रिय नलको वञ्चित. कर उनकी ऐसी वृथा बुद्धि उत्पन्न कर रही है, उसी प्रकार मुझे (लज्जाको) भी वञ्चितकर मुझे अर्थात् लज्जाको यह अब तक भी नहीं छोड़ रही है / यह बलात्कारके भयसे ही चुम्बन नखच्छेदन आदि करती है, स्वेच्छासे नहीं; इस प्रकार लज्जाके त्यागको भी अप्रकटितकर चुम्बनादि सम्पूर्ण सुरतसम्भारको प्रौढ़तासे प्रियके लिए देकर माया ( कपट ) से अपने १.'-तरकातरा' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1168 नैषधमहाकाव्यम् / अभीष्टको उस दमयन्तीने पूरा कर लिया ] // 86 // स्वेप्सितोद्गमितमात्रलुप्तया दीपिकाचपलतया तमोघने / निविशङ्करतजन्मतन्मुखाकृतदर्शनसुखान्यभुङ्क्त सः / / 87 / / स्वेति / सः नलः, तमः अन्धकार एव, घनः मेघः तस्मिन् , स्वेप्सितेन निजेच्छामात्रेणैव, उद्गमितमात्रं प्रज्वलनक्षणमेव, लुप्ता विनष्टा तया तथोक्तया, क्षणिक येत्यर्थः / दीपिका प्रदीप एव, चपला विद्यत् तया तद्वारा इत्यर्थः। 'विद्यच्चञ्चला चपलाऽपि च' इति यादवः / निर्विशङ्करतात् अन्धकारजन्यनिरुद्वेगरमणात् , जन्म सम्भवः / येषां तादृशानाम् , तस्याः, भैम्याः, मुखाकूतानां वदनचेष्टितानाम् , दर्श नात् अवलोकनात् , यानि सुखानि हर्षाः तानि, अभुङ्क्त अन्वभूत् / स्थिरप्रकाशे तद्विस्रम्भविघावभयात् क्षणिकप्रकाशेन तन्मुखदर्शनसुखम् अनुभूतवान् इत्यर्थः।।८७॥ उस नलने अन्धकाररूपी मेघ ( पक्षा०-मेघतुल्य अन्धकार ) में अपनी इच्छामात्रासे जलकर तत्काल बुझे हुए दीपकरूपी बिजलीसे निश्शङ्क किये जाते हुए सुरतमें उत्पन्न दमयन्ती के मुखाभिप्रायके दर्शनके सुखोंको प्राप्त किया। [जिस प्रकार काले-काले मेवमें क्षणमात्र बिजली चमककर शान्त हो जाती है, उसी प्रकार वरुणके दिये हुए वर (14174) के प्रभावसे नलकी इच्छामात्रासे दीपक भी क्षणमात्र जलकर बुझ जाता था और पहले अन्धकार होनेसे निश्शङ्क होकर सुरत करती हुई दमयन्तीके मुख में कैसे भाव हो रहे हैं, इसे दीपकके क्षणिक प्रकाशमें देखकर नल सुखका अनुभव कर रहे थे ] // 87 // यद्धृवौ कुटिलिते तया रते मन्मथेन तदनामि कार्मुकम् / यत्तु हुं हुमिति सा तदा व्यधात्तत् स्मरस्य शरमुक्तिहुकृतम् / / 8 / / अथ तन्मुखाकूतान्येवाह-यदित्यादि / तया भैम्या, रते सुरतकाले, यत् ध्रुवौ भ्रद्वयम् , कुटिलिते सुखातिरेकात् सोचिते, तत् एव भ्रकुटिलीकरणमेव, मन्मथेन कामेन, कार्मुकं धनुः, अनामि नमितम् , आकर्षीत्यर्थः / तस्या भ्रद्वयस्य कामकामकवत् मनोहरत्वादिति भावः / किञ्च, सा भैमी, तदा रमणकाले, हूँ हम् इति यत् व्यधात् सुखातिरेकात् 'हूं हुं' इति यत अव्यक्तशब्दम् अकरोत् , तत्तु तत् हुङ्क्त. मेव, स्मरस्य कामस्य, शरमुक्तिहुकृतं बाणमोक्षस्य हुङ्कारस्वरूपम् , अभूदिति शेषः / तत् सर्वं तस्य अधिकमुद्दोपकम् अभूत इति भावः // 88 // ___ उस (दमयन्ती) ने सुरतमें जो भ्रूद्वयको टेढ़ा किया, वह कामदेवने (मानो) अपने धनुषको झुकाया, तथा उस ( दमयन्ती) ने जो 'हुँ, हुँ' शब्द किया, वही (मानो) कामदेवके बाण छोड़नेका हुङ्कार हुआ [ सुरतकालमें दमयन्तीके भ्रूद्वयको टेढ़ा करना तथा 'हुं, हुँ' शब्द करनेसे फिर काम बढ़ गया / धनुर्धरलोग धनुषको झुकाकर बादमें हुङ्कार करते हुए बाण छोड़ते हैं ] // 88 //
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1166 ईक्षितोपदिशतीव नर्तितुं तत्क्षणोदितमुदं मनोभुवम् / कान्तदन्तपरिपीडिताधरा पाणिधूननमियं वितन्वती / / 89 // ईक्षितेति / कान्तस्य प्रियस्य, दन्तैः दशनैः परिपीडिताधरा दंशनेन व्यथितरदनच्छदा, अत एव पागिधूननं तनिवारणाय करकम्पनम् , वितन्वती कुर्वती, इयं दमयन्ती, तरक्षणे सुरतकाले, उदितमुदं स्वप्रभावदर्शनात् सञ्जातहर्षम् , मनोभुवम् अनङ्गम् , नर्तितुं नृत्यं कत्तम् , उपदिशतीव इत्थं नृत्यं कुरु इति शिक्षयन्ती इव, स्थितेति शेषः। 'आच्छीन?नुम्' इति विकल्पान्नुमभावः। ईक्षिता दृष्टा, प्रियेणेति शेषः / नृत्यशिक्षको हि हस्तनतनेनैव स्वशिष्यान् नर्तितुं शिक्षयतीति लौकिकाः // 89 // ___ पति ( नल ) के दन्तोंसे पीड़ित अधरवाली ( अत एव निषेधार्थ) हाथको फैलाती हुई उस ( दनयन्ती ) को ( नलने ) उस समयमें हर्षित कामदेवको नृत्य करनेके लिए शिक्षा देती हुई-सी देखा / [ चुम्बनके समय दांतोंसे अधरके पीड़ित होनेपर दमयन्तीने हाथको फैलाकर वैसा करनेसे जो मना किया, तो नलको मालूम पड़ा कि मानो वह उस समय हर्षित हुए कामदेवको नृत्य सिखा रही हो / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी शिष्यको नृत्य खिलाते समय हाथ घुमा-घुमाकर शिक्षा देता है ] // 89 // सा शशाक परिरम्भदायिनि गाहितुं बृहदुरः प्रियस्य न | चक्षमे स च न भङ्गुरभ्रवस्तुङ्गपीनकुचदरतां गतम् / / 90 // सेति / परिरम्भदायिनी आलिङ्गनप्रदायिनी, सा भैमी, प्रियस्य नलस्य, बृहत् विशालम् , उरः वक्षःस्थलम् , गाहितु प्रवेष्टुम् , साकल्येनामिव्याप्तुमित्यर्थः / न शशाक न चक्षमे, नलोरास्थलमपेक्ष्य स्वस्य क्षीणाङ्गत्वादिति भावः / इत्याश्रयाधिक्येनाधिकालङ्कारभेदः / सः च नलोऽपि, भङ्गुरभ्रवः सुवतिमभ्रशालिन्याः प्रिया. याः, तुङ्गपीनकुचाभ्याम् उन्नतस्थूलपयोधराभ्याम् , दूरतां व्यवधानम् , गतं प्राप्तम् , उरः गाहितुमिति पूर्वेणान्वयः, न चक्षमे न शशाक / कुचयोरोन्नत्यस्थी. ल्याभ्यां व्यवहितत्वादिति भावः / इति सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धरूपातिशयोक्तिः // 90 // ____ आलिङ्गन देती हुई (कृशाङ्गी) वह (दमयन्ती) प्रियके विशाल वक्षःस्थलको (सम्पूर्णतया) आलिङ्गन नहीं कर सकी, तथा वे नल भी कुटिल भ्रूवाली (दमयन्ती) के ऊंचे-ऊंचे स्तनोंसे दूरस्थ (दमयन्तीके) वक्षःस्थलका सम्पूर्णतया आलिङ्गन नहीं कर सके / [ दमयन्ती स्वयं. कृशाङ्गी थी और नलकी छाती चौड़ी थी, अत उसका सम्पूर्णतया वह आलिङ्गन नही कर सकी तथा दमयन्तीके स्तन ऊंचे-ऊंचे थे, अतः उसकी छातीसे नलकी छाती दूर ही रह जाती थो-सटती नहीं थी-इस कारण वे भी प्रियाकी छातीका सम्पूर्णतया आलिङ्गन नहीं कर सके / आलिङ्गनेच्छा अपूर्ण होनेसे दोनों उद्दीप्तकाम ही रह गये ] // 9 //
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________________ 1200 नैषधमहाकाव्यम् / बाहुबल्लिपरिरम्भमण्डली या परस्परमपीडयत् तयोः / आस्त हेमनलिनीमृणालजः पाश एव हृदयेशयस्य सः // 61 / / बाद्विति / तयोः भैमीनलयोः, या बाहुबल्लिभ्यां भुजलताभ्याम् , परिवरभे परस्परसंश्लेषेण, मण्डली वेष्टनम् , भुजचतुष्टयानां मण्डलाकारता इत्यर्थः / परस्परम् अन्योऽन्यम् , अपीडयत् प्रगाढसंश्लेषेण पीडितवती, सः परिरम्भव्यापार इत्यर्थः / हृदये शेते इति हृदयेशयः कामः तस्य / 'अधिकरणे शेतेः' इत्यच प्रत्ययः / 'शयवासवासिष्वकालात्' इत्यलुक / हेमनलिनीमृणालात् स्वर्णकमलिनीदण्डात् , जायते इति तज्जः अतिगीरत्वात् मृदुत्वाञ्च सुवर्णमयकमलदण्डात् जात इव प्रती. यसानः, पाशः पाशाख्यबन्धनरज्जुरेव, आस्त अभवत् इत्युत्प्रेक्षा // 91 // उन दोनों के बाहुरूपी लताके आलिङ्गनकी गोलाई (वृत्ताकारता) ने परस्परम ( आलिङ्गन करते समय ) पीडित किया, वह स्वर्णकमलिनीके मृणालका बना हुआ कामदेव का पाश (बांधनेकी रस्सी ) ही हो गया / [ कोमल, पतले तथा लम्बे होनेसे लतातुल्य बाहुचतुष्टयसे परस्पर पीडनपूर्वक एक दूसरे का आलिङ्गन करनेसे ऐसा मालूम पड़ता था कि सुवर्णमयी कमलिनीके मृणालसे बना हुआ कामदेवका वह पाश ( बन्धनरज्जु ) हो परस्परा लिङ्गन करनेसे वे दोनों कामके वशीभूत हो गये ] // 91 // बल्लभेन परिरम्भपीडितौ प्रेयसीहृदि कुचाववापतुः / केलतीमदनयोरुपाश्रये तत्र वृत्तमिलितोपधानताम् / / 62 // बल्लभेनेति / वल्लभेन प्रियेण नलेन, परिरम्भेण प्रगाढालिङ्गनेन, पीडितो चिपि. टीकृती इत्यर्थः / प्रेयस्याः दमयन्त्याः, हृदि वक्षसि, स्थितौ इति शेषः / कुचौ स्तनौ एव, केलतीमदनयोः रतिकामयोः / 'कामस्त्री केलती रतिः' इति यादवः / उपाश्रये अवष्टरमभूते, तत्र दमयन्तीवति, वृत्त वत्त ले, मिलिते परस्परसङ्गते, उपधाने उपबहें / 'उपधानं तूवबहम्' इत्यमरः / तयोः भावः तत्ता ता शिरोनिधानताम् , अवापतुः जग्मतुः इति शेषः / इत्युत्प्रेक्षा // 52 // प्रियतमा (दमयन्ती ) को छातीमें प्रियतम (नल ) के द्वारा ( आलिङ्गन-कालमें ) अतिशय पीडित अर्थात दबे हुए ( दमयन्तीके ) दोन स्तन रति तथा कामदेवके विश्रामस्थानपर गोलाकार मिली हुई दो तक्यिोंके समान हो गये। [ नलके गाढालिङ्गनसे दबे हुए दलयन्तीके दोनों स्तन रति-कामके गोलाकर तकियों के समान मालूम पड़ते थे] // 92 / / तत् प्रियोरुयुगलं नलार्पितैः पाणिजस्य मृदुभिः पदैर्बभौ / उत्प्रशस्ति रतिकामयोर्जयस्तम्भयुग्ममिव शातकुम्भजम् / / 93 / / / तदिति / तत् अतिमनोज्ञम , प्रियायाः, कान्तायाः, उरुयुगलं सक्थिद्वयम , नलेन अपितैः न्यस्तैः, कृतरित्यर्थः मृदुभिः कोमलैः, ईषन्मात्रेरित्यर्थः / पाणिजस्य, नखस्य, 1. 'तत्प्रशस्ति' इति पाठान्तरम्।
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1201 पदैः चिह्नः, नखक्षतरित्यर्थः / उत् उद्गता, उत्कीर्णा इत्यर्थः / प्रशस्तिः प्रशंसावचनं तत् तादृशम् उत्प्रशस्ति उत्कीर्णप्रशंसावचनम् , शातकुम्भज हिरण्मयम् , रतिका. मयोः जयस्तम्भयुग्मम् इव जेतृत्वसूचकस्तम्भद्वयमिव, बभी शुशुभे इत्युत्प्रेक्षा॥९३॥ नलके द्वारा किये गये नखके कोमल अर्थात् छोटे-छोटे चिह्नीं (नखक्षतों) से * प्रिया दमयन्तीका वह ऊरुद्वय रति तथा कामदेवके विजय-प्रशस्ति लिखे गये सुवर्णनिर्मित दो विजयस्तम्भों के समान शोमता था // 93 // बह्वमानि विधिनाऽपि तावकं नाभिमूरुयुगमन्तराऽङ्गकम् | स व्यधादधिकवर्णकैरिदं काननैर्यदिति तां पुराऽऽह सः // 14 // बह्विति / हे प्रिये ! तावकं त्वदीयम् , नाभिम् ऊरुयुगञ्च अन्तरा तन्मध्यवर्ति / 'अन्तराऽन्तरेण युक्ते' इति द्वितीया / 'अन्तराशब्दो मध्यमाधेयप्रधानमाचष्टे' इति काशिका / अङ्गकम् अत्यन्ताभिलषणीयत्वेन आदरणीयमङ्गम् , वराङ्गमित्यर्थः। विधिना वेधसाऽपि, बहु अमानि अतिशयेन समादृतम् / कुतः ? यत् यस्मात् , सः विधिः, इदम् अङ्गकम् , अधिकवर्णकैः समुज्ज्वलाभैः,काञ्चनैः सुवर्णैः, व्यधात् सृष्टवा निव, इति इस्थम् , सः नलः, तां प्रियाम् , पुरा सुरतारम्भात् पूर्वम् , आह उक्तवान् / 'पुरि लुङ् चास्मे' इति भूते लट् // 94 // ___ ( तुम्हारा अतिशय कामुक युवक केवल मैंने ही नहीं, किन्तु वीतराग एवं बूढ़े ) ब्रह्मा ने भी नाभि तथा ऊरुद्वयके मध्य में स्थित तुम्हारे काममन्दिरको बहुत माना अर्थात् अतिशय आदर किया, क्योंकि उस ( ब्रह्मा ) ने इसे ( अधिक गौरवर्ण लोमहीन तथा अन्यान्य अङ्गोंकी अपेक्षा शीत-वातातपको नहीं सह सकनेके कारण) अधिक वर्णवाले मानो सुवर्णो से बनाया है। ऐसा उस ( नल ) ने ( मैथुन करने के ) पहले उस ( दमयन्ती) से कहा। [ अतिशय अश्लील होने के कारण अवर्णनायोग्य होने पर भी मैथुन-वर्णनके अतिरिक्त अन्यत्र वर्णन करना अयोग्य होनेसे इसे मैथुनकालसे पूर्व वर्णन किया गया है ] // पीडनाय मृदुनी विगाह्य तौ कान्तपाणिनलिने स्पृहावती। तत्कुचौ कलशपीननिष्ठुरौ हारहासविहते वितेनतुः / / 95 // पोडनायेति / कलशवत् घटवत् , पीनी स्थूली, निष्ठुरौ कठिनौ च, तस्याः दमयन्त्याः, कुचौ स्तनौ / कर्तारौ / मृदुनी कोमले, तथाऽपि तौ अतिकठिनौ दम. यन्तीकुचो, विगाह्य अवगाह्य, प्राप्य इत्यर्थः / पीडनाय पीडनं कम् , स्पृहावती अभिलषितवती, व्याप्रियमाणे इत्यर्थः / कान्तस्य नलस्य, पाणिनलिने करकमले / कर्मणी / हारः कुचविलम्बितमुक्तावली एव, हासः हास्यम् , शुभ्रताधिक्यादिति भावः / तेन विहते तिरस्कृते, तिरस्कारेण विताडिते इव इत्यर्थः / वितेनतुः चक्रतुः / कोमलवात् दुर्बलयोः नलपाण्योः स्थूलकठिनयोः बलिनो दमयन्तीकुचयोः पीडन
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________________ 1202 नैषधमहाकाव्यम् / प्रवृत्तौ दुर्बलस्य प्रबलकत्त कहासताडनयोरवश्यम्भाव्यत्वादिति भावः / अशक्यार्थप्रवृत्ताः परिहासास्पदं भवन्तीति निष्कर्षः // 95 // ___ घटके समान बड़े तथा कठिन दमयन्तीके स्तनद्वयने कोमल (होते हुए भी) उन दोनोंको स्पर्शकर मर्दन करने के लिए इच्छुक पतिके हस्त-द्वयरूपी कमलद्वय (कमल तुल्य मृदु दोनों हाथ ) को हारके प्रकाश (या-हाररूपी हास = उपहास ) से आच्छादित ( पक्षा०-तिरस्कृत ) कर दिया / ( अथवा-"मर्दन करनेके लिए इच्छुक उन दोनों हार्थोको मृदु जानकर उक्त प्रकारसे उपहास कर दिया ) / [ दमयन्तीके दोनों स्तन घटके समान विशाल तथा कठिन थे, उनको नलके मृदुतम कमल तुल्य हाथोंने मर्दन करना चाहा तो उन दोनों स्तनोंके हारका प्रकाश नलके उन दोनों हार्थोपर पड़ने पर ऐसा मालूम पड़ता था कि कठिन एवं विशाल स्तन कोमल एवं लघु नलहस्तको हँस रहे हैं कि तुम दोनों कोमल तथा लघु होनेसे हमारा मर्दन नहीं कर सकते, अत एव तुम दोनों का यह प्रयास व्यर्थ है / लोकमें कोई असमर्थ एवं लघु व्यक्ति कठोर एवं महान् व्यक्तिको नहीं दबा सकता, यदि दबाता है तो भी वह उपहासास्पद ही होता है। यद्यपि 'अकर्मकठिनौ हस्तौ-' इस वचन के अनुसार राजाके हाथका कठोर होना ही शास्त्रोंमें उत्तम माना गया है, तथापि नलके हाथोंको कमलवत् कोमल कहकर उसकी अपेक्षा दमयन्तीके स्तनोंका अधिक काठिन्य योतित करनेसे शास्त्रलक्षणसे कोई विरोध नहीं होता] // 95 // यौ कुरङ्गमदकुङ्कुमाञ्चितौ नीललोहितरुचौ वधूकुचौ / स प्रियोरसि तयोः स्वयम्भुवोराचचार नखकिशुकार्चनम् // 66 / / याविति / यौ वधूकुचौ दमयन्तीस्तनौ, कुरङ्गमदकुङ्कुमाभ्यां कस्तूरिकाश्मीरजाभ्याम् , अञ्चितौ पूजितौ, लेपनेन शोभिती सन्तौ इत्यर्थः / अत एव नीला कस्तूरोलिप्तस्थाने कृष्णवर्णा च, सा लोहिता कुङ्कुमलिप्तस्थाने रक्तवर्णा च / 'वर्णो वर्णेन' इति तत्पुरुषसमासः / रुच प्रभा ययोः तादृशी, अन्यत्र-नीलः कण्ठे लोहितः केशेषु इति नीललोहितः महादेवः, तस्मिन् रुक रुचिः, अनुराग इत्यर्थः। ययोः तादृशी, बभूवतुरिति शेषः / प्रियायाः भैम्याः, उरसि वक्षसि, स्वयम्भुवोः यौवनागमे स्वतः एव उत्पन्नयोः, अन्यत्र-स्वयम्भूमूयोश्च, तयोः वधूकुचयोः, सः. तलः, नखः नख. ततैरेव, किंशुकैः पलाशकुसुमः, रक्तवर्णतासाम्यात् वक्रतारूपाकारसाम्याच्चेति भावः। अर्चनं पूजनम् , आचचार चकारेव / स्वयम्भूत्वेन देवत्वात् तयोरर्चनया औचित्या. दिति भावः / गम्योत्प्रेक्षा // 96 // __ कस्तूरी तथा कुङ्कुम ( के लेप ) से शोभित ( अत एव क्रमशः ) नील तथा लाल रंगवाले ( पक्षा०-नीललोहित अर्थात् शिवजीमें अनुरागवाले अर्थात् शिवतुल्य ) जो वधू (दमयम्ती) के दोनों स्तन थे, प्रियाके वक्षस्थलपर ( यौवनावस्थामें ) स्वयमेव उत्पन्न (पक्षा०- स्वयम्भू मूर्तिवाले ) उन दोनों ( स्तनों, पक्षा०-शिवजी) की उस (नल) ने ( वक्राकार एवं
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1203 रक्त वर्ण होनेसे ) नखरूपी किंशुकों ( पलाश-पुष्पों ) से मानो पूजन किया अर्थात् उक्तरूप दमयन्तीके स्तनोंपर नखक्षत किया / / 96 / / अम्बुधेः कियदनुत्थितं विधुं स्वानुबिम्बमिलितं व्यडम्बयत् / चुम्बदम्बुजमुखीमुखं तदा नैषधस्य वदनेन्दुमण्डलम् / / 67 // अम्बुधेरिति / तदा संसर्गकाले, अम्बुजमुख्याः कमलवदनायाः प्रेयस्याः, मुखं वदनम्, चुम्बत् अधरं स्वदमानम्, नैषधस्य नलस्य, वदनेन्दुमण्डलं मुखचन्द्रबि. म्बम् / कत्त / अम्बुधेः सागरात् , कियत् किञ्चित्, अनुस्थितम् अनुदितम्, अधि. कांशमुदितम् ईषत् समुद्रगर्भ अवस्थितमित्यर्थः। स्वानुबिम्बेन स्वस्य विधोरेव जलान्तर्वर्तिप्रतिबिम्बेन, मिलितं युक्तम्, विधुम् इन्दुम्, व्यडम्बयत् अनुचकार / तयोः मुखयोमिथः संश्लेषात् कास्न्येनादृश्यमानत्वादिदमुपमितम् // 97 // उस समय ( सुरतकालमें ) कमलमुखी ( दमयन्ती ) के मुखका चुम्बन करते हुए, नलके मुखरूपी चन्द्रमण्डलने समुद्रसे कुछ नहीं निकले हुए अर्थात अधिकांश उदित और स्वल्पांश अनुदित हुए, (समुद्रजलमें) अपने प्रतिबिम्बसे मिलित चन्द्रमाका अनुकरण किया। ( अथवा-..."नलके मुखरूपी चन्द्रमण्डलका चुम्बन करता हुआ कमलमुखी (दमयन्ती) के मुखने...... ) / [थोड़ा अवशिष्ट और अधिकांश उदित हुआ चन्द्रका प्रतिबिम्ब समुद्रजलमें पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्बसे युक्त होकर जैसा शोभा पाता है, वैसे ही नलदमयन्तीके मुख भी चुम्बनकार्य में शोभते थे / बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव कहनेसे नल-दमयन्ती के मुखोंकी अधिकतम साम्यता सूचित होती है तथा कामके मित्र चन्द्रमाके उदयका वर्णन करनेसे भविष्यमें कामकी अधिक वृद्धि होना भी सूचित होता है ] // 97 / / पूगभोगबहुताकषायितैर्वासितैरुदयभास्करेण तो। . चक्रतुर्निधुवनेऽधरामृतस्तत्र साधु मधुपानविभ्रमम् / / 98 / / पूगेति / तौ भैमीनलौ, तत्र तस्मिन् , निधुवने रते / 'व्यवायो ग्राम्यधर्मो मैथुन निधुवनं रतम्' इत्यमरः / पूगभोगः क्रमुकभक्षणं, ताम्बूलचर्वणमिति यावत् / 'पूगः क्रमुकवृन्दयोः' इत्यमरः / तस्य बहुतया बाहुल्येन, 'पूगभाग' इति पाठे-चर्यमा. णताम्बुले गुवाकभागस्य आधिक्यतया इत्यर्थः / कषायितैः सञ्जातकषायरसैः, तथा उदयभास्करेण कर्पूरविशेषेण, वासितैः सुरभितैः, अधरामृतैः परस्परमधरसुधापान रित्यर्थः / साधु सम्यक, मधुपानस्य मद्यपानस्य, विभ्रममिव विभ्रमं लीलाम्, चक्रतुः आचेरतुः / गुवाकादिमदकारकद्रव्यसन्धानजमद्यपानेन यथा मत्तता जायते, तथा तादृशाधरमधुपानेनापि मत्तौ तौ सुरतं चक्रतुरिति निष्कर्षः। अत्र सादृश्याक्षेपात् निदर्शनालङ्कारः // 98 // उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल) ने (पान-बीड़ेमें डाली गयी) सुपारीके अधिक 1. 'पूगमाग-' इति, 'पूगराग' इति च पाठान्तरम् /
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________________ 1204 नैषधमहाकाव्यम् / खाने ( पा०-सुपारीका माग अधिक होने, द्वितीयपाठा०-पान चबानेसे क्रमशः बढ़ी हुई सुपारी की लालिमा ) से कषाय रसवाले ( पक्षा०-मुगन्धयुक्त ) तथा (पानमें डालने योग्य ) कर्पूर-विशेषसे सुरभित अधररूप अमृत ( पक्षा०-परस्पर किये जाते हुए मधुर होनेसे अमृत तुल्य अधरपान ) से सम्यक् प्रकारसे मधु ( मद्य-) पानके विलास ( विशेष भ्रान्ति-नशा ) को प्राप्त किया ! [ जिस प्रकार कोई व्यक्ति सुपारी आदिकी अधिकतासे कषायरसयुक्त मद्यका पानकर नशेसे भ्रान्त ( आनन्द या नशेसे युक्त ) होता है, उसी प्रकार दमयन्ती तथा नलने भी सुरतमें अधिक पान चबानेसे अरुणवर्णके अधरामृतका परस्परमें पानकर ( परस्पर अधर-चुम्बनकर ) सम्यक् प्रकारसे कामोन्मत्त हो गये ] // 98 // आह नाथवदनस्य चुम्बतः सा स्म शोतकरतामनक्षरम् / सीत्कृतानि सुदती वितन्वती सत्त्वदत्तपृथुवेपथुस्तदा / / 99 // आहेति / सुदती मनोज्ञदशना, सा भैमी, तदा अधरपानकाले, सीस्कृतानि दंशनवेदनया सीत्कारान् , वितन्वती कुर्वती, तथा सत्त्वेन सत्त्वगुणोद्रेकेण, दत्तः जनितः, पृथुः महान् , वेपथुः कम्पाख्यः सात्विकभावः यस्याः सा तादृशी च सती, चुम्बतः चुम्बनं कुर्वतः, नाथवदनस्य प्रियमुखस्य, शीतकरतां शीतांशुत्वमेव शीत. मिति भावः // 99 // उस ( सुरत-चुम्बन ) कालमें ( दन्तदंशनवेदनासे ) सीत्कार करती हुई तथा सात्त्विक भावसे कम्पित होती हुई उस मुदती ( दमयन्ती ) ने चुम्बन करते हुए नलमुखको बिना अक्षरोच्चारण किये ही शीतकर ( ठण्डा करनेवाला, पक्षा०-ठण्डे किरणोंवाला अर्थात् चन्द्रमा) कह दिया / [ ठण्ड लगने पर मनुष्य 'सी-सी' शब्द करता हुआ काँपता और कुछ कहता नहीं है, दमयन्ती भी सुरतचुम्बनमें दन्त-दंशनसे पीडित हो 'सी-सी' करती थी और सात्त्विक भावके उदय होनेसे कम्पित भी होती थी, अत एव वह मानो बिना अक्षरोच्चारण किये ही यह चुम्बन करने वाला नल-मुख शीतकर ( ठण्डक करनेवालापक्षा०-चन्द्र ) है' ऐसा कहती थी। नलके चुम्बनसे दमयन्तीको चन्द्रस्पर्श के समान परमामन्द हुआ ] / / 99 // चुम्बनाय कलितप्रियाकुचं वीरसेनसुतवक्त्रमण्डलम् | प्राप भत्तुं ममृतैः सुधांशुना सक्तहाटकघटेन मित्रताम् / / 180 / / चुम्बनायेति / चुम्बनाय स्तनोपरि चुम्बनकरणाय, कलितः गृहीतः, मुखेनैव स्पृष्ट इत्यर्थः / प्रियाकुचः भैमीस्तनो येन तादृशम्, वीरसेनसुतवक्त्रमण्डलं नलमुखबिम्बम् / कर्तृ / अमृतैः सुधाभिः, भत्त पूरयितुम्, सक्तः स्पृष्टः, हाटकस्य कन. कस्य, घटः कुम्भो यस्मिन् तादृशेन, सुधांशुना चन्द्रेण, मित्रतां सहशताम् , प्राप
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1205 लेभे। नलमुखस्य चन्द्रतुल्यत्वात् भैमीकुचस्य च स्वर्णघटसाम्यादिति भावः / कनककलशे अमृतसम्भरणार्थं समागतः साक्षात् अमृतांशुरिव इत्युत्प्रेक्षया अमृतकरत्वं व्यज्यते इति अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः॥ 10 // चुम्बनके लिए प्रिया ( दमयन्ती) के स्तनको प्राप्त नलका मुखमण्डल (अपने ही) अमृतसे पूर्ण करने के लिए सोने के घड़ेका स्पर्श किये हुए चन्द्र के समान हुआ। [दमयन्तीके स्तनोंको जब नल मुखसे चुम्बन करने लगे तो मालूम पड़ता था कि चन्द्रमा अपने अमृतप्रवाहोंसे स्वर्णघटको भर रहा हो; इससे नल मुखका अमृततुल्य मधुरसपूर्ण चन्द्रतुल्य होना तथा दमयन्तीके स्तनका स्वर्णकलशतुल्य गौरवर्ण, विशाल एवं कठोर होना और नलमुखके स्पर्शसे दमयन्तीको अमृतरसपूर्णके समान अवर्णनीय आनन्द होना सूचित होता है / 'मुखनेत्रस्तनबाहुमूलकपोलौष्ठद्वयवराङ्गान्यष्टौ चुम्बनस्थानानि, रागतः सर्वाण्यपि च' ( मुख, नेत्र, स्तन, बाहुमूल ( वक्षः ), कपोल, दोनों ओठ तथा काममन्दिर ये आठ चुम्बनके स्थान हैं और रागातिशय होनेसे सभी अङ्ग चुम्बनके स्थान हैं ) इस वात्स्यायनोक्त वचनके अनुसार अथवा-'नयनगल्लकपोलदन्तवासोमुखान्तस्तनयुगलललाटं वा चुम्बनस्थानम्, स्तने चूचुकं परिहृत्येति विशेषः' इस वचनके अनुसार रतिकालमें स्त्रीके स्तन ( बालकपेय स्तनाग्रभाग ( चूचुक ) को छोड़कर) का भी चुम्बन करनेका विधान है // 300 // वीक्ष्य वीक्ष्य पुनरैक्षि साऽमुना पर्यरम्भि परिरभ्य चासकृत् / चुम्बिता पुनरचुम्बि चादरात्तप्तिरापि न कथञ्चनापि च / / 101 / / वीचयेति / अमुना नलेन, सा भैमी, आदरात् आग्रहातिशयात् , पदमिदं चुम्ब नालिङ्गनयोरपि योज्यम् / वीच्य वीचय पुनः पुनदृष्ट्वाऽपि, पुनः भूयः, ऐति ईक्षिता, असकृत् वारं वारम्. आदरात् परिरभ्य आलिङ्गयापि, पर्यरम्भि पुनः परिरब्धा / 'रभेरशलिटोः' इति नुमागमः / तथा आदरात 'चुम्बिता कृतचुम्बनाऽपि, पुनश्च भूयोऽपि, अचुम्बि चुम्बिता। कथञ्चनापि केनापि प्रकारेण, तृप्तिः आकाङ्क्षापूर्तिः, न च आपि नैव प्राप्ताः / रागातिरेकात् इति भावः / सर्वत्र कर्मणि लुङ् // 10 // इस ( नल ) ने इस ( दमयन्ती ) को आदरपूर्वक देख-देखकर फिर देखा, वार-बार आलिङ्गनकर फिर आलिङ्गन किया और चुम्बनकर फिर चुम्बन किया; किन्तु किसी प्रकार भी तृप्ति को नहीं प्राप्त किया अर्थात् आदरपूर्वक बार-बार दमयन्तीको देखने, आलिङ्गन करने तथा चुम्बन करने पर भी पुनः उन कार्योंको करनेकी प्रबल इच्छा ज्यों-की-त्यों मनमें बनी ही रही // 101 // __ छिन्नमप्यतनु हारमण्डलं मुग्धया सुरतलास्यकेलिभिः / न व्यतकि सुदृशा चिरादपि स्वेदबिन्दुकितवक्षसा हृदि // 102 / / छिन्नमिति / मुग्धया सुरतमोहितचित्तया, सुदृशा. सुनयनया, भैम्येति शेषः / सुरतानि रमणान्येन, लास्यकेलयः नृत्यक्रीडाः तैः, हृदि वक्षोपरि, स्थितमिति शेषः /
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________________ 1206 नैषधमहाकाव्यम्। अतनु महत् , हारमण्डलं मुक्ताकलापः, छिन्नं त्रुटितमपि, स्वेदबिन्दवः एव स्वेदबि. न्दुकाः धर्मोदककणाः / स्वार्थे कः ते अस्य सञ्जाताः इति स्वेदबिन्दुकितं सुरतश्रमजन्यधर्मबिन्दुयुक्तम् / 'तारकादित्वादितच / वतः उसस्थलं यस्याः तादृशया सत्या, चिरात् दीर्घकालेनापि, न व्यतर्कि न व्यभावि, छिन्नेति न अज्ञायि इत्यर्थः / स्वेदबिन्दुषु हारभ्रमादिति भावः / अतएव भ्रान्तिमदलङ्कारः॥ 102 // (सुरतानन्दसे ) मुग्ध सुलोचमा ( दमयन्ती) ने छातीपर सुरतरूप ( या-सुरतसम्बन्धी ) नृत्यक्रीडाओंसे टूटी ( नाभिपर्यन्त लटकती ) हुई बड़ी मुक्तामालाको ( सुरतश्रमजन्य ) स्वेदबिन्दुओंसे तारकित वक्षःस्थलवालो होनेसे ( स्वेदबिन्दुओंमें ही मुक्तामालाका भ्रम होने के कारण ) देरतक नहीं जान सकी // 102 / / यत् तदीयहृदि हारमौक्तिकैरासि तत्र गुण एव कारणम् / अन्यथा कथममुत्र वर्तितुं तैरशाकि न तदा गुणच्युतैः ? // 103 / / यदिति / तदीये भैमीसम्बन्धिनि, हृदि वक्षसि, अन्तःकरणे च, हारमौक्तिकः हारस्थितमुक्तावलीभिः, यत् आसि अवस्थितम् / आसेर्भावे लुङ् / तत्र स्थितौ, गुणः एव मुक्तानां छिद्रान्तर्वत्तिसूत्रमेव, सूत्रेण ग्रथितत्वमेवेत्यर्थः / कान्तिमत्त्वादिगुण एवं च, कारणं हेतुः। अन्यथा तद्वैपरीत्ये, तदा सुरतकाले, गुणच्युतैः गुणभ्रष्टैः, तैः हारमोक्तिकः, अमुत्र अस्मिन् वक्षसि मनसि च, वर्तितुं स्थातुम्, कथं कस्मात् , न अशाकि ? न शक्तम् ? अच्छिन्नसूत्रैः कतिपयमौकिकरेव तत्र स्थितं न पुनश्छिन्नसूत्रांशैः, ततो गुण एव अत्र कारणम् अन्यथा पतनप्रसङ्गादनुपादेयत्वाच्चेति भावः // . उस ( दमयन्ती ) की छातीपर ( पक्षा०-चित्तमें ) हारके जो मोती ठहरे थे, उस ( टहरने ) में गुण (हार में गुथा हुआ सूत्र-धागा, पक्षा०- कान्तियुक्तत्त्वादि गुण ) ही कारण था; अन्यथा ( यदि उक्त गुण ही वहां ठहरने में कारण नहीं होता तो ) उस समयमें अर्थात् सुरतक्षणमें गुण ( उक्त सूत्र-धागा, पक्षा-कान्तिमत्त्वादि गुण ) से हीन वे ( हार के मोती) वहांपर ( दमयन्तीकी छातीपर, पक्षा०-चित्तमें ) क्यों नहीं ठहर सके ? [ दमयन्तीके वक्षःस्थलपर ( पक्षा-चित्तमें ) गुणवान् हो ठहर सकते थे, अत एव गुणहीन ( सूत्रहीन, कान्तिमत्त्वादि गुणरहित ) मुक्तामणि उसके वक्षःस्थलपर ( वक्षा०चित्तमें ) नहीं ठहर सके / इससे सुरतकालमें मुक्ताहारका टूटकर मुक्तामणियोंका नीचे गिर जाना, तथा नलके गुणवान् होनेसे दमयन्तीके उभयविध हृदय (बाह्य वक्षःस्थल तथा आभ्यन्तर अन्तःकरण ) में सर्वदा वर्तमान रहना सूचित होता है ] // 103 // एकवृत्तिरपि मौक्तिकावलिश्छिन्नहारविततौ तदा तयोः। छाययाऽन्यहृदयेऽपि भूषणं श्रान्तिवारिभरभावितेऽभवत् // 104 / / एकति / तदा तत्काले, तयोः दमयन्तीनलयोः मध्ये, एकस्मिन् नले एव, वृत्तिः अवस्थानं यस्याः सा तादृशी अपि, नलवक्षःस्थिता अपीत्यर्थः मौक्तिकावलिः मुक्ता.
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1207 हारः छिन्ना त्रुटिता, हारविततिः विस्तृतहारो यस्य ताशे। भाषितपुंस्कत्वात् पुंवदावः / श्रान्तिवारिभरेण सुरतश्रमोद्भूतस्वेदपूरेण, भाविते आप्लुते, अन्यस्याः भैम्याः हृदये वक्षसि / 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' इति वद्भावः। छायया प्रतिबिम्बेन, विभूषणम् अलङ्करणम , अभवत् अजायत / अत्र एकस्यैव हारस्य उभयत्र भूषणत्वेन असम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेः तद्पातिशयोक्तिरलङ्कारः // 104 // उस समय ( सुरतकाल ) में उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल) में से एक (नल ) के वक्षःस्थलपर लटकती हुई मी मुक्तामाला सुरत-श्रमजन्य स्वेदविन्दुसे व्याप्त दमयन्तीके वक्षःस्थलपर प्रतिबिम्बित होनेसे (दमयन्तीके वक्षःस्थलका) भी भूषण बन गयी / [ सुरतकालमें हारके टूट जानेसे हारहीन, किन्तु सुरतके परिश्रमसे स्वेदबिन्दुओंसे युक्त दमयन्तीके वक्षःस्थलमें प्रतिबिम्बित सम्मुखस्थ नलके वक्षःस्थलका हार ही उस ( दमयन्तीके वक्षःस्थल ) का भी हार बन गया। दमयन्ती सुरतजन्य श्रमसे स्वेदयुक्त हो गयी तथा उक्त मुक्ताहार भी टूट गया ] // 104 // वामपादतललुप्तमन्मथश्रीमदेन मुखवीक्षिणाऽनिशम् / भुज्यमाननवयौवनाऽमुना पारसीमनि चचार सा मुदाम् // 105 / / वामेति / वामपादस्य सव्यचरणस्य, तलेन अधःप्रदेशेन, अत्यन्तापकृष्ठावयवे. नेति भावः / लुप्तः हृतः, मन्नथस्य कामस्य, श्रियः मदः सौन्दर्यदर्पः येन दाहशेन, अतिसुन्दरेणेत्यर्थः / अनिशं निरन्तरम् , मुखवीक्षिणा दमयन्तीवदनदर्शिना, अमुना नलेन, भुज्यमानम् उपभोगं 'कुर्वन्तं, नवयौवनम् अभिनवतारुण्यं यस्याः तादृशी, सा भैमी, मुदाम आनन्दानाम , पारसीमनि चरमावस्थायाम , चचार विचरितवती नलसम्भोगात् परमानन्दमाप इत्यर्थः // 105 // ___ वामचरणतल (शरीरका अतिशय तुच्छ अवयव, पक्षा०-सुन्दर पादतल) से कामदेवके सौन्दर्यमदको नष्ट करनेवाले अर्थात् कामदेवसे भी अत्यधिक सुन्दर (तथापि-अर्थात इतना अधिक सुन्दर होने पर भी स्वानन्दवृद्धयर्थ) सर्वदा (दययन्तीके) मुखको देखते रहनेवाले इस (नल ) के द्वारा भोग किये जाते हुए 'नवयौवनवाली वह (दमयन्ती) हर्षोकी दूसरी सीमापर घूमने लगी अर्थात् अत्यधिक हर्षित हुई / / 105 // आन्तरानपि तदङ्गसङ्गमैस्तर्पितानवयवानमन्यत | नेत्रयोरमृतसारपारणां तद्विलोकनमचिन्तयन्नलः // 106 // आन्तरानिति / नलः तस्याः दमयन्त्याः, अङ्गसङ्गमैः बाह्यावयवसम्पर्कः, आन्त. रान् आभ्यन्तरानपि, न केवलं वक्षःप्रभृतिबहिरवयवानिति भावः। अवयवान् अन्तःकरणादीन् अंशान् , तर्पितान् प्रीणितान् अमन्यत अबुध्यत / तथा तस्याः 1. अन्न बहुव्रीहिसमासत्वेन कर्मप्रत्ययान्तस्य प्रथमान्तस्यौचित्याश्चिन्त्यमिदं कर्तृप्रत्ययान्तं द्वितीयान्तं पदम् /
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________________ 1208 नैषधमहाकाव्यम् / भैम्याः, विलोकनं साक्षात्कारम् , नेत्रयोः स्वाणोः, अमृतस्य पीयूषस्य, सारेण उस्कृष्टांशेन, पारणाम् उपवासानन्तरमाहारविशेषमिव, अचिन्तयत् अभावयत् / तद्वत् तृप्तिबोधादिति भावः // 106 // नलने उस ( दमयन्ती ) के अङ्गों ( बाह्यङ्गों ) के स्पर्शसे ( अपने ) आभ्यन्तर (बाह्याङ्गसे अस्पर्शनीय ) अङ्गों को भी तृप्त हुआ माना तथा उस ( दमयन्ती ) के देखनेको दोनों नेत्रोंकी अमृतके सारभूत अंशसे पारणा समझा / [ नलने बार-बार दमयन्तीका आलिङ्गन तथा दर्शनकर अतिशय हर्ष प्राप्त किया ] / / 106 / / 'बह्वमन्यत विदर्भजन्मनो भूषणानि स हशा न चेतसा | तैरभावि कियदङ्गदर्शने यत् पिधानमयविघ्नकारिभिः // 107 / / बह्विति / सः नलः, विदर्भजन्मनः वेदाः , भूषणानि आभरणानि, दृशा दृष्टया एव, बहु अमन्यत अत्यर्थ समादृतवान्, दमयन्त्यङ्गस्पर्शसौभाग्यलाभादिति भावः / चेतसा मनसा, न, बहु अमन्यत इति शेषः / कुतः ? यत् यस्मात् , तैः भूषणः, कियताम् अङ्गानां प्रकोष्ठादीनां केषाञ्चिदवयवानाम् , दर्शने विलोकने, पिधानमयं छादनरूपम् , विघ्नं प्रत्यूहम् , कुर्वन्तीति तादृशः, दृष्टिव्याघातोत्पादकैरित्यर्थः / अभावि भूतम् / अतः भूषणबहुमानः नातिपुष्कलः इति भावः // 107 // ___ उस ( नल ) ने विदर्भकुमारी ( दमयन्ती ) के भूषणोंको दृष्टि से ही अतिशय आदर किया, मनसे नहीं (पा०-इस ( नल) ने प्रिया (दमयन्ती) को आश्रित अर्थात् शरीर में पड़ने गये भूषणोंसे पहले सन्तुष्ट हुए, (किन्तु ) बादमें विचार करते हुए खिन्न हुए; क्योंकि ) वे ( भूषण ) दमयन्तीके कुछ अङ्गोंके देखनेमें उन्हें आच्छादित करने ( ढकने-छिपाने ) के कारण विघ्नकारक हो रहे थे। [ दमयन्तीके अंगस्पर्शसे सौभाग्य लाम होनेसे उन भूषणोंको देखकर पहले नलको हर्ष हुआ, किन्तु बादमें 'यदि ये भूषण नहीं होते तो दमयन्तीके उन अंगोंको भी देखनेका मुझे सौभाग्य प्राप्त होता, जिन अंगोंको ये भूषण छिपा रहे हैं। ऐसा विचार करनेसे मानसिक हर्ष नहीं हुआ। रतिकालमें भूषणोंका हटा देना ही कामशास्त्र-सम्मत होनेसे यहां उनके धारण किये रहनेका वर्णन, विलम्बसहनमें अशक्त होने के कारण नल का हठ सुरत करने में प्रवृत्त होना, या-सम्पूर्ण भूषणोंको नहीं हटाना दोषरहित होनेसे किया गया समझना चाहिये। नलने अतिशय सौन्दर्यसम्पन्न दमयन्तीके अंगोंसे हीन सौन्दर्यवाले भूषणोंका अधिक आदर नहीं किया ] // 107 // योजनानि परिरम्भणेऽन्तरं रोमहर्षजमपि स्म बोधतः / / तौ निमेषमपि वीक्षणे मिथो वत्सरव्यवधिमध्यगच्छताम् / / 108 // योजनानीति / तौ भैमीनलौ, परिरम्भणे आलिङ्गनकाले, रोमहर्षात् सात्त्विकभा 1. भूषणैरतुषदाश्रितैः प्रियां प्रागथ व्यषददेष भावयन्' इति पाठं व्याख्याय 'बह्वमन्यत-' इति मूलोक्तपाठं सुगममाह 'प्रकाश'कारः।
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1209 वोदयेन रोमाश्चात्, जातम् उत्पन्नम्, अन्तरमपि तन्मात्रव्यवधानमपि, योजनानि बहयोजनव्यवधानानीत्यर्थः। बोधतः स्म अबुध्यताम् / बोधतेभीवादिकाद् भूते 'लट स्मे' इति लट् / तथा मिथः अन्योऽन्यम्, वीक्षणे दर्शनविषये, निमेषमपि अक्षि वर्मनिमीलनोन्मीलनकालव्यवधानमपि, वरसरव्यवधिं वर्षकालव्यवधानम्, अध्यगच्छता मन्येते स्म / अनुरागाधिक्यादिति भावः // 108 // उन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) ने आलिङ्गनमें रोमाञ्चजन्य व्यवधान (दूरी ) को भी अनेक योजन दूर समझा तथा परस्पर देखने में निमेष (पलक गिरने ) को भी वर्षोंका व्यवधान होना समझा // 108 // वीक्ष्य भावमधिगन्तुमुत्सुकां पूर्वमच्छमणिकुट्टिमे मृदुम् / कोऽयमित्युदितसम्भ्रमीकृतां स्वानुबिम्बमददर्शतैष ताम् // 109 / / अथानयोः च्युतिसुखं पञ्चभिर्वर्णयति, वीक्ष्येत्यादि / एषः नैषधः, तां प्रियां, मुद कोमलां, परिश्रमासहिष्णुत्वात् श्लथावयवामिति यावत् , अत एव पूर्वम् आत्मनः प्राक , भावं च्युतिसुखावस्थाम,अधिगन्तुं प्राप्तुम, उत्सुकाम् इच्छन्ती, वीक्ष्य गाढा लिङ्गनादिलिङ्गैः ज्ञात्वा, कोऽयम् ? अयं कः अत्र समागतः 1 इति, उक्त्वा इति शेषः, उदितः सञ्जातः, सम्भ्रमः भयचकितभावो यस्याः सा उदितसम्भ्रमा, अतां तां कृताम् उदितसम्भ्रमीकृताम् / अभूततद्भावे विः / प्रियामिति शेषः / अच्छे निर्मले, प्रतिबिम्बग्राहिणि इत्यर्थः / मणिकुट्टिमे रत्ननिबद्धभमी, स्वानुबिम्बं निजप्रतिबिम्बम, अददर्शत दर्शितवान् / मत्प्रतिबिम्बदर्शनात् भ्रान्तं मया इति तस्याः त्रासम् अपाचकार इत्यर्थः / शेणौँ चङि 'णिचश्च' इति तङ्। 'अभिवादिदृशोरात्मने पदे वेति वाच्यम्' इति अणिकत्तु : कर्मस्वम् / उभयोयुगपद्भावप्राप्तये तस्याः प्राक पातं व्यास. ङ्गेन प्रत्यबध्नात् , अन्यथा वैरस्यं स्यादिति भावः // 109 // ( अब इन दोनों के च्युतिसुखका पांच इलोकों (18 / 109-113) से वर्णन करते हैं-) इस ( नल ) ने उस ( दमयन्ती ) को ( अधिक सुरतश्रम नहीं सह सकनेके कारण ) शिथिल अवयवोंवाली ( अत एव नलसे) पहले च्युतिसुखावस्थाके लिए उत्सुक अर्थात् च्युतिसुखको चाहती हुई देखकर ' यह कौन है ? (ऐसा कहने पर किसी दूसरे व्यक्तिके आनेकी आशङ्कासे) उत्पन्न भय तथा आश्चर्यसे युक्त हुई उस प्रियाको मणियोंके निर्मलतम कुट्टिम (फर्श ) पर अपना प्रतिबिम्ब दिखलाया। [ दमयन्ती अतिशय मृदु होनेसे सुरतश्रमको अधिक नहीं सह सकनेके कारण शिथिलांगी होकर नलसे पहले ही स्खलित बिन्दु होना चाहती थी, किन्तु ऐसा होनेपर सुरतके आनन्दके मध्यमें ही भंग होना अनुचित होनेसे नलने 'यह कौन है ? ऐसा कहा, जिससे सुरत जैसे गोप्यतम समयमें दूसरेका उपस्थित हो जाना, फसल होमेसेदमयन्ती सहसा चकित एवं प्रसात हो गयी तथा 'कहाँ कौन आ गया ?' ऐसा नलसे पूछा तो उन्होंने मणिमयी भूमिमें पड़ती हुई अपनी / पर छाहीको
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________________ 1210 नैषधमहाकाव्यम् / दिखाकर 'मैंने इसे ही बाहरसे आया हुआ दूसरा आदमी समझकर 'यह कौन है ?' ऐसा तुमसे कह दिया था ऐसा कहकर 'अन्यचित्ततया सम्भ्रमजननेन च भावबन्धनं कुर्यात्' [ अन्यचित्त करके या सम्भ्रमोत्पादनकर भावबन्धन करना चाहिये' इस कामशास्त्रोक्त वचनके अनुसार उसके भावबन्धनको किया ] // 109 // तत्क्षणावहितभावभावितद्वादशात्मसितदीधितिस्थितिः / आत्मनोऽनभिमतक्षणोदयां भावलाभलघुतां नुनोद सः / / 110 // तदिति / सः नलः, तस्मिन् क्षणे आसन्नच्युतिसमये, अवहितभावेन अवहित. त्वेन, एकाग्रतया इति यावत् / भाविता ध्याता, द्वादशात्मसितदीधित्योः सूर्याचन्द्र मसोः, स्थितिः नभोदेशे अवस्थानक्रमः येन सः तादृशः सन् , तेन च विषयान्तरनिविष्टतया च्युतिनिरोध इति भावः / आत्मनः स्वस्य, अनभिमतक्षणे अनभिप्रेतकाले, उदयः प्रादुर्भावः यस्याः तादृशीम् , भावलाभस्य च्युतिसुखप्राप्तः, लघुताम् आशुभाविताम् , नुनोद निवारयामास / 'तत्काले हृदि सोमार्कधारणात् सिद्धिः' इति रतिरहस्ये / अत्र पुंस एव शक्त्याधिक्योक्त्या योषितो बहुशक्तिप्रयुक्तरसाभा. सशङ्काऽपि समूलकाषकषितेति द्रष्टव्यम् // 110 // उस ( सुरतके ) समयमें सावधान मनसे सूर्य तथा चन्द्रमाकी नभोमण्डलमें स्थितिका ध्यान किये ( अथवा-....."सूर्य-चन्द्रसंज्ञक 'ईडापिगला' नाडियों में स्थित वायुको रोके) हुए उस ( नल ) ने अपने अभिलषित सुरतकालीन भावोदय (बीज-स्खलन ) को रोका। [ पहले दमयन्तीका स्खलन रोकने के बाद जब अपना स्खलन उससे पहले होने लगा तो नलने सूर्य-चन्द्रकी आकाश-स्थितिका एकाग्रमनसे ध्यान करनेमें मनको दूसरी ओर लगाकर 'अन्यचित्ततया संभ्रमजननेन च भावबन्धं कुर्यात्' इस कामशास्त्रोक्त वचनके अनुसार अपने बीजस्खलनको रोका / अथवा-सूर्य-चन्द्रसंशक ईडा तथा पिंगलानामक क्रमशः दहने तथा बायें नाडियोंमें स्थित वायुको रोककर 'दक्षिणनासामुद्रणे पुरुषस्य, वामनासिकामुद्रणे योषितो विन्दुस्तंभो भवति' ( दाहनी नाक बन्द करनेपर अर्थात् 'ईडा' संज्ञक नाडीमें स्थित वायुको रोकनेपर पुरुषका और बांयी नाक बन्द करनेपर पिंगलासंशक नाडीमें स्थित वायुको रोकनेपर स्त्रीका विन्दुस्तंभ ( स्खलननिरोध ) होता है।) इस कामशास्त्रोक्त वचनके अनुसार क्रमशः अपने तथा दमयन्तीके भी स्खलनको नलने रोका ] // 110 / / स्वेन भावभजने स तु प्रियां बाहुमूलकुचनाभिचुम्बनैः / निर्ममे रतरहः समापनाशर्मसारसमसंविभागिनीम् // 111 / / स्वेनेति / तु पुनः, सः नलः, भावभजने च्युतिसुखप्राप्तिविषये, बाहुमूलयोः कक्षदेशयोः, कुचयोः स्तनयोः, नाभौ नाभिदेशे च, चुम्बनैः पुनरुद्दीपनार्थ चुम्बनरूपैः 1. 'स्वां प्रियामभि-' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् / 2. 'भावजनने' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1211 अष्टादशः सर्गः। उपायः, स्वेन आत्मना सह,प्रियां दमयन्तीम् , रतरहसः सुरतरहस्यस्य, समापनायां समाप्तिकाले, यःशर्मसारः च्युतिसुखोत्कर्षः, तत्र समसंविभागिनी समानसुखभागिनीम् , निर्ममे चक्रे युगपदेवोभयो/जनिःसरणात् समानसुखभागित्वमिति भावः। एतेन तयोर्विप्रलम्भवत् सम्भोगस्यापि समानशक्तित्वमुक्तं भवतीत्यनुसन्धेयम्॥११॥ फिर नलने स्खलन-सुख-प्राप्तिके विषय में ( दमयन्तीके ) दोनों काँख, स्तन पथा नामिमें चुम्बनोंसे अपने साथ सुरतरहस्यकी समाप्तिमें स्खलनसुखाधिक्यके समान भागवाली उस दमयन्तीको बनाया [ दोनों के एक समयमें ही स्खलन होनेसे नलने दमयन्तीको भी अपने समान ही स्खलनसुखको प्राप्त कराया। इससे विप्रलम्भके समान दोनोंमें सम्भोग-सुखका भी समानशक्ति होना सूचित होता है ] / / 111 // विश्लथैरवयवैनिमीलया लोमभिर्दुतमितैर्विनिद्रताम् | सचितं श्वसितसीत्कृतैश्च तौ भावमक्रमजमध्यगच्छताम // 112 // विश्लथैरिति / तौ भैमीनलौ, विश्लथैः शिथिलप्रायैः अवयवैः हस्तपादाद्यङ्गः, निमीलया उत्कटसुखानुभवजनितनेत्रनिमीलनेन / भिदादित्वाद। द्रुतं हठात् , विनिद्रताम् उद्भेदम् , इतैः प्राप्तः, कण्टकितैरित्यर्थः। लोमभिः रोमभिः, रोमाञ्चो. द्गमैरित्यर्थः / तथा श्वसितानि श्रमजनितद्रुतनिःश्वासाः, सीस्कृतानि सीत्काराश्च तैः सूचितं ज्ञापितम् , 'लस्तता वपुषि मीलनं शोर्मूछना च रतिलाभलक्षणम् / श्लेष. यत् स्वजघनं घनं मुहुः सीत्कृतानि गलगर्जितानि च // ' इत्युक्तत्वादिति भावः / अक्रमात् पौर्वापयं विहाय, जायते इति अक्रमजं युगपज्जातम् , भावं पातसुखम् , अध्यगच्छतां प्राप्तवन्तौ, ज्ञातवन्तौ वा। एवञ्च उभयोः समरागिता सम्भवति, अन्यथा पूर्वच्युतस्य उत्तरच्याविनि वैराग्येण तद्भङ्गप्रसङ्गः इति भावः // 12 // ___ उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल ) ने शिथिल (हाथ-पैर आदि) अङ्गोंसे (श्रम या अधिक सुखसे उत्पन्न ) नेत्र-निमीलनसे, तत्काल हुए रोमाञ्चोंसे- शीघ्रगति श्वासवायुसे और सीत्कारसे सूचित बीज-स्खलनको एक साथ प्राप्त किया अर्थात् दोनोंका एक साथ स्खलन हुआ॥ 112 // आस्त भावमधिगच्छतोस्तयोः सम्मदेसु करजप्रसंर्पणा / फाणितेषु मरिचावचूर्णना सा स्फुट कटुरपि स्पृहावहा / / 113 // . आस्तेति / भावं च्युतिसुखम्, अधिगच्छतोः प्राप्नुवतोः, तयोः दम्पत्योः, करज. प्रसर्पणा पुनरपि मिथो नखक्षतकरणम् , सम्मदेषु आनन्दलाभेषु, आस्त स्थिता, अन्तर्भूता इत्यर्थः / ननु नखक्षतं वेदनाजनकमपि कथमानन्देषु अन्तर्भूतमित्या. शङ्कयाह-सा नखक्षतक्रिया, कटुः तीक्ष्णा अपि कटुरसा अपि च / 'रसे कटुः कट्वकार्ये त्रिषु मत्सरतीक्ष्णयोः' इत्यमरः / फाणितेषु खण्डविकारेषु / 'मत्स्यण्डी फाणितं 1. 'क्षतार्पणा-' इति पाठान्तरम् / 76 नै० उ०
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________________ 1212 नैषधमहाकाव्यम् / खण्डविकारे' इत्यमरः। मरिचस्य अवचूर्णना चूर्णैः अवध्वंसना, तच्चूर्णमिश्रण: मित्यर्थः / 'सत्याप-' इत्यादिना ण्यन्तात् 'ण्यासश्रन्थो युच' इति युच / स्फुट व्यक्तम् , अत एव स्पृहावहा रुचिकरी / या इयं सम्मदेषु नखापणा मा फाणितषु मरिचार्पणावत् इष्टा इव अभूदित्यर्थः / अत्र वाक्यार्थयोः सादृश्ययोगेन सादृश्याक्षेपात् असम्भवद्वस्तुसम्बन्धलक्षणो वाक्यार्थवृत्तिनिदर्शनाभेदोऽलङ्कारः // 113 // / भाव ( बीज-स्खलन) को प्राप्त करते हुए उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल ) का नख. क्षत करना ( नखविलेखन ) आनन्दोमें हुआ अर्थात् आनन्दप्रद हुआ, क्योंकि दूध या शक्कर के बनाये हुए पानक-विशेषमें कड़वा भी मिर्चका चूर्ण डालना रुचिकारक होता है। ( अथवा-अनेक विध सुरतमें स्खलितबीज होते हुए उन दोनोंका नखक्षत करना दूध या शकरके बने हुए पानक विशेषमें कटु मी मरिच चूर्ण डालने के समान रुचिकारक हुआ / अथवा-स्खलितबीज होते हुए उन दोनों के अनेकविध सुरतमें रुचिकर नखक्षत करना दूध या शक्करके वने पानक-विशेषमें कटुरस मरिचके चूर्ण डालना ही ( या-चूर्ण डालनेके समान ) हुआ)॥११३॥ अमीलितविलोलतारके सा दृशौ निधवनक्लमालसा। यन्मुहूर्तमवहन्न तत् पुनस्तृप्तिरास्त दयितस्य पश्यतः // 114 / / अर्द्धति / निधुवनक्लमालसा सुरतश्रमेणावसन्ना, सा भैमी, मुहूर्त किञ्चित्काल. मपि, यत् अर्द्धमीलिते ईषत्सङ्कुचिते, च ते विलोलतारके चञ्चलकनीनिके चेति ते तादृश्यौ / 'तारकाऽदगः कनीनिका' इत्यमरः। दृशौ नेत्रे, अवहत् अधारयत् , अकारयदित्यर्थः / तत् तादृशीमवस्थामित्यर्थः / पश्यतः विलोकयतः, दयितस्य प्रियस्य नलस्य पुनः, तृप्तिः आकाक्षापूर्तिः, न आस्त नासीत् / अतिरमणीयत्वात् पुनः पुनरेव तामवस्थां ददर्श स मुग्धो नलः इति भावः // 114 // __सुरतश्रमसे आलसयुक्त उस ( दमयन्ती ) ने जो कुछ समय तक अर्द्धनिमीलित (आधे बन्द ) एवं चञ्चल पुतलियोंवाले नेत्रोंको धारण किया, उसे बार-बार देखते हुए प्रियतम ( नल ) को तृप्ति नहीं हुई अर्थात् आलससे अर्द्धनिमीलितनयना दमयन्तीको नल बार बार बहुत विलम्ब तक देखते ही रह गये // 114 // .. तत्क्लमस्तमदिदीक्षत क्षणं तालवृन्तचलनाय नायकम् / तद्विधाधिभवधूननक्रिया वेधसोऽपि विदधाति चापलम् / / 115 / / तदिति / तस्याः दमयन्त्याः, क्लमः श्रान्तिः, तं नायकं स्वामिनं नलम् , क्षणं क्षणकालम् , तालवृन्तचलनाय व्यजनवीजताय / 'व्यजनं तालवृन्तकम्' इत्यमरः / अदिदीक्षत दीक्षति स्म, प्रावर्त्तयदित्यर्थः / तथा हि तद्विधः तादृशः, यः आधिः श्रमकातयं, तद्भवे तदुद्भूते सन्तापे, धूननक्रिया व्यजनसञ्चालनम् , व्यजनक्रियया 1. 'तद्विधा हि भवदैवतं प्रिया' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1213 सुरतश्रान्तिशान्तिचेष्टेत्यर्थः / वेधसः जितसर्वेन्द्रियस्य लोकपितामहस्य ब्रह्मणोऽपि, चापलं तरलताम् , तत्करणार्थ चित्तवाञ्चल्यमित्यर्थः / विदधाति जनयति, किमुतान्यस्येति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थन रूपोऽर्थान्तरन्यासः // 115 // उस ( दमयन्ती ) की थकावटने नलको कुछ समयतक पंखा करने के लिए दीक्षित किया अर्थात् सुरतश्रान्त दमयन्तीको देखकर नल पंखासे हवा करने लगे, क्योंकि वैसी (सुरतश्रमजन्य ) आधिमें उत्पन्न तापमें पंखेका हाँकना ( पाठा०-संसार ( संसारसुखसर्वस्व ) की वैसी ( दमयन्ती-जैसी परमसुन्दरी) प्रिया) ब्रह्माको भी ( उस पंखे हाँकनेके लिए ) विचलित कर देती है ( तो मनुष्य नलके विषयमें क्या कहना है ? ) // 115 // स्वेदबिन्दुकितनासिकाशिखं तन्सुखं सुखयति स्म नैषधम् / प्रोषिताधरशयालुयावकं संविलुप्ततिलकं कपोलयोः / / 116 / / स्वेदेति / स्वेदबिन्दुकिता सञ्जातधर्मबिन्दुका, नासिकाशिखा नासाग्रं यस्य तादृशम् , प्रोषिताधरशयालुयावकम् अधरपानात् प्रसृष्टौष्ठगतालक्तकम् , कपोलयोः गण्डयोः, संविलुप्ततिलकं चुम्बनादेव विनष्टविशेषकम् / 'तमालपत्रतिलकचित्रकाणि विशेषकम्' इत्यमरः / तस्याः दमयन्त्याः , मुखं वदनम् , नैषधं नलम् , सुखयति स्म आनन्दयामास // 116 // (सुरतश्रमजन्य ) स्वेदबिन्दुसे युक्त नासिकाग्रभागवाला ( अधरपान करने के कारण) अधरस्थित अलक्तकसे रहित तथा (चुम्बनकरनेसे ) तिलक ( चन्दनादिरचित मकरिकादि चिह्न-विशेष ) से रहित ( पाठा०-आधा नष्ट रोमाञ्चवाले ) कपोलोंवाला दमयन्तीका मुख नलको सुखी कर रहा था। [ उक्तरूप दमयन्तीके मुखको देखते हुए नल परमानन्दित हो रहे थे / इस श्लोकके पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध भागको परस्परमें परिवर्तितकर पढ़ना चाहिये, अन्यथा द्वितीय पादमें ही अर्थ-समाप्ति हो जाती है, अतः तृतीय-चतुर्थ पादोंकी सङ्गति पुनः द्वितीय पादके साथ करनेसे यहां 'समाप्त पुनरात्त' नामक काव्य-दोष होता है ] // 116 // ह्रीणमेव पृथु सस्मयं कियत् क्लान्तमेव बहु निवृतं मनाक् / कान्तचेतसि तदीयमाननं तत्तदालभत लक्षमादरात् // 117 / / __ होणमिति / पृथु एव भूयिष्ठमेव, हीणं लजितम् , सुरतकालिकनिजाचरणस्मरणादिति भावः। कियत् किञ्चित् , सस्मयं सगर्व, सुरते कान्तं सन्तोषयितुं निज सामर्थ्यस्मरणादिति भावः। तथा बहु एव बाहुल्येनैव, क्लान्तं परिश्रान्तम् , बहुक्षणं व्याप्य सुरतपरिश्रमादिति भावः / ईषत् मनाक , निवृतं सुखितम् , कामवेगस्य किञ्चित् प्रशमादिति भादः / तदीयं दमयन्तीसम्बन्धि, तत् लज्जागर्वादिभावसमा. वेशादतिमनोज्ञम् , आननं मुखम् , तदा तत्काले, सुरतावसाने इत्यर्थः / कान्तचेतति 1. 'साभिलुप्तपुलकम्' इति पाठान्तरम्। 2. 'सस्मरम्' इति पाठान्तरम् / 3. 'अत्र पूर्वोत्तरार्द्ध व्यत्यस्ते पठनीये, अन्यथा समाप्तपुनरात्तदोषापातः' इति /
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________________ 1214 नैषधमहाकाव्यम् / नलहृदये, भादरात् पुनरपि रमणाग्रहात् , लक्षं व्याजम् , उद्दीपकतया पुनः सुरताय हेतु स्वरूपमित्यर्थः / अलभत प्राप्नोत् , बहुमतमभूदित्यर्थः / सर्वावस्थामनोहरं तन्मुखमिति भावः // 117 // ___ उस सुरतान्तकाल में ( रतिकालमें किये गये अपने नामचापल्यजन्य व्यापारके स्मरणसे ) बहुत ही लज्नित, (रतिकालमें पतिको सन्तुष्ट करनेकी अपने में शक्ति होनेसे ) कुछ गर्वसहित (पाठा०-(सुरतकी अभिलाषाके स्मरण आनेसे ) कुछ कामोद्दीप्त), ( रतिकालमें अधिक श्रम होनेसे ) अतिशय थका हुआ तथा ( कामवेगके कुछ शान्त होनेसे ) कुछ सुखी दमयन्तीका मुख प्रिय ( नल ) के चित्तमें आदरसे अर्थात् रमण करनेके आग्रहसे लक्ष ( बहाना-व्याम) के पाया अर्थात वैसे दमयन्तीके मुखको देखकर नलके चित्तमें पुनः कामोहोपन हो गया / ( अथवा-नलके विषय में लाखों पाया अर्थात् अधिक श्रेष्ठताको प्राप्त किया)॥ 117 // स्वेदवारिपरिपूरितं प्रियारोमकूपनिवहं यथा यथा / नैषधस्य हगपात तथा तथा चित्रमापदपतृष्णतां न सा / / 118 / / स्वेदेति / मषधस्य नलस्य, दृक दृष्टिः, स्वेदवारिणा धर्मोदकेन, परिपूरितं सम्भृतम् , प्रियायाः भैम्याः, रोमकूपाणां लोमच्छिद्राणाम , निवहं समूहम् , यथा यथा येन येन, यावता परिमाणेनेत्यर्थः / अपात् पिबति स्म / पिबतेलुंडि 'गातिस्था-' इत्यादिना सिचो लुक / सा दृष्टिः, तथा तथा तेन तेन, तावता परिमाणेनेत्यर्थः / अपतृष्णतां पिपासानिवृत्तिम् , न आपत् नालमत, वितृष्णा नाभूदित्यर्थः / इति चित्रम् आश्चर्यम् , बहुकूपसम्भृतोदकपानेऽपि तृष्णा न अपगता इति विरुद्धमित्यर्थः / लोकोत्तरवस्तुदर्शने तृष्णावर्द्धते एवेति विरोधाभासोऽलङ्कारः॥ ___ नलकी दृष्टि ( नेत्र ) ने ( सुरतश्रमजन्य ) पसीनेके जलसे परिपूर्ण हुए दमयन्तीके रोमकूप-समूहको जैसे-जैसे अर्थात् जितनी अधिक मात्रामें पान किया ( दमयन्तीके रोमरोमसे निकलते हुए पसीनको जितना ही देखा ), उस (नल-दृष्टि ) ने वैसे-वैसे अर्थात् उतना ही अधिक मात्रामें तृप्तिको नहीं प्राप्त किया अर्थात् सन्तुष्ट नहीं हुई, यह आश्चर्य है। ] अधिकसे अधिक मी प्यासा हुआ व्यक्ति अञ्जलि आदिसे पानी पीकर भी पिपासा शान्तकर सन्तुष्ट हो जाता है, किन्तु ऊपरतक जलसे परिपूर्ण दमयन्ती-रोम-कूप-समूहके ( अलको ) अत्यधिक पीने पर भी नल-दृष्टिकी पिपासा बनी ही रही ( नहीं शान्त हुई ) यह आश्चर्य है / लोकोत्तर वस्तु देखने से उसे पुनः पुनः देखने की इच्छा बनी ही रहती है, यह उक्त विरोधका परिहार है / उक्तरूप दमयातीको बार-बार देखकर नलका काम पुनः उद्दीप्त हो गया ] // 118 // वान्माल्यकचहस्तसंयमन्यस्तहस्तयुगया स्फुटीकृतम् / 1. 'वीत-' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1215 बाहुमूलमनया तदुज्ज्वलं वीक्ष्य सौख्यजलधौ ममज्ज सः॥ 119 // वान्तेति / सः नलः, वान्तम् उद्गीर्णम् , परित्यक्तमित्यर्थः / प्रचलरमणवेगन सञ्चालनेनेति भावः / 'वान्त' इत्यत्र 'वीत' इति पाठान्तरं साधु / माक्यं कुसुमस्रक येन तादृशस्य कचहस्तस्य केशपाशस्य, संयमे बन्धने, न्यस्तं निवेशितम्, हस्तयुगं करद्वयं यया तादृशया, अनया भैम्या, स्फुटीकृतं हस्तोत्तोलनेष व्यक्ती. कृतम् , उज्वलं सुन्दरम् , तत् अतिमनोहरम् , बाहुमूलं कश्देशम् वीक्ष्य दृष्ट्वा, सौख्यजलधौ आनन्दसागरे, ममज्ज निमग्नीभूतः। बाहुमूलदर्शनस्य प्रदीपकरवादिति भावः // 19 // (सवेग रति करनेसे ) गिरे हुए मालाके पुष्पोंवाले केश-समूहको दोनों हाथोंसे बांधती हुई इस ( दमयन्ती ) के द्वारा ( उन हाथोंको ऊपर उठानेसे ) प्रदर्शित भेष्ठतम बाहुमूल ( काँख ) को देखकर वे (नल) सुख-समुद्रमें डूब गये। [ रतिकाठमें केशसे मालाके फूलों के गिरने तथा केशोंके खुल जानेपर उन केशोंको बांधते समय हाथोंको ऊपर उठानेसे उसके बाहुमूलको देखकर नलको अतिशय सुख हुआ ] // 119 / / वीक्ष्य पत्युरधरं कृशोदरी बन्धुजीवमिव भृङ्गसङ्गतम् / मञ्जुलं नयनकज्जलैर्निजैः संवरीतुमशकत् स्मितं न सा / / 120 // वीच्येति / कृशोदरी क्षीणमध्या, सा दमयन्ती, मञ्जलं मनोहरम् , पत्युः मलस्य, अधरं दशनच्छदम् , निजः स्वकैः, नयनकज्जलैः नेत्राञ्जनैः, नेत्रचुम्बनसक्रान्तैरिति भावः / भृङ्गसङ्गतम् अलिचुम्बितम् , बन्धुजीवं बन्धकपुष्पम् इव स्थितम् वीच्य दृष्टा, स्मितं मन्दहासम् , संवरीतुं निरोद्धुम् , न अशकत् न शक्काऽभूत्, हासः प्रसक्तः एवेति भावः // 120 // ___ कृशोदरी ( पतली कटिवाली ) वह (दमयन्ती) अपनी आँखोंके कज्जलसे मनोहर ( अत एव ) भ्रमरयुक्त बन्धूकपुष्प (दुपहरियाका फूल ) के समान, पतिके अधरको देखकर मुस्कानको नहीं रोक सकी। [रतिकालमें नलने दमयन्तीके नेत्रका चुम्बन किया था, अतः उसका काजल उनके अधरमें लगकर ऐसा मालूम पड़ता था कि दुपहरियाके फूलपर भ्रमर बैठा हो, उसे देख दमयन्ती अपने मुस्कानको नहीं रोक सकी, किन्तु मुख फेरकर बोड़ा मुस्कुरा ही दिया ] // 120 // तां विलोक्य विमुखश्रितस्मितां पृच्छतो हसितहेतुमीशितुः / ह्रीमती व्यतरदुत्तरं वधूः पाणिपङ्करुहि दर्पणार्पणाम् / / 121 // तामिति / तां दमयन्तीम् , विमुखं पराङ्मुखं यथा तथा, श्रितस्मितां कृतमन्द. हासाम् , विलोक्य दृष्ट्वा, हसितहेतुं स्मितकारणम् , पृच्छतः जिज्ञासयत्तः, ईभितुः पत्युः नलस्य, पाणिपकहि करपद्मे, हीमती लज्जावती, बधूः नवोढा भैमी, दर्पणा. पंणां मुकुरप्रदानरूपमेव, उत्तरं व्यतरत् अदात् / अधेर कजलरेखादर्शनार्थमिति भावः॥ 12 //
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________________ 1216 नैषधमहाकाव्यम् / मुख फेरकर मुस्कराती हुई उसे ( दमयन्ती) को देखकर मुस्कुराने का कारण पूछते हुए पति के हस्तकमलमें लज्जावती वधू ( दमयन्ती) ने दर्पण ( देकर उत्तर ) दे दिया अर्थात् स्वयं कुछ नहीं कहकर मुख देखने के लिए उनके हाथमें दर्पण दे दिया / / 121 / / लाक्षयाऽऽत्मचरणस्य चुम्बनाच्चारुभालमवलोक्य तन्मुखम् / सा हिया नतनताननाऽस्मरच्छेषरागमुदितं पति निशः / / 122 / / / लाक्षयेति / सा भैमी, आत्मचरणस्य निजपादतलस्य, चुम्बनात् रतिप्रार्थनाकाले ललाटे एव स्पर्शकरणात् हेतोः, लाक्षया अलक्तकेन, निजचरणालक्तकस्पर्शेनेत्यर्थः / चारभालं रम्यललाटम् , तस्य नलस्य, मुखम् आननम् , अवलोक्य दृष्ट्वा हिया भर्तृकर्तृकचरणपतनस्मरणजलज्जया, नतनतानना अतिनम्रमुखी सती, उदितं प्राप्तोदयम् , शेषरागं तदानीमपि किञ्चिदवशिष्टलौहित्यम् , निशः निशायाः / 'पदः न्नोमास-' इत्यादिना निशायाः निश्भावः / पतिं नाथं चन्द्रम् , अस्मरत् स्मृतवती ललाटस्य अर्द्धचन्द्राकृतित्वात् तत्रनिजपादालतकरागसंस्पर्शाच्च मुखस्य तादृशचन्द्रतुल्यत्वमिति भावः / स्मरणालङ्कारः // 122 // ( प्रणयकुपित दमयन्तीको प्रसन्न करने के लिए उसके चरणपर गिरकर रमणसे, या'पगिनी' जातीया दमयन्तीका 'पद्मबन्ध' नामक आसन-विशेष करके रमण करनेसे ) चुम्बन (छुने ) से अपने ( दमयन्तीके ) चरणों के लाक्षारस ( महावर ) से सुन्दर ललाटवाले नलमुखको देखकर ( उस समयकी अपनी धृष्टताका स्मरण होने के कारण उत्पन्न हुई ) लज्जासे अतिशय नीचे मुखकी हुई उस ( दमयन्ती ) ने थोड़ी बची हुई लालिमावाले उदित निशापति (चन्द्रमा) का स्मरण किया / [ दमयन्तीके चरणालक्तक रससे रक्तवर्ण ललाटवाले प्रियमुख को देखकर ईषद्रक्तवर्ण चन्द्रमाको देखने से जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी प्रसन्नता हुई / ईषद्रक्तवर्ण नलका ललाट ईषदरुणिमायुक्त अर्द्धचन्द्रवत् सुन्दर था ] // 122 / / स्वेदभाजि हृदयेऽनुबिम्बितं वीक्ष्य मूर्त्तमिव हृद्गतं प्रियम् / निर्ममे धुतरतश्रमं निजैीनताऽतिमृदुनासिकानिलैः / / 123 / / स्वेदेति / स्वेदभाजि स्विन्ने, हृदये वक्षसि, अनुबिम्बितं प्रतिबिम्बितम् , अत एव हृदूत नियतचिन्तया हृदयावस्थितम् , चिन्तनीयत्वादमूर्तमपीति भावः / प्रियं कान्तं नलम् , मूर्त मूर्तिमन्तमिव, तीच्य दृष्ट्वा, हीनता लज्जाऽवनता, दमयन्तीति शेषः / निजैः स्वीयैः, अतिमृदुभिः अति कोमलैः, मन्दवेगैरित्यर्थः / नासिकानिलः निःश्वासमाश्तैः, धुतः निरस्तः, रतश्रमः सुरतजनितक्लमः यस्य तादृशम् , निर्ममे चकार, इवेति शेषः / तस्य श्रममपनुदतीव स्थिता इत्युप्रेक्षा // 123 // ___ स्वेदयुक्त अपने हृदय में प्रतिबिम्बित ( अत एव निरन्तर चिन्तन करनेसे ) हृदयस्थ प्रिय ( नल ) को मूर्तिमान्के समान देखकर लज्जासे नम्रमुखी उस दमयन्तीने अपने अतिशय मन्द निश्श्वासवायुसे [ सुरतमें उत्पन्न ) श्रमसे रहित-सा कर दिया। ( अथवा
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1217 ( नलके ललाटमें अपने चरणका महावर लगा हुआ देखकर सुरतकालकी अपनी धृष्टताका स्मरण होनेसे उत्पन्न ) लज्जासे नतमुखी दमयन्तीने स्वेदयुक्त अपने हृदयमें)। [ लज्जानम्र नासिकाके श्वासका हृदयस्थ प्रिय के श्रमका दूर करना उचित ही है। वैसी दमयन्तीको देखकर नल सुरतश्रमरहित होकर हर्षित हो गये तथा वैसे प्रिय नलको देखकर दमयन्ती भी हर्षसे मन्द-मन्द निःश्वास छोड़ने लगी ] // 123 / / सूनसायकनिदेशविभ्रमैरप्रतीततरवेदनोदयम् / दन्तदंशमधरेऽधिगामुका साऽस्पृशन्मृदु चमच्चकार च // 124 // सूनेति / सा भैमी, सूनसायकस्य पुष्पवाणस्य, कामस्येत्यर्थः। निदेशविभ्रमैः आज्ञाविलासैः, अप्रतीततरः अतिशयेनाज्ञातः, 'अप्रतीतचरः' इति पाठः साधुः / अप्रतीतचरः पूर्व किमपि अज्ञात इत्यर्थः / वेदनोदयः व्यथोत्पत्तिः यस्मिन् तं ताहशम् , मदनपारवश्यात् प्राक् अज्ञानमानदुःखमित्यर्थः। अधरे निजोष्ठे, दन्तदंशं नलस्य दन्तेन दंशनम् , अधिकामुका जानती, वेदनया अनुभवन्ती सती। 'लषपत-' इत्यादिना उकञ्, 'नलोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः। मृदु मन्दं यथा तथा, अस्पृशत् करतलेन दन्तदंशं परामृशदित्यर्थः / चमच्चकार च किमेतत् ? कदा जातमिति साश्चर्या बभूव च // 124 // ____ कामाज्ञाके विलासोंसे पूर्वानुभवरहित वेदनावाले दन्तक्षतको इस समय अर्थात् सुरतके अन्तमें जानती हुई वह (दमयन्ती) धीरेसे स्पर्श की और आश्चयित हो गयी। [ सम्भोगकाल. में नल के द्वारा किये गये अधर-दंशनकी पीड़ाका अनुभव दमयन्तीको नहीं हुआ, किन्तु सम्भोगके बादमें जब अङ्गुलिसे अधरका स्पर्श किया तो उसकी पीड़ासे वह सहसा आश्चर्यित हो गयी कि-अरे ! यह कब तथा कैसे हुआ ? ] / / 124 // वीक्ष्य वीक्ष्य करजस्य विभ्रमं प्रेयसार्जितमुरोजयोरियम् / कान्तमैक्षत हसस्पृशं कियत्कोपँसङ्कचितलोचनाञ्चला // 125 / / वीक्ष्येति / इयं भैमी, प्रेयसा प्रियतमेन नलेन, भर्जितम् उत्पादितम् , कृतमि. त्यर्थः, उरोजयोः निजकुचयोः, करजस्य विभ्रमं नख चतरूपं विलासम् , वीक्ष्य वीक्ष्य दृष्ट्वा दृष्ट्वा, कियत् किञ्चित् , कोपेन रोषेण, सङ्कुचितौ कुटिलीकृतौ, लोचनाञ्चलो नेत्रप्रान्ती, कटाक्षावित्यर्थः / यया सा तादृशी सती, हसंहास्यम् , स्पृशति परामृश्यतीति हसस्पृशं हसन्तम् , कान्तं नलम् , ऐक्षत दृष्टवती // 125 // 1. 'सूननायक-' इति पाठान्तरम् , तत्र 'कामस्य' पुष्पनायकत्वं कथमिति विचार्य सुधीभिः / 2. 'अत्र 'चमत्कृता कियत्' इति 'जीवातु' सम्मतः पाठः' इति म. म. शिवदत्तशर्माणः / 3. 'कोपकुश्चितविलोचनाञ्चला' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् / अत्र म. म. शिवदत्तशर्माण:-'कोपसङ्कुचितलोचनाञ्चलाम्' इति जीवातुः' इत्याहुः, परमत्र द्वितीयान्तं कथमिति त एव जानन्तु /
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________________ 1218 नैषधमहाकाव्यम् / इस ( दमयन्ती ) ने प्रियतम ( नल ) के द्वारा किये गये दोनों स्तनोंपर नखोंके विलास अर्थात् नखक्षतको देख-देखकर अर्थात् बार-बार देखकर थोड़े क्रोधसे सङ्कुचित ( अर्द्धनिमी. लित ) नेत्रवाली होती हुई हँसते हुए पति ( नल ) को देखा / / 125 // रोषभूषितमुखीमिव प्रियां वीक्ष्य भीतिदरकम्पिताक्षरम् / तां जगाद स न वेद्मि तन्वि ! तं ब्रूहि शास्मि तव कोपरोपकम्।।१२६।। रोषेति / सः नलः, तां पूर्वोक्तरूपकोपसङ्कुचितलोचनाञ्चलाम, प्रियां दमयन्तीम्, रोषेण कोपेन, भूषितमुखीम् आरक्तवर्णतया अलङकृताननामिव, स्थितामिति शेषः। वीचय विलोक्य, भीत्या भयेन, दरकम्पिताक्षरम् ईषच्चलाक्षरं यथा तथा, जगाद उवाच / किमिति ? तन्वि ! हे कृशाङ्गि!, तव ते, कोपरोपकं क्रोधजनकम् , जनमिति शेषः / न वेभि न जानामि / तम् अपराधिनं जनम् , ब्रहि कथय / शास्मि दण्ड. यामि / अहमिति शेषः // 126 // ( पूर्व ( 18 / 125) श्लोकानुसार ) मानो क्रोधसे भूषित ( पाठा०-(भ्रमङ्गादिके कारण ) रूक्ष ) मुखवाली (वस्तुतः क्रोधरहित ) प्रिया ( दमयन्ती ) को देखकर उस (नल)ने उस ( दमयन्ती) से भयले गदगद वचन कहा-'हे तन्वि ! मैं नहीं जानता हूं, उसे कहो, मैं तुम्हारे कोध उत्पन्न करनेवाले व्यक्तिको दण्डित करूँ ( पाठा०-हे तन्वि ! मैं उसे नहीं जानता हूँ कि तुम्हारे क्रोधको किसने उत्पन्न किया ? अर्थात् किसके अपराध करनेसे तुम्हें क्रोध हुआ ?) / [ 'नहीं जानता हूँ' ऐसा कहकर नल स्वयंकृत नखक्षतरूप अपराधको दमयन्तीसे छिपाकर असत्य भाषण करते हैं / उपहास वचन होने से ऐसा कहनपर नलको असत्य-भाषणका दोष नहीं लगता है ] // 126 // रोषकुङ्कमविलेपनान्मनाक नन्ववाचि कृशतन्ववाचि ते / भूदयुक्तसमयैव रञ्जना माऽऽनने विधुविधेयमानने / / 127 / / रोति / ननु अये ! कृशतनु ! क्षीणाङ्गि! सम्बुद्धौ नदीहस्वः। अवाचि अव. नते / अवपूर्वादचतेः क्विन् / अवाचि वाचंयमे, वागविरहिते इत्यर्थः / तथा विधुना चन्द्रेणापि, विधेया कर्तव्या, मानना पूजा यस्य तादृशे, विधोरपि उत्कृष्टे इत्यर्थः / ते तव, आनने मुखे, अयुक्तः अनुचितः, समयः कालो यस्याः तादृशी, रमणाकाङमाया अपरितृप्तत्वेन इदानी प्रसन्नताया एवौचित्यादिति भावः। रोषः कोप एव, कुङ्कुमं काश्मीरजम् , तस्य विलेपनात्'प्रलेपाद्धेतोः, मनाक ईषदपि, रञ्जना रक्तिमा, मा भूत् एव न भवस्वेव / निष्कलङ्के मुखे रोषकलङ्कस्य नेदानी कालः इति निष्कर्षः // 27 // (नलने और भी कहा कि ) हे कृश शरीरवाली ! हे ( क्रोधके कारण ) मौन धारण की हुई ! हे नम्रीभूते ! हे ( अपनी अपेक्षा तुम्हारे मुखके अतिशय सुन्दर होनेसे ) चन्द्रमा १.'-रूषित-' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'कश्चकार तव कोपरोपणाम्' इति 'प्रकाश' कृता व्याख्याय 'ब्रहि शास्मि तव कोपरोपिणम्' इति पाठान्तरमुक्तम्।
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1216 द्वारा माननीये (प्रिये) ! तुम्हारे मुखपर अप्राप्त समयवाली अर्थात् असामयिकी, कोपरूपी कुङ्कुमके लेपसे थोड़ी भी लालिमा न होवे अर्थात् तुम इस प्रसन्नताके समयमें कोप मत करो [अथ च-निष्कलङ्क अपने मुखपर असामयिक रोषकलङ्क लाकर उसे दूषित मत करो अर्थात् मैंने यह कोई अपराधका कार्य नहीं किया है, अत एव असामयिक क्रोधसे मुखको लाल मत करो / अथया-यह सम्भोगका समय ( रात्रि ) है, कोपका समय नहीं है, अत एव इस समय कोप मत करो। अथवा-तुम्हारा मुख चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर है, इसी कारण वह तुम्हारी मानना (आदर ) करता है, अत एव यदि क्रोधयुक्त मुख करोगी तो वह चन्द्रमासे हीन कान्तिवाला हो जायगा, अत एव यह क्रोध का समय नहीं होनेसे उसे छोड़ दो / अथवा-शीतकालमें उष्णप्रकृतिक कुङ्कुमसे मुखरञ्जन किया जाता है, इस वसन्तकालमें तो श्वेत चन्दनकी पाण्डुता ही मुखको शोभित करेगी, अत एव कोप-कुङ्कुमसे मुखको रञ्जित करनेका समय नहीं हैं, वैसा ( कोपसे, पक्षा०-कुङ्कुमसे ) मुखको रञ्जित करना छोड़ दो ] 127 // क्षिप्रमस्यतु राजा नखादिजास्तावकीरमृतशीकरं किरत | एतदर्थमिदमर्जितं मया कण्ठचुम्बि मणिदाम कामदम् / / 128 / / क्षिप्रमिति / हे प्रिये! कण्ठचुम्बि गलदेशविलम्बि, कामदम् अभीष्टपूरकम् , इदं दृश्यमानम् , मणिदाम रस्नमालिका। कर्तृ। अमृतशीकरं सुधाविन्दुम् , किरत् वर्षत् सत् , नखादिजा: नखदन्तक्षतादिजन्याः, तावकी: त्वदीयाः, रुजाः पीडाः, भिदादित्वादप्रत्ययः / क्षिप्रं शीघ्रम् , अस्यतु दूरीकरोतु, मया एतदर्थ क्षतादिजः पीडानिरासार्थम् एव, अर्जितं सङगृहीतम् , इदं मणिदामेति शेषः // 128 // (नलने दमयन्तीसे पुनः कहा-) कण्ठमें लटकती हुई, इच्छा (मनोरथ ) को पूर्ण करनेवाली यह मणिमाला अमृतकणको बरसाती हुई नख आदि ( दन्तके क्षय ) से उत्पन्न तुम्हारी पीडाको शीघ्र शान्त कर दे, इसी वास्ते (नखक्षत एवं दन्तदंशसे उत्पन्न तुम्हारी पीड़ाको शान्त करने के लिए ही ) मैंने इसका संग्रह किया है। पाठा०-......"पूर्ण करनेवाली, मुझसे इप्स ( नखक्षतजन्य तथा दन्तदंशजन्य तुम्हारी पीड़ाको दूर करने ) के लिए प्रार्थित प्रियाकी नखक्षतजन्य तथा दन्तक्षतसे उत्पन्न पीडाको शीघ्र दूर कर दो ऐसा) अत एव अमृतकणोंको फेंकती ( बरसाती) हुई नख आदि ( दन्तके क्षत) से उत्पन्न तुम्हारी पीड़ाओंको शीघ्र शान्त कर दे // 158 / / स्वापराधमलुपत् पयोधरे मत्करः सुरधनुः करस्तव / सेवया व्यजनचालनाभुवा भूय एवं चरणौ करोतु वा // 129 // स्वेति / हे प्रिये ! तव ते, पयोधरे स्तने, मेघे च / 'पयोधरः कोषकारे नारिकेले स्तनेऽपि च / कशेरुमेघयोः पुंसि' इति मेदिनी / सुरधनुः इन्द्रचापाकृति नखाङ्गम् , 1. '-मर्थितम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'एष' इति पाठान्तरम् /
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________________ 5220 नैषधमहाकाव्यम् / इन्द्रचापञ्च करोतीति तादृशः / 'दिवाविभा-' इत्यादिना टप्रत्ययः। मत्करः मस पाणिः, करः सूर्यकिरणश्च, व्यजनस्य तालवृन्तस्य, चाल नया संचालनेन, वायुप्रवा. हणेन च, भवति सम्पादयतीति तादृशया, सेवया परिचर्यया, स्वापराधं नखक्षत. करणजनितनिजदोषम् , अलुपत् नुनोद, प्रागेवेति भावः / लुम्पेः लूदित्वात् च्लेरडादेशः / भूय एव पुनरपि, चरणौ वा तव पादौ वा, करोतु धातूनामनेकार्थत्वात् सेवतामित्यर्थः / सामान्ये विशेषलक्षणा // 129 // ( नलने दमयन्तीसे पुनः कहा कि-हे प्रिये ! ) तुम्हारे स्तन पर ( पक्षा०-मेघमें ) इन्द्रधनुष ( रक्तवर्ण एवं वक्राकार होनेसे इन्द्रधनुषतुल्य नखक्षत ) को करनेवाला मेरा हाथ (पक्षा०-सूर्य-किरण ) पङ्खा झलनेको सेवासे पहले ही अपने (नखक्षतरूप ) भपराधको नष्ट कर दिया, अथवा फिर भी दोनों चरणोंको दबावे अर्थात् दबाकर अपने अवशिष्ट अपराधको भी नष्ट करे। [ अथवा-चरणों को सम्भोगाथं ऊपर उठावे / अथवा-अनेक वर्गौवाले रत्नोंसे जड़ी हुई अंगूठियोंसे युक्त मेरे हाथने तुम्हारे स्तनपर इन्द्रधनुषको बनाया है, अथवा-पयोधर ( स्तन ) पर सम्भोगकालमें रक्तवर्ण, वक्र नखक्षतरूप इन्द्रधनुष बनाया है तथा पक्षा०-मेघमें इन्द्रधनुष बनाया है, अत एव (क्रमशः रत्नकिरणोंसे इन्द्रधनुष बनाने पर पीड़ा होनेसे, अथवा-सम्भोगकालमें नखक्षत करना दूषित नहीं होनेसे, अथ च पक्षा-मेघमें इन्द्रधनुष बनाना दोषकारक नहीं होनेसे ) मेरे हाथने कोई अपराध ही नहीं किया था, तथापि यथाकञ्चित् अपराध किया माननेपर भी पङ्खा झलकर सेवा करनेसे उस हाथने उस अपराधका परिमार्जन कर दिया, इतनेपर भी यदि तुम क्रोध करती हो तो अब वह हाथ तुम्हारे पैर दबाकर ( पैरोंपर पड़कर ) अपने अपराधका मार्जन कर ले, क्योंकि पैरोंपर पड़नेसे तो बड़े अपराधका भी मार्जन हो जाता है, अतः वैसा करने के लिए मैं तैयार हूँ, इस कारण तुम क्रोध मत करो] // 129 / / आननस्य मम चेदनौचिती निर्दयं दशनदंशदायिनः / शोध्यते सुदति ! वैरमस्य तत किं त्वयावद विदश्य नाधरम ? // 130 / / आननस्येति / हे प्रिये ! निर्दयं निष्पं यथा तथा, दशनदंशं दन्तेन दंशनम् , ददाति करोतीति तादृशस्य, ते अधरं दष्टवतः इत्यर्थः / मम आननस्य मन्मुखस्य, अनौचिती अन्यायता, चेत् यदि तर्हि हे सुदति ! सुन्दरदशने ! स्खया भवत्या, अधरं मम ओष्ठम्, विदश्य-दष्ट्वा, दन्तक्षतं कृत्वेति यावत् / अस्य मदाननस्य, तत् पूर्वोक्तरूपम्, वैरं शत्रुता, किं कथं शोध्यते ? न निर्यात्यते ? न प्रतिक्रियते ? इत्यर्थः / वद तत् कथय / मद्दशनदंशस्य प्रतिदंशनमेव प्रतीकारः इति भावः // 130 // ___ यदि निर्दयतापूर्वक दन्तदंशन करनेवाले मेरे मुखका अनुचित कार्य है तो हे सुदति ! इस ( मेरे मुख ) के अधरको सम्यक् रूपसे दंशनकर उसका बदला क्यों नहीं चुका लेती ? कहो // 130 / /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1221 दीपलोपमफलं व्यधत्त 'यस्ते पटाहृतिषु मच्छिखामणिः / नो तदागसि परं समर्थना सोऽयमस्तु पदपातुकस्तव !! 131 / / दीपेति / हे प्रिये ! ते तव, पटाहृतिषु वस्त्राकर्षणकालेषु, यः मच्छिखामणिः मम चूडारत्नम् , दोपलोपं त्वत्कर्तृकदीपनिर्वापणम् , अफलं व्यर्थम् व्यधत्त चकार, स्वप्र. भया आलोकोत्पादनात् तव प्रयत्नं निष्फलीचकार इत्यर्थः / तदागसि तस्मिन् अप. राधे, परम् उत्कृष्टम् , समर्थना अनुमोदनम् , तदपराधस्य यौक्तिकत्वसमर्थनमिः त्यर्थः / नो न, अस्तीति शेषः / अत एव सः अयं शिखामणिः, तव ते, पदपादुकः पादपाती 'लषपत-' इत्यादिना उकज / अस्तु भवतु / प्रणिपातेन एवापराधप्रमाः जनं करोतु इत्यर्थः // 13 // जिस मेरे मुकुटमणिने तुम्हारे वस्त्रों के अपहरण करने ( हटाने ) में ( अपनी प्रभासे ) दीप बुझाना व्यर्थ कर दिया, उस अपराधमें कोई समर्थन नहीं है अर्थात यह मुकुटमणि अपने किये हुए उस कार्यको किसी प्रकार उचित नहीं प्रमाणित कर सकता, अत एव वह (मुकुटमणि ) तुम्हारे चरणोंपर गिरे अर्थात् अपराध-मार्जनका दूसरा कोई उपाय नहीं होनेसे तुम्हारे चरणोंपर गिरकर ही अपने पूर्वकृत अपराधको क्षमा करावे [ क्योंकि लोकमें भी कोई अपराधी अपने अपराधको चरणोंपर गिरकर क्षमा याचना करता है तथा सज्जन लोग उसे क्षमा भी कर देते हैं, अत एव चरणोंपर गिरनेसे तुम्हें भी इसके अपराध को क्षमा कर देना चाहिये ] / / 131 // इत्थमुक्तिमुपहृत्य कोमलां तल्पचुम्बिचिकुरश्चकार सः। आत्ममौलिमणिकान्तिभङ्गिनी तत्पदारुणसरोजसङ्गिनीम् / / 132 / / इत्थमिति / सः नलः, 'इत्थम् उक्तप्रकाराम , कोमलां ललितपदाम , उक्तिं वाणीम् , उपहृत्य उपायनीकृत्य, तस्याः सन्तोषविधानाय उपढौकनवत् प्रयुज्ये. त्यर्थः / तल्पचुम्बिनः शय्यास्पर्शिनः, मस्तकनमनादिति भावः / चिकुराः स्वकेशाः यस्य सः तादृशः सन् , आत्ममौलिमणिकान्तिः निजशिरोरत्नप्रभा एव, भगिनी तरङ्गिणी, तरङ्गप्रवाहवत् कुटिलतया प्रसरणात् नदीत्यर्थः / ताम् , तत्पदे भैमीचर• णावेव, अरुणसरोजे कोकनदद्वयम् , तत्सङ्गिनी तयुक्ताम् चकार विदधे / तत्पादयो. नमश्चकार इत्यर्थः / नद्यो ह रक्तनीलकमलादियुक्ता भवन्तीति प्रसिद्धिः // 132 // इस प्रकार ( 18 / 126-131 ) मृदु वचन कहकर ( प्रणाम करनेसे ) शय्याका स्पर्श कर रहा है केश जिसका ऐसे उस ( नल) ने अपने मुकुटरत्नोंकी कान्तिरूपिणी नदीको उस ( दमयन्ती ) के चरणरूपी रक्तकमलसे युक्त कर दिया। [उक्त मृदुवचन कहने के उपरान्त नल दमयन्तीके चरणोंपर नम्र हुए तो उनके केश पलङ्गको छूने लगे तथा उनके मुकुटरत्नोंकी कान्ति दमयन्तीके अरुणवर्ण चरणोंपर फैल गयी तो ऐसा मालूम पड़ता था कि 1. 'यस्त्वत्पदा-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1222 नैषधमहाकाव्यम् / रत्नकान्तिरूपिणी नदी चरणरूप रक्तकमलसे युक्त हो रही है। नदी में रक्तकमलका होना उचित ही है / ऐसा मृदु वचन कहकर नलने पलङ्गपर बैठी हुई दमयन्तीके चरणोंको नतमस्तक होकर प्रणाम किया ] // 132 // तत्पदाखिलनखानुबिम्बनैः स्वैः समेत्य समतामियाय सः / 'रुद्रभीतिविजिगीषया रतिस्वामिनोपदशमूर्त्तिताभृता // 133 / / तदिति / सः नलः, स्वैः आत्मीयैः, तस्याः दमयन्त्याः, पदयोः चरणयोः, अखि. लेषु समग्रेषु, दशस्वेवेति यावत् / नखेषु अनुबिम्बनैः प्रतिबिम्बैः, समेत्य मिलित्वा, दशभिः मेलनेन एकादशसवयको भूत्वेत्यर्थः / रुद्रेभ्यः एकादशभ्यः रुद्रदेवताभ्यः, भीतेः भयस्य, विजिगीषया जेतुमिच्छया, भयात् परित्रातुमिच्छया इत्यर्थः / उप समीपे दशानाम् उपदशाः एकादश इत्यर्थः / 'सङ्ख्याव्यया-' इत्यादिना बहुव्रीहौ समासान्तो डच टिलोपश्च / मूर्तयः यस्य तस्य भावः तत्ता तां बिभर्तीति तादृशेन, रतिस्वामिना कामेन, समतां सादृश्यम् , इयाय प्राप / एकादशरुद्रजिगीषया एका. दशमूर्तिधारी साक्षात काम इव अलच्यत इत्युत्प्रेक्षा // 133 // ( प्रणाम करते हुए ) उस ( नल ) ने उस ( दमयन्ती ) के दोनों चरणोंके सब (दशों) नखोंमें अपने प्रतिबिम्बोंसे युक्त होकर रुद्र (महाक्रोधी शिवजी ) के भय ( पाठाबाहुल्यता अर्थात् एकादश संख्या ) को जीतनेको इच्छासे ग्यारह मूर्ति धारण किये हुए कामदेवकी समानताको प्राप्त किया। [ जब नल दमयन्तीको प्रसन्न करनेके लिए उसके चरणोंपर गिरे, तब उसके चरणोंके दशो नखोंमें नलका प्रतिबिम्ब पड़ गया, वह ऐसा मालूम पड़ता था कि ग्यारह रुद्रोंको अकेला जीतना अशक्य मानकर उनसे डरे हुए कामदेवने भी ग्यारह ( 10 प्रतिबिम्ब तथा 1 स्वयं कुल 11 ) रूप धारण कर लिया हो / इससे नलका माक्षात्कामदेवतुल्य होना तथा दययन्तीके चरणनखोंका रत्नवत् निर्मल होना सूचित होता है ] // 133 / / आख्यतैष कुरु कोपलोपनं पश्य नश्यति कृशा मधोर्निशा / एवमेव तु निशानरे वरं रोषशेषमनुरोत्स्यसि क्षणम् / / 134 / / आख्यतैष इति / हे प्रिये ! कोपस्य क्रोधस्य, लोपनं संहरणम् , कुरु विधेहि, क्रोधं परित्यज इत्यर्थः / यतः कृशा क्षीणा, अल्पपरिमाणा इत्यर्थः / मधोः वस. न्तस्य, निशा रात्रिः, नश्यति अपगच्छति / पश्य अवलोकय निशान्तरे तु अन्यस्यां रात्रौ पुनः, एवमेव इत्थमेव, क्षणं क्षणमात्रम् , न तु चिरमिति भावः / रोषशेषम् अविशिष्टक्रोधम् अनुरोत्स्यसि अनुसरिष्यसि, वरं तत्त किञ्चित् प्रियम् , एषः नलः, आख्यत इति आह स्म / चतिको लुङि ख्याजादेशे तङ्, 'भस्यतिवक्तिख्यातिभ्यो. ऽङ' इति च्लेरडादेशः // 134 // 1. 'रुद्रभ्रम-' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1223 (इस प्रकार दमयन्तीके चरणोंपर गिरकर ) नलने कहा-'कोपको छोड़ो, देखो, वसन्तकी छोटी ( कुछ शेष रहनेसे थोड़ी, या शीतकालकी अपेक्षा छोटी) रात्रि नष्ट हो (व्यर्थमें ही बीत ) रही है, ( अत एव ) फिर दूसरी (आगामिनी--अगले दिनवाली, याशीतकालकी ) रात्रिमें हसी प्रकार ( पाठा०-इसी) बचे हुए कोपको क्षणमात्र करना, ( तो वैसा कुछ ठीक भी होगा ) / [ दमयन्तीके चरणपतित नलने कहा-आजकल वसन्त ऋतुकी रात्रि एक तो स्वयं छोटी होती है तथा दूसरे वह थोड़ी ही शेष रह गयी है, अत एव इस समय कोप छोड़कर सम्भोगार्थ प्रसन्न होवो, हां, इस प्रकार कोपको तुम भले ही किसी दूसरी ( शीतकालकी बड़ी, या कल-परसो आदिकी ) रात्रिमें कर लेना तो वह कुछ ठीक भी होगा, अन्यथा यदि आज ही सब कोप करके उसे समाप्त कर दोगी तो दूसरी रात्रि में कहांसे कोप करोगी, अत एव भविष्य के लिए भी कुछ कोपको बचा रखना उचित है] / साथ नाथमनयत् कृतार्थतां पाणिगोपितनिजाम्रिपङ्कजा / तत्प्रणामधुतमानमाननं स्मेरमेव सुदती वितन्वती / / 135 / / सेति / अथ प्रियप्रणामानन्तरम् , पाणिभ्यां कराभ्याम् , गोपिते तच्छिरःस्पर्शभयात् छादिते, निजाघ्रिपङ्कजे स्वीयपादपद्मयुगलं यया ताहशी, सुदती सुन्दरंदन्तशालिनी, सा भैमी, तस्य नलस्य,प्रणामेन पादपतनेन, धुतमानं दूरीभूतकोपम्, अपगतकोपचिह्नमित्यर्थः, आननं स्वमुखम् , स्मेरं सस्मितम् , वितन्वती एव कुर्वती एव, नाथं स्वामिनं नलम् , कृतार्थतां पूर्णकामम् , अनयत् प्रापितवती // 135 // इस ( नलके प्रणाम-प्रियभाषण ) के बाद हाथोंसे अपने चरणकमलको ढकती हुई सुन्दर दाँतोंवाली उस (दमयन्ती) ने उस ( नल ) के प्रणामसे मानरहित मुखको स्मित. युक्त करती हुई अर्थात् मुस्कुराती हुई स्वामी ( नल ) को कृतार्थ कर दिया। [ 'स्वामीके मस्तकका मेरे चरणोंसे स्पर्श न हो' इस लिए अपने चरणोंको दोनों हाथोंसे दमयन्तोने ढक लिया तथा मान छोड़कर मुस्कुराती हुई नलको कृतकृत्य कर दिया। उसके उक्त व्यवहारसे नलको अपार हर्ष हुआ ] / / 135 // तौ मिथोरतिरसायनात् पुनः सम्बुभुक्षुमनसौ बभूवतुः / चक्षमे न तु तयोमनोरथं दुर्जनी रजनिरल्पजीविती / / 136 / / ताविति / तौ भैमीनलौ, मिथः अन्योऽन्यम् , रतिः अनुरागः एव, रसायनं जरा. दिजातावसादनाशकौषधविशेषः तस्मात् , 'यजराव्याधिविध्वंसि भेषजं तदसायनम्' इति वाग्भटोक्तेः / प्रथमसुरतजावसादनाशकौषधविशेषसेवनेन पुनः प्रवृत्तिहेतोः, पुनः भूयः, सम्बुभुक्षुणी सम्भोक्तुमिच्छुनी, मनसोचित्ते ययोः तादृशौ सम्भोक्तुकामौ, बभूवतुः जज्ञाते / तु किन्तु, दुर्जनी दुष्टजन्मा, परसुखद्वेषित्वादिति भावः। अल्प. जीविता वसन्तरात्रीणाम् अतिहस्वत्वात् अचिरस्थायिनी, अल्पायुष्का च, रजनिः 1. 'जीवना' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1224 नैषधमहाकाव्यम् / रात्रिः काचित् स्त्री च, तयोः दम्पत्योः, मनोरथम अभिलाषम् , न चक्षमे न सेहे / शीघ्रमेव अवसितत्वात् विघ्नाचरणाच्चेति भावः ।दुर्जनः परशुभासहोऽल्पजीवी चेति युक्तम् / रात्रेः अल्पावशिष्टत्वात् तयोः पुनः सम्भोगवाञ्छा न पूर्णा इति तात्पर्यम् // वे दोनों (नल तथा दमयन्ती ) परस्परमें रतिरूपी रसायन (.दौर्बल्यादि-नाशक वीर्य. कारक औषध-विशेषके सेवन ) से फिर सम्भोग करने के इच्छुक हो गये, किन्तु दुष्ट जन्म. वाली तथा थोड़ी जीवितवाली अर्थात् थोड़ी बची हुई ( पक्षा०-थोड़ी आयुवाली) रात्रिने रन दोनों के मन रथको नहीं सहा अर्थात् थोड़ी रात्रि शेष रहने से उनको पुनः सम्भोगेच्छा पूर्ण नहीं हुई / [ अन्य भी कोई दुष्ट सपत्नी आदि स्त्री दम्पतिकी सम्भोगेच्छा को नहीं सहन करती ] // 136 // स्वप्तुमात्तशयनीययोस्तयोः स्वैरमाख्यत वचः प्रियां प्रियः / उत्सवैरधरदानपानजैः सान्तरायपदमन्तराऽन्तरा / / 137 / / स्वप्तुमिति / स्वप्तुं निद्रातुम् ,आत्तशयनीययोःआश्रिततल्पयोः, तयोः प्रिययोः मध्ये, प्रियः नलः, प्रियां भैमीम् , अधरयोः रदनच्छयोः, दानात् अन्योऽन्यं चुम्बनाय समर्पणात् , तथा पानात् चुम्बनाच्च, जायन्ते उत्पद्यन्ते इति तादृशः, उत्सवैः आनन्दैः, अन्तराऽन्तरा मध्ये मध्ये, दानपानयोमध्ये मध्ये इत्यर्थः / सान्तरायाणि सप्रतिबन्धानि, दानपानरूपैविघ्नः विच्छिद्य विच्छिद्य प्रयोज्यमानानीत्यर्थः / पदानि सुप्तिङन्तरूपशब्दाः यस्मिन् तत् तादृशम् वचः वाक्यम् , निजप्रेमज्ञापकमिति भावः / स्वैरं यथेच्छम् , असम्बद्धरूपं यथा तथेत्यर्थः / आख्यत अवोचत् / / 137 // शयनार्थ शय्यापर गये हुए उन दोनों में से प्रिय ( नल ) ने प्रिया ( दमयन्ती) से अपने अधरका दमयन्तीके द्वारा पान कराने तथा दमयन्तीके अधरका पान करनेके आनन्दोंसे बीच-बीचमें विच्छिन्न पद-समूह हो अर्थात् रुक-रुककर ( एकान्त होनेसे ) स्वच्छन्दता. पूर्वक बोले / [ शय्यापर लेटे हुए दोनों परस्परमें एक दूसरेके अधरका पान करते-कराते थे, उसी समय नलने दमयन्तीको एकान्त होनेसे स्वच्छन्दतापूर्वक वक्ष्यमाण वचन ( 181138145 ) उक्त अधर-पान करने-करानेके आनन्दसे बीच-बीचमें रुककर कहने लगे / / 137 // देवदूत्यमुपगत्य निर्दयं धर्मभीतिकृततादृशागसः / अस्तु सेयमपराधमार्जना जीवितावधि नलस्य वश्यता / / 138 / / किं तत् वाक्यं तदेवाष्टभिराचष्टे-देवेत्याहि / हे प्रिये ! देवदूत्यं देवानां दूतकृ. त्यम् , उपगत्य स्वीकृत्य, देवदौत्यस्वीकारहेतोरित्यर्थः / निर्दयं निष्करुणं यथा तथा, धर्मभीत्या प्रतिश्रुतिभङ्गाजनितधर्मलोपभयेन, कृतम् अनुष्ठितन् , तादृक् तथाभूतम् , इन्द्रादिवरणार्थमनुरोधात् प्रतिकूलाचरणरूपमित्यर्थः / आगः अपराधः येन तादृशस्य, नलस्य अपराद्धस्य मम सम्बन्धिनी, जीवितावधि यावजीवम् , सा इयं क्रियमाणे
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1225 त्यर्थः / वश्यता तव आज्ञानुवर्तिता, 'वशङ्गतः' इति यस्प्रत्ययः / अपराधस्य दोषस्य, मार्जना परीहारः, क्षालनीत्यर्थः / अस्तु भवतु / यावज्जीवं दास्येनापराधमिमं क्षाल. यिष्यामीत्यर्थः // 138 // देवों ( इन्द्र, अग्नि, यम और वरुण ) के दूतकर्मको स्वीकारकर धर्मके ( यदि मैं अपनी स्वीकृत बातका पालन नहीं करूंगा तो मुझे पाप लगेगा इस प्रकारके) भयसे वैसा ( दूत-कर्म करते हुए तुम्हें कष्टदायक ) अपराध करनेवाले नलके अर्थात् मेरे जीवन पर्यन्त तम्हारे वश में होकर रहना उस अपराधका परिमार्जन करनेवाला होवे / [ धर्मके मयसे मैंने इन्द्रादि चारों देवोंका दूतकर्म करते हुए तुम्हें कष्ट पहुंचाकर बड़ा अपराध किया है, अत एव अबसे जीवनपर्यन्त तुम्हारे वशमें रहकर अर्थात् तुम्हारा दास बनकर वैसे महान् अपराधका मार्जन करूंगा] // 138 / / स क्षणः सुमुखिः! यत्त्वदीक्षणं तच्च राज्यमुरु येन रज्यसि | तन्नलस्य सुधयाऽभिषेचनं यस्त्वदङ्गपरिरम्भविभ्रमः / / 136 / / स इति / सुमुखि ! हे सुवदनि ! यत् स्वदीक्षणं तव दर्शनम्, तव दर्शनलाभ इत्यर्थः / नलस्य नेषधस्य मम, सः क्षणः उत्सवः / अथ क्षण उद्धर्षो मह अनार उत्सवः' इत्यमरः। अनुपमानन्दजनकत्वादिति भावः। येन कर्मणा द्रव्येण वा, रज्यसि रक्ता भवसि, प्रीयसे इत्यर्थः / त्वमिति शेषः / 'कुषिरोः' इत्यादिना श्यन, परस्मैपदश्च / तच्च तदेव, उरु महत् , राज्यं राजत्वस्वरूपम्, तव प्रसन्नवदनदर्शनसु. खस्य राज्यसुखादपि अधिक सुखकरत्वादिति भावः / यः त्वदङ्गस्य तव वक्षःस्थला. द्यवयवस्य, परिरम्भविभ्रमः आलिङ्गनलीला, तत् एव सुधया.पीयूषेण, अभिषेचनं सिजनम् , अमृताभिषेचनवदङ्गानां प्रहर्षजननमित्यर्थः। अवसन्नस्यापि देहस्य उत्तेजकत्वादिति भावः / त्वत्सम्बन्धं विना मे न किञ्चिदपि रोचते इति निष्कर्षः॥ 139 // हे सुमुखि ! जो तुम्हारा दर्शन है, वही मैरा ( अनुपम आनन्दप्रद होनेसे ) उत्सव है ( अथवा-जो तुम्हारा बहुत समय तक भी दर्शन है, वह मेरे लिए (अतिशय सुखकर होनेसे ) क्षणमात्रका समय है ), जिस ( वस्तु या-व्यापार-विशेष ) से तुम अनुराग करती हो, बही ( वस्तु, या-व्यापार-विशेष ) मेरा राज्य है ( तुम्हारे अनुरागवाली वस्तु याव्यापार-विशेष साम्राज्यके समान मुझे सुखप्रद है, यह भूमण्डलरूप साम्राज्य वैसा सुखप्रद नहीं है) और तुम्हारे अङ्गोंके आलिङ्गनका जो विलास है, वही नलका अर्थात् मेरा अमृताभिषेक है (इस प्रकार हे सुमुखि ! तुम्हारे बिना साम्राज्यादि कोई भी वस्तु या कार्य मझे सुखकर नहीं है, किन्तु तुम्हीं मेरे सर्वविध सुखका साधन हो ) // 139 / / शर्म किं हृदि हरेः प्रियाऽपणं ? किं शिवाऽर्द्धघटनं शिवस्य वा ? | कामये तव 'मयेह तन्वि ! तं नन्वहं सरिदुदन्वदन्वयम् // 140 // 1. 'महेषु' इति पाठान्तरम्।
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________________ 1226 नैषधमहाकाव्यम् / शर्मेति / हरेः विष्णोः, हृदि वक्षसि, प्रियायाः हरिप्रियायाः लक्ष्मीदेव्याः, अर्पणं दानम् , 'स्थानदानमित्यर्थः / वक्षसि धारणमिति यावत् / किं शर्म ? सुखं किम् ? नैव सुखकरमित्यर्थः / सर्वथा एकीभावाभावादिति भावः / वा अथवा, शिवस्य महादेवस्य, शिवायाः गौर्याः, अद्वै अर्धाङ्गे, घटनं निजा ङ्गसम्मेलनम , अर्द्धनारीश्वरभावमित्यर्थः / किं शर्म ? सुखकरं किम् ? नैवेत्यर्थः / उभयोर ङ्गमात्रयोजनेन सर्वथा एकीभावाभावादिति भावः / तर्हि किं तत् शर्म, यत् स्वं कामयसे ? इत्याहननु तन्वि ! हे कृशाङ्गि ! इह अस्मिन् लोके, अहं नलः, मया सह तव ते, तं प्रसि. द्धत्वेन:सर्वथा प्रार्थनीयमित्यर्थः / सरिदुदन्यतोः नदीसमुद्रयोः, अन्वयं मेलनम् , तयोः संयोगमिव संयोगमित्यर्थः / नदीसागरयोरिव एकात्मत्वेन मिश्रणमिति यावत् / कामये प्रार्थये / मिथुनान्तरमेलनवत् सरित्सागरमेलने भेदानवभासात् इति भावः / विष्णुके हृदयमें प्रिया ( लक्ष्मी ) का स्थापन करना ( रहनेके लिए स्थान देना) कौन-सा सुख है ? ( अथवा-सुख है क्या ?), अथवा शिवजीके शरीराद्ध में पार्वतीका घटित होना अर्थात् शिवजीकी अर्धाङ्गिनी होना कौन-सा सुख है ( अथवा-सुख है क्या ) ? अर्थात् उक्त दोनों कार्योंमें एकीभाव नहीं होनेसे कोई भी सुख नहीं है ( अत एव ) हे तन्वि ! यह मैं यहांपर अपने साथ ( पाठा०-सुरत-सम्बन्धी उत्सवोंमें ) नदी तथा समुद्र के अन्वय (एकीभाव ) को चाहता हूँ / [ लक्ष्मी-विष्णुको तथा पार्वती-शिवका क्रमशः हृदयमें वास देने तथा शरीरार्द्ध समर्पण करनेपर भी पृथग्भाव बने रहने से .अङ्ग-प्रत्यङ्गका सम्मेलन नहीं होने के कारण परमानन्द लाभ नहीं होता, अत एव मैं जिस प्रकार नदी समुद्र में मिलकर एकीभाव प्राप्त करनेसे कौन नदी है ? और कौन समुद्र है ? यह नहीं कहा जा सकता, वैसा हो मैं अपने साथ तुम्हारा एकीमाव चाहता हूँ ] // 14* / / 'दीयतां मयि दृढं ममेति धीवक्तुमेवमवकाश एव कः ? / यद्विध्य तृणवहिवस्पति क्रीतवत्यसि दयापणेन माम // 142 / / दीयतामिति / हे प्रिये ! मयि मद्विषये, मां प्रतीत्यर्थः / मम इति धीः तव ममस्वबुद्धि, दृढं निश्चलं यथा तथा, दीयताम् अयंतां, स्थाप्यतामित्यर्थः / भवत्या इति शेषः / एवम् इत्थम् , वक्तुं कथयितुम् , अवकाशः अवसरः एव, कः ? नेवास्तीत्यर्थः / अप्राप्तमेवार्थ लोकाः प्रार्थयन्ति प्राप्ते तु तस्या अनौचित्यादिति भावः / अवकाशा भावमेव प्रदर्शयति-यत् यस्मात् , दिवस्पतिम् इन्द्रमपि, तृणवत् तृण इव, विधूय निरस्य, परित्यज्य इत्यर्थः / दयया एव कृपारूपेणैव, पणेन मल्येन, मां मलम, क्रीतवती स्वीकृतवती, असि भवसि / अतः क्रीतदासे मयि प्रभोः ते ममस्वबुद्धिविषये प्रार्थनाऽवकाशो नास्स्येवेति भावः // 141 // 1. 'धीयतां मयि दृढा' इति पाठान्तरम् /
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1227 समझो' ऐसा कहनेका अवसर ही कौन-सा है / क्योंकि तुमने स्वर्गाधीश इन्द्रको भी तृणः तुल्य ( तुच्छ समझकर ) परित्यागकर दयारूपी मूल्यसे मुझे खरीद लिया है। [ 'जो तुमने, उक्त प्रकारसे मुझे खरीद लिया है, अतः तुम मुझे अच्छी तरह अपना समझो' ऐसे कहनेका कोई भी अवसर नहीं है, क्योंकि अवास्तविक बातके लिए प्रार्थना की जाती है, वास्तविकके लिए नहीं / 'स्वर्गाधीश तथा दयारूपी मूल्य' कहनेसे यह सूचित होता है कि न तो मैं इन्द्रसे अधिक ऐश्वर्यवान् ही था और न तुमसे अधिक सुन्दर ही था, तथापि तुमने इन्द्रका तृणवत् त्यागकर जो मुझे बरा है, उसमें तुम्हारी दया ही मुख्य कारण है, अत एव उस दयाको तुम मेरे ऊपर जीवन पर्यन्त बनाये रहो, यही प्रार्थना है ] // 141 // शृण्वता निभृतमालिभिभवद्वाग्विलासमसकृन्मया किल / ' मोघराघवविसय॑जानकीश्राविणी भयचलाऽसि वीक्षिता // 142 / / शृण्वतेति / हे प्रिये ! आलिभिः सखीभिः सह, भवस्याः तव, वाग्विलासं कथो. पकथनव्यापारमित्यर्थः सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः / असकृत् अनेकशः, निभृतं गूढं यथा तथा, अन्तराले अवस्थाय आत्मगोपनं कृत्वेत्यर्थः / शृण्वता आकर्णयता, मया नलेन, मोघं व्यर्थम् . सर्वसमक्षमेव अग्निपरीक्षया विशुद्धितायां प्रमाणिताया. मपि अकारणमेवेत्यर्थः / राघवेण रामचन्द्रेण, विसज्या त्याज्याम् , जानकी सीताम्, शृणोति आकर्णयतीति तादृशी, किलेति वार्तायाम् , उत्तरकाले उत्पत्स्यमानो राम. चन्द्रः मिथ्यालोकापवादेन धर्मपत्नी सीतां विसर्जयिष्यतीति समागतः त्रिकालज्ञ. मुनिभिः वर्णितमुपाख्यानं सखीमुखेभ्यः शृण्वतीत्यर्थः / अत एव भयेन आत्मनोऽपि ताहशश्चेत् सम्भवेदिति भीत्या, चला सकम्पा, त्वमिति शेषः। वीक्षिता दृष्टा, असि भवसि / अत एव मयि ते ममत्वबुद्धौ नास्ति वचनावकाश इति भावः // 142 // अनेक बार सखियों के साथ तुम्हारे वाग्विलासको ( देवों के दिये हुए वरदान (14 / 91) के प्रभावसे गुप्त होकर, या प्रकारान्तरसे खम्भे आदिके आड़में छिपकर ) चुपचाप सुनते हुए मैंने ( सबके सामने अंग्निपरीक्षामें निर्दोष सिद्ध होनेपर भी) व्यर्थ ही रामचन्द्रके द्वारा छोड़ी जानेवाली सीताको सुनकर (जिस प्रकार राम निष्कलङ्क एवं प्राणप्रिया सीताजीका त्याग करेंगे या-किया, उसी प्रकार निष्कलङ्क मुझे भी मेरे स्वामी कदाचित त्याग न कर दें, इस प्रकार उत्पन्न हुए ) मयसे चञ्चल (घबड़ायी हुई ) तुमको मैंने देखा है। [ जब रामके द्वारा त्याज्य सीताकी कथामात्र सुननेसे भयसे घबड़ायी हुई तुझे मैंने देखा, अत एव निश्चित कर लिया कि तुम्हारा मुझमें अपार अनुराग है, इस कारण 'तुम मुझे अच्छी तरह अपना समझो' यह कहनेका कोई अवसर हो नहीं है / सत्ययुगमें होनेवाले पूर्वकालिक नल. की अपेक्षा त्रेतामें होनेवाले परकालिक रामचन्द्र द्वारा सीताके त्यागकी चर्चा त्रिकालज्ञ महर्षियोंसे सुनी हुई सखियोंका दमयन्तीसे कहना असम्भव नहीं होनेसे असङ्गत नहीं है। अथवा-ग्रन्यकार कवि श्रीहर्षकी स्वपूर्ववर्ती रामचन्द्र तथा सीताका वर्णन दमयन्तीकी 77 नै० उ०
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________________ 1228 नैषधमहाकाव्यम् / सखियोंसे कराना असङ्गत्त नहीं है / इससे नलके द्वारा निर्दोष दमयन्तीका भविष्यमें त्याग करना सूचित होता है ] // 142 // (युगम् ) छुप्तपत्रविनिमीलितक्षुपात् कच्छपस्य धृतचापलात् पलात् / त्वत्सखीषु सरटाच्छिरोधुतः स्वं भियोऽभिदधतीषु वैभवम् // 143 / / त्वं मदीयविरहान्मया निजां भीतिमोरितवती रहः श्रुता। . नोज्झितास्मि भवतीं तदित्ययं व्याहरद्वरमसत्यकातरः / / 144 / / अथ युग्मेनाह, छुप्तेत्यादि / छुप्तेन स्पृष्टेन, स्पर्शमात्रेणेत्यर्थः / तुप्तेति कचित्पाठः / 'छुपस्पर्शे' अयं पकारान्तस्तौदादिकोऽनिटश्च / पत्रेषु पर्णेषु, यद्वा-छुप्तपत्रः स्पृष्टपर्ण एव, विनिमीलितः सङ्कुचितः, यः नुपः हस्वशाखशिफदवृक्षविशेषः, लज्जालुसंज्ञकक्षुद्रशाखामूलविशिष्टकृत इत्यर्थः, तस्मात् / 'हस्वशाखशिफः तुपः' इत्यमरः / निरिन्द्रियस्यापि सेन्द्रियवत् व्यवहारदर्शनेन भौतिकोऽयमिति त्रासा. दिति भावः / तथा तचापलात् पुनः पुनः कृतसङ्कोचविस्ताररूपचाञ्चल्यात् , कच्छपस्य कमठस्य, पलात् मांसात् , शुण्डारूपादिति यावत् / अस्थिवत् कठिनपदार्थमध्यात् सहसा कोमलमांसनिःसरणप्रवेशयोः अन्यत्र कुत्राप्यदर्शनजनितत्रासादिति भावः / तथा शिरोधुतः शिरो मस्तकं धुनोति कम्पयतीति तादृशात् सदा चालित. मस्तकात् , सरटात् कृकलासात् , तस्य आकारप्रकारयोरस्वाभाविकत्वदर्शनजनितभयादिति भावः / वाक्यत्रयेऽपि अहं बिभेमीति शेषः / त्वत्सखीषु तव सहचरीषु, रहो निर्जने, स्वं स्वकीयं, भियः भयस्य, वैभवं सम्पदम् , भयातिरेककारणमित्यर्थः। भभिदधतीषु वर्णयन्तीषु सतीषु, युष्माकं का कस्मात् बिभेषि ? इति परस्परालोच. नायां तव सखीषु एकेका उक्तरूपं व्याहरन्तोसु सतीषु इत्यर्थः / स्वमिति / मदीय. विरहात् मम विच्छेदात् , निजां स्वकीयाम् , भीतिं भयम् , ईरितवती उक्तवती, त्वं भवती, मया नलेन, श्रुता आकर्णिता, आर्यपुत्रविरहाशङ्का एव मां भापयति इति त्वदुक्तिः मया श्रतेत्यर्थः / तत् तस्मात् , तव भयस्मरणादित्यर्थः / भवती स्वाम् , न उज्झितास्मि न त्यचयामि / उज्झतेः लुटि मिप। अहमिति शेषः / असत्यकातरः अनृतभीतः, अयं नलः, इति इस्थम् , वरम् अपरित्यागरूपं वरम् , व्याहरत् अवोचत् / दमयन्तीं वरं ददौ इत्यर्थः // 143-144 // (किसी समय एक साथ बैठकर विश्रम्भपूर्वक परस्पर बातचीत करती हुई सखियोंमेंसे 'कौन किससे डरती है ? ऐसा प्रश्न करनेपर ) स्पर्शमात्रसे सङ्कुचित पत्तोंवाली छुईमुई (लजौनी ) नामक क्षुप ( औषधि-विशेष ) से ( 'मैं डरती हूं' ऐसा किसीने कहा ), स्वभावतः चञ्चल कच्छप-मांस ( लम्बे डण्डेके समान सुख ) से ( 'मैं डरती हूँ' ऐसा दूसरी सखी ने कहा ), शिरको कॅपाते रहनेवाले गिरगिटसे ( 'मैं डरती हूँ' ऐसा तीसरी सखीने
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________________ अष्टादशः सर्गः। 1226 कहा ); इस तुम्हारे सखियों के अपना-अपना भयकारण बतलानेपर मेरे (नळके) विरहसे अपना भय बतलाती हुई तुमको मैंने एकान्तमें ( देवों के दिये वर (14.91 ) के प्रभावसे अन्तर्धान होकर या-खम्बे आदिके आड़में छिपकर ) सुना, 'सो मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा' ऐसा वरदान असत्यकातर ( असत्यसे डरनेवाले, अथवा-असती स्त्रियों में अकातर%3D निर्भय, किन्तु सती स्त्रियों में भययुक्त ) नलने ( दमयन्तीके लिए ) दिया। [ दमयन्तीके लिए ऐसा वरदान देकर मी भविष्यमें उसका त्याग करनेसे पालन नहीं होनेपर भी दैवाधीन कार्यके अवश्यम्भावी होनेके कारण नल असत्यमाषणके दोषी नहीं हुए ऐसा समझना चाहिये] // 143-144 // सङ्गमय्य विरहेऽस्मि जीविका यैव वामथ रताय तत्क्षणम् / हन्त दत्थ इति रुष्टयाऽऽवयोनिद्रयाऽद्य किमु नोपसद्यते ? // 145 / / सङ्गमय्येति / या एव या अहं निद्रा, विरहे परिणयात् पूर्व विच्छेददशायाम , वां युवाम् , सङ्गमय्य मेलयित्वा, स्वप्नसङ्गतिसुखम् अनुभाव्येत्यर्थः। जीविका जीवितवती, युवयोर्जीवनरक्षाकारिणीत्यर्थः / अस्मि भबामि / अथ अनन्तरम् , परिणयात् परमिदानीमित्यर्थः। तस्याः मम निद्राया एवेत्यर्थः, क्षणं समयम् , रात्रिरूपं कालमित्यर्थः / रताय सुरताय, दत्थः अर्पयथः, युवामिति शेषः / तस्मिन् समये युवां मां परित्यज्य सुरतं प्रपद्यथः इत्यर्थः। ददातेर्लटि थस् / हन्त इति खेदे, इति अस्माद्धेतोः, किमु किम् , इत्युत्प्रेक्षा, रुष्टया ऋद्धया, निद्रया स्वापेन, अद्य अस्यां रात्रौ, आवयोः तव मम च, न उपसद्यते ? न सनिकृष्यते ? न समीपे आगम्यते ? इत्यर्थः / सीदतेर्भावे लट् / निद्रां लब्धुं चेष्टायां कृतायामपि तदलाभेन नलस्योक्तिरियम् // 145 // जो मैं ( निद्रा) विरहमें तुम दोनोंको ( स्वप्नावस्थामें ) मिलाकर जिलानेवाली बनी, इसके बाद (इस समय विवाह हो जानेपर स्वत एव मिलनेपर तुम दोनों) उसके ( मेरी-निन्द्राके ) समय अर्थात् रात्रिको सुरतके लिए दे रहे हो, मानो इस कारणसे रुष्ट हुई निद्रा आज पासमें नहीं आती है क्या ? / ( पाठा०-तुम दोनों क्षणमात्र मुझे नहीं दे रहे हो, किन्तु रात्रिरूप सम्पूर्ण समय सुरतके लिए ही दे रहे हो...")। [ नल तथा दमयन्तीने सारी रात्रिको कामकेलिमें ही व्यतीत किया, क्षणमात्र भी नहीं सोये, इसपर नलने दमयन्तीसे कहा कि-हे प्रिये ! विवाहके पहले विरहावस्थामें जब हम दोनों सोते थे तब स्वप्नावस्थामें परस्पर सङ्गति हो जाया करती थी, इस कारण निद्रा ही हम दोनोंके जीवनका उस समय कारण थी / किन्तु अब विवाह होनेपर स्वतः मिले हुए हम दोनों जो रात्रिका समय निद्राके लिए देना उचित था, उसे निद्राके लिए न देकर सुरतके लिए दे रहे हैं अर्थात् रात्रिमें थोड़ा भी नहीं सोकर पूरी रात सुरतक्रीड़ामें व्यतीत कर रहे हैं, इसी कारण प्रथमोपकार करनेवाली वह निद्रा हमलोगोंसे रुष्ट होकर हमलोगोंके पास नहीं आती है क्या ? / लोकमें भी प्रथम उपकार करनेवालेके उपकारको भूलकर यदि उपकृत व्यक्ति
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________________ 1230 नैषधमहाकाव्यम्। उसके योग्य वस्तुको दूसरेके लिए देता है तो वह प्रथम उपकार करनेवाला व्यक्ति उपकृतसे रुष्ट होकर उसके पास तक नहीं जाता। नल तथा दमयन्तीने सम्पूर्ण रात्रिको कामक्रीड़ा करने में व्यतीत किया ] // 145 // ईदृशं निगदति प्रिये दृशौ सम्मदात् कियदियं न्यमीमिलत् / ' प्रातरालपति कोकिले कलं जागरादिव निशः कुमुदती || 146 / / ईदृशमिति / प्रिये नले, सम्मदात् सन्तोषात् , यथेष्टसम्मोगसुखानुभवजनिता. नन्दादित्यर्थः / ईदृशम् ईदृक् वाक्यम् , निगदति कथयति सति, तथा प्रातः तदा निशावसानात् उपसि, कोकिले पिके, कलं मधुरास्फुटं यथा तथा, आलपति कूजति च सति, निशः रात्रेः सम्बन्धिनः, जागरात् जागरणात हेतोः, कुमुदपक्षे-रात्री प्रस्फुटनात् , अन्यत्र-सुरतव्यापारेण निद्रापरिहारादित्यर्थः / कुमुद्वतीव कुमुदलतेव कुमुदमिवेत्यर्थः / इयं भमी, कियत् किञ्चित् , दृशौ नेत्रे, न्यमीमिलत् निमीलि. तवती, 'भ्राजभास-' इत्यादिना विलल्पादुपधाहस्वः, 'दी? लघोः' इत्यभ्यास. दीर्घः // 146 // इस ( दमयन्ती ) ने अत्यधिक हर्षसे प्रिय (नल ) के इस प्रकार (14 / 138-145) कहते रहनेपर तथा प्रातःकाल कोयलके मधुर बोलते रहनेपर रात्रिमें जगने (पक्षाविकसित रहने ) से कुमुदिनीके समान नेत्रोंको कुछ बन्द कर लिया [ अथवा-इस दमयन्तीने प्रिय नलके इस प्रकार कहते रहनेपर और प्रातःकाल कोयलके मधुर बोलते रहनेपर सुरतजन्य अत्यधिक हर्ष अर्थात् श्रमसे........ / अथवा "इस दमयन्तीने प्रिय नलके इस प्रकार कहते रहनेपर प्रातःकाल में कोयलके मधुर बोलते रहनेपर रात्रिमें (विकसित रहने के कारण ) जागरण करनेसे कुमुदतीके समान नेत्रोंको अर्द्धनिमीलित कर लिया अर्थात् रातभर जागनेसे दमयन्ती कुछ-कुछ सोते समय नेत्रोंको बन्द किया तो वह रातभर विकसित रहकर प्रातःकाल बन्द होते समय कुछ सङ्कुचित पंखुड़ियोंवाली कुमुदिनीके समान सुन्दर जान पड़ती थी। इससे नलके स्वरका कोकिलके समान मधुर होना तथा दमयन्तीकै नेत्रों के पलकोंका कुमुदिनीके पंखड़ियों के समान सुन्दर होना सूचित होता है ] // मिश्रितोरु मिलिताधरं मिथः स्वप्नवीक्षितपरस्परक्रियम् / तौ ततोऽनु परिरम्भसम्पुटे पीडनां विदधतौ निदद्रतुः / / 147 / / मिश्रितेति / ततः दमयन्त्याः हनिमीलनात , अनु पश्चात् , तौ भैमीनलौ, मिथः परस्परम् , मिश्रितौ संश्लिष्टौ, ऊरू द्वयोः सक्थिनी यस्मिन् तद्यथा तथा, मिलितौ स्पृष्टी, अधरौ रदनच्छदौ यस्मिन् कर्मणि तत् यथा तथा, स्वप्ने वासनावशात् निद्राकालिकविषयानुभवे, वीक्षिताः दृष्टाः, परस्परक्रियाः अन्योऽन्यं चुम्बनादि. व्यापारा यस्मिन् तत् यथा तथा च, परिरम्भसम्पुटे आलिङ्गनरूपपुटके, पीडनां 1. 'न्यमीलयत्' इति पाठान्तरम् /
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________________ * अष्टादशः सर्गः। 1231 प्रगाढपेषणम् , विदधतौ कुर्वन्तौ सन्तौ, निदद्रतुः सुषुपतुः, निद्रासुखम् अनुबभूव• . तुरित्यर्थः // 147 // ___ इस ( दमयन्तीके अर्द्धनिमीलित नेत्र होने ) के बाद वे दोनों (दमयन्ती तथा नल) परस्परमें एक दूसरेके उरुओंको सटाकर, अधरोंको मिलाकर ( पूर्व वासना के कारण) परस्पर की हुई रतिक्रीड़ाओंको स्वप्नमें देखते हुए तथा आलिङ्गनरूपी सम्पुटमें (एक दूसरेकी) पीड़ित करते हुए ( क्षीरनीरालिङ्गन करके ) सो गये // 147 / / तद्यातायातरंहश्छलकलितरतिश्रान्तिनिःश्वासधाराsजस्रव्यामिश्रभावस्फुट कथितमिथःप्राणभेदव्युदासम् / बालावक्षोजपत्राङ्करकरिमकरीमुद्रितोर्वीन्द्रवक्षश्चिह्नाख्यातेकभावोभयहृदयमगाद् द्वन्द्वमानन्दनिद्राम् / / 148 // तदिति / यातायातानां निःसरणप्रवेशानाम् , रंहसः वेगस्य, छलेन व्याजेन, कलिता ज्ञापिता, रतिश्रान्तिः रमणक्लान्तिः, .याभिः ताहशानां निःश्वासधाराणां निःश्वासपरम्पराणाम् , अजस्रव्यामिश्रभावेन अनवरतमेलनेन, स्फुट व्यक्तम् , कथितः विज्ञपितः, मिथः परस्परम् , प्राणभेदस्य पृथकप्राणवायुतायाः, व्युदासः अभावः यस्थ तत् तादृशम् , माषराश्यादौ माषान्तरादिमिश्रणवत् निःश्वासवाते निःश्वासवातान्तरमिश्रणस्य भेदानुपलम्भात् अभिन्नत्वं युज्यते एव निःश्वासवायोरेव प्राणरूपत्वादिति भावः। तथा बालायाः षोडशवर्षीयायाः प्रियायाः, वक्षोजयोः कुचयोः, ये पत्राकुराः कुङ्कुमादिना रचितन्द्रतुद्रतिलकविशेषाः, तेषु याः करिमकर्यः कस्तुरीप्रभृतिभिः रचिता हस्तिमकरीप्रभृतीनां मूर्तयः, ताभिः मुद्रितस्य चिह्नितस्य, उर्वीन्द्रवक्षसः पृथिवीपतिनलोरःस्थलस्य, चिह्वेन प्रगाढालिङ्गनेनाङ्कितकरिप्रभृतीनामाकृत्या, आख्यातः कथितः, एकभावः ऐक्यं ययोः ते तादृशी, उभये द्वे, हृदये वक्षःस्थले, ययोः तत् तारक एकविधचिहत्वात् सर्वथैव एकमिति भावः / वृत्तिविषये उभशब्दस्थाने उभयशब्दप्रयोगः इत्युक्तं प्राक / तत् नलदमयन्तीरूपम् , द्वन्द्वं मिथुनम् , आनन्दनिद्रां सुखेन स्वापम् , अगात् अगच्छत् // 148 // ___ यातायात ( बाहर निकलने तथा भीतर प्रवेश करने ) के वेगके व्याजसे सुरतजन्य श्रमको बतलानेवाले निःश्वास-समूहके निरन्तर मिश्रण होनेसे (दमयन्तीके निःश्वासका निकलकर नलकी नासिकाके भीतर प्रविष्ट होनेसे एवं नलके निःश्वासका निकलकर दमयन्तीकी नासिकाके भीतर प्रविष्ट होनेसे-एकके निःश्वासका दूसरेके निःश्वासमें मिलनेसे ) स्पष्ट रूपसे कहा गया है परस्परके प्राण-भेदका अभाव (पानीमें पानी तथा तिलमें तिल मिलानेपर जिस प्रकार भेदज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार दोनों के निःश्वासके मिलनेसे और उसी निःश्वासके प्राणवायुरूप होनेके कारण दोनोंके प्राणोंमें भेदाभाव ) जिसका ऐसा, तथा बाला (षोडशो दमयन्तो ) के स्तनदयार (कस्तूरो आदिसे बनाये गये)
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________________ 1232 नैषधमहाकाव्यम् / पत्राङ्करमें चिह्नित हाथी-मकरी आदिसे चिह्नित भूपति ( नल ) के वक्षःस्थलके चिह्नोंसे दोनों ( नल तथा दमयन्ती ) के हृदयद्वयकी एकताको बतलानेवाला वह द्वन्द्व (नल तथा दमयन्ती की जोड़ी ) आनन्दनिद्राको प्राप्त किया अर्थात् वे सो गये / [ परस्पर गाढ़ालिङ्गन कर सोये हुए उन दोनोंका निःश्वास एक दूसरेकी नासिकामें प्रविष्ट होकर दोनोंके प्राणवायुमें अभेद होना सूचित करता था और दमयन्ती के स्तनोंपर कस्तूरी आदिके द्वारा बनाये गये हाथीमकरिका आदिके चिह्न गाढ़ालिङ्गन करते समय नलके वक्षःस्थलपर भी लग गये, अत एव दोनोंका हृदय बाह्य वक्षःस्थल एवं अभ्यन्तर अन्तःकरणमें भी अभेद हो गया। इस प्रकारके वे दोनों सुरतश्रमसे थककर गाढ़ालिङ्गन करके सो गये ] // 148 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातोऽस्मिन् शिवशक्तिसिद्धिभगिनीसौभ्रात्रभव्ये महा. काव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गोऽयमष्टादशः / / 146 / / श्रीहर्षमित्यादि / शिवशक्तिसिद्धिः नाम काचित् स्वकृतिः, सा एव भगिनी उभयोरेव एककर्तृत्वात् स्वसा, तया सह सौभ्रात्रं सुभ्रातृत्वम् / युवादिस्वादण. प्रत्ययः / भ्राता च भगिनी च भ्रातरौ / 'भ्रातृभगिन्यौ भ्रातरौ' इत्यमरः / 'भ्रातृ पुत्रौ स्वसृदुहितृभ्याम्' इत्येकशेषः / तेन सौभ्रात्रेण हेतुना, भव्ये शुभे, उत्कृष्ट इत्यर्थः / एककर्तृकत्वादिस्थं निर्देशः / अष्टौ च दश च .अष्टादश / 'द्वयष्टनः सङ्ख्यायामबहुव्रीयशीत्योः' इत्यात्त्वम् / तेषां पूरणः अष्टादशः। 'तस्य पूरणे डट्' टिलो. पश्च / गतमन्यत् // 149 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु' समाख्यानेऽष्टादशः सर्गः समाप्तः // 18 // कवीश्वर-समूहके......किया, उसके रचित 'शिवशक्तिसिद्धि' नामक ग्रन्थके ( एक ग्रन्थकारकृत होनेसे ) सहोदर त्वसे सुन्दर इस नलके चरित''यह अष्टादश सर्ग समाप्त हुआ। ( शेष व्याख्याको चतुर्थसर्गके समान समझना चाहिये ) // 149 / / यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित'का अष्टादश मर्ग समाप्त हुआ // 18 // .
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________________ ऊनविंशः सर्गः। निषधवसुधामीनाङ्कस्य प्रियाऽङ्कमुपेयुषः / श्रुतिमधुपदस्रग्वैदग्धीविभावितभाविक स्फुटरसभृशाभ्यक्ता वैतालिकैर्जगिरे गिरः॥ 1 // अथ काव्ये प्रयोगवैचित्र्यस्यालङ्कारत्वादस्मिन् सर्गे तद्वैचित्र्यमाश्रित्य प्रभातव. नमारभते-निशीति / निशि निशायाम् / पन्नोमास्-' इत्यादिना निशादेशः। दशमः वयोऽवस्थाविशेषः अस्याः अस्तीति दशमिनी वृद्धा 'वर्षीयान् दशमी ज्यायान्' इत्यमरः / 'वयसि पूरणात्' इति इनिः प्रत्ययः / तस्याः भावः तत्ता दशमिता वृद्धत्वं तां चरमावस्थामित्यर्थः / स्वतलोगुणवचनस्य' इति पुंवद्रावः / आलिङ्गन्यां स्पृशन्त्याम् , प्राप्नुवन्यामित्यर्थः। प्रभातप्रायायां सस्यामिति भावः। प्रियायाः दमयन्त्याः , अङ्कम् उत्सङ्गम् , उपेयुषः प्राप्तस्य, प्रियामालिङ्गय निद्रितस्येत्यर्थः / निषधवसुधामीनाङ्कस्य निषधदेशमन्मथस्य नलस्य, निबोधविधिस्सुभिः जागरणं विधातुमिच्छुभिः / गम्यादिपाठात् द्वितीयासमासः। वैतालिकः बोधकरैः, निद्वा. भञ्जकै वन्दिभिरित्यर्थः / 'वैतालिका बोधकराः' इत्यमरः / श्रुतिमधुपदरजां श्रुती कर्णे, मधूनां मधुराणाम् , पदानां सुप्तिङन्तशब्दानाम् , या स्त्रक माला, पतिरि. स्यर्थः / तासां या वैदग्धी रचनाचातुर्यम् , कौशिक्यादिवृत्तिसम्पत्तिरिति यावत् / तया विभाविताः व्यक्षिताः, भावाः स्थायिप्रभृतयः अस्य सन्तीति भाविकः रसबोधविभावादिचतुर्विधभाववान् / 'अतः इनिठनौ' इति मत्वर्थीयष्ठन्प्रत्ययः / अत एव स्फुटः अभिव्यक्तः, संवेद्यतां प्राप्तः इत्यर्थः / रसः शृङ्गारादिरेव रसः स्नेहद्रवः, तेन भृशम् अत्यर्थम् , अभ्यताः म्रक्षिताः, स्निग्धीकृता इत्यर्थः। रसभरिताः इति यावत्। गिरः वयमाणगीतवाचः, जगिरे गीयन्ते स्म / गायतेः कर्मणि लिट् / अस्मिन् सर्गे हरिणी वृत्तम् ; 'रसयुगहयैन्सौं म्रौ ग्लौ गो यदा हरिणी तदा' इति लक्षणात् // 1 // (इस सर्गमें प्रयोगवैचित्यका आश्रयकर ग्रन्थकार प्रभातवर्णन करते हैं-) रात्रिकी अन्तिमावस्था प्राप्त करने ( समाप्तप्राय होने ) पर प्रिया ( दमयन्ती) के अङ्गको प्राप्त ( कर सोए हुए ) तथा निषध देशके कामदेव ( नल ) को जगानेके इच्छुक वैतालिकलोग कर्णप्रिय पदसमूहके चातुर्यसे व्यञ्जित ( शृङ्गारादि ) रसके प्रकाशित होनेसे अतिशय सिक्त अर्थात् सरस वचन गाने ( कहने ) लगे। [वैतालिकोंने नलको जगाने के लिए पद समूह कहना आरम्भ किया // 1 // जय जय महाराज ! प्राभातिकी सुषमामिमां सफलयतमां दानादक्ष्णोदरालसपक्ष्मणोः।
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________________ 1234 नैषधमहाकाव्यम् / प्रथमशकनं शय्योत्थायं तवास्तु विदर्भजा प्रियजनमुखाम्भोजात् तुङ्गं यदङ्ग ! न मङ्गलम् // 2 // जय जयेति / हे महाराज ! नल! जय जय 'अभीषणं सर्वोत्कर्षेण वर्तस्व / 'नित्यवीप्सयोः' इति द्विर्भावः। दरम् ईषत् , अलसानि तदाऽपि निद्रावेशसत्वात् निश्चेष्टानि, पचमाणि नेत्रलोमानि ययोः तादृशयोः 'अल्पार्थे त्वव्ययं दरम्' इति यादवः / अक्षणोः चक्षुषोः, दानात निक्षेपात् , दृष्टिप्रदानादित्यर्थः / इमां पुरोवत्तिनीम् , प्राभातिकी प्रत्यूषकालिकीम् , सुषमां परमां शोभाम , सफलयतमाम अति. शयेन सफलय. नरपतिकर्तृकदर्शने शोभायाः सफलत्वात् / 'किमेत्तिडव्यय-' इति आमुप्रत्ययः। विदर्भजा वंदी, शय्योत्थायं शय्यायाः सत्वरम् उत्थाय, 'अपादाने परीप्सायाम्' इति णमुल् / परीप्सा स्वरा / एतेन स्त्रियः प्रथमोत्थानं लभ्यते, 'चर. ममपि शयित्वा पूर्वमेव प्रबुद्धा' इत्युत्तमाङ्गनालक्षणात् त्वत्तः पूर्वमेव शयनात् सत्व रमुत्थाय अवस्थिता इत्यर्थः / तव ते, प्रथमशकुनं प्राथमिक मङ्गलजनकं दृश्यम् , अस्तु भवतु, तदा तस्यामेव प्रथमाक्षिपातात् इति भावः / कुत इत्यत आह-यत् यस्मात् , अङ्ग ! भोः! प्रियजनस्य प्रीतिपात्रस्य, मुखाम्भोजात् वदनकमलात् , आननपद्मदर्शनादित्यर्थः / तुङ्गम् अधिकम् , मङ्गलं श्रेयः, न, अस्ति इति शेषः / इत्यर्थान्तरन्यासः // 2 // हे महाराज ( नल ) ! विजयी होवो, विजयी होवो, इस प्रातःकालीन उत्कृष्ट शोभाको कुछ आलसयुक्त पलकोंवाले नेत्रों के देनेसे ( तत्काल निद्राभङ्ग होने के कारण ईषत् आलसी पलकोंवाले नेत्रों के द्वारा देखने से ) कृतार्थ करो / विदर्भकुमारी ( दमयन्ती ) शय्यासे उटकर तुम्हारे लिए प्रथम माङ्गलिक वस्तु हो, क्योंकि हे अङ्ग ( स्वामिन् ) ! प्रियजनके मुखकमलके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु श्रेष्ठ मङ्गल ( करनेवाली ) नहीं है। [ आप उठकर प्रातःकालकी श्रेष्ठ शोभाको देखेंगे तो वह शोभा राजावलोकित होवेसे सफल हो जायेगी। तथा आपके उठने के पूर्व ही दमयन्ती शय्यासे उठेगी, अतः आप उठते ही सर्वप्रथम प्रातःकाल माङ्गलिक वस्तुको देखनेका शास्त्रीय विधान होने से उसके मुखको देखकर उस विधानको पूरा करेंगे, क्योंकि प्रियजनके मुखका देखना सर्वश्रेष्ठ मङ्गल है ] // 2 // वरुणगृहिणीमाशामासादयन्तममुं रुची. निचयसिचयांशांशभ्रंशक्रमेण निरंशुकम् / तुहिनमहसं पश्यन्तीव प्रसादमिषादसौ निजमुखमिव स्मेरं धत्ते हरेमहिषी हरित || 3 // वरुणेति / असौ दृश्यमाना, हरेः इन्द्रस्य, महिषी साम्राज्ञीस्वरूपा, हरित् प्राची दिक् , काचित् राजपत्नी च, वरुणगृहिणीं वारुणीम, आशां दिशम् प्रतीचीमित्यर्थः / काञ्चित् पुरुषान्तरपत्नीच, आसादयन्तम् अस्तोन्मुखत्वात् प्राप्नुवन्तम् , सङ्गच्छ.
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1235 न्तमिति यावत् / सम्भोगार्थ गृह्णन्तमिति च, रुचीनिचयः प्रभासमूहः एव, 'कृदि. कारात-' इति ङीष / सिचयः वसनम् , आच्छादकत्वसाधादिति भावः / 'सिचयो वस्त्रवसनमंशुकम्' इति यादवः / तस्य अंशांशस्य किश्चित् किञ्चिद्भागस्य, वीप्सायां द्विरुक्तिः / भ्रंशक्रमेण उत्तरोत्तरं परित्यागेन, एकत्र-निशावसानात. अन्यत्र-नग्नीभवनाय इति भावः। निर्नास्ति अंशुः किरणो यस्य तादृशं निरंश निष्प्रभ / शैषिकः कप। निः नास्ति अंशुकं वस्त्रं यस्य तादृशं विवसनञ्च, अमुं पुरःस्थम् , तुहिनमहसं शीतकिरणं चन्द्रम् , कमपि पुरुषञ्च, पश्यन्ती अवलोकन यन्ती इव, प्रसादमिषात् प्राभातिकवेशद्यच्छलात् , कौतुकजनितप्रसन्नताब्याजाच, निजमुखं स्वीयपुरोभागम् आननश, स्मेरं सहासम् , धत्ते इव करोतीव / अत्र मिषशब्देन प्रसादरूपापह्नवेन पराङ्गनासङ्गतपुरुषदर्शनजन्मस्मितत्वोत्प्रेक्षणात् सापहवोत्प्रेक्षा // 3 // __ वरुणकी स्त्री अर्थात पश्चिम दिशाको प्राप्त करते हुए तथा प्रकाशसमूहरूपी वस्त्रके एकएक अंशके क्रमशः हटने ( नष्ट होने ) से किरणरहित (पक्षा-वस्त्ररहित) चन्द्रमा ( शीतस्पर्श-नायक ) को देखती हुई यह इन्द्रकी पटरानी (पूर्व दिशा ) प्रसन्नता (स्वच्छता पक्षा०-हर्ष ) के व्याजसे अपने मुखको स्मितयुक्त कर रही है / [ जिस प्रकार कोई नायक पहले किसी नायिकाका साथ करने से उन्नतिको प्राप्त करके बादमें दूसरी नायिकाका साथ करने पर निष्प्रभ होता है तो उसे देखकर प्रथमा नायिका उसके दुष्कृत्यपर ईर्ष्यावश प्रसन्न होती हुई मुस्कुराती है, उसी प्रकार पहले सायङ्कालमें चन्द्रमा पूर्वदिशाका साथ करके उन्नतिको प्राप्त करनेके बाद प्रातःकालमें पश्चिम दिशाका साथ करनेपर प्रभारहित हो रहा है तो प्रथमसङ्गिनी पूर्वदिशा उक्तरूप चन्द्रमाको देखकर प्रसन्नचित्त होकर मानो मुस्कुरा रही है / प्रातःकालमें पश्चिम दिशामें जाकर चन्द्रमाका निष्प्रभ होनेसे तथा पूर्वदिशाको अरुणोदय होनेसे लालिमायुक्त एवं स्वच्छ होनेसे उक्त उत्प्रेक्षा कविने की है ] // 3 // अमहतितरास्ताहक तारा न लोचनगोचरास्तरणिकिरणा द्यामञ्चन्ति क्रमादपरस्पराः। कथयति परिश्रान्ति रात्रीतमः सह युध्वनाम् अयमपि दरिद्राणप्राणस्तमीदयितस्त्विषाम् / / 4 // अमहतीति / अतिशयेन महत्यः महतितराः 'घरूपकल्प-' इत्यादिना ज्यो हस्वः, अनेन हस्वविधानेन परत्वात् 'तसिलादिषु' इति प्राप्तवद्भावप्र. तिषेषः, ततो नसमासः / अमहतितराः सूक्ष्माः, ताराः अरुन्धत्यादयः तार• काः, तारक पूर्ववत् , रात्री इवेत्यर्थः / लोचनस्य, नयनस्य, गोचराः विषयाः, न, भवन्तीति शेषः / उत्तरोत्तरं सूर्यतेजोवर्द्धनादिति भावः। परे परे न भवन्ती. ति अपरस्पराः, सततक्रियाः, सततम् अविच्छेदेन प्रवृत्ता इति यावन् ,
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________________ नैषधमहाकाव्यम्। युगपदेव प्रसरणशीला इति भावः / 'अपरस्पराः क्रियासातत्ये' इति निपातनात् साधुः / तरणेः अर्कस्य, किरणाः मयूखाः, क्रमात् क्रमशः, द्याम् आकाशम् , अञ्चन्ति गच्छन्ति, व्याप्नुवन्तीत्यर्थः / दरिद्राणप्राणः क्षीणबलः / दरिद्रातः कर्तरि ल्युट् / 'बलान्तारुतोः प्राणः' इति यादवः / अयं परिदृश्यमानः, तमीदयितः निशा. पतिरपि, राध्याः निशायाः / 'कृदिकारात्-' इति वा ङीषु / तमांसि अन्धकाराः तैः सह युध्वनां युद्धं कुर्वतीनाम् / 'सहे च' इति क्वनिप् / 'वनो न हशः-' इति वक्तव्यात 'वनो र च' इति ङीप् प्रत्ययो रश्च नास्ति / विषां भासाम , स्वप्रभ्राणाः मित्यर्थः। परिश्रान्ति क्लान्तिम , कथयति ख्यापयति / प्रभातः सञ्जातः, अतः शयनं परित्यजेति भावः / समुच्चयोऽलङ्कारः॥४॥ ___ अतिशय लघु (ध्रुव, अरुन्धती आदि ) अथवा-(पहले अधिक प्रकाशमान किन्तु समय ) अतिक्षीण ( स्वाती आर्द्रा आदि ) ताराएँ रात्रिके समान दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। परस्पर अहमहमिकासे निरन्तर प्रवृत्त सूर्यकिरणें आकाशमें व्याप्त हो रही हैं / क्षीणप्राण अर्थात् कान्तिहीन यह चन्द्रमा मी रात्रिके अन्धकारसे युद्ध करनेवाली अपनी कान्ति (किरणों) की परिश्रान्ति ( अतिशय ग्लानि, पक्षा०-अतिशय थकावट ) को कह रहा है अर्थात् अपनी प्रभाके साथ चन्द्रमा भी क्षीण हो रहा है / [ प्रातःकाल हो गया, अत एव अब आप शय्या त्यागकर उठिये ] // 4 // स्फुरति तिमिरस्तोमः पङ्कप्रपञ्च इवोच्चकैः पुरुसितगरुच्चञ्चच्चचूपुटस्फुटचुम्बितः / अपि मधुकरी कालिम्मन्या विराजति धूमल च्छविरिव रवेलाक्षालक्ष्मी करैरभिपातुकैः / / 5 // स्फुरतीति / तिमिरस्तोमः तमोराशिः, लाक्षालचमीम् अलक्तकशोभाम , अभिपातुकैः अभिक्रामद्भिः, पराजेतुमिच्छभिरित्यर्थः / लाक्षावर्गादपि अधिकारुणवर्णैरिति यावत् / उदीयमानसूर्यकिरणानां तद्वत् परिदृश्यमानत्वादिति भावः / 'लषपत-' इत्यादिना उकड, 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया / रवः सूर्यस्य, करैः किरणः, किरणसम्पातरित्यर्थः / पुरु भूयिष्ठं यथा तथा, सितगरुतां श्वेतपक्षाणां हंसानाम , 'हंसास्तु श्वेतगरुतः इत्यमरः / चञ्चद्भिः चञ्चले, मृणालभक्षणार्थं कर्दमालोडनव्यग्रतयेति भावः। चञ्चपुटैः अरुगवणे ब्रोटियुगलैः, स्फुट स्पष्टम् , चुम्बितः स्पृष्टः, विलोडितः इत्यर्थः / पङ्कप्रपञ्चः कर्दमराशिः इव, उच्चकैः अत्यर्थ, स्फुरति दीप्यते इत्युपमा / तथा कालीम आत्मानं मन्यते इति कालिम्मन्या अतिकृष्णा इत्यर्थः / वर्णे अर्थे 'जानपद-' इत्यादिना डीप , कालशब्दोपपदात् मन्यतेः 'आरममाने खश्च' इति खश प्रत्ययः, 'खित्यनव्ययस्य' इति हम्वः / 'अरुर्द्विषत्-' इत्यादिना मुमागमः / मधुकरी भृङ्गी अपि, लाक्षालक्ष्मीम् अभि
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1237 पातुकैः रवेः करैः धूमलच्छविः कृष्णलोहितकान्तिः इव / 'धूम्रधूमलौ कृष्णलोहितो' इत्यमरः / विराजति शोभते / 'अत्र काल्या भृङ्गया रविकरलौहित्यायुस्कृष्टगुणग्रहणे तद्गुणालङ्कारः, तदुस्थापिता धूमलत्वोत्प्रेति सङ्करः // 5 // ___ अन्धकार-समूह लाक्षाशीमा ( महावरकी लालिमा) का अतिक्रमण करनेवाले अर्थात् महावरसे भी अधिक लाल सूर्य-किरणोंसे अनेक श्वेत पलोंवाले इंसोंके (कीचड़से मृणालदण्डको खोदकर निकालनेके लिए ) चञ्चल चन्चुपुटसे स्पष्टतः छुए जाते हुए पक-समूहके समान शोभित होता है तथा अपनेको अधिक काली माननेवाली भ्रमरी अरुणतम सूर्यकिरणोंसे धूमिल ( लालिमायुक्त कृष्णवर्ण) कान्तिके समान शोभती है। [ अत्यन्त अरुण वर्णवाली सूर्य-किरणें पङ्क-समूहमें प्रविष्ट होती हुई ऐसी मालूम पड़ रही है, कि-श्वेत पङ्खोंवाले तथा लाल चोंचवाले अनेक हंसोंके चोंच मृणालदण्ड (विस ) के लिए अधिक पङ्कको खोदते हो / तथा वैसे अरुणतम सूर्य-किरणों के स्पर्शसे अत्यधिक काली भ्रमरी भी धूमिल वर्णवाली हो रही है ] // 5 // रजनिवमथुप्रालेयाम्भःकणक्रमसम्भृतैः कुशकिशलयस्याच्छरग्रेशयैरुदविन्दुभिः / सुषिरकुशलेनायःसूचीशिखाङ्कुरसङ्करं किमपि गमितान्यन्तमुक्ताफलान्यनुमेनिरे // 6 // ग्जनीति / रजनेः रात्रे, हस्तिनीरूपाया इति भावः / वमथवः करशीकराः, शुण्डाग्रविक्षिप्तजलकणस्वरूपा इत्यर्थः / 'वमथुः करशीकरः' इत्यमरः / ये प्राले. याम्भसः हिमजलस्य, कणाः बिन्दवः, तैः क्रमेण क्रमशः, किञ्चित् किचित् कृस्वेत्यर्थः / सम्भृतैः सश्चितैः, किञ्चित् किश्चत् कृत्वा सञ्चयात् स्थूलीभूतैरिति भावः / कुशकिशलयस्य सूचीवत् सूक्ष्माग्रनवीनदर्भपत्राणामित्यर्थः / जातावेकवचनम् / अग्रे शेरते इति अग्रेशयाः तैः अग्रस्थैः। 'अधिकरणे शेतेः' इत्यच् / अच्छैः निर्मलैः, उद. बिन्दुभिः जलकणैः / कतभिः / सुषिरे मुक्तादिषु छिद्रविधाने, कुशलेन निपुणेन, शिल्पिनेति शेषः / किमपि किञ्चित् , अन्तः मध्ये, अयसः लौहस्य, सूचीनां व्यधनीनाम् , सीवनसाधन सूचमाग्रशलाकाविशेषाणामित्यर्थः शिखाङ्कुरः शिखा अग्रभागः, स एव सूचमत्वादकुरः, तैः सङ्करं सङ्गमम् , गमितानि प्रापितानि, मुक्ताफलानि मौक्तिकानि, अर्द्ध विद्धानि मुक्ताफलानीत्यर्थः / अनुमेनिरे हीनतया बुबुधिरे, हीनीकृतानीत्यर्थः / सूर्यकिरणसम्पर्केण अन्तरौज्वल्यसाधात् मुक्ताफलानि तिरस्कृतानीति भावः / इति सादृश्ये लक्षणा / अत्र दर्भाग्रोदबिन्दूनां वेधसूच्यग्रलग्नमुक्ता 1. 'अत्र काल्या भृङ्गया रविकरैलौहित्याजीविकारात्तद्गतेन तदुस्थापिता......' इति 'जीवातुः' इति म० म० शिवदत्तशर्माणः / 2. -न्यवभेनिरे' इतिपाठान्तारम् /
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________________ 1138 नैषधमहाकाव्यम् / फलैरुपमा, प्रालेयाम्भःकणेषु वमथुस्वरूपणात् रजनेः करिणीत्वरूपसिद्धेरेकदेशविवर्तिरूपकम् इत्यनयोरङ्गाङ्गिभावात् संसृष्टिः // 6 // (करिणी-रूपिणी ) रात्रिके वमथु (शुण्डादण्डके फुत्कार से निकले हुए जलकण-रूपी ओसके जल-कणों ) के क्रमशः ( धीरे-धीरे) सञ्चित और कुशाओंके नये पत्तोंके अग्रभाग ( नोक ) पर स्थित जलबिन्दुओंने ( मोतियोंके ) छेदने में चतुर कारीगरके द्वारा कुछ भीतरमें लोहेकी सूईकी नोकपर रखे हुए मोतियोंको तुच्छ माना ( पाठा०–तिरस्कृत कर दिया ) / [प्रातःकालमें कुशाओंके पत्तों के आगे स्थित ओसकी बूंदें छेद करनेमें कुशल कारीगरके द्वारा कुछ छेदे गये अत एव सूईकी नोकपर स्थित मोतियों से अधिक शोभ रही हैं ] // 6 // रविरुचिऋचामोङ्कारेषु स्फुटामलबिन्दुतां गमयितुममूरुच्चीयन्ते विहायसि तारकाः / स्वरविरचनायासामुच्चैरुदात्ततयाऽऽ'हृताः / शिशिरमहसो विम्बादस्मादसंशयमंशवः // 7 // रवीति / रवेः सूर्यस्य, रुचयः उदयकालीन किरणाः एव, ऋचः पूर्वाह्नत्वात् ऋग्वे. दमन्त्रविशेषाः तासाम , 'ऋग्भिः पूर्वाहे दिवि देव ईयते' इत्यादि तन्मयत्वश्रुतेरिति भावः / ओङ्कारेषु आदौ उच्चार्यमाणप्रणवेषु, स्फुटाः व्यकाः, अमलाः स्वच्छाः, बिन्दवः उपरिस्थितबिन्द्वाकृतिवर्णाः, तेषां भावः तत्ता ताम् , गमयितुं प्रापयितुम् , ओङ्काराणामुपरिदेशे बिन्दून् संस्थापयितुमित्यर्थः। विहायसि आकाशे, अमः परिदृश्यमानाः, तारकाः नक्षत्राणि, उच्चीयन्ते एकमेकं कृत्वा सङ्गृह्यन्ते, प्रभातालोकेन क्षुद्रीभूततया परिदृश्यमानत्वात् वृत्तस्वसाम्याच्चेति भावः / किन्च, आसां ऋचाम्, उदात्ततया हृद्यतया, 'उच्चैरुदात्तः' इत्युक्तलक्षणस्वरविशेषतया च / 'उदात्तः स्वरभेदे स्यात् काव्यालङ्कारहृधयोः' इति विश्वः / उच्चैः अत्यन्तम् , स्वरविरचनाय उदात्ताख्यस्वर सम्पादनार्थम् / अस्मात परिदृश्यमानात, शिशिरमहसः शीतकिरणस्य चन्द्रस्य, बिम्बात् मण्डलात , अंशवः किरणाः, असंशयं निश्चयम् / अभावार्थेऽव्ययीभावः / आहृताः संगृहीताः, केनापीति शेषः / अन्यथा चन्द्रांशवस्तारकाश्च क्व गताः ? इति भावः / असंशयमित्युत्प्रेक्षायाम् // 7 // सूर्य-किरणरूपी ऋचाओं (ऋग्वेद-मन्त्रों ) के ओङ्कारों ( मन्त्रोंके आदिमें अवश्योचार्यमाण 'ॐ' इस आकारवाले प्रणवों ) में स्पष्टतः निर्मल ( स्वरोच्चारणादिदोषरहित ) बिन्दुत्वको प्राप्त कराने के लिये अर्थात् '7 में बिन्दु लगाने के लिए इन ताराओं की कोई एकत्रित (या-उपरिगत ) कर रहा है और इन (ऋचाओं ) के अत्यन्य ऊपर लेनेसे .. 1. 'हृताः' इति 'वृता' इति च पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1239 ( पक्षा-'उच्चैरुदात्तः' इति पाणिनीय सूत्र ( 1 / 2 / 29 ) के अनुसार 'उदात्त' नामक स्वरविशेष बनाने के लिए ) चन्द्रमाके इस बिम्ब (मण्डल ) से इन किरणों को भी किसीने निश्चय ही ग्रहण कर लिया है / [ ताराओंके अतिसूक्ष्म बिन्दुतुल्य होनेसे ॐकारके उपस्थित बिन्दु ( अनुस्वार ) बनाने के लिए ताराओं के तथा चन्द्रकिरणों के सूक्ष्म रेखारूप होनेसे ऋचाओंके ऊपर उदात्त स्वरका चिह्न-विशेष लगाने के लिए चन्द्रकिरणों के संग्रह करनेकी उत्प्रेक्षा की गयी हैं। उक्त कारणसे ही ताराएँ तया चन्द्र-किरणें नहीं दृष्टिगोचर हो रही हैं ] // 7 // व्रजति कुमुदे दृष्ट्वा भोहं दृशोरपिधायके भवति च नले दूरं तारापतौ च हतौजसि / लघु रघुपतेर्जायां मायामयीमिव रावणिः तिमिरचिकुरप्राहं रात्रि हिनस्ति गभस्तिराट् / / 8 // व्रजतीति / दृष्ट्वा विलोक्य, रात्रे शोपक्रमं सीतावधोपक्रमञ्च इति शेषः / कुमुदे कैरवे कपिविशेपे च / 'कुमुदं कैरवे रक्तपङ्कजे कुमुदः कपौ' इति विश्वः / मोहं सङ्कोचं मच्छनच, एकत्र-दिवा मुद्रणस्वभावात् , अन्यत्र-शोकादिति भावः / व्रजति गच्छति सति, तथा भवति त्वयि, नले च नैषधे च, शोः दर्शनयोः, दर्शनसाधन. दृष्टिमण्डलयोरित्यर्थः / 'दृक् स्रियां दर्शने नेत्रे बुद्धौ च त्रिषु वीक्षके' इति मेदिनी। अपिधायके आच्छादके सति, तदाऽपि निद्रावेशापगमात् निमीलिताने सतीत्यर्थः / अन्यत्र-नले कपिविशेषे / 'नलः पोटगले राज्ञि पितृदेवे कपीश्वरे' इति विश्वः / दृशोः अपिधायके सीतावधोद्यम द्रष्टु सोढुच, अशक्यत्वात् हस्ताभ्यां चक्षुषोराच्छादके, भवति सति, तथा तारापती चन्द्रे सुग्रीवे च / 'ऋक्षाक्षिमध्ययोस्तारा सुग्रीवगुरुयो. षितोः' इति विश्वः / दूरम् अत्यन्तम् , हतौजसि निस्तेजस्के च सति, सूर्यतेजसा अभिभूतत्वात् सीतावधोद्यमस्य प्रतीकाराशक्यत्वाच्चेति भावः। रावणस्य अपत्यं रावणिः इन्द्रजित् , मायामयीं मायाकल्पितां रघुपतेः रामचन्द्रस्य, जायां भायाँ सीतामिव, कल्पान्तरीयमायासीताबधविवरणावलम्बन अत्र उपमासङ्गतिर्बोद्धव्या। गभस्तिराट् सूर्यः, रात्रिं रजनीम, लघु क्षिप्रम् , तिमिराणि अन्धकारा एव, चिकुराः केशाः, सीतापक्षे-तिमिराणीव चिकुराः, तेषु गृहीत्वा तिमिरचिकुरग्राहम् / सप्तम्युपपदे 'समासत्तौ' इति णमुल्-भावः / हिनस्ति / विनाशयति // 8 // (मेघनादके द्वारा मायामयी सीताके वधका उपक्रम, पक्षा०-रात्रिकी समाप्तिका उपक्रम) देखकर कुमुद ( रात्रिमें विकसित होनेवाला कमल, पक्षा०- 'कुमुद'नामक वानर ) मोह (सङ्कोच, पक्षा०- मूर्छा) को प्राप्त होते रहनेपर; आपके नेत्रोन्मीलन करते रहनेपर ( पक्षा०-'नल' नामक वानरके (सीतावधोपक्रमरूप दारुण कर्मके असह्य होनेसे) (निस्तेज, पक्षा०-पराक्रमशून्य ) होते रहनेपर जिस प्रकार रावणपुत्र (मेघनाद ) ने
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________________ 1240 नैषधमहाकाव्यम् / मायामयी सीताको अन्धकारतुल्य कृष्णवर्ण केशोंको पकड़कर मारा था, उसी प्रकार प्रमापति (सूर्य) रात्रिको अन्धकाररूपी केशोंको पकड़कर मार ( नष्ट कर ) रहा है। [ कल्पभेदसे या-कविसमयापेक्षासे पहले सत्ययुगोत्पन्न नलकी अपेक्षा बादमें त्रेतायुगोत्पन्न सीताका वर्णन करना असङ्गत नहीं है / हे राजन् ! रात्रि वीत गयी, कुमुद सङ्कुचित होने लगे, कमल निकलने लगे, चन्द्रमा प्रकाशहीन होने लगा; अत एब प्रभातकाल जानकर निद्रात्याग कीजिये] // 8 // त्रिदशमिथुनक्रीडातल्पे विहायसि गाहते निधुवनधुतस्रग्भागश्रीभरं ग्रहसङ्ग्रहः / मृदुतरकराकारैस्तूलोत्करैरुदरम्भरिः परिहरति नाखण्डो गण्डोपधानविधां विधुः / / 6 / / त्रिदशेति / ग्रहसंग्रहः तारकात्मकशुकादिग्रहगणः, ग्रहशब्दस्य उपलक्षणत्वात् , रजन्याः पश्चिमयामे शुक्रताराया उदयदर्शनाच्चेति भावः। त्रिदशमिथुनानां देव. द्वन्द्वानाम् , क्रीडातल्पे विहारशय्यास्वरूपे, विहायसि आकाशे, निधुवनेन सुरतेन, सुरतकालिकप्रबलसञ्चालनेनेत्यर्थः / धुतस्रग्भागानां धुतानाम् इतस्ततो विक्षिप्ता. नाम् , स्नग्भागानां पुष्पमालांशानाम् , मालातो विक्षिप्तानामेकैकपुष्पाणामिस्तर्थः / निर्माल्यानामिति यावत् , श्रीभरमिव श्रीभरं शोभाऽतिरेकम् गाहते आश्रयति / किञ्च अखण्डः परिपूर्णमण्डलः, विधुः चन्द्रः, मृदुतरकराः अतिशयेन कोमलाः किरणा एव, आकाराः रूपाणि येषां तादृशः, तूलोस्करैः तूलपटलैः, उदरम् अभ्यन्त. रम बिभर्ति पूरयतीति उदरम्भरिः पूरितमध्यः, व्याप्तोदरः सन् इत्यर्थः / 'फलेग्रहित रात्मम्भरिश्च' इति चकारात् सिद्धः / गण्डोपधानस्य कपोलोपबहस्य, गोलाकारकपोलनिधानास्येत्यर्थः / 'उपधानन्तूपबहः' इत्यमरः। विधां प्रकारम् , तुल्यतामि. त्यर्थः / न परिहरति न त्यजति, गण्डोपधानत्वं भजते इत्यर्थः / उपागमेन क्षीणप्रभ. स्वादिति भावः / अत्र श्रियमिव श्रियं विधामिव विधामिति सादृश्याक्षेपात् उभयत्र निदर्शनोत्थानात् सजातीयसंसृष्टिः // 9 // (शुक्र आदि ) ग्रह-समूह देव-मिथुनकी क्रीडा-शय्यारूप आकाशमें ( देव-मिथुनके ) सुरतसे मर्दित मालाके पुष्पोंकी शोमाके समान शोभाको ग्रहण कर रहा है तथा पूर्णचन्द्रमा कोमलतर किरणों के समान रूईकी राशिसे मध्यमागको पूर्ण करता हुआ (गोलाकार ) गलतकिये ( कपोलके नीचे रखी जानेवाली गोलाकार छोटी तकिया) के शोभाको नहीं छोड़ रहा है अर्थात् गलतकियेके समान शोम रहा है। [जिस प्रकार शय्यापर मैथुन करनेसे मालाके टूटने से उसके फूल बिखरकर फैल जाते हैं, उसी प्रकार देवमिथुनके शय्यारूप आकाशमें यह शुक्रादि तारागण देवमिथुनके सुरतमें टूटी मालाके बिखरे हुए फूलों के समान शोभता है तथा उस शय्यापर जिस प्रकार श्वेत रूईसे भरी हुई गोलाकर मर्दित
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1241 होनेसे कुछ कान्तिहीन एवं चिपटी गलतकिया रहती है, उसी प्रकार अखण्ड होनेसे गोलाकार, प्रभात होनेसे दूरतक नहीं फैलनेवाली अत एव केवल चन्द्रके मध्यभागमें स्थित किरणरूपी रूईसे पूर्णमध्यभागवाला चन्द्रमा उक्तरूप आकाशमें गलतकियेके समान शोम रहा है / सुरतकालमें मर्दित मालाके फूल तथा गलतकियेने समान यह ग्रहसमूह तथा चन्द्रमा प्रातःकाल होनेसे क्षीणप्रभ हो रहे हैं, अतः अब प्रातःकाल हो गया जानकर आप निद्रा त्यागकर उठिये] // 9 // दशशतचतुर्वेदीशाखाविवर्त्तनमूर्तयः सविधमधुनाऽलङ्कुर्वन्ति ध्रुवं रविरश्मयः / वदनकुहरेष्वध्येतॄणामयं तदुदञ्चति श्रुतिपदमयस्तेषामेवप्रतिध्वनिरध्वनि // 10 // दशेति / दश शतानि यासु ताः सहस्रसङ्घयाः इत्यर्थः। ताश्च ताः चतुर्वेदीशा. खाश्च इति / विशेषणसमासः, अन्यथोभयद्विगुप्राप्ती 'बहु स्यादिति / वेदचतुष्टयस्य सहस्रसङ्घयकाः शाखा इत्यर्थः / तासां विवर्तनानि अतत्त्वतोऽन्यथाभावाः, परिव. र्तनानीत्यर्थः / परिणतयः इति यावत् / मूर्तयः रूपाणि येषां ते तादृशाः तद्विवर्त्तनरूपाः सहस्रसङ्ख्यकोपनिषत्स्वरूपा इत्यर्थः / रवेः सूर्यस्य, रश्मयः सहस्रसङ्ख्यकाः किरणाः, अधुना सम्प्रति, अहर्मुखे इत्यर्थः / ध्रुवम् अजस्रम्, अविरतमित्यर्थः / 'ध्रुवं खेजस्तयोः' इति हैमः / सविधम् अस्मदादिसामीप्यम् , अलङ्कुर्वन्ति भूषयन्ति, समीपमागच्छन्ति इत्यर्थः / तत् तस्मात् , रविरश्मीनां समीपागमनादित्यर्थः / तेषां रश्मीनामेव, अयं श्रयमाणः, श्रुतिपदमयः वेदाक्षरात्मकः, प्रतिध्वनिः प्रतिशब्दः, रविरश्मीनवलम्ब्य अत्रागतः सूर्यलोकीयवेदध्वनेः प्रतिशब्दः इत्यर्थः। अध्येतणाम् अत्रत्यवेदपाठकानां जनानाम् , वदनकुहरेषु मुखदरीषु, तथा 'अध्वनि शब्दगुणमये आकाशमार्गे न, उदधति उदच्छति / 'ऋग्भिः पूर्वाद दिवि देव ईयते' इत्यादि. श्रुत्वा रविरश्मयः श्रुतिपदमया एव, सूर्यलोकवासिभिरपि इदानी वेदा अधीयन्ते, 'द्वितीये च तथा भागे वेदाभ्यासो विधीयते' इति दक्षवचनात् इदानीं मानां वेदाध्येतृणां मुखविवरेषु योऽयं ध्वनिरुद्गच्छति स पुनः सूर्यलोकवासिनां वेदाध्ययः नस्य रविरश्मीनवलम्ब्य आगतः प्रतिध्वनिरिव प्रतिभातीति भावः // 10 // ___ सहस्रसङ्ख्यक चतुर्वेद-शाखाओंके अतात्त्विक विवर्तनरूप आकृतिवाली सूर्य-किरणें इस समय जिस कारण हमलोगों के पास जा रही हैं, उस कारण ( वेदको) पढ़नेवालोंके मुखरूपी कन्दरामें श्रुतियों ( वेदों ) के पदरूप प्रतिध्वनि आकाशमार्गमें फैल. रही है / [चारों वेदोंकी आश्वलायन, तैत्तिरीय आदि एक सहस्र शाखाओंका अतात्त्विक विवर्तनरूप ही ये सूर्य-किरणें हैं, अत एव जिस प्रकार कोई दूरागत शब्द पर्वतगुहा आदिमें प्रतिध्वनित होकर आकाश-मार्गमें फैल जाता है, उसी प्रकार वेद पढ़नेवालोंके मुखरूपी गुहामें
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________________ 1242 नैषधमहाकाव्यम्। अतात्त्विक विवर्तित वेदशाखाओंके सुप्तिकादिरूप पद-समूह ही सूर्य किरणरूप होकर प्रतिध्वनित हो रहे हैं / सूर्योदय हो गया, वेदपाठी वेदाध्यन करने लगे, अत एव निद्रा त्यागकर जागिये] // 10 // नयति भगवानम्भोजस्यानिबन्धनबान्धवः किमपि मघवत्प्रासादस्य प्रघाणमुपन्नताम् / अपसरदरिध्वान्तप्रत्यग्वियत्पथमण्डली. लगनफलदश्रान्तस्वणोचलभ्रमविभ्रमः / / 11 / / नयतीति / अम्भोजस्य पद्मस्य, अनिबन्धनबान्धवः निर्व्याजबन्धुः, भगवान् माहात्म्यवान् , सूर्यः इति शेषः / अपसरन्ति अपंगच्छन्ति, पलायमानानीत्यथः। अरीणि विरोधीनि, ध्वान्तानि अन्धकाराः यस्यां तादृश्याम , प्रत्यग्वियरपथमण्डल्यां पश्चिमाकाशमार्गदेशे, लगनात् किरणसम्पर्कण संयोगात् , तथाविधभावेन ध्वान्त. ध्वंसनादित्यर्थः / फलन सफलीभवन् , अश्रान्तस्वर्णाचलभ्रमः निरन्तरमेरुप्रदक्षि. णीकरणमेव, विभ्रमः विलासः यस्य सः तादृशः सन् , किमपि कस्यापि हेतोः, मध. वत्प्रासादस्य इन्द्रसोधस्य' वैजयन्तस्य, प्रघाणम् अलिन्दम् / 'प्रघाणप्रघणालिन्दा बहिरिद्रकोष्ठके' इत्यमरः / 'मगारैकदेशे प्रधणः प्रघाणश्च' इति निपातः। उपध्न. ताम् अन्तिकाश्रयताम्, 'स्यादुपध्नोऽन्तिकाश्रये' इत्यमरः / नयति प्रापयति, प्रघाणसमीपमाश्रितवानित्यर्थः / यथा स्वर्णादिपूर्णकोषागारपरिरक्षणाय नियुक्तः कश्चित् रक्षिसैन्यः तदागारं परितः पुनः पुनः परिक्रमणं कुर्वन् तत्रैव गुप्तभावेनावस्थितं शत्रुपक्षीयं कमप्यनुसरन् तत्कोषागारप्राचीरावलम्बनेनावस्थाय तं दूरीकृत्य सफल. प्रदक्षिणः सन् श्रान्तिपरिहाराय अलिन्दं प्रविशति तद्वदिति भावः / सूर्यः शत्रुमिव अन्धकारं निरस्य क्षणादुदयाद्रिमाश्रितः इति निष्कर्षः // 11 // कमलके निष्कारण बन्धु.तथा भागते (नष्ट होते) हुए शत्रुरूप अन्धकारके पश्चिम दिशा-सम्बन्धी आकाशमार्गमे संसर्ग ( पाठा०-अस्तगत-नष्ट ) होनेसे निरन्तर सुरु पर्वतके चारों ओर घूमनेवाले भगवान् (सूर्य) इन्द्रप्रासादके अलिन्द ( पटडेहर ) का आश्रयकर रहे हैं अर्थात् पूर्वदिशामें उदय ले रहे हैं। [ जिस प्रकार स्वर्णादि धनराशिका रक्षक पहरेदार सर्वदा उसके चारों ओर चक्कर लगाता रहता है तथा उस धनराशिके एक भागमें छिपे हुए चोरका अनुसहण करता हुआ उसे मारकर श्रान्तिसे प्रवेशद्वारमागका आश्रय करता है, उसी प्रकार सुमेरुपर्वतरूप स्वर्णराशिका रक्षक अत एव उसकी चारो ओर घूमनेवाला सूर्य उस सुमेरुके पश्चिम भागमें पहुंचे हुए चोररूपी अन्धकारको भगाकर देवराज होनेसे देवों के आवासभूत सुमेरुपर्वतके मी स्वामी पूर्व दिक्पति इन्द्रके 'वैजयन्त' 1. '-लयन' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1243 ऊनविंशः सर्गः। नामक प्रासादके प्रवेश-द्वारका आश्रय कर रहा है अर्थात् सूर्य-किरणें पूर्व दिशामें ऊपरकी ओर फैलने लगी हैं और सूर्य उदयाचलपर आगया है ] // 11 // नभसि महसां ध्वान्तध्वाङ्क्षप्रमापणपत्रिणा. मिह विहरणैः श्यैनम्पातां रवेरवधारयन् / शशविशसनत्रासादाशामगाचरमां शशी तदधिगमनात्तारापारावतैरुदडीयत / / 12 // नभसीति / शशी चन्द्रः, ध्वान्तानाम् अन्धकाराणामेव, ध्वाक्षाणां कृष्णवर्णसाम्यात् वायसानाम् / 'ध्वाक्षात्मघोषपरभृद्भलिभुग्वायसा अपि' इत्यमरः। प्रमापणे मारणे, पत्रिणां श्येनानाम् , श्येनस्वरूपाणामित्यर्थः / अथ शशादनः पत्री श्येनः' इत्यमरः। पत्रिणां शराणामिति वा, बाणस्वरूपाणामित्यर्थः। 'कलम्बमार्गणशराः पत्री रोप इषुईयोः' इत्यमरः / महसां तेजसाम् , सूर्यकिरणानामित्यर्थः / इह नभसि आकाशे, विहरणः परिक्रमणः, रवेः सूर्यस्य, श्येनपातः अस्यां क्रियायां वर्त्तते इति श्यैनम्पाता मृगया ताम् / 'घञः साऽस्यां क्रियेति ञः' इति अप्रत्ययः / 'श्येनतिलस्य पाते मे' इति मुमागमः / 'श्यनम्पाता च मृगया' इत्यमरः। अवधा. स्यन् निश्चिन्वन् , इवेति शेषः / शशः स्वाङ्कस्थितमृगविशेषः, तस्य विशसनत्रासात् हिंसाभयात् , मारणभयादित्यर्थः / चरमां पश्चिमाम , आशां दिशम् , अगात् अगमत्, पलायितवानित्यर्थः। तस्य श्यैनम्पातावृत्तान्तस्य, रवेः मृगयाव्यापारस्येत्यर्थः / अधिगमनात् ज्ञानात् , ताराभिः नक्षत्रैरेव, पारावतैः कपोताख्यपक्षिविशेषः। 'पारावतः कलरवः कपोतः' इत्यमरः / उदडीयत उड्डीनम् , उड्डीय पलायितामित्यर्थः / भावे लङ् / रविकिरणा गगने प्रसरन्ति, शशाङ्कः पश्चिमां दिशं यातः, तारकाश्च अलक्ष्यतां गता इति निष्कर्षः। रूपकालङ्कारः॥ 12 // ____ आकाशमें अन्धकार तुल्य ( पक्षा०-अन्धकाररूप ) कौवोंको मारने (पक्षा०-नष्ट करने ) वाले ( 'इयेन'-बाज नामके ) पक्षियों ( पक्षा०-बाणों ) के समान अर्थात् पक्षि. रूप सूर्य-किरणों के भ्रमण करनेसे इस पूर्वदिशा (या आकाश ) में सूर्यके आखेटका निश्चय करता हुआ चन्द्रमा मानो ( अपने अङ्कस्थ ) शशकके भी मारे जानेके भयसे पश्चिम (अन्तिम अर्थात् बहुत दूर ) दिशाको चला गया तथा उस (चन्द्रमाके भागने, या-सूर्यके आखेट करने के समाचार ) के मालूम होने से तारारूपी ( पक्षा०-ताराके समान ) कबूतर भी उड़ गये ( पक्षा०-ऊपर चले गये अर्थात् अस्त हो गये)। [ जिस प्रकार कोई शिकारी आकाश में उड़ते हुए कौवों को बाणोंसे मारकर शिकार करता है तो शशकवाला व्यक्ति भी अपने शशकके शिकारमें मारे जानेके भयसे वहाँसे बहुत दूर चला जाता है और कबूतर भी बहुत ऊंचा उड़कर आकाशमें छिप जाते हैं, उसी प्रकार सूर्य भी आकाशमें फैलती हुई अपनी किरणोंसे ऊपर फैले हुए अन्धकारको नष्ट करने लगा तो 'यह सूर्य अपने किरणोंसे कृष्णवर्ण अन्धकार को नष्टकर उनका शिकार कर रहा है, अतः वह कदाचित् मेरे अङ्कमें स्थित 78 नै० उ०
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________________ 1244 नैषधमहाकाव्यम् / कृष्णवर्ण शशकको भी न नष्ट कर दे' इस भयसे चन्द्रमा पश्चिम दिशाको चला गया और तारायें भी उस वृत्तान्तके मालूम होनेपर ऊपरकी ओर चली गयी अर्थात् अस्त हो गयीं। आकाशमें सूर्यकिरण फैल रही है, कौवे तथा कबूतर उड़ रहे हैं, चन्द्रमा पश्चिम दिशामें अस्त हो रहा है तथा ताराएं मा अस्तङ्गत होनेसे अलक्ष्य हो गयी हैं ] // 12 // भृशमबिभरुस्तारा हाराच्युता इव मौक्तिकाः सुरसुरतक्रीडालनाद् धुसद्वियदङ्गणम् / बहुकरकृतात् प्रातः सम्माजनादधुना पुन निरुपधिनिजावस्थालक्ष्मीविलक्षणमीक्ष्यते // 13 // भृशमिति / ताराः तारकाः, सुराणां देवमिथुनानाम् , सुरतजया रमणोद्भूतया, क्रीडया परिमर्दरूपविहारेण, लूनात् छिन्नात, हारात मुक्तावलीतः, च्युताः विक्षिप्ताः, मुक्ताः इव मौक्तिकाः, ता इव मुक्ताफलानीव इत्युत्प्रेक्षा / स्वार्थ कप्रत्ययः, 'प्रत्यय. स्थात् कात् पूर्वस्य-' इतीकारः। धुसद्वियदङ्गणं घुसदां देवानां नभोरूपं प्राङ्गणम् , भृशम् अत्यर्थम् , अबिभरुः अपूरयन् , रात्रौ परिपूरितवत्य इत्यर्थः / “हुभृज धारण. पोषणयोः' इत्यस्य लङि रूपम् , 'लङः शाकटायनस्यैव' इति शेर्जुसादेशः / अधुना इदानीम् , प्रातः पुनः प्रभाते तु, बहुकरेण बहवः सहस्रसङ्ख्यकाः इत्यर्थः / कराः किरणा यस्य स बहुकरः सूर्यः, स एव बहुकरः खलपूसंज्ञकः सम्मानकारी जाति. विशेषः तेन, 'खलपूः स्यात् बहुकरः' इत्यमरः / कृतात् सम्पादितात् , सम्मार्जनात् शोधनात् , शोधन्या तारापसारणेन धूल्याद्यपसारणेन च परिष्करणादित्यर्थः / निरुपधेः निर्व्याजायाः, अकृत्रिमाया इत्यर्थः। 'कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे' इत्यमरः / निजावस्थायाः आत्मस्वरूपस्य, लक्ष्म्याः नीलनिर्मलशोभायाः, विलक्षणं रात्रिकालिकावस्थातोऽन्यादृशं रूपम् , ईच्यते एतत् वियदङ्गणं दृश्यते, खलपूपरिशुद्धिवत् बहुकरशुद्धमन्तरीक्षमपि पूर्वविलक्षणं लक्ष्यते इत्यर्थः, जनैरिति शेषः।। देवमिथुनों ( पक्षा-देव तुल्य ऐश्वर्यवान् राजा आदि ) के सुरतजन्य क्रीडासे टूटे हुए हारसे गिरे हुए मोतियों के समान ताराओंने देवताओंके आकाश-प्राङ्गणको परिपूर्णकर दिया अर्थात् आकाशरूपी आँगनमें बिखर पड़ों-फैल गयीं। फिर इस समय बहुत किरणवाले ( सूर्य, पक्षा०-झाडू देनेवाले लोगों) के द्वारा प्रातःकाल मार्जन (झाडू लगाकर साफ) करनेसे वह ( आकाश-प्राङ्गण ) स्वाभाविक अवस्थावाली शोभासे विलक्षण (अपूर्व) दृष्टिगोचर हो रहा है / [ जिस प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा आदिके सुरतक्रीडाओंमें टूटे हुए हारसे गिरे मोती आँगनमें फैल जाते है तो झाडू देनेवाला नौकर आदिके प्रातःकालमें झाडू देनेसे कूड़ा-कचरा साफ हो जानेसे वह आँगन अपूर्व-सा दीखने लगता है; उसी प्रकार देवमिथुनकी सुरत क्रीडाओंसे टूटे हुए हारसे गिरकर मोतीतुल्य तारागण / 1. 'लुनादियद्वि-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1245 ऊनविंशः सर्गः। देवोंके आँगनरूपी आकाशमें रातको फैल गये थे, अब सूर्यरूपी झाडू लगानेवालेमें प्रातःकाल मानो झाडू लगाकर उन ताराओंकी आकाशरूपी आँगनसे बहारकर फेंक दिया है, (दूर कर ) दिया है, अत एव वह आकाशरूपी आँगन स्वाभाविक शोभाको धारण करनेसे अभूतपूर्व शोभाको धारणकर रहा है ] // 13 // प्रथममुपहृत्याय तारैरखण्डिततण्डुलैस्तिमिरपरिषदूर्वापर्वावलीशबलीकृतैः / अथ रविरुचां ग्रासातिथ्य नभः स्वविहारिभिः / सृजति शशिरक्षोदश्रेणीमयैरुदसक्तुभिः / / 14 / / प्रथममिति / नभः आकाशम् / कर्तृ। तिमिरपरिषत् तमोवृन्दम् , सा एवं दूर्वा. पर्वणां दूर्वाग्रन्थीनाम् , दूर्वादलानामित्यर्थः / आवली श्रेणी, श्यामवर्णत्वादिति भावः / तया शबलीकृतैः चित्रीकृतः, मिश्रितरित्यर्थः / तारैः नक्षत्रैरेव / 'नक्षत्रे नेत्रमध्ये च तारा स्यात् तार इत्यपि' इति व्याडिः / अखण्डिततण्डुलैः निस्तुषाभग्नशालिबीजैः, प्रथमम् आदौ, रविरुषां सूर्यकिरणानाम् , अर्घः पूजाविधिः, तस्मै इदम् अध्यं पूजोपकरणमित्यर्थः / 'मल्ये पूजाविधावर्घः' इति 'अय॑मर्धार्थ' इति चामरः / उपहृत्य दत्त्वा, अथ अनन्तरम् , स्वविहारिभिः स्वस्मिन् नास सञ्चरणशीलैः, शिशिरक्षोदश्रेणीमयः हिमशीकरपुञ्जरूपैः, उदसक्तभिः जलालोडितभृष्टयवचूर्णः / 'मन्थौदन-' इत्यादिना -उदकशब्दस्योदादेशः / ग्रासातिथ्यं ग्रासरूपम् अतिथिस. स्कारम् , अतिथये इदम् इति 'अतिथेयः' इति न्यः। सृजति सम्पादयति, इवेति शेषः। समागताय अतिथये अध्यदानानन्तरमन्नदानं हि गृहिणां रीतिः। रूपकालङ्कारः आकाश अन्धकार-समूहरूपी दूर्वाकाण्ड-समूहोंसे श्यामवर्ण युक्त अर्थात् मिश्रित किये गये तारारूपी अक्षतोंसे पहले सूर्यकिरणोंके लिए अर्घ्य देकर बादमें हिम-कण समूहरूपी जल मिश्रित सत्तूओंसे भोजनदानरूप आतिथ्य कर रहा है। जिस प्रकार कोई सद्गृहस्थ अपने गृहपर आये हुए अतिथिके लिये पहले अक्षत तथा दूर्वायुक्त जलसे अर्घ्य देने के बाद उसके लिए अपने घरमें सरलतासे प्राप्य जल मिलित सत्तू आदिसे भी उसे भोजन देकर अतिथि-सत्कार क्रियाको पूर्ण करता है, उसी प्रकार यह आकाश भी श्यामवर्ण होनेसे दूर्वातुल्य अन्धकारसे तथा श्वेतवर्ण होनेसे अखण्डित तण्डुल-कण ( अक्षत ) तुल्य ताराओंसे पहले सूर्य-किरणोंके लिए अर्घ्य देकर बादमें श्वेत हिमकणरूप जलयुक्त सत्तूसे उनका भोजनदानरूप अतिथि सत्कार कर रहा है ] // 14 // असुरहितमप्यादित्योत्थां विपत्तिमुपागतं दितिसुतगुरुः प्राणैर्योक्तुं न किं कचवत् तमः | पठति लुठती कण्ठे विद्यामयं मृतजीवनी ? यदि न वहते सन्ध्यामौनव्रतव्ययभीरुताम् // 15 //
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________________ 1246 नैषधमहाकाव्यम् / असुरेति / दितिसुतानां दैत्यानाम् , गुरुः उपदेष्टा शुक्राचार्यः, असुरेभ्यः दैत्येभ्यः, हितमपि हितकरमपि, निशायामेव असुराणां बलवृद्धेरिति भावः / 'चतुर्थी तदर्थार्थ-' इत्यादिना समासः / अन्यत्र-असुभिः प्राणैः, रहितं विहीनम् , अचे. तनमपीत्यर्थः / आदित्योत्था सूर्योद्भूताम् ; कचप-देवोद्भताम् , देवानामनु. रोधेनैव कचस्य तत्रागमनात् तद्विपत्तेः तदुत्थत्वव्यपदेशः। विपत्तिं विनाशम् , उपागतं प्राप्तम् , तमः अन्धकारम् , कचवत् बृहस्पतिसुतं कचमिव, बृहस्पतिपुत्रः कचः देवताप्रेरितः सञ्जीवनी विद्यार्थ शुक्रमुपागतः, स दैत्यहतः पुनः शुक्रणोज्जीवितः इति भारती कथा। प्राणैः असुभिः, योक्तुं सङ्घटयितुम् , कण्ठे गलमध्ये, लुठती परावर्त मानाम् , सदा तिष्ठन्तीमित्यर्थः / 'आच्छीनद्योर्नुम्' इति विकल्पान्नुमभावः / मृत. जीवनी मृतसञ्जीवनीम् , विद्यां ज्ञानम् , मन्त्रमिति यावत् , न पठति किम् ? न अधीते किम् ? अपि तु पठेदेव यदि, अयं शुक्रः, सन्ध्यामौनव्रतव्ययात् सन्ध्यायां प्रातः सभ्यायाम् , यत् मौनव्रतं वाक्संयमनियमः, तस्य व्ययात् भङ्गात् , भीरुतां भयशीलताम् , न वहते न धत्ते, अन्यथा कथमोहक विद्यावानपि पुरोवर्तिनं स्वशि. प्यासुररहितकरान्धकारविनाशमुपेक्षते इति भावः // 15 // * दैत्यगुरु (शुक्राचार्य ) देवों ( पक्षा-सूर्य ) से उत्पन्न विपत्ति ( मरण, पक्षा०विनाश ) को प्राप्त (रात्रिचर होनेसे ) असुरों के हितकर ( पक्षा०-प्राण-रहित ) भी अन्धकारको 'कच' ( नामक बृहस्पति-पुत्र ) के समान प्राणोंसे युक्त करने अर्थात् जीवित करने के लिए कण्ठमें लोटती हुई अर्थात् कण्ठस्थ ( अतिशय अभ्यस्त ) मृतसञ्जीवनी विद्याको क्या नहीं पढ़ते ? अर्थात् अवश्य ही पढ़ते, यदि प्रातः सम्ध्यामें गृहीत मौनव्रतके मङ्ग हो- से नहीं डरते / [ जिस प्रकार देवों के कारण प्राप्त मृत्युवाले 'कच' को दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़कर जीवित कर दिया, उसी प्रकार सूर्यसे उत्पन्न नाशको प्राप्त किये हुए असुरहितकारी अन्धकारको वह शुक्राचार्य मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़कर अवश्य जीवित कर देते, किन्तु वे प्रातःसन्ध्याका मौनव्रत लेने के कारण उसके मङ्ग होनेपर दोष लगनेके भयसे वैसा नहीं करते हैं, अन्यथा वें सूर्यसे नष्ट हुए असुरों ( स्वशिष्यों ) के हितकारी अन्धकारको मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़कर नामको अवश्यमेव जीवित कर देते ] // 15 // पौराणिक कथा-देवासुर संग्राममें मरते हुए देवपक्षको देखकर दैत्यगुरु शुक्राचार्यके पास उनसे मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़ने के लिए बृहस्पतिपुत्र 'कच' को देवोंने भेजा तो उसके अभिप्रायको जानकर दैत्योंने उसे मार डाला, किन्तु दैत्यगुरु शुक्राचार्यने मृतसञ्जीवनी विद्यासे उस कचको पुनः जीवित कर दिया। यह महाभारतकी कथा है। उदयशिखरिप्रस्थान्यह्ना रणेऽत्र निशः क्षणे दधति विहरत्पूषाण्युष्मद्रुताश्मजतुस्रवान् | उदयदरुणप्रतीभावादरादरुणानुजे मिलति किमु तत्सङ्गाच्छङ्कथा नवेष्टकवेष्टना ? // 16 / /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1247 उदयेति / अत्र अस्मिन् , क्षणे समये, अहर्मुखे इत्यर्थः / निशः निशायाः, अह्ना दिवसेन सह, रणे युद्धे, स्वाधिकारस्थापनाय युद्धे प्रारब्धे सतीत्यर्थः / विहरत्पूषाणि विहरन् सञ्चरन् , युद्धदर्शनकौतूहलेनेति भावः / पूषा सूर्यः यत्र ताहशानि सञ्चरसूर्याणि, उदयशिखरिप्रस्थानि उदयाद्रेः सानूनि / 'प्रस्थोऽस्त्री सानुमानयोः' इति यादवः / उष्मणा सूर्यस्यैव तेजसा, द्रुतानां विलीनानाम् , अश्मजतूनां शिलाजत्वा. ख्यधातुविशेषाणाम् , स्रवान् स्त्रावान् , प्रवाहानित्यर्थः। दधति धारयन्ति, रकप्र. वाहानिवेति भावः / तेन च उदयतः उत्तिष्ठतः, अरुणस्य सूर्यसारथेः गरुडाग्रजस्य अनूरोः सम्बन्धे, प्रतीभावादरात् प्रणामकरणाग्रहात् , अरुणानुजे गरुडे, रक्तवर्ण इति भावः / मिलति सङ्गमं प्राप्तवति, अरुणाय नन्तुं समागच्छति सतीत्यर्थः / तत्सङ्गात् गरुडसम्पर्कात् हेतोः, नवाः प्रत्यग्राः, इष्टकाः रक्तवर्णदग्धमृत्खण्डविशेषाः यस्यां सा तादृशी, वेष्टना परिधिः, प्राकार इत्यर्थः / शङ्कया शङ्कनीया, किमु ? किम् ? रक्तवर्णगरुडकान्तेः पर्वतसमन्तात् स्थितेरिति भावः। यदुक्तहेतुना गरुडः न सङ्गच्छेत तदा सुवर्णपक्षव्याप्तिरूपा उदयाद्रेः नवेष्टकावेष्टना कस्मादिति सम्भावना योत्प्रेक्षा // 16 // ____ उस समयमें रात्रिका दिनके साथ ( अपने-अपने पक्षको दृढ़ करनेके लिए ) युद्ध आरम्भ होनेपर ( अथवा- रात्रिका दिन के साथ युद्धरूप इस समय अर्थात प्रातःकालमें मानो युद्ध देखनेके कौतुकसे ) विहारकर (घूम ) रहे हैं सूर्य जिनमें ऐसे, उदयाचलके शिखर (सूर्य-किरणों के स्पर्श उत्पन्न ) गर्मी से पिघलते हुए शिलाजीतके स्रावको धारण कर रहे हैं अर्थात् सूर्य-किरण संसर्गज सन्तापसे शिलाजीत ( पक्षा०-युद्धमें आहत होनेसे रक्त) को बहा रहे हैं / तथा उदय होते ( पक्षा०-आते हुए ) अरुण ( अपने बड़े भाई) के नमस्कार करनेके आदरसे गरुड (पक्षीराज, पक्षा०-गारुत्ममणि) के मिलनेपर उसके संसर्गसे नये (भठेसे तत्कालने निकालने के कारण अरुणवर्ण ) ईटके घेरेको शङ्का क्यों नहीं होती क्या ? अर्थात् नई ईटोंके घिरे हुए के समान वह अवश्यमेव जान पड़ता है। [ सूर्यके आश्रित दिन-प्रकाशका रात्रिके साथ युद्ध होनेपर अपने आश्रितके युद्धपराक्रम को देखने के लिए सूर्य युद्धस्थलमें पहुंचे तो उनके चारा तरफ नयी लाल-लाल सुवर्णमयी ईटोका घेरा बना दिया गया है सेनानायक दिन तथा रात्रिके परस्पर युद्ध होनेपर उनके भटतुल्य उदयाचल- शिखर सूर्यसन्तापज उष्णतासे बहते हुए शिलाजोतरूप रक्तस्रावको धारण कर रहे हैं और विजयी दिनपक्षीय शिलाएँ गरुडमणिके सम्पर्कसे सुवर्णमय पट्टिकाओं से अलकृत हो रही हैं ऐसा मालूम पड़ता है ] // 16 // रविरथहयानश्वस्यन्ति ध्रुवं बडवा बलप्रतिबलबलावस्थायिन्यः समीक्ष्य समीपगान् / निजपरिवृढं गाढप्रेमा रथाङ्गविहङ्गमी. स्मरशरपराधीनस्वान्ता वृषस्यति सम्प्रति // 17 //
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________________ 1248 नैषधमहाकाव्यम्। रवीति / बलप्रतिबलस्य बलाख्यासुरप्रतिपक्षस्य पूर्वदिगधिपतेरिन्द्रस्य, बलेषु सैन्येषु, अवतिष्ठन्ते वर्तन्ते इति तदवस्थायिन्यः, बडवाः तुरङ्गया, पूर्व दिग्वतिन्य इति भावः / समीपगान् निकटस्थान् , रविरथहयान् सूर्यस्य स्यन्दनाकषिणः सप्त घोटकान् , समीच्य विलोक्य, अश्वस्यन्ति कामयन्ते, मैथुनार्थमश्वंमिच्छन्तीत्यर्थः, ध्रुवमित्युत्प्रेक्षायाम् / तथा गाढप्रेमा दृढानुरागा, अत एव स्मरशराणां कन्दर्पबाणानां पराधीनस्वान्ता परतन्त्रचित्ता, कामपीडितचित्ता इत्यर्थः। रथाङ्गविहङ्गमी चक्रवा. कपक्षिणी / 'जातेरस्त्री-' इत्यादिना डीप / निजपरिवृढं स्वप्रभुम् , आत्मनः कान्तमित्यर्थः। सम्प्रति उषाकाले, वृषस्यति मैथुनाय कामयते इत्यर्थः / रात्रिवियोगिनोः चक्रवाकमिथुनयोः दिने एव मेथुनकरणादिति बोध्यम् / 'सुप आरमनः क्यच्' इति क्यच् / 'अश्वक्षीरवृषलवणानामात्मप्रीतौ क्यचि' इत्यसुगागमः / 'अश्ववृषयोमैथुनेच्छायाम्' इति वक्तव्यादर्थनियमः // 17 // बलासुरके प्रतिपक्षी (इन्द्र ) की ( पूर्वादिशास्थित ) सेनाकी घोड़ियां समीपसे जाते हुए सूर्यके रथके ( सात ) घोड़ोंको मैथुनार्थ मानो इच्छा कर रही हैं ( अथवा-अवश्य ही इच्छा कर रही हैं। तथा इस समय (प्रातःकालमें ) कामबाणोंसे पराधीन चित्तवाली एवं अधिक प्रेमवाली चक्रवाको अपने स्वामी ( चक्रवाक ) को भैथुनार्थ चाह रही है / अथवा-इस समय (प्रातःकालमें ) कामवाणोंसे पराधीन चित्तवाली एवं अधिक प्रेम करनेवाली बलारि (इन्द्र ) की सेनामें रहनेवाली घोड़ियां अपने स्वामी समीपगामी सूर्यरथके सात घोड़ोंको मैथुनार्थ चाह रही हैं तथा कामबाणोंसे पराधीन चित्तवाली एवं अधिक प्रेम करानेवाली चक्रवाकी समीपगामी अपने स्वामी (चक्रवाक ) को मैथुनार्थ चाह रही है)। [इस अर्थमें "निजपरिवृढम्' पदको विभक्ति-विपरिणामकर बहुवचनान्त 'समीपगान्' पदको विभक्तिविप. रिणामकर एकवचनान्त करके बड़वा तथा चक्रवाकी दोनो पक्षोंका विशेषण मानना चाहिये। 'गाढप्रेमा' पद 'डाबुमाभ्यां-' सूत्रसे विकल्प डाप करनेसे तथा 'स्मरस्वान्ता' पद टावन्त करनेसे बहुवचनान्त तथा एकवचनान्त दोनों हैं, इसके बहुवचनान्तपक्षमें विसर्गलोप तथा आवन्त होनेसे सुलोपमात्र करनेसे उसको चक्रवाकी तथा वडवा-दोनों के विशेषण मानना चाहिये] // 17 // निशि निरशनाः क्षीरस्यन्तः क्षुधाऽश्वकिशोरका मधुरमधुरं हर्षन्त्येते विलोलितबालधि | तुरगसमजः स्थानोत्थायं कर्णमणिमन्थभू धरभवशिलालेहायेहाचणो लवणस्यति // 18 // निशीति / हे महाराज ! निशि रात्री, निरशनाः निराहाराः,मातुः सकाशात दूरे 1. 'हेषन्ते ते' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'फणन्मणि मन्थभू-' इति व्यस्तपदं पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1249 अवस्थापनादिति भावः / अत एव शुधा शुधया, क्षीरस्यन्तः क्षीरम् मास्मनः भृशमिच्छन्तः, दुग्धं पिपासतः इत्यर्थः / एते द्वेषाध्वनिना अनुमितसमीपावस्थाना इत्यर्थः / अश्वकिशोरकाः घोटकबालकाः। 'बालः किशोरः' इत्यमरः / विलोलितबालधि सञ्चालितपुच्छं यथा तथा, मधुरमधुरम् अतिशयेन मनोहरम् , द्वेषन्ति स्वनन्ति / किञ्च मणिमन्थभूधरः सैन्धवाचलः / सैन्धवोऽस्त्री शीतशिवं माणिमन्थञ्च सिन्धुजे' इत्यमरः / तद्भावानां तजानाम् , शिलानां लवणोपलविशेषाणाम् , लेहाय आस्वादाय, ईहाचणः चेष्टया वित्तः, लवणलोलुपत्वेन ख्यात इत्यर्थः। 'तेन वित्त. चुचुपचणपौ' इति चणपप्रत्ययः / तुरगाणां घोटकानाम् , समजः समूहः / 'पशूनां समजः' इत्यमरः। 'समुदोरजः पशुषु' इत्यप्प्रत्ययः। क्वणन् शब्दायमानः, हेषाध्वनि कुर्वन् इत्यर्थः / 'क्वणन्मणि मन्थभू' इति व्यस्तपाठे-मन्थभूदरः रविपर्वतः, उदयाचल इत्यर्थः / 'मन्थो रवी मथि / सातवे नेत्ररोगे च' इति हैमः / तद्भवशि. लालेहाय ईहाचणः तुरगसमजः, क्वणन्तः शब्दायमानाः, मणयः सुद्रघण्टिकासमूहा यस्मिन् तत् यथा तथा क्वणकिङ्किणीकं यथा तथा इत्यर्थः। स्थानोस्थायं स्थानात् निजशयनप्रदेशात् , उत्थाय उद्त्य / 'अपादाने परीप्सायाम्' इति णमुल / लवणस्यति लवणम् आत्मनः भृशमिच्छति, लवणं मोक्तुमिच्छतीत्यर्थः। 'अश्वक्षीरइत्यादिना 'क्षीरलवणयोर्लालसायाम्' इत्यर्थनियमेऽसुगागमः। लालसा तृष्णातिरेकः // 18 // रात्रिमें (मातासे पृथक् बंधे रहने से ) निराहार एवं भूखसे दूध पीनेकी अधिक इच्छा करते हुए ये घोड़ों के बछड़े पूछको हिलाते हुए अतिशय मधुर हिनहिना रहे हैं तथा शयनस्थानसे शीघ्र उठकर हिनहिनाता हुआ एवं सैन्धव पर्वतकी शिला (चट्टानों-सेंधानमकके बड़े-बड़े टुकड़ों) के चाटने की इच्छासे युक्त (पाठा०-शयनस्थानसे तत्काल उठकर उदयाचलकी शिलाको चाटनेकी इच्छासे युक्त तथा गलेमें पड़े हुए मणियों की घुघुरु ओंको बारबार बजाता हुआ) अश्वसमूह नमक चाहता है / (घोड़ों के छोटे बच्चे दूध पीना तथा उठकर नमक चाटना चाहते हैं ] // 18 // उडुपरिषदः किं नाहत्त्वं ? निशः किमु नौचिती ? पतिरिह न यत् ताभ्यां दृष्टो गणेयरुचीगणः / स्फुटमुडुपतेराश्मं वक्षः स्फुरन्मलिनाश्मन च्छवि यदनयोविच्छेदेऽपि मृतं बत न द्रुतम् / / 19 / / उडिवति / उदुपरिषदः तारागणस्य, अर्हतः भावः अहत्त्वं पूज्यत्वम् , प्रशंसनी. यत्वमित्यर्थः / प्रागेवास्तगमनस्येति भावः।न किम् ? अपि तु अर्हत्वमेव / 'अर्हत्त्वम् इति पाठे-अर्हत्वम् औचित्यम् , न किम् ? अपि तु औचित्यमेवेत्यर्थः / 'आर्हन्ती' 1. 'नाहत्वम्' इति, 'नाहंन्ती' इति च पाठान्तरम् / 2. 'द्रुतम्' इति पाठान्तरम्।
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________________ 1250 नैषधमहाकाव्यम् / इति पाठे / 'अर्हः प्रशंसायाम्' इति शतरि, अर्हतो भाव इति ब्राह्मणादित्वात् ष्यञ्प्रत्यये 'अर्हतो नुम् च' इति नुमागमः, 'प्यञः पित्करणादीकारो बहुलम्' इति वामनः / 'यस्य हलः' इति यकारलोपः / एतेन औचिती व्याख्याता। नुमभावस्तु विशेषः / निशः रात्रेरपि, न औचिती न औचित्यम् , किमु ? अपि तु उचितमेव, प्रागेवापगमनमिति भावः / अर्हत्वमेवौचित्यमेव चाह,-यत् यस्मात् , इह अस्मिन् समये, प्रभातकाले इत्यर्थः। गणेयरुचीगणः परिगणनीयकान्तिचयः, अतिशयेन परिक्षीणकिरणः इत्यर्थः / 'गणेरेयः' इत्यौणादिकण्यप्रत्ययः। पति चन्द्रः, ताभ्याम् उहुपरिषन्निशाभ्यां, न दृष्टः न अवलोकितः / 'धन्यास्तात ! न पश्यन्ति पतिभङ्गं कुलक्षयम्' इति स्मृतेः स्त्रीणां परयुः क्षीणावस्थाया ईक्षणस्य अधन्यत्वसूचकत्वादिति भावः / किञ्च, अश्मनः इयम् आश्मनी, 'तस्येदम्' इत्यण , सम्बन्धे अणि विका. राभावात् 'अश्मनो विकारे टिलोपो वक्तव्यः' इति टिलोपाभावः / स्फुरन्ती शशाङ्क: तया कृष्णवर्णत्वेन प्रकाशमाना, मलिना कृष्णवर्ण, आश्मनी पाषाणमयी, पाषाण. वत् कठिनेत्यर्थः / छविः कान्तिः यस्य तत् स्फुरन्मिलनाश्मनच्छवि कृष्णवर्णप्रस्तर. सदृशम् , उडुपतेः ताराकान्तस्य, वक्षः हृदयम् , अश्मनो विकारः आश्मं पाषाणमयम् , प्रस्तरवत् दुर्भेद्यमिति भावः / विकारार्थेऽणप्रत्ययः। 'अश्मनो विकारे टिलोपो वक्तव्यः' इति टिलोपः / स्फुट सत्यम् / कुतः ? यत् यस्मात् , अनयोः स्व. कान्तयोः उडुपरिषन्निशयोः, विच्छेदे वियोगेऽपि, प्रागेवापगमनादिति भावः / द्रुतं शीघ्रम् , न मृतं न विदीर्णं जातम् बत इति खेदे / अनयोवियोगेन उडुपतेः वक्षो. विदारणेन मरणस्यैवौचित्यादिति भावः // 19 // तारासमूहका पूज्यत्व ( पाठा-औचित्य ) नहीं है क्या ? तथा रात्रिका औचित्य नहीं है क्या ? कि उन दोनों ( तारासमूह तथा रात्रि ) ने गिन ने योग्य अर्थात् अत्यल्प किरणसमूहवाले ( क्षीणकिरण ) पति ( चन्द्रमा ) को नहीं देखा ( पतिरूप चन्द्र के विनाश देखने के पहले ही नष्ट होनेवाले तारासमूह तथा रात्रिका नष्ट हो जाना अत्यन्त उचित है। किन्तु ) रफुरित होते हुए मलिन ( कृष्णवर्ण ) पत्थर के समान कान्तिवाला तारापति ( चन्द्रमा ) का वक्षःस्थल अवश्य ही पत्थरका ( या-मानो पत्थरसे ) बना है, क्योंकि ( अथवा-जो = हृदय ) इन दोनों ( तारासमूह तथा रात्रि ) के वियोग होने पर भी शीव नष्ट नहीं हुआ (पाठा०-पिघल गया ) / [ अत एव चन्द्रमाके ऐसा कार्य अनुचित हुआ। तारागण नष्ट हो गये, रात्रि बीत गयी तथा चन्द्र भी क्षीणप्रभ हो गया।] // 19 // अरुणकिरणे वह्नौ लाजानुडूनि जुहोति या परिणयति तां सन्ध्यामेतामवैमि मणिदिवः / इयमिव स एवाग्निभ्रान्ति करोति पुरा यतः करमपि न कस्तस्यैवोत्कः सकौतुकमीक्षितुम् ? / / 20 / /
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________________ 1251 ऊनविंशः सर्गः। अरुणेति / या प्रातःसन्ध्या, अरुगस्य सूर्यसारथेः अनूरोः, किरणे रश्मी एव, वह्नौ अनले, आरक्तवर्णत्वसाम्यादिति भावः / उडूनि नक्षत्राणि एव, लाजान् भृष्टधान्यकृतान् , अक्षतान् , जुहोति आहुतिदानेनेव अदर्शनं नयतीत्यर्थः। आहुतिं ददाति च / प्रभातालोकेन नक्षत्राणां क्षीणत्वशुभ्रत्वादिरूपेण प्रतीयमानत्वात् लाजसाम्यत्वं बोध्यमिति / ताम् उक्तरूपाम् , एतां परिदृश्यमानाम , सन्ध्यां प्रातः. सन्ध्यारूपां वधूम , दिवः आकाशस्य, मणिः रत्नम् , सूर्यः इति यावत् / वरः इति भावः / परिणयति परि सर्वतोभावेन, नयति प्रापयति, उपस्थापयतीत्यर्थः / उपयच्छते च, इति अवैमि जानामि / वाक्यार्थः कर्म / इत्युत्प्रेक्षे इत्यर्थः। कथमवैषीत्यपेक्षायामाह-यतः यस्मात् हेतोः, इयं सन्ध्यावधूरिव, सोऽपि स वरः सूर्योऽपि, पुरा पूर्वम्, आगामिनि काले च / 'स्यात् प्रबन्धे .चिरातीते निकटागामिके पुरा' इत्यमरः / तत्र सन्ध्या पूर्व सूर्यश्च आगामिनि काले इत्याशयः / अग्निभ्रान्तिम् भारुण्यात् आत्मनि अग्निविभ्रमं लाजहोमानन्तरम् अग्निप्रदक्षिणरूपं भ्रमणञ्च, करोति चकार करिष्यति च / 'यावत्पुरानिपातयोर्लट्' / एकत्र-सन्ध्यायाः सूर्यस्य च उभयोरेव अग्निवर्णत्वात् उभावेव आत्मनि तभ्रमं कुरुतः अन्यत्र च-अग्रे वधूः. तत्पृष्ठतो वरश्च अग्निप्रदक्षिणं करोतीति परिणयविधौ दृश्यते इत्याशयः। एवञ्चक एव को वा जनः, सकौतुकं सकौतूहलं यथा तथा, ससूत्रश्च / 'कौतुकं विषयाभोगे हस्त. सूत्रे कुतूहले' इति यादवः / तस्य परिणेतुः द्युमणेः, करम् अंशुं हस्तञ्च / 'बलिहस्तां. शवः कराः' इत्यमरः / ईक्षितुं द्रष्टुम्, न एव उत्कः ? नैव उत्सुकः ? एकत्र-अरु. णोदयकालिकहोमादिनित्यकर्मानुष्ठानार्थम् , अन्यत्र-चित्तविनोदनार्थम्चेति भावः / भवतीति शेषः / अपि तु सर्वऽपि उत्सुका एव भवन्तीत्यर्थः / अरुणोदयः जातः, तारकाश्व अरुणप्रभायां लीनाः सत्यः न दृश्यन्ते, सन्ध्यासमयश्च समागतः, इदानीं सूर्य उदेष्यति इति निष्कर्षः // 20 // जो (प्रातःसन्ध्यारूपिणी वधू ). अरुणके किरणरूपी ( पक्षा०-अरुणवर्ण ज्वालाओंवाली ) अग्निमें तारारूपी लाजाओं (धानकी खीलों ) को हवन करती (पक्षा०-पहुंचाकर जलाती-नष्ट करती ) है, ऐसी उस प्रातःसन्ध्या (रूपिणी वधू ) को आकाशमणि ( सूर्य, पक्षा०-सूर्यरूपी श्रेष्ठ वर ) अभ्युन्नत (पक्षा०-विवाहित ) कर रहा है, क्योंकि इस (प्रातःसन्ध्यारूपिणी वधू ) के समान वह सूर्य भी पहले (पक्षा०-आगामी समयमें ) अग्नकी भ्रान्ति ( भ्रम, पक्षा०-प्रदक्षिणा) को करेगा तथा किया तथा उस (सूर्य) के किरणको (प्रातःकालंका सूर्याय॑ देते समय ) ऊपर जल किया हुआ कौन व्यक्ति कौतूहल. पूर्वक नहीं देखेगा ? (पक्षा०-उस ( सूर्यरूपी वर ) के विवाहके कङ्कणसूत्र युक्त हाथको कौन व्यक्ति उत्कण्ठित होकर नहीं देखेगा ?) / [ जिस प्रकार वधू अरुणवर्ण ज्वालाओंवाली अग्निमें लाजाहुती करती है, उससे श्रेष्ठ वर विवाह करता है, वह वधू आगे-आगे तथा वर पीछे-पीछे अग्निकी चारों ओर प्रदक्षिणा करते हुए भ्रमण करते हैं और कौतूहलपूर्वक सब
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________________ 1252 नैषधमहाकाव्यम् / लोग उस वरके विवाहकालके कङ्कण बंधे हुए हाथको देखते हैं, उसी प्रकार प्रकृतमें प्रातःसन्ध्यारूपिणी वधू अरुणकिरणरूपी अग्निमें नक्षत्ररूप लाजाका इवन करती है, सूर्यरूपी श्रेष्ठ वर उसको परिणीत ( विवाहित ) कर रहा है, पहले प्रातः सन्ध्या तथा बादमें सूर्यने अरुणवर्ण होनेसे लोगों में अग्निका भ्रम उत्पन्न कर दिये हैं तथा फिर करेंगे (पक्षा०-पहले अरुणवर्ण वधू तथा बाद में अरुणवर्ण ही वर अग्निकी प्रदक्षिणा किये गये तथा करेंगे ) और यह अर्घ्य देनेवाले हाथमें ऊपर की ओर जल लिये, सूर्य-किरणों को देखते हैं ( पक्षा०-वैवाहिक मङ्गलसूत्रसे युक्त वर के हाथको लोग देखते है ) यहाँपर अरुणमें अग्नि, ताराओंमें लाजा, प्रातःसन्ध्यामें वधू , सूर्यमें वरका आरोप किया गया है / अरुणोदय हो गया, ताराऐं अरुणकी प्रभामें विलीन होनेसे नहीं दीखती, प्रातःसन्ध्याका समय आ गया और अब सूर्योदय मी होनेवाला है ] // 20 // रतिरतिपतिद्वैतश्रीकौ ! धुरं बिभृमस्तमां प्रियवचसि यनग्नाचार्या वदामतमां ततः / अपि विरचितो विनः पुण्यद्रुहः खलु नर्मणः परुषमरुषे नैकस्यै वा मुदेतु मुदेऽपि तत् / / 21 / / रतीति / रतिरतिपत्योः कामाङ्गनाकामदेवयोः, द्वैतं द्वितीयत्वं यत्र सा तादृशी, श्रीः सौन्दर्य ययोः तादृशौ हे द्वितीयौ रतिकामौ ! हे तादृशौ भैमीनलौ ! प्रियव. चसि चाटुवादे, स्तुतिपाठकमणीत्यर्थः। धुरं भारम् , बिभृमस्तमाम् अतिशयेन धारयामः / भवतां सन्तोषकरवचनप्रयोगे एव वयं नियुक्ताः स्म इत्यर्थः / तथाऽपि यत् यस्मात् , नग्नानां वन्दिनाम् , अन्यान्यस्तुतिपाठकानामित्यर्थः / 'नग्नः क्षपण. वन्दिनोः' इत्यमरः / आचार्याः उपदेशादिकारिणः, वन्दिप्रधाना इत्यर्थः / वयमिति शेषः / ततः तस्मात् , वदामतमाम् अतिशयेन वदामः, औचिस्यात् अप्रियमपि हितमिति भावः / उभयत्रापि 'तिडव्ययात्-' इत्यामुप्रत्ययः। ननु किं वा अप्रियं किं वा हितं वदथ ? इत्याह-पुण्यद्रुहः सन्ध्यार्चनाधवश्यकर्त्तव्यनित्यकर्मणां व्याघातजनकरवेन सुकृतविरोधिनः, नर्मणः युवयोः सुखविहारस्य, विघ्नः अन्तरायः, विरचितः खलु अपि ईगप्रियवाक्येन सम्पादितः एव, अतः तत् तादृशम् , परुषं नर्मव्याघातकतया निष्ठुरम , वाक्यमिति शेषः / वां युवयोः मध्ये, एकस्यै भैम्यै, अरुषे क्रोधाभावाय, क्वचित् प्रसज्य प्रतिषेधेऽपि नसमास इष्यते / न उदेति न जायते, बालाया अदीक्षितायाः तस्याः सन्ध्यादिप्रयोजनाभावात् क्रोधायैव भवतु इति भावः / मुदे हर्षाय अपि, सन्ध्यार्चनाद्यवश्यकर्मप्रयोजकत्वात् तव सन्तोषाया• पीत्यर्थः / उदेतु / अप्रियमपि हितं वाच्यमेवेत्यतो वदाम इत्याशयः // 21 // हे रति तथा कामदेवके द्वैतकी (द्वितीयत्व ) की शोमावाले ( क्रमशः-दमयन्ती तथा मल ) ! प्रियवचन ( कहने ) में हमलोग विशेषतः मार ग्रहण करते हैं अर्थात् आपलोगों के
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1253 प्रियभाषणको करना ही हमलोगोंका दायित्व, क्योंकि हमलोग नग्नाचार्य (स्तुतिपाठक बन्दियों के आचार्य) हैं, इस कारण हमलोग ( अप्रिय होनेपर भी हितकर वचनको ) विशेषतः कहते हैं / अथवा -जिस कारण बन्दियों के आचार्य हमलोग प्रियवचन कहने में भार ग्रहण करते हैं, उस कारण विशेषतः कहते हैं / अथ च-नग्नोंके आचार्य हैं, अत एव निर्लज्जतम होने के कारण चाहे जो कुछ भला-बुरा कहते हैं ) / प्रातःसन्ध्यादि ( आवश्यक नित्यकर्मके व्याघात करनेसे ) पुण्यकर्मके नर्म ( तुम दोनों के सुरतादिविलास ) का विन्न किया ही है अर्थात् उठने के लिए यह वचन कहकर हमने आप दोनों के सुरतविलासमें बाधक ही वचन कहा है; ( अत एव नर्मविघातक होनेसे) कठोर वह (वचन) तुम दोनों में से एक ( दमयन्ती) के क्रोधाभावके लिए नहीं होवे अर्थात् केवल अक्रोध लिए ही नहीं होवे, किन्तु हर्षके लिए भी होवे [ दमयन्ती इस सुरतविघातक वचनोंसे केवल क्रोधसे रहित ही नहीं होवे, किन्तु धर्मप्रिय तुम्हारे अनुकूल वचनका आदरकर हर्षित भी होवे। अथवा(मर्मविरोधी होनेसे ) कठोर वह वचन पुण्यविरोधी नर्मका विघ्नकारक होकर दमयन्तीके क्रोधाभावके लिए ही न होवे, किन्तु हर्षके लिए भी होवे / अथवा-क्रोधहीन दमयन्तीके ही हर्षके लिए नहीं होवे, किन्तु तुम्हारे हर्षके लिए भी होवे अर्थात् यद्यपि यह वचन सुरतविलासविघातक होनेसे कठोर हैं, तथापि धर्मप्रिया पतिप्राणा दमयन्ती इस धर्मसाधक वचनको सुनकर क्रोध छोड़कर हर्षित ही होगी और तुम तो हषित होवोगे ही। अथवाउक्तरूप वह वचन दमयन्तीके क्रोधाभावके लिए नहीं होवे और हर्षके लिए भी नहीं होवे अर्थात् दययन्ती भले ही क्रोधित या हर्षित-दोनों में से कुछ भी नहीं होवे, किन्तु प्रियवचन कहनेका भार ग्रहण करने के कारण तुम लोगोंके लिए जो उचित है, उसी वचन को हम लोगोंने कहा है // 21 // भव लघुयुताकान्तः सन्ध्यामुपास्स्व तपोमय ! त्वरयति कथं सन्ध्येयं त्वां न नाम निशानुजा ? | द्युतिपतिरथावश्यङ्कारी दिनोदयमासिता हरिपतिहरित्पूर्णभ्रणायितः कियतः क्षणान् ? / / 22 / / भवेति / तपोमय ! हे तपोनिष्ठ ! महाराज ! अत एव विहितकाले सन्ध्यादि. निमित्तं तत्परो भव इत्याशयः / लघु शीघ्रम् ,युता पृथगभूता, कान्ता प्रिया यस्य सः तादृशः युताकान्तः विसृष्टप्रियः / भव जायस्व / कान्ताशब्दस्य प्रियादिपाठात् 'स्त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पूर्वपदस्य न .पुंवद्भावः, 'अप्रियादिषु' इति प्रतिषेधात् / सन्ध्यां प्राभातिकोपासनाम् , उपास्स्व सेवस्व / इयम् उपस्थिता, निशानुजा रात्रेरनन्तरं समाता, सन्ध्या 'प्रातःसन्ध्या, त्वां भवन्तम् , कथं किमर्थम् नाम प्रश्ने, न स्वरयति ? न सत्वरीकरोति ? सन्ध्योपासनार्थमिति भावः। यतः, अथ 1. 'तपोमल' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1254 नैषधमहाकाव्यम् / अनन्तरमेव, सत्वरमेवेत्यर्थः। दिनोदयं दिवसप्रादुर्भावम् , अवश्यं करिष्यतीति अवश्यङ्कारी दिनं निश्चितमेव करिष्यन् इत्यर्थः, 'आवश्यकाधमर्ययोः' इत्यावश्यकार्थे णिनिः / मयूरव्यंसकादित्वात् समासः / आवश्य कार्यस्वादिह भविष्यति इत्यर्थः / लभ्यते, अतः 'अकेनोभविष्यदाधमर्ययोः' इतीन्युक्तषष्ठीप्रतिषेधः सम्भ वति, अत एव भविष्यदर्थाभावे अत्र प्रत्युदाहरणं काशिकायाम् 'अवश्यङ्करी कटस्य' इति / हरिः इन्द्रः, पतिः प्रभुः यस्याः तादृश्याः, हरितः दिशः, प्राचीदिगङ्गनाया इत्यर्थः / पूर्णभ्रणः सम्पूर्णगर्भः, दशममासीयगर्भ इत्यर्थः / 'गर्भो भ्रूण इमो समी' इत्यमरः / स इव आचरितः इति तादृशः / 'आचारक्यङन्तात् कर्तरि क्तः। द्युति. पतिः सूर्यः, कियतः क्षणान् कति कालान् , अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। आसिता ? स्थाता ? स्वोदयं स्थगयित्वा अपेक्षिष्यते ? इत्यर्थः / न क्षणमपीति भावः। शीघ्रमेव सूर्यस्य उदयो भविष्यति, अतः सूर्योदयात् प्राक सन्ध्योपासनार्थ सस्वरमुत्तिष्ठ इति तात्पर्यम् // 22 // हे तपोनिष्ठ ( पाठा०-तपसे निर्मल, नल ) ! शीघ्र कान्तासे पृथक् होवो अर्थात दमयन्ती के साथ शयन करना छोड़ो और सन्ध्योपासन करो रात्रि के बाद होनेवाली सन्ध्या अर्थात् प्रातःसन्ध्या ( सन्ध्योपासनके लिए ) तुम्हे क्यों नहीं जल्दी करा रही है अर्थात् प्रातःसन्ध्यो. पासन का समय देखकर तुम जल्दी क्यों नहीं उठ रहे हो ? दिनोदयको शीघ्र करनेवाला, अतएव पूर्व दिशाके पूर्ण गर्भस्थित सा सूर्य कितने क्षणतक ठहरेगा अर्थात् कुछ कुछ क्षणों में ही सूर्योदय होने वाला है / यहाँ 'लघुयुताकान्तः पदमें अदादिगणस्थ 'यु मिश्रणामिश्रणयोः' धातुसे भूतमें 'क्त' प्रत्ययसे सिद्ध होनेवाले 'युत' शब्दको 'पृथक् होने' अर्थमें प्रयुक्तकर महाकवि श्रीहर्षने सन्ध्योपासनके बाद पुनः कान्तासे संयुक्त होनेका सङ्केत किया है, केवल पृथक् अर्थको कहनेवाले 'त्यक्त' आदि शब्दका प्रयोग अमङ्गलवाचक होने से नहीं किया है ] // 22 // मुषितमनश्चित्रं भैमि ! त्वयाऽद्य कलागृहैनिषधवसुधानाथस्यापि श्लथश्लथता विधौ / अजगणदयं सन्ध्यां वन्ध्यां विधाय न दूषणं नमसितुमता यन्नाम स्यान्न सम्प्रति पूषणम् / / 23 / / मुषितेति / भैमि ! हे दमयन्ति ! अद्य अस्मिन् दिवसे, कलागृहैः कलानां 'गृहाः पुंसि च भूम्न्येव' इत्यमरः / त्वया भवत्या, मुषितमनसः अपहृतचित्तस्य, निषधवसुधानाथस्य नलस्यापि, परमधार्मिकस्यापीति भावः। विधौ श्रतिविहित. सन्ध्योपासनादिनित्यकर्मानुष्ठाने, श्लथश्लथता अतिशिथिलता। कर्मधारयवद्भावे पुंवद्भावात् सुपो लुक् / चित्रम्, आश्चर्यम्, यत् यस्मात् , अयं नला, सम्प्रति अधुना,
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1255 न इतः पूर्वमिति भावः / सन्ध्यां प्रातःकालिकोपासनाम् , बन्ध्यां निष्फलाम् , विधाय कृत्वा, अनुपास्येत्यर्थः / दूषणं दोषम् , न अजगणत् न गणयति स्म, तथा पूषणं सूर्यम् , अचिरमेव उदेष्यन्तमिति भावः। 'इन्हन्पूषाऽयम्णां शौ' इति नियमान्नात्र दीर्घः। नमसितुमनाः नमस्कत कामश्च / 'नमोवरिवश्चित्रङः क्यच' इति क्यजन्तात् तुमन् , 'क्यस्य विभाषा' इति क्यलोपः, 'तुं काममनसोरपि' इति मकारलोपः / न स्यात् नाम न भवेदपीत्यर्थः / अप्यर्थे नाम // 23 // हे दमयन्ति ! चौंसठ कलाओंके आश्रयभूत तुमसे चोरितचित्त (या-त्यक्तस्वभाव ) निषधेश्वर राजा नलकी भी (प्रातःसन्ध्योपासनरूप नित्य ) कर्ममें भी अतिशय शिथिलता होना आश्चर्य जनक है ( अथ च-कलागृह तुमसे चोरितचित्त नलका कलानाथ चन्द्रमामें शिथिलता ( स्नेहाभाव ] होना आश्चर्यकारक है ) ( क्योंकि ) इस ( राजा नल ) ने सन्ध्याको बन्ध्या (व्यर्थ ) बनाकर (नित्यकृत्यके लोपजन्य ) दोषको नहीं गिना तथा इस समय सूर्यको नमस्कार करने का इच्छुक नहीं है / [ जिस प्रकार अन्य स्त्रीमें आसक्त पुरुष अपनी धर्मपत्नी त्याग करने में दोष नहीं समझता और उसे बन्ध्या ( सन्तानहीन ) कर देता है एवं सम्भोगमें दिनको विघ्नकारक मानकर सर्यका आदर नहीं करता, उसी प्रकार ये नल भी तुममें आसक्त होकर प्रातःसन्ध्याका त्यागकर उसके त्यागके दोषकी चिन्ता नहीं करते और न तो सर्यको. नमस्कार ( सूर्योपस्थान ) ही करना चाहते हैं ] // 23 // न विदुषितरा काऽपि त्वत्तस्ततो नियतक्रिया पतनदुरिते हेतुर्भत मनस्विनि ! मास्म भूः / . अनिशभवदत्यागादेनं जनः खलु कामुकी सुभगमभिधास्यत्युद्दामाऽपरावदावदः / / 24 // नेति / मनस्विनि ! हे प्रशस्तचित्ते ! अतः अवश्यमेव स्वामिनम् अवैधकार्यात् निवारयिष्यसीत्याशयः / त्वत्तः भवत्याः, वामपेक्ष्य इत्यर्थः / 'पञ्चमी विभक्ते' इति पञ्चमी / अतिशयेन विदुषी विदुषितरा / 'घरूप-' इत्यादिना हरवः / काऽपि अन्या काचिदपि सी, न, अस्तीति शेषः / ततः तस्मात् हेतोः, भर्तुः पत्युः, नियतक्रिया. पतनदुरिते सन्ध्यादिनित्यकर्मभ्रंशपापे, हेतुः कारणम् , मास्म भूः नैव भव / 'स्मोत्तरे लङ्ग च' इति चकाराल्लुङ , 'न मायोगे' इत्यडभावः। तथा हि-उद्दामा उत् उद्गतम् , तल्लचितमित्यर्थः / दाम लोकस्थितिरूपपाशः येन तादृशः उच्छ. ङ्खलः, उग्रस्वभाव इत्यर्थः / अत एव अपरेषाम् अन्येषाम् , अङ्कस्य कलङ्कस्य, वदा. वदः वक्ता / 'चरि-'इत्यादिना वदेतिरुक्तिः अभ्यासस्यागागमश्च / जनः लोकः, खलु निश्चितम्, निशं निरन्तरम् , भवत्या त्वया, का / अत्यागात् अमुक्तस्वात् हेतोः 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' / एनं नलम् , तव स्वामिनमिति भावः। कामुकी वृषस्यन्ती / 'वृषस्यन्ती तु कामुकी' इत्यमरः। 'अश्ववृषयोमैथुनेच्छायाम्' इति
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________________ 1256 नैषधमहाकाव्यम् / क्यच् / तस्याः सुभगं वल्लभम् , तत्परवशमित्यर्थः। अभिधास्यति कथयिष्यति, स्त्रीलोल वच्यतीत्यर्थः / तस्मादेनं तुणं मुञ्च इति भावः // 24 // हे मनस्विनि ( पण्डिते दमयन्ति ) ! तुमसे अधिक कोई ( दूसरी स्त्री ) विदुषी नहीं है, इस कारण तुम (प्रातःसन्ध्योपासनरूप ) नित्यकृत्यके त्याग पाप ( के करने ) में कारण मत बनो; क्योंकि तुम्हारा निरन्तर साथ करनेसे उच्छृङ्खल तथा दूसरेके दोषको कहनेवाले लोग इसे ( नलको ) स्त्रीलम्पट कहेंगे [ अतः इस समय नित्यकृत्यके लिए नल का त्यागकर इनके धर्मकार्य करने तथा जनापवादसे वचने में सहायिका बनो ] // 24 / / रह सहचरीमेतां राजन्नपि 'स्त्रितरां क्षणं तरणिकिरणैः स्तोकोन्मुक्तैः समालभते नमः / उदधिनिरयद्भास्वत्स्वर्णोदकुम्भदिक्षुतां दधति नलिनं प्रस्थायिन्यः श्रियः कुमुदान्मुदा / / 25 // रहेति / हे राजन् , स्त्रितराम् उत्कृष्टस्त्रियमपि / स्त्रीशब्दस्य जातिवाचित्वेऽपि तन्निष्टगुणगतातिशयविवक्षया तरप्प्रत्यय इति भगवान् भाष्यकारः। 'नद्याः शेष. स्यान्यतरस्याम्' इति विभाषया हस्वः। सहचरी सहचारिणीम् / पचादिषु चरट इति टित्करणेन डीप / एतां प्रियां दमयन्तीम् , क्षणं कियकालम् , रह त्यज, वैध क्रियासम्पादनार्थमिति भावः / 'रहति त्यजति त्यागे' इति भट्टमल्लः / रहेभीवादि. कालोटि सिप / नभः आकाशम, कर्तृ स्तोकेन लेशेन, उन्मुक्तः प्रकटितैः / 'करणे च स्तोकाल्प-' इत्यादिना पक्ष तृतीया / कर्मणि कर्मकर्तरि वा क्तः। स्वल्पमुदितैरित्यर्थः। तरणिकिरणैः सूर्यरश्मिभिः करणः / समालभते आत्मानं विलिम्पति, अनु. लिम्पति इत्यर्थः / 'समालम्भो विलेपनम्' इत्यमरः / 'समालम्भनमित्यपि' इत्यनुलेपनपर्याये यादवः / कुङ्कमैरिवेति भावः। किञ्च, कुमुदात् कैरवात् / अपादानात् नलिनं पद्मं प्रति / गम्यमानोद्देशक्रियापेक्षया कर्मत्वम्। नलिनम् उद्दिश्य इत्यर्थः / प्रस्थायिन्य प्रतिष्ठमानाः, रजन्यपगमेन कुमुदस्य मुद्रणोन्मुखत्वात् पद्मस्य च स्फुटनोन्मुखस्वादिति भावः / ग्रह्यादित्वात् णिनिः / अत्र गम्यादिपाठात् 'अकेनोः' इति षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीयेति केचित् , तत् प्रतिष्ठतेरकर्मकत्वमनालोच्य उक्तमित्युपेक्षणीयम् / श्रियः शोभाः, मुदा हर्षेण, उदकानि धीयन्ते अस्मिन् इति उदधिः समुद्रः। 'कर्मण्यधिकरणे च' इति किप्रत्ययः। 'पेपंवासवाहनधिषु च' इत्युदादेशः। तस्मात् निरयन निर्गच्छन् / एतेलटः शत्रादेशः / स चासौ भास्वान् सूर्यश्व, स एव स्वर्णस्य उदकुम्भः जलपूर्णहेमघटः / 'एकहलादौ पूरयितव्येऽन्यतर. स्याम्' इत्युदादेशः। तदिक्षुतां द्रष्टुमिरछवः दिदृक्षवः तासां भावः तत्ता ताम् , विलोकयितुमिच्छुत्ताम् / 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधे गम्यादिपाठात् द्विती 1. खितमात्' इति पाठान्तरम्। 2. 'स्तोकान्मुक्तः' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। . 1257 यासमासः / दधति धारयन्तीव, दिहवन्ते इवेत्यर्थः / प्रस्थान काले 'पूर्णकुम्भदर्शनस्य मङ्गलावहत्वादिति भावः // 25 // हे राजन् ! स्त्रियोमें श्रेष्ठतम सहचरी इस ( दमयन्ती ] को छोड़िये, थोड़ी निकली हुई सूर्य-किरणोंसे आकाश लिप्त हो रहा है और ( सङ्कुचित होते हुए ) कुमुदोंसे (निकट भविष्यमें विकसित होनेवाले ) कमलों में जानेवाली शोमा समुद्रसे निकलते हुए सूर्यरूप स्वर्णकलशको देखना चाहती है / [ प्रस्थान कालमें स्वर्णकलशका देखना मङ्गलकारक होनेसे यहां कुमुदसे कमलको जाती हुई शोमाके लिए ऐसी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 25 // प्रथमककुभः पान्थत्वेन स्फुटेक्षितवृत्रहाण्यनुपदमिह द्रक्ष्यन्ति त्वां महांसि महःपतेः / पटिमवहनादूहापोहक्षमाणि वितन्वता महह ! युवयोस्तावल्लक्ष्मीविवेचनचातुरीम् / / 26 / / प्रथमेति / महःपतेः सूर्यस्य महांसि तेजांसि, प्रथमककुभः ‘इन्द्रस्वामिकायाः प्राच्याः, पन्थानं गच्छतीति पान्थः नित्यपथिकः / 'पन्थो ण नित्यम्' इति णप्रत्ययः पन्थादेशश्च / तत्त्वेन पथिकत्वेन, नित्यमिन्द्रदिग्गतत्वेन इत्यर्थः / स्फुटं स्पष्टम् , ईक्षितः दृष्टः, वृत्रहा इन्द्रः यैः तानि / 'इन्हन्-' इत्यादिना शौ दीर्घः / अनुपदम् अनुगमेव, इन्द्रेक्षणानन्तरमेवेत्यर्थः / 'अन्वगन्वक्षमनुगेऽनुपदं क्लीबमव्ययम्' इत्यमरः / इह अस्मिन् प्रदेशे, त्वां नलं, द्रश्यन्ति अवलोकयिष्यति / ततः किं तत्राह-पटिमवहनात् पटिमा तीक्ष्णता, तीचणरश्मिता इत्यर्थः / चातुर्यञ्च, प्रज्ञातिशयञ्च इत्यर्थः। तस्य वहनात् धारणात् 'पटुश्चतुरतीचणयोः' इति शाश्वतः / ऊहापो. हयोः अहः तर्कः, विचारपूर्वकसद्ग्रहणमित्यर्थः / अपोहः परित्यागः, अपकृष्टवस्तुन इति भावः / तयोः क्षमाणि शक्तानि, तानि महांसि इति शेषः। युवयोः तस्य इन्द्रस्य तव च। 'त्यदादीनि सनित्यम्' इति त्यदायेकशेषः / लक्ष्मीविवेचनचातुरी शोभासम्पदा तारतम्यविचारकौशलम् , तावत् साकल्येन, वितन्व तां विस्तारयन्तु, प्रदर्शयन्तु इति यावत् / उभयदर्शिनाम् उभयतारतम्यं विवेक्तुं युक्तमेवेति भावः, अहह इत्यद्भुते // 26 // पूर्व दिशाका नित्य पथिक ( सर्वदा जानेवाला) होनेसे इन्द्र (के ऐश्वर्य) को सम्यक प्रकारसे देखी हुई सूर्यको किरणें उसके बाद ही तुम्हें (नलको ) देखेगी ( अतः) तीक्षणता ( पक्षा०-चातुर्य) होनेसे उहापोह ( सदस्तुके ग्रहण तथा असदस्तुके त्याग ) में समर्थ वे सूर्य-किरणें तुम दोनों ( देवराज तथा निषधेश नल ) के सम्पूर्ण ऐश्वर्य (या शोभा) की चातुर्यका विस्तार करे। [जिस प्रकार लोकमें कोई चतुर व्यक्ति पहले किसी व्यक्तिका ऐश्वर्यादि देखकर सामान्यबुद्धि तथा फिर दूसरेका ऐश्वर्यादि देखकर विशेषबुद्धि होनेपर निर्णय करके दूसरेके ऐश्वर्यादिको श्रेष्ठ बतलाता है, उसी प्रकार ये सूर्य-किरणें भी प्रथम
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________________ 1258 नैषधमहाकाव्यम् / पूर्वदिशामें इन्द्रका ऐश्वर्य देखकर विशेष बुद्धिसे तुम्हारे (नलके) ऐश्वर्यको श्रेष्ठ समझें ] // 26 // अनतिशिथिले पुम्भावेन प्रगल्भबलाः खलु प्रसभमलयः पाथोजास्ये निविश्य निरित्वराः / किमपि मुखतः कृत्वाऽऽनीतं वितीर्य सरोजिनी. मधुरसमुषोयोगे जायां नवान्नमचीकरन् / / 27 / / अनतीति / पुम्भावेन पुंस्त्वेन हेतुना, प्रगल्भबलाः स्त्रीभ्योऽधिकशक्तिसम्पन्नाः, अलयः भृङ्गाः, अनतिशिथिले ईषद्विकसिते, पाथोजस्य पद्मस्य, आस्ये मुखे, उपरिः भागे इत्यर्थः / प्रसभं बलात् , निविश्य अधिष्ठाय, निरित्वराः निर्गच्छन्तः सन्तः, 'इणनशजिसर्तिभ्यः क्वरप्' इति क्वरप। मुखतः मुखे कृत्वा स्वेत्यर्थः। आनीतम् आहृतम् , सरोजिनीमधुरसं नलिन्याः मकरन्दद्रवम् , वितीर्य दत्वा, उषोयोगे प्रातः, जायां स्वकान्ताम् अलिनीम् , किमपि पूर्वमनास्वादात् अनिर्वचनीयसुस्वादु, नवान्नं नूतनं भोज्यम् , अचीकरन कारयामासुः, भोजयामासुः इत्यर्थः। करोते? चङयुपधाया हस्वः, 'हक्रोरन्यतरस्याम्' इति अणिकत : कर्मत्वम् / बली पुमान् स्थ्यन्तराधिकृतमपि मिष्टमन्नं बलात् आछिद्य स्वस्त्रिय प्रयच्छतीति भावः // 27 // पुरुषत्व होनेसे अतिशय सामर्थ्यवान् (या-धृष्ट ) तथा कुछ विकसित (पक्षास्वल्प विकसित होनेसे कठिन) कमलके मुख में ( पक्षा०-कमलके ऊपर ) बलात्कारसे बैठकर निकलते ( वहांसे उड़ते हुए भ्रमरोंने मुखमें लेकर लाये ) हुए कमलिनी-मकरन्दको देकर प्रातःकालमें स्त्रीके लिए अनिर्वचनीय आनन्दप्रद नवान्नभोजन कराया। [जिस प्रकार स्त्री होनेसे अल्पशक्ति होने के कारण अपने अधिक शक्तिवाले किसीसे कोई भोज्यपदार्थ लानेमें असमर्थ स्त्री के लिए पुरुष होनेसे अधिक शक्तिवाला उसका पति बलात्कारपूर्वक उक्त प्रबल स्त्रीसे भोज्य पदार्थ लाकर उसे सन्तुष्ट करता है, उसी प्रकार अल्पविकसित होनेसे कठिनतर कमलसे मकरन्द-पान करने में अल्पशक्ति स्त्रोके लिए अपने मुखमें उक्त मकरन्दको लाकर दिया, जिससे उस भ्रमरीको अनिर्वचनीय आनन्द हुआ। अथ च-पतिका उच्छिष्ट मकरन्दपानकर अनिर्वचनीय स्वाद होनेसे स्त्रीका आनन्दित होना स्वाभाविक ही है / अथ च-प्रातःकालमें शुभकारक नवान्नभोजन करनेसे भी आनन्दित होना उचित ही है / प्रातःकाल होनेसे कमल कुछ विकसित होने लगे तथा भ्रमर एकसे दूसरे कमलपर उड़-उड़कर जाने लगे] // 27 // मिहिरकिरणाभोगं मोक्तुं प्रवृत्ततया पुरः कलितचुलुकाऽऽपोशानस्य ग्रहार्थमियं किमु ? / . इति विकसितेनैकेन प्राग्दलेन सरोजिनी जनयति मतिं साक्षात्कर्तुर्जनस्य दिनोदये // 28 / / 1. '-मुषायोगे' इति पाठान्तरम्। 2. 'जाया' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1259 मिहिरेति / इयं किञ्चित् विकसिता, सरोजिनी पद्मिनी, दिनोदये अस्मिन् प्रातः. काले, प्राक दलान्तरविकाशात् पूर्वम् , विकसितेन प्रस्फुटितेन, संहतीभावात् पृथग्भूतेनेत्यर्थः / एकेन एकमात्रेण, दलेन पत्रेण हेतुना, मिहिरकिरणः सूर्यरश्मिरेव, आ सम्यक भुज्यते इति आभोगः भोज्यं तम् , भोक्तुं खादितुम् , प्रवृत्ततया कृतारम्भतया हेतुना, पुरः पूर्वम् , भोजनात् प्रागित्यर्थः / आपोशानस्य आपोशानं नाम भोजनादौ कत्र्तव्यम् 'अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा' इति समन्त्रकजलपानेन अन्नस्य अमृतास्तरणरूपं कार्य, समन्त्रकाचमनमित्यर्थः, तस्य / पृषोदरादित्वात् साधुः। ग्रहार्थम् आचरणार्थ, कलितः कृतः, चुलुकः गण्डूषकरणार्थ विश्लिष्टकनिष्ठाङ्गुलिका प्रसृत्यपराख्यः निकुब्जपाणिप्तलविशेषः यस्याः सा ताहशी, किमु ? जाता किम् ? इति उत्प्रेक्षा, इति एवम् , साक्षात्कः स्वस्या एव द्रष्टः, जनस्य लोकस्य, मतिं बुद्धिम् , जनयति उत्पादयति / आपाशानकार्यकारी हस्तस्य कनिष्ठाङ्गुलिं प्रसार्य अन्याङ्गुलीनां सङ्कोचं विधाय च जलं पिबति इति सम्प्रदायः। प्राग विकसितैकद. लस्य विश्लिष्टकनिष्ठाङ्गुलीतुल्यतया पद्मस्य च निकुब्जपाणितलतुल्यतया कलितचुलुकत्वं बोद्धव्यम् // 28 // सरोजिनी प्रातःकाल सर्वप्रथम खिले (खिलकर फैले ) हुए एक पल्लव ( पंखुड़ी) से दर्शकको ऐसी बुद्धि उत्पन्न करती है अर्थात् उसे देखकर देखनेवाला यह समझता है कि'सूर्य-किरण-मण्डलका उपभोग ( पक्षा०-भोजन ) करनेके लिए प्रवृत्त होनेसे यह ( सरोजिनी) पहले ( भोजन करनेसे पूर्व ) अपोशानके ग्रहण ( 'अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा' इस मन्त्रको पढ़कर आचमन ) करने के लिए उद्यत है क्या ? / [ जिस प्रकार भोजनके पूर्व 'कनिष्ठा अङ्गुलिको फैलाकर तथा शेष अङ्गुलियोंकी सङ्कुचितकर चुल्लूमें पानी लेकर अन्नको अमृतमय बनाने के लिए 'अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा' मन्त्रसे आचमन किया जाता है, उसी प्रकार प्रातःकाल सर्वप्रथम खिलनेसे फैले हुए एक पत्रवाली सरोजिनी सूर्यकिरणका भोग (पक्षा०-भोजन ) कर रही है। ऐसा दर्शकों के मनमें विचार उत्पन्न हो जाता है ] // 28 // तटतरुखगश्रेणीसाराविणैरिव साम्प्रतं सरसि विगलन्निद्रामुद्राऽजनिष्ट सरोजिनी / अधरसुधया मध्ये मध्ये वधूमुखलब्धया धयति मधुपः स्वादुङ्कारं मधूनि सरोरुहाम् // 29 // तटेति / साम्प्रतं सम्प्रति, सरसि सरोवरे, स्थितेति शेषः / सरोजिनी पद्मिनी, तरतरुषु तीरस्थितवृक्षसमूहेषु, याः खगश्रेण्याप क्षिसमूहाः, तासां सांराविणैः सम्यग रावैरिव, उच्चकलकलेरिवेत्यर्थः / इत्युत्प्रेक्षा / 'अभिविधौ भावे इनुण' इति स्वार्थे इनुः एप्रत्ययः / विगलनिद्रामुद्रा विगलन्ती अपगच्छन्ती, निद्रा स्वप्न इव, मुद्रा निमी. लनम् , सङ्कोच इत्यर्थः / यस्याः सा ताहशी, अजनिष्ट जाता। जनेः कर्तरि लुङ। 76 नै० उ०
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________________ 1260 नैषधमहाकाव्यम् / तथा मधुपः भ्रमरः, सरोरुहां कमलानाम् , मधूनि मकरन्दान् , मध्ये मध्ये अन्तराऽन्तरा, वधूमुखे स्वकान्तानने, लब्धया चुम्बनकाले प्राप्तया, अधरसुधया अध. रामृतेन, स्वादुङ्कारं स्वादूकृत्य, सुरसानि कृत्वेत्यर्थः। 'स्वादुमि णमुल' इति णमुलप्रत्ययः। मान्तनिर्देशादेव पूर्वपदस्य मकारान्तनिपातः। धयति पिबति / धेटो लट // 29 // __इस समय कमलिनीने तड़ागके तट पर स्थित वृक्षोंके पक्षियों के झुण्डके कलरवोंसे मानो निद्रामुद्राका त्याग कर दिय है अर्थात् अन्य मनुष्यादि जिस प्रकार पक्षी आदिके कलरवोंसे निद्राको त्याग देते हैं; उसी प्रकार कमलिनीने भी निद्राका त्याग कर दिया (विकसित हो गयी ) है और भ्रमर कमलों के परागोंको भ्रमरीके मुखसे प्राप्त अधरामृतसे बीच-बीचमें अधिक स्वादिष्ट करके पान कर रहा है अर्थात् भ्रमर को कमलमकरन्दका पान करते समय बीच-बीचमें भ्रमरीके अधरामृतका पान उसे अधिक स्वादुमान् हो रहा है। [ तड़ागके तीरस्थवृक्षोंपर निवास करनेवाले पक्षिगण कलरव करने लगे, कमल विकसित हो गये और उनपर भ्रमरी-सहित भ्रमर भ्रमण करने लगे; अत एव हे राजन् ? अब निद्रात्याग कीजिए ] // 29 // गतचरदिनस्यायुभ्रंशे दयोदयसकुचत्कमलमुकुलकोडे' नीडे प्रवेशमुपेयुषाम् / इह मधुलिहां भिन्नेष्वम्भोरुहेषु समायतां सह सहचरैरालोक्यन्तेऽधुना मधुपारणाः / / 30 / / गतेति / गतचरस्य गतपूर्वस्य / 'भूतपूर्वे चरट' प्रागतीतस्य इत्यर्थः। दिवस्य दिवसस्य, आयुर्धशे जीवितावसाने सति, सायंसमये इति भावः / दयोदयात् कृपाविर्भावात् इव, तदुरवस्थादर्शनेनेति भावः / सङ्कुचतां म्लानानाम् , रात्रिनिमीलनस्वभावात् मुद्रितीभवतामित्यर्थः। कमलमुकुलानां पद्मकोरकाणाम् , कोडे अभ्यन्तरे एव, नीडे कुलाये / 'कुलायो नीडमस्त्रियाम' इत्यमरः। प्रवेशम् अन्तर्गमनम् , उपेयुषां प्राप्नुवताम् , अन्तः प्रविशतामित्यर्थः, रात्री तत्रैव आबद्धानाम् अत एव कृतोपवासानामिति भावः / इह अधुना, प्रभाते इत्यर्थः। भिन्नेषु विकसितेषु, अम्भोरुहेषु प षु, समायतां निपतताम् , इतस्ततो भ्रमतामित्यर्थः / इणो लटः शत्रादेशः / मधुलिहां मधुपानाम् , अधुना इदानीम् , सहचरैः सुहृद्धिम. रान्तः सह, सम्प्रत्यागतैरिति भावः / मधुना मकरन्देन, पारणाः उपवासानन्तरं भोजनानि, आलोक्यन्ते दृश्यन्ते, जनेरिति शेषः // 30 // पूर्व दिनके अन्त ( कल सायङ्काल ) में मानो दयोदय होने से सङ्कुचित होते हुए मुकुल (कोरक ) के क्रोड़ (मध्य) रूपी नीड़ (घोसले-वासगृह) में भ्रमरोंका इस समय 1. 'कोडानीडे' इति 'कोडं नीडे' इति च पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1261 (प्रातःकालमें ) कमलोंके विकसित होनेपर आते हुए सहचरों ( अन्य भ्रमर-भ्रमरियों ) के साथमें की जाती हुई मकरन्दपारणाकी ( लोग) देख रहे हैं [कल सायङ्कालमें जब कमल मुकुलित होने लगा तब कुछ भ्रमर उसीके अन्दर बन्द रह गये और मकरन्द नहीं रहनेसे उन्होंने उपवास किया तथा बाहरी रहनेवाले उसके सहचर भी उसके वियोगके कारण उपवास किये, पुनः अब प्रातःकाल होनेपर कमल विकसित होने लगा तो वे बाहर रहनेवाले सहचर वहां पहुंचे तथा रात्रिमें भीतर बन्द रहे हुए भ्रमर मी बाहर निकले और सभी मिलकर मकरन्द-पान करने लगे; उसे देखनेवालोंको ऐसा ज्ञात होता है कि रात्रिमें कमलमें बन्द भ्रमर मानो कारागारमें बन्द हा गये ( या मर गये) थे, अतः उन्होंने तथा उनके बाहरी सहचरोंने रात्रिको उपवास किया और इस समय प्रातःकाल होनेपर कमलरूप कारागारसे निकले हुए भ्रमर अपने बाहरी सहचरों के साथ मकरन्द-पानरूप पारणा कर रहा है ] // 30 // तिमिरविरहात् पाण्डूयन्ते दिशः कृशतारकाः कमलहसितैः श्येनीवोन्नीयते सरसी न का ? / शरणमिलितध्वान्तध्वंसिप्रभाऽऽदरधारणाद् गगनशिखरं नीलत्येकं निजैरयशोभरैः॥३१॥ तिमिरेति / दिशः प्राच्यादयः, तिमिरेण अन्धकारेण सह, विरहात् विच्छेदात् , कृशाः क्षीणाः, सूर्यप्रभया औज्ज्वल्यहासादिति भावः / तारकाः नक्षत्राणि यासां ताः तादृश्यः सत्यः, पाण्डूयन्ते पाण्डुवर्णाः इव आचरन्ति, विरहिधर्मस्वादिति भावः / का सरसी तडागः, कमलानि विकसितपद्मानि एव, हसितानि हास्यानि तैः, कमलानां हसितैः विकसनरूपैः हास्यरिति वा, श्येनी इव श्वेतवर्णा इव, न उन्नीयते ? न दृश्यते ? अपि तु सर्वा एवं उन्नीयन्ते इत्यर्थः। प्रियसमागमेन सर्वा एव हास्यविकसितानना भवन्ति इति भावः। 'वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो नः' इति डीपप्रत्ययः, 'त'कारस्य च 'न'कारः। किन्तु एकं केवलम् , गगनशिखरम् आकाशो. परिभागः, तुङ्गनभोमण्डलमित्यर्थः / शरणमिलितानि रक्षितृत्वेन प्राप्तानि, शरगा. गतानीत्यर्थः। ध्वान्तानि अन्धकारान् , ध्वंसयन्ति विनाशयन्तीति तादृशीनाम् / 'स्त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पंवद्भावः / प्रभाणां सूर्यकिरणानाम् , आदरेण आग्रहाति. शयेन, धारणात्, भरणात् हेतोः, स्वस्मिन् स्थानदानाद्धेतोरित्यर्थः / निजैः स्वकीयैः, अयशोभरैः अकीर्तिबाहुल्यैरिव, नीलति नीलवर्ण भवति / 'नील वर्णे' इति धातोः मौवादिकाल्लट् / शरणागतहन्तुराश्रयदानात् हेतोनिजैनिन्दाभरैः कृष्णीभवति इत्यर्थः, शरणागतापालनकीर्तिलोपादिव स्वमेकं नीलमहश्यत इति निष्कर्षः / तारकाप्रमाक्षयान् गगनं स्वेन नीलरूपेण प्रकरं जातमिति भावः // 3 // दिशाएँ अन्धकार के वियोग ( पक्षा०-नाश) से पाण्डुवर्ण-सी (स्वच्छ प्रायः) हो रही
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________________ 1262 नैषधमहाकाव्यम् / हैं, कौन-सा तडाग कमलोंके (विकास रूपी) हासोंसे श्वेत वर्ण नहीं हो रहा है ?, (किन्तु ) शरणागत अन्धकार के नाशक (सूर्य) किरणोंको आदरपूर्वक ग्रहण करने ( अपने यहां आश्रय देने ) से केवल एक आकाशमण्डल (विशाल आकाश) मानो अपने अपकीर्तिसमूहसे नीला ( कृष्णवर्ण) हो रहा है / [अन्धकाररूप प्रियजनके विरहं होने पर दिशाओंका पाण्डु वर्ण होने, कमलरूपी प्रियजनका विकास (हास ) होने पर तड़ागोंका स्वच्छ होने और शरणागत अन्धकार के नाशक सूर्य किरणोंको आश्रय देनेवाले आकाशमण्डलका अपकीर्तिसे नीलवर्ण होने की उत्प्रेक्षा की गयी है। दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं, तड़ागोंमें कमल विकसित हो गये और आकाशमें सूर्य-किरणें फैल गयीं; अत एव अब प्रभातकाल जानकर आप शीघ्र निद्राभङ्ग करें ] // 31 // सरसिजवनान्युद्यत्पक्षार्यमाणि हसन्तु न ? क्षतरुचिसुहृच्चन्द्रं तन्द्रामुपैतु न कैरवम् ? / हिमगिरिषदायादश्रीप्रतीतमुदः स्मितं कुमुदविपिनस्याथो पाथोरुहैनिजनिद्रया / / 32 / / सरसिजेति / उद्यन् उदयं गच्छन् , पक्षः सहायभूतः, अर्यमा सूर्यः येषां ताह. शानि, सरसिजवनानि कमलकाननानि, न हसन्तु ? न विकसन्तु ? न हास्यं कुर्वन्तु ? इति च इति काकुः, हसन्त्वेव इत्यर्थः / सुहृदाम उदये सर्वे एव हसन्तीति लोके दर्शनादिति भावः / क्षतरुचिः शीर्णधुतिः, सुहृत् मित्रम् , चन्द्रः निशापतिः यस्य तत् तादृशम् , कैरवं कुमुदम , कर्त्त / तन्द्रां तन्द्रावत् निमीलनमित्यर्थः / प्रमीलां च, न उपैतु ? न प्राप्नोतु ? अत्रापि काकुः, उपेत्वेव इत्यर्थः / सुहृत्पीडायां सर्वे एवावसीदन्तीति लोके दर्शनादिति भावः। अथो किञ्च, पाथोरुहैः पद्मः / कतभिः हिमगिरिहषदायादया हिमगिरेः हिमालयस्य, दृषदां शिलानाम् , दाया दया अंशहरया, सहशया इत्यर्थः / श्रिया वैशघसम्पदा, प्रतीतमुदः प्रतीता प्रकाशं गता, मुत् हर्षः यस्य तादृशस्य प्रकटहर्षस्य, रात्रौ तथा हृष्टस्य इत्यर्थः / कुमुदविपि. नस्य कैरववनस्य सम्बन्धिन्या, निजनिद्रया स्वनिद्रया निमित्तेन, निशाकालिकस्व. कीयनिमीलनात्मकनिद्रायाः सम्प्रति कुमुदवनगामित्वेन हेतुनेत्यर्थः, स्मितं हसितम, विकसितञ्च, भावे निष्ठा / रात्री कुमुदवनस्य हृष्टत्वं कमलवनस्य च निद्रा आसीत् , इदानी पद्मानि रात्रिजां स्वनिद्रां कुमुदवने सञ्चार्य तस्य हृष्टत्वं गृहीत्वा हसन्तीवेत्युत्प्रेक्षा व्यक्षकाप्रयोगाद्ग्या / 'हिमगिरिहषायादधि प्रतीष्टमदः स्मितम्' इति पाठान्तरे-पाथोरुहैः निजनिद्रया स्वीयनिमीलनरूपनिदादानेन, हिमगिरिडषददायादा सहशी, श्रीः शोम यस्य तादृशम् , कुमुदवनस्य अदः इदम् , स्मितं नैशविकसनं हास्यञ्च, प्रतीष्टं वान्छितम् , प्रतिगृहीतमित्यर्थः // 32 // 1. '-दनि प्रतीतमदः' इति, -दनि प्रतीष्टमदः' इति च पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1263 सपक्ष ( सहायक ) सूर्य के उदयसे युक्त कमलवन विकसित नहीं हो। ( पक्षा०-नहीं हँसे ) ?, क्षीणकान्ति मित्र चन्द्रमावाला कुमुद तन्द्रा (निमीलन, पक्षा०- पङ्कोच-हर्षामाव ) को नहीं प्राप्त करे ?; अथवा-कमल-समूह हिमालय पर्वतकी चाहनों के समान (स्वच्छतम) कान्तिसे स्पष्ट हर्षवाले कुमुदवनकी निद्रासे हँसे हैं अर्थात् अपनी निद्राको कुमुदवनमें देकर उसके विकासरूपी हासको ग्रहण कर लिये हैं। ( पाठा०-कमलोंने हिमालयकी चट्टानों के समान स्वच्छतम शोभावाले इस स्मित ( ईषद्धास्य, पक्षा०-विकसन ) को अपनी निद्रा (निमीलन ) से बदल लिया ) / [ जिस प्रकार अपने पक्षवाले व्यक्ति के अभ्युदय होनेपर कोई व्यक्ति हँसता है, उसी प्रकार विकसित होने में कारणभूत स्वपक्ष सूर्यके उदय होनेसे कमल विकसित हो ( पक्षा०-हँस ) रहा है; जिस प्रकार अपने पक्षवालेका नाश या अवनति होनेसे कोई खिन्न होता है, उसी प्रकार विकास करनेवाले सुहृद् चन्द्रमाके क्षीणरुचि होकर अस्त ( अस्तोन्मुख ) होनेसे कुमुद निमीलित ( पक्षा-खिन्न ) हो रहा है / अथवा-जिस प्रकार लोकमें कोई व्यक्ति किसीकी वस्तुको लेकर अपनी वस्तु उसको देता है, जो कमल रात्रिमें निमीलित ( पक्षा०-निद्रित ) था, उसने रात्रिमें विकसित रहनेवाले ( पक्षा०स्मित करनेवाले ) कुमुदसे अदला-बदली कर ली है अर्थात् अपनी निद्रा ( पक्षा०निमीलन-विकासभाव ) को कुमुद के लिए देकर उसके स्मित (हास, पक्षा०-विकासमाव) को स्वयं ग्रहण कर लिया है ] // 32 // धयतु नलिने माध्वीकं वा न वाऽभिनवागतः कुमुदमकरन्दौघैः कुक्षिम्भरिभ्रमरोत्करः / इह तु लिहते रात्रीतष रथाङ्गविहङ्गमा मधु निजवधूवक्त्राम्भोजेऽधुनाऽधरनामकम् / / 33 // धयस्विति / कुमुदानां कैरवाणाम् , मकरन्दौघैः मधुसमूहै, कुक्षिम्भरिः उदरपूरकः / 'फलेग्रहिरात्मम्भरिश्च' इति चकारात् कुहिम्भरिः सिद्धः। नलिने पझे, अभिनवागतः सद्यः समागतः, भ्रमरोस्करः भृङ्गसङ्घः, माध्वीकं मकरन्दम, कमलमधु इत्यर्थः, धयतु पिबतु वा, न वा, धयतु इति शेषः। रात्री कुमुदमधुभिः उदरपूर पीतत्वात् तृप्तस्य अतिथेः पानाद्यभावे न काऽपि क्षतिः इति भावः / तु किन्तु, रथाङ्गविहङ्गमाः चक्रवाकाः, रात्रीतर्ष रात्रि व्याप्य तृषित्वा, प्रियाविरहात् तर्षणैः रात्रि नीत्वा इत्यर्थः / अस्यतितृषोः क्रियान्तरे कालेषु' इति णमुलप्रत्ययः / इह अस्मिन् , निजवधूवक्त्राम्भोजे स्वकान्तामुखकमले, अधुना सम्प्रति प्रभाते, अधरनामकम् ओष्ठसंज्ञकम् , मधु मकरन्दम् , लिहते आस्वादयन्ति / प्रभाते चक्रवाकदम्पतीनां परस्परमेलननियमादिति भावः / ततश्च भुक्तस्य भोजनापेक्षया अभुक्तस्य भोजनादेव सहृदयानां तृप्तिरित्याशयः // 33 // कुमुदोंके मकरन्द-समूहों अर्थात् बहुत मकरन्द (का रात्रिमें पान करने ) से परिपूर्ण
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________________ 1264 नैषधमहाकाव्यम् / उदरवाला, नवागत भ्रमर-समूह कमलमें मकरन्दका पान करे या न करे ( इसके विषयमें मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि भरपेट भोजन किये हुए अतिथिको पुनः भोजन नहीं करनेमें कोई विशेष आग्रह नहीं करता ), किन्तु (वियोग होनेपर प्रियाके अभावमें कुमुदमकरन्दको भी नहीं पीनेसे ) रात्रिका प्यासा हुआ चकवा पक्षी कमल-मकरन्दको छोड़कर इस समय ( प्रातःकालमें ) स्ववधू-मुखरूपी कमलमें अधरनामक मकरन्दका पान कर रहा है। [रात्रिमें वियोग होने पर प्रियाविरहित चकवेका सुलभ भी कुमुदमकरन्दका अकेला होनेसे दुःखी होने के कारण पान नहीं करनेसे तृषार्त रह जाना तथा इस समय प्रातःकालमें कमलों के विकसित होने पर भी उनके मकरन्दका पान करना छोड़कर प्रियाके अधररूप कमलके अमृतरूप मकरन्दका पान करना चकवेका प्रिया अतिशयित प्रेम तथा कमलकी श्रेष्ठताको सूचित करता है / कमल विकसित हो गये, उनपर कहीं-कहीं भ्रमर मधुपान करने लगे तथा चकवा-चकई परस्परमें संयुक्त हो गये, अतः प्रभातकाल जानकर आप निद्रा स्याग करें] // 33 // जगति मिथुन चक्रावेव स्मरागमपारगौ नवमिव मिथः सम्सुनाते वियुज्य वियुज्य यौ सततममृतादेवाहाराद् यदापदरोचकं तदमृतभुजां भर्ता शम्भुर्विषं बुभुजे विभुः // 34 / / जगतीति / जगति त्रिलोकमध्ये, मिथुने मिथुनेषु, स्त्रीपुरुषयुगलमध्ये इत्यर्थः। निर्धारणे सप्तमी / जातावेकवचनम् / चक्रौ चक्रवाको एव, चक्रवाकमिथुनमेवेत्यर्थः / स्मरागमपारगौ कामशास्त्रतत्वज्ञौ, कामोपभोगे चतुरी इत्यर्थः / अन्तात्यन्ताध्व-' इति डप्रत्ययः / कुतः ? यो चक्री, मिथः परस्परम् , वियुज्य वियुज्य पुनः पुनः विश्लिष्य विश्लिष्य, प्रतिरानं स्वेच्छयैवेति भावः / नवमिव प्रत्यहं नूतनमिव, इदं प्रथममिवेत्यर्थः / सम्भुमाते सुरतसम्भोगानन्दमनुभवतः / अन्यथा अरोचकभयात् इति भावः / अत्र दृष्टान्तमाह-यत् तस्मात् , अमृतभुजां सुधासेविनां देवानाम् , भर्ता अधीश्वरः, एतेन सर्वदा अमृतपानं सम्भवतीति बोद्धव्यम् / विभुः प्रतीकारसमर्थः, एतेन विषपानजानिष्टप्रतीकारसामर्थ्य सूच्यते / शम्भुः शिवः सततम् अनारतम् , अमृतात् पीयूषात् , माहारात् , अशनात् , प्रात्यहिकाहार्यभूतादमृतादित्यर्थः / न रोचते इति अरोचकं तदाख्यं रोगम् आपत् अलभत, तत् तस्मात् एव, विषंगरलम् , बुभुजे पपौ। नित्यं मधुरादिसेवनेन जाताया अरुचेः कटुतिक्तादि. विपरीतरससेवनेन निवृत्तिदर्शनादिति भावः // 34 // ___ संसारमें मिथुन ( दम्पतियों ) में चकवा-चकई ही कामशास्त्रके पारगामी हैं अथवाकामशास्त्र के पारगामी चकवा चकई ही संसारमें मिथुन उत्तम दम्पति हैं ) जो ( चकवाचकई ) परस्पर में वियुक्त ( पृथक्-पृथक् ) होकर नवीन-नवीन-सा होकर सम्भोग करते
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1965 है। जैसे अमृतभोजियों ( देवों ) के स्वामी सर्वसमर्थ शिवजी निरन्तर अमृतके ही भोजन करनेसे जब अरोचक रोगको प्राप्त कर लिये, तब ( उस रोगको दूर करने के लिए ) विषका मोजन किया। [ लोकमें भी जब किसीको उत्तमसे उत्तम भी एक ही पदार्थको खाते-खाते अरुचि हो जाती है, तब वह व्यक्ति उससे हीन भी दूसरे पदार्थको खाकर उस अरोचक रोगको दूर करता है / एक वस्तुके ही नित्य सम्भोगसे अरुचि होनेका दृष्टान्त यह है कि शिवजी अमृतमोजी देवों के स्वामी हैं, और उन्हें सर्वदा अमृतभोजन करते रहना अत्यन्त आसान था, अत एव नित्य अमृतका ही भोजन करते रहनेसे जब उन्हें अरोचक रोग हो गया तब वे उसकी निवृत्ति के लिए अमृतविरुद्ध विषका भोजन किये ऐसी हम उत्प्रेक्षा करते हैं प्रकृतमें नित्य सम्भोग करनेसे अरुचि होनेके भयसे चकवा-चकई रात्रिमें वियुक्त होकर प्रतिदिन नवीन-सा सम्भोग करनेसे कामशास्त्रके पारङ्गामी है ऐसा हमलोग समझते हैं ] // 34 // बिशति युवतित्यागे रात्रीमुचं मिहिकारुचं दिनमणिमणिं तापे चित्तानिजाच्च यियासति / विरहतरलज्जिह्वा वह्वाह्वयन्त्यतिविह्वला मिह सहचरी नामग्राहं रथाङ्गविहङ्गमाः // 35 / / विशतीति / इह प्रातः समये, रथाङ्गविहङ्गमाः पुंश्चक्रवाकाः, युवतित्यागे निज. तरुणीकान्तावियोगे, चक्रवाककान्ताविच्छेदतुल्यविच्छेदे इत्यर्थः / दिनोदयेन रात्रेर. दर्शनादिति भावः / रात्रीमुचम् अधुनैव रात्रीरूपपत्नीवियोगिनम् / मुचेः किए। रात्रीति कृदिकारादीकारः / मिहिकारुचं मिहिकायाः हिमस्य, रुक् इव रुक् प्रभा यस्य तं तादृशम् , विरहात् हिमवत् शुभ्ररुचि चन्द्रमित्यर्थः। विशति आश्रयति सति, चक्रवाकविरहवत् शशिनोऽपिरात्रिविरहे समुपस्थिते सतीत्यर्थः / तापे सन्तापे च, विरहजनितमनस्तापे औष्ण्ये च इत्यर्थः / निजात् स्वात् , चक्रवाकीयादित्यर्थः। चित्तात् मनसः / अपादानात् / दिनमणिमणि सूर्यकान्तमणिम् , यियासति यातु. मिच्छति सति, सन्तापे चक्रवाकचित्तात् सूर्यकान्तं गन्तुमिच्छति सति इत्यर्थः / सूर्यकरसम्पर्केण सूर्यकान्तमणेः ज्वलनस्य स्वाभाविकत्वादिति भावः।यातेः सनन्ता. लटः शत्रादेशः / विरहेण रात्री विच्छेदेन, तरलन्त्यः तरलायमानाः, बहुक्षणादर्शनात् आह्वानार्थं चलायमाना इत्यर्थः / आचारार्थे क्विबन्ताल्लटः शत्रादेशः / जिह्वाः रसना येषां ते तादृशाः सन्तः, अतिविह्वलां दीर्घकालादर्शनात् अतिविवशाम् , सहचरी प्रियां चक्रवाकीम् , नामग्राहं नाम गृहीत्वा ।'नाम्न्यादिशिग्रहोः' इति णमुलप्रत्ययः। बहु वारंवारम् , आह्वयन्ति आकारयन्ति / दिनकरः समुदितः, अतः सत्वरमुत्तिष्ठ इति भावः॥ 35 // चक्रवाकनिष्ठ युवतित्यागके (स्त्रीस्थानीया ) रात्रिका त्याग करनेवाले ( तथा विरहसे
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________________ 1266 नैषधमहाकाव्यम् / हिमतुल्य पाण्डुवर्ण) चन्द्रमामें प्रविष्ट होते रहनेपर अर्थात् चकवाके समान चन्द्रमाको भी पत्नीविरह होनेपर तथा ताप (विरहजन्य सन्ताप, पक्षा०-उष्णता ) के अपने ( चक्रवाकके ) चितसे सूर्यकान्तमणिमे गमन करने का इच्छुक होनेपर अर्थात् सूर्य-किरण-सतर्गसे सूर्यकान्त. मणिके प्रज्वलित होनेसे चक्रवाकके चित्तसे उसके रात्रि-विरहजन्य सन्तापको सूर्यकान्तमणिमें जानेकी इच्छा करते रहनेपर विरहसे अतिशय चञ्चल जिह्वावाले चक्रवाक अत्यन्त व्याकुल सहचरी (चकई ) को नाम लेकर बारबार बुला रहे हैं अर्थात् रात्रिको पत्नीविरहसे व्याकुलचित्त चकवा पतिवियोगसे हा व्याकुलित चकईको 'वह जीवित है या नहीं ?' ऐसी आशङ्काकर बारबार उसका नाम लेकर बुला रहे हैं // 35 // स्वमुकुलमयैर्ने त्रैरन्धम्भविष्णुतया जनः किमु कुमुदिनीं दुर्व्याचष्टेरवेरनवेक्षिकाम् ? | लिखितपठिता राज्ञो दाराः कविप्रतिभासु ये' शृणुत शृणुतासूर्यम्पश्या न सा किल भाविनी ? / / 36 / / . स्वेति / जनः लोकः, स्वमुकुलमयैः निजकोरकरूपैः, निमीलितरित्यर्थः। नेत्रैः नयनः, अन्धभविष्णुतया अन्धीभूततया, अनन्धाया अपि अन्धाया भूततया हेतुनेत्यर्थः / अविचारादिति भावः / 'कर्तरि भुवः खिष्णुच' इति अभूततद्भावे कर्तरि खिष्णुचप्रत्ययः, 'अरुद्विषत्-' इत्यादिना मुमागमः। रवेः सूर्यस्य, अनवेक्षिकाम् अनवेक्षणीम् , सूर्यमपश्यन्तीमित्यर्थः / ण्वुल / 'प्रत्ययस्थात्-' इति ण्वुलि कात्पूर्व स्येकारः / कुमुदिनी कैरविणीम् , राजपत्नीमिति भावः। किमु किमिति, दुर्व्याचष्टे? दुर्वदति ? कुमुदिनी जगत्पावनम् अवश्यदर्शनीयं सूर्यमपि न पश्यति, अहो ! मह दनुचितमिदमाचरणम् अस्याः इत्यादिरूपेण वृथा अपवदतीत्यर्थः / ननु 'लोकेऽस्मिन् मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणो गोहुताशनः / हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाs. ष्टमः // एतानि सततं पश्यन्नमस्येदर्चयेत्तु यः। प्रदक्षिणञ्च कुर्वीत तस्य चायन हीयते // ' इति शास्त्रात् सूर्यावेक्षणस्य विहितत्वेन तदनाचरन्ती कथं न दुर्वाच्या ? इत्याशंसायामाह-कविप्रतिभासु कवीनां विदुषाम् , प्रतिभासु प्रज्ञासु, प्रतिभोद्भासितकाव्येषु इत्यर्थः / ये कुमुदिनीत्याख्यया प्रसिद्धाः, राज्ञः चन्द्रस्य नृपस्य च / 'राजा प्रभौ नृपे चन्द्रे' इति विश्वः / दाराः पत्नी राजदाराः, लिखितपठिताः कवि. भिर्लिपीकृताः अध्येतृभिश्च अधीताः। लिखिताश्च ते पठिताश्व इति विशेषणसमासः। कवयो यां राजपत्नी वदन्ति, तच्छिष्याश्च तथैव जानन्तीत्यर्थः। सा राजदारत्वेन वर्णिता कुमुदिनी, सूर्य न पश्यतीति असूर्यम्पश्या सूर्यादर्शिनी। 'असूर्यललाटयो. ईशितपोः' इति खश्प्रत्ययः / 'पाघ्रा-' इत्यादिना हशेः पश्यादेशः। असूर्य इति चासमर्थसमासोऽयं, हशिना नञः सम्बन्धस्वात् / 'यदा तु सूर्याभावदर्शनमात्रं 1. 'येति पाठः समीचीनः' इति 'प्रकाश' कारः /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1267 सूर्येतरचन्द्रादेर्दर्शनं वा विवक्षितं तदा खश न भवति अनभिधानात्' इति न्यास. कारादयः / अस्मादेव ज्ञापकात् क्रियाऽन्वयिनोऽपि नत्र उत्तरपदेन समासः / न भाविनी किल ? न भविष्यति किम् ? न भविष्यत्येवेत्यर्थ। 'भविष्यति गम्यादयः' इति साधुः / शृणुत शृणुत भोः दुर्वाचो जनाः ! भाकर्णयत आकर्णयत / आक्रोशे द्विरुक्तिः / यदि असूर्यम्पश्या राजदारा इति राजनीत्यनुसारेण युक्तं स्यात् , तदा चन्द्रस्य राजापरनामकत्वात् चन्द्रदर्शनेनैव विकसनस्वभावायाः कुमुदिन्याः चन्द्रपत्नीत्वेन कविभिः रूपणात् कुमुदिन्या अपि राजदारत्वं सिद्धमेव, एवञ्च राजदारस्वात् तस्याः सूर्यानवेक्षणस्य युक्तत्वेन सूर्यादर्शनेन यत् जनाः तां निन्दन्ति तद. सङ्गतमेवेति निष्कर्षः / परमार्थतस्तु कैमुत्यन्यायेन पुरुषान्तरदर्शननिषेधपरमेतत् . न सूर्यदर्शननिषेधपरम् इति द्रष्टव्यम् , अत एव काशिका 'गुप्तिपरञ्चैतत्' इति // 36 // अपने कोरकमय ( बन्द होनेसे निमीलित ) नेत्रोंसे अन्धी होनेके कारण लोग (अथवा-स्वयमेव अन्धा होने के कारण लोग अपने कोरकमय नेत्रोंसे ) 'यह कुमुदिनी सूर्यको नहीं देखती है' ऐ सा बदनाम क्यों करते हैं ? अर्थात् प्रातः सूर्य-दर्शन करना मङ्गलकारक होनेसे कुमुदिनीकी निमिलित हो जानेके कारण सूर्यदर्शन नहीं करनेकी निन्दा करना उचित नहीं हैं, क्योंकि (हे वैसी निन्दा करनेवाले लोगो !) सुनिये, सुनिये, (पाणिनि आदि ) कवियों ( विद्वानोंकी प्रतिमायें ) लिखी तथा (छात्र आदिके द्वारा वैसी ही ) पढ़ी गयी राजा ( नृपति, पक्षा०-चन्द्र) की स्रियां असूर्यम्पश्या (सूर्यका दर्शन नहीं करनेवाली ) हैं, (किन्तु ) यह कुमुदिनी वह ( सूर्य-दर्शन नही करनेवाली ) नहीं है। [ जो राजपत्नियां हैं वे सुरक्षिततम महलों में रहने तथा सुकुमारतम होनेसे सूर्यदर्शन नहीं कर पातीं और उनका ऐसा होने में तात्पर्य मानकर ही पाणिनि आदि विद्वानोंने 'असूर्यललाटयोद्देशितपोः (पा. स. 3 / 2 / 36 )' का उदाहरण 'असूर्यम्पश्या राजदाराः' अर्थात् 'सूर्यको नहीं देखनेवाली राजपत्नियां' दिया है और शिष्यादिने वैसा ही परम्परासे पढ़ा है; और उस रहस्यके अनभिज्ञ लोग उस कुमुदिनी एवं राजपत्नियोंकी वैसी निन्दा करते है / जब अन्य राजपत्नियों के समान कुमुदिनी भी राजपत्नी (चन्द्रकी स्त्री) है तब उसका भी सूर्य-दर्शन नहीं करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। वास्तविकमें तो परपुरुषदर्शन-परक 'असूर्यम्पश्या राजदाराः' उदाहरण है, न कि 'सूर्य-दर्शन-निषेधपरक' इसीसे. 'गुप्तिपरञ्चैतत्' ( यह अतिशय सुरक्षितत्वपरक है) यह काशिकोक्ति भी सङ्गत होती है ] // 36 // चुलुकिततमःसिन्धोभृङ्गः करादिव शुभ्यते नभसि बिसिनीबन्धो रन्ध्रच्युतैरुदबिन्दुभिः / शतदलमधुस्रोतःकच्छद्वयीपरिरम्भणादनुपदमदःपङ्काशङ्काममी मम तन्वते // 37 //
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________________ 1268 नैषधमहाकाव्यम् / चुलुकितेति / नभसि आकाशे, भृङ्गः उड्डीयमानभ्रमरैः, चुलुकितः चुलुकीकृतः, पानार्थं निकुञ्चपाणी गृहीत इत्यर्थः / तमःसिन्धुः अन्धकारसागरः येन तथोक्तस्य, बिसिनीबन्धोः पद्मिनीसखस्य सूर्यस्य, करात् अंशोः हस्ताच, रन्ध्रच्युतः अङ्गुल्य. न्तरालगलितैः उदबिन्दुभिः इव तमःसिन्धोः जलकणैरिव, शुभ्यते दीप्यते, प्रतीयते इत्यर्थः, इत्युत्प्रेना। शुभेर्भावे लट / भृङ्गतमसोः तुल्यवर्णस्वात् तथा भृङ्गाणां कृष्ण. वर्णस्थूलजलबिन्दुवत् प्रतोयमानत्वाच्चेति भावः / किञ्च, अमी भृङ्गाः, अनुपदम् अनुक्षणम् , उक्तरूपेण प्रतीयमानानन्तरमेवेत्यर्थः / शतदलमधुस्रोतसः कमलमकर• न्दप्रवाहस्य; कच्छद्वयीपरिरम्भणात् उभयपार्श्वस्थजलप्रायभागसंश्लेषात् , मधुरप्र. वाहस्य उभयतटोपरि उपवेशनातोरित्यर्थः / अमुष्य मधुस्रोतसः, पकाशङ्कां कर्दमभ्रान्तिम् , मम वैतालिकस्य, तन्वते विस्तारयन्ति, उत्पादयन्तीत्यर्थः। पङ्क. भृङ्गयोः समानवर्णत्वादिति भावः // 37 // चुल्लूमें लेकर पीये गये अन्धकार-समुद्रवाले सूर्य-करों ( सूर्यको किरणों, पक्षाहाथों ) से अङ्गुलियोंके छिद्रोंसे गिरे हुए जल-बिन्दुके समान आकाश में ( उड़ते हुए ) भ्रमर शोम रहे हैं और ये (भ्रमर) कमलोंके मकरन्द-प्रवाहके दोनों किनारोंके आलिङ्गन ( आर्द्र) करनेसे इन मकरन्दप्रवाहोंके कीचड़की शङ्का प्रत्येक क्षणमें हमारे (वैतालिकोंके) मनमें उत्पन्न करते हैं। [चुल्लूमें जलको लेकर पीते समय ( अङ्गुलियों के छिद्रोंसे गिरे हुए जलकी बूंदोंके समान अन्धकार-समूहको चुल्लूमें लेकर पान किये हुए सूर्यके किरणछिद्रोंसे गिरे हुए अन्धकाररूप समुद्रकी बूंदों के समान ये आकाशमें उड़ते हुए भ्रमर शोभते हैं तथा कमलोंके मकरन्द-प्रवाहसे दोनों पक्षों के आर्द्र होनेसे हमलोगोंको ऐसा ज्ञात होता है कि ये भ्रमर मकरन्द-प्रवाहके दोनों तटोंके कीचड़ हैं। जलपान करते समय अङ्गुलिछिद्रोंसे बिन्दुओंका गिरना तथा प्रवाहके उभयतटके मध्यमें कीचड़ होना उचित ही है। अन्धकार नष्ट हो गया, कमलों के मकरन्दका पान करनेके लिए भ्रमर आकाशमें उड़ने लगे, अत एव प्रातःकाल जानकर हे राजन् नल ! निद्रात्याग कीजिये ] // 37 // घुमृणसुमनःश्रेणिश्रीणामनादरिभिः सरःपरिसरचरैर्भासां पत्युः कुमारतरैः करैः / अजनि जलजामोदानन्दोत्पतिष्णुमधुव्रता वलिशबलनाद् गुञ्जापुञ्जश्रियं गृहयालुभिः / / 30 // घुसणेति / घुसणसुमनश्रेणिश्रीणां कुङ्कुमकुसुमावलिशोभानाम् / 'वाऽऽमि' इति नदीत्वपक्ष नुडागमः। 'कुङ्कुम घुमृणं वर्णम्' इति हलायुधः। अनादरिभिः अवज्ञाकारिभिः, कुङ्कुमवर्णादप्यधिकारुणवर्णत्वादिति भावः / सरःपरिसरचरैः सरोवरप्रान्तवर्तिभिः, कुमारतरैः नवोदितत्वादतिबालः, भासां पत्युः अर्कस्य, करैः। कत्तभिः जलजामोदेन कमलपरिमलेन, यः आनन्दः हर्षः, तस्मात् उत्पतिष्णूनाम
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1266 उत्पतनशीलानाम् , उड्डीयमानानामित्यर्थः / 'अलङकृज-' इत्यादिना इष्णुच / मधुव्रतानां भृङ्गाणाम् , आवल्याः पङ्क्तेः , शबलनात् चित्रणात् , निजवर्णन मिश्री. करणात् हेतोरित्यर्थः / गुञ्जापुञ्जस्य, 'कुंच' 'रत्ती' इति ख्यातस्य कृष्णलासमूहस्य / 'गुञ्जा तु कृष्णला' इत्यमरः। श्रियम् इव श्रियं शोभाम् , इति निदर्शनाभेदः, गुञ्जाया उपरिभागस्य कृष्णवर्णत्वात् निम्न भागस्य च रक्तवर्णत्वादिति भावः / 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / गृहयालुभिः ग्राहकः, प्रहणशीलैरित्यर्थः / 'गृहि' इत्य. दन्ताञ्चौरादिकात् णिच् 'स्पृहिगृहि-इत्यादिना आलुच् / अजनि जातम् / भावे लुङ् / अलिकुलयोगेन सूर्यांशुकिशोरकास्तद्वत् बभुः इत्यर्थः / गुञ्जाबीजानां नीलमुखत्वात् अधो रक्तवर्णत्वाच्च उपरि सञ्चरता कृष्णवर्णानामलिकुलानां सम्पर्कण अधोवर्तिनां बालसूर्यकिरणानामारक्तवर्णानां गुञ्जासादृश्यमिति भावः // 38 // कुङ्कुम-पुष्प-समूहकी शोभाका अनादर करनेवाले अर्थात् उससे भी अधिक लाल, तडागों के चारों भागमें फैलते हुए, अतिशय बाल अर्थात् अभिनव प्रमापति ( सयं) की किरणें कमलोंकी सुगन्धसे आनन्दित हो ऊपर उड़नेवाले भ्रमर-समूहसे मिश्रित होने के कारण धुंधची ( करेजनी ) की राशिकी शोभा ग्रहण कर रहे हैं, अर्थात् अभिनवतम होनेसे अत्यधिक लाल-लाल सूर्यकिरणें उड़ते हुए भ्रमरोंसे मिलकर धुंधचीकी राशिके समान शोभती हैं / [ अत्यन्त छोटे बालकका सुमनसों ( विद्वानों ) का अनादर करना तथा रक्तवर्ण होना और धुंधचोके समूह ( माला ) से शोभित होना उचित ही है ] // 38 // रचयति रुचिः शोणीमेतां कुमारितरा रवेयदलिपटली नीलीकत्तुं व्यवस्यति पातुका / अजनि सरसी कल्माषी तद्धृवं धवलस्फुट कमलकलिकाषण्डैः पाण्डूकृतोदरमण्डला / / 36 / / रचयतीति / यत् यस्मात् , अतिशयेन कुमारी कुमारितरा अतिशयेन बाला, नवप्रकाशिता इत्यर्थः। 'घरूप-' इत्यादिना ड्यो हस्वः / रवेः सूर्यस्य, रुचिः प्रभा, एतां सरसीम् , शोणी शोणवर्णाम्, अरुणवर्णामित्यर्थः, 'शोणात् प्राचाम्' इति विकल्पात् ङीष / रचयति करोति, निजारुण्यस्पर्शनेनेति भावः / तथा पातुका पतयालुः, सरस्या एवोपरि उत्पतनशीला इत्यर्थः / 'लषपत-' इत्यादिना उकज / अलीनां भ्रमराणाम् , पटली मण्डली च, नीलीकत स्वकान्तिसम्पर्केण कृष्णवर्णीकत्तम् / अभूततद्भाचे विः / सरसीमेवेति भावः / व्यवस्थति उद्यङ्क्ते इच्छतीत्यर्थः / तत् तस्मात् , सरसी दीर्घिका, धवलः शुभैः, स्फुटद्भिः विक. सद्भिश्च, कमलकलिकानां पद्ममुकुलानाम् , षण्डैः कदम्बैः, समूहैरित्यर्थः / 'कदम्बे षण्डमस्त्रियाम्' इत्यमरः / पाण्डुकृतं धवलीकृतम् , अभूततद्भावे चिः / उदरमण्डलं
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________________ 1270 नैषधमहाकाव्यम् / मध्यभागः यस्याः सा तादृशी सती, कल्माषी चित्रवर्णा, विविधवणेत्यर्थः / गौरादिस्वात् ङीष / अनि जाता / 'दीपजन-' इत्यादिना कर्तरि लुङ् चिण / ध्रवं निश्चितम् , इत्युत्प्रेक्षायाम् / अत्र सरस्याः स्वगुणत्यागेन रविकिरणादिगुणस्वीकारात्त द्गुणालङ्कारः, 'तद्गुणः स्वगुणत्यागादन्योत्कृष्टगुणग्रहः' इति लक्षणात / तत्रैकैकगुणसङ्क्रान्तिपरिचयात् शोणाद्यनेकगुणसङ्क्रमद्वारा कल्माषस्वीकारोत्प्रेक्षणात्तद्गुणोत्प्रेक्षयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः॥ 39 // जिस कारणसे अतिशय अभिनव सूर्य-किरण इसे (इस तडागको ) लाल कर रही है, जिम कारणसे (मकरन्द-पान करने के लिए इस तडागके ऊपर गिरता अर्थात् आता हुआ भ्रमर-समूह इस तड़ागको नीला करना चाहता है, मानी इस कारणसे ) स्वच्छ खिलते हुए कमल-कोरक-समूहोंसे मध्यभागमें स्वच्छ वर्णवाला यह तडाग कर्बुरित हो गया है ( अथवा-....."चाहता है और जिस कारणसे स्वच्छ विकसित होते हुए कमल-कोरकसमूहोंसे यह तडाग मध्यभागमें शुभ्रवर्णवाला हो गया है; मानो इस कारणसे ही यह तडाग कर्बुरित हो गया है ) // 39 // कमलकुशलाधाने भानोरहो ! पुरुषव्रतं यदुपकुरुते नेत्राणि श्रीगृहत्त्वविवक्षुभिः / कविभिरुपमादानादम्भोजतां गमितान्यसा वपि यदतथाभावान्मुश्चत्युलूकविलोचने // 40 // कमलेति / कमलानां पद्मानाम् , प्रकृतानामुपमितानां वा इति भावः / कुश. लाधाने क्षेमविधाने विकासजनने इति भावः / भानोः सूर्यस्य, पुरुषव्रतं पुरुषस्य पुरुषाभिमानिनः, व्रतं नियमः, दृढाध्यवसाय इत्यर्थः, / पौरुषमिति यावत् / अहो ! चित्रम् ! अथवा-अहोपुरुषः पुरुषाभिमानवान् / अहोपुरुष इति मयूरव्यंसकादिषु कैयटः / तस्य व्रतं दृढनियम इत्यर्थः / कुतः ? यत् यस्मात् असौ भानुः, श्रीगृ. हवं शोभाश्रयत्वम् , नेत्राणां सौन्दर्यवर्णने उपमानत्वमित्यर्थः / विवनुभिः बक्तुमि. च्छुभिः / 'द्वितीया-' इति योगविभागात् द्वितीयासमासः / कविभिः काव्यकत्तभिः वाल्मीकादिभिः, उपमादानात् नेत्राणां सादृश्यत्वेन वर्णनामात्रात् , अम्भोजतां गमितानि कमलत्वेन रूपितानि, नेत्राणि नयनानि अपि, सौन्दर्यातिशय्यख्यापनाय कमलतुल्यतया वर्णितानि जननयनान्यपीत्यर्थः, उपकुरुते उन्मीलनेन उपकृत्तानि करोति, विकासयतीत्यर्थः / आलोकसहकारादेव लोकलोचनानां विषयेषु प्रवृत्तेरिति भावः / सूर्योदये सर्व एव प्राणिनो निद्रां परिहृत्य नयनोन्मीलनकरणात् भानोः उपमितकमलानां कुशलोधायकत्वम् , प्रकृतानाञ्च विकाससम्पादनेन कुशलाधायकस्वमिति बोद्धव्यम् / यत् अपि यस्माच, अतथाभावात् औपमानिकाम्भोजत्वस्यापि १.'-मानादथ-' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1271 अभावादित्यर्थः / नार्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः। उलूकस्य पेचकस्य, विलोचने नयने / गोलाकारे क्षुद्रे च इति भावः / मुञ्चति परिहरति, न उन्मीलनेन उपकरोतीत्यर्थः / सूर्यकरासहत्वेन निमीलिताक्षत्वादिति बोध्यम् / अन्वयव्यतिरे. काभ्याम् अम्भोजसदृशस्य लोकलोचनस्य विकासेन कुशलाधायकत्वात् तदसशस्य उलुकलोचनस्य च अविकाशेन कुशलानाधायकत्वात् सहस्रकरस्य देवस्य अम्भोजते. मङ्करवव्रतं किमु वाच्यम् ? इति निष्कर्षः। प्रातः अम्भोजवल्लोकलोचनाम्भोजान्यपि विकासयामास इति भावः // 40 // कमलोंके मङ्गल करने में सूर्यका पुरुषव्रत ( अङ्गीकृतका सम्यक प्रकारसे परिपालन करना ) आश्चर्यकारक है, क्योंकि यह (सूर्य) श्री (शोमा या लक्ष्मी) के निवासस्थानको कहने के इच्छुक ( व्यास, वाल्मीकि, कालिदास आदि ) कवियों के द्वारा उपमा देनेसे अर्थात् मनुष्यों के नेत्रोंको भी कमलतुल्य कइनेसे कमलत्वको प्राप्त ( मनुष्यों के ) नेत्रको भो विकसित ( पक्षा०-वस्तुदर्शन समर्थ ) करता है और अन्यथाभाव होनेसे अर्थात् कवियों के द्वारा कमलकी उपमा नहीं देनेसे उल्लूके नेत्रद्वयको छोड़ देता ( विकसित अथच-वस्तुदर्शन-समर्थ नहीं करता) है। [सूर्य तडागस्थ मुख्य कमलको विकसित करता ही है, किन्तु कवियों ने मनुष्यों के जिन नेत्रोंको कमलके साथ उपमा दी है, उन नेत्रोंको भी ( प्रातःकाल में सूर्योदय होनेसे मनुष्यों के जगने (नेत्रखोलने ) तथा वस्तुओंको देखने के कारण ) विकसित करता है और श्रीहीन जिन उलूक-नेत्रोंको कवियोंने कमलके साथ उपमा नहीं दी है, उन्हें (दिनमें नहीं देख सकनेके कारण उल्लूके नेत्र को) नही विकसित करता अतः सूर्यका यह पुरुषव्रत ( कवियोंसे उपमित होने मात्रसे मुख्य कमलके साथ ही मानव. नेत्रकमलको भी विकसित करनेका तथा कवियोंसे उपमित नहीं होनेमात्रसे उल्लूकनेत्रको अविकसित ही छोड़ देनेका अटल नियम ) आश्चर्यजनक है ] // 40 // यदतिमहतीभक्तिर्भानौ तदेनमुदित्वरं त्वरितमुपतिष्ठस्वाध्वन्य ! 'त्वमध्वरपद्धतेः / इह हि समये मन्देहेषु व्रजन्त्युदवज्रताम् अभिरविमुपस्थानोत्क्षिप्ता जलाञ्जलयः किल // 41 // यदिति / अध्वरस्य यज्ञस्य, ' पद्धतेः पथः, अध्यन्य ! नित्यपान्थ ! अध्वानमलं गच्छतीति अध्वन्यः, 'अध्वनो यस्खौ' इति यत्प्रत्ययः। 'ये चाभावकर्मणोः' इति प्रकृतिभावः। हे नित्ययज्ञानुष्ठाननिरत महाराज ! यत् यस्मात् , त्वं भवान् , भानौ सूर्य, अतिमहती अत्युत्तमा,भक्तिः अनुरागविशेषः यस्य सः तादृशः, असीति शेषः। भक्तिशब्दस्य प्रियादिषु पाठात् न पुंवद्भावः / तत् तस्मात् , उदित्वरम् उद्यन्तम् / 'इण्नश-'इत्यादिना / क्वरप् / एनं भानुम्, त्वरितं शीघ्रम् , उपतिष्ठस्व उपास्स्व। 2. 'स्वाध्वान्यम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1272 नैषधमहाकाव्यम् / 'उपादेवपूजा-'इत्यादिना देवपूजायामात्मनेपदम् / कुतः ? हि यस्मात् कारणात् , इह अस्मिन्, समये उदयकाले, रविम् अर्कम्,अभि लक्षयित्वा,रविमुद्दिश्य इत्यर्थः / 'अभिरभागे' इति लक्षणार्थे कर्मप्रवचनीयत्वात्तद्योगे द्वितीया। उपस्थाने उपासना. याम , उत्क्षिप्ताः ऊर्ध्व निक्षिप्ताः 'आपः ऊवं विक्षिपन्ति' इति श्रुतेः / जलाञ्जलयः उदकाललयः, मन्देहेषु मन्देहाख्येषु राक्षसेषु, उदवज्रतां जलमयवज्रायुधत्वम् / 'मन्थोदन-' इत्यादिनोदादेशः। व्रजन्ति गच्छन्ति, किल इत्यागमे / अत्र अतिः 'तदुह वा एते ब्रह्मवादिनः पूर्वाभिमुखाः, सन्ध्यायां गायत्र्याऽभिमन्त्रिता आप उद्ध्वं विक्षिपन्ति, ता एता आपो वज्रीभूत्वा तानि रक्षांसि सन्देहारुणे द्वीपे प्रक्षि. पन्ति' इति // 41 // ____ जिस कारणसे ( अथवा-यदि ) तुम सूर्यमें अत्यधिक भक्तिवाले हो, उस कारणले ( अथवा-तो ) हे यशके पथिक अर्थात् महायाज्ञिक (नित्य यज्ञ करनेवाले नल ) ! उदय होते हुए ( पाठा०-यज्ञमार्गके सदा पथिक ) इस (सूर्य) का शीघ्र उपस्थान ( पूजन ) करो, क्योंकि इस ( प्रातः ) कालमें सूर्यको लक्षितकर उपस्थानमें दी गयी जलाञ्जलियां ( उदय होते हुए सूर्य के साथ युद्ध करनेवाले साढ़े तीन करोड़) 'मन्देह' नामक राक्षसोंपर जल ( बिन्दुरूप ) मय वज्र हो जाते हैं / [ अतः सूर्यके महान् भक्त आपको चाहिये कि शीघ्र निद्रात्यागकर नित्य स्नानादिसे निवृत्त हो सूर्यका उपस्थान करते हुए सूर्याय दें // 41 // उदयशिखरिप्रस्थावस्थायिनी खनिरक्षया शिशुतरमहोमाणिक्यानामहर्मणिमण्डली / रजनिषदं ध्वान्तश्यामां विधूय पिधायिकां न खलु कतमेनेयं जाने जनेन विमुद्रिता ? // 42 // उदयेति / इयं परिदृश्यमाना, अहमणिमण्डली सूर्यविम्बस्वरूपा, उदयशिख. रिणः उदयाः, प्रस्थावस्थायिनी सानुनिष्ठा, अक्षया अविनश्वरा, भूयसीत्यर्थः / शिशुतराणि अतिशयेन 'बालानि, सद्यःप्रकाशितानीति यावत् / महांसि तेजांसि एव, माणिक्यानि पद्मरागाः, अरुणवर्णस्वादिति भावः। तेषां खनिः आकरः, ध्वान्तेन अन्धकारेण, श्यामां कृष्णवर्णाम् , ध्वान्तवत् श्यामाञ्च, पिधायिकाम् आच्छादिकाम् जगतः खनेः प्रवेशद्वारस्य चेति भावः। रजनि रात्रिम् एव, दृषदं शिलाखण्डम् , विधूय अपसार्य, कतमेन केन, जनेन लोकेन, विमुद्रिता ? उद्धा. टिता? इति न जाने न बुध्ये, खलु इति वितर्के। अत्र सूर्यमण्डल्यादिषु खनिस्वा. धारोपात् रूपकालङ्कारः // 42 // सूर्य-बिम्बरूप तथा उदयाचलकी शिलापर स्थित, अक्षय ( बहुत अधिक होने से कभी समाप्त नहीं होनेवाली ), अभिनवतम तेजोरूप मणियोंकी खानको अन्धकारतुल्य ( अथवाअन्धकारसे ) कृष्णवर्ण ( खानके प्रवेशद्वारको ) आच्छादित करनेवाली रात्रिरूपी पत्थरको इटाकर किसने खोल दिया है, यह मैं नहीं जानता हूँ। [अथवा-ब्रह्माने खोल दिया
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________________ ऊनविंशः सर्गः / . 1273 है, यह मैं नहीं जानता अर्थात अवश्य जानता हूँ कि कालपरिवर्तनकारी ब्रह्माने ही इसे खोला है / पर्वतकी शिलापर स्थित काले पत्थरसे ढकी हुई मणियोंकी अक्षय खानको जैसे कोई भाग्यवान खोल देता है, वैसे उदयाचलकी शिलापर फैलती हुई अभिनवतम होनेसे रक्तवर्ण मणियों के समान काली रात्रिरूपी पत्थरसे आच्छादित सूर्यबिम्बरूपी खानको किसने खोलकर सर्वसाधारणको विदित करा दिया है यह मैं नहीं जानता। अन्धकारयुक्त काली रात्रि नष्ट हो गयी, सूर्योदय हो रहा है। अतः आप निद्रात्याग करें] // 42 / / सुरपरिवृढः कर्णात् प्रत्यग्रहीत किल कुण्डलद्वयमथ खलु प्राच्यै प्रादान्मुदा स हि तत्पतिः / विधुरुदयभागेकं तत्र व्यलोकि विलोक्यते नवतरकरस्वर्णस्रावि द्वितीयमहर्मणिः // 43 // सुरेति / सुराणां देवानाम् , परिवृतः प्रभुः इन्द्रः। 'प्रभौ परिवृढः' इति निपातनात् साधुः / कर्णात् राधेयात् , कुण्डलद्वयं कर्णाभरणयुगलम् , सूर्यप्रदत्तं सहजमक्षयश्चेति भावः / प्रत्यग्रहीत् याचित्वा आदात् , किल इति वार्तायाम् / 'ततो निकृत्य गात्राणि शस्त्रेण निशितेन सः। प्रायच्छदेवराजाय दिव्यं वर्म सकुण्डलम्॥' इति भारतवचनात् / तत्रोस्प्रेक्षते-अथ प्रतिग्रहानन्तरम् , प्राच्य पूर्वस्य दिशे, मुदा प्रीस्या, प्रादात् दत्तवान् , तत् कुण्डलद्वयमिति शेषः, खलु निश्चये / हि यस्मात्, सः इन्द्रः, तस्याः प्राच्याः दिशः, पतिः भर्ता, भार्याय आभरणदानस्य पत्युरौचित्या. दिति भावः / कथं त्वया तबुध्यते ? इत्याह-तत्र तयोः कुण्डलयोः मध्ये, एक कुण्डलम् , उदयं भजतीति उदयभाक उद्यन् , उदयकालिकः इत्यर्थः। 'भजोण्विः' इति ण्विप्रत्ययः / विधुः चन्द्रः, इवेति शेषः / व्यलोकि विलोक्यते स्म, जनैर्गतसायंकाले इति शेषः। नवतरान् अतिशयेन प्रत्यग्रान् , करान् किरणान् एवं, स्वर्णानि सुवर्णानि, तुल्यप्रभासम्पन्नत्वादिति भावः / स्त्रावयति आस्मनो वर्षयतीति तत् तादृशम् , द्वितीयं कुण्डलम्, अहर्मणिः दिनमणिः सूर्यः इवेति शेषः / 'रोऽसुपि' इति रेफादेशः। विलोक्यते इदानीं प्रातः दृश्यते, जनैरिति शेषः / एतदेव पूर्वानुमानस्य कारणमिति भावः // 43 // . देवराज (इन्द्र ) ने कर्णसे (सर्यप्रदत्त सहजात एवं अक्षय ) कुण्डलद्धयको दान लिया और उसे हर्षके साथ पूर्व दिशाके लिए दे दिया, क्योंकि वे उस ( पूर्व दिशा) के पति (स्वामी, अथवा-रक्षक ) हैं / ( पतिको हर्षके साथ पत्नीके लिए अमूल्य कर्णाभरण आदि अलङ्कार देना उचित ही है / इस बातका हम इस कारणसे अनुमान करते हैं कि) उसमें ( पूर्व दिशामें, अथवा-उन दो कुण्डलोंमेंसे सायंकालमें) उदय होते हुए चन्द्ररूप एक कुण्डल तो दिखलायी दिया था और इस प्रातःकालमें सूर्यरूप यह नवीनतम किरणरूप
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________________ 1274 नैषधमहाकाव्यम् / सुवर्णको प्रवाहित करनेवाला ( अभिनव होनेसे सुवर्णवत् भासमान ) दूसरा कुण्डल दिखलायी दे रहा है // 43 // ____ पौराणिक कथा-कुमारी कुन्तीके गर्भसे सूर्याश द्वारा कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था, उसको पिता सर्यने सहजात कवचसहित दो अक्षय सुवर्णकुण्डल दिये थे, उसे इन्द्रने ब्राह्मणका वेष धारण कर मांगा तो महादानी कर्णने शस्त्रसे शरीरच्छेदनकर कवचसहित दोनों कण्डलोंको इन्द्र के लिए दे दिया / यह कथा महाभारतके आरण्यक पर्वमें आती है। दहनमविशद्दीप्तिर्याऽस्तङ्गते गतवासर. , प्रशमसमयप्राप्ते पत्यौ विवस्वति रागिणी / अधरभुवनात् सोद्धृत्यैषा हठात्तंरणेः कृता मरपतिपुरप्राप्तिधत्ते सतीव्रतमूर्त्तिताम् // 44 // दहनमिति / रागिणी सायङ्कालिकत्वात् रक्तवर्णा अनुरागिणी च, या दीप्तिः सूर्यस्य प्रभा काचित् स्त्री च, गतवासरे अतीतदिने, प्रशमसमयम् अवसानकालम् , तेजसो जीवनस्य चेति शेषः / सायंकालं मृत्युकालञ्चेति भावः। 'प्राप्ते उपस्थिते सति, पत्यो स्वाभिनि भर्तरि च, विवस्वति सूर्य कस्मिंश्चित् पुरुषेच, अस्तम् अस्ता. द्विम् अदर्शनञ्च, गते प्राप्ते सति, दहनम् , अग्निम् , अविशत् प्रविष्टवती, 'अग्नि वाऽऽदित्यः सायं प्रविशति' इति श्रुतेः, 'मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहणं वा' इति स्मृतेश्च सहगमनार्थमिति भावः / सा पूर्वोक्ता, एषा दीप्तिः काचित् साध्वी नारी च, हठात् बलात्, आत्मीयपुण्यप्रभावादित्यर्थः / अधरभुवनात् अधोलोकात् , पाता. लात नरकाच्च इत्यर्थः / उद्ध्त्य उत्तोल्य, तरणेः पत्युः अर्कस्य, कस्यचित् पुरुषस्य च, कृता सम्पादिता, अमरपतिपुरप्राप्तिः पूर्वदिगुपस्थितेन्द्रनगरलाभः स्वर्ग: लाभश्च यया सा तादृशी सती तीव्रतया तीक्ष्णतया सह वर्तते इति तादृशी सतीव्रता अतीव तीचणा, सत्याः पतिपरायणतायाः, व्रतं नियमो यत्र सा तादृशी पतिव्रताधर्मश्च इत्यर्थः / मूर्तिः आकारः रूपञ्च यस्याः तस्याः भावः सत्ता तां सती व्रतमूर्तिताम्, धत्ते धारयति / सूर्यतेजसः उत्तरोत्तरं तीचगताभावादिति 'व्याल. ग्राही यथा सप बलादुद्धरते बिलात् / तद्वद्भर्तारमादाय तेनैव सह मोदते // ' इति स्मरणादिति च भावः / अत्र प्रस्तुतदीप्तिविशेषणसाम्यादप्रस्तुतसतीप्रतीतेः समासो. क्तिरलङ्कारः॥४४॥ (सायङ्काल होनेसे ) लाल रगवाली ( पक्षा-अनुरागवाली) जो दीप्ति (सूर्यप्रभा, पक्षा०-कोई साध्वी स्त्री) गत दिन (तेजके, पक्षा०-जीवनके ) अन्त समय आनेपर स्वामी सूर्यके अस्त होने ( पक्षा०-मरने ) पर अग्निमें प्रविष्ट हो गयी थी (जन्मान्तरमें उसी पतिको पाने के लिये पतिव्रता-धर्मका पालन करती हुई अग्निमें जल गयी थी); 1. अत्र 'द्वितीयाश्रितातीत-' इति समासो बोध्यः।
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1275 पाताल ( पक्षा०-नरक ) से ( अपने पातिव्रत्यके प्रभावसे ) हठपूर्वक (सूर्यको, पक्षा०पतिको ) निकाल कर सर्य ( पक्षा०-पति) को इन्द्रपुरी (पूर्व दिशा, पक्षा०-स्वर्ण) को प्राप्त करानेवाली वह ( दीप्ति, पक्षा०-साध्वी स्त्रो ) तीव्रतायुक्त मूर्ति ( पक्षा०-सतियों के व्रतकी मूर्ति ) को धारण करती है / [ जिस प्रकार अनुरागिणी स्त्री पतिके मृत्यु होनेपर अग्निमें प्रवेशकर नरकमें भी गये हुए पतिको अपने पातिव्रत्यके प्रमावसे नरकसे निकालकर स्वर्ग में पहुंचाती हुई सतीव्रतके मूर्तिभाव मूर्तिमान सतीत्वको प्राप्त करती है, उसी प्रकार लाल-लाल सूर्यप्रभा कल सायङ्काल सर्यके अस्त हो जानेपर स्वयं अग्निमें प्रविष्ट हो गयी तथा बलात्कारसे अधोलोकसे सूर्यको निकालकर पूर्व दिशामें लाकर तीव्रतम आकृतिवाली हो रही है अर्थात् क्रमशः सर्यके ऊपर उठने से सर्यदीप्ति तीक्ष्ण ( प्रखर ) हो रही है। सूर्यके अस्त होनेपर दीप्तिका अग्निमें प्रविष्ट होना श्रुति-सम्मत एवं सर्वप्रत्यक्ष है। सूर्योदय हो गया और क्रमशः सूर्य किरणें तीक्ष्ण हो रही हैं ] / / 44 / / बुधजनकथा तथ्यैवेयं तनौ तनुजन्मनः पितृशितिहरिद्वर्णाद्याहारजः किल कालिमा / शमनयमुनाकोडैः कालैरितस्तमसां पिबा दपि यदमलच्छायात् कायादभूयत भास्वतः / / 45 / / बुधेति / तनोः शरीरात् , जन्म उत्पत्तिः यस्य तस्य तनुजन्मनः अपत्यस्य / 'अवयो बहुव्रीहियधिकरणो जन्माद्यत्तरपदे इति वामनः / तनी शरीरे, कालिमा श्यामता, पित्रोः जननीजनकयोः, शितिहरितौ कृष्णपालाशी, वौँ वर्णविशिष्टम् आहार्यद्रव्यमित्यर्थः / तदादिः तत्प्रभृतिः, यः आहारः भोज्यम् , तस्मात् जायते उत्पद्यते इति तादृशः, इयम् ईदृशी, किल इति प्रसिद्धौ, बुधजनकथा विद्वज्जनानामुक्तिः, तथ्या एव सत्या एव / कुतः ? यत् यस्मात् , अमलच्छायात् अतिस्वच्छकान्तेरपि, तमसाम् अन्धकाराणाम् / कृद्योगात् कर्मणि षष्ठी / पिबतीति पिबः तस्मात् पातुः / 'पाघ्रा-' इत्यादिना पिबादेशश्च शप्रत्ययः / इति शेषः। इतः अस्मात् , पूर्वाकाशे दृश्यमानादित्यर्थः / भास्वतः सूर्यस्य, कायात् शरीरात् , काल: कृष्णवर्णैः, शमनयमुनाकोडैः यमकालिन्दीशनैश्चरैः, अभूयत जातम् / भावे लङ् / कृष्णवर्णान्धकाराहारादेव शुभ्रकान्तेरपि सूर्यस्य अपत्यानि कृष्णवर्णानि जातानि इति निष्कर्षः / अत्र शमनादिकालिग्नस्तपितृतिमिराहारपरिणतिपूर्वकत्वोत्प्रेक्षा॥४५॥ ___ 'सन्तानके शरीरमें कालापन पिता ( और माता ) के काले तथा हरे आदि वर्णवाले भोजनसे उत्पन्न होता है अर्थात् माता-पिताके काली-हरी वस्तुओंके भोजन करनेसे उनकी सन्तान काली होती है' यह ( 'स श्यामो मित्रातनयत्वात्' 'मित्र (सूर्य) का पुत्र नहीं होनेसे वह श्याम वर्ण है' इत्यादि उदयनाचार्यादि) पण्डित लोगोंका कथन सत्य ही है, क्योंकि अत्यन्त निर्मल कान्तिवाले अन्धकारोंको पीने ( नाशक होनेके कारण भोजन करनेवाले) 8. नै० उ०
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________________ 1276 नैषधमहाकाव्यम् / सूर्य-शरीरसे ( उनकी सन्तान ) यमराज, यमुना ओर शनि काले ( कृष्णवर्णवाले ) हुए हैं / अभजत चिराभ्यासं देवः प्रतिक्षणदाऽत्ययं दिनमयमयं कालं भूयः प्रसूय तथा रविः / न खलु शकिता शीलं कालप्रसूतिरसौ पुरा यमयमुनयोजन्माधानेऽप्यनेन यथोज्झितुम् // 46 / / अमजतेति / अयम् उद्यन् , देवः द्युतिमान् , रविः सूर्यः, प्रतिक्षणदाऽत्ययं प्रत्येकराव्यवसाने। अव्ययीभावसमासः, 'तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्' इति विकल्पात् सप्तम्यामम्भावः / दिनमयं दिवसरूपम् , कालं समयं कृष्णवर्णञ्च / 'कालो मृत्यौ महाकाले समये यमकृष्णयोः' इति विश्वः / भूयः पुनः पुनः, प्रसूय जनयित्वा, तथा ताहक , चिराभ्यासं बहुकालाभ्यसनम् , पौनःपुन्येन करणस्वभावमित्यर्थः। अभ. जत प्राप्नोत् / यथा येन कृत्वेत्यर्थः / अनेन रविणा, असौ चिराभ्यस्ता इत्यर्थः / अत एव शीलं स्वभावभूता, कालस्य समयस्य कृष्णवर्णस्य च, प्रसूतिः उत्पादना, पुरा पूर्वम् , वर्तमानात् प्राक् समयोत्पादनात् परञ्चेत्यर्थः / यमयमुनयोः शमन कालिन्योः स्वापत्ययोः, जन्माधाने जननाथ बीजनिधानविषयेऽपि, उज्झितुं त्यक्तुम् ,न शकिता खलु नैव शक्ता, इवेति शेषः / कर्मणि क्तः, कर्मणि निष्ठायामिडागमः, तथा च काशि. कावृत्तौ-सौनागाः कर्मणि निष्ठायां शकेरिटमिच्छन्ति विकल्पेन, शकितो घटः कतम, शक्तो घटः कतमिति / तत्र कालशब्देवाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायेन भगवतो भानोः प्रत्यहं कालप्रसूत्या अभ्यासादपत्येष्वपि शमनयमुनादिषु कालप्रस. वितृत्वमुत्प्रेक्ष्यते, तन कालयोः कृष्णानेहसोरभेदाध्यवसायादतिशयोक्तिः इति तयोः रेकाश्रयत्वेनात्र सङ्करः॥४६॥ __इस सूर्यदेवने प्रत्येक रात्रिके अन्त ( प्रातःकाल ) में दिनरूप काल (समय, पक्षा०कृष्णवर्णवाला पुत्र ) बार-बार उत्पन्न कर उस प्रकार अत्यधिक अभ्यास कर लिया है कि पहले काल ( दिनरूप काल = समय पक्षा०-'शनि' नामक कृष्ण वर्णवाले पुत्रको, तथा भविष्यमें होनेवाले कृष्णवर्णवाले यमराज एवं कृष्ण वर्णवाली यमुना ) को उत्पन्न करनेवाला यह सूर्य यमराज तथा यमुनाको उत्पन्न ( करनेके लिए गर्भाधान ) करनेके समयमें भी इस ( कृष्णवर्णोत्पादनके चिराभ्यास ) के कारण शील ( अपने उक्त स्वभाव ) को नहीं छोड़ सका। [प्रातःकाल प्रतिदिन बारबार किया हुआ अभ्यास अत्यन्त दृढतम होता है और वह कभी नहीं छूटता अतएव प्रातःकालमें काल अर्थात् दिन (पक्षा-कृष्णवर्ण सन्तान को बारपार उत्पन्न करनेका अभ्यास हो जानेसे सूर्य मी यमराज तथा यमुनाको उत्पन्न करने के समय अपने कृष्णवर्णोत्पादनरूप स्वभावको नहीं छोड़ सका और उसकी दोनों सन्तानेयमराज तथा यमुना मी-कृष्णवर्ण ही उत्पन्न हुई ] // 46 // १.'-त्यये' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1277 रुचिरचरणः सूतोरुश्रीसनाथरथः।शनि शमनमपि स त्रातुं लोकानसूत सुताविति | रथपदकृपासिन्धुबन्धुर्दशामपि दुर्जनै यदुपहसितो भास्वान्नास्मान् हसिष्यति कः खलः ? // 47 / / ननु ईदृशबाहुल्येन सूर्यवर्णनं लोकानां हासजनकं भवितुमर्हति इत्याशङ्कयाहरुचिरेति / रुचिरचरणः मनोज्ञाचरणशीलः, जगदाबादकत्वादिति भावः / अथ च विपरीतलक्षणया अरुचिरचरणः किरणार्थस्य पादशब्दकस्य चरणपर्यायकत्वात् तीव्रपादः इत्यर्थः, सन्तापकत्वादिति भावः / तथा सूतया प्रसूतया, उदयानन्तरं प्रकाशितया इत्यर्थः / उर्ध्या प्रचुरया, श्रिया शोभया, अथ च, सूतस्य सारथेः अरु स्य, अनूरोरिति भावः। 'सूरसूतोऽरुणोऽनूरुः' इत्यमरः / ऊर्वोः सक्थिद्वयस्य, 'सक्थि क्लीबे पुमानूरुः' इत्यमरः। श्रिया शोभया, इति सोपहासोक्तिः, सनाथः युक्तः, रथः स्यन्दनं यस्य सः तादृशः, तथा रथपदेषु रथाङ्गनामपक्षिषु चक्रवाकेषु, कृपा. सिन्धुः दयासागरः, स्वोदयेन दम्पत्योर्मेलनघटनात् चक्रवाकाणामुपकारीत्यर्थः। तथा दृशां लोकचक्षुषाम् , बन्धुः सुहृत् , स्वोदयेन प्रकाशकत्वादिति भावः, सः सर्वलोकनमस्कृतः भास्वान् सूर्योऽपि, शनि शनैश्चरम्, क्रूरग्रहत्वेन लोकानामनिष्टकारितया अत्यन्तारुचिरचरणत्वेन तथा पङ्गुत्वात् गमनकाले कुरिसतदर्शनत्वेन च पित्रपेक्षया अत्यन्तविसदृशमिति भावः / तथा शमनमपि यमञ्च, दम्पस्योरन्यतरप्राणहरणेन विच्छेदजनकत्वादकरुणत्वेन तथा स्वजनप्राणविनाशनेन नियतरोदनादन्धत्वोत्पाद कतया जननेत्राणां शत्रुभूतत्वेन च पित्रपेक्षया अत्यन्तविसदृशमिति भावः / सुतौ पुत्रौ, लोकान् जगन्ति, वातुंरक्षितुम् विपरीतलक्षणया विनाशयितुञ्च, असूत अजनयत् , इति एवमुक्त्वा इत्यर्थः / दुर्जनः खलः, यत् यदा, उपहसितः उपहासः कृतः, तदा कः खलः दुर्जनः, अस्मान् वैतालिकानित्यर्थः। न हसिष्यति ? न उपहासं करिप्यति ? अपि तु सर्व एव सूर्यवर्णनात् अस्मान् उपहासं करिष्यतीत्यर्थः / परन्तु तत्र न काऽपि अस्माकं क्षतिरिति भावः। कैमुत्येनार्थान्तरापादनादर्थापत्तिरलङ्कारः // 47 // ___ सुन्दर चरणों ( किरणों, अथवा-आचरणोंवाला ) स्वयमुत्पादित अर्थात् उदयके बाद प्रकाशित ( अथवा-सारथि = अरुणकी ) अधिक शोभासे युक्त रथवाला, चक्रवाकके लिए कृपा-समुद्र ( चक्रवाक-दम्पतिको दिनमें अवियुक्त करनेसे उसके लिये कृपासागर ) तथा ( उन्मीलन, अथवा-पदार्थों के ग्रहण करनेकी शक्ति उत्पन्न करनेसे ) नेत्रों के लिए बन्धु. स्वरूप वह सूर्य ( श्रुत्यादि प्रसिद्ध लोकपाल होनसे) शनि और ( दुष्ट एवं शिष्टका क्रमशः निग्रह और अनुग्रह करके धर्माचरणमें लोकको प्रवृत्त करनेसे ) यम-इन दो पुत्रोंको संसारकी रक्षा करने के लिए उत्पन्न किया ( इस प्रकार सज्जनोंसे प्रशंसित भी सूर्यको)'तोत्र किरणोंवाला अथवा-सन्तापकारक, तथा (पुराणादिमें चरणाङ्गुलि आदिका ध्यान
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________________ 1278 नैषधमहाकाव्यम् / करनेसे कुष्ठ होने के कारण ) चरणरहित ( अथवा-विपरीत लक्षणासे अरुचिर किरणोंवाला), सूत (अरुण) के ऊरुद्वयकी ( अथवा--अरुणको अधिक ) शोभासे युक्त रथवाला ( दोनों वक्षमें आस्मीय शोभासे हीन होनेके कारण उपहासास्पद), तिर्यञ्च चकवा पक्षीके लिए कृपासमुद्र ( अर्थात मानवादि के लिए नहीं ), नेत्रों के बन्धु अर्थात् विपरीत लक्षणासे अतिशय तीव्र किरणों द्वारा नेत्रप्रतिघातक होनेसे नेत्रोंके अबन्धु-अहितकारी ( अथवा-नेत्रके अतिरिक्त दूसरेके बन्धु नहीं ) ऐसा सूर्य (दुष्ट एवं दीर्घकालतक भोग्य ग्रह होनेसे ) शनि तथा (प्रियजनोंमें-से एक व्यक्तिको मारकर अन्य बन्धुओंको सन्तापकारक ) यम-इन दो पुत्रोंको संसारकी रक्षाके लिए अर्थात् विपरीत लक्षणासे संसारके विनाशके लिए उत्पन्न किया' इस प्रकार सूर्यको दुष्ट लोग उपहास करते हैं तो सूर्यका इतना उत्तम एवं विशिष्ट करनेवाले हम ( वैतालिक ) लोगोंको कौन दुष्ट नहीं हँसेगा अर्थात् ( अकिञ्चित्कर ये वैतालिक उदरपूत्यर्थं चाहे जो कुछ बोल रहे हैं इत्यादि रूपमें ) सभी दुष्ट इस प्रकार सूर्यके विशिष्ट वर्णन करनेवाले हमलोगोंको हँसेंगे, ( किन्तु जिस प्रकार उसी सूर्यको सज्जनलोग उक्तरूपसे स्तुति भी करते हैं, उसी प्रकारसे राजराजेश्वर आप हम लोगोंकी निन्दा न करके प्रशंसा ही करेंगे तथा इसी कारण हमारे इस प्रभातवर्णनको सत्य मानकर प्रामातिक सन्ध्यावन्दनादि नित्यक्रियाके लिए अवश्यमेव निद्रात्याग करेंगे ) // 47 / / शिशिरजरुजां घमें शर्मोदयाय तनूभृतामथ खैरकराश्यानास्यानां प्रयच्छति यः पयः / जलभयजुषां तापं तापस्पृशां हिममित्ययं परहितमिलत्कृत्यावृत्तिः स भानुरुदश्चति / / 48 / / . शिशिरेति / यः देवः, शिशिरज़ा शीतर्त्त जा, रुक् पीडा येषां तादृशानाम् , तनूभृतां शरीरिणाम् , शर्मोदयाय सुखोत्पादनाय / एतत् पदद्वयमुत्तरवाक्यत्रयेऽ. प्यनुषञ्जनीयम् / धर्म निदाघम् , वसन्तग्रीष्मकालिको सन्तापी इत्यर्थः / अथ तदनन्तरम् , खरकरैः वसन्तनिदाघजनितैः तीचणैः किरणः, आश्यानानि शुष्काणि, भास्यानि मुखानि येषां तादृशानाम्, 'खरकरश्याना' इति पाठेऽपि स एवार्थः / तनूभृतां शर्मोदयाय पयः वर्षासु जलम् , तथा जलमयजुषां वर्षाजलभीतानाम् , तनूभृतां शर्मोदयाय तापं शारदसन्तापम् , तथा तापस्पृशां शारदसन्तापभाजाम् , तनूभृतां शर्मोदयाय हिमं हेमन्तकालजशैत्यम् , प्रयच्छति ददाति, कालचक्रपरि• भ्रामणेन आनयतीत्यर्थः / इति इत्थम् , परहिताय अन्येषामुपकाराय, मिलन्ती युज्यमाना, कृत्यावृत्तिः व्यापाराभ्यासः यस्य सः तादृशः, सः प्रसिद्धः, अयं परिहश्यमानः, भानुः भगवान सूर्यः, उदश्चति उदेति / क्रियासमुच्चयोऽलङ्कारः // 48 // 1. 'खरकराश्याना-' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1279 जो (सूर्य) हिमपीडित शरीरधारियों के सुखके लिए ( वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतु के) घामको, इसके बाद ( वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुको ) तीक्ष्ण किरणोंसे सुखे कुए मुखवालों अर्थात् सन्तप्त शरीरधारियोंके सुखके लिए (वर्षा ऋतुके ) जलको, (फिर वर्षा ऋतुके) जलके भयसे युक्त शरीरधारियों के सुखके लिए (शरद् ऋतुकी) उष्णताको (शरद् ऋतुकी) उष्णतासे युक्त शरीरधारियों के सुखके लिए ( हेमन्त ऋतुकी) ठण्ढकको देता है, इस प्रकार परोपकार करने में सर्वदा बार-बार कार्य करनेवाला यह ( सुप्रसिद्ध ) सूर्य उदित हो रहा है // 48 // इह न कतरश्चित्रं धत्ते तमिस्रततीदिशामपि चतसृणामुत्सङ्गेषु श्रिता धयतां क्षणात् / तरुशरणतामेत्य च्छायामयं निवसत्तमः शमयितुमभूदानैश्वर्य यदर्यमरोचिषाम् / / 46 // इहेति / चतसृणां चतुःसङ्ख्यकानामपि / 'न तिसृचतसृ' इति निषेधान्नामि दीर्थो न / दिशां पूर्वादीनाम्, उत्सङ्गेषु क्रोडेषु, तत्तरप्रदेशेष्वित्यर्थः / श्रिताः स्थिताः, तमिस्रस्य तिमिरस्य, ततीः समूहान् , क्षणात् अल्पेनैव समयेन, धयतां पिबताम् , दरीकुर्वतामित्यर्थः / धेटो लटः शत्रादेशः। आर्यमरोचिषां सूर्यतेजसाम् , तरवः वृक्षा एव, शरणानि त्रातारः यस्य तद्भावं तत्ताम् , एत्य प्राप्य, निवसत् वर्तमानम्, छायामयम् अनातपरूपम् , तमः अन्धकारम् , शमयितुं संहत्तम् , यत् अनीश्वरस्य भावम् आनैश्वर्यम् असामर्थ्यम् / 'नःशुचीश्वर-'इत्यादिनोभयपदवृद्धिः। अभूत् जातम्, इह अस्मिन् आनेश्वर्यविषये, कतरः को नाम जनः, चित्रम् आश्चर्यम् , न धत्ते ? चेतसि न आवहति ? अपि तु सर्व एव धत्ते इत्यर्थः / संहतिविनाशसमर्थस्य अल्पविनाशकताया अकिञ्चित्करत्वादिति भावः / तमोराशिविघातिनो देवस्याल्पतमोविषये सामर्थ्यविघातकतायाः विरोधात् छायामयत्वेन तत्परिहाराच्च विरोधाभासोऽलङ्कारः // 49 // चारों दिशाओंके कोड ( प्रदेशों ) में स्थित अन्धकार-समूहको क्षणमात्रमें पीते ( नष्ट ) करते हुए सूर्य-तेजों ( किरणों) का वृक्षों के (पाठा०-शरीरके या सूक्ष्मतारूप ) शरणको प्राप्तकर रहते हुए छायारूप अन्धकारको नष्ट करने के लिए जो असामर्थ्य हुआ, इस विषयमें कौन व्यक्ति आश्चर्यको नहीं प्राप्त होता अर्थात् चारों दिशाओं में व्याप्त अन्धकार-समूहको क्षणमात्रमें नष्ट करनेवाले सूर्य-तेजका वृक्षोंकी छायारूप थोड़े-से अन्धकारको नष्ट करने में असामर्थ्य होना सबके लिए आश्चर्यजनक है [ वृक्ष तथा शरीरकी छायाके आश्रित अन्धकारके अतिरिक्त सम्पूर्ण अन्धकारको सूर्यने दूर कर दिया ] // 49 // .. 1. 'कतमश्चित्रम्' इति 'प्रकाश' सम्मतं पाठान्तरम् / 2. 'तनु-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1280 नैषधमहाकाव्यम् / जगति तिमिरं मूर्छामब्जबजेऽपि चिकित्सतः पितुरिव निजादस्माइस्रावधीत्य भिषज्यतः ? | अपि च शमनस्यासौ तातस्ततः किमनौचिती. यदयमदयः कहाराणामुदेत्यपमृत्यवे ? / / 50 // जगतीति / दस्रौ अश्विनी, जगति लोके,तिमिरं तमो नेत्ररोगञ्च : 'तिमिरं ध्वान्ते नेत्रामयान्तरे' इति विश्वः / तथा अब्जव्रजेऽपि, पद्मपण्डेऽपि, मूछों निमीलनं रोगविशेषञ्च, चिकित्सतः प्रतिकुर्वाणात् / कितः सनन्तालटः शत्रादेशः, 'गुप्तिकिझ्यः सन्' इति निन्दाक्षमाव्याधिप्रतीकारेषु सन्निष्यते / निजात् स्वात् , पितुः जनकात , अस्मात परिदृश्यमानात् , सूर्यादिति शेषः / अधीत्य पठित्वा इव, आयुर्वेदमिति शेषः / भिषज्यतः स्वर्गे चिकित्सतः, किम् ? इति शेषः, इत्युत्प्रेक्षा / अन्यथा कुत्र तयोः तादृशी शिक्षा जाता ? इति भावः / कण्ड्वादौ भिषजेति पाठात् यगन्ताल्लटि तस, चिकित्सति भिषज्यति' इति भट्टमल्लः / अपि च किञ्च, असौ सूर्यः यत् यतः शमनस्य यमस्य, तातः जनकः, ततः तस्मात् , इवेति शेषः, अयं भानुः, अदयः निष्करुणः सन् , कहाराणां करवाणाम् अपमृत्यवे अकालमरणाय, निमीलनरूपायेति भावः / उदेति उत्तिष्ठति, सा अनौचिती किम् ? अन्याय किम् ? 'कारणगुणाः कार्यगुणानारभन्ते' इति न्यायात नित्यमेव प्राणिसंहारकस्य तनयस्य पितुरपि तथैव गुण'वत्त्वस्य युक्तत्वात् नैवानौचित्यम् , वरमुचितमेवेति निष्कर्षः / उत्प्रेक्षा। दत्रयोः पितृवत् सर्वोपकारित्वमुचितं, यमपितुस्तु रवेः कलारमारकत्वं न अनुचितम् इति भावः // 50 // संसारमें तिमिर ( अन्धकार, पक्षा०-'तिमिर' नामक नेत्ररोग ) की तथा अब्ज-समूह (पक्षा०-लोकसमूह ) में मूर्छा ( निमीलन-विकासाभाव, प६०-'मूर्छा' नामक रोग) की चिकित्सा ( नाश, औषधोपचार अर्थात् इलाज ) करते हुए अश्विनीकुमार अपने इस (प्रत्यक्ष दृश्यमान ) पिता (सूर्य) से ( आयुर्वेदको ) मानो पढ़कर चिकित्सा करते हैं / तथा जिस कारण यह सूर्य सर्वनाशक यमराजका पिता है, उस कारणसे निर्दय यह सूर्य कहारों (कैरवों-रात्रिमें विकसित होनेवाले कुमुदों) की अपमृत्यु (निमीलन, पक्षा०-अकालमरण ) के लिए उदय प्राप्त करता ( पा०-उठता ) है, यह अनुचित है क्या ? अर्थात् निर्दय यमके पिता निर्दयतम सूर्यको कुमुदोंकी अपमृत्युके लिए उदय प्राप्त करना उचित ही है / [ जिस प्रकार कोई व्यक्ति चतुर. एवं अनुभवी वैद्यसे आयुर्वेद पढ़कर चिकित्सा करता है तो वह लोकमान्य राजवैद्य होता है, उसी प्रकार अश्विनीकुमारोंने उक्त गुणयुक्त अपने पिता सूर्यसे आयुर्वेदको पढ़कर स्वर्गाधीश इन्द्रके राजवैद्य हो गये हैं और जिस कारण निर्दय यह सूर्य कुमुदोंकी अपमृत्युको करता है उस कारण पता चलता है कि यमराजने भी अश्विनीकुमारों के समान ही अपने पिता सूर्यसे आयुर्वेदको पढ़कर सब
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1281 लोगोंकी अकालमृत्यु करता है; क्योंकि कारणगुण कार्यगुणको आरम्भ करनेवाले होते हैं। अथवा-लोकोपकारक पिताके समान अश्विनीकुमारोंका सर्वोपकारी होना उचित ही है; एवं निर्दय यमके पिता निर्दयतम सूर्यका कुमुदविनाशक होना भी अनुचित नहीं है, अपितु उचित ही है। उदीयमान सूर्यने अन्धकार को दूर कर दिया, कमल विकसित हो गये और कुमुद निमीलित ( सङ्कुचित ) हो गये ] // 50 // उडुपरिवृढः पत्या मुक्तां सतीं यदपीडयद्यदपि बिसिनीं भानोर्जायां जहास कुमुद्वती। तदुभयमतः शङ्के सङ्कोचितं निजशङ्कया प्रसरति नवार्के कर्कन्धूकणारुणरोचिषि // 51 // उडविति / उडुपरिवृढः तारापतिः चन्द्रः, पत्या भर्ना भानुना, मुक्तां त्यक्ताम् , दिनान्ते अस्तमितत्वादिति भावः / सती साध्वीम् , बिसिनी पद्मिनीम् , यत् यतः, अपीडयत् पीडितवान् , रात्री सङ्कोचनेन इति भावः। तथा कुमुद्धती कुमुदिनी अपि / 'कुमुदनडवेतसेभ्यो ड्मतुप' / भानोः सूर्यस्य, जायां भार्याम् , बिसिनी पद्मिनीम् , यत् यस्मात् , जहास हसितबती, इवेति शेषः / निशायां स्वविकाशेन इति भावः / अतः अस्मादेव कारणात् , कर्कन्धूः पक्कबदरीफलमित्यर्थः / 'अन्दूहन्भू-' इत्यादिना कुप्रत्ययान्तनिपातः। तत्कणावत् तच्चर्ण इव, अरुणरोचिषि लोहितकान्ती, प्रभातकालिकत्वात् क्रोधाच्चेति भावः / नवाङ बालसूर्य, प्रसरति आकाशं व्याप्नुवाने सति, तयोः चन्द्रकुमुद्वत्योः, उभयं द्वन्द्वम् , निजशङ्कया स्वकृतपद्मिनीलान्छनाभयेन, सङ्कोचितं निस्तेजस्वं गतम् , निष्प्रभोभूत मिति यावत् / निमीलितञ्च / शङ्के इति मन्ये, अहमिति शेषः / इत्युत्प्रेक्षा / सर्वो हि स्वदुष्टव्यवहारेणात्मानं कलुषयतीति भावः // 51 // " इस ( असङ्ग होते हुए ) नक्षत्रपति अर्थात् चन्द्रने पति ( पक्षा०-सूर्य ) से (सायकाल होने के कारण ) छोड़ी गयो सूर्यकी पत्नी कर्मालनीको पीडित (किरण-स्पर्शसे सङ्कचित, पक्षा०-करस्पर्शसे दूषित ) किया और ( स्वयं विकसित होकर ) कुमुदिनीने जिस कारण ( उस सङ्कुचित कमलिनीको ) हंसा; इस कारण वे दोनों (चन्द्र तथा कुमुदिनी) अपने अपराधको शङ्कासे बेरके ( फलके ) चूर्ण ( पाठा०-बेरके फल ) के समान (प्रातःकाल होनेसे, पक्षा०-क्रोधके कारण ) अरुणवर्ण नये सूर्यके तीव्रगतिसे आते (पक्षा०उदित होते ) रहनेपर सङ्कचित हो गये हैं ऐसी शङ्का करता हूँ। [जिस प्रकार किसी पतिसे विरहित पत्नीको दूसरा कोई पुरुष पीडित करता तथा उसे पीडित करते हुए देखकर उस पत्नीको उस दूसरे पुरुषकी स्त्री उपहास करती है और उस पीड़ित स्त्रीके पतिको क्रोधसे लाल होकर शीघ्रगतिसे आते हुए देखकर अपराधी दोनों स्त्री-पुरुष अपने किये 1. 'फलारुण' इति पाठान्तरम् / 'कर्कन्धूकूणेति पाठश्चिन्त्यः' इति 'प्रकाश'कारः /
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________________ 1282 नैषधमहाकाव्यम् / . अपराधके भयते सङ्कुचित हो जाते हैं, उसी प्रकार सायंकालमें पतित्यक्त सूर्यपत्नी कमलिनीको पीड़ित करनेवाले चन्द्र तथा उपहास करनेवाली कुमुदिनीका प्रातःकाल हो नेते मानो क्रोधारुण सूर्यको आते हुए देखकर सङ्कुचित होना उचित ही है / अथ च-अपने दूषित व्यवहारसे सभी अपनेको कलुषित कर देते हैं / सूर्योदय हो गया, कमलिनी विकसित हो गयी तथा चन्द्रमा निष्प्रभ होकर अस्त हो रहा है और कुमुदिनी 'सङ्कुचित हो गयो ] // 51 // अतिमयतरो नोर्जानेऽवनेरधराध्वना विहरणकृतः शाखाः साक्षाच्छतानि दश त्विषाम् / निशि निशि सहस्राभ्यां दृग्भिः शृणोति सहस्वराः पृथगहिपतिः पश्यत्यस्याक्रमेण च भास्वराः / / 52 / / श्रतीति / अवनेः भूमेः, अधराधना अधोमार्गण, पातालवर्मना इत्यर्थः / एतच्च अनूस्थानमात्रोपलक्षणम् / 'अधरस्तु पुमानोष्टे हीनेऽनूचे तु 'वाच्यवत्' इति मेदिनी। विहरणकृतः विहारकृतः सञ्चरतः इत्यर्थः, आविर्भवत इत्यर्थश्च / श्रतिमयतरोः वेदात्मकवृक्षस्य, 'श्रुतिमयतनोः, इति पाठे-श्रुतिमयी पूर्वोक्तश्रुत्यनुसारेण वेदारिमका, तनुः शरीरं यस्य तादृशस्य इत्यर्थः / अस्य उदयं गच्छतः, भानोः सूर्यस्य, त्विषां रश्मीनाम् दशशतानि सहस्रम् , सहस्ररश्मिरूपेण परिणता इत्यर्थः / स्वरैः उदात्तादिभिः सह वर्तन्ते इति सहस्वराः सस्वराः। 'वोपसर्जनस्य' इति सह. शब्दस्य विकल्पात् सभावाभावः / पृथक् असाङ्कर्येण, भास्वराः दीप्तिशीलाः / 'स्थेश. भास-' इत्यादिना वरच / शाखाः वेदभागान् वृक्षावयवांश्च / 'शाखा पक्षान्तरे वाही वेदभागमाङ्गयोः' इति मेदिनी / अहिपतिः शेषः, निशि निशि प्रतिनिशम् / वीप्सायां द्विर्भावः / तत्र तदा सूर्यसञ्चारेण निशाभावात् मर्त्यलोकापेक्षया निशीति बोध्यम् / सहस्त्राभ्यां द्विसहस्रसङ्घयाभिः, दृग्भिः नेत्रैः, शेषनागस्य सहस्रफणत्वात् प्रतिफणञ्च नेत्रद्वयसद्भावात् नेत्राणां द्विसहस्रस्व बोध्यम् / अक्रमेण योगपद्येन, साक्षात् प्रत्यक्षम् , शृणोति आकर्णयति, पश्यति अवलोकयति च, शेषस्य चतुःश्रव. स्स्वात् शाखानां शब्दात्मकत्वेन श्रावणत्वोपपत्तेः रश्मिपरिणामेन चानुपरवाञ्च दर्शनोपपत्तेरिति भावः, जाने इति मन्ये इत्युत्प्रेक्षा रूपकसङ्कीर्णा / एकेन डक्सहस्रेण पश्यतीति विश्वेश्वरभट्टारकव्याख्यानं चिन्त्यम् , दृशां प्रत्येकमुभयशक्तियुक्तानां शक्तिप्रविभागायोगात् , तस्मात् ग्राहकस्योभयशक्तिमत्त्वात् ग्राह्यस्य च तेजःशब्दो. भयात्मकत्वात् सर्वाभिरेव दृग्भिः सर्वाश्च शाखा युगपत् पश्यति शृणोति चेति रमणीयम् // 52 // 1. 'तनोः' इति पाठान्तरम्। 2. 'द्रध्वनावलिसध्मना' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1283 पृथ्वीके अधोमार्ग ( पाताल-मार्ग) से सन्चार ( अभिमव ) करते हुए वेदरूप वृक्ष शरीर ) वाले सूर्यको एक सहस्र सस्वर (कठ, कण्व आदि ) शाखाओं (किरणों) को शेषनाग प्रत्येक रात्रिमें (प्रत्येक फणासे दो-दो नेत्र होनेके कारण सहस्र फणाओंमें स्थित ) दो सहस्र नेत्रोंसे एक साथ सुनता तथा देखता है। [ सूर्य वेदरूपीवृक्ष हैं, उस वेदरूपी वृक्षमें कठ-कण्व आदि एक सहस्र शाखाएँ ( पक्षा०-किरणें ) ( वृक्षमें सहस्रों शाखाओं अर्थात् डालियोंका होना उचित ही है / अथवा-सूर्यका शरीर वेदरूप है, उनकी किरणें उन वेदकी शाखाएं हैं ) / चक्षुःश्रवा शेषकी सहस्र फणाओंमें (प्रति फणामें दो-दो नेत्र होनेसे ) दो सहस्र नेत्र है, अत एव जब रात्रिमें सर्य पृथ्वीके अधोमाग ( पाताल ) में चले जाते हैं, तब उनकी वेदात्मक सूर्यकी शाखाओं के स्वरोंको शब्दरूप और किरणोंको तेजोरूप होनेसे दो सहस्र नेत्रवाला शेष एक साथ ही एक सहस्र नेत्रोंसे शब्दरूप वेदात्मक सूर्यकी उदात्तादि स्वरसहित सहस्र शाखाओं को सुनता तथा एक सहस्र नेत्रोंसे तेजोरूप सूर्यकी सहस्र किरणोंको देखता है, अत एव शेषके दो सहस्र नेत्रोंका होना सर्वथा चरितार्थ होता है। यही व्याख्या 'प्रकाश'कारने की है। विश्वेश्वर भट्टारकके इसी प्रकार की व्याख्याको 'शेषके चक्षुःश्रवा ( नेत्रोंसे सुननेवाला ) होने दो सहस्र दृष्टियों में से प्रत्येक दृष्टिमें दर्शन-श्रवण दोनोंकी शक्ति होने से ग्राह्य शब्द तथा तेज ( शाखा तथा किरण ) का दोनों सहस्र नेत्रोंसे सुनना तथा देखना एक साथ ही उचित है' ऐसी व्याख्या करते हुए 'जीवातु'कारने चिन्त्य बतलाया है, किन्तु उक्त अर्थके स्वीकार करने में दो सहस्र दृष्टियोंका होना सार्थक नहीं होने से उक्त व्याख्यान ही चिन्त्य प्रतीत होता है ] // 52 // बहु नखरता येषामग्रे खलु प्रतिभासते कमलसुहृदस्तेऽमी भानोः प्रबालरुचः कराः। उचितमुचितं जालेष्वन्तः प्रवेशिभिरायतैः कियदवयवैरेषामालिङ्गिताऽङ्गलिवल्गता / / 53 / / बहिति। येषां कराणाम् , अग्रे प्रत्यग्रावस्थायाम, प्रभाते इत्यर्थः / बह्वी प्रभूता, अत्यर्था इत्यर्थः / न-खरता अतीक्ष्णता, अन्यत्र-अग्रे अग्रभागे, बहुनखरता बहुन खत्वम् / 'नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः / खलु निश्चितम्, प्रतिभासते प्रतीयते कमलानां पद्मनाम्, सुहृदः बन्धवः, विकाशकत्वादिति भावः / सुहृत्वेनैव न-खरता बोद्धव्या; अन्यत्र-सौन्दर्यमार्दवाभ्यां तत्सदृशाः / प्रबालरुचः विद्रुमभासः, उभयः त्रापि समानम् ; भानोः सूर्यस्य, ते तादृशाः, अमी परिदृश्यमानाः, कराः अंशवः हस्ताश्च, प्रसर्पन्तीति शेषः / अत एव जालेषु गवाक्षविवरेषु, अन्तःप्रवेशिभिः अभ्यन्तरप्रविष्टेः, आयतैः दीर्घः, एषां कराणाम्, कियदवयवैः किश्चिदंशः। कर्तृभिः। उचि. 1. 'लङ्गिमा' इति पाठं व्याख्याय 'अङ्गुलिचारुता' इति पाठः स्पष्टार्थः इति 'प्रकाश' कार आह।
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________________ 1284 नैषधमहाकाव्यम् / तमुचितम् अत्यन्तोचितं यथा स्यात् तथा। आतिशय्ये द्विरुक्तिः / अङ्गुलीनां करशा. खानाम् ! 'अङ्गुल्यः करशाखाः स्युः' इत्यमरः / वल्गुता चारुता, आलिङ्गिन्ता प्राप्ता इति 'श्लेषसङ्कीर्णनिदर्शनाभेदः / कराणां कररूपत्वात् तदवयवानाम् अङ्गलिरूप. स्वस्थ सर्वथैव सम्भाव्यत्वादिति भावः // 53 // जिन (किरणों, पक्षा०-हाथों ) की अतिशय अतीक्ष्णता पूर्वाह्नमें प्रकाशित होती है .( अथवा-जिनकी अधिक तीक्ष्णता पूर्वाह्न में नहीं प्रकाशित होती है, पक्षा०-जिनके आगेमें बहुत नोंसे युक्त रहना प्रकाशित होता है ); ( विकसित करनेसे ) कमलों के बान्धव सूर्यको वे किरणें हैं ( अथवा-सूर्यके कमल तुल्य ( रक्तवर्ण ) एवं पल्लव (या-मूंगे ) के समान (या-अतिशय बाल = अभिनव होनेसे अरुण ) कान्तिवाले सूर्यकी ये किरणें हैं / अथवाअतिशय बाल = अभिनव रुचिवाले सूर्यके कमलतुल्य अरुण ये किरणें हैं, अथवा-(प्रातःकालीन होनेसे ) विद्रुम ( या-नवपल्लव ) की समान कान्तिवाले सूर्यकी कमलतुल्य अरुण ये किरणें हैं ) / खिड़कियों ( के छिद्रों ) से भीतर प्रवेश करनेवाले इन किरणों ( पक्षाहाथों ) के कुछ अवयवोंको अङ्गुलियोंकी शोमा प्राप्त करना अत्यन्त उचित है अर्थात् गवाक्षों के छिद्रोंसे भीतर प्रविष्ट होती हुई ये 'सूर्य-किरणें जो लम्बी होने के कारण जो अङ्गुलियोंके समान शोभती है, यह सर्वथा उचित ही है / / 53 // नये नयनयोाक पेयत्वं प्रविष्टवतीरमू भवनवलभीजालानालाइवार्ककराङ्गुलीः / भ्रमदणुगणकान्ता भान्ति भ्रमन्त्य इवाशु याः पुनरपि धृताः कुन्दे किं वा न वर्द्धकिना दिवः ? // 54 / / नयेति / भवनवलभीनां भवत्प्रासादोपरि विद्यमानानांगृहविशेषाणाम् / 'शुद्धान्ते वलभी चन्द्रशाले सौधो वेश्मनि' इति रभसः। जालात् गवाक्षविवरात् , गवाक्षविवरमाश्रित्येत्यर्थः / प्रविष्टवतीः अभ्यन्तरं गतवतीः, नालाः कमलदण्डान् इव स्थिताः, कमलकाण्डायिताः इत्यर्थः / अमूः पुरोवर्तिनीः, अर्कस्य भानोः, कराः किरणा एव करा हस्ताः, श्लिष्टरूपकम् / 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः / तेषाम् अङ्गुलीः करशाखाः, अङ्गलीव प्रतीयमानानवयवानित्यर्थः / द्राक् झटिति, नयनयोः नेत्रयोः, पेयत्वम् आस्वाद्यत्वम, विषयत्वमित्यर्थः। नय प्रापय, सादरं पश्य इत्यर्थः। अथ आसां दर्शनीयतामुत्प्रेक्षया दर्शयति-याः करामुल्यः, भ्रमद्भिः घूर्णमानः, अणुः गणेः सरेणुजालैः, क्रान्ताः वेष्टिताः सत्यः, आशु शीघ्रम् , भ्रमन्त्यः घूर्णमाना इव, भान्ति प्रकाशन्ते इत्युत्प्रेक्षा / भ्रमणे कारणमुस्प्रेक्षते-पुनरपि पूर्ववत् अधुनाऽपि, दिवः स्वर्गस्य, वर्द्धकिनातचणा, देवशिल्पिना विश्वकर्मणा इत्यर्थः / 'तक्षा तु वर्द्धकि. 1. 'विशेषणसङ्कीर्णो ....."इति जीवातुः' इति म०म० शिवदत्तशर्माणः / 2. 'राधेयत्वम्' इति. पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सगः। 1285 स्त्वष्टा' इत्यमरः / कुन्दे शाणयन्त्रे / 'शाणः कुन्दश्च यन्त्रकम्' इति यादवः / धृता वा तक्षणाय स्थापिताः इव, न किम् ? कराङ्गुल्य इति शेषः / अपि तु पृता एव इत्यर्थः / पुनः पुनः घर्षणेन तदुत्थैः सूचम सूचमांशैःघूर्णमानैरिव दृश्यते, अतः भ्रमणं युज्यते इति भावः / पुरा किल स्वर्गे सन्ध्यादेव्या सूर्यभार्यया दुःसहस्पर्श सविता. रमालोक्य प्रार्थितः विश्वकर्मा तं शाणयन्त्रोल्लेखनेन सन्तचय सन्तच्य सुखस्पर्श चकारेति पौराणिकी कथाऽत्रानुसन्धेया // 54 // (हे राजन् ! ) आप महलोंकी वलभियोंके गवाक्ष-विवरों ( जङ्गलों के बिलों ) से प्रविष्ट हुई कमलनालतुल्य इन सूर्यकिरणरूपी ( अथवा-सूर्यके करों = हाथोंको) अङ्गुलियोंको शीत्र नेत्रका पाथेय बनाइये अर्थात् आदरपूर्वक देखिये, घूमते हुए त्रसरेणु-समूहोंसे वेष्टित जिन्हें घूमती-सी ( लोग देखते हैं, अत एव ये ) स्वर्गके बढ़ई अर्थात् विश्वकर्मा के द्वारा फिर शाणपर रखी गयी हैं क्या ? ( ऐसी शोभती हैं। अथवा-घूमते हुए त्रसरेणु-समूहोंसे वेष्टित ( अत एव ) विश्वकर्मासे शाणपर फिर रखी हुई-सी नहीं घूमती है क्या ? अर्थात् शाणपर रखी हुई -सी ही वे घूम रही हैं ) // 54 // पौराणिक कथा-विश्वकर्माकी पुत्री छायाने सूर्य के साथ विवाह होनेपर उनके तीक्ष्णतम तेज को नहीं सह सकने पर अपने पितासे उसे कम करने के लिए.प्रार्थना की। तदनन्तर विश्व.. कर्माने सूर्यको शाणपर रखकर घिसते घिसते उन्हें छोटाकर उनके तेजको छायाके द्वारा सहन करने योग्य बनाया। दिनमिव दिवाकीर्तिस्तोक्ष्णैः क्षुरैः सवितुः करैः स्तिमिरकबरीलूनी कृत्वा निशां निरदीधरत् / स्फुरति परितः केशस्तोमैस्ततः पतयालभि धुवमधवलं तत्तच्छायच्छलादवनीतलम् / / 55 / / दिनमिति / दिनं दिवसः / कत्तृ / रात्रौ क्षौरकर्मनिषेधात् दिवा कीर्तिर्यस्य स दिवाकीर्ति पितःइव, 'चुरिमुण्डिदिवाकीर्तिनापितान्तावसायिनः' इत्यमरः / तीचणैः निशितैः प्रखरैश्च, सवितुः सूर्यस्य, करैः किरणरूपैः, सुरैः वापनशस्त्रैः। 'तुरोऽस्य वापनं शस्त्रम्' इति यादवः / निशां रात्रिम् , व्यभिचारिणी पत्नीमिवेति भावः। तिमिरम् अन्धकारः, कबरी केशपाशाः इव, सा लूना छिन्ना यस्याः तां मुण्डित. केशाम्। 'जानपद-' इत्यादिना कचरात् ङीष , "जातिकालसुखादिभ्यः परा निष्ठा ... 1. तीक्ष्णात्तुरात्सवितुः करात्' इति 'जीवातु'सम्मतः पाठ इति म०म० शिवदत्तशर्माणः। 2. 'निशां शर्वरी तिमिरकबरी ध्वान्तलक्षणां वेणी लूनां कृत्वा छिन्नमूलां विधाय / 'तिमिरकबरीलनाम्' इति पाठस्तु क्तान्तत्वेन पूर्वनिपातप्राप्तेरुपेच्य, इति सुखावबोधा / 'जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्' इति लनेति निष्ठायाः (न्तस्य)
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________________ 1286 नैषधमहाकाव्यम् / वाच्या' इति लूनीति निष्ठायाः परनिपातः, 'स्वादिभ्यश्च' इति निष्ठानत्वं, 'बहुव्रीहेश्चान्तोदात्तात्' इति ङीष् / कृत्वा विधाय, निरदीधरत् निष्कासयामास, इवेति शेषः, इत्युत्प्रेक्षा / धरतेो चङयपधाया द्वस्वः / ततः निर्धारणानन्तरम् , तेषां तेषां गृहा. दीनाम्, छाया अनातपः तत्तच्छायम् / 'विभाषा सेना-' इत्यादिना 'छाया बाहुल्ये' इत्यनेन वा नपुंसकत्वम् / तस्य छलात व्याजादित्यपह्नवः, परितः समन्तात् , पत. यालुभिः पतनशीलैः। 'स्पृहिगृहि-' इत्यादिना आलुच / केशस्तोमैः चिकुररा. शिभिः, अवनीतलं भूतलम् , अधवलम् असितम् , स्फुरति भाति, वं निश्चितमिध्र. त्युत्प्रेक्षायाम् // 55 // ____ नाई के समान दिनने तीक्ष्ण ( पखर, पक्षा०-तेज ) सूर्य-किरणरूपी छरेसे अन्धकाररूपी केश समूहको काटकर रात्रि (रूपिणी व्यभिचारिणी स्त्री ) का निश्चय किया अर्थात् छुरेसे मुण्डन करने के बाद कहीं पर कोई केश बाकी तो नहीं रह गया है ऐसा निर्धारण किया और उसे व्यभिचारिणी मानकर बहिष्कृत कर दिया। तदनन्तर उन-उन गृह आदिके छाया-समूहके छमसे सर्व तरफ गिरनेवाले केश-समूहोंके समान कृष्णवर्ण पृथ्वीतल स्फुरित ( दृष्टिगोचर ) हो रहा है। [जिस प्रकार नाई अपनी या दूसरे की व्यमिचारिणी स्त्रीके बालोंको तेज छुरेसे काटकर कहीं भी बाल बाकी तो नहीं रह गये हैं ऐसा 'अच्छी तरह निर्धारणकर उसे देशसे बहिष्कृत कर देता है और उसके फैलते हुए कालेकाले केश-समूहसे पृथ्वी काली दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार दिनरूपी नाईने अन्धकाररूपी केश-समूहको सूर्यकिरणरूप तीक्ष्ण छूरेसे काट (नष्ट) कर रात्रिको बहिष्कृत कर दिया है और भवनोंकी काली काली परछाहीके कपटसे उस रात्रि-रूपिणी स्त्रीके अन्धकार रूपी केशोंसे . यह भूतल कृष्णवर्ण हो रहा है। रात्रिका अन्धकार पूर्णतः नष्ट हो गया, तीक्ष्ण सूर्य-किरणे * फैल रही हैं और भवनोंकी परछाही भूतलपर पड़ रही है ] // 55 // ब्रूमः शङ्ख तव नल ! यशः श्रेयसे सृष्टशब्दं यत्सोदयः स दिवि लिखितः स्पष्टमास्त द्विजेन्द्रः / अद्धा श्रद्धाकरमिह करच्छेदमप्यस्य पश्य म्लानिस्थानं तदपि नितरां हारिणो यः कलङ्कः // 56 / / / ब्रम इति / नल ! हे तदाख्यमहाराज ! तव ते, यशः कीर्तिम् , श्रेयसे मङ्गलाय, सृष्टशब्द सृष्टः निर्मितः, कल्पितः इत्यर्थः / शब्दो ध्वनिः यस्य तादृशं देवार्चनाशुभजातकर्मादौ विहितस्वनम् , शंख कम्बुम् , शङ्खतुल्यमित्यर्थः / ब्रमः कथयामः, वयमिति शेषः / शङ्खध्वनेः मङ्गलजनकत्वात् पुण्यश्लोकत्वेन नलयशसश्च लोकानां परनिपातः / 'बहुव्रीहेश्चान्तोदात्तात्' इति ङीष् , इति 'जीवातुः' इति म०म० शिव. दत्तशर्माणः / अत्रोपरितने सुखावबोधाव्याख्याने 'तिमिरकबरी लूनां..."इति पारः प्रतिभातीति वयम्।
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1287 शुभावहत्वात् उभयोरपि समानधावल्याच्चेति भावः / यद्वा-श्रेयसे स्वर्गाय, सृष्टः शब्दः यस्य तं तादृशम् , शङ्ख कम्बुम् , यशः ब्रूमः स्वदीययशस्त्वेन वर्णयामः इत्यर्थः / यस्य यशसः, सोदयः समानम् उदरं यस्य सः तादृशः सहोदरः भ्राता, शङ्खचन्द्रयोरुभयोरपि एकसमुद्रजत्वादिति शौक्ल्यात् सदृश इति वा भावः / समा. नोदरे शयितः इत्यस्मिन्नर्थे 'सोदरात् यः' इत्यनेन यप्रत्यये विवक्षिते 'विभाषोदरे' इत्यनेन प्रागेव यप्रत्ययात् समानशब्दस्य सभावः / सशस्वाभिमानी इति फलि. तार्थः / स प्रसिद्धः, द्विजेन्द्रः चन्द्रः, दिवि गगने, लिखितः चित्रितः, किरणक्षयेण निष्प्रभत्वात निष्क्रियत्वाच्च चित्रितवदिति भावः / स्पष्टं सुव्यक्तम् , अस्ति वर्तते। इह अधुना प्रभातकाले, अश्रद्धाकरम् अनादरावहम् , प्रभाक्षयादेव इति भावः, यद्वा-श्रद्धाकरं प्रत्यक्षत्वेन विश्वासावहम्, अस्य चन्द्रस्य, अद्धा तत्त्वतः, सूर्यते. जसा अभिहतत्वात् यथार्थमित्यर्थः / करच्छेदम् अंशुनाशम् अपि, पश्य अवलोकय किञ्च, हारिणो हरिणात्मकः, यः कलङ्कः चिह्नविशेषः, अत्र विद्यते इति शेषः / तदपि तच्चिह्नमपि, नितराम् अत्यर्थम्, म्लानेः मलिनतायाः, स्थानम् आस्पदम् , विलुप्तप्रभत्वादिति भावः / पश्येति पूर्वणान्वयः / अतः शीघ्र शयनं त्यजेति भावः / अन्यच्च-श्रेयसे धर्मोपदेशरूपमङ्गलाय, सृष्टशब्दं रचितस्मृतिग्रन्थम् , शङ्क शङ्खाख्यं मुनिम्, तव यशः यशस्तुल्यं यशस्विनमित्यर्थः / यद्वा-शङ्खम् , तव यशःश्रेयसे कीर्तरुत्कर्षरूपमङ्गलायेत्यर्थः / तद्रचितविधानानुसारेण कर्मानुष्ठानात् यशोवृद्धेरिति भावः / सृष्टशब्दं ब्रूमः कथयामः। यस्य शंखस्य, सोदयः भ्राता, स प्रसिद्धः, द्विजेन्द्रः ब्राह्मणोत्तमः, लिखितः लिखिताख्यः मुनिः, दिवि स्वर्गे, स्पष्टं सवैतित्वात् सुव्यक्तम् , अस्ति विद्यते, इति अद्धा सत्यम् / किञ्च, इह अस्मिन् शङ्खलिखितयोश्चरितविषये, श्रद्धाकरं विश्वासजनकम् , अस्य लिखितस्य, करच्छेदं हस्तच्छेदनम् अपि, चौर्यापराधेन राजाज्ञया इति भावः। पश्य अवलोकय, विवेचयेत्यर्थः / पुराणोक्तत्वादिति भावः / हारिणः ज्येष्ठस्य भ्रातुः शङ्खमुनेः आश्रमे फलापहारकस्य, लिखितस्य इति शेषः। यः कलङ्कः सहोदराश्रमे फलचौर्यरूपः अपवादः, तदपि नितराम् अत्यर्थम् , म्लानेः विषादस्य, स्थानं कारणम्, जानीहि इति शेषः / अत्र महाभारतीयशान्तिपर्वणि सुद्युम्नोपाख्यानम्-'ततः स पृथिवी. पालो लिखितस्य महात्मनः / करौ प्रच्छेदयामास तदण्डो जगाम सः॥' इति / अत्र विशेषणविशेष्ययोरपि श्लिष्टत्वादभिधायाः प्रकृतार्थत्वात् अप्रकृतार्थध्वनिरेवेति सक्षेपः। मन्दाक्रान्तावृत्तम् // 56 // ( अब शङ्ख बजानेवालेके शङ्खकी ध्वनिको सुनकर वैतालिकलोग शङ्खके व्याजसे नलके यशका वर्णन करते हैं-) हे नल ! मङ्गलके लिए बजाये गये शङ्खको ( हमलोग ) तुम्हारा यश कहते हैं ( शुभ्र वर्ण तथा पुण्यश्लोक होने के कारण मङ्गलकारक होनेसे तुम्हारा यश शङ्खके समान है ऐसा हमलोग कहते हैं / अथवा-स्वर्गके लिए बजाये गये शङ्खको हम लोग
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________________ 1288 नैषधमहाकाव्यम् / तुम्हारा यश कहते हैं क्योंकि शङ्ख तथा चन्द्रमा दोनों समुद्रोत्पन्न एवं शुभ्रवर्ण हैं ) जिस ( शङ्ख, पक्षा०-तुम्हारे यश ) का सहोदर अर्थात् समान कान्तिवाला ( पश्चिम दिशामें दृश्यमान ) वह द्विजराज ( चन्द्र ) स्पष्टरूपसे लिखित है अर्थात् निष्प्रभ तथा निष्क्रिय होनेसे लिखित चित्रके समान स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रहा है। तुम इस प्रभातकाल ( याआकाश ) में ( निष्प्रम होनेसे ) अनादरणीय ( अथवा-प्रत्यक्षतः निष्प्रभ दृष्टिगोचर होने से विश्वासयोग्य ), इस ( चन्द्रमा ) के वस्तुतः किरणनाशको भी देखो अर्थात् शङ्खके समान इस चन्द्रमामें भी किरण नहीं है यह तुम देखो और हरिण-सम्बन्धी जो ( चन्द्रमाका ) कलङ्क है, वह भी अत्यन्त मलिनता (कृष्णवर्णत्व ) का स्थान है ( शङ्ख के उदर में भी चन्द्रमाके उदर ( मध्यभाग) के समान ही मलिनता है, यह भी तुम देखो / ( अथ च( धर्मोपदेशरूप ) मङ्गलके लिए ( स्मृति ग्रन्थ की रचना करके शब्दको करनेवाले 'शङ्ख' नामक मुनिको हमलोग तुम्हारा यश कहते हैं ( यद्वा-तुम्हारे यशोवृद्धिरूपी मङ्गलके लिए ( पक्षा०-उक्त ग्रन्थानुसार आचरण करनेमे स्वर्गादिप्राप्तिरूप मङ्गलके लिए ) 'शङ्ख' नामक मुनिको..... ), जिस ( 'शङ्ख' नामक मुनि ) का सहोदर भाई ब्राह्मणश्रेष्ठ 'लिखित' नामक मुनि स्वर्गमें स्पष्टतः विद्यमान है यह सत्य है, इस ( शङ्ख तथा लिखित मुनियों के ) आचरणके विषयमें श्रद्धायोग्य ( चोरीके अपराधमें राजाज्ञाद्वारा ) लिखित' मुनिके साथ काटने को भी देखो अर्थात् ज्येष्ठ 'शङ्ख' मुनिके आश्रममें फलकी चोरी करनेसे राजाशाद्वारा लिखित' मुनिके हाथ काटना भी आचरणके विषयमें श्रद्धाकारक ( या-अश्रद्धाकारक ) है, यह भी तुम विचार करो / जो चोरीरूप कलङ्क (दुरपवाद ) अतिशय म्लानि (निन्दा ) का कारण है यह भी तुम देखो अर्थात् शानरूपी नेत्रसे देखकर समझो / अथवा-'नल पुण्यश्लोक है' इस प्रकार तुम्हारे यशके लिए हमलोग 'शङ्ख नामक मुनिको तुम्हारा यश कहते हैं, ( उनके कलङ्कयुक्त भाईको नहीं ), ") [ 'लिखित' मुनि सहोदर भाई 'शङ्ख' मुनिके आश्रममें फलको चुरानेपर राजाज्ञासे हाथ कटवाकर दण्डित हुए' यह कथा महाभारत के शान्तिपर्वके सुद्युम्नोपाख्यानमें देखनी चाहिये ] // 56 // ताराशङ्खविलोपकस्य जलजं तीक्ष्णत्विषो भिन्दतः सारम्भं चलता करेण निविडां निष्पीडनां लम्भितः / छेदार्थोपहृताम्बुकम्बुजरजोजम्बालपाण्डूभव च्छच्छित्करपत्रतामिह वहत्यस्तं गताओं विधुः / / 57 // तारेति / ताराः तारकाः एव, शङ्काः कम्बवः, दिनोदयेन ताराणां शुभ्रत्वेन प्रती. यमानत्वादिति भावः / तेषां विलोपकस्य विनाशकस्य, अन्तर्धायकस्येत्यर्थः। छेदकस्य च, तथा जलजं पधं शङ्खञ्च / 'जलज शङ्खपद्मयोः' इति विश्वः / भिन्दतः विदा. रयता, प्रस्फोटयत इत्यर्थः। करभूषणनिर्माणार्थ सच्छिद्रं कुर्वतश्च, तीक्ष्णस्विषः तिग्मांशोः, तीचणास्त्रधरस्य कस्यचित् शङ्खकारस्य च, सारम्भं सप्रयत्नम् , चलता
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1286 प्रसरता, छेदनकर्मणि व्यापृतस्वात् पुरः पश्चाच पुनः पुनः गतागतं कुर्वता इत्यर्थश्च, करेण किरणेन हस्तेन च, निविडां प्रगाढाम् , निष्पीडना बाधनां धारणश, लम्भितः प्रापितः, अस्तम् अदर्शनम् , गते प्राप्तम् , अर्द्धम् एकांशः यस्य सः तादृशः, विधुः चन्द्रः, इह अस्मिन् अर्धास्तमितसमये, छेदार्थ कर्त्तनाथम् , तारकारूपशङ्खच्छेदनसौकर्यसिद्धये इत्यर्थः / उपहृतम् अर्पितम्., यत् अम्बु जलम् , शङ्खच्छेदनसौकर्याय जलं दीयते शाडिकैरिति व्यवहारात् , तेन सह कम्बुजं छिद्यमानात् शङ्खात् जातम् यत रजः करपत्रघर्षणनिपतितं चूर्णम् , तस्य यः जम्बालः कर्दमः, रजोराशौ जल. निक्षेपेण कर्दमताया अवश्यम्भावादिति भावः / तेन पाण्डूभवत् शुभ्रीभवत् , यत् शङ्ख छिनत्तीति शङ्खच्छित् शङ्खच्छेदकम् , करपत्रं क्रकचः / 'क्रकचोऽस्त्री करपत्रम्' इत्यमरः / तस्य भावः तत्ताम् , वहति धारयति, इवेति शेषः, इत्युत्प्रेक्षा। शङ्खच्छे. दककरपत्रस्य अर्द्धचन्द्राकारत्वात् अस्तिमितः चन्द्रः शङ्खच्छेदककरपत्रमिव दृश्यते इति भावः / शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् // 57 // ( अधिक प्रातःकाल होनेसे अतिशय शुभ्रवर्ण) तारारूपी शङ्ख ( अथवा-विशाखा नक्षत्रके शङ्खाकार मातृमण्डलरूप तारा ) को नष्ट करने (पक्षा०-छिद्र करने, या-काटने ) वाले, कमलको विकसित करते ( पक्षा०-शङ्खको छेदते, या-काटते ) हुए तीव्र तेजवाले ( सूर्य, पक्षा०-तीक्ष्ण शस्त्रवाले शिल्पी) के सवेग चलते हुए किरण ( पक्षा०-रगड़ने के कारण आगे-पीछे चलते हुए हाथ ) से अतिशय पीडित ( पक्षा०-दबाया गया) आधा अस्त यह चन्द्र ( शङ्खको सरलतासे ) काटने के लिए छोड़े गये पानीके कारण शङ्खसे उत्पन्न धूलिके पङ्कसे श्वेतवर्ण होते हुए शङ्ख-च्छेदक आरेके समान दृष्टिगोचर हो रहा है। [ ताराओंके विनाशक एवं कमलों के विकासक सवेग चलते हुए सूर्यको किरणसे पीडित तथा आधा अस्त हुआ निष्प्रभ चन्द्रमा ऐसा मालूम पड़ता है कि-शङ्खको छेदने (या-काटने) वाला तीक्ष्णशस्त्रधारी शिल्पीके वेगपूर्वक घर्षणसे सञ्चलनशील (विस्तृत एवं सङ्कुचित होते हुए) हाथसे अत्यन्त पीडित आरा शङ्खको जल्दी छिदने (या-कटने ) के लिए पानी डालनेसे काटते समय उत्पन्न शङ्खके मलिन धूलि-पङ्कने कुछ श्वेतवर्ण हो रहा है। शंखको छेदने (या-काटने ) के लिए तीक्ष्ण आरा लेना, हाथका यातायात होना, शीघ्र छेद होने ( याकटने ) के लिए पानी छोड़नेपर शङ्खकी धूलिसे कीचड़ निकलकर आरेका कुछ श्वेत वर्ण होना प्रसिद्ध है / सूर्योदय हो गया, ताराएँ लुप्त हो गयीं, कमल विकसित हो गये, चन्द्र आधा अस्त होकर शङ्ख काटते हुए. शङ्खकर्दमलिप्त आरेके समान पाण्डुवर्ण एवं वक्राकार हो रहा है; अत एव प्रभात जानकर आप शीघ्र उठिये ] // 57 // (जलजभिदुरीभावं प्रेप्सुः करेण निपीडय त्यशिशिरकरस्ताराशङ्खप्रपञ्चविलोपकृत् / . 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'च्याख्यासहित एवात्र मया स्थापितः /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / रजनिरमणस्यास्तक्षोणीधरार्द्धपिधावशा इधतमधुना बिम्बं कम्बुच्छिदः करपत्त्रताम / / 1 // ) जलजेति / जलजंकमलं शङ्खश्च / करेगांशुना पाणिना च / अयं श्लोकः पूर्वेण (1957) समानार्थकत्वात्क्षेपकः // 1 // कमल ( पक्षा०-शङ्ख) को विकसित (पक्षा०-खण्डित ) करने का इच्छुक तथा तारारूपी शङ्खका नाश ( पक्षा०-खण्डित ) करनेवाली सूर्यको किरण अस्ताचल में आधे छिपनेसे शङ्ख काटनेवाले आरेके समान चन्द्र-बिम्बको पीडित कर रहा है // 1 // यत्पाथोजविमुद्रणप्रकरणे निन्द्रियत्यंशुमान् / दृष्टीः पूरयति स्म यजलरुहामक्ष्णा सहस्रं हरिः / साजात्यं सरसीरुहामपि दृशामप्यस्ति तद्वास्तवं यन्मूलाऽऽद्रियतेतरां कवितृभिः पद्मोपमा चक्षुषः / / 58 / / यदिति / यत् यस्मात्, अंशुमान् अर्कः, पाथोजविमुद्रणप्रकरणे पद्मविकासकरण. प्रस्तावे, दृष्टीः दृशः, जननेत्राणि इति यावत् / निनिंद्रयति निःनास्ति, निद्रा स्वापः, निद्राकालिकनिमीलनमित्यर्थः / यासु तास्ताहशीः करोति उन्मीलयतीत्यर्थः / तथा यत् यस्माच्च, हरिः विष्णुः, जलरुहां कमलानाम् , शिवपूजाऽर्थमानीतानामिति भावः / सहस्रं सहस्रसङ्घयाम् , अक्षणा स्वनेत्रेण, पूरयति स्म पूर्ण चकार, एकोनत्वादिति भावः / यदुक्तं शिवमहिम्नःस्तोत्रे-'हरिस्ते साहस्रं कमलबलिमाधाय पदयोयदेकोने तस्मिन् निजमुदहरनेत्रकमलम्' इति / तत् तस्मात् , सरसीरुहामपि कम लानाञ्च, दृशामपि नयनानाञ्च, वास्तवं पारमार्थिकम् , साजात्यं समानजातीयत्वम् , अस्ति विद्यते / यतः हरिसूर्याभ्यां परमाप्ताभ्यां तत्तत् कार्यमकारि अतः पद्मचक्षुषोः साजात्ये सन्देह एव नास्ति, अन्यथा पद्मोल्लासप्रकरणबाधाद्विजातीयेन वपुषा कनकसङ्ख्यापूरणवत् चतुषा कमलसङ्ख्यापूरणायोगाच्चेति भावः ! कवितृभिः कविभिः, यत् साजात्यम् , मूलं हेतुः यस्याः सा तादृशी, चतुषः नयनस्य, पद्मः कमलेः सह, उपमा औपम्यम् , आद्रियतेतरां सरिक्रयतेतराम ,अत्यर्थमाद्रियते इत्यर्थः / किमेत्ति. डव्ययात्-' इति आमु-प्रत्ययः / वैजास्येन सद्वस्तुनोरपि सुवर्णरजतयोरुपमाऽयोगादिति भावः / सर्वे एव लोकाः अजागरुः, अतः स्वमपि जागृहि इति वक्तुराशयः॥५८॥ सूर्य कमलों के विकसित करने के अवसरपर जो (लोगोंके) नेत्रोंको निद्रारहित ( पक्षा०विकसित ) कर देता है तथा विष्णुने जो ( अपने एक ) नेत्रसे कमलोंके सहस्र सङ्ख्याको पूरा किया था; उससे कमलों तथा नेत्रोंकी वास्तविक समानता है; इसीसे कवि लोग नेत्रकी कमलके साथ उपमा देनेका अत्यन्त आदर करते हैं। [यदि कमलकी नेत्रों के 1. 'कविनृभिः' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः /
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________________ ऊनविंशः सर्गः / . 1261 साथ वास्तविक समानता नहीं होती तो कमलों को विकसित करते समय सूर्य नेत्रोंको विकसित (निद्रारहित ) नहीं करते तथा विष्णु भगवान् भी सहस्र कमलोंसे शिव-पूजन करते समय एक कमलके कम हो जानेपर उसके स्थान में अपना नेत्र समर्पणकर कमलोंकी सहस्र संख्याको पूरी नहीं करते, किन्तु दूसरा कमल लाकर ही उसे पूरी करते, इससे विदित होता है कि कमलों एवं नेत्रोंकी वास्तविक समानता है और इसी मूलकारणको लेकर कविलोग भी कमलोंकी नेत्रों के साथमें उपमा बड़े आदरके साथ देते हैं। कमल विकसित हो गये, सभी लोग निद्रा त्यागकर उठ गये, अतः अब आप भी निद्रा त्यागकर उठे ] // 58 // अवैमि कमलाकरे निखिलयामिनीयामिकश्रियं श्रयति यत् पुरा विततपत्रनेत्रोदरम् / तदेव कुमुदं पुनर्दिनमवाप्य गर्भभ्रमद् द्विरेफरवघोरणाघनमुपैति निद्रामुदम् / / 56 / / अवैमीति / यत् कुमुदम् , कर्त्त / पुरा इतः पूर्वम् , कमलाकरे पद्माकरे सरसि, कमलायाः पद्मालयायाः लचम्याः, धनसम्पत्तिरूपायाः इति यावत् / आकरे वसति. स्थाने कोषागारे च, विततानि विस्तृतानि, पत्राणि दलानि एव, नेत्रोदराणि नय. नमध्यानि यस्य तत् तादृशं सत् , निखिलायां समनायाम , यामिन्यां 'रजन्याम् , यामिकः प्राहरिकः, प्रहरिरूपेण जागरूक इत्यर्थः / तस्य श्रियम् इव श्रियं शोभाम् , सादृश्यमित्यर्थः / इति सादृश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः / श्रयति भजते स्म / 'पुरि लुङ चास्मे' इति चकाराद् भूते लट् / तदेव उक्तरूपमेव, कुमुदं कैरवम् , पुनः इदानीम् , दिनं दिवसम् , अवाप्य, गर्भे अभ्यन्तरे, भ्रमतां घूर्णमानानाम् , द्विरेफाणां भ्रमराणाम्, प्रातःकाले कुमुदानां मुद्रणात् तदन्तराबद्धानामिति भावः / रवः शब्द एव, घोरणा निद्रितस्य घर्घरशब्दाधिक्यम्, नासागर्जनमिति भावः। घुर भीमार्थ. शब्दयोः इति तौदादिकाद्भावे 'ल्युट / तस्याः घनं गाढं यथा तथा, निद्रामुदं निद्रा निमीलनं.स्वप्नश्च, तस्याः मुदं सुखम् , उपैति लभते, 'अवैमि इति मन्ये, इत्युत्प्रेक्षायाम् / / रात्री जागरितो हि दिवा निद्रातीति दृश्यते / अत्र एकस्मिन् कुमुदे अनेक. योनिद्वाजागरयोः क्रमेण प्रत्यभिधानात् 'एकस्मिन्नथवाऽनेकम्' इत्युक्तलक्षणपर्यायालङ्कारेण पूर्वोक्तनिदर्शना सङ्कीर्णा / पृथ्वीवृत्तं-'जसौ जसयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरु' इति लक्षणात् // 59 // कमलाकर (कमल-समूह, या-कमलोंके आकर तडाग; पक्षा०-कमला=सम्पत्तिके 1. 'भीमशब्दार्थाद्धरेर्णिजन्तात्' 'ण्यासश्रन्थ-' इति युच् इति 'प्रकाश' कारः। 2. 'अवैमि-इत्युत्प्रेक्षायाम्। 'एकस्मिन्..."सङ्कीर्णा' इति 'जीवातु' रिति म० म०शि० द. शर्माणः / _____81 नै० उ०
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________________ 1262 नैषधमहाकाव्यम् / कोष ) में विकसित पत्ररूपी नेत्रमध्यबाला ( पक्षा०-पत्रमध्यके समान विकसित = निद्रारहित होनेसे विस्फारित नेत्रमध्यवाला ) जो कुमुद पहले ( रात्रिमें ) सम्पूर्ण रात्रिमें पहरेदारकी शोभा (समानता ) को प्राप्त किया था, वही कुमुद इस समय दिनको प्राप्त कर अर्थात् दिन होनेपर (प्रातःकालमें कुमुदके बन्द होनेसे ) भोतरमें घूमते हुए भ्रमरोंके गुञ्जनरूपी शयन करते समय अधिक नासिकाके 'घर-घर' शब्दको करने के साथ-साथ निद्राके सुखको प्राप्त करता है / [ जिस प्रकार कोषागार ( खजाने ) का पहरेदार पूर्ण रात्रि में जागरण कर दिन होने पर खुर्राटा लेता हुआ सुख सोता है, उसी प्रकार मानो कुमुद भी रात्रिभर उन्मीलित रहकर दिन होने पर इस समय भीतरमें बन्द हुए भ्रमरके गुञ्जनसे मानो खुर्शटा लेता हुआ सो रहा है, ऐसा हम समझते हैं ] // 59 // इह किमुषास पृच्छाशसिकिशब्दरूपप्रतिनियमितवाचा वायसेनष पृष्टः। . भण फणिभवशास्त्रे तातङः स्थानिनौ का विति विहिततुहीवागुत्तरः कोकिलोऽभूत् ? / / 60 / / इहेति / इह अस्मिन् , उपसि प्रभाते; पृच्छां प्रश्नम , शंसति सूचयतीति पृच्छा. शंसी प्रश्नवाचकः। 'प्रश्नेऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः / तादृशस्य किं शब्दस्य किमिति सर्वनामपदस्य, रूपे रूपविशेषे, कौ इति प्रथमाद्विवचनान्तपदनिष्पत्ती, प्रतिनिय. मिता सदैव निर्दिष्टा, वाक वाक्यं यस्य तादृशेन, काविति व्यक्तवाक्येनेत्यर्थः / वाय. सेन काकेन, फणिनः शेषात् , भवे उत्पन्ने, शेषप्रणीते इत्यर्थः / शास्त्रे पाणिनीये महा. भाष्ये, तातङस्तातडादेशस्य, स्थानिनौ भादेशिनौ कौ ? किं शब्दौ ? भण ब्रहि, इति एवम्, पृष्टः जिज्ञासितः, इवेति शेषः / एषः पुरतो वृक्षशाखायामुपविष्टः इत्यर्थः। कोकिल पिकः, विहितं प्रयुक्तम् , तुही तुश्च हिश्च तुही इति, वाक निजध्वनिरेव, उत्तरं प्रतिवचनं येन सः तादृशः, अभूत् अजनि, किम् ? 'तुह्योस्तातङाशिष्यन्य. तरस्याम' इति पाणिनिसूत्रे तुह्योः स्थाने तातड़ विधीयते प्रातः काकः को इति शब्देन तातडः स्थानिनौ कौ इति पृच्छति किम् ? कोकिलश्च तुही इति शब्देन तस्य उत्तरं ददाति किम् ? इत्यर्थः / पक्षिप्रभृतीनामव्यक्तध्वनी यस्य चेतसि यदुदेति स तथैव मनःकल्पितं प्रकाशयति, एवञ्च कविरयं तदा काकध्वनि 'को' इति कोकिल ध्वनिञ्च 'तुही' इति कल्पयित्वा काविति तुहीति च काककोकिलकूजितेन पूर्वोक्तप्रश्नो. त्तरत्वमुत्प्रेक्षते / प्रभातं जातं काकादयः पक्षिणः कूजन्तीति भावः // 60 // ___ इस प्रभातकाल में प्रश्नवाचक 'किम्' शब्द के ( को, को ) रूपसे प्रतिनियत वचनवाले कौवेसे 'शेषोक्त शास्त्र अर्थात् पाणिनिमहाभाष्य में 'तात' के स्थानी अर्थात् आदेश कौनकौन होते हैं इस प्रकार 'को, कौ' ऐसा पूछा गया, तथा 'तुहि' कहनेवाला कोकिल उसका उत्तर हो गया क्या ? [ प्रातःकाल स्वभावसे ही कौवा 'कौ, कौ' तथा पिक 'तुहि, तुहि'
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1263 करता है, कबिराज श्रीहर्ष इसपर उत्प्रेक्षा करते हैं कि इस प्रातःकालमें 'कौ, कौ' कहता हुआ कौवा 'पाणिनीय महाभाष्यमें 'तात के स्थानी 'कौन-कौन हैं ?? ऐसा प्रश्न करता है और कोयल 'तुहि, तुहि' कहकर उत्तर देता है कि 'पाणिनीय महाभाष्यमें 'तात के स्थानी 'तु-हि, तु-हि' हैं। क्योंकि 'तुह्योस्तातङाशिष्यन्तरस्याम्' (पा० सू० 7 / 1135) से 'तात' के स्थानमें 'तु और हि' आदेश होते हैं / हे राजन् ! प्रातःकाल हो गया, कौवे तथा कोयल बोलने लगे; अतएव आप शीघ्र जागिये ] // 60 // दाक्षीपुत्रस्य तन्त्रे ध्रुवमयमभवत् कोऽप्यधीती कपोतः कण्ठे शब्दौघसिद्धिक्षतबहुकठिनीशेषभूषाऽनुयातः / सर्व विस्मृत्य दैवात् स्मृतिमुषसि गतां घोषयन् यो घुसंज्ञां प्राकसंस्कारेण सम्प्रत्यपि धुवति शिरः पट्टिकापाठनेन / / 61 // दाक्षीति / अयं परिदृश्यमानः, कः अपि अपरिज्ञातपूर्ववृत्तान्त इत्यर्थः। कपोतः पारावतः, दाक्षीपुत्रस्य दक्षगोत्रसञ्जातमातृकस्य दाक्षीनामकमातृगर्भजातस्य वा पाणिनेः, दक्षस्यापत्यम् 'अत इज्' इति इजि 'इतो मनुष्यजातेः' इति ङीष / तन्ने शास्त्रे व्याकरणे, ध्रुवं निश्चितमेव, अधोतम् अध्ययनम् अस्य अस्तीति अधीती दाक्षीपुत्रतन्त्राध्ययनकारी इत्यर्थः / 'इष्टादिभ्यश्च' इतीनिप्रत्ययः, 'क्तस्थेन विषयस्य कर्मण्युपसङ्ख्यानम्' इति सप्तमी / अभवत् अजायत / यः कपोतः, कण्ठे निजगलदेशे, शब्दोघेषु 'रामः रामौ रामाः' इत्यादि प्रातिपदिकसमूहेषु, सिद्धय शिक्षाला. भार्थम् , क्षता प्रस्तरफलकादौ पुनः पुनः लिखनेन क्षयं प्राप्ता, बही प्रभूता, या कठिनी खटी / 'कठिनी खटिकायामपि' इति मेदिनी। तस्याः शेषः अवशिष्टांशः, सः एव भूषा आभरणम् , तयाऽनुयातः अन्वितः, रूषितः सन् इत्यर्थः, इवेति शेषः, खटिकाचूर्णशेषरेखया कण्ठे अनुरञ्जितः सन्निवेत्यर्थः। कपोतविशेषस्य कण्ठे धवलरेखा भवति, तत्र खटिकाचूर्णानुरञ्जनत्वाध्यवसायो बोध्यः। सर्वम् अधीतं समस्तशास्त्रम् / विस्मृत्य तिर्यग्योनेः सम्बन्धात् विस्मृतो भूत्वा, पट्टिकापाठनेन पट्टिकायां प्रस्तरफलकादी, पाठनेन लिखितविषयस्य अध्यापनाजनितेन, प्राक्संस्का. रेण पूर्वतनवासनया, पूर्वाभ्यासवशेनेत्यर्थः / देवात् सहसा, स्मृति स्मरणविषयताम, गतां प्राप्ताम्, घुसंज्ञा 'दाधा वदा' इति सूत्रोक्तां घु इति संज्ञाम्, घोषयन 'घु' इति शब्देन उच्चैः उच्चारयन् , सम्प्रति अधुनाऽपि, उपसि प्रातःकाले, शिरः मस्तकम् , धुवति कम्पयति, इत्युत्प्रेक्षा / लोकेऽपि दृश्यते यत् कश्चित् विस्मृतस्य कस्यचित् विषयस्य स्मरणकाले मस्तकं कम्पयतीति // 61 // कण्ठमें शब्दसमूहकी सिद्धि के लिए घिसी हुई बहुत-सी खड़ियासे अवशिष्टांश ( अङ्गुलिमें लगे हुए रज ) रूपी भूषणसे युक्त यह ( प्रत्यक्ष दृश्यमान ) कोई कबूतर मानो 1. -पाठजेन' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः /
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________________ 1264 नैषधमहाकाव्यम् / पाणिनिके व्याकरणशास्त्रको पहले पढ़नेवाला हुआ है, जो भाग्य (दुर्भाग्य ) से सब भूलकर प्रातःकालमें स्मृतिगोचर हुई ('दाधाब्वदाप्' (पा. सू. 333107) से विहित ) 'घु' संज्ञाको घोषित ( बार-बार उच्चारण ) करता हुआ पट्टिका ( पाटी ) के अध्ययनजन्य पूर्वसंस्कारसे इस समय भी शिर कँपा रहा है। [जिस प्रकार पहले पढ़े हुए ग्रन्थको दुर्भाग्यवश विस्मृत हो जानेपर प्रातःकालमें स्मरण पथागत किसी विशेष स्थलको बार-बार कहता हुआ वह भूतपूर्व विद्वान् पूर्वसंस्कारसे शिरको कम्पित करता है, तथा उसके गलेमें पढ़ने के समय काष्ठफलक (पाटी) पर खड़ियासे लिख-लिखकर उसे मिटाने के बाद अङ्गुलिमें लगी हुई खड़ियेकी धूलको विद्याप्रसादनार्थ कण्ठ में लगा रहता है, उसी प्रकार मानो यह कबूतर भी पहले पाणिनीय व्याकरणको पढ़ा हुआ है तथा शब्दसिद्धि करते समय घिसी हुई खड़ियेकी धूलको कण्ठमें लगा लिया है; किन्तु दुर्भाग्यवश सब पठित व्याकरणको भूल गया है इस प्रातःकालमें केवल 'घु' संज्ञा उसे याद आ गयी है, जिसे वह बार-बार कहता हुआ अध्ययनजन्य पूर्वसंस्कारसे अपने दुर्भाग्यको कोसता हुआ सिर धुन (कँपा ) रहा है। प्रातःकालमें स्मरण होना तथा स्मरण आनेपर शिर कँपाना प्रायः सबका स्वभाव होता है / कबूतर 'घु-घु' कर रहा है, अतः प्रातःकाल जानकर अब आप निद्रात्याग करें ] // 61 // पौरस्त्यायां घुसणेसुमनःश्रीजुषो वैजयन्त्यास्तोकैश्चित्तं हरति हरिति क्षीरकण्ठैर्मयूखैः / भानर्जाम्बूनदरुचिरसौ शुक्रसौधस्य कुम्भः स्थाने पान तिमिरजलाभिरेतद्भवाभिः / / 62 / / पौरस्त्यायामिति / जाम्बूनदरुचिः उदयरागात् कनककान्तिः, अत एव शक्र. सौधस्य पूर्वदिगवस्थितस्य इन्द्रप्रासादस्य वैजयन्तस्य, कुम्भः सौधाग्रवर्तिकनककलशरूपः इति रूपकम् / असौ परिदृश्यमानः, भानुः सूर्यः, पुरो भवायां पौर. स्त्यायां प्राच्याम् / 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक्' इति त्यक , "किति चं' इति वृद्धिः / हरिति दिशि, घुसणस्य कुङ्कुमस्य, सुमनसां पुष्पाणाम् , या श्रीः शोभा, तज्जुषः तत्सेविन्याः, रक्तवर्णायाः इत्यर्थः / वैजयन्याः पताकायाः, तोकैः अपत्यः, पताकाया अपत्यसहजरित्यर्थः / 'अपत्यं तोकं तयोः समे' इत्यमरः। क्षीरकण्ठैः दुग्धपायिभिः बालै, मयूखैः किरणैः, चित्तं मनः, हरति मुष्णाति, मनोहरः भवतीत्यर्थः / किञ्च एतस्मात् कुम्भरूपात् भानोः, भवति जायते इति ताभिः एतद्भवाभिः कुम्भोत्प. माभिः, भाभिः प्रभाभिः, तिमिरजलधेः अन्धकारसमुद्स्य, पानं चुलुकीकरणम् , विनाशनमिति यावत् / 'उभयप्राप्ती कर्मणि' इति कर्मणि षष्ठी। स्थाने युक्तम् / १.-मसृण' इति पाठान्तरम् / २.'-स्तोमै-' इति पाठान्तरम् / ३.'-तनुरसौ' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1265 'युक्ते द्वे साम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः। कुम्भसम्भवः अगस्यः यथा चुलुकेन जलधि पपौ, तथा अपरस्यापि कुम्भसम्भवस्य जलधिपानमुचितमेवेति भावः। रूपका. लङ्कारः॥ 62 // ____सुवर्णतुल्य कान्तिवाला इन्द्रप्रासाद (वैजयन्त ) का कलसरूप यह सूर्य पूर्वदिशामें कुङ्कुम-पुष्पोंकी शोभावाली ( पाठा०-कुङ्कुमतुल्य स्निग्ध शोभावाली ) पताकाओंके दुग्ध पीनेवाले अर्थात् अतिशय लघु ( = अभिनवतम ) अपत्यरूप (पाठा-समूह ) किरणोंसे चित्तको हरण कर रहा है। इस (सूर्य, पक्षा०-इन्द्रप्रासादके स्वर्णकलस) से उत्पन्न कान्तियोंको अन्धकार-समुद्रका पान करना उचित ही है। [ सूर्य अभी अभी उदित हुआ है अत एव उसकी किरणें कुङ्कुमपुष्पतुल्य अतिशय अरुणवर्ण इन्द्रप्रासादकी पताकाओंकी दुधमुहें सन्तानतुल्य अत्यन्त लाल-लाल हैं और यह सूर्य उस इन्द्रप्रासादका स्वर्ण कलस है, अतः उक्त स्वर्णकलसोत्पन्न इन किरणोंको अन्धकार-समुद्रका पान करना सर्वथा उचित ही हैं, क्योंकि कुम्भोत्पन्न अगस्त्य मुनिने भी समुद्रका पान किया था। पूर्वदिशामें स्वर्णकलसतुल्य सूर्यका उदय हो गया तथा उसकी अरुणवर्ण किरणें फैल रही हैं, अतः आप निद्रात्याग करें]॥ 62 // द्वित्रैरेव तमस्तमालगहनग्रासे दवीभावुकैरुझेरस्य सहस्रपत्रसदसि व्यश्राणि घस्रोत्सवः / घर्माणां रयचुम्बितं वितनुते तत् पिष्टपिष्टीकृत क्ष्मादिग्व्योमतमोऽघमोघमधुना मोघं निदाघद्यतिः // 63 // द्विवैरिति / तमः अन्धकारः एव, तमालगहनं तुल्यवर्णस्वात् तमालाख्यवृक्षाणां गभीरं वनम् , तस्य ग्रासे गिलने, दूरीकरणे इत्यर्थः। दवीभाबुकैः आरण्यवह्नीभवद्भिः / 'दवदावी वनारण्यवह्नी' इत्यमरः / अभूततद्भावे च्विः, 'अस्य च्वौ' इती. कारः। 'लषपत-' इत्यादिना उकज प्रत्ययः / अस्य निदाघद्यतेः, द्वौ वा यः वा द्वित्राः / 'संख्ययाऽव्यया-' इत्यादिना बहुव्रीहिः, 'बहुव्रीही संख्येये-' इति डच्स. मासान्तः / तैरेव द्वित्रिसंख्यकमात्रैरेव, उौः करैः। कतभिः। सहस्रपत्रसदसि कमलसभायाम् , पद्मसमूहे इत्यर्थः / यस्मात् घस्रोत्सवः दिनानन्दः, विकाशप्राप्तिजन्यमानन्दानुष्ठानमित्यर्थः / विश्राणि व्यश्राणितः, प्रदत्तः इत्यर्थः। श्रण दाने इत्यस्य कर्मणि चिण / तत् तस्मात् , द्विनिसंख्यककिरणरेव सर्वकार्यसाधनात् हेतोरित्यर्थः / निदाघद्युतिः सूर्यः, पिष्टपिष्टीकृतं पिष्टस्य चूर्णीकृततण्डुलादेः, पिष्टीकृतम् पुनः पेषण. वस्कृतम् , द्वित्रैरेव मयूखैः अन्धकारं दूरीकृतमपि पुनः मयूखान्तरैः अत्यर्थ दूरीकृतमित्यर्थः / मादिग्व्योमतमः पृथिवीककुब्गगनानाम् अन्धकारमेव, अघं पापम् , मालिन्यावहत्वादिति भावः / येन तादृशम् / 'पापं किल्विषकल्मषम् / कलुषं वृजि. नैनोऽधमहो दुरितदुष्कृतम्' इत्यमरः / रयचुम्बितं वेगव्याप्तम्, वेगेन प्रसरणशील.
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________________ 1296 नैषधमहाकाव्यम् / मित्यर्थः / धर्माणाम् आतपानाम् , ओघं समूहम् , अधुना प्रातः, मोघं व्यर्थम् एव, वितनुते विस्तारयति करोतीत्यर्थः / घनान्धकारनाशस्य कमलविकाशस्य च प्राभा. तिकैः द्विरेव किरणैः कृतत्वात् किरणसमूहविकिरणं सूर्यस्य पिष्टपेषणवत् निष्प्रयो. जनमिति भावः // 63 // ___ अन्धकाररूप तमालवृक्षोंके वन ( पक्षा०-समूह, या-गहनता) को नष्ट करने में दवाग्नि होती हुई इस ( सूर्य ) की दो-तीन ( अल्पतम ) किरणोंने ही कमल समूहमें दिनो. त्सव ( जन्य विकास ) को दे दिया अर्थात् सर्गकी अल्पसंख्यक किरणोंसे ही गाढान्धकार नष्ट हो गया और कमलसमूह विकसित हो गये, इस कारण सूर्य, पृथ्वी, दिशाओं तथा आकाशके अन्धकाररूप पाप ( पक्षा०-मलिनता ) को पिष्टपेषण करनेवाले वेगयुक्त अर्थात् तीक्ष्णतम किरणों के समूहको व्यर्थ ही फैला रहा है। [ स्वल्पतम किरणोंसे ही सर्वत्रका अन्धकार दूर हो जाने से अब सूर्यका अधिक किरण-विस्तर करना पिष्टपेषणवत् व्यर्थ हो रहा है ] // 63 // दूरारूढस्तिमिरजलधेर्वाडवश्चित्रभानुर्भानुस्ताम्यद्वनरुहवनीकेलिवैहासिकोऽयम् / न स्वात्मीयं किमिति दधते भास्वरश्वेतिमान द्यामद्यापि घुमणिकिरणश्रेणयः शोणयन्ति / / 64 / / दूरेति / तिमिरजलधेः तमासमुद्रस्य, असीमत्वकृष्णवर्णत्वसादृश्यादिति भावः / वाडवः समुद्रगर्भस्थाश्वमुखोद्गतः, चित्रभानुः अनलः, वडवाग्निरूप इत्यर्थः / तिमिरसंहर्ता इति यावत् , तथा ताम्यन्त्याः क्लिश्यन्त्याः, पतिविच्छेदेन निशि क्लेशमनुभवन्त्या इत्यर्थः, वनरुहवन्याः जलजवनसमूहस्य, पद्मवनस्य इत्यर्थः / केलिषु क्रीडासु, विहासः मध्यमहसितं प्रयोजनं यस्य स तादृशः इति वेहासिकः विकाशरूपहास्यजनकः / 'प्रयोजनम्' इति ठज / अयं परिदृश्यमानः, भानुः सूर्यः, दूरं विप्रकृष्टदेशम् , आरूढः उत्थितः। द्युमणेः रवेः, किरणश्रेणयः मयूखपतयः, अद्यापि इदानीमपि, द्याम् आकाशम् , शोणयन्ति शोणाम् अभिनवत्वेन अरुणवर्णस्वात् अरुणवर्णां कुर्वन्तीत्यर्थः। इति एवम् , अपीति शेषः / इदानीमपि दिवः शोणतासम्पादने कृतेऽपीत्यर्थः / स्वात्मीयं निजम् , भास्वरम् अत्युज्ज्वलम, श्वेति. मानं श्वैत्यम् , प्रोज्ज्वलशुभ्रवर्णमित्यर्थः / न दधते किम् ? न धारयन्ति 'किम् ? अपि तु सत्वरमेव धारयिष्यन्तीत्यर्थः / तस्मात् उत्थातुमयमुचितः कालः इति निष्कर्षः // 64 // अन्धकाररूपी समुद्रके ( शोषक, पक्षा०-नाशक होनेसे ) वडवाग्निरूप तथा ( सर्यरूप पतिके विरहसे ) खिन्न होती हुई कमल-वनी (रूपिणी नायिका ) को क्रीडासे अर्थात् अनायास ही हासयुक्त (पक्षा-विकसित ) करनेवाला तथा ऊपर तक चढ़ा हुआ यह
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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1267 सर्य अपनी ( स्वाभाविक ) देदीप्यमान शुभ्रताको क्यों नहीं धारण करता ? और इस समय (इतना दिन चढ़नेपर ) भी सूर्य-किरण-समूह आकाशको अरुण वर्ण क्यों कर रहा है ? [इस प्रकार यहां दो प्रश्न हैं / अथवा-"जिस कारण ये सूर्य-किरण-समूह आकाशको अरुणवर्ण कर रहे हैं, इसी कारण यह सूर्य अपनी ( सहज ) देदीप्यमान शुभ्रताको नहीं धारण कर रहा है क्या ? सूर्य ऊपर आ गया है, कमल विकसित हो गये हैं, फिर भी आकाश लालवर्ण हो रहा है। इस कारण निद्रात्याग करनेका यह उचित समय है ] // 64 // प्रातवर्णनयाऽना निजवपुर्भूषाप्रसादानदाद् देवी वः परितोषितेति निहितामान्तःपुरीभिः पुरः / सूता मण्डनमण्डली परिदधुर्माणिक्यरोचिर्मय क्रोधावेगसरागलोचनरुचा दारिद्रयविद्राविणीम् / / 65 / / प्रातरिति / हे वन्दिनः ! अनया युष्माभिरुक्तया, प्रातवर्णनया प्रभातवर्णनेन, परितोषिता प्रीणिता, देवी महिषी दमयन्ती, वः युष्मभ्यम् , निजवपुषः स्वाङ्गस्य, निजव्यवहार्याणि अत एव बहुमूल्यानीति भावः / भूषाः आभरणानि एव, प्रसादान् पारितोषिकाणि, अदात् दत्तवती / देवी अदात् इत्यनेन पूर्वमेव 'प्रातःसन्ध्याचरणार्थ नलस्य प्रासादात् प्रस्थानं सूचितमिति बोध्यम् / इति इस्थम् , उक्स्वेति शेषः / गम्यमानार्थत्वात अप्रयोगः / आन्तःपुरीभिः अन्तःपुरिकाभिः, अन्तःपुरे नियुक्ताभिः सहचरीमिरित्यर्थः / तत्र नियुक्तः' इति ठक / पुरः अग्रे, वैतालिकानामिति भावः / निहितां स्थापिताम् , माणिक्यरोचिर्मय्या पद्मरागप्रभारूपया, क्रोधावेगेन दारिद्रयं प्रति कोपवशेनैव, सरागया रक्तवर्णया, लोचनरुचा नेत्रभासा, मण्डनमण्डल्या एव प्रभयेति भावः / दारिद्रयस्य निर्धनताया:, विद्राविणीम् उच्चाटनीम् , बलेन दूरीकुर्वतीमिव स्थितामित्यर्थः इत्युत्प्रेक्षा। मण्डनमण्डलीम् आभरणराशिम, सूताः वन्दिनः / 'सूतो मागधवन्दिनोः' इति विश्वः / परिदधुः स्वाङ्गे धारयामासुः // 65 // ( हे वन्दिगण ! ) इस ( 19 / 2-64 ) प्रातवर्णनसे सन्तुष्ट हुई पटरानी दमयन्तीने अपने शरीरके भूषणोंको ( तुमलोगों के लिए ) पारितोषिकस्वरूप दिया है। ऐसा कहकर अन्तःपुर ( रनिवास ) में नियुक्त सहचरियोंसे (वन्दिगणके) सामने रखे गये तथा माणिक्यकी ( लाल-लाल ) कान्तिरूपी क्रोधयुक्त सराग ( लाल वर्ण ) नेत्रों की कान्तिसे दरिद्रताको दूर भगानेवाले भूषण-समूहको वन्दियोंने पहना / [ यहांपर भूपोंमें जड़े गये माणिक्योंकी लाल कान्तिको हे दारिद्रय ! हमारे आनेपर भी तुम अभी तक नहीं दूर हुए मानो इस प्रकार क्रोधसे नेत्रको लाल करके वन्दियों के दारिद्रयको दूर करनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है / दमयन्तीके प्रसन्न होकर पारितोषिक देनेसे वन्दियों के प्रातः वर्णन समाप्त होनेके पहले ही नलका उठकर प्रातः सन्ध्यादिकृस्यके निमित्त चले जानेसे प्रासादपर नहीं रहना, सूचित
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________________ 1268 नैषधमहाकाव्यम् / होता है। बहुत सहचरियों के द्वारा भूषण लानेसे भूमणोंकी अधिकता तथा दमयन्तीके अपने शरीरके भूषणों को पारितोषिकमें देनेसे भूषणों की बहुमूल्यता सूचित होती है ] / / 65 / / आगच्छन् भणतामुषः क्षणमथातिथ्यं दशोरानशे स्वर्गङ्गाम्बुनि वन्दिनां कृतदिनारम्भाप्लुतिभूपतिः / आनन्दादतिपुष्पकं रथमधिष्टाय प्रियायौतुक प्राप्तं तैरवरागतैरविदितप्रासादतो निर्गमः / / 66 / / आगच्छन्निति / अथ दमयन्त्याः प्रसाददानानन्तरम् , अवरागतैः अवरं पश्चात् , स्नानार्थ नलस्य बहिर्गमनानन्तरमित्यर्थः / आगतैः उपस्थितैः, नलस्य निद्वापनयनार्थ प्रासादे इति शेषः / तैः वैतालिकः, अविदितः अज्ञातः, पश्चादागतत्वादिति बोध्यम् , प्रासादतः हात् , निर्गमः बहिनिष्क्रमण यस्य स तादृशः, भूपतिः पृथ्वीशः नलः, स्वर्गङ्गाम्बुनि मन्दाकिनीप्रवाहे, कृतदिनारम्भाप्लुतिः कृता सम्पादिता, दिनारम्भस्य प्रभातकालस्य, आप्लुतिः निमजनम् , स्नानमित्यर्थः, येन स तादृशः, कृतप्रातःस्नानः सन् , एतेन नलस्य महाधार्मिकत्वं प्रतिपाद्यते / प्रियायाः भैम्याः, यौतुके विवाहकालिकोपाहरणे, प्राप्तं लब्धम्, भीमदत्तमित्यर्थः। अतिक्रान्तः पुष्पकम् अतिपुष्पकं पुष्पकादपि उत्कृष्टमित्यर्थः / 'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' इति समासः, 'द्विगुप्राप्तापन्नालम्'-इत्यादिना 'परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः इति प्राप्तस्य परवल्लिङ्गत्वस्य प्रतिषेधः / रथं स्यन्दनम् , अधिष्ठाय आस्थाय / 'अधिशोङ-' इत्याधारस्य कर्मत्वम् / आनन्दात् हर्षात् , दमयन्तीसमागमाशया इति भावः / आगच्छन् प्रत्यावर्त्तमानः सन् , उषः प्रभातकालम् , भणतां तथैव वर्णयताम , वन्दिनां वैतालिकानाम् , दृशोः नेत्रयोः दृशाम् इत्यर्थः / आतिथ्यम् आगन्तुकत्वम , विषयत्वमिति यावत् , क्षणं किञ्चित्कालम् , सौधान्तःप्रवेशात् पूर्वपर्यन्तमित्यर्थः / आनशे प्राप्तः, तैदृष्टः इत्यर्थः अत आदेः' इत्यभ्यासदीर्घः, 'अश्नोतेश्च' इति नुडागमः अत एव नलस्य स्नानार्थ गमनात् पूर्वश्लोके देव्यंव पारितोषिकं दत्तमित्युक्तम् // 66 // ___ इस ( दमयन्तीके दिये पारितोषिक-भूषणोंको वन्दियों द्वारा धारण करने ) के बाद ( नलको नित्यक्रियासम्पादनार्थ बाहर जाने के ) अनन्तर ( उनको जगानेके लिए उपस्थित ) वन्दियोंसे नहीं मालूम किया गया है बाहर निर्गमन जिसका ऐसे तथा प्रातःकाल आकाशगङ्गामें गोता लगाये ( स्नान किये ) हुए दमयन्तीके विवाह के समय दहेजमें ( भीमराजाके द्वारा ) दिये गये एवं पुष्पकविमानातिशायी ( कुबेरके पुष्पक विमानकी अपेक्षा उत्तम ) रथपर चढ़कर ( दमयन्तीका पुनर्मिलन होनेकी आशासे ) आनन्दपूर्वक आते हुए राजा १.'-यौतुके' इति पाठान्तरम् /
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________________ ऊनविंशः सगः। 1266 नलको प्रातःकालका वर्णन करनेवाले वन्दियोंने देखा। [वन्दियों के आनेसे पहले ही नित्यक्रियार्य बाहर जाकर थोड़ा दिन चढ़ते-चढ़ते नित्यक्रियाको समाप्तकर लौट आनेसे नलको धार्मिकता और इसी कारण अर्थात् नलके वहां नहीं रहनेसे पूर्व श्लोकोक्त दमयन्तीका वन्दियों के लिए भूषणको पारितोषिकरूपमें देनेका औचित्य और स्वर्गङ्गामें प्रातः स्नान करनेसे नलके रथका सर्वत्र गमन कर सकना, तथा स्नानकर दमयन्तीके साथ पुनर्मिलनकी आशासे आनन्दपूर्वक लौटना कहनेसे आगामी सर्गकी कथाको सङ्गति सूचित होतो श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् | एकां न त्यजतो नवार्थघटनामेकानविंशो महा काव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गोऽयमस्मिन्नगात् / / 67 // * श्रीहर्षमिति / एका मुख्याम् , नवार्थघटनाम् अपूर्वार्थसृष्टिम् , न त्यजतः न मुञ्चतः, सर्वदा नवं नवं विषयं वर्णयत इत्यर्थः। तस्य श्रीहर्षस्य, विंशतेः पूरणः इत्यर्थे-'तस्य पूरणे डट' इति डट , 'ति विंशतेर्डिति' इति तिशब्दलोपः। ततः एकेन न विंशः इति 'तृतीया' इति योगविभागात् समासे 'एकादिश्चैकस्य चादुक' इति नञः प्रकृतिभावः, एकशब्दात् अदुगागमश्च / ऊनाथें चात्र नञ् / गतमन्यत् // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु'समाख्याने एकोनविंशः सर्गः समाप्तः // 19 // __कवीश्वर-समूहके...."किया, मुख्य नवीन घटना का अत्याग (सदा नयी-नयी घट. नाओंका ही वर्णन ) करते हुए उस श्रीहर्षके रचित सुन्दर नलके चरित अर्थात् 'नैषधचरित...."उन्नीसवां सर्ग समाप्त हुआ. ( शेष व्याख्या चतुर्थसर्गवत् जाननी चाहिये) // 67 // यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित'का उन्नीसवां सर्ग समाप्त हुआ / / 19 //
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________________ विंशः सर्गः। सौधाद्रिकुट्टिमानेकधातुकाधित्यकातटम् / स प्राप रथपाथोभृद्वातजातजवो दिवः // 1 // सौधेति / वातवत् वायुरिव, जातः समुत्पन्नः, जवः, वेगः यस्य सः तादृशः, अन्यत्र-वातात् वायोः, जातः उत्पन्नः, जवः वेगो यस्य स तादृशः, स पूर्वोक्तः अतिपुष्पकः, रथः स्यन्दन एव, पाथोभृत् जलधरः, दिवः स्वर्गात् आकाशाच्च / 'धौश्च स्वर्गतन्मार्गयोः' इति विश्वः / सौधः अट्टः एव, अद्रिः पर्वतः, तस्य कुट्टिमम् उपरिगृहेषु विविधरत्नादिनिबदभूमिः / 'कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूः' इत्यमरः / तदेव अनेके धातवः नानाविधगैरिकादयः यत्र सा ताहशी / 'शेषाद्विभाषा' इति कप् / अत्यधिका ऊर्ध्वभूमिप्रदेशः, तस्याः तटं पर्यन्तप्रदेशं शिखरञ्ज्ञ, प्राप लेभे / रूपकालङ्कारः॥१॥ वायुसे भी अधिक तीव्र चलनेवाला ( अथवा-वायु भी जिससे वेगवान् है, ऐसा ) वह रथरूपी मेघ स्वर्ग ( पक्षा०-आकाश) से प्रासादरूपी पर्वतके ( नानावणं मणियोंसे जटित ) भूमि ( फर्श ) रूपी (गैरिकादि ) अनेक धातुवाली पर्वतकी ऊपरी भूमिके तटको प्राप्त किया। [जिस प्रकार वायुसे वेगयुक्त मेघ आकाशसे नानाधातुयुक्त पर्वताधित्यकाके तटको प्राप्त करता है, उसी प्रकार नलका वायुसे : भी तीव्रगामी वह प्रसिद्ध रथ प्रासादके अनेक वर्णवाले रत्नोंसे जड़ी हुई भूमिके पर्यन्तप्रदेशको प्राप्त किया अर्थात् पहुँचा ] // 1 // ततः प्रत्युदगाद् भैमी कान्तमायान्तमन्तिकम् / प्रतीचीसिन्धुवीचीव दिनोङ्कारे सुधाकरम् / / 2 / / तत इति / ततः स्थस्य कुट्टिमतटप्राप्त्यनन्तरम् , भैमी दमयन्ती, :दिनस्य दिवसस्य, ओङ्कारे प्रारम्भे, गायत्र्यादीनां प्रारम्मे एव ओङ्कारप्रयोगदर्शनादत्रापि ओङ्कारशब्दस्य आरम्भार्थे लक्षणा ज्ञातव्या / 'ओमाडोश्च' इति पररूपत्वम् / प्रतीचीसिन्धोः पश्चिमदिगवस्थितसमुद्रस्य, वीची अमिः, अन्तिकं समीपम् , आयान्तम् आगच्छन्तम् , कान्तं रमणीयम् , सुधाकरं चन्द्रमिक, प्रत्यूषे एव अस्तो. न्मुखतया सुधाकरस्य पश्चिमार्णवतरङ्गलग्नवत् प्रतीयमानत्वादिति भावः / अन्तिकं समीपम् , मायान्तम् आगच्छन्तम् , कान्तं पति नलम्, प्रत्युदगात सादरं प्रत्युस्थि. तदनन्तर समीप आते हुए पति ( नल ) का दमयन्तीने उस प्रकार प्रत्युद्गमन ( अग. वानी-अभ्युत्थान ) किया, जिस प्रकार दिनके आरम्भ (प्रातःकाल) के समीप आते
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________________ विंशः सर्गः। 1301 हुए मनोहर चन्द्रमाको प्रत्युद्गमन ( अगवानी ) पश्चिम समुद्रकी लहरी ( पानीका तरङ्ग ) करती है // 2 // स दूरमादरं तस्या वदने मदनकदृक् / दृष्टमन्दाकिनीहेमारविन्दश्रीरविन्दत / / 3 / / स इति / दृष्टा अवलोकिता, मन्दाकिन्याः स्वर्गगङ्गायाः, हेमारविन्दस्य स्वर्णका मलस्य, श्रीः शोभा येन सः तादृशः, सहशदर्शनजातप्रियामुखारविन्दस्मृतिः इत्यर्थः / एवञ्च दमयन्तीमुखारविन्द-मन्दाकिनीहेमारविन्दयोः उत्कर्षापकर्षनिर्धारणे समर्थः इति भावः / मदनैकहक कामकशरणः, कामासक्तचित्त इत्यर्थः / सः नलः, तस्याः प्रियायाः भैम्याः, वदने आनने, दूरम् अस्यन्तम् , तस्पद्मापेक्षया समधिकमित्यर्थः / आदरम् आग्रहम् , अविन्दत अलभत / तत्पद्मापेक्षया दमय. न्तीमुखस्य अधिकसुन्दरत्वात् तत्रैव समधिकादरवान् बभूवेत्यर्थः // 3 // मन्दाकिनी ( आकाशगङ्गा ) के स्वर्णकमलकी शोमाको पहले ( स्नानकालमें ) देखे हुए एकमात्र काममें दृष्टि रखनेवाले अर्थात कामासक्त उस नलने उस ( दमयन्ती ) के मुखमें (मन्दाकिनीके कमलकी अपेक्षा दमयन्तीके मुख में अधिक शोभा होनेसे ) अधिक आदरको प्राप्त किया अर्थात् मन्दाकिनीके स्वर्णकमलकी अपेक्षा दमयन्तीके मुखको अधिक आदरसे देखा। [ पहले मन्दाकिनीके स्वर्णकमलकी शोभा देखनेसे दमयन्तीके मुखकी शोभाके साथ तुलना करनेमें नलकी क्षमता सूचित होती हैं ] // 3 // तेन स्वर्देशसन्देशमर्पितं सा करोदरे / 'बभ्राज बिभ्रती पद्मं पद्मेवोनिद्रपद्महक // 4 // तेनेति / उन्निद्रपद्महक विकचारविन्दलोचना, सा दमयन्ती, तेन तदानयता प्रियेण नलेन, अर्पितं-दत्तम् , स्वर्देशस्य स्वर्गलोकस्य, सन्देशं सूचकम् , त्वं स्वर्लोकं गच्छसि, अतः तल्लोकस्थमेकं पद्म मन्निमित्तमानयेः इति दमयन्तीप्रार्थनाऽनुसारे। गानीतम् अत एव स्वर्गभूमेः नलः आगतः इति ज्ञापयदिव स्थितमित्यर्थः। पद्म हेमारविन्दम् , करोदरे पाणिमध्ये, बिभ्रती दधती सती, पद्मा इव साक्षादेव लक्ष्मीः इव, बभ्राज रेजे / लक्ष्मीरपि उन्निद्रपद्महक पद्महस्ता च इति उपमास. ङ्गतिः बोद्धव्या // 4 // उस (नल ) के द्वारा स्वर्ण सन्देशके समान दिये गये स्वर्णकमलको हाथमें ग्रहण करती हुई ( अत एव हर्षसे, या-स्वभावतः) विकसित कमलके समान नेत्रवाली वह दमयन्ती लक्ष्मीके समान शोभित हुइ / [ जब नल स्नानार्थ मन्दाकिनीको जा रहे थे तब दमयन्तीने अपने लिए स्वर्गसे एक कमल लाने की प्रार्थना की थी, तदनुसार ही नलने स्वर्गके सन्देशके समान उस मन्दाकिनी-स्वर्ण-कमलको दमयन्तीके लिए दिया तो उसे 1. 'बभ्राजे' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1302 नैषधमहाकाव्यम् / हाथमें ग्रहण करती हुई कमलतुल्य प्रफुल्लितनेत्रा वह दमयन्ती लक्ष्मीके समान शोभने लगी, क्योंकि लक्ष्मी भी स्वभावतः कमलतुल्य नेत्रवाली हैं तथा हाथमें कमल लिये रहती हैं ] // . प्रियेणाल्पमपि प्रत्तं बहु मेनेतरामसौ।। टेकलक्षतया दध्यौ दत्तमेकवराटकम / / 5 / / प्रियेणेति / अलौ भैमी, प्रियेण कान्तेन नलेन इष्टजनेन च, प्रत्तं दत्तम् / 'अच उपसर्गात्तः' इति दस्तादेशः / अल्पम् अपि किञ्चिदपि वस्तु, बहु प्रभूतं समधिकाद: रणीयन्न, मेनेतराम अतिशयेन मेने / 'किमेत्तिङव्ययात्-' इति आमु-प्रत्ययः। कुतः ? हि यस्मान् कारणात् , दत्तम् अर्पितम् , एकः एकसंख्यामात्रः, वराटकः बीजकोषो यस्य तत् तादृशं पद्मम् 'बीजकोषो वराटकः' इत्यमरः। एकवराटकम् एककपर्दकञ्च / 'कपर्दको वराटकः' इति हलायुधः / एकलक्षतया एकलक्षसंख्यक स्वेन तदेकपरतया लक्षसंख्यकधनत्वेन च / 'लक्षच संख्यायाम्' इति विश्वः / दध्यौ मेने, प्रियदत्तं वराटकमपि रत्नात् अतिरिच्यते इति भावः // 5 // प्रिय ( नल ) के द्वारा दिये हुए थोड़ा अर्थात् एक कमलको भी उस ( दमयन्ती) ने बहुत ( अत्यधिक, पक्षा०-अत्यादरणोय ) माना, क्योंकि श्रेष्ठ बोजकोषवाले उस दिये गये कमलको एकटक होकर ध्यान किया-देखा, ( अथ च-प्रियजनसे दी गयी थोड़ी-सी भी किसी वस्तुको इसने अत्यधिक माना, क्योंकि प्रियकी दी हुई एक कौड़ीको भी एक लाख धनके बराबर माना ) / [प्रियतमदत्त साधारण वस्तुका भी अधिक मानना दमयन्ती- जैसी साध्वी स्त्रीके लिए उचित ही है ] // 5 // प्रेयसावादि सा तन्वी त्वदालिङ्गनविघ्नकृत् / समाप्यतां विधिः शेषः क्लेशश्चेतास चेन्न ते ? / / 6 / / / प्रेयसेति / प्रेयसा प्रियतमेन नलेन, तन्वी कृशाङ्गी, सा दमयन्ती, अवादि कथिता / किमवादि ? तदेवाह-हे प्रिये ! चेत् यदि, ते तव, चेतसि मनसि, क्लेशः दुःखम् , मदागमनविलम्बजनितमिति भावः, न, भवेदिति शेषः / तर्हि त्वदालिङ्ग. नस्य तव आश्लेषजनितसुखस्य, विघ्नकृत् अन्तरायभूतः, शेषः प्रातः स्नानसन्ध्योपासनानन्तरं कर्तव्यतया अवशिष्टः, विधिः नित्याग्निहोत्रादेः अनुष्ठानम् , समा. प्यतां समाप्तिः विधीयताम् , मयेति शेषः, भवत्या एतेषां कर्मणां समाप्तिः अनुज्ञा. यतामित्यर्थः // 6 // प्रियतम ( नल ) ने तन्वी ( कृशोदरी दमयन्ती ) से कहा कि-'यदि तुम्हारे चित्तमें यलेश नहीं हो तो तुम्हारे आलिङ्गनके विघ्नकारक अवशिष्ट ( बचे हुए, अग्निहोत्रादि ) नित्यकर्मको भी ( मैं ) समाप्त कर लू' // 6 // 1. 'विधेः' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1303 कैतावान्नर्ममर्माविद्विद्यते विधिरद्य ते ? / इति तं मनसा रोषादवोचद्वचसा न सा / / 7 / / क्वेति / अद्य इदानीमपि, त्वयि मम प्रगाढानुरक्तिं विदित्वाऽपीति भावः / यद्वा-प्रत्यूषे उत्थाय स्नानाथं गतोऽसि, तदनन्तरं बहवः काला: अपगताः, इदानीमपीति भावः / ते तव, एतावान् इयान् , नर्मणः क्रीडासुखस्य, मर्म विध्यतीति मर्मावित् मर्माभिघातकः, अतीव क्लेशप्रदप्रतिबन्धक इत्यर्थः। 'नहिवृति-' इत्यादिना पूर्वस्य दीर्घः। विधिः नित्यक्रियानुष्ठानम्, क कुतः, किमर्थमित्यर्थः / विद्यते ? अस्ति ? बहुक्षणं त्वया सह वियुक्ता अस्मि, न पुनरिदानीं विलम्ब सोढुं मया शक्यते, अतः वैधानुष्ठानमिदानी तिष्ठतु, आगच्छ मत्समीपमित्याशयः, इति एवम् , सा भैमी, रोषात् कोपात् , नलस्य आगमनविलम्बजनिताभिमानादिति भावः / तं नलम् , मनसा चेतसा, अवोचत् उक्तवती, वचसा वाक्येन, सुस्पष्टमित्यर्थः, न, अवोचदिति पूर्व क्रियया अन्वयः / लज्जादाक्षिण्यादिति भावः // 7 // उस ( दमयन्ती) ने उस (नल ) के प्रति मनसे ही क्रोधयुक्त यह वचन कहा, ( लज्जा तथा दाक्षिण्यके कारण ) वचनसे नहीं कहा-आलिङ्गनादि क्रीडा-रहस्यका विघातक आज इतनी विधि (नित्यानुष्ठान ) कहांसे हो गया ? [ 'आपको स्नानार्थ गये बहुत विलम्ब हो गया, आजतक इतना नित्यानुष्ठान कभी नहीं करते थे, सो आज मेरी आलिङ्गनादि क्रीडाका विघातक इतना नित्यानुष्ठान कहांसे बाकी रह गया ?' इस प्रकार दमयन्तीने क्रोधसे नलको मूक उत्तर दिया, स्पष्ट कुछ नहीं कहा ] / / 7 / / क्षणविच्छेदकादेव विधेर्मुग्धे ! विरज्यसि / 'विच्छेत्ताहे चिरं नु त्वा हृदाऽऽह स्म तदा कलिः / / 8 / / क्षणेति / मुग्धे ! हे मूढे! भैमि! क्षणविच्छेदकादेव किञ्चित्कालमात्रविरहसम्पादकादेव, विधेः अनुष्ठानात् , विरज्यसि विरक्ता भवसि, किन्तु, नु भोः ! त्वा स्वाम् / 'स्वामौ द्वितीयायाः' इति त्वाऽऽदेशः / चिरं चिरकालम , विच्छेत्ताह विच्छे. तस्यामि / छिदेः स्वरितेत्त्वाल्लुटि तङि इट् , 'स्यतासी लुलुटोः' इति धातोः तालि प्रत्यये कृते 'टित आत्मनेपदानां टेरे' इत्यनेन इटष्टेरेत्वे 'ह एति' इति सकारस्य हकारः / अहमिति शेषः / इति एवं, तदा तत्काले, दमयन्त्याः मुखमलिनीकरणसमये इत्यर्थः / कलिः कलिपुरुषः, हृदा स्वचेतसा, आह स्म उवाच / यद्यपि अधुना किमपि अनिष्टं कत न शक्नोमि, तथाऽपि रन्ध्रान्वेषी तिष्ठामि इति भावः / नलस्य पापच्छिद्रमन्विष्यन् ईष्र्युः कलिः तयोः प्रासादसमीपवर्तिनि अक्षवृक्षे अधिष्ठानं कृतवानिति प्राक् वर्णितमासीत् , तत्रस्थ एव स नलदमयन्त्योः आलापनं श्रुत्वा विरहेण दीनाननां भैमी विलोक्य एवमुक्तवानिति मन्तव्यम् // 8 // 1. 'विच्छेत्ता न चिरं वेति' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः।
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________________ 1304 नैषधमहाकाव्यम्। 'हे मुग्धे ( मोहित चित्तवाली दमयन्ति ) ! क्षणमात्र वियोग करानेवाले नित्यानुष्ठानसे ही विरक्त ( या-विह्वल ) होती हो ?, मैं तुमको चिरकालतक वियुक्त करूंगा ( पाठा०मैं तुमको शीघ्र वियुक्त करूंगा )' इस प्रकार ( नलके क्रीडोद्यानस्थ बहेड़ेके वृक्षपर रहते हुए नलच्छिद्रान्वेषी ) कलिने अपने मनमें ही कहा // 8 // सावज्ञेवाथ सा राज्ञः सखी पद्ममुखीमगात् / लक्ष्मीः कुमुदकेदारादारादम्भोजिनीमिव / / 6 // सावक्षेति / अथ नलवाक्यश्रवणानन्तरम, सा भैमी, सावज्ञेव सतिरस्कारेव सती, स्वां विहाय होमाचनुष्ठानार्थ नलस्य गमनाभिप्रायात् सावमानेवसतीत्यर्थः। लचमीः, शोभा, कुमुदकेदारात् कैरवक्षेत्रात् , तं विहाय इत्यर्थः। आरात् कुमुदाकरसमीपस्थिताम् , पद्ममेव मुखं यस्याः तादृशीम् , अम्भोजिनी पद्मिनीम इव, प्रातःकाले इति भावः। राज्ञः नलसमीपात् , राजानं विहाय इति वा / कर्मणि त्यब्लोपे पञ्चमी। आरात् समीपे, समीपवर्तिनीमित्यर्थः। पनम् इव मुखं यस्याः तादृशीम, सखी वयस्याम, अगात् अगमत् , अवज्ञाता हि अवज्ञाकारिणं विहाय गच्छन्तीति प्रसिद्धिः / लक्ष्मीनिर्गमे कुमुदक्षेत्रस्य यथा मालिन्यं तत्सम्पर्कात् पद्मानां च यथा विकासो भवति, तथा भैमीविरहात् नलमुखस्य मालिन्यं तत्समागमात् सखीमुखस्य च स्मितशोभित्वं सूचितमनया उपमया इति द्रष्टव्यम् // 9 // - इसके बाद तिरस्कारयुक्त-सी वह ( दमयन्ती) राजा नलके पाससे पद्ममुखी ( पद्मवत् सुन्दर मुखवाली, अथच-'पद्ममुखी' नामवाली ) सखीके पास उस प्रकार गयी, जिस प्रकार (प्रातःकालमें ) कुमुद-क्षेत्रसे समीपवर्ती कमलरूप मुखवाली अम्भोजिनीके पास शोमा जाती है / [ प्रातःकालमें जिस प्रकार शोभारहित कुमुदनिमोलित होने से मलिनमुख और कमलिनी विकसित होनेसे प्रसन्नमुख होती है, उसी प्रकार दमयन्तीके चले जानेसे नल मलिनमुख ( खिन्न ) हो गये और सखी प्रसन्नमुखी हो गयी ] // 9 // ममासावपि मा सम्भूत् कलिद्वापरवत् परः / इतीव नित्यसत्रे तां स त्रेतां पर्यतूतुषत् / / 10 / / ममेति / असौ त्रेता अपि, कलिद्वापरवत् चतुर्थतृतीययुगाधीशाविव, मम मे परः शत्रुः, मा सम्भूत् न जायतां, मायोगादडभावः / इतीव इति मत्वेव, सः नलः, नित्यसत्रे प्रत्यहमनुष्ठेययज्ञे अग्निहोत्रे, 'एतद्वै जरामयं सत्रं यदग्निहोत्रम्' इति श्रुत्या नित्यत्वावगमादित्यर्थः / 'सत्रमाच्छादने यज्ञे' इत्यमरः / ताम् आहवनीय-गाहपत्यदक्षिणाग्नित्वेन प्रसिद्धाम , रामरावणादीनां विविधव्यापाराश्रयत्वेन प्रसिद्धाञ्च, त्रेताम् अग्नित्रयम् , द्वितीययुगञ्च / 'त्रेता त्वग्नित्रये युगे' इत्यमरः। पर्यतूतुषत् हविषा परितोषयामास / 'सत्कर्मणि पतयः-' इत्यादिना विकल्पेनोपधाया ह्रस्वः॥१०॥ यह ( 'नेता' नामक द्वितीय युगाधिष्ठातृदेव ) भी कलि तथा द्वापरके समान मेरा
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________________ विंशः सर्गः। 1305 शत्रु न हो जाय', मानो ऐसा मानकर उस (नल ) ने नित्ययश ( अग्निहोत्र ) में उस 'त्रेता' (गाईपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि, पक्षा०-'त्रेता' नामक द्वितीय युगके अधिष्ठाता देवविशेष ) को ( हविष्यसे ) सब प्रकार तुष्ट किया अर्थात् अग्निहोत्र किया / [अग्नित्रयको अग्निहोत्र कर्ममें हवनद्वारा तुष्ट नहीं करनेपर नित्यानुष्ठानजन्य प्रत्यवाय होने के मयसे नलने 'त्रेता' ( अग्नित्रय) को हवन करके सन्तुष्ट किया, किन्तु वास्तवमें तो वे दमयन्तीके ही अधीन थे] // 10 // (युग्मम् ) क्रियां प्राहृतनी कृत्वा निषेधन पाणिना सखीम् / कराभ्यां पृष्ठगस्तस्या न्यमोमिलदसौ दृशौ / / 11 / / दमयन्न्या वयस्याभिः सहास्याभिः समीक्षितः / प्रमृतिभ्यामिवायामं मापयन् प्रेयसीहशोः / / 12 / / क्रियामिति / असौ नलः, प्रा?तनी प्राले भवाम् , पूर्वाह्नकृस्यामित्यर्थः / 'सायं चिरम-' इत्यादिना ट युप्रत्ययः तस्य तुट् च / तस्मात् एव निपातनात् प्रादतनीमिति / क्रियाम् अनुष्ठानम् , कृत्वा विधाय, सखीं पूर्वोक्तां सहचरीम् , पाणिना हस्तसंज्ञया, निषेधन निबारयन् , स्वागमनं विज्ञापयितुमिति शेषः, तस्याः भैम्याः, पृष्ठगः पश्चाद्देशे स्थितः सन् कराभ्यां पाणिभ्याम्, दृशौ लोचने, दमयन्त्या एव इति शेषः, न्यमीमिलत् अवारुणत् , कौतुकार्थमिति भावः / 'भ्राजभास-' इत्यादिना / विकल्पेनोपधाया हस्वविधानात् पने हस्वः' // दमयन्त्या इति / प्रसुतिभ्यां निकुब्जपाणिभ्याम् , गण्डूषार्थ क्रियमाणकरतुल्यसङ्कोचितकराभ्यामित्यर्थः / 'पाणिनिकुन्जः प्रसूतिः' इत्यमरः / प्रेयसीदृशोः भैमीनयनयोः, मायामं देय॑म् , मापयन् तोलयन् इव स्थितः, मातेः माङो वा ण्यन्तात् लटः शनादेशः। तथा सहास्याभिः सम्मुखतः नलदर्शनात् ईषत् हसन्तीभिः, दमयन्त्याःभैम्याः, वयस्याभिः सखीभिः, समीक्षितः दृष्टः, असौ नलः लोचने न्यमीमिलदिति पूर्वेणान्वयः // 11-12 // ___ प्रातःकालकी ( अवशिष्ट अग्निहोत्रादि ) क्रिया समाप्तकर ( 'मैं आगया हूँ। यह बात प्रिया दमयन्तीसे मत कहो' इस प्रकार ) हाथसे सखीको मना करते हुए, ( अत एव ) हँसती हुई सखियोंसे देखे गये तथा प्रियाके नेत्रद्वयको मानो दोनों पसरोंसे मापते हुए उस नलने पीछेसे आकर उस ( दमयन्ती ) के नेत्रोंको बन्द कर दिया / / 11-12 / / तर्किताऽऽलि ! त्वमित्यर्द्ध-वाणीका पाणिमोचनात् / ज्ञातस्पर्शान्तरा मौनमानशे मानसेविनी // 13 // तर्कितेति / आलि ! हे सखि ! त्वं नेत्राच्छादिका भवती, तर्किता अवधारिता 1. 'णौ चङि-' इत्युपधाया हस्वः इति 'प्रकाश'-व्याख्यानमेव समीचीनं भाति।
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________________ 1306 नैषधमहाकाव्यम्। अनुमानेन ज्ञाता इत्यर्थः, मया इति शेषः। इति एवम् , अर्द्धा 'अतो मां जहीहि' इत्यवशिष्टांशस्य अवचनात् असम्पूर्णरूपा, वाणी वाक्यं यस्याः सा तादृशी / शैषिकः कप / पाण्योः नयनपिधायकनलहस्तयोः, मोचनात् निजपाणिभ्याम् अपनोदनात् हेतोः, ज्ञातं विदितम् , स्पर्शान्तरम् अन्यविधः स्पर्शः, सखीस्पर्शात् विलक्षणः नलस्पर्शः इत्यर्थः / यया सा तादृशी निश्चितप्रियपाणिस्पर्शा, दमयन्तीति शेषः / मानसेविनी अभिमानवती, नलस्य दमयन्त्यनादरपूर्वकत्रेतानुरक्तत्वेन तस्मिन्मान: वती सतीत्यर्थः / मौनं नीरवताम् , भानशे प्राप, न किञ्चिदूचे कोपादिति भावः॥१३॥ हे सखि ! ( नेत्र बन्द करनेवाली तुमको मैंने ) अनुमानसे जान लिया, ऐसी आधी बात कही हुई, तथा ( अपने हाथोंसे नलके ) हार्थों को छुड़ानेसे ( पतिके ) स्पर्शको पहचानती हुई ( मेरे साथ आलिङ्गनादि छोड़कर 'त्रेता' में अनुरक्त होनेसे नल के प्रति ) मान करने वाली दमयन्ती चुप हो गयी। [ 'तमको मैंने अनुमानसे जान लिया' इतनी आधी बात हो दमयन्तीने सखीको सम्बोधितकर कहा था 'अतः अब मुझे छोड़ दो' यह आधी बात कहना बाकी ही था, इतने में अपने हाथसे नलके हाथको छुड़ाते सनय उनके स्पर्शको पहचान लेने से 'अरे मैं तो 'सखीने आँख बन्द किया है' ऐसा समझती थी, किन्तु 'ये सखी नहीं, अपितु प्रियतम नल हैं। ऐसा जानकर मानयुक्त होनेसे उक्त बातको पूरा नहीं कहा, किन्तु आधी बात कह कर ही चुप लग गयी] // 13 // 'साऽवाचि सुतनुस्तेन कोपस्ते नायमौचिती / त्वां प्रापं यत्प्रसादेन प्रिये ! तन्नाद्रिये तपः // 14 // सेति / तेन नलेन, सुतनुः अनवद्याङ्गी, सा भैमी, अवाचि उक्ता / वचेः कर्मणि लुङ् / तदेवाह-हे प्रिये ! ते तव, अयं क्रियमाणः, कोपः रोषः, नौचिती न न्यायः, अनुचित इत्यर्थः / तथा हि, यस्य तपसः, प्रसादेन अनुग्रहेण, त्वां भवतीम् , प्रापं प्राप्तवान् अस्मि, अहमिति शेषः। आप्नोतेलुङ 'तस्थस्थमिपां तान्तन्तामः' इति मिपोऽमादेशः। तत् महोपकारि, तपः अग्निहोत्रादिकर्म, न आद्रिये ? न सत्करोमि ? इति काकुः, अपि तु अवश्यमेव तस्य समादरं करोमि, तत्प्रसादादेव यतः त्वां लब्धवानस्मि इति निष्कर्षः // 14 // सुन्दर शरीरवाली दमयन्तीसे नलने कहा कि-'तुम्हें यह कोप करना उचित नहीं है, ( क्योंकि ) जिसके प्रसादसे ( मैंने ) तुम्हें पाया है, उस तपका मैं आदर नहीं करूं ? अर्थात् तुम्हें प्राप्त कराने में कारण होनेसे उस तप ( अग्निहोत्रादि नित्यानुष्ठान ) का मुझे आदर करना ही चाहिये, अत एव तुम्हें मुझपर क्रोध करना उचित नहीं हैं // 14 // निशि दास्यं गतोऽपि त्वां स्नात्वा यन्नाभ्यवीवदम् / तं प्रवृत्ताऽसि मन्तुं चेन्मन्तुं तद्वद वन्द्यसे / / 15 // 1. 'साऽवादि' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'प्राप' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1307 निशीति / हे प्रिये ! निशि रात्री, दास्यं दासत्वम् , तवेति शेषः / चरणमर्दनव्यजनादिना सुरतश्रान्त्यपनोदनार्थमिति भावः / गतः प्राप्तोऽपि, अहमिति शेषः, स्नात्वा स्नानात् आगत्य, त्वां भवतीम् , यत् न अभ्यवीवदं न अभिवादितवान् अस्मि / वदेरभिवादनार्थाच्चौरादिकात् ण्यन्ताच्चडि 'जो चङयपधाया हस्वः' इति उपधाह्रस्वः / तम् अनभिवादनमेव, मन्तुम् अपराधम् , 'आगोऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः / मनेरौणादिकस्तुन्प्रत्ययः। मन्तुं विवेचयितुम् / मन्यतेस्तुमुन्प्रत्ययः / प्रवृत्ता उद्युक्ता, असि भवलि, चेत् यदि, दासस्याप्रणतेरपराधत्वादिति भावः / तत् तहि, वद कथय, वन्द्यसे नमस्क्रियसे, इदानीमेव मया त्वमिति शेषः / प्रणिपात. प्रतीकारस्वात् अपराधस्येति भावः // 15 // ( सुरतश्रमको दूर करने के लिए चरणसंवाहन, व्यजनचालन आदि करके) रात्रिमें तुम्हारे दासभावको प्राप्त भी मैंने ( प्रातःकाल ) स्नानकर जो अभिवादन नहीं किया, उसीको तुम अपराध मानने के लिये तैयार हो तो कहो, ( यह मैं तुम्हारा) अभिवादन करता हूँ। [ प्रणिपातपर्यन्त सज्जनोंका क्रोध होनेसे अभिवादन करनेपर तुम्हे मुझपर क्रोध करना छोड़ देना चाहिये ] // 15 // इत्येतस्याः पदासत्त्यै पत्यैषा प्रेरितौं' करौ। रुद्ध्वा सकोपं सातडूं तं कटाक्षरममुहम // 16 // इतीति / एषा दमयन्ती, पत्या प्रियेण नलेन, इति इस्थम् , उक्त्वेति शेषः, एतस्याः प्रियाया भैम्याः, पदासत्यै अभिवादनार्थ पादग्रहणाय, प्रेरितौ प्रसारितो, करौ हस्ती, रुद्ध्वा स्वकराभ्यां निरुध्य, सकोपम् अनर्ह करणात् सक्रोधम् , सातकं सभयञ्च, स्वचरणे स्वामिकरस्पर्शस्य अनौचित्यादिति भावः / कटाक्षः अपाङ्गविलो. कनैः, तं प्रियम् अमूमुहत् मोहयति स्म, स्मरात्तं कृतवतीत्यर्थः // 16 // ऐसा ( 20 / 14-15) कहकर इस ( दमयन्ती) ने चरण-स्पर्शके लिए पति ( नल ) के द्वारा बढ़ाये गये दोनों हाथोंको क्रोध तथा ( पति के द्वारा मेरे चरणोंका स्पर्श न हो जाय, इस भावनासे ) भयके साथ रोककर कटाक्षसे उस ( नल ) को मोहित कर लिया अर्थात् कटाक्षोंद्वारा दमयन्तीने नलको कामाधीन कर लिया // 16 // अवोचत ततस्तन्वीं निषधानामधीश्वरः। तदपाङ्गचलत्तारा-झलत्कारवशीकृतः / / 17 / / अवोचतेति / ततः कटासुग्धीभावानन्तरम् , तस्याः प्रियायाः, अपाङ्ग नेत्रान्ते, चलन्त्याः भ्रमन्त्याः, तारायाः कनीनिकायाः, झलंकारेण प्रभास्फुरणेन, वशीकृतः आयत्तीभूतः, निषधानां निषधदेशीयानाम् , अधीश्वरः अधिपतिः नलः, तन्वीं कृशाङ्गी प्रियाम् , अवोचत अभाषत / वो लुङि रूपम् // 17 // 1. 'प्रेषितौ' इति पाठान्तरम् / 22 नै० उ०
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________________ 1308 नैषधमहाकाव्यम् / तदनन्तर ( दमयन्ती कटाक्षोंसे मोहित होने के बाद ) उस (दमयन्ती ) के नेत्रप्रान्तमें चञ्चल कनीनिकाओं ( नेत्रकी पुतलियों) की स्फुरित होती हुई प्रभासे वशीभूत नल तन्वी (कृशाङ्गी दमयन्ती ) से बोले // 17 // कटाक्षकपटारब्ध- दूरलङ्घनरंहसा / दशा भीत्या निवृत्तं ते कर्णकूपं निरूप्य किम् ? // 18 // कटाक्षेति / हे प्रिये ! कटाक्षकपटेन अपाङ्गदर्शनव्याजेन, आरब्धम् उपक्रान्तम् , दूरलङ्घनरंहः विप्रकृष्टदेशोत्पतनवेगः यथा ताशया, ते तव, दृशा नयनेन, कर्णः अतिः एव, कूपः गतः तम् , निरूप्य निरीक्ष्य, भीत्या भयेन, कूपलङ्घनोपक्रमे तत्र पतनभिया इत्यर्थः / निवृत्तं किम् ? निरस्तं किम् ? दूरलङ्घनेच्छुरन्योऽपि जनः सम्मुखे कूपं तिष्ठच्चेत् तत्र पतनभिया स्वारब्धात् निवृत्तो भवतीति लोके दृश्यते / आकर्णविश्रान्तलोचना दमयन्तीति तात्पर्यम् // 18 // ___ कटाक्षके कपटसे दूर तक जाने के लिये वेगको आरम्भ की हुई अर्थात् सवेग चलती हुई तुम्हारी दृष्टि कानरूप कूएका निश्चयकर ( उसमें गिरनेके) भयसे लौट आयी क्या ? [ लोकमें भी दूरतक जानेके लिए वेगपूर्वक चलना आरम्भ करके कोई व्यक्ति मार्गमें कृपको देखकर उसमें गिरनेके भयसे जिस प्रकार वापस लौट आता है, उसी प्रकार कटाक्षके छलसे दूर ( कानसे भी आगे) तक जाने के लिए सवेग दृष्टि कर्णकूपको देखकर लौट आयी है क्या ? ऐसा ज्ञात होता है ] // 18 // सरोषाऽपि सरोजाक्षि ! त्वमुदेषि मुदे मम / ___ तताऽपि शतपत्रस्य सौरभायैव सौरभा / / 19 // सरोषेति / सरोजाति ! हे कमललोचने! सरोषाऽपि रुष्टाऽपि, त्वं भवती, मम मे, सुदे हर्षाय एव, उदेषि भवसि, नयनाननयोः तात्कालिकसुषमाया अतीवरमणीयत्वादिति भावः / तथा हि-तप्ता उष्णा अपि, सूर्यस्य इयं सौरी सूर्यसम्बन्धिनी / 'सूर्यागस्त्ययो:-' इत्यादिना यकारलोपः / सौरी च साभा प्रभा च सौरभा सूर्यप्रभा। 'स्त्रियाः पुंवत्-' इत्यादिना पुंवद्भावः / शतपत्रस्य कमलस्य, सौरभाय एवं सुरभिस्वाय एव, प्रस्फुटनद्वारा सुगन्धवितरणायवेत्यर्थः, न तु शोषगाय, भवतीति शेषः / दृष्टान्तालङ्कारः // 19 // __ हे कमलनयनी ( दमयन्ति ) ! क्रोधयुक्त भी तुम मेरे हर्षके लिए होती हो, क्योंकि उष्ण भी सूर्य-कान्ति कमलके (विकसित करके) सुगन्धिके लिए ही होती है ( शोषणके लिए नहीं ) / [ तुम्हारे क्रोध करनेपर भी आलिङ्गनादि करने के लिए उत्तम शोमा होनेसे मुझे आनन्द ही होता है ] // 19 / / 1. 'दृशाभ्येत्य' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1304 छेत्तुमिन्दौ भवद्वक्त्र-बिम्बविभ्रमविभ्रमम् | शङ्के शशाङ्कमानके भिन्नभिन्नविधिविधिः / / 20 // छेत्तमिति / हे प्रिये ! भिन्नभिन्नः पृथक् पृथक् प्रकारः, अत्यन्तविलक्षणरूप इत्यर्थः / विधिः निर्माणब्यापारः यस्य सः तादृशः, विधिः विधाता, इन्दौ चन्द्रे, भवत्याः तव, वक्त्रबिम्बस्य मुखमण्डलस्य / 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' / यः विभ्रमः शोभा, तस्य विभ्रमं भ्रान्तिम् / 'विभ्रमः संशये भ्रान्तौ शोभायाञ्च' इति यादवः / सादृश्यजन्यं लोकानां तव मुखभ्रममित्यर्थः। छेत्तुं निराकर्तुम् / छिदेः तुमुन् / शशाङ्क शशस्य मृगस्य, अङ्कं चिह्नम् , आनङ्के अक्षितवान् / 'अकि लक्षणे' इति धातोभौंवादिकाल्लिटि तङ्, 'तस्मान्नुड् द्विहलः' इति नुडागमः। इति शङ्के मन्ये, अहमिति शेषः / ईदृशाकरणे निश्चितमेवं इन्दौ लोकानांतव मुखभ्रान्तिरुत्पद्येत इति भावः // 20 // मिन्न-भिन्न विधिदाले अर्थात् प्रत्येक वस्तुकी एक दूसरेसे भिन्न रचना करनेवाले ब्रह्माने तुम्हारे मुखकी शोभाके विशिष्ट भ्रम ( अथवा-विलास ) को नष्ट करनेके लिए चन्द्रको शशसे चिह्नित कर दिया है, ऐसी मैं शङ्का करता हूँ। [ यदि चन्द्रमें शशचिह्न नहीं होता तो वह तुम्हारे मुखकी शोमाको प्राप्त करता, तथा 'यह चन्द्र है या दमयन्तीमुख ?' इस प्रकारका भ्रम लोगोंको हो जाता; किन्तु वैसा नहीं होनेसे इस समय तुम्हारा मुख चन्द्रसे भी अधिक सुन्दर है तथा लोगोंको तुम्हारे मुख तथा चन्द्र के पहचाननेमें भ्रम नहीं होता है ] // 20 // ताम्रपर्णीतटोत्पन्नैर्मोक्तिकैरिन्दुकुक्षिजैः / बद्धस्पद्धतरा वर्णाः प्रसन्नाः स्वादवस्तव / / 21 // ___तामेति / प्रसन्नाः प्रसादगुगसम्पन्नाः, सुस्पष्टा इत्यर्थः। स्वच्छाश्व, स्वादवः मनोज्ञाः, श्रवणपिपासावर्द्धकाः इति यावत् / सुमधुराश्च 'स्वादू मिष्टमनोज्ञयोः' इति मेदिनी। तव भवत्याः, वर्णाः स्वन्मुखोच्चरितानि अक्षराणि, ताम्रपाः तदाख्यायाः स्वच्छजलायाः कस्याश्चित् नद्याः, तटे तीरदेशे, उत्पन्नः सञ्जातः, अत एव स्वच्छरिति भावः / तथा इन्दुकुक्षिजैः चन्द्रग त्पन्नश्च, अत एव पीयूषसम्पर्कात् मधुरे। रिति भावः / मोक्तिः मुक्ताफलैः सह, बद्धस्पर्द्धतराः बद्धा वृता इत्यर्थः, स्पर्धा सादृश्यजनिताभिमानः यस्ते तादृशाः बद्धस्पर्धाः अतिशयेन बद्धस्पर्धाः बद्धस्पर्द्ध तराः, भवन्तीति शेषः / ततोऽपि तव वर्णानामेव अधिका स्वच्छता मधुरता च इति भावः // 21 // ताम्रपर्णी नदीके तीर में तथा चन्द्र (पक्षा०-गन्ने ) के मध्यमें उत्पन्न मोतियोंसे ( स्वच्छता स्वादुतामें समानता होने के लिए ) अधिक स्पर्धा करनेवाले तुम्हारे वर्ण (मुखो. 1. '-रिनुकुक्षिजेः' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1310 नैषधमहाकाव्यम् / च्चारित अक्षर ) निर्मल तथा स्वादिष्ट ( कर्णमधुर ) हैं। [ मलयाचलसे निकलकर दक्षिण समुद्रमें गिरनेवाली स्वच्छतम जलवाली ताम्रपर्णी नदीके तीर में उत्पन्न मोती केवल स्वच्छ ही होंगे, अत एव अमृतमय चन्द्र ( अथवा-मधुरतम इक्षु-गन्ना ) से उत्पन्न होनेको कहा गया है, अतएव अपनेमें अधिक स्वच्छता तथा स्वादिष्टता होने के अमिमानसे तुम्हारे मुखले उच्चारण किये गये अक्षर उक्तरूप मोतियोंसे अधिक स्पर्धा करते हैं और उन मोतियोंसे अधिक स्वच्छ तथा मधुर ( कर्णप्रिय ) लगते हैं ] // 21 // त्वगिरः क्षीरपाथोधेः सुधयैव सहोत्थिताः / अद्य यावदहो ! धावद्दुग्धलेपलवस्मिताः / / 22 // स्वदिति / हे प्रिये ! त्वद्रिः तव वाक्यानि, सुधया अमृतेन, स हैव सार्द्धमेव, क्षीरपाथोधेः दुग्धसागरात् , उस्थिताः उद्गताः, इति शेषः / अतः सुधासंसर्गादेव तासां सुधावत् माधुर्य प्रतीयते इति भावः / ततश्च अद्य यावत् अद्यपर्यन्तमपीत्यर्थः / धावन्ति स्त्रवन्ति, दुग्धलेपानां क्षीरसमुद्धे अवस्थानात् लिप्तक्षीराणाम् , लवाः बिन्दव एव, स्मितानि ईषद्धास्यानि याभ्यः ताः तादृश्यः, यद्वा-धावतांस्रवताम् , दुग्धानां लेपस्य तत्र संसृष्टस्य, लवा एव स्मितानि यासु ताः तादृश्यः परिलच्यन्ते इति शेषः / इति अहो ! आश्चर्यम् ! स्मितव्याजेन तीरलिप्तत्वात् त्वद्विरां सुधया क्षीरेण च साई क्षीरसागरोत्पन्नत्वम् उन्नीयते, अन्यथा तथाभावासम्भवादिति भावः // 22 // तुम्हारे वचन क्षीरसमुद्रसे अमृतके साथ ही निकले हैं, क्योंकि आजतक ये फैलते हुए दुग्धलेपके अंशरूप स्मितसे युक्त हैं अहो ! ( आश्चर्य है)। [स्मितके छलसे आजतक क्षीर. समुद्रके दुग्धांशयुक्त तथा मधुर होनेसे अमृतयुक्त इन तुम्हारे वचनोंके होनेका अनुमान होता है ] // 22 // पूर्वपर्वतमाश्लिष्ट-चन्द्रिकश्चन्द्रमा इव / अलञ्चक्रे स पर्यङ्कमङ्कसङ्क्रमिताप्रियः // 23 // पूर्वेति / आश्लिष्टा आलिङ्गिता, स्पृष्टा इति यावत् , चन्द्रिका कौमुदी येन सः तादृशः, चन्द्रमाः चन्द्रः, पूर्वपर्वतम् उदयाद्रिम् इव, अङ्कसमिता क्रोडारोपिता, प्रिया दमयन्ती येन सः तादृशः क्रोडोपवेशितभैमीकः 'अपूरणीप्रियादिषु' इति वचनान्न प्रियापरस्य पूर्वपदस्य 'स्त्रियाः पुंवत्-' इत्यादिना पुंवद्भावः / सः नलः, पर्यत शयनम् , अलश्चक्रे भूषयामास, उपनिवेश इत्यर्थः / / 23 // चाँदनीका आश्लेष ( स्पर्श ) कर चन्द्रमा जिस प्रकार उदयाचलको अलकृत करता है, उसी प्रकार क्रोडमें प्रिया ( दमयन्ती ) को लिये हुए उस (नल) ने पलङ्गको अलंकृत किया / [नल दमयन्तीको अङ्कमें लेकर पलङ्गपर बैठ गये ] // 23 //
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________________ विशः सर्गः। 1311 प्रावृडारम्भणाम्भोदः स्निग्धो द्यामिव स प्रियाम् / परीरभ्य चिरायास विश्लेषायासमुक्तये // 24 // प्रावृडिति / स्निग्धः अनुरक्तः, दमयन्ती प्रति प्रीतिसम्पन्नः इत्यर्थः / जलगर्भस्वात् ममृणश्च / सानलः, प्रावृडारम्भणे वर्षाप्रारम्भे, अम्भोदः मेघः, घांनभास्थलीम् इव, विश्लेषायासमुक्तये वियोगक्लेशपरिहाराय, प्रियां भैमीम् , परीरभ्य आलिङ्गन्य, चिराय दीर्घकालपर्यन्तम, आस शुशुभे,चिरमाश्लिप्य अवस्थितः इत्यर्थः / मासेति तिङन्तप्रतिरूपकम्' इति शाकटायनः, वामनश्च 'अस गतिदीपयादानेविति असधातोः' इत्याह 'आसेत्यसतेः' इति // 24 // ( दमयन्तीके प्रति ) अनुरक्त ( पक्षा०-जलपूर्ण होनेसे कृष्णवर्ण) वह नल, वर्षारम्भमें मेघ ( शरद् ऋतु आकाशमें उड़नेके कारण ) पक्षियों के सम्बन्धरूप आयासको दूर करने के लिए प्रिय आकाशका आलिङ्गन कर ( व्याप्त होकर ) जिस प्रकार बहुत देरतक ठहरता है; उसी प्रकार ( स्नान अग्निहोत्र आदि नित्यानुष्ठानके विलम्बसे उत्पन्न ) विरहदुःखको दूर करने के लिये प्रिया दमयन्तीका आलिङ्गनकर बहुत देर तक ठहरे अर्थात् बहुत देरतक उसे आलिङ्गनकर अङ्कमें लिये रहे // 24 // चुचुम्बास्यमसौ तस्या रसमग्नः श्रितस्मितम् / नभोमणिरिवाम्भोज मधुमध्यानुबिम्बितः // 25 // चुचुम्बेति / रसमग्नः अनुरागसागरान्तर्निविष्टः, असौ नलः, श्रितस्मितं प्राप्तमन्दहासम् , आलिङ्गनजन्यानन्देन क्रोधापगमादिति भावः / प्राप्तविकासच, तस्याः दमयन्त्याः, आस्यं मुखम् , मधुमध्ये कमलस्यैव मकरन्दाभ्यन्तरे, अनुबिम्बितः प्रति. फलितः, एवञ्च नभोमण्यम्भोजयोः परस्परं सुदूरव्यवधाने सत्यपि चुम्बने न काs. प्यनुपपत्तिरिति मन्तव्यम् / नभोमणिः रविः, अम्भोज कमलम् इव, चुचुम्ब चुम्बि. तवान् // 25 // प्रेमरससे परिपूर्ण उस ( नल ) ने ( बहुत देरतक आलिङ्गन करनेके कारण क्रोधके नष्ट होनेसे ) स्मितयुक्त दमयन्तीके मुखका उस प्रकार चुम्बन किया, जिस प्रकार कमलमधुमें प्रतिबिम्बित एवं जलमें मग्न सूर्य विकसित कमलका चुम्बन ( प्रतिबिम्बित होकर अतिशय निकटस्थ होनेसे स्पर्श ) करता है // 25 // अथाहूय कलां नाम पाणिना स प्रियासखीम् / पुरस्ताद्वेशितामूचे कत्तु नर्मणि साक्षिणीम् / / 26 / / अथेति / अथ चुम्बनानन्तरम् , स नलः, कलां नाम कलानाम्नीम , प्रियासखीं भैम्याः वयस्याम् , नर्मणि परिहासक्रीडायाम् , साक्षिणी प्रत्यक्षदर्शिनीम् कत्तु विधा. तुम् , पाणिना हस्तसंज्ञया, आहूय आकार्य, पुरस्तात् अग्रे, वेशिताम् उपवेशिताम् , कृत्वेति शेषः, ऊचे बभाषे // 26 //
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________________ 1312 नैषधमहाकाव्यम् / ____ इस (चुम्बन करने ) के बाद (नल ) ने दमयन्तीकी 'कला' नामक सखीको हाथ ( के सङ्केत ) से बुलाकर तथा परिहासक्रीडामें साक्षिणी ( प्रत्यक्ष देखनेवाली ) करने के लिए सामने बैठाकर कहा // 26 // कस्मादस्माकमब्जास्या वयस्या दयते न वः ? / आसक्ता भवतीध्वन्यं मन्ये न बहु मन्यते // 27 / / कस्मादिति / हे कले ! अब्जास्या कमलवदना, वः युष्माकम् , वयस्या सखी, कस्मात् कस्य हेतोः, अस्माकं मामित्यर्थः / 'अधीगर्थ-' इत्यादिना कर्मणि षष्ठी : न दयते ? न अनुकम्पते ? मन्ये विवेचयामि, अहमिति शेषः / भवतीषु युष्मासु, आसक्ता अत्यन्तमनुरक्ता सती, अन्यम् अपरं जनम् , न बहु मन्यते न समाद्रियते॥ (हे कले ! ) कमलमुखी तुम लोगोंकी ( पाठा०-तेरी ) सखो ( दमयन्ती ) हमपर क्यों नहीं दया करती है ? ( जिस कारण दया नहीं करती, इस कारण मैं ) तुमलोगोंमें आसक्त ( यह ) अतिशय प्रेममग्न ( मेरे-जैसे) दूसरेका नहीं समादर करती है, ऐसा मानता हूँ / ( अथ च-'कमलमुखी दमयन्ती नवीन परिचयवाले भी मुझपर दया करती है और तुम लोगोंपर दया नहीं करती, ( अत एव ) तुमलोगोंमें अनासक्त स्नेहहीन यह मुझजैसे दूसरे लोगोंको मानती है' ऐसा अर्थ अग्रिम श्लोकके अनुरोध से करना चाहिये) // 27 // भन्वग्राहि मया प्रेयान्निशि स्वोपनयादिति / न विप्रलभते तावदालीरियमलीकवाक् ? / / 28 // अन्वग्राहीति / मया भैम्या, निशि रात्रौ, स्वोपनयात् आत्मसमर्पणात् , स्वाङ्ग दानं कृस्वेत्यर्थः / प्रेयान् प्रियतमः नलः, अन्वग्राहि अनुगृहीतः इति एवम् , अलीक. वाक अनृतवादिनी, इयम् एषा वः सखी, तावत् सकला एव, आलीः सखीः भवतीः, न विप्रलभते ? न प्रतारयति ? किमिति शेषः, इति काकुः; अपि तु प्रतारयत्येव / तस्मात् अहं रात्रौ प्रियतमाय आत्मसमर्पणं कृतवतीति युष्मत्समीपे यदियमुक्तवती तद् वचः न श्रद्धेयम् इति भावः // 28 // ___ 'मैंने रात्रि में आत्मसमर्पण ( आलिङ्गनादिके लिए वक्षःस्थलादिका समर्पण ) करनेसे प्रियतम ( नल ) को अनुगृहीत कर दिया है। ऐसा असत्य वचन कहने वाली यह सखियोंको भी नहीं ठगती है ? [ अर्थात् तुमलोगोंको भी ठगती है तो हम लोगोंकी गणना ही कौन है ? अत एव इसकी बातका कदापि तुमलोग विश्वास मत करना ] // 28 / / आह स्मैषा नलादन्यं न जुषे मनसेति यत् / यौवनानुमितेनास्यास्तन्मृषाऽभून्मनोभुवा || 26 || आहेति / एषा इयं वः सखी, नलात् नैषधात् , अन्यम् अपरं पुरुषम् मनसा 1. 'ते' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1313 चेतसा, अपीति शेषः, न जुषे न सेवे, इति यत् आह स्म ऊचे, अस्याः तव सख्याः, तद् वचनम् , यौवनानुमितेन यौवनेन तारुण्येन लक्षणेन,अनुमितः तर्कितः तादृशेन, एषा मनोभूमती यौवनवत्वात् , या या यौवनवती सा सा मनोभूमती इत्यनुमानविषयीकृतेनेत्यर्थः / मनोभुवा मनः चित्तमेव, भूः उत्पत्तिस्थानं यस्यतादृशेन कामेन, मृषा मिथ्या, अभूत् अजनि; मदन्यस्य कामस्य मनसासेवनात् अस्याः तारशी उकिः मिथ्या जाता इति निन्दाच्छलेन मय्येवेयं कामानुरक्तेति स्तुतेः व्याजस्तुतिः // 29 // ____ इस ( दमयन्ती) ने 'मैं नलके अतिरिक्त दूसरेका मनसे भी नहीं सेवन करती हूँ' ऐसा जो ( तुम लोगों के समक्ष ) कहा, युवावस्थासे अनुमित कामदेवसे इसका वह कथन असत्य हो गया [ युवावस्थामें यह कामासक्त है, अत एव मुझसे अतिरिक्त कामका सेवन करनेसे दमयन्तीका वह कथन असत्य हो गया / वस्तुतस्तु 'युवावस्थाके आरम्म होनेसे लेकर यह मुझमें ही आसक्त है' इस प्रकार नलने दमयन्तीकी प्रशंसा ही की है ] // 29 / / आस्यसौन्दर्यमेतस्याः शृणुमो यदि भाषसे / तद्धि लज्जानमन्मौलेः परोक्षमधुनाऽपि नः // 30 // आस्येति / हे कले ! एतस्याः युष्मत्सख्याः, आस्यसौन्दर्य मुखशोभाम् , यदि चेत् , भाषसे वर्णयसि, त्वमिति शेषः / तदा शृणुमः आकर्णयामः, वयमिति शेषः / ननु तव उत्सङ्गे एव यदा इत्यमुपविष्टा, तदा अस्मन्मुखे कथं शृणुथ, पश्यथ न कथम् ? इति चेदाह-हि यस्मात् , लजया त्रपया, नमन्मौले नम्रशिरसः, एतस्याः इति शेषः / तत् आस्यसौन्दर्यम् , अधुना अपि विवाहात् परमद्यपर्यन्तमपीत्यर्थः / नः अस्माकम् , परोक्षम् अणोरगोचरमेव, वर्तते इति शेषः / तत् यथा एषा लजा परित्यज्य स्वमुखकमलमस्मान् दर्शयति तथा क्रियताम् इति भावः // 30 // इस ( अपनी सखी दमयन्ती ) के मुखके सोन्दर्यका यदि तुम वर्णन करोगी तो इम सुनेंगे। ( 'अपने अङ्कमें स्थित इसके मुख-सौन्दर्यको आप स्वयं देखते ही हैं तो उसके वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ?' यह शङ्का तुम मत करो, क्योंकि-विवाहकालसे लेकर) अब तक भी लज्जासे अवनतमुखी ( मुखको नीचे की हुई ) इसका वह (मुखसौन्दर्य ) हमारे परोक्ष ( अदृष्टचर ) हो है / [ अत एव जिस प्रकार लज्जा छोड़कर अपने मुखकमलको यह मुझे दिखलावे वैसा उपाय करो, अथवा-परिहाससे 'कला' से नल कहते हैं कि-आजतक जब मैंने इसके सदा नम्रमुखी रहने से मुखसौन्दर्यको भी नहीं देख सका तो सम्भोगादिकी चर्चा ही व्यर्थ है, अत एव इसके उक्त वचन (रे लिए सर्वथा आत्मसमर्पण करने आदिकी बात ) पर विश्वास कदापि मत करना ] // 30 // पूर्णयैव द्विलोचन्या सैषाऽऽलीरवलोकते / द्राग्हगन्ताणुना मान्तु मन्तुमन्तमिवेक्षते // 31 // पूर्णयेति / सा उक्तरूपा लजानतशिरस्का, एषा दमयन्तो, पूर्णयैव समग्रयैव, न
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________________ 1314 नैषधमहाकाव्यम् / तु अन्तेन इति भावः / द्वयोः लोचनयोः समाहारः इति द्विलोचनी तया द्विलोचन्या नेत्रद्वयेन त्रिलोकीवत् प्रक्रिया / आलीः सखीः, अवलोकते पश्यति, मान्तु मां पुनः, मन्तुमन्तम् अपराधीनम् इव, द्राक् झटिति, क्षणमात्रमित्यर्थः। दृगन्ताणुना दृशः एकमात्रस्य चक्षुषः, न तु द्वयोः, अन्तःशेषभागः, न तु सम्पूर्णभागः, तस्यापि अणुना लेशमात्रेण, कटाक्षलेशेन इत्यर्थः। ईक्षते अवलोकयति, अन्योऽपि लोको यथा अपराधिनं घृणया कटाक्षमात्रेणावलोकयति तद्वदिति निष्कर्षः // 31 // यह (तुमलोगोंकी सखी दमयन्ती ) सखियोंको पूरे ही दोनों नेत्रोंसे देखती है, किन्तु अपराधीके समान मुझको तो एक नेत्रके प्रान्तके अल्पमात्र भाग ( लेशमात्र कटाक्ष ) से एकवार (या-झट-थोड़ा-सा) ही देखती है। [ लोकमें भी अपराधीको घृणापूर्वक नेत्रप्रान्तसे थोड़ा देखा जाता है। यहांपर भी 'प्रिया प्रियपतिको नेत्रप्रान्त ( कटाक्ष ) से तथा सखी आदि स्नेही बान्धवोंको पूर्ण दृष्टि से देखती है। ऐसा सर्वसाधारणका नियम होनेसे नलने दमयन्तीके द्वारा कटाक्षपूर्वक देखना कहकर दमयन्तीका अपने में स्नेहाति शयको सूचित किया है ] // 31 // नालोकते यथेदानी मामियं तेन कल्पये / योऽहं दूत्येऽन या दृष्टः सोऽपि व्यस्मारिषीदृशा // 32 / नेति / इयं दमयन्ती, यथा येन प्रकारेण, इदानीम् अधुना, मां नलम् , न आलोकते न ईक्षते, तेन तादृशानालोकनव्यापारण, कल्पये एवं मन्ये, यत् यः अहं नलः, दूत्ये इन्द्रादीनां दूत्यकाले, अनया भैम्या, दृष्टः पूर्णलोचनद्वयेन अवलोकितः, सोऽपि अहम् , ईदृशा इदानीमेतादृशव्यवहारेण माम् अपश्यन्त्या अनया, व्यस्मा. रिषि विस्मृतः अस्मि / स्मरतेः कर्मणि लुङ् / 'स्यसिचसीयुट-' इत्यादिना सिच इडागमे तस्य चिण्वद्भावे 'अचो ब्णिति' इति वृद्धिः। अविस्मरणे पूर्ववत् सादरं पश्येत् इति भावः // 32 // ___ यह दमयन्ती जिस कारण इस समय मुझे नहीं देखती है, उस कारण मैं कल्पना करता हूँ कि-'दूतकाल में इस दमयन्तीने जिस मुझको देखा है, उसे भी इस व्यवहारसे भूल गयी है। [क्योंकि यदि इन्द्रादिका दूत बनकर मेरे जानेपर जो पूर्ण दृष्टि से देखना नहीं भूलती तो यह अवश्य ही इस समय मुझे पूर्ण दृष्टिसे देखती, किन्तु ऐसा नहीं कर रही है, अत एव ज्ञात होता है कि यह दूतकाल में मुझे पूर्णदृष्टि से देखना भूल गयी है ] // 32 / / रागं दर्शयते सैषा वयस्याः सूनृतामृतैः / / मम त्वमिति वक्त मां मानिनी मौनिनी पुनः / / 33 / / रागमिति / सा उक्तरूपा, एषा प्रिया, सूनृतामृतैः सत्यप्रियवाक्यपीयूपैः / 'सूनृतं प्रिये सत्ये' इत्यमरः / वयस्याः सखीः, रागम् अनुरक्तिम् , स्नेहभावमित्यर्थः, 1. 'न लोकते' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1315 दर्शयते प्रकाशयतीत्यर्थः, ताभ्यः विस्रब्धं कथयतीति भावः / 'अभिवादिहशोरात्म नेपदे वेति वाच्यम्' इति विकल्पादणिकतः कर्मस्वम् , "णिचश्व' इत्यात्मनेपदम् / मानिनी मानवती इयम् , मां पुनः मान्तु, त्वं भवान् , मम मदीयः, इति एवम् , वक्तुं कथयितुम् , 'मदीयः त्वम्' इत्येतावन्मानं वक्तुमपीत्यर्थः / मौनिनी वाचंयमा, भवतीति शेषः / अति निष्करुणा इयं मयि इति निन्दा, लज्जाशीलेयमिति स्तुतिः॥३३॥ ___यह ( दमयन्ती ) सत्यप्रिय वचनामृतोंसे सखियों ( तुम लोगों) को स्नेह दिखलाती है, किन्तु मानिनी यह मुझसे 'तुम मेरे हो' इतना कहने के लिए भी मौन हो रही है / [ मैंने इसका कोई अपराध नहीं किया है, तथापि यह मुझसे 'तुम मेरे हो' इतना भी नहीं कहती और तुमलोगोंसे 'सत्य, प्रिय एवं मधुर वचन कहकर स्नेह दिखलाती है। इस प्रकार यह मुझसे मानकर उतना कहनेसे मुझे सनाथ नहीं करती, यह कहकर नलने दमयन्तीकी निन्दा की है तथा यह लज्जाशील होनेसे ऐसा कह रही है यह कहकर प्रशंसा भी की है ] // 3 // का नामन्त्रयते नाम नामग्राहमियं सखी ? कले ! नलेति नास्माकी स्पृशत्याह्वां तु जिह्वया ? || 34 / / कामिति / हे कले ! इयम् एषा, सखी ते वयस्या, का नाम सखीम् , नामग्राहं नाम गृहीत्वा / 'नाम्न्यादिशिग्रहोः' इति णमुल / न आमन्त्रयते ? न सम्बोधयति ? अपि तु सर्वाः एव आमन्त्रयते इत्यर्थः / नामेति प्रश्ने / तु किन्तु, अस्माकम् इमाम आस्माकी मदीयाम् / 'युष्मदस्मदोः' इत्यादिना अण्प्रत्ययः / तस्मिन्नणि च-' इत्यादिना आस्माकादेशः, 'टिड्ढाणज-' इत्यादिना ङीष् / नलेति आह्वां नाम / 'आख्याऽऽढे अभिधानश्च नामधेयञ्च नाम च' इत्यमरः। जिह्वया रसनया, अपीति शेषः, न स्पृशति न स्पर्श करोति, मां नाम्नाऽपि न आह्वयति रहस्यालापस्तु दूरमास्तामिति निन्दा, स्त्रीणां भत्त नामग्रहणस्य अनौचित्यात् स्तुतिः // 34 // हे कले ! यह सखी ( दमयन्ती ) किस सखीको नाम लेकर नहीं बुलाती है ? ( किन्तु ) 'नल' इस प्रकार मेरे नामको जोमसे स्पर्श भी नहीं करती (रहस्यका बतलाना तो बहुत दूर है)। यहाँपर भी नलने ऊक्त वचन कहकर दमयन्तीकी निन्दा तथा पतिके नाम लेनेका शास्त्रीय निषेध होने के कारण उसका पालन करनेसे प्रशंसा की है ] // 34 // अस्याः पीनस्तनव्याप्ते हृदयेऽस्मासु निर्दये। अवकाशलवोऽप्यस्ति नात्र कुत्र बिभत्तु नः ? || 35 / / ताभावेन आक्रान्ते, ततश्च बहिरपि अवकाशलवोऽपि नास्तीत्याशयः, अस्मातु मयि विषये, निदये आकरुणे, तत एव अन्तरपि अवकाशलोऽपि नास्तीति माया, अस्थाः दमयन्त्याः, हृदये वक्षसि, अवकाशस्थ मदवस्थितिस्थानस्य, लयः देशोजप, नास्ति न विद्यते, अत एव अत्र हृदये, कुन कस्मिन् स्थाने, नः अस्मान् , मामित्यर्थः /
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________________ 1316 नैषधमहाकाव्यम् / बिभर्तु ? धारयतु ? न कुत्रापीत्यर्थः / उच्चकुचाभ्यां व्यवहितेनैव मया स्थीयते, न तु हृदयेन ध्रियते इति भावः / अत्रापि निन्दाच्छलात् स्तुतिः // 35 // स्थूल ( विशाल ) स्तनोंसे व्याप्त तथा हमारे विषयमें निर्दय इस ( दमयन्ती) के हृदयमें लेशमात्र मी अवकाश ( ठहरनेका स्थान ) नहीं है, अत एव यह मुझे कहाँ धारण करे ? / [इस दमयन्तीके हृदयका बाह्य भाग बड़े स्तनोंसे व्याप्त है, अतः मेरे लिए इसके हृदयके बाहर ठहरनेका स्थान नहीं है तथा इसका हृदय भीतरमें मेरे प्रति निर्दय है अत एव भीतरमें भी मेरे लिए स्थान नहीं है; अत एव इस दमयन्तीके हृदयमें बाहरी या भीतरीकहीं भी मुझे ठहराने के लिए लेशमात्र भी स्थान नहीं है, अथ च-विशाल स्तन होने से इसका आलिङ्गन करते समय मैं इसके वक्षःस्थलसे ऊपर ही रह जाता हूँ और निर्दय होनेसे मोतर स्थान है ही नहीं, इस प्रकार नलने दमयन्तीकी निन्दा तथा उच्च स्तनका वर्णन कर प्रशंसा की है ] // 35 // अधिगत्येहगेतस्या हृदयं मृदुतामुचोः / प्रतीम एव वैमुख्यं कुचयोयुक्तवृत्तयोः / / 36 // अधिगत्येति / एतस्याः भैम्याः, हृदयम् , अन्तःकरणम् , ईदृक् निर्दयत्वात् ईदृशं कठिनम् , अधिगत्य ज्ञावा, इवेति शेषः / मृदुतामुचोः कोमलतात्यागिनोः, ता. भूतकठिनहृदयसंसर्गात् स्वयमपि तावत् काठिन्यभाजोः इत्यर्थः। अन्यथा कठिने मृदुताचरणे दुर्नीतिरिति भावः / अत एव युक्तवृत्तयोः युक्तम् उचितम्', वृत्तं व्यवहारः ययोस्तादृशयोः, कठिने कठिनव्यवहारस्य औचित्यात ; अन्यत्र-युक्तौ पीलत्वात् मिथः संश्लिष्टौ, वृत्तौ वत्त लौ च तयोः युझवृत्तयोः / विशेषणसमासः / कुचयोः स्तनयोः, अपीति शेषः, वैमुख्यमेव कठिनात हृदयात् विपरोतमुखत्वमेव औदासीन्यमेव च, प्रतीमः जानीमः; एतस्याः निर्दयात कठिनात् हृदयात् स्वाङ्गभूती सद्वृत्ती कुचावपि विसुखी जातो, वयन्तु वाह्याः तत्र निवेष्ट कथं शक्नुमः ? इति भावः; यद्वा-वमुख्यमेव मयि पराङ्मुखत्वमेव, तुङ्ग तया आलिङ्गनविघ्नजन. नादिति भावः, अन्यत्र-विगतमुखत्वमेव, नवोद्भिन्नत्वात् वृन्तहीनतया मनोज्ञ. मेवेति भावः // 36 // इस ( दमयन्ती ) के हृदय को ऐसा ( कठिन ) जानकर ('शठे शाठ्यं समाचरेत्' नीतिक अनुसार कठिन हृदय के प्रति ) मृदुताका त्याग करनेवाले अर्थात् कठिनतायुक्त ( अत एव उक्त नीति के अनुसार ) समुचित व्यवहार करनेवाले दोनों स्तनोंकी ( कठिन हृदयको साथ विपरीत व्यवहार करनेसे, अथव-ऊर्ध्वमुख होने के कारण ) पराङमुखता (पक्षा०-उदासीनता ) को ही हम जानते हैं। [ इसके कठिन हृदयसे स्वाङ्गभूत सवयव. हारगले ये स्तन भी यदि पराङ्मुख हो गये तो हम तो बाहरी होनेके कारण वदा ( हृदय में ) एवेश ही किस प्रकार पा सकते हैं ? अथवा-इन स्तनोंको अत्युन्नत होनेसे मेरे आलिङ्गन करते समय दमयन्तीके वक्षःस्थलका मिलन नहीं होनेसे मेरे प्रति इन
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________________ विंशः सर्गः। 1317 स्तनोंकी पराङ्मुखता ही हम जानते हैं / अथवा-स्त्रीहृदय स्वभावसे ही मृदु होता है, उससे उत्पन्न होकर मृदुताका त्याग करनेवाले ( अत एव, विपरीत लक्षणासे ) अयुक्त आचरणवाले इन स्तनोंकी हम दमयन्ती हृदयसे पराङ्मुखता ( मृदु हृदयसे उत्पन्न होकर भी मृदुताका त्याग करनेसे विपरीताचरणपरायणता ) ही जानते हैं / अथवा-इसके सुन्दरतम हृदयको पाकर कठिनताको प्राप्त तथा अत्यन्त बड़ा एवं गोलाकार इन स्तनोंको आगेमें श्यामवर्ण होनेसे हृदयके साथ पराङ्मुखता (विपरीत व्यवहार ) ही जानते हैं। अथपा-उक्तरूप सनोंकी विमुखता (चूचुकशून्यता) ही जानते हैं अर्थात् दमयन्तीकी अल्पावस्था होनेसे कठिन एवं स्तनाग्रभागमें श्यामवर्ण वृन्त (चूचुक ) से हीन ( अत एव ) युक्त आचरण करनेवाले स्तनोंको जानते हैं / अथवा-ऐसे सहज कोमल स्त्रीहृदयको पाकर मूर्खताको नहीं छोड़ते हुए तथा मेरे प्रति सदय होनेसे युक्त आचरण करनेवाले इन स्तनोंको विमुखता ( विशिष्ट = उन्नत, मुखता=अग्रभागता ) को हो जानते हैं ] // 36 // इति मुद्रितकण्ठेस्मिन् सोल्लुण्ठमभिधाय ताम् / दमयन्तीमुखाधीत-स्मितयाऽस्मै तया जगे // 37 // इतीति / अस्मिन् नले कान्ते, तां कलाम , सोल्लुण्ठं सोत्प्रासम् , सपरिहास. मित्यर्थः / 'सोल्लुण्ठनन्तु सोत्प्रासम्' इत्यमरः / इति एवम् , अभिधाय उक्त्वा, मुदितकण्ठे निरुद्धगले, तूष्णीम्भूते सतीत्यर्थः। तया कलानामसख्या, दमयन्ती. मुखाधीतस्मितया दमयन्त्याः वयस्यायाः भैम्याः, मुखात् आननात् , अधीतं शिक्षि. तम्, गृहीतमिति यावत् , स्मितं मन्दहास्यं यया तादृशया सत्या, दमयन्ती हसन्ती दृष्ट्वा स्वयमपि स्मयमानया सत्या इत्यर्थः / अस्मै नलाय, जगे जगादे, नलः गदितः इत्यर्थः / 'क्रियया यमभिप्रेति सोऽपि सम्प्रदानम्' इति क्रियया अभिप्रायात् सम्प्र. दानस्वम् , तथा चाविवक्षितकर्मवाद्भावे लिट् / अस्मै इत्यत्र 'असौ' इति पाठे-असौ नलः, जगदे उचे, वक्ष्यमाणं वच इति शेषः / कर्मणि लिट् // 37 // उस (कल्ला ) से इस प्रकार ( 20 / 27-36 ) वक्रोक्ति आदिसे युक्त वचन कहकर इस ( नल ) के मौन होनेपर दमयन्तीके मुखसे स्मितका अध्ययन की हुई अर्थात् दमयन्तीको स्मित करती हुई देखकर स्वयं भी स्मित करती हुई उस (कला) ने इस (नल) से कहा // 37 // भावितेयं त्वया साधु नवरागा खलु त्वयि / चिरन्तनानुरागाहे वत्तते नः सखीः प्रति / / 38 / / यदुक्तं 'कस्मादस्माकम्' इत्यादि तत्र तावदुत्तरमाह-भावितेति / हे महाराज ! स्वया भवता, इयं सखी भैमी, साधु सम्यक् , भाविता तर्किता, खलु इति निश्चये यतः, त्वयि भवति नवरागा नूतनपरिचयात् नूतनानुरागा, जातेति शेषः / अतः तदनुरूपं वर्तते इति भावः / नः अस्मान् , सखीः सहचरीः प्रति तु, चिरन्तनस्य पुरातनस्य, अनुरागस्य प्रणयस्य, आबाल्यमेकत्रावस्थानात् सहजानुरागस्येत्यर्थः /
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________________ 1318 नैषधमहाकाव्यम्। अहम् अनुरूपं यथा तथा, वर्तते विद्यते, व्यवहरतीत्यर्थः। अत एवेयं भवति ससङ्कोचा भस्मासु तु तद्वर्जिता स्वभावत एव, एवञ्चायमुपालम्भः नोचितः इति भावः॥३८॥ (पहले नलोक्त 'कस्मादस्माकम् ...... ( 20 / 27)' वचनका उत्तर कला दे रही हैहे महाराज ! ) तुमने इस ( दमयन्ती ) को सम्यक् प्रकारसे जान लिया कि यह तुम्हारेमें नवीन अनुरागवाली है (इसीसे यह आपके सामने सलज्ज रहती है ), हम सखियों के प्रति पुराने स्नेहके योग्य बर्ताव करती है। [ तुम्हारेमें नया स्नेह होनेसे दमयन्तीका लज्जा ( सङ्कोच ) करना तथा हमलोगों में बचपनसे एक साथ रहनेके कारण पुराना स्नेह होनेसे सङ्कोचरहित होकर वर्ताव करना दमयन्तीका उचित ही है इस बातको तो आपने ठीक ही समझ लिया है / अथवा-तुमने इस दमयन्तीको सम्यक् प्रकार से नहीं समझा है, क्योंकि वह तुम्हारेमें नये (दृढ़ ) अनुरागवाली है तथा हम सखियों के प्रति पुराने अनुरागके योग्य अर्थात पुराना स्नेह होनेसे ( 'अतिपरिचयादवज्ञा' नीतिके अनुसार) शिथिल अनुरागवाली है; अत एव 'मेरे लिये दया करती है, तुमलोगोंके लिये नहीं दया करती' यह अपने दमयन्तीके विषयमें सत्य अनुमान किया है। अथवा-तुमने इस ( दमयन्ती ) को ठीक-ठीक द्रवित किया है, क्योंकि तुम्हारे विषयमें नवीन ( दृढ़ ) अनुरागवाली होनेसे हमलोगों के प्रति पुराने अनुरागके कारण शिथिल प्रीतिवाली है, अत एव मेरे प्रति दृढ़ानुरागवाली दमयन्ती हमलोगों ( सखियों ) को कुछ नहीं गिनती यह ठोक जान लिया है ] // 38 // स्मरशास्त्रविदा सेयं नवोढा नस्त्वया सखी / कथं सम्भुज्यते बाला ? कथमस्मासु भाषताम् / / 36 // यदुक्तम् 'अन्वग्राहि' इत्यनेन तम्रोत्तरं श्लोकद्वयेनाह-स्मरेत्यादिना। नवम् अचिरमेव, ऊढा परिणीता, अत एव लज्जासङ्कुचिता इत्याशयः। तथा बाला अवि. दग्धा, अत एव स्मरागमानमिज्ञा इति भावः। नः अस्माकम्, सा खया अभियुक्ता, इयं भवदङ्कस्था, सखी सहचरी दमयन्ती, स्मरशास्त्रविदा कामतन्त्रवेदिना, अत एव कामकलाकुशलेनेत्यर्थः / स्वया भवता, कथं केन प्रकारेण, सम्भुज्यते ? निर्भर सम्भोक्तुं शक्यते ? कथमपि नैवेत्यर्थः। अस्या लज्जाया एव दुर्वारविघ्नत्वादिति भावः / कथं केन वा प्रकारेण, अस्मासु अस्मत्समीपे, भाषताम् ? रात्रिवृत्तमसकोचं कथयतु ? बालत्वेन लज्जावशादस्मभ्यं स्वचेष्टितं नैव कथयिष्यतीत्यर्थः / तस्मान्नासो अलीकवाक न वा अस्मान् विप्रलभते, किञ्च नवोढासुलभलजापरवशाया अस्थाः कामशास्त्रवेदिनस्तव एवमुपालम्भः नोचितः इति भावः // 39 // (अब नलोक्त 'अन्वग्राहि...... ( 20 / 28) उपालम्भका उत्तर 'कला' दे रही है-) नवोढ़ा ( अत एव सलज्जा ) बाला ( अत एव अविदग्धा = कामशास्त्रानभिज्ञा ) इस सखी
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________________ विंशः सर्गः। 1316 ( दमयन्ती) का सम्भोग (बालाके साथ बलात्कारपूर्वक सम्भोग करनेका कामशास्त्रमें निषेध होनेसे' ) कामशास्त्रके रहस्यश आप कैसे करते हैं [ कामशास्त्ररहस्यवेदी आप बाला एवं नवोढ़ा दमयन्तीके साथ यथेष्ट सम्भोग नहीं कर सकने तथा सम्भोग करनेपर भी दुर्वार लज्जावश यह दमयन्ती उस सम्भोगवार्ताको हमलोगोंसे किस प्रकार कहती ? आपके द्वारा किये गये सम्मोग आदिकी चर्चा दमयन्तीने हमलोगोंसे नहीं की है, अत एव यह असत्य. भाषिणी नहीं है, आपको व्यर्थ ही ऐसा उपालम्भ देकर हमें वञ्चित करना उचित नहीं है / अथवा-कामशास्त्रज्ञ आप नवोढ़ा एवं बाला दमयन्तीका निर्भर सम्भोग किस प्रकार कर सकते हैं तथा उक्त कारणसे लज्जाशीला यह सखी हमलोगोंसे सह्य सम्भोगकी चर्चा क्यों करें अर्थात् जो बाला निर्भर सम्भोगद्वारा पतिसे पीड़ित होती है, वही उक्त सम्भोगजन्य पीड़ा मादिकी चर्चा सखियोंसे करती है; किन्तु कामशास्त्र के रहस्यवेत्ता आपने नवोढ़ा एवं बाला प्रिय सखी दमयन्तीको निर्भर सम्भोग करके पीड़ित नहीं किया और उसने भी इसीसे हमलोगोंसे इस विषयमें कुछ भी नहीं कहा, अत एव आपका उक्त उपालम्भ देना उचित नहीं / अथवा-कामशास्त्ररहस्यवेदी आपने नवोढ़ा एवं बाला दमयन्तीके साथ अनुराग एवं सामर्थ्यके अनुसार ही सम्भोग किया और लज्जाशीला इसने हमलोगोंसे कुछ भी नहीं कहा; अत एव तुम दोनों ही हमलोगोंको वञ्चित कर रहे हो / अथवा-शास्त्रज्ञ आप नवोढ़ा तथा बाला दमयन्तीका सम्भोग किस प्रकार किया ? उसे स्मरण कोजिये और यह हमलोगोंसे किस प्रकार कहती अर्थात् इसने हमलोगोंसे कुछ भी नहीं कहा-विपरीत लक्षणासे आपने इसके साथ सम्भोग किया और इसने हमलोगोंसे सब रहस्य कह दिया; अतः आप हमें क्यों वश्चित कर रहे हैं ? ] // 39 // नासत्यवदनं देव ! त्वा गायन्ति जगन्ति यम् / प्रिया तस्य सरूपा स्यादन्यथालपना न ते // 40 // अत्रैव यत् विशेषितवान् 'अलीकवाक्' इति तत्रोत्तरमाह-नासत्येति / देव ! हे महाराज! जगन्ति लोकाः, यं त्वां भवन्तम्, न असत्यं मिथ्या, वदनं भाषणं यस्य तं तादृशं सत्यवादिनमित्यर्थः / गायन्ति कीर्तयन्ति, तस्य तादृशसत्यवादिनः, ते तव, प्रिया स्निग्धा कान्ता, सरूपा समानरूपा, तवानुरूपसत्यवादिन्येवेत्यर्थः। स्यात् भवेत् , अन्यथा तद्विपरीतम् असत्यभूतम्, लपनं भाषणं यस्याः सा तादृशी, न नैव, स्थादिति पूर्वणान्वयः। पक्षान्तरे-यं त्वाम् असत्यवदनं मिथ्याभाषणशीलम् न गायन्ति ? इति काकुः, अपि तु गायन्त्येवेत्यर्थः, तस्य तादृशमिथ्यावादित्वेन गीतस्य, ते प्रिया सरूपा समानरूपा, तवानुरूपेत्यर्थः / स्यात् , अतः अन्यथालपना मिथ्या. 1. तच्च स्मरशास्त्रमित्थंरूपम् 'बाला बलान भुञ्जीत विरागोत्पत्तिशङ्कया। भुञ्जीत चेत्रपाभीतित्याजनक्रमसङ्गताम् // ' इत्यादि बोध्यम् /
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________________ 1320 नैषधमहाकाव्यम् ! भाषिणो, न स्यात ? इति काकुः, अपि तु अन्यथालपनैव स्यादित्यर्थः। एवञ्च भवान् इमां सम्भुज्यापि यथा न भुक्तवान् इति मिथ्या भाषते, तथा इयमपि आत्मसमर्प णमकृत्वाऽपि कृतवती इत्यभाषत, अतः उभयोरेव तुल्यमृषावादित्वात् नायं ते अभियोग उचित इति भावः। पक्षे-यं त्वां नासत्ययोः अश्विनीकुमारयोः इव वद. नम् आस्यं यस्य तं तादृशम् अश्विनीकुमारतुल्यसुन्दरवदनम् , गायन्ति तस्य तादृशसुन्दरमुखस्य, ते तव, सरूपा समानरूपा, अनुरूपसुन्दरमुखी एवेत्यर्थः / प्रिया कान्ता, स्यात् , अन्यथा तद्विपरीतम् , कुत्सितमित्यर्थः / लपनं वदनं यस्याः सा तादृशी। 'वक्त्रास्ये वदनं तुण्डमाननं लपनं मुखम्' इत्यमरः / न, स्यादिति अन्वयः; योग्यं योग्येन युज्यते इति भावः // 40 // (अब नलोक्त 'आलीरियमलोकवाक् .....( 20128 का उत्तरार्द्ध) तथा 'आहस्म... (20 / 29)' का उत्तर कला दे रही है-(संसार अर्थात् तीनों लोक तुमको असत्यवक्ता नहीं कहते हैं (किन्तु सत्यवक्ता ही कहते हैं / अथवा-सत्यवक्ता कहते हैं ); वैसे ( सत्यवक्ता ) तुम्हारी प्रिया अन्यथा ( असत्य ) कहनेवाली योग्य नहीं है। किन्तु सत्य कहनेवाले आपकी प्रियाको भी सत्य कहनेवाली ही होना चाहिये; अत एव आपकी प्रिय। यह दमयन्ती भी हमलोगोंसे सत्य ही कहती है। अथवा-संसार आपको असत्यवक्ता नहीं कहता है ? अर्थात् कहता ही है, ( अत एव ऐसे असत्यवक्ता ) आपकी प्रिया अन्यथा (असत्यभाषिणी) नहीं होवे ? अर्थात् असत्यवक्ता तुम्हारी प्रियाको भी असत्यवक्त्री ही होना चाहिये, अतः सम्भोग करके भी 'मैंने सम्भोग नहीं किया' कहते हुए तम जिस प्रकार असत्य भाषण करते हो, उसी प्रकार तुम्हारे लिए सर्वाङ्गका समर्पण नहीं करके भी दमयन्ती अपने समस्त अङ्गोंका समर्पण कहना जो कहती है, वह 'योग्यं योग्येन युज्यते' न्यायसे उचित ही है। अथवा-संसार तुमको नासत्य (अश्विनीकुमार) के समान (सुन्दर ) मुखवाला कहते हैं, ऐसे तुम्हारी प्रियाको भी अन्यथा ( कुरूप मुखवाली ) नहीं होना चाहिये अर्थात् जैसा तुम्हारा मुख अश्विनीकुमारके समान सुन्दर है, वैसा ही दमयन्तीका मुख भी परम सुन्दर है ] / / 40 / / मनोभूरस्ति चित्तेऽस्याः किन्तु देव ! त्वमेव सः / त्वदवस्थितिभूर्यस्मान्मनः सख्या दिवानिशम् / / 41 // यदुक्तम् 'आह स्म' इत्यादिश्लोके तस्योत्तरं श्लोकत्रयेणाह-मनोभूरित्यादि। देव ! हे राजन् ! 'राजा भट्टारको देवः' इत्यमरः / अस्थाः दमयन्त्याः , वित्ते हृदये, मनोभूः चित्तजन्मा, अस्ति विद्यते इति सत्यम्, किन्तु सः मनोभूः, त्वमेव भवानेव। कुतः ? यस्मात् यतः, सख्याः वयस्याया भैम्याः, मनः चित्तम् , दिवानिशं रात्रिन्दिः नम्, सदैवेत्यर्थः / स्वदवस्थितिभूः तवैवावस्थानस्य स्थानम् / मनो भूः आश्रयः यस्येति व्युत्पत्या त्वमेव मनोभूः, मनसि भवतीति व्युत्पत्तौ स्वदभिलाषिण्या अस्याः कामस्य त्वत्परस्वादुभयथाऽपि न पुरुषान्तरसेवाशङ्कालव इति भावः / अत्र नलेन
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________________ विंशः सगः। 1321 कामार्थे प्रयुक्तस्य मनसो भूः उत्पत्तिर्यस्य इति व्युत्पत्तिलभ्यस्य मनोभूपदस्य कलया मन एव भः वसतिस्थानं यस्येति व्युत्पत्या नलार्थ प्रयुज्यमानत्वात् श्लेषवक्रोक्तिरलङ्कारः // 41 // ( अब नलोक्त 'आह स्म'.. ... ( 20 / 29) का उत्तर तीन श्लोकों ( 20 / 41-46) से कला दे रही-) इस ( दमयन्ती ) के चित्तमें मनोभू ( काम ) है, किन्तु हे देव ( हे सरकार ) ! वह आप ही है, क्योंकि सखी ( दमयन्ती ) मन रात-दिन तुम्हारी अब स्थिति (निवास) की भूमि है। [ नलने पहले (20 / 29 ) 'मनोभू' शब्दका 'मनसि भवति' ऐसा विग्रह करके दमयन्तीके चित्तमें कामका निवासस्थान कहकर उसे परपुरुष. संसर्गयुक्त कहा था, और 'कला' नामकी सखीने उसी 'मनोभू' शब्दका 'मनः भूः यस्य' ( मन है भूमि = निवास स्थान जिसकी ) ऐसा विग्रह करके नलको ही दमयन्तीके मन में निवास करनेवाला कहकर दमयन्तीके वचनको सत्य बतलाया है ] // 41 // सतस्तेऽथ सखीचित्ते प्रतिच्छायास मन्मथः / त्वयाऽस्य समरूपत्वमतनोरन्यथा कथम् ? / / 42 // सत इति / अथ इति पक्षान्तरे, अथवेत्यर्थः / सः भवदुक्तमनोभपदवाच्यः, मन्मथः कामः, सखीचित्ते दमयन्तीहृदये, सतः वर्तमानस्य, ते तवैव, प्रतिच्छाया प्रतिबिम्बम् , अन्यथा इत्थं न चेत् , अतनोः अनङ्गस्य, अस्य मन्मथस्य, त्वया भवता, समरूपत्वं तुल्याकारत्वम् , कथं ? केन प्रकारेण ? भवितुमर्हतीति शेषः / अतनोः रूपासम्भवात् तत् न कथमपि सम्भवतीत्यर्थः। धर्म्यभावे धर्मानवकाशात् स्वच्छदर्पणे प्रतिबिम्बितमुखस्य मुखव्यतिरेकेण यथा स्थिति स्ति, तथा अतिस्वच्छे नः सख्याः मनसि स्वद्वयतिरेकेण त्वत्प्रतिबिम्बभूतस्य कामस्य पृथक स्थितिरेव नास्ति अतनुत्वात् तस्य, अतो न पुरुषान्तरसेवावसरोऽस्याः इति भावः // 42 // अथवा वह कामदेव सखी ( दमयन्ती) के चित्तमें स्थित तुम्हारा प्रतिबिम्ब है, अन्यथा शरीरहीन ( कामदेव ) की तुम्हारे साथ समरूपता किस प्रकार होती ? [ जो वस्तु शरीर. वान् है, किसी शरीरवान्के साथमें उसीकी समानता की जा सकती है, शरीरीके साथ अशरीरीकी समानता कथमपि नहीं हो सकती; अतः दमयन्तीके हृदय में नित्य निवास करनेवाले आपका प्रतिबिम्ब ही आपको कामरूपसे प्रतिभासित हो रहा है, वास्तविक तो वह काम कोई अन्य व्यक्ति नहीं, किन्तु आपका प्रतिबिम्बमात्र ही है / स्वच्छतम दर्पण आदिमें ही कोई वस्तु प्रतिबिम्बित होती है, अतः दमयन्तीके हृदयमें नित्य निवास करने वाले आपका प्रतिबिम्ब कामरूपमें दृष्टिगोचर होता है, अत एव दमयन्तीका हृदय अत्यन्त स्वच्छ है, इस कारण आपको उसके हृदयको पुरुषान्तरयुक्त होनेसे दूषित बतलाना सर्वथा अनुचित है ] // 42 //
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________________ 1322 नैषधमहाकाव्यम् / कः स्मरः कस्त्वमति सन्देहे शोभयोभयोः / त्वय्येवार्थितया सेयं धत्ते चित्तेऽथवा युवाम् / / 43 / / क इति / अथवा पक्षान्तरे, हे देव ! उभयोः तव कामस्य च द्वयोः, शोभया समानसौन्दर्येण हेतुना, अन्न अनयोः सुवयोः मध्ये, स्मरः कामः, कः ? त्वं भवान् वा, कः? इति एवं, सन्देहे संशये सति, सेयं भैमी, त्वय्येव भवत्येव, अर्थितया प्रार्थि तया, त्वामेव लव्धुमिच्छुतया इत्यर्थः। चित्ते मनसि, युवां त्वां कामञ्च द्वावे / 'त्यदानीनां मिथः सहोत्तौ यत् परं तत् शिष्यते' इति वचनात् त्यदायेकशेषः / पत्ते धारयति, त्वन्मन्नथयोः कतरः त्वम् इति सन्देहे कामस्थ परित्यागे तवापि परित्या. गाशङ्कया त्वं परित्यक्तः मा स्याः इति त्वदर्थित्वेन अनया उभौ एव चित्ते धाते, रत्नयोः कृत्रिमाकृत्रिमयोः सन्देहे उभयोरेवधारणवत् , अन्यथा अन्यतरत्यागे मुख्यस्यैवाकृत्रिमस्य त्यागभयादिति त्वदर्थमेव कामं धारयति, न तु कामार्थ त्वामिति भावः // 43 // अथवा-दोनों (तुम्हारी तथा कामदेव ) की शोभाओंके विषयमें (समान होनेसे ) कामदेव कौन है ? और तुम ( नल ) कौन हो ? इस सन्देहके होनेपर यह दमयन्ती तुम्हारे विषयमें ही चाहना होनेसे तुम दोनों ( तुम्हें तथा कामदेव ) को चित्तमें धारण करती है। [ लोक में भी मणि आदि किसी दो वस्तु के समानरूप होनेसे ( कौन असली है ? और कौन नकली ? ऐसा) सन्देह होनेपर कोई व्यक्ति निर्णय होनेतक दोनोंको इस भयसे ग्रहण किये रहता है कि किसी एक के त्याग देने पर कदाचित् मैं मुख्य ( असली ) का ही न त्याग कर दूं, न कि दोनोंको या नकलीको ग्रहण करनेकी इच्छाले; उसी प्रकार सखोको तुम दोनोंकी समान कान्ति होनेसे 'कौन प्रिय नल है ? तथा कौन कामदेव है ?' ऐसा सन्देह हुआ और वह तुम्हें ही ग्रहण करना तथा कामदेवका त्याग करना चाहती थी, अत एव इन दोनों में से किसी एकके छोड़नेपर कहीं मैं प्रिय नलको ही नहीं छोड़ दूं' इस भयसे निर्णय होनेतक तुम दोनोंको ही हृदयमें धारण करती है अर्थात् तुम्हारे लिए हो कामदेवको धारण करती है, कामदेवके लिए तुम्हें धारण नहीं करती] // 43 / / त्वयि न्यस्तस्य चित्तस्य दुराकर्षवदर्शनात् / शङ्कया पङ्कजाक्षी त्वां गंशेन स्पृशत्यसौ / / 44 // अदुक्तं 'पूर्णया' इत्यादि श्लोकेन तत्रोत्तरमाह-स्वयीति / पङ्कजाक्षो कालनयना, अत एव अक्षिद्वथे अस्या महत्येव ममत्वबुद्धिरिति भावः / असौ दमयन्ती, स्वयि भवति, न्यस्तस्य समर्पितस्य, चित्तस्य मनसः, दुराकर्षस्वदर्शनात् दुःखेनापि पुनः प्रत्यानेतुम् अशक्यत्वज्ञानात् , शङ्कया भयेन, त्वां भवन्तम् , हगंशेन दृशः एकमात्रस्य चक्षुषः, अंशेन अवयवेन, किञ्चिन्मात्रभागेनेत्यर्थः / अपाङ्गग्नेति यावत् / 1. 'स्वयैवा-' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1323 स्पृशति स्पर्शविषयीकरोति, अवलोकयतीत्यर्थः / यदि पूर्णाभ्यां लोचनाभ्यां पश्येत् तदा पङ्कजवत् सुन्दरं नयनद्वयमपि चित्तवत् अपरावर्तनीयतयात्वयि लग्नं भवेदिति संशयेन आकर्णविश्रान्तस्य विशालस्य नेत्रस्य किञ्चिन्मात्रांशस्य त्वतः प्रत्याहरणासमर्थऽपि 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध त्यजति पण्डितः' इति शास्त्रात् न विशेषज्ञतिरिति विविच्य त्वां पूर्णाभ्यां लोचनाभ्यामपश्यन्ती सा गंशसात्रेण पश्यति, अतो नोपाल. म्भावकाशः इति भावः // 44 / / ( अब नलोक्त 'पूर्णया.......' ( 20 / 31 ) आक्षेपका 'कला' उत्तर दे रही है-) कमललोचना ( अत एव नेत्रमें विशेषतः ममत्वे बुद्धिवाली) यह ( दमयन्ती) तुम्हारेमें समर्पित चित्तका पुनः प्रत्यावर्तन करना अशक्य होने के कारण ( 'यदि मैं पूर्ण नेत्रोंसे इन्हें देखूगी अर्थात् इनके लिए नेत्र को पूर्णतया समर्पित कर दूंगी तो सम्भव है कि ये नेत्र भी उसी प्रकार पुनः नहीं लौटेंगे, जिस प्रकार इनमें समर्पित चित्त नही लौट रहा है' इस ) भयसे तुमको नेत्रप्रान्त ( कटाक्ष ) से ही देखती है। [ 'पङ्कजाक्षी' कहनेसे दमयन्तीके नेत्रोंका अतिशय सौन्दवान् होना तथा सौन्दर्यवान् पदार्थको किसीके लिए समर्पण करनेपर पुनः वापस आने में कठिनाई होने के कारण उसे (त्रों को ) तुम्हारे लिये समर्पित नहीं करना अर्थात् पूर्ण नेत्रोंसे नहीं देखना सूचित होता है ] / / 44 // विलोकनात् प्रभृत्यस्या लग्न एवासि चक्षुषोः / स्वेनालोकय शङ्का चेत् प्रत्ययः परवाचि कः ? / / 45 / यदुक्तं 'नालोकते' इत्यादि श्लोकेन तत्रोत्तरमाह-विलोकनादिति / विलोकनात् प्रभृति दूत्यकाले प्रथमदर्शनात आरभ्यैव, 'अपादाने पञ्चमी' इति सूत्रे 'कार्तिक्याः प्रभृति इति भाष्यकारप्रयोगात् प्रभृतियोगे पञ्चमी' इति कैयटः। अस्याः दमयन्त्याः , चक्षुषोः लोचनयोः, लग्नः संसक्तः एव, अलि वर्तले, त्वमिति शेषः / शङ्का चेत् मदुक्तौ अविश्वासः यदि, तदा स्वेन आत्मना, स्वयमेवेत्यर्थः, आलोकय पश्य, त्वमस्याः चक्षुषोः लग्नो न वा इति परीक्षय इत्यर्थः / परवाचि अन्येषामुक्ती, कः प्रत्ययः ? का श्रद्धा ? नैव श्रद्धा कर्त्तव्या इत्यर्थः / पुरस्थस्य वस्तुनः प्रतिबिम्बः अक्षिकनीनिकायां साक्षात् अवलोक्यते, एवञ्च नलश्चेत् तथा द्रष्टुं प्रवत्तेत तदा स्वप्रतिबिम्बं तत्र प्रतिफलितं दृष्ट्वा स्वलग्नत्वं साक्षादेव पश्येत् इत्यत एव छलात् स्वेनालोकय इत्युक्तमिति मन्तव्यम् // 45 // ( दूतकर्म करते हुए ) देखनेसे लेकर ( आजतक ) तुम इस ( दमयन्ती ) के नेत्रोंमें लगे ही हुए हो अर्थात् तबसे लेकर दमयन्ती सदा तुम्हें ही देखती है, यदि ( मेरे कथनमें) शङ्का है तो ( दमयन्तीके नेत्रमें ) स्वयं देख लो ( मैं दमयन्तीके नेत्रमें हूँ या नहीं ?, क्योंकि ) दूसरेके कहने में कौन विश्वास है ? [ प्रत्यक्ष दृश्य वस्तुमें दूसरेके कहने से विश्वास करनेकी आवश्यकता नहीं होती, अत एव तुम स्वयमेव देख लो कि इसके नेत्रमें बसते हो या नहीं। यहाँपर 'कला' ने इस अभिप्रायसे नलके प्रति ऐसा वचन कहा है कि 'यदि 83 नै० उ०
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________________ 1324 नैषधमहाकाव्यम् / ये दमयन्तीके नेत्रोंको देखेंगे तो इनका प्रतिबिम्ब दमयन्तीके नेत्रोंकी कनीनिकाओं ( पुतलियों ) में अवश्य पड़ेगा और उसे देखकर इन्हें विश्वास हो जायेगा कि सचमुच दमयन्ती मुझे अपने नेत्रोंमें रखती है / अथवा-जो तुमने कहा है कि दमयन्ती तुमलोगोंको पूर्ण नेत्रोंसे सर्वदा तथा मुझे एक नेत्रप्रान्तके स्वल्पतम भागके द्राक् (क्षणमात्र ) देखती है। यह तुमने सत्य ही कहा है, क्योंकि तुम्हे दूतकर्म करते हुए दमयन्तीने देखा था, तबसे ही तुम उसके नेत्रमें ही रहते ही तथा नेत्रमें स्थित कज्जलादिका पूर्ण नेत्रोंसे स्वयं देखना जिस प्रकार अशक्य है, उसी प्रकार स्वनेत्रस्थ तुमको पूर्णनेत्रसे देखना दमयन्तीके लिए अशक्य है, तथा स्वनेत्रस्थ वस्तुको कोई स्वयं ही देख सकता है या नहीं, इस विषयमें 'तुम्हें शङ्का है तो अपने नेत्रगत गोलकादिको तुम स्वयं देख लो तो ज्ञात हो जायेगा कि दूसरेके कहने में क्या विश्वास है ? ] // 45 // परीरम्भेऽनयाऽऽरभ्य कुचकुङ्कमसक्रमम् / त्वयि मे हृदयस्यैवं राग इत्युदितैव वाक / / 46 / / अथ यदुक्तं 'रागं दर्शयते' इत्यादिश्लोके तनोत्तरमाह-परीरम्भे इति / हे महाराज ! अनया सख्या, परीरम्भे गाढालिङ्गनसमये, कुचकुङ्कुमस्य निजस्तनद्वयलिप्तस्य काश्मीरजस्य, सङ्क्रम सङक्रान्तिम , मुद्रणमित्यर्थः। आरभ्य उपक्रम्य, स्वकुचकुङ्कुमरागं तव हृदये संसञ्जनात् प्रभृतीत्यर्थः / त्वयि भवति नले विषये, मे मम, हृदयस्य अन्तःकरणस्य, रागः अनुरक्तिः, रक्तिमा च, एवम् इत्थम् , हृदयस. झामितकुचकुङ्कुमवदेवेत्यर्थः / इति इयम् , वाक वचः, उदितैव उक्तैव, उक्तिवदेव व्यक्तं सूचितमित्यर्थः / अतः सखीषु अनुरक्ता न मयीति नोपालभ्येयमिति भावः॥ ( अब नलोक्त 'रागं दर्शयते ... ..., ( 2033) आक्षेपका 'कला' उत्तर देती है-) आलिङ्गनमें ( तुम्हारे हृदयमें मेरे ) स्तनों के कुङ्कुमके लगनेसे लेकर 'तुम्हारे (नल ) में मेरे हृदयका ऐसा अनुराग ( पक्षा०-लालिमा ) है' यह वचन कथित ही है / [इसी अभिप्रायसे दमयन्ती तुम्हारे प्रति सच्चा अनुराग विना वचनोंको कहे ही व्यक्त करनेसे वचन द्वारा उसे व्यक्त नहीं करती, क्योंकि किसी प्रकार कहे गये वचनका पुनः शब्दान्तरसे कहना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। पाठा०-.."तुम्हारेमें ही मेरे हृदयका राग ( अनुराग, पक्षारक्तिमा ) है। अथवा-"तुम्हारेमें मेरे हृदयका अर्थात् हार्दिक ही राग है, शाब्दिक नहीं ( अत एव शाब्दिककी अपेक्षा हार्दिक कार्यका अधिक महत्त्व होनेसे आपको उपालम्म देना उचित नहीं है / द्वितीय पाठा०-"मानो यह बात तो कही गयो-सी है ) अत एव पुनः कथन अनुचित समझकर यह दमयन्ती मुखसे कुछ नहीं बोलती ] // 46 // मनसाऽयं भवन्नामकामसूक्तजपव्रती। अक्षसूत्रं सखीकण्ठश्चुम्बत्येकावलिच्छलात् / / 47 / / 1. 'हृदयस्यैव' इति पाठान्तरम्। 2. 'इत्युदितेव' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1325 __ 'कां नामन्त्रयते' इति श्लोके यदुक्तं तस्योत्तरमाह--मनसेति / अयम् इति हस्तेन पुरोवर्तिनिर्देशः, सखीकण्ठः भैमीगलनालः, मनसा अन्तःकरणेन, भवतो नलस्य, नामैव संज्ञा एव, कामसूक्तं कामाविर्भावनाय कामदेवप्रकाशकप्रधानमन्त्रः, तस्य जपः पुनः पुनरुच्चारणमेव, व्रतं नियमः अस्य अस्तीति तद्बती सन् , 'साहस्रो मानसो जपः' इति स्मृतेः सर्वजपानां मानसिकजपस्य सहस्रगुणत्वात् , नारीणां भत नामग्रहणनिषेधात् वा मनसा इत्युक्तम् , न तु जिह्वया इति भावः / एकावलि. च्छलात् एकयष्टिकमुक्ताहारधारणव्याजात् , अक्षसूत्रं जपसङ्ख्यानार्थम् अक्षमालाम् , चुम्बति स्पृशति, धारयतीत्यर्थः / सखीनामग्रहणस्य कदाचिकत्वात् त्वन्नामग्रहणस्य च नैरन्तर्यात जिह्वया त्वन्नामस्पर्शाभावेऽपि नायमुपालम्भो युज्यते इति भावः॥४७॥ मनसे आपके नामरूप कामसूक्त ( तुम्हारे नामोच्चारणमात्रसे कामोद्दीपन होने के कारण कामोद्दीपक मन्त्र-विशेष ) के जपका व्रती अर्थात् सर्वदा जपनेवाला यह ( पुरोदृश्यमान ) सखीका कण्ठ एकावली ( एक लड़ीवाले मुक्ताहार ) के बहानेसे अक्षमालाको धारण कर रहा है। [ शास्त्रमें शाब्दिक जपकी अपेक्षा मानसिक जपका सहस्रगुणित फल होनेसे तथा पतिके नामका उच्चारण करने का निषेध होनेसे दमयन्तीका कण्ठ मनसे ( जिह्वासे नहीं ) ही आपके नामका सदा जप करता है, अत एव मानो कण्ठने एक लड़ीवाले हाररूप मालाको ग्रहण किया है। इस प्रकार यह दमयन्ती आपके नामका तो सर्वदा मनसे ही जप करती रहती है और हमलोगोंका नाम तो मनसे नहीं-बाह्य जीभसे ही कभी कभी उच्चारण कर देती है, अत एव आपका उक्त उपालम्म उचित नहीं है ] // 47 / / अध्यासिते वयस्याया भवता महता हृदि / स्तनावन्तरसम्मान्तौ निष्क्रान्तौ महे बहिः / / 48 // 'अस्याः पीनस्तन' इत्यादिश्लोकोक्तं वैपरीत्यापादनेन परिहरति-अध्यासिते इति / हे महाराज ! वयस्यायाः सख्याः, हृदि वक्षसि, वक्षोऽभ्यन्तरे इत्यर्थः। महता गौरववता बृहदाकारेण च, भवता त्वया, अध्यासिते अधिष्ठिते सति, समग्रतया आक्रम्य अवस्थिते सतीत्यर्थः / स्तनौ सख्याः कुचद्वयी, अन्तरसम्मान्तौ अभ्यन्तरे अवस्थातुं स्थानमप्राप्नुवन्तौ सन्तो, बहिः हृदयस्य उपरिदेशे, निष्क्रान्ती निर्गतो, इति ब्रमहे कथयामः, सम्भावयामः इति यावत् / भवदध्यासात् प्राक अनिर्गमात् अध्यासादनन्तरञ्च निष्क्रमादिति भावः / अतोऽस्याः हृदयैकशरणः महाराजः एव इति निष्कर्षः // 48 // ___ 'महान् ( गौरवयुक्त, पक्षा०-विशालाकार ) आपके द्वारा इस ( दमयन्ती ) के हृदय में अधिष्ठित होनेपर भीतर में नहीं समाते ( स्थान पाते ) हुए. दोनों स्तन बाहर निकल आये हैं। ऐसा हम कहती हैं / [ पहले दमयन्तीके स्तन बाहर नहीं निकलते थे, किन्तु जबसे आपने इसके हृदयमें निवास किया तबसे उसमें रहनेका स्थान नहीं पा सकने के कारण ही ये स्तन बाहर निकल आये हैं , ऐसा हम समझती हैं। लोकमें भी किसी बड़े व्यक्तिके द्वारा
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________________ 1326 नैषधमहाकाव्यम् / किसी स्थानपर अधिकार कर लेनेपर निर्बल व्यक्ति वहाँ स्थान नहीं पानेसे वहांसे बाहर निकल जाता है / इस दमयन्तीके एकमात्र आप ही हृदयमें निवास करते हैं, स्वाङ्गभूत स्तनोंको भी वहाँ ठहरनेका अवकाश नहीं है ] // 48 // / कुचौ दोषोज्झितावस्याः पीडितौ व्रणिती त्वया / कथं दर्शयतामास्यं बृहन्तावावृतौ ह्रिया ? // 46 / / 'अधिगत्य' इत्यादि श्लोकोक्तकुचवैमुख्योपालम्भस्योत्तरमाह-कुचाविति / बृहन्तौ महान्तौ अतिपीनौ इत्यर्थः, महाशयौ च, तथा दोषोज्झितौ दोषेण शिथिल. स्वादिना, उज्झिती वर्जितो, कठिनौ इत्यर्थः / अथ च दोषा रात्रौ, उज्झितौ वस्त्रमुक्ती, निरावरणी इत्यर्थः / अस्याः सख्याः, कुक्षौ स्तनद्वयम् , त्वया भवता, पीडितौ पाणिभ्यां मदिती, अहेतुक दत्तक्लेशी च, तथा व्रणितौ नखैः क्षतविक्षती. कृती, शस्त्राघातेन व्रणवन्ती कृतौ इति च / व्रणवच्छब्दात् 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात कर्मणि क्तः, णाविष्ठवनावात् 'विन्मतोलुंक' इति मतुपो लोपः। अतः हिया लज्जया हेतुना, इवेति शेषः / आवृतौ आच्छन्नौ, वस्त्रेगेति शेषः / कथं केन प्रकारेण, आस्यं सुखम् , चुचुकमिति यावत् , आननञ्च / दर्शयताम् ? प्रकाशयताम् ? न कथमपीत्यर्थः / महान्तो जनाः परेण अहेतुकं दूषिता अपि लज्जया न मुखं प्रदर्शयः न्तीति भावः / अत्र भवान् स्वयमेव कृतापराधः इति निष्कर्षः / दृशेय॑न्तात् लोटि तामादेशः / / 49 // (अब नलोत्तः 'अधिगत्य.' ( 2026) आक्षेपका 'कला' उत्तर दे रही है-) दोषरहित ( पक्षा०-रात्रिमें वस्त्रावरणरहित ), बड़े आकारवाले (पक्षा०-प्रतिष्ठादिसम्पन्न होते से बड़े ) तुमसे ( रात्रिमे रतिकालमें ) हाथसे मर्दित ( पक्षा-पीडित ) तथा ( नख. क्षत, पक्षा०-शस्त्रादि) से व्रणयुक्त किये गये इस ( दमयन्ती ) के दोनों स्तन (दिनमें) लज्जासे ( युक्त होने के कारण वस्त्रसे) ढके ( पक्षा-मुख अपनेको छिपाये ) हुए इस ( दमयन्ती ) के स्तनमुख (चूचुक, पक्षाo-मुंह) को कैसे दिखलावें ? [ जिस प्रकार प्रतिष्ठित एवं अपराधरहित कोई बड़ा आदमी किसीसे पीडित एवं शस्त्रक्षत होकर लज्जासे अपना मुख छिपा लेता है और किसीको अपना मुख नहीं दिखलाता; उसी प्रकार रात्रिमें वस्त्ररहित, शैथिल्यादिदोष-रहित अर्थात् कठिन दमयन्तीके बड़े-बड़े स्तनोंको आपने हाथसे मर्दित एवं नखसे विक्षत कर दिया, मानो इसी कारण वे दिनमें लज्जावश वस्त्रसे आच्छादित हो अपना मुख नहीं दिखला रहे हैं, अतः इनका ऐसा करना उचित ही है। अथ च-आप यदि बाहर स्थित रहते तो ये स्तन अपना मुख आपको दिखलाते अर्थात् इनका अग्रभाग आपके नेत्रों के सामने होता, किन्तु आप तो दमयन्तीके हृदयमें रहते हैं और ये स्तन ऊपर मुख किये दमयन्तीके हृदय ( वक्षः स्थल ) से बाहर रहते हैं, अत एव ये अपना मुख आपको कैसे दिखला सकते हैं, क्योंकि दमयन्ती-हृदयस्थ आपका स्तनाग्रके
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________________ विंशः सर्गः। 1327 सामने होना सर्वथा असम्भव है, अत एव स्तनों के विषय में भी आपका उपालम्म देना उचित नहीं हैं ] // 49 // ईडगेवेति पप्रच्छ प्रियामुन्नमिताननाम् / / 50 / / इतोति / इति इत्थम् , कलया प्रियायाः सख्या, पीयूषवर्षिभिःअमृतस्यन्दिभिः, सूक्तैः प्रियवचनैः, सिक्तः आकृतः, सन्तोषित इत्यर्थः / असौ राजा, उन्नमितं स्वपाणिना उन्नतं कृतम् , आननं मुखं यस्याः तादृशीम् , प्रियां दमयन्तीम् , ईक एव ? कलया यदुक्तं तत् किं सत्यमेव ? इत्यर्थः। इति एवम् , पप्रच्छ जिज्ञासयामास // 50 // 'कला' के द्वारा इस प्रकार ( 20 / 38-49 ) अमृतवर्षी मधुर वचनोंसे सिक्त (होनेसे प्रेमरससे परिपूर्ण ) ये नल प्रिया ( दमयन्ती) के मुखको ऊपर उठाकर (जैसा 'कला' कहती है ) यह ऐसा ही है ?' इस प्रकार पूछा // 50 // बभौ च प्रयसीवक्त्रं पत्युरुन्नमयन् करः / चिरेण लब्धसन्धानमरविन्दमिवेन्दुना / / 51 / / बभाविति / प्रेयसीवक्त्रं दमयन्तीमुखम् , उन्नमयन् उत्तोलयन् , पत्युः भत्तनलस्य, करः पाणिः: चिरेण महता कालेन, बहुकालान्तरमित्यर्थः / इन्दुना विधुना, निशाकाले सरसीवक्षःप्रतिबिम्बितेनेति भावः / लब्धं प्राप्तं, सन्धानं सहजवैरनिवृत्ती संयोगः येन तत् तादृशम् , अरविन्दं पद्मम् इव, बभौ शुशुभे / अभूतोपमेति दण्डी, अत्यन्तमसम्भवसम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः इत्यपरे // 51 // ____ अतिशय प्रिया ('दमयन्ती ) के मुखको ऊपर उठाता हुआ नलका हाथ बहुत समय के बाद ( सहज वैरको छोड़कर ) चन्द्रमाले सम्मिलित कमलके समान शोभित हुआ। [इससे नलके हाथका कमलतुल्य तथा दमयन्तीके मुखका चन्द्रतुल्य होना सूचित होता है ] // 51 // ह्रीणा. च स्मयमाना च नमयन्ती पुनमुखम् / दमयन्ती मुदे पत्युरत्युच्चैरभवत्तदा // 52 // होणेति / तदा तत्काले, नलकत्त कदमयन्तीमुखोत्तोलनकाले इत्यर्थः। हीणा लजिता च / 'नुदविद-' इत्यादिना विकल्पात् निष्ठानत्वम् / स्मयमाना मन्दं हसन्ती च, दमयन्ती भैमी, पुनः भूयः, मुखं वदनम् , नमयन्ती भवनमनं कुर्वती सती पत्युः नलस्य, अत्युच्चैः उच्चतराय, मुदे आनन्दाय, अभवत् अजायत / / 52 // ___उस समय ( 'कला' की कही हुई बातको लेकर दमयन्तीका मुख उठाकर वैसा प्रश्न करनेपर ) लज्जित तथा स्मितयुक्त एवं नलके द्वारा अधिक ऊपर उठाये गये मुखको ('ये मेरा स्मित देख न लें' इस भावनासे ) फिर नीचे करती हुई वह दमयन्ती पतिके हर्ष के लिए ( अथवा-पतिके अधिक हर्षके लिए ) हुई अर्थात् वैसा पूछनेपर लज्जित एवं स्मितयुक्त
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________________ 1328 नैषधमहाकाव्यम् / हो ऊपर उठाये गये मुखको नीचे करती हुई प्रियाको देखकर नल अत्यधिक हर्षित हुए / भूयोऽपि भूपतिस्तस्याः सखीमाह स्म सस्मितम् / / परिहासविलासाय स्पृहयालुः सहप्रियः // 53 / / भूय इति / प्रियया भैम्या सह वर्तते इति सहप्रियः कान्तासंयुक्तः / तेन सह-' इत्यादिना बहुव्रीहिः / भूपतिः नलः, परिहास विलासाय नर्मक्रीडार्थम् , दमयन्त्या स हैव नर्मव्यवहारेण चित्तविनोदनायेत्यर्थः / स्पृहयालुः अभिलाषुकः, केलिकामुकः सन् इत्यर्थः / 'स्पृहेरीप्सितः' इति सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी, 'स्पृहिगृहि-' इत्यादिना आलुच / भूयः पुनरपि, तस्याः प्रियायाः, सखी कलाम , सम्मितम् ईषद्धास्यसहि. तम् , आह स्म उवाच // 53 // प्रिया ( दमयन्ती ) सहित नल परिहासक्रीड़ाके लिए इच्छुक होते हुए स्मितपूर्वक प्रियाकी सखी 'कला' से बोले // 53 // / क्षन्तुं मन्तुं दिनस्यास्य वयस्येयं व्यवस्यतात् / निशीव निसिधात्वर्थ यदाचरति नात्र नः / / 54 / / क्षन्तुमिति / इयम् एषा, व्यस्या वः सखी, अस्य वर्तमानस्य, दिनस्य दिवसस्य, मन्तुम् अपराधम् , क्षन्तुं सोढुम , व्यवस्यतात् प्रवर्त्तताम् / तातडादेशः। ननु दिनस्य कः खलुः दोषः ? इत्याह-यत् यस्मात् , निशि इव रात्रौ इव, अन्न दिने, नः अस्माकम् , निसिधात्वर्थ निसिधातोः 'निसि चुम्बने' इति धातोः, अर्थम् अभिः धेयम् , चुम्बनमित्यर्थः / न आचरति न व्यवहरति, न करोतीत्यर्थः, लज्जयेति शेषः / तत्र चुम्बनस्य विघ्नतायां दिनस्य स्वप्रकाश एव अपराधः, नान्यत् किञ्चित् निमित्तं पश्यामः इति. भावः // 54 // इस ( तुम्हारी ) सखी ( दमयन्ती ) को ( वर्तमान ) दिनके अपराधको क्षमा करने के लिए व्यवसाययुक्त ( कार्यतत्पर अर्थात् तैयार ) करो, क्योंकि इस (दिन ) में रात्रिके समान अर्थात् रात्रिमें जैसा किया था वैसा 'निस्' धातुके अर्थ (चुम्बन ) को नहीं करती 1. 'व्यवस्यताम्' इति पाठे आत्मनेपदं चिन्त्यम् , इति 'प्रकाशः' / 'इयं वय. स्याऽस्य दिनस्य मन्तुं क्षन्तुं त्वया व्यवस्यतां व्यवसायं प्राथ्यताम्'-इति कर्मण्यात्म. नेपदमिति केचित् / तदपीत्वप्राप्ती व्यवसीयतामिति प्राप्तेरुपेच्यम् , इति सुखाव बोधा, इति म० म० शिवदत्तशर्माणः / 2. 'निशिधात्वर्थम्' इति 'प्रकाश'कृता व्या. ख्यातस्य पाठस्य तु 'णिशि चुम्बने' निस्ते / दन्त्यान्तोऽयम् / आभरणकारस्तु ताल. व्यान्त इति बभ्राम / सिद्धान्तकौमुद्यां भट्टोजिदीक्षितेन स्पष्टमेव दन्त्यान्तस्यैव प्रतिपादनात् 'निसेः प्रतिषेधो वाच्यः / निस्से / निस्स्व / ' इति महाभाष्ये भगवत्पतञ्ज. लिना स्पष्टं दन्त्यान्तस्यैव ध्वनितत्वाच्च दन्त्यान्तस्यैव सम्मतत्वेऽपि 'तालव्यान्त. स्याप्यङ्गीकारे न बाधकम् / ' इति 'शब्दरत्न' कृदनुरोधारकथञ्चिदौचित्यमिति बोध्यम्।
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________________ विंशः सर्गः। 1326 . है। [इस दमयन्तीने रात्रिमें मेरा चुम्बन किया था, किन्तु इस समय दिन होनेके कारण मेरा चुम्बन नहीं कर रही है, अतः चुम्बन नहीं करने में यह दिन जो अपराध कर रहा है, उसे क्षमा करने के लिए तुम्हारी सखी ( दमयन्ती ) तैयार होवे अर्थात् दिनके अपराधको क्षमा कर दे] // 54 // दिनेनास्या मुखस्येन्दुः सखा 'यदि तिरस्कृतः / तत्कृताः शतपत्त्राणां तन्मित्राणामपि श्रियः // 55 // अथ दिनं किमस्या अनिष्टकारि ? इत्यपेक्षायामाह-दिनेनेति / दिनेन अह्रा, अस्याः वः सख्याः, मुखस्य वदनस्य, सखा मित्रम्, सहशत्वादिति भावः / इन्दुः चन्द्रः, यदि यद्यपि, तिरस्कृतः अवज्ञातः, सूर्योदयेन निष्प्रभीकरणात् तुच्छीकृतः इत्यर्थः / इति हेतोः दिनम् अपराधि इति उच्यते यदि इति भावः। तर्हि तस्य मुखस्य, मित्राणां सखीनाम् , सदृशानामित्यर्थः। शतपस्त्राणां बहूनां पद्मानाम् , श्रियः अपि शोभाः अपि, विकाशनेनेति भावः। तत्कृताः तेन दिनेन सम्पादिताः दिनेन एतन्मुखस्य एकस्य सख्युरिन्दोरपकारे कृतेऽपि अनेकेषां मित्राणां कमलाना. मुपकारोऽपि कृतः ।राच्या तु केवलं चन्द्र एव उपकृतः, तत् बहूपकारिणः एकोऽप. राधो न गणनीयः, अतः दिनेऽपि चुम्बनमुचितमिति भावः // 55 // यदि दिनने इस ( दमयन्ती ) के मुखके मित्र ( समानालादक होनेसे सुहृद् ) चन्द्रमाको तिरस्कृत ( पक्षा०-निष्प्रभ ) किया है तो ( दमयन्तीके मुखके समान होनेके कारण ) उस ( मुख ) के मित्र कमलोंकी शोमा ( पक्षा०-सम्पत्ति ) को भी उसी (दिन ही) ने किया है। [ अत एव मुखके एक मित्र चन्द्रमाका अहित करनेपर भी उसी मुखके अनेक मित्र कमलोंका हितकरने के कारण दिनका कोई अपराध नहीं है, अत एव दिनमें भी आप चाहें तो सखी चुम्बन कर सकती है अथवा-... ...'तत्कृत्ताः' पाठा०-उस (दिन ) के मित्र कमलोंकी या-मित्रोंके सैकड़ोंके वाहनोंकी शोभा ( पक्षा०-सम्पत्ति ) का उच्छेद भी तो चन्द्रमाने किया है ( अत एव दिनका किया हुआ अपराध छोटा तथा उसके प्रतिकारमें चन्द्रमाका किया हुआ . अपराध बड़ा है, अतः दिनका अपराध नगण्य है। अथवा-..."उस ( मुख ) के मित्र कमलोंकी शोभा उस ( दिन ) के द्वारा ही नष्ट हुई है (क्या ) ? अर्थात् नहीं, कमलोंकी शोभाको तो चन्द्रने प्रतिकारस्वरूप नष्ट किया है, अत एव दिनका अपराध नगण्य है / अथवा-....""उस (दिन ) के मित्र कमलोंकी शोभाको भी तो ( मुखापेक्षा होनकान्ति होनसे ) उस ( दमयन्तीके मुख ) ने ही नष्ट किया है, ( अत एव दमयन्तीके मुख) ने दिनके द्वारा किये गये अपने मित्र चन्द्रमाके श्रीनाशका प्रतिकार उस दिन के बहुतसे मित्रोंका श्रीनाश करके कर दिया है, इस कारणसे अब दिनका उक्तापराध नगण्य है ] / / 55 // लज्जितानि जितान्येव मयि क्रीडितयाऽनया / प्रत्यावृत्तानि तत्तानि पृच्छ सम्प्रति कं प्रति ? / / 56 //
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________________ 1330 नैषधमहाकाव्यम् / लज्जावशात् दिने नासौ चुम्बतीति चेत्तदप्ययुक्तमित्याह-लजितानीति / . क्रीडितया रात्री स्वयमेव कृतसुरतक्रीडया, कर्तरि क्तः / अनया वः सख्या, मयि मम विषये मत्समीपे इति वा, यद्वा-मयि मम वक्षसि उत्थायेत्यर्थः / क्रीडितया कृतविपरीतविहारया इत्यर्थः / अनया लज्जितानि वीडितानि, भावे क्तः / जितान्येव निरस्तान्येव, दूरीकृतान्येवेत्यर्थः / सम्प्रति इदानीं पुनः, कं प्रति कम् उद्दिश्य, तानि लज्जितानि, प्रत्यावृत्तानि प्रत्यागतानि, तत् प्रत्यावृत्तेः निमित्तमित्यर्थः / पृच्छ जिज्ञासय / मयि प्रागेव लज्जास्यागात नाहमस्याः लज्जायाः निमित्तम् , भवतीनां समीपे लज्जायाः जातस्वात् भवत्य एव अस्याः लज्जाकारणमिति तर्कयामीति भावः // 56 // ___ (सुरतकाल में अनेकविध ) क्रीड़ा की हुई इस ( दमयन्ती ) ने मेरे विषयमें लज्जाको जीत ही लिया ( छोड़ ही दिया) है, फिर वह लज्जा किसके प्रति लौट आयी ( किसके साथ यह लज्जा करती है ) ? यह पूछो / [ मेरे साथ रात्रिमें अनेक क्रीड़ाओं को इमने सङ्कोच. रहित होकर किया, इससे स्पष्ट है कि इसने मुझसे लज्जा करना छोड़ दिया है, किन्तु इस समय तुमलोगों के सामने पुनः लज्जा कर रही है, अतः ज्ञात होता है कि तुम्हीं लोगोंसे यह लज्जित हो रही है ] / / 56 // निशि दष्टाधरायापि सैषा मह्यं न रुष्यति / क फलं दशते बिम्वी-लता कीराय कुप्यति ? / / 57 / / सम्प्रति अधरदशनादिरूपं स्वापराधं चतुर्भिः क्षालय ति, निशीति / सा एषा प्रिया, निशि रजन्याम , दष्टः कृतदंशनः, अधरः रदनच्छदः येन तस्मै तादृशायापि, मां नलाय, न रुष्यति न कुप्यति / 'क्रधद्रह-' इत्यादिना सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी। तथा हि-बिम्बीलता रक्तफलाख्यवृक्षस्य व्रततिः, ओष्ठोपमफलस्य वृक्षस्य लता इत्यर्थः / 'तुण्डिकेरी रक्तफला बिम्बिका पीलुपयॆपि' इत्यमरः / फलं प्रसवम्, निजमेव बिम्बफलमित्यर्थः। दशते निजच्चा छिन्दते, कीराय शुकाय, क्व कुत्र, कुप्यति ? ऋध्यति ? न वापीत्यर्थः। दृष्टान्तालङ्कारः, प्रतिवस्तूपमेति युक्तमिति केचित् // 57 // रातमें (दातोंसे ) अधरक्षत करने वाले मुझपर यह क्रोध नहीं करती है (पाठा०-करे), क्योंकि ( बिम्बी ) फलको काटनेवाले तोतेपर बिम्बीलता कहां ( किस देश या समयमें ) क्रोध करती है ? अर्थात् कभी क्रोध नहीं करती, अतः इसे मुझपर क्रोध नहीं करना चाहिये / / ___ शृणीपदसुचिह्ना श्रीश्चोरिता कुम्भिकुम्भयोः / . पश्यैतस्याः कुचाभ्यां तन्नपस्तौ पीडयामि न ? / / 58 / / ____1. 'रुष्यतु' इति पाठान्तरम्। 2: 'सृणी-' इति दन्त्यादि पाठः 'प्रकाश'व्याख्यातः।
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________________ विंशः सर्गः। 1331 यदुक्तं कलया 'कुचौ दोषोज्झितावस्याः पीडितौ व्रणितौ त्वया' इति तत्रोनरमाह-शृणीति / एतस्याः दमयन्त्याः, कुचाभ्यां स्तनाभ्याम्, कुम्भिकुम्भयोः गजस्य शिरस्थपिण्डयोः सम्बन्धिनी, शृणीपदानि अङ्कुशक्षतानि एव, सुचिह्नानि उत्कृष्टलक्ष्माणि यस्याः सा तादृशी, श्रीः शोभा सम्पत्तिश्च, चोरिता अपहृता, इति पश्य एतत् त्वं स्वयमेवावलोकय / नखपदस्य अङ्कशपदवदेव परिदृश्यमानत्वादिति भावः। तत् तस्मात् , चौर्यापराधाद्धेतोरित्यर्थः। नृपः दण्डधरः, चौर्योचितदण्डविधाता इत्यर्थः, अहं नलः, तो कुचौ, न पीडयामि ? न दण्डयामि ? न मर्दयामि च ? अपि तु पीडयाम्येव, दुष्टनिग्रहाधिकारात् राज्ञामिति भावः // 58 // इसके दोनों स्तनोंने अङ्कुशाघात ( नखक्षत ) रूप सुन्दर चिह्नवाली हाथीके कुम्भों ( मस्तकस्थ मांस-पिण्डों) की शोभाको चुरा लिया है, उस कारण राजा ( मैं ) उन्हें ( उन दोनों स्तनोंको) पीड़ित ( दण्डित, पक्षा०-हस्तमर्दित) नहीं करूँ ? (पाटा०पीड़ित करता हूँ)। [चोरको दण्डित करना राजाका धर्म होनेसे नखक्षतसे अङ्कुशक्षत गजकुम्भकी शोभाको चुरानेवाले इसके स्तनोंको कर मर्दनरूप दण्ड देना मुझे उचित ही है ] / अधरामृतपानेन ममास्यमपराध्यत / मृद्धर्ना किमपराद्धं यः पादो नाप्नोति चुम्बितुम् ? / / 56 }! अधरेति / हे कले ! मम मे, आस्यं मुखम, अधरामृतपानेन अधरसुधास्वादनेन हेतुना, अपराध्यतु अनभिमताचरणात् अपराधि अस्तु / अत एव अपराधिनः अस्य एषा दण्डं विदधातु इति भावः / किन्तु मूद्धर्ना मम शिरसा, किम् अपराद्धम् ? का अपराधः कृतः ? यः मूर्धा, पादौ अस्याश्चरणौ, चुम्बितुं स्प्रष्टमित्यर्थः / न आप्नोति ? न लभते ? तत् पृच्छ इति शेषः // 59 // (इस दमयन्तीके ) अधरके अमृतका (चुम्बन करते हुए ) पान करनेसे ( मेरा) मुख भले ही अपराधी हो, ( किन्तु मेरे ) मस्तकने क्या अपराध किया है जो ( दमयन्तीके ) चरणोंका चुम्बन (प्रसादनार्थ स्पर्श) भी नहीं पाता है ? // 59 // अपराद्धं भवद्वाणी-श्राविणा पृच्छ कि मया ? / वीणाऽऽह परुषं यन्मां कलकण्ठी च निष्ठुरम् / 60 / / अपरामिति / यत् यस्मात् , वीणा वाधविशेषः, मां नलं, परुषं कर्कशम् अप्रि. यवाक्यञ्च, आह ब्रवीति, कलकण्ठी च कोकिला अपि, मां निष्ठरं कठोरं. सतिरस्कारश्च, आह, अतः हे कले! पृच्छ जिज्ञासय, त्वं वः सखीम् इति शेषः। भवत्याः तव दमयन्त्याः, वाणी वाक्यम् , शृणोति आकर्णयतीति तच्छाविणा, मया नलेन, किम् अपराद्धम् ? कोऽपराधः कृतः ? न किञ्चिदप्यपराद्धम् इत्यर्थः। लोकानामयमेव स्वभावो यत् परुषनिष्ठरवाक्यश्रवणसन्तप्तचित्तं प्रशमयितुं सुमधुरं वाक्यं श्रोतुः मिच्छा भवतीति तयोः पारुष्यदोषादरुच्या त्वत्सख्याः सुमधुरां वाणी शुश्रूषुः अहं सम्भाषणेन वः सख्या अनुकम्पनीयः इति भावः // 6 //
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________________ 1332 नैषधमहाकाव्यम् / तुम्हारे ( दमयन्तीके ) बचनको सुननेवाला मैंने क्या अपराध किया ? जो मुझसे वीणा परुष ( कठोर ) और कोकिल निष्ठुर बोलती है ? ( यह अपनी सखी दमयन्तीसे ) पूछो / [ रात्रिको सुरतकालमें दमयन्तीके वीणाकी ध्वनि तथा कोकिल के कूजनसे भी मधुर वचन मैंने बहुत सुना, अतः इस समय वीणाकी ध्वनि तथा कोकिलका कूजना हमें अप्रिय मालूम होता है, क्योंकि श्रेष्ठ पदार्थका भोग करने के बाद निकृष्ट पदार्थ प्रिय नहीं होता / प्रकृतमें जो जिसके प्रति अपराध करता है, उसी के प्रति उसे अनुचित व्यवहार करना चाहिये, मैंने तो दमयन्तीका वचन सुनकर उसका, वीणाका या कोकिलाका कोई अपराध नहीं किया जो तुम्हारी सखी दमयन्तीने इस समय मुझसे बोलना छोड़ दिया. और वीणा तथा कोकिल कठोर एवं निष्ठुर वचन कह रही है, इसका क्या कारण है ? यह तुम अपनी सखी से पछो / अथवा-मुझसे वीणा जो परुष ( कठोर ) तथा कोकिल निष्ठुर बोलती है, सो हे कले ! तुम अपनी सखी दमयन्तीसे पूछो कि तुम्हारी ( वीणा तथा कोकिलसे भी मधुर ) वाणीको सुननेवाले मैंने क्या अपराध किया है ? / यह लोकनियम है कि जो दुःखी होता है, वह सुख चाहता है, अत एव दमयन्तीके वचनकी अपेक्षा कटु वीणाकी ध्वनि तथा कोकिलका कूजना सुनकर उससे भी मधुरतम दमयन्तीके वचनको मैंने पीछेसे चुपचाप आकर जो सुन लिया तो क्या अपराध किया, जो यह अब मेरे सामने नहीं बोलती, अत एव अब इसके सामने मुझे निरपराध कहकर बोलने के लिये कहो ] / / 60 // सेयमालिजने स्वस्य त्वयि विश्वस्य भाषताम् / ___ ममताऽनुमताऽस्मासु पुनः प्रस्मयते कुतः ? / / 61 / / सेति / हे कले ! सा इयं प्रिया भैमी, स्वस्य आत्मनः, आलिजने सखीजने, त्वयि भवति, विश्वस्य विनम्म्य, प्रत्ययं कृत्वा इत्यर्थः / भाषतां वदतु, त्वां सखीं विश्वस्य अवश्यमेव एतत् कथयतु इत्यर्थः / किं भाषताम् ? इत्याह-अस्मासु मयि. विषये, अनुमता अङ्गीकृता, ममता आत्मीयता, मम अयम् इत्यभिमानः इत्यर्थः / रजन्यां तदनुकूलाचरणादिति भावः / कुतः कस्मात् हेतोः, पुनः इदानीं, प्रस्मर्यते ? प्रगतस्मरणीक्रियते ? रात्री तथा आत्मीयत्वेन आलप्य दिवा युष्मत्समक्ष दृष्टिनिक्षेप मात्रस्यापि अकरणात् तत् कथं विस्मयते अनयेति पृच्छेत्यर्थः। मयि अनात्मीयाच. रणे कथं जीवेयम् ? इति भावः॥६॥ यह ( दमयन्ती ) सखीजन तुमपर विश्वास करके कहे कि-(रात्रिमें) हमारे विषयमें स्व-सम्मत आत्मीयताको फिर ( इस समय तुम ) क्यों भूल रही हो ? [ रातमें पूर्णतया मेरे साथ अनुकूल बर्ताव करके दमयन्तीने जा आत्मीयताका परिचय दिया था, उसे इस समय असम्भाषण आदि प्रतिकूलाचरण करके क्यों भूल रही है ? इस बातको प्रिय सखी तुममें विश्वासकर बतलावे ] / / 61 // अथोपवदने भैम्याः स्वकर्णोपनयच्छलात् / सन्निधाप्य श्रुतौ तस्या निजास्यं सा जगाद ताम् / / 62 / /
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________________ विंशः सर्गः। 1333 अथेति / अथ राजवाक्यानन्तरम् , सा कला, भैम्याः दमयन्त्याः , उपवदने आन. नसमीपे। सामीप्येऽव्ययीभावः, 'तृतीयासप्तम्योबहुलम्' इति विकल्पात् सप्तम्यां नाम्भावः। स्वकर्णस्य निजश्रवणस्य, उपनयच्छलात् समीपनयनव्याजातू , ततः तस्याः भैम्याः,श्रतौ कर्णे, निजास्यं स्वमुखम् सन्निधाप्य सन्निहितं कृत्वा, तां भैमीम् , जगाद बभाषे // 62 // इस ( नलके ऐसा ( 20154-61) कहने ) के बाद उस ( 'कला' नामकी सखी) ने दलयन्तीके मुखके पास अपना कान करनेके छलसे उस ( दमयन्ती ) के कानों ( के पास) में अपना मुख लगाकर उस ( दमयन्ती ) से बोली / / 62 / / अहो ! मयि रहोवृत्तं धूर्त ! किमपि नाभ्यधाः। . आस्स्व सत्यमिमं तत्त भूपमेवाभिधापये / / 63 / / अहो इति / धूर्ते ! हे वञ्चनपरे ! मयि अस्मत्समीपे, रहोवृत्तं रहस्यचेष्टितम् , चुम्बनालिङ्गनादिरूपं निर्जनवृत्तान्तमित्यर्थः / किम् अपि किञ्चिदपि, न अभ्यधाः न अभिहितवती असि, त्वमिति शेषः, इत्यहो ! आश्चर्यम् ! भवतु, भास्स्व तिष्ठ / इमम् अमुम् , भूपं राजानं नलमेव, ते तव, तत् रात्रिचेष्टितमित्यर्थः / सत्यं यथायथम् , अभिधापये वाचयामि, कौशलेन भूपमेव सर्व ख्यापयिष्यामि इत्यर्थः / 'गतिबुद्धि-' इत्यादिना शब्दकर्मत्वादणिकत्तः कर्मस्वम् / राजा यथा स्वयमेव तव रहस्यवृत्तान्तं कथयति तथा करोमि इति निष्कर्षः // 63 // हे धूते ( दमयन्ती ) मुझसे तुमने एकान्तमें हुए कुछ भी ( आलिङ्गन चुम्बनादि ) वृत्तान्त नहीं कहा, अहो ! आश्चर्य है (कि तुम जैसी धूर्ता सखोको मैंने कहीं नहीं देखा) सो ठहरो, उस ( एकान्तके वृत्तान्त ) को मैं सत्य बोलनेवाले राजा ( नल ) से ही कहलाती हूँ। (अथवा-उस सत्य अर्थात यथार्थ वृत्तान्तको में भूप' पाठा०-मैं राजा नलसे ही उस असभ्य ( सब समामें अकथनीय होनेसे अश्लील ) वृत्तान्तको शीघ्र कहलवाती हूँ]॥ 13 // स्मरशास्त्रमधीयाना शिक्षिताऽसि मयैव यम् / अगोपि सोऽपि कृत्वा किं दाम्पत्यव्यत्ययस्त्वया ? / / 64 / / स्मरेति / स्मरशास्त्रं वात्स्यायनादिकामतन्त्रम् , अधीयाना पठन्ती, मत्तः अभ्यस्यन्तीत्यर्थः / स्वमिति शेषः / यं दाम्पत्यव्यत्ययमित्यर्थः / मया कलयैव, अध्यापिकया एव इति यावत् , शिक्षिता उपदिष्टा, असि भवसि / 'ब्रविशासि-' इति शासेरर्थग्रहणात् द्विकर्मकरवम् 'अप्रधाने दुहादीनाम्' इति अप्रधाने कर्मणि कः / त्वया भवत्या, स मदुपदिष्टः, दाम्पत्यव्यत्ययः दाम्पत्यस्य दम्पतिव्यवहारस्य स्वाभाविकविहारस्य, व्यत्ययः वैपरीत्यम् , अन्यथाचरणमित्यर्थः / विपरीतसम्भोगः इति यावत् / कृत्वाऽपि स्वयं निष्पाचापि, किं किमर्थम् , अगोपि ?
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________________ 1334 नैषधमहाकाव्यम् / मम समीपे गोपितः ? शिक्षयित्री मामेव यदा त्वं गोपायितुमिच्छसि, तदा नास्ति तवासाध्यं किञ्चिदिति भावः। एतत्तु 'लजितानि जितान्येव' इत्यादिना नलोक्तिः मनुसृत्यव चतुरया सख्या अभिहितमिति मन्तव्यम् / 'नितरां धाष्टर्थमवलम्ब्य मया शिक्षितं विपरीतसुरतं कृत्वाऽपि ममैव पुरस्तात् न कृतमिति कथयसीति नितरां वञ्चनाचतुराऽसीति भावः' इति 'नैषधीयप्रकाशः // 64 // (वात्स्यायनादिरचित ) कामशास्त्रको पढ़ती हुई मुझसे ही जिस (विपरीत रति ) को तुमने सीखा है, उस विपरीत रतिको करके भी तुमने क्यों छिपाया ? // 64 // मौनिन्यामेव सा तस्यां तदुक्तीरिव शृण्वती। वादं वादं मुहुश्चके हुं हुमित्यन्तराऽन्तरा / / 65 / / मौनिन्यामिति / सा कला, तस्यां भैम्याम् , मौनिन्यामेव तूष्णीम्भूतायामेव, किमपि अकथयन्त्यामेवेत्यर्थः / तदुक्तीः तस्याः दमयन्त्याः वाक्यानि, शृण्वती आकर्णयन्तीव, श्रवणभङ्गी प्रकाशयन्तीवेत्यर्थः / अन्तराऽन्तरा मध्ये मध्ये, वादं वादं तद्वाक्यस्य प्रत्युत्तरम् इव चोदित्वा / आभीक्ष्ण्ये णमुल् / मुहुः पुनः पुनः, हुं हुम् इति हुँ हुमित्यनुमोदनसूचकं 'शब्दम् , चक्रे कृतवती, पुनः पुनः हुं हुमिति करणेन तद्वाक्यानुमोदनं चकार इत्यर्थः / अनेनास्या अतीवपरिहासप्रियत्वं व्यज्यते इति बोद्धव्यम् // 65 // ( दमयन्तीसे इतना कहनेपर भी) उस ( दमयन्ती ) के चुप रहनेपर ही उसके कथनको सुनती हुई-सी वह ( कला ) बात-बातमें बीच-बीचमें 'हुँ-हुँ' ऐसा करती थी। [ यद्यपि दमयन्ती उसकी बातों का कुछ भी उत्तर नहीं देती थी, तथापि वह कला बीच-बीच में इस प्रकार 'हुं-हुं' कर रही थी, मानो दमयन्तीकी बात सुन रही हो। कलाने परिहास करनेवाले नलसे अधिक परिहास करने के लिए ही ऐसा किया, अत एव उसकी विशेष परिहा. सप्रियता सूचित होती है ] // 65 // अथासावभिमृत्यास्या रतिप्रागल्भ्यशकिनी / सख्या लीलाम्बुजाघातमनुभूयालपन्नृपम् / / 66 / / अथेति / अथ उक्तप्रकारभङ्गिकरणानन्तरम् , अस्याः भैम्याः, रतिप्रागल्भ्यं सुरतकाले नैपुण्यम् , शकते तर्कयतीति रतिप्रागल्भ्यशङ्किनी सुरतक्रीडायां दमयन्ती निपुणा जाता इति विवेचयन्तीत्यर्थः / असौ कला, अभिसृत्य दमयन्तीसकाशं गत्वा सख्याः भैम्याः, लीलाम्बुजानां करस्थितलीलाकमलानाम् , आघातं ताडनम् , अनुभूय प्राप्य, नृपं राजानम् , आलपत् अभाषत // 66 // इस ( 'कला' के इस प्रकार ( 2063-64 ) विशेष परिहास करने ) के बाद रतिकी प्रगल्भताका अनुमान करनेवाली ( 'दमयन्ती रति करनेमें पूर्णतः निष्णात हो गयी' इस
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________________ विंशः सर्गः। 1335 प्रकार समझती हुई ) वह कला ( दमयन्तीके समीप ) जाकर दमयन्तीद्वारा लीलाकमलसे ताडित होकर नलसे बोली // 66 // दृष्टं दृष्टं ! ! महाराज ! त्वदर्थाभ्यर्थनाक्रुधा / ___यत्ताडयति मामेवं यद्वा तर्जयति भ्रवा ? // 67 / / तदेवाह षभिः -दृष्टमित्यादि / हे महाराज ! दृष्टं! दृष्टम् !! अवलोकितम् ! अवलोकितम् !! इति आक्षेपे द्विरुक्तिः / किं दृष्टम् ? तत्राह-स्वदथं भवन्निमित्तम् , यत् अभ्यर्थना प्रार्थना, भत्तु रभिलाषं पूरयतु इत्येवंरूपा याच्जा इत्यर्थः / तया क्रुधा रोषेण, यत् माम् एवम् अनेन प्रकारेण, ताडयति प्रहारयति, यत् वा यच्च, ध्रुवा भ्रूभङ्गेण, तर्जयति तिरस्करोति, तत् उभयं दृष्टं खलु ? इत्यर्थः / एतच्च रहस्यवाक्यश्रवणार्थमिति भावः / तर्जतेरनुदात्तत्त्वेऽपि अनुदात्तेतः चक्षिङः डिस्करणेनानित्यता. ज्ञापनात परस्मैपदमपि भवति, अत एव तर्जयते भर्सयते तर्जयतीस्यपि च दृश्यते इति 'भट्टमल्लः // 67 // ___'हे महाराज (नल )! आपने देखा, देखा; कि-आपके लिए ( रति-विषयक) याचना करनेसे क्रुद्ध ( यह दमयन्ती ) मुझे इस प्रकार मार रही है (कि तुमने ऐसा क्यों किया ? ) और भौंहसे डरवा रही है (कि-फिर ऐसा कभी मत कहना // 67 // वदत्यचिह्नि चितेन त्वया केनैष नैषधः ? | शङ्के शक्रः स्वयं कृत्वा मायामायातवानयम् / / 58 / / किं तद्वाक्यम् ? तदाह त्रिभिः, वदतीत्यादि / हे राजन् ? वदति कथयति, भैमी मामिति शेषः / तदेवाह-हे कले ? त्वया भवत्या, एषः अयं जनः, केन चिह्नन लक्षणेन, नैषधः नला, इति अचिह्नि ? चिह्नितः ? प्रत्यभिज्ञातः ? इत्यर्थः। शङ्के मन्ये, अहमिति शेषः / अयम् एष जनः, स्वयं साक्षात् , शक्रः इन्द्र एव, मायां छलम् , छलेन नलवेशधारणमित्यर्थः, कृत्वा विधाय, आयातवान् आगतवान् इति // (तुम्हारे लिए याचना करने पर मेरे कानमें ) यह कहती है कि-'तुमने इस नलको किस चिह्नसे निर्धारित किया है ? 'यह माया करके (मायाद्वारा नलरूप धारणकरके ) स्वयं इन्द्र आया हुआ है' ऐसी शङ्का मैं करती हूँ ( अतः मुझसे इस परपुरुषके लिए तुम क्यों रति-याचना करती हो ?) // 68 // स्वर्णदीस्वर्णपद्मिन्याः पद्मदानं निदानताम् / नयतीयं त्वदिन्द्रत्वे दिवश्वागमनश्च ते // 69 / / कथं मयि अस्याः शक्रशङ्का ? इत्याह-स्वर्णदीति / किञ्च, हे महाराज ! इयं 1. 'भर्सयते तर्जयते सन्तर्जति' इत्येवं वचनमुपलभ्यते भट्टमल्लकृतायामाख्यातचन्द्रिकायाम् (आ० च० 11105) इति बोध्यम् /
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________________ 1336 नैषधमहाकाव्यम् / भैमी, स्वर्णद्याम् आकाशगङ्गायां मन्दाकिन्याम् , या .स्वर्णपद्मिनी कनकमयकमल. लता तस्याः, पद्मस्य स्वर्णकमलस्य, दानं स्वस्यै अर्पणम्, तथा ते तव, दिवश्व अन्तरीक्षाच्च, आगमनञ्च उपस्थितिञ्च, त्वदिन्द्रत्वे तव वासवस्वसंशये, निदानतां मूलकारणताम् , नयति प्रापयति / मानवे एतदुभयस्यासम्भवत्वादिति भावः // 69 / / आकाशगङ्गाका स्वर्ण-कमल देना तथा स्वर्गसे ( रथद्वारा तुम्हारा यहांपर) आना तुम्हारे ( नलके ) इन्द्र होने में यह ( दमयन्ती) कारण मानती है। मनुष्यका आकाशगङ्गाका स्वर्णकमल लाना तथा स्वर्गसे आना असम्भव हो से यह तुमको मायासे नलका * रूप धारणकर इन्द्र होने में मूल कारण समझती है, क्योंकि तुम स्वर्गसे रथपर चढ़कर आये हो तथा इसके लिए आकाशगङ्गाका स्वर्णकमल दिये हा (2011-4), अत एव इसकी ऐसी शङ्का होना उचित प्रतीत होता है / यहाँपर 'कला' परिहास करनेमें नलसे भी आगे बढ़ गयी है ] // 69 // आषते नैषधच्छाया मायाऽमायि मया हरेः। ___ आह चाहमहल्यायां तस्याकर्णितदुर्णया / / 70 / / ___ भापते इति / हे महाराज ! भाषते भैमी अन्यदपि वदति / किमिति ? हे कले ! मया नैषधच्छाया नलरूपधरा, हरेः इन्द्रस्य, माया छलना, अमायि अनुमिता, स्वयंवरकाले तथाभूतव्यापारदर्शनादिति भावः / माङः कर्मणि लुङ चिणि युगागमः। ननु तदानीं ते कौमार्यात् त्वल्लाभाथं तस्य माया न दूषणीया, इदानीन्तु तव परस्त्रीत्वात् तस्य तथाविधा माया न सम्भवत्येव इत्याह-आह च एतदपि वदतीत्यर्थः / अहं दमयन्ती, अहल्यायां तन्नाम्न्यां गौतमभार्यायाम , तस्य इन्द्रस्य, आकर्णितः श्रतः, पुराणादौ इति शेषः / दुर्णयः दुश्चेष्टितम् , मायया गौतमरूपं धृत्वा सतीत्वना. शरूपदुर्व्यवहार इत्यर्थः / यया सा तादृशी, अस्मीति शेषः / सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः / 'उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' इति णत्वम् / पारदार्यात् भीतिरप्यस्य नास्ति, अत इदानीमपि तत्कर्तृकनलरूपधारणं नासम्भवः इति भावः // 70 // ( यह दमयन्ती मुझसे यह भी ) कहती है कि- ( मैंने ) इन्द्र के नलकान्ति (को मायासे धारण करने ) के कपटका अनुमान कर लिया। ( उस समय तुम्हें कुमारी रहनेसे उक्त माया द्वारा इन्द्रका तुन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करना अनुचित नहीं कहा जा सकता, किन्तु अब तो तुम नलकी पत्नी होनेसे परस्त्री हो गयी हो, अतः इन्द्र मायासे नलका रूप धारण कर तुम्हें प्राप्त करनेकी चेष्टा कैसे कर सकते हैं। इस शङ्काके उत्तर में यह दमयन्ती) और कहती है कि उस ( इन्द्रकी ) अहल्या ( गौतमपत्नी ) में दुर्नीति (व्यभिचार ) मैंने सुना है ( अत एव इन्द्रका परस्त्री-सम्भोगसे भी डरकर ऐसा करना असम्भव नहीं है ) // 70 // सम्भावयति वैदर्भी दर्भाग्राममतिस्तव | जम्भारित्वं कराम्भोजाइम्भोलिपरिरम्भिणः / / 71 / /
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________________ विंशः सर्गः। 1337 सम्भावयतीति / किञ्च, दर्भाग्राभा कुशाग्रसदृशी, अतीव तीचणा इत्यर्थः, मतिः बुद्धिः यस्याः सा ताहशी सूक्ष्मबुद्धिः, वैदर्भी दमयन्ती, दम्भोलिः वज्रायुधं वज्ररेखाच, परिरभते धारयतीति तस्मात् वज्रायुधधरात् वज्रचिह्नविशिष्टाच, कराम्भो. जात् पाणिकमलात् हेतोः, कराम्भोजं दृष्ट्वा इत्यर्थः / तव ते, जम्भारित्वम् इन्द्रत्वम्, सम्भावयति नर्कयति / 'वज्रहस्तः पुरन्दर' इति श्रुतेः तथा नलस्य पाणितले वज्रा. दिविविधसार्वभौमलक्षणस्यावस्थानादिति भावः // 71 // कुशाग्रके समान ( सूक्ष्म ) बुद्धिवाली दमयन्ती वज्रशस्त्रधारी ( पक्षा०-वज्रचिहाकित ) करकमलसे तुम्हें इन्द्र समझती है। [इन्द्रके हाथमें 'वज्र' नामक शस्त्र रहता है, नलके हाथमें 'वज्र' का चिह्न है, अतः परमचतुरा 'कला' वज्रचिह्नको वज्रायुध मानती हुई नलको इन्द्र होना प्रमाणित कर रही है / नलके हाथमें वज्रचिह्न होनेसे उनका सार्वभौम होना सूचित होता है ] // 71 // अनन्यसाक्षिकाः साक्षात्तद्वथाख्याय रहःक्रियाः। शङ्काऽऽतकं नुदैतस्या यदि त्वं तत्त्वनैषधः / / 72 / / अनन्येति / हे राजन् ! त्वं भवान् , यदि चेत् , तत्वनैषधः परमार्थनलः, असीति शेषः, तत् तहि, अनन्यसाक्षिकाः नास्ति अन्ये स्वेतराः, साक्षिणः प्रत्यक्षदर्शिनः यासां तादृशीः स्वमानसंवेद्याः, रहःक्रियाः चुम्बनालिङ्गनादिरूपरहस्यव्यापारान् , साक्षात् अस्याः समक्षं स्वयमेव, व्याख्याय उक्त्वा, एतस्याः वैदाः, शङ्कायाः इन्द्ररवसन्देहस्य, आतकं भयम् , नुद निवर्त्तय / यान् यान् गुप्तव्यापारान् केवलं युवामेव जानीथः, न पुनरन्येषां केषाश्चिदपि तज्ज्ञानसम्भावना, ईदृशान् व्यापारान् यदि त्वं वक्तुं शक्नोषि, तदैव एषा स्वांनलत्वेन अवधारयिष्यति, नान्यथा इति भावः॥ ___ यदि तुम वास्तविक नल हो तो अनन्यसाक्षिक (जिसे तुम दोनों के अतिरिक्त किसीने नहीं देखा है ऐसी) एकान्तकी (आलिङ्गन, चुम्बन, सम्भाषण एवं रति आदि ) क्रियाओंको विशेषरूपसे अर्थात् स्पष्ट कहकर इस ( दमयन्ती) के शङ्काजन्य भयको दूर करो, [ 'कला'ने नलके द्वारा ही रहोवृत्त कहलवाने के लिए जो पहले ( 20163) दमयन्तीसे कहा था, उसे कहने के लिये नलको वाध्य कर यहां उसने अपने चातुर्यकी पराकाष्ठा प्रदर्शित की है ] 72 / / इति तत्सुप्रयुक्तार्थी निद्भुतीकृतकैतवाम् / वाचमाकर्ण्य तद्भावे संशयालुः शशंस सः // 73 // इतीति / इति इत्थम्, तया कलया, सुप्रयुक्तार्था सुप्रयुक्तः स्वर्गगमनस्वर्णपद्मदानवज्रधारणादिजन्यसन्देहस्य निरसनाय यथाकालं सम्यगुपन्यस्तः, अर्थः अभिधेयः यस्याः तादृशीम्, 'सुप्रयुक्तत्व' इति पाठे-सुप्रयुक्तत्वेन युक्तियुक्तरूपेण प्रयो. गेण, निद्भुतीकृतकैतवां निहतीकृतं कैतवद्योतकहास्यादिविकारराहिल्येन गोपायितम्, 1. 'क्तस्वनिद्भुती-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1338 नैषधमहाकाव्यम् / कैतवं छलं यत्र तादृशीम, अप्रकाशीकृतनिगूढाभिप्रायाम, वाचं वाक्यम्, आकर्ण्य श्रुत्वा, सः नलः, तस्याः भैम्याः, भावे अभिप्राये, संशयालुः किमियं सत्यमेव मामि. न्द्रभाशङ्कय चुम्बनादिकं न करोति इति सन्दिहानः सन् , शशंस कथयामास / संशयोच्छेदकरहस्यवाक्यसमूहम् उवाच इत्यर्थः / एतेन कलायाः वचनचातुर्येण राज्ञः पराजयः सुचित इति बोद्धव्यम् // 73 // उस ( कला ) से सुप्रयुक्त अर्थवाला ( पाठा०-अच्छी तरह ( परिहासादि चेष्टारहित होकर कह ने ) से ) छिपाया गया है कपट जिसमें ऐसा अर्थात कपटयुक्त होनेपर भी कपट. रहित प्रतीत होनेवाला यह ( 2067-72 ) वचन सुनकर उस ( दमयन्ती ) के अभिप्रायमें सन्देहान्वित ( यह दमयन्ती सचमुच आकाशगङ्गाका स्वर्णकमल अर्पित करने, स्वर्गसे आने तथा हाथमें वज्रग्रहण करने के कारण मुझे नलवेषधारी इन्द्र मानकर ही मेरा आलिङ्गन चुम्बनादि नहीं करती है क्या ? इस प्रकार के सन्देहसे युक्त ) वे ( नल ) बोले [ इस प्रकार 'कला' के चातुर्यपूर्वक वचन कहनेसे नलका पराजय सूचित होता है ] // 73 / / स्मरसिच्छद्मनिद्रालुमया नाभौ शयापेणात् / यदानन्दोल्लसल्लोमा पद्मनाभीभविष्यसि ? / / 74 // . अथैतदेव विंशत्या श्लोकः प्रपञ्जनाह, स्मरसीत्यादि / हे प्रिये ! छद्मना कपटेन, निद्रालुः सुप्ता / 'स्पृहिगृहि-' इत्यादिनानिपूर्वात् दातेरालुच / त्वमिति शेषः / मया नलेन, नाभौ तव नाभिदेशे, शयस्य पाणेः, अर्पणात् स्थापनात्, नीवीग्रन्थिमोचना. र्थमिति भावः / आनन्देन स्पर्शसुखेन, उल्लसल्लोमा प्रहृष्यद्रोमा सती, रोमाञ्चितगात्री सतीत्यर्थः / यत् पद्मं नाभौ यस्याः सा पद्मनाभिः अपमानाभिः पद्मनाभिर्भविष्यसीति पद्मनाभीभविष्यसि पद्मनाभितुल्या साताऽसि इत्यर्थः / मम पाणेः पद्मतुल्यत्वात् तव रोमाञ्चानाञ्च पद्मस्य कण्टकतुल्यस्वादिति भावः। पद्मनाभः विष्णुश्च सः अपि छद्मनिद्रालुः इति बोध्यम् / 'अच् प्रत्यन्ववपूर्वात्-' इत्यादिसूत्रे 'अच' इति योगविभागात् उभयत्रापि समासान्तोऽचप्रत्ययः। अभूततद्भावे विः। 'अभिज्ञावचने लुट्' इति भूतार्थे लूट / तत्तु स्मरसि ? तत् प्रत्यभिजानासि किम् ? इति काकुः // 7 // (यहांसे लेकर 22 श्लोकतक ( 2074-95 ) नल रहोवृत्त कहते हैं- ) सकपट सोयी रोमाञ्चित हो कमलनाभिवाली हो गयी, यह स्मरण करती हो ? / [ यहां नीविमोचनार्थ 1. 'मूलोक्तपाठे न यदि' इति यच्छब्दयोगेऽभिज्ञावचने प्राप्तस्य लुटो निषेधा. भिप्रायेण 'तदानन्द-' इति पाठः सभ्यः इति 'प्रकाश'कार आह / मूलपाठेऽपि यदेति पदच्छेदेन यच्छब्दयोगेऽपि व्याजशयनेन लक्षणेन पद्मनाभीभवनस्य लक्षण तया लक्ष्यलक्षणसम्बन्धे 'विभाषा साकाङ्के' इति परवाल्लुटो विधानादोषाभाव इति 'सुखावबोधाकार'स्याभिप्रायः इति शि० द० शर्माणः /
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________________ विंशः सर्गः। 1339 व्याजसुप्त दमयन्तीकी नाभिपर नलको हाथ रखनेपर रोमाञ्चित होनेसे रोमाञ्चको कण्टक तथा नलके हाथको कमलतुल्य होनेसे दमयन्तीकी नाभिको पद्मनामि होना कहा गया है। अथवा-रोमाञ्चको कण्टक तथा नाभिको विकसित कमल मानकर दमयन्तीकी नाभिको पद्मनाभि कहा गया है / अथवा-नाभिपर करकमल रखनेसे तुम पद्मनामि ( कमलयुक्त नाभिवाली अर्थात् विष्णु ) हुई थी ( क्योंकि विष्णुके ही नामिमें कमल रहता है ) ऐसा अर्थ करना चाहिये / वास्तविक शयन में नाभिपर हाथ रखनेसे रोमाञ्च नहीं होनेके कारण यहां दमयन्तीको सकपट सोना कहा गया है ] // 74 / / जानासि होभयव्यग्रा यन्नवे मन्मथोत्सवे / सामिभुक्तैव मुक्ताऽसि मृद्वि ! खेदभयान्मया ? // 75 // जानासीति / मृति ! हे कोमलागि ! अत एव अतिपीडाऽसहत्वात् खेदभयमिति भावः। नवे नूतने, मन्मथोत्सवे स्मशेल्लासे, प्रथमरतक्रीडायामित्यर्थः / हीअयाभ्यां लज्जाऽऽतङ्काभ्याम्, व्यग्रा विभ्रान्तचित्ता, स्वमिति शेषः, खेदः सुरतश्र. मजनितक्लेशः, तद्भयात् तच्छकाता, मया खामिभुक्तैव, अद्धमात्रकृतसुरतेवेत्यर्थः / 'सामि स्वर्द्ध जुगुप्सिते' इत्यमरः / मुक्ताऽसि परित्यक्ता भवलि, तदन्यथा वैरस्यात् इति भावः / तदुक्तं रतिरहस्ये-'सहसा वाऽप्युपक्रान्ता कन्या खेदमविन्दत / भयाच्चित्तसमुद्वेगं सङ्गद्वेषञ्च गच्छति // सा प्रीतियोगमप्राप्य बलोद्वेगेन दूषिता / पुरुषद्वेषिणी वा स्यात् सुप्रीता वा ततोऽन्यथा // ' इति / तत् जानासि ? स्मरसि किम् ? इत्यर्थः // 75 // हे कोमलशरीरवाली ( अत एव पीडा सहने में असमर्थ दमयन्ति )! नये कामोत्सव ( सुरतक्रीडा) में लज्जा तथा भयसे व्याकुल तुमको मैंने आधा ही सम्भोग करके छोड़ दिया, यह तुम स्मरण करती हो ? / / 75 // स्मर जित्वाऽऽजिमेतस्त्वां करे मत्पदधाविनि | अङ्गुलीयुगयोगेन यदाश्लिक्षं घने जने / / 76 / / स्मरेति / हे प्रिये ! आणि युद्धम् , जित्वा विजित्य, त्वां भवतीम् , त्वत्समीप. मित्यर्थः / एतः समागतः, अहमिति शेषः / करे पाणी, तदेति शेषः / मत्पदधाविनि मम चरणप्रक्षालनार्थं प्रवर्त्तमाने सति, सम चरणं स्पृष्टवति सतीत्यर्थः / घने बहुले, जने मद्दर्शनार्थ समागते लोके, बहुजनमध्ये इत्यर्थः / अङ्गुलियुगयोगेन मम पादाङ्ग. लीद्वयस्य, योगेन तव कराङ्गुलीद्वयस्य निबिडयोजनया, मम पादाङ्गुलीद्वयेन तव कराङ्गले प्रगाढनिपोडनेनेत्यर्थः / यत् आश्लिक्षम् आश्लिष्टवान् अस्मि / "श्लिष आलिङ्गने' इति लुङि उत्तमैकवचने च्ले क्सः, 'विभाषा साकाङ्के' इति वैकल्पिक स्वात् लुडभावः / तत् स्मर चिन्यय // 76 // युद्धको जीतकर तुम्हारे पास आये हुए मैंने मेरे चरणके पास दौड़ते (शीघ्र आते ) 84 नै० उ०
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________________ 1340 नैषधमहाकाव्यम् / रहनेपर अर्थात् मेरे चरणोंको धोने या नमस्कार करनेके लिए मेरे चरणों की ओर शीघ्रतासे तुम्हारे हाथ बढ़ानेपर ( दर्शनार्थ आये हुए ) बहुत लोगों के उपस्थित रहनेगर (साक्षात् आलिङ्गन करना अनु वत जानकर मैंने अपने चरणको ) दो अङ्गुलियोंसे जो आलिङ्गन किया ( तुम्हारे हाथको इतावा ) उसे तुम स्मरण करो // 76 // वेत्थ मानेऽपि मत्त्याग-दूना स्वं माञ्च दन्मिथः / मदृष्टयाऽऽलिख्य पश्यन्ती व्यवधा रेखयाऽन्तरा ? // 77 / / वेत्थेति / हे प्रिये ! माने प्रायकोवेऽपि, मत्यागना मदिरहतप्ता, स्वमिति शेषः / मिथः रहसि / 'मिथोऽन्योन्यं रहस्यपि' इत्यमरः / स्वद आत्मानम् , माँ नलञ्च, आलिख्य चिने लिखित्वा, पश्यन्ती अवलोकयन्ती, तदालेख्यमिति शेषः / मदृष्टा मया त्वथा आलेख्याङ्कितेन मया नलेन वीक्षिता सती, अन्तरा लिखितयोरावयोमध्ये, रेखया तुलिकया नूतनरेखाङ्कनेन, मदर्शनप्रतिरोधार्थमिति भावः ! यद् व्यवधाः सवधानं कृतवती अलि, व्यवधान विधाय सत्रापि कोपः प्रकटितः इति भावः / व्यवपूर्वाधातेर्लुङ् सिपि 'गातिस्था-' इत्यादिना सिचो लुक। तत् वेत्थ ! स्मरसि किन्न ? इति काकुः // 77 // मान (प्रणयकलह ) में भी मेरे त्यागसे खिन्न तुम जब अपनेको तथा मुझको चित्रित. कर देखती थी, तब मैंने तुम्हें देख लिया उस समय तुमने उस चित्रके बीचमें एक रेखा अङ्कितकर व्यवधान कर दिया, यह तुम जानती ( स्मरण करती ) हो ? / [ जब तुम्हारे मानके कारण तुम्हें मैंने छोड़ दिया तब मेरे वियोगको सहने में असमर्थ होकर तुमने अपना तथा मेरा संश्लिष्ट चित्र बनाकर उसे देखती रही थी, उसी समय जब मैंने तुम्हें देख लिया तब तुमने झट उस चित्रित अपने दोनों के बीच में एक रेखा बनाकर दोनोंको व्यवहित कर दिया अर्थात रेखा द्वारा यह अभिव्यक्त किया कि चित्रमें भी मैं तुमसे पृथक हो हूं, अत एव मेरा प्रणयमान ज्योंका त्यों बना हुआ है ] // 77 / / प्रस्मृतं तत् त्वया तावद् यन्मोहनविमोहितः / अतृप्तोऽधरपानेषु रसनामपि तव ? || 78 // प्रस्मृतमिति। हे लिये ! मोहने सुरते, विमोहिता विमुग्धचित्तः, अहमिति शेषः। तव ते सम्बन्धसामान्य पछी, 'पूरण-' इत्यादिना षष्ठीसमासांनषेधख्यापनात् षष्ठीति केभिन , अधरपानेषु अधरास्वादनेषु, चुम्बनेषु कृतेष्वपि इत्यर्थः / अतृप्तः तावन्नात्रेण अपूर्णाकाः सन् , यत रसनां जिह्वा , अपिबम् आस्वादितवाना. सद ! तत् , लावद साकल्लेन, त्वया अवया, प्रस्थान ? चिन्तितं किम् ? इति काकुः / / 78 // सुरतमोहित ( अथवा-काममोहित, अत एव ) तुम्हारे अधरपानसे अतुप्त मैंने जो १.'-पानानाम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1341 तुम्हारी जीमका पान किया, उस सम्पूर्ण वृत्तान्तको तुमने स्मरण किया क्या ? [रतिकाल में जिह्वा-पान करनेका भी कामशास्त्रमें विधान है ] // 78 // त्वत्कुचाईनखाङ्कस्य मुद्रामालिङ्गनोत्थिताम् / स्मरेः स्वहृदि यत् स्मेरः सखीं शिल्पं तवाब्रुवम् ? / / 76 / / स्वदिति / हे प्रिये.! स्वस्य आत्मनः, मम नलस्य इत्यर्थः। हृदि वक्षसि, आलिङ्गनेन आश्लेषेण, उस्थिताम् उत्पन्नाम् , सक्रान्ताम् इत्यर्थः / स्वस्कुचयोः तव स्तनयोः, आर्द्रनखाङ्कस्य सद्यःकृतनखरक्षतस्य, मस्कत कस्येति भावः / मुद्रां रक्तवर्णचिह्नम् , स्मेरः सस्मितः सन् , सखीं तव वयस्यां प्रति, तव ते, शिल्पं कारुकार्यम्, शिल्पनिर्माणनैपुण्यमित्यर्थः। यत् अब्रुवम् अकथयम्, तत् स्मरेः ? चिन्तये // 79 // मैंने अपने हृदय (छाती ) में ( मेरे ) आलिङ्गनसे उत्पन्न तुम्हारे स्तनोंके (मत्कृत) सरस नखक्षतके चिह्नको हंसता हुआ सखियोंसे तुम्हारा शिल्प बतलाया, इसे तुम स्मरण करो / [ मैंने तुम्हारे स्तनोंमें नखक्षत किया था, उसके सूखनेके पहले ही मैंने तुम्हारा आलिङ्गन किया तो आर्द्र होनेसे उस नखक्षतका चिह्न मेरे वक्षःस्थलमें प्रतिबिम्बित हो गया और हँसते हुए मैंने सखियोंसे कहा कि मेरे वक्षस्थलमें यह नखक्षत तुम्हारी सखीने किया है / अथवा-"प्रतिबिम्बित हो गया तो उसे देखकर स्मित करती हुई सखियोंसे मैंने कहा कि। इसे तुम स्मरण करो और मुझे वास्तविक नल जानो ] // 79 // त्वयाऽन्याः क्रीडयन्मध्ये-मधुगोष्ठि रुषेक्षितः / वेत्सि तासां पुरो मुद्धा त्वत्पादे यत् किलास्खलम् ? // 8 // स्वयेति / हे प्रिये ! मधुगोष्ट्या मद्यपानसभायाःमध्ये मध्ये मधुगोष्ठि पानगोष्ठिः मध्ये इत्यर्थः / 'पारे मध्ये षष्ठ्या वा' इस्यव्ययीभावः, 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' इति हस्वत्वम् / अन्याः अपराः खियः, क्रीडयन् नर्मव्यवहारेण विनोदयन् , अहमिति शेषः / त्वया भवत्या, रुषा रोषेण, ईक्षितः दृष्टः सन् , तासां स्त्रीणाम् , पुरः अग्रे एव, मूद्धर्ना शिरसा, त्वत्पादे तव चरणे, यत किल अस्खलम् अपतं खलु, मद्यमत्तत्वात् स्खलनच्छलेन तव प्रसादनाय इति भावः। तत् वेरिस ? स्मरसि किम् ? इति काकुः // 8 // ( अनेक स्त्रियों के साथ सम्मिलित होकर ) मद्यपान-सभाके बीचमें दूसरी स्त्रियों ( तुम्हारी सपत्नियों ) को क्रीडा कराता हुआ ( तथा उसी समयमें) तुमसे क्रोधपूर्वक देखा गया मैं उनके सामने तुम्हारे चरणों में जो स्खलित हो गया, इसे तुम जानती ( स्मरण करती) हो ? [ बहुत स्त्रियों के साथमें जिसमें तुम भी थी-मद्यपान करके दूसरी स्त्रियोंको क्रीडा कराते हुए मुझे तुमने क्रोधसे देखा तो उन स्त्रियों के सामने ही मैंने तुम्हारे चरणपर 1. 'स्मेरसखीम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1342 नैषधमहाकाव्यम् / इस प्रकार मस्तक रखकर तुम्हें प्रसन्न किया कि मानों मैं मद्यके नशेसे स्खलित होकर तुम्हारे पैर पर गिर पड़ा हूँ। यहां पर नलने स्खलित होना इसलिए कहा कि-यदि मैं ऐसा नहीं करता तो वे मुझपर रुष्ट हो जाती, और तुम्हारे चरणोंपर गिरकर क्षमायाचना नहीं करता तो तुम्हीं मुझपर रुष्ट हो जाती, अत एव चातुर्यपूर्वक मैंने अपना काम साध लिया, यह तुम स्मरण करती हो क्या ? ] // 80 // वेत्थ मय्यागते प्रोष्य यत्त्वां पश्यति हार्दिनि | अचुम्बीरालिमालिङ्ग-थ तस्यां केलिमुदा किल ? // 1 // वेत्थेति / हे प्रिये ! हृदयस्य कर्म हाई प्रेम / 'प्रेमा ना प्रियता हार्दम्' इत्यमरः / हार्दिनि प्रियपात्रे, हार्दिनि / इति दमयन्त्याः सम्बोधनं वा हार्दिनि ! हे अनुरा. गिणि! प्रोष्य प्रवासं गत्वा, आगते प्रत्यावृत्ते, मयि नले, स्वां भवतीम् , पश्यति वीक्षमाणे सति, आलिं सखीम् आलिङ्गय आश्लिष्य, केलिमुदा क्रीडाहर्षेण, तस्यां सख्याम , सख्याः गण्डदेशे इति यावत् , यत् किल इति अलीके, सख्यालिङ्गनचुम्ब. नव्याजेनेत्यर्थः / अचुम्बीः चुम्बितवती, मामेव त्वमिति शेषः। सख्यालिङ्गनचुम्ब. नव्याजेन मां प्रति स्वप्रेमभरं यत् सूचितवती असि, तत् वेत्थ ? स्मरसि ? // 81 // प्रवासकर प्रियपात्र ( अथवा-हे प्रियपात्रभूते दमयन्ति ! प्रवासकर ) मेरे आनेपर और तुम्हें देखते रहनेपर तुमने सखीका आलिङ्गनकर क्रीडाके इषके छलसे जो उसके कपोलका चुम्बन किया ( वास्तविकमें तो उसका आलिङ्गनकर चुम्बनके छलसे तुमने बहुत दिनपर लौटे हुए मेरा आलिङ्गन कर चुम्बन किया, किन्तु वहां उपस्थित सखियोंको यह दिखलाया कि क्रीडावशमें सखीका ही आलिङ्गनकर चुम्बन कर रही हूं ), इसे तुम जानती ( स्मरण करती ) हो ? // 81 // जागर्ति तत्र संस्कारः स्वमुखाद्भवदानने। निक्षिप्यायाचिषं यत्त्वां न्यायात्ताम्बूलफालिकाः ? // 82 // जागर्तीति / हे प्रिये ! स्वमुखात् निजाननात् , भवदानने तव वदने, ताम्बूल. फालिकाः नागवल्लीदलवल्लिकाः, वीटिकाखण्डानीत्यर्थः। चूर्णपूगफलादिसंयुक्तस्य मचर्वितस्य पर्णस्य खण्डानीति यावत् / निक्षिप्य न्यस्य, त्वां भवतीम् / 'ताः' इति पाठे-ताः ताम्बूलफालिकाः, न्यायात् निक्षिप्तद्रव्यप्रत्यर्पणधर्मात् , निक्षिप्तं द्रव्यं निक्षेपकस्यैव प्रत्यर्पयितव्यमिति नीत्यनुसारादित्यर्थः / यत् अयाचिष प्रार्थितवाना. सम्, अहमिति शेषः / तत्र याचने, संस्कारः नियतभावनाजनितस्मृतिविशेष इत्यर्थः / जागर्ति? उत्पद्यते ? स्मरसि किम् ? इत्यर्थः, इति काकुः // 82 // ( मैंने ) अपने मुखसे तुम्हारे मुखमें आधा चबाये हुए पानके बीड़ेको डाल ( दे ) कर ('जिसकी जो वस्तु ली जाती है, उसकी उस वस्तुको वापस करना उचित है' इस ) न्यायसे जो याचना की (तुमसे वह चर्वित पानका बीड़ा लौटानेको कहा ), उस विषयमें
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________________ विंशः सर्गः। 1343 तुम्हारा संस्कार जागरूक है क्या ? अर्थात् उस वृत्तान्तको तुम स्मरण करती हो क्या ? // चित्ते तदस्ति कञ्चित्ते नख मंयि यत् क्रुधा / __ प्राग्भावाधिगमागःस्थे त्वया शम्बाकृतं क्षतम् / / 83 // चित्ते इति / हे प्रिये ! मयि नले, प्राग्भावेन प्राक् पूर्वमेव, त्वत्त इति शेषः / भावस्य रेतःपतनकालिकहर्षस्य, अधिगमः लाभ एव, आगः अपराधः तस्मिन् तिष्ठतीति आगःस्थः तादृशे, तादृशापराधेन अपराधिनि सति, तव सुखावाप्तिप्रतिबन्धकत्वादिति भावः / त्वया भवत्या, कंधा क्रोधेन, यत् नखजं नखरेण कृतम् , क्षतं व्रणम् , शम्बाकृतं द्विगुणाकृतम् , आनुलोम्यप्रातिलोम्याभ्यां द्विवारकृष्टं क्षेत्रं शम्बाकृतमुच्यते / 'द्विगुणाकृते तु सर्व द्विपूर्व शम्बाकृतमपीह' इत्यमरः। 'कृतो द्वितीयतृतीयशम्बबीजात् कृषौ' इति डा.प्रत्ययः / तत् शम्बाकरणम् , ते तव चित्ते मनसि, अस्ति विद्यते कच्चित् ? स्मरसि किम् ? // 83 // मेरे पहले मावाधिगमरूप अपराधस्थ होनेपर ( रतिकालमें मेरा तुमसे पहले ही वीर्यस्खलन होनेके कारण पूर्णतः तुम्हारी सम्भोगेच्छा पूरी नहीं होनेसे अपराध करनेपर ) तुमने क्रोधसे जो पूर्वकृत नखजन्य क्षतको दुबारा कर ( के बढ़ा) दिया, वह तुम्हारे चित्तमें है क्या ? अर्थात् उसे तुम स्मरण करती हो क्या ? // 83 // स्वदिग्विनिमयेनैव निशि पार्श्वविवर्तिनोः। स्वप्नेष्वप्यस्तवैमुख्ये सख्ये सौख्यं स्मरावयोः / / 84 // स्वेति / हे प्रिये ! निशि रात्रौ, स्वदिशोः निजनिजशयनस्थानयोः, विनिमयेनैव परिवर्तनेनैव, मम शयनस्थाने तवागमनेन तव शयनस्थाने मम गमनेन चेत्यर्थः / स्वस्थान परिवर्तनं विना सम्मुखीनयोः शयने पार्श्वपरिवर्त्तने वैमुख्यप्रसङ्गादिति भावः / पार्श्वयोः वामदक्षिणकुक्ष्योः विवर्त्तते शय्यालग्नपार्श्वपरिवर्तनेन शयाते यौ तादृशयोः पार्श्वपरिवर्तनकारिणोः, आवयोः तव मम च, स्वप्नेषु स्वापकालेषु अपि, अस्तम् उक्तरीत्या निरस्तम् , वैमुख्यं परामुख्यं यत्र तादृशे, सख्ये मेलने, सौख्यं सुखम् , स्मर चिन्तय // 84 // (भ्रमवश ) अपनी-अपनी दिशाका परिवर्तन होनेसे ही रात्रिमें करवट बदलते हुए हम दोनोंके सोनेमें भी विमुखताहीन मेलन होनेपर (परस्पर हम दोनों के सम्मुख ही रहनेपर ) या होनेवाले सुख ( परस्परावलोकनजन्य हर्ष ) को स्मरण करो // 84 // क्षणं प्राप्य सदस्येव नृणां विमनितेक्षणाम् / दर्शिताधरमहंशा स्मर यन्मामतर्जयः // 85 // क्षणमिति / हे प्रिये ! सदसि एव सभायामेव सखीभिरनुष्ठितनृत्यगीतादिसभा. 1. 'यस्क्रुधा सतम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1344 नैषधमहाकाव्यम् / यामेवेत्यर्थः / नृणां सखीजनानाम विमनितानि नृत्यगीतादिषु व्यासक्तचित्ततया दष्टध्यान्तरदर्शने विमुखीभूतानि इत्यर्थः / विमनांसि कृतानि इति विमनसशब्दात् 'तत्करोति-'इति ण्यन्तादिष्टवद्भावे टिलोपः, कर्मणि क्तः। ईक्षणानि लोचनानि यस्मिन् तादृशम् , अन्यत्रासक्तजनदृष्टिप्रसरमित्यर्थः / क्षणम् अवसरम् , प्राप्य लब्ध्वा, अन्यथा सखीनां तत्र दृष्टिपातसम्भवात् , दर्शितः दृष्टिविषयोकारितः, अधरे निजनिम्नौष्ठे, महंशो मत्कृतदशनक्षतं यया सा तादृशी सती, यत् माम् अतर्जयः अङ्गुलीनतनेन भर्सितवती, त्वमिति शेषः / तत् स्मर चिन्तय // 85 // ___ सभा ( सब सखियोंकी उपस्थिति ) में ही (सखी ) लोगोंके (नृत्यादि उत्सव आदि देखने में ) अन्यासक्त नेत्रके होनेपर ( इस समय मेरे व्यापारको कार्यान्तरासक्त दृष्टिवाली ये सखियां नहीं देखती हैं ऐसी भावना होनेसे ) अवसर पाकर अपने अधरमें किये गये मेरे दन्तक्षतको दिखानेवाली तुमने जो मुझे ( अङ्गुलिसे ) तर्जित किया, उसका ध्यान ( स्मरण ) करो। 85 // तथावलोक्य लीलाब्जनालभ्रमणविभ्रमात् / करौ योजयताऽध्येहि यन्मयाऽसि प्रसादिता / / 86 / / तथेति / हे प्रिये ! मया नलेन, तथा पूर्वोक्तरूपं त्वत्कृततर्जनम् , अवलोक्य दृष्ट्वा, लीलाब्जस्य क्रीडापद्मस्य, यत् नालं दण्डम् , तस्य भ्रमणं घूर्णनमेव, विभ्रमः विलासः तस्मात् , तद्वयाजादित्यर्थः / करौ पाणौ, योजयता मेलयता, अञ्जलिं बध्नता सता इत्यर्थः / यत् प्रसादिता प्रसन्नीकृता, असि भवसि, तत् अध्येहि स्मर।। ___ और उस प्रकार ( 20185 ) देख कर, लीला-कमलके नाल ( डण्ठल ) को घुमाने के विलास ( छल ) से हाथों को जोड़ते हुए मैंने जो तुम्हें प्रसन्न किया, उसे तुम स्मरण करो // ताम्बूलदानं संन्यस्तकरजं करपङ्कजे / न मम स्मरसि ? प्रायस्तव नैव स्मरामि तत् ? / / 87 / / ताम्बूलेति / हे प्रिये ! तव करपङ्कजे त्वत्पाणिपझे, प्रायः बाहुल्येन, संन्यस्तक. रजं विरचितनखाङ्कम् , नखद्वययोगेन कृतमृद्वाघातमित्यर्थः / मम नलस्य, मत्कर्स का मित्यर्थः / ताम्बूलदानं वीटिकार्पणम् , न स्मरलि ? न मनसि करोषि ? तव तेऽपि च, तत् तादृशं करजक्षतपूर्वकं ताम्बूलदानम् , नैव स्मरामि ? न ध्यायामि ? अपि तु स्मराम्येव, उभयत्र काकुः ; उभयमुभावपि स्मराव एवेत्यर्थः // 87 // ___ जब मैं पानका बीड़ा देता था, तब प्रायः तुम्हारे कर-कमलमें हलका नखक्षत कर देता था, उसे तुम नहीं स्मरण करती ? और मैं भी तुम्हारे उसे (पानका बीड़ा देते समय मेरे हाथमें किये गये मृदु नखक्षतको ) नहीं स्मरण करता हूँ ? अर्थात् जिस प्रकार मुझे उसका स्मरण है, उसी प्रकार तुम्हे भी उसका अवश्य स्मरण होना चाहिये / / 87 //
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________________ विशः सगः। 1345 तदध्येहि मृषोद्यं मां हित्वा यच्च गता सखीः। तत्रापि मे गतस्याग्रे लीलयैवाच्छिनस्तृणम् // 8 // तदिति / हे प्रिये ! मृषोद्यं मिथ्याभाषिणम् , किमपि तव अप्रियकार्य कृत्वा नाहमेतत् कृतवानिति कथयन्तमित्यर्थः / मां नलम्, हित्वा विहाय, सखीः वयस्याः, सखीसमीपमित्यर्थः / गता प्रयाता, त्वमिति शेषः / तत्रापि सखीसमीपेऽपि गतस्य उपस्थितस्य, मे मम, अग्रे सम्मुखे, लीलया विनोदेन एव, यत् तृणं शुष्कयवसम् , अच्छिनः खण्डितवती। बाला हि अन्योऽन्यविच्छेदसूचकं तृणच्छेदनं कुर्वन्ति, तृणद्वयं यथा विच्छिन्नं जातं तथा आवामपि चिरं विच्छिन्नौ इति ज्ञापनार्थमिति भावः / तत् तादृशं चेष्टितम् , अध्येहि स्मर / अधिपूर्वस्य इकि स्मरणे इति धातोरदादित्वाल्लोटि ह्यादेशः॥ 88 // (किसी तुम्हारे अप्रिय कार्यको करके 'मैंने यह कार्य नहीं किया ऐसा कहनेसे ) असत्यमाषी मुझको छोड़कर ( क्रोधसे ) सखियों के पास गयी हुई तुमने वहां भी पहुंचे हुए मेरे सामने अर्थात् मुझे दिखाकर लोलासे ही तृणको जो तोड़ दिया उसे तुम स्मरण करो। [सखीसमूहने तो यह दमयन्ती क्रीडावश ही इस तृणको तोड़ती है, किसी अन्य विशेष अभिप्रायसे नहीं' ऐसा समझा, किन्तु तुमने 'इस तृणके समान हमारा तुम्हारा सम्बन्ध. विच्छेद हो गया' इस आशयसे उस तृणको तोड़ा। परस्परमें विरोध हो जाने पर बालक भी 'आजसे हमारा तम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा' इस प्रकार कहते हुए तृणको तोड़ते हैं, अत एव नववयस्का दमयन्तीका भी वैसा करना उचित ही था / / 88 // स्मरसि प्रेयसि ! प्रायस्तद् द्वितीयरतासहा / शुचिरात्रीत्युपालब्धा त्वं मया पिकनादिनी ? || 86 // स्मरसीति / प्रेयसि ! प्रियतमे ! द्वितीयस्थ वारद्वयकृतस्य, रतस्थ सुरतस्य, असहा दुर्बलत्वात अक्षमा, अन्यत्र-अल्पपरिमिततया .एववारसम्भोगेनैव अवसि. तत्वात अपर्याप्ता, पिकवत् कोकिलवत् मधुरम् , नदति भाषते इति पिकनादिनी, अन्यत्र-पिकनादः कोकिलध्वनिः अस्ति अस्यामिति पिकनादिनी, त्वं भवती, प्रायः बाहुल्येन, मया नलेन, शुचिरात्री ग्रीष्मरात्री, ग्रीष्मकालिकरात्रिस्वरूपा इत्यर्थः / 'कृदिकारादचिनः' इति ङीष् / इति एवम् उक्त्वा, यत् उपालब्धा तिर. स्कृता, तत्कल्पाऽसि इत्याक्षिप्ता इत्यर्थः। असीति शेषः / तत् स्मरसि ? अध्येषि किम् ? // 89 // 'हे प्रियतमे ! ( अल्पवयस्का होनेसे ) द्वितीय बार किये गये सुरतको नहीं सहनेवाली तुमको मैंने कोकिल जिसमें बोलती है ऐसी (पक्षा०-पिकके समान मधुरभाषिणी) ग्रीष्मकी रात्रि कहकर उपालम्म दिया था, यह तुम स्मरण करती हो ? [ ग्रीष्मकालकी रात्रिमें भी वसन्तकालके आसन्नकालमें ही समाप्त होनेसे कोकिलका बोलनेका वर्णन करना
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________________ 1346 नैषधमहाकाव्यम् / असङ्गत नहीं है / अथवा-ग्रीष्मकाल में कोकिलका बोलना सर्वथा असङ्गत माननेपर 'अपिका नादिनी' अर्थात् पिकभिन्न सारिका आदि पक्षी जित रात्रि में बोलती है ऐसा तथा ( पक्षा०पिकभिन्न सारिकादिके समान बोलनेवाली ) ऐसा अर्थ करना चाहिये / अथवा-ग्रीष्मके बाद वर्षा ऋतुके आसन्न होनेसे 'मयापिकनादिनी' 'मया + अपि + कालादिनी' ऐसा ५द. त्रयच्छेद करके 'कनादिनी' शब्दका 'जलाका नाद ( ध्वनि ) है जिसमें ऐसी, पार के समान ध्वनि करने ( बोलने ) वाली अर्थकर क्रमशः ग्रीष्मरात्रि तथा दमयन्तीका विशेषण मानना चाहिये / प्रकृतमें नलका 'जिस प्रकार [पिकनादिनी, या-अपनादिनी या-कला. दिनी) ग्रीष्म ऋतुकी रात्रि छोटी होने से एक दार रति करने से ही समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार पिकनादिनी ( या-अपिकनादिनी, या-कनादिनी) तुन भी अल्पवयस्का होनेले एक बार ही रति करनेसे थक जाती हो' ऐसा दमयन्तीको उपालम्भ होना समझना चाहिये ] // 89 // भुञ्जानस्य नवं निम्बं परिवेविषती मधौ / सपत्नीष्वपि मे रागं सम्भाव्य स्वरुषः स्मरेः ? || 801 भुनानस्येति / हे प्रिये ! परिवेविपती परिवेषणं कुर्वती, परिपूर्वात् विषधातोः जुहोत्यादिगणीयात् शतरि रूपम् / त्वमिति शेषः / मधौ वसन्तकाले, नवं प्रत्यग्रम्, अभिनवोत्पन्नत्वात् कोमलमित्यर्थः / निम्बम् अरिष्टपत्रम्, व्यञ्जनीभूतमिति भावः। 'वसन्ते भ्रमणं पथ्यमथवा निम्बभोजनम्' इत्यादि स्मरणात् / भुञानस्य खादतः, मे मम, सपत्नीषु समानपतिकासु अपरासु राज्ञीषु अपि, यद्वा-भुञ्जानस्य अभ्यवहरतः, मे मधौ धौद्रे सत्यपि। 'मस्तु-मधु-सीधु-शीधु-सानु-कमण्डलूनि नपुंसके च' इति चकरात् पुंसि चेति पुंल्लिङ्गता / नवं निम्बं पिचुमर्दम्, 'पिचुमर्दश्च निम्ब' इत्यमरः। परिवेविषती ददती, स्वमिति शेषः / सपत्नीषु अपि मे रागम अनुरागम , सम्भाध्य कल्पयित्वा, कृता इति शेषः, 'वसन्ते भ्रमणं पथ्यमथवा निम्ब भोजनम् / अथवा युवती भार्या अथवा वह्निसेवनम् // इति शास्त्रात् मां बसन्ते निम्बभोजनं कृतवन्तं दृष्ट्वा अन्यास्वपि युवतीभार्यासु अहमुपगता इति सम्भाव्य, अधवा शर्करामोदका. दिकं स्वादु द्रव्यं विहाय नितरां तिक्ते यदा अस्य रुचिः, तदा सुरूपामपि मां विहाय अपकृष्टासु मम सपत्नीषु अस्यासक्तिः नासम्भाव्या, लोकानां विभिन्नरुचिमत्वादिति भावः / स्वस्थ आत्मनः, रुषः रोषान् , स्मरेः ? मनसि कुर्याः किम् ? // 90 // ___ वसन्त ऋतुमें नये नीम ( के व्यञ्जन बने हुए कोमल पत्तों ) को खाते हुए मेरे अनु. रागकी सम्भावना सपत्नी स्त्रियों में भी करके बार-बार नीमको ही परोसती हुई तुम अपने क्रोधका स्मरण नहीं करती हो ? ( अथवा-परोसती हुई तुम वसन्त ऋतुमें नये नीमको भोजन करते हुए मेरे अनुरागकी सम्भावना सपत्नियों में भी करके किये गये अपने क्रोधका स्मरण करती हो क्या ?) / [ दमयन्तीने वैसी सम्भावना इस कारण की कि
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________________ विंशः सर्गः। 1347 'यदि ये स्वादिष्ट उत्तमोत्तम भोजनको छोड़कर कटु नीम खा रहे हैं तो सम्भव है अतिशय सुन्दरी मुझको छोड़कर मेरी अपेक्षा कम सुन्दरी सपत्नियोंमें भी ये अनुराग करते हो / ' और ऐसी सम्भावना करके ही क्रोधवश उनके लिए भोजनमें नीम ही परोसती थी। किन्तु वसन्त ऋतुमें नीमके नये कोमल पत्तेको घृतमें तलकर खाना रोगविनाशक होने के कारण ही नल उसे खाते थे, अतः दमयन्तीका अनुमान असत्य एवं भ्रमपूर्ण था ] // 90 / / स्मर शार्करमास्वाद्य त्वया राद्धमिति स्तुवन् / स्वनिन्दारोषरक्तात्त यदभैषं तवाधरात् / / 61 // स्मरेति / हे प्रिये ! त्वया भवत्या, राद्धं पक्कम् , निष्पादितमित्यर्थः। शर्करायाः विकारं शार्करं शर्कराकृतं पानकादिकं शर्करामिश्रितं व्यञ्जनविशेषं वा, आस्वाद्य पीत्वा लीढ्वा वा, स्तुवन् एतत् सर्वस्मात् अधिकं स्वादु इति प्रशंसन् , अहमिति शेषः / स्वनिन्दारोषेणैव स्वस्य अधरस्येव, निन्दया गर्हणेन, अधरस्यापि सर्वान्त. भूतत्वात् शार्करस्य प्रशंसया अधरस्य निन्दासूचनेनेत्यर्थः / यो रोषः कोपः, अधर• स्येति भावः / तेनैव रक्तात अरुणात , अरुणीभूतादिवेत्यर्थः। तव अधरात निम्नौ. ष्ठात् , यत् अभैष भीतोऽभूवम् , अहम् इति शेषः / बिभीतेर्लुङ , मिपि सिचि वृद्धिः मादेशश्च / इति तु तच्च, स्मर चिन्तय // 91 // शकरके बनाये गये भोज्य पदार्थका आस्वादनकर ( यह तो सब मधुर रसवाले पदार्थोते अधिक मधुर है, इसे ) तुमने पकाया है क्या ? इस प्रकार प्रशंसा करता हुआ मैं ( ये सभी मधुर पदार्थोसे उत्तम इस शकरके बने पदार्थको ही बतला रहे हैं, अत एव सब मधुर पदार्थों के अन्तर्गत ही मेरे अधरको भी होनेसे मेरी ( अधरकी) भी ये निन्दा करते हैं, इस भावनाले ) अपनी निन्दाके कारण उत्पन्न क्रोधसे लाल हुए तुम्हारे अधरसे जो डर गया, उसे तम स्मरण करो। [ कोधसे दमयन्तीका अधर स्फुरित होना देख कर नलको भयात होना समझना चाहिये / क्रोधसे मुखादिका रत्त वर्ण होना सर्वानुभवसिद्ध है ] // 91 // मुखादारभ्य नाभ्यन्तं चुम्बं चुम्बं न तृप्तवान् / न प्रापं चुम्बितुं यत्ते धन्या तच्चुम्बतु स्मृतिः // 92 // मुखादिति / हे प्रिये ! मुखात् तव वदनात् , आरभ्य उपक्रम्य, नाभ्यन्तं नाभिः पर्यन्तं कुचादिकम् अङ्गम् , चुम्बं चुम्बं पुनः पुनः चुम्बित्वा चुम्बित्वा। आभीक्ष्ण्ये णमुल / न तृप्तवान् अपूर्णाकाक्षः सन्, ते तव, यत् रतिगृहरूपमङ्गमित्यर्थः / चुम्बितुं चुम्बनं कत्तम् , न प्रापं न अलभिषि, अहमिति शेषः। पाण्यादिना प्रतिबन्धात् लज्जातिशयात् गोपितत्वात् अपापिष्ठनिषेधादिति वा भावः। तत् रतिगृहरूपं तवाङ्गमित्यर्थः / धन्या मया अप्राप्तस्यापि लाभात् भाग्यवती, स्मृतिः तव स्मरणशक्तिः, चुम्बतु स्पृशतु, तव स्मृतिविषयीभवतु इत्यर्थः। अकृतचुम्बनं तदङ्गं 9. 'चुम्बमतृप्तवान्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1348 नैषधमहाकाव्यम् / स्मरेति भावः / सार्वभौमस्यापि मे यदङ्गचुम्बने योग्यताभावः, धन्या ते स्मृतिस्तदङ्गं विनैव किश्चिदपि प्रतिबन्धकं चुम्बितुं समर्था इति स्मृतेर्धन्यत्वं बोद्धव्यमित्याशयः // 92 // ___ मुखसे लेकर नाभितक (तुम्हारे अङ्गोंका बार-बार ) चुम्बनकर ( लज्जावश तुम्हारे हाथ या वस्त्रादिसे आच्छादित करनेसे या पुष्पके निषेधसे) जिस अङ्ग ( तुन्हारे मदन. मन्दिर ) को चुम्बन करने के लिए मैंने नहीं पाया, उसे तुम्हारी धन्य स्मृति चुम्बन करे अर्थात् तुम तात्कालिक उस अवस्थाका स्मरण करो। [ सार्वभौम होकर भी जिसे मैं नहीं पा सका, उसे तुम्हारी स्मृति प्राप्त कर रही है, अत एव वह स्मृति धन्य है ] // 92 / / कमपि स्मरकेलिं तं स्मर यत्र भवन्निति / मया विहितसम्बुद्धिीडिता स्मितवत्यसि / / 63 // कमिति / हे प्रिये ! कमपि अवाच्यम् , तम् अतिशयेनानन्दप्रदम् , स्मरकेलिं कामक्रीडाम् , विपरीतसुरतमिति भावः / स्मर स्मृतिविषयीभूतं कुरु, यत्र यस्मिन् स्मरकेली, यस्मिन् पुरुषायिते त्वयि इति वा, मया हे भवन् ! इति एवम् , विहिता पुरुषवत् आचरणात् पुंल्लिङ्गनिर्देशेन कृता, सम्बुद्धिः आमन्त्रणं यस्याः सा ताशी, त्वमिति शेषः। वीडिता लज्जिता। स्मितवती स्वनैपुण्यप्रदर्शनजनित. हर्षात् ईषत् हसितवती च, असि भवसि, पुरुषायितत्वात् ब्रीडा हर्षात् स्मितम् इति बोध्यम् // 13 // ___ तुम उस किसी ( अनिर्वचनीय ) कामक्रीडा अर्थात् विपरीत रतिका स्मरण करो, जिस ( कामक्रीडा-विपरीत रति ) में ( पुरुषायित होनेसे स्त्रीवाचक 'भवति' पदसे सन्दोधित न करके ) मेरे द्वारा ( पुरुषवाचक ) 'भवन्' इस पदसे सम्बोधित तुमने लज्जित होकर मुस्कुरा दिया / / 93 // नीलंदा-चिबुकं यत्र मदाक्तेन श्रमाम्बुना / स्मर हारमणौ दृष्टं स्वमास्यं तत्क्षणोचितम् / / 64 !! नीलदिति / हे प्रिये ! यत्र यस्मिन् विपरीतस्मरकेलौ, मदाक्तेन स्वकपोलाक्षित. पत्रभङ्गकस्तूरीचूर्णकलुषितेन / 'मदो रेतसि कस्तूर्याम्' इति विश्वः / श्रमाम्चना स्वेदोदकेन, आचिबुकम् अधरोष्ठाधःप्रदेशपर्यन्तम् / 'अधस्तात् चिबुकम्' इत्यमरः / नीलत नीलीभवत् , अत एव सातश्मश्रकवत् प्रतीयमानमिति भावः। नील वर्ण इति धातोर्लट शत्रादेशः / तत्क्षणोचितं तत्कालयोग्यम्, विपरीतकेली पुरुषवत तव उपरि अवस्थानेन कपोलनिगलन्मदाक्तधर्मोदकानां द्रवत्वेन निम्नगामित्वाच्च पुरुषः 1. 'नीलज्जातश्मश्रु' इति पाठान्तरं दुर्बोधम् / 2. 'नीलद्, आचारविबन्ताच्छता' इति 'प्रकाशः'।
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________________ विशः सर्गः। 1346 योग्यं श्मश्रुलमिवेति भावः / स्वं निजम् , आस्यं मुखम् , हारमणौ हारस्थितरत्नमध्ये, अधास्थितस्य ममेति भावः। दृष्टम् अवलोकितम् , स्मर चिन्तय // 94 // __जिस ( अनिर्वचनीय कामक्रीडा-विपरीत रति ) में कस्तूरीसे युक्त पसीनेसे ठुड्ढीतक नीला होते हुए ( अत एव दाढ़ीके केशयुक्त-सा प्रतीयमान ) उस समय ( अथवा-उत्सव अर्थात् विपरीत रति ) के योग्य (अधःस्थित मेरे ) हारके मणिमें ( प्रतिबिम्बित होनेसे ) स्वयं देखे गये अपने मुखका तुम स्मरण करो। [विपरीत रति करते समय जब तुम्हें पसीना आने लगा, तब तुम्हारे कपोलमें कस्तूरीरचित मकरिकादिचिह्नकी कस्तूरी पसीनेसे आर्द्र होकर ठुडढोतक फैल गयी, जो उपरिस्थ होनेसे पुरुषायित तुम्हारे लिये उचित था, क्योंकि पुरुषकी दाढ़ीमें कृष्णवर्ण बाल होता ही है; ऐसे अपने मुखको तुमने अधःस्थित मेरे हाररत्नमें देखा था, उसे स्मरण करो ] // 94 // ( स्मरं तन्नखमत्रोरौ कस्ते धा (दा) दिति तन्मृषा | हीदवतमलुम्पं यद् व्रतं रतपरोक्षणम् // 1 // ) स्मरेति / अहमत्रास्मिस्ते तवोरो को नखमधा (दा)द् दत्तवानिति मृषा असत्य. भाषी सन् हीरेव दैवतं यस्य तत् , अत एव रतस्य परोक्षणं परोक्षकरणं ब्रह्मचर्यरूपं सुरतप्रतिबन्धकं व्रतं नियमं यदलुम्पं निवर्तितवान् तत्स्मर / परपुरुषसम्बन्धशङ्कोत्पादनार्थ मृषाभाषणेन रसान्तरमुत्पाद्य लज्जाकृतं सुरतप्रतिबन्धकमनुद्योगं यन्निवर्तितवांस्तस्मर / व्रतं सदैवतं भवतीति हीदेवतमित्युक्तम् // 1 // ___ 'तुम्हारे इस ऊरुमें किसने नखक्षत किया ? इस प्रकार मिथ्या भाषण करता हुआ मैं लज्जा ही है देवता जिसका ऐसा, रतको परोक्ष करनेवाला अर्थात् ब्रह्मचर्यरूप व्रतको जो तोड़ा, उसे तुम स्मरण करो / [ परपुरुषकी शङ्का रतिकालमें ही तुम्हारे मनमें उत्पन्न करने के लिए मिथ्याभाषणसे जो रसान्तरको पैदाकर लज्जाकृत सुरतबाधक तुम्हारे ब्रह्मचर्यसुरत नहीं करने के व्रत (प्रबलेच्छा ) को नष्ट किया अर्थात् सुरतकार्यमें प्रवृत्त किया उसे स्मरण करो] // 1 // वनकेलौ स्मराश्वत्थदलं भूपतितं प्रति / देहि मह्यमुदस्येति मगिरा ब्रीडिताऽसि यत् / / 95 / / वनेति / किञ्च, हे चारुशीले ! वनकेलो प्रमदवन विहारकाले, भूपतितं वृक्षात् भूतले च्युतम् , अश्वत्थदलम् , अश्वस्थपत्रम् , प्रति उद्दिश्य, उदस्य उद्धृत्य, एतद. श्वस्थपत्रमिति शेषः / मह्यं नलाय, देहि अर्पय, इति उक्तरूपया, मदिरा ममोक्त्या, यत् वीडिता लजिता, असि भवसि, रहस्याङ्गस्य अश्वत्थपत्राकृतितुल्यतया तद्याचने रहस्याङ्गयाचनाभिप्रायज्ञानादिति भावः / तत् स्मर चिन्तय / अत्र सामुद्रिकाः 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश' व्याख्यया सहैवान मया निहितः /
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________________ 1350 नैषधमहाकाव्यम्। 'अश्वत्थदलसङ्काशं गुह्यं गूढमनिश्चितम् / यस्याः सा सुभगा कन्या पूर्वपुण्यैरवा. प्यते // इति // 95 // उद्यानमें विहारके समय भूमिपर गिरे हुए पीपल के पत्तेको लक्ष्यकर 'इसे उठाकर मुझे दो' ऐसे कहे गये मेरे वचनसे जो तुम लज्जित हुई, उसका स्मरण करो। [ पीपलके पत्तेके समान स्त्रीका मदनमन्दिर होनेके कारण नलके परिहासात्मक अभिप्रायको समझकर दमयन्तीका लज्जित होना उचित ही था 1 / / 95 / / इति तस्या रहस्यानि प्रिये शंसति साऽन्तरा | पाणिभ्यां पिदधे तस्याः श्रवसी होवशीकृता / / 66 // इतीति / प्रिये नले; तस्याः भैम्याः, रहस्यानि गुप्तचेष्टितानि, इति इत्थम् , शंसति कथयति सति, सा भैमी, ह्रीवशीकृता लज्जापरवशा सती, अन्तरा कथामध्ये, तस्याः कलायाः, श्रवसी कौं, पाणिभ्यां स्वकराभ्याम् , पिदधे छादयामास / इतोऽ. धिकं रहस्यं कथयिष्यति चेत् तदनया न श्रोतव्यमिति बुद्धयेति भावः // 96 // प्रिय ( नल ) के इस प्रकार ( 2074-95 ) उस ( दमयन्ती ) के रहस्यों ( एकान्तमें किये गये सुरतवृत्तों ) को कहते रहने पर उस ( दमयन्ती ) ने बीचमें (नलका कहना पूरा होने के पहले ) ही लज्जाके वशीभूत हो सखी 'कला' के दोनों कानोंको दोनों हाथोंसे बन्द कर दिया / [अब यह इनके कहे हुए अश्रवणीय अत्यन्त गुप्त रहस्योंको भी सुनेगी, इस आशयसे दमयन्तीने 'कला' के दोनों कानोंको अपने दोनों हाथोंसे बन्द कर दिया ] // कर्णी पीडयती सख्या वीक्ष्य नेत्रासितोत्पले / __ अप्यसादयतां भैमी-करकोकनदे नु तौ ? / / 67 // कर्णाविति / सख्याः कलायाः, नेत्रे लोचने एव, असितोत्पले नीलसरोजे, की कलाया एव श्रवणयुगलम् , पीडयती अभिभवती, आक्रम्य पीडनं कुर्वतीत्यर्थः / आकविश्रान्ते इति भावः। वीक्ष्य दृष्ट्वा, भैम्याः दमयन्त्याः, करावेव पाणियुगलमेव, कोकनदे रक्तोत्पले अपि / कत्तणी / अथ रक्तसरोरुहे रक्तोत्पलं कोकनदम्' इत्यमरः / तो कर्णी, असादयतां स्वयमपि समत्सरे एव अपीडयताम् , न किम् ? इत्युत्प्रेक्षा / / 97 // ___ सखी 'कला' के दोनों कानोंको ( उसीके ) दोनों नेत्ररूपी नीलकमल पीडित कर रहे हैं ( अत एव सजातीय नेत्ररूपी नीलकमलों के साथ स्पर्धा होनेसे या-उनकी सहायता करने के लिए ) दमयन्तीके दोनों हाथरूपी रक्तकमलोंने भी उन (कलाके दोनों कानों) को पीडित किया क्या ? [ कलाके नेत्ररूपी नीलकमलों द्वारा उसीके कानोंको पीडित करना कहनेसे 'कला' के नेत्रदय नीलकमलतुल्य एवं कानतक बड़े-बड़े हैं, यह सूचित होता है। सजातीय कलाके नेत्ररूपी नीलकमलों के साथ दमयन्तीके हस्तद्वयरूपी रक्तकमलोंकी स्पर्धा या उनकी सहायता करना उचित ही है ] // 97 //
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________________ विंशः सर्गः। 1351 तत्प्रविष्टं सखीकर्णी पत्युरालपितं ह्रिया / पिदधाविव वैदर्भी स्वरहस्याभिसन्धिना // 98 // कर्णपीडने उत्प्रेक्षान्तरमाह-तदिति / वैदर्भी भैमी, सखीकौँ कलायाः श्रवणयुगलम्, प्रविष्टं ढौकितम्, पत्युः नलस्य, तत् पूर्वोक्तम्, आलपितं निजरहस्यभाषि तम्, हिया लजया, स्वरहस्यस्य निजगुप्तव्यापारस्य, अभिसन्धिना निगृहनाभिप्रायेणेव, बहिर्निर्गमननिरोधाभिप्रायेणेवेत्यर्थः / पिदधौ आच्छादयामास, स्वरहस्यः गोपनाय इव कर्णपिधानमकरोदित्युत्प्रेक्षा / यथा कश्चित् निजगोपनीयं द्रव्यं लिप्या. दिकं वा पेटिकादौ संस्थाप्य तस्य बहिः प्रकाशनिरोधार्थं पिधानेन सुदृढं पिदधाति तद्वदिति भावः // 98 // "दमयन्तीने ( सखीके कानों में ) प्रविष्ट अर्थात् कलासे सुने गये पति (नल ) के उस कथन ( रहस्य वृत्तान्त ) को मानो अपने रहस्यके अभिप्रायसे ( यह अतिशय रहस्य फिर कानसे बाहर न निकले अर्थात् इसे कोई दूसरा भी सुनकर मालूम न करले, इस आशयसे ) सखी 'कला' के दोनों कानोंको बन्द कर लिया है। [ लोकमें भी किसी गोप्य वस्तुको किसी बर्तनमें रखकर 'दूसरा कोई इसे मालूम न कर सके' इस अभिप्रायसे उसके ऊपरी भाग ( मुख ) को जिस प्रकार बन्द कर दिया जाता है उसी प्रकार मानो दमयन्तीने भी कलाके कानरूपी बर्तन में प्रविष्ट नलका रहस्य वृत्तान्तरूप गुप्त पदार्थको छिपाने के अभिप्रायसे उसे बन्द कर दिया है ] // 98 // तमालोक्य प्रियाकेलिं नले सोल्लु'ण्ठहासिनि / आरात्तत्त्वमबुद्ध्वाऽपि सख्यः सिस्मियिरेऽपराः // 14 || तमिति / तं पूर्वोक्तम्, प्रियायाः भैम्याः, केलिं सखीकर्णपिधानरूपं विनोदम, आलोक्य वीक्ष्य, नले नैषधे, सोल्लुण्ठं सपरिहासम् , हसति हास्यं कुर्वतीति तादृशे सति, आरात् दूरात् , अपराः कलेतराः, सख्यः वयस्याः, तत्वं यथार्थव्यापारम् , अबुद्ध्वाऽपि अज्ञात्वाऽपि, सिस्मियिरे जहसुः। नलस्य हास्यमात्रदर्शनात ता अपि हसितवत्य इत्यर्थः / दृश्यते च लोके ईदृशव्यापारो नियतमेव // 99 // प्रिया ( दमयन्ती) की वह केलि ( 'कला' के कानोंको बन्द करना ) देखकर नलके परिहासपूर्वक ( या-उच्चस्वरसे ) हंसनेपर दूरसे अर्थात् दूर स्थित रहनेसे वास्तविकताको नहीं जानकर भी ( नलको हँसता हुआ देखकर ही ) दूसरी सखियोंने भी मुस्कुरा दिया। [ लोकमें भी किसी एकको हँसते देखकर दूसरे लोग हंसने के कारणको नहीं जानते हुए भी हंस देते हैं, अत एव दमयन्तीकी दूरस्थ अन्य सखियोंका वैसा करना उचित ही था ] / दम्पत्योरुपरि प्रोत्या ता धराप्सरसस्तयोः / ववृषुः स्मितपुष्पाणि सुरभीणि मुखानिलैः // 100 // 1. 'सोत्पास-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1352 नैषधमहाकाव्यम् / दम्पत्योरिति / ताः पूर्वोक्ताः, धराप्सरसः भूलोकसुराङ्गनासदृश्यः सख्या, दम्पत्योः जायापत्योः, तयोः दमयन्तीनलयोः, उपरि प्रीत्या हर्षेण, तयोर्व्यापारदर्श नजनितानन्देनेत्यर्थः / मुखानिलैः निःश्वासमारुतः, सुरभीणि सुगन्धीनि, स्मितानि एव ईषद्धसितान्येव, पुष्पाणि सितकुसमानि, कविभिर्हास्यस्य धवलतया कीर्तनादिति भावः। ववृषुः सिषिचुः। सख्यस्तौ सस्मितमवलोकयामासुरिति निष्कर्षः // 100 // पृथ्वीकी अप्सराएँ ( अप्सराओं के समान सुन्दरी ) वे सखियां उन दम्पति ( नल तथा दमयन्ती ) के ऊपर ( उनके व्यापार देखनेसे उत्पन्न ) हर्षले निःश्वाससे सुगन्धित स्मितरूप पुष्पोंको बरसाया। [जिस प्रकार देवाङ्गनाएँ किसी भाग्यवान् दम्पतिके ऊपर प्रसन्न होकर सुगन्धित पुष्पोंको बरसाती हैं, उसी प्रकार सखियोंने किया। सब सखियाँ नल तथा दमयन्तीको स्मित करती हुई देखने लगी ] / / 100 // तदास्यहसिताज्जातं स्मितमासामभासत | - आलोकादिव शीतांशोः कुमुदश्रेणिजम्भणम् / / 101 // ___ तदिति / तस्य नलस्य, आस्थे वदने, यत् हसितं हास्यं तस्मात् तद्धास्यदर्शनादित्यर्थः / जातम् उत्पन्नम् , आसां सखीनाम् , स्मितं मृदुहास्यम् शीतांशोः चन्द्रस्य, आलोकात् प्रकाशात् , जातमिति शेषः / कुमुदश्रेणीनां कैरवपतीनाम् , जन्मणं विकाश इव, अभासत अशोभत // 101 // उत ( नल) के मुखके हाससे उत्पन्न इन ( सखियों) का स्मित चन्द्रमाके देखनेसे कुमुद-समूहके विकासके समान शोभित हुआ। [ इससे सखियोंकी अपेक्षा नलका अधिक हंसना सूचित होता है ] // 101 // प्रत्यभिज्ञाय विज्ञाऽथ स्वरं हासविकस्वरम् / सख्यास्तासु स्वपक्षायाः कला जातबलाऽजनि // 102 / / प्रत्यभिज्ञायेति / अथ सखीनां हासानन्तरम् , विज्ञा अभिज्ञा, सुचतुरेत्यर्थः / कला कलाख्या सखी, तासु स्मितकारिणीषु सखीषु मध्ये,स्वपक्षायाः स्वसहायायाः, निजसुहृद्भतायाः इत्यर्थः / 'पक्षो मासा के पाणिग्रहे साध्यविरोधयोः। केशादेः परतो वृन्दे बले सखिसहाययोः // ' इति मेदिनी। सख्याः कस्याश्चित् वयस्यायाः सम्बन्धिनम् , हासेन हास्यशब्देन, विकस्वरं प्रकाशमानम् , स्वरं ध्वनिम् , प्रत्य भिज्ञाय ममैव प्रियसख्याः स्वरोऽयमिति निश्चित्य, जातबला प्राप्तसामा, दमय. न्तीकरनिरुद्धनिजकर्णमोचने इति भावः / अजनि जाता / जनेः कर्तरि लुत्त / 'दीपजन-' इत्यादिना चले चिणि तलुकि रूपम् // 102 // ___ इस ( सखियों के स्मित करने ) के बाद अतिशय चतुरा कला उन सखियोंमें अपने पक्षवाली सखीके हाससे स्फुट स्वरको पहचानकर ( अब यह मेरा पक्ष लेगी और मैं
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________________ विंशः सर्गः। 1353 दमयन्तीसे अपने बन्द हुए कानोंको छुड़ा सकूँगी इस अभिप्रायसे ) बलयुक्त हो गयी। [ लोकमें भी आपद्ग्रस्त कोई व्यक्ति अपने पक्षके व्यक्तिको देखकर आपत्तिसे छूट जानेकी आशासे सबल हो जाता है / दमयन्तीके कोमल हार्थोसे कलाके कान अच्छी तरह नहीं बन्द हुए थे, अतः उसने सखियोंमें-से स्फुट हंसनेवाली अपने पक्षकी सखीके हासको सुनकर उसे पहचान लिया, अथवा--दमयन्तीके हाथोंसे कानोंको बन्द होनेसे पहले ही सुनकर उसे पहचान लिया, ऐसा समझना चाहिये ] // 102 // साऽऽहूयोच्चरथोचे तामेहि स्वर्गेण वञ्चिते ! / पिब वाणीः सुधावेणीनूपचन्द्रस्य सुन्दरि ! // 103 / / सेति / अथ स्वरप्रत्यभिज्ञानानन्तरम् , सा कला, तां सखीम् , उच्चैः तारम् , आहूय कार्य, हे स्वर्गेण स्वर्गसुखेन, स्वर्गसुखजनकनलवाक्याश्रवणेनेत्यर्थः। वञ्चिते ! प्रतारिते! सुन्दरि ! हे सौन्दर्यशालिनि ! एहि आगच्छ, नृपचन्द्रस्य राजेन्दोः सम्बन्धिनीः, वाणीः वाक्यस्वरूपाः, सुधावेणीः अमृतरसप्रवाहान् , पिब स्वद, यथेच्छम् आकर्णय इति यावत् , इति ऊचे कथयामास, स्वर्गे चन्द्रात् निःस. तस्य अमृतस्य तुल्यं राजचन्द्रमुखात् उद्गतं वाक्यसुधाप्रवाहम् अनुभूय स्वर्गसुख. मनुभवेत्यर्थः // 103 // ___ इस ( स्वपक्षीया सखीको पहचानकर साहस आ जाने ) के बाद उस 'कला' ने उसे ( स्वपक्षीया सखीको ) ऊँचे स्वरसे बुलाकर कहा-(दूरस्थ होनेके कारण ) हे स्वर्गसे वञ्चित सुन्दरी ! आओ नृपचन्द्र (नल ) के अमृतप्रवाहरूपी वचनोंका पान करो अर्थात् इनके अमृततुल्य कर्णमधुर वचनोंको सुनो // 103 // साऽशृणोत्तस्य वाग्भागमनत्यासत्तिमत्यपि / कल्पग्रामाल्पनिर्घोषं बदरीव कृशोदरी / / 104 // सेति / कृशोदरी क्षीणमध्या, सा आहूता सखी, अनत्यासत्तिमती अपि ईषद्रस्था अपि, तस्य नलस्य, वाग्भागं ततः परं कथितं वाक्यांशम् , कल्पग्रामस्य वदरिसमीपवर्तिनः कल्पाख्यस्य ग्रामस्य, अल्पनिर्घोषं मन्दध्वनिम् , किञ्चिदूरत्वादनुचकलरवमित्यर्थः / बदरी इव बदरिकाश्रमस्थलोकसमूह इव, अणोत् आकर्णयत् / सन्निकृष्टेषु ग्रामेषु यथा परस्परमालापाः श्रयन्ते तद्वदोषीदित्यर्थः // 104 // ___इस ( कलाके पुकारने ) के बाद कुछ दूरपर स्थित भी कृशोदरी उस ( कलाकी सखी) ने उस ( नल ) के वाक्यांश ( अवशिष्ट वाक्य ) को उस प्रकार सुना, जिस प्रकार थोड़ी . दूरपर स्थित स्वल्पजनयुक्त बदरिकाश्रमके लोग 'कल्पग्राम' (या-कल्पनामक ग्राम) के जनरवको सुनते हैं। [ 'बदरिकाश्रमवासी लोग थोड़ी दूरपर स्थित 'कल्पग्राम' के मुनियोंकी कलकल ध्वनि सुनते हैं। ऐसी वहाँके तीर्थवासी लोगोंमें प्रसिद्धि है ] // 104 //
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________________ 1354 नैषधमहाकाव्यम् / अथ स्वपृष्ठनिष्ठायाः शृण्वत्या नैषधाभिधाः / नलमौलिमणौ तस्या भावमाकलयत् कला / / 105 // अथेति / अथ सख्याह्वानानन्तरम् , कला तन्नामसखी, स्वपृष्ठनिष्ठायाः निजप. श्चाद्भागस्थितायाः, कर्णपिधानार्थं कलाया एव पश्चाद्देशे अवस्थितायाः सत्याः इत्यर्थः / नैषधस्य नलस्य, अभिधीयन्ते इत्यभिधाः वचनानि / 'आतश्योपसर्गे' इति अप्रत्ययः / शृण्वत्याः आकर्णयन्त्याः, तस्याः, भैम्याः, भावं कोपादिचेष्टाम्, नलस्य नषधस्य, मौलिमणौ मुकुटस्थरत्ने, आकलयत् अपश्यत् / पुरोवर्तितया तत्र तस्याः प्रतिफलनादिति भावः // 105 // इस ( सखीको बुलाने, या-सखीद्वारा नलोक्त शेष वाक्यको सुनने ) के बाद 'कला'ने अपने पीछे स्थित हुई तथा नल के ( अवशिष्ट ) बातको सुनती हुई उस ( दमयन्ती ) की चेष्टा (नलोक्त अवशिष्ट बातको सुननेसे उत्पन्न हुए क्रोधादि भाव ) को ( अपने सामने बैठे हुए ) नलके मुकुटमें जड़े हुए रत्नोंमें ( प्रतिबिम्बित होनेसे ) देखा, (किन्तु नलोक्त अवशिष्ट वचनको अपना कान दमयन्तीके हाथोंसे बन्द रहने के कारण सुना नहीं)॥ 105 / / प्रतिबिम्बेक्षितैः सख्या मुखाकूतैः कृतानुमा / तद्ब्रीडाद्यनुकुर्वाणा शृण्वती चान्वमायि सा / / 106 / / प्रतीति / सा कला, प्रतिबिम्बे नलमौलिमणिगतसखीप्रतिच्छयायाम , ईक्षितैः दृष्टैः, सख्याः भैम्याः, मुखाकूतैः लज्जारोषादिव्यञ्जकवदनभङ्गिभिः लिङ्गः, कृतानुमा इदमिदमयं वक्तीति विहितानुमाना, दमयन्तीकत ककर्णपिधानेन श्रवणासामर्थ्या. दिति भावः / अत एव तस्याः दमयन्त्याः, व्रीडादि लज्जास्मितादिभावम् , अनुकु. र्वाणा अनुकरणशीला सती, दमयन्त्यनुकरणेन स्वयमपि तादृशभावं प्रकटयन्ती सतीत्यर्थः / 'ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु' इति ताच्छील्ये चानश , अन्यथा 'अनुप राभ्यां कृतः' इति परस्मैपदप्रसङ्गात् / शृण्वती इव साक्षादाकर्णयन्ती इव, कर्मयोः पिहितयोरपि नलवचनं स्पष्टं शृण्वती इवेत्यर्थः / अन्वमाथि अनुसिता, नकदम. यन्तीभ्यामिति शेषः.॥ 106 // ( सामने बैठे हुए नलके मुकुटमणिके ) प्रतिबिम्ब में देखे गये उस ( दमयन्ती ) के मुखके भावों ( नलोक्त शेष रहस्यको सुननेसे उत्पन्न हास क्रोधादि चेष्टाओं) से अनुमान करके उस ( दमयन्ती ) की लज्जा आदिका अनुकरण करती हुई उस ( कला) को ( जल तथा दमयन्तीने नलोक्त अवशिष्ट वचनको) सुनती हुई-सी समझा। [यद्यपि अपने कानोंको बन्द किये जानेसे कलाने नलोक्त शेष बातको नहीं सुना, किन्तु उसको सुनकर की गयी पृष्ठस्थ दमयन्तीकी चेष्टाओंको सम्मुखस्थ नलमुकुट रत्नमें देखकर वैसा ही अनुकरण करने लगी, जिससे नल तथा दमयन्तीने अनुमान किया कि यह कला कान बन्द करनेपर मी नलोक्त वचनको सुन रही है ] // 106 //
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________________ विंशः सर्गः। 1355 कारङ्कारं तथाऽऽकारमूचे साऽशृणवन्तमाम् | . मिथ्या वेत्थ गिरश्चेत्तद्वयर्थाः स्युर्मम देवताः / / 107 // कारङ्कारमिति / सा कला, तथाऽऽकारं पूर्वोक्तरूपमनुकरणमित्यर्थः, कारं कारं कृत्वा कृत्वा / आभीचण्ये णमुल / अशृणवन्तमां भवदुक्तं सर्वमतिशयेनाकर्णयम् , अहमिति शेषः / शृणोतेर्लङि मिपो मादेशः, 'किमेत्तिङव्ययघात्-' इत्यामुप्रत्ययः। इति ऊचे कथयामास, चेत् यदि, गिरः अशृगवन्तमाम् इति वाचः, मिथ्या अनृतम्, वेत्थ जानासि, मन्यसे इत्यर्थः / तत् तदा, मम मे, देवताः उपास्यदेवताः, व्यर्थाः विफलाः, विफलोपासनाः इत्यर्थः / विशिष्टार्था इत्यपि निगूढार्थो गम्यते, विशि. टार्थसाधिका इत्यर्थः / स्युः भवेयुः // 107 // वैसे अनुकरणको बार-बार करके कलाने कहा कि ( मैंने नलके कहे हुए अवशिष्ट रहस्य वृत्तान्तों को भी ) सम्यक् प्रकारसे सुन लिया, यदि (तुम मेरी ) बातको असत्य जानती हो तो मेरे देव व्यर्थ ( निष्फल, पक्षा०-विशिष्ट अर्थवाले अर्थात् विशेष कार्यसाधक ) होवें // 107 / / मत्कर्णभूषणानान्तु राजन् ! निबिडपीडनात् / व्यथिष्यमाणपाणिस्ते निषेधुमुचिता प्रिया // 188 / / मदिति / तु किन्तु, राजन् ! हे महाराज ! मरकर्णभूषणानां मम श्रवणालङ्काराणाम्, निबिडपीडनात् दृढभावेन धारणात् , कर्णपिधानार्थमिति भावः / व्यथिष्यमाणपाणिः तोत्स्यमानकरा, ते तव, प्रिया कान्ता भैमी, निषेधुं कर्णपिधानात् निवारयितुम् , उचिता कर्तव्या, मया युवयोः रहस्यस्य सर्वस्यापि श्रुतत्वात् कर्णः पिधानस्य स्वपाणिपीडनादतिरिक्तफलं नास्तीति भावः // 108 // हे राजन् ! मेरे कानके भूषणोंसे ( विशेष दबनेके कारण भविष्य में ) व्यथायुक्त होनेवाले हैं हाथ जिसके ऐसी अपनी प्रिया ( दमयन्ती ) को आप निषेध करें। [आपकी प्रिया दमयन्तीके द्वारा कानोंके बन्द करनेपर भी मैंने जब आपकी अवशिष्ट बातोंको सुन ही लिया, अतः मेरे कानोंको सुकुमार हाथों से अधिक विलम्ब तक बन्द करने के कारण उनमें पीड़ा होने लगेगी, इस वास्ते आपको उचित है कि निष्फल एवं दुःखान्त कार्य करनेवाली अपनी प्रियाको रोकें ] // 108 // इति सा मोचयाञ्चक्रे कौँ सख्याः करग्रहात् / पत्युराश्रवतां यान्त्या मुधाऽऽयासनिषेधिनः।। 106 // इतीति / सा कला, इति इत्थम् , एवंविधवचनकौशनेनेत्यर्थः। मुधाऽऽयासं वृथाक्लेशम् , निषेधति निवारयति, कलया सर्वस्यैव वृत्तान्तस्य यथावत् श्रवणात् मिथ्या कर्णावरणपरिश्रमं मा कुर्विति वारयतीति तादृशस्येत्यर्थः / पत्पुः नलस्य, आश्रवतां वाक्यकारित्वम् , 'वचने स्थित आश्रवः' इत्यमरः / यान्त्याः प्राप्नुवत्याः, 85 नै० उ०
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________________ 1356 नैषधमहाकाव्यम् / भतरादेशात् कौँ त्यजन्स्या इत्यर्थः / सख्याः भैम्याः, करग्रहात् हस्ताभ्यां धारणात्, कर्णी निजश्रवणद्वयम् , मोचयाञ्चक्रे मोचितवती // 109 // उस 'कला' ने ऐसा ( 20 / 107-108 कहकर ) निरर्थक परिश्रमसे निषेध करनेवाले पति ( नल ) का कहना माननेवाली सखी ( दमयन्ती ) के करग्रहण ( हाथोंसे बन्द करने ) से अपने कानोंको छुड़ा लिया / [ 'जब कान बन्द करनेपर भी यह कला मेरी बातें सुन ही रही है, तब भविष्यमें हस्तपीडाजनक ऐसा काम करना छोड़ दो' ऐसा नलके वचनको मानकर दमयन्तीने कलाके कानोंको छोड़ दिया ] // 109 // अतिसंरोधजध्वानसन्ततिच्छेदतालताम् | जगाम झटिति त्यागस्वनस्तत्कणेयोस्ततः॥ 110 // ___ श्रुतीति / ततः कर्णमोचनानन्तरम् , तस्याः कलायाः, कर्णयोःश्रवणयोः, झटिति सहसा, त्यागेन मोचनेन, यः स्वनः शब्दः, श्रुतिविवरं प्रविष्टः बाह्यशब्द इत्यर्थः / अतिसंरोधेन कर्णावरणेन, जातायाः उत्पन्नायाः, ध्वानसन्ततेः 'धुम धुम्' इत्यादि. रूपध्वनिपरम्परायाः छेदे विरामे, तालतांगीतादिक्रियासमापनकालिकमानरूपताम् , जगाम प्राप / बाह्यशब्देन आभ्यन्तरध्वनिनिवृत्त इत्यर्थः / एतत्त सर्वेषामेवानुभव. सिद्धमिति बोद्धव्यम् // 110 // ____ उस ( दमयन्तीसे कानोंको छुड़ाने ) के बाद ( अथवा-बढ़ा हुआ ), उस 'कला' के कानोंको अतिशीघ्र अर्थात् सहसा छोड़नेसे उत्पन्न ध्वनि ( कर्णविवरों में प्रविष्ट बाहा शब्द ) कानों के बन्द करनेसे उत्पन्न ध्वनि-समूहके विराम अर्थात् बादमें तालमाव [ गीत आदिकी क्रियाके समान प्रमाणता ) को प्राप्त किया / [ कानोंको बहुत बिलम्बतक बन्द रखकर सहसा छोड़ने के बाद उसमें प्रविष्ट हुआ बाह्य ध्वनि गानेके तालके समान कलाको मालूम पड़ा ] / / 110 // सापऽमृत्य कियद् दूरं मुमुदे सिष्मिये ततः / इदं ताश्च सखीमेत्य ययाचे काकुभिः कला // 111 // सेति / ततः मुक्तिप्राप्तेरनन्तरं सा कला तन्नामसखी, कियत् किञ्चित् , दूरं विप्रकृष्टदेशम् , अपसृत्य गत्वा मुमुदे जहर्ष, निजकौशलस्य साफल्यदर्शनादिति भावः / अत एव सिष्मिये च मन्दं जहास च, किन्च, ताम् आहूतां स्वपक्षीयाम् , सखीं वयस्थाम , एत्य आगत्य, काकुभिः अनुनयसूचकविकृतस्वरैः, इदं वक्ष्यमाणं, ययाचे च प्रार्थयामास च // 111 // ___ इस ( कानोंमें सहसा प्रविष्ट ध्वनिको गाने के तालके समान ज्ञात होने ) के बाद वह 'कला' ( दमयन्तीके पाससे ) कुछ दूर हटकर हर्षित हुई तथा मुस्कुरायी और उस ( बुलायी गयी स्वपक्षीया सखी) के पास जाकर काकु (दीनतासूचक विकृत स्वर ) से यह याचना की।
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________________ विंशः सर्गः। अभिधास्ये रहस्यं तद् यदश्रावि मयाऽनयोः / वर्णयाकर्णितं मह्यमेह्यालि विनिमीयताम् // 112 // किं ययाचे इत्याह-अभीति / आलि ! हे सखि ! एहि आगच्छ, अनयोः भैमीनलयोः सम्बन्धि, यद् रहस्यं गोपनीयव्यापारः, मया अश्रावि कर्णरोधात् प्राक श्रतम् , तत् अभिधास्ये कथयिष्यामि, तुभ्यमिति शेषः / आकर्णितं त्वया श्रतञ्च, रहस्यमिति शेषः / मह्य कलाय, वर्णय कथय, स्वमिति शेषः / विनिमीयतां परस्परं श्रतवृत्तान्तस्य विनिमयः क्रियताम् , आवाभ्यामिति शेषः // 112 // - 'हे सखि ! मैंने इन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) के जिस (रहस्य-सुरतकालिक गोप्य वृत्तान्त ) को सुना है, वह रहस्य ( तुमसे ) कहूंगी, (तथा तुमने मेरे कान बन्द होने के बाद इन दोनोंका जो रहस्य ) सुना है उसे ( मुझसे ) कहो, इस प्रकार हम दोनों मिलकर इनके रहस्योंको परिवर्तित ( अदलाबदली ) कर लें' / / 112 // वयस्याऽभ्यर्थनेनास्याः प्राक्कूटश्रुतिनाटने। विस्मितौ कुरुतः स्मैतौ दम्पती कम्पितं शिरः // 113 / / वयस्येति / वयस्यायाः स्वपक्षभूतायाः सख्याः, अभ्यर्थनेन प्रार्थनेन, 'वर्णयाss. कर्णितं मह्यम्' इत्युक्तरूपेण श्रुतवृत्तान्तस्य विनिमयप्रार्थनया इत्यर्थः। अस्याः कलायाः, प्राक् पूर्वम् , कर्णपिधानावस्थायामित्यर्थः, कूटे मिथ्यैव कृते, अतिनाटने मया सर्व श्रुतमिति भावव्याने, विस्मितौ आश्चर्यान्वितो, दम्पती जायापती, एतौ भैमीनलो, शिरः स्वस्वमस्तकम , कम्पितं चालितम , कुरुतः स्म मृदु मृदु शिरश्चालनं चक्रतुरिति विस्मयभावोक्तिः // 113 सखोसे याचना (20 / 112 ) करनेसे इस 'कला' के पहले झूठे ही ( नलोक्त अवशिष्ट वाक्यांशको ) सुनने का अभिनय करने में आश्चर्यित ये दम्पति ( नल तथा दमयन्ती ) शिरःकम्पन करने लगे / [ 'इस कलाने मैंने नलोक्त शेष वाक्यांशको अच्छी तरह सुन लिया' कहकर हम दोनोंको ही विशेषरूपसे वञ्चित कर दिया, इस आश्चर्यान्वित अभिप्रायसे शिरको कम्पित करने लगे। आश्चर्यित व्यक्तिका शिर कँपाना स्वभाव होता है ] // 113 // तथाऽऽलिमालपन्तीं तामभ्यधान्निषधाधिपः / आस्स्व तद्वञ्चितौ स्वश्चेन्मिथ्याशपथसाहसात् / / 114 / / तथेति / निषधाधिपः नलः, आलिम् आहूतस्वपक्षसखीम् , तथा तेन प्रकारेण 'वर्णयाकणितं मह्यम्' इत्युक्तप्रकारेणेत्यर्थः / आलपन्ती सम्भाषमाणाम् , तां कलाम, अभ्यधात् , अवोचत् , किम् इति ? हे धूर्ते ! मिथ्याशपथसाहसात् 'व्यर्थाः स्युमम देवताः' इति कृत्वा अनृतशपनमेव साहसम् अविचारितकारित्वं तस्मात् हेतोः, 1. '-मोहि' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1358 नैषधमहाकाव्यम् / चेत् यदि, वञ्चितो प्रतारितो, स्वः भवावः आवामिति शेषः / तत् तर्हि, आरस्व तिष्ठ, एतदर्थ स्वां यथोचितं दण्डयामि क्व गमिष्यसीति भावः // 114 // निषधराज ( नल ) ने सखीसे उस प्रकार ( 20 / 112 ) कहती हुई उस 'कला' से कहा-'मिथ्या शपथ लेने के साहस ( 20 / 107 ) से यदि हम दोनोंको तुमने वञ्चित किया है तो ठहरो अर्थात् मिथ्या शपथसे वञ्चित करने से हम दोनों तुम्हें दण्डित करेंगे' / / 114 / / प्रत्यलापीत् कलाऽपीमं कलङ्कः शङ्कितः कुतः ? | प्रियापरिजनोक्तस्य त्वयैवाद्य मृषोद्यता / / 115 / / प्रत्यलापीदिति / कला अपि तन्नामसखी अपि, इमं नलम् , प्रत्यलापीत् प्रत्यवो. चत् / लपेटुंडि 'अतो हलादेलघोः' इति निषेधविकल्पात् सिचि वृद्धिः / हे राजन् ! त्वया भवता, अद्य एव अस्मिन्नेव दिवसे, न तु इतः पूर्व कदापीति भावः / प्रियायाः भैम्याः परिजनेन सखीजनेन, उक्तस्य कथितस्य वचनस्य, मृषोद्यता मिथ्यावादि. त्वम् / 'राजसूयसूर्यमृषोद्य-' इत्यादिना मृषापूर्वाद्वदेः क्यबन्तो निपातः। अनृत वादितारूप इत्यर्थः / कलङ्कः अपवादः, कुतः कथम् , शङ्कितः सम्भावितः ? भवत्प्रियायाः सदा सत्यवादित्वात् तत्परिजनानामस्माकमपि मिथ्यावादित्वं न सम्भवति इति भावः / वृत्तस्यापि रात्रिव्यापारस्य न वृत्तमिति अपलापवत् अस्माकमपि तत्परिजनानां तथा व्यवहारः न दुष्यतीति तु निगढतात्पर्यम् // 15 // 'कला' ने भो उस ( नल ) को प्रत्युत्तर दिया कि-( हे राजन् ! ) आप आज ही ( दूसरे किसी दिन नहीं ) प्रिया ( दमयन्ती) के परिजनों ( सखी-मुझ 'कला') के कथनकी असत्यभाषितारूप कलङ्ककी : यो शङ्का कर रहे हैं। [ सत्यवादिनी दमयन्तीके परिजनों के भाषण में असत्य भाषणरूप कलक होने का सन्देह आपको नहीं करना चाहिये, क्योंकि रात्रि में किये गये सुरतको आपकी प्रिया एवं हमारी स्वामिनी दमयन्ती नहीं हुआ बतला रही है, अत एव परिजनको स्वाभ्यनुकूल बर्ताव करना ही उचित होनसे मेरा यह व्यवहार भी आपको सदोष नहीं मानना चाहिये ] / / 115 / / सत्यं खलु तदाऽश्राप पर धुमुधुमारवम् / शृणोमीत्येव चावोचं न तु त्वद्वाचमित्यपि / / 116 / / सत्यमिति / अथवा तदा पूर्वोक्तशपथात् पूर्व कर्णरोधसमये, परं केवलम् , धुमु. धुमारवं 'धुम् धुम्' इत्येवमाभ्यन्तरिकं शब्दम , सत्यं खलु सत्यमेव, अश्रौषम् आक. र्णितवती, अहमिति शेषः / च किञ्च, शृणोमीत्येव 'अशृणवन्तमाम्' इत्यनेन श्रवण. मात्रमेव, अवोचम् अकथयम , अपि तु परन्तु त्वद्वाचं भवदीयवाक्यम् , अशृणवन्त. मामिति शेषः, इति न, अवोचमित्यनेनान्वयः / यस्मात् शृणोमीत्युक्तं, तस्मान्नात्र मृषोद्यतादोषः, शब्दश्रवणस्य सत्यत्वादिति भावः // 116 // 1. 'प्रियापरिजनस्योक्तौ' इति पाठान्तरम्। 2. 'गुमुगुमा'-इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1356 ( प्रकारान्तरसे कला अपने वचनकी सत्यता प्रमाणित करती है-अथवा-) उस (कान बन्द रहने के ) समय सचमुच ही मैंने सुना था, किन्तु 'धुम्, धुम्' ध्वनिको ही सुना था और मैंने 'सुनती हूँ' यही कहा था, ( किन्तु ) 'तुम्हारे वचनको भी ( सुनती हूँ )' यह नहीं कहा था। [ अत एव ध्वनिमात्रका सुनने के अभिप्रायसे मेरा वैसा कहना सदोष नहीं मानना चाहिये ] // 116 // आमन्त्र्य देव ! तेन त्वां तद्वैयर्थं समर्थये / शपथः कर्कशोदकः सत्यं सत्योऽपि दैवतः / / 117 / / आमन्त्र्येति / देव ! हे राजन् ! तेन 'व्यर्थाः स्युर्मम देव ! ताः' इत्यादि पूर्वोक्त. वाक्येन हेतुना, हे देव ! इति त्वां भवन्तम् , आमन्त्र्य सानुनयं सम्बोध्य, ताः अशृणवन्तमाम् इत्यादि गिरः, व्यर्थाः मिथ्याभूताः इत्युक्त्वा, तस्य अशृणवन्त मा. मिति शपथवाक्यस्य, वैयर्थ्य मिथ्यात्वम् , अथवा श्रतानां धुमुधुमेत्यादीनां ध्वनीनां वैयर्थम् अर्थशून्यत्वम् , 'धुम धुम्' इति शब्दस्य डित्थडविस्थादिवत् अर्थशून्यतया तच्छ्वणस्यापि निरर्थकत्वादिति भावः। समर्थये सिद्धान्तत्वेन स्थापयामीत्यर्थः / अहमिति शेषः / शपथकरणे मन्वायुक्तं दोषं जानत्या मया तु शपथः न कृतः, किन्तु अहं शपथं कृतवतीति देवस्यैव भ्रान्तिर्जाता, तथा हि देवतः देवताम् उद्दिश्य कृतः, सत्योऽपि यथार्थोऽपि, शपथः शपनम् , सत्यं निश्चितमेव, कर्कशोदकः कर्कशः धर्महानिकरत्वेन निदारुणः, उदर्कः उत्तरं फलं यस्य तादृशः, शोचनीयपरिणाम: इत्यर्थः / 'उदर्कः फलमुत्तरम्' इत्यमरः / भवतीति शेषः / 'सत्येनापि शपेद् यस्तु देवाग्निगुरुसन्निधौ / तस्य वैवस्वतो राजा धर्मस्याद्धं निकृन्तति / ' इति मनुस्मरणा दिति भावः // 117 // ( अब 'कला' पूर्वकृत ( 20:107 ) शपथका अर्थान्तर करके अपने वचनकी सत्यता प्रमाणित करती है-) हे देव ! उस व्यर्थाः स्युर्मम देवताः' ( 20 / 107) वचनसे आपको ही आमन्त्रितकर उस ( सुने हुए तथा आपके कहे हुए वचन ) की असत्यताका समर्थन करती हूं, सत्य के विषय में भी किया देव-सम्बन्धी शपथ कर्कश ( अनिष्ट ) परिणामवाला होता है। [ इसका भाव यह है-कला कहती है कि - मैंने तो 'हे देव ! मम गिरः मिथ्या वेत्थ चेत् , ता व्यर्थाः स्युः' अर्थात् 'हे राजन् ! हमारी बातोंको आप असत्य जानते हैं तो वे व्यर्थ ( असत्य ही ) हों' ऐसा कहा था, किन्तु आपने उसे शपथरूपमें समझ लिया, अत एव मेरे कहे गये अभिप्रायको समझनेमें यदि आपको भ्रम हो गया तो मुझपर असत्यभाषण करने वा शपथ लेनेका दोष नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि उक्ताभिप्रायसे कहने के कारण न तो मैंने असत्यमाषण किया और न शपथ ही लिया ] // 117 //
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________________ 1360 नैषधमहाकाव्यम् / असम्भोगकथारम्भैर्वञ्चयेथे कथं नु माम् ? हन्त ! सेयम हेन्ती यत्त विप्रलमे युवाम // 518 / / मिथ्याशपथेन युवयोर्वञ्चनायां न कोऽपि दोषः इत्याह-असम्भोगेति / युवा भवन्तौ, असम्भोगकथानां सम्भोगचिह्ने विद्यमानेऽपि त्वया उच्यते भैमी मां न स्पृशत्यपि, अनयाऽपि नलेन नाहं स्पृष्टा इत्युच्यते एवम्भूतानां सम्भोगाभावोक्ती. नाम् , आरम्भः उपन्यासः, प्रवर्तन रित्यर्थः। मां कलाम् , कथं नु किमर्थम् , वञ्चः येथे ? प्रतारयथः ? तु पुनः, युवां भवन्तौ, यद्विप्रलभे वञ्चयामि, अहमिति शेषः / सा इयं वञ्चना, अनहन्ती हन्त ! अयुक्ता किम् !! मद्वञ्चनं युवयोः युक्तमेव, मम तु भवद्वञ्चनमयुक्तम् अहो आश्चर्य धूतयोरिति भावः / अनर्हन्ती 'अर्हः प्रशंसायाम' इति शतरि उगित्त्वात् डीषि, ब्राह्मणादित्वात् ष्यन्प्रत्यये 'अर्हतो नुम् च' इति नुमागमः, 'ज्यञः पित्करणादीकारो बहुलम्' इति वामनः / 'यस्य हलः' इति यकारलोपे चाहन्ती, ततः नन्समासः / यत्त इत्यत्र 'यन्न' इति पाठे-अनहन्ती दासीत्वात् अयोग्याऽपि, सा इयं कलानाम्नी अहं, युवां प्रतारको भवन्तौ, यत् न विप्रलभे, तत् किं सम्भावयथः ? इति शेषः / 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' इति न्यायाद् वञ्चकेन सह प्रतारणापूर्णव्यवहार एव युज्यते इति भावः // 118 // ('आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः' अर्थात् 'कुटिलोंके विषयमें सरलताका व्यवहार करना नीति नहीं है' इस वचनके अनुसार असत्यभाषण करनेपर मेरा कोई दोष नहीं है, इस आशयसे कला अपने पक्षका समर्थन करती है-) तुम दोनों असम्भोग-कथाके कहनेसे (सम्भोग करनेपर मी 'यह दमयन्ती न तो मुझे स्पर्श करती है, न देखती है और न बोलती है' इत्यादि आप तथा ऐसा ही यह दमयन्ती मी कहती है, अतः इस प्रकार सर्वथा असत्य बतलानेसे ) मुझे क्यों वञ्चित करते हो ? आश्चर्य है कि यह मत्कृत वञ्चना अनुचित है क्या जो मैं आप दोनोंको वञ्चित करूं ? [ पाठा०-( दासी होनेसे ) अयोग्य भी मैं जो तुम लोगोंको नहीं वञ्चित करूं ? यह समझते हैं क्या ? अर्थात् 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' ( शठके साथ शठता करनी चाहिये ) इस नीतिके विपरीत तुम दोनों को नहीं समझना चाहिये ] / / 118 // कर्ण कर्णे ततः सख्यौ श्रुतमाचख्यतुर्मिथः / मुहुविस्मयमाने च स्मयमाने च ते बहु / / 156 / / कणे कण इति / ततः अनन्तरम् , ते सख्यौ कला तत्सपक्षा च, मुहुः पुनः पुनः विस्मयमाने आश्चर्यभावं प्रकाशयन्त्यौ, तथा स्मयमाने मन्दं हसन्त्यौ च सत्यो, श्रुतम् आकर्णितं पूर्वोक्तरहस्यजातम् , मिथः अन्योऽन्यम , कणे कर्णे कर्णसमीपे 1. '-मनाहन्ती' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1361 मुख संस्थाप्य निःशब्दं यथा तथेत्यर्थः / बहु दीर्घकालं व्याप्येत्यर्थः / आचख्यतुः कथयामासतुः // 119 // ___या 'कला' के इस प्रकार (20 / 115-118) स्ववञ्चनदोषका परिहार करने ) के बाद दोनों मखियों ( 'कला' तथा उप्तकी बुलायी हुई दूसरी सखी, दमयन्नी तथा नलके सम्भोग वृत्तात के सुननेसे ) बार-बार आश्चर्यित होती हुई तथा स्मित करती हुई सुनी गयी ( नलोक्त सम्भोग कथा ) को एक दूसरे के थानमें बहुत देर तक कहने लगीं / / 119 / / अथाख्यायि कलासख्या कुप्य मे दमयन्ति ! मा / कर्णाद्वितीयतोऽप्यस्याः संगोप्यैव यदब्रम् / / 120 / / अथेति / अथ अन्योऽन्यकथनानन्तरम्, कलासख्या कलायाः वयस्यया, आख्यायि उक्तम् / किमिति ? हे दमयन्ति ! मे मह्यम्-मा कुप्य न क्रद्धा भव, स्वमिति शेषः / 'क्रवद्रह-' इत्यादिना सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी / यत् यस्मात् , द्विती. यतः द्वितीयात् , कर्णात् श्रवणात् अपि, सङ्गोप्य गोपायित्वा, अस्याः एव कलायाः एब, अब्रुवं रहस्यम् अकथयम् // 120 // ___ इस ( परस्पर में कानमें भाषण करने ) के बाद कलाकी सखीने बहुत देर तक कहा'हे दमयन्ति ! मुझपर मत क्रोधित होवें, क्योंकि मैंने इसके दूसरे कानसे भी छिपाकर ही कहा है अर्थात् मैंने इस प्रकार कहा है कि दूसरे व्यक्तिको कौन कहे, इसके दूसरे कान तकने भा नहीं सुना है। [हम प्रकार दमयन्तीसे कहकर उसने परिहास ही किया है] // 120 / / प्रियः प्रियामथाचष्ट दृष्टं कपटपाटवम् ? / वयस्ययोरिदं तस्मान्मा सखोब्वेव विश्वसोः / / 121 / / पिय इति / अथ कलामखीवाक्यानन्तरम् , प्रियः कान्तो नलः प्रियां कान्तां भौम, आचट अवोचत् , किमिति ? हे प्रिये ! यस्योः लख्योः, इदं त्वत्समहमेध चरितन, कपटपाटवं वञ्चनाचातुय्यम्, दृष्ट ? अवलोकितम् ? इति काकु / तामात एच-व्यवहारदर्शनात् , सतीषु वयस्यासु, मैव नैव, विश्वलीः विश्वास कुल सदमेव विश्वासः कर्तव्य इति भावः ! एनसेमाङि लुङि 'न माङयोगे' इति अडागमनिषेधः / 'अतो हलादेलंघोः' इति वृद्धी प्राप्तायां 'ह्मयन्तक्षणश्वस-' इत्यादिना निषेधः // 121 / / 'कल' की सखीके ऐता ( 201120 ) पहने ) के बाद प्रिय प्रिया नल ने दमयन्ती / कहा--(तुमने अपने सामने ही अपनी इन बोनों सखियों के कपटचार्यको 1. 'सङ्गोप्येवम्' इति पाटान्तर / 2, अन्न कलारूपिण्या सख्या' इत्याशयात्मक कलथैव सख्या वा' इति पक्षान्तरार्थक 'प्रकाश'व्याख्यानं 'अलापि कल्याऽपीयं... ..(201122) इति वक्ष्यमाणत्वाञ्चिन्त्यं सुधीभिः।।
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________________ 1362 नैषधमहाकाव्यम् / देखा ? इस कारणसे हो तुम मखियोंपर ( अथवा-इस कारणसे तुम सखियोंपर ही) विश्वास मत करो, (किन्तु एकमात्र मुझपर ही विश्वास करो ) // 121 // आलोपि कलयाऽपीयं पति लपति क्वचित् / वयस्येऽसौ रहस्यं तत् सभ्ये विस्रभ्यमीहशि / / 122 / / आलापीति / कलयाऽपि इयं भैमी, आलापि अवादि, किमालापि ? इत्याहहे दमयन्ति ! असौ अयम् , पतिः तव भर्ता नलः, क्वचित् कुत्रापि, न आलपति न कथयति, गोप्यरात्रिवृत्तमिति शेषः / अत एव ईदृशि एवम्भूते, सभ्ये सज्जने, वयस्ये सख्यो, तत् पूर्वोक्तम् , रहस्यं गोप्यवृत्तान्तः, विस्रभ्यं विश्वसनीयम् विश्वस्य वक्तव्यमेवेत्यर्थः / अत्र विपरीतलक्षणया-अमी ते पतिः सर्वत्रैव तव रहस्यमालपति, अत एव ईदृशि असभ्ये वयस्ये न विस्त्रभ्यमेव इति / 'कृत्यल्युटो बहुलम्' इति भावे कृत्यप्रत्ययः, तस्याकित्वान्नकारलोपः॥ 122 // ___ 'कला' ने भी दमयन्तीसे ( मधुर परिहास एवं काकूक्तिके साथ ) कहा कि- 'यह पति (नल ) कहीं पर रहस्य ( तुम्हारी सम्भोगादि वार्ता ) को नहीं कहते हैं, इस कारण ऐसे सभ्य मित्रमें ( तुम्हें ) विश्वास करना चाहिये / (विपरीत लोणासे-ये तुम्हारे रहस्यको सर्वत्र कह देते हैं, अत एव ऐसे असभ्य साथीपर विश्वास नहीं करना चाहिये )' / [ यहांपर भी 'कला' ने नलोक्त पूर्ववचन ( 20 / 121 ) का वैसा ही समुचित उत्तर देकर नलका पुनः पराजित किया है ] // 122 // इति व्युत्तिष्ठमानायां तस्यामूचे नलः प्रियाम् / भण भैमि ! बहिः कुर्वे दुर्विनीते गृहादमू ? / / 123 / / इतीति / तस्यां कलायाम् , इति इत्थम , व्युत्तिष्ठमानायां विरोधम् आचरत्याम् , तुल्यभावेनैव विपक्षवत् व्यवहाँ प्रवर्त्तमानायामित्यर्थः। 'उदोऽनूर्वक मणि' इत्यात्मनेपदम् / नलः नैषधः, प्रियां भैमीम् , ऊचे कथयामास। किमिति ? भैमि ! हे दमयन्ति ! दुविनीतं उद्धते, अमू एते सख्यौ, गृहात् प्रकोष्ठमध्यादित्यथः / बहिः कुर्वे ? निर्वासयामि ? इति काकुः, भण बहि, आदिश इत्यर्थः / / 123 / / इस प्रकार इस 'कला' के विरोध करते रहनेपर नलने प्रिया ( दमयन्ती ) से कहा कि-'हे दमयन्ति ! इन दोनों दुविनीत सखियोंको घर ( इस प्रकोष्ठ ) से बाहर करता हूँ ? कहा [ यहांपर नलने उन सखियोंको बाहर करके सम्भोग करने के लिए दमयन्तीसे सम्मति चाही है, इसी कारणसे यहां वर्तमानकालिक 'कुर्वे ( करता हूँ) क्रियाका प्रयोग किया है। शिरःकम्पानुमत्याऽथ सुदत्या प्रीणितः प्रियः। चुलुकं तुच्छमुत्सर्य तस्याः सलिलमक्षिपत् / / 124 / / शिर इति / अथ नलवाक्यानन्तरम्, सुदत्या शोभनदन्तया, भैम्या इति शेषः / 1. 'अलापि' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1363 शिरकम्पेनैव मस्तकस्य ईषञ्चालनरूपेणैव, अनुमत्या अनुमोदनेन, सख्याः बहिष्क. रणविषये सम्मतिज्ञापनेनेत्यर्थः / प्रीणितः तोषितः, प्रियः नलः, तुच्छं रिक्तमेव, जलशून्यमेवेत्यर्थः, चुलुकं प्रसृतम् , निकुब्जपाणिद्वयमित्यर्थः। अझलिमिति यावत् , उत्सl उत्क्षिप्य, तस्याः कलायाः उपरीत्यर्थः। सलिलं जलम् , अक्षिपत् अकिरत // 124 // दमयन्तीके द्वारा शिर हिलाकर अनुमति देनेसे सन्तोषित प्रिय (नल) ने खाली चुल्लूको ही उठाकर उस सखीके ऊपर पानी फेंका। [ दमयन्तीने दुष्ट उन सखियोंको बाहर करनेकी अनुमति दी, तथा नलने 'सम्भोगार्थ यह मुझे उन्हें बाहर करने के लिए शिर हिलाकर अनुमति दे रही है' यह समझकर खाली चुल्लूको उन सखियोंके ऊपर फेका तो वरुणके वरदान ( 14 / 80 ) से वह जलपूर्ण हो गया और सखियोंका वस्न भीग गया ] || तच्चित्रदत्तचित्ताभ्यामुच्चैः सिचयसेचनम् / ताभ्यामलम्भि दूरेऽपि नलेच्छापूरिभिर्जलैः // 125 // तदिति / तस्मिन् पूर्वोक्तरूपे रिक्तहस्तादपि जलनिःसरणरूपे, चित्रे आश्चर्य, दत्तचित्ताभ्यां निवेशितमनोभ्याम् , अत एव अपसत विस्मृताभ्यामिति भावः / ताभ्यां सखीभ्याम् , दूरेऽपि विप्रकृष्टदेशे स्थिताभ्यामपि, नलस्य इच्छां पूरयन्तीति तादृशैः नलेच्छापूरिभिः वरुणवरात् नैषधस्य अभिलषितं साधयद्भिः, जलैः सलिलैः, उच्चैः अतिमात्रम् , सिचयशेचनं वस्त्रा भवनम् / 'पटोऽस्त्री सिचयो वस्त्रम्' इति यादवः / अलम्भि प्रापि / 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति नुमागमः // 125 // ____ खाली चिल्लू ( के जल फेकने ) से आश्चर्ययुक्त चित्तवाली उन दोनों ( कला तथा उसकी सखी ) का ( वरुणके दिये गये वर (14 / 80 ) के प्रभावसे ) नलकी इच्छामात्रसे पूर्ण हुए पानीसे दूरस्थ होने पर भी कपड़ा भोंग गया // 125 / / वरेण वरुणस्यायं सुलभैरम्भसां भरैः। एतयोः स्तिमितोचके हृदयं विस्मयैरपि / / 126 / / ___ ननु नलस्य रिक्तहस्तात् कुतों जलसम्भवः इत्याह-वरेणेति / अयं नलः, वरुणस्य जलेशस्य, वरेण वरदानेन, अभीष्टपूरकवाक्यप्रयोगेणेत्यर्थः। सुलभैः अनायासप्राप्यैः, अम्भसा जलानाम् , भरैः ओधैः, तथा विस्मयैरपि रिक्तहस्तात् जलानि निःसृतानीति आश्चर्यरसैश्च, एतयोः सख्योः, हृदयं वक्षःस्थलम् अन्तरश्च / 'हृदयं वक्षसि स्वान्ते' इति विश्वः / स्तिमितीचक्रे आर्दीचकार निश्चलीचक्रे च / अभूततद्भावे विः / अत्र स्तिमितहृदयमिति विशेषणविशेष्ययोः द्वयोरपि प्रकृत. स्वात् श्लेषः // 126 // इस ( नल ) ने वरुणके वर ( 14680) के प्रमावसे सुलभजलपूरसे इन दोनों (कला तथा उसकी सखी ) के हृदय (बाह्यवक्षःस्थल अर्थात् छाली ओर आभ्यन्तर अन्तःकरण ) को
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________________ 1364 नैषधमहाकाव्यम् / अधिक आश्चर्य पूर्ण कर दिया [ वरुणके वरदानके प्रमावसे नलेच्छामात्रसे उत्पन्न पानीसे वे मींग कर आश्चर्यित हो गयीं ] // 126 / / (युग्मम् ) तेनापि नापसर्पन्त्यौ दमयन्तीमयं ततः / हर्षेणादर्शयत् पश्य नन्विमे तन्वि ! मे पुरः // 127 / / क्लिन्नीकृत्याम्भसा वस्त्रं जैनप्रव्रजितीकृते / सख्यौ सक्षौमभावेऽपि निर्विघ्नस्तनदर्शने / / 128 / / तेनेति / ततः जलसेचनानन्तरम् , अयं नलः, ननु भोः ! तन्धि ! कृशाङ्गि ? प्रिये ! अम्भसा जलेन, वस्त्रं वसनम् , क्लिन्नीकृत्य आकृत्य / अभूततद्भावे चिः / सक्षौमभावेऽपि क्षोमवस्त्राच्छादने सत्यपि, निर्विघ्नम् अप्रतिबाधनम् , स्तनदर्शनं कुचावलोकनं ययोः ते तादृश्यो, शुभ्रसूक्ष्माद्रवस्त्रेण आच्छादितेऽपि अङ्गे सर्वाङ्गस्य दर्शनविषयीभूतत्वादिति भावः / अत एव जनप्रवजितीकृते बौद्धपरिव्राजिकाप्राये कृते, तासामपि दिगम्बरप्रायत्वादिति भावः / तेन तथाविधकरणेनापि, न अपसर्पन्स्यो न अपगच्छन्त्यो, इमे एते, सख्यौ वयस्ये, मे मम, पुरः अग्रतः, स्थिते इति शेषः / पश्य अवलोकय, इति हर्षण स्तनादिदर्शनजनितानन्देन, दमयन्तीं भैमीम् , दमयन्त्यै इत्यर्थः / अदर्शयत् अङ्गुलिनिर्देशेन दर्शयामास / अत्र 'अभिवादिदृशो. रात्मने पदे उपसङ्ख्यानम्' इति पाक्षिककर्मत्वस्य परस्मपदे अप्राप्ते 'दृशेश्व' इत्यनेन दमयन्तीमित्यणिकतः नित्यकर्मत्वम् / ईशघटनया लजितयोः तयोः गृहात बहिः र्गमनसम्भावनया दमयन्त्युपभोगलिप्सा व्यज्यते // 127-128 // इस ( उन दोनों सखियोंकी नलप्रक्षिप्त भीगकर आश्चर्ययुक्त होने ) के बाद नलने, उससे भी नहीं हटती हुई उन दोनों सखियोंको 'हे तन्वि ( दमयन्ति ) ! पानीसे कपड़ेको भिंगाकर जैन-प्रव्राजिका बनायी गयी महोन रेशमी वस्त्र पहनने पर भी ( उनके भींगनेसे ) अनायास दिखलायी देते हुए स्तनोंवाली इन दोनों ( कला तथा उसकी सखी) को देखो' यह कहकर हर्षसे दमयन्ती के लिए दिखलाया। [ पतले वस्त्रको भीग जानेसे उनके स्तनादि दृष्टिगोचर हो रहे थे तथा वे नग्नके समान प्रतीत होनेसे दिगम्बर जैन प्रव्राजिका प्रतीत हो रही थीं। यहां पर 'जीवातु' कार ने 'जैन' शब्दका 'बौद्ध' अर्थ किया है, किन्तु बौद्धों के मूल आराध्य देवता 'बुद्ध' भगवान् हैं, न कि 'जिन' भगवान् , अतः 'जैन' शब्दका अर्थ 'जिन' देवताका माननेवाला 'जैन' ही जानना चाहिये / किन्तु जैन सम्प्रदायमें पुरुषोंको ही दिगम्बर ( नग्न ) हानेका विधान है, न कि प्रव्राजिका ( 'अजिंका' या 'क्षुल्लिका' का व्रत. ग्रहण करनेवाली स्त्रियों को भी ) बौद्ध सम्प्रदायमें भी नग्न रहनेका शास्त्रीय विधान नहीं है, अतः 'श्रीहर्ष' महाकविका यह कथन किस आधार पर है ? विद्वानोंको इसका विचार करना चाहिये ] // 127-128 // :
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________________ विंशः सर्गः। 1365 अम्बुनः शम्बरत्वेन मायैवाविरभूदियम् / यत् पटावृतमप्यङ्गमनयोः कथयत्यदः॥ 129 / / अम्बुन इति / अदः नलनिक्षिप्तम् इदं जलम्, कत्त / पटावृतमपि वस्त्राच्छादितमपि अनयोः सख्योः, अङ्गं स्तनादि निगूढावयवम्, यत् कथयति वदति, सुस्पष्टम् आविष्करोतीत्यर्थः। द्वयं पटावृतस्यापि अङ्गस्य आविष्करणरूपा एषा अवस्था, अम्बुनः जलंस्य, शम्बरत्वेन शम्बरापरनामत्वेन शम्बरासुरत्वेन च, 'दैत्ये ना शम्ब. रोऽम्बुनि' इति वैजयन्ती। माया एव शाम्बरी एव, छलना एवेत्यर्थः। 'स्यान्माया शाम्बरी' इत्यमरः / आविरभूत् प्रकटिता आसीत् , अन्यथा कथं अनग्नयोरपि स्तनादिदृश्यते इति भावः // 129 // यह ( जल ) वस्त्राच्छादित भी इन दोनों के अङ्ग ( स्तन, जघनादि अवयव ) को कहता ( प्रकट दिखलाता) है, जलको शम्बर ('शम्बर' शब्दका पर्याय पक्षा०-'शम्बर' नामक मायावी दैत्य ) होनेसे 'माया' ( शम्बर दैत्यका छल ) ही प्रकट हो गया है। [ शम्बरको महामायावी होने से 'शाम्बरी' शब्द 'माया' अर्थमें प्रयुक्त होता है / सो यहां भी शाम्बरी ( जल-सम्बन्धी, पक्षा०-शम्बर दैत्य-सम्बन्धी) माया ही प्रकट हो गयी है, इसीसे बिना जलके भी इन दोनों के वस्त्र भीग गये हैं ] // 129 / / वाससो वाऽम्बरत्वेन दृश्यतेयमुपागमत् / चारुहारमणिश्रेणि-तारवीक्षणलक्षणा / / 130 // वासस इति / वा अथवा, चायः मनोज्ञाः, हारमणिश्रेण्यः एव मौक्तिकसरस्थरत्नराजय एव, ताराः नक्षत्राणि, तासां वीक्षणं दर्शनमेव, लक्षणं लचम यस्याः सा तादृशी, इयम् एषा, दृश्यता स्तनादिदर्शनयोग्यता. आकाशरूपेण दर्शनविषयता च, वाससः वस्त्रस्य, अम्बरत्वेन वस्त्रत्वेन आकाशस्वेन च / 'अम्बरं व्योम्नि वाससि' इत्यमरः / उपागमत् प्राप्नोत् , जाता इत्यर्थः // 130 // ___ अथवा-हारके सुन्दर मणिसमूहरूप ताराओंका दिखलायी देता है चिह्न जिसका अर्थात् जिसमें हारके सुन्दर मणिसमूहरूप ताराएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं ऐसी दृश्यता ( दृष्टिगोचरता ) कपड़ेके 'अम्बर' शब्दवाच्य होनेसे हो गयी है / [ कपड़ेको 'अम्बर' (आकाश ) भी कहते हैं और 'अम्बर' (आकाश) में ताराएँ दृष्टिगोचर होती ही हैं, तथा वह ( अम्बर'आकाश ) शून्य पदार्थ है, इसी कारण इन सखियों के कपड़ेके भीतर के हारके सुन्दर मणिसमूहरूप सुन्दर ताराएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं / भीगे हुए सूक्ष्म कपड़ेके भीतर हार के मणियोंका दिखलायी पड़ना उचित ही है ] // 130 / / ते निरीक्ष्य निजावस्थां ह्रीणे निययतुस्ततः / तयोर्वीक्षारसात् सख्यः सर्वा निश्चक्रमुः क्रमात् // 131 / / ते इति / ते सख्यौ, निजावस्थां जलसेकात् गोयाङ्गप्रकाशरूपाम् भात्मनो
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________________ 1366 नैषधमहाकाव्यम् / दशाम , निरीचय अवलोक्य, हीणे लज्जिते सत्यौ, ततः तस्माद् गृहात , निर्ययतुः निर्जग्मतुः। ततः तयोः कलातत्सख्योःवीक्षारसाद्दर्शनेच्छातः, सर्वा अपराः समस्ताः सख्यः वयस्याः, क्रमात् एकमेकं कृत्वा, निश्चक्रमुः निष्क्रान्ताः // 13 // वे दोनों ( 'कला' तथा उसकी सखी ) ( कपड़ेके भींगनेसे समस्त शरीरावयवका स्पष्ट दर्शनरूप ) अपनी अवस्थाको देख लज्जित होकर वहांसे चली गयीं तथा उन्हें देखने के कौतुकसे दूसरी सव सखियां भी क्रमशः चली गयीं // 131 / / ता बहिर्भूय वैदर्भीमूचुर्नीतावधीतिनि ! / ____ उपेक्ष्ये ते पुनः सख्यौ मर्मज्ञे नाधुनाऽप्यम् // 132 / / ता इति / ताः सख्यः, बहिर्भूय बहिर्निर्गम्य, वैदर्भी दमयन्तीम्, ऊचुः कथया. मासुः। किमिति ? नीतावधीतिनि ! हे अधीतनीतिशास्त्रे भैमि ! इष्टादित्वादिनिप्रत्ययः 'क्तस्येविषयस्य-' इति कर्मणि सप्तमी। अमू एते, मर्मज्ञे भवत्योः रहस्याभिज्ञे, सख्यौ कलातत्सपने, अधुना पूर्व यथा भवतु, इदानीमपि, ते तव त्वयेत्यर्थः / 'कृत्यानां कर्तरि वा' इति कर्तरि षष्ठी / न पुनः नेव, उपेक्ष्ये अवहेलनीये, 'मर्मज्ञं न प्रकोपयेत्' इति न्यायात् सत्वरमेव गत्वा ते प्रसादनीये, अन्यथा, सर्वमेव रहस्यं ते प्रकाशयिष्यत इति भावः // 132 // ___बाहर निकलकर उन ( कला और उसकी सखी को छोड़कर अन्य ) सखियोंने कहा कि-'हे नीतिशास्त्रको पढ़ी हुई दमयन्ति ! ( तुम्हारे ) मर्म ( रहस्य-सम्भोगादि वृत्तान्त ) को जाननेवाली उन दोनों ( 'कला' तथा उसकी सखी ) को इस समय भी तुम्हारे द्वारा उपेक्षा नहीं होनी चाहिये अर्थात् तुम उन दोनोंकी उपेक्षा मत करो; [ क्योंकि उपेक्षित वे दोनों तुम्हारे रहस्यको सबके समक्ष प्रकट कर देगी ] // 132 / / उच्चैरूचेऽथ ता राजा सखीयमिदमाह वः / श्रतं ममें ममताभ्यां दृष्टं मम मयतयोः / / 133 / / उच्चैरिति / अथ सखीनामुक्तवचनश्रवणानन्तरम्, राजा नलः, ताः सखीः, उच्चैः तारस्वरेण, तासां तदा दूरप्रयाणादिति भावः / ऊचे बभाषे। 'उच्चरवोचिरे राज्ञा' इति पाठान्तरम् / किमिति ? वः युष्माकम् , इयम् एषा सखी वयस्या दमयन्ती, इदं वक्ष्यमाणम्, आह वक्ति। किमिति ? एताभ्यां कलातत्सखीभ्याम् / मम मे, मर्म रहस्यवृत्तान्तः, श्रुतम् आकर्णितम्, न तु दृष्टम्, मया भैग्या तु, एतयोः कला. तत्सपक्षयोः, मर्म रहस्यम्, गोपनीयाङ्गमित्यर्थः / दृष्टं प्रत्यक्षीकृतम्, आर्द्राभूतवस्त्रा. भ्यन्तरादिति भावः / श्रवणादर्शनस्य अधिकविश्वास्यतया अहमपि सर्वमेव प्रकाश. यितु शच्यामीति मर्मश्रवणात्तदर्शनं दुःसहमिति तात्पर्यम् // 133 // 1. 'उपेक्षेते' इति पाठान्तरम्। 2. उच्चैरवोचिरे राज्ञा' इति पाठान्तरम् / 3. 'तत्त मयाऽनयोः' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1367 इस ( दमयन्तीसे सखियों के वैसा ( 201132 ) कहने ) के बाद राजा (नल ) ने उन ( सखियों ) से कहा-तुम्हारी यह सखी ( दमयन्ती ) यह कहती है कि-मेरे मर्म ( रहस्यसम्भोगवृत्तान्त ) को उन दोनों ( 'कला' तथा उसको सखो ) ने सुना है अर्थात् लेशमात्र मी देखा नहीं है; ( किन्तु ) मैंने इन दोनों के मर्म ( गोपनीय अङ्ग-स्तनादि) को देखा है अर्थात् केवल सुना ही नहीं है, अपि तु देखा भो है। [ अतएव यदि ये सुने हुए मेरे (दमयन्तीके ) रहस्यको दूसरों के सामने कहेंगी तो मैं (दमयन्ती ) इन दोनों के प्रत्यक्ष देखे हुए रहस्य-गुप्ताङ्गों का वर्णन दूसरों के सामने कर दूंगी, क्योंकि सुननेकी अपेक्षा देखने का महत्त्व अधिक होता है, अतएव इनको उपेक्षा करनेस भी मेरी कोई हानि नहीं होगी ] // मंद्विरोधितयोर्वाचि न श्रद्धातव्यमेतयोः / अभ्यषिञ्चदिमे माया-मिथ्यासिंहासने विधिः / / 134 / / मदिति / किञ्च, हे सख्यः ! मया दमयन्त्या सह, विरोधितयोः सञ्जातवैरयोः, बहिष्करणानुमोदनात् शत्रुभावापन्नयोरित्यर्थः / एतयोः सख्योः, वाचि वचने, न श्रद्धातव्यं न विश्वसितव्यम् , युष्माभिरिति शेषः / तथा हि-विधिः ब्रह्मा, इमे सख्यौ, माया कपटता, मिथ्या अनृतम् , तयोः सिंहासने भद्रासने, अभ्यषिञ्चत् जलवर्षणेन अभिषिक्तवान् , मिथ्याकपटतयोः आकरत्वेन कल्पितवानित्यर्थः / तस्मात् मयि मिथ्याचरणस्य सर्वथा सम्भावनासत्वात् एतयोः मिथ्याप्रलापो न श्रद्धयः इति निष्कर्षः // 134 // ( बाहर निकालने के कारण ) मुझ ( दमयन्ती ) से विरोध की हुई इन दोनों ('कला' तथा उसकी सखी ) की बातोंपर ( तुमलोग ) विश्वास मत करना ( क्योंकि विरोधी प्रायः अवर्तमान दोषों को ही कहते हैं ), और ब्रह्माने इन दोनोंको माया तथा असत्यके सिंहासन पर अभिषिक्त किया है अर्थात् ये माया करने एवं असत्य बोलने में सबसे बढ़ी-चढ़ी हैं। धौतेऽपि कीर्तिधाराभिश्चरिते चारुणि द्विषः / मृषामषीलवैर्लक्ष्म लेखितुं के न शिल्पिनः ? // 135 / / धौतेऽपीति / कीर्तिधाराभिः यशःप्रवाहैः धौते विशुद्ध, अत एव चारुणि मनो. हरेऽपि, द्विषः शत्रोः, चरिते स्वभावे, मृषामषीलवैः मृषा मिथ्यादोषारोप एव, मषी 'काली' इति प्रसिद्धलेखनसाधनद्रव्यविशेषः, तल्लवैः तद्विन्दुभिः, अल्पत्वात् किञ्चिन्मात्रैरिति भावः / लक्ष्म कलङ्कम्, लेखितुं चित्रितुम्, उत्पादयितुमिति यावत् / के, जना इति शेषः, न शिल्पिन: ? शिल्पकुशलाः न ? अपि तु सर्वेऽपि कुशलाः एवे. त्यर्थः / भवन्तीति शेषः / मम शुभ्रे चरित्रेऽपि इमे मिथ्याकलङ्कम् अवश्यमेव आवि. कुर्यातामिति भावः // 135 // कीर्तिधाराओं ( यशःसमूहों ) से धोये गये ( अत एव ) स्वच्छतम शत्रुके चरित ( के 3. 'मद्विराधितयोर्वाचि' इति पाठान्तरम्। 2. 'श्रद्धास्यध्वम्' इति पाठस्तु समीचीनः।
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________________ 1368 नैषधमहाकाव्यम् / विषय ) में असत्यरूपी स्याहीके लेश ( कुछ बूंदों) से भी कलङ्कको लिखने के लिए कौन व्यक्ति ( या-कौन शत्रु ) निपुण नहीं होते / [ जिस प्रकार जलादिसे स्वच्छ किये गये पटको स्याहीकी थोड़ी बूंदोंसे भी काला करनेके लिये सभी शत्रु निपुण बन सकते हैं, उसी प्रकार यशःसमूह मेरे चरितको थोड़ा असत्य कहकर कौन कलङ्कित नहीं कर सकता ? अर्थात् सभी कर सकते हैं, अत एव सम्भव है कि विरोधिनी होने से ये भी मेरे शुभ्र आचरणको असत्यमाषणद्वारा दूषित करना चाहें, किन्तु तुम लोगों को उसपर विश्वास नहीं करना चाहिये ] // 135 // ते सख्यावाचचक्षाते न किश्चिद् ब्रूवहे बहु / वक्ष्यावस्तत्परं यस्मै सर्वा निर्वासिता वयम् / / 136 / / ते इति / ते सख्यौ कला तद्वयस्या च, आचचक्षाते चतुः; किमिति ? बहु भूरि, किञ्चित् किमपि, न ब्रूवहे न कथयावः, आवामिति शेषः / परं केवलम्, तत् तत्प्रयोजनमात्रमेव, वच्यावः कथयिष्यावः, यस्मै यत्प्रयोजनाय, वयं सर्वाः समस्ताः सख्यः, निर्वासिताः निष्कासिताः, गृहादिति शेषः / सुरतार्थम् एव युवाभ्यां वयं सर्वा एव निष्कासिता इत्येवं सर्वत्र वदिष्यावः, नान्यत् किञ्चनेति तात्पर्यम् // 36 // ___ उन दोनों सखियों ( 'कला' तथा उसकी सखी ) ने कहा-'हम दोनों अधिक कुछ नहीं कहेंगी, किन्तु उसीको कहेंगी, जिसके लिए हम सबोंको ( तुमने ) बाहर निकाला है। अर्थात् तुमने हम सबोंको सुरत करनेके लिए बाहर निकाल दिया है, इसी बातको हम सर्वत्र कहेंगी और कुछ नहीं कहेंगी' // 136 // स्थापत्यैर्न स्म वित्तस्ते वर्षीयस्त्वचलत्करैः / कृतामपि तथावाचि करकम्पेन वारणाम् / / 137 / / स्थापत्यैरिति / ते कलातत्सख्यौ, वर्षीयस्त्वेन वृद्धत्वेन हेतुना / 'प्रियस्थिर-' इत्यादिना वृद्धशब्दस्य ईयसुनि वर्षादेशः। चलस्करैः स्वभावत एव कम्प्रहस्तैः, स्थानां दाराणां पतयः पालकाः स्थपतयः, ते एव स्थापत्याः कन्चुकिनः तैः / 'सौवि. दल्लाः कञ्चकिनः स्थापत्याः' इत्यमरः / करकम्पेन हस्तचालनेन, कृतामपि विहिता. मपि, तथावाचि ताशवाक्यप्रयोगे, वारणां निवारणम्, न वित्तः स्म न बुध्येते स्म / वारणाय कृते करकम्पे जराजन्यकम्पभ्रमादिति भावः // 137 // ____ उन दोनों ( कला तथा उसकी सखी ) ने बुढ़ापेसे कांपते हुए हाथोंवाले कञ्चुकियों के हाथ हिलानेसे वैसे वचन कहने में किये गये भी निषेधको नहीं समझा। [ यद्यपि बूढे कञ्चकियोंने वैसी ( सुरतार्थ इन्होंने हम लोगोंको बहिष्कृत कर दिया है ऐसी) बातको कहनेसे हाथको हिलाकर उन्हें निषेध किया, किन्तु उन दोनों सखियोंने उनका हाथ बुढ़ापेके कारण काँप रहा है, ऐसा मनमें धारणा करनेसे उनके अभिप्रायको नहीं समझा ] // 137 //
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________________ विंशः सर्गः। 1366 अपयातमितो धृष्टे ! धिग् वामश्लीलशीलताम् / इत्युक्ते चोक्तवन्तश्च व्यतिद्राते स्म ते भिया // 138 / / अपयातमिति / पृष्टे ! हे प्रगल्भे! इतः अस्मात् देशात् , अपयातं बहिर्गच्छतम्, युवामिति शेषः / वां युवयोः, अश्लीलशोलतां.ग्राम्यभाषणस्वभावम्, धिक् निन्दामः, इति एवम् , उक्त कथिते, भरिसते इति यावत् / कनकिभिरिति शेषः। ते कलात. त्सख्यौ उभे, भिया भयेन, कञ्चकिनां प्रहारादिति भावः। तथा इति इत्थम् , उक्तवन्तः कथितवन्तः, भर्सितवन्तः इति यावत् / ते कञ्चकिनः, भिया राजदम्पत्योः क्रोधभयेन, व्यतिद्राते स्म परस्परब्यतिहारेण पलायेते स्म पलायन्ते स्म च, गृहस्य निभृतताविधानार्थमिति भावः / द्रा कुस्सायां गताविति धातोर्लटि 'कर्तरि कर्मः व्यतिहारे' इत्यात्मनेपदम् , 'अदादित्वात् शपो लुक् / अत्र प्रथमपुरुषस्य द्विवचनबहुबचनयोः समान रूपम् , एवं ते इत्यत्रापि स्त्रियां द्वित्वे पुंसि बहुत्वे च समानरूपम् // 138 // ___ 'हे धृष्ट दोनों सखियां ! यहां से दूर हटो, तुम दोनोंके ग्राम्यत्वमाषणके स्वभावको धिक्कार है, ऐसा कहनेपर (या-ऐसी कही गयीं ) वे दोनों सखियां भयसे भाग गयीं और ऐसा कहे हुए वे ( कञ्चकी मी) उन्हें डराने के व्याजसे स्वयं चले गये // 138 // आह स्म तदगिरा हीणां प्रियां नतमुखीं नलः / ईहरभण्डसखीकाऽपि निस्त्रपा न मनागपि / / 139 / / आहेति / अथ नलः नैषधः, तयोः कलातत्सख्योः, गिरा 'वच्यावः तत्परम्' इत्यादिकया वाचा, हीणां लजिताम् , अत एव नतमुखीम् अवनतवदनाम , प्रियां दमयन्तीम् , आह स्म उवाच / किमित्याकाङ्क्षायां सार्द्धश्लोकेनाह-ईदृशौ एव. म्भूते भण्डे निर्लज्जे, सख्यो वयस्ये यस्याः सा तादृशी अपि ईगभण्डसखीकाऽपि / 'नद्यतश्च' इति कप समासान्तः / त्वमिति शेषः / मनाक अपि ईषदपि, निस्त्रपा निर्लज्जा न, भवसीति शेषः। यस्याः खलु सख्यः एवं निर्लजाः, तस्यास्तवापि नैर्लज्ज्यमेव युज्यते, भवती तु न तादृशीति महांस्ते चरित्रोत्कर्षः इति भावः // 139 // उन ('कला' तथा उसकी सखी ) के वचन ( 201136 ) से लज्जित एवं नम्रमुखी प्रिया ( दमयन्ती ) से नलने कहा-ऐसी भण्ड ( अश्लीलभाषिणी) सखियोंवाली भी ( तुम ) थोड़ा भो निर्लज्ज नहीं हो (यह आश्चर्य है / अथवा-अत एव तुम आदर्श चरितवाली हो। 1. इतोऽनन्तरमत्र म० म०शिवदत्तशर्माण:--'न गतिहिंसार्थभ्यश्च' इत्यात्मनेपदनिषेधाञ्चिन्त्यमेव / 'बहिर्भावमात्रविवक्षायां गत्यर्थत्वाभावादात्मनेपदमिति यथा कथचिस्समर्थनीयम् / प्रकारान्तरं वा गवेषणीयम् इति सुखावबोधा' इत्याहः / 'प्रकाश'-कृतश्च 'द्रातः परस्मैपदित्वादात्मनेपदं चिन्त्यमित्याहुः। 2. 'मनागसि' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1370 नैषधमहाकाव्यम् / अथवा-अत एव तुम्हें मी सम्भोगार्थ लज्जाका त्याग कर देना चाहिये। अथवा- ऐसी ('कला' तथा उसकी सखीके समान ) अश्लीलभाषिणी एवं निर्लज्ज कोई भी सखी थोड़ी (कहीं ) मी नहीं है अर्थात् इन दोनों के समान अश्लीलभाषिणी एवं निर्लज्ज सखी मैंने कहीं भी नहीं देखा है ) // 139 // अहो ! नापत्रपाकं ते जातरूपमिदं मुखम् / नातितापार्जनेऽपि स्यादितो दुर्वर्णनिर्गमः / / 140 / / अहो इति / जातरूपं जातं सम्भूतम् , रूपं सौन्दर्य यस्य तादृशम् , सम्पन्न सौन्दर्यम् , स्वर्णसदृशमित्यर्थः / सुवर्ण च / 'सुवर्णश्चामीकरं जातरूपम्' इत्यमरः / इदं दृश्यमानम् , ते तव, मुखं वदनम् , अपगता दूरीभूता, पा लज्जा यस्मात् तत् अपत्रपम् / शैषिकः कप्प्रत्ययः। तत् न भवतीति नापत्रपाकं सलज्जमिति यावत् / नञर्थेन न-शब्देन समासः। दृश्यते इति शेषः। 'लज्जा रूपं कुलस्त्रीणाम्' इति नीतिशास्त्रात् सलज्ज ते वदनम् अतीव रमणीयदर्शनं जातमिति निष्कर्षः / अन्यत्र-पत्रस्य पत्रोकृतस्य, कण्टकवेधयोग्यतनूकारितस्येत्यर्थः / यद्वा-पत्रे पात्रविशेषे इत्यर्थः / द्रवीकरणार्थ मृद्भाजनविशेषे इति यावत् / पाकः दग्धीकरणं द्रवीकरणं वा, विशुद्धितासम्पादनाय इति भावः। पत्रपाकः तद्रहितम् अपत्रपाकं न भवतीति नापत्रपाकं पत्रपाकविशुद्धमेवेत्यर्थः / अतितापार्जनेऽपि सखीकृतपरिहासजनितलज्जानिबन्धनपीडाप्राप्तावपि, अत्यन्त दाहकरणेऽपि च, इतः अस्मात् , शोभनवर्णयुक्तात् मुखात् , सुवर्णाच्च, दुर्वर्णनिर्गमः कर्कशवचननिर्गमः, श्यामिकानि. गमश्च, न स्यादिति विरोधः, अत एव अहो! आश्चर्यम् !, सखीकृतप्रबलदुःखोत्या. तेऽपि मुखात् दुरक्षरनिर्गमनं न स्यादिति चित्रमिति विरोधपरिहारात् विरोधाभासोऽलङ्कारः॥ 140 // ( नलने दमयन्तीसे कहा हे दमयन्ति !) सौन्दर्य-सम्पन्न ( जातरूप = सुवर्ण और सुवर्ण सदृश ) यह ( दिखाई पड़नेवाला ) तुम्हारा मुख नापत्रपाकं-लज्जा से रहित नहीं है अर्थात् 'लज्जारूपं कुलस्त्रीणां' इस नीतिशास्त्र के अनुसार सलज तुम्हारा मुख अति रमणीय दीख रहा है / ( सुवर्णपक्षमें नापत्रपाकं अर्थात् पीटकर कण्टक-वेध-योग्य पतला किया गया सुवणे का भस्मीकरण अथवा पत्र-पात्र-विशेषमें द्रवीकरणसे रहित अर्थात् पत्रपाकसे विशुद्ध ही है। ) सखियों द्वारा किये गये परिहास से उत्पन्न अतिताप (मनकी पीड़ा ) के प्राप्त होनेपर भी ( सुवर्णपक्षमें अतितापार्जनेऽपि अत्यन्त तपाने पर भी ) इस सुन्दर वर्णयुक्त तुम्हारे मुखसे दुर्वर्णनिर्गम कठोर वचन नहीं निकल रहा है (सुवर्णपक्षमें सुवर्णसे कालापन नहीं निकल रहा है ) यह आश्चर्य है / सखियोंके परिहाससे प्रवल दुःखके उत्पन्न होनेपर तुम्हारे मुखसे कठोर वचन नहीं निकल रहा है यह आश्चर्य है इस विरोधके परिहारसे यहां विरोधाभास अलंकार है / / 140 //
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________________ विंशः सर्गः 1371 तामथैष हृदि न्यस्य ददौ तल्पतले तनुम् / निमील्य च तदीयाङ्ग-सौकुमार्यमसिस्वदत् / / 141 // तामिति / अथ उक्तरूपभाषणानन्तरम् , एष नलः, तां प्रियाम् , हृदि वक्षसि, न्यस्य निधाय, तल्पतले शय्योपरि, तनुं स्वदेहम् , ददौ स्थापितवान् , शयितवान् इत्यर्थः / तथा निमील्य चक्षुषी मुद्रयित्वा, इत्यानन्दानुभवोक्तिः। प्रगाढसुखानु. भवकाले चतुर्निमीलनस्य लोकदृष्टरवादिति बोध्यम् / तदीयाङ्गस्य प्रियाशरीरस्य, सौकुमार्य मार्दवम् , असिस्वदत् अनुबभूव इत्यर्थः / स्वदेो चङ्यपधाहस्वः // 14 // इस ( ऐसा ( 20 / 140 ) कहने) के बाद ये ( नल ) उस ( दमयन्ती) को हृदयपर रखकर अर्थात् आलिङ्गनकर पलङ्गपर लेट गये और ( आलिङ्गनोत्पन्न सुखसे ) नेत्रोंको बन्दकर उसके अङ्गोंकी सुकुमारताका आस्वादन ( अनुभव ) किये // 141 // न्यस्य तस्याः कुचद्वन्द्व मध्येनीवि निवेश्य च / / स पाणः सफलं चक्रे तत्करग्रहणश्रमम् // 142 // न्यस्येति / स नलः, तस्याः भैम्याः, कुचद्वन्द्वे स्तनयुगे, न्यस्य निधाय, पाणिमिति शेषः / मध्येनीवि नीवीमध्ये, कटीवस्त्रबन्धनमध्ये इत्यर्थः। 'पारे मध्ये षष्ठया वा' इत्यव्ययीभावः / निवेश्य प्रवेश्य च, स्वपाणिमिति शेषः / पाणेः स्वकरस्य, तस्करग्रहणश्रमं दमयन्तीपाणिग्रहणायासम् , सफलं सार्थकम् , चक्रे विदधे / ताहग्विधः प्रियास्पर्शस्तस्य महदानन्दफलमित्यर्थः॥ 142 // उस ( नल ) ने हाथको उस ( दमयन्ती ) के दोनों स्तनोंपर रखकर तथा नीवीके बीचमें डालकर हाथके उस ( दमयन्ती ) के साथ करग्रहण (विवाह ) के श्रमको सफल किया [ दमयन्तीके करग्रहणमें जो हाथका श्रम हुआ था, उस हाथको दमयन्तीके स्तनोंका मर्दनकर तथा नीवीमें प्रविष्टकर चरितार्थ किया। अथवा-उस कर (राजग्राह्य भागविशेष ) के ग्रहणके श्रमको सफल किया। अथवा-अपने हाथसे दमयन्तीको रोकने में जो श्रम हुआ था, उसे सफल किया ] // 142 / / स्थापितामुपरि स्वस्य तां मुदा मुमुदे वहन् | तदुद्वहनकत्त त्वमाचष्ट स्पष्टमात्मनः // 143 / / स्थापितामिति / मुदा हर्षेण, स्वस्य आत्मनः, उपरि वासि, स्थापितां निहि. ताम, तां प्रियाम, वहन् धारयन् , मुमुदे आननन्द,नलः इति शेषः / तथा आस्मनः स्वस्य, तस्याः भैम्याः, उद्वहने विवाहे, कत्त त्वम् अधिकारित्वम् , स्पष्टं सुव्यक्तम् , आचष्ट कथयामास / अनुद्वहतः एवमुरसि वहनायोगादिति भावः॥ 143 // हर्षसे अपने ऊपर ( वक्षःस्थलपर) स्थापित उस (दमयन्ती) का वहन करते हुए उस (नल ) ने स्वकृत उस (दमयन्ती ) के .उद्वहनकर्तृत्वको ( मैंने दमयन्तीका उदहन 86 नै० उ०
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________________ 1372 नैषधमहाकाव्यम् / (उसके साथ विवाह ) पक्षा०-ऊपर रखकर वहन किया है, इस बातको) स्पष्टरूपसे कह दिया। [ मैंने दमयन्तीको उद्वहन विवाह किया है, पक्षा०-ऊपर लेकर धारण किया है। इस बातको नलने दमयन्तीको अपनी छातीपर लिटाकर धारण करते हुए स्पष्टतः कह दिया ] // 143 // स्विद्यत्कराङ्गुलोलुप्तकस्तूरीलेपमुद्रया / फूकार्यपीडितौ चक्रे स सखीषु प्रियास्तनौ / / 144 // स्विद्यदिति / सः नलः, प्रियायाः भैम्याः, स्तनौ कुचौ, स्विद्यन्तीभिः सत्वादयात् धर्मोदकाीभवन्तीभिः, कराङ्गुलीभिः निजकरशाखाभिः, लुप्तः प्रमृष्टः, यः कस्तूरी. लेपः मृगमदप्रदेहः, मृगमदकृतपत्रावलीत्यर्थः / सः एव मुद्रा चिह्नम् , स्तनपीडनविषये इति भावः / तया, सखीषु वयस्यासु विषये, फूत्कार्य फूस्कारेण उच्चस्तरमुखानिलेन प्रशमनीयम , पीडितं पीडनम , पीडनजनितवेदना इत्यर्थः / ययोः तौ तादृशौ फूरकार्यपीडितो, चक्रे विदधे / नलः भैमीकुचौ तथा पीडयामास, यथा नलस्य सात्विकभावोत्थधर्मोदकक्लिन्नाङ्गुलीभिः कुचयोः पत्रलेखाः प्रोन्छिता जायन्ते, मुख्यश्च तद् दृष्ट्वा प्रगाढपीडनेन कुचयोवेदनां तीव्रामनुमाय फूत्कारेण तां प्रशमयितुम् अयतिषत इति निष्कर्षः // 144 // ___ उस ( नल ) ने ( सात्त्विक भावके उदय होनेसे ) पसीजती ( स्वेदजलसे आई होती) हुई अङ्गुलियोंसे नष्ट हुए ( पोंछे गये ) कस्तूरीलेपके चिह्नसे प्रिया ( दमयन्ती) के स्तनों को फूंकने योग्य पीडावाला (जिसे फूंक-फूंककर दूर किया जाय ऐसी पीडासे युक्त, पाठा०पुकारकर उच्च स्वरसे कहने योग्य पीडावाला ) कर दिया / [ दमयन्तीके स्तनोंकी कस्तूरी लेपको नलकी स्वेदाई अङ्गुलियोंसे नष्ट हुआ देखकर 'नलने इन्हें अतिशय पीडित किया है' ऐसा समझकर सखियां मुखसे फूंक-फूंककर उसे पीडारहित करेंगी, ऐसा बना दिया / पाटा०-........"-सखियां जोर-जोरसे कहने लगेंगी कि 'नलने इसे अतिशय पीडित किया है। ] // 144 // तत्कुचे नखमारोप्य चमत्कुर्वस्तयेक्षितः / सोऽवादीत्तां हृदिस्थं ते किं मामभिनदेष न ? / / 145 / / तदिति / स नलः, तत्कुचे दमयन्तीस्तने, नखं कररुहम् , आरोग्य निखाय, चमत्कुर्वन् स्वयमेव आश्चर्येण सञ्जातरोमाञ्चो भवन् , तथा तया दमयन्त्या, ईक्षितः सस्मितमवलोकितश्च सन् , एष 'नखः, ते तव, हृदिस्थं हृदयान्तर्गतम् / 'सुपि स्थः' इति कप्रत्ययः, 'हृद्यभ्याञ्च' इत्युपसङ्ख्यानात् सप्तम्याः अलुक। मां नलम् , न अभिनत् न व्यदारयत्, किम् ? अपि तु अभिनदेव / नो चेत् ममाङ्गेष्वपि कथं चमत्कारनिबन्धना रोमाञ्चाः समुत्पन्ना इति भावः / इति तां दमयन्तीम्, अवादीत्
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________________ विंशः सर्गः। 1373 अकथयत् / अत्र भैमीकुचनिष्ठस्य नखक्षतस्य नलहृदये चमत्कारजननात् असङ्गत्य. लङ्कारः, 'कार्यकारणयोभिन्नदेशतायामसङ्गतिः' इति लक्षणात् // 145 // वे ( नल ) उस ( दमयन्ती ) के स्तनपर नखक्षत करके स्वयं चिहुकते हुए तथा (नख. क्षत करनेसे ) उस दमयन्तीसे अवलोकित होकर उस ( दमयन्ती) से बोले कि-'इस नखने तुम्हारे हृदयमें रहनेवाले मुझको नहीं भेदन किया क्या ? अर्थात् अवश्य भेदन किया, अन्यथा मैं इस नखक्षतसे सहसा क्यों चिहुक गया ? // 145 // अहो ! अनौचितीयं ते हृदि शुद्धेऽप्यशुद्धवत् / अङ्कः खलैरिवाकल्पि नखैस्तीक्ष्णमुखैर्मम / / 146 // अहो इति / हे प्रिये ! तीचगमुखैः निष्ठुरवाग्भिः, खलैरिव असजनैरिव, तीक्ष्णमुखैः निशिताः , मम मे, नखैः कररुहैः, शुद्ध अदुष्टेऽपि, ते तव, हृदि हृदये, कुचे इति यावत् , अशुद्धवत् अशुद्ध इव, सदोषे इवेत्यर्थः / 'तत्र तस्येव' इति वतिप्रत्ययः / अङ्कः कलङ्कः, चिह्नञ्च, अकल्पि कल्पितः कृत इत्यर्थः, अहो! इति खेदे, इयं निर्दोषेऽपि दोषकल्पना, अनौचिती अयुक्तम्, अभूदिति शेषः। अहो इति 'ओत्' इति प्रगृह्यसंज्ञायां 'प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्' इति प्रकृतिसन्धिः // 146 // तीक्ष्णाग्र इन मेरे नखों ने तुम्हारे निर्दोष स्तनोंपर जो ( नखक्षतके द्वारा) चिह्न ( पक्षा०–कलङ्क) कर दिया, वह उस प्रकार अनुचित है, जिस प्रकार कटु भाषण करने. वाले दुष्टोंका दोषरहित व्यक्तिमें भी सदोष होनेका कलङ्क लगाना अनुचित होता है, अहो ! यह ( मेरे नखका अनुचित बर्ताव ) करना आश्चर्य है / [ यहाँपर नलने स्वकृत नखक्षतका दोषरुष्ट दमयन्तीको प्रसन्न करने के लिए ही स्वयं कहा है ] // 146 // यच्चुम्बति नितम्बोरु यदालिङ्गति च स्तनौ / भुङ्क्ते गुणमयं तत्ते वासः शुभदशोचितम् / / 147 // यदिति / हे प्रिये ! गुणमयं सूक्ष्मतन्तुरचितं सौशील्यादिविशिष्टश्च, ते तव, चासः वसनं, कश्चित् सुभगपुरुषश्च / कत्त / नितम्बो ऊरू च नितम्बोरु नितम्बद्वयं सक्थिद्वयञ्च / प्राण्यङ्गत्वात् द्वन्द्वैकवद्भावः। यत् चुम्बति स्पृशति, ओष्ठाधरस्पृष्टं करोति च, यक्ष स्तनौ कुचौ, आलिङ्गति आश्लिष्यति, तत् शुभदशानां शुभानां शोभनानाम् , दशानां प्रान्तवर्तितन्तूनाम् , ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धशुक्रादिशुभग्रहाव. स्थानाच, उचितम् अहम् , भुङ्क्ते एकत्र-स्पर्शरूपं भोगं करोति, सुहश्यदशासमा वितवसनस्यैव तव प्रियत्वेन तद्धारणादिति भावः। अन्यत्र-भोगात्मकं सुखमनु. भवति, शुभग्रहाणां दृष्टिं विना तव नितम्बादिस्पर्शरूपभोगासम्भवादिति भावः। 'दशाऽवस्थादीपवर्योः वस्त्रान्ते भूग्नि योषिति' इति मेदिनी / 'शुभग्रहदशायां हि भुङ्क्ते जनः शुभं फलम्' इति // 147 // गुणयुक्त ( महीन सूतसे बुना गया, पक्षा०-औदार्य शौर्यादि गुणसहित) तुम्हारा
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________________ 1374 नैषधमहाकाव्यम् / वस्त्र ( पक्षा०-कोई सौभाग्यशाली पुरुष ) तुम्हारे नितम्बों एवं ऊरुओंका जो स्पर्श ( पक्षा०-चुम्बन ) करता है तथा स्तनोंका आलिङ्गन करता है; वह शुभ दशा (किनाराकपड़ेकी धारी अर्थात् कोर, पक्षा०-ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्ध पूर्व पुण्य प्राप्त ग्रहावस्था ) के योग्य भोगता ( स्पर्श करता, पक्षा०-भोगरूप सुख पाता ) है। [गुणवान्को ही तुम्हारे नितम्ब तथा ऊरुका स्पर्श एवं स्तनोंका आलिङ्गन प्राप्त होता है; अत एव यह वस्त्र धन्य है, जिते तुमने पहना है ] // 147 // लीनचीनांशुकं स्वेदि दरालोक्यं विलोकयन् | __ तन्नितम्बं स निःश्वस्य निनिन्द दिनदीघताम् // 148 // लीनेति / सः नलः, स्वेदि सात्विकोदयात् घक्तिम् , अत एव लीनं नितम्बेन सह एकीभूतभावेन संलग्नम् , चीनांशुकं सूक्ष्मवस्त्रविशेषो यत्र तादृशम् , अत एव दरालोक्यम् ईषल्लक्ष्यम, तस्याः भैम्याः, नितम्बं श्रोणोदेशम् , विलोकयन् पश्यन् , निःश्वस्य दीर्घ श्वासवायुं त्यजन् , इति विषादानुभवोक्तिः, दिनस्य दिवसस्य, दीर्घताम् अधिककालं व्याप्य स्थायिताम् , निनिन्द गर्हयामास / दिवा सुरतनिषे. धात् तत्करणाक्षमस्वाद् विषादं प्राप दिवावसानमभिललाष च इति भावः // 148 // ( सात्त्विक भावका उदय होनेसे ) स्वेदयुक्त, चिपके हुए महीन वस्त्रवाले तथा कुछ दिखलायी पड़ने योग्य उस ( दमयन्ती ) के नितम्बको देखकर उस ( नल ) ने लम्बा श्वास लेकर दिनके बड़े होनेकी निन्दा की / [ दिनमें मैथुन करनेका निषेध होनेसे नलने लम्बा श्वास लिया और दिनको बड़े होनेकी निन्दा करते हुए उसका शीघ्र अन्त चाहा ] // 148 / / देशमेव ददंशासौ प्रियादन्तच्छदान्तिकम् / चकाराधरपानस्य तत्रैवालीकचापलम् / / 146 // देशमिति / असौ नलः, प्रियादन्तच्छदस्य भैम्याः अधरस्य, अन्तिकं समीपव. तिनम् , देशं स्थानमेघ, चिबुकमेवेत्यर्थः / ददंश दृष्टवान् , तथा तत्रैव दष्टदेशे एव, अधरपानस्य निम्नौष्ठचुम्बनस्य, अलोकचापलं मिथ्याचपलताम् , निरर्थकप्रयास. मित्यर्थः / चुम्बनशब्दतुल्यं शब्दमिति भावः / चकार विदधे / चुम्बनस्य रत्युद्दीप. कत्वात् रमणाङ्गत्वाच्च दिवा च रमणनिषेधात् तथा 'रतिकाले मुखं स्त्रीणां शुद्धः माखेटके शुनाम्' इति स्मृत्या तस्य कालान्तरे अशुद्धत्वाच्च न तु अधरं चुचुम्ब इति भावः // 149 // ____ इस ( नल ) ने प्रिया ( दमयन्ती ) के अधरके समीपदेश ( चिबुक, कपोल आदि ) में ही दन्तक्षत किया और वहींपर ( उन्हीं चिबुक कपोलादि स्थानों में ) चुम्बनका मिथ्या प्रयास किया / [ चुम्बनको रत्युद्दीपक होनेसे रमणका अङ्ग होनेके कारण नलने रमणकाल (रात्रिमें रमण करते समय ) में ही स्त्रियोंका मुख शुद्ध तथा कालान्तर (रमणमिन्न-समय अर्थात् दिन ) में अपवित्र होनेसे अतिशय रमणेच्छुक होनेपर भी अधर चुम्बन नहीं किया,
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________________ विशः सर्गः। 1375 किन्तु चिबुकादि देशमें ही 'चुकृति' पूर्वक चुम्बन-सुखका अनुभव कर कथञ्चित् सन्तोष किया; इससे नलका परम धार्मिक होना सूचित होता है / 'प्रकाश'कारके अनुसार'अतिशय रमण करनेका इच्छुक होनेसे चिबुकादि स्थानोंमें दन्तक्षत करके 'चिबुकादि देशसे अधर देशतक जाने के अल्पतम विलम्बको भी असहिष्णु होनेसे, अथवा-चिबुकादि स्थानमें ही अधरका भ्रम होनेसे नलने वहींपर (चिबुकादि देशमें ही ) चुम्बन-सुखका अनुभव किया ऐसा अर्थ होता है। इस अर्थको स्वीकार करनेपर भी 'आत्मवित्सह तया( 18 / 2 )' के अनुसार आत्मज्ञानी नलको शास्त्रविरुद्धाचरण करनेका दोष नहीं होता, यह समझना चाहिये // 149 / / / न क्षमे चपलापाङ्गि ! सोढुं स्मरशरव्यथाम / तत् प्रसीद प्रसीदेति स तां प्रीतामकोपयत् / / 150 // अथास्य कालक्षेपरवलक्षणमौत्सुक्यमेव श्लोकद्वयेनाह-नेत्यादि / चपलापाङ्गि ! हे चञ्चलाक्षि ! स्मरशरैः कामबाणैः, या व्यथा वेदना तां तत्कृतां पीडाम् , सोलु क्षन्तुम् , न क्षमे न शक्नोमि / तत् तस्मात् , प्रसीद प्रसीद प्रसन्ना भव प्रसन्ना भव, सुरताय सदया भव इति भावः / इत्येवमुक्त्वा, सः नलः, प्रीतां परिहासादिभिः प्रियवाक्यशतेन च मुदिताम् अपि, तां प्रियाम्, अकोपयत् अक्रोधयत् , दिवा मथुनस्य निषिद्धत्वात् तत्प्रार्थनया कोपः इति बोध्यम् , ताहशभावश्च कालक्षेपायव इत्यपि मन्तव्यम् // 150 // 'हे चपल नेत्रोंवाली ( दमयन्ती ) ! कामबाणकी पीडाको नहीं सह सकता हूँ, इस कारणसे प्रसन्न होवो, प्रसन्न होवो अर्थात् अतिशीघ्र प्रसन्न होकर रमण करो' ऐसा कहकर नलने ( पूर्वकृत परिहासादिसे ) प्रसन्न की गयी भी उस ( प्रिया दमयन्ती) को पुनः क्रुद्ध कर दिया। [दिनमें रमण करने का निषेध होनेसे नलके आतुर होकर प्रार्थना करनेपर दमयन्ती क्रुद्ध हो गयी / समय-यापन के लिए ही चतुर नलने प्रसन्न प्रियाको भी पुनः क्रुद्ध कर दिया, यह समझना चाहिये ] // 150 / / नेत्रे निषधनाथस्य प्रियाया वदनाम्बुजम् | ततस्स्तनतटौ ताभ्यां जघनं घनमीयतुः / / 151 / / नेत्रे इति / निषधनाथस्य नलस्य, नेत्रे दृशौ, 'प्रियायाः कान्तायाः, वदनाम्बुजं मुखकमलम्, ईयतुः प्रापतुः, ततः वदनाम्बुजात् , स्तनतटौ कुचोत्सङ्गभागौ, ईयतुः, ताभ्यां स्तनतटाभ्यां समीपात् , घनं निबिडम्, जघनं नितम्बम, ईयतुः। अतीव कामपीडितत्वादिति सर्वत्र भावः / अत्र नेत्रयोः क्रमात् अनेकस्थानसंवादात् 'क्रमणकमनेकस्मिन्' इत्याद्यक्तलक्षणपर्यायालङ्कारः // 151 // नलके दोनों नेत्रोंने ( पहले ) प्रिया ( दमयन्ती ) के मुख कमलको प्राप्त किया, तद१.'-व्यताम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1376 नैषधमहाकाव्यम् / नन्तर स्तनतटको प्राप्त किया और तदनन्तर सघन जधनको प्राप्त किया अर्थात् नलने पहले दमयन्तीके मुखकमलको, तदनन्तर स्तनतटको तदनन्तर परस्परमें आश्लिष्ट जघनको देखा / [ यहाँपर मुखादिके साथ 'अम्बुज, तट तथा घन' शब्दका प्रयोग करनेसे उनकी दर्शनीयता सूचित होती है ] // 151 // इत्यधीरतया तस्य हठवृत्तिविशङ्किनी / झटित्युत्थाय सोत्कण्ठमसावन्वसरत् सखीः / / 152 / / इतीति / इति उक्तप्रकारया, तस्य स्वप्रियस्य नलस्य, अधीरतया कामजचाच. ल्येन हेतुना, हठवृत्तिं बलात्कारप्रवृत्तिम्, विशङ्कते सम्भावयतीति सा तादृशी, असौ भैमी, झटिति सहसा, उत्थाय उद्गग्य, नलवक्षोदेशादिति भावः। सोत्कण्ठं सोत्क. लिकम्, त्वरितप्रस्थानार्थमुत्सुका सतीत्यर्थः / सखीः वयस्याः, अन्वसरत् अन्वगच्छत् // 152 // इस प्रकार ( 20 / 150-151) उस ( नल) को अधीरतासे ( सुरतार्थ) बलात्कार करनेकी आशङ्का करती हुई वह ( दमयन्ती) बहुत शीघ्र (पङ्क, या-नलके वक्षःस्थल ) से उठकर उत्कण्ठा सहित हो सखियों के पीछे चली / [ अत्यन्त रसासक्त होना दोषोत्पादक है तथा रसका त्याग भी नायकके नीरसताका उत्पादक है; अत एव यहांपर कविसम्राट श्रीहर्षने रसान्तरका वर्णनकर सम्भोग शृङ्गारको चरमसीमा तक पहुँचाने के लिए दमयन्ती तथा नलको भिन्न स्थानमें पहुंचाने का उपक्रम किया है ] // 152 / / न्यवारीव यथाशक्ति स्पन्दं मन्दं वितन्वता / भैमी कुचनितम्बेन नलसम्भोगलोभिना / / 153 // न्यवारीवेति / भैमी दमयन्ती, नलस्य नैषधस्य, सम्भोगलोभिना मर्दनस्पर्शना. दिरूपसम्भोगलालसेन, कुचनितम्बेन स्तनद्वयेन जघनयुग्मेन च / प्राण्यङ्गत्वादेका वद्भावः / अत एव स्पन्दं भैम्या एव गमनम्, मन्दं मन्थरम्, स्वल्पीभूतमित्यर्थः / वितन्वता कुर्वता सता, गति प्रतिबध्नता इत्यर्थः। आत्मनोरतिपीनत्वेन गुरुभार. त्वादिति भावः / यथाशक्ति सामर्थ्यानुसारेण, न्यवारीव निवारिता, सम्भोगप्रति. बन्धात् खिन्नेन सता अलब्धभोगा मा गच्छ इति न्यषेधीव इत्युत्प्रेक्षा // 153 // ___ नल के साथ सम्भोग करनेके लिए लोभी ( अत एव अधिक भारयुक्त होनेसे दमयन्ती के) गतिको मन्द करनेवाले स्तनों तथा नितम्बोंने यथाशक्ति मानो दमयन्तीको ( नलको छोड़कर जानेमें ) निषेध-सा किया। [ स्तनों तथा नितम्बोंके बड़े-बड़े होनेसे दमयन्ती उत्कण्ठान्वित होती हुई भी शीघ्रगतिसे नहीं जा सकी ] // 153 / / अपि श्रोणिभैरस्वैरां धत्तु तामशकन्न सः।। तदङ्गसङ्गजस्तम्भो गजस्तम्भोरुदोरपि // 154 // 1. '-भरास्वैराम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1377 अपीति / सः नलः, गजस्तम्भौ आलाने इव, हस्तिबन्धनस्थूणे इवेत्यर्थः / उरू महान्ती, दोषौ भुजौ यस्य सः ताहशोऽपि महाभुजोऽपि / 'भुजबाहू प्रवेष्टो दोः' इत्यमरः / तस्याः दमयन्त्याः , अङ्गसङ्गात् देहस्पर्शात् , जायते उत्पद्यते इति तादृशः, स्तम्भः निष्क्रियाङ्गतालक्षणसात्त्विकविकारः यस्य सः तादृशः सन् , श्रोणिभरेण नितम्बभारेण, स्वैरां मन्द मन्दगमनामपि इत्यर्थः / 'मन्दस्वच्छन्दयोः स्वैरम्' इत्यमरः / ता प्रियाम् , धत्त ग्रहीतुम् , निरोधुमिति यावत् / न अशकत् न सम. र्थोऽभूत् / स्वयं निर्व्यापारस्य किं सहकारिसम्पदा ? इति भावः // 154 // (हाथी बाँधनेके खम्भेके समान लम्बे तथा विशाल बांहुवाले होते हुए भी उस ( दमयन्ती) के शरीर-स्पर्शजन्य स्तम्भ ( 'जडता' रूप सात्त्विक भाव ) युक्त उस (नल ) ने नितम्बों के भारसे मन्दगामिनी ( पाठा०-पराधीन-इच्छानुसार तीव्रगतिसे नहीं चल सकनेवाली ) उस ( दमयन्ती ) को नहीं पकड़ सके / [ क्योंकि कर्तव्यशून्य व्यक्तिके सहायक कुछ भी नहीं कर सकते हैं ] / / 154 // आलिङ्गालिङ्ग तन्वङ्गि ! मामित्यर्द्धगिरं प्रियम् / स्मित्वा निवृत्य पश्यन्ती द्वारपारमगादसौ // 155 / / पालिङ्गेति / असौ भैमी, तन्वनि ! हे कृशाङ्गि! मां नलम् , आलिङ्ग आलिङ्ग आश्लिष आश्लिष, इति एवम्, अर्द्धा अन्यकत्त कश्रवणभयात् अर्द्धस्फुटा, गीः वाक यस्य तं तादृशम्, प्रियं पतिम्, स्मिस्वा मन्दं हसित्वा, निवृत्य, परावृत्य, पश्यन्ती अवलोकयन्ती सती, द्वारस्य कपाटस्य, पारं चरमभागम् , अगात् गतवती / द्वारम् अतिचक्राम इत्यर्थः॥ 155 // _ 'हे तन्वनि ! मेरा आलिङ्गन करो, आलिङ्गन करो' ऐसा आधा ( दूसरेके सुननेके भयसे अस्फुट या-वाक्य शेष उच्चारण करने में नलके असमर्थ होनेसे अोक्त) वचन (कहने) वाले प्रिय (नल) को स्मितकर तथा लौटकर देखती हुई यह (दमयन्ती) दरवाजेसे बाहर चली गयी। प्रियस्याप्रियमारभ्य तदन्तर्दूनयाऽनया / शेके शालीनयाऽऽलिभ्यो न गन्तुं न निवर्तितम् / / 156 // .. प्रियस्येति / प्रियस्य पत्युः नलस्य, अप्रियम् अतिक्रमरूपम् अप्रीतिजनकः व्यापारम, तं विहाय गमनरूपव्यापारमित्यर्थः / आरभ्य आचरित्वा, तेन अप्रिया. चरणेन, तदित्यत्र 'तम्' इति पाठे-तं पूर्वोक्तरूपमप्रियमित्यर्थः। अन्तः अन्तःकरणे, दूनया परितप्तया / 'ओदितश्च' इति निष्ठा 'नत्वम् / शालीनया अपृष्टया, स्वभावत एव सलज्जया इत्यर्थः / अनया भैम्या, आलिभ्यः सखीभ्यः, गन्तुम् अपि यातुमपि / 'गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौँ चेष्टायामनध्वनि' इति चतुर्थी / न शेके न शक्तम् / भावे लिट् / अन्तर्दूनस्वादिति भावः / तथा निवर्तितुं प्रियं प्रत्यागन्तुञ्च, प्रियसनिधी 1. 'तमन्त-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1378 नैषधमहाकाव्यम् / प्रत्यावर्त्तनं कतमित्यर्थः / न शेके इत्यनेनान्वयः / शालीनतयैवेति भावः / लज्जा. विषादाभ्याम् उभयत आकृष्यमाणत्वादिति तात्पर्यम् // 156 // प्रिय ( नल ) का अप्रिय ( सम्भोगेच्छातिक्रमणकर गमनरूपकार्य) करके अन्तःकरणमें पश्चात्तापयुक्त यह ( दमयन्ती ) सखियों के प्रति नहीं जा सकी और धाष्टर्थाभावयुक्त अर्थात् अतिशय लज्जाशीला होनेसे लौट भी नहीं सकी [प्रियका अप्रियाचरणकर विना उन्हें प्रसन्न किये चला जाना अनुचित समझकर दमयन्ती द्वारदेशको लाँधकर आगे सखियोंके पास नहीं जा सकी तथा 'हमलोगों के पीछे आकर भी यह दमयन्ती सम्भोग करने के लिए पुनः नलके पास चली गयी ऐसा सखियां मनमें कहेंगी इस लज्जासे, अथवा-'यह पहले तो शानमें चली गयी और अब फिर स्वयं चलो आयो' ऐसी नलके प्रति हो उत्पन्न लज्जासे वह दमयन्ती द्वारदेशको लाँधकर कुछ देर तक रुक गयी ] // 156 // अकथयदथ वन्दिसुन्दरी द्वाःसविधमुपेत्य नलाय मध्यमह्नः / जय नृप! दिनयौवनोष्मतप्ता प्लबनजलानि पिपासति क्षितिस्ते।।१५७।। अकथयदिति / अथ दमयन्तीनिर्गमनानन्तरम्, वन्दिसुन्दरी काचित् वैतालिकस्त्री, शुद्धान्तःपुरे पुरुषप्रवेशनिषेधादिति भावः। द्वाःसविधं द्वारसमीपम्, उपेत्य समा. गत्य, नृप ! हे राजन् ! जय सर्वोत्कर्षेग वर्तस्व, अह्नः मध्यं मध्याह्नकालः समागत इत्यर्थः / अत एव दिनस्य दिवसस्य, यौवन तारुण्यम्, पूर्णावस्था इत्यर्थः / मध्याह्नः इति यावत् / तस्य उष्मणा सन्तापेन, तप्ता उष्णीभूता, क्षितिः धरणी, ते तव, प्लवनजलानि स्नानोदकानि, पिपासति पातुमिच्छति, तापस्य पिपासाहेतुत्वादिति भावः / इति नलाय नैषधाय, अकथयत् अवदत् , माध्याह्निकस्नानकालोऽयमवधार्य तामिति तात्पर्यार्थः / / 157 // __इस ( दमयन्तीके बाहर चले जाने ) के बाद बन्दीकी स्त्रीने द्वारके समीप आकर मध्याह्नकाल होने की सूचना दी-'हे राजन् ! विजयी होवें, दिनके तारुण्यकी उष्णतासे सन्तप्त पृथ्वी आपके स्नानजलको पीना चाहती है अर्थात् आपके स्नानका समय हो गया है // 157 // उपहृतमधिगङ्गमम्बु कम्बुच्छवि तव वाञ्छति केशभङ्गिसङ्गात् / अनुभवितुमनन्तरं तरङ्गासमशमनस्वसृमिश्रभावशोभाम् // 158 / / उपेति / किञ्च, कम्बुच्छवि शङ्कच्छायम् , शङ्कायत शुभ्रप्रभमित्यर्थः / अधिगङ्गं गङ्गायाः / विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः / उपहृतम् आनीतम् , कलशेन गङ्गातः समानी. तमित्यर्थः / अम्बु गाङ्गं जलम् इत्यर्थः / तव ते, केशभङ्गयाः कुटिलकृष्णकुन्तलजा. लस्य, सङ्गात् स्पर्शात , अनन्तरं सङ्गात् परमित्यर्थः। तरङ्गैः अर्मिभिः, असमायाः विषमायाः, निम्नोन्नतायाः इत्यर्थः / शमनस्वसुः अतिकृष्णायाः यमुनायाः, मिश्र. भावस्य मेलनस्य, शोभा सौन्दर्यम्, अनुभवितुं प्राप्तुम, वान्छति इच्छति / शुभ्रग. 1. 'अचथयदथ' इति पाठान्तरम् /
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________________ विंशः सर्गः। 1379 ङ्गाजलमध्ये कुटिलकृष्णकेशकलापं निमज्ज्य स्नानं कुरु, ततश्च शुभ्रतरस्य गाङ्गजलस्य कृष्णतरकेशपाशसङ्गे प्रयागजलशोभा भविष्यतीति भावः / निदर्शनालङ्कारः॥१५८॥ शङ्खके समान ( स्वच्छ ) कान्तिवाला, लाया गया गङ्गाजल आपके ( काले एवं ) टेढ़े केशोंके संसर्गसे बाद में तरङ्गोंसे असमान ( गङ्गासे भिन्न अर्थात् कृष्णवर्ण, अथवा-उच्चावच 'निम्नोन्नत' ) यमुनाके मिलनेकी शोभाको चाहता है। [ आप घड़ोंमें लाये गये शुभ्र गङ्गाजलसे स्नान करें, जिससे आपके टेढ़े एवं कृष्णवर्ण केश-समूहके साथ मिलकर उस गङ्गाजलकी शोभा टेढ़े एवं कृष्णवर्ण तरङ्गोंवाली यमुनामें मिलने के समान हो ] // 158 // तपति जगत एव मूर्दिन भूत्वा रविरधुना त्वमिवाद्भुतप्रतापः / पुरमथनमुपास्य पश्य पुण्यरधरितमेनमनन्तरं त्वदीयैः / / 156 / / तपतीति / स्वम् इव भवानिव, अद्भुतप्रतापः आश्चर्यतेजःसम्पन्न :, एकत्रकोषदण्डजप्रभावशाली, अन्यत्र-मध्याह्नकालिकप्रखरकरसम्पन्न इत्यर्थः। रविः सूर्यः, अधुना इदानीम् , जगतः पृथिव्याः, मूनि एव शिरसि एव, आकाशस्य उपयवेति यावत् , भूत्वा स्थित्वा, तपति सन्तापं ददाति, एकत्र-दुर्जनान् शास्ति, अन्यत्र-जगन्ति सन्तापयतीत्यर्थः / तनन्तरं ततश्च स्नानोत्तरकालम् , पुरमथनं शिवम् , उपास्य अर्चयित्वा, त्वदीयैः पुण्यैः तव सेवासुकृतैः, इवेति शेषः / अधरितं मस्तकोपरिभागात् च्यावितम् , तदा मध्याह्नापगमात् अधस्तात् गतमित्यर्थः / एनं रविम , पश्य अवलोकय, प्रणामार्थमिति भावः। पुरहरप्रसादात् सूर्याभ्यधिकप्रतापो भविष्यसि इत्यर्थः // 159 // आपके समान आश्चर्यजनक प्रताप (क्षात्र तेज, पक्षा०-किरणोष्णता) वाला यह सूर्य संसारके ऊपर (सबके मस्तकपर, पक्षा०-सबसे ऊपर आकाशमें) होकर तप (दुष्टोका शासन, पक्षा०-संसारको सन्तप्तकर) रहा है, (आप) शङ्करजीकी उपासना कर के बादमें मानो आपके पुण्योंसे अधोभूत इस सूर्यको देखिये / [शिव पूजन करने के वाद सूर्यको नमस्कार करें और देखें कि इस समय यद्यपि यह सूर्य आपके समान ही प्रतापी है, किन्तु आपके शिव-पूजन करने के बाद मानो उस पूजनसे उत्पन्न आपके पुण्य के प्रभावसे यह सूर्य नीचा हो गया है। दोपहर के बाद स्वत एव पश्चिम दिशाकी ओर ढले हुर सूर्यको नलके शिवपूजनजन्य पुण्योंसे नीचा होने की गम्योत्प्रेक्षा की गयी है ] // 159 // आनन्दं हठमाहरन्निव हरध्यानार्चनादिक्षणस्यासत्तावपि भूपतिः प्रियतमाविच्छेदखेदालसः / पक्षद्वारदिशं प्रति प्रतिमुहुर्दाङ् निर्गतप्रेयसी प्रत्यावृत्तिधिया दिशन् दृशमसौ निर्गन्तुमुत्तस्थिवान् // 160 // आनन्दमिति / हरस्य शिवस्य, ध्यानार्चनादिक्षणस्य मनःसमाधानपूर्वकचिन्ता. पूजादिसमयस्य / आसत्तौ समीपवर्तित्वेऽपि, प्रियतमाविच्छेदखेदेन प्रेयसीवियोग. दुःखेन, अलसः जडः, कर्त्तव्यविमुख इत्यर्थः। असौ अयम् , भूपतिः राजा नलः
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________________ 1380 नैषधमहाकाव्यम् / द्राक् झटिति, निर्गतायाः निष्क्रान्तायाः, प्रेयस्याः, प्रियतमाया भैम्याः, प्रत्यावृत्तिधिया पुनरागमनबुद्धया, पक्षद्वारदिशं प्रतिपार्श्ववत्तिकपाटप्रदेशमुद्दिश्य, तेनैव द्वारेण प्रत्यागमनसम्भवादिति भावः / प्रतिमुहुः पुनः पुनः, दृशं दृष्टिम् , दिशन् व्यापारयन् , हठं बलपूर्वकं यथा तथा, स्वत एव आनन्दलाभासम्भवादिति भावः। आनन्दं प्रेयसीसमागमहर्षम् , आहरन् इव परावर्तयन् इव, निर्गन्तुं गृहात् निर्या. तुम उत्तस्थिवान् शय्यातः उजगाम // 160 // शिव- पूजनके समय ( मध्याह्न, अथवा-शिव-पूजनरूपी उत्सव ) के समीप होनेपर भी बलात्कारपूर्वक गये ( बीते ) हुए भी आनन्दको मानो आकृष्ट करते हुए तथा परमप्रिया ( दमयन्ती ) के वियोगजन्य खिन्नतासे आलस और तत्काल निकली (बाहर गयी) हुई प्रियतमाके लौटने के कारण सामीप्य होनेकी बुद्धि ( दमयन्ती लौटकर इधर आ तो नहीं रही है इस विचार ) से द्वारकी ओर दृष्टि डालते हुए ये राजा नल बाहर जाने के लिए पलङ्गसे उठे / [ यहांपर कविसम्राट् श्रीहर्षने चार श्लोकों ( 20157-160) से अग्रिम सर्गकी सङ्गति सूचित कर दी है ] // 160 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / अन्याक्षुण्णरसप्रमेयभणितौ विंशस्तदीये महा. काव्येऽयं व्यगलनलस्य चरिते सो निसोज्ज्वलः / / 161 / / श्रीहर्षमिति / अन्यैः अपरैः, अक्षुण्णाः अस्पृष्टाः, पूर्वम् अनालोचिता इत्यर्थः / रसाः शृङ्गारादयः, प्रमेयाः वाक्यार्थाश्रयाः, यासु भणितिषु वाक्येषु तस्मिन् / 'तृती. यादिषु भाषितपुंस्कं पुंवत्' इत्यादिना पुंवद्भावः' / तदीये श्रीहर्षकृते, महाकाव्ये। विंशतीति पूरणे डटि, 'ति विंशतेः' इति शब्दस्य लोपः। गतमन्यत् // 161 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु'समाख्याने विंशः सर्गः समाप्तः // 20 // कवीश्वर-समूहके............."क्रिया, उसके रचित दूसरे (श्रीहर्षभिन्न कवियों ) से अनभ्यस्त शृङ्गारादि रसके प्रमेयों ( वक्रोक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा आदि ) के कथन ( यागुम्फन ) वाले सुन्दर 'नल-चरित' अर्थात् 'नैषध चरित' का........."यह बीसवां सर्ग समाप्त हुआ। ( शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गदत समझनी चाहिये ) // 161 / / यह 'मणिप्रभा टीकामें 'नैषधचरित'का बीसवां सर्ग समाप्त हुआ // 20 // 1. 'भणिती, भाषितपुंस्कम्' इति 'प्रकाश' व्याख्यानं चिन्त्यम् , तस्य नित्यस्त्रीत्वात्।
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________________ एकविंशः सर्गः। तं विदर्भरमणीमणिसौधादुजिहानमनुदर्शितसेवैः / अर्पणानिजकरस्य नरेन्द्ररात्मनः करदता पुनरूचे / / 1 // तमिति / विदर्भरमण्या वैदा दमयन्त्याः , मणिसौधाद् रत्नमयप्रासादात्, उजिहानं निर्गच्छन्तम्, तं नलम्, अनु प्रति, तं लक्ष्यीकृत्य इत्यर्थः। दर्शितसेवैः दर्शिता अन्तःपुरद्वारि प्रणामादिना विज्ञापिता, सेवा आराधना, आनुगत्यमित्यर्थः, यैः तैः। अनोलक्षणार्थे कर्मप्रवचनीयत्वात्तधोगे द्वितीया। नरेन्द्रः अधीनराजन्य. वर्गः, निजकरस्य स्वस्वहस्तस्य, अर्पणात् दानात् , सोपानावतरणसमये नलाय हस्तावलम्बनदानादित्यर्थः / आत्मनः स्वस्य, करं हस्तं बलिं च ददातीति करदः। 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः / तस्य भावः तत्ता, पुनः भूयोऽपि, बलिदानादेव करदत्वे सिद्धे पुनर्हस्तदानेन करदता इति पुनरुक्तिरिति भावः / ऊचे बभाषे / एतेन नलस्य चक्रवर्तित्वं द्योत्यते // 1 // विदर्भदेशकी रमणी ( दमयन्ती) के मणिमय प्रसादसे निकलते हुए उस ( नल) के प्रति ( प्रणामादिके द्वारा ) सेवा प्रदर्शित किये हुए राजाओंने अपने हाथ ( पक्षा०–राजदेय माग ) के देने से अपने करदातृत्व ( हाथ पक्षा०-कर = राजदेय भागको देनेके भाव) को पुनः कह दिया / [ सभी राजालोग पहलेसे सार्वभौम नलके लिए कर देते थे, वे इस समय प्रासादसे बाहर जाते हुए नलके सीढ़ियोंसे उतरते समय अपने हाथका सहारा देकर उस करदातृत्वको मानो पुनः कहा ] // 1 // तस्य चीनसिचयैरपि बद्धा पद्धतिः पदयुगात् कठिनेति / तां प्यधत्त शिरसां खलु माल्यै राजराजिरभितः प्रणमन्ती / / 2 / / तस्येति / राजराजिः सामन्तनृपपङक्तिः, अभितः समन्तात् , प्रणमन्ती आभूमि शिरो नमयन्ती सती, चीनसिचयः चीनदेशीयपट्टवस्त्रैः, बद्धा आच्छादिता अपि, पद्धतिः मार्गः, तस्य नलस्य, पदयुगात् चरणयुगलात , कठिना कठोरा, इति हेतोः। 'पञ्चमी विभक्तेः' इति पञ्चमी / तां पद्धतिम् , शिरसा मूर्नाम् , माल्यैः मालाभिः साधनैः, प्यधत्त पिहितवती, खलु इति उत्प्रेक्षायाम् / पदयुगलादपि भूमेः कठिनत्वात् तत्र पदविन्यासे वेदनाप्राप्तिसम्भवादिति भावः॥२॥ चीन देशोत्पन्न मृदु तथा सूक्ष्म वस्त्रसे आच्छादित भी मार्ग उस ( नल ) के चरणद्वयसे कठोर हैं ( अत एव इनको उस पर चलनेमें सम्भावित कष्टको दूर निवारण न होने के लिए मार्गके दोनों ओरसे प्रणाम राजश्रेणि-पतिबद्ध राज-समूह ) ने मस्तकोंकी मालाओंसे उस (मार्ग) को आच्छादित कर दिया। [कोमल नलके चरणोंको कठिन मार्गमें गमन करने में कष्ट होने की सम्भावनासे राजाओंका अपनी मस्तकस्थ मुकुटमालाओंसे उस मार्गको मृदुतम
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________________ 1382 नैषधमहाकाव्यम् / बनाना उचित ही था / मुकुटको माला गिरने तक अर्थात् बहुत विलम्ब तक राजालोग नतम. स्तक हो नलको सादर दण्डवत् प्रणाम किया ] // 2 // द्रागुपाहियत तस्य नृपैस्तदृष्टिदानबहुमानकृतार्थः / स्वस्वदिश्यमथ रत्नमपूर्व यत्नकल्पितगुणाधिकचित्रम् / / 3 / / द्रागिति / अथ प्रणामानन्तरम् , तस्य नलस्य, दृष्टिदानम् अदिनिक्षेप एव, तेषु नृपेषु तदानीतरत्नेषु च इति भावः / बहुमानः समादरः, तेन कृतार्थैः सफलश्रमैरित्यर्थः / नृपः सामन्तराजभिः, स्वेषां स्वेषां दिशि भवं स्वस्वदिश्यं निजनिजदेशोत्पा नम् / 'तत्र भव' इति यत्-प्रत्ययः। यत्नेन समादरेण, कल्पितः शाणघर्षणादिना सम्पादितैः, गुणैः औज्ज्वल्यसुदृश्यस्वादिधः, अधिक प्रकृष्टम् , श्रेष्ठमित्यर्थः / चित्रम् आश्चर्यम्, अपूर्व पूर्व केनाप्यप्राप्तम्, रत्नं मणिः, तस्य नलस्य सम्बन्धे, द्राक् शीव्रम्, स्वमतिक्रम्य गमनसम्भावनया इति भावः। उपाहियत उपायनीकृतम् // 3 // ___ उस ( नल) द्वारा ( राजाओंको ) देखना ही ( राजाओंका ) बहुत सत्कार हुआ, उससे कृतार्थ अर्थात् नलके दृष्टिदानरूप बहुमानसे कृतकृत्य राजाओंने अपनी-अपनी दिशाओं ( पाठा०-अपनी दिशा ) में उत्पन्न, बड़े यत्नसे किये गये गुणों से अधिक आश्चर्यकारक ( पाठा०-जो कल्पित गुणसे अधिक आश्चर्यकारक नहीं है ऐसा अर्थात स्वभावतः अधिक गुणयुक्त गोलाकार उज्ज्वलतम ऐवं देदीप्यमान होनेसे ) अपूर्व रत्नको (ये राजराजेश्वर महाराज नल मेरे सामनेसे आगे न बढ़ जायँ, इस भावनासे ) अतिशीघ्र भेंट किया // 3 // अङ्गुलीचलनलोचनभङ्गिभ्रूतरङ्गविनिवेदितदानम् / रत्नमन्यनृपढौकितमन्ये तत्प्रसादमलभन्त नृपास्तत् || 4 || अङ्गुलीति / अन्ये अपरे, नृपाः राजानः, अंगुलीचलनेन अङ्गुलीकम्पनेन, अङ्गुली. निर्देशेनेत्यर्थः / लोचनभङ्गया नेत्रसङ्केतेन, भ्रतरङ्गेण भ्रवोश्चालनेन च, विनिवेदितं विज्ञापितम् , दानं त्यागः यस्य तत् तथोक्तम्, अन्यैः अपरैः, नृपः राजभिः, ढोकितम् उपहृतम्, तत् पूर्वोक्तं रत्नम्, तस्य नलस्य, प्रसादम् अनुग्रहस्वरूपम्, अल. भन्त प्राप्नुवन् / एकस्मात् लब्धं रत्नजातम् अन्यस्मै प्रदत्तं, न तु कोषागारे निक्षि. तम् इति अस्य दातृत्वम् अनुजीवितोषणं विवेकित्वञ्चोक्तम् / / 4 // दूसरों (चिरकालसे सेवा करनेवाले, या-तत्काल आये हुए) राजाओंने (अङ्गुलिके हिलाने (अङ्गुलिसे सङ्केत करने) से, नेत्रमङ्गीसे तथा भ्रूतरङ्गसे बतलाया गया है दान जिसका ऐसे, दूसरे राजाओं के भेंट किये हुए रत्न को उस ( नल ) के ( द्वारा दिया गया ) प्रसाद ( प्रसन्नताजन्य पारितोषिक ) पाया / [राजाओंके दिये गये उत्तमोत्तम रत्नको अङ्गुलि, नेत्र या भ्रूका सङ्केतकर नलने दूसरे राजाओंके लिए अपने प्रसादरूपमें दिलवा दिया / इस अमूल्य रत्नको भी स्वयं न लेकर या कोष में जमा न कराकर दूसरे-दूसरे 1. 'स्वस्य दिश्यमथ' इति, 'देश्यम्' इति, 'यन्नकल्पित-'इति च पाठान्तराणि /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1383 राजाओंको अङ्गुलि आदिका सङ्केतकर पारितोषिकरूपमें दिलवानेसे नलका लोभाभाव अधिक उदारता एवं भृत्यों के प्रति दयालुता सूचित होती है ] // 4 // तानसौ कुशलसूनृतसेकैस्तर्पितानथ पितेव विसृज्य / अस्त्रशस्त्रखुरलीषु विनिन्ये शैष्यकोपनमितानमितौजाः // 5 // तानिति / अथ उपहारग्रहणदानानन्तरम् , अमितम् अतुलनीयम्, ओजः तेजः यस्य तादृशः, असौ नलः, कुशलस्य कुशलप्रश्नस्य सूनृतस्य सत्यप्रियवचनस्य च, पीयूषरूपस्येति भावः / सेकैः वर्षणैः, उक्तिभिरित्यर्थः / तर्पितान् प्रीणितान , तान् नृपान् , विसृज्य सम्प्रेष्य, गमनाय अनुमत्य इत्यर्थः / शैष्यकेण शिष्यत्वेन / 'योप. धाद्गुरूपोत्तमावु' / उपनमितान् समेतान् , युद्धशिक्षार्थ शिष्यभावेन समागतानित्यर्थः / नृपानिति शेषः / पितेव जनक इव, अस्त्रेषु धनुरादिषु, शस्त्रेषु खड्गादिषु, खुरलीषु भ्रमणविशेषेषु, अस्त्रशस्त्राणां खुरलीषु प्रयोगसंहारविषयेषु इति वा, विनिन्ये शिक्षितवान् // 5 // इस ( उपहार स्वीकार करने ) के बाद अपरिमित बलशाली इस ( नल) ने कुशल. प्रश्न तथा सत्यप्रिय भाषणोंसे सन्तुष्ट किये गये उन राजाओंको भेजकर शिष्यभावसे ( शिष्य बनकर ) आये हुए राजाओंको अस्त्र (धनुष-बाणादि ), शस्त्र (खड्ग, कुन्त आदि ) तथा खुरली ( भ्रमण-भ्रमण-विशेष; अथवा-अस्त्र-शस्त्रके प्रयोग एवं प्रहार करने) में पिताके समान शिक्षित किया // 5 // मर्त्यदुष्प्रचरमस्त्रविचारञ्चारु शिष्यजनतामनुशिष्य | स्वेदबिन्दुकितगोधिरधीरं स श्वसन्नभवदाप्लवनेच्छः // 6 // मयति / सः नलः, मत्र्येषु मनुष्यलोकेषु, दुष्प्रचरम् अविद्यमानप्रसरम , अस्त्र. विचारम् अस्त्रशिक्षाम् , शिष्यजनतां शिष्यभूतनृपसमूहम् , चारु सुष्ठु यथा भवति तथा, अनुशिष्य शिक्षयित्वा, स्वेदेन धर्मोदकेन, बिन्दुकितः सनातबिन्दुका, गोधिः ललाटं यस्य सः तादृशः सन् / 'ललाटमलिकं गोधिः' इत्यमरः। अधीरम् अस्थिरं यथा भवति तथा, श्वसन् श्रमजनितदीर्घदीर्घश्वासं त्यजन् , आप्लवनं स्नानम् , तदिच्छुः तदभिलाषी, अभवत् अजायत // 6 // (नलेतर ) मनुष्यमात्रसे अविदित अस्त्र-विचार ( आयुधके प्रयोग तथा संहार ) शिष्यसमूहको अच्छी तरह ( अथवा-प्रौढ़ मतिवाले शिष्य-समूहको) सिखाकर स्वेदविन्दुयुक्त ललाटवाले तथा अधिक श्वास लेते (हॉफते) हुए उस (नल) ने स्नान करना चाहा // 6 // यक्षकर्दममृदून्मृदिताङ्गं प्राक्कुरङ्गमदमीलितमौलिम् / गन्धवाभिरनुबन्धितभृङ्गैरङ्गनाः सिषिचुरुच्चकुचास्तम् // 7 // 1. 'शिष्यतोप-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1384 नैषधमहाकाव्यम् / यक्षेति / उच्चाः उन्नताः, कुचाः स्तना यासां तादृश्यः, अङ्गनाः स्त्रियः, प्राक् प्रथमम् , यसकर्दमेन कर्पूरादियोगजेन सुगन्धिस्नानीयचूर्णेन / 'कर्पूरागुरुकस्तूरीक क्कोलर्यक्षकर्दमः' इत्यमरः। मृदु कोमलं यथा तथा, उन्मृदितं शोधितम् , अङ्गं शरीरं यस्य तं तादृशम् , तथा कुरङ्गमदेन कस्तूर्या, मीलितः सम्बन्धं प्रापितः, लिप्त इति यावत् , मौलिः मस्तकः यस्य तं तादृशम् , तं नलम् , अनुबन्धिताः अनुबन्धं गमिताः, स्वसौगन्धात् संयोगं प्रापिता इत्यर्थः। भृङ्गाः भ्रमराः येषु तैः तादृशैः, गन्धवाभिः गन्धोदकैः साधनैः, सिषिचुः सिक्तवत्यः, स्नपयामासुरित्यर्थः // 7 // ___ यक्षकदमके उबटन लगाये हुए अङ्गोवाले तथा पहले कस्तूरीसे लिप्त शिरवाले नलको उन्नत स्तनोंवाली ( युवती ) स्त्रियोंने ( अधिक सुगन्धि होनेसे ) भ्रमर जिसपर आ रहे हैं ऐसे सुगन्धयुक्त पानीसे नहलवाया [ 'अमरकोषके अनुसार 'कपूर, अगरु, कस्तूरी और ककोल' से, तथा 'गरुडपुराणके अनुसार उक्त चारो द्रव्य तथा चन्दनसे बनाये गये उबटनको 'यक्षकर्दम' कहते हैं / इसके विषयमें भिन्न-भिन्न मत जानने के इच्छुकोंको अमरकोषकी मत्कृत 'मणिप्रमा' व्याख्याकी 'अमरकौमुदी' नामक टिप्पणी देखनी चाहिये ] // 7 / / भूभृतं पृथुतपोधनमाप्तस्तं शुचिः स्नपयति स्म पुरोधाः / सन्दधजलधरस्खलदोघास्तीर्थवारिलहरीरुपरिष्टात् / / 8 / / भूभृतमिति / तदनन्तरं आप्तः विश्वस्तः, शुचिः शुद्धः पुरोधाः पुरोहितः, जल. धरान नलपूर्णघटात् , स्खलन् पतन् , ओघः प्रवाहः यासां ताः तादृशीः, तीर्थवा. सणगङ्गादितीर्थोदकानाम् , लहरीः तरङ्गान् , धारा इति यावत् , उपरिष्टात् मस्त. कोपरिभागे / 'उपर्युपरिष्टात्' इति निपातनात् साधुः / सन्दधत् सन्दधानः सन् , वर्षयन् सन् इत्यर्थः / पृथुना महता, तपसा तपस्यया, घनं परिपूर्णम् , भूभृतं राजानम् , तं नलम् , स्नपयति स्म अभिषिञ्चति स्म, स्नापितवान् इत्यर्थः / अन्यत्रआप्तः प्राप्तः, शुचिः आषाढः / 'शुचिः शुद्धेऽनुपहते शृङ्गाराषाढयोरपि' इति विश्वः / जलधरेभ्यः मेघेभ्यः, स्खलन् पतन् , ओघः प्रवाहो यासां ताः तथोक्ताः, तीर्थवारिलहरीः पूतजलप्रवाहान् , उपरिष्टात् मस्तकोपरि, सन्दधत् सन्दधानः, वर्षयन् सन् इत्यर्थः / पृथोः तदाख्यस्य वेणपुत्रस्य नृपभेदस्य, 'पृथुः स्थात् महति त्रिषु / त्वक्पयां कृष्णजीरेऽस्त्री पुमानग्नौ नृपान्तरे // ' इति मेदिनी / तपसा तपस्याप्रभावेण, घनम् अशिथिलम् , दृढमित्यर्थः / तं प्रसिद्धं, भूभृतं भूमिधरं, हिमालयादिपर्वत. मित्यर्थः / 'भूभृद् भूमिधरे नृपे' इति विश्वः / स्नपयति स्म / अङ्गनाः सामान्यजलेन 1. तद्यथा-'कर्पूरागुरुकस्तूरीकक्कोलर्यक्षकर्दमः।' इति (अमरः 2 / 6 / 133) / 2. तद्यथा-'तथा कर्पूरमगुरुः कस्तूरी चन्दनन्तथा। कक्कोलञ्च भवेदेभिः पञ्चभिर्यक्षकर्दमः // ' इति /
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________________ एकविंशः सगः। 1385 पुरोधाः समन्त्रकतीर्थोदकेन तं स्नपयति स्म इति बोद्धव्यम् / अत्र द्वितीयार्थस्य प्रकृते अपर्यवसानाद् उपमाध्वनी पर्यवसानं ज्ञेयम् // 8 // इस ( अङ्गनाओं के अभ्यङ्ग, या-उष्णोदकसे स्नान कराने ) के बाद हितकारक तथा सदाचारपवित्र ( परम्परागत ) पुरोहितने, जलपूर्ण स्वर्णघटसे गिरते हुए प्रवाहवाले तथा ( प्रयागादि ) तीर्थों के जलके तरङ्गोंको ( नलके) ऊपर में धारण कराते सुए; बहुत ( चान्द्रा. यणादि व्रतरूप ) तपस्याओंसे पूर्ण उस राजा ( नल ) को स्नान कराया। ( पक्षा०मेघोंसे गिरते हुए प्रवाहवाले तथा पवित्र जल-प्रवाहको ऊपर (शिखरपर ) धारण करते हुए उपस्थित आषाढ मासने 'पृथु' नामक राजाके प्रभावसे स्थिर उस (प्रसिद्धतम हिमालयादि ) पर्वतको स्नान कराता था अर्थात उस पर्वत शिखरपर जल बरसाता था)। [ अङ्गनाओं के सामान्य जलसे स्नान करानेके बाद उक्त पुरोहितने मन्त्रपूर्वक तीर्थोदकसे नलको स्नान कराया ] // 8 // प्रेयसीकुचवियोगहविर्भुग्जन्मधूमविततीरिव बिभ्रत् / स्नायिनः करसरोरुहयुग्मं तस्य गर्भधृतदर्भमराजत् // 9 // प्रेयसीति / स्नायिनः मन्त्रवजलेन स्नानं कुर्वतः, तस्य नलस्य, गर्भे अभ्यन्तरे करतले इत्यर्थः, तानि गृहीतानि, दर्भाणि कुशाः येन तत् तादृशम्, स्नानकाले कुशग्रहणस्य शास्त्रीयत्वादिति भावः / यद्वा-स्नायिनः कृतस्नानस्य, तस्य नलस्य गर्भे मध्यमाकनिष्ठयोरन्तराले, अनामिकायामित्यर्थः / धृतः परिहितः इत्यर्थः / दर्भः कुशः, कुशाङ्गुरीयको येन तत्तादृशम्, करयोः पाण्योः एव, सरोरुहयोः कमलयोः युग्मं द्वयम् , प्रेयस्याः दमयन्त्याः , कुचयोः स्तनयोः, वियोगहविर्भुजः विरहवढे, जन्म सम्भवः यस्य तथाभूतस्य, धूमस्य विततीः, सन्ततीः बिभ्रदिव धारयदिव, अराजत् अशोभत / नूननदर्भाणां श्यामवर्णस्वात् धूमसाम्यमिति बोध्यम् // 9 // (प्रयागादि तीर्थके जलसे समन्त्रक) स्नान करते हुए (या-स्नान किये हुए ) उस ( नल ) के अनामिका अङ्गुलिके बीचमें कुशाको धारण किये हुए दोनों करकमल प्रियतमा ( दमयन्ती ) के स्तनों की विरहाग्निसे उत्पन्न धूम-समूहको धारण करते हुएके समान शोभित हुए // 9 // कल्प्यमानममुनाऽऽचमनाथ गाङ्गमम्बु चुलुकोदरचुम्बि / निर्मलत्वमिलितप्रतिबिम्बा द्यामयच्छदुपनीय करे नु ? // 10 / / कल्प्यमानमिति / अमुना नलेन, आचमनार्थम् उपस्पर्शनार्थम् , कल्प्यमानं गृह्यमाणम् , अत एव चुलुकस्य प्रसृतस्य, निकुब्जपाणेरित्यर्थः। उदरं मध्यम् , चुम्बति स्पृशतीति तादृशम् , गाङ्गं गङ्गासम्बन्धि, अम्बु जलम् / कत। निर्मलत्वेन स्वच्छत्वेन हेतुना, मिलितः संयुक्तः, तत्र निपतित इत्यर्थः / प्रतिबिम्बः प्रतिच्छाया 1. '-प्रतिबिम्बद्या-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1386 नैषधमहाकाव्यम् / यस्याः तथोक्ताम् , द्याम् आकाशं स्वर्गञ्च / 'द्यौः स्वर्गसुरवर्मनोः' इत्यमरः / करे हस्ते, उपनीय संस्थाप्य, अयच्छत् नु ? अददात् किम् ? प्रजाभ्य इति शेषः / दाना. यैव तत्ग्रहणसम्भवादिति भावः / द्यौःशब्दस्य स्वर्गाकाशवाचिस्वाच्छलेनोक्तिः॥१०॥ इस ( नल ) के द्वारा आचमन करने के लिए चुल्लू में लिये हुए गङ्गाजल ने स्वच्छतासे प्रतिबिम्बित आकाश ( पक्षा०-स्वर्ग) को लाकर हाथमें दे दिया है क्या ? [ लोकमें भी दुर्लभ वस्तुको लाकर पुण्यात्मा तथा प्रियतम व्यक्ति के हाथमें दे दिया जाता है ] // 10 // मुक्तमाप्य दमनस्य भगिन्या भूमिरात्मदयितं धृतरागा / अङ्गमङ्गमनु किं परिरेभे तं मृदो जलमृदु गृहयालुम् ? 11 / / मुक्तमिति / भूमिः तिलकार्थं गृहीता रक्तवर्णा मृत्तिका, अत्र स्मृतिः-'विप्रा गौरमृदः प्रोक्ताः क्षत्रा रक्ताः प्रकीर्तिताः' इति / दमनस्य भीमात्मजस्य, भगिन्या सोदरया दमयन्या, मुक्तं स्नानार्थं परित्यक्तम् , मृदःतिलकार्था मृत्तिकाः, गृहयालं, ग्रहीतारम्, आत्मनः स्वस्य दयितं प्रियम्, पतिमिति यावत् / राज्ञो भूपतित्वादिति भावः / तं नलम्, आप्य लब्ध्वा, धृतः गृहीतः, बद्ध इत्यर्थः। रागः स्वभावत एव रक्तवर्णः अनुरागश्च यया सा तथोक्ता सती। 'रागोऽनुरागे मात्सर्ये क्लेशे च लोहि. तादिषु' इति विश्वः / जलेन स्नानोदकेन, मृदु कोमलम् , अङ्गम् अङ्ग ललाटादिकं प्रत्यवयवम्, अनु लक्ष्यीकृत्य, परिरेभे आलिलिङ्ग किम् ? अन्याऽपि सपत्न्या दूरेऽव. स्थितं वल्लभं प्राप्य सानुरागा सती यथा प्रत्यङ्गमालिङ्गति तद्वदिति भावः / ललाटादिषु द्वादशाङ्गेषु मृत्तिलकानि चकारेति निष्कर्षः // 11 // दमयन्तीसे मुक्त ( छोड़े गये-पृथक् स्थित, तथा तिलकके लिए ) मिट्टीको लेनेवाले, अपने पति उस ( नल ) को राग ( लालिमा, पक्षा०-अनुराग) से युक्त पृथ्वी (मिट्टी) ने जल ( द्वारा स्नान करने ) से कोमल प्रत्येक अङ्गका आलिङ्गन किया ? / [ जिस प्रकार कोई सपत्नी स्त्री किसी दूसरी सपत्नीसे पृथक् किये गये, उसे चाइते हुए पतिको प्रत्येक अङ्गका आलिङ्गन करती है, उसी प्रकार पृथ्वीने दमयन्तीसे पृथक् स्थित तिलकार्थ मिट्टीको हाथमें ग्रहण करते हुए नलके जलसे कोमल अर्थात् सुख-स्पर्श प्रत्येक अङ्गोंका मानो सानुराग होकर आलिङ्गन किया / नलने प्रत्येक अङ्गमें लालवर्णको मिट्टीका तिलक लगाया] // मूलमध्यशिखरश्रितवेधःशौरिशम्भुकरकाघ्रिशिरःस्थैः। तस्य मूनि च करे शुचि द.र्वारि वान्तमिव गाङ्गतरङ्गैः // 12 // मूलमिति / मूलमध्यशिखराणि दर्भाणाम् आदिमध्याग्राणि, श्रितानां यथाक्रम प्राप्तानाम्, वेधःशौरिशम्भूनां ब्रह्मविष्णुरुद्राणाम, अत्र स्मृतिः-'कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये तु केशवः / कुशाग्रे शङ्करं विद्यात् त्रयो देवाः कुशस्थिताः॥' इति / करकाशिशिरःसु कमण्डलुपादमस्तकेषु, तिष्ठन्ति वर्तन्ते इति तथोक्तैः, गाङ्गैः गङ्गासम्बन्धिभिः तरङ्गैः ऊर्मिभिः, वान्तं निष्ठयतम् इव, स्थितमिति शेषः / शुचि
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________________ एकविंशः सर्गः। 1387 निर्मलम् , वारि गङ्गोदकम् , दौंः कुशैः, कत्तभिः / तस्य नलस्य, मूर्ध्नि शिरसि, चकरे कीर्णम; नलः कुशाग्रजलेन 'आपोहिष्ठा' इत्यादि मन्त्रं पठन् मान्नं स्नानं कृतवान् इत्यर्थः / 'क विक्षेपे' इति धातोः कर्मणि लिट् // 12 // (कुशाके ) मूल, मध्य तथा अग्र भागमें निवास करने वाले क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा शङ्करके क्रमशः कमण्डलु, चरण तथा मस्तकमें स्थित गङ्गाके तरङ्गोंसे निकले हुए निर्मल ( पक्षा-पवित्रतम ) जलको कुशाओंसे उस ( नल) ने मस्तकपर छिड़का अर्थात् मार्जन किया। [ पुराणोंमें प्रसिद्धि है कि ब्रह्माके कमण्डलु, विष्णुके चरण तथा शङ्करके मस्तकमें गङ्गाका सर्वदा निवास रहता है / नलने कुशाओंसे अपने मस्तक पर गङ्गा-जल छिड़ककर मार्जन किया ] // 12 // प्राणमायतवतो जलमध्ये मञ्जिमानमभजन्मुखमस्य / आपगापरिवृढोदरपूरे पूर्वकालमुषितस्य सुधांशोः / / 13 / / प्राणमिति / जलस्य उदकस्य, मध्ये अभ्यन्तरे, प्राणमायतवतः प्राणायाम कृतवतः अस्य नलस्य, मुखं वदनम् , कत्तु / पूर्वकालं समुद्रमन्थनात् प्राक , आपगापरिवृढस्य नदीमत्त: समुद्रस्य, उदरपूरे जलगर्भप्रवाहमध्ये, उषितस्य कृतवासस्य, सुधांशोः चन्द्रस्य, मञ्जिमानं सौन्दर्यम् , अभजत् अलभत, समुद्रोदरमध्यस्थचन्द्र. सदृशं दर्शनीयमभूदित्यर्थः // 13 // ___ जलके भीतर प्राणायाम किये हुए इस नलका मुख ( समुद्र-मथनसे ) पहले समुद्रके प्रवाह के भीतर वर्तमान चन्द्रके सौन्दर्यको प्राप्त किया। [ नासिका तथा मुखकी वायुका अङ्गुष्ठ एवं कनिष्ठासे ग्रहण, अवरोध तथा त्याग करते हुए अघमर्षण करनेवाले नलका मुख समुद्रमध्यगत चन्द्र के तुल्य शोभने लगा ] / / 13 / / मर्त्यलोकमदनः सदशत्वं बिभ्रदभ्रविशदद्युति तारम् / अम्बरं परिदधे विधुमौलेः स्पर्द्धयेव दशदिग्वसनस्य / / 14 // मर्त्यलोकेति / मर्त्यलोकमदनः भूलोककन्दपः, नलः इति शेषः। दश दशसङ्खयकाः, दिशः ककुभ एव वसनं वस्त्रं यस्य तस्य दिगम्बरस्य, विधुमौले चन्द्रशेखरस्य, शम्भोरित्यर्थः / स्पर्द्धयेव साम्यबोधहेतुकाहमिकयेव, मदनस्वादेव मदनारिणा हरेण सह स्पर्धा युज्यते इति भावः / सदशत्वं दशाभिः प्रान्तविलम्बिदीर्घतन्तुभिः सह वर्तमानम् , आकाशप-दशभिः दिग्विभागैः सह युक्तम् / तस्य भावः तत्त्वं सदशत्वम् , बिभ्रत् धारयत्, 'ईषद्धौतं नवं शुभ्रं सदशं यन्न धारितम्' इत्यादिस्मृत्या सदशवस्त्रधारणस्य प्रशस्तत्वादिति भावः। तथा अभ्रस्येव शारदमेघस्येव, तदा. ख्यस्य शुभ्रधातुविशेषस्येव वा, विशदा शुभ्रा, द्युतिः प्रभा यस्य. तत् तादृशम् , तारं महत् सूचमतरं वा, अन्यत्र-अभ्रेषु मेघेषु, विशन्त्यः प्रवेशं कुर्वन्त्यः , अत एवं 87 नै० उ०
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________________ 1388 नैषधमहाकाव्यम् / अद्यतयः दीप्तिरहिता,ताराः नक्षत्राणि यस्मिन् तत्तादृशम् , अम्बरं वस्त्रम् आकाशश्च / 'अम्बरं व्योग्नि वाससि' इत्यमरः / परिदधे परिहितवान् // 14 // मृत्युलोकके कामदेव (नल ) ने दश दिशारूपी वस्त्रवाले अर्थात् दिगम्बर चन्द्रशेखर (शङ्करजी ) के साथ मानो स्पर्धा ( 'मैं भी शङ्करजी बन जाऊँ'-मानों इस भावना ) से किनारीयुक्त (पक्षा०-दश संख्यायुक्त) शरत्कालीन मेघ ( या- अभ्रक ) के समान (शुभ्र ) कान्तिवाले, बड़े ( या-अत्यन्त महीन ) वस्त्र ( पक्षा०-आकाश ) को धारण किया / [ कामदेवका कामदेव-शत्रु शङ्करजीके साथ स्पर्धाकर तत्सदृश होने की इच्छा करना उचित ही है। नलने पहले आर्द्रवस्त्र पहने ही लालमृत्तिकाका तिलक, कुशमार्जन तथा अघमर्षण किया; तदनन्तर श्वेत किनारीदार एवं महीन वस्त्र को पहना ] // 14 // भीमजामनु चलत् प्रतिवेलं संयियंसुरिव राजऋषीन्द्रः / प्राववार हृदयं स समन्तादुत्तरीयपरिवेषमिषेण / / 15 / / भीमजामिति / राजऋषीणाम् ऋषिवत् सदाचारसम्पन्ननृपतीनां मध्ये / राजा ऋषिः, 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः / इन्द्रः श्रेष्ठः, सः नलः, प्रतिवेलम् अनुक्षणम् , भीमजाम् आत्मप्रियां दमयन्तीम् , अनु लक्ष्यीकृत्य, चलत् गच्छत् , हृदयं वक्षः अन्तःकरणञ्च, संयियंसुरिव संयन्तुमिच्छरिव, बधुमिच्छुः सन्निवेत्यर्थः / स्वहृदयस्य सर्वदा स्वं विहाय अन्यत्र गमनस्य अन्यायत्वात् तस्य बन्धनेच्छा इति भावः / उत्तरीयस्य उत्तरासङ्गस्य, यः परिवेषः परिधिः हृदयोपरि वेष्टनमित्यर्थः। तस्य मिषेण व्याजेन, समन्तात् सर्वतः, प्राववार प्रावृतवान् , स्वहृदयमेवेति शेषः / / 15 / / राजर्षिराज ( नल ) ने प्रतिक्षण दमयन्तीको लक्षितकर चलते हुए-से हृदय ( वक्षःस्थल, पक्षा०-अन्तःकरण ) को दुपट्टेसे बांधने के छलसे रोका। [ एक वस्त्रसे किसी कर्मके अनुष्ठान करनेका निषेध होनेसे नलने दुपट्टेको ओढ़ा ] / / 15 / / / स्नानवारिघटराजदुरोजा गौरमृत्तिलकबिन्दुमुखेन्दुः / केशशेषजलमौक्तिकदन्ता तंबभाज सुभगाऽऽप्लवनश्रीः / / 16 / / __ स्नानेति / स्त्रानवारिघटौ स्त्रानीयोदककुम्भावेव, राजन्तौ शोभमानौ, उरोजौ कुचौ यस्याः सा तादृशी, गौरः शुभ्रवर्णः, शुष्कत्वादिति भावः। मृत्तिलकबिन्दुः मृत्तिकाकृतवतुलतिलकमेव, मुखेन्दुः वदनचन्द्रः यस्याः सा तादृशी, केशशेषाणि कुन्तलेषु अवशिष्टानि, जलमौक्तिकानि मुक्तातुल्यवारिबिन्दव एव, दन्ताः दशनाः यस्याः सा ताहशी / 'नासिकोदर-' इत्यादिना पक्षे ङीषो विधानादन्यत्र पक्षे टाप। सुभगा रम्या, नलाङ्गसङ्गलाभादिति भावः / आप्लवनस्य श्रीः स्नानशोभा, तं नलं, बभाज सिषेवे // 16 // स्नानार्थ जलके घटरूप स्तनोंवाली, गौरवर्ण मिट्टोके गोलाकार बिन्दुरूप मुख चन्द्रवाली, केशमें अवशिष्ट मोतीतुल्य जलबिन्दुरूप दाँतोंवाली सुन्दर (पक्षा०-सौभाग्यवती) स्नान.
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________________ एकविंशः सर्गः। 1384 शोभाने उस ( नल ) का सेवन किया। [ 'ऊर्ध्ववृत्ततिर्यगर्द्धचन्द्राकारा वर्णानां क्रमात्तिलकाः' अर्थात् 'ऊपर, गोलाकार, तिरछा और अर्द्धचन्द्राकार ब्राह्मणादि वर्गों का क्रमशः तिलक होता है' इस दक्ष-वचनके अनुसार नल के द्वारा लगाया गया गोलाकार मिट्टीका तिलक स्नानलक्ष्मीके मुखचन्द्रतुल्य था और 'हस्तवस्त्रैर्न मार्जयेत्' अर्थात् 'स्नानके बाद हाथ या कपड़ेसे शिरको न पोंछे' इस 'व्यास'-वचनके अनुसार शिर नहीं पोंछनेसे केशमें मुक्तातुल्य जलकी बूँदें स्नानलक्ष्मीके दन्त तुल्य थीं ] // 16 // श्वैत्यशैत्यजलदैवतमन्त्रस्वादुताप्रमुदितां चतुरक्षीम् / वीक्ष्य मोघधृतसौरभलोभ घ्राणमस्य सलिलघ्रमिवाभूत् // 10 // श्वेत्येति / अस्य नलस्य, घ्राणं घ्राणेन्द्रियम् , नासिकेत्यर्थः / चतुर्णा चतुःसङ्ख्यकानाम् , अक्षाणां नयनत्वक्श्रोत्ररसनाख्यानाम् इन्द्रियाणां समाहारः चतुरक्षी तां चतुरक्षीम् , श्वैत्येन जलस्य श्वेततया, तेन नेत्रं प्रमुदितमित्याशयः शैत्येन जलस्यैव शीतत्वेन, तेन च त्वक प्रमुदितेत्याशयः / जलं वारि, दैवतं देवता यस्य तेन तादृशेन मन्त्रेण 'ऋतञ्च सत्यञ्चाभिध्यात्तपसः' इत्यादिमनुना, तच्छवणेन च श्रोत्रेन्द्रियं प्रमदितमित्याशयः / तथा स्वादुतया जलस्यैव माधुर्यण च, तेन च रसना प्रमुदितेत्याशयः / प्रमुदितां प्रहृष्टाम् , वीचयेव दृष्टवेव, मोघं व्यर्थ यथा भवति तथा, वृतः प्राप्तः, सौरभे सौगन्ध्ये, द्रव्यान्तरस्येति शेषः / लोभः लोलुपता येन तत् तादृशं सत् , सलिलं जलम्, जिघ्रति घ्राणविषयीकरोतीति तत् तादृशं सलिलघ्रम् / 'आतोऽ. नुपसर्गे कः'। अभूत् अजायत, अघमर्षणकाले ऋतञ्च इत्यादि मन्त्रं पठन् जलं जिघ्रति स्मेति निष्कर्षः // 17 // (जलकी) स्वच्छता, शीतलता, जलदेवताक ( अघमर्षण ) मन्त्र तथा स्वादसे हर्षित (क्रमशः-नेत्र, त्वक् , कान और जीभ-इन) चार इन्द्रियोंको देखकर इस (नल ) की नासिका व्यर्थमें ही ( अन्य द्रव्यगत) सुगन्धके लोभको ग्रहण की हुई-सी अर्थात् अन्य द्रव्यके सुगन्धको चाहती हुई-सी पानोको सूंघती थी / [पृथ्वीमें गन्धका होना पृथ्वीका असाधारण गुण है तथा जलमें उस गन्ध गुणका सर्वथा अभाव रहता है, द्रव्यान्तरसे सुवासित जलद्वारा देवोंको स्नान करानेका शास्त्रीय निषेध होनेसे औपाधिक सौरभका भी वैसे जलमें सम्मत्र नहीं है; अत एव द्रव्यान्तरमें सौरभ प्राप्त करनेका लोभ करनेवाली नाकने जो जलको संघा वह व्यर्थ ही था, लोभीका विवेकशून्य होकर निष्फल प्रयास करना उचित ही है / नल 'क्रेतञ्च सत्यं...' मन्त्रसे अघमर्षण करने लगे ] // 17 // भ्रान्तयः स्फुरति तेजसि चक्रुस्त्वष्तृतकुंचलदकवितकम् / / 1 // ) 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यया सहैवान निहितः। 2. 'स्फुरिततेजसि' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1360 नैषधमहाकाव्यम् / राज्ञीति / अस्मिन् राज्ञि भानुमतः सूर्यस्योपस्थितये उपस्थानार्थमात्तं गृहीत. मध्यंदानसम्बन्धि अध्यदानानन्तरं वा / 'असावादित्यः-' इत्यादिमन्त्रपूर्व जलं शिरम्परितःस्वपाणिना स्फुरति प्रकाशमाने तेजसि सौरप्रभाप्रसरेमध्ये गलद्विन्दुक्रमेण किरति सति भ्रान्तयः क्षिप्तोदकस्यैव प्रादक्षिण्यपरिभ्रमणानि लोकस्य त्वष्टुर्विश्वकमणः तकु शाणचक्रं तत्र घर्षणवशाच्चलतो भ्राम्यतो विष्वपतनशीलतेजाकणस्याकस्य वितक तद्विषयं विशिष्टमूह चक्रः। प्रकाशमानसौरप्रभाप्रदक्षिणप्रक्षिप्तगलद्विन्दु. जलभ्रमणदर्शनेन विश्वकर्मणा सूर्यः पुनरपि शाणचक्रे धृतः किम् ?, अत एवैतेऽणवः कणाः पतन्तीति लोकस्य तदानीं बुद्धिरभूदित्यर्थः / भानुमदुपस्थितये गृहीतमम्बु स्वकरेण विक्षिपत्यस्मिन् राज्ञि विषये लोकस्य भ्रान्तयो नलाङ्गप्रभासरे प्रकाशमाने सति निशाणचक्रपरिभ्रमत्सूर्यसम्भावनां लोकस्य चक्ररिति वा / राज्ञा यदम्बु गृहीतं तस्मिन्नुत्क्षिप्ते जले स्फुरति प्रतिफलति रवितेजसि जायमाना भ्रान्तयो भ्रमणानि स्वष्टतकुचलदकवितक चक्रः / उरिक्षप्ताअपो वियतिभ्रमन्त्यः पतन्ति, तत्प्रतिबिम्बिते तेजस्यपि भ्रमणानि जायन्ते / तत्रोत्प्रेक्षेति वा / अर्घ्यदानं सूर्योपस्थानञ्च कृतवानिति भावः / 'स्फुरिततेजसो' ति पाठे नलविशेषणम् // 1 // ____ इस राजा ( नल ) के सूर्योपस्थान करने के लिए स्फुरित होते हुए सूर्य-प्रभा-समूहके मध्य में ( 'असावादित्यः..' मन्त्रोच्चारणपूर्वक ) अपने हाथसे लिये हुए जलको फेंकन पर देखनेवालोंको घूमते हुए उस जल के पतनने विश्वकर्माके शाणपर पुनः चढ़ाये गये सूर्यके तर्कको उत्पन्न कर दिया अर्थात् सूर्योपस्थानके समय अपने शिरके चारो ओर घुमाकर फेंके गये जलमें सूर्यको प्रभा पड़ी तो प्रदक्षिणकमसे गिरते हुए उस जलसे ऐसा ज्ञात होता था कि विश्वकर्माने अपने शाणपर सूर्यको पुनः चढ़ाया है / / 1 / / सम्यगस्य जपतः श्रुतिमन्त्राः सन्निधानमभजन्त कराब्जे / शुद्धबीजविशदस्फुटवर्णाः स्फाटिकाक्षवलयच्छलभाजः / / 18 / / सम्यगिति / शुद्धानि आगमोक्तक्रमोच्चारणानिर्दोषाणि, बीजानि वहिवारुणादि. मूलमन्त्राणि येषु ते च ते विशदाः निर्मलाः, स्फुटाः स्पष्टाश्च, वर्णाः अक्षराणि येषां ते चेति तथोक्ताः / शुद्धबीजाश्च ते विशदस्फुटवर्णाश्चेति विशेषणसमासः / श्रतिमन्त्राः वेदोक्तमन्त्राः गायध्यादयः, शुद्धानि अदुष्टानि, बीजानि गुडकानीत्यर्थः / यस्य तच्च तत् , विशदः शुभ्रः, स्फुटः उज्ज्वलश्च, वर्णः प्रभाविशेषः यस्य तच्चेति तत् , स्फाटिकं स्फटिकमयम् , यत् अक्षवलयं जपमाला, तस्य छलं व्याजम् , भजन्ति आश्रयन्ति ये ते तादृशाः सन्तः, सम्यक् सुष्टु यथा तथा, जपतः जपं कुर्वतः, अस्य नलस्य, करः पाणिरेव, अब्ज कमलं तस्मिन् , सन्निधानं सान्निध्यम् , अभजन्त प्राप्ताः, इवेति शेषः // 18 // (आगमोक्त क्रमसहित उच्चारण करनेसे ) निर्दोष ( वह्नि, वरुण आदिके ) बीजोंसे स्फुट
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________________ एकविंशः सर्गः। 1361 अर्थात् मात्रादिके सम्यक् प्रकार उच्चारण करनेसे सन्देहरहित अक्षरोंवाले ( पक्षा०-त्रासादि दोषहीन स्फटिकके मणिरूपी बीजों में स्वच्छकान्तिवाले, अथवा-मणिरूपी बीज ही हैं अक्षर जिनके ऐसे ) तथा स्फटिकाक्षमालाके कपटको प्राप्त अर्थात् नलकी अधिक भक्तिसे स्फटिकाक्ष मालारूपमें परिणत होकर मूर्तिमान् हुए वेदमन्त्र सम्यक् प्रकारसे जप करते हुए इस (नल) के सामीप्यको प्राप्त किये अर्थात् समीपमें आकर साक्षात रूपसे रहने लगे। [नलने सूर्योपस्थान करने के बाद स्फटिककी मालासे गायत्रीका जप किया ] // 18 // पाणिपर्वणि यवः पुनराख्यदेवतर्पणयवार्पणमस्य / न्युप्यमानजलयोगितिलौघैः स द्विरुक्तकरकालतिलोऽभूत् / / 16 / / पाणिरिति / अस्य नलस्य, पाणेः करस्य, पर्वणि ग्रन्थौ, यवः यवाकारा स्पष्टरेखा, देवतर्पणे देवसम्बन्धितर्पणक्रियायाम , यवानाम् अर्पणं दानम् / कर्म। पुनराख्यत् पुनरुक्तम् अकरोत् / पुनः पुनर्दानमभाषतेवेत्यर्थः / पाणिपर्वस्थयवैरेव तदर्पणसम्पादनादिति भावः / तथा स नलः, न्युप्यमानेन पितृभ्यः दीयमानेन / 'पितृदानं निवापः स्यात्' इत्यमरः / जलेन उदकेन, युज्यन्ते मिल्यन्ते ये तैः तादृशः, तिलानां कृष्णतिलानाम् , ओघः समूहैः करणैः, द्विरुक्तः वारद्वयमुक्तः, पुनरुक्त इत्यर्थः / द्विगुणीभूत इति यावत् / करकालतिलः पाणिस्थकृष्णवर्णतिलाकाररेखा यस्य सः तादृशः, अभूत् अजायत, इवेति शेषः / नलः देवानां पितणाञ्च तर्पणं कृतवानिति भावः / भाग्यवतां हस्ते यवाकाराः तिलाकाराश्च रेखाः दृश्यन्ते इति सामुद्रिकाः॥ इस ( नल ) के हाथ ( की अङ्गुलियों ) के पर्व ( गांठों ) में स्थित यव ( सामुद्रिक शास्त्रानुसार शुभसूचक यवाकार चिह्नविशेष ) ने देवतर्पणमें दिये गये यवको पुनरुक्तकर दिया तथा पितृतर्पणमें जल के साथमें लिये गये तिल-समूह अर्थात् तिलोंसे वे नल (पहलेसे ही हाथमें स्थित शुभसूचक ) काले तिल के चिह्नसे पुनरुक्त हो गये। [ नलके हाथकी अङ्गुलियों के पर्वमें यत्र तथा तलहथी में काले तिलका चिह्न पहलेसे ही था, अतएव क्रमशः देवतर्पण तथा पितृतर्पण में नलने यव तथा तिल लेकर तर्पण किया तो वह यव तथा तिलका लेना पुनरुक्त हो गया। यवका हाथकी अङ्गुलियों के पर्वमें तथा काले तिलका तलहथीमें होना सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभसूचक माना जाता है। देव-तर्पण तथा पितृ-तर्पणका यहां वर्णन होने. से इसके मध्यगत ऋषितर्पणका भी करना सूचित होता है। नल ने देवर्षिपितृतर्पण किया ] // 19 // पूतपाणिचरणः शुचिनोच्चैरध्वनाऽनितरपादहतेन | ब्रह्मचारिपरिचारिसुरा वेश्म राजऋषिरेष विवेश / / 20 // पूनपाणिरिति / एषः अयम् , राजऋषिः मुनितुल्यनृपतिः, नलः इति शेषः / १.'-करतालुतिला' इति,-'करतालतिलः' इति, -करनालतिलः' इति च पाठान्तराणि।
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________________ 1392 नैषधमहाकाव्यम् / 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः / पूतौ प्रक्षालनेन पवित्री, पाणिचरणौ हस्तपादौ यस्य सः तादृशः सन् , इतरेषां ब्रह्मचारिव्यतिरिक्तानाम्, पादैः चरणैः, हतः तुण्णः इतर. पादहतः, ताहशः न भवतीति अनितरपादहतः तेन जनान्तरपादास्पृष्टेन, अत एव शुचिना शुद्धन, अध्वना मागंण साधनेन, ब्रह्मचारिणः ब्रह्मचर्यवतावलम्बिन एव, परिचारिणः परिचारकाः यत्र तत् तादृशम् , उच्चैः उन्नतम् , सुरा_वेश्म देवपूजा. गृहम् , विवेश प्रविष्टवान् / पूजार्थमिति भावः // 20 // (धोनेसे ) पवित्र हाथ-पैरवाले राजर्षि नलने दूसरेके चरणके स्पर्श नहीं होनेसे अर्थात उस मार्गसे दूसरेके नहीं जानेसे शुद्ध ( अथवा-अधिक शुद्ध ) मार्गसे ( अथवा-ऊंचे सोपानमार्गसे ) ब्रह्मचारी परिचारक हैं जिसमें ऐसे विशाल देव-पूजा-मन्दिर में प्रवेश किया // 20 // कापि यन्नभसि धूपजधूमैर्मेच कागुरुभवर्धमराणाम् | भूयते स्म सुमनःसुमनःसरदामधामपटले पटलेन // 21 / / क्वेति / यस्य सुरा वेश्मनः, नभसि आकाशे, अभ्यन्तराकाशे इत्यर्थः। क्वापि कस्मिश्चित् प्रदेशे, सुमनःसुमनसां मालतीपुष्पाणाम् / 'सुमनाः पुष्पमालत्योः' इति मेदिनी / स्रग्दामभिः मालासमू हैः, कल्पितस्येति शेषः / धाम्नः गृहस्य, गृहाकाररचनाविशेषस्येत्यर्थः / पटले प्रान्ते, मेचकागुरुभवैः कृष्णागुरुसम्भवैः, धूपजधूमः धूपोत्थधूमः, भ्रमराणांभृङ्गाणाम् , पटलेन समूहेन, भूयते स्म भूतम् / पुष्पाणामुपरि भ्रमरैः भाव्यम् , अत एव धूपजधूमा एव तत्समूहस्वरूपा जाता इत्यर्थः // 21 // जिस ( देव-पूजा-मन्दिर) के आभ्यन्तराकाशमें मालतीपुष्पोके माला-समूहके बने (मालती-पुष्प-रचित ) गृह ( देवोंकी पूजाके लिए लाये गये पुष्पोंकी मालाओंके रखने का स्थान-बांस आदिके बने डलिया, डोलची आदि पात्रविशेष ) अथवा-देव-पूजार्थ लाये गये पुष्पोंकी कण्ठमालाओं तथा शिरोमालाओंके गृह (....'पात्र विशेष ) अथवादेवपूजार्थ लाये गये पुष्पोंकी मालाओं के स्थान ( लटकनेकी जगह अर्थात् पूजामन्दिरके छज्जेके ) ऊपरमें चमकीले एवं काले रंगके अगरुधूपके धूएं ही भ्रमर-समूह हुए / [ उक्तरूप पुष्पमाला गृहके ऊपर अगरके धुंए ही परागग्रहगार्थ आये हुए भ्रमर-समूहके समान ज्ञात होते थे। पुष्पगृहके ऊपर भ्रमर-समूहका होना उचित ही है ] // 21 // साङ्करेव रुचिपीततमा यैर्यैः पुराऽस्ति रजनी रजनीव / ते धृता वितरितुं त्रिदशेभ्यो यत्र हेमलतिका इव दीपाः / / 22 / / साङ्कुरेति / रजनी रात्रिः, यैः दीपैः, रुचिभिः दीप्तिभिः साधनैः, पीतं प्रस्तम् , विनाशितमित्यर्थः / तमः अन्धकारं यस्यां सा रुचिपीततमा सती, साङ्कुरा तेजोऽ. कुरसहिता इव, पुरा प्राक , अस्ति आसीत् 'पुरा लङ्ग चास्मे' इति भूते लट् / रजनी रात्रिरेव, यैश्च दीपैः, रुचिभिः दीप्तिभिः, पीततमा अत्यर्थ पीतवर्णा सती, साङ्कुरा
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________________ एकविंशः सर्गः। 1363 सप्ररोहा, दीपरूपाङ्करयुक्तत्यर्थः / रजनी इव हरिदेव, पुरा प्राक, अस्ति आसीत् / 'रजनी पीतिकायां रात्री हरिद्रायाम्' इति विश्वः। हेमलतिकाः स्वर्णलता इव स्थिताः, ते पूर्वोक्ताः, दीपाः आलोकवर्तयः, यत्र सुरार्चावेश्मनि, त्रिदशेभ्यः, देवेभ्यः वितरितुम् उत्सङ्गीकत्तम्, पृताः स्थापिताः, परिचारकैरिति शेषः // 22 // रात्रि, जिन ( दीपकों ) से कान्ति अर्थात् दीपक प्रकाशसे अन्धकारको नष्ट करनेवाली (तेजके ) अङ्कुरसे युक्तके समान तथा जिन ( दीपकों ) से अतिशय पीले वर्णवाली अङ्कुरयुक्त हल्दीके समान थी, स्वर्णलताओं के समान उन दीपकों को जिस ( देव-पूजा-गृह ) में (परिचारकोंने ), देवोंके लिए रक्खा। [ पुजारियोंने . देव-पूजा-गृहमें देवों के लिए दीपक रक्खा ] // 22 // ( यंत्र मौक्तिकमणेविरहेण प्रीतिकामधृतवह्निपदेन / कुङ्कमेन परिपूरितमन्तः शुक्तयः शुशुभिरेऽनुभवन्त्यः // 2 // ) यत्रेति / यत्र देवागारे मौकिकमणेः प्रियतमस्य विरहेण का कुङ्कमस्य स्वोद्दीपनहेतुतया प्रीतिस्तया कामं दत्तं कामेन का वा दत्तं वह्नः पदं दाहकत्वादिरू. पोऽधिकारस्तद्रपंचिह्न वा यस्य तेन कुङ्कुमकेसरेण परिपूरितमन्तमध्यभागमनुभवन्स्यो बिभ्राणाः शुक्तयः शुशुभिरे / वियोगिन्यो हि विरहाग्नितप्तं हृदयमनुभवन्ति। कुङ्कुमपूर्णाः शुक्तयो वियोगिनीरूपेण वर्ण्यन्ते / यद्वा-मौक्तिकमणिविरहेणोपलक्षिताः शुक्तयः कुङ्कुमस्य कामोद्दीपनहेतुतया या प्रीतिस्तया युक्तेन कामेन / अन्य. पूर्ववत् / प्रीतो हि किञ्चित्पदं ददाति शुक्तयो विशिष्टेन कुङ्कुमेनोपलक्षिताः सत्यो मौक्तिकमणिविरहेण पूर्ण मध्यमनुभवन्त्य इव शुशुभिरे इति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा वा। 'प्रीते ति पाठे स्वोद्दीपकत्वेन प्रीतास्कामाद् घृतं करेण लब्धं वह्निपदं येनेत्यर्थः। मुक्ताफलोत्पत्तिहेतुभूताः शुक्तयः पुत्रविरहेण मातरो यथा हृदयान्तर्दहन्ति, तथा कुङ्कुमरूपमन्तर्दाहं वहन्त्यः शुशुभिरे इति वा // 2 // ___ जिस ( देव-पूजा-मन्दिर ) में मोती ( रूपी अत्यन्त प्रिय पुत्र ) के वियोगसे प्रेमसे अच्छी तरह ( या-कामदेवके द्वारां) दिये गये अग्निस्थानीय कुङ्कुमसे परिपूर्ण अन्तःस्तल (मध्यभाग ) को प्राप्त करती हुई शुक्तियां (सी) शोभती थीं। ( अथवा-मोती ( रूप अतिप्रिय पुत्र ) के विरहसे युक्त शुक्तियां ....... )[जिस प्रकार अतिशय प्रियपुत्रके विरह होनेसे उक्त पुत्रमें अतिशय प्रीतिसे माताएँ उसकी विरहाग्निसे अन्तःकरणमें अतिशय जलती हुई पीडित होती हैं, उसी प्रकार स्वोत्पन्न पुत्र-स्थानीय मोतीके पृथक् होनेपर अग्नि-स्थानीय कुङ्कुमसे परि मध्यभागवाली शुक्तियां अन्तर्दाहको धारण करती हुई-सी शोमती थीं। मुक्ताशुक्तियोंमें कुङ्कम रखा गया] // 2 // ] 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यास हैवात्र स्थापितः / 2. 'प्रीतकाम-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1364 नैषधमहाकाव्यम् / अङ्कचुम्बिधनचन्दनपङ्कं यत्र गारुडशिलाज ममत्रम् / प्राप केलिकवलीभवदिन्दोः सिंहिकासुतमुखस्य सुखानि // 23 // __ अङ्केति / यत्र सुरा वेश्मनि, गारुडशिलाज मरकतमणिनिर्मितम्, अमत्रं पात्रम्, अङ्ककोडम् , अभ्यन्तरभागमित्यर्थः / चुम्वति स्पृशतीति अङ्कचुम्बी, घनः सान्द्रः, चन्दनपङ्कः घृष्टचन्दनं यस्य तत्तादृशं सत् , केलिना क्रीडया, कवलीभवन् ग्रासीभवन् अभ्यन्तरं प्रविशन्निति यावत् , इन्दुः चन्द्रो यस्य तादृशस्य तृतीयादिषु भाषित. पुंस्कं पुंवद्गालवस्य' इति पुंवद्भावः / सिंहिकासुतमुखस्य राहुवदनस्य / 'सिंहिकानन्दनो राहुः' इति साधुः / सुखानि आनन्दान् , सादृश्यमिति भावः। प्राप लब्ध. वान् / इन्दु-चन्दनपङ्कयोः श्वेत्य-शैत्यसाम्यात् सिंहिकासुत-गारुडमणिपात्रयोश्च गोलत्वकृष्णवर्णस्वसाम्यादिति भावः। यत्र गृहे गारुडमणिपात्राणि चन्दनभरि तानि सन्तीति निष्कर्षः // 23 // ___जिस ( देव-पूजा-गृह ) में मध्यमें रक्खे हुए चन्दन-पङ्क ( घिसे हुए चन्दन ) वाला मरकत मणिका वर्तन लीलापूर्वक ( अनायास ) ग्रस्त करते हुए चन्द्रवाले अर्थात् क्रीडापूर्वक चन्द्रको निगलते हुए राहु-मुखके (शोभा ) को प्राप्त किया अर्थात् उक्तरूप राहुमु. खके समान शोभते लगा। [ मरकत मणिमय पात्रमें चन्दन घिसकर रखा गया ] // 23 // गर्भमैणमदकर्दमसान्द्रं भाजनानि रजतस्य भजन्ति / यत्र साम्यमगमन्नमृतांशोरङ्कर ङ्ककलुषीकृतकुक्षेः / / 24 / / गर्भमिति / यत्र सुरा वेश्मनि, रजतस्य रौप्यस्य, भाजनानि पात्राणि कत्तुणि एणमदकर्दमेन कस्तूरीपङ्केन, सान्द्रं निविडम् , परिपूर्णमित्यर्थः / गर्भ मध्यप्रदेशम्, भजन्ति प्राप्नुवन्ति सन्ति, अङ्केन चिह्वेन, कलकात्मकेनेत्यर्थः / रङ्कुणा मृगेग, यद्वा-अङ्के क्रोडे, यो रङ्कः मृगाकृतिचिह्नम्, तेन कलुषीकृतः मलिनीभूतः, कुक्षिः उदरं यस्य तथोक्तस्य, अमृतांशोः चन्द्रस्य, साम्यं समताम, अगमन् प्रापन् / रज. तभाजनानां शुभ्रत्वगोलाकारत्वसाम्यात् चन्द्रसादृश्यम्, कस्तूरीपङ्कस्य च कृष्णवर्ण। स्वात् क्रोडस्थहरिणतुल्यत्वं बोद्धव्यम् / यत्र देवपूजार्थ रजतपात्राणि घृष्टकस्तूरीपू. र्णानि सन्तीति निष्कर्षः // 24 // जिस ( देव-पूजा-गृह ) में बीचमें कस्तूरी-लेपसे भरे हुए चांदीके बर्तन अङ्कमें (कलङ्क- ) मृगसे श्यामवर्ण चन्द्रकी समानताको प्राप्त किये अर्थात् घिसे हुए कस्तूरीके लेपको बीचमें रख नेपर चांदीके बर्तन कलङ्कमृग युक्त पूर्णचन्द्र के समान शोभने लगे // 24 // उज्जिहानसुकृताङ्करशङ्का यत्र धर्मगहने खलु तेने / . भूरिशकरकरम्भबलीनामालिभिः सुगतसौधसखानाम् // 25 // .. ___ उजिहानेति / धर्मेण सुकृतेन, गहने निबिडे धर्मगहने बहुविधधर्मानुष्ठानपूर्णे, अन्यत्र-धर्मारण्ये यत्र सुरार्चावेश्मनि, सुगतस्य बुद्धस्य, सौधानां सुधाधवलित.
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________________ एकविंशः सर्गः। 1365 प्रासादानाम् , शुभ्रचैत्यानामित्यर्थः / सखायः शुभ्रतया तत्सहशाः इत्यर्थः, तेषां 'राजाहासखिभ्यष्टच'। भूरयः प्रभूताः, शकराः सिताः येषु तथोक्ताः, ये करम्भाः दधिसक्तवः 'करम्भा दधिसक्तवः' इत्यमरः / ते एव बलयः उपहाराः, नैवेद्यानीत्यर्थः। तेषाम् , आलिभिः पतिभिः कर्तीभिः / उजिहानेषु उद्गच्छत्सु, सुकृताङ्कुरेषु पुण्यप्र. रोहेषु. शङ्का संशयः, तेने विस्तारयामासे, जनयामासे इत्यर्थः / खलु इति निश्चितम्॥ ___धर्मसे परिपूर्ण जिस ( देव-पूजा-गृह, अथवा-जिस धर्मारण्य ) में बौद्ध-देवमन्दिरोंके समान, अधिक शक्करयुक्त दही-मिश्रित सत्तू ( या-भात ) बलि-समूह उत्पन्न हुए पुण्याङ्करकी शङ्का पैदा करते थे / [ दधि युक्त सत्तू ( या-भात ) के बलिकी राशियोंको देखकर ये पुण्य के अङ्कुर उत्पन्न हुए हैं, ऐसा शात होता था। आम्रादिके वनमें आम्रादिके अङ्करके समान धर्मारण्यमें पुण्याङ्करकी उत्पत्ति होना उचित ही.है। उस देव-पूजा-गृहमें शक्कर युक्त दही, सत्तू ( या-दही-भात ) की बलि देवों के लिये अनेक स्थलों पर दी गयी थीं ] // खर्वमाख्यदमरौघनिवासं पर्वतं कचन चम्पकसम्पत् | मल्लिकाकुसुमराशिरकार्षीत् यत्र च स्फटिकसानुमनुञ्चम् / / 26 / / खर्वमिति / यत्र सुरार्चावेश्मनि, कचन क्वचित् प्रदेशे, चम्पकानां स्वर्णवर्णचम्पकपुष्पाणाम् , सम्पत् समृद्धिः, राशिरित्यर्थः। अमरौघस्य देवसमूहस्य, निवासं वासस्थलभूतम् , पर्वतं सुमेरुम् , खवं ह्रस्वम् , आख्यत् उक्तवती तथा मल्लिकाकुसुमानां मल्लिकापुष्पाणाम , राशिः समूहः, स्फटिकसानुं शुभ्रकैलासपर्वतम् अनुच्चं ह्रस्वम् , अकार्षीत् विदधे // 26 // जिस ( देव-पूजा-गृह ) में चम्पाके फूलोंकी सम्पत्ति ( ढेर ) ने देव-निवास पर्वत अर्थात् सुमेरु पर्वतको छोटा कह दिया तथा मल्लिका-पुष्पकी राशिने कैलास पर्वतको नीचा ( छोटा ) कर दिया [चम्पा तथा मल्लिकाके फूलों के ढेरोंसे क्रमशः सुमेरु तथा कैलास पर्वत भी छोटे जान पड़ते थे। देव-पूजा-गृहमें चम्पा तथा मलिकाके फूलों के ढेर पूजार्थ रखे गये थे] // 26 // स्वात्मनः प्रियमपि प्रति गुप्तिं कुर्वती कुलवधूमवजज्ञे / हृद्यदैवतनिवेद्यनिवेशाद् यत्र भूमिरवकाशदरिद्रा / / 27 / / स्वात्मन इति / यत्र सुरा वेश्मनि, भूमिः पृथिवी, देवगृहाभ्यन्तरप्रदेश इत्यर्थः / हृद्यानां मनोज्ञानाम् , दैवतानां देवतासम्बन्धिनाम , निवेद्यानाम् उपहर्तव्यानाम् , नैवेद्यानामित्यर्थः / देवतेभ्यः प्रतिष्ठितदेवताभ्यः, निवेद्यानाम् उत्सर्जनीयानामिति वा, निवेशात् स्थापनात् हेतोः, अवकाशदरिद्रा निरन्तराला सती सर्वथा दृष्टेरगोचरा सतीत्यर्थः / स्वात्मनः निजायाः, प्रियं दयितं भर्तारम् , भूपति नलमित्यर्थः / प्रति अपि नलम् उद्दिश्यापीत्यर्थः / गुप्तिं गोपनम् , स्वाङ्गाच्छादनमि. त्यर्थः / कुर्वती विदधती, कुलवधूं सद्वंश्यामङ्गनाम् , अवजज्ञे अवज्ञातवती। कुल
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________________ 1396 नैषधमहाकाव्यम् / वधूरपि स्वभर्तारं प्रत्यपि लज्जाधिक्यात् स्वशरीरं गोपयति, अतः सा भूमिः तत्सदृशी जाता इत्यर्थः। बहुनि नैवेद्यानि तत्र गृहे स्थापितानि आसन् इति निष्कर्षः // 27 // जिस ( देव-पूजा-गृह ) में मनोहर देवार्थ नैवेद्य रखनेसे अवकाश-रहित (तिल भी रखने के लिए स्थान-शून्य ) भूमि ने अपने पति (नल ) के प्रति भी ( लज्जावश शरीरको छिपाती हुई कुलाङ्गनाको भी तिरस्कृत कर दिया। [ जिस प्रकार कुलाङ्गना लज्जावश अपने शरीरका थोड़ा-सा भी भाग पतिको भी नहीं दिखलाना चाहती, उसी प्रकार उस देवपूजागृहमें देवार्पणके लिए रखे गये नैवेद्योंसे पृथ्वीमें तिल रखनेको भी स्थान नहीं बचे रहनेसे मालूम पड़ता था कि पृथ्वीने भी अपने पति (नल ) से अपने सम्पूर्ण शरीरको छिपा लिया है / उस देव-पूजा-गृहमें देवोंको चढ़ाने के लिए अनेक प्रकारके नैवेद्य रखे थे, जिनसे तिल रखने के लिए पृथ्वी लेशमात्र भी नहीं दिखलायी पड़ती थी ] // 27 / / यत्र कान्तकरपीडितनीलग्रावरश्मिचिकुरासु विरेजुः / गातृमूर्द्धविधुतेरनुबिम्बात् कुट्टिमक्षितिषु कुट्टमितानि // 28 // यत्रेति / यत्र सुरा वेश्मनि, कान्तस्य प्रियस्य चन्द्रकान्तमणेश्च / 'कान्तः प्रिये चन्द्रकान्ते' इति यादवः / करेण हस्तेन अंशुना च / 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्य. मरः / पीडितानां सुदृढाकर्षणेन व्यथितानाम स्पर्शन विकारं प्रापितानाञ्च, वर्णान्तरं प्रापितानामित्यर्थः। नीलग्राणाम् इन्द्रनीलमणीनाम् , रश्मयः दीप्तयः एव, चिकुराः केशाः यासां तादृशीषु, कुट्टिमक्षितिषु मणिनिबद्धभूमिषु, गातुः गायकस्य मूर्द्धविधुतेः शिरसकम्पनस्य,अनुबिम्बात् प्रतिबिम्बपतनात् हेतोः, कुट्टमितानि शिर:कम्पनरूपशृङ्गारचेष्टाविशेषाः, विरेजुः शुशुभिरे / अत्र भरतमुनिः-'केशस्तनाधरादिग्रहणेऽपि हर्षसम्भ्रमोत्पन्नं शिरः करकम्पनं कुट्टमितमिति विज्ञेयं सुखं विदुः' इति / मणिबद्धा भूमयो गायकाश्च यत्र सन्तीति भावः // 28 // जिस ( देव-पूजा-गृह ) में पति ( पक्षा०-चन्द्रमा, या सूर्य ) का कर ( हाथ, पक्षा०किरण ) छूए गये नीलम मणियोंकी किरणरूप केशवाली मणिबद्ध भूमिमें गायकोंके ( गाते समय ) कँपते हुए मस्तकके प्रतिबिम्बित होनेसे ( नायकके द्वारा किये जाते हुए दन्तक्षतका निषेध करने के लिए ) शिरःकम्पनके समान शोभने लगा। [गायकलोग गान करते हुए शिर हिलाते थे तो उसका प्रतिबिम्ब मणिमयी भूमिपर पड़कर ऐसा ज्ञात होता था कि पतिके चुम्बन या दन्तक्षत करने के लिए उद्यत होनेपर नायिका जिस प्रकार शिर हिलाकर निषेध करती है उसी प्रकार चन्द्र ( या सूर्य ) की किरणसे छुई गयी चन्द्रकान्त (या सूर्यकान्त ) मणिसे जड़ी गयी भूमिरूपिणी नायिका नीलममणिकी किरणरूप केश-समूहवाले शिरको कैंपाकर निषेध कर रही हो / देवपूजागृहमें गायक लोग देवोंके भजन शिर हिलाहिलाकर गा रहे थे और वहांकी भूमि मणिमयी थी] // 28 //
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________________ एकविंशः सर्गः। 1367 नैकवर्णमणिभूषणपूर्णे स क्षितीन्दुरनवद्यनिवेद्ये / अध्यतिष्ठदमलं मणिपीठं तत्र चित्रसिचयोच्चयचारौ / / 29 / / नैकेति / क्षितीन्दुः भतलचन्द्रः, सः नलः, नैकवर्णाः विविधवर्णविशिष्टाः, ये मणयोरत्नानि, तेषां भूषणैः आभरणैः, पूणे व्याप्ते, अनवद्यानि निर्दोषाणि, निवेद्यानि उत्सर्जनीयानि द्रव्याणि यत्र तस्मिन् , तथा चित्राणां विविधप्रकाराणाम् , सिचयानां वस्त्राणाम, उच्चयेन समूहेन, चारी मनोज्ञे, तत्र सुरार्चावेश्मनि, अमलम् उज्ज्वलम्, मणिपीठं रत्नमयासनम् , अध्यतिष्ठत् अधिष्ठितवान् / सुरार्चनार्थमपविवेश इत्यर्थः / 'अधिशीस्थासाम्' इति अधिकरणस्य कर्मसंज्ञा // 29 // __ यह पृथ्वीके चन्द्रमा नल अनेक रंगोंवाले मणियों के भूषणोंसे पूर्ण, अनिन्दनीय ( दर्शनीय तथा शुद्धतम ) देवार्पणीय पदार्थों वाले तथा चित्र-विचित्र वस्त्र-समूहसे सुन्दर उस ( देव-पूजा-गृह ) में रत्न जड़े ( या-रत्नके बने ) हुए आसन पर बैठे। ( पाठा०-चित्र विचित्र वस्त्रसमूहसे सुन्दर रत्न जड़े हुए आसन पर बैठे) // 29 // सम्यगति नलेऽर्कमतूर्ण भक्तिगन्धिरमुनाऽकलि कर्णः / श्रदधानहृदयं प्रति चान्तः साम्बमम्बरमणिनिरचैषीत् / / 30 // सम्यगिति / नले नैषधे, अतूर्णम् अव्यग्रम् , व्यग्रत्वे.सम्यक्ताऽभावादिति भावः। अत एव सम्यक् सुष्टु यथा भवति तथा, अकं सूर्यम् , अर्चति आराधयति सति, अमुना अर्केण, कर्णः राधेयः, भक्तेः श्रद्धाविशेषस्य, गन्धः लेशः अस्ति यस्य सः तादृशः भक्तिगन्धिः अल्पभक्तिः। 'गन्धो गन्धक आमोदे लेशे सम्बन्धगर्वयोः' इति विश्वः / 'अल्पाख्यायाम्' इति समासान्तः इत् / अकलि निरधारि / अम्बरमणिः सूर्यः, साम्बं तदाख्यकृष्णसुतम् , प्रति च उद्दिश्यापि, अन्तः अन्तःकरणे, श्रद्दधानं भक्तिमत् , हृदयं चेतो यस्य तादृशम् , साम्बः केवलं मनसा भक्तः, न तु पूजक इति भावः / निरचैषीत् निश्चितवान् / कर्णापेक्षया तथा साम्बापेक्षया च नल एव मे परमभक्त इति निश्चिकाय इत्यर्थः / 'यावन्न दीयते चाध्य भास्कराय महात्मने' इत्यादिना सूर्यायदानमन्तरेण देवतान्तरपूजानिषेधात् नलः प्रथमं सूर्यमेवार्चयामासेति भावः॥ (पञ्चदेव-पूजनमें सर्वप्रथम सूर्य पूजाका वर्णन दो श्लोकों ( 2130-31) से करते हैं-) अव्यग्रताके साथ नलके सूर्यको सम्यक् प्रकारसे पूजा करते रहने पर इस (सर्व) ने (कुन्ती-पुत्र ) कर्णको थोड़ी भक्तिवाला माना तथा (कृष्ण-पुत्र ) साम्बको हृदयमात्र से ही श्रद्धालु निश्चित किया अर्थात् नलके समान कार्यरूपसे भी पूजा करनेवाला नहीं निश्चित किया, किन्तु केवल मनसे ही श्रद्धालु निश्चित किया। [पञ्चदेवपूजनमें सूर्यका पूजन सर्वप्रथम करनेका विधान होनेसे यहां पहले सूर्यपूजनका वर्णन किया गया है। सूर्य-भक्त कर्ण तथा साम्बसे भी नलको सूर्य ने अधिक भक्तिमान् माना ] // 30 // 1. 'हृदयप्रति' इति 'प्रकाश'सम्मतं पाठान्तरम् /
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________________ 1398 नैषधमहाकाव्यम् / तत्तदर्यमरहस्यजपेषु स्रङ्मयः शयममुष्य बभाज | रक्तिमानमिव शिक्षितुमुच्चै रक्तचन्दनजबीजसमाजः / / 31 / / तदिति / तेषां तेषां श्रौतस्मार्त्तानाम् , अर्यम्णः सूर्यस्य, रहस्यानां मन्त्राणाम् , जपेषु असकृत् गूढोच्चारणकाले, स्रङ्मयः जपमालास्वरूपः, रक्तचन्दनजानां कुचन्दः नोद्भवानाम , बीजानां गुटिकानाम् / 'तिलपर्णी तु पत्राङ्गं रञ्जनं रक्तचन्दनम् / कुच. न्दनम्' इत्यमरः / समाजः समूहः उच्चैःअधिकम् ,रक्तिमानं रक्तत्वम् , शिक्षितुमिव अभ्यसितुमिव, अमुष्य नलस्य, शयं हस्तम् , बभाज सिषेवे / नलपाणितलस्य प्रकृत्या एव रक्तिमातिशयात् शिक्षार्थं यथा शिष्याः उपाध्यायं सेवन्ते, तथा रक्ति माधिक्यशिक्षार्थ तत्पाणितलम् आश्रयामास इति भावः // 31 // उन-उन सूर्य-मन्त्रों के जपोंमें मालारूप रक्तचन्दन -बीज-समूहने मानो अधिकतर लालिमाको सीखने के लिए इस ( नल ) के हाथ को प्राप्त किया। [नल जब रक्तचन्दनके बीजोंकी मनियोंवाली मालासे सूर्यके श्रौत तथा स्मार्त मन्त्रोंको जपने लगे तो ऐसा मालूम होता था कि-मानो यह रक्तचन्दन-बीज समूह स्वभावतः अत्यधिक लाल नलके हाथसे अधिक लालिमाको सीखने के लिए इनके हाथके पास आ गया है। शिक्षा लेने के लिए शिष्यका गुरुके पास जाकर उसकी सेवा करना उचित ही है। सद्यःफलप्रद होनेसे नलने रक्तचन्दनके बीजोंकी मणिवाली मालासे सूर्य मन्त्रोंका जप किया ] // 31 // (हेमनामकतरुप्रसवेन त्र्यम्बकस्तदुपकल्पितपूजः। __आत्तया युधि विजित्य रतीशं राजितः कुसुमकाहलयेव / / 3 / / ) हेमेति / हेमनामकस्य धत्तरस्य तरोः प्रसवेन विकसितकुसुमेन कृत्वा तेन नलेनोपकल्पिता पूजा यस्य स त्र्यम्बको राजितः शुशुभे / उत्प्रेक्षते-रतीशं युधि विजित्य बलादात्तया गृहीतया कुसुमरूपकाहलया धत्तरपुष्पाकारवाद्यविशेषेणेव / कुसुमकाहलयोपलक्षित इवेति वा / शराणां कौसुमत्वाद्वादित्राणामपि कौसुमतया युक्तरवारकामकाहलायाः कौसुमत्वमुचितमेव / पराभूतात्कामावलाद् गृहीतया कौसु. मकाहलयेव धत्तरपुष्पेण रञ्जित इत्यर्थः / अन्योऽपि शत्रुजित्वा बलाद् गृहीतेन तच्छववादित्रादिना शोभते / सौन्दर्येण स्वस्पर्धितया स्वस्य शिवभक्तत्वात् कामस्य च शिवविरोधित्वात् स्वविरोधिनं स्वस्वामिविरोधिनं च स्मरं रणे जित्वा तस्माद्वला. नलेनैव गृहीतया कुसुमकाहलयेवेत्थं धत्तरपुष्पेण कृत्वा नलेन कृतोपदः, अथ चकृतपूजः शुशुभे / सेवको हि स्वविरोधिनं स्वस्वामिविरोधिनं वा रणे जित्वा तच्छ. स्ववादित्रादि बलाद् गृहीत्वा स्वामिन उपदीकरोति / तेन च स्वामी शोभत इति वा। प्रियतरेण धत्तुरपुष्पेण स नलः शिवमपूपुजदिति भावः / 'धत्तुरः कनकाह्वयः' इत्यमरः / 'वाद्यभाण्डविशेषे तु काहला' इति विश्वः // 3 // 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश'व्याख्यया सहैवात्र स्थापितः /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1399 ( धत्तुरके फूलोंसे नलके द्वारा पूजित शिवजी इस प्रकार शोभित हुए कि-मानो वे युद्ध में कामदेवको जीतकर उसके पुष्पमय काहला ('तुरही' नामक बाजा ) को लाकर ग्रहण किये हों / अथवा-युद्ध में कामदेवको जीतकर उससे छीने गये पुष्पमय काहलाके समान धत्तूर-पुष्पसे नलके द्वारा पूजित शिवजी शोभने लगे। [प्रथम अर्थमें धत्तुरके पुष्पोंसे नल के द्वारा पूजा करने पर शिवजी स्वयमेव कामदेवको जीत कर पुष्पमय बाणों वाले उस कामदेव के पुष्पमय 'काहला' नामक बाजाको भी छीनकर लाये हुए-से शोभते थे, लोकमें भी कोई वीर वैरीको युद्धमें जीतकर उसके अस्त्र-शस्त्र-बाजा आदिको छीनकर लानेपर शोभित होता है। दूसरे अर्थमें-नलने ही स्वाराध्यदेव शिवजीके शत्रु कामदेवको युद्ध में जीतकर उसके पुष्पमय 'काहला' बाजाको लाकर धत्तर-पुष्परूपमें शिवजीको समर्पित किया है, जिससे वे (शिवजी) शोभते (प्रसन्न होते ) हैं। लोकमें भी कोई वीर अपने स्वामीके शत्रुको युद्धमें जीतकर उसके अस्त्र-शस्त्र-बाजा आदिको लाकर तथा अपने स्वामीके लिए समर्पितकर उसे प्रसन्न करता है। कामदेवके 'काहला' (तुरही) बाजाको धत्तूरके फूलके समान एवं पुष्पमय होनेसे शिवजीपर चढ़ाये गये धत्तूरके फूलकी उक्तरूपसे उत्प्रेक्षा की गयी है / नलने धत्तूरके फूलोंसे शिवजीकी पूजा की। यहांसे लेकर आठ श्लोकों (21 // क्षे० तथा मूल श्लोक 32-38) द्वारा शिव-पूजनका वर्णन किया गया है ] // 3 // अर्चयन् हरकरं स्मितभाजा नागकेसरतरोः प्रसवेन | सोऽयमापयदतिर्यगवाग्दिक-पालपाण्डुरकपालविभूषाम् // 32 // अर्चयन्निति / सः उक्तरूपेण पूजानिरतः, अयम् एषः नलः, स्मितभाजा प्रस्फु. टितेनेत्यर्थः / नागकेसरतरोः तदाख्यवृक्षविशेषस्य,प्रसवेन कुसुमेन साधनेन, हरस्य शम्भोः, करं हस्तम्, अर्चयन पूजयन् , तिरश्च्या दिशः तिर्यग्वर्तमानप्राच्यादिदिग. ष्टकात् , तथा अवाच्या दिशः अधोदिशश्च सकाशात् , अन्या पृथगिति अतिर्यगवाग्दिक ऊर्ध्वा दिक इत्यर्थः। तस्याः पालः रक्षकः, ब्रह्मा इत्यर्थः। तस्य पाण्डुरं पाण्डुवर्णम्, यत् कपालं शिरोऽस्थिखण्डम्, भिक्षापात्ररूपेण हरकत कचिरकालधारणात् गतकृत्ति अत एव पाण्डुवर्ण ब्रह्मणः पञ्चमशिरोऽस्थिखण्डमित्यर्थः / तस्य विभूषामिव विभूषां शोभाम, आपयत् प्रापितवान् / हरेण स्वदुहितरं सन्ध्यां प्रति काम. भावेनानुधावतः ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः छिन्नम्, ततः तत्पापस्य.प्रायश्चित्तं चिकीर्षुः हरः भिक्षार्थ तत् करे दधार, नागकेसरपुष्पस्यापि तस्सदृशपाण्डुवर्णत्वाद् इयमुक्तिोंद्धव्या। नलेन पूजायां दत्तं नागकेसरपुष्पं ब्रह्मकपालसदृशं बभौ इति भावः // 32 // विकसित नागकेसर-पुष्पसे सुवर्णादि धातुमयी ( दक्षिणामूर्ति) शिव (की प्रतिमा) के हाथकी पूजा करते हुए उस्त ( नल ) ने पूर्वादि एवं अधोदिशासे भिन्न दिशा अर्थात् ऊर्ध्वदिशाके पति (ब्रह्मा) के श्वेतवर्ण कपालके भूषणको प्राप्त करा दिया। [शिवप्रतिमाके हाथमें नागकेसरका पुष्प चढ़ानेपर शिव-प्रतिमा हाथमें ब्रह्मकपाल धारण करती हुई-सी शात होती थी / नलने नागकेसर-पुष्पसे शिवकी पूजा की ] // 32 //
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________________ 1400 नैषधमहाकाव्यम् / पौराणिक कथा-अपनी कन्या 'सन्ध्या' के पीछे कामवशीभूत होकर अनुगमन करते हुए ब्रह्माके पांचवें शिरको शिवजीने काट दिया / तदनन्तर ब्रह्मवधजन्य प्रायश्चित्त-विधानार्थ भिक्षाके लिए निरन्तर उसे हाथमें धारण किया / नीलनीररुहमाल्यमयीं स न्यस्य तस्य गलनालविभूषाम् / स्फाटिकीमपि तनूं निरमासोन्नीलकण्ठपदसान्वयतायै / / 33 // नीलेति / सः नलः, तस्य हरस्य, नीलनीररुहमाल्यमयीम् इन्दीवरमालारूपाम्, गलनालस्य कण्ठदेशस्य, विभूषां भूषणम्, न्यस्य समl, स्फाटिकीं स्फटिकमयीम् अपि, तनूं शरीरम् , नीलकण्ठः इति पदस्य शिवस्य नीलकण्ठ इति संज्ञावाचकस्य शब्दस्य, सान्वयताये अन्वर्थत्वाय, नीलः कण्ठो यस्य इति विग्रहस्य सार्थकतासम्पादनायेत्यर्थः / निरमासीत् कल्पितवान् / मा माने इति धातोरदादिकाल्लुङ् // 33 // उस ( नल ) ने नीलकमलोंकी मालाको शिवजीके कण्ठमें पहनाकर स्फटिकमणिमयी ( अतः श्वेतवर्णवाली ) भी शिवप्रतिमाको 'नीलकण्ठ' ( नीले कण्ठवाले ) शब्दकी सार्थकताके लिए नीलकण्ठरूप विशिष्ट भूषणवाली * बना दिया। [शिवप्रतिमा स्फटिकमणिकी होनेसे पहले श्वेतवर्ण थी, किन्तु शिवको 'नीलकण्ठ' ( नीले कण्ठवाला) होनेसे उनकी प्रतिमामें भी नीलकण्ठ होने पर ही शिववाचक 'नीलकण्ठ' शब्दकी सार्थकता होती है, ऐसा समझकर नलने नीलकमलोंकी माला उस स्फटिकमणिमयी श्वेतवर्ण शिवप्रतिमाके कण्ठमें डालकर उस 'नीलकण्ठ' शब्दको सार्थक कर दिया। नलने स्फटिकमयो 'शिवजीकी प्रतिमा नीलकमलोंकी माला पहनायी ] // 33 / / प्रीतिमेष्यति कृतेन ममेहकर्मणा पुररिपुर्मदनारिः / तत्पुरः पुरमतोऽयमधाक्षीद् धूपरूपमथ कामशरञ्च / / 34 // प्रीतिमिति / पुररिपुः त्रिपुरारिः, मदनारिः कामशत्रुश्च, शम्भुरिति शेषः / कृतेन विहितेन, मम मे, ईदृक्कर्मणा गुग्गुलुपर्यायकपुरदाहेन कर्पूरपर्यायककामशरदाहेन च कर्मणा, प्रीति सन्तोषम, एष्यति प्राप्स्यति, अतः अस्मादेव कारणात् , अयं नलः, तस्य पुररिपोः मदनारेश्व, पुरः अग्रतः, यथाक्रमं धूपन्याजम् , पुरं गुग्गुलुम् असुरपुरञ्च / 'गुग्गुल्लो कथितः पुरः' इति विश्वः / अथ अनन्तरम्, कामशरं कपूर मदनबाणञ्च, अधाक्षीत् दग्धवान् / नलः धूपदानरूपां पूजां चकारेति निष्कर्षः // 34 // पुररिपु ( पुरोंके शत्रु ) तथा मदनारि (कामदेवके शत्रु शिवजी ) मेरे ऐसे कार्यसे प्रसन्न होंगे ( मानों ऐसा मनमें विचारकर ) नलने उन (शिवजी ) के सामने धूपरूपको ग्रहण किये हुए पुर अर्थात् गुग्गुलु तथा कामबाण अर्थात् कर्पूरको जलाया। [ स्वामी. शिवजीकी प्रसन्नताके लिए उनके भक्त नलका उनके शत्रु 'पुर' (गुग्गुलु ) तथा ! 'कामबाण' (कर) को जलाना उचित ही है। लोकमें भी कोई व्यक्ति स्वामीको प्रसन्न करने के लिए
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________________ एकविंशः सर्गः। 1401 उसके शत्रुओंको स्वामीके सामने भस्म करता है। नलने गुग्गुलु तथा कर्पूर जलाकर शिवजीको धूप समर्पण किया है ] // 34 // तन्मुहूर्त्तमपि भीमतनूजाविप्रयोगमसहिष्णुरिवायम् | शूलिमौलिशशिभीततयाऽभूद् ध्यानमूर्छननिमीलितनेत्रः // 35 // तदिति / अयं नलः, तन्मुहूर्तमपि तस्मिन् मुहूर्तेऽपि, 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' इति द्वितीया / शूलिनः अयमानशम्भोः, मौलिशशिनः शिरोभूषणचन्द्रसकाशात् , भीततया भीतत्वेन हेतुना, शशिनो विरहिपीडकत्वादिति भावः। भीमतनूजाया दमयन्त्याः, विप्रयोगं विरहम, असहिष्णुरिव सोढुमक्षमः सन् इव, ध्यानेनैव हृदि देवमूर्तिचिन्तनरूपेणैव, मूच्र्छनेन मूर्छारोगेण,सर्वेन्द्रियार्थोपरमत्वसाम्यात् ध्यानस्य मूर्छासाम्यत्वं बोद्धव्यम् / निमीलिते मुद्रिते, नेत्रे लोचने, यस्य सः तादृशः, अभत् अजायत / धूपदानानन्तरं हरध्यानमकरोदिति निष्कर्षः // 35 // उस ( पूजा ) समयमें भी दमयन्तीके विरहको नहीं सहनेवालेके समान इस ( नल ) ने शूलधारी (शिवजी) के मस्तकस्थित चन्द्रमासे डरे हुए-से .ध्यानरूप मूर्छासे नेत्रोंको बन्द कर लिया / [चन्द्र विरहियोंको सन्तप्त करता है, अतः उससे मानो डरे हुए नलने ध्यानरूप मूर्छासे नेत्रोंको बन्द कर लिया। जिसे शूलको धारण करनेवाला व्यक्ति ( पक्षा०-शिवजी ) भी मस्तक पर धारण करता है, उस चन्द्रसे नलका भययुक्त होना उचित ही है / नलने नेत्रोंको बन्दकर शिवजीका ध्यान किया / / 35 / / दण्डवद् भुवि लुठन् स ननाम त्र्यम्बकं शरणभागिव कामः। आत्मशस्त्रविशिखासनबाणान् न्यस्य तत्पदयुगे कुसुमानि // 33 // दण्डवदिति / आत्मनः स्वस्य, शस्त्राणि आयुधस्वरूपान् , विशिखासनं धनुः, बाणान् विशिखान् च, कुसुमानि पुष्पाणि, कामस्य धनुर्बाणयोः पुष्पमयत्वादिति भावः। तस्य त्र्यम्बकस्य, पदयोः चरणयोः, युगे द्वये न्यस्य समर्प्य, शरणभाक आश्रयार्थी, कामः कन्दर्प इव, सः नलः, दण्डवत् दण्डसहशः, भुवि भूमी, लुठन् पतन् , त्र्यम्बकं त्रिलोचनम् , ननाम प्रणतवान् // 36 // शिवजीके चरणद्वयमें पुष्पसमर्पण कर नलने दण्डवत् साष्टाङ्ग प्रणाम किया तो ऐसा मालूम पड़ता था कि कामदेव शिवजीसे पराजित होने के कारण अपने पुष्पमय धनुषबाणको उन (शिवजी) के दोनों चरणों में रखकर (क्षमायाचनार्थ) साष्टांग प्रणाम कर शरणागत हुआ है। [इससे नलका साक्षात् कामदेवके समान सुन्दर होना सूचित होता है। लोकमें भी दुर्बल शत्रु बलवान् शत्रुके समक्ष अपने अस्त्र-शस्त्रको समर्पितकर क्षमायाचना करता हुआ उसके चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम कर शरणागत होता है। नलने शिवके चरणों में पुष्पाअलि देकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ] // 36 //
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________________ 1402 नैषधमहाकाव्यम् / त्र्यम्बकस्य पदयोः कुसुमानि न्यस्य सैष निजशस्त्रनिभानि / दण्डवद् भुवि लुठन् किमु कामस्तं शरण्यमुपगम्य ननाम ? / / 37 // उक्तमेवार्थ भङ्गयन्तरेणाह-त्र्यम्बकस्येति / सः प्रसिद्धः एषः अयम्, कामः मदनः / 'सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्' इत्यत्र श्लोकपादस्यापि ग्रहणमिष्यते इति सोर्लोपे वृद्धिः / निजशस्त्रनिभानि स्वायुधसदृशानि, कुसुमानि पुष्पाणि, ऽयम्बकस्य त्रिलोचनस्य, पदयोः चरणयोः, न्यस्य समर्म्य, भुवि भूमौ, दण्डवत् दण्डसदृशम, लुठन् पतन् , गात्रं पातयन्नित्यर्थः। शरण्यं रक्षितारम, त्र्यम्बकं त्रिनयनं हरम्, उपगम्य प्राप्य, ननाम किमु ? प्रणतवान् किम् ? // 37 / / नलके शिव-चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम करनेपर ऐसा ज्ञात होता था .कि-अपने शस्त्रतुल्य पुष्पोंको शिवजीके दोनों चरणों में रखकर शरणागतवत्सल शिवजीके यहां आकर कामदेव दण्डवत् साष्टाङ्ग प्रणाम कर रहा है / / 37 // व्यापृतस्य शतरुद्रियजनौ पाणिमस्य नवपल्लवलीलम् / भृङ्गभङ्गिरिव रुद्रपराक्ष-श्रेणिराश्रयत रुद्रपरस्य / / 38 // व्यापृतस्येति / रुद्रपरस्य शिवपरायणस्य, अत एव शतरुद्रियस्य शतं रुद्राः देवता अस्य तस्य रुद्रदेवताकमन्त्रविशेषस्य / 'शतरुद्राद् घश्च' इति वक्तव्यात् घप्रत्ययः / जप्तौ जपे। नपुंसके भावे क्तः, 'आदितश्च' इति चकारात् विश्वस्तवत् निष्ठायाम् इडभावे जप्तम्, 'आदितश्चेति चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् विश्वस्त. वदित्याहुः' इति भट्टक्षीरस्वामी / तथा च 'जपिवमिभ्यां वा' इति महोपाध्यायः वर्द्धमानसूत्रम् / व्यापृतस्य आसक्तस्य, अस्य नलस्य, नवपल्लवस्येव कोमलकि. सलयस्येव, लीला विलासः यस्य तं तादृशं, पाणिं करम, रुद्रात् रुद्रशब्दात् , परेषाम् उपरितनानाम्, पश्चादुच्चार्यमाणानामित्यर्थः। अक्षाणाम् अक्षेस्यक्षराणाम, रुद्राक्षाणामित्यर्थः / यद्वा-रुद्रपराणां शिवभक्तानाम्, ये अक्षाः जपमालाः, रुद्राक्षमाला इत्यर्थः / तेषां श्रेणिः पङ्गिः, भृङ्गाणां भ्रमराणाम, भङ्गिरिव श्रेणिरिव / मालेव इति यावत् / आश्रयत श्रितवती, प्राप्तवतीत्यर्थः // 38 // शिवपरायण ( अत एव ) शतरुद्रिय मन्त्र के जपमें संलग्न इस (नल) के नवपल्लवतुल्य हाथका आश्रय ( रुद्रपराक्षश्रेणि-'रुद्र' शब्दसे पर ( अन्तस्थ ) है अक्षश्रेणि ( अक्षसमूह = अक्षमाला ), जिसकी ऐसी अर्थात् रुद्राक्षमाला, पक्षा०-रुद्रपर (शिवजीमें परायण अर्थात् शिवभक्त-नल', से धार्यमाण अक्षश्रेणि ) रुद्राक्षमालाने किया / [नल हाथमें रुद्राक्षकी माला लेकर शतरुद्रिय मन्त्रका जप करने लगे] // 38 // उत्तमं स महति स्म महीभृत पूरुषं पुरुषसूक्तविधानैः। द्वादशापि च स केशवमूर्तीादशाक्षरमुदीर्य ववन्दे // 39 // 1. 'प्रकाश'कारः श्लोकमिमं क्षेपकमाह / 2. 'महीयान्' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1403 उत्तममिति / सः पूजानिरतः, महीभृत् भूपालो नला, उत्तमं पूरुषं पुरुषोत्तम विष्णुम् , पुरुषसूक्तस्य 'सहस्त्रशीर्षा पुरुषः' इत्यादिमन्त्रस्य, विधानः विधिभिः, महति स्म पूजितवान् / तथा सः नलः, द्वादशाक्षरम् 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' इत्येवं रूपं द्वादशाक्षरात्मकं मन्त्रम् , उदीर्य उच्चार्य, केशवस्य नारायणस्य, द्वादशापि च मूर्तीः केशवनारायणादि-द्वादशसङ्ख्यकविग्रहान् , ववन्दे तुष्टाव // 39 // उस राजा (नल ) ने ('सहस्रशीर्षाः पुरुषः.....' इत्यादि ) पुरुषसूक्तके विधानसे पुरुषोत्तम अर्थात् विष्णुका पूजन किया तथा ( 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस ) द्वादशाक्षर मन्त्रका उच्चारण विष्णुके बारहों मूर्तियोंकी वन्दना की। [नलने 'सहस्रशीर्षा-' इत्यादि पुरुषसूक्तके सोलह मन्त्रोंसे विष्णु भगवान्के लिए जल या 'पुष्प चढ़ाया, अथवा-उक्त सोलह मन्त्रोंसे विष्णु भगवान्का षोडशोपचार पूजन किया तथा 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस द्वादशाक्षर मन्त्रसे बाहर शालग्राम 'शिलाओंकी वन्दना की, अथवा- उक्त द्वादशाक्षर मन्त्रसे बारह सूर्यमूर्तियों के सहित नारायणकी बारह मूर्तियोंका 'ॐ केशवाय धात्रे नमः ललाटे' इस क्रमसे न्यास ( अङ्गन्यास ) किया ] // 39 // 1. तदुक्तम्'दद्यात्पुरुषसूक्तेन यः पुष्पाण्यप एव वा / अर्चितं स्याज्जगदिदं तेन सर्व चराचरम् // आनुष्टुभस्य सूक्तस्य त्रिष्टुभन्तस्य देवता / पुरुषो यो जगद्वीजमृषिर्नारायणः स्मृतः॥' 2. तदुक्त पद्मपुराणे 'शिला द्वादश भो वैश्य शालग्रामसमुद्भवाः / विधिवत्पूजिता येन तस्य पुण्यं वदामि ते // कोटिद्वादशलिङ्गस्तु पूजितैः स्वर्णपङ्कजः / यत् स्याद् द्वादशकल्पेषु दिलेनैकेन तद्भवेत् // ' इति / 3. तदुक्तम्-'द्वादशादित्यसहिता मौदिश विन्यसेत् / केशवाद्याः क्रमाद्देहे वक्ष्यमाणविधानतः॥ ललाटे केशवं धात्रा कुक्षौ नारायणं पुनः / अयंग्णा हृदि मित्रेण माधवः (वं) कण्ठदेशतः।। वरुणेन च गोविन्दं पुनर्दक्षिणपार्श्वके / अंशुना विष्णुमंसस्थं भगेन मधुसूदनम् // गले विवस्वता युक्तं त्रिविक्रममनन्तरम् / वामपावस्थमिन्द्रेण वामनाख्यमथांसके / पूष्णा श्रीधरनामानं गले पर्जन्यसंयुतम् / हषीकेशाह्वयं पृष्ठे पद्मनाभं ततः परम् // त्वष्ट्रा दामोदरं पश्चाद्विष्णुना ककुदि न्यसेत् / द्वादशाणं महामन्त्रं ततो मूर्ध्नि प्रविन्यसेत् // ' इति / 88 नै० उ०
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________________ 1404 नैषधमहाकाव्यम् / मल्लिकाकुसुमडुण्डुभकेन स भ्रमीवलयितेन कृते तम् / आसने निहितमैक्षत साक्षात् कुण्डलीन्द्रतनुकुण्डलभाजम् / / 40 / / मल्लिकेति / सः नलः, भ्रमीवलयितेन चक्राकारवेष्टनः वलयाकारीकृतेन, मल्लिकाकुसुमानां मल्लिकापुष्पाणाम् , मल्लिकापुष्पग्रथितेनेत्यर्थः / हुण्डुभकेन राजिल. सर्पाकारया स्थूलया मालया / 'समौ राजिलहुण्डभौ' इत्यमरः / 'इवे प्रतिकृती' इति कन् / 'मल्लिकाकुसुमडुण्डुभकेन' इत्यत्र पादान्तगुरुत्वं छन्दःशास्त्रेऽभ्युपगम्यते / कृते निर्मिते, आसने पीठे, निहितं स्थापितम् , कुण्डलीन्द्रस्य नागराजस्य, शेषम्य सम्बन्धिन्याः इत्यर्थः / तनोः शरीरस्य, कुण्डलं वलयम् , कुण्डलिततनुः मित्यर्थः / भजते आश्रयति, क्षीरोदे शेषशायिरूपेणाधिशेते इत्यर्थः / यः तादृशम् , तं नारायणम् , साक्षाद् ध्यानयोगेन प्रत्यक्षमिव, ऐक्षत अपश्यत् // 40 // ___ उस (नल ) ने लपेटकर गोलाकार किये हुए, डोंड़ (निर्विष सर्प-विशेष ) साँपके समान मल्लिकापुष्पोंकी मालासे बनाये गये आसनपर स्थापित उस विष्णुको (क्षीरसागर में) साक्षात् कुण्डलित शरीरवाले शेषनागके ऊपर स्थित के समान देखा // 40 // मेचकोत्पलमयी बलिबन्धुस्तद्वलिस्रगुरसि स्फुरति स्म / कौस्तुभाख्यमणिकुट्टिमवास्तुश्रीकटाक्षविकटायितकोटिः // 41 / / मेचकेति / बले असुरविशेषस्य, बन्धुः बन्धकस्य, बलिनामकदैत्यराजबन्धन. कारिणो विष्णोरियर्थः / उरसि वक्षसि, कौस्तुभाख्यं कौस्तुभरत्नसंज्ञकम्, यत् मणि. कुट्टिमं रत्ननिबद्धभूमिः, तदेव वास्तु आवासभूमिः यस्याः तादृश्याः, श्रियः लक्ष्म्याः, कटाक्षेण अपाङ्गदर्शनेन, विकटायिताः विशालीभताः, वृद्धि गता इत्यर्थः / कोटयः प्रान्तदेशाः यस्याः सा तादृशी, मेचकोत्पलमयो नीलोत्पलग्रथिता, तस्य नलस्य, तेन नलेन दत्ता इत्यर्थः / बलिस्रक पूजामाल्यम् / 'बलिः पूजोपहारः स्याद् बलिदैत्यो बलिः करः' इति विश्वः / स्फुरति स्म शुशुभे // 41 // ( वामनावतार धारणकर ) बलिनामक दैत्यको बांधनेवाले (विष्णु) के हृदयमें उस (नल ) के द्वारा पूजामें अर्पित नीलकमलकी माला ऐसी शोभती थी कि-(विष्णु भगवान्के हृदयस्थ ) कौस्तुभ मणिजटित भूमिवाले निवासस्थान (घर ) वाली अर्थात् सर्वदा रहनेवाली लक्ष्मी के कटाक्षोंसे उस मालाके प्रान्तमाग वृद्धिंगत हो रहे हों // 41 / / स्वर्णकेतकशतानि च हेम्नः पुण्डरीकघटनां रजतस्य | मालयाऽरुणमणेः करवीरं तस्य मूर्ध्नि पुनरुक्तमकार्षीत् / / 42 / / स्वर्णति / स नलः, तस्य विष्णोः, मर्दिन शिरसि, हेम्नः सुवर्णस्य, मालया माल्येन, स्वर्णनिर्मितपुष्पमाल्यार्पणेनेत्यर्थः / स्वर्णकेतकानां स्वर्णवर्णकेतकीपुष्पाणाम् , शतानि बहुसङ्ख्यकानि, स्वर्णकेतकीकुसुममाल्यार्पणमित्यर्थः / रजतस्य रौप्यस्य, मालया स्त्रजा, रौप्यनिर्मितपुष्पमालाऽर्पणेनेत्यर्थः / पुण्डरीकानां सिताम्भो.
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________________ एकविंशः सर्गः। 1405 जानाम्, घटनां रचनाम् श्वेतपद्ममाल्यार्पणमित्यर्थः। अरुणमणेः पद्मरागस्य, मा. लया माल्येन, पद्मरागमणिघटितमाल्यदानेनेत्यर्थः। करवीरं करवीरकुसुमम्, रक्तकरवीरपुष्पमालार्पणमित्यर्थः / पुनरुक्तं द्विरुक्तम्, द्विगुणीकृतमित्यर्थः। पुनरुक्तानि च पुनरुक्ता च पुनरुक्तोति द्वन्द्वे 'नपुसकमनपुंसकन-' इत्यादिना नपुंसकैकशेषे एकवद्भावः / अकार्षीत् कृतवान् / द्विविधेनापि माल्येन स नारायणमर्चयामासेति निष्कर्षः॥४२॥ उस ( नल ) ने उस (विष्णु भगवान् ) के मस्तक पर स्वर्णनिर्मित पुष्पमालाके चढ़ानेसे स्वर्णवर्ण ( पीले ) केतकियोंको, चाँदीकी बनी पुष्पमालाको चढ़ानेसे श्वेतकमलकी रचनाको तथा पद्मरागमणिकी बनी पुष्पमालाको चढ़ानेसे करवीर ( लाल कनेर ) को पुनरुक्त कर दिया। [ नलने विष्णु भगवान्के मस्तकपर पोली केतकी आदि तथा स्वर्ण निर्मित पुष्प आदिकी मालाको चढ़ाया ] // 42 // नाल्पभक्तबलिरन्ननिवेद्यैस्तस्य हारिणमदेन स कृष्णः / शङ्खचक्रजलजातवदर्चः शङ्खचक्रजलपूजनयाऽभूत् / / 43 // नेति / स भगवान् नारायणः, तस्य नलस्य, अन्ननिवेद्यैः अन्नान्येव भक्तान्येव निवेद्यानि उपहाराः तैः, इवेति शेषः / नाल्पः प्रभूतः भकबलिः अन्नोपहारः यस्य स तादृशः / 'भक्तमन्धोऽन्नम्' इत्यमरः। अन्यत्र-नाल्पभक्तः अधिकभक्तिसम्पन्नः, बलिः असुरविशेषः यस्य सः तादृशः, -तन्नामकः इत्यर्थः / अभूत् अजनि; तस्य हारिणमदेन कस्तूर्या, नलापितमृगमदोपहारेणेवेत्यर्थः / कृष्णः कृष्णवर्णः पापकर्षणात् कृष्णनामा च, 'कृष्णो वणे हरी ध्वांचे पिके व्यासे शुकेऽर्जुन' इत्यजयपालः / अभूत्, तथा शङ्खानां दक्षिणावर्तादीनां विविधानां कम्बूनाम्, चक्रे समूहे. 'चक्रं सैन्ये स्थाङ्गे च राष्ट्र दम्भान्तरे चये। आयुधाः सलिलावर्ताः' इत्यजयपालः। यत् जलं वारि, तेन या पूजना अर्चना तया, इवेति शेषः / शङ्ख पाञ्चजन्यन्, चक्रं सुदर्शनम्, जलजातं पद्मञ्च अस्या अस्तीति सा तद्वती शङ्खचक्रपद्मविशिष्टेत्यर्थः। अर्चा प्रतिमा पूजा च यस्य सः तादृशश्च / 'अर्चा पूजाप्रतिमयोः' इति विश्वः / अभत् / नलपूजानिबन्धना खलु भगवतः विष्णोल्पिभक्तलिरित्यादिशब्दवाच्यता अभूदिति भावः॥ वे विष्णु भगवान उस ( नल ) के ( चढ़ाये गये ) अन्नोपहारोंसे अधिक मातकी बलि (पूजा) वाले (पक्षा०-अतिशय मक्त 'बलि' नामक दैत्यवाले ) हुए, कस्तूरीसे कृष्ण वर्णवाले (पक्षा०-'कृष्ण' नाम वाले.) हुए तथा ( स्वर्णादिनिर्मित दक्षिणावर्त ) शङ्खों के समूहों के जलसे पूजन करनेसे शङ्ख-समूहके जलसे हुई है पूजा जिसकी ऐसे ( पक्षा०-शङ्ख, चक्र और कमलसे युक्त प्रतिमावाले ) हुए। [नलने भगवानको अन्नादिकी बलि देकर उनके 'नाल्प भक्तबलि, कृष्ण तथा शङ्खचक्रजलजातवदर्च विशेषणशब्दोंको सार्थक कर दिया। नलने विष्णु भगवानको अन्न, कस्तूरीका लेप तथा शङ्खसे युक्त जल चढ़ाया ] / / 43 //
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________________ 1406 नैषधमहाकाव्यम् / राज्ञि कृष्णलघुधूपंजधूमाः पूजयत्यहिरिपुध्वजमस्मिन् / निर्ययुर्भवधृता भुजगा भीर्यशोमलिनिता इव जालैः // 44 // राज्ञीति / अस्मिन् राज्ञि नले, अहिरिपुः नागारिः, गरुडः इत्यर्थः। ध्वजः लान्छनम् , ध्वजे रथचुडायामित्यर्थो वा, यस्य तं विष्णुम, पूजयति अर्चयति सति, भिया अहिरिपुभयेन, यत् दुर्यशः भीरुत्वापवादः, तेन मलिनिताः स्वभावतः शुभ्रा अपि मलिनीकृताः, भवेन शम्भुना, तन्नैव प्रतिष्ठितेनेति भावः / धृताः भूषण स्वेन परिगृहीताः, भुजगाः वासुकि प्रमुखाः शुभ्रस इव, कृष्णाः कृष्णवर्णाः, लघवः अगुरवः / 'शीघ्र मनोज्ञे निःसारे लघुः स्यादगुरुगुमे' इति शाश्वतः। तेशं धूपजाः धूपोत्थाः, धूपदानाय कालागुरुकाष्ठदहनोत्पन्ना इत्यर्थः / धूमाः, जालः गवाक्षविवरः, निर्ययुः निर्गताः / भवशरीरे भूषणस्वेन वृताः विशदा अपि भुजगाः पूज्यमाननारा. यणस्य रथचजस्थितस्वशत्रुगरुडदर्शनात् भयेन मलिनाः इव सन्तः धूपजातकृष्णधूमरूपेण बहिर्निर्जग्मुरित्यर्थः // 44 // " इस राजा ( नल ) के गरुडध्वज ( विष्णु ) की पूजा करते रहनेपर खिड़कियों के छिद्रोंसे काले अगरके धूपके धूएँ ऐसे मालूम पड़ते थे कि (गरुड़से उत्पन्न ) भयरूपी अयशसे मलिन किये गये, ( उस देव-पूजा-गृहके एक भागमें ही प्रतिष्ठित ) शिवजीके द्वारा ग्रहण किये गये सर्प निकल (भाग) रहे हों / [ सर्प हमारे शत्रु ( गरुड़) के ध्वजचिह्नवाले विष्णुकी पूज! हो रही है, अतः वह हमारा शत्रु गरुड आकर हमलोगोंको खा जायेगा, इस मयरूपी अपयशसे ( स्वमावतः स्वच्छ होते भी ) मलिन हुये, शिव-शरीर-भूषणभूत सोके समान काले अगरके धूएँ खिड़कियों के छिद्रों से निकल रहे थे। लोकमें भी शत्रुके भयसे मलिन व्यक्ति मुख्य द्वारको छोड़कर खिड़की आदिके मार्गसे भाग जाता है / नलने विष्णुभगवान्को धूप अर्पण किया ] // 44 // अर्घनिःस्वमणिमाल्यविमित्रैः स्मेरजातिमयदामसहस्रैः / तं पिधाय विदधे बहुरत्नक्षीरनीरनिधिमग्नमिवैषः // 45 // अर्धति / एषः नलः, अर्घेण मूल्येन, निःस्वानां दरिद्वाणाम,अमूल्यानामित्यर्थः / मणीनां रस्नानाम् , माल्यः स्रग्भिः, विमित्रैः संयुक्तैः, स्मेराणां विकसितानाम् , जातिमयदाम्नां मालतीकुसुमनजाम् , सहस्रैः समूहैः, तं विष्णुम, पिधाय आच्छाद्य, बहुरत्नझीरनीरनिधी बहूनि, रत्नानि मणयो यस्मिन् तादृशः, यः क्षीरनीरनिधिः क्षीरोदसमुद्रः, तत्र मग्नम् इव, विदधे चकार / अत्र क्षीरस्थानीयाः शुभ्रमालती. कुसुमस्त्रजः रत्नस्थानीयानि च मणिमाल्यानीति बोध्यम् / / 45 // अमूल्य मणियोंकी मालाओंसे मिश्रित, विकसित जाति-पुष्पोंकी सहस्रों मालाओंसे 1. '-धूपन-' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1407 आच्छादितकर इस ( नल ) ने उस ( विष्णु भगवान् ) को बहुत रत्नोंवाले क्षीरसमुद्रमें डूबे हुएके समान कर दिया // 45 // अक्षसूत्रगतपुष्करबीजश्रेणिरस्य करसङ्करमेत्य | शौरिसूक्तजपितुः पुनरापत् पद्मसद्मचिरवासविलासम् // 46 // अन्तसूत्रेति / अक्षसूत्रगतानां जपमालाग्रथनतन्तुस्थितानाम् , पुष्करबीजानां पद्मगुटिकानाम्, श्रेणिः राजिः माला इत्यर्थः / शौरिसूक्तस्य पुरुषसूक्तस्य, जपितुः जपं कर्तुः, अस्य नलस्य, करसङ्करं हस्तसम्बन्धम्, एत्थ प्राप्य, पुनः भूयोऽपि, पद्मं कमलम् एव, सद्म गृहम, तत्र चिरवासस्य बहुकालावस्थितेः, विलासं शोभाम् , आपत् प्राप्तवती / नलकरस्य कमलसदृशत्वादिति भावः // 46 // ____ अक्षमालामें गूथे गये कमलबीजों के समूह अर्थात् कमल-बोज-मालाने विष्णुसूक्त जपने. वाले इस ( नल ) के हाथसे सम्बद्ध होकर पुनः कमलरूप गृहमें चिरकालतक निवास करने के समान शोभने लगा। [ कमल-बीजों की मालासे नल विष्णुसूक्त जपने लगे तो नलके हाथके कमलतुल्य होनेसे ऐसा मालूम पड़ता था कि वे कमलबाज पुनः कमलमें निवास कर रहे हों / नल कमल-बोज-मालाले विष्णुसूक्त का जप करने लगे] // 46 // कैटभारिपदयोनतमूर्ना सञ्जिता विचकिलस्रगनेन | जह्नजेव भुवनप्रभुणाऽभात् सेविताऽनुन यताऽऽयतमाना // 47 / / कटभारीति / नतः भूसंलग्न इत्यर्थः / मूर्दा शिरः यस्य तेन प्रणामार्थ नतमस्त. केन, अनुनयता स्तवेन देवं प्रलादयता, भुवनप्रभुगा भूलोकनाथेन, अनेन नलेन भगीरथेन च, यद्वा-जलेश्वरेण समुद्रेश च / 'भुवनं विपिने तोये' इति विश्वः / कटभारेः विष्णोः, पादयोः चरणयोः, सञ्जिता संसर्ग प्रापिता, समर्पिता इत्यर्थः / अन्यत्र-आसञ्जिता आसक्तिं गता, भक्तिमतीत्यर्थः। विष्णुपदोद्भुतत्वादिति भावः / आयतं दीर्घम् , मानं प्रमाणं यस्याः सा, अन्यत्र-यतमाना चेष्टमाना, पृथिव्यां गन्तुं यत्नवतीत्यर्थः / यद्वा-आयतः दीर्घः, मानः ईर्ष्या कोपश्व 'यस्याः सा। 'मानं प्रमाणे प्रस्थादौ मान श्चित्तोन्नती गृहे' इति विश्वः / सेविता आराधिता, एकत्रसुगन्धेन सर्वैः समादृता इत्यर्थः। अन्यत्र-त्रिभुवनजनपूजिता इत्यर्थः। विच. किलस्रक मल्लिकाकुसुममाला / 'स्मृतो विचकिलो मल्ली प्रभेदे मदनेऽपि च' इति विश्वः / जबजा गङ्गा इव, अमात् बभौ // 47 // ___नतमस्तक प्रार्थना करते हुए भूपति इस (नल ) के द्वारा श्रीविष्णु भगवान् के दोनों चरणों में रखो हुई लम्बी मल्लिकामाला नतमस्तक (गङ्गाप्राप्त्यर्थ ) प्रार्थना करते हुए भूपति इस ( भगीरथ ) के द्वारा श्रीविष्णु भगवान्के चरणदय में संलग्न ( पृथ्वोपर अवतरण करने के लिए ) तत्पर गङ्गाके समान शोभित हुई / ( पक्षा०-(प्रेयसीके मानको दूर करने के लिए ) न त पाक एवं प्रार्थना करते (मनाते ) हुए भूत ( नायक नल) के द्वारा सेवित अधिक
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________________ 1408 नैषधमहाकाव्यम् / मानवाली नायिकाके समान शोभित हुई)। [नलने विष्णु भगवान् के दोनों चरणोंपर विकसित मल्लिका-पुष्पकी मालाका समर्पित किया तो वह भगीरथकी तपस्यासे प्रसन्न होकर विष्णु भगवान्के चरणोंसे निकली हुई गङ्गा-जैसी शोभती थी ] // 47 // (युग्मम् ) स्वानुरागमनघः कमलायां सूचयन्नपि हृदि न्यसनेन / गौरवं व्यधित वागधिदेव्याः श्रीगृहोद्धनिजकण्ठनिवेशात् // 4 // इत्यवेत्य वसुना बहुनाऽपि प्राप्नुवन्न मुदमर्चनया सः / सूक्तिमौक्तिकमयैरथ हारैभक्तिमैहत हरेरुपहारः / / 46 / / स्वेति / अनघः निष्पापः, विष्णुरिति शेषः / हृदि वक्षस, न्यसनेन स्थापनेन, कमलाया एवेति भावः / कमलायां लक्ष्म्याम्, स्वानुगगं विजप्रेम, सूचयन् प्रकट यन् अपि, श्रियः तस्याः कमलाया एव, गृहात् निवासभूतात् , निजवक्षसः इति शेषः / ऊ उपरिस्थिते, निजे स्वकीये, कण्ठे गलदेशे, निवेशात् स्थापना हेतोः, वागधिदेव्याः वाग्देवतायाः सरस्वत्याः, गौरवं पूजाम्, सम्मानाधिक्यमित्यर्थः / कमलापेक्षया इति भावः / व्यधित कृतवान् / इतीति / सः नलः, इति पूर्वोक्तप्रकारं विष्णोर्मनोभावम, भवेत्य ज्ञात्वा, बहुना प्रभतेनापि, वसुना धनेन, लक्ष्मीरूपेण मणिरत्नादिना इति भावः / लम्या च इति ध्वन्यते, विहितया इति शेषः / अर्च नया पूजया, अपीति शेषः / मुदं प्रीतम्, न प्राप्नुवन् न लभमानः सन् , अथ अनन्तरम् , सूक्तिमौक्तिकमयः मूक्तयः सरसपनि बद्धानि स्तोत्राण्येव, मौक्तिकानि मुक्तासमूहाः, विशदत्वादिति भावः / तन्मयैः तदात्मकैः, हारैः हाररूपैः, सरस्वत्या इति च ध्वन्यते, उपहारः उपाय, हरेः नारायणस्य, भक्तिम् ऐकान्तिकसेवा. विशेषम्, ऐहत अचेष्टत, हरिभक्ति दर्शयितुमच्छदिति भावः / हरिणा कमलातः वाण्याः अधिकं गौरवं कृतमतः सरस्वतीकरणकार्चनेनैवास्मिन् अधिका भक्तिः प्रद. शिता भविष्यतीति मत्वा नलः सरस्वतीमयैः सूक्तम्तमभजत इति निष्कर्षः॥४८-४९॥ 'निर्दोष विष्णु भगवान् ( लक्ष्मीको ) हृदयमें रखनेसे लक्ष्मीमें अपने अनुरागको सूचित करते हुए भी लक्ष्मीके निवासस्थान (विष्णुहृदय ) के ऊपर कण्टमें ( सरस्वतीको ) रखनेसे सरस्वतीका ( लक्ष्मीकी अपेक्षा अधिक ) गौरव किये है। इस बातको जानकर उस (नल ) ने बहुत-से स्वर्णकमलादि धनों के द्वारा पूजा करनेसे भी पूर्णतः हर्षित नहीं होते हुए, सूक्तिरूप मोतियों के बने समर्पित हारोंसे विष्णुकी भक्ति करने लगे। [जिस प्रकार कोई पति किसी स्त्रीको सुन्दर स्थानमें रखकर उसमें अपने स्नेहको सूचित करता हुआ भी उस स्त्रीसे अधिक स्नेहपात्र किसी दूसरी स्त्रीकी उससे भी अच्छे उच्चतम स्थानमें रखकर उसका गौरव बढ़ा देता है; उसी प्रकार हृदयमें लक्ष्मीको रखनेसे उसमें अपने अनुरागको प्रकट करते हुए भी विष्णु भगवान् लक्ष्मीके निवासस्थान हृदयसे भी ऊपर कण्ठमें 1. 'प्राप्तवान्न' इति पाठान्तरम् / 2. 'सूक्त' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। सरस्वतीको रखनेसे लक्ष्मीकी अपेक्षा सरस्वतीको अधिक गौरव देते हैं ] अत एव विष्णु भगवान्की प्रियतमा सरस्वतीके द्वारा ही उनको प्रसन्न करना उचित समझकर सुवर्णकमलादि अनेक बहुमूल्य पदार्थोंसे पूजन करने पर भी सन्तोष नहीं होनेसे वे नल सूक्तिरूप मोतियों के हाररूप उपहार ( भेट ) से विष्णु भगवान् की स्तुति करने लगे। [ लोकमें भी कोई किसीको सुवर्णादि समर्पण करके उसे शीघ्र प्रसन्न करनेके लिए मोतीके हारोंको उपहार में देता है / पूजाके बाद नल विष्णुकी स्तुति करने लगे ] // 48-49 // दूरतः स्तुतिरवाग्विषयस्ते रूपमस्मदभिधास्तव निन्दा / तत् क्षमस्व यदहं प्रलपामीत्युक्तिपूर्वमयमेतदवोचत् / / 50 / / दूरत इति / हे भगवन् ! ते तव, रूपं स्वरूपम्, अवाग्विषयः वाचामगोचरः, 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' इत्यादि तेरिति भावः / स्तुतिः स्तवः, दूरतः दूरे, कत्तु मशक्या इत्यर्थः / यस्य तव स्वरूपं वाचामतीतं तस्य तव स्तुतिः कथं कत्त शक्येत ? कथमपि नेत्याशयः। एवञ्च अस्मदभिधाः अस्माकमुक्तयः, अस्मदीया स्तुतिरित्यर्थः / तव भवतः, निन्दा कदर्थना, भवतीति शेषः / अनन्तगुणस्य तव अत्यल्पगुणप्रकाशकत्वात् वागविषयम्य च वाचा वर्णनात् तिरस्कार एवेत्यर्थः / अत एव अहं नलः, यत प्रलपामि अनर्थकं वच्मि, 'तत् प्रलापवचनम् क्षमस्व सहस्व, मार्जयेत्यर्थः / इत्युक्तिः एवं-वचनम्, पूर्व प्रथमं यस्मिन् तद् यथा भवति तथा, अयं नलः, एतद् वक्ष्यमाणम्, अवोचत् उक्तवान् // 50 // (हे भगवन् ! ) तुम्हारा स्वरूप वचनातीत है ( अतः तुम्हारी ) स्तुति दूर है, अर्थात नहीं की जा सकती ( इस अवस्थामें ) हमारा कथन ( आपकी स्तुतिरूपमें मत्कृत वर्णन, वर्णनातीतका स्वल्प शब्दोंमें वर्णन करने के कारण ) तुम्हारी निन्दा है। इस कारणसे 'मैं ( तुम्हारी स्तुति के रूपमें ) जो कुछ प्रलाप करता हूँ, उसे आप क्षमा करें। ऐसा कहकर नल यह ( 21150-103 ) कहने (विष्णु भगवान्की स्तुति करने ) लगे // 50 // स्वप्रकाश ! जड एव जनस्ते वर्णनं यदभिलष्यति कर्तुम् / / नन्वहपतिमहः प्रति स स्यान्न प्रकाशनरसस्तमसः किम् / / 51 // स्वेति / स्वप्रकाश ! हे स्वयंप्रकाश ! अन्यनिरपेक्षप्रकाशरूप ! विष्णो ! 'एष आस्मा स्वप्रकाशः' इति वेदान्तादिति भावः / जडः मूढः, अविद्याऽऽच्छन्नः इति यावत् / एषः अयम, जनः लोकः, ते तव, चिन्मयस्येति भावः। वर्णनं गुणकीत नम् , कत्त विधातुम्, यत् अभिलष्यति वान्छति, ननु भो विष्णो !, सः तादृश. वर्णनाभिलाषा, अहर्पतेः सूर्यस्य, सहः तेजः, प्रति लक्ष्यीकृस्य, तमसः अन्धकारस्य, प्रकाशने प्रकटने, स्वाविर्भावविषये इत्यर्थः। रसः वाम्छा, न स्यात् किम् ? न भवेत् किम् ? अपि तु स्यादेव इत्यर्थः। स्वप्रकाशस्य तव वर्णने जडस्य ममाभि 1. '-दभिधा तव' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1410 नैषधमहाकाव्यम् / लाषा प्रकटप्रकाशसूर्यतेजःप्रकाशने तमसः अभिलाष इव अत्यन्तमशोभन एवेति भावः। तेजोनाश्यस्य तमशः तेजः प्रकाशाभिलाषः यथा विफल एव, तथा स्वप्रका• शनाश्याया जडतायाः अपि तं प्रति प्रकाशनात्मकवर्णनोद्यमः विफल एवेति तात्पर्यम्॥ हे स्वयं प्रकाशमान ! मूर्ख ( अविद्यासे आवृत ) यह 'जन अर्थात् मैं ( या-लोक ) जो तुम्हारा वर्णन करना चाहता है, वह सूर्य तेजको अन्धकारद्वारा प्रकाशित करनेकी इच्छा ( के समान ) नहीं है क्या ? / [ स्वयं प्रकाशमान सूर्य के तेजको जिसप्रकार अन्धकार प्रकाशित करनेकी इच्छा करे तो वह उसकी जड़ता ही होगी, उसी प्रकार स्वयं प्रकाशमान विष्णु भगवान्के वर्णनको भी स्तुतिकर प्रकाशित करना मेरी (या-लोगोंकी) मूर्खता ही होगी ] // 51 // मैव वाङ्मनसयोर्विषयो भूस्त्वां पुनर्न कथमुद्दिशतां ते / उत्कचातकयुगस्य घनः स्यात् तृप्तये घनमनाप्नुवतोऽपि // 52 / / - मेति / हे विष्णो ! वाङ्मनसयोः वाक्यचेतसोः / 'अचतुर-' इत्यादिना साधुः / विषयः गोचरः, मैव भूः नैव भव, स्वमिति शेषः। 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' इति श्रुतेरिति भावः / पुनः तथाऽपि, ते वाङमनसे, स्वां भवन्तम् , कथं केन हेतुना, न उद्दिशताम् ? न लक्ष्यताम् ? स्वामुद्दिश्य न प्रवर्त्ततामित्यर्थः / अपि तु उद्दिशतामेवेति भावः / 'दिश अतिसजने' इत्यस्माद्धातोलोटि रूपम् / तथा हि धनं मेघम् , अनाप्नुवतः अलभमानस्य अपि, दूरावस्थितत्वादिति भावः / उस्कयोः मेघार्थमेव उत्सुकयोः, चातकयोः सारङ्गयोः, युगस्य द्वन्द्वस्य, चातकमिथुनस्येत्यर्थः। तृप्तये जलदानेन प्रीतये, घनः मेघः स्वयमेव, स्यात् भवेत् / चातकयुगस्य अविषयोऽपि मेघो यथा स्वयमेव तत्तप्तये उदेति तथा वाङ्मनसयोर. गोचरोऽपि त्वं स्वयमेव मत्तप्तये स्याः, अतोन वर्णनोद्यमोमयात्यज्यते इति निष्कर्षः॥ ( यद्यपि ) तुम वचन तथा मनके विषय नहीं हो अर्थात् न तो तुम्हारा वर्णन ही किया जा सकता है और न ध्यान ही; तथापि वे दोनों ( वचन तथा मन ) तुमको लक्ष्यकर क्यों नहीं प्रवृत्त होवें अर्थात् लोग तुम्हारी स्तुति तथा ध्यान क्यों नहीं करें; क्योंकि मेघको नहीं पाते हुए भी उत्कण्ठित चातकके मिथुन ( जोड़ी ) की तृप्ति के लिए मेघ होता है। [जिस प्रकार चातक-मिथुन मेघको नहीं पाकर भी उसका उद्देश्य कर उससे जल चाहता है तो मेघ उसे जल देकर तृप्त करता ही है, उसी प्रकार यद्यपि आपका वर्णन तथा ध्यान क्रमशः वचन तथा मनके द्वारा नहीं किया जा सकता तथापि आपको लक्ष्यकर प्रवृत्त होनेवाले उनको भक्तवत्सल आप अवश्यमैव तृप्त करते ही हैं, अत एव मैं वचन तथा मनस्ते आपकी स्तुति तथा ध्यान करता हूँ ] // 52 // छद्ममत्स्यवपुषस्तव पुच्छास्फालनाज्जलमिवोद्धतमब्धेः / श्वैत्यमेत्य गगनाङ्गणसङ्गादाविरस्ति विबुधालयगङ्गा / / 53 / /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1411 छमेति / हे विष्णो ? छमना कपटेन, वेदोद्धारव्याजेनेत्यर्थः / मत्स्यः मीनः, वपुः शरीरं यस्य तथोक्तस्य, तव ते, पुच्छस्य लांगूलस्य, आस्फालनात् ताडनात् हेतोः, अब्धेः सागरात् , उद्धृतम् उर्ध्वम् उरिक्षप्तम् , जलं वारि, कर्तृ / गगनाङ्गणेन आकाशात्मकचत्वरेण, सङ्गात् संयोगात् हेतोः, श्वैत्यं श्वेतत्वम् , एत्य प्राप्य, विबुधालयगङ्गा स्वर्णदी, भूत्वा इति शेषः / आविरस्तीव प्रादुर्भवतीव / नीलवर्णा अपि सामुद्रा ह्यापो गगनालोकसंस्पर्शादेव धवला दृश्यन्ते इति भावः // 53 // ( अवतारोंकी स्तुति करते हुए नल सर्वप्रथम मत्स्यावतारकी स्तुति करते हैं-शङ्खासुरके द्वारा अपहृत वेदके उद्धारके लिए ) कपटसे मत्स्यका शरीर धारण किये तुम्हारे पूंछके आस्फालनसे ऊपर उछला हुआ समुद्रजल आकाशाङ्गणके संसर्गसे श्वेतिमाको प्राप्तकर मानो स्वर्गीय नदी ( आकाशगङ्गा) रूपमें प्रकट हुआ है। [ यद्यपि नलका शिवभक्त होना प्रसिद्ध है, तथापि शिवको विष्णुका भक्त होनेसे विष्णुकी स्तुति द्वारा ही नल शिवको प्रसन्न करना चाहते हैं और 'श्रीहर्ष' कविके परमवैष्णव होनेसे भी विष्णु भगवान्की स्तुतिसे ही आरम्भ करने में कोई अनुपपत्ति नहीं है, इसी कारण आगे 'श्रेयसा हरिहरौ परिपूज्य' ( 214105) के द्वारा शिव- विष्णु दोनों के ही पूजन करनेका वर्णन कविने किया है ] // 53 // भूरिसृष्टिधृतभूवलयानां पृष्ठसीमनिकिणैरिव चक्रः। चुम्बिताऽवतु जयत् क्षितिरक्षाकर्मठस्य कमठस्तव मूत्तिः / / 54 / / भूरीति / हे भगवन् ! पृष्ठसीमनि पृष्ठप्रदेशे, भूरिषु प्रतिकल्पं नूतनसृष्टिकरणात् बह्वीषु, सृष्टिषु सृजनकार्येषु, तानां पृष्ठदेशे एव उदूढानाम् , भूवलयानां पृथ्वी. मण्डलानाम् , किणः पुनः पुनः वहनेन घर्षणजनितचिह्नविशेषरिव, चक्रैः चक्राकार. चिह्नराजिभिः, चुम्बिता स्थाने स्थाने स्पृष्टा, क्षितेः पृथिव्याः, रक्षायां पालने जलनिमज्जनात् रक्षणविषये इत्यर्थः / कर्मठस्य कुशलस्य / 'कर्मणि घटोऽठच'। तवभवत सम्बन्धिनी, कमठः कूर्मरूपिणी, मूर्तिः तनुः, जगत् भुवनम् , अवतु रक्षतु // 54 // ( अब कच्छपावतारकी स्तुति करते हैं-तुम्हारी ) पीठपर अनेक सृष्टियों में धारण किये गये पृथ्वी-मण्डलों के घठे ( किण ) के समान चक्रचिह्नोंसे स्पृष्ट (छूई गया ) पृथ्वीकी रक्षा करनेमें तत्पर आपका कच्छप-शरीर संसारकी रक्षा करे। [आपके कच्छप-शरीरके पृष्ठ. भागपर जो चक्राकार चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं, वे मानो अनेक सृष्टियोंमें पृथ्वीकी रक्षा करनेके लिए उसको धारण करने के घट्टे पड़े हुए हैं, ऐसा आपका कच्छप-शरीर संसारकी रक्षा करे / पीठपर प्रत्येक सृष्टिमें पृथ्वीको धारणकर आप उसकी रक्षा करते हैं। सात पातालोंके नीचे फणाओंपर पृथ्वीको. शेषनाग धारण करते हैं, उसके भी नीचे ब्रह्माण्डके नीचे कटाइके मारको ब्रह्माण्ड (जला-) वरणरूपजलमें कच्छपरूप विष्णु धारण करते हैं॥ 54 //
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________________ 1412 नैषधमहाकाव्यम् / दिक्षु यत्खुरचतुष्टयमुद्रामभ्यवैमि चतुरोऽपि समुद्रान् / __ तस्य पौत्रिवपुषस्तव दंष्टा तुष्टयेऽस्तु मम वास्तु जगत्याः / / 5 / / दिदिवति / हे विष्णो ! दिक्षु चतसृषु आशासु, चतुरः चतुःसङ्घयकान् अपि, समुद्रान् सागरान् , यस्य वराहमूत्तिधरस्य, खुराणां चतुष्टयस्य चतुःसङ्ख्यकशफस्य, मुद्रां चिह्नम् , खुरेण विदलनजनितखातरूपचिह्नमिति यावत् , अभ्यवेमि जानामि, तस्य उक्तविधस्य, पोत्री वराह एव / 'वराहः शूकरो घृष्टिः कोलः पोत्री किरः किटिः' इत्यमरः / वपुः शरीरं यस्य तादृशस्य, तव भवतः, जगत्याः पृथिव्याः, वास्तु वेश्मस्थानम् , रसातलप्रदेशादुद्धत्य दंष्टोपरिस्थापनेन आवासभूता इत्यर्थः / 'वेश्मभूर्वास्तुरस्त्रियाम्' इत्यमरः / दंष्टा विशालदन्तः, मम मे, तुष्टये वाञ्छापूरण. जनितप्रीतये, अस्तु भवतु // 55 // ___ ( अब दो श्लोकोंसे वराहावतारकी स्तुति करते हैं- ) मैं ( पूर्वादि चारों ) दिशाओं में चारों समुद्र को जिस ( वराहरूपधारी विष्णु ) के खुरोंका चिह्न ( खुरोंसे उत्पन्न गर्त-विशेष ) समझता हूँ, उस वराहरूपधारी तुम्हारी (विष्णु भगवान्की ) पृथ्वीका गृह ( आधारभूत ) वह दंष्टा (विशालतम दाँत ) मेरे कल्याणके लिए हो // 55 // उद्धृतिस्खलदिलापरिरम्भाल्लोमभिर्बहिरितैर्बहुष्टः। ब्राह्ममण्डमभवद् बलिनीपं केलिकोल ! तव तत्र न मातुः / / 56 / / उद्धतीति / केलिकोल ! हे क्रीडावराह ! लीलाप्रदर्शनार्थं वराहरूपधारिन् ! तत्र ब्रह्माण्डे, न मातुः अवकाशम् अलभमानस्य, अतिविपुलदेहतयेति भावः / मा-धातोस्तृधि षष्ठयेकवचनरूपम् / तव भवतः, उद्धती जलाद् उद्धरणसमये, स्खलन्त्याः दन्तात् पतन्त्याः, इलायाः पृथिव्याः, परिरम्भात् सयानधारणात् आलिङ्गनाच्च हेतोः, बहु अत्यथं यथा भवति तथा, हृष्टैः विकसितैः, पुलकितैरि. त्यर्थः / उद्गतै रिति यावत् , बहिब्रह्माण्डस्य बहिःप्रदेशे, इतैः गतेः, लोमभिः तनुरुहैः साधनैः, ब्राह्मम् अण्डं ब्रह्माण्डम् , बलिनीपं तव पूजार्थं कदम्बकुसुमम्, इति शेषः, अभवत् अजायत // 56 // हे क्रीडासे ( अनायास-बिना परिश्रमके ) वराहरूप धारण किये हुए (विष्णु भगवान् ) ! तुम्हारे ( अतिशय विशाल ) ब्रह्माण्ड में नहीं समाते अर्थात् छोटा पड़ते हुए, (हिरण्याक्षको मारकर पातालसे ) ऊपर उठाते समय स्खलित होती हुई पृथ्वीके आलिङ्गन ( यत्नपूर्वक धारण ) करनेसे बाहर निकले हुए अत्यन्त इर्षित रोमोसे ब्रह्माण्ड पूजामें समर्पित कदम्ब-पुष्पके समान हो गया / [ वराहरूप धारणकर हिरण्याक्ष नामक दैत्यको मारकर जब आप पातालसे पृथ्वीको दांतपर रखकर यत्नपूर्वक ऊपर उठाने लगे तो ब्रह्माण्डरूप आपका शरीर रोमाञ्चयुक्त होकर ऐसा मालूम पड़ता था कि ब्रह्माण्डरूप आपके शरीर 1. 'मातः' इति पाठः 'प्रकाश'सम्मतः / 'मा माने' इत्यस्माच्छतृप्रत्यये सिद्धिः।
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________________ एकविंशः सर्गः। 1413 पर कदम्बके पुष्प चढ़ाये गये हों, और उस विशालतम दांतपर वह पृथ्वी भी छोटो हो रही थी] // 56 // दानवौघगहनप्रभवस्त्वं सिंह ! मामय रवैर्घनघोरैः। वैरिदारिदिविषत्सुकृतास्त्रग्रामसम्भवभवन्मनुजार्द्धः / / 57 // दानवाविति / सिंह ! हे नृसिंहमूर्तिधर ! विष्णो !, दानवानां दनुजानाम् , ओघः समूहः एव, बहुदानवाधिपतिहिरण्यकशिपुसमा एवेति भावः / गहनं वनम् , हिंस्र. प्रकृतिदानवौघाधिष्ठितत्वेन दुष्प्रवेशत्वादिति भावः। तत्र प्रभवः उत्पत्तिः यस्य सः तादृशः, अनेन सिंहाकारधारणस्य औचित्यं प्रकटितम् , सिंहस्य वनसम्भवस्वादिति भावः / तथा वैरिणः शत्रन् दानवान् , दारयन्ति नाशयन्तीति तादृशानि, यानि दिविषत्सुकृतानि देवानां पुण्यानि, तान्येव अस्त्राणि आयुधानि, तेषां ग्रामः समह एव ग्रामः संवसथः, स्वल्पसङ्ख्यक मनुष्यवसतिस्थानमित्यर्थः / तस्मात् सम्भवः उत्पत्तिः यस्य सः तादृशः, भवन् जायमानः, प्रकटयन्नित्यर्थः। मनुजः मनुष्यः एव, नराकार एव इत्यर्थः / अर्द्धः अध:कायः यस्य स तादृशः, एतेन देवो. पकारिनरोत्पत्तेरौचित्यं प्रदर्शितम् , नरस्य ग्रामसम्भवस्वादिति भावः, स्वं भवान् , घनैः अनवरतैः, घोरैः भयङ्करैश्च, रवैः ध्वनिभिः, गर्जनैरिति यावत् , मां नलम् , अव रक्ष // 57 // ( अब दो श्लोकोंसे नृसिंहावतारकी स्तुति करते हैं-) हे सिंह ( नृसिंह ) ! दानवसमूहरूपी गहन (घने जङ्गल ) में उत्पन्न तथा शत्रुविदारक देवों के पुण्यास्त्रसमूह ( पक्षा०ग्राम ) में आधे मनुष्य होते हुए तुम मेघके समान ( अथवा-धन भर्थात् भयङ्कर, अपने ) गर्जनोंसे मेरी रक्षा करो / ( पाठा०-दानवोंमें प्रथम (हिरण्यकशिपु) के कष्टके निमित्त उत्पन्न अथवा-दानवोंमें ( हरिभक्त होनेसे ) मुख्य ( प्रह्लाद ) के पितृदत्त कष्ट के निमित्त (निवारणार्थ ) उत्पन्न, अथवा-दानवोंसे परिपूर्ण समा (हिरण्यकशिपुका सभाभवन ) रूपी वनमें उत्पन्न, अथवा-दानव हिरण्यकशिपु ) के पापके ( अधिकतासे ) घने जंगलमें उत्पन्न, अथवा-दानवरूपी आद्य (प्राचीन ) गहनमें उत्पन्न / [गहन के अर्थात् घने वनमें सिंहको तथा ग्राममें मनुष्यको उत्पन्न होनेसे आपको 'नृसिंह' रूप होना सर्वथा उचित ही है ] // 57 // दैत्यभर्तृ रुदरान्धुनिविष्टां शक्रसम्पदमिवोद्धरतस्ते / पातु पाणिसृणिपञ्चकमस्मांश्छिन्नरज्जनिभलग्नतदन्त्रम / / 58 // देत्येति / हे नरसिंह दैत्यभतः हिरण्यकशिपोः, उदरमेव जठरमेव, अन्धुः कूपः। 'पुंस्येवान्धुः प्रहिः कूपः' इत्यमरः / 'अजिशिकम्यमि-' इत्यादिना औणादिकः कुप्र. त्ययः धुगागमश्च / तस्मिन् निविष्टां मग्नत्वेन स्थिताम्, शक्रसम्पदम् इन्द्रेश्वर्यम्, उद्ध 1. 'दानवाद्य-' इति 'दानवाघ-' इति च पाठान्तरम् /
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________________ 1414 नैषधमहाकाव्यम्। रतः उत्तोलयत इव, ते तव, छिन्नरज्जुनिमानि खण्डितदामसदृशानि, लग्नानि संस. तानि, पाणिसृणिपञ्चके एव इति भावः / तस्य दैत्यभत्तः, अन्त्राणि पुरीतदाख्यनाडी विशेषाः यत्र तादृशम् / 'अन्न पुरीतत्' इत्यमरः / पाणेः करस्य, सृणीनां तीक्ष्णनख. रूपाणाम् अङ्कुशानाम् , पञ्चकं पञ्चसङ्ख्या, अस्मान् मत्प्रभृतीन् , पातु रक्षतु, कूपे हि पतितान्युदञ्चनादीन्यकुशाकारेण रज्जुवेष्टितेन लौहयन्त्रविशेषेण उद्धियन्ते यथा तद्वदिति भावः // 58 // दैत्यराज (हिरण्यकशिपु ) के उदररूपी कूपमें पड़ी (गिरी ) हुई इन्द्र-सम्पत्तिको बाहर निकालते हुए-से तुम्हारे टूटी हुई रस्सीके समान फंसी हुई उस ( हिरण्यकशिपु ) के आँतोंवाला, हाथके ( नखरूपी ) अङ्कश ( काँटा ) पञ्चक 'हमारी रक्षा करें। [ जिस प्रकार कुएँ में टूटी हुई रस्सीसहित घट आदि गिर पड़ता है तो उसे अङ्कुशाकार. काँटे ( झगरे ) में टूटी रस्सीको फँसाकर निकाला जाता है, उसी प्रकार इन्द्रकी सम्पत्ति हिरण्यकशिपुके उदररूपी कूपमें गिर गयी थी, और आपने अङ्कशके समान अपने हाथके नखोंसे उस दैत्यकी आँतोंको उदरविदारणपूर्वक फँसाकर अर्थात् उसके पेटको फाड़कर इन्द्रको सम्पत्तिको बाहर निकाला, वे अङ्कुशाकार नख हमारी रक्षा करें ] // 58 // स्वेन पूर्यत इयं सकलाशा भो ! बले ! न मम किं भवतेति ? | त्वं वटः कपटवाचि पटीयान देहि वामन ! मनः प्रमदं नः / / 59 / / स्वेनेति / भोः ! बले ! हे बलिनामदेयाधिप ! भवता त्वया, इयम् एषा, सकलानां सर्वेषामेव लोकानाम्, आशा मनोरथः, स्वेन धनेन, धनवितरणेनेत्यर्थः / पूर्यते परिपूर्णीक्रियते, मम मे, किं न ? आशा पूर्यते इति पूर्वेणान्वयः। अपि तु पूर्यते एव / अन्यच्च-भो राजन् ! भवता इयं सकला सर्वा, आशा दिक / 'आशा तृष्णादिशोः प्रोक्ता' इति विश्वः / स्वेन आत्मीयेन, बलेन सामयन, पूर्यते व्याप्यते, मम मे, आशा दिक, किं पूर्यते ? अपि तु नैवेत्यर्थः / मम वैकुण्टलोकव्यापने तव सामर्थ्या. नावादिति भावः / यद्वा-मम किम् ? तावता मे किं प्रयोजनम् ? मया ते त्रिपादभूमिरेव याच्यते, नाधिकेन अस्ति मे प्रयोजनम् , अतस्ते सर्व दिगधिकारे मम लाभ वाचि छद्मवचने, भगवतः आशाया एवाभावात् तादृशप्रार्थनायाः कपटत्वमिति बोध्यम् / पटीयान् कुशली, बटुः माणवकः, तरुणब्रह्मचारीत्यर्थः / त्वं भवान् , नः अस्माकम्, मनसः चेतसः, प्रमदं हर्षम्, अभीष्टसाधनादिना इति भावः। देहि कुरु॥ ( अब चार श्लोकोंसे वामनावतारकी स्तुति करते हैं-) 'हे बले ! तुम यदि सबकी आशा ( अभिलाषा ) को अपनेसे ( या-स्वर्णादि धनसे ) परा करते हो तो मेरी आशा (तीन पाद परिमित भूमिकी याचना) नहीं पूरा करोगे ? अर्थात् अवश्यमेव पूरा करोगे (अथवा-तुम अपने बल या सेनासे सब दिशाओंको व्याप्त ( आवृत ) करते हो, किन्तु
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________________ एकविंशः सर्गः। 1415 मेरी आशा ( निवासस्थानभूत वैकुण्ठ धाम ) को भी पूरा करते हो क्या ? अर्थात् नहीं। अथवा-तुम अपने बल या सेनासे सब दिशाओंको व्याप्त करते हो, उससे मुझे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि मुझे तो केवल तीनपाद भूमिसे ही प्रयोजन है / अथवा-तुम द्रव्यसे सब आशाओंको पूरा करते हो तो मेरी छोटीसी आशा ( पादत्रयमात्र भूमि ) को नहीं पूरा करोगे क्या ? अर्थात् अवश्य पूरा करोगे। अथवासम्पूर्ण दिशाको मैं अपने विशालरूपसे नहीं पूरा करूँगा ? अर्थात् अवश्य पूरा करूँगा, तुमको इससे क्या ? अर्थात् तुम कुछ नहीं कर सकोगे। अथवा-(तीनपाद भूमि देनेका वचन देकर उसे नहीं पूरा होनेपर ) अपने शरीरसे मेरी सब आशाको नहीं पूरा करोगे क्या ? अर्थात अपने वचनको सत्य करने के लिए अपने शरीरसे भी मेरी आशाको अवश्य पुरा करोगे ) इस प्रकार (इलेषोक्तिद्वारा ) कपटपूर्ण वचनमें अतिशय चतुर ब्रह्मचारीका रूप धारण किये हुए हे वामन ! ( हमारी समस्त कामनाओंको पूरा करनेसे ) हमारे मनके हर्षको दो // 59 // दानवारिरसिकाय विभूतेर्वश्मि तेऽस्मि सुतरां प्रतिपत्तिम् / इत्युदग्रपुलकं बलिनोक्तं त्वां नमामि कृतवामनमायम् / / 60 // दानवारीति / हे वामन ! अस्मि अहम् , अस्मीत्येतदव्ययमहमर्थे / दानस्य त्यागस्य, वारिणः जलस्य, दानार्थकसङ्कल्पसलिलस्येत्यर्थः। रसिकाय अनुरागिणे, प्रतिग्रहवान्छकाय इत्यर्थः / ते तुभ्यम् , विभूतेः सम्पत्तेः, ममेति शेषः। सुतराम् अत्यर्थम् , प्रतिपत्तिं दानम् , वश्मि कामये / वश कान्तावित्यस्य लहुत्तमपुरुषैकव. चनम् / अन्यञ्च-हे वामन ! त्वं दानवानाम् असुराणाम् , अरिः शत्रुः साक्षात् विष्णुः, असि भवसि, अत एव अस्मि अहम् ते तव, कायविभूतेः शरीरसम्पत्तेः, गृही. तत्रिविक्रममूर्तेरिति भावः / सुतराम् अत्यर्थम् , प्रतिपत्ति ज्ञानम् , तव स्वरूपज्ञानेच्छाम् , दर्शनप्राप्ति वा इत्यर्थः / वश्मि कामये / इत्यनेन प्रकारेण, उदग्राः उत्कटाः, भक्त्यातिशय्यात् अत्यर्थमुद्गता इत्यर्थः / पुलका रोमाञ्चा यस्मिन् तत् यथा भवति तथा, बलिना दानवेन्द्रेण, उक्तं कथितम् , कृता विहिता, वामनरूपा वामनाकार• धारणात्मिका, माया छलं येन तं ताहशम् , त्वां भवन्तम् , नमामि नतोऽस्मि॥६०॥ ___ 'मैं दान-सम्बन्धी जलका रसिक ( प्रतिग्रह लेनेका इच्छुक ) .तुम्हारे लिए सम्पत्तिको देने के लिए अत्यन्त इच्छुक हूँ ( अथ च-तुम ) दानवोंके शत्रु (विष्णु) हो, (अत एव ) तुम्हारे शरीरकी विभूतिके ज्ञानका अत्यन्त इच्छुक हूं अर्थात तुम्हारे विराट् शरीरको देखना चाहता हूँ' इस प्रकार अत्यन्त पुलकित हो बलिसे कहे गये वामनरूप धारणकर माया किये हुए तुमको मैं नमस्कार करता हूं' // 6 // भोगिभिः क्षितितले दिवि वासं बन्धमेष्यसि चिरं ध्रियमाणः / पाणिरेष भुवनं वितरेति छद्मवाग्भिरव वामन ! विश्वम् // 61 //
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________________ 1416 नैषधमहाकाव्यम् / भोगिभिरिति / हे बले ! क्षितितले भूलोके, दिवि स्वर्गे वा, चिरं बहुकालं, व्याप्य, ध्रियमाणः अवतिष्ठमानः / धृङ् अवस्थाने इत्यस्य रूपम् / स्वमिति शेषः / भोगं सुखमेषामस्तीति तादृशैः भोगिभिः सुखिभिः, जनैरिति शेषः / सह सार्द्धम् , वासम् अवस्थानम , तथा बन्धं सख्यबन्धनञ्च, एप्यसि प्राप्स्यसि, मम करे दानवारिप्रदानादिति भावः / अत एव एषः अयम् / पाणिः हस्तः, मया' प्रसारित इति शेषः / भुवनं जलम्, दानवारीति यावत् / वितर देहि, अत्र पाणौ इति शेषः / अन्यच्चहे बले ! दिवि स्वर्ग, स्वर्गतुल्यपरमरमणीये इत्यर्थः / क्षितितले.रसातले, चिरं दीर्घकालं व्याप्य, ध्रियमाणः अवतिष्ठमानः, स्वमिति शेषः, भोगिभिः सः सह, वासम् अवस्थितिम , बन्धं बन्धनञ्च, एष्यसि प्राप्स्यसि, एषः पाणिः, मया प्रसारितः इति शेषः, भुवनं लोकम् , इन्द्रात बलपूर्वकं गृहीतम् अत एव तस्यैव माप्यमिति भावः। 'भुवनं विष्टपे तोये' इत्यजयपालः / वितर समर्पय, हे वामन ! इत्यनेन प्रकारेण, छभवाग्भिः कपटवचनैः, विश्वं जगत् , अव रक्ष // 61 // ( ऐसा ( 21 / 60 ) बलिके कहनेपर वामनरूपधारी आपने कहा कि-हे बले ! ) 'भूतलपर या स्वर्ग में रहते हुए तुम भोगयुक्त अर्थात् सुखो लोगों के साथ चिरकालतक निवास एवं मैत्रीबन्धनको पावोगे, ( दान लेने के लिए मेरा ) यह हाथ ( फैला अर्थात् आगे की ओर बढ़ा हुआ ) है, ( दान-सम्बन्धी ) जलको दो; ( पक्षा०-सुखकारक हो से ) स्वर्गतुल्य ( अथवा-स्वर्गभिन्न ) पाताल में सोके द्वारा ग्रहण किये गये तुम चिरकालतक बन्धन पावोगे एवं निवास करोगे / अथवा-चिर काल तक जीवित रहते हुए तुम सपोंके साथ निवास एवं बन्धनको प्राप्त करोगे ) / ( सुदर्शनको चलाने के लिए तत्पर मेरा ) यह हाथ है, (इन्द्रसे छिने हुए ) स्वर्गलोकको वापस करो' इस प्रकार कपट-वचनोंसे उपलक्षित हे वामन भगवान् ! आप संसारकी रक्षा करें // 61 // आशयस्य विवृतिः क्रियते किम् ? दित्सुरस्मि हि भवञ्चरणेभ्यः / विश्वमित्यभिहितो बलिनाऽस्मान् वामन ! प्रणतपावन ! पायाः // 62 / / भाशयस्येति / हे वामन ! आशयस्य अभिप्रायस्य, प्रतिग्रहाभिलाषस्येत्यर्थः / 'अभिप्रायश्छन्द आशयः' इत्यमरः / विवृतिः विवरणम् , प्रकाश इत्यर्थः / किं किम. थम् , क्रियते ? विधीयते ? हि यतः, भवञ्चरणेभ्य इति पूज्यताऽतिशयद्योतनपरम् , भवञ्चरणेभ्यः पूष्यतमाय भवते इत्यर्थः / विश्वं सर्वा एव सम्पद इत्यर्थः। दित्सुः स्वयमेव दातुमिच्छुः, अस्मि भवामि / अन्यच्च हे वामन ! शयस्य हस्तत्य, आ सम्यक , विवृतिः प्रसारणमित्यर्थः / किं कथम् , क्रियते ? विधीयते ? त्वयेति शेषः / दानग्रहणार्थमिति भावः / हि यतः, भवतः तव, चरणेभ्यः त्रिभ्यः एव पादेभ्यः, न तु पाणौ इति भावः / विश्वं जगत् , दित्सुः अस्मि, प्रणतानां पावन ! हे भक्तजनचि. त्तशोधक ! वामन ! इत्यनेन प्रकारेण बलिना दानवेन्द्रेण, अभिहितः उक्तः स्वमिति
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________________ एकविंशः सर्गः 1417 शेषः / अस्मान् नलादीन् , पायाः रक्षः। 'पा रक्षणे' इत्यस्य लिडो मध्यमपुरुषेकवचनम् // 62 // ( ऐसा ( 21 / 61 ) वामनके कहनेपर परमभक्त बलिने कहा-'हे भगवन् ! अपने ) अभिप्राय ( दान लेने की इच्छा ) को क्यों प्रकट करते हो ?' ( अथवा-दान लेने के लिए हाथको सम्यक् प्रकारसे क्यों फैलाते हो?, अथवा-आः ! हाथको क्यों फैलाते हो ? ) अर्थात आपको वैसा करना उचित नहीं; क्योंकि 'मैं आपके चरणों के लिए सब ( स्वर्णादि सम्पत्ति या-समस्त संसार) को देना चाहता हूं' इस प्रकार बलिसे कहे गये है प्रणतपावन ! वामन ! आप हम लोगोंकी रक्षा करे। [ जगत्पूज्य होनेसे चरणों में ही सब कुछ समर्पित करने के लिए इच्छुक भक्तराज बलिको अपने सामने दान लेनेके लिए वामनरूपधारी विष्णुभगवान्को हाथ फैलानेसे निषेध करना उचित हो है ] // 62 / / / क्षत्रजातिरुदियाय भुजाभ्यां या तवैव भुवनं सृजतः प्राक् / जामदग्न्यवपुषस्तव तस्यास्तौ लयार्थमुचितौ विजयेताम् / / 63 // क्षत्रेति / हे विष्णो ! प्राक पुरा, भुवनं जगत् , सृजतः सृष्टिं कुर्वतः, तव भवत एव, भुजाभ्यां दोभ्यां सकाशात् , या चत्रजातिः क्षत्रियसमूहः, उदियाय उद्भूता, 'बाहू राजन्यः कृतः' इति श्रुतेः, तस्याः क्षत्रजातेः, लयाथ विनाशार्थम् , उचितौ * योग्यौ. 'नाशः कारणलयः' इति सावयादिसिद्धान्तात् कार्य हि कारणे एव लीनं भवतीति सर्वत्र दर्शनाच्च कार्यभूतां क्षत्रजाति प्रति तव भुजयोरेव कारणत्वात् क्षत्रजातेस्तव भुजयोरेव लीनत्वस्यौचित्यादिति भावः / जामदग्न्यः परशुरामः, वपुः शरीरं यस्य तस्य परशुरामदेहधारिणः, तव ते, तो भुजौ, विजयेतां सर्वोत्कर्षण वर्त्तताम् / विपराभ्यां जेस्तङादेशः // 3 // ( अब तीन श्लोकों ( 21163-65) से परशुरामावतारकी स्तुति करते हैं--) पहले सृष्टि करते हुए (ब्रह्मरूप) तुम्हारे ही बाहुद्यसे जो क्षत्रिय जाति उत्पन्न हुई; उस (क्षत्रिय जाति ) के लय ( नाश ) के लिए योग्य परशुरामशरीरधारी आपके बाहुदय विजयी होवें। [ 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासोद्धाहुभ्यां. राजन्यः कृतः' इस वेदवचनके अनुसार ब्रह्माके बाहुसे उत्पन्न क्षत्रियका उत्पत्तिकारणभूत उक्त बाहुद्वयमें ही 'नाशः कारणलयः' ( कारणमें कार्यका लय होना ही नाश है ) इस साङ्यसिद्धान्त तथा भरतवचनके अनुसार लीन होना उचित है / जातिको नित्य माननेवालों के सिद्धान्तमें यहाँ क्षत्रजातिका आविर्भाव-तिरोभाव समझना चाहिये / [ यहाँ परशुरामावतार लेकर क्षत्रिय जातिका संहार करना अवतारका प्रयोजन कहा गया है ] // 63 // 1. तच्च भरतवचनं यथा 'अद्भयोऽग्निब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् / एषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति // ' इति /
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / पांशुला बहुपतिनियतं या वेधसाऽरचि रुषा नवखण्डा / तां भुवं कृतवतो द्विजभुक्तां युक्तकारितरता तव जीयात् / / 64 // ___ पाशुलेति / हे जामदग्न्य ! विष्णो ! पांशुला रजोयुक्ता, स्वैरिणी च / 'सिध्मादिभ्यश्च' इति मत्वर्थीयो लच् / 'स्वैरिणी पांशुला समा' इत्यमरः / बहवः अनेके, पतयः स्वामिनः यस्याः सा बहुपतिश्च अनेकाधिपतिका, अनेकोपपतिका च, या भूः, वेधसा ब्रह्मणा, नियतं निश्चितमेव, रुषा कोपेन हेतुना, नव नवसङ्ख्यकानि, खण्डानि अंशाः, भारतादीनि वर्षाणीत्यर्थः / यस्याः सा, नव नवभागेन विभक्तानि, खण्डानि छेदनेन शकलीकृतानि अङ्गानि यस्याः सा तादृशी च, अरचि रचिता, भारतादिवर्षभेदेन नवधा विभक्तीकृता छेदनेन नवधा विभक्तीकृता चेत्यर्थः। तां पूर्वोक्तरूपाम् , भुवं पृथिवीम् , काञ्चित् स्त्रियञ्च, द्विजैः कश्यपादिभिः ब्राह्मणैः, मांसाशिभिः पक्षिभिश्च / 'दन्तविप्राण्डजा द्विजाः' इत्यमरः। भुक्तां प्रतिग्राहणेन भोगविषयीकृतां खादिताञ्च, कृतवतः विहितवतः, ते तव, युक्तकारिषु उचितकर्मः करेषु प्रकृष्ट इति युक्तकारितरः, तस्य भावस्तत्ता युक्तकारितरता अतिशयेन विवे. किता, जीयात् जयतु / निखिलक्षत्रियविनाशनेन अधिकृताया भूमेः ब्राह्मणसारकर. स्यैव औचित्याद् बहुजारभुक्ताया हि स्त्रिया भर्ना खण्डशः कृत्वा पक्षिभिः खाद. नाया औचित्याच्चेति भावः / / 64 // धूलियुक्त एवं ( मनु आदि ) बहुत पतियोंवाली जिस पृथ्वीको ब्रह्माने मानो क्रोधसे ( 'भारत' आदि ) नव खण्डोंमें विभक्त कर दिया ( पक्षा०-व्यभिचारिणी एवं बहुत जारोंवाली जिस स्त्रीको पतिने क्रोधसे नव टुकड़ों में काट दिया ), उस ( पृथ्वी, पक्षा०-स्त्री) को ब्राह्मणों ( पक्षा०-गीध आदि पक्षियों ) से मुक्त ( भोग की गयी, पक्षा०-खायी गयी) बनानेवाले तुम्हारी अधिक उचितकारिता विजयिनी ( सर्वोत्कृष्ट ) होवे। [व्यभिचारिणी एवं बहुत जारोंवाली स्त्रीको क्रोधसे नव टुकड़ों में काटकर गीध आदिको खिलाने के समान धूलियुक्त मन्वादि बहुत पतिवाली 'भारत' आदि नव 'खण्डोंमें विभक्त पृथ्वीको क्षत्रियोंका संहारकर उनसे छीनकर ब्राह्मणोंके लिये दान करना तुम्हारा अत्यन्त - उचित कार्य था] // 64 // 1. भारतादिनवखण्डानां (वर्षाणां) नामानि यथा 'स्याद्भारतं किम्पुरुषं हरिवर्ष च दक्षिणाः। रम्यं हिरण्मयकुरू हिमाद्गुरुत्तरास्त्रयः॥ भद्राश्वकेतुमालौ तु द्वौ वर्षों पूर्वपश्चिमौ / इलावृत्तं तु मध्यस्थं सुमेरुयंत्र तिष्ठति // ' इति / एषां सीमां ब्रुवन् क्षीरस्वामी त्वष्टावेव वर्षाण्याह तच्च अमरकोषस्य 'लोकोऽयं भारतं वर्ष (2016)' इत्यस्यास्मस्कृतायाम् 'अमरकौमुघाख्यटिप्पण्यां द्रष्टव्यम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1419 कार्तवीर्यभिदुरेण दशास्ये रेणुकेय ! भवता सुखनाश्ये / कालभेदविरहादसमाधि नौमि रामपुनरुक्तिमहं ते / / 65 / / कार्तवीर्येति / हे रेणुकेय ! रेणुकापत्य ! परशुराम ! 'स्त्रीभ्यो ढक्' / कार्तवीर्यस्य कार्तवीर्यार्जुनस्य, भिदुरेण नाशकेन / भिदेः कर्तरि कुरच / भवता स्वया, दशास्ये रावणेऽपि, सुखम् अनायासं यथा भवति तथा, नाश्ये हन्तव्ये सति, रावणं जितवतः कार्तवीर्यस्य यः जेता तस्य रावणनाशे आयासाभावादिति भावः / कालभेदस्य युगरूपस्य समयान्तरस्य, विरहात् अभावात् , एकस्मिन्नेव त्रेतायुगे उभयोरेवावतीर्णत्वात् इति भावः ! असमाधिं सिद्धान्तहीनाम् , ते तव, रामेण दाशरथिना, पुनरुक्ति रामनाम्नः पुनः कथनम् , अहं नलः, नौमि स्तौमि / द्विरुक्तेः कालभेदात कार्यभेदाद्वा परिहारो भवितुमर्हति, अन तु एकस्यामेव त्रेतायो दशास्यवधादिरूपस्य कार्यस्य एकेनैव कतुं शक्यत्वेऽपि पुनः दाशरथिरामरूपेणावतीर्णस्वात तेन सह तव अशक्यपरिहारा पुनरुक्तिर्जाता, तादृशीम् अतयंरूपां महीयसी रामरूपां पुनरुक्तिमहं नौमीत्यर्थः / रेणुकापत्यत्वात् मात्रंशे एकस्यामेव क्षत्रियजाती समुद्भुतेन एकस्मिन्नेव त्रेतायुगे अवतीणन कार्तवीर्यविजयिपरशुरामावतारेणैव कार्तवीर्यजितस्य रावणस्य वधे सुकरेऽपि पुनः तदर्थ रामावतारग्रहणस्य आनथक्यात् पुनरुक्तिमिव प्रतिभाति, अस्याश्च निरसनाय सदुत्तरं नास्तीति भावः // 65 // हे रेणुकापुत्र (परशुराम )! सहस्रार्जुनको काटने ( मारने ) वाले आपसे सुखपूर्वक विनाशनीय रावणके होनेपर कालभेदके बिना अर्थात् एक ही त्रेतायुगमें समाधान रहित रामावतार ग्रहणरूप तुम्हारी पुमरुक्तिको मैं नमस्कार करता हूं। [ त्रेतायुगमें मानव क्षत्रिय परशुरामावतार लेकर रावणके विजेता सहस्रार्जुनको आपने मार दिया तो रावणको मारना भी उसी मानवरूप परशुरामावतारसे सुखसाध्य था, फिर भी उसी त्रेतायुगमें दशरथ-पुत्ररूपमें मानव क्षत्रिय रामावतार धारण करने का कोई समाधान नहीं होनेसे यह रामावतार धारण पुनरुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि कालभेद या कार्यभेदसे परिहार हो सकता है, किन्तु इन दोनों त्रेतायुगके मानव एवं क्षत्रिय (परशुराम तथा राम) अवतारों में भेद नहीं होनेसे पुनरुक्तिका समाधान नहीं होता / 'स्वतन्त्र' आपसे कोई भी प्रश्न करना किसी को उचित नहीं, क्योंकि उसकी सर्वतोमुखी प्रभुता होती है / यद्यपि परशुराम मनुष्य थे, परन्तु उनमें देवभाव भी था और देवसे रावणको नहीं मारनेका वरदान ब्रह्माने दिया था, अत एव परशुराम रावणको नहीं मार सकते थे। तथा रावणको मारने के लिये (दाशरथि) रामको देवशान नहीं होनेसे मनुष्यरूप रामके द्वारा ही रावणका वध होना सुकर था, इस कारण एक कालमें भी दो अवतार धारण करना उचित होनेसे यद्यपि उक्त पुनरुक्तिका सूक्ष्मतम समाधान है ही; तथापि स्थूलरूपसे समाधान नहीं होनेसे उक्त पुनरुक्तिको कहा गया समझना चाहिये / परशुराम को 'रेणुकापुत्र' कहनेसे उनमें क्षत्रियत्वकी प्रधानता 89 नै० उ०
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________________ 1420 नैषधमहाकाव्यम् / सूचित की गयी है / इस श्लोकसे नलने परशुरामकी ही स्तुति की है, ऐसा 'प्रकाश'कारका मत है, किन्तु 'सुखावबोधा' व्याख्याकार इस श्लोकसे दशरथापत्य रामकी स्तुति नलने की है, ऐसा मानते हैं ] // 65 // हस्तलेखमसृजत् खलु जन्मस्थानरेणुकमसौ भवदर्थम् / राम! राममधरीकृततत्तल्लेखकः प्रथममेव विधाता / / 66 / / __ हस्तेति / राम ! हे दाशरथे ! अधरोकृताः तिरस्कृताः, सुग्रीवादिरूपेण भूतल. मवतारिताश्च, ते ते प्रसिद्धाः, लेखकाः लिपिकराः, लेखाः इन्द्रादयः देवाश्च येन सः तादृशः अधरीकृततत्तल्लेखकः। देवपक्षे 'शेषाद्विभाषा' इति कप समासान्तः। असौ एषः, विधाता स्रष्टा, भवदर्थ भवादृशोत्तम शिल्पनिर्माणार्थम् , प्रथममेव आदावेव, जन्मस्थानम् उत्पत्तिक्षेत्रम् , रेणुका. तन्नाम्नी जमदग्निभार्या यस्य तं तादृशम् , रामं परशुरामम् , हस्तलेखं कराभ्यासम् , असृजत् सृष्टवान् , खलु निश्चितम् / अन्योऽपि शिल्पाजीवी शिल्पनिर्माणे नैपुण्यलाभार्थमादौ यत् किश्चित् द्रव्यं निर्माय निर्माय अभ्यासं कृत्वा अनन्तरं यथा उत्कृष्टं निर्माति, तद्वदिति भावः / एतेन परशुरामाद् दाशरथेः रामचन्द्रस्य औत्कष्य प्रदर्शितमिति मन्तव्यम् // 66 // (अब नव (21466-74 तथा क्षेपक सहित दश) इलोकोंसे रामावतारकी स्तुति करते हैं-) हे रामचन्द्र ! उन-उन (प्रसिद्धतम ) लेखकों (चित्रकारों या-इन्द्रादि देवों, यादक्ष आदि आठ प्रजापतियों ) को तिरस्कृत किये हुए (पक्षा०-नीचे अर्थात् मृत्युलोकमें सुग्रीवादिरूपमें देवोंको अवतार ग्रहण करानेवाले) इस ब्रह्माने आपके लिए रेणुका है जन्मस्थान जिसका ऐसे 'राम' अर्थात् परशुरामको पहले ही हाथके अभ्यासार्थ रचा है / [जिस प्रकार कोई चित्रकार हाथके अभ्यासके लिए पहले साधारण चित्रको बनाकर बादमें उत्तम चित्र बनाता है, उसी प्रकार मानो ब्रह्माने तुम्हें भूलोकमें अवतीर्ण करने के लिए रेणुकातनय 'परशुराम' को पहले बनाकर हस्तकौशलाभ्यास होने के बाद दशरथापत्य 'राम' को बनाया है। इससे परशुरामकी अपेक्षा रामका अधिक महत्त्व सूचित होता है ] // 66 // उद्भवाजतनुजादजै ! कामं विश्वभूषण ! न दूषणमत्र / दूषणप्रशमनाय समर्थ येन देव ! तव वैभवमेव / / 67 / / उद्भवेति / न जायते इति अजः, तत्सम्बोधने हे अज ! हे जन्मरहित विष्णो! सनातनत्वादिति भावः / अजस्य रघुनन्दनस्य तदाख्यनृपविशेषस्य, तनुजात् आत्मजात् दशरथात् , कामं यथेच्छम् , उद्भव जायस्व, स्वमिति शेषः / भवतेलोटि सिपि रूपम् / विश्वभूषण ! जगदलङ्कार ! पुरुषोत्तमत्वादिति भावः / अत्र अस्मिन् विषये, अजस्य तव अजतनुजोगवने इत्यर्थः / दूषणं दोषः, असङ्गतिरूपदोष 1. 'दनुकामम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1421 इत्यर्थः / न नास्ति / कुत इत्याशयेन हेतुमाह-येन हेतुना, हे देव ! तव ते, वैभवमेव ऐश्वर्यमेव, प्रभाव एवेत्यर्थः / दूषणस्य असाङ्गस्यादिदोषस्य तदाख्यराक्षसविशेषस्य च, प्रशमनाय निवारणाय निधनाय च, समर्थ योग्यम् , भवतीति शेषः / स्वयम् / अजस्त्वम् अजस्य पुत्रात् जायसे, अत्र यः अजः स कथं जायते ? यस्य पितामहोऽपि न जातः तस्य वा कथं तनुजः ? कथं बा तस्मात् तनुजात् तव जन्म सम्भवेत् ? इत्यादिरूपं दूषणं नास्ति, यतः दूषणनाशायैव तव उत्पत्तिः, अथ च अजाख्यात् पितामहात् अजपौत्रः जात इत्यत्र दूषणं नास्ति, उभयोः अजाख्यनृपजातत्वात् इति भावः // 67 // __ हे अज ( उत्पत्तिरहित रामचन्द्र)! अज ( रघुतनय ) के पुत्र अर्थात् दशरथसे उत्पन्न होवो ( या-यथेष्ट उत्पन्न होवो ), हे जगदलङ्कार ! इस (अजको भी उत्पन्न होने ) में दोष ( असङ्गति दोष ) नहीं है, ( क्योंकि जिसका पितामह 'अज' अर्थात् अनुत्पन्न है, उसका पुत्र भी उत्पन्न कैसे कहा जायेगा तथा इसीसे पौत्र भी सुतराम् उत्पन्न नहीं हो सकता, अत एव इस मब उत्पन्न होने के कथनको स्वेच्छा-विलसितमात्र होनेसे इसमें कोई दोषलेश नहीं है / अथच-'अज' ( छाग ) के पुत्र एवं पौत्र 'अज' जातीय ही होंगे, इसमें कोई दोषलेश नहीं है / अब उत्तरार्द्धसे मो उक्त दोषलेशामावका ही समर्थन कर रहे हैं-) जिस तुम्हारा ऐश्वर्य अर्थात् प्रभाव ही दोषों (पक्षा०-'दूषण' नामक राक्षस) के नाशके लिए है ( जिस 'राम' नामके स्मरणमात्रके प्रभावसे जन्मजन्मान्तरके दोष नष्ट हो जाते हैं ), रेसे आपमें दोषलेशको सम्भावना कैसे हो सकती है ? ( अथच-'आपका अवतार ही दूषण, आदिसे लेकर रावण तक राक्षसों के नाशके लिए है, इस कारण आप परशुरामके अवतारकाल त्रेतायुगमें ही रामावतारसे प्रकट होवें' इसमें कोई पुनरुक्त दोष नहीं है ) // 67 // नो ददासि यदि तत्त्वधियं मे यच्छ मोहमपि तं रघुवत्स ! / येन रावणचमूयुधि मूढा त्वन्मयं जगदपश्यदशेषम् / / 68 // नो ददासीति / रघुवत्स ! हे रघुनन्दन ! विष्णो ! मे मह्यम् , यदि चेत् , तत्त्वे ब्रह्मणि, धियं बुद्धिम् , मोक्षोपयोगिज्ञानमित्यर्थः / नो न, ददासि यच्छसि, अज्ञा. नाच्छन्नत्वादिति भावः / तर्हि येन मोहेन, युधि युद्धे, रावणस्य दशाननस्य, चमः सेना. मूढा भ्रान्ता सती, अशेषं निखिलम् , जगत् विश्वम् , त्वन्मयं भवदात्मकम् , राममयमित्यर्थः / अपश्यत् ऐक्षत, तं मोहमपि मुग्धतामपि, भ्रमज्ञानमपीत्यर्थः / मे मह्यम् , यच्छ देहि, तेनैव कृतार्थो भवेयमिति भावः // 68 // हे रघुनन्दन ! यदि आप मेरे लिए ( मोक्षसाधक ) तत्त्वज्ञानको नहीं देते हैं तो उस मोहको ही दें; जिस ( मोह ) से मोहित रावणसेना ने सम्पूर्ण संसारको ही राममय (भयके कारण रामात्मक ) देखा // 68 // 1. 'रघुवीर' इति 'प्रकाश'सम्मतः पाठः।
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________________ 1422 नैषधमहाकाव्यम् / आज्ञया च पितुरज्ञभिया च श्रीरहीयत महीप्रभवा द्विः / लचितश्च भवता किमु न द्विर्वारिराशिरुदकाङ्कगलङ्कः / / 66 / / आज्ञयेति / हे विष्णो ! राम ! भवता त्वया, पितुः जनकस्य दशरथस्य, आज्ञया च वनं गच्छेत्येवंरूपेण आदेशेन च, अज्ञेभ्यः मूर्खभ्यः, मिथ्यापवादकरेभ्यः मूढेभ्यः सकाशादित्यर्थः / भिया च भयेन च, मही पृथिवी, प्रभवः उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा तादृशी, श्रीः राज्यलक्ष्मीः, लदायाः अंशभूता पृथ्वीसुता सीता च, द्विः द्विवारम् अहीयत परित्यक्ता, पितुरादेशपालनाय वनगमनात् राजलचमीः परित्यक्ता, मूर्खजनापवादभयेन च सीता परित्यक्ता इत्यर्थः, .तथा उदकस्य जलस्य, अङ्कं समीपं, गच्छति या सा तादृशी, लङ्का तदाख्या पुरी यस्य सः तादृशः, वारिराशिः जलसमू. हात्मकः समुद्रः, अरिराशिर्वा रावणादिशत्रुसमूहश्च, वा-शब्दोऽत्र समुच्चये चार्थे, द्विः वारद्वयं, न लवितः न अतिक्रान्तः न जितश्च, किमु ? किम् ? 'अपि तु लडिन्तः एवेत्यर्थः, अत एव सत्यसन्धं जितेन्द्रियं महाप्रभावञ्च भवन्तं नमामीति भावः॥६९॥ पिताको आज्ञा तथा मूर्खलोगोंके अपवादके भयसे तुमने क्रमशः राजलक्ष्मी तथा पृथ्वी. पुत्री (सीता) का दोबार नहीं त्याग किया क्या ? ( तुम्हारे-जैसा पिताका आज्ञापालक एवं लोकापवाद भीरु दूसरा कोई नहीं है ) / और जिसके जल में लङ्का है, ऐसे समुद्र तथा जलमें लङ्का है जिसके ऐसे शत्रु-समूहको तुमने दो बार नहीं उल्लसित (गंधकर परतीरगमन पक्षा०-पराजित ) किया है क्या ? (समुद्रको बांधकर पार जानेवाला तथा रावणादि शत्रुसमूहको पराजित करनेवाला आप-जैसा महाप्रतापी एवं शूर कोई नहीं है ) // 69 // कामदेवविशिखैः खलु नेशं माऽर्पयजनकजामिति रक्षः / ___ दैवतादमरणे वरवाक्यं तथ्ययत् स्वमपुनाद्भवदः / / 70 / / कामेति / हे राम ! विष्णो ! जनकजां सीताम् , अर्पयत् ददत् , रामाय प्रत्यर्पयदित्यर्थः / रक्षोऽहमिति शेषः / कामदेवस्य देवतात्मकमन्मथस्य, विशिखैः बाणः, मा खलु नेशं नैव विनष्टं भवेयम् , तथात्वे ब्रह्मणो वरो मृषैव भवेदिति भावः / नशेः पुषादित्वादडि 'नशिमन्योरलिट्येत्वं वक्तव्यम्' इत्येत्वम् , 'न माङ् योगे' इत्यडभावः / इति एवम् , विचिन्त्य इति शेषः / देवतात् अमरात् , अमरणे मरणाभावे विषये, वरवाक्यं देवात् तव मृत्युन भविष्यति इति ब्रह्मा पुरा रावणाय यत् दरमदात् तद् वचनम् , तथ्ययत् तथ्यं सत्यं कुर्वत् सत् , रक्षः रावणः, भवतः तव, नरदेहधारिण इति भावः / अस्त्रैः बाणैः, स्वम् आत्मानम् , अपुनात् पूतवान् , तवास्त्रेण आत्मानं घातयित्वा पवित्रं जातमित्यर्थः / अपुनादित्यनेन कामबाणात् मरणे आस्मनः अपवित्रत्वं सूचितम् / कामबाणात् केवलं मरणमेव भवति, भवतः बाणात् तु पापनाशात् संसारमोक्षोऽपि भवतीति भावः // 70 // 'जनकनन्दिनी' (सीता) को (रामके लिए ) लौटाता हुआ मैं ( उसके विरहमें )
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________________ एकविंशः सर्गः। 1423 कामदेवके बाणोंसे नहीं मरूं, ( अन्यथा कामदेवके भी देव-विशेष होनेसे देवतासे नहीं मरनेका ब्रह्मासे मिला हुआ वरदान असत्य हो जायेगा इस कारण ) देवतासे नहीं मरनेका वरदान-वचनको सत्य करता हुआ रावण अपने (शरीर ) को आपके शस्त्रोंसे (आहत कराकर ) पवित्र किया। [ यदि रावण सीताको आपके लिए वापस दे देता तो वह कामबाणोंसे पीडित होकर अवश्य मर जाता और इस अवस्थामें देवतासे नहीं मरनेका दिया हुआ ब्रह्माका वरदान असत्य हो जाता, मानो इसीलिए रावणने सीताको आपके लिए नहीं लौटाकर अपनेको आपके बाणोंसे मरवाया / कामदेवके बाणोंसे मरनेपर तो परस्त्रीकामनासे मरने के कारण दुःखदायिनो मृत्यु होगी तथा रामके बाणोंसे मरनेपर सद्गति प्राप्ति होगी, यह मी 'अपुनात्' पदसे ध्वनित होता है ] / / 70 / / तद्यशो हसति कम्बुकदम्बं शम्बुकस्य न किमम्बुधिचुम्बि ? | नामशेषितससैन्यदशास्यादस्तमाप यदसौ तव हस्तात् / / 71 // तदिति / हे राम ! विष्णो! नाम संज्ञामात्रम्, शेषः अवशेषः यस्य स ताहशः कृतः इति नामशेषितः कथामावशेषीकृतः, ससैन्यः सैन्यसहितः, दशास्यः रावणः येन तस्मात् , तव भवतः, हस्तात् करात् , असौ शम्बुकः, यत् अस्तम् अदर्शनम, नाशमित्यर्थः / आप लेभे, शम्बुकस्य तदाख्यशूद्रमुनिविशेषस्य, अम्बुधिचुम्बि सागरपर्यन्तगामि, तत् पूर्वोक्तरूपम, यशः कीर्तिः कत्तु / कम्बूनां शङ्खानाम्, कदम्बं समूहम् कर्म / न हसति किम् ? न परिहसति किम् ? अपि तु हसत्येव इत्यर्थः, स्वशुक्लताऽऽतिशयादिति भावः / यस्य हस्तात् ब्रह्मकुलोद्भवः त्रिभुवनविजयी दशाननो विनाशमाप, तस्यैव हस्तात् नीवशूदकुलोद्भुतः दुर्बलः शम्बुका विनष्ट इति शम्बुकस्य महासौभाग्यमिति भावः // 71 // . सेनासहित रावणको नामशेष करने ( मारने ) वाले, आपके हाथसे जो 'शम्बुक' नामक शुदमुनि नष्ट हुआ (मारा गया), वह शम्बुकका समुद्रतक विस्तृत यश शङ्ख-समूहको नहीं हँसता है क्या ? / अथच-जलशुक्तिका श्वेतत्व समुद्रस्थ शङ्ख-समूहके श्वेतत्वको हँसता ( उनके समान होता ) है, अत एव उसका यश होना उचित ही है। [जिस राम. हस्तने त्रिभुवनविजयी, ब्राह्मणकुलोत्पन्न रावणको सेनाके सहित मारा, उसी रामहस्तने धूम्रपान करनेवाले मुनिरूपधारी शूद्रकुलोत्पन्न 'शम्बुक'को मारा, अत एव उसको महाभाग्यवान् होने से उसका स्वच्छ . यश समुद्रतक फैल गया है। बड़े वीरोंका विजयी यदि किसी छोटेपर पिजय पाता है तो उस विजेताका यश नहीं होता, किन्तु उस छोटे विजित व्यक्तिका ही यश होता है ] // 71 // ( मृत्युभीतिकरपुण्यजनेन्द्रत्रासदानजमुपायं यशस्तत् / हीणवानसि कथन्न विहाय क्षुद्रदुर्जनभिया निजदारान् // 4 // ') - 1. अयं श्लोकः 'प्रकाश' व्याख्ययैव सह स्थापितोऽत्र /
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________________ 1424 नैषधमहाकाव्यम् / मृत्युभीतीति / यस्मान्मृत्योर्यमादन्येषां भीतिः, मृत्यो तिकरः पुण्यजनेन्द्रो. राक्षसेन्द्रो रावणस्तस्यापि मरणपर्यन्तं त्रासदानागयोत्पादनातोर्जातं तदतिप्रसिद्ध लोकत्रये गीयमानं यश उपाय शुद्रोऽत्यल्पको दुर्जनस्तस्माद्भिया भयेन पामरलोकापवादभिया निजदारानात्मनः प्रियां सीतां विहाय परित्यज्य कथं न हीणवान् लजितवानसि / लजितव्यं तावत्त्वयेत्यर्थः / यो रावणाय भयं दत्तवांस्तस्य दुर्जनभीत्या निर्दुष्टजनप्रियापरित्यागे हि लजैव युक्ता। अतिमाननिजस्त्रीहर्ता रावणो नाशितो लोकापवादभयाञ्च सापि परित्यक्तेति / एतादृशः शूरोऽभिमानी लोकापवादभीरुश्च कोऽपि नास्तीति भावः / 'यातुधानः पुण्यजनः' इत्यमरः / 'भीतिं करोतीति ताच्छील्ये टः॥४॥ यमको भी डरानेवाले राक्षसेन्द्र ( रावण ) को त्रस्त करनेसे उत्पन्न उस ( वर्णनातीत ) यशको उपार्जितकर क्षुद्र दुर्जनके भयसे ( अग्निमें सुपरीक्षित एवं प्रेयसी) अपनी स्त्री ( सीता ) को छोड़कर क्यों लज्जित नहीं हुए ? [ महाबली रावण के विजेता तुमको क्षुद्र दुष्टसे डरनेमें लज्जित होना उचित था। स्तुति पक्षमें-तुम्हारे-जैसा शूरवीर अपनी एवं लोकापवादसे डरनेवाला संसारमें कोई नहीं है ] / / 4 // इष्टदारविरहौवपयोधिस्त्वं शरण्य ! शरणं स ममैधि / लक्ष्मणक्षणवियोगकृशानौ यः स्वजीविततृणाहुतियज्वा / / 72 / / इष्टेति / शरण्य ! हे आश्रितरक्षक ! राम ! यः त्वं भवान् , लक्ष्मणस्य अनुजस्य सौमित्रे, क्षणवियोगः अत्यल्पकालविच्छेद एव, कृशानुः अग्निः तस्मिन् , स्वजीवित. स्यैव निजजीवनस्यव, तृणस्य यवसस्य, आहुत्या आहुतिक्षानेन, निक्षेपेणेत्यर्थः / यज्वा इष्टवान् , याज्ञिक इत्यर्थः। 'सुयजो निप' / आसीरिति शेषः / सरयूसलिले निमज्ज्य देहं त्यक्तवतो लक्ष्मणस्य क्षणकालवियोगमपि असहिष्णुः यस्त्वं स्वजीवनं विसर्जयामासेत्यर्थः / सः तादृशः, इष्टदाराणांप्रियभार्यायाः सीतायाः, विरहः वियोग एव, औव बाडवानलः, तस्य पयोधिः आश्रयभूतसागरसदृशः, त्वं भवान् , मम मे, शरणं रक्षिता, एधि भव / प्रेयसीस्नेहेभ्योऽपि भ्रातृस्नेहो गरीयानिति तात्पर्यम् // 72 // हे शरणागतरक्षक ! जो तुमने लक्ष्मणके क्षणिक वियोगरूपी अग्निमें अपने जीवनरूप तृणकी आहुति से ( लक्ष्मणके क्षणिक वियोग में तृणवत् प्राणत्याग रूप ) यज्ञ करनेवाले हो, प्रेयसी सीताके विर हरूप बडवानलके समुद्र अर्थात् आश्रय वह तुम मेरा रक्षक होवो / [ यहां रामके स्त्रीविरहसे भ्रातृविरहका असह्यतर होना सूचित होता है ] / / 72 // ___ पौराणिक तथ्य-(१) सीतापहरणके बाद लङ्कामें युद्ध करते समय मेघनादके शस्त्रसे लक्ष्मणको मूच्छित देख राम भी तत्काल मूच्छित हो गये। यह कथा वाल्मीकि रामायणका है / युद्ध ( लङ्का ) काण्डमें आयी है। अथवा-(२) रामावतारके अवसानके समीप आनेपर उनके पास मुनिरूप धारणकर
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________________ एकविंशः सर्गः। 1425 काल आया और उनसे एकान्तमें वार्तालाप करने की इच्छा प्रकट की। तदनुसार रामचन्द्रने लक्ष्मणको द्वारपर नियुक्तकर कहा कि 'हम दोनों के एकान्तमें वार्तालाप करते समय कोई भी भीतर आ जायेगा तो इस महापराधमें तुम्हें प्राणदण्ड दिया जायेगा। ऐसा अनुशासितकर रामचन्द्र मुनिरूपधारी कालसे बन्द कमरेमें वार्तालाप करने लगे उसी समय महाक्रोधी दुर्वासा मुनि आ गये और तत्काल ही रामचन्द्रसे मिलना चाहा, अन्यथा सवंश समस्त रघुवंशको भी शाप देकर नष्ट करने की धमकी उन्होंने दी। लक्ष्मणने सोचा कि यदि मुनिको हम भीतर जाने की अनुमति नहीं देते हैं तो ये समस्त रघुवंशियों को ही शापसे नष्टकर देंगे, तथा यदि भीतर जाने की अनुमति देता हूँ तो राजा रामचन्द्र केवल मुझे ही प्राणदण्ड देंगे, अतएव अपने प्राण देकर समस्त रघुवंशियों की मुनिशापसे रक्षा करना उचित है। ऐसा विचार कर लक्ष्मणने दुर्वासा मुनिको भीतर जानेकी अनुमति दे दी। फिर क्या था ? समय (शर्त ) के अनुसार रामचन्द्रकी आज्ञासे लक्ष्मणने सरयूनदीके जल में प्रवेशकर अपने प्राण त्याग दिये और उनके विरहको नहीं सह सकने के कारण श्रीरामचन्द्र ने भी तत्काल ही परम धामको प्रयाण किया। यह कथाप्रसङ्ग वाल्मीकि रामायणके उत्तरकाण्डमें मिलता है / क्रौञ्चदुःखमपि वीक्ष्य शुचा यः श्लोकमेकमसृजत् कविराद्यः / स त्वदुत्थकरुणः खलु काव्यं श्लोकसिन्धुमुचितं प्रबबन्ध // 73 // क्रौञ्चेति / हे राम ! विष्णो ! यः. आद्यः प्रथमः, कविः कवयिता वाल्मीकिः, क्रौञ्चस्य पक्षिविशेषस्य, कामविमुग्धयोः क्रौञ्चाख्यपक्षिमिथुनयोर्मध्ये एकस्मिन् व्याधेन हन्यमाने अपरस्य तदाख्यपक्षिणः इति यावत् / दुःखं शोकम् , वीच्यापि दृष्ट्राऽपि, शुचा शोकेन, एकम् एकसङ्ख्यकम् , श्लोकं-'मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वम. गमः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमबधीः काममोहितम् // ' इति अमुं शोकोद्भवत्वात् श्लोकं पद्यम् , असृजत् अरचयत् / सः आद्यः कविः, स्वदुत्था स्वत् स्वत्तः सीताविरहादिदुःखपीडितात् भवतः, उत्था उद्भूता, भवद्विषये समुत्पन्ना इत्यर्थः / करुणा करुणरसो यस्य स तादृशः सन् , उचितं खलु योग्यमेव, अतिशुद्रस्य एकस्य पक्षिणः शोकात् एकस्मिन् श्लोके रचिते पुरुषोत्तमस्य भवतः शोकात् बहुतश्लोकरचनाया एव औचित्यादिति भावः। श्लोकसिन्धुं पद्यसागरम् , चतुर्विंशति. सहस्रश्लोकनिबद्धत्वात् सागरतुल्यमित्यर्थः / काव्यं रामायणं नाम महाकाव्यम् , प्रबबन्ध रचयामास // 73 // जिस आदिकवि (वाल्मीकि ) ने ( कामपरवश ) कौञ्च पक्षीके दुःखको देखकर शोकसे ( मा निषाद / प्रतिष्ठा व.........) एक श्लोकको रचा, ( सीता-परित्यागके कारण) तुम्हारे विषयमें उत्पन्न करुणावाले उस वाल्मीकिने श्लोक-समुद्र ( 24000 श्लोक होनेसे समुद्रतुल्य महान् 'वाल्मीकि रामायण' नामक ) काव्यको रच दिया। [ साधारणतम
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________________ 1426 नैषधमहाकाव्यम् / तिर्यग्जातीय क्रौञ्च पक्षीके दुःखसे करुणार्द्र हो एक श्लोक रचनेवाले कविका आप जैसे महापुरुषके दुःखसे अत्यन्त करुणाई होकर 24000 श्लोकवाले महाकाव्यका रचा जाना उचित ही है / अथवा-आपने एक समुद्रको बांधा तो आपमें संलग्नचित्त मुनिने भी श्लोक-सिन्धुको बांघा यह उचित ही है। समस्त सांसारिक सम्बन्धसे रहित मुनिने भी आपके दुःखसे करुणाई हो महाकाव्य बनाकर आपका वर्णन किया, अत एव आपका प्रभाव अचिन्त्य है ] // 73 // पौराणिक कथा-एक समय वाल्मीकि मुनि स्नान करने के लिए जब अपने आश्रमके पास बहती हुई तमसा नदीको जा रहे थे, तब कामपरवश क्रौञ्च-मिथुनमेंसे व्याधने नर (पुरुष पक्षी ) को मारा, उसे देख करुणाई महामुनिने सर्वप्रथम लौकिक अनुष्टुप् छन्दमें 'मा निषाद ! प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः / यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् // ' इस श्लोककी रचना की / इसके पूर्व वेदके अतिरिक्त लोकमें अनुष्टुप छन्दमें रचना किसीने नहीं की थी, अतएव इसकी रचना करनेसे ही वाल्मीकि मुनि आदि कवि' कहलाये / विश्रवःपितृकयाऽऽप्तुमनह सश्रवस्त्वमनयेत्युचितज्ञः / त्वं चकर्त्तिथ न शर्पणखाया लक्ष्मणेन वपुषा श्रवसी वा ? / / 74 / / विश्व इति / हे राम ? विष्णो। विश्रवाः तदाख्यमुनिः श्रवणरहितश्च जनः, पिता जनको यस्याः सा विश्रवःपितृका तया। 'नद्यतश्च' इति कप समासान्तः / अनया शूर्पणखया, सश्रवस्त्वं श्रोत्रसहितत्वम् , आप्तुम् लब्धुम् , अनहम् अयोग्यम् , इत्युचितज्ञः इति एवम् , उचितं योग्यम् , जानाति बुध्यते यः स तादृशः, त्वं भवान् लक्ष्मणेन वपुषा लक्ष्मणरूपेण निजदेहेन, एक एव नारायणः आत्मानं चतुर्द्धा विभज्य रामादिभ्रातृचतुष्टयरूपेण अवतीर्णत्वात् इति भावः। शूर्पणखायाः तदाख्यायाः राव. णभगिन्याः निशाचर्याः, श्रवसी श्रोत्रे, किं वा न चकत्तिथ ? किं न कृत्तवान् असि ? अपि तु चकर्तिथ एवेत्यर्थः // 74 // 'विश्रवा ( विश्रवा नामक मुनि, पक्षा०-कानरहित व्यक्ति ) की कन्या इस (शूर्पणखा) को कान सहित होना अनुचित है। इस उचित बातको जाननेवाले तथा ( एक विष्णुके ही अंशसे चारो भाइयोंको अवतार ग्रहण करने के कारण ) लक्ष्मणशरीरधारी तुमने शुर्पणखाके दोनों कानोंको नहीं काटा था क्या ? अर्थात् अवश्य काटा था // 74 / / ते हरन्तु निऋतिव्रततिं मे यैः स कल्पविटपी तव दोभिः। छद्मयादवतनोरुदपाटि स्पर्द्धमान इव दानमदेन / / 75 / / ते इति / हे विष्णो ! कृष्ण ! छद्मयादवतनो छद्मना कपटेन, यादवी यदुवंशोद्भः वकृष्णरूपिणी, तनुः मूर्तिर्यस्य तादृशस्य, निराकारत्वस्यैव स्वाभाविकत्वात् लीला. स्वीकृतयादवशरीरस्येत्यर्थः / तव ते, यैः दोभिः चतुर्भिर्बाहुभिः, दानमदेन लोकेभ्यः 1. 'दुरितव्रततिम्' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1427 अभीष्टवितरणजनितदर्पण हेतुना, स्पर्द्धमानः इव तव दोभिः सह स्पद्धां कुर्वनिव स्थितः, सः प्रसिद्धः, कल्पविटपी कल्पतरुः, उदपाटि उत्पाटितः, तव दोभिः सह स्पर्धीकरणजन्याहङ्कारदूरीकरणायेति भावः / ते तादृशाः तव दोषः, मे मम सम्ब. धिनीम् , निर्ऋतिम् अलचमीमेव व्रततिं लताम् , 'दुरितव्रततिम्' इति पाठ एव साधुः / दुरितव्रततिं पापरूपिणी लताम् / 'स्यादलचमीस्तु निर्ऋतिः' 'वल्ली तु व्रत तिलता' इत्युभयत्राप्यमरः। हरन्तु नाशयन्तु, छिन्दन्तु इत्यर्थः। महातरूपाटनश. कस्य लताच्छेदनमकिञ्चित्करमेवेति भावः / कृष्णकर्तृककल्पवृक्षोत्पाटनकथा हरि. वंशेऽनुसन्धेया // 75 // ( अब आठ ( 21175-82 और क्षेपकसहित नव) श्लोकोंसे कृष्णावतारकी स्तुति करते हैं-) कपटसे यादवशरीरधारी ( अथवा-कपटयुक्त (कंसादिरूपी वनके लिए) दवाग्निशरीरधारी ) अर्थात् कृष्णावताररूप तुम्हारे जिन (चारो) बाहुओंने दानके मदसे तुम्हारे (बाहुओंके साथ ) स्पर्धा करते हुएसे कल्पवृक्षको उखाड़ दिया; वे तुम्हारे ( चारो) बाहु मेरे अलक्ष्मी (पाठा०-पाप ) रूपी लताको नष्ट करें। [वृक्षको उखाड़नेवाले बाहुओं का तथा वृक्षको नष्ट करनेवाले कपट दवाग्निशरीरधारीका लताको नष्ट करनेमें समर्थ होना उचित ही है ] // 75 // पौराणिक कथा-सत्यमामाके याचना करनेपर श्रीकृष्णने स्वर्गमें इन्द्रको जीता और वहांसे कल्पवृक्षको लाकर सत्यमामाके लिए दिया, यह कथाप्रसङ्ग हरिवंश महापुराणमें है। बालकेलिषु तदा यदलावीः कर्परीभिरभिहत्य तरङ्गान् | भाविबाणभुजभेदनलीलासूत्रपात इव पातु तदस्मान् / / 76 / / बालेति / हे विष्णो ! कृष्ण ! तदा तस्मिन् समये, शैशवे इत्यर्थः। बालकेलिषु शिशुसुलभक्रीडासु, कर्परीभिः शर्कराभिः, स्फुटितकलशानां शुद्रक्षुद्रखण्डेरित्यर्थः / 'स्त्री स्यात् काचिन्मृणाल्यादि विवक्षापचये यदि' इति कोषात् अपचय विवक्षायां स्त्रीत्वम् / अभिहत्य ताडयित्वा, तरङ्गान् ऊर्मीन् , यमुनाया इति भावः। यत् अलावीः छिन्नवान् असि, शिशवो हि खपरखण्डताडनस्तरङ्गान् छिन्दन्ति इति दृश्यते / भाविनी भविष्यन्ती, बाणस्य तदाख्यस्य असुरराजविशेषस्य, भुजानां सहस्रबाहूनाम् , भेदनमेव छेदनमेव, लीला क्रीडा, तस्याः सूत्रपातः इव प्रथमसूच. नमिव, स्थितमिति शेषः / तत् तरङ्गलवनम् , कत अस्मान् सप्रकृतिवर्ग मामि. सूत्रेण रेखाङ्कनं कुर्वन्ति तद्वदिति भावः // 76 // तुमने उस समय (कृष्णावतार में ) बालक्रीडाओं में फूटे हुए ठिकड़ों (घड़े आदिके टुकड़ों ) से यमुनाके तरङ्गोंको मार-मार जो खण्डित किया था, भविष्य (उषाहरणके समय ) में बाणासुरके बाहुच्छेदनरूप क्रीड़ाके विलासके सूत्रपातके समान वह (ठिकड़ोंसे यमुनाके तरङ्गोंका खण्डन करना) हमारी रक्षा करे। [जिस प्रकार लड़कीको बराबर
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________________ 1428 नैषधमहाकाव्यम् / काटने के लिए बढई पहले उसपर धागा आदिसे चिह्न बना लेता है, उसी प्रकार भविष्यमें उषाहरणके समय बाणासुरके बाहुओंको काटनेके लिए मानो तुमने ठिकड़ोंसे यमुनाके तरङ्गोंको काट-काटकर गेरु आदिका सूत्रपात किया। ठिकड़ोंको पानीके तरङ्गोंपर फेंकना बच्चोंका एक क्रीड़ा-विशेष होता है, जिसे 'छिछली मारना' कहते हैं ] // 76 // कर्णशक्तिमफलां खलु कत्त सज्जितार्जुनरथाय नमस्ते / केतनेन कपिनोरसि शक्ति लक्ष्मणं कृतवता हृतशल्यम / / 77 / / कर्णति / हे विष्णो ! कृष्ण ! उरसि वक्षसि, शक्तिः रावणनिक्षिप्तशक्तिशेलाख्यः आयुधविशेषः यस्य तं तादृशम्, 'अमूर्द्धमस्तकात् स्वाङ्गादकामे' इति सप्तम्यलुक। लक्ष्मणं सौमित्रिम, हृतं निष्काशितम्, गन्धमादनाख्यपर्वतसहानीतेन विशल्यक. रण्याख्यौषधविशेषेणेति भावः। शल्यं तत्-शक्तिशेलाख्यास्त्रविशेषः यस्मात् तं नादाम, कतवता विहितवता, कपिना वानरेण, हनूमपेणेत्यर्थः। केतनेन लान्छनेन, रथध्वजभूतेन हनूमता इत्यर्थः / खलु निश्चितमेव, कर्णस्य राधेयस्य, शक्तिः सामर्थ्यमेव शक्तिः कासूनामास्त्रविशेषः तां, 'कासूसामर्थ्ययोः शक्तिः' इत्यमरः / अफलां व्यर्थाम, कत्तं विधातुम्, सजितः कपिना संयोजितः, अर्जुनस्य पार्थस्य, रथः स्यन्दनं येन तस्मै, ते तुभ्यम्, अर्जुनसारथये इत्यर्थः / नमः प्रणतिः, अस्तु भवतु / रामावतारे गवणनिक्षिप्तशक्तिशेलेन मृतप्रायं लचमणम् उज्जीवयतः हनूमतः शक्तिशेलनिहरणे सामथ्र्य त्वया दृष्टम् , इदनी कृष्णावतारेऽपि तदेवानुस्मृत्य कर्णनिक्षिप्तां शक्तिमपि विफलीकर्तुं स एव हनूमान् भवता अर्जुनस्य रथध्वजे स्थापितः इति रणपण्डिताय तुभ्यं नमः इति निष्कर्षः // 77 // - ( मेघनादके द्वारा ) छातीमें लगी हुई शक्तिवाले लक्ष्मणको (गन्धमादनपर्वतसे 'विशल्य' नामक ओषधि लाकर ) शल्यरहित करनेवाले तथा पताकास्थित हनुमान्से कर्णकी ( इन्द्रदत्त ) शक्तिको निरर्थक करने के लिए अर्जुनके रथको सज्जित करनेवाले अर्थात् अर्जुनके सारथि बने हुए तुमको नमस्कार है / [ रामावतार में लक्ष्मण के हृदयमें लगी हुई मेघनाद. प्रहृत शक्तिकी गन्धमादन पर्वतसे 'विशल्प' नामक औषधिको लाकर हनुमानने निष्फल कर दिया था, अतएव इन्द्रने जो कर्णके लिए शक्ति दी है, उसे भी निष्फल करने के लिए तुमने पूर्वानुभवी हनुमानको अर्जुनके रथ-पताकापर नियुक्तकर अर्जुनका सारथित्व किया, उस रणचतुर आपके लिए नमस्कार है ] // 77 // नापगेयमनयः सशरीरं द्यां वरेण नितरामपि भक्तम् / मा स्स भूत् सुरवधूसुरतज्ञो दिव्याप व्रतविलोपभियेति / / 78 / / नेति / हे विष्णो! कृष्ण ! व्रतस्य चिरब्रह्मचर्यनियमस्य, भीष्मो हि यावच्छरीरं ब्रह्मचर्य सङ्कल्पितवानिति महाभारतकाराः / विलोपात् नाशात् , सुरबधूसुरतेनेति 1. 'स' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 1. '-सुरताज्ञः' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1426 भावः / भिया भयेन हेतुना, दिवि स्वर्गेऽपि, सुरवधूनां रम्भादीनां देवाङ्गनानाम्, सुरतस्य मैथुनसुखसम्भोगस्य, ज्ञः अभिज्ञः, मा स्म भूत् न भवतु, भीष्म इति भावः / इति एवम् , विचार्येव इति शेषः / नितराम् अस्यर्थम्, भक्कम् अनुरागिणं सेवकमपि, आपगायाः नद्या गङ्गाया अपत्यमिति आपगेयं गाङ्गेयम्, भीष्ममित्यर्थः / वरेण त्वं सशरीर एव स्वर्ग गच्छ इति वरप्रदानेन, सशरीरं देहसहितम्, यां स्वर्गम, न अनयः न नीतवान् , स्वमिति शेषः। किन्तु स्वर्गादपि श्रेष्ठं मोतं प्रापितवानित्यपूर्व ते भक्तवात्सल्यमिति भावः // 78 // (पूर्ण प्रतिशात ब्रह्मचर्य व्रतके नष्ट होनेके भयसे सशरीर स्वर्गप्राप्ति करने पर) स्वर्ग में भी देवाङ्गनाओंका सङ्ग न हो, ऐसा विचारकर आपने परमभक्त भी भीष्मपितामहको बरदान से सशरीर स्वर्गमें नहीं पहुंचाया। [ भीष्मने ब्रह्मचारी रहनेका व्रत लिया था, अत एव 'यदि मैं इनको सशरीर स्वर्गमें वरदान देकर भेजता हूं तो वहां पर देवाङ्गनाके सङ्गसे इनका व्रत भङ्ग हो जायेगा, इसी भयसे आपने परमभक्त भी भीष्मको वरदान देकर सशरीर स्वर्गमें नहीं पहुंचाया, किन्तु उससे मी उत्तम मोक्षपद दिया। अतएव आप-परम भक्तवत्सल हैं ] // 78 // पौराणिक कथा-सन्यवतीसे विवाह करने के इच्छुक पिताकी इच्छाको पूर्ण करने के लिए भीष्मने सत्यवती के पिताके कहनेसे आजन्म ब्रह्मचारी रहनेका व्रत धारण कर लिया था / यह कथा महाभारतमें आई है। ___घातितार्कसुतकर्णदयालु त्रितेन्दुकुलपार्थकृतार्थः / अद्धदुःखसुखमभ्यनयस्त्वं साश्रुभानुविहसद्विधुनेत्रः / / 76 / / घातितेति / घातितः विनाशितः, अर्जुनेनेति शेषः। यः अकसुतः सूर्यपुत्रः, कर्णः अङ्गराजः, तस्मिन् दयालुः कारुण्यपरः अत एव अर्करूपदक्षिणनयनस्य साश्रुत्वमिति भावः / तथा जैत्रितः जेता कृतः, इन्दुकुलः चन्द्रवंशजातः, यः पार्थः अर्जुनः, तेन कृतार्थः सफलमनोरथः, भूभारहरणरूपनिजावतरणप्रयोजनस्य साफल्यादिति भावः / एवञ्च चन्द्ररूपवामलोचनस्य हर्षविहसितत्वमिति भावः / एवञ्च यथाक्रमं साश्रुः रोदनजल सहितः, भानुः सूर्यश्व, विहसन् हर्षेण विकासमाप्नुवन् , विधुः चन्द्रश्च, तो नेत्रे दक्षिणवामलोचनद्वयं यस्य सः तादृशः, सूर्याचन्द्रमसी नारायणस्य भगवतः नेत्रद्वयमिति श्रुत्युक्तत्वात् , त्वं भवान् , दुःखं सुखञ्च दुःखसुखम् दुःखसुखस्य अर्द्धम् 'अर्द्ध नपुंसकम्' इति अर्द्धशब्दस्य पूर्वनिपातः / पर्यायक्रमेण अर्द्धदुःखम् अर्द्धसुखश्चेत्यर्थः / अभ्यनयः अभिनीतवानसि / अभ्यनय इत्यनेन निष्क्रियस्य ते न काऽपि वास्तविकी क्रिया विद्यते, यास्तु क्रियाः तव दृश्यन्ते, तत् सर्वमेवाभिनयमात्रमिति सूचितवानिति भावः // 79 // ( कौरव-पाण्डवके युद्ध में ) सूर्य-पुत्र ( कर्ण) को मरवाने तथा चन्द्रकुलोत्पन्न अर्जुनको
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________________ 1430 नैषधमहाकाव्यम् / विजयी बनानेसे ( क्रमशः ) अश्रुयुक्त सूर्य तथा विहसित होते हुए चन्द्ररूप ( दक्षिण-वाम ) नेत्रद्वयवाले तुमने एक साथ ही आधे दुःख तथा आधे सुखका अभिनय किया। [ सूर्यपुत्र कर्णके मरनेपर सूर्यका दुःखी होना रोना तथा चन्द्रवंशोत्पन्न अर्जुनके विजयशील होनेसे चन्द्रका हर्षित होकर हंसना उचित ही है, सूर्य-चन्द्र हो विष्णुके दक्षिण-वाम नेत्र हैं ] // 79 // प्राणवत्प्रणयिराध ! न राधापुत्रशत्रुसखता सदृशी ते / श्रीप्रियस्य सहगेव तव श्रीवत्समात्महृदि धत्त मजस्रम् / / 80 // प्राणेति / प्राणवत् जीवनतुल्या, प्रणयिनी प्रेयसी, राधा वृषभानुसुता राधिका यस्य तत्सम्बद्धिः हे प्राणवत्प्रणयिराध ! हे कृष्ण ! ते तव, राधा अधिरथाख्यसूत. जाया, सैव राधा श्रीराधिका वृन्दावनेश्वरी, तस्याः पुत्रः तनयः, कर्णः इत्यर्थः / अन्यः कश्चिदित्यर्थश्च, तस्य शत्रुः अर्जुनः, तस्य सखा मित्र राधापुत्रशत्रुसखः तस्य भावः तत्ता सा, न सहशी न युक्ता, पुत्रशत्रुप्रति शत्रुताया एवौचित्यादिति भावः / परन्तु, श्रीः लचमीः, प्रिया प्रोतिदायिनी भार्या यस्य तादृशस्य,तव भवतः, आत्मनः स्वस्य, हृदि वक्षसि, अजस्रं सर्वदा, श्रीवत्सं रोमावर्तरूपलान्छनविशेषम्, श्रियः लदम्याः, वत्सं पुत्रश्च, धत्त ग्रहीतुम, सहक सहशमेव, योग्यमेवेत्यर्थः / राधाप्रियस्य राधासुत द्वेषिणि सख्यम् अनुचितम्, श्रीप्रियस्य हृदि श्रीवत्सधारणं युक्तमिति राधा. श्रीवत्सशब्दाभ्यां छद्मनोक्तिः // 8 // प्राणतुल्य प्रणयिनी है राधा जिसकी, ऐसे हे कृष्ण भगवान् ! राधापुत्र ( कर्ण ) के शत्रु ( अर्जुन ) की मित्रता तुम्हारे योग्य नहीं है ( प्राणप्रणयिनी राधावालेको राधा पुत्र के वैरो की मित्रता करना उचित नहीं होनेसे विरोध आता है, उसका परिहार 'राधा' नामक गोपकन्या तथा कर्णका पालन करनेवाली 'राधा' नामकी कैवर्त स्त्री करनेसे होता है ) / तथा लक्ष्मीके प्रिय तुम्हें श्रीवत्स (श्रीका पुत्र, पक्षा०-ब्राह्मण चरणका 'श्रीवत्स' नामक हृदयस्थ चिह्न-विशेष ) को अपने हृदयमें निरन्तर धारण करना उचित ही है (श्रीप्रियका श्रीपुत्रको हृदयमें धारण करना योग्य है ) / [ तुम्हारे-जैसा स्वपक्षपातकर्ता एवं ब्राह्मणके चरणचिह्नको सदा हृदयमें धारणकर लोगोंको ब्राह्मण-भक्ति-परायण होनेकी शिक्षा देने वाला दूसरा कोई नहीं है ] // 8 // (तोवकापरतनोः सितकेशस्त्वं हली किल स एव च शेषः / साध्वसाववतरस्तव धत्ते तज्जरच्चिकुरनालविलासः / / 5 / / ) (तावकेति / हे कृष्ण ! हली लाङ्गलधरो बलभद्रः स एव च शेषोऽनन्तस्त्वमेव / 1. '-सखिता' इति पाठान्तरम् / 2. अयं श्लोको मया 'प्रकाश' व्याख्यासहित एवात्र स्थापितः। अत्र 'तावकीपर तनोः' इति पाठः उपेच्यः, पुंवद्भावप्रसङ्गात् / 3. त्वज्जरत्-' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1431 शेषावताररूपोऽपि बलभद्रो भवानेव, न तु स त्वत्तो भिन्न इत्यर्थः / त्वं बलभद्रः, स एव शेषः / त्वत्तो हली न भिद्यते, हलिनश्च शेषो न भिद्यत इति वा / यतः कायस्य सम्बन्धाजरसा सितकेशो धवलितकचः किलेत्यागमे। विष्णुपुराणादौ च यदुक्तम्-'उजहारात्मनः केशौ सितकृष्णौ ततः प्रभुः।' इति / न विद्यते परोत्कृ. ष्टाऽन्या यस्याः सा तावकी अपरा तनुस्त्वत्सम्बन्धिनी सर्वोत्कृष्टा सत्त्वमूर्तिस्तस्याः सितकेशः श्वेतकेशरूपो हली तवावतारोंऽशावताररूपोऽसौ हली त्वं किल / तदव. यवभूतकेशरूपत्वात्तस्य / स च हल्येव शेष इति वा। शेषरूपबलदेवलक्षणोऽसाव. वतरो मूर्तिः / अत एव तस्या भवदीयापरतनोजरतो जरसा धवलीकृतस्य चिकुर. नालस्य केशदण्डस्य विलासं वर्णसारूप्यं साधु यथा तथा धत्ते। अतिगौरो बल. देवस्त्वदीयापरतनुर्धवलकेश इव भातीत्यर्थः। शेषस्यापि दीर्घत्वधवलत्वाभ्यां जरा. धवलदीर्घकेशसारूप्यधारणं युक्तमेव / 'कारणगुणा हि कार्ये गुणानारभन्ते' इति न्यायाञ्च युक्तमेव / 'अंशावतारो बलभद्र' इति चोक्तम् / अत्र श्वेतकेशः सहज एव, न तु जरायोगात् , इति वा। यतो हरिनित्यतरुण इति पुराणादिप्रसिद्धिः। वस्तुतस्तु-कस्य ब्रह्मसुखस्येशी सुखरूपावित्यर्थः / प्रकाशकत्वेन सत्वस्यासितशब्द. वाच्यत्वात् , मोहकत्वेन च तमसः कृष्णशब्दवाच्यत्वात् सितकृष्णी सत्वतमोगुणास्मकावेताववतारौ भूभारोत्तारणार्थ प्रभुरादिनारायणः स्वस्मात्प्रकटीचकारेति विष्णु. पुराणस्थ 'सित-कृष्ण' पदस्यार्थः / 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' इति भागवतवचनेन कृष्णस्तु-लीलाविग्रहधारी परब्रह्मैव / 'समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।' इति भगवद्वचनात् / बलभद्रस्त्ववतारः 'रामो रामश्च रामश्च' इति वच. नात् / अन्यथा बलभद्रस्य सत्त्वमूर्तित्वम् , कृष्णस्य तमोमूर्त्तित्वमापोत, न च तथास्तीति बलभद्रस्य तमःप्रधानत्वदर्शनादित्याशयः / 'शितिकेश-' इति पाठे'शिती धवलमेचकी' इत्यभिधानात्वदीयपुराणतनोः सम्बन्धी शितिकेशः श्यामकेश. रूपस्त्वम् , हली च धवलकेशरूपः, स एव च हली शेषो. बलभद्रः शेषावतारः इति पुराणादौ / स त्वदीयधवल केशविलासं धत्ते तत्साधु / कृष्णस्य कृष्णवर्णस्वाद्ध (ख) लिनश्वातिगौरत्वाद्यथाक्रमं श्यामसितकेशत्वमौत्प्रेक्षिकत्वेनेव व्याख्येयमित्यलमति. विस्तरेण / 'तावकापर-' इति पाठः साधीयान् , यतः 'युष्मदस्मदोः-' इत्यणि तवकादेशे वृद्धौ च 'वृद्धिनिमित्तस्य-' इत्यादिना पुंवद्भावप्रतिषेधे प्रसक्तेऽपि कर्मधारयत्वात् 'पुंवत्कर्मधारय-' इति प्रतिप्रसवात्पुंवद्भावः / अवतरः पूर्ववत् // 5 // ) ___ तुम्हारी सर्वश्रेष्ठ मूर्ति के श्वेतकेशवाले हलधारी ( बलराम ) हैं, वह शेष ( शेषावतार) तुम्ही हो, ( जो बलराम हैं, वही शेषनाग हैं और वह तुम्हीं हो अर्थात् बलराम तथा शेषनागमें कोई भेद नहीं है और उक्तरूप तुम्ही हो / शरीर-सम्बन्धसे बलराम श्वेतकेश हैं ) / शेषनागरूप 'बलराम' की यह मूर्ति तुम्हारे सर्वोत्कृष्ट शरीरके वार्द्धक्यके कारण श्वेत किये गये केश-समूहके विलासको जो धारण करती है, यह ठीक ही है। [ अत्यन्त गौरवर्णवाले
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________________ 1432 नैषधमहाकाव्यम् / बलरामके केशोंको भी स्वत एव श्वेतवर्ण होना उचित ही है। अथवा श्वेत केश सहज ही है, वाद्धंक्यके संसर्गसे नहीं है, क्योंकि पुराणादि शास्त्रों में विष्णुको सर्वदा तरुण ही कहा गया है। वस्तुतस्तु-प्रकाशक होनेसे सत्त्वगुण 'सित' (श्वेत) शब्दका और मोहक होनेसे तमोगुण 'असित' (कृष्ण ) शब्दका वाच्य है और सत्त्व तथा तमोगुणद्वयात्मक अवतार को पृथ्वीका भार दूर करने के लिए आदिनारायण भगवान्ने अपनेसे प्रकट किया है, ऐसा विष्णुपुराणस्थ 'सित' शब्द का अर्थ जानना चाहिये और कृष्णजी तो लीला. विग्रहधारी साझात स्वयं परब्रह्म ही हैं, क्योंकि भगवान्का कोई भी शत्रु या मित्र नहीं है, वे तो सबमें समान व्यवहारकर्ता हैं / 'रामो रामश्च रामश्च' इस वचनके अनुसार बलरामजी अवतार-विशेष हैं, अन्यथा बलरामजी श्वेत होनेसे सत्त्वमूर्ति तथा कृष्णजी कृष्णवर्ण होनेसे तमोमूर्ति माने जायेंगे, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि बलरामजीको तमोगुणप्रधान तथा कृष्णजीको सत्त्वगुणप्रधान होना सर्वसम्मत सिद्धान्त है // 5 // हृद्यगन्धवह ! भोगवतीशः शेषरूपमपि बिभ्रदशेषः / . भोगभूतिमदिरारुचिरश्रीरुल्लसत्कुमुदबन्धुरुचिस्त्वम् / / 81 // हृद्येति / हृद्यं मनोहरम, गन्धं चन्दनादिसौरभम् , वहति धारयतीति हृद्यगन्धवहः तस्य सम्बोधनम् , हे हृद्यगन्धवह ! भोगवत्याः सुखभोगोचितायाः ककुमिकन्यायाः 'रेवत्याः, ईशः भर्ता, भोगः सकचन्दनादिधारणम् , भूतिः ऐश्वर्यम् , भूषणादिधारणरूपा समृद्धिरित्यर्थः। मदिरा सुरा च, सुरापानञ्चे. स्यर्थः / ताभिः रुचिरा मनोहारिणी, श्रीः सौन्दर्य यस्य स तादृशः यद्वा-भोगस्य सम्भोगस्य, भूतिः समृद्धिः, भूतिकारिणीत्यर्थः / तया भोगभूत्या भोगसमृद्धि जनिकया, मदिरया सुरया, रुचिरा मनोज्ञा, श्रीः शरीरशोभा यस्य स ताहशः, मदिराया नेत्रलौहित्यादिरूपशोभाजनकत्वादिति भावः / बलभद्रस्य मदि. राप्रियस्वादियमुक्तिः / उल्लसन्ती शोभमाना, कुमुदानां कैरवाणाम् , बन्धोः सख्युः, चन्द्रस्येत्यर्थः / रुचिः इव रुचिः शुभ्रशरीरकान्तिः यस्य सः तादृशः, त्वं भवान् , शेषस्य अनन्तनागस्य, रूपं मूर्तिम् , बिभ्रदपि धारयन्नपि, बलभद्रस्य शेषावतार. स्वादिति भावः / अशेषः शेषो न, शेषात् अनन्तनागात् भिन्नः इत्यर्थः / असि इति शेषः, यो हि शेषः सः कथम् अशेषः इति शब्दतो विरोधः। अन्यच्च-हे विष्णो ! हृद्यः, आहारेण हृदयान्तस्थः, गन्धवहः वायुः यस्य स तादृशः, सर्पाणां पवनाशनत्वात् इति भावः / तत्सम्बुद्धी हे हृधगन्धवह ! भोगः फणः विद्यते अस्याः इति भोगवती नागरमणी / 'भोगः सुखे स्न्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यमरः। तस्याः ईशः स्वामी, यद्वा-भोगवत्याः पातालगङ्गायाः, ईशः अधिपतिः, अनन्तस्य पाता. लाधिपतित्वादिति भावः / हृद्यगन्धवहभोगवतीशः इत्यस्य समस्तपदत्वे हृधगन्धः वहश्च असौ भोगवतीशश्चेति विशेषणसमासः / भोगानां फणानाम् , भूतिः सम्पत्,
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________________ एकविंशः सर्गः। 1433 बाहुल्यमिति यावत् अस्यास्तीति भोगभूतिमान् , सहनफणस्वादिति भावः / इरया भवा, शिरःस्थया पृथिव्या इत्यर्थः / 'इरा भूवाकसुराप्सु स्यात्' इत्यमरः / रुचिरा मनोहारिणी, श्रीः शोभा यस्य सः इरारुचिरश्रीः, भोगभूतिमांश्चासौ इरारुचिरश्री. श्वेति स तादृशः / कर्मधारयः तथा उल्लसन्ती शोभमाना, प्रकटयन्तीति यावत्, कुमुदे कुमुदाख्ये सर्पे 'कुमुदः कैरवे रक्त-पङ्कजे कुमुदः कपो / दैत्यान्तरे च दिङ्नाग-नागयोः परिकीत्तितः' इति विश्वः / बन्धौ स्वजने, रुचिः प्रीतिः यस्य स तादृशः, स्वं भवान् , शेषस्य अनन्तस्य रूपं मूर्तिम् , बिभ्रत् धारयन् अपि, अशेषः असीमः, असि भवसि, अतो न पूर्वोक्तिविरोधः। अनन्तनागास्मकबलरामस्यापि दशावतारान्तर्गतत्वे न सोऽपि त्वमेव, सर्वात्मकत्वाद्विष्णोरिति भावः // 8 // _ हे हृदयहारी गन्धको धारण करने वाले श्रीकृष्ण ! आप भोगयुक्त गोपिकाओं के पति हैं, बलरामके रूपमें अवतार लेकर भी सम्पूर्ण विश्वरूप (अनन्त ) हैं, भोगैश्वर्यसे मदिराके तुल्य मादक (अतिहर्षप्रद ) एवं रुचिर कान्तिवाले हैं तथा आह्लादजनक चन्द्रमाके समान सुन्दर हैं। (बलरामपक्षमें-आप मनोहर चन्दनादि-गन्धयुक्त मोगवाली रेवतीके स्वामी हैं, शेषरूप होते हुए भी अशेष हैं, यह विरोध हुआ, इसका परिहार यह है कि-बलराम होते हुए भी महान् हैं, मोगके ऐश्वर्यरूप मदिराके पीनेसे आप रुचिर कान्तिवाले हैं तथा गौरवर्ण होनेसे शोभमान चन्द्रमाके समान कान्तिवाले हैं। शेषनागपक्षमें-आप हृदयप्रिय चन्दनादि गन्धयुक्त भोगवती ( नामक पातालस्थ नदी, या-पातालपुरी) के स्वामी हैं, शेषनागका रूप धारण करते हुए भी विशाल हैं, अपने शरीर की फणाओं के ऐश्वर्य (समृद्धि-अधिकता) से हर्षित करनेवाली रुचिर कान्तिवाले हैं तथा उल्लसित होते हुए कुमुदनामक सर्पमें प्रेम करनेवाले हैं (या-उल्लसित होते हुए चन्द्रमाके समान स्वच्छ कान्तिवाले हैं ) // 81 // रेवतीश ! सुषमा किल नीलस्याम्बरस्य रुचिरा तनुभासा / कामपाल ! भवतः कुमदाविर्भावभावितरुचेरुचितैव // 2 // रेवतीति / रेवत्याः ककुद्मिकन्यायाः, ईशः भर्ता, तस्य सम्बोधनं रेवतीश ! हे रेवतीरमणबलराम ! कामपाल ! भोः कामपालापराख्यबलराम ! 'रेवतीरमणो रामः कामपालो हलायुधः' इत्यमरः। कोः भूमेः मुदःप्रीतेः, आविर्भावाय उत्पादाय, भूभार. हरणेनेति भावः / यद्वा-कुमुदस्य तदाख्यनागस्य, आविर्भावाय उपस्थितये, भाविता कृता, रुचिरिच्छा येन तादृशस्य, बलरामस्य अनन्तनागरूपत्वेन कुमुदस्य च अनन्त. सजातीयत्वेन सख्यसम्बन्धादिति भावः, भवतः तव तनुभासा शुभ्रदेहकान्त्या, नीलस्य नीलवर्णस्य, अम्बरस्य वस्त्रस्य, रुचिं रातीति रुचिरा मनोज्ञा, सुषमा शोभा, उचितैव अनुरूपैव, जातेति शेषः / श्वेतनीलयोवर्णयोः मिश्रणे शोभातिशयात् शरीरस्य शुभ्रकान्स्या नीलवसनस्य शोभा नितरामुचितैवेति भावः / अन्यच्च
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________________ 1434 नैषधमहाकाव्यम् / रेवतीश ! हे रेवतीनक्षत्रपते! कामपाल ! हे मदनोद्दीपक ! शशधर ! कुमुदानां कैरवाणाम् , आविर्भावाय प्रकाशनाय, प्रस्फुटनायेत्यर्थः / भाविता सञाता, रुचिः दीप्तिः तस्य तादृशस्य, भवतः तव, तनुभासा देहप्रभया, ज्योत्स्नयेत्यर्थः। नीलस्य नीलवर्णस्य, अम्बरस्य गगनस्य, रुचिरा रमणीया, सुषमा परमा शोभा, उचितव युक्तव किल, जातेति शेषः / नीलाकाशे शुभ्रकान्तिशशधरस्य रम्यदर्शनत्वादिति भावः॥ 82 // हे रेवतीरमण ( बलराम ) ! हे कामपाल (बलराम, अथवा-भक्तमनोरथपूरक ) ! (पृथ्वीके भारको हरणकर ) पृथ्वी के हर्षके प्रादुर्भावसे रुचिको ( अथवा-गौरवर्ण होनेसे चन्द्ररुचिको ) उत्पन्न करनेवाले, आपके शरीरकी गौरकान्तिसे नीले कपड़ेकी रुचिर शोभा होना उचित ही है। (पक्षा०-हे रेवती नक्षत्रके स्वामी तथा कामवर्द्धक (चन्द्र)!) कुमुदको विकसित करने के लिए प्रकटित चाँदनीवाले तुम्हारे शरीरकी कान्तिसे नीले आकाशकी रुचिर ( हृद्य ) तथा उत्कृष्ट शोमा होना उचित ही है। [गौरवर्ण शरीर में नीले कपड़ेकी तथा नीले आकाशमें चाँदनीकी हृदयहारिणी उत्कृष्ट शोमाका होना सर्वविदित है ] // 82 // ( एकचित्तततिरद्वयवादिन त्रयीपरिचितोऽथ बुधस्त्वम् / पाहि मां विधुतकोटिचतुष्कः पञ्चबाणविजयी षडभिज्ञः / / 6 / / तत्र मारजयिनि त्वयि साक्षात्कुर्वति क्षणिकतात्मनिषेधौ / पुष्पवृष्टिरपतत्सुरहस्तात्पुष्पशस्त्रशरसन्ततिरेव / / 7 / / तावके हृदि निपात्य कृतेयं मन्मथेन दृढधैर्यतनुत्रे | कुण्ठनादतितमा कुसुमानां छत्रमित्रमुखतंव शराणाम् // 8 // यत्तव स्तवविधौ विधिरास्ये चातुरी चरति तञ्चतुरास्यः / त्वय्यशेषविदि जाग्रति शर्वः सर्वविब्रुवतया शितिकण्ठः // 6 / / धूमवत्कलयता युधि कालं म्लेच्छकल्पशिखिना करवालम् / कल्किना दशतयं मम कल्कं त्वं व्युदस्य दशमावतरेण // 10 // देहिनेव यशसा भ्रमतोव्यां पाण्डुरेण रणरेणुभिरुच्चैः। विष्णुना जनयितुर्भवताऽभून्नाम विष्णुयशसश्च सदर्थम् / / 11 / / सन्तमद्वयमयेऽध्वनि दत्तात्रेयमर्जुनयशोऽर्जुनवीरम् / नौमि योगजनितानघसंज्ञं त्वामलकभवमोहतमोऽकम् // 12 // 1. इमे दश श्लोकाः 'प्रकाश' व्याख्यया सहैवान स्थापिताः 2. 'परिचिताथ बुधस्त्वम्' इति, 'परिचिताध्वबुधस्त्वम्' इति च पाठान्तरम् / 3. '-यशोऽर्जुनबीजम्' इति पाठान्तरम्।
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________________ एकविंशः सर्गः। 1435 भानुसूनुमनुगृह्य जय त्वं राममूर्तिहतवृत्रहपुत्रः / इन्द्रनन्दनसपक्षमपि त्वां नौमि कृष्ण ! निहतार्कतनूजम् / / 13 / / वामनादणुतमादनुजीयास्त्वं त्रिविक्रमतनूभृतदिकः / / वीतहिंसनकथादथ बुद्धात्कल्किना हतसमस्त ! नमस्ते // 14 // मां त्रिविक्रम ! पुनीहि पदे ते कि लगन्नजनि राहुरुपानत् / किं प्रदक्षिणनकृभ्रमपाशं जाम्बवानदित ते बलिबन्धे / / 15 // ) चतुर्भिः श्लोकैर्बुद्धं वर्णयति-एकेति / हे अद्वयवादिन् द्वैतबाह्यघटपटादिभेदानामसत्यताप्रतिपादनेनैकस्या ज्ञानाकारताया एव सत्यताङ्गीकारादद्वैतवादिन् ! स्वं मां पाहि। किम्भूतः?-एकैव चित्तततिर्ज्ञानसन्ततिर्यस्य दीपकलिकान्यायेन क्षणिकज्ञानप्रवाह एवैको यस्य मते, न तु तदतिरिक्तं किञ्चिदप्यस्ति, तादृशः, अत एव-अद्वयवादिन् इति योजना। तथा-त्रय्या परिचितो ज्ञातस्ताहशो न भवसी. त्यत्रयीपरिचितः / नसमासो वा नेति पृथग्वा / वेदत्रयीगम्योऽपि न भवसीत्यर्थः / अथच-वेदत्रयां परिचितः कृतपरिचयो वेदत्रयी परिचिताऽभ्यस्ता येन तादृशो वा न भवति / सर्वस्य क्षणिकाङ्गीकाराद्धर्माधर्मव्यवस्थाया निरासादनङ्गीकृतवेदप्रामाण्य इत्यर्थः / अत एव बुधः पण्डितः। न हि पण्डितं विना वेदादिसर्वदूषणसमर्थाऽन्यस्य बुद्धिः सम्भवति / अथच-अत्रयीपरिचितोऽपि बुध इति विरोधा. भासः / न हि वेदत्रयमजानानस्यापि पण्डितत्वं सम्भवति / अथच-यः पण्डितः 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' इति मन्यमानो वेदान्ती स वेदत्रयीं न मन्यत इति विरोधः। वेदान्तिना हि वेदप्रामाण्यस्य स्वीकृतत्वात् / अथच-अद्वयवादाद् द्वित्वसङ्ख्यामपि नाङ्गीकरोति / स द्वित्वसङ्खयां न मन्यत इति युक्तमेवेत्यर्थः। तथा-माध्यमिका. नामपि कियन्मात्रमतभेदेन बौद्धसिद्धान्तान्तःपातित्वात् / 'न सगासन सदसन्नचाप्यनुभयात्मकम् / चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्वं माध्यमिका विदुः।' इत्यनिर्वचनीयप्रपञ्चवादित्वाद्विधुतं निराकृतं सदसरसदसद्वैलक्षण्यलक्षणं कोटिचतुष्कं प्रकारचतुष्टयं येन, अथच-त्रित्वनिषेधानिरस्तचतुष्टयः। तथा-विरक्तवादिगम्बरवास्पश्चबाणः कामस्तद्विजयी मारजित् / अथच-'बण शब्दे' इत्यस्मानि बाणशब्दस्तं पञ्चसङ्ख्यावाचिन पञ्चशब्दं न सहत इत्यर्थः / यो हि चतुष्टयं न सहते स पञ्चापि न सहत इति युक्तमेवेत्यर्थः / तथा-देशादिव्यवहितवस्तुदर्शनम्, देशादिव्यवहितशब्दश्रव. णम् , अतीतजन्मस्थितिस्मरणम् , परचित्तज्ञानम् , अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवे. शाख्यपञ्चक्लेशक्षयः, अणिमादिसिद्धिश्चेति षडभिज्ञा ज्ञानप्रकारा यस्य / वेदानुसा. रिभिदैत्यैः पराभूता देवा ब्रह्माणं शरणं गताः, ब्रह्मणा प्रसादितो नारायणो बुद्धरूपे. 1. बलिबन्धे' इति पाठान्तरम् / 60 नै० उ०
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________________ 1436 नैषधमहाकाव्यम् / णावतीयं दैत्यबुद्धिं वेदार्थेभ्यश्च्यावयित्वाबौद्धमतमुपदिदेश, अतस्ते देवानां जय्याः सम्पन्ना इति / अत एव चतदीयमतपरिभाषयवस्तुतिकारि / 'परिचिताथ बुधस्त्वम्' इति पाठे नेति पदं भित्वा त्वया वेदत्रयी न परिचिता न स्वीकृतप्रामाण्या / अथ विरोधे / तथापि बुधस्त्वमित्यर्थः / 'परिचिताध्ववुधः-' इति पाठे त्रयीपरिचितानां वैदिकानां मार्गे पण्डितो न भवति / अवैदिकमार्गमेव जानान इत्यर्थः // 6 // तत्रेति / तत्र तस्मिन् बुद्धावताररूपे सौन्दर्याज्जितेन्द्रियत्वाच्च मारजयिनि कामस्य जैत्रे त्वयि क्षणिकता सर्व क्षणिकं सत्त्वात् , तथा-आत्मनिषेधश्च 'समनस्के. न्द्रियजन्यनीलपीताधाकारसविकल्पकनिर्विकल्पकवासनोपबृंहितचित्सन्ततिरेवात्मा, भूतान्येव चेतयन्ते, मनसा संयोगे ज्ञानमुत्पद्यते, तस्माद्देह एवात्मा, न तु नित्योऽन्यः कश्चित्' इत्यादिप्रकारेण सर्वभावानां क्षणमात्रावस्थायितानैरास्यञ्च स्वदर्शनोक्तं समाधिना साक्षात्कुर्वति सति पुष्पशस्त्रस्य कामस्य शरसन्ततिर्वाणपरम्परारूपा सुरहस्तात्पुष्टवृष्टिरेवापतत् / अतिबले हि शत्रौ करादायुधानि पतन्ति / कामोऽपि त्वत्तो भीतः पुष्पशरश्च / तथा च तस्य करावगयेन पतिता पुष्परूपबाण. परम्परा क्षणिकतास्मनिषेधौ साक्षात्कुर्वति त्वयि विषये सुरमुक्ता पुष्पवृष्टिरिवापतदित्युत्प्रेक्षा। कामेऽपि देवत्वमेव पुष्पवृष्टिमोचन हेतुः। यो हि लोकोत्तरं वस्तु प्रत्यक्षगोचरं करोति, यश्च कञ्चन विजयते, तयोरुपरि देवः पुष्पवृष्टिः क्रियत इत्यादि ज्ञातव्यम् // 7 // तावक इति / मन्मथेन दृढमभेद्यं धैर्यमेव तनुनं कवचं यस्य तस्मिस्तावके हृदि मनसि, अथच-वक्षसि अर्थाच्छरान्निपात्य नितरां दृढाघातपूर्व यथा तथा पातयित्वा दृढतनुत्रत्वादेवातितमां कुण्ठनात्तैदण्यत्यागाद्धेतोः कुसुमरूपाणां स्वीयशराणां छस्त्रं मित्रं येषां तानि, छत्त्रस्य वा मित्राणि, मुखानि येषां तेषां भावस्तत्ता सूचीमुखता परित्याजनेन छत्रतुल्यवृत्तमुखेनेयं प्रत्यक्षदृशा कृता / दृढतनुत्रे हि पातितो बाणः कुण्ठितत्वाद् वृत्तमुखो भवति / स्मरशराः शरवारपूर्व सूचीमुखा आसन् , इदानीन्तु धैर्यकञ्चके त्वदीये हृदि निपत्य नितरां कुण्ठनादिव तेषां पुष्परूपाणां छस्त्राकार. मुखता जातेत्युत्प्रेक्षोपमे / विकसितानि पुष्पाणि छत्नतुल्यानि भवन्ति / अथचछत्रं छायाकारित्वात्सुखदमेव यथा, न तु दुःखदम, तथा कामशरा अपि त्व दयस्यानिर्वापका एव जाता न तु त्वां जेतुमशकन्नित्यर्थः / एतादृशो जितेन्द्रियः कोऽपि नास्तीति भावः / निपात्य, ण्यन्तात् करवो ल्यप // 8 // ___यदिति / विधिस्तव स्तुतिविधौ बहुभिर्मुखैश्चातुरी वैदग्ध्यं यदि चरति प्राप्नोति नानाप्रकारैर्यदि तद्वर्णनं करोति तत्तद्देवचतुराणि वर्णननिपुणान्यास्यानि यस्यैतादृशो भवेन्नान्यथा / अथच-तद्वर्णनविधौ यस्माच्चातुरीं प्राप्नोति तस्मादेव हेतोश्चतुरा. ण्यास्यानि यस्येति चतुरास्यो न तु चत्वार्यास्यानि यस्येति विग्रहेण चतुरास्यः। आस्यानां चतुष्ट्ये सत्यपि तत्रार्थ गौरवाभावात् अत्र तु गौरवसद्भावात्तथैवोच्यत इत्यर्थः /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1437 स्वदीयस्तुतिपरत्वाद् ब्रह्मणो लोकत्रयेऽप्येवं कीर्तिरजनीति भावः / तथा-शर्वो हर. स्त्वयि बुद्ध एवाशेषविदि सर्वज्ञे जाग्रति सति सर्वविदं सर्वज्ञमात्मानं ब्रूते स सर्ववि. ब्रुवस्तत्तयेव परगुणस्यात्मन्यारोपेण हेतुना कलङ्केन शितिकण्ठो नीलकण्ठः, न तु कालकूटभक्षणेन नीलकण्ठः, त्वरस्पर्द्धितया लोकत्रयेऽपि महेशस्यैवमयशो जातमि. त्यर्थः / ब्रह्ममहेशाभ्यामपि सकाशाश्वमेव परमपुरुषः सर्वज्ञ इति भावः / अन्यस्या. च्यात्मस्तुत्या सर्वसन्निधौ लजया मालिन्यं भवति / सर्वविद्मवेति विदुषिवेतिवत्॥ ___ श्लोकद्वथेन करिकनं स्तौति-धूमवदिति / त्वं धूमवत् कालं करवालं खड्गं युधि म्लेच्छः सह युद्धे कलयता धारयता, मृत्युरूपं खड्गं धूममिव धारयता वा। अत एव-ग्लेच्छानां कल्पशिखिना प्रलयकालानलरूपेण म्लेच्छा इव म्लेच्छाः पापिनस्तेषां वा, म्लेच्छप्रायाणां वा, एवम्भूतेन कल्किसंज्ञेन दशमावतारेण कृत्वा मम दशतयं दशावयवं कल्कं पापं व्युदस्य निराकुरु / समूलमुन्मूलयेत्यर्थः। अथच-यः स्वयं कल्की सोऽन्यकल्क विनाशयतीति विरोधः। कल्किशब्दस्य विष्णुनामस्वारपरिहारः। म्लेच्छकल्पशिखिनेत्यवतारप्रयोजनमुक्तम् / अदत्तस्य वस्तुनः स्वयं ग्रहणम् , यागीयातिरिक्ता हिंसा, परस्त्रीगमनञ्च (इति) त्रिविध कायिकम् / पारुष्यम् , अनृतम् , पेशुन्यम् , असम्बद्धप्रलापश्चेति चतुर्विधं वाचिकम् / परद्रव्यग्रहणेच्छा, परानिष्ट. चिन्ता, वृथैव परेषु दोषाभिध्यानञ्चेति त्रिविधं मानसम् / इति दशविधं पापम् / चतुस्त्वक्श्रोत्रघ्रागजिह्वापाणिपादपायूपस्थमनोजन्यं वा / दशसु मासेषु भवत्वाद्दर्भ वासलक्षणं दुःखमिति वा / 'कल्कः पीपाशये पापे' इति विश्वः / / 10 // देहेनेति / विष्णुयशसस्तन्नामकस्य जनयितुः पितुः विष्णुरिति नाम भवता च स्वयैव कृत्वा सदर्थ सान्वयमभूत् / किम्भूतेन भवता-रणरेणुभिरुच्चैः पाण्डुरेण धवलतरेण तथा-दुष्टगवेषणार्थमुव्यां भ्रमता विष्णुना व्यापकेन विष्णुसंज्ञकेन च पाण्डुरत्वाद्वयापित्वाञ्च देहिना शरीरधारिणा यशसेव यशोरूपेण विष्णु व्यापकं यशो यस्य त्वया पुत्रेणेति यावत् / तस्य तव पितुर्नाम सान्वयमभूत् , जातप्रायमे. वेति भाविन्यपि भूतवदुपचारः। अतीतकलियुगान्तापेक्षयाऽभूदिति निर्देशो वा। पूर्व तु डित्थादिवत्तन्नामाभूत् , खय्युत्पन्ने तु तत्सार्थकमभूदित्यर्थः // 11 // - दत्तात्रेयं स्तौति-सन्तमिति / अहं दत्तात्रेयनामानं त्वां नौमि / किम्भूतम्अद्वयमयेऽध्वनि अद्वैतमार्गे ऐकाम्यवादे सन्तं वर्तमानम् , तथा-अर्जुनस्य कार्तवीर्यार्जुनस्य यशसो यदर्जनं तस्य बीजं मूलम् / कार्तवीर्येणाराधितो दत्तात्रेयस्तव यशो लोकध्यापि भविष्यतीति वरं दत्तवान् / 'दुर्जन-' इति पाठे अर्जुनयश 'एवा. र्जुनो वृक्षः, तस्य बीजम् / वृक्षस्योत्पत्तिर्बीजादेव युक्ता / अथच-अर्जुनं धवलं यशो यस्यवंविधोर्जुनः कार्तवीर्यस्तस्य बीजम् / तथा-अष्टाङ्गयोगेन जनितोत्पादिता पापादिराहित्यादनघ इत्यपरा संज्ञा यस्य / तदा हि देवयोगबाहुल्यादनघेति संज्ञा कृता / तथा अलकनाम्नः शत्रुभ्वजमदालसापुत्रस्य राज्ञो भवमोहो ममतादिरूपः
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________________ 1438 नैषधमहाकाव्यम् / संसारमोहः स एव तमोऽन्धकारस्तस्य विनाशहेतुत्वादस्तम् / योगमार्गोपदेशेन तस्य मोहं चिच्छेदेति पुराणकथा // 12 // ___ एवं दशावतारान्निर्वर्ण्य भक्त्यतिशयेन पुनरपि कियतस्तानेबावतारांस्त्रिविक्रम हरिहरौ बालमुकुन्दञ्च सङक्षेपेण चतुर्विशत्या श्लोकेर्वर्णयति-भानुसूनुमिति / हे विष्णो ! भानुसूनुं सूर्यपुत्रं सुग्रीवमनुगृह्य बालिहृतां तद्वधूं तारां तस्मै दत्वा राज्याभिषेकद्वारा कृतार्थीकृत्य राममूर्त्या रामावतारेण हतो मारितो वृत्रघ्न इन्द्रस्य पुत्रो बाली येन, स त्वं रामो जय सर्वोत्कर्षेण वर्तस्व / नमस्योऽसीत्यर्थः / तथा भो कृष्णावतार ! अहमिन्द्रनन्दनस्यार्जुनस्य सपक्ष मित्रभूतम् , अत एव निहतो मारितोऽकतनूजो येनेति वा / यो भानुसूनुमनुगृह्णाति स निहतार्कतनूजः कथम् ? तथाहतेन्द्रपुत्रः स इन्द्रपुत्रमित्रं कथम् ? इति विरोधार्थोऽपिशब्दः। निग्राह्यानुग्राह्ययोस्तत्पुत्रयो रामकृष्णावतारयोश्च भेदात्तु विरोधपरिहारः / एताविरुद्धचरितत्वाद् दुविज्ञेयः परमपुरुषोऽसीति भावः // 13 // वामनादिति / हे विष्णो ! अणुतमाद् हस्वतमशरीराद्वामनावतारादनु पश्चात् त्रिविक्रमावतारस्य तन्वा शरीरेण त्रिविक्रमावताररूपया वा तन्वा भृता व्याप्ता दिशो येन स त्वं जीयाः सर्वोत्कर्षण वर्तस्व / तथा-वीता निवृत्ता हिंसनकथा प्राणिवध. वार्तापि यस्मादेवम्भूताद् बुद्धावतारात् , अथ पश्चात् कल्किना दशमावतारेण कृत्वा हतं मारितं कलिमलदूषितं समस्तं प्राणिजातं येन तादृश विष्णो! ते तुभ्यं नमः। यो घणुतमः स एव तनूभृतदिको व्यापकदेहः कथम् ? तथा-यश्च वोतहिंसनकथ: स एव हतसमस्त इति विरोधः, अवतारभेदेन परिहारः। दुर्विज्ञेयचरितोऽसीति भावः / वामनत्रिविक्रमी वर्णितौ // 14 // मामिति / हे त्रिविक्रम ! त्वं मां पुनीहि / तथा-गगनव्यापिन्यूर्वीकृते ते पदे विष्णुपदे लगन् नक्षत्रमालामध्यवर्ती श्यामरूपो राहुरूपानद् अजनि किं पादरक्षिकेव जाता किम् ? / एतावदतिमहच्छरीरं पृतम् , यस्य चरणस्थाने गगनस्थो राहुरुपा. नदिव जात इत्यर्थः / सापि हि श्यामा, चरणे च लगति / तथा-प्रदक्षिणनं प्रदक्षिणाख्यं पञ्चदशमुपचारं कुर्वन् जाम्बवान् ऋक्षराजो ब्रह्मावतारो बलिनिबन्धननिमित्तं ते तुभ्यं भ्रमिपाशं परिभ्रमणरूपं वलयाकारवेष्टनमेव पाशं बन्धनरज्जुमेवादित दत्तः वान् किम् ? / यो हि कञ्चिद्धन्धुमुपक्रमते तस्मै केनचित्पाशो दीयते / यद्यपि देवेन बलिर्वाग्बन्धमेव प्रापितः, न तु रज्ज्वादिबन्धम् तथापि लोके बद्ध इति प्रसिद्धिवशा. द्वन्धनशब्दच्छलेन कविः पाशशब्दं प्रायुक्त / जाम्बवान् किल तदा त्रिविक्रमस्य षोडशोपचारपूजामकृतेति प्रवादः / अत्रापि त्रिविक्रमो वर्णितः। 'बन्धे' इति पाठे तृनन्ताद्वन्धेश्चतुर्थी 'ते' इत्यस्य विशेषणम् / 'बन्धः' इति तस्मादेव सम्बुद्धिः // 15 // (हे भदयवादिन् घट-पटादि भेदको असत्य मानकर एक शानाकारको ही माननेसे
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________________ एकविंशः सर्गः 1439 अद्वैत सिद्धान्तवाले) ! तुम (दीपकलिका-न्यायसे केवल ) क्षणिक प्रवाहको माननेवाले, त्रयी (ऋग्युजःसामवेद ) से परिचित ( उनके ज्ञाता) नहीं होनेपर भी विदान् हो (यहां वेदशानशून्यको विद्वान् होनेसे विरोध है, उसका परिहार यह है कि-) (सबको क्षणिक ही मानने तथा धर्माधर्ममोगव्यवस्थाका खण्डन करनेसे ) वेदत्रयोक्त प्रमाणको नहीं माननेवाले हो तथा विद्वान् हो, ( तथा-जो अद्वयवादो ( 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' सिद्धान्तको माननेवाला ) वेदान्ती है वह प्रयोसे अपरिचित (वेदत्रयानमिव ) कैसे हो सकता है ? यह दूसरा विरोध है, इसका परिहार उपर्युक्त अर्थते ही हो जाता है / अथच-जो द्वित्वको स्वीकार नहीं करता उसे त्रित्वका स्वीकार नहीं करना ( उससे अपरिचित रहना ) उचित ही है।) तथा तुम ( सत , असत् , सदसत् , न सत् न असत्-इन) चार कोटियोंको नहीं स्वीकार करनेवाले हो, (जितेन्द्रिय होनेसे ) काम विजयी हो ( अथवा-जो ( कोटि ) चतुष्टय अर्थात् चार सङ्ख्या को नहीं मानता, उसे पांचका वाचक 'पञ्चन्' शब्दको नहीं मानना न्यायोचित ही है)। और तुम षडमिश (1 दिव्यचक्षुःश्रोत्र, 2 परचित्तज्ञान, 3 पूर्वनिवासका अनुसरण, 4 आत्मज्ञान, 5 आकाशगमन और 6 कायव्यूहसिद्धि-इन 6; अथवा-१ज्ञान, 2 शील, 3 क्षमा, 4 वीर्य, 5 ध्यान और 6 प्रशा-इन 6, अथवा-१ देशादिव्यवहित वस्तुको देखना, 2 देशादिव्यवहित शब्दको सुनना, 3 पूर्वजन्मको स्थितिका स्मरण, 4 दूसरेके मनकी बात जानना, 5 अविद्या-अहङ्कार-रोग-द्वेष-अभिनिवेशरूप पांच क्लेशोंका नाश और 6 अणिमादि-सिद्धि -इन 6 में ज्ञान करनेवाले अर्थात् इनके ज्ञाता ) हो; ऐसे तुम मेरी रक्षा करो // 6 // ( अतिशय सुन्दर एवं नितेन्द्रिय होनेसे ) कामविजयी आप (बुद्ध ) को क्षणिकता तथा आत्मनिषेधका साक्षात्कार करनेपर देवोंने जो आपके ऊपर पुष्पवृष्टि की, वह मानों आपसे पराजित कामदेवके हाथसे पुष्परूप बाण ही छुटकर गिर पड़ा / [ आपने कामदेवको जीत लिया तो देवोंने आपके ऊपर पुष्पवृष्टि की, वह आपसे भयात कामदेवके हाथसे शस्त्र ही गिर पड़े ऐसा ज्ञात होता था। विजेताके भयसे विजित व्यक्तिका मयात होना तथा उसके हाथसे शस्त्रोंका गिर पड़ना उचित है / कामदेवका शस्त्र पुष्प है, अत एव ऐसा रूपक किया गया है। बौद्ध-सिद्धान्तके अनुसार सब कुछ क्षणिक ही है तथा देइसे मिन्न नित्यस्थायी 'आत्मा' नामका कोई भी पदार्थ नहीं है ] // 7 // कामदेवने दृढ धैर्यरूप कवचसे युक्त तुम्हारे हृदय ( वक्षःस्थल, पक्षा०-मन ) में गिराकर पुष्परूप बाणों के अत्यन्त कुण्ठित होने से उन्हें छत्राकार मुखवाला बना दिया। [ जिस प्रकार कोई वोर वैरीके कवचयुक्त छातीपर बाण मारता है तो उस बाणका मुख (अग्रभाग) उस दृढ कवचपर कुण्ठित होकर छत्वाकार हो जाता है, उसी प्रकार कामदेवने धैर्यरूपी दृढ कवचयुक्त आपके हृदयमें तीक्ष्णाय वाण मारा तो उन बाणोंका अग्रभाग अत्यन्त कुण्ठित होकर छत्त्राकार हो गया / कामदेवके बाणों के पुष्परूप होनेसे तथा 'पुष्पोंके विकसित होनेपर छत्त्राकार होनेसे उक्त उत्प्रेक्षा की गयो है। अथच-पुष शरीर-स्पर्श करनेपर
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________________ 1440 नैषधमहाकाव्यम् / जिस प्रकार सुखद होते हैं, उसी प्रकार काम-प्रक्षिप्त पुष्पबाण भी तुम्हें जितेन्द्रिय होनेसे सुखद ही हुए / आपके समान जितेन्द्रिय कोई भी जगत्में नहीं है ] // 8 // यदि ब्रह्मा तुम्हारी स्तुति करनेमें चतुरता करे तो वह चतुरास्य (चतुर मुखवाला, पक्षा०-चार मुखोंवाला ) कहलावे, अथवा-जिस कारण ब्रह्मा तुम्हारी स्तुति करनेमें चतुरता करता है, अत एव चतुरास्य (चतुर मुखवाला, पक्षा० चार मुखोंवाला ) कहलाता है ( तुम्हारी स्तुतिका ही यह सत्परिणाम है कि ब्रह्मा चतुरास्य ( चतुरमुखवाला, पक्षा०चार, मुखवाला ) कहलाया; अन्यथा वह 'चतुरास्य' कभी नहीं कहलाता)। [ सर्वज्ञ तुम्हारे जागरूक रहनेपर अपनेको सर्वज्ञ कहनेसे शिवजी नीलकंठ हो गये यदि शिवजी, तुम्हारे सर्वश रहनेपर भी अपनेको सर्वश नहीं कहते तो वे लज्जासे नीले ( काले ) कण्ठवाले नहीं होते, किन्तु तुम्हारे साथ ऐसी स्पर्धा करनेसे ही वे नीलकण्ठ हो गये, विषपानसे नीलकण्ठ नहीं हुए / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी महान् व्यक्ति के साथ स्पर्धा करता है तो उसके सामने लज्जासे उसका कण्ठ ( मुख ) काला हो जाता है। ब्रह्मा तथा शिवसे भी आपका प्रभाव श्रेष्ठ तम है / इन चार श्लोकोंसे नलने बुद्धावतारकी स्तुति की है / वेदविरोधी बुद्धकी स्तुति करने में यह कारण है कि दैत्योंसे पराजित देवलोग ब्रह्माकी शरणमें गये और उनकी स्तुतिसे प्रसन्न विष्णु भगवान्ने बुद्धावतार लेकर दैत्योंको वेदविरोधी उपदेशोंके द्वारा धर्मभ्रष्टकर दिया, इसीसे उन्हें जीतने में देवलोग समर्थ हुए ] // .9 // ( अब दो श्लोकोंसे दशम ( कल्कि ) अवतारकी स्तुति करते हैं-) युद्धमें धूमके समान श्यामवर्ण तलवारको ( अथवा-कालरूप तलबारको धूमके समान ) धारण करते हुए, म्लेच्छोंके लिए प्रलयाग्निरूप 'कल्कि' नामक दशवें अवतारवाले तुम मेरे दशविध पापोंको दूर करो। [ जो स्वयं कल्कि' कल्कवाला = पापवाला है, वह दूसरेके कल्कों = पापोंको कैसे दूर कर सकता है ? इस विरोधका परिहार-'कल्कि' शब्दको 'विष्णु' वाचक मानकर करना चाहिये / दशविध पाप ये हैं-विना दिये दूसरेकी वस्तुको लेना, यज्ञातिरिक्त हिंसा करना और परस्त्री सम्भोग-ये 3 कायिक; कटुभाषण, असत्य, चुगलखोरी और असम्बद्ध प्रलाप-ये 4 वाचिक तथा दूसरेकी वस्तु लेने की इच्छा, दूसरेके अनिष्ट करनेका विचार होना और दूसरेपर व्यर्थ दोषारोपण-ये 3 मानसिक; इस प्रकार (3+ 4+3 = 10 ) दश प्रकारके पाप होते हैं / अथवा-दशों इन्द्रियोंके द्वारा किये गये दश पाप हैं / अथवा-गर्भावस्थाके दश मासोंमें होने वाले कष्ट-विशेषरूप 'दश पाप' यहां अभीष्ट हैं ] // 10 // विष्णुयशको उत्पन्न करनेवालेका 'विष्णु' यह नाम ( दुष्टोंको ढूढ़ने के लिए ) पृथ्वी में घूमते हुए, विष्णु ( व्यापक, पक्षा०-'विष्णु' नामक ) और युद्धजन्य धूलियोसे पाण्डुर ( श्वेत ) वर्ण शरीरधारी यशके समान आपसे ही सार्थक हुआ है / [ यद्यपि 'विष्णु' नाम पहले हुआ है तथा 'कलिक' अवतार पीछे हुआ है, तथापि भविष्यकालकी अपेक्षा या कल्पान्तरकी अपेक्षा उक्त विरोधाभाव समझना चाहिये ] // 11 //
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________________ एकविशः सर्गः। 1441 ( अब दत्तात्रेयकी स्तुति करते हैं-) मैं अद्वैतमार्गमें वर्तमान, सहस्रार्जुन (कार्तवीर्य) के यशःप्राप्ति ( पाठा-स्वच्छ यशवाले सहस्रार्जुन ) के कारण, ( अष्टाङ्ग) योगसे 'अनघ' संज्ञाको प्राप्त करनेवाले और 'अलर्क' राजाके संसारमोहरूपी अन्धकारके सूर्य (संसारमोहको नष्ट करनेवाले ) दत्तात्रेय तुमको नमस्कार करता हूं // 12 // पौराणिक कथा-१. दत्तात्रेयकी आराधना करनेसे कार्तवीर्यने संसारव्यापि निर्मल यश पाया था / 2. दत्तात्रेयके अष्टाङ्ग योगको देखकर अधिक योग होनेसे देवोंने दत्तात्रेयका दूसरा नाम 'अनघ' रखा। 3. अलर्क नामक राजाको सांसारिक मोह हुआ तो दत्तात्रेयने ही उपदेश देकर उसे दूर किया। ___ (इस प्रकार मत्स्यादि अवतारों की स्तुति करने के बाद अधिक भक्तिमान् नल पुनः उन्हीं में से कुछ अवतारोंकी स्तुति करते हैं )-सूर्यपुत्र ( सुग्रीव) को (बालिवध, बालिके द्वारा अपहृत ताराका पुनः प्रत्यर्पण एवं राज्याभिषेकसे ) अनुगृहीतकर रामावतार में इन्द्रपुत्र ( बालि ) को मारनेवाले तुम विजयी होवो तथा हे कृष्ण ! इन्द्रपुत्र (अर्जुन ) के मित्र होते हुए भी सूर्यपुत्र (कर्ण) को मरवानेवाले तुमको नमस्कार है। [इन्द्रपुत्रका सपक्ष ( मित्र) इन्द्रपुत्रको तथा सूर्यपुत्रको अनुगृहीत करनेवाला सूर्यपुत्रको कैसे मारेगा ? इस विरोधद्वयका परिहार ( निवारण) राम तथा कृष्णके अवतार भेदसे करना चाहिये। इस प्रकार अद्भुतचरित करनेवाले आपको नमस्कार है ] // 13 // ___ अत्यन्त छोटे वामन शरीरके बाद त्रिविक्रम-शरीरसे दिशाओंको व्याप्त करनेवाले तुम विजयी होवो तथा हिंसाकी चर्चासे भी बिरत बुद्धके बाद कल्कि अवतारसे समस्त (पापी) प्राणियोंको मारनेवाले तुमको नमस्कार है। [ यहां भी अत्यन्त छोटे शरीरवाले का समस्त दिशाओंको व्याप्त होना, हिंसाकी चर्चासे भी विरत रहनेवालेका समस्त प्राणियों को मारना अत्यन्त विरुद्ध होनेसे उक्त अवतार भेदसे परिहार करना चाहिये / इससे भगवान्का अतिशय दुर्बोध होना सूचित होता है ] // 14 // हे त्रिविक्रम ! मुझे पवित्र (पापरहित ) करो, (आकाशको मापते समय ) तुम्हारे चरणमें लगा हुआ राहु जूता नहीं हो गया था क्या ? ( बलि से तीनपद भूमिको दानरूपमें प्राप्तकर जब तुम आकाशको एक पादसे मापने लगे, तब तुम्हारे चरणके समीपमें स्थित राहु कृष्णवर्ण होनेसे जूतेके समान मालूम पड़ता था)। और प्रदक्षिणा करता हुआ जाम्बवान् नामक ऋक्षराजने तुम्हारे लिये बलिको बाँधने में ( पाठा०-बलिको बाँधनेवाले तुम्हारे लिए) लपेटकर बांधनेवाली रस्सी दे दी क्या ? / [ यद्यपि वामन भगवान्ने बलिको केवल वचनबद्ध ही किया था; रज्जु आदिसे बद्ध नहीं किया था; तथापि बिद्ध हुआ' इस लोकोपचारसे यहां पाश ( बांधनेको रस्सी) का वर्णन समझना चाहिये / वामनावतारमें ब्रह्माके अवतार जाम्बवान्ने वामन भगवान्का षोडशोपचारसे पूजन किया था, अत एव षोडशोपचारान्तर्गत प्रदक्षिणका वर्णन.यहां किया गया है ] // 15 //
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________________ 1442 नैषधमहाकाव्यम् / अर्द्धचक्रवपुषाऽर्जुनबाहून योऽलुनात् परशुनाऽथ सहस्रम् / तेन किं सकलचक्रविलुने बाणबाहुनिचयेऽञ्चति चित्रम् ? / / 83 / / अति / हे विष्णो ! यः भवत एवावतारभूतः यः परशुरामः, चक्रस्य अर्द्धम् अर्द्धचक्रम् अर्द्धचक्राकारम् अर्द्धचक्रमात्रञ्च, वपुः शरीरं यस्य तादृशेन अर्द्धच काका. रेण, परशुना कुठारेण, सहस्रं सहस्रसङ्घयकान् , अर्जुनस्य कार्तवीर्यस्य ककुभवृक्षस्य च 'अर्जुनः ककुभे पार्थे कार्तवीर्यमयूखयोः' इति विश्वः / बाहुन् भुजान् , अथशब्दः कात्स्न्य 'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकारस्न्यष्वथो अर्थ' इत्यमरः। अथ कात्स्न्यन, अलुनात् अच्छिनत् , निःशेषेणाच्छिनदित्यर्थः / अथशब्दस्य परेण वा अन्वयः, अथ अनन्तरम् , तेन भवता कृष्णरूपिणेत्यर्थः / सकलेन सम्पूर्णेन, चक्रेण सुदर्शनेन, विलूने छिन्ने, बाणस्य बाणासुरस्य, कुरण्टकवृक्षस्य च 'बाणो दानवभेदे तु शरे दासीकुरण्टके' इत्यजयपालः। बाहूनां भुजानाम् , शाखारूपभुजानाञ्च, निचये समूहे सहस्रसङ्घयकबाहुविषये इत्यर्थः / किं चित्रं किमाश्चर्यम् , अञ्चति ? प्राप्नो. तीत्यर्थः / जनस्य चित्तमिति शेषः / अत्र चित्रं नास्तीत्यर्थः। ककुभच्छेदिनः कुरण्ट. कच्छेदो यथा नाश्चर्य, तथा अर्द्धचक्रेण यो बाहुसहस्रच्छेत्ता, तस्य सम्पूर्णचक्रेण पुनः तच्छेदनं न किमपि वैचित्र्याधायकमिति भावः // 83 // अर्द्धचक्राकार परशुसे ( परशुरामावतार में ) जिस (विष्णु ) ने अर्जुन (कार्तवीर्य, पक्षा०-अर्जुन नामक पेड़ ) के सहस्र बाहुओं ( सहस्र भुजाओं, पक्षा०-हजारों अनेकों शाखाओं ) को काट डाला, उस (विष्णु ) के द्वारा सम्पूर्ण चक्र (सुदर्शन चक्र ) से काटे गये बाण ( बाणासुर, पक्षा०-'बाण' नामक वृक्ष-विशेष ) के बाहुओं (भुजाओं, पक्षाशाखाओं ) के समूह में क्या पाश्चर्य है ? / [ अर्द्धचक्राकार परशुसे सहस्र बाहुओं को काटने. वालेके लिए सम्पूर्ण चक्रसे कतिपय बाहुसमूहको काटना, तथा अर्जुन वृक्षके सहस्रों शाखाओंको काटनेवालेके लिए बाण वृक्षके कुछ शाखा-समूहोंको काटना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है / इसी प्रकार परशुरामावतार में सहस्रार्जुन-जैसे महाबलवान्को मारनेवाले विष्णुके लिए कृष्णावतार में बाणासुरको मारना भी आश्चर्यजनक नहीं है ] // 83 / / पाश्चजन्यमधिगत्य करेणापाञ्चजन्यमसुरानिव वक्षि / / चेतनाः स्थ किल पश्यत किं नाचेतनोऽपि मयि मुक्तविरोधः ? / / 84 // पाञ्चजन्यमिति / हे विष्णो ! करेण पाणिना, वामहस्तेनेति यावत् / पाश्चजन्य तदाख्यशङ्खम् / 'बहिदेवपश्चजनेभ्यश्च' इति वक्तव्यात् न्यः। 'शङ्खो लक्ष्मीपतेः पाञ्चजन्यः' इत्यमरः / दक्षिणेन च करेण अपाश्च जलानाञ्च, जन्यम् उत्पाद्यम् , जलजं पद्ममित्यर्थः / अधिगत्य प्राप्य, धृत्वा इत्यर्थः। असुरान् दानवान् , वक्षीव इदं ब्रवीषीव / 'वच परिभाषणे' इत्यस्यादादिकस्य लटि सिपि रूपम् / किमि स्याह-हे असुराः ! चेतनाः चैतन्यवन्तः, स्थ भवथ, यूयमिति शेषः, अत एव
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________________ एकविंशः सर्गः। 1443 पश्यत अवलोकयत, अचेतनोऽपि जडोऽपि, पाञ्चजन्यः अपाञ्चजन्यश्च इति शेषः / मयि अस्मद्विषये, मुक्तः पूर्वोक्तप्रकारेण त्यक्तः, विरोधः विद्वेषः येन सः तारशः, जात इति शेषः। न किम् ? विरोधं परित्यज्य मयि अवस्थितो न किम् ? इत्यर्थः। किल इति प्रश्ने, अपि तु तयोरुभयोरेव मयि अविरोधेनावस्थानात् त्यक्तविरोध एव जात इति भावः। अत एव सचेतनैः युष्माभिरपि विरोधं परित्यज्य मयि स्थातव्यम्, अन्यथा चेतनशङ्खासुरवत् भवतामपि मरणं भविष्यत्येव इति तात्पर्यम् // (हे विष्णो ! बायें) हाथसे 'पाञ्चजन्य' नामक शङ्खको तथा ( दहने ) हाथसे जलोत्पन्न अर्थात् कमलको धारणकर असुरोंसे मानो इस प्रकार कहते हो कि-तुमलोग चेतन हो तो क्यों नहीं देखते हो कि-अचेतन ( 'पाञ्चजन्य' तथा 'अपाच जन्य' अर्थात् क्रमशः शङ्ख तथा कमल ) भी मेरे विषयमें विरोध रहित हैं / [ अथवा-अचेतन भी पाञ्चजन्य शङ्खको मैं नहीं छोड़ता तो सचेतन शङ्खासुर आदि तुम लोगोंको मैं बिना मारे कैसे छोडूंगा ? अर्थात् कदापि नहीं छोडूंगा / अथबा-अचेतन पाञ्जजन्य शङ्ख ही मेरे विषयमें विरोधरहित है, तुमलोग सचेतन हो, अत एव मेरे विषयमें विरोध करो तो तुमलोगोंकी भी वही गति होगी, जो चेतनावस्थामें इस पाञ्चजन्य शङ्ख ( शङ्खासुर ) की हुई थी अर्थात् तुम लोगोंको भी मैं मारूंगा] // 84 // तावकोरसि लसद्वनमाले श्रीफलद्विफलशाखिकयेव / स्थीयते कमलया त्वदजस्रस्पर्शकण्टकितयोत्कुचया च / / 85 // तावकेति / हे नारायण ! तव भवतः, अजस्रं निरन्तरम्, स्पशन संस्पर्शन, कण्टकितया साविकभावोदयेन सातरोमाञ्चया कण्टकयुक्तया च, तथा उत् उदगतौ उन्नती, कुचौ स्तनौ यस्याः तादृश्या च, कमलया लपण्या, लसन्ती शोभमाना, वनमाला आरण्यकुसुमस्रक काननश्रेणी च यस्मिन् तादृशे, तावके स्वत्सम्बन्धिनि, उरसि वक्षसि, श्रीफलस्य बिल्ववृक्षस्य / 'बिल्वे शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि' इत्यमरः / द्वे फले फलद्वयमानं यस्यां सा द्विफला, या शाखिका खुद्रशाखा तया इव / अल्पार्थे कन् / स्थीयते वृत्यते / भावे लकारः। 85 // शोमित होती हुई वनमालावाले तुम्हारे वक्षःस्थलपर तुम्हारे निरन्तरस्पर्श ( जन्य सुख ) से रोमाञ्चयुक्त, उन्नत स्तनोंवाली लक्ष्मी बेलवृक्षके फलद्वयसे युक्त टहनी (पतली डाली ) के समान रहती है / [जहांपर वनमाला (वनोंकी श्रेणि ) रहती है, वहांपर कण्टक एवं फलयुक्त बिल्व वृक्षकी शाखा भी रहती है, उसी प्रकार प्रकृतमें भी वनमाला होनेसे लक्ष्मीको भी फलस्थानीय पीवर स्तनदय एवं कण्टकस्थानीय रोमाञ्चसे युक्त होकर रहनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 85 // त्यज्यते न जलजेन करस्ते शिक्षितुं सुभगभूयमिवोच्चैः / आननञ्च नयनायितम्बिम्बः सेवते कुमुदहासकरांशुः / / 86 / /
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________________ 1444 नैषधमहाकाव्यम् / स्यज्यत इति / हे विष्णो ! जलजेन पद्मन, उच्चैः महत् , सुभगभूयं सुभगत्वम्, कोमलत्वरक्तरवादिरूपसौभाग्यमित्यर्थः / भुवो भावे' इति क्यप।शिक्षितुम् अभ्यसितुम् इव, ते तव, करः हस्तः, न त्यजते न हीयते / तथा नयनायितं वामलोचनवत् इति श्रुतेरिति भावः / कुमुदानां कैरवाणाम्, हासकराः विकासकारिणः अंशवः किरणा यस्य सः तादृशः चन्द्रश्च, उच्चैः सुभगभूयं शिक्षितुम् इव ते आननं मुखम, सेवते आश्रयति। कमलं मार्दवादिसौभाग्यं चन्द्रश्च निष्कलकत्वादिसौभाग्यं शिक्षितुमिव तव करं वदनञ्च शुश्रषते, गुरुसेवाया एवं विद्यालाभहेतुत्वादिति भावः। कमल ( अथवा-शङ्ख) मानो ( अरुणत्व-कोमलत्वादि ) अधिक सौभाग्यकी उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए तुम्हारे हाथको नहीं छोड़ता है तथा (चन्द्रको विष्णुका वामनेत्र होनेसे ) नेत्रके समान आचरण किया है बिम्ब (मण्डल ) जिसका ऐसा कुमुदविकासकारी किरणोंवाला चन्द्रमा मानो ( आह्वादकत्व-निष्कलङ्कत्वादि ) अधिक सौभाग्यकी उच्चशिक्षा ग्रहण करने के लिए तुम्हारे मुखको नहीं छोड़ता है। [निरन्तर गुरुके समीप रहनेसे उच्चशिक्षाकी प्राप्ति होती है, अत एव पद्म तथा चन्द्रका कृष्णके हाथ तथा मुखका त्याग नहीं करना उचित ही है / 'पाञ्चजन्य-' इत्यादि तीन श्लोकों (2284-86 ) से विष्णुके मूल प्रकृतिका वर्णन किया गया है ]. // 86 // ये हिरण्यकशिपुं रिपुमुच्चै रावणञ्च कुरुवीरचयं च / हन्त हन्तुमभवंस्तव योगास्ते नरस्य च हरेश्च जयन्ति / / 87 / / ये इति / हे विष्णो ! उच्चैः महान्तम्, रिपुं शत्रुम, हिरण्यकशिपुं तदाख्यदैत्ये. श्वरम्, रावणञ्च राक्षसाधिपं दशाननञ्च, तथा कुरुवीरचयञ्च दुर्योधनप्रभृतीनां समूहञ्च, हन्तुं विनाशयितुम् , यथाक्रम क्रमानुसारेण, उत्तरोत्तरमित्यर्थः / नरस्य च मनुष्यस्य च, हरेश्च सिंहस्य च, मनुष्याकारसिंहाकारयोरित्यर्थः। नरस्य च तथा नरस्य च अर्जुनस्य च, हरेश्च कृष्णस्य च, नरनारायणयोरित्यर्थः / 'नरोऽर्जुने मनुष्ये च' इति यादवः। 'यमानिलेन्द्रचन्द्राकविष्णुसिंहांशुवाजिषु / शुकाहिकपिभेकेषु हरिना कपिले त्रिषु // ' इत्यमरः / ये योगाः सम्बन्धविशेषाः, देहेन व्यक्ति तया च ये सम्मिश्रणविशेषा इत्यर्थः / तत्र हिरण्यकशिपुहनने नरसिंहयोः शरीर. संयोगः, रावणहनने रामसुग्रीवयोः नरवानरयोः व्यक्त्योः संयोगः, कुरुवीरचयहनने च नरनारायणयोः अर्जुनकृष्णयोर्यक्त्योः संयोगो ज्ञातव्यः, अभवन् अजायन्त, हन्तेति हर्षे, तव भवतः, ते योगाः, जयन्ति सर्वोत्कर्षण वर्तन्ते, अतस्तान् प्रणमा मीति भावः // 87 // तुम्हारे जो योग (दुहरे संयोग) प्रबल शत्रु हिरण्यकशिपु, रावण तथा (भीष्म-दुर्योधनादि ) कौरववंशज वीर-समूहको मारने के लिए हुए; नर तथा हरिके वे योग सर्वोत्कर्षसे विजयी होते हैं आश्चर्य है ! [ हिरण्यकशिपु को मारने के लिए मनुष्य तथा हरि (सिंह)
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________________ एकविंशः सर्गः। 1445 का योग = नरसिंहरूप, रावणको मारने के लिए मनुष्य (रामचन्द्र ) तथा हरि ( सुग्रीवादि वानर ) का योग = नर वानररूप और कौरववीर-समूहको मारनेके लिए मनुष्य (अर्जुन) तथा हरि (विष्णु) का योग = नर-नारायणरूप सर्वोत्कृष्ट होकर विजयी होते हैं / उक्त तीनों अवतारोंमें भी 'नर-हरि' के योगसे ही प्रबल शत्रुओंका नाश होनेसे आश्चर्य है / ] // केयमर्द्धभवता भवतोहे मायिना ननु भवः सकलस्त्वम् / शेषतामपि भजन्तमशेषं वेद वेदनयनो हि जनस्त्वाम् // 8 // केयमिति / हे विष्णो ! मायिना मायाबिना / ब्रीह्यादित्वादिनिः। भवता स्वया, का कीदृशी, विचित्रैवेत्यर्थः / इयम् एषा, भवस्य शम्भोःसंसारस्यच, अर्द्धम अद्धांशः अर्द्धभवः तस्य भावः तत्ता, यद्वा-अर्द्धम् अर्द्धदेहः, भवः शिवः यस्य तस्य भावः तत्ता हरिहरमूर्तिता इत्यर्थः / अर्द्धसंसारता च, ऊहे ऊढा, भृता इत्यर्थः / अर्द्धभ. वता तव न युक्ता इति भावः / हि यतः, ननु भोः ! सकलः सम्पूर्णः, भवः महादेवः संसारश्च, त्वं भवानेव, तथा वेदः श्रुतिरेव, नयनं चतुःस्वरूपं यस्य सः ताहशः वेदज्ञ इत्यर्थः / जनः लोकः, शेषताम् अनन्तनागताम् उपयुक्तात् अन्यत्वं च / 'शेषः सङ्कर्षणेऽनन्ते उपयुक्तेतरे वधे' इति विश्वः / भजन्तं प्राप्नुवन्तम् अपि, त्वां भवन्तम् , अशेषम् अनन्तात् अन्यं सकलञ्च, वेद जानाति, 'पुरुष एवेदं सर्वम् इत्यादि श्रुतेरिति भावः // 88 // (हे विष्णो ! ) तुम्हारी यह (पुण्यादि प्रसिद्ध ) आश्चर्यकारिणी अर्द्धभवता ( आधे शिवका भाव अर्थात् हरिहरमूर्तिता ) आपसे ग्रहण की गयी है ( मुखसे लेकर चरणतक आधे शरीरमें हरिरूप होनेसे श्यामवर्ण तथा आधे शरीर में शिवरूप होनेसे श्वेतवर्णबाली लोकोत्तर तुम्हारी मूर्ति है / अथवा-यह कैसी अनिर्वचनीय मूर्ति आपने धारण की है ), आप तो सम्पूर्ण शिव हैं, अथवा-कलासहित स्वतन्त्र शिव (मूर्तिवाले ) हैं, ( इस कारण सम्पूर्ण भववाले आपको अर्द्धभव होना विरुद्ध होनेसे आश्चर्यजनक है। अथवा-तुम्हारी यह अर्द्धभवता ( आधे संसारका भाव ) आश्चर्यजनक है, क्योंकि तुम कलाओं ( अवयवों ) के सहित उत्पत्तिधर्मा तुम्ही हो / वेदानुसार देखनेवाला ( वेदानुगामी जन ) शेषभाव ( पृथग्भूतता) को ग्रहण करते हुए भी तुमको अशेष ( सम्पूर्ण चराचररूप ) जानता है, [ अथच-...... शेषता ( शेषनागके भाव ) को धारण करते हुए भी आपको अशेष ( अनन्त विष्णुरूप जानता. हैं / शेषको अशेष होनेमें विरोध आनेका परिहार उक्त अर्थसे समझना चाहिये ] // 88 // प्रारमवैरुदगुदग्भवगुम्फान्मुक्तियुक्तिविहताविह तावत् / नापरः स्फुरति कस्यचनापि त्वत्समाधिमवधूय समाधिः // 89 // प्रागिति / हे विष्णो ! प्राग्भवैः पूर्वपूर्वजन्मार्जितकर्मभिः, उदगुदग्भवानाम् उत्तरोत्तरजन्मनाम् , गुम्फात् प्रथनात् , सम्पादनातोरित्यर्थः / जन्मपरम्परो. त्पादनात हेतोरिति यावत्। इह संसारे,मुक्तेः मोक्षस्य, युक्तिः योगः, प्राप्तिरित्यर्थः / तस्या विहतौ विघ्ने विषये, कर्मक्षयाभावेन आत्यन्तिकदुःखनिवृत्तिरूपस्य अविद्या.
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________________ 1446 नैषधमहाकाव्यम् / स्तमयलक्षणस्य वा मोक्षस्य अनुपपत्तिविषये इत्यर्थः / स्वत्समाधि तव ध्यानम् , अवधूय परित्यज्य, तव ध्यानं विनेत्यर्थः / कस्यचन कस्यचित् अपि, आचार्यस्येति शेषः / अपरः स्वत्समाधिभिन्नः, समाधिः समर्थनम् , समाधानमित्यर्थः / सिद्धान्त इति यावत् , 'समाधिनियमे ध्याने नोवारे च समर्थने' इति विश्वः / न तावत् नैव, स्फुरति प्रकाशते / तथा हि पूर्वपूर्वजन्मार्जितकर्मभिः उत्तरोत्तरजन्मपरिग्रहात् मुक्तेाघातः, तत्र च तव ध्यानेन तव साक्षात्कारलाभात् तेनैव च प्राक्तनकर्मक्ष. यात् मुक्तिर्लभते जीव इति सर्वेषामेव तत्वज्ञानिनां सिद्धान्तः, 'भिद्यते हृदयग्रन्थिः' रोत्तर जन्मपरम्परा चालू रहनसे मुक्तिप्राप्तिके विनाशके विषय में किसी ( आचार्य, या विद्वान् आदि ) को तुम्हारे ध्यानके अतिरिक्त दूसरा कोई समाधान नहीं स्फुरित होता है / [ पूर्वजन्मोपार्जित कर्मोसे उत्तरोत्तर जन्म-परम्परा होते रहनेसे संसारनिवृत्ति नहीं होने के कारण मुक्तिप्राप्ति किस प्रकार हो सकती है.? ऐसा सोचनेवाले किसी आचार्यादिको भी आपके ध्यान के अतिरिक्त कोई दूसरा समाधान नहीं प्रतिभासित होता है। आपका ध्यानसे ही दर्शन होकर कर्मक्षयपूर्वक मुक्तिप्राप्ति होना सब आचार्यों ने एक मतसे स्वीकार किया है, अत एव आप ही मुक्ति के कारण हैं ] // 89 // ऊर्ध्वदिक्कदलनाद् द्विरकार्षः किं तनुं हरिहरीभवनाय ? | किञ्च तिर्यगभिनो नृहरित्वे कः स्वतन्त्रमनु नन्वनुयोगः ? ||10|| ऊर्चेति / हे विष्णो ! हरिहरीभवनाय विष्णुशङ्करीभावाय, हरिहरमूर्तिपरिग्र. हायेत्यर्थः / ऊर्ध्वा दिक यस्मिन् तत् तादृशम् उर्वदिकम् उपरिभागीयमित्यर्थः। वामदक्षिणभावेन चरणात् मूर्द्धपर्यन्तम शिमिति यावत् / बहुव्रीहिसमासे समासान्तकः। यत् दलनं विभागः तस्मात् हेतोः, एकमेव देहमूर्धाधोभावेन द्विधा विभज्येत्यर्थः / किं किमर्थम् , तनुं शरीरम् , द्विः द्विधा, सम्पूर्णदक्षिगार्द्ध हरिरूपा तादृशवामाद्धे च हररूपामित्यर्थः / अकार्षीः ? कृतवान् असि ? हरिहररूपधा. रणाय कथ वा पादादारभ्य शिरो यावत् द्विविधरूपेण शरीरं द्विधा विभक्तं कृतवान् असि ? इत्यर्थः / किञ्च किमर्थ वा, नृहरिस्वे नरसिंहभावे, नरसिंहरूपधारणे इत्यर्थः। तनुं तिर्यक वक्रं यथा भवति तथा, अभिनः ? भिन्नवान् असि ? कण्ठात् अधोदेशस्य नररूपेण ऊर्ध्वभागस्य च सिंहरूपेण विभागम् अकरोः ? इत्यर्थः / ननु भो विष्णो! स्वतन्त्रं स्वाधीनम् , पुरुषवरं भवन्तमिति शेषः, अनु लक्ष्यीकृत्य कः पूर्वोक्तरूपः को नाम, अनुयोगः ? प्रश्नः ? 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः। स्वतन्त्रेच्छे परमेश्वरे कथमेवं कृतं कथं वा नैवमिति प्रश्नो न युज्यते, यतः स हि स्वेच्छया यथेष्टमेव कर्तुं शक्यते, तत्र कस्यापि किमपि प्रश्नावसरो नैव स्थातुमर्हति इति भावः॥९॥
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________________ एकविंशः सर्गः। 1447 हरिहर-रूप धारण करने के लिए नीचेसे ऊपरतक ( चरणसे मस्तकतक) विभक्त करनेके. कारण शरीरके दो भाग क्यों किये हो (नृसिंहके समान ऊपर-नीचे आधे-आधे शरीरमें हरि तथा हरका रूप क्यों नहीं ग्रहण किये हो ) ? तथा नृसिंह भावमें अर्थात् नृसिंहरूप धारण करनेमें शरीरको तिर्यग्रुपसे क्यों विमक्त किये हो ? (हरिहरमूर्तिके समान ही चरणसे मस्तकतक आधे मागमें मनुष्य तथा आधे भागमें सिंह शरीरको क्यों नहीं धारण किये हो ? अर्थात् हरिहर तथा नृसिंह-इन दोनों रूपोंको धारण करनेके लिए एक ही प्रकारसे शरीरको विमक्त न करके भिन्न-भिन्न प्रकारसे क्यों विभक्त किये हो ?) / अथवा-स्वतन्त्र व्यक्तिसे क्या प्रश्न हो सकता है अर्थात् स्वतन्त्र व्यक्ति चाहे जो कुछ भी कर सकता है, उससे किसीको कुछ पूछनेका अधिकार नहीं है // 90 // आप्तकाम ! सृजसि त्रिजगत् किं ? किं भिनत्सि यदि निर्मितमेव ? | पासि चेदमवतीय मुहुः किं स्वात्मनाऽपि यदवश्यविनाश्यम ? // 91 // स्वतन्त्रत्वमेव स्फुटयति-आप्तेति / आप्तकाम ! हे कृतकृत्य ! निजप्रभावादेव पूर्णसर्वाभिलाष ! विष्णो ! अत एव नास्ति ते कार्यप्रयोजनं किमपि इति भावः। किं किमर्थम् , त्रयाणां जगतां समाहारः इति त्रिजगत् त्रिभुवनम् , सृजसि ? रचयसि ? आप्तकामस्य स्वप्रयोजनाभावादेतन्निष्प्रयोजनमिति भावः। यदि चेत् , निर्मितमेव सृष्टमेव, त्रिजगदिति शेषः, तर्हि किं किमर्थम् , भिनरिस ? विदारयसि ? निष्प्रयोजनमेव संहरसीत्यर्थः। यत् त्रिजगत् , स्वास्मना अपि स्वयमेव, अवश्यविनाश्यं निश्चितमेव संहार्यम् / 'लुम्पेदवश्यमः कृत्य' इति म-लोपः। इदं तदिदं त्रिजगत्, मुहुः वारं वारम्', अवतीर्य आविर्भूय, मत्स्यादिरूपेणावतीर्णः समित्यर्थः। किं किमर्थ वा, पासि च ? रक्षसि च ? अवश्यविनाश्यस्य रक्षणमनुपयुक्तमिति भावः / त्वमेव ब्रह्मादिरूपेण जगतः सृष्टिस्थितिसंहारान् करोषि, पर्यनुयोगानहश्चेति निष्कर्षः // 9 // हे पूर्णकाम ( विष्णो ) ! ( स्वप्रमावसे ही सम्पूर्ण अभिलाषाके पूर्ण होनेसे निष्काम होनेके कारण ) तीनों लोकोंको क्यों रचते हो ? तथा यदि रच ही दिया तो उसे नष्ट क्यों करते हो ? और यदि यह स्वयं विनाशशील है तो बार-बार (मत्स्य, कूर्म, राम, कृष्णादि रूपमें ) अवतार लेकर (जन्मादि नाना क्लेशोंको सहनेके लिए ) इसकी क्यों रक्षा करते हो ? [इन कार्योसे तुम्हारी परमस्वतन्त्रता सूचित होती है। तुम्हीं संसारत्रयकी रचना, पालन तथा संहार करनेवाले क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी हो; अत एव तुम्हारी महिमा वर्णनातीत है ] // 91 // जाह्नवोजलजकौस्तुभचन्द्रान पादपाणिहृदयेक्षणवृत्तीन् / उत्थिताऽब्धिसलिलात् त्वयि लोला श्रीः स्थिता परिचितान् परिचिन्त्य ? // जाह्नवीति / हे विष्णो ! भब्धिसलिका सागरोदका, उस्थिता उद्भूता,
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________________ 1448 नैषधमहाकाव्यम् / लोला चञ्चलाऽपि, श्रीः 'लक्ष्मीः , पादपाणिहृदयेक्षणे चरण-कर-वक्षःस्थल-वामनयने, वृत्तिः यथाक्रममवस्थानं येषां तादृशान् , जाह्नवी-जलज-कौस्तुभ-चन्द्रान् गङ्गा-पाञ्चजन्य-शङ्ख-कौस्तुभमणि-शशाङ्कान्, परिचितान् संस्तुतान्, समुद्रे एकत्रा. वस्थानेन विशेषतया परिज्ञातान् अत एव चिरकालप्रणयिन इति भावः / 'संस्तवः स्यात् परिचयः' इत्यमरः / परिचिन्त्य पर्यालोच्य, इवेति शेषः / स्वयि भवति, स्थिता विद्यमाना, चलाऽपि अचलत्वेन चिरं विद्यमाना इत्यर्थः / किम् ? इति शेषः / गङ्गाकमलादीनामपि आश्रयं त्वां प्रगमामीति भावः // 92 // ____ समुद्र-जलसे निकली हुई चञ्चल लक्ष्मी क्रमशः तुम्हारे चरण, हाथ, हृदय तथा ( वाम ) नेत्रमें स्थित गङ्गा, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौस्तुभ मणि तथा चन्द्रमाको विचारकर आपके यहां स्थित हुई है क्या ? [ चञ्चल समुद्रजलसे उत्पन्न लक्ष्मी स्वभावतः चञ्चल होकर मी समुद्रजलजात होनेसे परिचित गङ्गादिको जानकर ही चञ्चलता छोड़कर तुम्हारे पास नित्य निवास करने लगी है क्या ? परिचितोंके पास निवास करना लक्ष्मीको उचित ही है ] // 92 // वस्तु वास्तु घटते न भिदानां यौक्तनकविधबाधविरोधैः / तत्त्वदीहितविजृम्भिततत्तद्भेदमेतदिति तत्त्वनिरुक्तिः / / 93 // वस्त्विति / हे विष्णो ! योक्ताः युक्तिसिद्धाः, नकविधाः ‘अनेकप्रकाराः, बाधाः प्रतिबन्धाः, विरोधाश्च विरुद्धभावाश्च तैः हेतुभिः, वस्तु पदार्थः, घटपटादिरूपद्रव्य. जातमित्यर्थः / भिदानां भेदानाम् , वास्तु आश्रयः, न घटते न युज्यते, तत् तस्मात् कारणात् , एतत् घटपटादिरूपं वस्तुजातम् , स्वदोहितेन भवदिच्छयैव, विजम्भितः विलसितः, प्रकटित इत्यर्थः / सः सः तादृशः तादृशः, भेदः विशेषः, घटपटादिरूप. वैषम्यमित्यर्थः / यस्य तत् तादृशम् , इति एवंरूपा, तत्त्वस्य याथायस्य, निरुक्तिः निर्वचनम् / मृन्निर्मितघटस्य मृन्मयत्ववत् एकमात्रमूलकारणोत्पन्न वस्तु एकविध मेव भवितुमर्हति, भेदे तु युक्तिसिद्धा बहवो बाधाः; तथा एकस्मादेव मूलकारणात् पृथक वस्तु जायते चेत् तदा तेजस औषण्यमिव शैत्यमपि जायेत इत्यादयश्च युक्तिसिद्धाः विविधा विरोधाः, एवञ्च घटपटादीनां यदयमन्योऽन्यभेदोऽनुभूयते, तन्न तात्विकः, परन्तु भवदिच्छाप्रेरितया अविद्याख्यया माययैव तत् भासते, अतस्त्वमे. वैकः सर्वमिदं वस्तु इति तत्वनिर्वचनमिति भावः // 93 // युक्तियुक्त अनेक प्रकारकी बाधाओं तथा विरोध से पदार्थ भेदाश्रित ( भेदयुक्त-विभिन्न ) नहीं होते, किन्तु तुम्हारी चेष्टाके विजम्भितसे वन्तु भेदाश्रित होते हैं, यही तात्त्विक सिद्धान्त है। [ 'सर्व विष्णुमयं जगत्' इस श्रुतिवचनके अनुसार घट-पटादि पदार्थों में वास्तविक विचारसे कोई भेद प्रतीत नहीं होता, किन्तु तुम्हारी इच्छाके विलासमात्र से दो चन्द्रमाके समान भेदप्रतीति होती है, अत एव श्रवण-मननादि क्रमसे आपका साक्षात्कार होनेपर एकमात्र आप ही इस सम्पूर्ण जगत्स्वरूप दीखते हैं, आपसे भिन्न किसी पदार्थका भेदशान नहीं होता 'वही 'तत्त्वमसि' इत्यादि उपनिषद्-वचनोंसे भी निश्चित होता है ] // 93 //
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________________ एकविंशः सर्गः। 1449 वस्तु विश्वमुदरे तव दृष्ट्वा बाह्यवत् किल मृकण्डतनूजः / स्वं विमिश्रमुभयं न विविञ्चन् निर्ययौ स कतरस्त्वमवैषि / / 9 / / वस्त्विति / हे विष्णो ! मृकण्डतनूजः मार्कण्डेयमुनिः, तव भवतः, उदरे जठरे, बाह्यवत् बहिर्जगदवस्थितं वस्तुजातमिव, विश्वं निखिलम् , वस्तु पदार्थम् , दृष्ट्वा वीक्ष्य, उभयं बाह्यमुदरस्थन्च द्वयम्, विमिश्रं विशेषेण संयुक्तम्, एकविधप्रकारवेन सम्मिलितमित्यर्थः / एकस्मिन्नेव उदरे बाह्योदराभ्यन्तरस्थितयोः द्वयोरपि स्थित. स्वेन प्रतीयमानस्वात् अविविक्तमिति यावत् / स्वम् आत्मानम् , न विविञ्चन् विवे. क्तम् अशक्नुवन् , कोऽहं बहिरासम् ? को वा उदराभ्यन्तरे वर्त? इत्येबंरूपेण भिन्न तया ज्ञातुमसमर्थः सन् इत्यर्थः / निर्ययौ उदरात निर्गतवान् , किल इति प्रसिद्धौ वार्तायां वा, सः मृकण्डतनूजा, कतरः बहिःस्थितो वा कः ? उदरस्थितो वा का ? इति त्वं भवानेव, अवैषि जानासि, नान्यः कोऽपि इत्यर्थः / सर्वज्ञत्वादिति भावः॥९४॥ (हे विष्णु भगवान् ! ) मार्कण्डेय मुनि तुम्हारे उदरमें, बाहरके समान ( जिस रूपमें बाहर स्थित है उसी प्रकार ) समस्त पदार्थको देखकर विशेषरूपसे मिलित ( एक ही उदर में स्थित होनेसे अविविक्त ) दोनों अपनेको नहीं निश्चित करते हुए ( बाहर स्थित जो मैं उदरमें प्रविष्ट हुआ, वह कौन है ? तथा जो पहलेसे उदरमें है, वह कौन है ? यह निर्णय नहीं कर सकते हुए ) बाहर निकल गये / ( बाहर तथा उदरमें स्थित उन दोनों में वह (मार्कण्डेय) कौन है ? यह तुम जानते हो (दूसरा कोई नहीं जानता)। [ अथवा-जिस तुम्हारे उदरमें 'बाहरी समस्त वस्तुओंको देखकर मार्कण्डेय मुनि उदरमें स्थित अपनेसे विशेष रूपसे मिश्रित दोनों अपनेको नहीं जानते हुए निकल गये, वह अनेक अवतारोंमें-से कौन-सा तुम्हारा विशिष्ट अवतार है ?, यह तुम्हीं जानते हो, स्वप्रकाश तुमको दूसरा कोई भी नहीं जानता] // ब्रह्मणोऽस्तु तव शक्तिलतायां मूर्दिन विश्वमथ पत्युरहीनाम् / बालतां कलयतो जठरे वा सर्वथाऽसि जगतामवलम्बः॥ 95 / / ब्रह्मण इति / हे विष्णो ! विश्वं जगत् , ब्रह्मणः परब्रह्मरूपिणः, तव भवतः, शक्तिः माया एव, लता वल्ली तस्याम्, अस्तु तिष्ठतु, फलस्वरूपेणेति भावः / अथ किं वा, अहीनां नागानाम्, पत्युः ईशस्य नागराजशेषस्य, अनन्तनागरूपिण इत्यर्थः। तव भवतः, मूर्दिन शिरसि, अस्तु / वा अथवा, बालतां शिशुभावम् , कलयतः दधानस्य, वटपत्रशायिनो बालकभूतस्येत्यर्थः / तव इति शेषः / जठरे सदरे, अस्तु, सर्वप्रकारेणापि, जगतां त्रैलोक्यस्य, अवलम्बः आश्रयः, असि भवसि, स्वमिति शेषः। अत एव तुभ्यं नमोऽस्तु इति भावः // 95 // -- ( हे विष्णो ! सृष्टिसे पहले स्थावर-जङ्गमात्मक यह) संसार ब्रह्मरूप तुम्हारी शक्तिरूपिणी लतामें रहा, तदनन्तर (सृष्टिके बाद तुम्हारे ही अंश) सर्पराज (शेषनाग) के मस्तकपर रहा, अषवा (प्रलयकालमें') बालभाव धारण किये हुए आपके उदरमें रहा।
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________________ 1450 नैषधमहाकाव्यम्। इस प्रकार तुम्हीं सब तरहसे लोकत्रयके आश्रय हो। [इससे संसारके सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले एकमात्र तुम्हीं हो, यह ध्वनित होता है ] // 95 / / धर्मबीजसलिला सरिदमावर्थमूलमुरसि स्फुरति श्रीः / / कामदैवतमपि प्रसवस्ते ब्रह्म मुक्तिदमसि स्वयमेव / / 96 / / धर्मति / हे विष्णो ! धर्मस्य चतुर्वर्गेषु प्रथमवर्गस्य, बीजं हेतुभूतम् , सलिलं जलं यस्याः सा तादृशी, सरित् नदी, जाह्ववीत्यर्थः / ते तव, अङ्ग्रौ चरणे, स्फुरति शोभते / अर्थस्य धनरूपस्य द्वितीयवर्गस्य, मूलं बीजभतम् , श्री लक्ष्मीः , तव उरसि वक्षसि, स्फुरति / कामस्य कामनारूपस्य तृतीयवर्गस्य, दैवतम् अधिष्ठाता कामदेवोऽपि, ते यदुवंशावतीर्णस्य श्रीकृष्णरूपस्य तव, प्रसवः पुत्रः, प्रद्युम्न इत्यर्थः। मुक्तिदं मुक्ति मोक्षरूपं चतुर्थवर्गम, ददाति यच्छतीति तादृशम् , ब्रह्म परमात्मा ष्टयमेकस्मिन् स्यय्येव अविरोधेन वर्तते इति पुरुषार्थचतुष्टयाकाक्षिणां त्वमेव सर्वथा सेवनीयोऽसीति भावः // 96 // धर्म (प्रथमपुरुषार्थ) का बीज है जल जिसका ऐसी गङ्गानदी तुम्हारे चरणमें स्फुरित होती है, अर्थ (द्वितीय पुरुषार्थ) की जड़ लक्ष्मी तुम्हारे हृदय में स्फुरित होती है, काम (तृतीय पुरुषार्थ ) का अधिष्ठाता देव (कामदेव ) अर्थात प्रद्युम्न ( यदुवंशी कृष्णरूप ) तुम्हारा पुत्र है और मुक्ति (चतुर्थ पुरुषार्थ ) को देनेवाले ब्रह्म अर्थात् परमात्मा तुम स्वयं ही हो / [ इस प्रकार धर्मार्थकाममोक्षरूप चारों पुरुषार्थ आप में ही निर्विरोध निवास करते हैं, अत एव आपकी सेवासे चारों पुरुषार्थोकी प्राप्ति सहज ही में होती है ] // 96 // लीलयाऽपि तव नाम जना ये गृह्णते नरकनाशकरस्य / तेभ्य एव नरकैसचिता भीस्ते तु बिभ्यतु कथं नरकेभ्यः / / 97 / / लीलयेति / हे विष्णो ! ये जनाः लोकाः, नरकस्य रौरवादेः निरयस्य असुरविशेषस्य च 'नरको निरये दैत्ये' इति विश्वः / नाशम् उच्छेदं निधनन्च, करोति विदः धाति यः तादृशस्य, तव भवतः, नाम नामधेयम् , लीलयाऽपि क्रीडाच्छलेनापि, अवहेलयाऽपीति यावत् / गृह्णते कीर्तयन्ति, तेभ्यः तादृशजनेभ्य एव, नरकैः निरयः, भीः भयम, उचिता युक्ता, नरकनाशकरस्य नामग्राहित्वादिति भावः / ते तथाविध. जनास्तु, नरकेभ्यः निरयेभ्यः सकाशात् , कथं किमर्थम्, बिभ्यतु ? त्रस्यन्तु ? अपि तु न कथञ्चिदेवेत्यर्थः। 'साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोमं हेलनमेव वा / वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदुः / इति श्रीमद्भागवतोक्तेरिति भावः // 9 // __(अब दो श्लोकों ( 21197-98 ) से भगवान्के नामकीर्तनका माहात्म्य कहते हैं-) जो लोग नरक ( नरकासुर, पक्षा०-नरक = रौरव आदि नरक) के नाशक तुम्हारे नामको परिहासादिमें भी लेते (उच्चारण करते) हैं, उनसे ही नरक (रौरवादि नरक) को डरना
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________________ 1451 एकविंशः सर्गः। उचित है, वे नरकसे क्यों डरें ? अर्थात् उनको नरकसे लेशमात्र भी भय नहीं रह जाता / ['लीलामात्रसे भी' शब्दसे जो भक्ति एवं श्रद्धाके साथ बुद्धिपूर्वक नाम ग्रहण करते हैं, उनको नरकसे भय कहांसे हो सकता है ? ] // 97 // मृत्युहेतुषु न वज्रनिपाताद् भीतिमहति जनस्त्वयि भक्तः / यत् तदोच्चरति वैष्णव कण्ठान्निष्प्रयत्नमपि नाम तव द्राक् // 6 // मृत्यिवति / हे विष्णो ! त्वयि भवति भक्तः सेवानुरक्तः, जनः लोकः, मृत्युहेतुषु मरणकारणेषु मध्ये, प्रधानादिति शेषः। वज्रनिपातात् मृत्युहेतोः कुलिशपतनादपि, भीतिं भयम् , लब्धुमिति शेषः / न अर्हति न योग्यो भवति, कुत इत्याह-यत् यस्मात् कारणात् , तदा वज्रनिपातसमये, वैष्णवस्य विष्णोः तव भक्तस्य, तस्येति शेषः / कण्ठात् गलदेशात् , तव भवतः नाम नामधेयम् , निष्प्रयत्नमपि प्रयत्न विनाऽपि, सततनामोच्चारणाभ्यासान् चेष्टां विनाऽपीत्यर्थः / द्राक शीघ्रमेव, उच्चरति निष्क्रामति / तदेव वज्रनिपातभयं निवारयतीति भावः / अनभिसन्धिनाऽपि विष्णुनामोच्चारकस्य मृत्युभयं नास्तीति निष्कर्षः // 98 // तुम्हारेमें भक्ति करने वाला मनुष्य मृत्युके कारणों में-से ( मुख्य ) वज्र गिरनेसे भी भयको ( पानेके ) योग्य नहीं है अर्थात तुम्हारे भक्तको वज्र गिरनेसे मी भय नहीं होता, क्योंकि उस समय ( वज्रपातके अवसर पर ) विष्णुभक्तके कण्ठसे बिना प्रयासके ही झट तुम्हारा नाम कहा जाता है / [ मरणके मूल हेतु वज्रपात होनेपर सहसा तुम्हारे नामके उच्चारणसे मनुष्य जन्म-मरणदुःखसे सर्वदाके लिए छुटकारा पाकर मुक्तिको पा लेता है, तो साधारण मृत्युकारणों ( व्याघ्र-सिंहादि ) से उसे किप्त प्रकार भय हो सकता है ? / लोकका यह नियम है कि सहसा सङ्कट आनेपर लोग अपने इष्टदेवका नामोच्चारण करते हैं ] // 98 // सर्वथाऽपि शुचिनि क्रियमाणे मन्दिरोदर इवावकरा ये / उद्भवन्ति भविचेतसि तेषां शोधनी भवदनुस्मृतिधारा / / 66 // सर्वथेति / हे विष्णो ! सर्वथा सर्वप्रकारेणापि, सम्मार्जनीसाधनेन परिष्कारादिना कामादिरिपुषटकविजयेन च इति भावः। शुचिनि निर्मले शुद्ध च, क्रियमाणे विधीयमाने, अपोति शेषः / भविनां संसारिणाम् , चेतसि मनसि, मन्दिरोदरे गृहाभ्यन्तरे इव, ये अवकराः सङ्कराः, सम्मार्जनीक्षिप्तधूल्यादय इत्यर्थः / रागादयो मलाश्च / 'सम्मार्जनी शोधनी स्यात्सङ्करोऽवकरस्तथा' इत्यमरः / उद्भवन्ति जायन्ते, भवतः तव कर्मभूतस्य, अनुस्मृतिधारा चिन्तन परम्परा, तेषाम् अवकराणाम् , शोधनी सम्मार्जनीस्वरूपा, पवित्रतासम्पादनहेतुश्च, भवतीति शेषः // 99 // _ (भगवान्के नामोच्चारणका 'माहात्म्य कहकर अब स्मरण करनेका माहात्म्य कहते हैं-) सब प्रकार (मन, वचन तथा शरीरके नियमन आदि ) पवित्र (दोषहीन, याफलको ब्रह्मार्पण करनेसे वन्धनकारक कर्मोंसे रहित, पक्षा-स्वच्छ ) किये जाते हुए 61 नै० उ०
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________________ 1452 नैषधमहाकाव्यम् / मन्दिरके भीतरी भागके समान प्राणियों के हृदय में जो अबकर ( रागद्वेषादि विकार पक्षाकूड़ा-कर्कट आदि ) उत्पन्न होते हैं, आपका स्मरण-समूह उसका शोधन (विनाश ) करनेवाला ( पक्षा०-स्वच्छ करनेवाला अर्थात् झाडू ) है / [ मन्दिर (घर) में उत्पन्न कूड़ेको जिस प्रकार झाड़ दूर कर मन्दिरको स्वच्छ कर देता है, उसी प्रकार आपका स्मरण प्राणियों के मनको रागद्वेषादि दूषित भाव दूरकर निष्पाप कर देता है, इस प्रकार आपका स्मरण ही प्राणियों के चित्तको शुद्धकर मोक्ष देनेवाला है ] // 99 // अस्मदाद्यविषयेऽपि विशेषे रामनाम तव धाम गुणानाम् / / अन्वबन्धि भवतैव तु कस्मादन्यथा ननु जनुत्रितयेऽपि ? // 100 // अस्मदिति / हे विष्णो ! विशेषे पार्थक्ये, तव नामसु कस्य उत्कर्षः इत्येवं तार• तम्यनिश्चये इत्यर्थः। अस्मदादीनां मद्विधानांमूढानाम्, अविषये ज्ञानागोचरे सत्यपि, तव ते, रामनाम सहस्रनामसु मध्ये रामेति नामैव, गुणानाम् उत्कर्षाणाम् , धाम आश्रयः, इति मन्यते इति शेषः / कुत इत्याह-अन्यथा तु.अथैवं नो चेत् पुनः, तव रामनाम्नोऽस्य गुणधामत्वाभावे तु इत्यर्थः। ननु भो नारायण! जनुषां जन्मनाम्, त्रितयेऽपि त्रयेऽपि, जामदग्न्य दाशरथि बलभद्रात्मकजन्मत्रयेऽपीत्यर्थः / भवतैव स्वयेव, कस्मात् कुतः हेतोः, अन्वबन्धि ? अनुबन्धं नीतम् ? राम इति एव तु नाम पुनः पुनरावृत्त्या गृहीतम् ? इत्यर्थः / त्रिष्वेव अवतारेषु स्वया रामनामग्रहणात् एतत्तेऽतीव प्रियमिति ज्ञायते अज्ञैरपि अस्माभिरिति भावः / तव नामसु रामनामैव श्रेष्ठमिति निष्कर्षः // 10 // (अब पुनः भगवान्के दूसरे नामोंकी अपेक्षा 'राम' नामका माहात्म्य कहते हैं-भगवान्के सहस्रों नामों में से किस नाममें अधिक गुण है ? इस प्रकारका ) विशेष ज्ञान हमलोगोंको नहीं रहनेपर मी 'राम' नाम ही तुम्हारे ( विष्णु भगवान्के ) गुणोंका स्थान है ( अथवातुम्हारा 'राम' नाम ही गुणोंका स्थान है ) / अन्यथा ( यदि ऐसा नहीं होता तो 'परशुराम', दशरथपुत्र 'राम' तथा 'बलराम' रूप ) तीनों जन्मों में भी किस कारण और क्यों 'राम' नामको आपने ही ग्रहण किया है ? [ उक्त तीनों अवतारोंमें विष्णु भगवान्को 'राम' नाम ग्रहण करनेसे यही नाम सब नामों में अधिक प्रिय एवं महत्वास्पद मालूम पड़ता है, अत एव मैं उसी का बराबर उच्चारण करता हूँ ] // 10 // भक्तिभाजमनुगृह्य हशा मां भास्करेण कुरु वीततमस्कम् / अर्पितेन मम नाथ ! न तापं लोचनेन विधुना विधुनासि ? // 101 / / भक्तीति / नाथ ! हे प्रभो ! विष्णो! भक्तिभाजं भक्तिमन्तं सेवकम् , मां नलम्, अनुगृह्य अनुकम्प्य, भास्करेण सूर्येण, दृशा नेत्रेण, सूर्यात्मकदक्षिणनयनेनेत्यर्थः / तादृशम् , 'राही ध्वान्ते गुणे तमः' इत्यमरः / कुरु विधेहि / तथा अर्पितेन मां प्रति
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________________ एकविंशः सर्गः। 1453 दत्तेन, विधुना चन्द्रेण, लोचनेन नेत्रेण, चन्द्रारमकवामनयनेनेत्यर्थः / मम मे, तापम् आध्यात्मिकादिसन्तापत्रयमित्यर्थः / न विधुनासि ? न अपनयसि ? इति काकुः, अपि तु विधुनास्येवेत्यर्थः। भास्करेण तमोविधूननस्य विधुना च तापविधूननस्य सम्भवत्वादिति भावः। धूज कम्पने इत्यस्मात् क्रैयादिकात् सिपि 'प्वादीनां हस्वः // 101 // हे स्वामिन् ! भक्तियुक्त मुझको दहने नेत्ररूप सूर्य अनुगृहीतकर अन्धकाररहित ( पक्षा०-अज्ञानरहित ) करो तथा मुझपर दिये गये वाम नेत्ररूप चन्द्रसे मेरे सन्ताप ( पक्षा०-आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिकरूप तापत्रय ) को नहीं दूर करते हो क्या ? अर्थात् अवश्य करते हो / [ सूर्यको दहना नेत्र होनेसे उसके द्वारा अन्धकारको दूर करना तथा चन्द्रको बायाँ नेत्र होनेसे उसके द्वारा सन्तापको दूर करना उचित ही है ] // लङ्घयनहरहर्भवदाज्ञामस्मि हा ! विधिनिषेधमयों यः / दुर्लभं स तपसाऽपि गिरैव त्वत्प्रसादमहमिच्छरलज्जः / // 102 / / लङघयन्निति / हे विष्णो ! यः योऽहं नलः, अहरहः नित्यं, विधिनिषेधमयीं विधिः-'वसन्ते ज्योतिष्टोमेन यजेत' इत्यादिरूपः, निषेधः-'न सुरां पिबेन्न कलङ्गं भक्षयेत्' इत्यादिरूपश्च, तन्मयीं तदारिमकाम् , भवदाज्ञां त्वदादेशं, 'श्रतिस्मृती ममैवाज्ञे' इत्यनुस्मरणात् , लङ्घयन् अतिक्रामन् अस्मि वर्ते, हा ! खेदे, स उक्तरू. पाज्ञालङघनकारी, अहं नलः, अलजः निस्वपः सन् , गिरैव वचनेनंव, 'मामनुगृहाण मामनुगृहाण' केबलमित्येवंरूपवाक्प्रयोगणवेत्यर्थः। तपसा अपि कठोरतपस्य. याऽपि, दुर्लभं दुष्प्रापम् , त्वत्प्रसादं भवदनुग्रहम् , इच्छुः अभिलाषुकः, अस्मीति शेषः / यस्य खलु तव प्रसादः सर्वदा तपस्यादिक्रियानुष्ठानरूपेण महता प्रयत्नेन लभ्यः, स मया सर्वदा तवाज्ञालङ्घनकारिणा वाङ्मात्रेणैव प्रायते इत्यहो मे निर्लज्जता! सर्वथा अनुग्राह्योऽस्मीति भावः // 102 // जो मैं ( 'प्रत्येक वसन्त ऋतुमें ज्योतिष्टोम याग करें' इत्यादि) विध्यात्मक तथा ('मद्य पान न करे' इत्यादि ) निषेधात्मक आज्ञाको प्रतिदिन लङ्घन करता रहा, हाय ! (खेद है कि ) वह मैं तपसे भी दुईभ आपकी प्रसन्नताको ( मुझपर अनुग्रह करें, मुझपर अनुग्रह करें इत्यादि रूप ) वाङमात्रसे ही चाहता हुआ निर्लज्ज हूँ। [अत एव हे भगवान् ! आप मेरी सर्वथा रक्षा करें] // 102 // विश्वरूप ! कृतविश्व ! कियत् ते वैभवाद्भुतमणौ हृदि कुर्वे / हेम नह्यति कियनिजचीरे काञ्चनाद्रिमधिगत्य दरिद्रः ? / / 103 / / विश्वेति। विश्वरूप ! हे सर्वात्मक ! 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि श्रुतेरिति भावः / कृतविश्व ! हे सम्पादितभुवन ! 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते' इत्यादि श्रतेरिति भावः। अणी अत्यन्तसूचमपरिमिते, हृदि हृदये, ममेति शेषः। ते तव,
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________________ 1454 नैषधमहाकाव्यम् / वैभवस्य सामर्थ्यातिशयस्य, अद्भुतम् आश्चर्यस्वरूपम् , कियत् किम्परिमाणम् , कुर्वे ? गृह्णामि ? इत्यर्थः / हृदयस्य अत्यन्तमल्पपरिमितत्वात् नितान्तमरूपम् एव धारयितुं शक्नोमि इति भावः / तथा हि-दरिद्रः निःस्वः, अत एवातिलोलुपोऽपि इति भावः / काञ्चनादि सुमेरुपर्वतम् , अधिगत्य प्राप्य, निजे स्वीये, चीरे शतधाच्छिन्नवस्त्रखण्डे, कियत् किम्परिमाणम् , हेम सुवर्णम् , नाति ? बध्नाति ? अपि तु अत्यल्पमेव बढुं शक्नोति इत्यर्थः / चीरखण्डे बहुसुवर्णबन्धनासामर्थ्यवत् मम सकलगुणवर्णनाभिलाषे सत्यपि असामर्थ्यात् कियन्मानं वर्ण्यते इति भावः / 'णह बन्धने' इति धातुः // 103 // हे विश्वरूप ( स्थावर-जङ्गमादि सर्वात्मक ) ! हे संसारके रचयिता ! मैं तुम्हारे सामर्थ्या. धिक्यजन्य आश्चर्यको अत्यल्प अपने हृदय में कितना ग्रहण करूँ ? ( आपके आश्चर्यकारक ऐश्वर्यको अतिमहान् होनेसे मैं स्वल्पतम अपने हृदयमें धारण नहीं कर सकता अर्थात् यद्यपि आपके महान् वैभवको वर्णन करनेकी इच्छा रहती है तथापि मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता हूँ), क्योंकि दरिद्र आदमी सुमेरु पर्वतको पाकर भी ( सहस्रों छिद्रयुक्त अपने) फटे वस्त्रखण्ड (चिथड़े) में कितना सोना बांधता है ? अर्थात् अत्यन्त थोड़ा ही सोना लेता है // 103 // इत्युदीर्य स हरि प्रति सम्प्रज्ञातवासिततमः समपादि / भावनावशविलोकितर्विष्णौ प्रीतिभक्तिसहशानि चरिष्णुः // 104 / / इतीति / सः नलः, इति पूर्वोक्तप्रकारेण, हरिं विष्णुम् , प्रति उद्दिश्य, उदीर्य उक्त्वा, स्तुत्वा इत्यर्थः / सम्प्रज्ञातेन तदाख्येन साकारध्यानेन हेतुना, वासिततमः अतिशयेन सजातभावनः सन् , अत्यर्थं तन्मयः सन्नित्यर्थः / भावनावशेन संस्कार पाटवेन, ध्यानप्रभावेणेत्यर्थो वा, विलोकितः साक्षात्कृतः, यः विष्णुः नारायणः तस्मिन् विषये, प्रीतिभक्त्योः प्रेमानुरागयोः, सदृशानि उचितानि, आनन्दबाष्पमो. चननृत्यगीतादीनि कर्माणीति शेषः / चरिष्णुः भाचरणशीलः, अनुष्ठाता इत्यर्थः / समपादि सम्पन्नः, जात इत्यर्थः / 'चिण ते पदः' इति कर्तरि चिण // 104 // वे नल विष्णुके प्रति ऐसा ( 21150-103) कहकर अर्थात् ऐसी प्रार्थनाकर 'सम्प्र. ज्ञात' नामक स्माधि ( साकार भगवद्ध्यान ) से तन्मय भावनावाले होते हुए भावनावश देखे ( साक्षात्कार किये ) गये विष्णुमें प्रेम तथा भक्तिके योग्य ( नृत्य-गीत आदि) का आचरण करने लगे। [ ध्येय तथा ध्यानकर्ताके भावयुक्त साकार ध्यानको 'सम्प्रज्ञात' समाधि और संवित-संवेद्यके बिना निराकार स्वप्रकाश परमानन्दलक्षण साम्राज्य ध्यानको 'असम्प्रज्ञात' समाधि कहते हैं / साकार भगवान्की स्तुति करनेसे यहां नलको 'सम्प्रज्ञात समाधि' द्वारा भावना करनेको कहा गया है // 104 // 1. 'भावनावशविलोलित-' इति 'जीवातु'सम्मतः पाठः, इति म०म० शिव. दत्तशर्माण आहुः / २.'-विष्णुः' इति, -विष्णुप्रीति-' इति च पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1455 विप्रपाणिषु भृशं वसुवर्षी पात्रसास्कृतपितृकतुकव्यः / श्रेयला हरिहरौ प्रतिपूज्य प्रब एष शरणं प्रविवेश / / 105 // विप्रेति / एषः नलः, विप्राणां ब्राह्मगानाम्, पाणिषु करेषु, भृशम् अत्यर्थम्, चसु धनम्, वर्षति विकिरति, ददातीत्यर्थः, यः सः तादृशः, तथा पात्रसास्कृतं सत्पात्रे दत्तम्, पितृकतोः पितृयज्ञस्य, श्राद्धस्य इत्यर्थः / कव्यं पित्र्यम् अन्नं येन सः ताह. शश्च सन् / 'हव्यकव्ये देवपैत्रे (पिये) इत्यमरः। नित्यश्राद्धमनुष्ठाय इति भावः / श्रेयसा उत्कृष्टवस्तुना, हरिहरौ विष्णुशिवौ, परिपूज्य अर्चयित्वा, प्रहः हरिहरचर. णयोः प्रगतश्च सन् , शरणं गृहम् , भोजनगृहमिति यावत् / 'शरणं गृहरचित्रोः' इत्यमरः / प्रविवेश प्रविष्टवान् // 105 // ब्राह्म गों के हाथों में ( दान-सम्बन्धो गौ, सुवर्ण रत्न आदि ) धनको बरसाने ( दान देने ) वाले, सत्पात्रोंको श्राद्ध-सम्बन्धी द्रव्य दिये हुए वे नल उत्तम द्रव्यों ( अथवा-नित्य स्नान, देवपूजन, श्राद्धादिकर्मजन्य पुण्य ) से विष्णु तथा शिवकी पूजा करके नम्र होते हुए ही भोजन-गृह में प्रवेश किये // 105 // माध्यन्दिनादनु विधेर्वसुधाविवस्वानास्वादितामृतमयौदनमोदमानः / प्राञ्चं स चित्र विदूरितवैजयन्तं वेश्माचलं निजरुचीभिरलञ्चकार / / 106 / / माध्यन्दिनादिति / वसुधाविवस्वान् भूलोकसूर्यः, सः नलः, मध्यन्दिनस्य मध्याह्नकालस्य अयमिति माध्यन्दिनः तस्मात् माध्यन्दिनात् दिनमध्यभागे विधेयात्, विधेः अनुष्ठानात् , देवार्चनादिरूपनित्य कार्यादित्यर्थः / अनु पश्चात् , पञ्चमहायज्ञानुष्ठानादनन्तरमित्यर्थः / आस्वादितेन भुक्तेन, अमृतमयेन पीयूषतु. त्येन, सुस्वादुनेत्यर्थः / ओदनेन अन्नेन, मोदमानः हृष्यन् , सानन्दमनाः सन् इत्यर्थः / प्राञ्चं प्राचीनम्, प्रासादात् पूर्वभागस्थमिति वा / 'शयनगृहं प्राच्यां कत्त. व्यम्' इति शयनशास्त्रादिति भावः / चित्रम् आश्चर्यम्, आश्चर्यदर्शनमित्यर्थः / अविदूरितः निकटीकृतः, अत्युच्चत्वादिति भावः / वैजयन्तः इन्द्रप्रासादः येन तं तादृशम्, वेश्माचलं प्रासादरूपं पर्वतम्, निजाभिः स्वोयाभिः, रुचीभिः कान्तिभिः प्रभाभिश्व, अलञ्चकार भूषयामास, सूर्यस्तु मध्याह्वात् परं पश्चिम दिगवस्थितम् अस्ताचलमेवालकरोति, अयं तु भूलोकसूर्यः मध्याह्वात् परमपि पूर्वाचलमलङ्करोतीति वित्रम् ! एवञ्च सदोदयभागयमिति भावः // 106 // __ पृथ्वी के सूर्य द!पहर के बाद (शाकादि नानाविध व्यञ्जन पदार्थोसे ) अमृतमय मातको खाकर इर्षित होते हुए उस नलने पूर्व दिशामें स्थित (अथवा-जिसमें पहले दमयन्तीके साथ रहे थे उस प्राचीन ), चित्रोंसे युक्त (अथवा-औन्नत्यादिके द्वारा आश्चर्यकारक ) और ऊँ बाईसे इन्द्रप्रसाद के निकटवतों ( या-इन्द्र पासादतुल्य ) पर्वताकार "महलको अपनी ___.-र्वसुधासुधांशुरास्वा-' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1456 नैषधमहाकाव्यम् / शोभासे सुशोभित किया अर्थात् वे प्रासादपर गये ( पक्षा०-सूर्य भी भूमिसे अमृत भोजन करके अर्थात् जलको सुखाकर हर्षित होते हुए पूर्व दिशामें इन्द्रप्रासादके निकटस्थ उदयाचलको अपनी कान्तिसे सुशोभित करता है; परन्तु मध्याह्नके बाद पूर्व दिशामें उदयाचलको नहीं, अपितु पश्चिम दिशाके अस्ताचलको सुशोभित करता है और ये पृथ्वीसूर्य ( नल ) पूर्वपर्वतको सुशोभित करते हैं, यह आश्चर्य है। पाठा०-चन्द्र भी देव होनेसे अमृतमय भोजनसे हर्षित होते हुए....."अर्थ-परिवर्तनकर शेष अर्थ पूर्ववत करना चाहिये ) / [ दोपहर के बादमें पूर्वदिशाके उदयाचल पर्वततुल्य उच्चतम प्रासादको अपनी कान्तियोंसे सुशोभित करने के कारण नलका सर्वदा उदयशील रहना सूचित होता है ] // 106 // भीमात्मजाऽपि कृतदैवतभक्तिपूजा पत्यौ च भुक्तवति भुक्तवती ततोऽनु | तस्याङ्कमङ्कुरिततत्परिरिप्समध्यमध्यास्त भूषणभरीतितरालसाङ्गी / / 10 / / भीमेति / ततः पतिभोजनात् नलस्य वेश्माचलालङ्करणादिति वा, अनु पश्चात् , भूषणभरेण अलङ्कारभारेण, अतितराम् अत्यर्थम्, अलसानि जडानि, विवशानी. त्यर्थः / अङ्गानि अवयवा यस्याः सा तादृशी, भीमात्मना दमयन्ती अपि, कृता अनुष्ठिता, देवतानां देवानाम् , भक्त्या श्रद्धया, पूजा अर्चना यया सा तादृशी सती, पत्यौ भर्तरि नले, भुक्तवति कृतभोजने सति, भुक्तवती स्वयं च कृतनोजना सती, अङ्कुरिता उद्भूता, तस्याः कर्मभूतायाः दमयन्त्याः, परिरिप्सा आलिङ्गनेच्छा यस्य तादृशः, 'सनि मीमा-' इत्यादिना सनि इसादेशे 'भत्र लोपोऽभ्यासस्य' इति अभ्यासलोपः। मध्यः मध्यभागः यस्य तं तादृशम्, तस्य नलस्य, अङ्कम् उत्सङ्गम् क्रोडान्तिकमिति यावत् / अध्यास्त उपाविशत् // 107 // ___ तदनन्तर (गौरी आदि ) देवताओंका भक्तिपूर्वक पूजन करके तथा नलके भोजन करनेपर भोजन की हुई, भूषण-मारके अतिशय बोझसे आलसयुक्त अङ्गोंवाली दमयन्ती भी उत ( दमयन्ती) के आलिङ्गन करनेके लिए इच्छुक नलके अङ्कमध्य में स्थित हो गयी। [ भोजन करने के बाद आलस आना स्वाभाविक होनेसे यहां मृदङ्गी दमयन्तीको भूषणके बोझसे आलसयुक्त होना उचित ही है ] // 107 // तामन्यगादशितबिम्बविपाकचञ्चोः स्पष्टं शलाटुपरिणत्युचितच्छदस्य / कीरस्य काऽपि करवारिरहे वहन्ती सौन्दर्यपुञ्जमिव पञ्जरमेकमाली॥१८॥ __ तामिति / अशितस्य भक्षितस्य, बिम्बस्य तदाख्यफलविशेषस्य, विपाकः परिणतिः इव, अत एव अतिरक्तवर्णः इति भावः, चञ्चः नोटिः यस्य ताहशस्य आरक्तचञ्चविशिष्टस्य इत्यर्थः। तथा स्पष्टं व्यक्तं यथा भवति तथा, शलाटुनः आम. १.'-परिरिप्सु-' इति पाठान्तरम्। 2. '-भरातिभरा-' इत्येव पाठः साधीयान् , इति वदता 'प्रकाश' कृता'-भरातितरा-' इति पाठं लक्षीकृत्य 'पाठान्तरं चिन्त्यम्' इत्युक्तम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1457 फलस्य, अपक्कफलस्य सम्बन्धिन्याः इत्यर्थः / 'आमे फले शलाटुः स्यात्' इत्यमरः। परिणतः परिणामस्य, उचिती योग्यौ, नीली इति यावत्, छदौ पक्षौ यस्य ताहशस्य, कीरस्य शुकपक्षिणः सौन्दर्यपुञ्जमिव सुघटितत्वेन एकीभूतसौन्दर्यराशिमिव, एकं पक्षरं पक्षिबन्धनागारम् , करो हस्तः, वारिरुहमिव सरोजमिव तस्मिन् , वहन्ती धारयन्ती, का अपि काचित् , आली सखी, तां दमयन्तीम् , अन्वगात् अनुजगाम // पके हुए ( लाल रंगके ) बिम्बफल खानेके परिणामस्वरूप लाल चोंचवाले तथा कच्चे फल (खानेके ) परिणामस्वरूप योग्य (हरे-हरे) पङ्खोंवाले तोतेकी सौन्दर्य-राशिके समान पिंजड़ेको करकमलमें धारण करती हुई कोई (एक) सखी उस दमयन्तीके पीछे चली। [ कारणगत गुणको कार्य में आनेसे लालबिम्बफलको खानेसे उनके परिणामके योग्य चोंचको लाल रंगका तथा हरे कच्चे फलको खानेसे उसके परिणामके योग्य पलोंको हरे रंगका होना उचित ही है। भोजनके उपरान्त विश्राम करते हुए राजादिका शुक-सारिकादि पक्षियोंका मधुर कूजन सुनना प्रायः स्वभाव होता है, अत एव कविसम्राट् इस वर्णनको आरम्भ करते हैं ] // 108 // कूजायुजा बहुलपक्षशितिम्नि सीम्ना स्पष्टं कुहूपदपदार्थमिथोऽन्वयेन / तिर्यग्धृतस्फटिकदण्डकवतिनैका तामन्ववर्त्तत पिकेन मदाधिकेन / / 10 / / कूजेति / कूजायुजा कूजनकारिणा / 'गुरोश्च हलः' इत्यकारप्रत्ययः / बहुलपक्षस्य कृष्णपक्षस्य यः शितिमा कालिमा तस्मिन् , सीम्ना मर्यादाभूतेनेव, अतीव कृष्णवणेनेत्यर्थः / अत एव स्पष्टं व्यक्तं यथा, भवति तथा, कुहूपदं कुहू इति शब्दः, कोकिलालाप इत्यर्थः / तथा कुहूपदस्य अर्थः कुहूशब्दवाच्या अमावस्या च / 'कुहः स्यात् कोकिलालापनष्टेन्दुकलयोरपि' इत्यमरः / तयोः मिथः परस्परम् , अन्वयः तादात्म्यम् , सामानाधिकरण्यसम्बन्ध इत्यर्थः। यत्र तेन तादृशेन, 'कुह कुह' इति रवकारिणा अमावस्येव गाढकृष्णवर्णेन चेत्यर्थः / अमावस्याऽपि बहुलपक्षस्य सीमा इति प्रसिद्ध मेव / तिर्यक् वक्रमावेन, धृतः गृहीतः, यः स्फटिकस्य स्फटिकनिर्मितः इत्यर्थः। दण्डकः क्षुद्रदण्डः, तत्र वर्तते तिष्ठतीति तादृशेन, मदाधिकेन अत्यन्तमत्तेन, पिकेन एकेन कोकिलेन उपलक्षिता, कोकिलहस्ता इत्यर्थः / एका काचित् , आलीति शेषः / तां दमयन्तीम् , अन्ववर्त्तत अन्वगच्छत् // 109 // कूजती ( कुहू कुहू कुहू करती) हुई, कृष्णपक्षकी सीमाभूत ( अत एव मानो) 'कुहू' (अदृष्ट-चन्द्रकलावाली अमावस्या तिथि) के पद ( 'कुहू' शब्द ) तथा पदार्थ ( अतिशय कृष्णत्व ) का परस्पर समन्वय स्थानभूत, तिर्छ ( आड़े) पकड़े गये स्फटिक-दण्डपर बैठी हुई और अधिक मदोन्मत्त कोयलके सहित कोई एक सखी उस ( दमयन्ती ) के पीछे चली। [ अमावस्या तिथि भी कृष्णपक्षकी सीमा (अन्तिम दिन ) एवं बहुत काली ( अन्धकारयुक्त) होती है ] // 109 //
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________________ 1458 नैषधमहाकाव्यम् / शिष्याः कलाविधिषु भीमभुवो वयस्या वीणामृदुकणनकर्मणि याः प्रवीणाः / आसीनमेनमुपवीणयितुं ययुस्ता गन्धर्वराजतनुजा मनुजाधिराजम् / / 10 / / शिष्या इति / वीणायाः वाचविशेषस्य, मृदुक्वणनकर्मणि कोमलवादन क्रियायाम प्रवीणाः निपुणाः, याः गन्धर्वराजतनुजाः गन्धर्वराजकन्याः, कलाविधिषु नृत्यगी. तादिकलाविद्याभ्यासेषु, भीमभुवः दमयन्त्याः, शिष्याः अन्तेवासिन्यः सत्यः, वयस्याः सख्यः, अभवन् इति शेषः / ताः गन्धर्वराजतनुजाः, आसीनम् उपविश. न्तम् , मनुजाधिराजं नराधिपम् , एनं नलम् , उपवीणयितुं वीणया उपगातुम् , ययुः प्राप्तवत्यः॥१०॥ जो दमयन्तीकी सखियां कलाकर्मों में दमयन्तीकी शिष्या थीं, तथा जो गन्धर्वराजकी कन्याएं वीणाके मधुर शब्द करने में निपुणा थीं, (अथवा-वीणाको मधुर बजानेमें निपुणा जो गन्धर्वराजकन्याएं (नृत्यगीतादि ) कलाकर्मों में दमयन्तीकी शिष्या होकर (दमयन्तीसे कलाओंको सीखकर ( उसकी सखी हो गयी थीं) वे (प्रासादपर दमयन्तीके साथ ) बैठे हुए इस ( नल ) की, वीणासे स्तुति करने के लिए ( वहांपर ) गयीं // 110 // तासामभासत कुरङ्गशां विपञ्चो किञ्चित् पुरःकलितनिष्कलकाकलीका / भैमीतथामधुरकण्ठलतोपकण्ठे शब्दायितुं प्रथममप्रतिभावतीव // 115 / / तासामिति / कुरङ्गादृशां मृगलोचनानाम् , तासां गन्धर्वराजतनुजानाम् , विपञ्ची वीणा, किञ्चित् अल्पम् , पुरः प्रथमम् , कलिता स्वीकृता, निष्कला निर्वि. शेषा, सामान्येत्यर्थः / काकली मधुरास्फुटध्वनिः यस्याः सा ताहशी सती। 'काकली तु कले सूचमे ध्वनौ तु मधुरास्फुटे' इत्यमरः / 'नद्यतश्च' इति कप समासान्तः। भैम्याः दमयन्त्याः, तथा तादृशी, या मधुरा मनोहारिणी, सुश्राव्या इत्यर्थः / कण्ठ. लता कण्ठस्वरसन्ततिः, तस्याः उपकण्ठे समीपे, शब्दायितुं सङ्गीतात्मकं शब्द कतम् 'शब्दवैर-' इत्यादिना क्य ततः तुमुन् / प्रथमम् आदौ, अप्रतिभावतीव प्रतिभा. रहिता इव, स्फूर्तिमप्राप्तेवेत्यर्थः / अभासत प्रतीयते स्म इत्यर्थः / विद्याधिकानां पुरः तोऽल्पविद्यस्य कण्ठो न स्फुरति इत्युचितमेवेति भावः // 111 // उन मृगनयनी ( गन्धर्वराजकन्याओं, या-दमयन्तीकी सखियों ) को पहले कलारहित काकली ( गायनारम्भमें की जानेवाली मधुरास्फुट ध्वनि ) करनेवाली वीणा दमयन्तीके वैसे अतिप्रसिद्ध ) मधुर कण्ठलताके समीपमें शब्द करने (बजने, पक्षा०-बोलने , के लिए पहले प्रतिमाशून्य-सी शोभित हुई / [ जिस प्रकार किसी विशिष्ट विद्वान्के सामने कम पढ़ा हुआ व्यक्ति पहले बोलने में बहुत संकुचित होता है, उसी प्रकार अतिशय मधुरभाषिणी दमयन्ती के कण्ठके पासमें उनकी मधुरास्फुट काकलीयुक्त बीणा भी हो गयी है, ऐसा शात होता था ] // 111 //
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________________ एकविंशः सर्गः। 1459 सा यद्धृताऽखिलकलागुणभूमभूमीभैमीतुलाऽधिगतये स्वरसङ्गताऽऽसीत्। तं प्रागसावविनयं परिवादमेत्य लोकेऽधुनाऽपि विहिता परिवादिनीति / / ___ सेति / सा गन्धर्वराजतनुजानां वीणा, तानां प्राप्तानाम् , अखिलानां सर्वा. साम , कलानां नृत्यगीतादिविद्यानाम् , गुणानां सौशील्यसौन्दर्यादीनाञ्च, यः भूमा बाहुल्यम् , तस्य भूमी स्थानम् , आश्रयभूता इत्यर्थः / या भैमी दमयन्ती, तस्याः तुलाऽधिगतये सादृश्यलाभाय, भैमीकण्ठस्वरतुल्यस्वरप्राप्तये इत्यर्थः। यत् स्वरसङ्गता स्वरेण ध्वनिना, सङ्गता संयुता, ध्वनिकारिणीत्यर्थः / अथ च स्वरसं स्वयमेवानुरागम् , गता प्राप्ठा, आसीत् अभूत् , असौ वीणा, प्राक् पूर्वम् , तं तादृशम् , दम. यन्तीसाम्यलाभेच्छारूपमित्यर्थः / अविनयम् औद्धत्यम् , स्वस्या उत्तमेन साहश्यलाभाय धृष्टताप्रकाशरूपमित्यर्थः / परिवादं निन्दाम् , एत्य प्राप्य, अधुनाऽपि "इदानीमपि, लोके जगति, परिवादिनीति परिवादवती इति अथ च परिवादिनीति आख्या च, विहिता कृता, इव जनैरिति शेषः / 'विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी' इत्यमरः // 112 // वह वीणा ग्रहण किये गये (नृत्य-गीतादि ) सम्पूर्ण कलाओं तथा सौन्दर्य-सुशीलतादि) समस्तगुणोंकी अधिकताका आश्रय दमयन्तीकी समानता पाने के लिए (षड्ज आदि ) स्वरों ( पक्षा०-स्वाच्छन्द्य, या स्वानुराग) से जो युक्त हुई ? वह वीणा पहले संसारमें उस अविनय ( अत्युत्कृष्ट दमयन्ती-स्वर के साथ समानता करना) रूप परिवाद ( निन्दा ) को पाकर इस समय (इतने लम्बे समयके बीत जानेपर ) भो परिवादिनी (निन्दावाली, पक्षा०-सात तारों से बजनेवालो वीगा ) प्रसिद्ध है। .[ पहले भी अधिक गुगवतीसे भीत वीणा अपने उक्त प्रगस्भतारूप अविनयका स्मरण करती हुई इस समयतक भी उसी प्रकार भीत-सी मालूम पड़ती है / जैसा महाकवि भारवि ने कहा है-'अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता' (किरातार्जुनीय श२३)] // 112 // नादं निषादमधुरं ततमुज्जगार साऽभ्यासभागवनिभृत्कुलकुञ्जरस्य / स्तम्बेरमोव कृतसश्रुतिमूर्द्धकम्पा वीणा विचित्रकरचापलमाभैजन्ती।।११३।। नादमिति / सा गन्धर्वराजतनुजाभिः स्वरसङ्गता, वीणा विपञ्ची, अवनिभृकुल. कुत्रस्य राजवंशश्रेष्ठस्य, नलस्य इति शेषः / अन्यत्र-अवनिभृत्कुले भूधरसमूहे, यः कुञ्जरः हस्ती, पार्वत्यहस्तीत्यर्थः, तस्य अभ्यासं समीपम् , भजति आश्रयति या सा ताहशी, तथा कृतः विहितः, सश्रुतीनां द्वाविंशतिश्रुतियुक्तानां षड्जादीनाम् , मूर्दनि नादप्रान्ते, कम्पः कम्पितस्वरः यया सा ताहशी, यद्वा-सश्रुतीनां तद्ध्वनिश्रवणकारिणां लोकानाम् , मूदुनः शिरसा,कम्पःचालनं यया सा तादृशी, अन्यत्रकृतः विहितः, सश्रुतेः कर्णद्वयसहितस्य, मूळः शिरसः, कम्पः चालनं यया सा १.'-मारभन्ती' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1460 नैषधमहाकाव्यम् / तादृशी, तथा विचित्रं नानाविधम् , करस्य पाणेः, चापल्यं चाञ्चल्यम् , कराङ्गुली. चालनेन द्रुतवादनरूपमित्यर्थः / अन्यत्र-विचित्रम् अद्भुतम् मनोहरमित्यर्थः / करस्य शुण्डादण्डस्य, चापलं सञ्चालनचापत्यम् , आभजन्ती सम्यक प्राप्नुवती सती, स्तम्बरमी हस्तिनी इव / 'स्तम्बकर्णयो रमिजपोः' इत्यच , 'हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम्' इत्यलुक . 'जातेरस्त्रीविषयात्-' इत्यादिना डीप। निषादेन तदाख्यस्वरविशेषेण, मधुरं रम्यम् , ततं विस्तृतं तारञ्च, नादं ध्वनि बृंहणन्च, उजगार उद्गीर्णवती, आविश्वकारेत्यर्थः / एकत्र-वादननैपुण्यात् , अन्यत्र-निषादम्च गजो ब्रते' इति पशुशास्त्रादिति भावः // 113 // (राज-समूहमें श्रेष्ठ (नल ) के पासमें स्थित, (बाइस प्रकारकी ) श्रुतियों ( स्वरोंके) सहित षड्ज आदिके ऊपर ( नादप्रान्तमें ) कम्पित-स्वर करनेवाली ) ( अथवा-श्रुतियों के सहित ( वीणाके ) ऊपर भागमें ( सब अङ्गलियोंके ) कम्पनको करनेवाली ( अथवा-बाइस श्रुतियोंके जानने वालों के हर्षजन्य मस्तकको कम्पित करनेवाली ) विचित्र (आरोहावरोह क्रमवश अनेकविध ) हस्ताङ्गलिकी चञ्चलताको प्राप्त उस वीणाने उस प्रकार 'निषाद' नामक स्वरसे मधुर उच्चस्वरको किया, जिप्त प्रकार पर्वत-समूहमें हाथीके समीप स्थित, दोनों कानके सहित मस्तकको कम्पित करनेवाली, विचित्र शुण्डादण्डकी चञ्चलताको प्राप्त अर्थात् शुण्डादण्डको विचित्र ढंगसे हिलाती हुई इस्तिनी निषाद स्वरसे मधुर ध्वनिको करती है ( हाथीको 'निषाद'' स्वरसे बोलनेका स्वभाव होता है ) // 113 // आकृष्य सारमखिलं किमु वल्ल कीनां तस्या मृदुस्वरमसर्जि न कण्ठनालम् ? / तेनान्तरं तरलभावमवाप्य वीणा होणा न कोणममुचत् किमु वा लयेषु ? // आकृष्येति / वल्लकीनां वीणानाम् , अखिलं समग्रम् , सारम् उत्कृष्टांशम् , आकृष्य सङ्गृह्य, मृदुः कोमलः, स्वरः ध्वनिः यस्य तत् तादृशम, तस्याः दमयन्त्याः, कण्ठनालं गलनाली , न असर्जि किमु ? न सृष्टं किम् ? ब्रह्मणा इति शेषः / अपि तु तादृशमेवासर्जि इत्यर्थः / कथमन्यथा वीणारवादपि दमयन्तीकण्ठरवस्य माधुर्यातिशय इति भावः / तेन कारणेन, आन्तरम् अभ्यन्तरस्थितम् , तरलभावं ध्वनि - 1. षडजादीनां स्वराणामतिसूक्ष्मांशाः श्रतयो भवन्ति / तत्र षड़जे 4, ऋषभे 3, गान्धारे 2, मध्यमे 4, पञ्चमे 4, धैवते 3 तथा निषादे 2 श्रुतयो भवन्ति / एवं सप्तसु स्वरेषु सङ्कलनया (4+3+2+4+4+3+2+22) द्वाविंशतिः श्रुतयो भवन्तीति बोध्यम्। 2. तदुक्तं नारदेन-'षडज रौति मयूरस्तु गावो नर्दन्ति चर्षभम् / अजाविकौ च गान्धारं क्रौञ्चो वदति मध्यमम् // पुष्पसाधारणे काले कोकिलो रौति पञ्चमम् / अश्वस्तु धैवतं रौति निषाद रौति कुञ्जरः॥ इति /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1461 चावल्यम्, सर्वसाराकर्षणेन शून्याभ्यन्तरत्वादिति भावः। अन्यत्र-आन्तरं तर. लभावं मानसचाञ्चल्यम्, अवाप्य प्राप्य, वीणा विपञ्ची, हीणा लज्जिता सती, लयेषु साम्येषु, लयकाले इत्यर्थः। 'लयः साम्यम्' इत्यमरः। अन्यत्र-आलयेषु गृहेषु, कोणं वीणावादनदण्डं गृहैकदेशं च / 'कोणो वाद्यप्रभेदे स्यात् कोणोऽस्रो लगुडेऽपि च / वीणादिवादने वा स्यादेकदेशे गृहस्य च // ' इति विश्वः / न अमुचत् किमु वान अत्यजत् वा किम् ? अन्योऽपि अपहृतसारो जनः अन्तश्चन्चलःहीणश्च सन् गृहस्य कोणमाश्रित्य यथा तिष्ठति तथा इति भावः // 114 // ( ब्रह्माने ) बीणाओंके समस्त सार भागको लेकर उस ( दमयन्ती) के कण्ठनालको नहीं रचा है क्या ? अर्थात सब वीणाओं के सार भागसे ही दमयन्तीके कण्ठनालको ब्रह्माने रचा है ( अन्यथा वीणासे भी अधिक मधुर स्वर इस दमयन्तीका कैसे होता ?), इसी कारण ( भीतर शून्य होनेसे ) भीतरी तरलता ( मन्दशब्दत्व, पक्षा०-मानसिक चञ्चलता ) को छोडकर लज्जित हुई वीणा लयों ( स्वरविश्रान्तिरूप मूच्र्छनाओं, पक्षा०--आलयों अर्थात् घरों) में कोण ( धनुषाकार वीणावादन दण्ड, पक्षा०--घरका कोना) को नहीं छोड़ती है क्या ? / [ लोकमें भी कोई व्यक्ति सम्पत्तिके अपहृत होनेपर चञ्चलताको छोड़कर लज्जित हो घरके कोनेमें बैठा रहता है / वीणाकाष्ठके भीतरी भागको जितना खाली किया जाता है उतना ही अधिक सुन्दर स्वर उस वीणासे निकलता है अतः उत्तम कोटिवाली उस बीणाको भीतरमें अत्यन्त खाली होनेसे तथा धनुषाकार टेढ़े काष्ठ ( धनुही ) से ही बजनेसे श्लेषद्वारा यहां उक्त उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 114 / / तद्दम्पतिश्रुतिमधून्यथ चाटुगाथा वीणास्तथा जगुरतिस्फुटवर्णबन्धम् / इत्थं यथा वसुमतीरतिगृह्य कस्ताः कोरः किरन मुदमुदीरयति स्म विश्वाः / / ___ तदिति / अथ अनन्तरम्, पूर्वोक्तरूपकलध्वन्युद्गारानन्तरमित्यर्थः, वीणा: विपञ्चयः, कर्व्यः / तयोः दम्पत्योः जायापत्योः दमयन्तीनलयोः, श्रुतौ श्रोत्रे, मधूनि चौद्ररूपाः, श्रुतिसुखकरा इत्यर्थः / चाटुगाथाः प्रियगीतानि, अतिस्फुटानां सुस्प. ष्टानाम् , वर्णानामक्षराणाम् , बन्धः विन्यासः यस्मिन् तत् यथा तथा, तथा तादृशप्रकारेण, जगुः गीतवत्यः, यथा येन प्रकारेण, वसुमतीरतेः भूलोकरतिदेवीस्वरूपायाः दमयन्त्याः, गृह्यकः पञ्जरे स्थापितः / 'पदास्वैरि-' इत्यादिना अस्वैरी इत्यर्थे कप् / 'गृहासक्ताः पक्षिमृगाश्छेकाः स्युर्गुह्यकाश्च ते' इत्यमरः। कीरः शुकः, मुदं प्रीतिम् , तत्रत्यजनानामिति भावः। किरन् उत्पादयन् इत्यर्थः / इत्थं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण, विश्वाः समस्ताः, ताः चाटुगाथा:, वर्णनश्लोकानित्यर्थः / उदीरयति स्म उच्चारयति स्म // 115 // इसके बाद वोणाओंने उन दम्पति ( नल-दमयन्ती ) के कानोंके लिए ( सुखकारक 2. 'चारुगाथा' इति पाठान्तरम् /
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________________ 1462 नैषधमहाकाव्यम् / होनेसे ) मधुररूप प्रियस्तुतिपरक गाथाओं ( श्लोकों ) को उस प्रकार अत्यन्त स्पष्ट अक्षररचनाके साथ गाया कि पृथ्वोकी रति (रूपिणी, दमयन्ती) का पाला गया तोता सुनने. वालोंको हर्षित करता हुआ उन सम्पूर्ण गाथाओंको इस प्रकार ( 21 / 115--126) कहने लगा। [इससे वीणा बजानेवाली गन्धर्वराज कन्याओंकी वीणा बजानेमें नैपुण्य तथा तोतेको अतिशय तीव्रबुद्धि होना सूचित होता है, क्योंकि जिस वीणाके स्वर को सुनकर तोता भी अक्षरशः उच्चारण करता है, उसके स्पष्टाक्षर होने में सन्देह ही क्या हो सकता है ] / / 115 // अस्माकमुक्तिभिरवैष्यथ एत्र बुद्धर्गाधं युवामतिमती ! स्तुमहे तथाऽपि / ज्ञानं हि वागवसरावचनाद्भवद्भयामेतावदप्यनवधारितमेव न स्यात् / / 116 / / ___ अस्माकमिति / अति अत्यधिका, मतिः बुद्धिः ययोः तयोः सम्बोधनम् अति. मती ! हे महाबुद्धिसम्पन्नौ दमयन्तीनलौ ! अत एव अवैष्यथ इति भावः / युवां भवन्तौ, अस्माकं 'ममेत्यर्थः / उक्तिभिः वचनैरिव, मत्कृताभिः भवतोः स्तुतिगाथामिरेवेत्यर्थः / बुद्धः ज्ञानस्य, अस्माकमिति शेषः / गाधम् उत्तानस्वम् , अगभीरत्वमित्यर्थः / स्थूलबुद्धितामिति यावत् / अवैष्यथः ज्ञास्यथः, तथाऽपि स्तुमहे स्तवं कुर्मः, वयं युवामिति शेषः / हि यस्मात् भवद्भयां युवाभ्याम् , वागवसरे वाक्य. प्रयोगोचितावकाशे, भवदीयगुणोत्कर्षस्य समुचितवर्णनावसरे सत्यपीत्यर्थः / अवच. नात् अकथनात् तथावर्णनाऽकरणादित्यर्थः / एतावदपि इयदल्पमपि, ज्ञानम् अस्मदीयबुद्धिम् , अनवधारितमेव अज्ञातमेव, न स्यात् न भवेत् , अपि तु अवधारित. मेव स्यादित्यर्थः। भवतोगुणोत्कर्ण्यमेव बुद्धिहीनानप्यस्मान् स्तोतुमुत्सहते, अत उत्तानबुद्धयोऽपि वयं भवन्तो स्तुमह, ततश्च अनयव स्तुत्या अस्माकं ज्ञानं कियदिति ज्ञातुं शक्येत भवद्भयामिति भावः // 116 // हे विशिष्ट बुद्धिवाले ( दमयन्ती तथा नल) ! तुम दोनों हमलोगोंकी उक्तियों (तुमलोगोंकी का गयी स्तुति-रचनाओं) से ( हमलोगोंकी ) बुद्धिके छिछलापनको जान ही जाओगे, तथापि ( हमलोग तुम दोनोंकी) स्तुति करतो हैं, क्योंकि-बोलने (आप दोनोंकी स्तुति करने ) के अवसरपर भी ( हमलोगोंके ) नहीं बोलनेसे ( इनका ) इतना ही ज्ञान है। यह आप दोनोंसे अज्ञात ही रहेगा (वैसा न हो, अत एव हमलोग आप दोनों को स्तुति कर रही हैं, क्योंकि वर्णनीय विषयके वर्णन करनेपर हो वर्णनकर्ताका ज्ञान थोड़ा है या अधिक ? यह निश्चित होता है / अथवा-आप दोनोंका गुगाधिक्य ही थोड़े ज्ञानवाली भी हमलोगोंको स्तुति करने के लिए उत्साहित कर रहा है, अत एव हमलोग स्तुति कर रही हैं, इससे हमलोगोंका ज्ञान कितना है ? यह आप दोनों समझ जायेंगे ) / [इस प्रकार वीणा 1. इदमेकवचनं गन्धर्वराजकन्यानां वयस्यानां वा बहुत्वस्य विस्मरगमूलकम्' अग्रेऽपि स्वयं बहुत्वस्यैव प्रतिपादनादिति बोध्यम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1463 बनाकर स्तुति करती हुई गन्धर्वराजकन्याओं या दमयन्तीकी सखियोंने अपने औद्धत्यको दूर किया है ] // 116 // भूभृद्भवाऽङ्कभुवि राजशिखामणेःसा त्वञ्चास्य भोगसुभगस्य समः क्रमोऽयम्। यन्नाकपालकलनाकलितस्य भर्तुरत्रापि जन्मनि सती भवती स भेदः।।११७।। भूभृदिति / हे दमयन्ति ! भूभृतः हिमालयभूधरात् , भीमनृपतेश्च / 'भूभृद् भू. मिधरे नृपे' इत्यमरः / भवति जायते या सा तादृशी, हिमालयाङ्गजा राजतनुजा च, सा पार्वती, त्वं भवती च, भोगैः भूषणीकृतसर्पशरीरैःस्रकचन्दनादिसम्भोगैश्च / 'भोगः सुखे ख्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यमरः। सुभगस्य सुन्दरस्य, तथा राजा चन्द्रः, शिखामणिः शिरोरत्नं यस्य तस्य इन्दुमौले, राज्ञां नृपाणाम् , शिखा. मणेः चूडारत्नस्य च, नृपश्रेष्ठस्येत्यर्थः / 'राजा मृगाङ्के क्षस्त्रिये नृपे' इत्यमरः / अस्य शिवस्य नलस्य च, अङ्कभुवि क्रोडदेशे, वर्त्तते वर्तसे च इति शेषः / अयम् एषः, उक्तरूप इत्यर्थः / क्रमः परीपाटी, सादृश्यमिति यावत्। समः तुल्यः, पार्वत्या सह ते इति शेषः / परन्तु, भवती स्वम् , अत्रापि अस्मिन्नपि जन्मनि, न केवलं पूर्वज न्मनि इति भावः / नाकस्य स्वर्गस्य, पालः पालकः इन्द्रः, तस्य कलनया साह. श्येन, अंशतया वा, कलितस्य विदितस्य, वासवतुल्यस्येत्यर्थः। भत्त: पत्युः, नलस्य सम्बन्धिनी सती इत्यर्थः / यत् सती पतिव्रतैव, वर्त्तते इति शेषः / पार्वती तु अत्र जन्मनि कपालस्य ब्रह्मकपरस्य, कल नया धारणया, कलितः विदितः, स न भवतीति अकपालकलनाकलितः, तादृगपि न भवतीति नाकपालकलनाकलितः तस्य गृहीत. ब्रह्मकपालत्वेन विख्यातस्य, भत्तः पत्युः शिवस्य, सम्बन्धिनी सती, यत् , असती वर्तते इति शेषः / सः उक्तरूप एव, भेदः अन्तरम्, पार्वत्याः तव च इति शेषः / तथा च दुर्गा पूर्वजन्मनि दक्षकन्यापत्ये एव सतीनाम्ना विदिता आसीत् , हिमा. लयदुहितृत्वेऽधुना तु पार्वतीनाम्ना विदिता सती असती सतीति नामविरहिता, भबती तु अस्मिन्नपि जन्मनि पातिव्रत्येन सतीति प्रसिदा, अयमेव तव पार्वत्याश्च भेदः इति भावः // 117 // (हे दमयन्ति !) वह पर्वतकन्या (पार्वती) सर्पशरीर ( को शरीरमें भूषणरूपसे धारण करने ) से सुन्दर चन्द्रचूड ( भगवान् शङ्कर ) के अङ्कमें है तथा राजकुमारी तुम (चन्दनादि. लेपरूप ) भोगोंसे सुन्दर राजश्रेष्ठ ( नल ) के अङ्कमें हो, यह क्रम (पार्वती तथा तुम्हारा क्रमशः शिव तथा नलके साथ सम्बन्धपरम्परा अथच-शब्दश्लेष) समान है; (किन्तु पार्वतीके साथ इस प्रकार समानता होनेपर भी असमानता इस कारण है कि-) तुम इस जन्ममें भी ( 'अपि' शब्दसे पूर्व जन्म में भी ) स्वर्गाधीश (इन्द्र ) के अंशसे युक्त पति (नल) की सती ( पतिव्रता ) हो और पार्वती ( यद्यपि पूर्व जन्ममें दक्षप्रजापतिकी कन्या होकर सती ( 'सती' नामवाली ) थी, परन्तु इस जन्ममें ) अ-कपाल धारण करनेसे भिन्न अर्थात कपालयुक्त (मिक्षार्थ ब्रह्मकपालको धारण किये हुए ) पति (शङ्करजी) की सती ( 'सती'
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________________ 1464 नैषधमहाकाव्यम् / नामवाली ) नहीं है, (किन्तु 'पार्वती' नामवाली हैं, अत एव तुम्हारी पार्वतीसे भी अधिक महिमा है ) / [ यहॉपर नामकी अपेक्षा पार्वतीको इस जन्ममें 'असतो' कहने से उनकी निन्दा नहीं समझनी चाहिये ] // 117 // एषा रतिः स्फुरति चेतसि कस्य यस्याः सूने रति युतिरथ त्वयि वाऽऽतनोति?। त्रैयक्षवीक्षण-खिलीकृत-निर्जरत्वसिद्धायुरध्वमकरध्वजसंशयं कः ? // 118 / / ___ एषेति / हे नल ! एषा दमयन्ती, कस्य जनस्य, चेतसि मनसि, रतिः मदनवधूः, इति स्फुरति ? प्रकाशते ? अपि तु न कस्यापि इत्यर्थः / कुत इत्याह-यस्याः दमः यन्त्याः, यतिः अङ्गकान्तिः, एवेति शेषः / रतिम् अनुरागं मदनवधून्च इत्यर्थः / रतिः स्त्री स्मरदारेषु रागे सुरतगुह्ययोः' इति मेदिनी। सूते जनयति, यस्याः अङ्गकान्तिः रतिं जनयति सा कथमपि रतिर्भवितुं नाहति इति भावः / अथ प्रश्नार्थकमव्ययम्, कः वा, जनः इति शेषः / त्वयि भवति नले विषये, यक्षेण शिवसम्बन्धिना / 'न यवाभ्याम्-' इत्यैजागमः। वीक्षणेन चक्षुषा, तृतीयनयनेनेत्यर्थः। खिलीकृतः प्रति. बद्धीकृतः, विनाशित इति यावत् / निर्जरत्वेन देवत्वेन, सिद्धस्य प्रसिद्धस्य, आयुषः जीवनकालस्य, अमरत्वरूपदीर्घजीवनस्य इत्यर्थः / अध्वा मार्गः यस्य तादृशस्य, मकरध्वजस्य कन्दर्पस्य, संशयं सन्देहम्, मकरध्वज इति भ्रान्तिमित्यर्थः। आतनोति? विस्तारयति ? न कोऽपि इत्यर्थः। देवत्वेन अमरोऽपि कामः कामारिनयनानलेन दग्धः सन् मृतः, मृतस्य च जीवितप्राणिनि सन्देहासम्भवात् भवति अयं कामो न वा इति संशयो न कस्यापि उदेतुमर्हति, तस्य मृतत्वादिति भावः / रतिकामाभ्या। मपि भवन्तौ मनोहरश्रीकौ इति तात्पर्यम् // 118 // यह ( दमयन्ती ) रति ( कामपत्नी ) है, ऐसा किसके मनमें भासित होता है ? अर्थात् किसीके नहीं ( कोई भी व्यक्ति इस दमयन्तीको .रति नहीं समझता, क्योंकि ) जिसकी शरीरकान्ति रति ( कामपत्नी, पक्षा०-तुम्हारेमें भनुराग ) को उत्पन्न करती है और तुम्हारे विषयमें भी शिवजीके तृतीयनेत्रसे व्यर्थ ( नष्ट ) किये गये अमरत्व-सिद्ध आयुर्मार्ग (आयु) वाले कामदेवका सन्देह कौन करता है ? अर्थात् कोई भी आपको कामदेव नहीं समझता / [दमयन्तीकी शरीरकान्तिरूपिणी पुत्री से उत्पन्न रति दमयन्तीकी धेवती ( नातिन) हुई, अत एव दमयन्तीको कोई भी रति नहीं समझता, तथा कामदेवको देव होने के कारण अमर ( मरणहीन ) होना सिद्ध होनेपर भी शिवजीने तृतीय नेत्रसे कामदेवको नष्ट कर दिया, अतः आपको कोई कामदेव भी नहीं समझता क्योंकि शिवजी के द्वारा उसके नष्ट हो जानेके कारण कामदेवविषयक सन्देहका अवसर ही नहीं रह जाता / आप तथा दमयन्ती-दोनों ही क्रमशः कामदेव तथा रतिसे अधिक सुन्दर हैं ] // 118 // एतां धरामिव सरिच्छविहारिहारामुल्लासितस्त्वमिदमाननचन्द्रभासा / बिभ्रद्विभासि पयसामिव राशिरन्तर्वेदिश्रियं जनमनःप्रियमध्यदेशान् // 116 / /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1465 एतामिति / हे राजन् ! स्वं भवान् , सरितः नद्याः इव, छविः शोभा, शुभ्रकान्ति. रित्यर्थः / तया हारी मनोहारी, हारः मुक्तासरः यस्याः तां, पते-सरितः नद्यः एव, छव्या कान्त्या, हारिणो मनोज्ञाः, हारामौक्तिकसरा यस्यास्ताम्, वेद्याम् अन्तः अन्त. वैदि वेदिकामध्यम्, तद्वदतिकृशा इत्यर्थः, श्रीः शोभा यस्याः ताम्, यद्वा-अन्तः शरीराभ्यन्तरे, वेदेः कीटविशेषस्य, श्रीरिव श्रीः सौन्दर्यम्, तनुतारूपा इत्यर्थः यस्यास्ताम्, कुमारसम्भवादावपि 'मध्येन सा वेदिविलग्नमध्या' इत्यत्र कीटविशेषार्थे वेदि. शब्दः प्रयुक्तः इति दृश्यते / पक्षे-अन्तर्वेदिः तदाख्यगङ्गायमुनासङ्गमस्थानम्, तेन श्रोः शोभा यस्याः तादृशम्; तथा जनमनसां लोकचेतसाम्, प्रियः प्रीतिजनका, मध्यदेशो नितम्बभागो यस्याः ताम् / पक्षे-जनमनसां लोकचित्तानाम्, प्रियः हर्ष. जनकः, मध्यदेशः 'हिमवद्विन्ध्ययोरन्तयःप्राक्कनखलादपि / प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः // ' इत्युक्तविन्ध्यहिमाचलान्तरभूभागरूपः यस्याः ताम्, एतां दम. यन्तीम्, धरामिव पृथिवीमिव, बिभ्रत् अङ्के दधानः, यस्याः दमयन्त्याः धरायाश्च, आननं मुखम्, चन्द्रः शशधर इव, पने-आननसदृशचन्द्रश्च, तस्य भासा प्रभया, उल्लासितः हर्ष प्रापितः उच्छवसितश्च सन् , पयसां राशिः समुद्रः इव, विभासि शोभसे / सागरः हि चन्द्रभासा उच्छवसितः भवति इति प्रसिद्ध एव // 119 // समान शोमावाली अर्थात् पतली कटिवाली तथा लोगों के मनको प्रिय कटिभागवाली इस ( दमयन्ती ) को अङ्कमें धारण करते हुए और इस ( दमयन्ती) के मुखचन्द्रकी कान्तिसे हर्षित तुम; शोभाले मनोहर नदीरूप हारवाली, गङ्गा-यमुनाके मध्यमागस्थित ( अन्तर्वेदि नामकी ( भूमिसे शोभित तथा जन-मनके प्रिय मध्यदेश (हिमालय-विन्ध्याचलका मध्यमाग-आर्यावर्त ) वाली पृथ्वी को अङ्क ( बीच ) में धारण करते हुए तथा चन्द्र कान्तिसे वर्द्धमान समुद्र के समान शोभते हो // 119 // दत्ते जयं जनितपत्रनिवेशनेयं साक्षीकृतेन्दुवदना मदनाय तन्वी / मध्यस्थदुर्बलयमत्वफलं किमेतद् भुक्तिर्यदत्र तव भर्तितमत्स्यकेतोः // दत्त इति / हे महाराज ! जनितं कृतम्, सखिभिः विचारकेण चेति शेषः / पत्रस्य कस्तूर्यादिकल्पितमकरपत्रवल्ल्याद्याकारतिलकस्य जयसूचकपत्रस्य च, निवेशनं रच. नम्, अङ्कनमित्यर्थः, दानमित्यर्थश्च / यस्याः सा तिलकभूषितकपोलादिका विचारकैः विचार्य लिखितजयपत्रा च, तथा अक्षिभ्यां सह वर्तमानः साक्षः। 'बहुव्रीही सक्थ्यपणोः स्वाङ्गात्-' इति समासान्तः षच् / असाक्षः साक्षः कृतः साक्षीकृतः सलोचनी. कृतः, इन्दुः चन्द्र एव, वदनं मुखं यस्याः सा, इन्दोः सलोचनीकरणाभावे वदने नेत्रस्थितिः कथं युज्यते इति भावः। अन्यत्र-साक्षीकृताः साक्षाद् द्रष्ट्रीकृताः, इन्दुवदनाः चन्द्रमुख्यः सख्यः यस्याः सा, कामजयविषये भैम्याः सख्यः एव साक्षि. ण्यः वर्तन्ते, यतः भैम्यां नलस्य कामवश्यता ताभिरेव साक्षात् दृष्टा इति भावः।
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________________ 1466 नैषधमहाकाव्यम् / अथवा-साक्षीकृतं साक्षाद् द्रष्ट्रीकृतम्, इन्दुवदनं स्वस्याः चन्द्रसुन्दरमुखं यया सा, नलस्य कामविजितत्वे भैग्याः मुखचन्द्र एव साक्षी इति भावः / इयं पुरतः दृश्य. माना, तन्वी कृशाङ्गी, दमयन्तीति शेषः। अन्यत्र-काचित् सूचमा विचारप्रणाली च, मदनाय कामाय, जयं विजयम्, दत्ते अर्पयति, मदनेन त्वां विजितं करोतीत्यर्थः / अन्यत्र-स्वविषये नलकामयोः विवादे कामायैव विजयम्, दत्ते अर्पयति, भैमीविषये कामः नलं जितवान् इत्यर्थः / तथाऽपि भर्सितः तिरस्कृतः, रूपेण धिक्कृतः इत्यर्थः। अन्यत्र-बलात् सन्तर्जितश्च, मत्स्यकेतुः मीनध्वजः मदनः येन तादृशस्य, तव भवतः, अत्र अस्यां दमयन्त्याम, पक्षे-भुवि च, यत् भुक्तिः सुरतसम्भोगः, अन्यत्रप्रतिपक्षात् बलपूर्वकं गृहीत्वा स्वयमुपभोगश्च, तदेतत्, मध्यस्थं कटिदेशस्थम, यत् दुर्बलतमत्वं कृशतया अत्यन्तहीनबलत्वम्, अत एव सम्भोगक्रियासु सुखकरत्वमिति भावः / तस्य, अन्यत्र-मध्यस्थानां विचारकाणाम, दुर्बलतमत्वस्य बाधाप्रदाने अक्षमतया चित्तदौर्बल्यस्य, फलं परिणामः, किम् ? दमयन्याः मध्यावयवस्य अति. सूक्ष्मत्वेन परमरमणीयत्वमेव अतिसुन्दरस्य तव भोगप्रयोजकम, अन्यथा पराजित तोऽपि भवान् कथमिमां विवादभूमि भोक्तुं शक्नोति ? इति भावः / अन्यत्रजयपत्रे साक्षिषु च सत्स्वपि विजयिनः विषये अन्येन बलपूर्वकं विजयिनं तिरस्कृत्य या भुक्तिः तत्र सभ्यानां चित्तदौर्बल्यमेव कारणमिति भावः // 120 // (हे राजन् ! ), सखियोंसे स्तन-कपोलोंपर चन्दनकस्तूर्यादिरचित मकरादि चिह्नोंवाली, सनेत्र किये गये चन्द्ररूप मुखवाली अर्थात् चन्द्रसे अधिक सुन्दर मुखवाली और कृशाङ्गी यह ( दमयन्ती) कामके लिये विजय देती है अर्थात् 'तुमने नलको जीत लिया है। ऐसा प्रमाणित करती है, परन्तु कामदेवको शरीरकान्तिसे धिक्कृत करनेवाले तुम इसके विषयमें भोग करते हो अर्थात् इस दमयन्तीके साथ रति करते हो यह ( इस दमयन्तीके ) मध्यभाग ( कटिप्रदेश ) के दुर्बल (कृश, पक्षा-निर्बल ) होनेका परिणाम है क्या ? अर्थात् दमयन्तीके कटिभागको अत्यन्त कृशताके कारण सुन्दर होनेसे तुम इस दमयन्तीके साथ भोग करते हो क्या ? / ( पक्षा-जिसने विजयपत्र दे दिया है और चन्द्रमुखियों ( चन्द्रमुखी सखियों) को साक्षी बनाया है, ऐसी तन्वी दमयन्तीने कामको तुम्हारा विजयी घोषित कर दिया है, किन्तु फिर भी तुम उस ( कामदेव ) को फटकार कर इस ( दमयन्ती शरीर, पक्षा०-विवादस्थ भूमि ) का उपभोग कर रहे हो, यह मध्यस्थ (निर्णायक ) की दुर्बलताका फल है क्या ?) [जिस प्रकार दो व्यक्तियों में विवाद होनेपर किसीको साक्षी बनाकर निर्णायक व्यक्ति एक पक्षको विजयपत्र दे देता है, तथापि निर्णायक व्यक्तिके दुर्बल होनेका लाभ उठाकर पराजित पक्षवाला व्यक्ति विजयी व्यक्तिको फटकारकर उसके भूमि आदिका उपभोग करने लगता है, उसी प्रकार हे राजन् ! तुम भी भोगविषयमें चन्द्रमुखी सखियोंको साक्षी बनाकर कामदेवको विजयी घोषित करनेपर भी तुम कृशतासे सुन्दरतम इस ( दमयन्ती ) की कटिका कामकी शरीर कान्तिसे भत्सितकर भोग रहे हो ] // .
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________________ एकविंशः सर्गः। 1467 घेतोभवस्य भवती कुचपत्रराजधानीयकेतुमकरा ननु राजधानी / अस्यां महोदयमहस्पृशि मीनकेतोः के तोरणं तरुणि.! न ब्रुवते भ्रवौ ते ? // चेत इति / ननु भो दमयन्ति ! कुचयोः स्तनयुगयोः, पत्रं तिलकरचनैव, राजधानीयः राजावासीभूतनगरसम्बन्धी, केतुः ध्वजः, पताकास्थानीय इत्यर्थः / मकरः मीनविशेषः यस्याः सा तादृशी, भवती त्वम् , चेतोभवस्य कामस्य, राजधानी राजावासभूता नगरो, नगरीस्वरूपेत्यर्थः / राजधान्यामेव राजभिः निजनिजासाधारणचियुक्तानां ध्वजानां स्थापनीयत्वात् कामराजस्य मुख्यध्वजः मकरः राजधानीभूतयोः तव कुचयोः चित्रितः राजते इति भावः / तरुगि! हे युवति! के जनाः, मीनकेतोः कामस्य, महोदयः आधिपत्यम् , राज्यप्राप्तिरूपोन्नति रित्यर्थः। तत्र यः महः उत्सवः, तं स्पृशति स्पर्श करोतीति तादृश्याम् / 'महोदयः कान्यकुब्जेऽप्याधि. पत्यापवर्गयोः' इति विश्वः / 'महस्तूत्सवतेजसोः' इत्यमरः / अस्यां राजधानीस्वरूपायां भवत्याम् , ते तव, ध्रुवी भ्रयुगलमेव, तोरणं बहिरिम् , बहिरस्थितवक्र काष्ठस्वरूपमित्यर्थः / न ब्रुवते ? न कथयन्ति ? अपि तु सर्व एव ब्रुवते इत्यर्थः॥१२॥ ( हे दमयन्ति ! ) स्तनदयपर ( कस्तूर्यादि रचित ) पत्ररचनारूप राजधानी-सम्बन्धिनी पताकावाली तुम मानो कामदेवकी राजधानी हो, तथा हे तरुणि ! महान् उदयवाले उत्सवोंसे युक्त ( त्वद्रूप ) इस राजधानी में तुम्हारे भ्रूद्वयको कौन लोग तोरण नहीं कहते हैं ? अर्थात् सभी कहते हैं / [ जिस प्रकार राजा अपने विशिष्ट चिह्नयुक्त पताकावाली राजधानीमें निवास करता है और उसमें ( पल्लवादि रचित ) नील तोरण रहता है, उसी प्रकार स्तनमें कस्तूरी आदि से बनाये गये मकरपत्ररूपिणी पताकासे युक्त राजधानीरूपिणी तुममें नृपरूप कामदेव निवास करता है और तुम्हारे नीलवर्ण भ्रूद्वय तोरणतुल्य हो रहे हैं। तुममें ही कामदेव सर्वोत्कर्षसे सदा निवास करता है ] // 121 // . अस्या भवन्तमनिशं भवतस्तथैनां कामः श्रमं न कथमृच्छतु नाम गच्छन् / छायैव वामथ गतागतमाचरिष्णोस्तस्याध्वजश्रमहरा मकरध्यजस्य / / 122 / / अस्या इति / हे महाराज! कामः मीनकेतनः, अस्याः दमयन्त्याः सकाशात् , भवन्तं त्वाम् तथा भवतः स्वत्तः सकाशात् , एनां दमयन्तीम् , अनिशं निरन्तरम् , गच्छन् गतागतं कुर्वन्नित्यर्थः / कथं किमर्थम् , श्रमम् आयासम् , नाम सम्भावना याम् , न ऋच्छतु ? न प्राप्नोतु ? अपि तु ऋच्छत्येव इत्यर्थः / निरन्तरं यातायात. करणादिति भावः / अथ किंवा, गतागतं गमनागमनम् , आचरिष्णोः कुर्वतः, तस्य श्रान्तस्य, मकरध्वजस्य कामस्य, वां युवयोः छाया एव कान्तिरेव, सौन्दर्यमिति यावत् , अनातप एव च / 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः' इत्यमरः / 1. 'कुचपत्रराजी-' इति पाठान्तरम्। 2. 'कथमृच्छति' इति 'प्रकाश-' सम्मतः पाठः। 62 नै० उ०
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________________ 1468 नैषधमहाकाव्यम् / अध्वज पथपर्यटनजनितम् , श्रमं क्लान्तिम् , हरति नाशयति या सा ताहशी, भव. तीति शेषः / छायाबहुले मार्गे गतागतिं कुर्वाणानां पान्थानां पर्यटनक्लेशाननुभवा. दिति भावः / दमयन्याः कामस्त्वयि तव च दमयन्त्यामेव वर्तते, नान्यत्र कुनापीति तात्पर्यम् // 122 // ( हे राजन् ! ) इस ( दमयन्ती ) से आपको तथा आपसे इसको जाता ( प्राप्त होता) हुआ कामदेव ( गमनागमनजन्य ) श्रमको क्यों नहीं पावे ? ( पाठा०-पाता है ?) अर्थात् तुम दोनों मेंसे एकके पाससे दूसरेके पास जाता हुआ कामदेव अवश्य थक जाता है। अथवा (तुम दोनों में से एकके पाससे दूसरेके पास ) गमनागमन करते हुए इस कामदेवके मार्गजन्य श्रमको दूर करनेवाली आप दोनों की छाया ( परछाही, पक्षा०-शरीरकान्ति ) ही है। [ लोकमें मो छायामें गमनागमन करनेसे थकावट नहीं होती, अतः आप दोनोंकी छाया ही कामदेवके गमनागमनजन्य मार्गश्रमको दूर कर देती है / दमयन्तीमें आपका तथा आपमें दमयन्तीका काम है; ऐसा आपसमें स्नेह अन्यत्र कहीं भी नहीं देखा जाता ] // 122 // स्वेदप्लवप्रणयिनी तव रोमराजी रत्यै यदाचरति जागरितव्रतानि / आभासि तेन नरनाथ ! मधूत्थसान्द्रमग्नासमेषुशरकेशरदन्तुराङ्गः // 123 // स्वेदेति / नरनाथ ! हे मनुजाधिप ! नल ! स्वेदः धर्मजलम् , तत्र प्लवे स्नाने, प्रणयः प्रीतिः अस्या अस्तीति सा तादृशी, तव भवतः, रोमराजिः रोमसमूहः, रत्यै सुरताय, जागरितानि जागरणान्येव, उद्गमा एव च, व्रतानि नियमान् , यत् आचरति अनुतिष्ठति, पुष्पवती कामिनी यथा शुद्धस्नाता पतिसन्तोषार्थ जागरि. तानि आचरति तद्वदिति भावः / तेन व्रताचरणेन हेतुना, मधुनः क्षौद्रस्य, शरात्मककुसुमसारस्य इत्यर्थः / उत्थेन उद्गमेन / 'सुपि स्थः' इत्यत्र योगविभागात् भावे कप्रत्यये ततः समासः / सान्द्राः गाढाः, मिश्रणेन हेतुना घनीभूता इत्यर्थः। तथा मग्नाः भवदङ्गे अन्तःप्रविष्टाश्च, असमेषोः अयुग्मशरस्य कामस्य, शराणां बाणानाम्, कुसुममयानामिति भावः / केशरैः किमस्कः, दन्तुराणि निम्नोन्नतानि, अङ्गानि अवयवाः यस्य सः तादृशः इव, आभासि प्रतीयसे / भैमीसङ्गात् साविकभावोदयेन रोमाञ्चितशरीरः स्वेदयुक्तश्वासि इति निष्कर्षः // 123 // हे नरनाथ ! ( सात्त्विक भावजन्य ) स्वेदजलसे (या-स्वेदजलमें ) स्नानकरनेवाली तुम्हारी रोमराजि रतिके लिए जो जागरण व्रतोंको करती है अर्थात् तुम्हे जो रोमाञ्च हो जाता है, उससे पुष्परससे पूर्ण सघन मग्न (शरीर के भीतर घुसे ) हुए कामदेव बाणभूत पुष्पके किञ्जल्क ( पक्षा०-बाणों के पुच्छस्थ पङ्खरोम ) से दन्तुरित (उच्चावच ) अङ्गोवाले तुम शोमते हो / ( पक्षा०-रोमराजीरूपिणी दूती रतिके लिए तीर्थादि में स्नानकर जो जागरण व्रत करती है, उससे शरीरमें पूर्णतः प्रविष्ट हुए कामबाणों के पुच्छके पलोंके ऊपर दृश्यमान रोमोंसे युक्त शरीरवालेके समान तुम शोभते हो अथवा-रोमराजीरूपिणी स्त्री
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________________ एकविंशः सर्गः। 1469 रतिके लिए स्नानकर जो जागरणपूर्वक व्रत करती है, उससे भीतर प्रविष्ट हुए कामबाणों के बहिदृश्यमान पुच्छ-सम्बन्धी रोमोंसे युक्त शरीरवाला पति होता है अर्थात् व्रताचरणके प्रमावसे वह पुरुष कामबाणविद्ध हो जाता है)। [रतिके पूर्व तुम स्वेद तथा रोमाञ्च युक्त होकर आपुत मग्न कामबाणोंसे पीडित हो जाते हो] // 123 // प्राप्ता तवापि नृप ! जीवितदेवतेयं घर्माम्बुशीकरकरम्बनमम्बुजाक्षी / ते ते यथा रतिपतेः कुसुमानि बाणाः स्वेदस्तथैव किमु तस्य शरक्षतास्रम्।। प्राप्तेति / नृप ! हे राजन् ! नल! तव भवतः, जीवितस्य जीवनस्य, देवता अधिः ष्ठात्री, जीवनेश्वरीत्यर्थः / अम्बुजाक्षी कमलनयना, इयम् दमयन्ती अपि, धर्माम्बुनः स्वेदजलस्य, शीकरैः कणः, करम्बनं मिश्रणम् , प्राप्ता अधिगता, साविकभावोदयात् स्वेदप्लुताङ्गी जाता इत्यर्थः / रतिपतेः कामस्य, ते ते प्रसिद्धाः, बाणाः शोषणसम्मो, हनादयः शराः, यथा यद्वत् , कुसुमानि कमलादीनि पुष्पाणि, अभवन्निति शेषः। तथैव तद्वदेव, स्वेदः धर्मोदकम् , तस्य कामस्य, शराणां बाणानाम, पतस्य व्रणस्य, अस्त्रं रक्तम् , किमु ? तथा हि सुकुमाराणि कुसुमान्यपि यदि कामस्य शराः भवितुः मर्हन्ति, तदा स्वेदोदकमलोहितमपि तस्य शराघातनिसृतं लोहितं भवितुमर्हत्येव देवप्रभावस्य उभयत्रापि तुल्यत्वादिति भावः // 124 // हे राजन् ! तुन्हारे जीवन की देवता कमललोचना यह ( दमयन्ती ) मी धर्मजल ( स्वेद) के कणों से युक्त हो जाती है (इसे मी सात्त्विक भावजन्य स्वेद हो जाता है, अथ चदेवताको स्वेदोदय नहीं होता, किन्तु आपकी जीवनदेवता ( इस दमयन्ती) को भी स्वेद हो जाता है, यह आश्चर्य है)। तथा कामदेवके वे-वे (अतिप्रसिद्ध) बाण जिस प्रकार पुष्प हैं उसी प्रकार उस कामदेवका बाणक्षतजन्य रक्त मी वैसे ( श्वेतवर्ण ) हैं क्या ? [ देवताको स्वेद नहीं होनेपर भी जिस प्रकार तुम्हारे जीवित-देवता दमयन्तीको स्वेद होता है, पुष्पजैसे कोमलतम पदार्थको किसी भी वीरका बाग होना उचित नहीं होने पर भी जिस प्रकार कामदेवके बाण पुष्प ही हैं; उसी प्रकार बाणक्षतसे उत्पन्न रक्तको श्वेत होना उचित नहीं होनेपर भी कामदेवके बाणक्षतजन्य ( दमयन्ती के शरीरसे बहता हुआ स्वेदरूप ) रक्त यदि श्वेत वर्ण है तो कौन-सा आश्चर्य है ? क्योंकि देवोंका कार्य ही विलक्षण होता है / दमयन्ती भो कामबाण-पीडित हो जाती है, जिससे उत्पन्न सात्त्विक भावजन्य स्वेद बाणक्षतजन्य श्वेतवर्ण रक्त के समान ज्ञात होता है। अथवा-दमयन्तीके अरुणवर्ण कर, चरण, पाणि, मुख आदि के सम्बन्ध से स्वेद भी अरुणवर्ण होकर काम-बाण-क्षतजन्य रक्तके समान ज्ञात होता है ] / / 124 // रागं प्रतीत्य युवयोस्तमिमं प्रतीची भानुश्च किं द्वयमजायत रक्तमेतत् ? तद्वीक्ष्य वां किमिह केलिसरित्सरोजैः कामेषुतोचितमुखत्वमधीयमानम् ? // रागमिति / हे राजन् ! प्रतीची पश्चिमा दिक् , भानुः सूर्यश्च, एतत् द्वयम् उभ
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________________ 1470 नैषधमहाकाव्यम् / यम् , युवयोः भवतोः, तं पूर्वोक्तस्वेदादिसात्त्विकभावसूचितम् , इमं परिदृश्यमानम् रागम् अनुरागम् , प्रतीत्य ज्ञात्वा, प्रत्यक्षं दृष्ट्वेत्यर्थः / रक्तं रक्तवर्णम् अनुरक्तच, 'रक्तं स्यात् कुङ्कुमे ताने प्राचीनामलकेऽसृजि / अनुरक्ते च नील्यादिरञ्जिते लोहिते. ऽन्यवत् // इति विश्वः / अजायत किम् ? अभवत् किम ? कयोश्चित् स्त्रीपुंसयोः सम्भोगानुरागदर्शनेन अपरयोरपि स्त्रीपुंसयोः तथाविधानुरागोत्पत्तेः प्रायोदर्शनादिति भावः / दिवाविहारस्य शास्त्रनिषिद्धस्वात् अथच भैमीनलयोरत्युत्कटसम्भोगाभिला. पावलोकनात् कृपया अस्तगमनद्वारा राज्यानयनाभिप्रायेण सूर्यः किं रक्तवर्णोऽजा. यत इति तात्पर्यम् / तथा इह अस्मिन् समये, केलिसरितः तवैव क्रीडानद्याः, सरोजैः कमले, तत् प्रतीचीभानुद्वयम , वां युवाञ्च, वीक्ष्य दृष्ट्वा, अस्तगमनाय सुरतसम्भो. गाय च अभिलाषिणमवलोक्येत्यर्थः। कामेषुतायाः कन्दर्पबाणस्वस्य, उचितं योग्यम , मुखम् अग्रभागः, मुकुलितत्वेन सूचममिति भावः / येषां तेषां भावः तत्त्वम् , अधीयमानम् अभ्यस्यमानम् , किम् ? वर्तते इति शेषः / मुखस्य सूक्ष्मताया अभावे बाणस्वासङ्गतेरिति भावः / सायंकालोपस्थितेः प्रतीचीभानू अरुणवर्णों जाती, कमलच मुकुलितप्रायम् , अतः सत्वरं रात्रिरागमिष्यति, अलं वाम् उरकण्ठयेति निष्कर्षः // 125 // __तुम दोनोंके इस राग ( रमणेच्छा ) को देखकर सूर्य तथा पश्चिम दिशा रक्त ( अरुण क्रीडा-नदीके कमलसे वे ( सूर्य तथा पश्चिम दिशा ) तुम दोनोंको देखकर कामबाणत्वके योग्य मुख ( सूक्ष्म-तीक्ष्णाग्रभाग ) होने का अभ्यास करते हैं क्या ? / [नल तथा दमयन्ती रमण करना चाहते हैं, किन्तु दिनमें रमणका निषेध होनेसे ये रमण नहीं कर सकते, अतः सायङ्काल होना आवश्यक है, यह विचारकर सूर्य तथा पश्चिम दिशा लाल हो गये हैं, क्योंकि किसी दम्पतिको इच्छाको पूरा करना दूसरे दम्पतिका कर्तव्य होता है / अथच-दम्पति तुम दोनोंको रमणेच्छुक देखकर सूर्य एवं पश्चिम दिशारूपी दम्पति भी रमण करने के इच्छुक हो गये हैं क्या ? क्योंकि किन्हीं स्त्री-पुरुषको रमण करते हुए देखकर दूसरे स्त्रीपुरुषको भी कामोत्पत्ति हो जाती है / तथा-इस समय सांयकालके समीप होनेसे कमल मुकुलित हो रहे हैं, वह ऐसा ज्ञात होता है कि-कामबाणके पुष्पबाण होनेसे मुकुलित होकर तीक्ष्णाग्र ‘कामबाण होने का अभ्यास करते . हैं। कमलाग्रभागका मुकुलित होकर तीक्ष्णाय हो जाना स्वाभाविक है / अस्तोन्मुख होकर सूर्य तथा पश्चिमदिशा लाल होने लगे, कमल मुकुलित होने लगे, अतः रमणेच्छुक तुम दोनों सायङ्काल के बाद रात्रिको आसन्न जानकर धैर्य धारण करो] // 125 // अन्योऽन्यरागवशयोयुवयोर्विलासस्वच्छन्दताच्छिदपयातु तदालिवर्गः / अत्याजयन् सिचयमाजिमकारयन् वा दन्तै खैश्च मदनो मदनः कथं स्यात्।।
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________________ एकविंशः सर्गः। 1471 अन्योऽन्येति / हे दमयन्तीनलौ ? तत् तस्मात्, युवयोरत्यन्तसुरताभिलाषा / तोरित्यर्थः, अन्योऽन्यस्मिन् परम्परं प्रति, रागस्य अनुरागस्य,रमणाभिलाषस्येत्यर्थः, वशयोः अधीनयोः, युवयोः भवतोः, विलासस्य सुरतक्रीडायाः, स्वच्छन्दतां स्वाभि. प्रायानुवर्तिताम् , छिनत्ति व्याहन्ति यः सः तादृशः, सुरतव्यापारस्य रहः सम्पाद्यस्वादिति भावः / भालिवर्गः सखीसमूहः, दमयन्त्या इति शेषः / अपयातु निर्गच्छतु, गृहादिति शेषः / तथा हि-मदनः कामः, सिचयं वस्त्रम्, दम्पत्योरिति भावः / अत्या. जयन् अमोचयन् , दम्पतीभ्यामेव परस्परं वस्त्रोन्मोचनमकारयन् इत्यर्थः। वा अथवा, दन्तः दशनैः, नखैश्च फररुहैश्च, आणि युद्धम्, परस्पराघातरूपमित्यर्थः / अकारयन् अनाचरयन् , दम्पतीभ्यामेव परस्परमिति भावः। कथं केन प्रकारेण, मदनः मदयिता, सुरतव्यापारे मत्ततोत्पादक इत्यर्थः, स्यात् ? भवेत् ? अपि तु न कथश्चिदेवेत्यर्थः // 126 // ___ इस कारण परस्परमें अनुरागके वशीभून ( सम्भोगेच्छुक ) तुम दोनों के विलास ( सम्भोगकेलि ) का बाधक सखी-समूह (घरसे बाहर निकल ) जावे / (क्योंकि तुम दोनों के) वस्त्रोंको नहीं हटवाता हुआ तथा दाँतों एवं नखोंसे ( सम्भोगकालिक मल्ल-) युद्ध नहीं करवाता हुआ कामदेव मदोत्पादक ( हर्षकर्ता ) कैसे होगा ? / [ सखियों के रहने पर तुमलोगोंका वस्त्र त्याग तथा दन्त-नखक्षतादि करते हुए परस्पराघातादि करना नहीं हो सकेगा, अत एव दमयन्तीकी सखियोंका अब यहाँसे हट जाना उचित है ] // 126 // इति पठति शुके मृषा ययुस्ता बहुनृपकृत्यमवेत्य सान्धिवेलम् / कुपितनिजसखीहशाऽर्द्धदृष्टाः कमलतयेव तदा निकोचवत्यः / / 127 // इतीति / इति पूर्वोक्तप्रकारेण. शुके कीरपक्षिणि, पठति वाचयति सति, गन्धर्व। राजतनयानां वीणागानानुवादक्रमेण स्फुटम उच्चारयति सतीत्यर्थः / तदा तस्मिन् सन्ध्यासमये, कमलतयेव पद्मत्वेनेव हेतुना,निजनिजवदनानामिति भावः / निकोचः सङ्कोचः विद्यते यासां ताः निकोचवत्यः सङ्कोचशालिन्यः, एकत्र-सन्ध्याकालागम. नात् , अन्यत्र-सुरतप्रसङ्गोस्थानेन लज्जोदयादिति भावः, ताः आल्यः गन्धर्वराज. तनयाश्च, मृषा मिथ्या, कुपितायाः क्रद्धायाः सखीनिर्गमनेन क्रोधभावं प्रकाशमा. नाया इत्यर्थः / निजसख्याः दमयन्याः सम्बन्धिन्या, दृशा चक्षुषा, अर्द्धदृष्टाः किश्चिदीक्षमाणाः, क्रोधव्याजेन ईषदवलोकिताः सत्य इत्यर्थः / सान्धिवेलं सन्धिवेलायां सन्ध्यासमये भवम् / 'सन्धिवेलायतुनक्षत्रेभ्योऽण' / बहु अनेकम्, नृपस्य.नलस्य, कृत्यं कार्यम्, सन्ध्योपासनादिकम् अनुष्ठेयमित्यर्थः / अवेत्य ज्ञात्वा, ययुः प्रतस्थिरे, तस्मात् गृहादिति शेषः // 127 // इस प्रकार ( 21 / 116.126) तोतेके पढ़ते (गन्धर्वराजकन्याओंके वोणाशब्दको उच्चारण करते ) रहनेपर उस समय ( सन्ध्याकाल, पक्षा०-रतिकाल) में मानो कमल.
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________________ 1472 नैषधमहाकाव्यम् / भाव होनेसे (मुखको ) सङ्कुचित करती हुई अवास्तविक क्रोधित अपनी सखी ( दमयन्ती) के द्वारा अर्द्धदृष्टिसे देखी गयी वे ( सखियाँ तथा गन्धर्वराजकन्याएं ) राजाके सन्ध्या समयके बहुतसे ( सन्ध्यावन्दनादि ) कार्योको जानकर वहांसे चली गयीं। [ सन्ध्याकालमें कमल सङ्कुचित होता है, यहाँसे बाहर जाने के लिए शुकके कहनेपर मुझे बाहर जाने के लिए कहा जा रहा है अत एव उनको अपना मुख सङ्कुचित करनेपर कमलत्वके कारण सायंकालमें उनके मुखको सङ्कुचित होनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है / अथवा-यह शुक हम लोगोंको बाहर जानेको कह रहा है, इसी वास्ते हमलोग यहाँसे जा रही हैं, इस प्रकार मिथ्या (व्याजपूर्वक) वे सखियाँ बाहर चली गयीं, किन्तु वास्तविकमें तो 'सम्भोगेच्छुक भी राजा नल सायङ्कालके सन्ध्यावन्दनादि कार्योको छोड़कर रमण नहीं करेंगे और न दमयन्ती ही सम्भोग करेगी' इस प्रकार नलके बहुत कार्यको ध्यानमें रखकर ही वे वहाँसे बाहर गयीं, उस समय दमयन्ती भी कुछ क्रुद्ध होकर अर्द्धदृष्टिसे उन्हें देखी / कुछ व्यक्तिका अर्द्धदृष्टि से देखना * वभाव होता है ] // 127 // अकृत परभृतः स्तुहि स्तुहीति श्रुतवचनस्रगनूक्तिचुचुचञ्चुम् / पठितनलनुतिं प्रतीव कीरं तमिव नृपं प्रति जातनेत्ररागः / / 128 / / अकृतेति / परभृतः कोकिलः, सख्या आनीत इति भावः। नृपं राजानम, तं नलम्, प्रति उद्दिश्य, जातः उत्पन्नः, नेत्रयोः नयनयोः, रागः रक्तवर्णता अनुरागश्च यस्य सः तादृशः सन् इव तस्य परमसुन्दराकारत्वादिति भावः / 'रागोऽनुरागे मात्सर्य क्लेशादौ लोहितादिषु' इति विश्वः / अत एव नृपस्तुतौकीरस्य प्रवर्तनमिति बोद्धव्यम् / श्रुतानाम् आकर्णितानाम्, वचनस्रजां वाक्यमालिकानाम्, अन्यमुखात् श्रुतवाक्यपरम्पराणामित्यर्थः / अनूक्तया अनुवचनेन, वित्ते विख्याते इति तादृश्यो 'तेन वित्तश्चञ्चपचणपौ'। चञ्च नोटिद्वयं यस्य तं तादृशम, एतेन नलस्तुतौ कीरस्य सामर्थ्यमस्तीति सूचितम् / तथा पठिता अधीता, उच्चरिता इत्यर्थः। नलस्य नैषधस्य, नुतिः स्तुतिः येन तं तादृशम्, कीरं शुकम्, प्रति लक्ष्यीकृत्य इव, स्तुहि स्तुहि स्तवं कुरु स्तवं कुरु, इति एवं ध्वनिम्, अकृत कृतवान् , पिको हि राजनि अनुरागाधिक्यात् नलस्तुतिविषये विरतं शुकं स्तुहि इति सहजरवम् उच्चार्य प्रोत्साहितवानिवेति भावः // 128 // ___ राजा ( नल ) के प्रति स्नेहयुक्त-सा ( अथच-स्वभावतः रक्तवर्ण नेत्रवाला ( 21 / 109) में वर्णित सखीके द्वारा लाया गया ) पिकने सुने गये (गन्धर्व-राजकन्याओंके वीणास्वरगत ) वचनको अनुवाद करने (दुहराने ) से युक्त चोचवाले ( उक्त वचनको दुहराकर कहते हुए तथा नलकी स्तुतिको पढ़े हुए ) उस तोतेसे 'स्तुहि, स्तुहि' (इस नल राजाकी और भी स्तुति करो, स्तुति करो मानो ) ऐसा कहा। [पाठा०-गन्धर्वराज कन्याओंके वीणा-स्वरूप वचनको अनुवाद करने ( पुनः कहने ) वाले पिकको मानकर उसे भी तोतेके
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________________ एकविशः सर्गः। 1473 कहनेके बाद उक्त वचनको पुनः कहनेवाला जानना चाहिये / पिकके नेत्रको स्वभावतः रक्तवर्ण होने पर भी यहां राजाके प्रति अनुराग होनेकी श्लेषद्वारा उत्प्रेक्षा की गयी है ] // तुङ्गप्रासादवासादथ भृशकृशतामायती केलिकुल्यामद्राक्षोदकबिम्बप्रतिकृतिमणिना भीमजा राजमानाम् / वक्रं वकं ब्रजन्तीं फणियुवतिरिति त्रस्नुभिर्व्यक्तमुक्तान्योऽन्यं विद्रुत्य तीरे रथपदमिथुनैः सूचितामार्तिरुत्या // 129 / / तुङ्गेति / अथ कोकिलवचनानन्तरम् , भीमजा दमयन्ती, तुङ्गे अस्युनते, प्रासादे सौधे, वासात् अवस्थितेः हेतोः, भृशम् अत्यर्थम् , कृशतां क्षीणताम् , आयर्ती गच्छन्तीम् , विस्तृतत्वेऽपि प्रासादस्य अत्युचततया दमयन्तीशि अतिकृशस्वेन प्रतीयमानामित्यर्थः / दृश्यते हि सुदूरात् स्थूलमपि द्रव्यं कृशस्वेन लोके, अत्र प्रासा. दस्य तुङ्गतैव कुल्याया दूरत्वे हेतुर्बोद्धव्यः / तथा अर्कबिम्बस्य सूर्यमण्डलस्य, अस्तो. न्मुखत्वात् आरक्तस्येति भावः / प्रतिकृतिरेव प्रतिबिम्बमेव, तजलपतितेति भावः / मणिः बृहदाकारपद्मरागरत्नमित्यर्थः, तेन, राजमानां शोभमानाम, वक्र वक्रं कुटिलं कुटिलं यथा तथा, वजन्तीं गच्छन्तीम् , प्रवहन्तीमित्यर्थः। अत एव फणियुवतिः काचित् सर्पस्त्री इयम् , इति एवं विविच्य, त्रस्नुभिः भीरुमिः, रथपदानां चक्रना. म्नाम, मिथुनैः द्वन्द्वैः। कतभिः / व्यक्तं स्फुटमेव, मुक्तं त्यक्तम्, अन्योऽन्यं परस्परं यस्मिन् तत् यथा भवति तथा, तीरे कूलभागे, कुल्याया एव एकैकस्मिन् तीरे इत्यर्थः / विद्वत्य पलाय्य, आर्तिरुत्या दुःखस्वनेन साधनेन, निशागमनात् भावविर. हचिन्तया कातरस्वरेणेति भावः / सूचितां ज्ञापिताम् , ईषदन्धकारागमेन स्पष्ट न रश्यमानामपि चक्रवाकशब्दैः विदितामित्यर्थः / केलि कुल्यां क्रोडाथ कृत्रिमसरितम् / 'कुल्याऽरूपा कृत्रिमा सरित्' इत्यमरः / अद्राक्षीत् ऐतिष्ट // 129 // इसके बाद दमयन्तीने ऊँचे प्रासादपर रहने (बैठकर देखने ) से अत्यन्त पतली ज्ञात होती हुई, ( सायङ्काल में अस्तोन्मुख होने वाले अरुणवर्ण) सूर्यबिम्बके प्रतिकृति ( जलमें पड़तो हुई परछाही ) रूर मणिसे अरुणवर्ण होती हुई, टेढ़ी-टेढ़ी जाती ( बहती) हुई तथा गह सपिणो है' यह जानकर डरते हुए चक्रवाकमिथुनों (चकवा-चकहयोंकी जोड़ियों) से परस्पर-सानिध्यको छोड़कर तारपर भागकर ( सायङ्काल होनेसे आसन्न ) विरहजन्य रोदनसे सूचित क्रीडानदी (क्रीडार्थ छोटी नहर ) को देखा / [ दमयन्तीने उस क्रीडार्थ नहरको देखा, जो दमयन्तीके ऊँचे प्रासादसे दूरस्थ होने के कारण बहुत पतली मालूम पड़ती थी, जिसमें अरुण सूर्यबिम्ब प्रतिबिम्बित होकर उसे मी रक्तवर्ण कर रहा था, जो धोरे-धीरे बहती थी और जो अन्धकार होनेसे स्पष्ट नहीं देखे जानेपर भी भावी विरहके दुःखसे रोते ( बोलते ) हुए चकवा-चकईके शब्दसे यह नदो है ऐसा मालूम पड़ती थी और वह सर्पिणीके समान थी, क्योंकि सर्पिणी भी पतली मस्तकस्थ नागमणि रज्यमान,
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________________ 1474 नैषधमहाकाव्यम् / टेढ़ा चलनेवाली होती है और उसे देखकर डरसे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि परस्पर सन्निधिभावको छोड़ कर ( दूर हटकर ) 'यह सर्पिणी है' ऐसा रो-रोकर चिल्लाते हैं, उससे दूसरे लोग 'यह मर्पिणी है। ऐसा मालूम करते हैं ] // 129 // अथ रथ चरणो विलोक्य रक्तावतिविरहासहताऽऽहताविवानः / अपि नमत पद्मसुप्तिकालं श्वसनविकीर्णसरोजसौरभ सा / / 130 / / ____ अथेति / अथ क्रीडासरिदर्शनानन्तरम, सा दमयन्ती, रथचरणौ चक्रवाकयुगलौ, अतिविरहस्य समस्तरजनीव्यापितया दीर्घवियोगस्य, असहतया अक्षमतया, आहतो प्राप्ताघातौ, कामशरविद्धतया कानरौ इत्यर्थः / द्विधा भूती इत्यर्थश्च / अत एव अनैरिव रुधिरै रिव, रक्तौ रक्तवर्णी, अनुरक्तौ च, विलोक्य दृष्ट्वा, तम् आसन्नम् , पद्मानां कमलानाम, सुप्तिकालमपि सङ्कोचसमयमपि, सायंसमयमपीत्यर्थः / श्वसनेन चक्रवाकदुःखदर्शनेन स्वस्या अपि दुःखमूचकदीर्घनिःश्वासेन, विकीर्ण विक्षिप्तम् , सरोजसौरभं पद्मसौगन्ध्यं यस्मिन् तं तादृशम् , अकृत कृतवती, तदा सन्ध्यासमये पद्मसङ्कोचात् तत्सौरभासम्भवेऽपि स्वस्याः पद्मिनीजातीयत्वात् , पद्मिन्याश्च पद्म सुगन्धिश्वासवायुत्वात् निःश्वासमोचनेन पद्मसौगन्ध्यं विस्तारयति स्म इति भावः॥ ___ इस ( क्रोडा नदीको देखने ) के बाद उस ( दमयन्ती ) ने ( रातमें होनेवाले ) विर हकी असह्यतासे आहत हुए ( अत एव ) रुधिरोंसे मानो रक्तवर्ण ( पक्षा०-अनुराग युक्त, यास्वभावतः रक्तवर्ण ) चकवा तथा चकईको देखकर उस कमलों के सोने ( मुकुलित होने ) के समय अर्थात् सन्ध्याकालको ( चकवा-चकईके विरह दर्शनजन्य दुःखके कारण उत्पन्न) श्वास फेंकनेसे कमलकी सुगन्धिसे युक्त कर दिया। [ चकवा-चकई के विरहसे करुणाई दमयन्ती भी जब श्वास छोड़ने लगी, तब मालूम पड़ता था कि यह कमलके मुकुलित होनेसे सायङ्कालका कमल सौरमहीन जानकर स्वयं पद्मिनीजातीया स्त्री होनेसे कमलतुल्य सौरमको छोड़कर उस सायङ्कालको कमल-सौरभसे युक्त कर रही है / विरही नकवाचकइके दुःखसे सहृदया दमयन्तीका करुणार्द्र होना उचित ही था ] / / 130 / / अभिलपति पतिं प्रति स्म भैमी सदय ! विलोकय कोकयोरवस्थाम् / मम हृदयमिमौ च भिन्दती हा ! का इव विलोक्य नरो न रोदितीमाम् // ___ अभिलपतीति / भैमी दमयन्ती, पति नलम , प्रति उद्दिश्य, अभिलपति स्म उवाच, किमित्याह-सदय ! हे दयालो ! कोकयोः चक्रवाकयोः, अवस्थां दुर्दशाम् , वियोगजनितकार्यमिति यावत् / विलोकय पश्य, मम मे, हृदयं वक्षःस्थलम् , इमौ वियोगिनी कोको च, भिन्दती विदारयन्ती वियोजयन्तीञ्च, अनयोः कातरतादर्शन. जनितशोकात् , वियोगदःखदानाच्चेति भावः / इमां वियोगावस्थाम् , विलोक्य दृष्ट्वा, हा ! खेदे, कः इव नरः को वा जनः, न रोदिति ? न कन्दति ? अपि तु सर्व
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________________ एकविंशः सर्गः। 1475 एव जनः रोदनं करोत्येवेत्यर्थः / सदयत्वात् तवापि रोदनसम्भव इति मन्ये इति भावः // 13 // दमयन्तीने पति (नल) से कहा-'हे दयालो ! चकवा-चकईकी अवस्था देखिये, इन दोनों को अलग करती हुई तथा (इनके दुःखसे ) मेरे हृदगको मी विदीर्ण करती हुई इस अवस्थाको देखकर मला कौन मनुष्य नहीं रोता है [ अत एव सहृदयतम होनेसे आप रो देंगे, इसमें क्या आश्चर्य है ? अथवा-......"आपको भी रो देना सम्भव है, ऐसा मैं समझती हूँ॥ 131 // कुमुदमुदमुदेष्यतीमसोढा रविरविलम्बितुकामतामतानीत् / प्रतितरु विरुवन्ति किं शकुन्ताः स्वहृदि निवेशितकोककाकुकुन्ताः ? / / कुमदेति / रविः भानुः, उदेष्यतीम् आविर्भविष्यन्तीम् , कुमुदानां कैरवाणाम् , मुदं चन्द्रोदयात् विकाशरूपं हर्षम् , असोढा असहिष्णुरिव सन् , तेषामुत्फुल्लभावं द्रष्टुमक्षमः सन्नित्यर्थः / सहेः तृनि 'हो ढः' इति हस्य ढस्खे 'झषस्तथो?ऽधः' इति तस्य धरवे, 'ष्टुना ष्टुः' इति धस्य ढस्वे, 'ढो ढे लोपः' इति प्रथमढलोपे 'सहिवहो. रोदवर्णस्य' इति ओत्वम् / अविलम्बितुं त्वरा कर्त्तम् , शीघ्रमस्तं यातुमित्यर्थः / कामः अभिलाषः यस्य तस्य भावः तत्ता ताम् , अतानीत् विस्तारयामास, कृतवान् इत्यर्थः / दृश्यते च लोके, परोस्कर्षमसहमानाः स्वेतरेषामानन्ददर्शनात् तत्स्थानात् शीघ्रमेव प्रतिष्ठन्ते इति / तथा प्रतितरु तरुं तरं प्रति, प्रत्येकवृक्षोपरि उपविष्टा इत्यर्थः / याथाथ्यंऽव्ययीभावः / शकुन्ताः पक्षिणः, स्वहृदि निजनिजवक्षसि, निवेशितः अर्पितः, दवेन निखात इत्यर्थः, कोकानां चक्रवाकाणाम् , काकुः वियोगजात स्वरः एषः, कुन्तः प्रासाख्यास्त्रविशेषः येषां तादृशाः सन्तः / 'प्रासस्तु कुन्तः' इत्यमरः / विरुवन्ति शब्दायन्ते, किम् ? वितर्के किंशब्दः // 132 // ___कुमुदों के भावी हर्षको नहीं सहन करते हुएके समान सूर्य शीघ्र गमन करनेका इच्छुक हो रहा है अर्थात् शीघ्र अस्त होना चाहता है और चकवा-चकईके (विरहार्तिजन्य ) दीन वचनरूपी भालेको अपने हृदयमें रखे हुएके समान पक्षिगण प्रत्येक वृक्षपर विशेष रूपसे ( अधिक ) रो रहे हैं क्या ? [ लोकमें भी प्रतिपक्षीके भावी हर्षको नहीं देख सकनेवाला व्यक्ति वहाँसे पहले ही चला जाता है तथा भाले के हृदयमें प्रविष्ट होनेपर अधिक रोता भी है ] 132 / / अपि विरहमनिष्टमाचरन्तावधिगमपूर्वकपूर्वसर्वचेष्टौ / इदमहह ! निदर्शनं विहङ्गौ विधिवशचेतनचेष्टितानुमाने / / 133 / / अपीति / हे नाथ ! अधिगमः ज्ञानम् , वियोगक्लेशानुभव इत्यर्थः / पूर्वम् आदौ यासां तास्तादृश्यः, पूर्वसर्वचेष्टाः स्वयमेवानुष्ठितसकलविरहव्यापाराः ययोस्तो तादृशौ, अपि प्रागनुभूतविरहदुःखावपीत्यर्थः / अनिष्टम् अमभिमतम् , विरह
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________________ 1476 नैषधमहाकाव्यम् / वियोगम् , आचरन्ती अनुतिष्ठन्ती, विधातृनियमेन दीर्घकालं पालयन्तौ इत्यर्थः / विहङ्गौ चक्रवाकपक्षिणी, विधिवशं देवाधीनम् , चेतनानां प्राणिनाम् , चेष्टितम् आचरणम् , इत्येवंरूपे, अनुमाने कार्यात् कारणविशेषज्ञाने विषये, प्राक्तनकर्मवशा. देव अनभिमतेऽपि विषये प्राणिनां प्रवृत्तिदर्शनादिति भावः / इदम् एतदेव, निदर्शनं दृष्टान्तः, अहह इति खेदे अद्भुते वा; तथा हि-सर्वे एव प्राणिनः दैवाधीनतयैव हित. महितं वा सर्व कार्यम् इच्छया वा अनिच्छया वा कत्त' प्रेरिता भवन्ति, ततश्च विर. हस्य अनिष्टत्वं जानन्तावपि चक्रवाकयुगलौ स्वयमेव तमाचरत इति तावेवात्र निद. निमिति निष्कर्षः // 133 // ज्ञानपूर्वक पहली समस्त चेष्टा करनेवाले भी ( इस समय भाग्यवश ) अनिष्ट विरहको भी करते हुए दोनों (चकवा-चकई ) पक्षी भाग्याधीन प्राणिचेष्टाओंके घटित होने के अनुमानमें उदाहरण हैं / [ कोई भी ज्ञानयुक्त प्राणी अपने अहित में प्रवृत्त नहीं होता, किन्तु इन दोनों चकवा चकइको अपने अहितकारक विरहमें प्रवृत्त होते हुए देखकर यह अनुमान होता है कि प्राणी भाग्येच्छानुसार ही समस्त चेष्टाओंको करता है, स्वेच्छासे कुछ भी वह नहीं कर सकता ] // 133 // अङ्घ्रिस्थारुणिमेष्टकाविसरणैः शोणे कृपाणः स्फुटं कालोऽयं विधिना रथाङ्गमिथुनं विच्छेत्तमन्विच्छता / रश्मिग्राहिगरुत्मदग्रजसमारब्धाविरामभ्रमौ दण्डभ्राजिनि भानुशाणनलये संसज्य किं तिज्यते ? / / 134 / / अङ्घीति / हे प्रियतम! रथाङ्गयोः चक्रवाकयोः, मिथुनं द्वन्द्वम् , विच्छेत्त वियोक्तुम , विशेषेण विदारयितुञ्च, अन्विच्छता अभिलषता, विधिना ब्रह्मणा अयम् एषः कालः सायंसमयः, तत्स्वरूप इत्यर्थः, कृष्णवर्णश्च, 'कालो मृत्यौ महाकाले समये यमकृष्णयोः' इति विश्वः / कृपाणः खगः, अधिः किरणः पादश्च, तत्र तिष्ठ. न्तीति अघ्रिस्थाः, ये अरुणिमानः रक्तिमानः, तान्येव इष्टकाविसरणानि इष्टका. चूर्णनिक्षेपाः, तैः शोणे रक्तवर्णे, रश्मिप्राहिणा अश्वरज्जुधारिणा, शाणयन्त्ररज्जुधा. रिणा च, गरुत्मदग्रजेन गरुडज्येष्ठेन अरुणेन, केनचित् शाणिकन च, समारब्धा प्रक्रान्ता, अविरामा अविच्छिन्ना, भ्रमिः भ्रामणं यस्य तस्मिन् , तथा दण्डेन चण्डां. शोः भानोः पारिपाश्विकेन, शाणस्थेन वत्त लेन काष्ठेन च / 'दण्डो यमे मानभेदे लगुडे दमसैन्ययोः / व्यूहभेदे प्रकाण्डेऽश्वे कोणमन्थानयोरपि // अभिमाने ग्रहे दण्ड. श्वण्डांशोः पारिपाश्विके // ' इति विश्वः / भ्राजिनि शोभमाने, भानौ सूर्ये एव, शाण. वलये शस्त्रोत्तेजनयन्त्रमण्डले, गोलाकारत्वसाधादिति भावः। संसज्य आरोग्य, स्फुटं स्पष्टं यथा भवति तथा, तिज्यते तीक्ष्णीक्रियते, किम् ? तिज निशाने
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________________ एकविंशः सर्गः। 1477 क्षमायाञ्च इत्यस्मात् भौवादिकात् 'कर्मणि यकि रूपम् / 'निज्यते'' इति पाठेपरिष्क्रियते, उज्ज्वलीक्रियते इत्यर्थः / 'णिजिर' शौचे' इत्यस्य रूपम् / शाणिका हि शाणचक्रे इष्टकाचूर्ण दत्वा दत्त्वा कृपाणादिकमुत्तेजयन्ति इति लोके दृश्यते // 134 // चक्रवाक-मिथुन ( चकवा-चकईकी जोड़ी ) को पृथक् ( पक्षा०-विदीर्ण) करनेकी इच्छा करनेवाला ब्रह्मा ( या-दैव ) काल ( सायं = सन्ध्यासमय, पक्षा०-काल = श्यामवर्ण, अथ च-घातक ह'नेसे कालरूप ) कृपाणको, किरणस्थ ( पक्षा०-चरणद्वयसे दबाये गये ) रक्तवर्ण ईंट के धूलिकणोंसे लाल, रश्मि ( सूर्यरथ के घोड़ोंकी रास, पक्षा०-शाण खीचने. वाली रस्सी ) को पकड़े हुए 'अरुण' ( नामक सूर्यसारथि ) से घुमाये जाते हुए और दण्ड ( सूर्यके पारिपाश्विक-विशेष, पक्षा०-शाणकी रस्सी जिसमें बाँधी गयी है, उस डण्डे = लम्बे मोटे काष्ठ-विशेष ) से युक्त सूर्यरूपी शाणचक्रपर रखकर तीक्ष्ण करता है क्या ? / [ लोकमें भी किसी पदार्थको चीरने या काटने के लिए लौहमय होनेसे श्यामवर्ण तलवारको, पैरोंसे दबायी गयी ईटके धूलिकणसे लाल, रस्सी पकड़कर किसी व्यक्तिसे खींचे जाते हुए मोटे काष्ठयुक्त शाणपर रखकर तेन किया जाता है / नलसे कहे गये दमयन्तीके इन ( 21131-134 ) वचनोंसे कलिप्रयासकृत मावी विरहका आभास होना सूचित होता है। इति स विधुमुखीमुखेन मुग्धालपितसुधासवमपितं निपीय / स्मितशबलवलन्मुखोऽवदत् तां स्फुटमिदमीहशमीदृशं यथाऽत्थ / / ___ इतीति / सः नलः, इति अनेन प्रकारेण, विधुमुख्याः चन्द्राननायाः, दमयन्त्याः , मुखेन वदनेन, अर्पितं दत्तम, मुग्धं सुन्दरम् , आलपितमेव भाषितमेव, सुधासवं पीयूषवत् स्वादु मद्यम् , निपीय आस्वाद्य, स्मितेन ईषद्धास्येन, शबलं चित्रम् , रजितमित्यर्थः / वलत् चलच्च, भैमी प्रतिवक्तुमुपक्रमादिति भावः / मुखं वदनं यस्य सः तादृशः सन् , तां दमयन्तीम् , अवदत् अवोचत् / अन्येऽपि कामिनः यथा कामिनीमुखार्पितासवं सादरं पिबन्ति, ततः वलितमुखाः सहासं किश्चित् वदन्ति च तद्वदिति भावः / किमित्याह-हे प्रिये ! यथा यादृशम् , यदित्यर्थः / आस्थ क्षे, स्वमिति शेषः, इदम् एतत् , ईदृशम् ईदृशम् एवम्भूतमेवम्भूतम्, स्फुटं व्यक्तमेव, सत्यमेवत्यर्थः // 135 // चन्द्रमुखो (दमयन्ती ) के मुखसे समर्पित मनोहर भाषणरूप अमृतवत मधुर मद्यको अच्छी तरह पीकर (सुनकर ) स्मितसे युक्त मुखको दमयन्तीकी ओर किये हुए अर्थात् दमयन्तीकी ओर मुखकर मुस्कुराते हुए नल दमयन्तीसे बोले-'जैसा तुम कहती हो' यह ऐसा ही है / [ लोकमें भी कामी लोग प्रियाके उच्छिष्ट मद्यको पीकर नशे में प्रियाकी ओर मुखकर परिहास करते हैं ] // 135 // 1. अनेन व्याख्यानेन 'निज्यते' इति पाठं स्वीकृत्य 'नकारे तकारभ्रान्त्यैव 'तिज्यते' इति पठन्ति, तदसत्' इत्येवं 'प्रकाश' कृदुक्तिरेवासतीति बोध्यम् /
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________________ 1478 नैषधमहाकाव्यम् / स्त्रीपुंसौ प्रविभज्य जेतुमखिलावालोचितौचित्ययोनम्रां वेद्मि रतिप्रसूनशरयोश्चापद्वयीं त्वद्ध्वौ / त्वन्नासाच्छलनिगुतां द्विनलिकी नालीकमुक्तयेषिणो. स्त्वन्निःश्वासलते मधुश्वसनजं वायव्यमस्त्रं तयोः / / 136 / / स्त्रीपुंसाविति / हे प्रिये ! स्वध्रवौ तव भ्र युगलम्, कुटिलाविति शेषः / अखिलौ समस्ती, स्त्रीपुंसौ नारीनरौ, प्रविभज्य विभागीकृत्य, रतेरंशे स्त्रियः कामांशे च पुमांस इत्येवं विभागं कृत्वेत्यर्थः / जेतुं वशीकतम् , आलोचितं मनसा विवेचितम् , औ. चित्यं युक्तियुक्तता याभ्यां तादृशयोः, रतिप्रसूनशरयोः कामप्रियाकामयोः नम्रां लक्ष्यं लक्षीकृत्य आकर्षणेन वक्रीभूतामित्यर्थः / चापद्वयीं कामुकयुगलम् , उभयोरेव वक्रत्वेन साम्यादिति भावः, वेनि जानामि / नालीकमुक्तयेषिणोः नालीकानां ('पिस्तौल' इत्याख्यया प्रसिद्धानाम् ) अस्त्रविशेषाणाम् , नालोकानां गुलिकाविशे. षागामित्यर्थो वा, मुक्ति मोक्षणम्, निक्षेपमित्यर्थः / इच्छतोः अभिलषतोः, तयोः रतिमदनयोः, स्वन्नासाच्छलेन तव नासिकाद्वयव्याजेन, निह्नतां गोपिताम् , द्वयोः नलिकयोः समाहारः इति तां द्विनलिकी नलद्वयविशिष्टगुलिका क्षेपकलौहमयास्त्र. विशेषमित्यर्थः / (दोनली पिस्तौल) वेद्मि इति पूर्वेणान्वयः / उभयोरेव तुल्यदर्शन. स्वादिति भावः / तथा तव भवत्याः, निःश्वासौ एव लते निश्वासवायुप्रवाहद्वयमि. त्यर्थः / तयोः रतिस्मरयोः, मधुश्वसन वसन्तकालिकमलयजातम् , वायव्यं वायु. देवताकम, अस्त्रम् आयुधम्, वायुवाविशेषादिति भावः, वेभि इति पूर्वेणान्वयः / अहमिति शेषः / स्मरोद्दीपने स्वमतीव निपुणेति तात्पर्यम् // 136 // (हे प्रिये दमयन्ति ! ) सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंका विभागकर जीतने के लिए औचित्यको विचारे ( समस्त स्त्रियोंको रति तथा समस्त पुरुषों को कामदेव जीते ऐसा उचित समझे ) हुए रति तथा कामदेवके तुम्हारे टेढ़े भ्रदय को ( रति-कामदेवके बाण छोड़ने के लिए आकर्ण खींचनेसे ) नम्र दो धनुष जानता हूँ, तथा नालीक अस्त्रको छोड़ने की इच्छा करने वाले उन दोनों के तुम्हारी नाकके व्याज ( कपट ) से गुप्त दो नालियोंसे युक्त अस्त्र-विशेष ( दो नली पिस्तौल ) जानता हूँ और तुम्हारे निःश्वासरूपी लताद्वयको उन दोनों ( रति तथा कामदेव ) का वसन्त-श्वासोत्पन्न वायव्य ( वायु-देवता-सम्बन्धी ) अस्त्र जानता हूँ। [ तुम्हारे भूदय, नासिका तथा निःश्वासके द्वारा शीघ्र कामोद्दीपन होनेसे तुम्ही कामोद्दीपनमें सबसे निपुण हो ] // 136 // पोतो वर्णगुणस्तवातिमधुरः कायेऽपि सोऽयं यथा यं बिभ्रत् कनकं सुवर्णमिति कैराहत्य नोत्कीर्त्यते ? | का वर्णान्तरवर्णना धवलिमा राजैव रूपेषु यस्तद्योगादपि यावदेति रजतं दुर्वर्णतादुर्यशः // 137 //
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________________ एकविंशः सर्गः। 1476 पीतो वर्णेति / हे प्रिये ! सः प्रसिद्धः, अयम् एषः, पीतः गौरो नाम, वर्णगुणः वर्णस्वरूपः, अतिमधुरः अतिरमणीयः, यथा येन हेतुना, यं पीतवर्णम् , बिभ्रत् धार• यत् , कनकं हिरण्यम् , कैः जनः, सुवर्ण शोभन: वर्णः यस्य तत् तादृशम् , इति एवंरूपेण, आहत्य आग्रहेणोल्लिख्य, न उत्कीर्त्यते ? न उच्चैः प्रशस्यते ? अपि तु सर्वेरेव उत्कीय॑ते इत्यर्थः / तथा तव भवत्याः, काये शरीरे अपि, अस्ति इति शेषः, अत एव अतिमधुर इति मन्ये इति भावः। वर्णान्तराणां पीतशुक्लव्यतिरिक्तानां नीलादीनां वर्णानाम् , वर्णना प्रसङ्गः, का ? कीदृशी ? दूरे आस्तामिति भावः। यः धवलिमा शुक्लत्वम्, शुभ्रवणं इत्यर्थः / रूपेषु वर्णेषु, राजा एव उत्कृष्ट एव, अमिश्रव. र्णत्वात् वणषु प्रथमोचरितस्वाच्चेति भावः। तस्य धवलिग्नः, योगात् सम्बन्धात् अपि, शुभ्रवर्णधारणादपीत्यर्थः / रजतं रौप्यम , कत / यावत् साकल्येन, दुर्वर्णतादुर्यशः दुष्टः निन्दितः, वर्णः रूपं यस्य तस्य भावः तत्ता, तस्याः दुर्यशः अकीर्तिम् , अपकृ. टवर्णतालक्षणनिन्दामित्यर्थः / दुवर्णम् इति नामधेयं च / कर्म / 'दुर्वर्ण रजतं रूप्यम्' इत्यमरः / एति प्राप्नोति / तथा हि, स्वर्णस्य पीतत्वादेव लोकाः तं सुवर्णमिति वदन्ति, यतः असौ हि पोतो वर्णः तव देहे विद्यते, ततश्च पीतो वर्णः वर्णेषु मुख्यः एव, नीलरक्तादयश्च हीनाः, यस्तु शुभ्रो वर्णः वर्णेषु प्रथमः कीर्यते तद्योगा. दपि रजतं दुर्वर्णमिति निन्दामाप्नोति, अतः शुभ्रवर्णोऽपि पीतात् हीन एव इतिः निष्कर्षः // 137 // (वैशेषिकोंके द्वारा गुणपदार्थसे निर्दिष्ट ) जो पीला वर्ण है, वही अत्यन्त रमणीय है, क्योंकि वह तुम्हारे शरीर में भी है ( अथवा-जिस कारण यह पीला वर्ण तुम्हारे शरीर में है, अत एव अत्यन्त रमणीय है / अथवा-वैशेषिकोंके द्वारा गुणपदार्थ के निर्देश करने में सर्वप्रथम मुख्यतया निर्दिष्ट तथा वर्णान्तरसे अमिश्रित होनेसे अप्रधान भी पोला वर्ण हो अतिशय रमणीय है ) क्योंकि वह तुम्हारे शरीरमें है ( बहुत विशिष्ट के द्वारा गृहीत साधारण भी उत्तम हो जाता है, अतः नारीरत्न तुमसे गृहीत होने के कारण ही अप्रधान भी पीले वर्णका प्रधान होना उचित ही है। ) अथवा-गुण पीला वर्ण ही है और अत्यन्त रमणीय है (दूसरे सब वर्ण तो दोष तथा असुन्दर हैं ), क्योंकि वह पीला वर्ण तुम्हारे शरीर में है। अथवा-तुम्हारे शरीर में स्थित अतिमधुर ( स्वादुतम रस) को मैंने पीया (अधरचुम्बनादि करते समय आस्वादन किया, अथच-पीतवर्णको सादर देखा, इत्यादि प्रकारसे पीले वर्णकी शब्दच्छलसे स्तुतिकर पुनः प्रकारान्तरसे उसीका समर्थन करते हैं-), जिस ( तुम्हारे शरीर. में स्थित ) पीतवर्णको धारण करते हुए चम्पक-पुष्प (अथवा-सोना) को सुवणे (सुन्दर वर्णवाला, पक्षा-सोना) कौन मनुष्य आदरपूर्वक नहीं कहते हैं ? अर्थात् सभी लोक.. चम्पक तथा सोनेको सुवर्ण कहते हैं / अथवा-(नीला, लाल आदि ) दूसरे वर्णो के वर्णन करनेको क्या बात है ? ( श्वेत, नीला, पीला, हरा, कपिश और चित्ररूप छः) रूपोंमें जो श्वेत राजा (प्रधान) है, उनके भी संसर्गसे समस्त रजत (चाँदी धातु) दुर्वर्णत्व (दुष्ट).
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________________ 1480 नैषधमहाकाव्यम्। वर्णवालेका भाव ) रूपी आशय (निन्दा) को पाता ( अथच दुर्वर्ण-दुष्ट वर्णवाला कहलाना) है / [ अत एव तुम्हारे शरीरमें वर्तमान होनेसे पीला (हरिद्राके तुल्य गौर ) वर्ण ही सर्वोत्तम एवं रमणीयतम है, क्योंकि उसका संसर्ग करने वाले चम्पा ( या-सोने ) का आदर के साथ सब लोग सुवर्ण ( सुन्दर वर्णवाला, तथा 'सुवर्ण' नामवाला) कहते हैं और वर्गों के राजा श्वेत वर्णके संसर्गसे चाँदीको लोग दुर्वर्ण (बुरे वर्णवाला, अथच-'दुर्वर्ण' नामवाला) कहते हैं, इस वास्ते श्वेत भी तुम्हारी समानता नहीं कर पाता दूसरे वर्गों की चर्चा ही व्यर्थ है ] // 137 // खण्डक्षोदमृदि स्थले मधुपयःकादम्बिनीतर्पणात् कृष्टे रोहति दोहदेन पयसा पिण्डेन चेत् पुण्ड्रकः / स द्राक्षाद्रवसेचनैर्यदि फलं धत्ते तदा त्वदिगरा मुद्देशाय ततोऽप्युदेति मधुराधारस्तमप्प्रत्ययः / / 138 // खण्डेति / हे प्रिये ! मधूनि क्षौद्राणि एव, पयांसि जलानि यस्याः तादृश्याः, . कादम्बिन्याः मेघमालिकायाः, 'कादम्बिनी मेघमाला' इत्यमरः। तर्पणात् आप्यायनात् , तादृशवारिवर्षणेन अभिषिञ्चनादनन्तरमित्यर्थः। कृष्टे हलचाल नेन पुनरपि कृतकर्षणे, वर्षणानन्तरं कृषीवलाः पुनरपि क्षेत्रं कर्षन्तीति लोकदर्शनादिति भावः / खण्डस्य शर्कराविशेषस्य, क्षोदः चूर्णमेव, मृत् मृत्तिका यत्र ताशे, स्थले शस्यक्षेत्रे, पिण्डेन पाकविशेषात् पिण्डीभूतेन, घनीभूतेनेत्यर्थः, पयसा क्षीरेण एव, ‘पयसाम्' इति पाठे-पयसां पिण्डे नेत्यन्वयः। दोहदेन वृक्षादिवृद्धिकरण वस्तुना साधनेन, पुण्डूकः इविशेषः / 'रसाल इस्तद्भेदाः पुण्ड्रकान्तारकादयः' इत्यमरः। रोहति प्रभवति, चेत् यदि, सः पुण्डूकः, द्राक्षाद्रवसेचनः मृद्वीकारससेकः, यदि चेत् , फलं शस्यम् , धत्ते धारयति, तदा तर्हि, ततोऽपि तादृशेतुफलादपि, त्वद्गिरां भवद्वच. नानाम् , उद्देशाय उस्कर्षनिर्देशाय, मधुरः मधुर इति शब्दः, आधारः आश्रयः, प्रकृतिरित्यर्थः / यस्य स तादृशः, तमपप्रत्ययः मधुरतम इत्यर्थः / उदेति उत्पद्यते / सम्भाव्यमानताहशेक्षुफलादपि मधुरतमा तव वाणी इति भावः // 138 // (अब नव श्लोकों ( 21 / 138-145 ) से नल दमयन्तीके वचनमाधुर्यका वर्णन करते हैं-हे प्रिये ! ) अमृत ( या-सहद ) रूपी जलवाले मेघ-समूहसे सींचने के कारण दुबारा जोते ( दोखारे ) गये, चीनी ( शकरका चूर्ण ) रूपी मिट्टीवाले खेतमें दूधके पिण्ड ( खाये ) के खादसे पौढ़ा ( उत्तमजातीय मोटा ) गन्ना अङ्कुरित हो तथा बादमें दाखके रसोंसे बारबार सींचनेपर यदि फलको धारण करे अर्थात् फले तो तुम्हारे वचनों के उद्देश्य ( समानता) के लिए उसके 'मधुर' शब्दसे 'तम' प्रत्यय हो अर्थात् वैसे गन्नेके फलसे तुम्हारा वचन मधुरतम ( अतिशय मधुर ) कहलावे [ अन्यथा सामान्य मधुर पदार्थोकी अपेक्षा तुम्हारे वचनको मधुरतम कहना अतिशय भेद होनेसे असङ्गत है, अत एव उक्तरूप
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________________ एकविंशः सर्गः 1481 गन्नेको उत्पन्न होना और उसमें भी फल लगना सर्वथा असम्भव होनेसे तुम्हारा वचन निःसीम मधुर है, यही कहना पड़ेगा ] // 138 / / उन्मीलद्गुडपाकतन्तुलतया रज्ज्वा भ्रमीरजयन् दानान्तःश्रुतशर्कराचलमथः स्वेनामृतान्धाः स्मरः / नव्यामिक्षुरसोदधेर्यदि सुजामुत्थापयेत् सा भव जिह्वायाः कृतिमाह्वयेत परमां मत्कर्णयोः पारणाम् // 136 / / उन्मीलदिति / हे प्रियतमे ! अमृतं पीयूषमेव, अन्धः अन्नं यस्य सः तादृशः, अत एव अमृतभोजिनः देवस्य स्मरस्य तदुस्थापनायाः अतीवावश्यकता इति भावः / स्मरः कन्दपः, स्वेन आत्मनैव, स्वयमेवेत्यर्थः, न पुनरन्यसाहाय्येन, तथा सति न सर्वथा हर्णोत्पादकता स्यादिति भावः / उन्मीलन्ती, प्रकाशयन्ती, जायमाना इत्यर्थः / गुडस्य स्वनामख्यातस्य इन्चरसविकारस्य, पाकात् अग्निसंयोगेन कथनात् , या तन्तुलता सूत्राकारता, सूत्रवदविच्छिन्नसंयोगः इत्यर्थः। यद्वा-तन्तुलता तन्तव इव तन्तवः गुडनिर्गतदोरकाः, त एव लता तया तद्पया, रज्ज्वा रश्मिना साधनेन, दानान्तः तुलापुरुषादिमहादानानां मध्ये, श्रतः शास्त्रे आकर्णितः, यः शर्कराचलः सितापर्वतः, दानार्थ पर्वताकारतया स्थापितशर्कराराशिरित्यर्थः। स एव मन्था मन्थनदण्डः तस्य, 'भस्य टेर्लोपः' इति टिलोपः। भ्रमीः भ्रामणानि, घूर्णनानीत्यर्थः। अर्जयन् सम्पादयन् , आकर्षणेन कुर्वन् सन् इत्यर्थः / इक्षुरसस्य उदधेः इतुरससमुद्रात् , नव्याम् अभिनवाम् , देवासुरोत्थापितसुधातोभिन्नरूपामित्यर्थः / सुधाम अमृतम , यदि चेत , उत्थापयेत् उत्तोलयेत् , तदा सा सुधा / की। मस्कर्णयोः मम श्रवणयोः, परमाम् उत्कृष्टाम् , पारणा पारणावत् अद्वितीयतृप्तिहेतुम् , भवज्जिह्वायाः तव रसनायाः। सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पूर्वपदस्य पुंवद्भावः / कृति कार्य, गिरम् इत्यर्थः। आह्वयेत स्पर्द्धया आकारयेत् , प्रतिभटीकुर्यात इत्यर्थः / 'स्पर्द्धायामाङः' इति द्वेषः तङ्। मधुरद्रव्यसाधितं हि द्रव्यं परममधुरमेव भवति, एवञ्च प्रोक्तरूपेणेवोत्थापिता सुधा तव वाचः साहश्यं लब्धुम. हति, न पुनरन्यः कश्चित् पदार्थ इति भावः // 139 // प्रकाशमान गुड़पाकके तन्तुलतारूपी रस्सीसे दानके प्रकरणमें सुने गये शर्कराचल ( शकरका पहाड़ अर्थात् पर्वताकार शकरकी राशि) रूप मथनी (रई ) को घुमाता हुआ अमृतमोजी कामदेव यदि स्वयं गन्नेके रसके समुद्रसे नवीन ( देवों के द्वारा मन्दराचलको मन्थन दण्ड तथा शेषको रस्सी बनाकर क्षीरसागरसे निकाले गये अमृतसे भिन्न ) अमृतको निकाले तो वह (नया निकाला हआ अमत मारे कर्णद्वयको पारणारूप, तम कृति अर्थात् वाणीके साथ स्पर्धा ( कुछ समानता) कर सकता है / [ मधुर साधनोंसे उत्पन्न अत्यन्त मधुर वह नया अमृत ही तुम्हारे वचनकी समानता कर सकता है, अन्य कोई पदार्थ नहीं] // 139 // नहा
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________________ 1482 नैषधमहाकाव्यम् / आस्ये या तव भारती वसति तल्लीलारविन्दोल्लस द्वासे तत्कलवैणनिकणमिलद्वाणीविलासामृते / तत्केलिभ्रमणार्हगैरिकसुधानिर्माणाधरे तन्मुक्तामणिहार एव किमयं दन्तस्र जौ राजतः ? // 14 // आस्य इति / हे प्रिये ! तस्याः भारत्याः, लीलारविन्दस्य हस्ते स्थितस्य क्रीडाकमलस्य, उल्लसन् प्रसरन् , वासः गन्धः यस्मिन् तादृशे, पद्मिनीत्वात् पद्मतुल्यप. रिमले इति भावः / तथा तस्याः भारत्या एव, कलः मधुरास्फुटः, यः वैणः वीणा. सम्बन्धी, निक्कणः नादः, तद्पं मिलत् सम्बध्यमानम् , वाणीविलास एव वक्रोक्तयादिनानाविधवाग्वैचित्र्यमेवेत्यर्थः / अमृतं पीयूषं यस्मिन् तादृशे, तथा तस्याः भारस्या एव, केलिभ्रमणाहं लीलया गमनयोग्यम्, गैरिकेण रक्तवर्णधातुविशेषेण, रञ्जि. तया इति शेषः / सुधया धवलतासाधनचूर्णद्रव्येण, निर्माणं चित्रादिरचना यत्र तादृशम् , यत् हम्य गृहम् , तदेव अधरः रदनच्छदः यस्मिन् तादृशे, तव भवत्याः, आस्ये वदने, या भारती सरस्वती, वसति तिष्ठति, दन्तस्त्रजौ तव आस्ये पुरो दृश्य माने ये द्वे दन्तमाले, राजतः शौभते, तद्रूपः अयं पुरः दृश्यमानः, तस्याः भारत्याः, मुक्तामणिहारः मुक्कामणिखचितः हारः मुक्तामणिखचितः हारः एव, किम् ? तद्वत्ते रेजाते इत्यर्थः / सरस्वतीवीणाकणिततुल्या तव वाणी इति भावः / अत्र वाणीवर्णनं प्रस्तुतम् , अन्यत् प्रासङ्गिकम् / पद्मगन्धादिभिः मुखे भारतीवासः अनुमीयते // उस ( सरस्वती) के लीलाकमल-सम्बन्धी फैलते हुए सौरभसे युक्त, उस ( सरस्वती) मधुरास्फुट वीणा-सम्बन्धी स्वर से सम्बद्ध होते हुए वाणी-विलासरूप अमृतवाले ( अर्थात् सरस्वतीका ही मधुर स्वर तथा अस्फुट वीणास्वर वक्रोक्त्यादिरूपसे अनेकविध वाणीके विलासरूप अमृत हो रहा है ऐसा ), और उस ( सरस्वती) के क्रीड़ाभ्रमणके योग्य गेरुरूपी चूना ( अथवा-गेरुमिश्रित चूना ) से पोते ( लीपे ) गये महलरूप अधरवाले तुम्हारे मुखमें जो सरस्वती ( वाणी) रहती है; उसीके मोतियों के हारके समान ये दोनों दन्तश्रे. णियां शोभती हैं क्या ? / [ दमयन्तीको 'पद्मिनी'जातीया स्त्री होनेसे उसके मुखके गन्धको कमलगन्धतुल्य होना उचित ही है। सरस्वतीकी वीणाध्वनिके समान तुम्हारी वाणी मधुर है ] // 140 // वाणी मन्मथतीर्थमुज्ज्वलरसस्रोतस्वती काऽपि ते खण्डः खण्ड ईतीदमीयपुलिनस्यालप्यते बालुका / 1. 'इतः प्रभृति सप्त श्लोका 'जीवातौ' नोपलब्धाः' इति म०म० शिवदत्तश. र्माणः आहुः / 2. 'ख्या'-'इति मूलपुस्तकपाठः' इति म० म० शिवदत्तशर्माणः / 3. 'स्रोतस्विनी' इति पाठान्तरम् / 4. 'इतीदमुत्थपुलिनस्या' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1483 एतत्तीरमृदैव किं विरचिताः पूताः सिताश्चक्रिकाः ? किं पीयूषमिदम्पयांसि ? किमिदन्तीरे तवैवाधरौ ? // 141 // वाणीति / हे प्रिये ! ते तव, वाणी वाक् , का अपि वर्णयितुम् अशक्यत्वात् लो. कोत्तरा इत्यर्थः। अथ च अनिर्दिष्टनामा, उज्ज्वलरसस्रोतस्वती शृङ्गाररससम्बन्धिनी नदी, अथ च निर्मलजला नदी, अत एव मन्मथस्य कामस्य, तीर्थ योनिः, कारण. मित्यर्थः / कामोद्दीपिका इति यावत् , अथ च, तीर्थ जलावतारः, नद्यामवतरणार्थ सोपानश्रेणीत्यर्थः / 'तीर्थ योनौ जलावतारे च' इति हैमः / तथा खण्डः खण्ड इक्षु. विकारविशेषः, इदमीयस्य अस्याः नद्याः सम्बन्धिनः, पुलिनस्य तोयोस्थिततटभा. गस्य / 'तोयोस्थितं तत् पुलिनम्' इत्यमरः। बालुका सिकता, इति आलप्यते गीयते, तथा पूताः निर्मला:, सिताः शुभ्राः, चक्रिकाः शर्कराकृतचक्राणि, एतस्याः नद्याः, तीरस्य तटस्य, मृदा एव धवलमृत्तिकया एव, विरचिताः कल्पिता किमी तथा पीयूषम् अमृतम् , अस्याः सम्बन्धीनि पयांसि इदम्पयासि अस्या नद्याः जलानि, किम् ? अस्याः जलानि एव अमृतत्वेन आलप्यन्ते किम्? तथा तव भवत्याः, अधरौ ओष्ठौ एष, इदन्तीरे अस्याः नद्याः उभौ तटौ, किम् ? / शृङ्गाररसप्रधाना कामोद्दीपिका भवद्वाणी मधुरतमा इति भावः // 14 // (हे प्रिये!) तुम्हारी वाणी कोई अनिर्वचनीय गुणवाली लोकोत्तर (अथच-अकथित नामवाली ) उज्ज्वलरस (शृङ्गार, अथच-निर्मल जल) की नदी है, ( अत एव ) कामदेवका सीर्थ ( उत्पत्तिस्थान, पक्षा०-नदीमें प्रवेश करनेके लिए सीढ़ी ) है, उक्तस्वरूपा इस नदीके तटका बालू ( रेत) ही 'शकर, शकर' ऐसा कहा जाता है, इस ( उक्तस्वरूपा) नदीके किनारेकी मिट्टी ही मिश्रीकी (थाली में जमाई गयी) राशि है क्या? और इस ( उक्तस्वरूपा ) नदीके जल ही अमृत है क्या ? तथा इस ( उक्तस्वरूपा) नदीके दोनों तीर ही तुम्हारे दोनों ओष्ठ हैं क्या ? / [ तुम्हारी वाणी शृङ्गाररसप्रधान कामोद्दीपक तथा अतिशय मधुर है ] // 141 // परभृतयुवतीनां सम्यगायाति गातुं न तव तरुणि ! वाणीयं सुधासिन्धुवेणी। कति न रसिककण्ठे कत मभ्यस्यतेऽसौ भवदुपविपिनाने ताभिरानेडितेन ? / / 142 // परेति / तरुणि ! हे प्रादुर्भूतयौवने ! सुधासिन्धोः अमृतसागरस्य वेणी प्रवाहरूपा, तव भवत्याः, इयम् उच्चार्यमाणा, वाणी वाक, परभृतयुवतीनां कोकिलव. धूनाम् , सम्यक् उत्तमं यथा तथा, गातुं भाषितुम्, न आयाति न आगच्छति, कोकिलाऽपि ईशसुमधुरस्वराभावात् तवाग्रे गातुं लज्जते इति भावः। अतः ताभिः कोकिलामिः, भवत्याः तव, उपविपिने, उपवने, यः आनः आम्रवृषः तस्मिन् , 63 नै० उ०
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________________ 1484 नैषधमहाकाव्यम् / स्थित्वा इति शेषः। असौ त्वद्वाणी, रसिके अतिमधुरे, रसालाङ्कुरास्वादेन इति भावः / अथ च ममापि ईदृशी वाणी भवतु एवं साभिलाषे, कण्ठे गलदेशे, कण्ठध्वनी इत्यर्थः / कर्तुं विधातुम, कण्ठस्थां कतमित्यर्थः / आमेडितेन द्वित्रिवारमुक्तेन, पुनः पुनर्घोषणेन इत्यर्थः / 'आम्रडितं द्विस्त्रिरकम्' इत्यमरः। कति कियत् वारान् , न अभ्यस्यते ? न शिक्ष्यते ? अपि तु बहुवारम् अभ्यस्यते एव, तथाऽपि अद्यापि तासां भवद्वाणी सम्यक न आयाति इति ज्ञायते इति भावः। कोकिलालापात् अपि स्वद्वाणी मधुरतमा इति निष्कर्षः। गुरुगृहे ब्रह्मचर्यावलम्बनपूर्वकं विद्याभ्यासस्य शास्त्रीयत्वात् परभृतपदम्, तथा पुमपेक्षया स्त्रीणां विशेषतः तरुणीनां कण्ठस्वरं मधुरम् इति सूचनार्थ युवतीपदं प्रयुक्तमिति बोध्यम् // 142 // हे तरुणि ( दमयन्ति ) ! पिकयुवतियोंको भी अमृत-समुद्रकी प्रवाहरूपा तुम्हारी वाणीको अच्छी तरह गाने नहीं आता है, अत एव वे तुम्हारे क्रीड़ावनके आम्रवृक्षपर (बैठकर ) रसिक ( हमारी वाणी भी दमयन्तीके समान हो जाय इस प्रकार के अभिलाषयुक्त, पक्षा०-आम्रमारी तथा आम्रकिसलयके भास्वादनसे कषायरसयुक्त ) कण्ठमें करने के लिए बार-बार कहनेसे कितनी बार अभ्यास नहीं करती हैं, अर्थात् बहुत बार अभ्यास करती हैं / [ आजतक भी तुम्हारी वाणीको यथावत् पिकयुवतियां अभ्यासकर नहीं गा सकी, अत एव तुम्हारी वाणी अत्यन्त मधुर है। पुरुषकी अपेक्षा स्त्रियोंका, उनमें भी युवतियोंका और उनमें भी पिकयुवतियों के स्वरको अत्यन्त मधुर स्वर होनेसे यहां 'पिकयुवतियों को दमयन्ती-वाणीका अभ्यास करना कहा गया है। अन्य भी कोई व्यक्ति वन में गुरु के आश्रयमें रहते हुए भिक्षाशनपूर्वक विद्याभ्यास करता है ] // 142 // ऊर्ध्वस्ते रदनच्छदः स्मरधनुर्बन्धूकमालामयं मौर्वी तत्र तवाधराधरतटाधःसीमलेखालता। एषा वागपि तावकी ननु धनुर्वेदः प्रिये ! मान्मथः सोऽयं कोणधनुष्मतीभिरुचितं वीणाभिरारभ्यते // 143 // ऊर्ध्व इति / हे प्रिये ! ते तव, उर्ध्वः उपरिस्थितः, रदनच्छदः ओष्ठः उत्तरोष्ठ एवेत्यर्थः / बन्धूकमलामयं बन्धुजीवपुष्पमालात्मकम्, स्मरधनुः कामकार्मुकम् , ईषद्वक्राकारस्वादिति भावः। तथा तत्र कामचापे, तव भवत्याः, अधराधरतटस्य निम्नोष्ठदेशस्य, अधःसीमायां निम्नस्थमर्यादायाम् , प्रान्तदेशे इत्यर्थः। या लेखा. लता वीरुदाकाररेखाविशेष इत्यर्थः / दैादिति भावः। सा एव मौर्वी ज्या; एषा श्रयमाणा, तावकी तव सम्बन्धिनी, वाक वाणी अपि, ननु निश्चये। मान्मथः कामसम्बन्धी, कामाद्वैतप्रतिपादक इत्यर्थः, धनुर्वेदः, सः विशिष्टः, अयं वद्वाणी. रूपः मान्मथधनुर्वेदः, कोणधनुष्मतीभिः वीणावादनसाधनधनुर्युक्ताभिः। 'कोणो . 1. 'रभ्यस्यते' इति पाठान्तरम् /
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________________ एकविंशः सर्गः। 1485 चीणादिवादनम्' इत्यमरः / वीणाभिः वल्लकीभिः, आरभ्यते अभ्यस्यते, इति उचितं युक्तम् , परम् अद्यापि न आयाति इति भावः / त्वद्वाणी वीणाक्कणितात् अपि मधुरतमा इति निष्कर्षः / धनुर्वेदश्च धनुधरेः एव अभ्यस्यते इति एतत् उचितं, परन्तु यत् स्वत एव न आयाति तदागमनार्थम् अभ्यासः उचित एव इति तात्पर्यम् // __ हे प्रिये ! तुम्हारा ऊपरी ओष्ठ बन्धूकों (दुपहरियाके फूलों ) की मालासे बनाया गया कामदेवका धनुष है, उस ( कामधनुष ) पर तुम्हारे निचले ओष्ठकी अधःसीमारेखा लता डोरी ( धनुषको तांत ) है, यह तुम्हारी वाणी मानो कामदेव-सम्बन्धी धनुर्वेद है; उस (अतिप्रसिद्ध ) इस ( कामदेव-सम्बन्धी धनुर्वेद ) को कोण (वीणा बजानेका धनुषाकार वक काष्ठ-विशेष ) रूप धनुषको धारणकी हुई वीणाएँ आरम्भ (पाठा०-अभ्यास ) कर रही हैं, यह उचित है / ( परन्तु तुम्हारी वाणीको वे वीणाएँ अबतक नहीं सीख सकीं) [धनुष धारण करनेवाले हो धनुर्वेदको सीखते हैं, और जो स्वयं नहीं आता उसका आरम्म (पाठा०-अभ्यास) करना उचित ही है। तुम्हारी वाणी वीणाओंसे भी अत्यधिक मधुर है ] // 143 // स ग्राम्यः स विदग्धसंसदि सदा गच्छत्यपाक्तेयतां तश्च स्प्रष्टुमपि स्मरस्य विशिखा मुग्धे ! विगानोन्मुखाः। यः किं मध्विति नाधरं तव कथं हेमेति न त्वद्वपुः कीहङनाम सुधेति पृच्छति न ते दत्ते गिरं चोत्तरम् // 144 // स इति / मुग्धे ! हे सुन्दरि ! यः पुरुषः, मधु क्षौद्रम् , मद्यं वा, किम् ? कीह. शम् इति एवम् , पृच्छति प्रश्नं कुर्वाणे जने विषये, तव ते, अधरम् निम्नोष्ठम् एव, उत्तरं मधु इति प्रतिवचनम् , न दत्ते न विदधाति, सः ग्राम्यः पामरः, अचतुरः, इत्यर्थः / न तु तव नगरनिवासयोग्यः इति भावः। 'ग्रामात् यखो' इति भवार्थे यः। तथा हेम कनकम् , कथम् ? किं प्रकारकम् ? इति पृच्छति जने यः स्वपुः तव शरीरम् , इति उत्तरं न दत्ते, सः जनः, विदग्धानां चतुराणाम् , संसदि सभायाम , सदा सर्वकालम् , अपाङ्क्तेयतां पङ्क्तिबहिर्भूतत्वम् , याति गच्छति, तेषां पतौ न उपवेष्टुमहति अचतुरत्वात् इति भावः / पाडतेयः इति नद्यादित्वात् ढक। तथा सुधा नाम पीयूषाख्यं द्रव्यम् , कीहक् ? कीदृशम् ? इति पृच्छति जने, यश्च ते तव, गिरं वाचम् , इति उत्तरं न दत्ते, स्मरस्य कामस्य, विशिखाः बाणा:, तन पुरुषम् , स्प्रष्टुम् अपि स्पर्श कर्तुमपि, विगानोन्मुखाः विरुद्धभाषणप्रवणाः, 'नीरसः अयम्' इति घृणया तं स्प्रष्टुमपि न कृतोद्यमाः इत्यर्थः / स्वद्वाणी सुधायाः अपि मधुरतमा इति भावः / अधरादिवर्णनं तु प्रासङ्गिकम् // 144 // जो पुरुष 'मधु (शहद, या-मद्य ) कैसा होता है ? यह प्रश्न करनेपर 'तुम्हारा अधर ( मधु ) है। ऐसा उत्तर नहीं देता है, वह पुरुष ग्राम्य ( देहाती) है अर्थात् नगरनिवासी
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________________ 1486 नैषधमहाकाव्यम् / सभ्य नहीं है; जो पुरुष 'सोना कैसा है !' यह प्रश्न करनेपर 'तुम्हारा शरीर (सोना) है' ऐसा उत्तर नहीं देता है, वह सदा चतुरोंकी समामें पशिसे बाहर बैठने योग्य अर्थात् अचतुर है और जो पुरुष 'अमृत कैसा होता है ?' यह प्रश्न करनेपर 'तुम्हारी वाणी (ही अमृत) है' ऐसा उत्तर नहीं देता है, उसको निन्दा करने (या-विपरीत भाषण करने) के लिए उन्मुख कामबाण स्पर्श करना भी नहीं चाहते अर्थात् 'वह अत्यन्त नीरस है। [ तुम्हारी वाणी अमृतरूप ही है यहां अधरादिका वर्णन तो गौण है ] // 144 / / मध्ये बद्धाणिमा यत् सगरिममहिमश्रोणिवक्षोजयुग्मा जाग्रच्चेतोवशित्वा स्मितधृतलघिमा मां प्रतीशित्वमेषि | सूक्तौ प्राकाम्यरम्या दिशि विदिशि यशोलब्धकामावसाया भूतीरष्टावपीशस्तददित मुदितः स्वस्य शिल्पाय तुभ्यम् // 145 / / मध्य इति / हे प्रिये ! त्वं यत् यस्मात् हेतोः, मध्ये उदरप्रदेशे, बद्धः शृतः, अणिमा सौचम्यातिशयो यया सा तादृशी कृशोदरी / तथा गरिममहिमभ्यां गुरुत्व. महत्वाभ्यां सह वर्तमानम् , श्रोणिः नितम्बः, वक्षोजयुग्मं स्तनयुगलच यस्याः सा तादृशी गुरुस्थूलनितम्बा पीनोन्नतकुचा च / तथा जाग्रत् स्फुरत् , उद्बुध्यमान. मित्यर्थः / चेतसि मनसि, वशः इन्द्रियाणां स्वाधीनत्वम् , तदस्यास्तीति वशी तद्भावो वशित्वं जितेन्द्रियता यस्याः सा तादृशी पतिव्रता। तथा स्मिते ईषद्धा. स्येऽपि, घृतः आश्रितः, लघिमा अल्पत्वं यया सा तादृशी अल्पहासेत्यर्थः। अणिमादौ गुणवचनस्वादिमनिच / तथा मां नलम् , प्रति उद्दिश्य, ईशनमीशः ऐश्वर्यम् , तदस्यास्तीति ऐशी तद्भावः ईशित्वं स्वामिताम् , एषि गच्छसि, मम प्राणानामीश्वरी भवसीत्यर्थः / तथा सूक्तौ वचनचातुर्यविषये, प्राकाम्येण प्रकारबाहुल्येन, रम्या रम. णीया, वक्रोक्त्यादिनानाप्रकारां वाणीं वक्तुं त्वमेव जानासि नान्या इति भावः। . तथा दिशि प्राच्यादौ, विदिशि आग्नेयादौ च, यशसः सौन्दर्यादिविषयककोत्तः, यशसा वा कृत्वा, लब्धः प्राप्तः, काम यथेष्टं यथा तथा, अवसायः अप्रतिहतप्रसरा गतिर्यया सा ताहशी त्रैलोक्यप्रसरकीर्तिः, असीति शेषः / तत् तस्मात् कारणात् , मुदितो हृष्टः, त्वां निर्माय सौन्दर्यादिना परितुष्टः इत्यर्थः। ईशः, ईश्वरः, अष्टावपि अष्टसङ्खयका अपि, भूतीः ऐश्वर्याणि, स्वकीयाः अणिमादीः महासिद्धीरित्यर्थः / स्वस्य भास्मनः, शिल्पाय कारवे, तुभ्यं भवत्यै, स्वदपाय निजनिर्माणाय इत्यर्थः / अदित प्रायच्छत् / यथा सन्तुष्टो हि पित्रादिः अपत्यादिभ्यः स्वकीयमैश्वर्यादिकं प्रददाति, तथेश्वरेण सन्तुष्टेन स्वकीयम् 'अणिमा महिमा गरिमा लघिमा वशित्वमी. शित्वं प्राकाम्यं कामावसायिता च' इत्येवमष्टविधमैश्वर्यं तुभ्यं दत्तम् , अन्यथा एतत्. सर्व स्वयि कथं स्यादिति भावः। अत्र वाणीवर्णनम् एव प्रस्तुतं मध्यादिवर्णनं प्रासनिकम् // 145 //
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________________ एकविंशः सर्गः। 1487 (हे प्रिये दमयन्ति !) जिस कारणसे तुम कटिमागमें अणिमा ( अत्यन्त कृशता, पक्षा०-'अणिमा' नामकी सिद्धि ) वाली हो, गरिमा तथा महिमा ( गुरुता - भारीपन तथा विशालता, पक्षा०-'गरिमा तथा महिमा' नामकी दो सिद्धियों) से युक्त दोनों नितम्ब तथा दोनों स्तनोंवाली हो अर्थात् तुम्हारे दोनों नितम्ब भारी एवं बड़े हैं तथा स्तनद्वय पीन तथा उन्नत हैं; चित्तमें जागरूक (निरन्तर उद्यत ) वशित्व (पक्षा०-'वशित्व' नामकी सिद्धि ) वाली हो अर्थात सर्वदा चित्तको वशमें रखती ( जितेन्द्रिया, या-पतिव्रता) हो; मुस्कानमें लघिमा ( लाघवता, पक्षा०–'लघिमा' नामकी सिद्धि ) धारण करती अर्थात् थोड़ा मुस्काती हो; मेरे ( नल) के प्रति ईशित्व ( स्वामित्व, पक्षा०- ईशित्व' नामकी सिद्धि ) प्राप्त करती हो अर्थात् मेरी प्राणेश्वरी हो; सूक्तिमें प्राकाम्य ( अत्यधिकता पक्षा०'प्राकाम्य' नामकी सिद्धि ) से रमणीय हो अर्थात् श्लेष, वक्रोक्ति, माधुर्यादि युक्त भाषण करनेसे रमणीय हो; और ( पूर्वादि चारों) दिशाओं तथा ( आग्नेयादि चारो) विदि. शामि यश ( सौन्दर्यादि प्रसिद्धि ) से इच्छानुसार अनवरुद्ध प्रखर गति (पक्षा०'कामावसाय' नामकी सिद्धि ) को प्राप्त की हो; इस कारणसे तुम्हारी रचना करके हर्षयुक्त ईश्वरने अपनी शिल्पिभूत तुम्हारे लिये आठों भूतियों ( सिद्धियों) को दे दिया है। [ कोकमें भी कोई व्यक्ति जिस प्रकार सत्पुत्रको उत्पन्न कर उसके लिए अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्यकी दे देता है वैसे ईश्वर ( तुम्हारे रचयिता शिवजी, पक्षा०-ऐश्वर्यवान् पिता) ने भी उक्तगुणोंवाली सर्वश्रेष्ठ ( तुम्हारे लिये अपनी आठों विभूतियोंको दे दिया है, इसीसे तुममें वे वर्तमान हैं / प्रकृतमें तुम्हारी वाणी पर्याप्त रमणीय है, यह प्रकरणका विषय है, अन्य वर्णन प्रासङ्गिक हैं ] // 145 // त्वद्वाचः स्तुतये वयं न पटवः पीयूषमेव स्तुमस्तस्यार्थे गरुडामरेन्द्रसमरः स्थाने स जानेऽजनि / द्राक्षापानकमानमर्दनसृजा क्षीरे दृढावज्ञया यस्मिन्नाम धृतोऽनया निजपदप्रक्षालनानुग्रहः // 146 // स्वदिति / हे प्रिये ! वयं नलादयः, स्वद्वाचः तव सुमधुरवाण्याः, स्तुतये प्रशंसायै, न पटवः न समर्थाः, तस्मात् पीयूषम् अमृतमेव, स्तुमः प्रशंसां कुर्मः, तस्य पीयूषस्य, अर्थे निमित्तम् , सः पुराणादिप्रसिद्धः, गरुडस्य वैनतेयस्य, अमरेन्द्रस्य देवेन्द्रस्य च, समरः युद्धम् , अजनि जातः, तत् स्थाने युक्तम् , जाने इत्यहं मन्ये / द्राक्षापानकस्य पक्कद्राक्षासम्बन्धिनः संस्कृतपानीयविशेषस्य, मानोऽ. हकारः, माधुर्यातिशयरूप इति भावः / तस्य मर्दनं खण्डनम् , सृजति विदधातीति ताशया, तथा क्षीरे दुग्धे विषये, दृढा निश्चला, अन्येन स्याजयितुम् अशक्या इत्यर्थः / अवज्ञा अनादरः यस्याः ताशया, अनया तव वाण्या, यस्मिन्नमृते, निजपदयोः स्वचरणोः, प्रक्षालनेनैव शोधनेनैव, अनुग्रहः प्रसादः, धुतः कृतः,
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________________ 1488 नैषधमहाकाव्यम् / नाम सम्भावनायाम , इति सम्भावयामीत्यर्थः / अथ च यस्मिन् पीयूषे भवद्वाक्यभूतया वाण्या, स्वीयसुप्तिङन्तरूपाणां पदानां प्रक्षालनात् अनु पश्चात् , ग्रहणं ग्रहः, कृतोऽस्त्येव, अमृतक्षालिततयैव निर्दोष मधुरञ्च वदसीत्यर्थः / द्राक्षापानकक्षीरपीयूषादपि त्वद्वाणी मधुरतमा इति भावः / प्रभोर्यस्मिन्ननुग्रहातिशयः स एव प्रभोः चरणक्षालनादिकं यथा करोति तद्वत् इति बोध्यम् // 146 // (हे प्रिये !) तुम्हारी वाणीकी स्तुतिके लिए हम लोग ( मैं = नल तथा अन्यान्य जनता ) चतुर ( समर्थ ) नहीं है, अत एव अमृतकी स्तुति करते हैं (जिस प्रकार किसी बहुत बड़े व्यक्ति के पास नहीं पहुंच सकनेवाला मनुष्य उससे छोटेके पास जाकर ही सन्तोष कर लेता है, उसी प्रकार तुम्हारी उत्कृष्टतया वाणीकी स्तुति करनेमें असमर्थ हमलोग अमृतकी स्तुतिसे ही सन्तोष करते हैं ), उस अमृतके लिए गरुड़ तथा इन्द्रमें युद्ध हुआ था, उसे मैं उचित मानता हूं, क्योंकि दाखके पना ( पेय द्रव्य विशेष, या-शर्बत ) का मानमर्दन करनेवाली तथा गन्ने के विषयमें स्थिरतम निन्दावाली ( दाखके पने तथा गन्नेसे बहुत ही उत्तम ) यह तुम्हारी वाणी जिस ( अमृत ) में अपने पदों ( सुप्-तिङन्त. रूपपदों, पक्षा०-चरणों ) को धोने के बाद ग्रहण ( पक्षा०-धोनेका अनुग्रह ) किया है [ अमृतमें भी अपने सुप्-तिङन्तरूप पदोंको धोकर जो तुम्हारी वाणी उच्चरित होती है, उसके माधुर्यके विषयमें क्या कहना है पक्षा०-जिस वाणीने अमृतमें अपने पैरोंको धोनेकी कृपा की है, उसके समान अमृत भला कैसे हो सकता है ? और दान तथा गन्ने के विषयमें तो कुछ कहना ही निरर्थक है, क्योंकि तुम्हारी वाणीने दाखके पनेका मान-मर्दन तथा गन्नेको अत्यन्त अवज्ञात कर दिया है ] // 146 // शोकश्चेत् कोकयोस्त्वां सुदति ! तुदति तद्वथाहराज्ञाकरस्ते गत्वा कुल्यामनस्तं ब्रजितुमनुनये भानुमेतजलस्थम् / बद्ध यद्यञ्जलावप्यनुनयविमुखः स्यान्मयैकग्रहोऽयं दत्त्वैवाभ्यां तदम्भोऽञ्जलिमिह भवतीं पश्य मामेष्यमाणम्।।१-७॥ शोक इति / सुदति ! हे शोभनदन्ते दमयन्ति ! कोकयोः चक्रवाकयोः, शोकः विरहजनितशुक् , त्वां भवतीम् , तुदति पीडयति, चेत् यदि, तत् तदा, व्याहर बहि, ते तव, आज्ञाकरः आदेशपालकः, अहमिति शेषः / कुल्यां क्षुद्रकृत्रिमसरितम् , गत्वा प्राप्य, एतस्याः कुल्यायाः, जलस्थं जले प्रतिबिम्बितम् , भानुं सूर्यम् , अनस्तम् अस्तगमनाभावम् , जितुं प्राप्तम् , अस्ताचलगमनाभिप्रायं परित्यक्तमिः त्यर्थः / अनुनये विनयेन अभ्यर्थये, त्वयि अस्तमिते कोकयोरन्योऽन्यं वियोगः अव. श्यम्भावी, अतो नास्तं व्रज इति सविनयं प्रार्थये इत्यर्थः / यदि चेत् , मया नलेन, अञ्जलौ करद्वयलंयोगे, बद्धे कृतेऽपि, एकः एकमात्रः, ग्रहः अभिनिवेशः यस्य सः तादृशः एकग्रहः एकमात्रविषये दृढनिर्बन्धपरः, निजनिबन्धापरित्यागीत्यर्थः / चन्द्रा
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________________ एकविंशः सर्गः। 1486 विमुखः विनीतप्रार्थनायामपि पराङ्मुखः, स्यात् भवेत् , एकग्रहत्वात् मम प्रार्थनामगणयित्वा यदि अस्तमेव व्रजेदित्यर्थः / तत् तर्हि, इह अस्मिन् सायंकाले, अम्भसः जलस्य, अञ्जलिं गण्डूषम् , आम्यां कोकाभ्यामेव, दत्त्वा प्रदाय, अनुनयाग्राहिणे सूर्याय न दत्त्वा कोकाभ्यामेव क्षिप्ता इत्यर्थः / भवती स्वां प्रति, एष्यमाणं पुनः प्रत्यागमिष्यन्तम् / ईङ्गताविस्यस्य लुटः शानचि रूपम् / मां नलम् , पश्य अवलोकय / सायंसन्ध्योपासनानिमित्तं भङ्गया बहिर्गमनाभ्यनुज्ञां याचितवान् इति भावः॥ 147 // हे सुदति ! यदि चकवा-चकईका ( मावी विरहसे उत्पन्न ) शोक तुम्हें पीडित करता है, तो कहो, तुम्हारा आशाकारी मैं क्रीडानदी ( नहर ) को जाकर इसके जलमें स्थित (प्रतिबिम्बित ) सूर्यको अस्त नहीं होने के लिए प्रार्थना करूं (कि आपके अस्त होनेसे चकवा-चकईको विरहजन्य दुःख होगा और उससे मेरी प्रिया दमयन्ती मी दुखित होगी, अत एव आप अस्त न होवें, या पुनः उदयाचलकी ओर लौट चलें); और यदि मेरे हाथ जोड़ने पर भी एक ग्रह ( अत्यन्त आग्रही-महाहठी, पक्षा०-मुख्य चन्द्रादि नवग्रहोंमें प्रधान ये सूर्य ) मेरी प्रार्थनाके विमुख होते हैं अर्थात् महाहठी होनेसे मेरी प्रार्थना पर ध्यान नहीं देकर यदि अस्त ही होते हैं तो उस (सूर्यके लिए दी जानेवाली) जला देखो। [ इस व्याजसे नल सन्ध्योपासनके लिए जानेकी अनुमति दमयन्तीसे मांगते हैं। 'सुदति' कहनेसे जब तुम बोलोगी, तब तुम्हारे सुन्दर दांतोंको देखनेसे मुझे अतिशय हर्ष होगा, यह भी नलने सूचित किया है ] // 147 // तदानन्दाय त्वत्परिहसितकन्दाय भवती निजालीनां लीनां स्थितिमिह मुहूर्त मृगयताम् / इति व्याजात कृत्वाऽऽलिषु वलितचित्तां सहचरी स्वयं सोऽयं सायन्तनविधिविधित्सुर्बहिरभूत् // 148 // तदिति / हे दमयन्ति ! तत् तस्मात् , तथा सूर्यानुनयस्य प्रयोजनीयत्वादि. त्यर्थः। भवती स्वम्, स्वत्परिहसितं तव परिहास एव, कन्दः मूलं यस्य ताहशाय, भानन्दाय प्रीत्य, परिहासानन्दं कत्तमित्यर्थः / इह प्रासादे एव, निजानाम् आत्मीयानाम, आलीनां सखीनाम , लीनां कचित् गूढाम् , स्थितिम् अवस्थानम् , मुहत कश्चित् कालम् , मृगयताम् अन्विष्यतु, इति एवम् , व्याजात् छलात् , सह. चरी दमयन्तीम् , आलिषु विषये, वलितचित्ताम् आसक्तमनस्काम् , कृत्वा विधाय, सः अयं नलः, स्वयम् आत्मना, सायन्तनं विधि सायंसन्ध्याऽग्निहोत्रादिकृत्यम् , विधिस्सुः विधातुमिच्छुः सन् , बहिः तस्मात् प्रासादात् निर्गतः, भभूत् // 148 //
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________________ 1460 नैषधमहाकाव्यम् / 'इस ( सूर्यकी प्रार्थना किये जानेके ) कारणसे तुम्हारे परिहासके मूल (अथवातुम्हारे परिहासके मूल उन (सखियों ) के ) आनन्दके लिए तुम यहीं पर छिपी हुई अपनी सखियोंको मुहूर्ततक खोजो' इस प्रकार व्याज (छल) से दमयन्तीको अपनी सखियोंके विषयमें आसक्त ( या-चञ्चल ) चित्तवाली करके सायङ्कालकी विधि ( सन्ध्यो. पासनादि कर्म ) करने के इच्छुक नल ( प्रासादसे ) बाहर हो गये // 148 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / 1 तस्यागादयमेकविंशगणनः काव्येऽतिनव्ये कृतौ भैमीभत्त चरित्रवर्णनमये सगो निसोज्ज्वलः // 149 // श्रीहर्षमिति / भैमीमतुः नलस्य, यत् चरित्रं शीलम् , तद्वर्णनमये तत्कथना. धमके, काव्ये नव्ये नूतने, भत्र अस्मिन् , श्रीहर्षस्य कृती, एकविंशतिः गणना यस्य सः ताडशः अयं सर्गः अगात् समाप्तिं गतः। गतमन्यत् // 149 // . इति मल्लिनाथकृते 'जीवातु' समाख्यान एकविंशः सर्गः समाप्तः // 21 // कवीश्वर-समूहके ....."किया, उसके, दमयन्ती-पति (नल) के प्रचुर चरित्रवाले अत्यन्त नवीन रचनाबाले काव्य ( 'नैषधचरित' नामक महाकाव्य ) में स्वभावतः"यह इक्कीसवा सर्ग समाप्त हुआ। (शेष व्याख्या चतुर्थसर्गवत् समझनी चाहिये ) // 149 // यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'नैषधचरित' का इक्कीसवां सर्ग समाप्त हुआ // 21 // -
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________________ द्वाविंशः सर्गः। इदानीं पूर्वसर्गान्तरप्रस्तावितं सायंकालं वर्णयिष्यन् कविविंशं सर्गमुपक्रमते उपास्य सांध्यं विधिमन्तिमाशारागेण कान्ताधरचुम्बिचेताः। अवाप्तवान् सप्तमभूमिभागे भैमीधरं सौधमसौ धरेन्द्रः॥१॥ उपास्येति / असौ धरेन्द्रो नलः सायंसंध्याप्रान्तभवेनान्तिमाशायाः प्रतीच्या आशाया दिशो रागेण रक्तवर्णन हेतुना कान्ताया अधरचुम्बि अधरोष्ठस्मारि चेतो यस्य तादृशः संध्यारागसहशभैम्यधरस्मारी सन् वद्विरहासहिष्णुतया बहिरवस्थातु. मशक्तो यत्र सा विद्यते तं सप्तमे भूमिभागे कक्षायां स्थितं भैम्याः धरं पर्वतरूपं सौधं हम्यं प्रासादस्य सप्तमीमुपकारिकामवाप्तवान् / किं कृत्वा ? सांध्यं संध्यासंबन्धिनं संध्याजपादिविधिमुपास्य कृत्वा // 1 // इस राजा ( नल ) ने सन्ध्याकालिक विधिको पूर्णकर पश्चिम दिशाकी लालिमासे प्रिया (दमयन्ती ) के अधरका स्मरण करते हुए, दमयन्तीके प्रासादके सातवें तल (सतमहला) को प्राप्त किया // 1 // प्रत्युव्रजन्त्या प्रियया विमुक्तं पर्यङ्कमङ्कस्थितसजशय्यम् / अध्यास्य तामप्यधिवास्य सोऽयं संध्यामुपश्लोकयति स्म सायम् // 2 // प्रतीति / सोऽयं नलः सायंकालसंबन्धिनी 'सन्ध्यो रात्रिदिनसम्बन्धिनं मुहूर्त भैम्याः पुर उपश्लोकयति स्म श्लोकः स्तौति स्म / किं कृत्वा ? प्रत्युद्वजन्त्या सम्मुखमागच्छन्त्या प्रियया विमुक्तम् / अङ्के मध्ये स्थिता सजा आस्तृता शय्या तूलिका यत्र तं पर्यकमध्यास्य स्वयमधिष्ठाय तां भैमीमप्यधिवास्य तत्रोपवेश्य / पर्यम्, 'अधिशी-' इति कर्मत्वम् / अधिवास्य, ण्यन्ताद्वसतेय॑प्। तस्य धास्व. न्तरत्वात् 'उपान्वध्यावसः' इति कर्मवाप्राप्तेस्तामधिवास्येत्यत्र सामर्थ्यात्तत्रैवेति ज्ञेयम् / उपश्लोकयति, 'सत्यापपाश-' इति णिच् / स्मयोगे भूते लट् // 2 // __ ये ( नळ ) अगवानी करती हुई प्रिया ( दमयन्ती ) से छोड़े गये तथा गद्दा बिछाये हुए पलंगपर स्वयं बैठकर और उस ( दमयन्ती) को भी बैठाकर सायंकालकी सन्ध्याका वर्णन श्लोंकों द्वारा करने लगे // 2 // विलोकनेनानुगृहाण तावदिशं जलानामधिपस्य दारान् / अकालि लाक्षापयसेव येयमपूरि पङ्करिव कुङ्कमस्य // 3 // विलोकनेनेति / हे प्रिये ! त्वं जलानामधिपस्य वरुणस्य दारान् मायाँ पश्चिमां दिशं विलोकनेनानुगृहाण कृतार्थीकुरु, तावदादौ विलोकनेनानुगृहाण, वर्णनया तु पश्चादित्यर्थः / यावचन्द्रोदयादिना प्राच्या रामणीयकं भवति तावत्संध्यारागेण कृत. रामणीयको पश्चिमां दिशं विलोकयेति वा 'तावत'शब्दार्थः / जडाधिपस्य च भार्या
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________________ 1462 नैषधमहाकाव्यम् / दुःखिता विलोकनादिनाऽनुग्रहीतुमर्हा भवतीत्युक्तिः। येयं पश्चिमा दिक् लाक्षापयसालक्तकरसेन कृत्वा केनाप्यक्षालीव क्षालितेव / तथा-कुङ्कुमस्य पङ्कः कृत्वा केनाप्यपू. रीव पूरितेव / एवंविधा रक्ता दृश्यते, यतस्तस्माद्रमणीयामेतां विलोकयेत्यर्थः // 3 // ( हे प्रिये ! ) जलाधिप ( वरुण ) की स्त्रीरूपिणी दिशा अर्थात पश्चिम दिशाको अच्छी तरह देखनेसे अनुगृहीत करो ( अथवा-पहले देखनेसे और बादमें वर्णन करनेसे अनुगृहीत करो, अथवा-तबतक देखनेसे अनुगृहीत करो, जब तक चन्द्रोदय होनेसे इसको अरुणिमाका सौन्दर्य नष्ट नहीं होता ); जिस (पश्चिम दिशा) को (किसीने ) लाक्षारससे मानो धो दिया है तथा कुङ्कम के पकोंसे परिपूर्ण कर दिया है। (पक्षा०-'ड' तथा 'ल' का अभेद मानकर 'जडाधिप' अर्थात् अतिशय जडकी स्त्रीको देखनेसे अनुगृहीत करो, क्योंकि अतिशय जडकी स्त्रीको देखकर अनुगृहीत करना उचित है)॥३॥ उच्चस्तरादम्बरशैलमौलेश्च्युतो रविगैरिकगण्डशैलः / तस्यैव पातेन विचूर्णितस्य संध्यारजोराजिरिहोजिहीते // 4 // उच्चैरिति / हे प्रिये ! रविरेव गैरिकाख्यधातुविशेषसम्बन्धी गण्डशैलः उच्चतरा. दत्युनतादम्बरशैलस्य गगनगिरेमौंले शिखरात्सकाशाच्च्युतः पतितः स्थूलपाषाण एवाधः पतितः, अथ च,-संनिहितः, पातेनोवतरगिरिशिखरादधःपतनेन हेतुना विचूर्णितस्य विशेषेण सूचमचूर्णीकृतस्य तस्यैव गैरिकगण्डशैलस्य संबन्धिनी संध्यव रजोराजिः, संध्यासंबन्धी राग इत्यर्थः। इह सायंकाले पश्चिमदिशि वा उजिहीते उपरिष्टात्प्रसरति / अस्तसमये सूर्यस्य रक्तवादगन गिरिशिखराच्च्युतत्वाच गैरिक. गण्डशैलत्वम् / उच्चतरा प्रदेशात्पतितो गण्डशैलश्चूर्णीभवति, चूर्णीभूतस्य च रजोराजिरूर्व प्रसरति, तद्रजोराजिरेव संध्यारागः प्रायेणोध्वं प्रसरतीत्यर्थः // 4 // गेरूका चट्टानरूपी यह सूर्य अत्यन्त ऊँचे आकाशरूपी पर्वतके शिखरसे गिर पड़ा है और गिरनेसे अत्यन्त चूर्ण ( चकनाचूर ) हुए उसीका सन्ध्यारूपी धूलि-समूह यहां (पश्चिम. दिशामें ) उड़ रहा है। [ सायवालमें सूर्यको रक्तवर्ण होनेसे गेरु के चट्टानकी तथा आकाशको अत्युन्नत पर्वतकी कल्पना की गयी है / ऊँचे स्थानसे गिरे हुए चट्टानका चकनाचूर होना और उसके धूलि-समूहका ऊपरको उड़ना उचित ही है ] // 4 // अस्ताद्रिचूडालयपक्कणालिच्छेकम्य कि कुक्कुटपेटकस्य | यामान्तकूजोल्लसितैः शिखौधैदिग्वारुणी द्रागरुणीकृतेयम् / / 5 // अस्तेति / हे प्रिये ! कुक्कुटानां पेटकस्य समूहस्य यामान्ते प्रहरान्ते या कूजा शब्दितं तद्वशादुल्लसितैः प्रकाशमानैः किंचिदुचीभूतैरुत्फुल्लजपाकुसुमतुल्यः शिखानां शिरसि रक्तचममयकेसराणामोघव॒न्दैः किमियं वारुणी दिक् द्राक् अकस्मादरुणीकृता रक्तीकृता / उत्प्रेक्षा / किंभूतस्य ? अस्ताद्रेश्चूडा शिखरं सैवालयः स्थानं यस्य स पक्कणः शबरगृहं तस्यालिः समूहस्तत्रच्छेकस्यासकस्य शबरेहेषु संगृहीतस्य / कुक्कु.
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1463 टानां कूजनेनोन्नमितशिखरवं जातिः / ते च यामान्ते फूजन्ति / सायंसमये कूजना. दुत्फुल्लशिखावृन्दसंबन्धादरुणीभवनसंभवाथ यामान्तेत्यायुक्तम् / 'पक्कणःशबरालयः' 'गृहासक्ताः परिमृगाश्छेकास्ते गृहकाश्च ते' इत्यमरः / 'पेटकं पुस्तकादीनां मञ्जषायां कदम्बके' इति विश्वः॥५॥ अस्ताचल के शिखरपर स्थित शबर-गृहसमूहों में पाले गये मुर्गों के समूहों के सायङ्कालमें कूजने ( शब्द करने ) से ऊपर उठे हुए (चर्ममय रक्तवर्ण) शिखा-समूहोंने इस पश्चिम दिशाको एकाएक लाल कर दिया है क्या ? [ बोलते समय मुर्गोका ऊपर शिर उठाना स्वभाव होता है ] // 5 // पश्य दूतास्तंगतसूर्यनिर्यत्करावलीहैङ्गलवेत्रयात्र | निषिध्यमानाहनि संध्ययापि रात्रिप्रतीहारपदेऽधिकारम् / / 6 / / पश्येति / संध्यया अत्र सायंसमये चंद्रस्य नायिकाया रात्रेः संबन्धिनः प्रतीहा. रस्य दौवारिकस्य पदे अधिकारमास्पदमपि पश्य विलोकय / किंभूतया? द्रुतं शीघ्र. मस्तंगतस्य सूर्यस्य निर्यती बहिनिर्गच्छन्ती करावली किरणपरम्परैव हैङ्गुलं हिङ्गु. लाख्येन रक्षकरक्तद्रव्यविशेषेण रक्तं वेत्रं दण्डविशेषो यस्यास्तया। किंभूते पदे ? निषिध्यमानं निवार्यमाणप्रवेशमहो दिनं यस्मिन् / स्त्रिया हि दौवारिकी स्येव युक्तेति संध्यैव रात्रेदौवारिकी जातेत्यर्थः / सूर्योऽस्तमितः, दिनं गतम् ; रात्रिरागता, इति सायंसंध्यया ज्ञाप्यत इति भावः। दौवारिक्यपि हैङ्गुलवेत्रपाणिः सती प्रविशन्तं कमपि प्रतिषेधयति / 'तिर्यकरा-' इति तिर्यञ्चस्तिरप्रसारिणश्च ते करा. श्वेति / अहनीत्यत्र तत्पुरुषत्वाभावाहजभावः // 6 // शीघ्र ( अमी) अस्त हुए सूर्यसे निकलते हुए किरण-समूहरूपी हिङ्गलसे रंगे हुए बेंत ( की छड़ी) वाली सन्ध्या के द्वारा रोका जा रहा है दिन जिसमें, ऐसे रात्रिके द्वारपालके पदपर अधिकारको देखो / [ स्त्रीका द्वारपाल स्त्रीको ही होना उचित होनेसे रात्रिने सन्ध्याको द्वारपाल बनाया है, तथा लालरंगकी छड़ीवाली वह सन्ध्या दिनरूप परपुरुषको चन्द्रमाकी नायिका रात्रिके पास आनेसे निषेध करती हुई अपना अधिकार पालन कर रही है। सूर्यास्त हो गया, दिन बीत गया, रात आ गयी, यह सब सायङ्कालकी सन्ध्यासे ज्ञात हो रहा है ] // 6 // इदानीं संध्यानक्षत्रसंयोगं वर्णयति महानटः किं नु सभानुरागे संध्याय संध्यां कुनटीमपीशाम् / तनोति तन्वा वियतापि तारश्रेणिस्रजा सांप्रतमङ्ग ! हारम् / / 7 / / महानट इति / अङ्ग ! हे भैमि ! महान् संध्योपासनादिविषयेऽतिप्रशस्तः, तथा,अटति गच्छतीत्येवंभूतः कालः स प्रकृतः सायंतनः, यद्वा,-महान्परमेश्वरो नटो नर्तको यस्मिन् / संध्याकाले हीश्वरो नृत्यति / स प्रकृतः सायंसंध्यासमयो भानो..
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________________ 1464 नैषधमहाकाव्यम् / सूर्यस्य रागे लोहितिमनि सति अस्तमयानन्तरं सूर्यस्य रागमात्रेऽवशिष्टे सति संध्याकान्ति किंचित्पीतरक्तवर्णत्वाकुनीं 'नेपानी कुनटी गोला' इत्याद्यभिधानात् मनःशिलारूपाम् , तथा,-ईशामपि स्वकालस्वामिनी च, अथ च,-पितृप्रसूरूप. स्वाद् ब्रह्मतनुत्वाद् देवतारूपाम् , अथ च,-समृद्धिमती सन्ध्याय सम्यग्विचिन्त्य सांप्रतमिदानी तन्वा किंचिदुद्गततया संध्यारागतिरोहितकान्तितया वा कृशया किंचि. दृश्यया / तथा,-वियतापि गगनरूपया लक्षणया यावद्गगगनं विस्तीर्णया, यद्वाआ सामस्स्येन व्याप्तं वियद्यया गगनव्यापिन्या च, तारश्रेण्या नक्षत्रपरम्परारूपया सजा पुष्पादिमालया हारं तनोति विश्चयति किं नु। यद्वा,-ताराणां शुद्धमोक्ति। कानां श्रेणियंत्र तादृश्या ग्रथितमौक्तिकया मालया हारविरचनं युक्तमिति संध्याकालः संध्यामेवंविधां संचिन्त्य नक्षत्रपरम्परामेव हारं विरचयति किमित्यर्थः। संध्यारागः कियानवशिष्टोऽस्ति, मुक्तातुल्यानि नक्षत्राणि च किंचिदृश्यानि जातानीति भावः / तन्वा तारश्रेणिस्रजोपलक्षितेन तद्यक्तेन वियता गगने नवहारं तनोतीति वा / संध्या. मेवंविधां विज्ञाय तूष्णीभूत इति न किंवौचित्याद्विशिष्टया तारश्रेणिस्रजा हारमपि विरचयतीत्यर्थ इति वा अपि'शब्दार्थः / अथ च,-स प्रसिद्धो महानटस्ताण्डवनृत्तकर्ता शिवो भानोः सूर्यस्य रागे सति, अस्तमितार्धे सूर्य सतीति यावत् / तत्र संध्यासमये मनःशिलातुल्यवर्णामचिरस्थास्नुत्वात्कुत्सितनर्तकीरूपां वा ईशां देवीं संध्यां सम्यः अध्यास्वा सायंसंध्यावन्दनं कृत्वाऽष्टासु मूर्तिषु मध्ये तारापरम्परैव माला यस्यां तया गगनरूपयापि अमूर्तयापि मूर्त्या कृत्वा इदानी संध्यावन्दनानन्तरमङ्गहारं मुखकर पार्वाद्यङ्गानां समतालमानं विक्षेपं करोति किंन्विति वितर्कः। अमूर्तस्याङ्गहारकरणं चित्रमिति विरोधार्थः 'अपि'शब्दः / न केवलं चन्द्रसर्पभोगादिभूषितयैव तन्वाङ्गहारं करोति, किन्तु वियतापि तन्वेति समुच्चयार्थो वा। ईश्वरो हि सायंसमये नृत्यति / भानुरागे मनःशिलातुल्यवर्णां संध्यामपीशां स्वसहचरी पार्वती विचिन्त्य विशिष्टया वियद्पयापि तन्वाङ्गहारं तनोति / पार्वतीसमीपेऽपीश्वरो नृत्यति // अथ च,महानतिप्रवीणो नटः कुत्सितां नीं नृत्तेऽनतिचतुरामपि संध्यां वयःसंधौ वर्तमानां तरुणी रसभावसंधौ वर्तमानां वा रसभावज्ञाम, अत एव-सभाया अनुरागे ईशां सभ्यानुरागजनेन समर्थां संचिन्त्य वियत्तुल्ययाऽतिविशालया शुद्धमौक्तिकपरम्परा. रूपया मालयोपलक्षितया तन्वाङ्गहारं तनोति तदसांप्रतं किम् ? अपि तु-रसभावादि जनयन्त्या तया सभ्यानुरागे समुत्पादितेऽपि नृत्तकर्मकौशलेनापि सभ्यानुरागार्थ स्वयमङ्गहारं तनोतीति युक्तमेवेत्यर्थः // अथ च,-महानर्तको वयःसंधौ रसादिसंधौ वा वर्तमानां तथा समृद्धिमतीमपि स्त्रियं कुरिसतां नटी नृत्तानभिज्ञां ज्ञात्वा सभानुरागे निमित्त विशिष्टया तन्वा स्वयमङ्गहारं तनोति तदसांप्रतं किं नु, अपि तु तस्या नृत्यकौशलाभावान्नृत्तेन सभानुरञ्जने सामर्थ्याभावात्सभानुरञ्जनार्थ स्वयमेव निपुणं नृत्यतीति युक्तमेवेत्यर्थः // अथ च,-अन्योऽपि महानतिसमृ.
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1495 द्धोऽटति सर्वत्र गच्छति तादृशोऽतिचञ्चलोऽतिप्रसिद्धो विटः कुनटीमपि नृत्तविद्यायामचतुरामपि भया कायकान्त्या कृत्वा योऽनुरागस्तद्विषये ईशां सौन्दर्यातिशयेनैव. रागमुत्पादयन्तीम्, तथा-शैशवतारुण्ययोः संधौ वर्तमानां प्रादुर्भूतयौवनां रसभावसंधिस्थत्वाद्रसभावज्ञां वा संचिन्त्य कायकान्त्यानुरागे सति कुन टीमपि तरुणों रस. भावज्ञा वा तथेशां संपन्नां च विचिन्त्य तदीयशरीरस्यातिविस्तृततया शुद्धमौक्तिकमालया हारं विरचयति, तन्त्रानुरक्तः संस्तस्यै मुक्ताहारं वितरतीत्यर्थः। एवमन्या अपि योजनाः सुधियोहनीयाः। 'सभानुरागैः संधाय' इति पाठो बहुषु पुस्तकेष्व. दृष्टत्वादुपेक्ष्यः / अटः, पचाद्यच् / संध्याम्, दिगादित्वायत्। 'तार'शब्दस्य नक्षत्र कनीनिकाभिधायित्वं दशमसर्ग एवोक्तम् // 7 // (इस समय सन्ध्या तथा नक्षत्रोंके योगका वर्णन करते हैं-) वे महानट (नृत्य करने में सुप्रसिद्ध शिवजी ) मैनसिलरूपिणी अर्थात मैनसिलके समान लाल सन्ध्या ( साय. काल ) को सूर्यकी लालिमा ( उत्पन्न करने ) में समर्थ जानकर अर्थात् सूर्यको लाल करनेवाली यह सन्ध्याकाल ही आ गया है ऐसा निश्चितकर तारासमूह ही है माला जिसमें ऐसे आकाशात्मक शरीरसे इस समय (नृत्त-कालमें ) अङ्गहार ( शरीरका सञ्चालनादि ) करते हैं क्या ? [ यहां आठ मूर्तियोंवाले शिवजीकी 'आकाश' को भी अन्यतम मूर्ति होनेसे उसका अङ्गहार करना कहा गया है। यद्यपि 'आकाश' अमूर्तपदार्थ है, तथापि शिवजीकी आठ मूर्तियोंके अन्तर्गत होनेसे उससे अङ्गहार करने में कोई विरोध नहीं समझना चाहिये / अथ च-नृत्यमें चतुर कोई व्यक्ति बाल्य-तारुण्यरूप अवस्थाकी सन्धि (मध्य ) में वर्तमान कुनटी (नृत्यकलामें अनभिश) को भी सभा ( में उपस्थित दर्शकों) के अनुराग ( उत्पन्न करने ) में समर्थ मानकर विशाल मुक्तासमूहकी मालावाले आकाशवत् विशाल शरीरसे इस समय अङ्गहार ( नृत्य-विशेषमें शरीरका सञ्चालन ) करता है क्या ? अथच-महान् अर्थात् सन्ध्योपासनादि कर्ममें श्रेष्ठतम तथा गमनशील (-अथवा-(साय. काल में शिवजीको नृत्य करनेका नियम होनेसे ) महान् अर्थात् शिवजी हैं नट ( नृत्यकर्ता जिसमें ऐसा ) वह सन्ध्याकाल सूर्यकी. लालिमा होनेपर अर्थात् सूर्यकी लालिमाके कुछ. कुछ अवशिष्ट रहनेपर सन्ध्याशोभाको मैनसिलरूपिणी, अपने समयकी स्वामिनी (यादेवतारूपिणी, या-समृद्धिशालिनी) निश्चितकर थोड़ी-थोड़ी दृश्यमान, आकाशतक फैली हुई ( अथवा-सब ओर आकाशमें विस्तीर्ण) नक्षत्र-श्रेणिरूपिणी मालासे हार बनता है. क्या ? ( अथवा-गुथे गये शुद्ध मोतियोंकी मालासे हार बनाना युक्त समझकर सन्ध्याकाल नक्षत्र-समूहरूपी हार बना रहा है क्या ?, अर्थात् सन्ध्याकालकी लालिमा कुछ-कुछ अवशिष्ट रह गयी है और नक्षत्र-समूह मोतियोंके तुल्य कुछ-कुछ दृष्टिगोचर होने लगे ) / अथच-वह (प्रसिद्धतम ) महानट (शिवजी) सूर्यको लालिमा रहनेपर मैनसिलके समान अरुणवर्ण ( अथवा- (अस्थिर कान्ति होनेसे तुच्छ नर्तकीके समान ) सन्ध्याका सम्यक् ध्यानकर अर्थात् सन्ध्योपासन कर्म समाप्तकर (अपनी आठ मूर्तियोंमेंसे) तारा-समूहरूप.
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________________ 1466 नैषधमहाकाव्यम् / मालावाली आकाशरूपिणी ( अमूर्त भो ) मूर्तिसे इस समय ( सन्ध्योपासन कर्म समाप्त करने के बाद ) अङ्गहार (मुख, हाथ आदि अङ्गोंका सञ्चालन ) करते हैं क्या ? / ( अथवाकेवल चन्द्र, सर्प तथा चर्मादिसे भूषित शरीरसे ही अङ्गहार नहीं करते हैं ? अपितु अपनी आठ मूर्तियोंमेंसे आकाशमूर्तिसे भो अङ्गहार करते हैं ) / अथच-चतुर नट बाल्य-तारु. ण्यरूप वयः-सन्धि ( या-रसादि-सन्धि ) में स्थित, समृद्धियुक्त भी स्त्रीको नृत्यकलामें अनभिज्ञ जानकर समाके अनुरागमें विशिष्ट ( अपने ) शरीरसे अङ्गहार करता है, यह असाम्प्रत ( अयोग्य ) है क्या ? अर्थात् नहीं, ( क्योंकि नृत्यकलाको नहीं जानने वाली वैसे कुनटीसे समानुरञ्जन होना असम्भव जानकर उसका स्वयमेव अङ्गहार करना सर्वथा उचित ही है ) / अथच-अतिशय चञ्चल ( कोई विट ) नृत्यकलामें अचतुर भी किसी स्त्रीको शरीर-सौन्दर्यसे अनुरागोत्पादनमें समर्थ तथा बाल्य-तारुण्यरूप वयः-सन्धिमें वर्तमान अर्थात् युवावस्थामें प्रवेश करती हुई जानकर उसके शरीरके अतिशय विस्तृत होनेसे श्रेष्ठ मुक्ता-समूहकी मालासे हार बनाता है अर्थात् उसमें अनुरक्त होकर उसे हार देता है / अथच-चतुर नर्तक, बाल्य-तारुण्यरूप वयः-सन्धिमें वर्तमान कुनटी (पृथ्वीमें प्रसिद्ध नटी ) अर्थात् लोकप्रसिद्ध नर्तकीको समाके अनुराग उत्पन्न करने में समर्थ जानकर भी अतिशय बड़े श्रेष्ठमुक्तासमूहकी मालाको पहने हुए स्वशरीरसे जो अङ्गहार करता है, वह उचित है क्या ? अर्थात् नहीं उचित है, (क्योंकि नर्तकीके नृत्यके अवसरमें उसका नृत्य करना सभासदोंको यथायोग्य अनुरजन नहीं करनेसे अनुचित ही है ) // 7 // भूषास्थिदानस्युटितस्य नाट्यात्पश्योडुकोटीकपटं वहद्भिः / दिङमण्डलं मण्डयतीह खण्डैः सायंनटस्तारकराकिरीटः // 8 // भूषेति। हे भैमि ! तारकराट् चन्द्रः किरीटो यस्य स शंभुः सायं नटतीति सायंनटो नर्तक उद्धृतान्नाट्यन्नत्तातोस्वटितस्य भूषास्थ्नां दाम्नो मालाया उच्छलितैः खण्डः शकलस्तैरेव उदुकोटीकपटं कोटिसंख्यनक्षत्रव्याजं वहद्भिर्धारयद्भिः सद्भिरिह सायंसमये दिङ्मण्डलं मण्डयति पश्य / एतानि नक्षत्राणि न, किंतु ताण्डवत्रुटिता. स्थिमालोच्छलच्छकलान्येव दिनु शोभन्त इत्यर्थः। अन्योऽपि चन्द्रतुल्यकिरीटो नृत्यंस्त्रटितहारखण्डैः स्त्रीवृन्दं मण्डयति / 'मण्डयतीव' इति पाठे-उत्प्रेक्षा // 8 // (हे प्रिये दमयन्ति !) चन्द्रमुकुट एवं सायङ्कालके नट शिवजी ( अत्यु द्धत ) नृत्य करनेसे टूटे हुए तथा करोड़ों ताराओंके कपटको धारण करनेवाले भूषणभूत अस्थिमालाके टुकड़ोंसे इस सायङ्कालमें दिक्समूहको अलङ्कृत करते हैं, देखो। [ये करोड़ों नक्षत्र नहीं है, किन्तु उद्धृत ताण्डव नृत्यमें टूटी हुई शिवजीकी भूषणभूत अस्थिमालाके टुकड़े हैं। लोकमें भी चन्द्रतुल्य मुकुट पहनकर नाचता हुआ कोई व्यक्ति टूटे हुए हारके टुकड़ोंसे स्त्री-समूहको अलंकृत करता है ] // 8 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1497 कालः किरातः स्फुटपद्मकस्य वधं व्यधाद्यस्य दिनद्विपस्य / तस्येव संध्या रुचिरात्रधारा ताराञ्च कुम्भस्थलमौक्तिकानि / / 6 / / काल इति। हे प्रिये ! कालः संध्यासमय एव किरातः, अथ च,-कृष्णवर्णो हिंसकत्वान्मृत्युरूपो वा कालो गिरिमहारण्यसंचारी शबरः स्फुटानि विकसितानि पद्मानि यस्मिन् / यद्वा,-विकसितकमलं कं जलं यस्मिन् , अथ च,-प्रकटीभूतं शुण्डादण्डाग्रे प्रकाशमान पद्मक रक्तबिन्दुवृन्दं यस्मिस्ताहशस्य दिनरूपस्य द्विपस्य वधं व्यधादकरोत् / तस्यैव हतस्य करिणो रुचिरा रम्या संध्यानधारा रुचिरधारा / स्थूलमुक्ता इव शोभन्त इत्यर्थः / स्फुटपद्मकस्येति बहुव्रीहौ कप // 9 // सन्ध्यासमय ( पक्षा०-मृत्युरूप, या-कृष्णवर्ण ) किरात विकसित कमलवाले ( जिसमें कमल-पुष्प विकसित हो रहे थे ऐसे, या-जिसमें कमल-पुष्प विकसित हो रहे थे ऐसा जल है जिसमें ऐसे; पक्षा०-(शुण्डादण्डपर ) स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे पद्माकार चिह्नविशेष जिसके ऐसे ) जिस दिनरूपी हाथीका बध किया (दिनका अपसारण किया तथा हाथीको मारा); सन्ध्या ( अरुणवर्ण यह सायकाल ) उसी दिनरूपी हाथीको रमणीय रक्तधारा है तथा नक्षत्र ( उस दिनरूपी हाथीके कुम्भस्थ ) गुजमुक्ताएं हैं // 9 // संध्यासरागः ककुभो विभागः शिवाविवाहे विभुनायमेव | दिग्वाससा पूर्वमवैमि पुष्पसिन्दूरिकापर्वणि पर्यधायि // 10 // संध्येति / विभुना प्रभुणा हरेण पूर्व शिवायाः पार्वत्या विवाहावसरे संध्यया सरागो रक्तवर्णोऽयमेव ककुभः पश्चिमाशाया विभागः प्रदेशः पुष्पवर्णयुक्ता सिन्दूरिका रक्तवस्त्रं तत्संबन्धिनि तद्योगात् पुष्पसिन्दूरिकाख्ये पर्वण्युत्सवे पर्यधायि परिहितः / यतो दिग्वलयमेव वासो यस्य तेन रक्तवस्त्रपरिधानावसरेऽपि दिग्वाससा औचित्याद्रक्तदिग्भाग एव परिहित इत्यवैमिशङ्के। विवाहस्य चतुर्थे दिने प्रथमादिनपरिहितानि वस्त्राणि प्रक्षालनार्थ परित्यज्य पुष्वसिन्दरिकाख्यपर्वणि कौसुम्भादिरक्तवस्त्राणि वधूवरेण परिधीयन्त इति वृद्धाचारः। तत्रेशस्य दिग्वसनत्वाद्रक्तपश्चिमभाग एवानेन परिहित इत्यर्थः / वर्णकभूतपुष्पस्थाने ताराः, सिन्दूरिकास्थाने संध्यासरागः पश्चिमदिग्भाग इति भावः // 10 // स्वामी दिगम्बर (भगवान् शङ्करजी) ने पहले पार्वतीके विवाइमें 'पुष्पसिन्दूरिका' नामक उत्सवके दिन सन्ध्यासे रक्तवर्ण इसी दिशाके हिस्से ( पश्चिम दिशा) को पहना था, ऐसा मैं जानता हूँ। [ कुसुम्मादिके पुष्प तथा सिन्दूरसे रंगे हुए वस्त्रको वधू-वर विवाहसे चौथे दिन पहनते तथा विवाह-समयमें पहने गये वस्त्रको धोने के लिए उतार देते हैं, उसीको 'पूष्पसिन्दूरिका' पर्व कहते हैं। प्रकृतमें भगवान् शङ्करजीने पार्वतीके साथ विवाह होनेके चौथे दिन उक्त पर्वके आनेपर स्वयं दिगम्बर होनेसे मानो पुष्पसिन्दूरसे रंगनेसे
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________________ 1468 नैषधमहाकाव्यम् / रक्तवर्ण इसी पश्चिम दिशाको वस्त्ररूपमें धारण किया / ताराओंको रंगनेवाला पुष्प, सन्ध्या की लालिमाको सिन्दूर तथा पश्चिम दिशाके हिस्सेको वस्त्र समझना चाहिये ] // 10 // प्रातःसायंसंध्ययोः प्राचीप्रतीच्योर्द्वयोरपि तुल्यवर्णस्वारसायंसंध्यारक्तपश्चिमदिश एव पुष्पसिन्दूरिकास्वं कथं वर्ण्यत इत्याक्षेपे तत्परिहारार्थं प्राच्या अपि तद्भावमाह सतीमुमामुद्वहता च पुष्पसिन्दूरिकार्थे वसने सुनेत्रे!। दिशौ द्विसंधीमभि रागशोभे दिग्वाससोभे किमलम्भिषाताम् / / 12 / / सतीमिति / हे सुनेत्रे ! सती दानायणीमुमां पार्वती चोद्बहता परिणयता दिग्वा. ससा हरेण पूर्वोक्तपुष्पसिन्दूरिका) द्विसंधी अभि द्वे अपि प्रातःसायंसंध्ये लक्षीकृत्य द्वे प्राचीप्रतीच्यौ दिशावेव रागेण रक्तवर्णेन शोभा ययोस्ते, रक्तवर्णेन शोभेत इति वा, तादृशे रक्ते उभे द्वे वसने अलम्भिषातां प्राप्ते किम् ?, विवाहद्वये संध्याद्वयरक्त. दिग्द्वयमेव दिग्वसनत्वाद्रक्तवस्त्रद्वयं शिवेन लब्धम्' इत्यहं मन्य इत्यर्थः / शिवेन द्वे दिशावेव वस्त्रे द्वे संध्ये लक्षीकृत्य रागेण रक्षकद्रव्येण कृत्वा ये शोभे कर्मभूते ते प्रापिते किम् ? विवाहे वस्त्रं रञ्जनाय कस्यचिरकरे समर्प्यते तस्माच्छिवेन दिग्व. लयरूपे मम द्वे वस्त्रे भवतीभ्यां रक्तशोभे प्रापणीये इति संध्याद्वयमाज्ञप्तं सहिग्वयं रक्तशोभं चकारेत्यर्थं इति वा / 'सुनेत्रि' इति पाठे-'असंयोगोपधात्' इति निषे. धान्ङीष् चिन्त्यः। द्विसंधीम् , समाहारद्विगोरेकत्वे 'अबान्तो वा' इति स्त्रीत्वे च 'द्विगोः' इति ङीपि 'संध्या' शब्दस्य तद्धितयदन्तत्वात् 'हलस्तद्धितस्य' इति यलोपः। 'अभिरभागे' इत्यभेः कर्मप्रवचनीयस्वात्तद्योगे द्वितीया / गत्यर्थवादणी कर्तुर्गों कर्मत्वं पक्षे // 11 // हे सुलोचने (दमयन्ती ) ! सती ( दक्षकन्या) तथा पार्वतीके साथ विवाह करते हुए दिगम्बर (शङ्करजी) ने दोनों (प्रातःकाल तथा सायङ्कालकी ) सन्ध्याओंको लक्षितकर लाल शोभावाले (पूर्व तथा पश्चिम दिशारूप ) दो वस्त्रोंको 'पुष्पसिन्दूरिका' नामक व्रतके लिये ( श्वशुर दक्षप्रजापति तथा हिमालयसे ) प्राप्त किया था क्या ? ( अथवा-......... शङ्करजीने 'पुष्पसिन्दू रिका' व्रतके लिये पूर्व-पश्चिम दिशारूप दो वस्त्रोंको (रंगने के लिए) दोनों (प्रातःकाल तथा सायंकालकी ) सन्ध्याओंको प्राप्त कराया (दिया ) था क्या ?) / [ प्रथम अर्थमें-शङ्करजीको दिगम्बर होनेसे उनके लिये दिशारूप वस्त्र ही देना उचित समझकर श्वशुरने भी 'पुष्पसिन्दूरिका' व्रतके लिए दोनों सन्ध्याओंको लक्ष्यकर पूर्व-पश्चिमरूप दो दिशाओंको ही वस्त्ररूपमें दिया था। द्वितीय अर्थमें-जिस प्रकार किसीको कोई वस्त्र रंगने के लिए कोई व्यक्ति देता है, उसी प्रकार शङ्करजीने भी 'पुष्पसिन्दूरिका' व्रतमें रंगे हुए लाल वस्त्रोंको पहननेका नियम होनेसे पूर्व-पश्चिम दिशारूप दो वस्त्रों को लाल रंगनेके लिए दोनों सन्ध्याओंको दिया था ] // 11 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1499 आदाय दण्डं सकलासु दिक्षु योऽयं परिभ्राम्यति भानुभिक्षुः / अब्धौ निमजन्निव तापसोऽयं संध्याभ्रकाषायमधत्त सायम् // 12 // आदायेति / योऽयं भानुरेव भिक्षुः परिव्राट् दण्डं पारिपार्श्विकमेव वैणवयष्टिमादाय सकलासु दिक्षु परिभ्राम्यति सोऽयं तापसः परिवाट् सायंकाले अब्धौ निमज्जन् पातालं प्रविशन् , अथ च-बहुजले जलाशये स्नानं कुर्वन् संध्यायामभ्रं गगनं तदेव कषायरक्तं वस्त्रमधत्तेव उपरि स्वस्योxभागे, अथ च,-उच्चतटस्योपरि दण्डस्योपरि वा निजमस्तकोपरि वा धृतवानिव / एवं यतिरपि बहुकालावस्थानस्य निषिद्धत्वादुक्तलक्षणः सन् परिभ्रमणे कषायं वस्त्रं धारयति, काषायमिव संध्या शोभते इत्यर्थः / 'माठरः पिङ्गलो दण्डश्चण्डांशोः पारिपार्श्विकाः', 'भिक्षुः परिवार कर्मन्दी' इत्यमरः / काषायम् , 'तेन रक्तम्-' इत्यण // 12 // ___ जो यह सूर्यरूपी मिक्षु अर्थात संन्यासी दण्ड (बांसका दण्ड, पक्षा०–'दण्ड' नामक पारिपाश्विक ) को लेकर सम्पूर्ण दिशाओं में घूमता है, वह ( सूर्यरूप ) यह तपस्वी अर्थात संन्यासी सायङ्काल में समुद्र (पक्षा०-समुद्रवत् अगाध जलवाले जलाशयादि ) में डूबता ( अस्त होता, पक्षा-स्नान करता ) हुआ-सा सन्ध्याके (रक्तवर्ण) आकाशरूप काषाय (गेरुआ ) वस्त्र धारण करता है // 12 // अस्ताचलेऽस्मिन्निकषोपलाभे संध्याकषोल्लेखपरीक्षितो यः / विक्रीय तं हेलिहिरण्यपिण्डं तारावराटानियमादित द्यौः // 13 // अस्तेति / यः सूर्यः अस्मिन्प्रतीच्या वर्तमाने निकषोपलाभे सुवर्णपरीक्षापाषाण. तुल्येऽस्ताचले संध्याराग एव कषोल्लेखः घर्षणोल्लेखस्तेन परीक्षितः / इयं चौस्तं हेलिं सूर्यमेव हिरण्यपिण्डं विक्रीय विनिमयेन कस्मैचिहत्त्वा तारारूपान्वराटान् कपर्दकानादित जग्राह / उत्तमं सुवर्ण रक्तपीतं भवति / तथा च रक्तपीतसुवर्णगोलकस्य निकषपरीक्षितसुवर्णरेखेन संध्या दृश्यते, ताराश्च वराटा इव दृश्यन्त इत्यर्थः / 'यौः' इति लोकव्यवहारानभिज्ञत्वद्योतनाथ स्त्रीलिङ्गनिर्देशः / स्त्री हि सुवर्ण दत्वा मूर्खतया वराटकान्गृह्णाति, धूर्तेन वन्च्यते च / वराटकव्यवहारे देशे सुवर्णमपि दत्त्वा वरा. टका एवं गृह्यन्ते // 13 // - कसौटीके पत्थरके समान इस अस्ताचलपर सन्ध्या (सायंकालकी लालिमा ) रूप घर्षणरेखासे जिस ( सूर्यरूप सुवर्णपिण्ड ) की परीक्षा की गयी, उस सूर्यरूपी सुवर्णपिण्डको बेचकर यह द्यौ अर्थात् आकाश तारारूपी कौड़ियोंको लिया। [जिस प्रकार कोई मूर्खा स्त्री कसौटीके पत्थरपर घिसकर परीक्षित सुवर्णपिण्डको कौड़ियों को लेकर किसी चतुर व्यक्तिके लिए बेच देती है, उसी प्रकार आकाशने तारारूप कौड़ियों को लेकर निकषरूप अस्ताचलपर सुपरिक्षित सूर्यरूप सुवर्णपिण्डको किसीके हाथ बेच दिया है। जहांपर रुपयेके स्थानमें कौड़ियोंका व्यवहार होता हैं, वहांपर सुवर्णको बेर 64 नै० उ०
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________________ 1500 नैषधमहाकाव्यम् / लेना उचित ही है। रक्तवर्ण सूर्य अस्त हो गया, कसौटीपर घिसे गये सुवर्णपिण्डकी रेखाके समान सन्ध्या पीतारुणवर्ण हो गयी / आकाशमें ताराएं कौड़ियों के समान दिखलाई पड़ने लगी ] // 13 // पचेलिमं दाडिममर्कबिम्बमुत्तार्य संध्या त्वगिवोज्झितास्य / तारामयं बीचभुजादसीयं कालेन निष्ठयतमिवास्थियूथम् // 14 // पचेलिममिति / दाडिमबीजभुजा कालेन रक्तमर्कबिम्बमेव पचेलिमं तरोरुपर्येव स्वयं पक्वं दाडिमं फलमुत्तार्य गगनतरोनोटयित्वा बीजग्रहणार्थ भित्वा वा संध्यारुचिस्त्वगिव अस्य दाडिमस्य पकत्वाद्वक्तकृत्तिरिवोज्झिता परित्यक्ता / तद्बीजभक्षणार्थमुपरितनबीजकोशवरसंध्या पृथकता। तथा,-बीजभक्षणानन्तरं तारामयं तारारूपमदसीयममुष्य दाडिमस्य अमीषां बीजानां वा, संबन्धि अस्टना बीजमध्यस्थश्वेतकणानां यूथं वृन्दं निष्टयूतमिवोद्गीर्णमिव बीजानि भक्षयित्वा गृहीतरसं तदा न्तर्गतश्वेतकणवृन्दं पुनस्थूस्कृतमिव / न हि कालादन्यं सूर्यदाडिमं भक्षितुं समर्थः / अन्योऽपि दाडिममुत्तार्य तत्वचं परित्यज्य बीजान्यास्वाद्य गृहीतरसान्बीजकणांस्थू. स्कृत्य त्यजति // 14 // (अनारके ) बीजको खानेवाले सायङ्कालने सूर्यबिम्बरूप पके हुए अनारके फलको (पेड़से ) तोड़कर अरुणवर्णवाले सन्ध्यारूपी इस (अनारके फल ) के छिलकेको फेंक दिया है और (इस अनारके फलके दानोंके रसको सम्यक् प्रकारसे चूसकर ) इस ( अनार ) के तारारूप निःसारबीजोंको थूक दिया है / [ लोकमें भी कोई व्यक्ति पकनेसे लाल अनारके फलके छिलकेको फेंककर उसके दानोंके रसको चूसने के बाद उन नीरस बीजोंको थूक देता है / प्रकृतमें-कालकृत नियमसे ही सूर्यास्त आदि होनेसे सायङ्कालने सूर्यको अस्तकर दिया, सन्ध्या अनारके छिलके समान अरुण वर्ण हो रही है तथा तारासमूह अनारके नीरस बीजों के समान श्वेतवर्ण दीखता है ] // 14 // ( तारातति/जमिवादमादमियं निरष्ठेवि यदस्थियथम् / तनिष्कुलाकृत्य रविं त्वगेषा संध्योज्झिता पाकिमदाडिमं वा / / ) तारेति / सामरिकालेन का रविमेव तत् पवित्रमं दाडिमं निष्कुलाकृत्य निर्गतबीजकुलं कृत्वा बीजरूपं सारं गृहीत्वा तदीया स्वगेवैषा संध्या उज्झिता / 'वा'शब्दः संभावनायाम् / उज्झिता किमित्याशङ्कयाह-बीजानि आदमादं भक्षयित्वा भक्षयित्वा यस्य सूर्यरूपस्य पकदाडिमस्य संबन्धि अस्थियूथमिवेयं ताराततिनिरष्ठेवि निष्ठयता। जग्ध्वा इत्यादमादम् , अदेराभीचण्ये णमुल द्विर्वचनं च / निरष्ठेवि, कर्मणि चिण / निष्कुलाकृत्य, निष्कुलान्निष्कोषणे' इति डाच / क्षेपकोऽयं श्लोकः॥ ( सायङ्कालने ) सूर्य ( रूपी पके हुए अनारके फल ) को छीलकर अर्थात् उसके बीजको नका लकर सन्ध्यारूपी छिलकेको फेंक दिया है तथा बीजको खा-खाकर अर्थात् उसके
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1501 रसको अच्छी तरह चूसकर तारासमूहरूप नीरस बीजको मानो थूक दिया है। [ पूर्व श्लोकका अर्थ होनेसे नारायणभट्टने इसे क्षेपक माना है ] // संध्यावशेषे धृतताण्डवस्य चण्डोपतेः पत्पतनाभिघातात् / कैलासशैलस्फटिकाश्मखण्डरमण्डि पश्योत्पतयालुभिद्यौः॥ 15 // संध्येति / हे प्रिये ! संध्यावशेष संध्यावन्दनान्ते धृतं ताण्डवनृत्यं येन तस्य चण्डीपतेः पदोश्चरणयोदृढं यत्पतनं तेनाभिघाताखेतोरुत्पतयालुभिरुत्पतनशीलैरुच्छ. लितः कैलासशैलसंबन्धिस्फटिकाश्मनां खण्डैः शकलैयौरमण्डि अलंकृता पश्य / कैलासस्फटिकखण्डा एव गगने तारारूपेण शोभन्ते / उत्पतयालुभिः, 'स्पृहिगृहि-' इत्यालुच // 15 // सन्ध्योपासनके बाद ताण्डव नृत्य करते हुए शिवजीके चरणों के आघातसे (चूर्ण-चूर्ण होकर ) ऊपर उछलनेवाले, कैलासपर्वतके स्फटिक पत्थरके टुकड़ोंने इस आकाशको अलंकृत कर दिया है, यह तुम देखो // 15 // इत्थं हिया वर्णनजन्मनेव संध्यामपक्रान्तवती प्रतीत्य | तारातमोदन्तुरमन्तरिक्षं निरीक्षमाणः स पुनर्बभाषे // 16 // इत्थमिति / स नलः पुन:मी बभाषे / किंभूतः ? इत्थमुक्तप्रकारेण वर्णनज. न्मना स्तुतिजातयाहियेवापक्रान्तवती निर्गतां संध्यां प्रतीस्य निश्चित्यान्तरिक्षं गगन तारातमोभ्यां दन्तुरितं निश्चितं निरीक्षमाणः / अन्योऽप्युत्तमो निजवर्णनजातलज्जा यापकामति // 16 // इस प्रकार ( 22 // 3-15) वर्णनसे उत्पन्न लज्जासे मानो भगी (पक्षा०-नष्ट ) हुई सन्ध्याको जानकर ताराओं एवं अन्धकारसे संयुक्त आकाशको देखते हुए वे (नल, दमयन्तीसे) पुनः बोले // 16 // रामेषुमर्मव्रणनार्तिवेगाद्रत्नाकरः प्रागयमुत्पपात | __ ग्राहौघकिर्मीरितमीनकम्बु नभो न भोः कामशरासनभ्र! // 17 // रामेति / हे कामशरासनमेव ध्रुवौ यस्याः, भ्रदर्शनमात्रेण कामोदयकारिणि भैमि ! रामस्य जामदग्न्यस्य वा इषुणा मर्मणो वणनाद्भेदनाद्धेतोरुत्पन्ना आतिः पीडा तस्या वेगादाधिक्या तोनिजस्थाने स्थातुमशक्कः सन् भीत्या रत्नाकर एवायं प्राक तस्मिन्नवसरे उत्पपातोमगात् / नेदं नमः, यः पूर्वमुत्पतितः स श्यामजलः स्फुट. रत्नगर्भो रत्नाकर एवायं न वेतन्नभ इत्यर्थः / कोदृशः? प्राहाणां जलचारिणां जन्तूनां वा ओघस्तेन किर्मारिता मिश्रिता मीनाः कम्बवः शङ्खाश्च यस्मिन् / नभस्तु ग्रहसंबन्धी ओघः शुक्रबृहस्पत्याख्यताराग्रहसमूहःध्र वमण्डलग्रहसंबन्धी समूहो वा तेन मिश्रितो मीनाख्यो राशिः कम्बुः शङ्खाकारविशाखानक्षत्रं च यस्मिन् / रघुनाथेन किल सेतु. बन्धसमये शरणे समुद्रो भेत्तमारब्ध इति तावन्मात्रेण पीडातिशमादुत्पतित इत्यु.
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________________ 1502 नैषधमहाकाव्यम्। च्येत / परशुरामेणापि निजवसत्यर्थं समुद्रो बाणेन परास्तः सन्नुत्पतितः / समुद्रज. लस्यौवायं कालिमा, न तु गमनस्य / उत्पतितस्य समुद्रस्याधोदेशे स्थितानि रत्नग्रा. हादीनि अधःस्थितेन जनेन सुखेन द्रष्टुं शक्यन्ते / मकरकर्कटादयः साक्षान्मीनादय एव, नतु राश्यादिभूताः; शिष्टाश्च ताराः सामुद्रिकमौक्तिकान्येव, नतु, तारा इत्यादि ज्ञातव्यम् / 'शरासनभ्रः' इति उवस्थानत्वान्नदीत्वाभावाद्धस्वत्वाभावः / हस्वपाठस्तु ‘स हैकवंशप्रभवभ्रु' इतिवत्समर्थनीयः। यद्वा, शिष्टकविप्रयोगदर्शनाज्ज्ञातव्यः।। __हे कामबाणतुल्य भ्रूवाली ( दमयन्ति ) ! राम ( रामचन्द्र, या-परशुराम ) के बाणोंसे मर्मभेदन होनेकी पीडाके वेगसे पहले यह समुद्र ऊपर उछल गया, ( अत एव ) ग्राह. समहसे मिश्रित मछलियों तथा शङ्खोंवाला यह आकाश नहीं है, ( किन्तु समुद्र ही है)। [ ऊपरमें ये तारा-समूह नहीं दीख रहे हैं किन्तु समुद्रस्थ मकर, मत्स्य एवं शङ्ख दीख रहे हैं, अत एव यह आकाश नहीं है, किन्तु रामबाणके मर्मभेदनजन्य पीडासे ऊपरकी ओर उछला हुआ यह समुद्र है। यद्यपि नल पहले सत्ययुगमें हुए थे, तथा रामचन्द्र और परशुराम उनके बाद त्रेता युगमें हुए थे; अतएव उनके बाणसे मर्माहत समुद्रके ऊपर जानेका वर्णन नलको करना असङ्गत है; तथापि कवि श्रीहर्षके कल्पान्तरके भेदसे इसे सुसङ्गत मानना चाहिये ] // 17 // पौराणिक कथा-सीताहरण होनेपर रावणसे लड़ने के लिए लङ्काको जाते हुए रामचन्द्र ने मार्ग पाने के लिए समुद्रपर बाण उठाया था। तथा परशुरामने भी अपने रहने के लिए बाणसे मारकर समुद्र को दूर हटा दिया था / मोहाय देवाप्सरसां विमुक्तास्ताराः शराः पुष्पशरेण शङ्के। पञ्चास्यवत्पञ्चशरस्य नाम्नि प्रपञ्चवाची खलु पञ्चशब्दः / / 18 / / मोहायेति / हे भैमि ! पुष्पशरेण कामेन देवानामप्सरसां च मोहायान्योन्यमनुरागसंजननाथं देवादीनामुपरिवर्तमानत्वाद्विमुक्ता ऊध्र्व क्षिप्ताः शुभ्रपुष्परूपाःशरा एव तारा इत्यहं शङ्के ननु कामस्य पुष्पशरत्वेऽपि पञ्चबाणत्वात्ताराणां बहुतरखास्कथं कामबाणस्वमित्याशय समर्थयते-खलु यस्मात् पञ्चशरस्य नाम्नि पूर्वपदत्वेन वर्तमानः 'पञ्च'शब्दः प्रपञ्चवाची, प्रकृष्टः पञ्चो विस्तारस्तद्वाचकः, नतु संख्यावाचकः। 'पचि विस्तारवचने' इति स्वार्थणिजन्ताद्धातोः। पचायचि पञ्चयन्ति विस्तृता भवन्ति पञ्चाः शरा यस्येति विग्रहः, नतु पञ्चसंख्याकाः शरा यस्येति / तस्मात्पुष्पबाणत्वं ताराणां युक्तमेवेत्यर्थः / कस्येव ? पञ्चास्यवत् 'सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्यः' इति सिंहाभिधायिनि 'पञ्चास्य' शब्दे सिंहस्य पञ्चसंख्यमुखस्वाभावात् पञ्चयति विस्तृतं भवति पञ्छ 1. तदुक्तं कविकुलभूषणेन कालिदासेन रघुवंशे'रामात्रोत्सारितोऽप्यासोरसालग्न इवाणवः / इति (रघु०४५३)।
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1503 विस्तृतमास्यं यस्यासी पञ्चास्य इति व्युत्पत्या 'पञ्च'शब्दो यथा विस्तारवाची तथेति / 'व्यासः प्रपञ्चो विस्तारः' इति हलायुधः // 18 // देवों तथा अप्सराओंको मोहित करने के लिए ये ताराएँ कामदेवके द्वारा छोड़े गये बाण हैं, ऐसा मैं समझता हूं। (कामदेवके बाण पांच ही हैं तथा ये ताराएँ असंख्य हैं अतः इन्हें कामबाण समझना किस प्रकार सङ्गत है ? इस शङ्काका उत्तर दे रहे हैं-) 'पञ्चास्य'के समान पञ्चशर (कामदेव ) के नाममें 'पञ्चन्' शब्द विस्तारार्थक है [जिस प्रकार सिंहको पांच मुखवाला नहीं होनेसे सिंहार्थक 'पञ्चास्य' शब्दके आदिवाला 'पञ्चन्' शब्द विस्तारार्थक है, अत एव 'पञ्च अर्थात् विस्तृत है मुख जिसका' वह सिंह 'पञ्चास्य' कहलाता है; उसीप्रकार कामदेवार्थक ‘पञ्चबाण' शब्दके आदिवाला 'पञ्चन्' शब्द भी विस्तारार्थक ही है, अत एव 'पञ्च अर्थात् विस्तृत ( असङ्ख्यात, या विशाल ) हैं बाण जिसके', वह 'पञ्चबाण' कहलाता है / इसप्रकार पांच मुखवाला नहीं होनेपर भी 'पञ्चास्य' कहे जानेवाले सिंहके समान पांच ही बाणोंवाला नहीं होने पर भी कामदेवको 'पञ्चबाण' कहा जाता है। 'पचि विस्तारे' धातुसे सिद्ध 'पञ्च' शब्दका विस्तार अर्थ होता है ] // 18 // नभोनदीकूलकुलायचक्रीकुलस्य नक्तं विरहाकुलस्य | दृशोरपां सन्ति पृषन्ति ताराः पतन्ति तत्संक्रमणानि धाराः / / 16 / / नभ इति / नक्तं विरहेणाकुलस्य पीडितस्य नभोनथा मन्दाकिन्याः कूलमेव कुलायः स्थानं यस्य तस्य चक्रीकुलस्य चक्रवाकीसमूहस्य दृशोनॆत्रयोरपामश्रजलानां पृषन्ति ये बिन्दवः सन्ति त एव तारका अधःस्थितैर्जनदृश्यन्ते / तथा,-तासां ताराणां संक्रमणानि पुण्यक्षयवशाभूमि प्रत्यागमनानि गलद्वाष्पजलानां धारा एव पतन्ति / दृशोः सन्ति चिरस्थितिमन्ति यानि बाष्पपृषन्ति तानि तारा इति वा / तत्संक्रमणानि स्थितताराप्रतिबिम्बभूतानि तत्तल्यानि पतन्ति अधःपातीनि यानि पृषन्ति तानि धारा अश्रप्रवाहाः / तासां ताराणां संक्रमणानि वीथयो मेषादिसंक्रान्तयो वा धारा अभूणां प्रवाहा इति वा / स्त्रियो हि विरहमसहमाना रुदन्ति / सन्ति, पतन्तीति च तिङन्तम्, पृषद्विशेषणं वा // 19 // __रात्रिमें विरहसे व्याकुल, आकाशगङ्गाके तौरपर रहनेवाली चक्रवाकियों के समूहके नेत्रों के अश्रुजलके वहींपर स्थित (नीचे नहीं गिरी हुई ) बूंदे ही ये ताराएँ हैं, तथा उनसे संक्रान्त अश्रु-बिन्दुधाराएँ ( वर्षाजल-प्रवाह ) हैं। [पतिविरहके असह्य होनेपर रोती हुई आकाशगङ्गा सीरनिवासिनी चक्रवाकियोंके उपरिस्थ अश्रुबिन्दु तारारूपमें दीखते हैं, तथा पुण्यक्षयसे अधःपतित वे अश्रुबिन्दु वर्षाकी जलधारारूपमें दीखते हैं ] // 19 // अमूनि मन्येऽमरनिझरिण्या यादांसि गोधा मकरः कुलीरः / तत्पूरखेलत्सुरभीतिदूरमग्नान्यधः स्पष्टमितः प्रतीमः / / 20 // अमूनीति / हे प्रिये ! गोधाख्यास्तारा गोधा, मकरराशिसंबन्धिन्यस्तारा
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________________ 1504 नैषधमहाकाव्यम् / मकरः, कुलीरः कर्कराशिस्तत्संबन्धिन्यस्ताराः कुलीरः, अमूनि प्रत्यक्षदृश्यान्यमरनिर्झरिण्या मन्दाकिन्या यादांसि जलजन्तव एव इत्यहं मन्ये। गोधा मत्स्याः कर्कटका वर्तमानेन द्रष्टं योग्याः, नत्वधःस्थितेनेत्यत आह-तस्या नाकनद्याः पूरे खेलन्तः क्रीडन्तः सुरास्तेभ्यः सकाशादीत्या दूरं तलपर्यन्तं मग्नानि अत एव जलतलगामित्वादधोभागे इतो भूदेशादपि स्पष्टं सुखेन जानीमः / भूभागे स्थिता अपि जलतलगामिस्वाद्दोधादियादांसि व्यक्तं पश्याम इत्यर्थः / गोधाकारं ध्रवमण्डलं, गोधा ज्येष्ठा वा॥ गोधा ( गोधाकृति ध्रुवमण्डल, या-गोधा नक्षत्र पक्षा०-गोह' नामक जलचर जीव ), मकर ( दशम राशि-सम्बन्धी तारा-विशेष, पक्षा०-'मगर' नामक जलचर जीव ) और कर्कट ( चतुर्थ राशि-सम्बन्धी तारा-विशेष, पक्षा०-'केकड़ा' नामक जलचर जीव )-ये (प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हुए ये सब ) देवनदी (आकाशगङ्गा ) के जलचर जीव हैं, ऐसा मैं मानता हूँ और उस ( आकाशगङ्गा) के प्रवाहमें क्रीड़ा करते हुए देवोंके भयसे दूर ( जलके नीचे अन्तिम तलतक ) डूबे हुए इनको हमलोग यहां (इस भूलोक) से स्पष्ट देखते हैं / [ अन्यथा आकाशगङ्गाके जलके 'गोधा, मकर तथा कर्कट' नामक जलजन्तुओंको पानीके ऊपर रहनेसे उस आकाशगङ्गाके जलके ऊपर लोकमें निवास करनेवाले ही लोग देख सकते हैं, आकाशगङ्गाके नीचे भूलोकमें निवास करनेवाले हमलोग नहीं देख पाते; किन्तु वहां जलक्रीडा करते हुए देवों के मयसे जब वे जीव पानी के निचले सतहपर आ जाते हैं तब हमलोग भी उन्हें देख लेते हैं / जलमें कोड़ा करनेवालों के भयसे जलचर जीवोंका जलके भीतर डूबकर छिप जाना स्वभाव होता है ] // 20 // स्मरस्य कम्बुः किमयं चकास्ति दिवि त्रिलोकीजयवादनीयः / कस्यापरस्योडुमयैः प्रसूनैर्वादित्रशक्तिर्घटते भटस्य / / 21 / / स्मरस्येति / त्रिलोकीजये वादनीयो वादनाहः स्मरस्य संबन्धी अयं प्रत्यक्षदृश्यो विशाखानक्षत्ररूपः कम्बुः शङ्खः दिवि चकास्ति किम् ? उच्चतरप्रदेशे वदितं वाद्यं सर्वत्राकर्ण्यत इति गगने स्थापितो लोकत्रयविजयवादनाहः कामस्यैव कम्बुः किमित्यर्थः / यस्मादपरस्य कस्य भटस्योङमयस्तारारूपैः प्रसूनैः कृत्वा वादित्रशक्तिधिनिर्माणं घटतेऽपि स्मरस्यैव धनुर्बाणानां पुष्परूपत्वदर्शनात्तदीयस्यैव वाद्यस्य पुष्परूपत्वसंभावनाया युक्तस्वात् ताराकुसुमरूपः कामशङ्ख एवायं गगने शोभते, न स्वन्यदीय इत्यर्थः // 21 // तीनों लोकके विजयके लिये बजाने योग्य, कामदेवका यह (दृश्यमान विशाखानक्षत्ररूप), बनाने की शक्ति) दूसरे किस शूरवीरमें घटित होती है ? अर्थात् किसी में नहीं। [ अधिक ऊँचे स्थानसे बजाया गया बाजा बहुत दूरतक सुनायी पड़ता है, अत एव तीनों लोकपर
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________________ .द्वाविंशः सर्गः। 1505 विजय पानेके लिए कामदेव भी अधिक ऊँचे स्थान-आकाशमें चढ़कर बजानेवाले शजको लिया है, ( अथच-कामदेवको देव होनेसे उसके शङ्खको भी स्वर्गमें दृष्टिगोचर होना उचित ही है ) क्योंकि दूसरा कोई ऐसा शूरवीर नहीं है, जो पुष्पोंको बाजा (शज) बना. कर उसके बजानेसे तीनों लोकोंको जीत ले / कामदेवके धनुष-बाणको पुष्पमय होनेसे उसके शङ्खको भी पुष्पमय होना उचित ही है ] // 21 // किं योगिनीयं रजनी रतीशं याऽजीजिवत्पद्मममूमुहश्च / योगद्धिमस्या महतीमलग्नमिदं वदत्यम्बरचुम्बि कम्बु // 22 // किमिति / येयं रजनी योगिनी स्त्रीपुंसयोगवती, अथ च,-शाक्तमन्त्रसिद्धा मारणोच्चाटनाद्यभिज्ञा स्त्री किम् ? या रतीशं दिवा निर्जीवमिव निजसंनिधेः अजीजि. वत् सजीवं चक्रे / पनममूमुहत् पद्मानि च समकोचयत् / रात्रौ हि स्त्रीपुंसयोगे काम उद्दीप्तो भवति, पद्मानि च संकुचन्ति / अलग्नं निराधारमम्बरचुम्बि आकाशवर्ति तारामात्रात्मकत्वादलग्नमराशिभूतं वा इदं प्रत्यक्षहश्यं कम्बु तारारूपः शङ्खोऽस्या रात्रियोगिन्या महती योगद्धि योगसमृद्धिं वदति / दिवादर्शनाभावादिदानी दृश्य. मानः शङ्को रात्रिर्जातेति कथयति / योगशक्ति विना निराधारं वस्तु कथं स्थापयेत् ? योगिन्यपि हि मृतमपि कंचिजीवयति / कंचिच्च मोहयति मूच्छा प्रापयति भ्रान्तं करोति वा / तस्माद्योगिनी किमित्युस्प्रेक्षा / 'कम्बु' शब्दस्य नपुंसकत्वमप्यस्तीति पूर्वमेवोकं स्मर्तव्यम् / अजीजिवत्, अमूमुहदिति, णौ चङि-' इत्युपधाहस्वः // 22 // ___ यह रात्रि योगिनी (स्त्री-पुरुष के योगवाली कोई स्त्री, पक्षा०-शाक्त मन्त्रके प्रभावसे योगसिद्धिको प्राप्त कोई स्त्री) है क्या ?, जिसने कामदेवको जीवित कर दिया तथा कमलको मोहित (निमीलित, पक्षा०-मूर्छित ) कर दिया / आधाररहित (विशाखा नक्षत्ररूप) यह सङ्ख आकाशमें स्थित है, (इसके द्वारा ) इस (योगिनी) की श्रेष्ठ योगसिद्धिको देखो। [दिनमें प्रागः कामोद्दीपन नहीं होनेसे कामदेव मरा-सा रहता है और वह स्त्री-पुरुषके संयोगसे रात्रिमें बढ़ जाता है तथा कमल रात्रिमें बन्द हो जाते हैं, अत एव जिस प्रकार कोई योगिनी किसी मृत व्यक्तिको जीवित कर देती है तथा किसी सजीवको भी मूच्छित कर देती है, तथा अपने योगबलके द्वारा शङ्खको आकाशमें निराधार रखती है, उसी प्रकार रात्रिमें कामदेवके पुनरुज्जीवित तथा कमलको निमीलित करनेसे और तारारूप विशाखानक्षप्ररूप शसको निराधार आकाशमें रखनेसे यह रात्रि मी योगिनी ( योगबलसे सिद्धिप्राप्त स्त्री, पक्षा-स्त्री-पुरुषके संयोगवाली कुट्टिनी) है क्या ? ऐसा ज्ञात होता है ] // 22 // प्रबोधकालेऽहनि बाधितानि ताराः खपुष्पाणि निदर्शयन्ती / निशाह शून्याध्वनि योगिनीयं मृषा जगदृष्टमपि स्फुटाभम् / / 23 / /
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________________ 1506 नैषधमहाकाव्यम् / समये, अहनि दिने बाधितानि सूर्यदीप्तिध्वस्तकान्तीनि, अथ च,-भ्रान्तिकारणनाशानिरुपपत्तीनि, तारा नक्षत्ररूपाणि खपुष्पाणि गगनसंबन्धीनि कुसुमानि नितरां दर्शयन्ती, अथ च,-दृष्टान्तीकुर्वन्ती, शून्याध्वनि बौद्धादिशून्यवादिदर्शने विषये योगिनी तदर्शनरहस्यं जानती काचित्प्रवजितैवेयं निशा स्फुटमाभाति तादृशं दृष्टमपि प्रत्यक्षेण प्रतीयमानमपि स्थावरजङ्गमात्मकं सकलं जगन्मृषाऽसत्यमाह ब्रूते / बौद्धा दिदर्शने हि ज्ञानस्यैव बहिघंटाद्याकारस्वाज्ज्ञानातिरिक्तं सर्व मिथ्येति तज्ज्ञा योगि. न्यपि प्रपञ्चो मिथ्यति दर्शयति, तथेयमपि रात्रिरहन्यहश्यान्यपि पुष्पतुल्यानि नक्ष. त्राणि निजयोगाद् गगने दर्शयतीति भावः / निदर्शनं करोतीवेति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा // जागरण-समयात्मक दिनमें ( सूर्यप्रकाशसे ) अदृष्ट ताराओंको आकशपुष्प ( ये कुछ नहीं है ऐसा ) दिखलाती हुई यह रात्रि शून्य मार्गमें स्पष्ट दिखलायी पड़ते हुए भी आकाशको ( अन्धकाराच्छन्न होनेसे ) जिस प्रकार असत्य बतलाती है; उसी प्रकार सम्यग्शान होने के समयमें बाधित (भ्रान्तिकारणनाश होनेसे उपत्ति शून्य ) नक्षत्ररूपी आकाश-पुष्पोंका दृष्टान्त देती हुई यह योगिनी (योगद्वारा सिद्धिको प्राप्त की हुई स्त्री ) ज्ञानभिन्न सब पदार्थको शुन्य कहनेवाले बौद्धोंके रहस्यको जानती हुई स्पष्ट दृश्य मान संसारको भी असत्य कहती है / [ जिस प्रकार भ्रान्तिके कारण आकाश पुष्पोंका होना प्रतिभासित होता है, परन्तु उस भ्रान्तिके नाश होनेपर वे आकाशपुष्प नहीं प्रतिभासित होते, (क्योंकि वास्तविकसे वे हैं ही नहीं ); उसी प्रकार भ्रान्ति रहनेपर ही स्थावरजङ्गमरूर यह संसार प्रतीत होता है, तत्त्वज्ञानके द्वारा उस भ्रान्तिका नाश होने पर वह संसार असत्य प्रतीत होने लगता है (क्योंकि आकाश-पुष्पके समान वह संसार भी वास्तविक में है ही नहीं ) ऐसा बौद्ध कहते हैं; उनका सिद्धान्त है कि ज्ञान ही बाहर में घटपटादिरूपसे प्रतीत होता है, ज्ञानसे मिन्न घटपटादिरूप कोई भी पदार्थ नहीं है, सब कुछ असत्य है। इसी बातको बौद्ध सिद्धान्तको माननेवाली योगिनी संसारको मिथ्या कहती हुई बतलाती है, रात्रिको भी वैसा करनेसे यहां योगिनी होनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 23 // एणः स्मरेणाङ्कमयः सपत्राकृतो भवद्मयुगधन्वना यः / मुखे तवेन्दौ लसता स तारापुष्पालिबाणानुगतो गतोऽयम् / / 24 / / एण इति / हे भैमि ! तव मुख एवेन्दावाह्लादकत्वादिगुणयोगाच्चन्द्रे लसता प्रकाशमानेन, तथा,-भवद्भ्युगमेव धनुर्यस्य तेन स्मरेण तव मुखेन्दौ 'विमतो मृगवान् , चन्द्रत्वात् , संप्रतिपन्नवत्' इत्यनुमानप्रसिदोयोऽङ्कमयः कलङ्करूप एणो मृगः सपत्राकृतः / मुखे तचापदर्शनाजठरावस्थितपत्रस्यैव बाणस्यापरपार्श्वे निर्गमनं यथा भवति तथा व्यथितः स एव मृगस्तारापुष्पालिनक्षत्ररूपपुष्पपङ्क्तिस्तल्लक्षणो बाणस्तेनानुगतः सन् सहित एव पलाय्य गतोऽयं गगने दृश्यते किम् ! चन्द्रे मृगेण भाग्यम् , स चात्र नास्ति, सचापः कामश्च मुखे लसति, गगने मृगशिरा नक्षत्रं
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1507 मृगाख्यं बाणाकारपुष्पतुल्यतारानुगतं दृश्यते। तर्हि कामेन विद्धोऽन्तर्गतपत्रपार्श्व. बहिर्निर्गतबाणसहितो व्यथितः पलाय्य गतः, स एवायं मृगो दृश्यते किमिति प्रतीयमानोस्प्रेक्षा / 'सपत्रनिष्पत्रादतिव्यथने' इति डाच // 24 // (हे प्रिये ! ) तुम्हारे मुखरूपी चन्द्रमें शोममान तथा तुम्हारे भ्रदयरूपी धनुषवाले कामदेवसे ( जिसमें इस प्रकार बाण मारा गया है कि बाण शरीरको छेदकर शरीरके दूसरे भागमें बाहर दृष्टिगोचर हो रहा है और उस बाणका पङ्ख शरीरके भीतर ही रह गया हो, ऐसा ) व्यथित वह ( पहले ) तुम्हारे मुखचन्द्रमें स्थित ('मृगशिर' नक्षत्र नामक ) तारारूपी पुष्प-समूहरूप बाणसे अनुगत अर्थात् उक्तरूप बाणसहित शरीरवाला यह मृग (भागकर आकाशमें ) गया हुआ दिखलायी पड़ता है क्या ? / '[ तुम्हारा मुख आह्लादक आदि गुणोंसे युक्त होनेसे चन्द्ररूप है, चन्द्रमामें कलङ्क मृगको रहना चाहिये, किन्तु वह कलङ्क-मृग तुम्हारे मुखचन्द्रमें नहीं दृष्टिगोचर होता है और धनुष के सहित कामदेव तुम्हारे मुखमें शोम रहा है तथा आकाशमें बाणाकार पुष्पतुल्य तारासे युक्त 'मृग' ( 'मृगशिरा' नामक नक्षत्र ) दृष्टिगोचर हो रहा है। अत एव ज्ञात होता है कि कामदेवने तुम्हारे मुखचन्द्र में रहनेवाले कलङ्कमृगको ऐसा बाणविद्ध किया कि उसके शरीरको छेदकर बाण शरीरके दूसरे भागकी ओर निकल गया और उसका पङ्ख शरीरके भीतर ही रह गया तथा कामदेवसे उस प्रकार व्यथित वह कलङ्कमृग आकाशमें-कामदेवसे बहुत दूर देशमेंभागकर चला गया जो तारारूप पुष्प-समूहरूप बाणसे युक्त शरीरवाला वहां स्पष्ट दीख रहा है, जिसे हम मृगशिरा नक्षत्र कहते हैं, परन्तु वास्तविकमें वह मृगशिरा नक्षत्र नहीं, अपितु पहले तुम्हारे मुख चन्द्र में स्थित कामबाण व्यथित होनेसे भागकर आकाशमें गया हुआ कलङ्कमृग ही है ] // 24 // लोकाश्रयो मण्डपमादिमृष्टि ब्रह्माण्डमाभात्यनुकाष्ठमस्य | स्वकान्तिरेणूत्करवान्तिमन्ति गुणत्रणद्वारनिभानि भानि / / 25 / / लोकेति / हे भैमि ! ब्रह्माण्डमादौ सर्वस्मादपि पूर्व सृष्टिर्निर्माणं यस्य, अथ च,-चिरकालनिर्मितं पुराणम्, मण्डपमिति आभाति तदिव शोभते इत्यर्थः / यतः-लोकानां त्रयाणामपि आश्रयः ब्रह्माण्डाधारत्वाजगताम् / मण्डपोऽपि लोका. नामाश्रयः, तच्छायानिवासित्वाल्लोकानाम्, आश्रयनामस्वाच्च / अत एव-अस्य ब्रह्माण्डमण्डपस्य अनुकाष्ठं दिशि दिशि एतत्संबन्धिनीषु सर्वासु दिन; अथ च,एतत्संबन्धीनि काष्ठानि दारूणि लक्षीकृत्य तेषु भानि नक्षत्राणि स्वकान्तिरूपस्योरखातरेणूरकरस्य संबन्धिनी वान्तिरुद्गारस्तदन्ति घुणाख्यकीटनिर्मितो व्रणश्छिद्रं तस्य द्वारं मुखं तनिभानि तत्तुल्यानि घुणोत्कीर्णदारुरजोयुक्तानि दारुच्छिद्रमुखानीव दृश्यन्त इत्यर्थः / जनाश्रयनामा मण्डपोऽप्यतिजीर्णो यदा भवति तदा तदीयकाष्ठेषु घुणाः पतन्ति घुणोस्कीर्णगलबजोयुक्तानि घुणकृतच्छिन्द्रमुखानि वृत्तानि श्वेतानि च
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________________ 1508 नैषधमहाकाव्यम् / दृश्यन्ते, तानीव भानि भान्तीति भावः / 'मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः' इत्यमरः / अनुः काष्टम, वीप्सायामध्ययीभावः, पक्षान्तरे विभक्त्यर्थे // 25 // __ सबसे पहले रचा गया ( पक्षा०-अत्यन्त पुराना ), लोकों (तीनों या सातो लोकों में रहनेवाले प्राणियों, पक्षा०-गृहवासी लोगों ) का आश्रय ब्रह्माण्डरूप मण्डप (गृह-विशेष ) शोम रहा है ( अथवा-'ब्रह्माण्ड मण्डपके समान शोम रहा है)। इस (ब्रह्माण्ड, या-मण्डप) के प्रत्येक दिशाओं में अर्थात् चारो ओर ( पक्षा०-काष्ठमें) अपनी कान्ति. रूप धूलि-समूहको उगलते (गिराते ) हुए तथा 'धुन' ( काष्ठको जर्जर करनेवाला कीटविशेष ) के छिद्र के द्वार के समान ये नक्षत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं। [जिस प्रकार अत्यन्त पुराने घरकी लकड़ियों में घुन लगनेसे गोलाकार उसके छिद्रद्वार दिखलायी पड़ते हैं तथा उनमें से घुनी हुई लकड़ीकी चूनके समान धूलि गिरती रहती है, उसी प्रकार अतिशय प्राचीन एवं लोकाश्रय ब्रह्माण्डके प्रत्येक दिशाओं में घुनी हुई लकड़ीकी धूलि के समान अपनी कान्तिको नीचेकी ओर फैलाते हुए घुनके छिद्रद्वार के समान गोलाकार ये नक्षत्र जान पड़ते हैं ] // 25 // इदानीं सर्वदिग्व्यापितमोवर्णनं प्राच्यादिक्रमेणोपक्रमते शचीसपत्न्यां दिशि पश्य भैमि ! शक्रेभदानद्रवनिर्भरस्य | पोप्लूयते वासरसेतुनाशादुच्छङ्कलः पूर इवान्धकारः / / 26 / / शचीति / हे भैमि ! अन्धकारः शच्याः सपत्नी दिक प्राची तस्या वासररूपस्य सेतो सूर्यप्रभामर्यादाया नाशात् उच्छवलो निरर्गलः शक्रेभस्य दानद्रवो दानोदकं तस्य निर्झरःप्रवाहस्तस्य श्यामः पूर इव पोप्लयते भृशं प्रसरति, प्राच्यां व्याप्नो. तीत्यर्थः / त्वं पश्य / प्राच्यामेव चैरावतदानप्रवाहपूरसंभवः / जलपूरोऽपि बन्धापगमादप्रतिहतप्रसरः सन्नतितरां प्रसरति, 'प्लुङ् सर्पणे' इत्यस्माद् भृशार्थे यद्विवचनम् // 26 // ( अन्धकार-वर्णनके प्रसङ्गमें पूर्वदिशाके अन्धकारका पहले वर्णन करते हैं ) हे दमयन्ति ! सूर्यरूपी बांधके नष्ट होने (टूट जाने ) से ऐरावतके दान (मद ) जलरूप झरने के प्रवाहके समान निर्बाध अन्धकार फैल रहा है, यह तुम देखो। [जिस प्रकार बांधके टूटनेसे जलाशयका प्रवाह निर्बाध होकर फैलता ( बहता ) है, उसी प्रकार सूर्यप्रमाके नष्ट होनेसे ऐरावत के मदजलके झरने ( जलाशय ) के प्रवाहके समान बढ़ा हुआ अन्धकार पूर्वदिशाकी ओर फैल रहा है ] // 26 // दक्षिणदिग्व्यापि तमो वर्णयति रामालिरोमावलिदिग्विगाहि ध्वान्तायते वाहनमन्तकस्य | यद्वीक्ष्य दूरादिव बिभ्यतः स्वानश्वान्गृहीत्वापमृतो विवस्वान् // 27 // रामेति / श्रीरामस्यालिः सेतुः सेतुबन्ध एव श्यामस्वागोमावलियस्यास्तस्या
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1506 दक्षिणस्या दिशो विगाहि नितरां व्यापकम् अन्तकस्य दिक्पतित्वादक्षिणदिक्स्थं तद्वाहनं महिष एव ध्वान्तायते कज्जलनीलोऽन्धकार इवाचरति / विवस्वान् सूर्यः यद्यमवाहनं दूराद्वीचय सहजाश्वमहिषरस्मरणाद्विभ्यतः सभयान् स्वानश्वान् गृहीत्वाऽपसृतः पलायित इव दक्षिणदिशि तिमिरं यममहिषवच्छोभत इत्यर्थः / 'अन्तक'पदेन तद्वाहनस्य दारुणत्वं सूचितम्, अत एव ततोऽप्यश्वानी भयं युक्तम् / ध्वान्ता. यते, 'उपमानादाचारे' 'कर्तुः क्यङ-' इति क्यङन्तात्तछ। 'सेतुराली स्त्रियां पुमान्' इत्यमरः // 27 // ( अब क्रमप्राप्त दक्षिण दिशाके अन्धकारका वर्णन करते हैं-) रामचन्द्र के पुलरूपी रोमावलिवाली ( दक्षिण ) दिशामें रहनेवाला यमवाहन ( भैंसा ) अन्धकारके समान आचरण कर रहा है, जिसे देखकर डरते हुए अपने ( सात ) घोड़ोंको लेकर सूर्य ( उस दक्षिण दिशा• से) मानो दूर चले गये हैं / [ 'अन्तक' ( सबका अन्त करने ( मारने ) वाला) पदसे उसके वाहन भैंसेका भी वैसा ही क्रूर होना सूचित होता है / स्वामाविक वैर होनेसे उक्तरूप भैंसे से घोड़ोंको डरना और उन्हें लेकर सूर्यका दूर हट जाना उचित ही है। भैंसेका रंग काला एवं स्वभाव क्रूर होने से उसे काले एवं भयानक रात्रि-सम्बन्धी अन्धकारके समान आचरण करनेको कहा गया है ] // 27 // प्रतीचीच्यापि तमो वर्णयति पकं महाकालफलं किलासीत्प्रत्यग्गिरेः सानुनि भानुबिम्बम् / भिन्नस्य तस्यैव दृषन्निपातागोजानि जानामितमां तमांसि // 28 // पक्वमिति भानुबिम्बं प्रत्यगिरेः प्रतीच्या वर्तमानस्यास्ताचलस्य सानुनि. कालवशात्पक्वं महाकालस्यैन्द्रवारुण्याः फलमासीत् किल, अहं मन्य इत्यर्थः / तथा,-अहमतिपक्वत्वाद् वृन्तश्लथवादुच्चतरप्रदेशादधस्ताद् दृषदि शिलायां निपातात्तदभिघाताद्धेतोर्मिनस्य विदीर्णस्य तस्य भानुबिम्बरूपस्य महाकालफलस्य कृष्णत. मानिबीजान्येव तमांसीति जानामितमां नितरां मन्ये / पर्वतादिकठिनभूसमुद्भवं जम्बीरवर्तुलं पक्वं सदतिरक्तं कृष्णबीजं महाकालफलं ग्रहोपसर्गनिवारणार्थं गृहद्वारे वृद्धबध्यते / अस्तमयसमयसंबन्धात्परिणतकालं रक्तं महतः कालस्य फलभूतं च भानुबिम्बं महाकालफलमिव, तमांसि च विदीर्णस्य तस्य कृष्णतमानि बीजानीव प्रसरन्तीत्यर्थः / अन्यदिगपेक्षया प्रतीच्यां सायंसमये सूर्यसंध्यासंबन्धिनः प्रकाश. स्यासन्नरवादल्पान्धकारसूचनार्थ तमसा बीजत्वेन निरूपणम् // 28 // (अब क्रमागत पश्चिम दिशाके अन्धकारका वर्णन करते हैं-) पश्चिम दिशामें स्थित पर्वत अर्थात् अस्ताचलके शिखरपर सूर्यबिम्वरूप ( कालवश ) पका हुआ 'किम्पाक' नामक फल था, ऐसा मैं मानता हूं और इन अन्धकारोंको ( ऊँचेसे ) पत्थरपर गिरनेसे ( पकनेके कारण शीघ्र ) फूटे हुए उसी फलके कृष्णवर्ण बीजरूप मैं सम्यक् प्रकारसे मानता हूं।
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________________ 1510 नैषधमहाकाव्यम् / पर्वतसे पत्थरपर गिरे हुए पके फलको टूटने और उसके बीजों को सर्वत्र फैल जाने के समान पके फल के तुल्य अरुणवर्ण सूर्यबिम्बका अस्ताचलके शिखरसे गिरनेसे चूर-चूर होकर उसके कृष्णवर्ण बीजोंको फैलाना उचित ही है। पकनेपर लाल एवं नीबूके समान गोलाकार 'किम्पाक' ( महाकाल ) के फलको लोग द्वारपर ग्रहबाधाके निवारणार्थ बांधते हैं, ऐसा वृद्धोंका कथन है / दिनकालके परिणत होने से अस्त होनेके समय रक्तवर्ण सूर्यको पके हुए 'किम्पाक' फलके सदृश तथा अन्धकारको पके एवं पत्थरपर गिरनेसे फूटे हुए उस 'किम्पाक' फलके कृष्णवर्ण बीजों के सदृश कहा गया है। दूसरी दिशाओंकी अपेक्षा पश्चिम दिशामें सायङ्काल के समय सूर्य सन्ध्यासम्बन्धी प्रकाशके निकटस्थ रहनेसे थोड़े अन्धकारको सूचित करनेके लिए अन्धकारके बीजरूपमें निरूपित किया है ] // 28 // उदीचीव्यापि तमो वर्णयति पत्युगिरीणामयशः सुमेरुप्रदक्षिणाद्भास्वदनाहतस्य | दिशस्तमश्चैत्ररथान्यनामपत्रच्छटाया मृगनाभिशोभि || 29 / / पत्युरिति / चैत्ररथं कुबेरवनं तदेवान्यन्नाम यस्यास्तादृशी पत्रच्छटा पत्रवल्ली यस्याश्चैत्ररथाख्यवनरूपपत्रवल्लीकाया उत्तरस्या दिशो मृगनाभिः पत्रवल्लीरचनासाधनभूता कस्तूरी तद्वच्छोमते एवंशीलं कृष्णतमं तमो . गिरीणां पत्युर्हिमाचलस्यायश एव / यतः-सुमेरोः प्रदक्षिणीकरणाद्भास्वता सूयणानाहतस्यावज्ञातस्य / हिमाद्रि यद्यपि गिरोणां पतिः, तथापि सूर्यानाहतत्वाद्धीन एव, मेरुरेव महान् / 'अस्योद्यानं चैत्ररथम्' इत्यमरः // 29 // (अब क्रमागत उत्तरदिशाके अन्धकारका वर्णन करते हैं-)'चैत्ररथ' नामक वनरूप पत्ररचनावाली दिशा (उत्तर दिशा) के (पत्राचनासाधनभूत ) कस्तूरी के समान शोभनेवाला अन्धकार, सुमेरुकी प्रदक्षिणा करनेसे सूर्य के द्वारा अनादृत गिरिराज ( हिमालय ) का अयश ही है (या-अयशके समान है)। [ यद्यपि पर्वतोंका राजा होनेसे हिमालय पर्वतकी प्रदक्षिणा ही सूर्यको करनी चाहिये थी, किन्तु वे सर्व हिमालयकी प्रदक्षिणा नहीं करके सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं, यह हिमालयका महान् अयश है, जो 'चैत्ररथ' नामक कुबेरोद्यानरूप पत्ररचना ( पचियोंकी रचना; पक्षा०-चन्दन, कस्तूरी आदिसे स्तनादिपर बनायी गयी पत्राकार चिह्न विशेष ) वाली उत्तरदिशा रूपिणी नायिकाके पत्ररचनाके साधनभूत कृष्ण. वर्ण कस्तूरीके समान शोभता है। उत्तर दिशामें 'चैत्ररथ' नामक कुबेरोद्यान, कस्तूरी एवं पर्वतराज हिमालयका होना तथा सूर्यका हिमालयको त्यागकर सुमेरुकी ही प्रदक्षिण करना सर्वविदित है ] // 29 // ऊर्ध्वदिग्व्यापि तमो वर्णयति ऊवं धृतं व्योम सहस्ररश्मेदिवा सहस्रेण कररिवासीत् / पतत्तदेवांशुमता विनेदं नेदिष्ठतामेति कुतस्तमिस्रम् // 30 / /
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________________ द्वाविंशः सर्गः 1511 ऊर्ध्वमिति / तमालश्यामलं यद्वयोम दिवा सहस्ररश्मेः सहस्रसंख्यःकरः किरणः, अथ च, हस्तैः ऊवं दूरोचप्रदेशे तमिवासीत् , तन्नभ एवेदं तमालश्यामलमंशुमता विना सायंसमये सूर्यविनाशाद् धारकेण तेन विनाधःपतत्सत् नेदिष्ठतामतितमां नैकठ्यमेति / तमिस्त्रं कुतः कस्मादागतम् ? अपि तु तिमिरं नाम किमपि नास्ति, किंतु निकटीभवद्गनमेव तमिस्रमित्यर्थः। पतद्वयोमेव तमिस्रं कुतो भूमौ निकटता. मेति ? नतु तदतिरिक्तं तमोऽस्तीति वा, अन्यदपि प (त) कस्यचित्कराभ्यामूर्ख धार्यते, तदभावेऽधः पतस्येव / नेदिष्ठताम् , अतिशायने इष्ठनि 'अन्तिकबाढयोःइति नेदादेशः / कुतः, पक्षे साविभक्तिकस्तसिः॥३०॥ ( चारों दिशाओं के अन्धकारका वर्णन करने के उपरान्त अब ऊपरके अन्धकारका वर्णन करते हैं-) दिनने ( कृष्णवर्ण) जिस आकाशको सहस्ररश्मि (सूर्य) की सहस्रों (किरणों, पक्षा०-हाथोंसे ) ऊपरमें मानो धारणकर रक्खा था, वही यह आकाश सूर्यके बिना मानो समीपमें (नीचेकी ओर ) आ रहा है, अन्धकार कहांसे आया ? अर्थात् यह अन्धकार नहीं सूर्याभावमें नीचेकी ओर गिरता हुआ कृष्णवर्ण यह आकाश हो है // 30 // अधोदिग्व्यापि तमो वर्णयतिऊर्ध्वार्पितन्युब्जकटाहकल्पे यद्वयोम्नि दीपेन दिनाधिपेन / न्यधायि तद्भूममिलद्गुरुत्वं भूमौ तमः कज्जलमस्खलत्किम् // 31 // ऊर्चेति / सामर्थ्याद्विधिना ऊवं सूर्यदीपस्यैवोपरि भागे अर्पितो न्युजः कजलधारणार्थमधोमुखो महान् कटाहः कपरं तरकल्पे तत्तव्ये कृष्णतमे व्योग्नि अधिकरणे प्रकाशकारिणा कज्जलधारणार्थेन दिनाधिपेनैव दीपेन करणेन यत्कज्जलं न्यधायि न्य. स्तम् , तत्कजलमेव तमो भूम्ना क्रमसंजातबाहुल्येन कृत्वा मिलद् युक्तं पतना. ख्यकर्मकारणं गुरुत्वं यस्य ताशं सद्भमावस्खलत किम् , अतिभारेण पतितं किम् ? गुरुत्वाद्धि पतनं युक्तं, तस्कजलमेव भूमौ पतितं किम् ? अपि तु तमो नाम न किंचिदित्यर्थ इति वा / कजलमपि कपरे धृतं क्रमेण बहु भवद्गुरुत्वादधः पतति / 'कटाहः कर्परे तथा' इति निघण्टुः / ईषदसमाप्तौ कल्पप् // 31 // ( अब नीचेके अन्धकारका वर्णन करते हैं-) सूर्यरूपी दीपने अधोमुखकर ऊपर रखे गये कटाह (विशालतम कड़ाह ) के समान आकाशमें जिस अन्धकाररूप काजलको छोड़ा, क्रमशः सञ्चित होते रहनेसे अधिक भारी हुआ वही अन्धकाररूप काजल पृथ्वीपर गिर पड़ा है क्या ? / [जिस प्रकार दीपके ऊपर में उलटकर रखे हुए ढक्कनमें कजल एकत्रित होतेहोते बहुत होनेपर भारीपनसे एकाएक नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार सूर्यरूपी दीपकके ऊपर आकाशरूपी विशाल ढक्कनको ब्रह्माने उलटकर रख दिया था और उसमें बहुत एकत्रित कजल मारी होनेसे पृथ्वीपर गिर पड़ा है क्या ? ऐसी श्रद्धा होती है ] // 31 //
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________________ 1512 नैषधमहाकाव्यम् / ध्वान्तणनाभ्या शितिनाम्बरेण दिशः शरैः सूनशरस्य तारैः। मन्दाक्षलक्ष्या निशि मामनिन्दौ सेा भवायान्त्यभिसारिकाभाः॥३२॥ ध्वान्तेति / ध्वान्तेनैवैणनाभ्या कस्तूर्या तथा,-शितिना नीलेनाम्बरेण गगनेन, अथ च,-वस्त्रेण यद्वा,-ध्वान्तैगनाभ्या कृत्वा नीलेन गगनेनोपलक्षिताः। तथा,निशितत्वात्पुष्पतुल्यरूपस्वाञ्चोज्ज्वलैः तारैननत्रैरेव सूनशरस्य कामस्य शैररुप. लक्षिताः, अथ च,-तारेरुज्ज्वलेः पुष्परुपलक्षिताः। तथा,-प्रकाशाभावान्मन्दाक्षे. मन्दनयनैनरैर्लच्या लक्षणीयाः, अथ च,-मन्दाक्षस्य लज्जाया विषयभूताः सलजाः / अत एवाभिसारिकाभाः स्वरिणीतुल्या दिशोऽनिन्दी चन्द्ररहितायामनुदितचन्द्रत्वाच्छयामायां निशि मामायान्ति प्रत्यागच्छन्ति / तस्मात्सपत्नीभ्रान्त्या त्वं सेा भव / अभिसारिका अपि शुभ्रायां रात्री शुभ्रवस्त्राथाभरणाः, कृष्णायां च रात्री कृष्णवस्त्राद्याभरणाः समायान्ति, ता अपि कस्तूरीकृताङ्गरागा नीलवसनाः प्रच्छन्नरतपुष्पाः कामबाणपीडिताः सलज्जाः सत्यः कामुकं प्रति समायान्ति, तदीयनायिका च सेा भवति, तथा दिशोऽपीत्यर्थः / सर्वा अपि दिश एकत्र मिलिता इति प्रतीतिः। तिर्यः रख्यापि तमो वर्णितमनेन / 'कान्तार्थिनी तु या याति संकेतं साभिसारिका' इति / 'मन्दाक्षमन्दाः' इति पाठे मन्दनयनानामल्पदृश्यास्तमोबाहुल्यात् / अथ च,तमोबाहुल्यान्मन्दाक्ष्यः, अत एव मन्दगमना इत्यर्थः। 'तार' शब्दः पूर्ववत् / मन्दाक्षेति पुंवद्भावः // 32 // (हे प्रिये दमयन्ति ! ) अन्धकाररूप कस्तूरी ( पक्षा०-कस्तूरीतुल्य अन्धकार ) से युक्त, काले कपड़े ( पक्षा०-आकाश ) से उपलक्षित कामबाणोंसे पीडित (पक्षा०-कामबाण = पुष्पोंके समान श्वेतवर्ण ताराओंसे युक्त ), लज्जायुक्त (पक्षा०-नेत्रको सङ्कुचित किये हुए लोगोंसे देखी जानेवाली) अभिसाराभिलाषिणी दिशारूपिणी नायिकाएँ चन्द्ररहित अर्थात् अन्धकारयुक्त रात्रिमें मेरे पास आ रही है ( अत एव तुम ) ईष्यायुक्त होवो। [ जिस प्रकार कृष्णपक्षको अँधेरी रातमै कस्तूरीसे सुगन्धित काला कपड़ा पहनी हुई, कामपीडित ल जाती हुई नायिका नायकके पास जाती है, तब नायकके समीपस्थित उसकी स्त्री उस अभिसार करनेवाली स्त्री के प्रति ईर्ष्या करती है, उसी प्रकार उक्तरूपा दिशारूपा ये अभिसारिकाएँ मेरे पास आ रही हैं, अत एव तुम इनके प्रति ईर्ष्या करो। जब एक अभिसारिकाके मी नायकके पास आनेपर उसकी पत्नी उस अभिसारिकाके प्रति ईर्ष्या करती है, तब बहुत दिशारूपिणी अभिसारिणी नायिकाओं के आनेपर उनके प्रति तुम्हें अतिशय ईर्ष्यायुक्त होना उचित है ] // 32 // भास्वन्मयों मीलयतो दृशं द्रामिथोमिलद्वयञ्चलमादिपुंसः। आचक्ष्महे तन्वि ! तमांसि पक्ष्म श्यामत्वलक्ष्मीविजितेन्दुलक्ष्म ||33|| भास्वदिति / हे तन्वि कृशाङ्गि ! भास्वन्मयी रविरूपा दक्षिणां दृशमस्तमय
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________________ द्वाविशः सर्गः। 1513 ग्याजेन द्राक् शीघ्रं मीलयतः संकोचयत आदिपुंसः श्रीविष्णोमिथोऽन्योन्यं मिलन्ती द्वावप्यञ्चलार्वाधापुटे यस्य निमीलनवशादन्योन्यसंलग्नपुटत्वानिबिडरोमकम्, अत एव श्यामस्वलदम्या विजितं नितरां पराभूतमिन्दुलचम येन तादृशं पचम नेत्रसंबन्ध्यू. धि:पुटपत्रीभूतरोमाण्येव तमांसि वयमाचचमहे ब्रमः, नतु ततोऽन्यानि तमांसी. त्यर्थः / तिमिरव्याप्तस्वास्किमपि न दृश्यत इति भावः / 'पचम' इति जात्येकवचनम् // सूर्यरूप ( दहने ) नेत्रको शीघ्र बन्द करते हुए आदिपुरुष ( श्रीविष्णु भगवान् ) के परस्परमें मिलते हुए दोनों प्रान्त ( नेत्रप्रान्त ) वाला तथा कालिमासे चन्द्रकलङ्कको जीतने. वाला अर्थात् उससे अधिक काले पक्ष्म ( पलकके बालों ) को ही हम अन्धकार कहते हैं। [इससे भिन्न 'अन्धकार' नामक कोई पदार्थ नहीं है। विष्णु भगवान्के दक्षिण तथा बाम नेत्ररूप सूर्य तथा चन्द्रमाके होनेसे सूर्यास्त होनेपर दहने नेत्रको बन्द करने और नेत्रको बन्द करनेपर उसके प्रान्तद्वय (दोनों पलकों) को भी बन्द होना तथा बाहरमें घनीभूत कृष्णवर्ण रोम-समूहका घनीभूत होकर अन्धकार मालूम पड़नेकी उत्प्रेक्षा की गई है ] // 33 / / विवस्वतानायिषतेव मिश्राः स्वगोसहस्रेण समं जनानाम् / गावोऽपि नेत्रापरनामधेयास्तेनेदमान्ध्यं खलु नान्धकारैः // 34 // विवस्वतेति / विवस्वता नेत्रमित्यपरं नामधेयं यासां ताश्चतरूपा जनानां गावोऽपि स्वस्य गवां किरणानां सहस्त्रेण समं सह मिश्रा दिने मिलिताः सत्योऽनायिषतेव नीता इव / यस्मात्तेन खलु तेनैवेदमान्ध्यं प्रकाशाभावान्नेत्रापगमाञ्च रूपाग्रहणं, नस्वन्धकारैः कृस्वेदमान्ध्यम् / तमोवशाकिमपि न दृश्यत इति भावः / अन्येनापि गोपालेन स्वगोसहस्रेण मिश्रिताः परेषामपि गावो नीयन्त इति // 34 // सर्य नेत्र ( आँख ) रूप नामान्तरवाले, लोगोंके गौओं (पक्षा०-नेत्रों) को अपने सहस्र गौओं (किरणों, पक्षा०-नेत्रों, या-गौओं) के साथ मानो लेकर चले ( अस्त हो) गये हैं, इसीसे यह प्रकाश भाव है, अन्धकारोंसे नहीं। [ लोकमें भी कोई गोपाल अपनी सहस्रों गौओंके साथ दूसरे लोगोंकी गौओंको भी मिलाकर जिस प्रकार चला जाता है, उसी प्रकार सूर्य भी अपनी सहस्रों गौओं (किरणों, पक्षा०-गौओं) के साथ अन्य लोगोंके गौओं (पक्षा-नेत्रों) को लेकर अस्त होने के बाद चले गये हैं, अत एव सूर्यको किरणों ( नेत्रों) एवं लोगोके नेत्रों के नहीं रहनेसे ही यह अन्धकारभाव (पदार्थदर्शन• शक्त्यभाव है, अन्धकारके कारणसे नहीं। यहाँ 'गो' शब्द सूर्यपक्षमें किरणार्थक तथा जनसमूहके पक्षमें नेत्रार्थक तथा गवार्थक है ] // 34 // ध्वान्तस्य वामोरु ! विचारणायां वैशेषिकं चारुमतं मतं मे | औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत्क्षमं तमस्तत्त्वनिरूपणाय / / 35 / / ध्वान्तस्येति / हे वामोरु अतिसुन्दरोरु ! ध्वान्तस्य विचारणायां तमःस्वरूप. नरूपणविषये वैशेषिकं मतं षट्पदार्थसाधर्म्यवैधर्म्यनिरूपणास्मकं काणादं दर्शनं चार
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________________ 1514 नैषधमहाकाव्यम् / सदुपपत्तिकं, नस्वन्यदिति मे मतं संमतम् / खलु यस्मात्कारणात् (संप्रदायविदः) तद्दर्शनं वैशेषिकं शास्त्र औलूकमाहुर्वदन्ति / अत एव तमसस्तत्त्वनिरूपणायानारो. पितस्वरूपनिरूपणाय चमं समर्थम् / उलूकस्य घूकस्य संबन्धि दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं नेत्रं हि तमस्यपि घटपटांदिस्वरूपाणां याथाम्यदर्शने समर्थं भवति / नैशेषिकमप्युलूकापरनाम्ना कणादमुनिना प्रोक्तमित्यौलकं दर्शनम् / ततश्चैतदपि तमस्तत्त्व. निरूपणाय समर्थमिति युक्तमित्यर्थ इति शब्दच्छलम् / वैशेषिकदर्शने च 'किमिदं' तमो भावरूपं अभावरूपं वा ? इति संदेहे 'भासामभाव एव तमः' इति सूत्राविरो. धेन व्योमशिवाचार्यादयः षट्पदार्थवैधयेणाभावरूपमेव तमो न्यरूपयन् / श्रीधराचार्यास्तु-'आरोपितं भूरूपमेव तमः' इति निर्वर्ण्य 'भासामभावे सत्येव तमःप्रतीते. र्भाभाव एव तमः' इत्युक्तमिति सूत्रविरोधं पर्यहार्षुः / एतदसहमानाः श्रीमदुदयना. चार्यादयः पुनर्भासामभावमेव तमस्त्वेन निरणैषुः / यस्मात्तदौलूकं दर्शनं वैशेषिकादिशास्त्रं तमस्तत्त्वनिरूपणायां समं समर्थमाहुरिति वान्वयः। महत्यन्धकारे सत्यपि घटादिपदार्थजातं को वा पश्यतीति ध्वान्तनिरूपणायां क्रियमाणायां घकनेत्रमेव चारु सर्वेभ्योऽप्यधिकमिति मम मतं मतं पुनः पुनः संमतमित्यर्थः / उलूकनेत्रमेव महान्धकारे घटादि विलोकयितुं समर्थम् / अन्यदीयनेत्राणां स्वान्ध्य. मेव जातमिति भावः / यतो वैशेषिकं घटादीन्विशेषान्वेत्ति तादृशम् / महान्धकारे घकनेत्रमेव घटादीन्भेदेन जानाति, नस्वन्यदीयं नेत्रम, तस्मात्तदेव चार्विति / तत्र वृद्धसंमत्यर्थमुत्तरार्धम् / उलूकवृत्त्या कणानत्तीति कणादः, तस्य कणादस्यैवोलूक इति नाम, तेन प्रोक्तवादौलूकम् / वामं सख्ये प्रतीपे च द्रविणे चातिसुन्दरे' इति विश्वः / वामोरु, 'संहितशफ-' इत्यादिनोङि नदीस्वाद्धस्वः। औलकम्, 'तेन प्रोक्तम्' इत्यण / पक्षे 'तस्येदम्' इति // 35 // हे वाम रु ! अन्धकारके स्वरूप-निरूपणके विषयमें वैशेषिक मत ( कणादोक्त दर्शनशास्त्र ) युक्तियुक्त है, ऐसा मेरा सिद्धान्त है, क्योंकि ( सम्प्रदायको जाननेवाले लोग) उस वैशेषिक मतको मौलूक दर्शन ( कणादोक्त शास्त्र-विशेष, पक्षा०-उल्लूका नेत्र) कहते हैं, अत एव अन्धकारकी वास्तविकताका निरूपण करने के लिए वही (औलूक दर्शन ही ) समर्थ है / [ उल्लूका नेत्र अन्धकारमें घट-पटादि समस्त पदार्थोंको वास्तविकरूपमें देखता है, इस वास्ते उल्लू के समान कणको खानेवाले 'कणाद' नामसे प्रसिद्ध ग्रन्थकर्ताका शास्त्र भी 'औलूक' कहलाता है और उस 'औलूक' दर्शन ( शास्त्र) को उल्लू पक्षीके नेत्रके समान अन्धकारमें पदार्थोंको वास्तविकरूपमें निर्णय करना उचित ही है / अथवा-उल्लू ही अन्धकारमें पदार्थोंको यथार्थरूपमें देखता है, इस विषयको योगबलसे उल्लूका रूप धारणकर साक्षात् स्वयमेव समझने के बाद 'कणाद' के बनाये गये उस शास्त्रको अन्धकारके विषय में यथार्थतः निर्णय करना उचित ही है। उक्त वैशेषिक दर्शनमें'तम भावस्वरूप है ? या अमावस्वरूप ? ऐसा सन्देह होनेपर 'तेजोंका अभाव हो तम है'
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________________ द्वाविंशः सर्गः। एतदर्थक 'भासाममाव एव तमः' इस सूत्रके अविरोधके लिए व्योमशिवाचार्यादिने छः पदार्थोके वैधhसे अभावरूप तमको युक्तियुक्त माना है, किन्तु श्रीधराचार्यने 'आरोपित भूरूप ही अन्धकार है' ऐसा निश्चयकर 'तेजोंके अभावमें वास्तविक रूपसे अन्धकारका शान होनेसे तेजोभाव ही तम है' ऐसा कहकर सूत्रके विरोधका परिहार किया है। परन्तु उदयनाचार्यने 'तेजों के अभावको ही अन्धकार' मानकर श्रीधराचार्यके मतका खण्डन कर दिया है ] // 35 // म्लानिस्पृशः स्पर्शनिषेधभूमेः सेयं त्रिशङ्कोरिव संपदस्य / न किंचिदन्यत्प्रति कौशिकीये दृशौ विहाय प्रियमातनोति / / 36 // ग्लानोति / म्लानिस्पृशः कालिमस्पर्शिनः श्यामस्य, अथ च, चण्डालत्वान्मा. लिन्ययुक्तस्य नि:श्रीकस्य / तथा,-अभावरूपत्वात् स्पर्शगुणनिषेधस्य भूमेः स्थानस्य, अथ च,-चण्डालस्वादेवास्पृश्यस्यास्य तमसः राज्ञत्रिशोरिव सेयं प्रसिद्धा प्रत्यतेण गृह्यमाणा च संपत् बाहुल्येन स्वरूपलाभः, अथ च,-राज्यसमृद्धिः कौशिकीये औलुके, अथ च,-वैश्वामित्रे दृशौ नेत्रे विहायान्यत्किंचित्प्रति अपरं किमपि वस्तु लक्ष्यीकृत्य प्रियं हितं नातनोति करोति, किंतु तदीये एव नेत्रे लक्ष्यीकृत्य हितं करोति / अन्यत्प्रति किंचिदल्पमपि प्रियं नातनोतीति वा, अन्धकारे झलकनेत्रे एव पदार्थान्पश्यत इति तत्संपत्तयोः प्रिया। त्रिशोश्च संपद्विश्वामित्रस्यैव नेत्रयोः प्रिया, नान्यस्य / एतदुपाख्यानं रामायणादौ प्रसिद्धम् / कौशिकीये, 'वृद्धाच्छः'। मालिन्ययुक्त, अभावरूप होनेसे अस्पर्शाई इस अन्धकारको प्रत्यक्ष दृश्यमान बहुलता उल्लके नेत्रों के अतिरिक्त दूसरे किसीके प्रति उस प्रकार हित नहीं करती है, (किन्तु अन्य किसीको इस अन्धकार बाहुल्यमें कोई पदार्थ दिखलाई नहीं पड़नेसे यह इस अन्धकारबाहुल्यसे उल्लूके नेत्रोंको ही हित होता है ), जिस प्रकार ( वसिष्ठ मुनिके शापसे) चण्डाल होने के कारण मलिनतायुक्त तथा स्पर्शके अयोग्य इस प्रसिद्ध त्रिशङ्क नामक राजाकी राज सम्पति विश्वामित्र मुनिके नेत्रों के अतिरिक्त दूसरे किसीके प्रति प्रियकारिणी नहीं थी अर्थात् उस त्रिशङ्कुकी राज-सम्पत्तिको देखकर विश्वामित्र ही प्रसन्न हुए दूसरा कोई प्रसन्न नहीं हुआ ] // 36 // पौराणिक कथा-जब महर्षि वसिष्ठजीके शापसे राजा त्रिशङ्क चाण्डाल हो गये तब उन्होंने यज्ञ करके सशरीर स्वर्ग जाना चाहा, किन्तु जब उनको यज्ञ करानेके लिए कोई ऋत्विज नहीं मिला तब वे वसिष्ठजीके परम वैरी विश्वामित्रजीके पास जाकर अपनी इच्छा प्रकट किये और विश्वामित्रजी मी यज्ञ कराकर उन्हें सशरीर स्वर्गमें भेजनेकी प्रतिज्ञाकर यज्ञ कराने लगे / इसके अनन्तर स्वर्गमें जाते हुए राजा त्रिशङ्कको चाण्डाल होनेसे देवोंके द्वारा अधोमुखकर नीचेकी ओर गिराये जाते हुए देखकर विश्वामित्रजी स्वर्ग तथा भूलोकके वीच में ही दूसरा स्वर्ग बनाने लगे, जिसे ब्रह्माजीने स्वयं आकर विश्वामित्रको वैसा करनेसे रोका और 'त्रिशङ्क' को वहीं रहनेका स्थान दिया, जो अब तक तारारूपमें वहीं विद्यमान है। 65 नै० उ०
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / मूर्धाभिषिक्तः खलु यो ग्रहाणां यद्भासमास्कन्दितऋक्षशोभम् / दिवान्धकारं स्फुटलब्धरूपमालोकतालोकमुलूकलोकः / / 37 / / मूर्धेति / यो रविः नवानां ग्रहाणां मध्ये खलु निश्चितं मूर्धाभिषिक्तो राजा। उलूकानां लोकः सङ्घस्तस्य रवेर्भया दीप्त्या समास्कन्दिता नितरां पराभूता ऋक्ष. शोभा नक्षत्रकान्तिस्मिस्तत् / तथा,-स्फुटमुपलब्धानि अन्येन जनेन दृष्टानि घटादिस्वरूपाणि यस्मिस्ताहशमपि दिवा कर्मीभूतं दिनमन्धकारमेवालोकत / दिने तस्य दर्शनाशक्तर्दिनमन्धकाररूपस्वेनैव मेने इत्यर्थः / तथा,-व्यक्तं लब्धानि घटादिरूपाणि यत्र तादृशमन्धकारमेवालोकमपश्यदर्शनसहकारिप्रकाशरूपत्वेनैव मेने / (अर्थाद्रानावित्यर्थः।) अन्धकारं स्फुटलब्धरूपमित्यावृत्त्या योज्यम् / तेन तमसा विपरीतदृश एव भवन्तीति व्यज्यते / एवंविधमन्धकारं च स्फुटमतिप्रसिद्ध शुक्लभास्वरात्मकं लब्धं रूपं येन तादृशमालोकमेवापश्यत् / कृष्णरूपमपि तमः शुक्लभास्वरालोकरवेनापश्यदिति विरुद्धमित्यर्थः / अथ च, यो ग्रहराजः सूर्यः, आक्रान्तनक्षत्रलचमीकां तद्भासं सूर्यदीप्तिमेवायमुलुकलोको दिवा दिनेऽन्धकारमा पश्यत् / रात्री चान्धकारमालोकमपश्यत् ; दिने सूर्यालोक एव तमः, रात्री च तम एव सूर्यालोक इति ददशेत्यर्थः / कीही तदासम् ? कीदृशमन्धकारम् ? स्फुटमुप. लब्धानि घटादिरूपाणि यस्यामन्यजनेन तादृशीम् , स्फुटं संजातस्वरूपलाभं चेत्यः न्धकारस्य नपुंसकत्वान्नपुंसकैकशेषेकवद्भावेन वा व्याख्येयम् / सूर्यदीप्त्याऽसमा. स्कन्दिताऽपराभूता नक्षत्रलक्ष्मीयंत्र तम् , अन्धकारविशेषणं वा / रात्रौ सूर्यः दीप्तेरभावादतिरस्कृत नक्षत्रशोभामित्यर्थः।सूर्यदीप्तेरेव समास्कन्दनसामर्थ्यात्तमसैव रात्रौ यत्तिरस्करणं तेन नक्षत्रशोभा यस्मिन्निति वा इत्यादिव्याख्यानानि ज्ञातग्यानि / 'लचमीम्' इति पाठे-नदीस्वेऽपि समासान्तविधेरनित्यत्वात्कबभावः / 'मूर्धाभिषिक्तो राजन्यः' 'अन्धकारोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः॥ 37 // ___ जो सूर्य ग्रहोंमें मूर्धाभिषिक्त राजा है, उल्लुओंके समुदायने उस सूर्यको प्रभासे पराभूत नक्षत्र-प्रकाशवाले तथा ( उल्लूसे अतिरिक्त दूसरे लोगों के द्वारा ) स्पष्ट दिखलायी देता है ( घट-पटादिका ) स्वरूप जिसमें ऐसे दिनको अन्धकार रूपमें देखा ( जिसमें सूर्यकान्तिने नक्षत्र-शोभाको नष्ट कर दिया है तथा सब घट-पटादि पदार्थोको लोग स्पष्टतः देख रहे हैं, उस दिनको भी उल्लुओंने अन्धकार माना ) तथा ( रात्रिमें ) उस सूर्य के प्रभासे अपराभूत नक्षत्र-प्रकाशवाले तथा ( उल्लुओं के द्वारा ) स्पष्ट दिखलायी देता है (घट. पदादिका) स्वरूप जिसमें ऐसे अन्धकारको प्रकाशरूपमें देखा अर्थात् उक्तरूप दिनको अन्धकार तथा अन्धकारको प्रकाश समझा / अथ च-जो सूर्य ग्रहराज है, उल्लुओं के समइने दिनमें उस सूर्य-प्रकाशके द्वारा नष्ट किये गये नक्षत्र-प्रकाशवाले एवं दूसरोंको दृश्यमान घट-पदादिस्वरूपवाले प्रकाशको अन्धकार मानो तथा रात्रिमें उस सूर्य-प्रकाशके
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1517 द्वारा नहीं नष्ट किये गये नक्षत्र-प्रकाशवाले एवं अपने को दृश्यमान घट-पादिस्वरूपवाले अन्धकारको प्रकाश माना; ( ऐसा यह अन्धकार है ) // 37 // दिने मम द्वेषिणि कीडगेषां प्रचार इत्याकलनाय चारीः / छाया विधाय प्रतिवस्तुलग्नाः प्रावेशयत्प्रष्टुमिवान्धकारः // 38 // दिन इति / अन्धकार हत्याकलनाय पामस्स्येन ज्ञानाथं प्रतिवस्तुलग्नाः पदार्थ. मात्रसंबद्धाः प्रतिच्छाया एवं चारोगूढार्थ वेदिकाश्चारनारी: विधाय चारपदं ताभ्यो दत्वा दिनं प्रति संप्रेष्य समागतास्तास्तत्रयवृतान्तं प्रष्टुमित्र पुनः प्रावेश यत् / निज. नैकध्यमित्यर्थात् / इति कि ? ममान्ध कारस्य द्वेषिणि माम पडमाने दिने विषये एषां वस्तनां कोहक प्रचारो विहरणं स्नेहादिव्यवहारश्चेति / दिवा प्रतिपदार्थ संबद्धा. छाया एव रात्री समागत्य मिलिता निजस्वामिन मन्धकार प्राविशन् / रात्रौ हि प्रकाशाभावे छाया अन्धकारेग सहै कीमवतोति तत्संबन्धादेव महानन्धकारःप्रतीयत इति भावः / एतेन प्रतिच्छायापि तम एवेति वर्णितम् / अन्योऽपि रात्रौ लोकस्थिति जातकामः स्त्रीणां सर्वत्र प्रवेष्टुं शक्यत्वाच्चारनाराः संप्रेष्य तत्रयं वृत्तान्तं विचार्य समागतास्ताः प्रष्टमात्मसविधं प्रवेश पति / छाया एत चारीः प्रतिवस्तुलग्नाविधायेति वा / चारपदं दत्वा पदिनः प्रत्येकं प्रेषयामास / अत एव ता दिने प्रतिवस्तुलग्ना दृश्यन्त इति वा / चारोः, पुंयोगान्ङ // 38 // 'मेरे शत्रु दिन में इन ( प्रकाशादि पदार्थों ) की कैसी स्थिति ( पक्षा०-लोकादिविषयक स्नेह ) है, इस बात को अच्छी तरह जानने के लिए अन्य कारने प्रत्येक पदार्थों के साथ संलग्न छाया ( परछाहो ) को दूतो बनाकर ( इस समय रात्रि में उक्त कार्यको पूराकर लौटी हुई) उन दूनीरूपिणो छायाओंको मानो उनले उक्त बात पूछने के लिए प्रवेश कराया है।' लोकमें भी कोई राजा आदि आने शत्रुओंके यहां रहने वाले अमात्यादिकी स्थिति जानने के लिए सर्वत्र सरलतासे पहुंचने वाली स्त्रियों को दूनी बनाकर भेज देता है, और जब वे वहांकी बातोंको जानकर लौटती हैं तब उनसे सब बातोंको पूछने के लिए अपने पास बुलाता ( प्रविष्ट कराता ) है। इससे दिन में प्रत्येक पदार्थ से सम्बन्ध रखनेवाली छाया ही रात्रिमें एकत्रित होकर अन्धकाररूप हो रही है, अत एव छाया भी अन्धकारका हो अंश है, अन्धकारसे मिन्न 'छाया' नामक कोई वस्तु नहीं है ] // 38 // इदानी चन्द्रोदयं वर्णयितुमुपक्रमते ध्वान्तस्य तेन क्रियमाणयेत्थं द्विषः शशो वर्णनयाऽथ रुष्टः / उद्यन्नुपाश्लोकि जपारुणश्रीनराधिपेनानुनयेच्छयेव // 39 // ध्वान्तस्येति / तेन नराधिपेन नलेन इत्थं क्रियमाणया द्विषः शत्रुभूतस्य ध्वान्तस्य वर्गनया रुष्टः ऋद्ध इव जपाकुसुमवइरुगा श्रीयस्य स उद्यन्नुदयं प्राप्नुवन् शशीतेनैव राज्ञाथानन्तरमनुनयेच्छयेव प्रसादनवाञ्छयेवौपाश्लोकि श्लोकः स्तोतुमा
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________________ 1518 नैषधमहाकाव्यम् / रम्भि / अन्योऽपि वैरिवर्णनया रुष्टः सन्नरुणो भवति, यत्परिहारार्थमुदितः सन् वर्णकेन प्रसादनाथं स्तूयते / प्रतीयमानोत्प्रेक्षा। 'इव'शब्दस्योभययोजना वा / उपा. श्लोकि, 'सत्या-' इति णिजन्ताकर्मणि चिण // 39 // ___ अनन्तर उस राजा (नल ) के द्वारा किये गये इस प्रकार ( 22 / 26-38 ) के वर्णन से क्रुद्ध से ( अत एव ) ओढउलके पुष्पके समान लाल और उदय होते ( पक्षा-आगे बढ़ते हुए ) चन्द्रमाका मानो अनुनय करने ( मनाने ) की इच्छासे श्लोकों द्वारा स्तुति करने लगे। [लोकमें भी कोई व्यक्ति शत्रुके वर्णन करनेसे, रुष्ट होनेसे रक्तवर्ण होकर आगे बढ़ते हुए व्यक्तिको प्रसन्न करने के लिए स्तुति करता है। अन्धकारके बाद उदित होते हुए अरुणवर्ण चन्द्रमाको देखकर राजा नल अन्धकारका वर्णन करने लगे ] // 39 // पश्यावृतोऽप्येष निमेषमद्रेरधित्यकाभूमितिरस्करिण्या। प्रवर्षति प्रेयसि ! चन्द्रिकाभिश्चकोरच०चूचुलुकप्रमिन्दुः // 40 // पश्येति / हे प्रेयसि प्राणप्रिये ! एष इन्दुश्चन्द्रिकाभिश्च कोराणां चन्द्रिकानवदमृतपायिनां पक्षिणां चन्च्च एव चुलुकास्तान्पूरयित्वा प्रकर्षेण वर्षति सुधामित्या र्थात् / यावता चकोरचञ्चपूरणं भवति तावरप्रमाणं वर्षतीत्यर्थः / त्वं पश्य / किंभूतः? अनेरुदयाचलस्याधित्यकाभूग्योर्ध्वशिखरेणैव तिरस्करिण्या जवनिकया निमेषलत. णमत्यल्पकालमावृतोऽपि सन् / संपूर्णानुदितोऽपि प्रथमचन्द्रिकाभिरेव चकोराणामानन्दं करोति, किं पुनरुदितः सन्निति भावः / अन्योऽप्युपकारी दूरस्थोऽप्युदयो। न्मुखोऽन्येषामुपकरोति / दुलुकप्रम् , 'वर्षप्रमाणे-' इत्यादिना पूरेणमुल , ऊकारलोपश्च // 40 // ___ हे पर मप्रिये ( दमयन्ति ) ! उदयाचल के ऊर्ध्व शिखर रूप पर्देसे क्षणमात्र ढका हुआ भी यह ( उदीयमान ) चन्द्रमा चाँदनीसे चकोरके चोंचरूपी चुल्लूको भरकर अच्छी तरह वृष्टिकर रहा है, यह तुम देखो / [ जब यह अपूर्ण उदयको प्राप्त होने के पहले ही चकोरोंके चोंचरूपी चुल्लूको चन्द्रिकाओंसे भरकर अतिशय बरस रहा है, तब पूर्णोदय हो जानेपर और भी अधिक बरसेगा, इसमें सन्देह नहीं है / लोकमें भी कोई उपकारी व्यक्ति अभ्युदयोन्मुख होकर दूरस्थ रहते हुए भी उपकार करता है ] // 40 // / ध्वान्ते दुमान्तानभिसारिकास्त्वं शङ्कस्व सङ्केतनिकेतमाप्ताः / छायाच्छलादुज्झितनीलचेला ज्योत्स्नाऽनुकूलैश्चलिता दुकूलैः॥ 41 / / ध्वान्त इति / हे प्रिये ! त्वं चन्द्रोदयात्पूर्व ध्वान्ते सति द्रमान्तान् तरुनिकट देशानेव वृत्ताधोभागानेव संभोगार्थ कामुकदत्तं संकेतनिकेतमाप्ताः प्राप्ता अभिसा. रिकाः स्वैरिणीः शङ्कस्व संभावय / तथा, इदानी चन्द्रोदये सति वृक्षाधोभागवतिछायाच्छलादुज्झितं पूर्व वृतं तमोनुकूलं नीलं चेलं वस्त्रं याभिस्तादृशीः सतीः सवर्णत्वाज्योत्स्नानुफूलैश्चन्द्रिकानुगुणधवल तरैर्दुकूलैरुपलक्षिताः सतीश्चलिताः संभोग
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1516 कृत्वा स्वगृहं प्रति पुनः परावृत्तास्वं संभावय / तमसि सत्येव केनापि न ज्ञात. व्यमिति बुद्धया नीलं वस्त्रं परिधाय संकेतस्थानमागताः, चन्द्रोदये पुनर्नोलवस्त्रपरि। धाने पूर्ववगीत्या तत्तत्रैव विहाय श्वेतं दुकूलं सवर्णश्वात्परिधाय परावृत्ताः केनापि न ज्ञाताः / 'नीलचोला:-' इति पाठे-चोलः कूर्यासः // 41 // (हे प्रिये !) अन्धकारमें अर्थात् चन्द्रोदय के पहले तुम वृक्षों के नीचे मागरूप (प्रियकथित ) मकेत स्थानको पहुंवो हुई अमितारिका को जाना ( तथा प्रियके साथ सम्भोग करके इस समय-चन्द्रोदय हो जानेपर, वृशोको ) परछाहोके करटसे नोले कपड़ों को छोड़ (उतार ) कर चाँदनोके अनुकूल (श्वेत ) वस्त्रांको धारण कर चलो ( वापस लौटी) हुई समझो। [चन्द्रोदय होने के पहले अन्धकार रहनेपर ये अभिसारिकाएँ दूसरों के द्वारा देखे जानेके मयसे काले वस्त्र पहनकर प्रियसङ्केतित वृक्ष के अधोमागको पहुंच गयीं तथा उन प्रियोंके साथ सम्भोग करके अब चन्द्रोदय होनेपर इन काले वस्त्रोंको पहनकर चाँदनीमें लौटते समय कोई देख लेगा इस मयसे वृक्षोंकी परछाहीके कस्टसे उन काले वस्त्रोंको छोड़कर चांदनोके अनुकूल श्वेत वस्त्र पहनकर लोट रहा हैं, ऐसा तुम जानो / ये वृक्षोंको परछाही नहीं हैं, किन्तु उन अमितारिकाओंको छोड़े हुए काले वस्त्र हैं / अमिसा. रिकाओंका अँधेरेमें काला वस्त्र तथा उजे ले में श्वेत वस्त्र पहनकर प्रियके पास जाने या वहांसे लौटनेका स्वभाव होता है] // 41 // त्वदास्यलक्ष्मीमुकुरं चकोरैः स्वकौमुदीमादयमानमिन्दुम् / दृशा निशेन्दीवरचारुभासा पिबोरु रम्भातरुपीवरोरु ! / / 42 // तदिति / हे रम्भातरुवदतिपीवरावरू यस्यास्तरसंबुद्धिः, त्वं निशायामिन्दीवरं नीलोत्पलं तद्वच्चार्वी भा यस्यास्तया हशा उरु सादरमिन्दुबिम्बं विलोकय / किभूतम् ? तवास्यलयम्या मुखशोभाया अवलोकनार्थ मुकुरं दर्पणमिव / तथा,-चकोर: प्रयोज्यः कौमुदीमादयमानं निजकौमुदी चकोरान् पाययमानम् / उदिते चन्द्रे चकोराः सानन्दा जाताः, नीलोत्पलानि च विकसितानीति भावः / एतेनेन्दोः परोपकारित्वं सूचितम् / विकसितेन्दीवरतुल्यया दृशा पिबेत्यनेन चन्द्रोदये हीन्दोवरं विकसति, स्वं चैवंभूतया दृशा यदा चन्द्रमवलोकयिष्यसि, (तदा)जनस्वदृशं चन्द्रावलोकनविकसितमिन्दीवरमेवैतदिति ज्ञास्यतीति सूचितम् / दिवा संकोचादसहश्यमितीन्दीवरस्य विकसितस्वद्योतनाथ 'निशा' पदम् / चकोर:, 'गतिबुद्धि-' इति कर्मस्वप्राप्तावपि 'आदिखाद्योन' इति प्रतिषेधारकर्तरि तृतीया। आदयमानं, निगरणार्थत्वात्परस्मैपदप्राप्तावपि 'अदेः प्रतिषेधो वक्तव्यः' इति निषेधात् 'णिचश्व' इति तङ्॥४२॥ हे केलेके खम्भेके समान स्थूल ऊरुओंवाला (प्रिये दमयन्ति ) ! तुम रात्रिके (विकसित) नीलकमलके समान सुन्दर शोमावाले नेत्रसे, तुम्हारे मुखशोमाका दर्पणरूप तथा चकोरोंसे अपनी चाँदनोका पान कराते हुए चन्द्रमाको बहुत पोवो अर्थात् अच्छी तरह
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________________ 1520 नैषधमहाकाव्यम् / देखो। ( पाटा-हे मोटे वेले के खम्भेके समान उरुओं वाली ! इस पाठमें पिब+उरुर. म्मातरु ...." = पीवरोरुग्भातरु".' ऐसा पद समझना चाहिये ) / [तुम रात्रिमें विकसित हुए नीलकमल तुल्य कान्तिवाले नेत्रसे चन्द्रमाको सम्यक प्रकार से देखोगी जो तुम्हारे नेत्रको लोग नीलकमल समझेंगे / चन्द्रोदय हो गया नीलकमल विकसित हो गये तथा चकोर चन्द्रिका-पान करने लगे ] // 42 // असंशयं सागरभागुदस्थात् पृथ्वीधरादेव मथः पुराऽयम् / अमुष्य यस्मादधनाऽपि सिन्धौ स्थितस्य शैलादूदयं प्रतीमः / / 43 // असंशयमिति / पुरा पूर्व सागरभाक समुद्रगर्भस्थोऽयं चन्द्रः मथो दण्डभतात्पृ. थ्वीधरात्पर्वतान्मन्दराद्वेरेव हेतोरुदस्थादुत्पन्न इति असंशयं निश्चितम् / पुराणादौ यदेवं श्रयते तत्सत्यमित्यर्थः / पुरा उदस्थात्प्रथमसंभवावसरे तस्मादेव समुस्थित इति वा / तत्र हेतुमाह-यरमा तोरधुनापि संभवान्त रावसरेऽपि सिन्धौ स्थितस्य सागरगर्भरथस्याप्यमुष्य चन्द्रस्य शैलादुदयाचलादेवोदयमुत्पत्ति प्रतीमो जानीमः / प्रत्यहं सागरस्थस्याप्यस्याचलोत्पत्तिशीलत्वरूपलिङ्गदर्शनात्समुद्रमथने प्रथमसंभवा. वसरेऽप्ययमचलादेवोत्पन्न इति निशिनुम इत्यर्थः / उदयाचल शिखरं चन्द्रोऽतिकामतीति भावः // 3 // पहले ( समुद्रमथनके समय ) समद्रन्थ यह चन्द्रमा निश्चय मथनदण्डरूप (सुमेरु ) पर्वतसे अदर मेव उत्पन्न हुअा है, क्योंकि इस समय भी समुद्र में स्थित इस चन्द्रमाके उदयको पर्वत ( उदयाचल ) से ही उत्पन्न हमलं ग देखते हैं / [ इस समय प्रतिदिन उदया. चल से ही समुद्ररथ चन्द्रमाका उदय देखकर पूर्व काल में भी इस चन्द्रमाका मन्थनदण्डत मन्दराचल से ही उदय होना प्रतीत होता है ] / / 43 / / निजानुजेनातिथितामुपेतः प्राचीपतेर्वाहनवारणेन / सिन्दूरसान्द्रे किमकारि मृध्नि तेनारुणश्रीरयमुज्जिही ते ? // 44 // निजेति / / निजानुजेन एकस्मात्सिन्धोत्पन्नतयाऽरमाचदात् पश्चाज्जातेन कनी. यसा भ्रात्रा प्राचीपतेरिन्द्रस्य वाहनवारणेन प्राच्यां स्थितेन रावतेनातिथितामुपेतः प्राप्ठः। प्राच्यामुदितत्वात्तत्सविधं प्राप्तः सन्नयं चन्द्रोऽग्रजवासिन्दूरेण सान्द्रे मूनि अकारि कृतः किम् ? गौरवान्नमस्कारपूर्व शिरस्यारोपितः किमित्यर्थः / तेन सान्द्रः सिन्दूरशिरःस्थापनेन हेतुना लग्नसिन्दूरवशादयमरुणश्रीरारक्तशोभः उजिहोते उदेति, उज्जिहीते किमिति वा / उदितश्चन्द्रः सिन्दूररक्तो दृश्यत इत्यर्थः // 44 // (4क समुद्र में निवास करने तथा समुद्रमथनके अवसर पर चन्द्रमाके बाद उत्पन्न होनेसे ) अपने छोटे भाई इन्द्र के वाहनभूत ऐरावतने ( पूर्व दिशामें जानेसे ) अतिथित्वको प्राप्त चन्द्रमाके मस्तकको सिन्दूरसे लिप्त कर दिया है क्या ? जिससे यह ( चन्द्रमा ) अरुण शोभावाला उदित हो रहा है / [ गृहपर आये हुए पूज्य अतिथिके मस्तकमें सिन्दूरादिका
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1521 तिलक लगाकर उस अतिथिका सत्कार करना कर्तव्य होता है, अत एव अथितिरूपमें आये हुए बड़े भाई चन्द्रके मस्तकमें सिन्दूर-तिलक लगाकर सत्कार करना सदा पूर्व दिशामें निवास करनेवाले ऐरावतको उचित ही है ] // 44 // यत्प्रीतिमद्भिर्वदनैः स्वसाम्यादचुम्बि नाकाधिपनायिकानाम् | ततस्तदीयाधरयावयोगादुदेति बिम्बारुणबिम्ब एषः // 45 // यदिति // वृत्तत्वादिगुणयोगेन स्वसाम्यात्प्रीतिमद्भिर्नाकाधिपस्येन्द्रस्य नायि. कानां वदनैयद्यस्मात्स्वसविधमागत एष चन्द्रोऽचुम्बि चुम्बितः, तस्माद्धेतोस्तस्मा. च्चुम्बनाद्वा तदीयानां देवेन्द्रनायिकानामधरेषु न्यस्तो यावोऽलक्तकस्तस्य योगात्संबन्धादेतोर्बिम्बवत्पक्वबिम्बीफलवदरुणं बिम्बं मण्डलं यस्य तादृश उदेति / अन्योऽपि समानः सखा सविधमागतः सन् सख्या प्रीत्या चुम्ब्यसे / 'मुखैः' इति बहुवचनेन तत्र प्रदेशे युगपदेव चुम्बनाबहुलयावस्योगात्सकलस्यापि चन्द्रबिम्बस्य रक्तत्वं युक्त. मिति सूचितम् // 45 // ___ आह्लादक तथा गोलाकारादि गुणोंसे अपनी समानता होने के कारण इन्द्रकी नायिका. ओंके मुखोंने जिस कारण ( पूर्व दिशामें उदयोन्मुख होते समय समीपस्थ होनेपर ) चन्द्रः माका चुम्बन किया, उस कारण (या-उस चुम्बनके करने ) से उन (इन्द्रकी नायिकाओं) के अधरों के यावक ( अधर रंगनेके अलक्तक) के संसर्गसे बिम्ब फलके समान लाल मण्डलवाला यह चन्द्रमा उदित हो रहा है। [इन्द्रकी नायिकाएँ सदा पूर्व दिशामें रहती हैं, और इस अन्द्रमाको उसी दिशामें उदित होते हुए देखकर चन्द्रमामें आह्लादक एवं गोलाकार आदि गुणोंको अपने मुखके समान देखकर स्नेहपूर्वक वे नायिकाएँ चन्द्रमाका चुम्बन करती हैं और उसके बाद शीघ्र ही उदय होनेसे कुछ क्षण पहले लगे हुए उन इन्द्रनायिकाओं के अधरके रागसे यह चन्द्रबिम्ब अरुण दृष्टिगोचर होता है ] लोकमें भी कोई व्यक्ति अपने समान गुणवाले व्यक्तिके आनेपर उसका स्नेहपूर्वक चुम्बनादि करता है। उदयको प्राप्त यह चन्द्रमण्डल रक्तवर्ण दृष्टिगोचर हो रहा है ] // 45 // विलोमिताङ्कोत्किरणाद् दुरूहहगादिना दृश्यविलोचनादि / विधिविधत्ते विधुना वधूना किमाननं काम्ननसञ्चकेन ? / / 46 / / विलोमितेति // विधिब्रह्मा विधुना चन्द्रेणैव काञ्चनस्य सञ्चकेन बिम्बकेन कृत्वा वधूनामतिरमणीयमाननं विधत्ते किम् / यतः किंभूतेन ? विलोमितः पराङ्मुखः कृतः स्वप्रभया जितः अङ्कः कलङ्को येन तादृशादुरकृष्टादतितेजस्विनः किरणाद्धेतो. दुरूहो दुस्तक्यों गादित्राद्यवयवो यस्य, अथ च,-विपरीतीकृतानामङ्कानां नेत्रा. दिनिर्माणार्थ निम्मोन्नतांशचिह्वस्थानानामुरिकरणं संघटनं तस्माद्धेतोः साक्षादलचयनेत्रकर्णनासिकाद्यवयवेन / आननं तु साक्षादृश्या विलोचननासाकर्णाद्यवयवा यस्य तादृशम् / तस्माद् ब्रह्मा स्त्रीमुखं चन्द्ररूपेण स्वर्णस्य सञ्चकेन निर्ममे / सञ्चके हि
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________________ 1522 नैषधमहाकाव्यम् / निष्पाद्यस्य वस्तुनो निम्नोन्नतभागा विपरीता एवोकीर्यन्ते / तत्र च नेत्राद्यवयवा दुज्ञेया भवन्ति, तनिर्मिते मुखादौ च दृश्या भवन्ति, तस्मादेवं तयंत इत्यर्थः। उदितमात्रश्चन्द्रोऽत्युत्तमसुवर्णसञ्चकवद्रको दृश्यत इति भावः / उत्तमं सुवर्ण रक्तवर्ण भवति / 'आननम्' इति जात्येकवचनम् // 46 // ब्रह्मा अपनी प्रभासे तिरस्कृत कलङ्कवाले अतिशय उत्कृष्ट किरणों (पक्षा०-उलटा बनाये गये चिह्नोंकी रचना) से स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़ते हैं, नेत्र आदि (नासिका, अधर..."") जिसके ऐसे चन्द्रमारूप सोनेके साँचेसे स्त्रियोंके मुखको रचते हैं क्या ? / [जिस प्रकार नेत्र नासिका आदि उलटा खोदनेसे स्पष्ट नहीं मालूम पड़ते हुए नेत्रादि वाले सांचेसे कोई मूर्ति ढाली जाती है तो उस ढाली गयी मूर्ति आदिमें नेत्रादि स्पष्ट दिखलायी पड़ने लगते हैं, उसी प्रकार गोलाकार उदयकालीन होनेसे सुवर्णवत् रक्त-पीतवर्ण तथा कलङ्कको पराभूत करनेवाली किरणको उत्कृष्टतासे (पक्षा०-उलटे खोदे गये चिह्नों ) से स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़नेवाले नेत्रादिवाले चन्द्ररूपी सोने के सांचेसे खियोंके मुखको ब्रह्मा ढालते हैं क्या ? / उदयकालीन चन्द्र सोनेके समान रक्त-पीतवर्ण होता है / चन्द्रको स्त्रियों के मुखका सुवर्णमय सांचा होनेसे उसमें उलटा खोदे गये नेत्रादिको स्पष्ट नहीं दिखलायी पड़नेको उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 46 // अनेन वेधा विपरीतरूपविनिर्मिताङ्कोत्किरणाङ्गकेन / त्वदाननं दृश्यहगाद्यलक्ष्यहगादिनवाकृत सञ्चकेन / / अनेनेति // वेधाः विपरीतरूपं यथा तथा विनिर्मितमुक्तविधमङ्कोस्किरणं यत्र तादृशमङ्गं यस्य / तेन / तथा,-अलच्यगादिनानेन चन्द्रेणेब सञ्चकेन दृश्यं सुन्दरः तरम् , अथ च,-प्रत्यक्षदर्शनयोग्यं गादि यस्य तादृशं त्वदाननमकृत / स्वदानन· मेवाकृत न स्वन्याननमिति वा / अयमेवात्र श्लोके विशेषः / अयं श्लोकः क्षेपकः // ब्रह्माने, उलटा बनाये गये चिह्नोंकी रचनावाले अङ्ग हैं जिसमें ऐसे तथा ( उलटा चिह्न करने के कारण ही ) स्पष्ट नहीं दिखलायो देते हुए नेत्रादिवाले इस ( चन्द्ररूपी ) स चेसे ही स्पष्ट देखने योग्य ( या-मनोहर ) नेत्रादिवाले तुम्हारे मुखका बनाया है / [इस श्लोकका आशय पूर्व श्लोकके समान ही है, केवल विशेष इतना ही है कि पूर्व इलोकमें स्त्रियों के मुख की रचना करनेको कहा गया है तथा इस श्लोकमें केवल दमयन्तीके ही मुखकी रचना करनेको कहा गया है। इससे अन्य स्त्रियोंका मुख उक्त चन्द्ररूपी सांचेमें नहीं ढाले जानेसे सामान्य सौन्दर्य युक्त तथा तुम्हारा मुख उक्तरूप चन्द्ररूपी सांचेमें ढाले जानेसे अन्य स्त्रियों के मुखसे अधिक सौन्दर्य युक्त है, यह भी सूचित होता है / पूर्व श्लोकके समान हो अर्थ होनेसे टीकाकार इसे क्षेपक मानते हैं ] // अस्याः सुराधीशदिशः पुराऽसीत् यदम्बरं पीतमिदं रजन्या / चन्द्रांशुचूर्णव्यतिचुम्बितेन तेनाधुना नूनमलोहितायि / / 47 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1523 अस्या इति // हे भैमि ! अस्याः सुराधीशस्येन्द्रस्य दिशः यदिदमम्बरं गगनं वस्त्रं च पुरा चन्द्रोदयात् पूर्व रजन्या राम्या हरिद्रया च पीतं तमाव्याप्तस्वाददृश्यं पीतवर्ण चासीत् , तेनाम्बरेण गगनेन वस्त्रेण चाधुना चन्द्रोदये चन्द्रांशूनां चूर्णैः श्लक्ष्णसूचमतेजोलेशैः कर्तृभियंतिचुम्बितेनातितरां स्पृष्टेन सता चद्रांशुवच्छुभ्रतरेण चूर्णेन ताम्बूलसाधनचूर्णद्रव्येण स्पृष्टेन सता नूनमलोहितायि आरक्तीभूतम् / हरिद्रया पीतवर्ण वस्त्रं चूर्णेन युक्तं सद्रक्तं भवति / देवेन्द्रस्त्रियाश्च वस्त्राणि नाना. वर्णानि युक्तानि / चन्द्रांशव एव चूर्णमिति वा / अलोहितायि, लोहितादिक्यषन्ताद्भावे चिण // 47 // इस सुराधीशकी दिशा अर्थात् पूर्व दिशाका जो आकाश ( पक्षा०-कपड़ा, चन्द्रोदयसे) पहले रात्रि ( पक्षा ०-हल्दी ) से पीत (अन्धकारसे पोया गया = अदृश्य, पक्षा०-पीले रंगवाला ) था, इस समय (चन्द्रोदय होनेपर ) चन्द्र-किरणके समान (या-चन्द्र-किरणरूप ) चूनेसे संस्पृष्ट वह (आकाश, पक्षा०-कपड़ा) लाल हो गया / [ हल्दीसे रंगे गये पीले कपड़ेमें चूनेका संसर्ग होनेसे लाल होना लोकप्रसिद्ध है; जो देवताओंके राजा (इन्द्र) की (पत्नीरूपिणी पूर्व) दिशा है, उसके कपड़े (पक्षा०-आकाश) को पीला, लाल अर्थात् अनेक वर्ण होना उचित ही है ] // 47 // तानीव गत्वा पितृलोकमेनमरजयन् यानि स जामदग्न्यः / छित्त्वा शिरोऽस्राणि सहस्रबाहोर्विस्त्राणि विश्राणितवान् पितृभ्यः // 4 // ____तानीति // सोऽतिवीरो जामदग्न्यः सहस्त्रबाहोः शिरश्छित्त्वा विनाण्यामगन्धीनि यान्यस्त्राणि रक्तानि पितृभ्यो जमदग्न्यादिभ्यो विधाणितवान्दत्तवान् / य रक्तः प्रति. ज्ञातं पितृतर्पणं कृतवान् / तान्येव रक्तानि मन्त्रबलास्पितृलोकं गवा प्राप्य पितृलो. काधीन (श) मेनं चन्द्रमरजयन् रक्तं चकरिव / 'चन्द्रो वै पितृलोकः' इति श्रुतेः / चन्द्रो रक्तवर्णो दृश्यत इति भावः / परशुरामः सहस्त्रार्जुनं हत्वा तदीयै रक्तैः पितृत. पणं कृतवानितीतिहासः / 'विस्त्रं स्यादामगन्धि यत्' इत्यमरः // 48 // परशुरामजीने सहस्रार्जुनके शिरको काटकर जिन कच्चे गन्धवाले रक्तोंको ( जमदग्नि आदि ) पितरों के लिए दिया, वे ही ( रक्त) मानो ( मन्त्र बलसे ) पितृलोकमें जाकर इस (चन्द्रमा ) को रक्तवर्ण कर दिये हैं। [चन्द्रको पितृलोकमें निवास करनेसे वहां पहुंचे हुए रक्तोसे उस चन्द्रका लाल होना युक्तियुक्त ही है ] // 48 // पौराणिक कथा-परशुरामजीके आश्रमसे बाहर जानेपर सहस्रार्जुनने जमदग्निके शिरको काट लिया, पुनः परशुरामजीने बाहरसे लौटकर जब पिताके मारे जानेका समाचार सुना, तब प्रतिज्ञा की कि सहस्रार्जुन ( एवं उसके वंशवाले समस्त क्षत्रियों ) के रक्तसे पितृतर्पण करूंगा। तदनुसार ही उन्होंने सहस्रार्जुन (को तथा 21. वार अन्य समस्त क्षत्रियों ) को मारकर उस रक्तसे पितृतर्पणकर अपनी प्रतिशा पूर्ण की।। 48 //
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________________ 1524 नैषधमहाकाव्यम् / अकर्णनासस्त्रपते मुखं ते पश्यन्न सीतास्यमिवाभिरामम् / रक्तोस्रवर्षी बत लक्ष्मणाभिभूतः शशी शूर्पणखामुखाभः ? // 46 / / ____ अकर्णेति // हे प्रिये ! शशी सितास्यमिवाभिरामं कर्णादिकृतशोभं ते मुखं पश्यन्सन्न पते न लज्जते बत चित्रम् / किंभूतः ? न विद्यते कर्णनासं स्वभावादेव यस्य सः / तथारक्ता आरक्ता उम्राः किरणास्तद्वर्षणशीलः, शोणश्चासौ किरणवर्षी च तादृशो वा / तथा,-लक्ष्मणा कलङ्केनाभिभूत आक्रान्तमध्यः, अत एव शर्पणखाया रावणभगिन्या मुखवदाभा यस्य स तद्वदनतुल्यः; एषु लज्जाकारणेषु सरस्वपि न लज्जते तच्चित्रमित्यर्थः / स्वन्मुखं पश्यन्नप्युदयस्येव, स्वं प्रकाशयति च, तस्मादेव न लज्जते, इति ज्ञायते / अन्यो ह्यकर्णनासो लज्जते, अयं तु तादृशोऽपि न लज्जत इत्यपि चित्रमेव / शर्पणखामुखमपि लचमणेन पराभूतं छिन्नकर्णनासत्वाद्गुधिरवर्षि सद्राममभि लक्षीकृत्य वर्तमानम् , अत एवाभि भयरहितं च, सीतामुखं पश्यदपि न लज्जते, तदनन्तरमपि प्रौढिवादप्रकटनात् 'अभि' शब्दस्यावृत्तिः कार्या। 'लक्ष्मशब्दो नान्तः, पक्षेऽकारान्तः // 49 // (हे प्रिये !, स्वभावतः ) नाक-कानसे होन, रक्तवर्णवाली ( अथवा-उदयकालीन होनेसे स्वयं रक्तवर्ण, तथा ), किरणोंको बरसाता हुआ और कलङ्क ( मृगाकार काले चिह्न) से आक्रान्त यह चन्द्रमा सीताके मुखके समान सुन्दर तुम्हारे मुखको देखता हुआ उस प्रकार लज्जित नहीं हो रहा है। जिस प्रकार (लक्ष्मणजीके द्वारा काटे जानेसे ) नाककानसे रहित, लाल तथा रक्तको बरसाता ( बहाता ) हुआ तथा लक्ष्मणजीसे पराभूत शूर्पण. खाका मुख रामचन्द्रको लक्ष्यकर स्थित तथा निर्भय सीताजीके मुखको देखता हुआ नहीं लजित हुआ, यह आश्चर्य है / [ अपनेसे श्रेष्ठ उक्तरूप तुम्हारे मुखको देखकर हीन चन्द्रमाको लज्जित होना चाहिये था, किन्तु वह नहीं लज्जित होता यह उस प्रकार आश्चर्य है, जिस प्रकार उक्त रूप होनेसे हीनतम शुर्पणखाका मुख श्रेष्ठ सीताके मुखको देखकर भी नहीं लज्जित हुआ। सत्ययुगमें स्थित नलका अपनेसे बाद त्रेता युगमें होने वाले सीता, राम, लक्ष्मण तथा शूर्पणखा आदिका वर्णन कवि का कल्पान्तरकी अपेक्षा समझना चाहिये ] // 49 // पौराणिक कथा-पिताकी आज्ञासे 14 वर्षके लिये वनवास करते हुए अमिराम रामचन्द्र के साथ विवाहकी इच्छा करती हुई रावणकी बहन शूर्पणखाके नाक कानको लक्ष्म. णजीने काट लिया था। यह कथा वाल्मीकि रामायण आदि अनेक ग्रन्थों में मिलती है। आदत्त दीप्रं मणिमम्बरस्य दत्त्वा यदस्मै खलु सायधूर्तः / रज्यत्तुषारद्यतिकूटहेम तत्पाण्डु जातं रजतं क्षणेन / / 50 / / आदत्तेति // हे भेमि ! सायंकालरूपो धूर्तो यद् रज्यन्नुदयकाले रक्कीभवंस्तुषारधतिश्चन्द्र एव लेपवशाद्रज्यत् कूटहेम कृत्रिमं सुवर्णमस्मै गगनाय मूल्यरूपेण दत्त्वा
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1525 दीप्रं प्रकाशमानमम्बरस्य मणिं सूर्यमादत्त जग्राह / तदलीकं हेम क्षणमात्रेण पाण्डु शुभं रजतं खलु रूप्यमिव जातम् / धूर्तो हि रूप्यं लेपादिभिरुपलिप्तं सुवर्णीकृत्य ददाति, वस्त्रान्तरस्थमपि प्रसरहीप्तिकं रत्नं च गृह्णाति / उदयानन्तरमतिक्रान्त कियत्कालवादक्तिमान परित्यज्य चन्द्रो रूप्यवद्धवलो जात इति भावः / घान्तोऽत्र 'साय' शब्दः 'सायं' शब्दसमानार्थः॥५०॥ _____ सायङ्कालरूप धूर्तने इस ( आकाश ) के लिए ऊपर में लेप (कलई ) करने अर्थात् सुनहला पानी चढ़ानेसे लाल चन्द्ररूप नलकी सोदेको देकर चमकते हुए आकाशके रत्न ( रूप सूर्य) को ले लिया, तथा वह ( रंगा गया चन्द्ररूप नकली सोना ) क्षण ( थोड़ी देर ) में श्वेत वर्ण चांदी हो गया। [लोकमें भी कोई धूर्त चांदीके ऊपर सोनेका पानी चढ़ाकर किसी अजानके लिए देकर चमकते हुए रत्नको ले लेता है और वह पानी चढ़ाया हुआ चाँदीरूप नकली सोना थोड़ी देर बाद श्वेत हो जाता है / सायङ्कालको धूर्त व्यक्ति, उदयकालके रक्तवर्ण चन्द्रको पानी चढ़ाया हुआ नकली सोना तथा सूर्यको बहुमूल्य रत्न, तथा कुछ समय बाद श्वेत वर्ण हुए चन्द्रमाको प्रकृतावस्थापन्न चांदी होनेकी कल्पना की गयी है ] // 50 // बालेन नक्तंसमयेन मुक्तं रौप्यं लसडिम्बमिवेन्दुबिम्बम् / भ्रमिक्रमादुज्झित पट्टसूत्रनेत्रावृति मुञ्चति शोणिमानम् / / 51 / / ___ बालेनेति / हे प्रिये ! रौप्य राजतं रजतमयं लसद्विलसमानं डिम्बं बालक्रीडा. साधनं भ्रमरकमिवेन्दुबिम्बं कर्तृ भ्रमिक्रमाद् भ्रमणपरिपाट्या, अथ च,-ऊर्ध्वदेशगम. नक्रमेणोज्झिता त्यक्ता या पट्टसूत्रस्य नेत्रं दोरकस्तस्कृता आवृतिवेष्टनं तद्रूपम्, अथ च,-पट्टसूत्रजालिकावत् चन्द्रावरणं येन तं शोणिमानं रक्तिमानं मुश्चति / किंभूत. मुभयम् ? नक्तंसमयरूपेण बालेन, अथ च,-बालेन प्रदोषरूपेण, रात्रिसमयेन मुक्तं भ्रमणार्थ करात् कृतमोचनम् , अथ च-उद्गीणं जनितोदयम् / शिशुक्रीडासाधनं हि भ्रमरकं काष्ठमयं भवति / ईश्वराणां च डिम्बं समृद्धयतिशयाद्राजतं पट्टसूत्रवलित. दोरकस्रंसनात्तत्संबन्धजातं रक्तिमानं मुञ्चति / तथेदं चन्द्रबिम्बमपीत्यर्थः / इदानीं चन्द्रो धवलो जात इति भावः / 'नेत्रावृतेः-' इति पाठे-भ्रमिक्रमाद्धेतोरुज्झिता या पट्टसूत्रनेत्रावृतिस्तस्या हेतोः शोणिमानं मुञ्चति / उज्झिता डिम्बेनैव पट्टसूत्रः नेत्रावृतियंत्र तादृशाद् भ्रमिक्रमाद्धेतोरिति वा डिम्बं लटू इति वा राष्ट्रभाषायां भ्रमरकस्य संज्ञा / राष्ट्रभाषायां च भवरा' इति संज्ञा / रौप्यं, संबन्धे विकारे वाण। 'ने मन्थगुणे वस्त्रे' इत्यभिधानात् 'नेत्र' शब्दो यद्यपि मन्थवेष्टनगुणे मुख्यः तथाप्यत्र गुणमात्रपर इति ज्ञेयम् // 51 // बालक रात्रिसमय अर्थात् प्रदोषकाल ( पक्षा-रात्रि-समयरूप, धनिकके ) बालकके द्वारा छोड़े ( नचाये ) गये चांदीके बने हुए शोभमान लट्ट ( नचानेका भँवरा ) नामक खिलौनेके समान चन्द्रबिम्ब घूमनेके क्रमसे छोड़े गये रेशमी डोरीके लिपटाव ( लपेटने के
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________________ नषधमहाकाव्यम् / भाव ) वाली ( पक्षा०-रेशमी डोरे के समान चन्द्रावरणवाली ) लालिमाको छोड़ रहा है। [जिस प्रकार बालक लटुको डोरेमें लपेटकर फेंकता है तो वह नाचते समय क्रमशः लाल डोरे के लिपटावको छोड़ते-छोड़ते अपने प्राकृत श्वेत आदिके रूपमें दीखने लगता है, उसी प्रकार मानो प्रदोषकालरूप बालकसे रेशमी डोरेमें लपेटकर फेंका (नचाया ) गया / चांदीके बने लट्टू के समान यह चन्द्रबिम्ब अपने आप रूप ( लालिमा ) को क्रमशः छोड़ रहा है। सामान्य वर्गके लड़कोंका लटू काष्ठका तथा डोरा सामान्य सूतका होता है, किन्तु प्रदोषकालरूप धनिक बालकके चन्द्ररूप लटुको चांदीका तथा चन्द्रावरणरूप डोरेको रेशमी सूत का होना उचित ही है ] // 51 // ताराक्षरैर्यामसिते कठिन्या निशाऽलिखद्वयोम्नि तमःप्रशस्तिम् / विलुप्य तामल्पयतोऽरुणेऽपि जातः करे पाण्डुरिमा हिमांशोः / / 52 / / तारेति / निशाऽसिते श्यामे ब्योग्नि गगन एव कज्जलादिलिप्तश्यामलपट्टिकायां कठिन्याः .शुभ्रधातुविशेषस्य सम्बन्धिभिस्ताराक्षः शुभैरपरैरिव नक्षत्ररूपैरक्षरैः कृत्वा यां तमःप्रशस्ति तमोवर्णनश्लोकादिलिपिमलिखत् / तारातरैरुपलक्षितां यां तमःप्रशस्ति रात्रिः कठिन्यालिखदिति वा / तां लिपि विलुप्य प्रोन्छयाल्पयतः परि. मेयताराक्षरां कुर्वतो हिमांशोररुणेऽपि करे किरणे, अथ च-पाणी, पाण्डुरिमा जातः। प्ररूढ करणे हि चन्द्रे नक्षत्राणामल्पता भवतीति खटिकालिखिताक्षराणि मार्जयत. श्चारक्तोऽपि करः खटिकासगावलो भवतीति / तमसि नक्षत्राणि बहून्युज्वलतराणि च दृष्टानि, चन्द्रे तूदितेऽल्पानि निष्प्रभाणि च जातानि, चन्द्रश्च धवलो जात इति भावः // 52 // रात्रिने कृष्णवर्ण आकाश ( पक्षा०-कज्जली आदिसे कालो पाटी या स्लेट ) पर नक्षत्र. रूपी ( पक्षा०-बड़े-बड़े ) अक्षरोंसे उपलक्षित अन्धकार के जिस प्रशस्तिको खड़िया ( चॉक ) से लिखा था, उसे मिटाकर थोड़ा ( परिमिताक्षर ) करते हुए चन्द्रमाको रक्तवर्ण किरणों ( पक्षा०-हाथ ) में भी सफेदी हो गयी है। [ जिस प्रकार काली पाटोपर खड़ियासे लिखे गये अक्षरों को मिटानेवाला लाल हाथ श्वेत हो जाता है, उसी प्रकार रात्रिद्वारा काले आकाशरूप पाटोपर खड़िये से लिखो गयी नक्षत्र रूप अक्षरवालो अन्धकारप्रशस्तिको लाल किरणों से मिटाकर थोड़ो करती हुई चन्द्र किरण भो श्वेत हो गयी है। चन्द्रादयके पहले बहुत ताराएँ था, वे चन्दोदय होनेपर कम हो गयी हैं ] // 52 // सितो यदाऽत्रैष तदाऽन्यदेशे चकास्ति रज्यच्छविरुजिहानः / तदित्थमेतस्य निधेः कलानां को वेद वा रागविरागतत्त्वम् ? / / 53 / / सित इति / एष चन्द्रा यदा यस्मिन्काले अत्र देशे सितो धवलश्चकास्ति, तदा तस्मिन्नेव काले अन्यदेशे रज्यच्छवी रक्तकान्तिजिहान उदयन् शोभते / एवमत्रो. दयन्त्रक्तः, अन्यत्र च श्वेत इत्यपि सामाभ्यम् / एतद्देशस्थं प्रतीदानी सितो
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1527 दृश्यते, द्वीपान्तरस्थं प्रति तूदयन्निदानीमेव दृश्यते यस्मात् , तस्मारकलानां निधेः पूर्णस्य चन्द्रस्य रागविरागयोर्लोहितत्वालोहितत्वयोस्तरवं याथात्म्यमित्थममुना प्रकारेण को वा वेद, अपि तु-कोऽपि निश्चेतुं न शक्नोतीत्यर्थः / उदयास्तमययोरता. विकस्वाद्वयवहितस्य यत्र यदा प्रथमदर्शनं तदा तत्रोदय इति दूरस्थस्य प्रथमं रकरवं प्रत्ययः, क्रमसामीप्यात्त धावल्यप्रत्यय इति तत्त्वम् / अन्यस्यापि चतुःषष्टिकलाभिज्ञ. स्यानुरागाननुरागयोर्याथात्म्यं कुत्रानुरक्तः कुत्र वा नेति कोऽपि न जानाति // 53 // यह ( चन्द्र ) जब ( कुछ अधिक रात्रि व्यतीत होनेपर ) श्वेतवर्ण शोभता है, तब(इसी समय ) दूसरे ( यहाँसे पश्चिमवाले ) देशमें उदय होता हुआ (मत एव ) अरुणवर्ण शोमता है। इस कारणसे इस प्रकार (इस देशमें श्वेतवर्ण तथा यहांसे सुदूर पश्चिम देशमें उदय होते रहनेके कारण रक्तवर्ण, एवं यहांसे अतिसुदूर पूर्व दिशामें अस्त होते रहनेके कारण कान्तिहीन, सोलह, पक्षा-चौंसठ कलाओं ) के निधान इस चन्द्रमाके राग तथा विराग ( लालिमा तथा श्वेतत्व, पक्षा०-अनुराग तथा वैराग्य ) के तत्त्वको कौन जानता है ? अर्थात् कोई नहीं जानता // 53 // कश्मीरजै रश्मिभिरौपसन्ध्यैर्मृष्टं धृतध्वान्तकुरङ्गनाभि / चन्द्रांशुना चन्दनचारुणाऽङ्ग क्रमात् समालम्भि दिगङ्गनाभिः // 54 // कश्मीरजैरिति / दिग्भिरेवाङ्गनाभिः संध्यायाः समीपमुपसंध्यं तत्र जातररुणे रश्मिभिरव कश्मीरेजैः कुङ्कमः कृत्वा मृष्टं पूर्व कृतोद्वर्तनं ततः संध्यायामपगतायां घृता ध्वान्तरूपा मृगनाभिः कस्तूरी येन तादृशमङ्ग क्रमाकस्तूरीलेपानन्तरं चन्द्रांशुनैव चन्दनेषु मध्ये चारुणोत्तमेन चन्दनेन कृत्वा समालम्भि अलेपि / अन्या अपि ह्यङ्गनाः कुङ्कुमादिभिः क्रमेणाङ्गमनलिम्पन्ति / चन्दनधवलैश्चन्द्रकरैः सर्वा अपि दिशो वितमस्काः कृता इति भावः / औपसंध्यैः सामीप्येऽव्ययीभावाद्भवार्थेऽण // 54 // दिशारूपिणी स्त्रियोंने सन्ध्याकालके समीपवर्ती किरणरूप कुडमोंसे लिप्त ( तदनन्तर ) अन्धकार रूपी करतूरी लगाये हुए शरीरको चन्द्रकिरणरूप श्रेष्ठ श्वेत चन्दनसे क्रमशः संलिप्त किया है। [ लोकमें भी कोई स्त्रियां शरीर में क्रमशः कुङ्कम, कस्तूरी तथा श्वेतच. न्दनका लेपकर शरीरका संस्कार करती हैं / चन्द्रकिरणसे इस समय सब दिशाएँ व्याप्त हो गयी हैं ] // 54 / / विधिस्तुषारतुदिनानि कतै कतं विनिर्माति तदन्तभित्तैः / ज्योत्स्नीन चेत्तत्प्रतिमा इमा वा कथं कथं तानि च वामनानि ?||5 // विधिरिति / विधिस्तुषारतॊः शिशिरतॊर्दिनानि कतै कतं छित्त्वा छित्त्वा तेषां दिनानामन्त भित्तैमध्यसंबन्धिभिः सारभूतैः शकलैःशुभ्रः खण्डः कृत्वा ज्योत्स्नीनिशा विनिर्माति / न चेदेवं यदि नाङ्गीक्रियते, तदेमा रात्रयश्चन्द्रिकायुक्तास्तत्प्रतिमारते. दिनैस्तुल्या: शीतलत्वप्रकाशवत्वाभ्यां तत्सदृश्यः कथम् ? तानि च दिनानि वाम
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________________ 1528 नैषधमहाकाव्यम् / नानि न्यूनपरिमाणानि न्यूनशीतत्वादिगुणानि कथं वा ? अपि तु-दिनवामनता रात्रिदीर्घतान्यथानुपपत्तेः शिशिरतुदिनापेक्षया च ज्योत्स्नीनामतितमां शीतवप्रका. शवत्वानुपपत्तेश्च शिशिरतुदिनानि छित्त्वा छित्त्वैव तरसारभूतैश्च शकलैश्चन्द्रिकान्विता रात्रयो ब्रह्मणा वर्धिता इत्यर्थः / चन्द्रचन्द्रिकया रात्रिः शीतला धवलतरा च कृतेति भावः / कतै कतम् 'कृती छेदने' इत्यस्मादाभीदण्ये णमुल द्विवचनं च / ज्योत्स्नीः , ज्योतिरस्यामस्तीत्यर्थे 'ज्योत्स्नातमित्रा-' इति साधुकृतात् 'ज्योत्स्ना'-शब्दाद् अण्प्रकरणे 'ज्योत्स्नादिभ्य उपसंख्यानम्' इत्यस्त्यर्थेऽणि डीप // 55 // ___ ब्रह्मा शिशिर ऋतुके दिनोंको काट-काटकर उनके मध्यवर्ती सारभूत श्वेत टुकड़ोंसे चांदनीकी रात्रियों की रचना करते हैं, अन्यथा ये (चांदनीयुक्त रात्रियां ) उन (शिशिर ऋतुके दिनों ) के समान (शीतल ) क्यों हैं और वे (शिशिर ऋतुके दिन ) छोटे क्यों हैं ? [ इस चांदनीकी रात्रियों को शीतल तथा शिशिर ऋतुके दिनोंको छोटा होनेसे अनुमान होता है कि ब्रह्मा शिशिर ऋतुके दिनोंको काट-काटकर उनके सारभूत श्वेत खण्डोंसे चांदनीकी रात्रियों को रचते हैं। चांदनीसे रात्रि शीतल एवं प्रकाशयुक्त हो गयी ] // 55 // इत्युक्तिशेषे स वधूं बभाषे सूक्तिश्रुतासक्तिनिबद्धमौनाम् / मुखाभ्यसूयानुशयादिवेन्दौ केयं तव प्रेयसि ! मूकमुद्रा ? / / 56 / / इतीति / स नलः इत्युक्तिशेषे एवं चन्द्रवर्णनावसाने सूक्तीनां प्रसादादिगुणयु. कानां शोभनवचनानां श्रुते श्रवणे विषये आसक्त्या रसातिशयात्तदेकतानतया बद्धं स्वीकृतं मौनं यया तां तूष्णींभावमास्थितां वधूं भैमी प्रतीदं बभाषे / इति किम् ? हे प्रेयसि ! इन्दौ विषये तवेयं मूकस्येव मुद्रा वाग्निरोधरीतिः किंकारणिका ? स्वमपि किमिति न चन्द्रं वर्णयसीत्यर्थः / मौने स्वयमेव हेतुमुत्प्रेक्षते-मुखस्य चन्द्रकृतवदः नसाम्यस्याभ्यसूया स्पर्धा तज्जन्यान्महतोऽनुशयान्मनोद्वेषादिव / स्वस्पर्धाकारिणो हि वर्णनेऽन्येन क्रियमाणेऽन्योपि कोपात्तष्णीं तिष्ठति, नानुमोदते, स्वयं च न तं वर्णयति / तथा-वन्मुखस्पर्धाकरणसंजातकोपादिवेन्दुं न वर्णयसि नानुमोदसे च किमिति प्रश्नः / नलसूक्तिश्रवणादरकृतं मौनं कोपादिवेत्युत्प्रेक्षितम् / / 56 // इस प्रकार ( 22 / 39-55, चन्द्रवर्णनरूप ) सद्भाषणके अन्तमें वे ( नल ) उक्त सवर्णन सुनने में आसक्त (तल्लीनता) होनेसे मौन दमयन्तीसे बोले-'हे प्रियतमे !' मानों ( तुम्हारे ) मुखके साथ ( चन्द्रके द्वारा स्पर्द्धारूप ) असूया करनेके पश्चात्तापके समान तुम मौन हो क्या ? / [ ऐसे सुन्दर चन्द्रको देखकर तुम चुप क्यों ? तुम्हें भी इसका वर्णन करना चाहिये, परन्तु वर्णन नहीं करती हो इससे ज्ञात होता है कि सुन्दरतम तुम्हारे मुखके साथ चन्द्रमा स्पर्धा करता है और उसका मैं सराहना करता हूं, इसी द्वेषसे तुम चुप हो / दूसरा भी कोई व्यक्ति अपने साथ असूया करनेवालेके वर्णनको सुनकर पश्चात्ताप या दुषसे चुप रहता है ] / / 56 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1526 शृङ्गारभृङ्गारसुधाकरेण वर्णस्रजाऽनूपय कर्णकूपौ / त्वचारुवाणीरसवेणितीरतृणानुकारः खलु कोषकारः / / 57 / / __ शृङ्गारेति / हे प्रिये ! त्वं शृङ्गाररससंबन्धी भृङ्गारः स्वर्णकलशस्तद्रूपेण सुधा. करेण चन्द्रेण हेतुना वर्णनजा कृत्वा मम कर्णकूपी अनूपय जलपूर्णौ कुरु। वर्णस्रजः सरसत्वाकर्णकूपयोर्जलपूर्णस्वकरणं युक्तम् / अथ च-शृङ्गाररससंबन्धिस्वर्णकलशस्य भवन्मुखस्य संबंधि यत्पीयूषं तस्याकरेण खनिभूतया सरसया वर्णस्रजा कर्णकूपा. वनूपय / खलु यस्मात् कोषकार इतुविशेषस्तव चारुवाण्या वक्रोक्त्यादिरूपाया वाचः संबंधिनः शृङ्गारादयो रसास्तेषां वेणिःप्रवाहस्तस्यास्तीरे समुद्यद्यत्तणं तस्यानुकारस्तत्सदृशः। अतिस्वादुरसोऽपीविशेषो यदीयसरसवाणीतीरतृणमनुकरोति, मतु समो जातः। तां वाणी श्रावय, चन्द्रं वर्णयेति भावः / 'कोषकाराचा इविशेषाः' इति क्षीरस्वामी / अनूपय, 'अनूप' शब्दात् , 'तत्करोति-' इति णिचि लोट् / / 57 // (हे प्रियतमे !) शृङ्गारकी झारी (कलस-विशेष ) तथा अमृतका आकर वर्णमाला (चन्द्रवर्णन के अक्षरसमूह ) से मेरे कानरूपी कूपोंको ( अमृतजलसे ) पूर्ण करो, क्योंकि कोषकार ( इक्षु-विशेष-एक प्रकारका उत्तम जातीय गन्ना ) तुम्हारी सुन्दर वाणीरूपी अमृतरसके प्रवाहके तीरपर ( उत्पन्न होनेवाले) तृगके समान है। [ अत्यन्त मधुरतम जो गन्न। तुम्हारे वचनामृतरसके प्रवाहके तीरपर उत्पन्न तृगके समान है ( उस तृणके समान है न कि उक्तरूप तृण है अर्थात् उस तृणसे भी हीन है ), अतः उस गन्नेको तुम्हारे वचनामृतकी समानता करना तो बहुत-बहुत दूरकी कल्पना है। तुम भी चन्द्रका वर्णनकर मेरे कानोंको तृप्त करो] // 57 // अत्रैव वाणीमधुना तवापि श्रोतुं समीहे मधुनः सनाभिम् | इति प्रियप्रेरितया तयाऽथ प्रस्तोतुमारम्भि शशिप्रशस्तिः / / 58 // अत्रैवेति / इति प्रियेण प्रेरितया तया भैम्याथानन्तरं शशिनः प्रशस्तिर्माहात्म्यं प्रस्तोतुमारम्भि प्रारब्धा / इति किम् ? हे भैमि ! अहमत्रैव चन्द्रवर्णन एव विषये मधुनोऽमृतस्य सनाभिं तुल्यां तवापि वाणीमधुना श्रोतुं समीहे इच्छामीति // 58 // इस समय मैं इस चन्द्रके विषयमें हो मधुतुल्य तुम्हारे वचनको सुनना चाहता हूं। इस प्रकार ( 20156-58) प्रियसे प्रेरित उस दमयन्तीने चन्द्रप्रशस्तिका वर्णन करना आरम्भ किया // 58 // पूरं विधुर्वर्द्धयितुं पयोधेः शङ्केऽयमेणाङ्कमणि कियन्ति | पयांसि दोग्धि प्रियविप्रयोगसशोककोकीनयने कियन्ति / / 56 // पूरमिति / हे प्रिय ! अयं विधुः पयोधेः पूरमागन्तुकजलप्रवाहं वर्द्धयितुमेणामणिं चन्द्रकान्तं कियन्ति पयांसि दोग्धि तस्माद् गृह्णाति तथा,-प्रियस्य चक्रवाकस्य विप्रयोगेन सशोकायाः कोक्या नयने अपि कियन्ति जलानि दोग्धि, ताभ्यामपि
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________________ 1530 नैषधमहाकाव्यम् / सकाशाज्जलं कियद्गृह्णातीत्यहं शङ्के मन्ये-इति भैमी प्रियमवदत् / उदिते चन्द्रे सागरपूरो वृद्धि प्राप्तः, चन्द्रकान्ताः स्रवन्ति, चक्रवाकी भृशं रोदितीति भावः। दुहिर्द्विकर्मा // 59 // __ यह ( चन्द्रमा ) समुद्र के जल प्रवाहको बढ़ाने के लिए कुछ जल चन्द्रकान्तमणिसे और कुछ जलप्रिय ( चकवे ) के विरहसे शोकात चकई के नेत्रद्वयसे दुहता ( प्राप्त करता-लेता) है, यह मैं शङ्का करती हूं। [ समुद्र का जल-प्रवाह बढ़ने लगा, चन्द्रकान्तमणि पिघलने लगा तथा चकवाके विरहसे चकई रोने लगी ] // 59 // ज्योत्स्नामयं रात्रिकलिन्दकन्यापूरानुकारेपसृतेऽन्धकारे। परिस्फुरनिर्मलदीप्तिदीपं व्यक्तायते सैकतमन्तरीपम् / / 60 // ज्योत्स्नेति / हे प्राणेश ! तमोवसरेऽतिश्यामा रात्रिरेव कलिन्दकन्या यमुना तस्याः पूर आगन्तुकातिनीलजलप्रवाहस्तदनुकारे तत्सहशे तद्वदतिकृष्णेऽन्धकारेऽप. मृते गते सति परिस्फुरन्ती निर्मला दीप्तिर्यस्य / प्रकाशमानश्चासौ धवलद्युतिश्च ताहशो वा यश्चन्द्रः स एव दीपो यत्र तादृशं चन्द्रिकारूपं सैकतं धवलतरवालुकामयं रात्रियमुनाया एव जलमध्यस्थितमन्तरीपं द्वीपं व्यक्तायते स्फुटमिव भवति प्रकटं दृश्यते / पूरावसरेऽस्फुटमपीदानीं स्फुटीभवतीति शङ्के / चन्द्रचन्द्रिकया सकलं धवलीकृतमिति भावः / व्यस्तायते व्यक्तमिव भवति, 'कर्तुः क्या-' इति क्यङ / अव्यक्तं व्यक्तं भवतीत्यर्थः / सैकतम् , 'सिकताशकराभ्यां च' इत्यस्त्यर्थेऽण // 60 // रात्रिरूपिणी यमुनाके प्रवाहके समान (कृष्णवर्ण) अन्धकारके (चन्द्रोदय होने के कारण ) दूर होनेपर प्रकाशमान निर्मल कान्तिवाला ( चन्द्ररूप ) दीप है जिसका ऐसा ( यमुना-सम्बन्धी ) बालूका अन्तरीप ( जलमध्यगत शुष्क स्थान-टा) स्पष्ट-सा हो रहा है / [ यमुनाके जलके बीच में स्थित जो बालुकामय भूमाग अन्धकारके कारण नहीं ज्ञात होता था, वह अब चांदनीके प्रकाशसे ज्ञात होने लगा ] // 60 // हासत्विषैवाखिलकैरवाणां विश्वं विशङ्केऽजनि दुग्धमुग्धम् / यतो दिवा बद्धमुखेषु तेषु स्थितेऽपि चन्द्रे न तथा चकास्ति // 61 // हासेति / अखिलकैरवाणां सकलकुमुदानां हासविषैव विकासदीप्तथैव विश्वं सकलं जगत् दुग्धवत् मुग्धं धवलं शीतलं चानि जातम् , नतु चन्द्रेणेत्यहं विशङ्के विशेषेण मन्ये / यतो हेतोर्दिवा तेषु सकलकरवेषु बद्धमुखेषु संकुचितेष्वविकस्वरेषु च सत्सु चन्द्रे स्थिते विद्यमानेऽपि सकलकुमुद विकासाभावात्सकलं जगत्तथा रात्राविव शीतलधवलतया न चकास्ति / तस्मादिदं जगत् कुमदहासविषैव शीतलं धवलं च कृतम्, नतु चन्द्रणेत्यर्थः / कुमदवद् दुग्धवच्च शीतला धवला चन्द्रचन्द्रिकास्तीति भावः // 6 // सम्पूर्ण कुमुर्दोके हास ( विकसित होने ) की कान्तिसे ही संसार दूधके समान मनोहर
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________________ द्वाविंशः सर्गः। . 1531 (शीतल तथा श्वेतवर्ण) हो गया है ऐसा मैं विशेषरूपसे मानती हूँ, क्योंकि दिनमें चन्द्रमा विद्यमान रइनेपर भी उन ( कैरवों ) के मुखको बन्द किये (अविकसित) रहनेपर यह संसार वैसा ( दूधके समान शीतल एवं श्वेत ) नहीं शोमता है। (इस कारण कुमुदोंकी विकास दीप्तिसे ही यह संसार दुग्धवत् शीतल एवं श्वेतवर्ण हो रहा है)। [ दूधके समान ठण्डी तथा स्वच्छ यह चांदनी है ] // 61 // मृत्युञ्जयस्यैष वसञ्जटायां न क्षीयते तद्भयदूरमृत्युः / न वद्धते च स्वसुधाप्तजीवनग्मुण्डराहूद्भवभीरतीव || 62 / / मृत्युमिति / मृत्युंजयस्य मृत्यु जितवतः शिवस्य जटायां वसन्नेष चन्द्रः षोड. शांशभूतो न दीयते नाल्पपरिमाणा भवति, कलामात्रस्वरूपेणैव तत्र सदा वसंस्त. तोऽपि न्यूनपरिमाणो न भवतीत्यर्थः / अथ च,-न क्षीयते न म्रियते यस्मात् , तस्मान्मृत्युंजयात्सकाशाद्येन दूरो मृत्युर्मरणहेतुर्देवता यस्य सः मृत्युंजयजटाजूट. निवासान्मृत्युना स्पष्टुमपि न शक्यते तस्मान्न क्षीयतेऽयमित्यर्थः; तर्हि तत्र वसन्व. ईते किमिति नेत्याशङ्कयाह-वर्द्धते च न, उपचितोऽपि न भवतीत्यर्थः / यतःस्वस्य सुधया आठो जीवश्चैतन्यं यस्तानि जो मुण्डानि शिरोमालायाः शिरस्कपा. लानि तान्येव राहवस्तेभ्य उद्भवा समुत्पन्ना भीर्यस्य / कथम् ? अतीव, नितरां भीत इत्यर्थः / सजीवमुण्डेषु बहवो राहव एवैते इति धिया भिया न वर्धते / भीतो हि सौख्याभावास्कृशतर एव भवति / अथ च,-पूर्णस्य राहोः सकाशाद्भयम् / अतः कारणद्वयान्न क्षीयते, न च वद्धते इत्येककल एव शिवशिरश्चन्द्र इत्यर्थः / एतेन चन्द्रस्य षोडशी कला वर्णिता / शिवशिरसि वर्तमानस्वादस्यमाहात्यमपि वर्णितम् / मृत्युंजयेति, 'संज्ञायां भृतृवृजि--' इति खश , 'अद्विषत्-' इति मुम् // 62 // मृत्युञ्जय ( मृत्युको जीतनेवाला, पक्षा० --शिवजी ) की जटामें निवास करता हुआ ( अतः ) उस ( मृत्युञ्जय ) से दूर मृत्युवाला ( मृत्युञ्जयके मयसे मृत्यु जिससे दूर ही रहती है, ऐसा ) यह चन्द्रमा क्षीण नहीं होता अर्थात् मरता नहीं है ( पक्षा०-सोलहवीं कलासे सदा वर्तमान रहता है ), और अपनी ( चन्द्र-सम्बन्धी ) अमृतसे जीवित हुए ( शिवजीकी) मालाके मुण्डरूप राहुओंसे अत्यन्त डरा हुआ यह चन्द्रमा ( सोलहवीं कलासे अधिक) बढ़ता भी नहीं है। [शिणजीको जटामें चन्द्रमा षोडशांश (एक ) कलासे सर्वदा निवास करता है, वह उक्त कारणद्वयसे न तो घटता है और न बढ़ता ही है। लोकमें भी अपने विजेताके भयसे परानित व्यक्ति दूर ही रहता है, अत एव मृत्युञ्जय शिवजीके भयसे मृत्युका दूर रहना और उससे चन्द्रमाका निर्भय होकर क्षीण नहीं होना उचित ही है। जब सम्पूर्ण चन्द्रको यह ही राहु निगल जाता ( नष्ट कर देता) है, तब षोडशांश होनेसे अतिशय क्षीण शिवजटास्थित चन्द्रका शिवमाला स्थित अनेक मुण्डरूप राहुसे अतिशय 66 नै० उ०
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________________ 1532 नैषधमहाकाव्यम्। भयातं होना और इसी कारण नहीं बढ़ना भी उचित ही है, क्योंकि लोकमें भी कोई व्यक्ति प्रबल शत्रुओंके भयसे सर्वदा क्षीण रहता एवं उन्नत नहीं होता ] // 62 / / त्विषं चकोराय सुधां सुराय कलामपि स्वावयवं हराय। ददज्जयत्येष समस्तमस्य कल्पद्रुमभ्रातुरथाल्पमेतत् / / 63 / / विषमिति / एष चन्द्रो जयति सर्वोत्कर्षेण प्रकाशते / ततः किंभूतः ? 'चकोराय स्वावयवं विषं निजांशभूतां चन्द्रिकां ददत् / तथा,-सुराय अग्न्यादिदेवेभ्यो निजांशभूतां सुधां ददत् / तथा,-हराय निजांशभूतां कलां ददत् / अथापि अस्य चन्द्रस्यैतत्समस्तं परोपकारकरणकल्पमेव, अतिचमत्कारकारि न भवतीत्यर्थः / यतः-समुद्रोत्पन्नत्वात्कल्पद्रुमस्य भ्रातुः / कल्पद्रुमस्तु कल्पितं सर्व सर्वेभ्यो ददाति, अयं तु न तथेत्यल्पमेवेत्यर्थः / एवंविधः परोपकारी कोऽपि नास्तीति भावः / 'चको. राय' इति 'सुराय' इति च जात्येकवचनम् // 3 // अपना अवयव ( चन्द्रिक'रूप ) कान्तिको चकोरके लिए, अमृतको देवों के लिए और (षोडशांश ) कलाको भी शिवजीके लिए देता हुआ यह ( चन्द्र ) सर्वोत्कर्ष प्रकाशमान है, ( किन्तु ) कल्पवृक्षके भाई इस (चन्द्र ) का यह सब भी परिपूर्ण नहीं है, ( क्योंकि कल्पवृक्ष कल्पना करने पर सबके लिए सब कुछ देता है और यह चन्द्रमा केवल चकोर, देव तथा शिवजी के लिए ही देता है)। [कल्पवृक्ष तथा चन्द्रको भी समुद्रसे ही उत्पन्न होने के कारण चन्द्र को कल्पवृक्ष का भाई कहा गया है ] // 63 // अङ्कणनाभविषकृष्णकण्ठः सुधाऽऽतशुद्धः कटभस्मपाण्डुः। अर्हन्नपीन्दोनिजमौलिधानान्मृडः कलामहति षोडशीं न // 64 // अङ्केति / मृडः शिवो निजमौली धानारस्थापनाद्धेतोरिन्दोः षोडशी कलामह न्प्राप्नुवत , अथ च-पूजयन् अपि षोडशी कलां नाहंति न प्राप्नोति, न पूजयति च / निजशिरसि धारणादेव तस्याः प्राप्तिः पूजा च संभविनी / यो ह्यतितरां पूज्यते स शिरसि धार्यते / तथा चैतस्य षोडशी कलां मृदः प्राप्नुवन्पूजयन्नपि च तां प्राप्नो. तीति विरोधपरिहारः। यतः-किंभूतस्येन्दोः, किंभूतश्च मृडः ? अङ्कभूतो य एणो हरिणस्तधुक्ता नाभिमध्यभागो यस्य; अथ च-अङ्करूपा कलङ्करूपा एणनाभिः कस्तूरी यत्र / मृडस्तु-विषेण कृष्णकण्ठः। तथा-सुधयामृतेनाप्ता शुद्धिर्धावल्यं येन; मृडस्तु-कटभस्मना चिताभस्मना पाण्डुः / तस्माञ्चन्द्रस्याल्पमपि साम्यं शिवो न प्राप्नोति / किंच चन्द्रादधिकः शिवश्वेदभविष्यत् तर्हि तदीयकलां मौलौ नाधारयिष्यत् , सा मौलौ धृता, तेन तस्माञ्चन्द्र एव तदधिक इत्यर्थः / शुभस्याशु. भस्य च महदन्तरमिति भावः। 'षोडशीमपि कलां नार्हति' इत्यनेन -- पूर्णचन्द्र नाहतीति किं वाच्यमित्यपि सूचितम् / हरस्यापकर्षे विषं, चिताभस्म च हेतुः, चन्द्रोत्कर्षे मृगमदोऽमृतं च // 64 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1533 ___ हलाहल विषके पीनेसे कृष्णवर्ण कण्ठवाले तथा चिता-भस्मसे श्वेतवर्ण शिवजी अपने मस्तक ( सर्वोच्च स्थान ) पर चन्द्रमाको धारण करनेसे, चिह्न ( कलङ्क-चिह)-भूत हरिण युक्त मध्यभागवाले ( अथच-चिह्नभूत कस्तूरीवाले ) तथा अमृतसे निर्मलताको प्राप्त चन्द्रमा की षोडशी कलाके भी योग्य नहीं है। [चन्द्रमा कस्तूरीका लेप शरीरमध्यमें धारण करता है और शिवजी हलाहल विषसे कृष्णवर्ण कण्ठ-धारण करते हैं तथा चन्द्रमा अमृतसे निर्मल है और शिवजी चिताभस्मसे निर्मल ( श्वेतवर्ण ) हैं; अत एव चन्द्रमाकी षोडशांश कलाको मस्तकपर धारण ( पक्षा०-अपने सर्वोच्च स्थानपर विराजमानकर पूजा ) करते हुए भी वे चन्द्रकी षोडशांशकलाके भी योग्य नहीं हैं, क्योंकि उक्त कारणद्वयसे शुभ चन्द्रमाकी अपेक्षा शिवजो अधिक अशुभ हैं और जब वे चन्द्रमाके षोडशांश कल्प ( रूपये में एक आना ) भी योग्य नहीं हैं, तब पूर्ण चन्द्र के योग्य ( समान ) होना तो सर्वथा असम्भव ही है / शुभ चन्द्र तथा अशुभ शिवजी में बहुत बड़ा अन्तर है ] // 64 // पुष्पायुधस्यास्थिभिरर्धदग्धैः मितासितश्रीरघटि द्विजेन्द्रः / स्मरारिणा मूर्धनि यद्धृतोऽपि तनोति तत्तौष्टिकपौष्टिकानि / / 65 // __ पुष्पेति / ब्रह्मणा द्विजेन्द्रश्चन्द्रः पुष्पायुधस्य कामस्यार्धदग्धैरस्थिभिः कृत्वा. ऽघटि निर्मितः। अत एव सितासितश्रोरुपान्तधवलमध्यामलकान्तिः / स्मरास्थि. भिरेव निर्मित इत्यत्र हेतुमाह-स्मरारिणा मूर्धनि धृतोऽपि, अथ च-कृतसंमानोऽपि, तस्य स्मरस्यैव तौष्टिकानि हर्षकारीणि, पौष्टिकानि अभिवृद्धिकारीणि च यद्य. स्मात्तनोति / कामारिणा पूज्यमानोऽपि कामहितमेव यस्मात्करोति, तस्मात्तदस्थिभिरेव घटित इत्यर्थः / एताहक्कामोद्दोपकं किमपि नास्तीति भावः। अस्थिभिरिवेति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा / अन्याश्रितोऽपि तदीयशत्रुहितं यः करोति स तदस्थिभिर्घटित इति लौकिक्युक्तिः / तौष्टिकपौष्टिकानि, 'प्रयोजनम्' इति ठक् // 65 // (ब्रह्माने मानो शिवजीके तृतीय नेत्रकी अग्नि ) अधजलो कामदेवकी हड्डियोंसे (बिना जली हड्डियोंसे प्रान्तमागमें ) श्वेत तथा ( जली हड्डियोंसे मध्यभागमें ) कृष्ण इस चन्द्रमाको रचा है, क्योंकि कामशत्रु (शिवजी ) से मस्तकपर रखा गया ( पक्षा०-सम्मानको पाया हुआ ) भी यह चन्द्र उस ( कामदेव ) के हो तुष्टिकारक तथा पुष्टि ( वृद्धि ) कारक कार्योंको करता है / [ लोकमें मी जो कोई दूसरेके आश्रयमें रहता हुआ भी उसके शत्रुको हितकामना करता है, वह व्यक्ति उस शत्रुकी हड्डियोंसे रचा गया है ऐसा कहा जाता है। चन्द्रमा सर्वाधिक कामोद्दीपक है ] // 65 // मृगस्य लोभात्खलु सिंहिकायाः सूनुमंगावं कवलीकरोति / स्वस्यापि दानादमुमङ्कसुप्तं नोज्झन्मुदा तेन च मुच्यतेऽयम् // 66 // मृगस्येति / सिंहिकायाः सुतो राहुमंगाकं चन्द्रं यस्कवलीकरोति तदङ्कमृगस्य लोभात् खलु ग्रासाभिलाषादिव / सिंहिकासुतः सिंहो मृगैरङ्कितं स्थलं मृगग्रासाभिः
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________________ 1534 नैषधमहाकाव्यम् / लाषादेव स्वाधीनं करोति / तर्हि किमर्थ मुञ्चतीत्यत आह-अङ्कसुप्तं मध्यवर्तिनम् , अथ च-उत्सङ्गे विश्वासारसुखेन निद्रितम् , अमुं मृगं स्वस्यापि दानादाहुदन्तकृत. खण्डनादपि नोज्झन्न त्यजन् , अथ च-स्वशरीरस्यापि वितरणादस्यजन् , अयं चन्द्रस्तेन राहुणा तेन पुण्येन च हेतुना मुदा शरणागतरक्षणनिमित्तहर्षेण कृत्वा मुच्यते स्यज्यते / अन्योऽपि .शरणागतं मृगं जिघांसोः सिंहाद्रक्षितुमात्मानमपि ददानो हि तेन पुण्येन सिंहान्मुच्यत एव / 'नौज्झत्' इति पाठे-स्वस्यापि दानाङ्कसुप्तममुं यतो नामुश्चत्तेन हेतुनाऽयं विमुच्यते, अर्थादाहुणेत्यर्थः // 66 // ___ राहु मृगके लोमसे चन्द्रमाको ग्रासमें लेता ( खाता ) है, किन्तु ( शरणागत होनेसे निर्भय होकर ) अङ्कमें सोये हुए इस ( मृग ) को अपने शरीरके राहुद्वारा ( चर्वित ) होने ( पक्षा०-देने ) से भी नहीं जोड़ते चन्द्रमाको वह राहु हर्षके साथ उस (शरणागतरक्षणरूप ) पुण्यसे छोड़ देता है। [ लोकमें भी शरणागतकी रक्षा करनेवाला व्यक्ति उस पुण्यसे छूट जाता है, अथच-वह व्यक्ति भी उसके इस सत्कार्यसे प्रसन्न होकर उसे छोड़ देता है ] // 66 // सुधाभुजो यत्परिपीय तुच्छमेतं वितन्वन्ति तदहमेव / पुरा निपीयास्य पिताऽपि सिन्धुरकारि तुच्छः कलशोद्भवेन / / 67 / / सुधेति / सुधाभुजो देवा एनं चन्द्रं परिपीय साकख्येन पीत्वा तुच्छं रिक्तं यद्वितन्वन्ति कुर्वन्ति तदहमुचितमेव, यतोऽस्य पिता सिन्धुरपि कलशोद्भवेना. गस्त्येन पुरा निपीय तुच्छो रिक्तः अकारि, तस्मास्कुलक्रमागतं तुच्छत्वमित्यर्थः। एतस्य पूर्वेऽपि परोपकारनिरताः, तस्मादयमपि तथैवेति भावः / कलशादुत्पन्नेनापि सागरस्य पानमित्याश्चर्यम् // 67 // ___ अमृतभोजन करनेवाले देवलोग जो इस चन्द्रका अच्छी तरह पानकर इसे खालीकर छोड़ देते हैं, यह उचित ही है क्योंकि पहले कलशसे उत्पन्न ( अगस्त्य मुनि) ने भी इसके पिता ( समुद्र ) को भी अच्छी तरह पीकर खाली छोड़ दिया था। [ यह चन्द्र अपने पिताके समान ही परोपकार परायण है, अथच-कलशसे उत्पन्न अगस्त्यजीका समुद्रको अच्छी तरह पी जाना महान् आश्चर्य है ] // 67 // पौराणिक कथा-असुरलोग देवोंको युद्ध में मार-पीट कर समुद्रमें छिप जाते थे और वहां जलके भीतर स्वयं नहीं जा सकने के कारण देव उनका कुछ प्रतिकार नहीं कर पाते थे। इस प्रकार अनेक बार होनेपर अतिशय पीड़ित देव अगस्त्य मुनिके पास आकर अपनी करुणगाथा सुनाये, यह सुनकर अगस्त्यजीने समुद्रजलको गण्डूपमें लेकर पी लिया और देवोंने असुरोंको निर्जल समुद्र में युद्धसे पराजित किया और बादमें अगस्त्यजीने भी समुद्रको पुनः जलसे पूर्ण कर दिया।
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________________ द्वाविशः सर्गः। 1535 चतुर्दिगन्ती परिपूरयन्ती ज्योत्स्नैव कृत्स्ना सुरसिन्धुबन्धुः। क्षीरोदपूरोदरवासहानवैरस्यमेतस्य निरस्यतीयम् / / 6 / / चतुरिति / चतुर्णा दिगन्तानां समाहारस्ताम् / चतुर्दिक्प्रान्तानित्यर्थः / (तां) परिपूरयन्ती सामस्त्येन व्याप्नुवती, तथा-श्वैत्यारसुरसिन्धोर्मन्दाकिन्या बन्धुः सदृशी / तथा कृत्स्ना पूर्णा इयं ज्योत्स्नैवैका क्षीरोदपूरोदरे वासः स्थितिस्तस्य हाना. द्वहकालपरित्यागाद्धेतोरेतस्य चन्द्रस्य वेरस्यं क्षीरसागरविरहजनितं दुःखं निरस्थति नाशयति / असौ चन्द्रिकायामेव क्षीरसागरबुद्धया पितृवियोगदुःखं परित्यजतीत्यर्थः। सकलदिगन्तव्यापिधवलचन्द्रिकामध्यवर्ती चन्द्रः क्षीरसागरमध्यस्थ इव शोभत इति भावः / गङ्गावद्दुग्धवच्चेयं कौमुदीति / चतुर्दिगन्तीम्, समाहारे द्विगोर्डीप॥ चारो दिशाओंको परिपूर्ण करती ( उनमें व्याप्त होती ) हुई तथा ( श्वेत होनेसे ) गङ्गाके समान चांदनी ही इस चन्द्रका क्षीरसमुद्रके प्रवाहके मध्यमें निवास करनेके अमावजन्य विरसता ( क्षीरसमुद्र के विरह दुःख ) को नष्ट करती है। [चन्द्रमा पहले सर्वदा क्षीरसमुद्रमें निवास करता था, परन्तु वहाँसे निकलकर सर्वदा आकाशमें रहनेके कारण पिता (क्षीर. सागर ) के विरहजन्य दुःखसे दुखी हुआ तो उसे गङ्गाके समान शुभ्र चांदनी ही सादृश्य होनेसे दूर करती है / सब दिशाओं में व्याप्त स्वच्छ चांदनीके मध्यमें क्षीरसमुद्रके मध्यमें स्थितके समान यह चन्द्रमा शोभता है ] // 68 // पुत्री विधोस्ताण्डविकाऽस्तु सिन्धोरश्या चकोरस्य दृशोर्वयस्या / तथाऽपि सेयं कुमुदस्य काऽपि ब्रवीति नामैव हि कौमुदीति / / 69 / / पुत्रीति / इयं चन्द्रिका यद्यपि चन्द्रात्प्रसूतत्वाद्विधोः पुत्री अस्तु / सिन्धोः समुद्रस्य ताण्डविका नृत्तोपदेशिका नाटयित्री अस्तु / चन्द्रिकया हि सिन्धुरुल्लास्यते सा च तस्य नप्त्री भवति / यद्वा-इयं विधोः पुत्री सिन्धोस्ताण्डविका भवतु / वयस्या सखी भवतु / तथापि सेयं चन्द्रिका कुमुदस्य कापिअनिर्वचनीया संबन्धिनी भवतु / पूर्वनिर्दिष्टसर्वापेक्षया कुमुदस्यैव निरतिशयानन्दकारित्वास्केनाप्यनिर्वच. नीयेन संबन्धिनी भवस्वित्यर्थः / हि यस्मात्कौमुदीति नामैव कर्तृ ब्रवीति / सर्वेषां तत्तत्संबन्धसंभवेऽपि कुमुदानामियं कौमुदीति, 'तस्येदम्' इति संबन्धेऽण् / कुमुदा. नामेव प्रीत्यतिशयेन संबन्धं वदतीत्यर्थः / कौमुदीति नामंव हि स्पष्टं ब्रवीतीति वा / चन्द्रिकया सर्वेषामप्यानन्दः कृतः, कुमुदानां तु विशेषत इति भावः। कार्यण कारणानुमानम् / ताण्डविका, अर्शआद्यजन्तान्मतुबन्ताद्वा 'ताण्डव'शब्दात् 'तत्करोति-' इति ण्यन्ताण्ण्वुल् / अशनमशिः, 'इक्कृष्यादिभ्यः' इतीकि अशिमहंतीति दण्डादित्वाद्यत् / 'आश्या' इति च पाठः // 69 // यद्यपि चाँदनी ( चन्द्रमासे उत्पन्न होनेसे) चन्द्रमाको पुत्री हो, (चन्दोदय होनेपर
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________________ 1536 नैषधमहाकाव्यम्। समुद्र के उल्लसित होनेसे ) समुद्रको नचानेवाली (नृत्योपदेशकारिणी ) हो तथा (कौमुदीको देखकर चकोरको आह्लादित करनेसे ) चकोरके नेत्रद्वयकी सखी हो ( अथवा-चन्द्रमाकी पुत्री यह चाँदनी समुद्रको नृत्योपदेशकारिणी हो और चकोरका पेय द्रव्य हो तथा (इस संसारके नेत्रों के आह्लादक होनेसे ) इस संसार में नेत्रोंकी सखी हो ), तथापि कुमुदकी मी कोइ ( अनिर्वचनीया- लोकोत्तर ) है, क्योंकि कौमुदी ( कुमुद-सम्बन्धिनी ) यह नाम ही ( कुमुद के साथ लोकोत्तर अनिर्वचीय सम्बन्धको ) कह रहा है। [ यद्यपि चाँदनी समुद्र, चकोर तथा इस संसारको आनन्द देनेवाली है; तथापि कुमुदको अतिशय आनन्द देने. वाली है ] // 69 // ज्योत्स्नापयःक्ष्मातटवास्तुवस्तुच्छायाच्छलच्छिद्रधरा धरायाम् / शुभ्रांशुशुभ्रांशकराः कलङ्कनीलप्रभामिविभा विभान्ति / / 70 / / ज्योत्स्नेति / शुभ्रांशोश्चन्द्रस्य शुभ्रांशा धवलभागाश्च ते कराश्च किरणास्ते धराया भूम्यां कलङ्कस्य नीलीमिः प्रभाभिर्मिश्रा विभा कान्तियेषां ते कलङ्कनीलकान्तिच्छु. रिता इव विभान्ति / यतः कीदृशाः ? ज्योत्स्नैव पयो जलं दुग्धं वा यस्मिस्तादृशं चमातटं दुग्धधषलचन्द्रिकाधवलीकृतं भूतलं तदेव वास्तु वसतिगृहं येषां तानि वस्तूनि वृक्षादिपदार्थास्तेषां छाया छलं येषां तादृशानि छिद्राणि प्रकाशेन रिक्तवा. द्विलानि पदार्थप्रतिच्छायारूपाणि तानि धरन्तीति तादृशाः। चन्द्रिकाधवलिताः पदार्थाश्चन्द्ररश्मय एव, वृक्षादिप्रतिच्छायाश्चन्द्रकलङ्कनीलरश्मय एवेति धारायामपि निपतिताश्चन्द्रकिरणा नीलधवला एव शोभन्त इत्यर्थः। अन्यस्य करा हस्ता कलङ्कः वनीलस्य नीलमणेः प्रभया मिश्रकान्तयो नीलमणियुक्ताङ्गुलीयकप्रभामिश्रा विभान्ति / 'शुभ्रांशुशुभ्रांशु-' इति पाठेऽपि 'अंशुलेशे रवे रश्मौ' इत्यभिधानात् 'अंशु'शब्दस्य लेशवाचित्वात्स एवार्थः। ज्योत्स्नैव पयो जलं तस्य क्षमा भूमिस्तस्यास्तटं तदेव वास्तु निवासस्थानं येषां तेषां वस्तूनां छायाया व्याजेन छिद्राणि धरन्तीति वा // 70 // चाँदनीरूप जल ( या-दूध ) वाला भूतलपर निवास करनेवाले ( वृक्षादि ) पदार्थोकी छाया ( परछाही ) के छलवाले छिदोंको धारण करती हुई, चन्द्रमाके श्वेववर्णाशवाली किरणे ( पक्षा०-हाथ ) कलङ्क ( रूप मृग ) की नीली कान्तिसे मिश्रितके समान पृथ्वीपर शोभ रही है / [ चन्द्रमाकी श्वेतांश किरणें चाँदनीसे श्वेतवर्ण वृक्षादि पदार्थ होकर सथा कलङ्क-सम्बन्धी कृष्णांश किरणें भूतलस्थ वृक्षादिकी छायारूप होकर शोमती हुई-सी मालूम पड़ती है / लोकमें भी किसी व्यक्तिका स्वच्छ हाथ कङ्कणादि भूषणोंकी कान्तिसे मिश्रित होनेसे श्वेत-कृष्णवर्ण होकर शोभते हैं ] // 70 // कियान्यथाऽनेन वियद्विभागस्तमोनिरासाद्विशदीकृतोऽयम् | अद्भिस्तथा लावणसैन्धवीभिरुल्लासिताभिः शितिरप्यकारि / / 71 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1537 कियानिति / उदितमात्रेणानेन चन्द्रेण तमोनिरासाद्धेतोः कियान् किंचिन्मा. ब्रोऽयं वियद्विभागः पूर्वाकाशदेशो यथा विशदीकृतः तथा चन्द्रकिरणरुल्लासिताभि. वृद्धि प्रापिताभिर्लावणसैन्धवीभिरद्भिः कियानयं वियद्विभागः शितिः श्यामोऽप्य. कारि / अप्रौढप्रभे चन्द्रे पूर्वाकाशदेशस्तिमिरनिरासाद्धवलो भवति, ततो निरतस्य च तमसः प्रतीच्यां घनीभूतत्वात्पश्चिमाकाशदेशः श्यामलो भवतीति तत्रेयमुत्प्रेक्षा। समुद्रजलं च नीलं, पूर्वाकाशदेश एव नीलैः समुद्रजलैः पुनर्नालोऽप्यकारीति वा। लावणसैन्धवीभिः, लवणसिन्धोरिमाः 'तस्येदम्' इत्यणि 'हृद्भगसिन्ध्वन्ते पूर्वपदस्य च' इत्युभयपदवृद्धिः // 71 // (उदित होनेमात्रसे ) इस चन्द्रमाने अन्धकार दूर करनेसे जिस प्रकार आकाशके कुछ मागकः ( पूर्व दिशामें ) श्वेत कर दिया है ( चन्द्रोदय होनेसे ) बढ़े हुए, क्षारसमुद्रके जलने उसी प्रकार आकाशके कुछ मागको ( पश्चिम दिशामें ) काला कर दिया है। [ पहले चन्द्रोदय होते ही पूर्वदिशामें अन्धकाराच्छन्न आकाश अन्धकार दूर होनेसे स्वच्छ हो जाता है और पश्चिम दिशामें अन्धकार अधिक रहता है, इसीपर उक्त उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 7 // गुणौ पयोधेनिजकारणस्य न हानिवृद्धी कथमेतु चन्द्रः ? | चिरेण सोऽयं भजते तु यत् ते न नित्यमम्भोधिरिवार चित्रम् / / 72 // ___ गुणाविति / चन्द्रो निजकारणस्य पयोधेोनिवृद्धिरूपौ गुणो कथं नेतु प्राप्नोतु ? अपि तु कार्यगुणानां कारणगुणपूर्वकत्वनियमादवश्यमपचयोपचयो चन्द्रं प्राप्नुत इति युक्तमेवेत्यत्र न किंचिच्चित्रमित्यर्थः। तर्हि कुत्र चित्रमित्याशङ्कयाह-सोऽयं चन्द्रस्ते हानिवृद्धी यञ्चिरेण पक्षान्तपरिमितेन बहुना कालेन भजते, न तु अम्भोधिरिव नित्यं प्रत्यहं भजते, अत्र विषये चित्रमित्याश्चर्यम् / समुद्रो यथा प्रत्यहं हानिवृद्धी भजते, तथा पुत्रोऽपि चन्द्रो नेत्याश्चर्यमित्यर्थः / / 72 // अपने किरण ( उत्पत्ति-स्थान ) भूत समुद्र के क्षीण होना तथा बढ़ना-इन दो गुणोंको चन्द्रमा क्यों नहीं प्राप्त करे ? ( इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु ) यह चन्द्रमा उन दो गुणोंको विलम्ब से ( 15-15 दिन बीतनेपर ) तथा समुद्र सदा (प्रतिदिन ) प्राप्त करता है, यह आश्चर्य है / [चन्द्रमाके उत्पत्तिकारणभूत समुद्रके क्षय- वृद्धिरूप गुणोंको कार्यभूत चन्द्रमामें होना उचित होनेसे कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु उक्त दोनों ( समुद्र तथा चन्द्रमा) में उक्त गुणद्वयको क्रमशः नित्य एवं विलम्बसे होने में आश्चर्य है ] // 72 // आदर्शदृश्यत्वमपि श्रितोऽयमादर्शदृश्यां न बिभर्ति मूर्तिम् / त्रिनेत्रभूरप्ययमत्रिनेत्रादुत्पादमासादयति स्म चित्रम् / / 73 / / आदर्शति / अयं चन्द्र आदर्शवद् दृश्यत्ववृत्तवादिना रमणीयत्वं श्रितो भजमानो. ऽप्यादर्शवदृश्यां (रमणीयां) मूर्ति न बिभर्ति चित्रम् / यो शादर्शवद् दृश्यो भवति स एवादर्शवद् हश्यां मूर्ति न बिभर्ति तद्वद् श्यो न भवतीति विरोधाश्चर्यमित्यर्थः।
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________________ 1538 नैषधमहाकाव्यम् / अथ च-दर्पणवद्दृश्यत्वं श्रितोऽप्यादर्श दर्शमभिव्याप्य दृश्याममावास्यायां दर्शनयोग्यां मूर्ति न बिभर्ति / इदानीं पूर्णस्वेन दृश्यमानोऽपि दर्श लेशेनापि न दृश्यते इत्यर्थ इति विरोधपरिहारः / दर्पणवदृश्यत्वं श्रितोऽपि आदर्श दर्श मर्यादी. कृस्य कृष्णचतुर्दशीमभिव्याप्य दृश्यां मूर्ति न बिभर्ति, अपि तु तावत्पर्यन्तं दृश्यो भवस्येवेति वा / तथा-अयं चन्द्रस्त्रिनेत्राद्भवति ताहशस्त्रिनेत्रादुत्पन्नोऽपि न त्रिने ब्रोऽत्रिनेत्रः / तस्मारित्रनेत्रव्यतिरिक्तात्सकाशादुत्पादमुत्पत्तिमासादयति स्म प्रापेत्ये तदपि चित्रम् / त्रिनेत्रादुरपन्नोपि त्रिनेत्रादुत्पनो न भवतीत्याश्चर्यमित्यर्थः / अथ च-त्रिनेत्रादुत्पन्नोऽप्यत्रेनेंत्रादुत्पत्तिमापेत्येतदपि विरुद्धम् / अथ च-त्रिनेत्रो भूर्वसतिस्थानं यस्य तादृशः, तथा-अत्रेमुनेत्राच्चित्रमाश्चर्यरूपमुत्पादं प्रापेति विरोधपरिहारः / सहजसौन्दर्यमाश्रयमाहाल्यं कुलस्य माहात्म्यं चानेन चन्द्रस्य वर्णितम् / चन्द्रस्यात्रिनेत्रसमुद्भुतत्वं पुराणप्रसिद्धम् // 73 // ___ यह चन्द्रमा आदर्श ( दर्पण ) के समान ( स्वच्छ एवं वृत्ताकार होनेसे दर्शनीयताको प्राप्त होता हुआ भी आदर्श में (या-आदर्शतुल्य ) दर्शनीय मूर्तिको नहीं धारण करता है, यह आश्चर्य है ( जो आदर्शवत् दृश्य है, उसका आदर्शवत् दृश्य मूर्तिको नहीं धारण करना विरोध है, उसका परिहार यह है कि-आदर्श ( दर्पण ) के समान दर्शनीय मूर्तिको धारण करता हुआ मी यह चन्द्रमा अमावस्यातक दर्शनीय ( देखने योग्य ) मूर्तिको नहीं धारण करता अर्थात् अमावस्याको इसकी मूर्ति नहीं दिखलायी पड़ती, तथा त्रिनेत्र (तीन नेत्रों वाले ) से उत्पन्न भी यह चन्द्रमा अत्रिनेत्रसे उत्पत्तिको पाता है (बिना तीन नेत्रोंवालेसे उत्पन्न होता है; अथच-त्रिनेत्र (शिव ) जी से उत्पन्न होता हुआ भी अत्रिमुनि ( शिवभिन्न ) के नेत्रसे उत्पन्न होता है, यह आश्चर्य है। इस विरोधका भी परिहार यह है कित्रिनेत्र (शिवजी ) हैं भू = निवासस्थान जिसके ऐसा चन्द्रमा भो अत्रि मुनिके नेत्रले उत्पन्न होता है ) / [चन्द्रमाको अत्रिनुनिके नेत्रसे उत्पन्न होना कविश्रेष्ठ कालिदासने भी रघुवंशके द्वितीय सर्गमें कहा है ] / / 73 / / इज्येव देवत्रजभोज्यऋद्धिः शुद्धा सुधादीधितिमण्डलीयम् / हिंसा यथा सैव तथाऽङ्गमेषा कलङ्कमेकं मलिनं बिभर्ति / / 74 / / इज्येति / देवानां व्रजैः समूहैर्भोज्या पेया ऋद्धिः समृद्धिर्यस्याः सा शुद्धा धवला इयं सुधादीधितेरमृतकरस्य चन्द्रस्य मण्डली इज्येव याग इव, शोभत इति शेषः / इज्यापि देवव्रजभोज्यपुरोडाशादिसमृद्धिः शुद्धा पवित्रा च भवति / नथैषा चन्द्रमण्डली कलङ्काख्यमेकं मध्यवर्तिनमङ्गमवयवं मलिनाकारं तथा बिभर्ति, यथा सैव इज्यैव पूर्वोक्तगुणविशिष्टा सत्यप्येकं पशुहिंसात्मकमङ्गं कर्मसाधनं मलिनं पापहेतुं 1. तद्यथा-'अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः......'( रघु० 275) अत्र अत्रिमुनिनेत्रोत्पन्नं ज्योतिश्चन्द्र एवं गृह्यत इति बोध्यम् /
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1536 बिभर्ति / परोपकारशीलायाः सर्वात्मना शुद्धाया अपि चन्द्रमण्डल्या दैवादेकमङ्गं मलिनं जातमित्यर्थः / यागे हि हिंसामानमेव मालिन्यम् / 'मुधाङ्गम्-' इति पाठे-कलकरूपमेकमङ्गं मलिनं वृथैव बिभर्ति / शुद्धाया मालिन्ययोगस्यानौचित्या. दित्यर्थः / शुद्धस्यापि श्रौतधर्मस्य सांख्येर्दोषारोपणान्मालिन्यं मुधैवेत्यर्थः / इज्या, 'वजयजोः-' इति क्यप् // 74 // देव-समूहसे भोज्य समृद्धि (कलावृद्धि, पक्षा०-हविष्यादि सम्पत्ति) वाली तथा स्वच्छ वर्ण ( पक्षा०-पवित्र ) यह चन्द्रमण्डली यशके समान (शोभती) है, तथा यह (उक्तरूपा चन्द्रमण्डली कलङ्करूप एक ( मध्यभागस्थ ) मलिनता ( कृष्णवर्ण) को उस प्रकार धारण करती है, जिस प्रकार उक्तरूपा इज्या ( याग-) पशुकी हिंसारूप मलिन ( दोषयुक्त) एक अङ्ग ( कर्म-विशेष ) को धारण करती है / [ सर्वथा परोपकारशील स्वच्छ चन्द्रमामें यशमें हिंसाके समान एक मलिन कलङ्क (दोष ) लगा हुआ है ] // 74 / / एकः पिपासः प्रवहानिलस्य च्युतो रथाद्वाहनरङ्करेषः। अस्त्यम्बरेऽनम्बुनि लेलिहास्यः पिबन्नमुष्यामृतबिन्दुवृन्दम् / / 75 / / एक इति / एष मृगाङ्के रश्यमानः प्रसिद्धः एकः पिपासुस्तृषाक्रान्तः सप्तवायुः स्कन्धमध्यवर्तिनः प्रवहाख्यस्यानिलस्य मृगवाहनस्य गगनचारिणो रथाच्च्युतो वाहकभूतो रङ्कमंगोऽनम्बुनि निर्जलेऽम्बरे लेलिहास्यो नितरां पौनःपुन्येन वास्वादन. कारि मुखं यस्य तादृशो भवनमुष्य चन्द्रस्यामृतबिन्दुवृन्दं पिबन्सन्नस्ति / तृषाक्रान्तो रथं परित्यज्य पतितो निर्जलेऽपि गगने चन्द्रामृतबिन्दुवृन्दमास्वादयन् वायुवाहनमृग एवायम्, न तु कश्चित्कलङ्कमृगो नामेत्यर्थः / अस्तीति वर्तमानप्रत्यये. नामृतास्वादनेन चन्द्र परित्यज्य गन्तुमशक्तोऽद्यापि वर्तत इति सूचितम् / एवम. न्योऽपि तृषाक्रान्तो निर्जले देशे प्रस्रवणादेः पतजलबिन्दुवृन्दं पिबमनुपशान्तपि. पासो लेलिहास्यः सन् तत्रैव चिरं तिष्ठति / सप्तवायुस्कन्धाः पुराणप्रसिद्धाः / लेलिहेति, नितरां पुन: पुनर्वा लेढीत्यर्थ यङिपचाद्यचि 'यङोऽचि च' इति यङो लुक // 75 // प्यासा हुआ ( अत एव सात वायुओं के स्कन्धके मध्यवर्ती ) 'प्रवह' नामक वायुके रथते पृथक् हुआ यह (प्रत्यक्ष दृश्यमान ) वाइन ( 'प्रवह' नामक वायुका वाहनभूत) मृग निर्जल आकाश में (प्यास से व्याकुल होने के कारण ओष्ठप्रान्तको चाटने वाला) इस चन्द्रमाके अमृत-बिन्दु-समूहको पी रहा है। [ यह चन्द्रमामें दृश्यमान कलङ्क 'प्रवह' वायुके रथसे प्यासके कारण अलग होकर जल-रहित आकाशमें प्याससे ओठको चाटनेवाला और चन्द्र. माके अमृतबिन्दुको ‘पीता हुआ 'प्रवह' वायुका वाहनभूत मृग ही है। लोकमें भी कोई प्याससे व्याकुल व्यक्ति निर्जल .स्थानमें ओठोंको चाटता तथा झरने आदिके जल-विन्दुकी पीता रहता है, वहांसे लौटता नहीं है। 'अस्ति' (है) इस वर्तमान कालिक क्रियासे बहुत दिन पूर्व उक्त रथस पृथक् हुए मृगका आजतक स्थित रहना सूचित होता है / सात वायु.
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्कन्ध, 'प्रवह' वायुमें मेषादि राशि-समूह और उस मेषादि राशि-समूहमें चन्द्रमाका रहना पुराणों में देखना चाहिये ] // 75 // अस्मिञ्छिशौ न स्थित एव रङ्कयूनि प्रियाभिर्विहितोपदाऽयम् / आरण्यसन्देश इवौषधीभिरते स शङ्के विधुना न्यधायि || 76 // अस्मिन्निति / शिशौ बाले एककलात्मकेऽस्मिश्चन्द्रे रङ्कर्मगो न स्थितो नासी देव तस्यां दशायामदर्शनात् / किंतु प्रियाभिरोषधीमियूंनि तरुणे पूर्णावयवेऽस्मिश्चन्द्रऽयं रङ्कुरुपदेव विहिता प्रेषिता / कीदृशी ? अरण्ये भवः संदिश्यते प्रस्थाप्यते संदेशस्तद्पा / अरण्यभवानां संदेशरूपा वा / 'वयं भवस्प्रिया निर्जने वने मृगः सह वसामः, स्वं तु स्वर्गे विजयी सुखेन वर्तसे' इति गूढार्थोप(पा)लम्भसूचिकेति यावत्। अनन्तरं विधुना प्रेयसीसंदेशरूपः स रङ्करके मध्ये, अथ च-उत्सङ्गे, प्रियाप्रेम. भरेण न्यधायि स्थापित इत्यहं शङ्के / अन्यापि प्रिया तरुणं प्रियं प्रति कंचित्संदेश मुपदारूपेण प्रेषयति, स च तं हृदयादौ धारयति / ओषध्यो हि वनवासिन्यस्तदनुरूपमेव संदेशं मृगं स्वप्रिये चन्द्रे प्रेषितवत्यः / आरण्यसंदेश इवायमुपदा प्रहितेति वा। 'यदा-' इति पाठे-यदाप्रभृति प्रेषितः, तदाप्रभृति तारुण्यदशायां चन्द्रेणा. यमङ्के न्यधायि, न तु पूर्वमित्यर्थः / भारण्यः, भवार्थेऽण // 76 // बाल ( एक कलात्मक ) इस चन्द्रमामें मग (कलङ्कहरिण) था ही नहीं, (किन्तु) इसके युवक (पूर्णावयव ) होनेपर ( इस चन्द्रमाकी) प्रिया ओषधियों ने वनके सन्देशके समान इस मृगको उपहार (भेंट) बनाकर भेजा ( 'तुम स्वर्गका आनन्द लूट रहे हो और तुम्हारी प्रिया हम औषधियां तुम्हारे विरहसे वनमें मृगोंके साथ वसती हुई कष्ट सहन कर रही हैं। इस प्रकारके सन्देशरूपमें वनमें सुलम इस मृगको युवक (पूर्ण) चन्द्रमाके पास ओषधियोंने भेजा ) और उस प्रियाप्रेषित उपदाभूत मृग को चन्द्रमाने अपने बीच (पक्षा०क्रोड ) में रख लिया ऐसा मैं जानती हूँ / [ वनवासिनी चन्द्रप्रियाभूता ओषधियोंका वहांके अनुरूप मृगको सन्देशरूपमें उपहार भेजना तथा प्रियाओंके भेजे हुए उपहारको अपने क्रोड़ में चन्द्रमा का रखना उचित ही है ] // 76 // अस्यैव सेवार्थमुपागतानामास्वादयन् पल्लवमोषधोनाम् / धयन्नमुष्यैव सुधाजलानि सुखं वसत्येष कलङ्करकः // 77 / / अस्येति / एष कलकरङ्कुर्विरहपीडितत्वादस्यैव चन्द्रस्य सेवार्थमपागतानामोषधीनां पल्लवमास्वादयन् / तथा-अमुष्यैव सुधारूपाणि जलानि धयन् पिबन् सुखमनायासलब्धावृत्तिरिव वसति, आहारलोभादत्रैव वसतीत्यर्थः। अन्योऽपि मृगो जलकिसलययुते देशे सुखेन वसति कदाचिदपि न स्यजति / पल्लवम् , जात्ये. कवचनम् // 77 // (चन्द्रमध्यस्थ ) यह कलङ्कमृग ( ओषधियोंके विरइसे पीड़ित ) इसी ( चन्द्रमा) की
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1541 सेवाके लिए आयी हुई ओषधियों के पल्लवोंको खाता हुआ तथा इसी ( चन्द्रमा ) के अमृतरूप ( पक्षा०-अमृततुल्य मधुर ) जलको पीता हुआ सुखपूर्वक रहता है ! [ यही कारण है कि ओषधिरूप चन्द्रप्रियाओंका भेजा हुआ यह मृग चन्द्रमाके कोडमें ही सदा रहने लगा, वहां से पुनः वापस नहीं गया / कोमल पल्लव तथा मधुर जल मिलनेवाले स्थानमें मृगका सुख पूर्वक रहना और उसे छोड़कर कहीं नहीं जाना उचित ही है ] // 7 // रुद्रेषुविद्रावितमातमारात्तारामृगं व्योमनि वीक्ष्य बिभ्यत् / मन्येऽयमन्यः शरणं विवेश मत्वेशचूडामणिमिन्दुमेणः / / 78 / / रुद्रेति / दक्षयज्ञे वीरभद्रावतारस्य रुद्रस्येषुणा विद्रावितम् / अत एव आर्स तारारूपं मृगं व्योमनि आरासमीपे दूरे वा वीक्ष्य बिभ्यत् त्रस्यन् अयमन्योऽपर एण इन्दुमीशस्य चूडामणिं ज्ञास्वा शरणं विवेश / शिवेन शिरसि स्थापितत्वादयं मान्य इत्येतदाश्रयेण रुद्रान्मामयं रक्षिष्यस्येवेत्याशयेनान्यो मृगश्चन्द्रं शरणं प्रविष्ट इत्यर्थ इत्यहं मन्ये / अन्योऽपि सजातीयं कस्माञ्चिद्भीतं दृष्ट्वा स्वयमपि भीतः सन्कमपि शरणं याति / 'गत्वा-' इत्यपि पाठः। तारामृगस्म रुद्रेषुविद्रावणं काशीखण्डादौ ज्ञातव्यम् // 78 // रुद्र ( कुद्ध शिवजी ) के बाणसे विदीर्ण ( अत एव ) दुःखित तारा (नक्षत्र ) रूप मृगको समीप ( या-दूर ) से ही देखकर डरता हुआ यह दूसरा ही मृग ईश ( सर्व समर्थ शिवजी) के मस्तकस्थ मणिभूत चन्द्रमाको शरण ( अपना रक्षास्थान ) मानकर इसके मध्यमें प्रविष्ट हो गया है, ऐसा मैं मानती हूं। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी सजातीय व्यक्तिको किसी के द्वारा पीडित देखकर भयार्त होता हुआ सुरक्षित स्थानमें प्रवेश करता है, अत एव शिवके बाणसे पीडित 'नक्षत्र' रूप मृगको पीडित देखकर शिवजीके मस्तकपर रहनेवाले चन्द्रमाको ( अपने मस्तकपर रखे हुए स्नेहपात्र चन्द्रमाके मध्य प्रविष्ट होनेपर ये मुझे नहीं मारेंगे, इस भावनासे ) अपना सुरक्षित स्थान समझकर दूसरा मृग चन्द्रमामें स्थित हो गया, जो कलङ्करूपसे भासित होता है ] // 78 // ___पौराणिक कथा-कामपीडित ब्रह्माने अपनी कन्या सरस्वतीके साथ सम्भोग करना चाहा तो वह मृगीका रूप धारणकर माग चली और ब्रह्मा भी मृगका रूप धारणकर उसके पीछे दौड़े, यह ब्रह्माका अनुचित व्यवहार देखकर महाक्रोधी शिवजीने मृगरूपधारी ब्रह्माके मस्तक जब बाणसे काट लिया तब वह मृगरूपधारी ब्रह्ममस्तक 'मृगशिरा' नामक तथा शिवजीबाण 'आर्द्रा' नामक नक्षत्रों के रूपमें आकाशमें स्थित हुए और उस ब्रह्मकपालको शिवजीने ब्रह्म इत्या दूर करने के लिए प्रायश्चितरूपमें मिक्षापात्र बनाकर ग्रहण किया। यह कथा स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें आयी है। 'शिवमहिम्नस्तोत्र में यह वर्णन भाता है। 1. 'प्रजानाथं नाथ प्रसभमधिकंवा दुहितरंगतं रोहिद्भूतां रिरमयिषु मृष्यस्य वपुषः। धनुष्पाणेर्यात दिवमपि सपत्राकृतममुं वसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥'
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________________ 1542 नैषधमहाकाव्यम् / पृष्ठेऽपि किं तिष्ठति नाथ ! नाथ रङ्कुर्विधोरङ्क इवेति शङ्का / तत्त्वाय तिष्टस्त्र मुखे स्व एवं यद्वैरथे पृष्ठमपश्यदस्य / / 79 / / पृष्ठ इति / हे नाथ ! विधोरङ्क इव यथा चन्द्रस्योत्सने कलङ्कमृगो वर्तते, तथा रङ्कुः पृष्टेऽपि पश्चाद्भागे किं तिष्ठति ? अथ न तिष्ठति इति तवाशङ्का चेद्वर्तते इति शेषः / तर्हि स्वं तत्त्वाय याथात्म्यज्ञानार्थ स्वे निजे मुखे विषये तिष्ठस्व, निजमुखमेव निर्णयं पृच्छेत्यर्थः / यत्वन्मुखं द्वैरथे समानशोभाभिलाषाद्विस्थसंबन्धिनि द्वन्द्वयुद्धे. ऽस्य स्वन्मुखाद्भज्यमानत्वात्पलायमानस्य चन्द्रस्य पृष्ठं पश्चाद्भागमपश्यत् / तस्मा. तत्स्वमुखमेव निर्णेतृत्वेन पृच्छेत्यर्थः / त्वन्मुखं चन्द्रादधिकमिति भङ्गया नलमुख. वर्णनं मे कृतम् / तत्वाय तत्वं ज्ञातुं, 'क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः' इति चतुर्थी, तादर्थ्यमात्रे वा / तिष्ठस्व, स्थेयाख्यायां तङ् / स्वे, वैकल्पिकत्वास्मिन्नभावः // 79 // हे नाथ ! ( इस चन्द्रमाके ) अङ्कमें के समान (जिस प्रकार इसके सम्मुखस्थ अङ्कमें मृग रहता है, उसी प्रकार ) पृष्ठभागमें भी मृग है क्या ? ऐसी यदि आपको शङ्का हो तो निर्णयार्थ अपने मुखसे ही पूछिये, जिसने ( समान शोमा चाहनेके कारण चन्द्रमा तथा आपके मुखके साथ ) दो रथों ( लक्षणासे रथस्थ वीरों ) का युद्ध होनेपर इस (चन्द्रमा) के पृष्ठभागको देखा है / [ चन्द्रमाने जब आपके मुखकी समानता करना चाहा, तब आपके मुखके साथ युद्ध होने लगा और चन्द्रमा पराजित होकर भाग चला, उस समय आपके मुखने चन्द्रमाकी पीठको देखा, इस कारण 'चन्द्रमाकी पीठमें भी कलङ्कमृग है या नहीं' इस शङ्काको 'अपने मुखसे ही पछकर आप अपनी शङ्का दूर कर लें। इस प्रकार चन्द्रमाका वर्णन करती हुई दमयन्तीने अपने प्रियतम नलके मुखको चन्द्राधिक सुन्दर वतलाया ] // 79 // उत्तानमेवास्य वलक्षकुक्षिं देवस्य युक्तिः शशमङ्कमाह / तेनाधिकं देवगवेष्वपि स्यां श्रद्धालुरुत्तानगतौ श्रुतायाम् / / 80 // उत्तानमिति / युक्तिरर्थापत्तिरनुमानं वास्य देवस्य चन्द्रस्य मध्यवर्तिनमकं कलङ्करूपं शशमुत्तानं स्वर्गसंमुखमस्मदादिदृश्यमान पृष्ठभागमाह ब्रूते / यतो वलक्ष. कुर्वि धवलोदरम् / यद्ययं शशकोऽस्मत्संमुखोदरोऽनुत्तानोऽभविष्यत् , तहि मध्यवर्तिशशकोदरस्य धवलत्वाचन्द्रमध्यभागोऽपि धवलोऽभविष्यत् , न च तथा दृश्यते, किंतु मलिनः / तस्मादुत्तान एव शशकश्चन्द्रेऽस्तीति युक्तिराहेत्यर्थः / तेन चन्द्रशशकनिश्चितोत्तानत्वेनैव हेतुनाहं देवगवेष्वपि सुरभीप्रभृतिषु विषये वेदे श्रुतायामुत्तानगती सुरलोकसंमुखचरणतया गमने विषये पूर्वापेक्षयाधिकमतितरां श्रद्धालुरास्तिक्ययुक्ता स्याम् / 'उत्ताना वै देवगवाश्चरन्ति' इति श्रतिायोपपन्नार्थतया सत्यवेस्यहमिदानीमधिकं मन्य इत्यर्थः / देवगवेषु 'गोरतद्धितलुकि' इति टच / 'देवगवीषु' इति पाठे टिवान्डीप् // 8 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1543 अनुमान कह रहा है कि-( चन्द्रमा) का अङ्कगत शशक श्वेत कुक्षिवाला होनेसे उत्तान ( ऊपर-स्वर्गकी ओर मुख किया हुआ ) ही है, इस कारण देवोंकी गौ ( कामधेनु) स्वर्ग में उत्तान होकर ( स्वर्गकी ओर मुख करनेसे भूलोकवासियोंके लिये पृष्ठभागको दिखलाती हुई ) चलती है इस विषयमें मैं अधिक श्रद्धालु हूँ। [ शशकका उदर भाग श्वेत होता है, अतः यदि यह हम लोगोंकी ओर मुख किया होता तो चन्द्रकलङ्क भी स्वच्छ ही दृष्टिगोचर होता, परन्तु भूदृष्टवर्ती हम लोगोंको वह काला दृष्टिगोचर होता है, अतः ज्ञात होता है कि चन्द्रकलङ्कगत शशक ऊपर-स्वर्गकी ओर मुख तथा भूलोककी ओर पीठ किया है और जिस कारण यह स्वर्गस्थ शशक उक्तरूपसे स्थित है, इस कारण 'उत्तान (भूलोककी ओर पीठ तथा स्वर्गकी ओर ) मुख करके देवोंकी गायें चरती हैं। एतदर्थिका 'उत्ताना वै देवगवाश्चरन्ति' इस श्रुति में अब मुझे विशेष श्रद्धा हो गयी है ] // 80 / / उक्तरीत्योत्तानगती सिद्धायामपि शशकस्य रक्तपृष्टवान्नीलत्वेन प्रतीतिः कथ. मित्यत आह दूरस्थितैर्वस्तुनि रक्तनीले विलोक्यते केवलनीलिमा यत् / शशस्य तिष्ठन्नपि पृष्ठलोम्नां तन्नः परोक्षः खलु रागभागः // 81 // दूरेति / दूरस्थितैष्टुभी रक्तनीले मिश्रितोभयवर्णे वस्तुनि केवलस्स्यक्तरागभागो नीलिमैव यद्यस्माद् विलोक्यते तत्तस्मात्कारणाच्छशस्य पृष्ठवर्तिरोग्णां तिष्ठन्नपि राग. भागो रक्तिमांशः नोऽस्माकमतिदूरस्थितानां खलु निश्चितं परोने दृग्गोचरो न भवति, किन्तु नीलिमैव दृश्यत इत्यर्थः। विष्ठन्वर्तमानोऽपि परोक्ष इति विरोधा. भासः। दूरस्थत्वान्न दृश्यत इति तत्परिहारः / 'खलु' उत्प्रेक्षायां वा // 8 // दूरस्थ लोग जिस कारणसे लालिमायुक्त नीलवर्णवाली वस्तुके केवल नीलवर्णको ही देखते हैं, इस कारण ( चन्द्र-कलङ्कगत ) शशकपीठकी लालिमा होते हुए भी वह दूरस्थ हम लोगोंको परोक्ष ( अदृश्य ) ही रहती है। ( यही कारण है कि चन्द्रकलङ्कस्थ इस शशकके पीठकी नीलिमा ही हम लोगोंको दृष्टिगोचर होती है, लालिमा दृष्टिगोचर नहीं होती)॥ 81 // भक्तं प्रभुाकरणस्य दर्प पदप्रयोगाध्वनि लोक एषः / शशो यदस्यास्ति शशी ततोऽयमेवं मृगोऽस्यास्ति मृगीति नोक्तः।।२।। भङ्क्तमिति / एष कविर्लोकः पदानां सुप्तिङन्तानां प्रयोगाध्वनि विषये व्याकर. णस्य प्रकृतिप्रत्ययविभागपूर्व शब्दव्युत्पादनकारिणः शास्त्रस्य मदधीन एव सकल. शब्दप्रयोग इति दपं गर्व, यद्वा-लक्षणया वैयाकरणस्य व्याकरणाधीन एव 'सकल'शब्दप्रयोग इति गर्व भवतुं त्याजयितुं प्रभुः समर्थः। यद्यस्मादेतोरयं चन्द्रः शशोऽ. स्यास्ति ततो हेतोः शशी यथोक्ता, लोकेनेति शेषः / एवममुनैव प्रकारेण मृगोऽ. स्यास्ति मृगीति नोक्तः / शशीऽस्यातीति मतुबर्थे 'अत इनिठनी' इतीनौ यथायं
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / शशीस्युच्यते, तथा तेनैव सूत्रेण मृगोऽस्यास्तीत्यत्रेनेः प्राप्तौ सस्यामपि मृगीति नोक्तः / तस्मादतिव्याप्त्यादिदोषाद् व्याकरणमूल एव लोकप्रयोग इति नियमो न युक्तः, किंतु कृत्तद्धितसमासानामभिधानं नियामकम् / लक्ष्यमद्दिश्य लक्षणप्रवृत्तिः नतु लक्षणमुद्दिश्य लक्ष्यप्रवृत्तिरिति / तस्मात् 'प्रयोगमूलं व्याकरणम्' इति व्याकरणालोक एवं प्रयोगे बलीयानीति भावः / अप्रस्तुतप्रशंसा // 82 // ____ यह (शब्दव्यवहार करनेवाला ) लोक व्याकरण ( अथवा-लक्षणासे व्याकरणशाताओं) के ( प्रकृति-प्रत्ययके विभाजनपूर्वक शब्द विवेचन मैं ही करता हूं, दूसरा नहीं, ऐसे ) अभिमानको नष्ट करनेके लिए समर्थ है, क्योंकि यह चन्द्रमा 'शश' है इसका वह 'शशी' कहलाता है, परन्तु 'मृग' है इसका वह 'मृगी' नहीं कहलाता है। जिस प्रकार चन्द्रमाको शशवाला होनेसे 'शशी' कहा जाता है, उसी प्रकार मृगवाला होनेपर भी 'मृगी' नहीं कहा जाता अत एव 'अतिव्याप्ति-अव्याप्ति दोष आनेसे व्याकरणमूलक लोकप्रयोग होने का नियम नहीं है, किन्तु कृत्-तद्धित-समास भी उसमें नियामक हैं अर्थात् लोकप्रयोगका अनुगामी व्याकरण होता है, व्याकरणका अनुगामी लोकप्रयोग नहीं होता ] // 82 / / यावन्तमिन्दुं प्रतिपत्प्रसूते प्रासावि तावानयमब्धिनापि | तत्कालमीशेन धृतस्य मूर्दिधन विधोरणीयस्त्वमिहास्ति लिङ्गम् / / 83|| यावन्तमिति / शुक्ल प्रतिपद्यावन्तं यत्प्रमाणमेककलमिन्टुं प्रसूते, अब्धिनापि तावांस्तस्प्रमाण एककल एवायं प्रासावि, न तु पूर्ण इत्यर्थः। एतस्कथं ज्ञातमित्यत आह-तत्कालं तस्मिन्काले समुद्रादुत्पत्तेरवसर इव ईशेन मूर्ध्नि तस्य विधोरणी. यस्त्वं नितरां कायमेवे हैककलस्वे लिङ्गं ज्ञापकमनुमापको हेतुरस्ति / यदि समुद्रेण संपूर्णोऽयमनिष्यत, तर्हि शिवेनापि तदानीमेव शिरसि तावानेवाधास्यत, नतु तथा; तस्मात्प्रतिपदैककलः प्रसूत; तावान्समुद्रेणापीति प्रतिपदुत्पन्नोऽप्ययमेककल स्वादेव न दृश्यत इति भाव // 83 // ' (शुक्लपक्षीय ) प्रतिपदातिथि जितने बड़े अर्थात् एक कलाबाले चन्द्रमाको उत्पन्न उस (चन्द्रोत्पत्तिके ) समयमें शिवजी के द्वारा मस्तकपर धारण किया गया ( एक कलावाला चन्द्रमा ही) इस विषय ( समुद्रसे एक कलावाले ही चन्द्रमाको उत्पन्न होने ) में चन्द्रमाका सूक्ष्मतमत्व ( एक कलात्मक होना ) ही प्रमाण है। [ यदि समुद्रने पूर्ण चन्द्रको उत्पन्न किया होता तो उस समय शिवजी. एक कलात्मक चन्द्रको मस्तकपर धारण नहीं करने 1. 'अलचये लक्षणगमनमतिव्याप्तिः' 'लच्ये लक्षणागमनमव्याप्तिः' इति ज्ञेयम्। 2. तदुक्तं भगवत्पतञ्जलिना महाभाष्ये-'न हि लक्षणेन पदकाराअनुवर्तनीयाः, पदकारैर्नाम लक्षणमनुवर्तनीयम् / ' इति / अत्र लक्षणं व्याकरणसूत्रादिकम्, पदकारा लोके पदप्रयोक्तारो जना इति बोध्यम् /
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________________ द्वाविंशः सर्गः 1545 किन्तु वे एक कलात्मक चन्द्रमाको ही सर्वदा शिरपर धारण करते हैं, इससे प्रतीत होता है कि समुद्र ने एक कलात्मक चन्द्रमाको ही उत्पन्न किया था, पूर्णचन्द्रमाको नहीं ] // 83 // आरोप्यते चेदिह केतकत्वमिन्दौ दलाकारकलाकलापे / तत् संवदत्यङ्कमृगस्य नाभिकस्तूरिका सौरभवासनाभिः / / 84 // आरोप्यत इति / केतकत्वमिहेन्दो चेद्यदि आरोप्यते यतो दलाकारः केतंकी. पत्रसदृशः धवलः कलानां कलापः समूहो यस्य तस्मिन् / तत्तस्मात्केतकदलवच्छभ्र. कलाकलापत्वाच्चन्द्रः केतकमेवेति रूप्यत इत्यर्थः। तत्तहि अङ्कमृगस्थ मृगत्वेन नाभिकस्तूरिका की आरोपितं तत्केतकत्वं कर्मीभूतं सौरभवासनाभिः कृत्वा संवदति, चन्द्रे केतकत्वं युक्तमित्यनुमन्यत इत्यर्थः। 'नाभिः' इति पाठे-अङ्कमृगस्य नामिः की कस्तूरिकासंबन्धिसौरसवासनाभिः कृत्वा संवदतीति वा। केतक्यां कस्तूरीपरिमलो वर्तते, चन्द्र कलङ्कमृगनाभिरूपा कस्तूरी वर्तते / तस्माच्चन्द्ने केतकस्वमारोपयितुं युक्तमित्यर्थः / तस्केतकत्वमङ्कमृगस्य नाभिकस्तूरिकायाः परिमलस्य वासनाभिः संक्रमणैः कृत्वा संवदति युक्त्या संवादं प्राप्नोत्येवेति वा / 'ताभिः' इति पाठे-अतिप्रसिद्धाभिर्वासनाभिः॥ 84 // ( केतकी पुष्पके ) पत्तेके समान कला-समूहवाले इस चन्द्रमामें यदि केतकी का आरोप किया जाता है तो (इसके ) कलङ्कमृगको नामिगत कस्तूरी सुगन्धिके संस्कारोंसे उस (आरोपित केतकी पुष्परूप चन्द्रमा) के साथ सङ्गत होती है। (प्रथम पाठा०-कलङ्क. मृगकी नामि कस्तूरिकाकी सुगन्धिके संस्कारोंसे उस आरोपित / द्वितीय पाठा०-कलङ्क मृगकी कस्तूरी उन ( अति प्रसिद्ध ) सुगन्धिके संस्कारोंसे उस आरोपित)। [चन्द्रकलाके केतकी-पुष्प-दलके समान स्वच्छ एवं लम्बा तथा कलङ्कमृगकी नाभिमें स्थित कस्तूरीके सुगन्धिसे परिपूर्ण होनेके कारण स्वच्छ एवं कस्तूरीके समान सुगन्धि परागवाले केतकी-पुष्पदलका चन्द्रमामें आरोप करना युक्तियुक्त होता है // 84 // आसीद्यथाज्यौतिषमेष गोलः शशी समक्षं चिपिटस्ततोऽभूत् / स्वर्भानुदंष्ट्रायुगयन्त्रकृष्टपीयूषपिण्याकदशावशेषः ||5|| आसीदिति / एष शशी यथाज्यौतिष गर्गादिमुनिप्रणीतग्रहगणितशास्त्रानतिक्रमेण गोलः कपित्थफलवद्वर्तुलोपरितनभाग एवं पूर्वमासीत् / तीदानी कथमन्यथा दृश्यत इत्याशङ्कयाह-ततोऽनन्तरं कालक्रमेण स्वर्भानो राहोरूवधिोभागस्थितदंष्ट्रायुगमेव यन्त्रं निष्पीडनचक्रं तेन कृष्टं मिष्कृष्य गृहीतं पीयूषममृतं यस्य, तस्माद्वा, स चासौ पिण्याकश्च तस्य दशा गृहीतरसनीरसतिलादिपिण्डीमात्ररूपतावशेष उद्ध्तो भागो यस्यैवंभूतः सन् चिपिटः पर्पटप्रायोऽभूदिति समवमिदानी प्रत्यणानुभूयत एवेत्यर्थः / ज्योतिरधिकृस्य कृतो ग्रन्थो ज्यौतिषम्, 'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' इत्यण् / ततो यथार्थेऽव्ययीभावः / ज्योतिःशास्त्रादौ त्रयोदशाङ्गुलश्चन्द्रः षोडशाङ्गुलस्य सूर्यः
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________________ 1546 नैषधमहाकाव्यम्। स्याधोभागस्थो जलपूर्णकाचकपिकापायो यथोदिनः, तथैव पूर्वमासीदित्युक्तम् // 85 // यह चन्द्र (गर्गाचार्यादिप्रणीत ) ज्योतिषशास्त्रके अनुसार (कपित्थफलके समान ) गोलाकार था, तदनन्तर राहुके दाँतोंकी दोनों पंक्तिरूप ( दबानेके ) यन्त्रसे निचोड़े गये अमृतरसवाले (तिल आदिकी ) खलीके समान चिपटा हो गया है, यह सबको प्रत्यक्ष अनुभव होता है / [ गोलाकार पदार्थको दबाकर रस निकाल लेनेपर चिपटा होना उचित ही है ] // 85 // असावसाम्याद्वितनोः सखा नो कर्पूरमिन्दुः खलु तस्य मित्रम् / दग्धौ हि तौ द्वावपि पूर्वरूपाद्यद्वीर्यवत्तामधिकां दधाते / / 86 // असाविति / असौ चन्दो वितनोरनङ्गस्य सखा नो भवति / कुतः ? असाम्या दसादृश्यात् / 'विवाहमैत्रीवैराणि भवन्ति समशीलयोः' इति शास्त्रादनयोः साङ्गान गयोः सादृश्याभावान्मैत्री न संगच्छत इत्यर्थः / तद्यनयोलोकप्रसिद्धा मैत्री कथमि. त्यत आह-खलु निश्चितं कर्पूरापरनामैवेन्दुस्तस्यानङ्गस्य मित्रम् , तावतैव लोक. प्रसिद्धिरिति विरोधाभाव इत्यर्थः। तत्र हेतुमाह-यद्यस्मात्तौ द्वावपि कामकर्पूरी दग्धौ मन्तौ पूर्वरूपाददग्धदशायाः सकाशादधिको वीर्यवत्ता हि स्पष्टं दधाते / पक्को हि कर्पूरो वीर्यवत्तरो भवति, कामोऽपि दाहानन्तरमधिकं वीयवाननुभूयते / तदुः क्तम्-'कर्पूर इव दग्धोऽपि शक्तिमान् यो जने जने / नमोऽस्त्ववार्यवीर्याय तस्मै कुसुमधन्वने // ' इति / तस्मास्कामकर्पूरयोमैत्री युक्ता / 'अथ कर्पूरमस्त्रियाम् / घन. सारश्चन्द्रसंज्ञः' इत्यमरः / 'अस्त्रियाम्' इत्यमरवचनात् 'कपूर'शब्दो नपुंसकोऽपि // (अङ्गसहित तथा अङ्गरहितरूप ) असमानता होनेसे यह ( अङ्गसहित) चन्द्रमा (अङ्गरहित ) कामदेवका मित्र नहीं है, किन्तु ('चन्द्रमा' का पर्यायवाचक) 'कर्पूर' उस कामदेवका मित्र है, क्योंकि जले हुए वे दोनों (कामदेव तथा कर्पूर ) ही पहले ( जलने के पूर्व ) अधिक वीर्यवत्ताको धारण करते हैं। [जला हुआ कप भी कच्चे कर्पूरकी अपेक्षा अधिक वीर्यवत्तर होता है / शिवजीकी नेत्राग्निसे जला हुआ कामदेव पहलेकी अपेक्षा अधिक वीर्यवान् हो गया है, इससे कामदेवका मित्र चन्द्रमा नहीं, किन्तु 'चन्द्रमा' का वाचक 'कर्पूर' ही चन्द्रमाका मित्र है, इस शब्दभ्रमसे ही लोकमें कामदेवका मित्र चन्द्रमा समझा जाता है ] // 86 // स्थाने विधोर्वा मदनस्य सख्यं सः शम्भुनेत्रे ज्वलति प्रलीनः / अयं लयं गच्छति दर्शभाजि भास्वन्मये चक्षुषि चादिपुंसः / / 87 // स्थान इति / वाऽथवा विधोर्मदनस्य सख्यं स्नाने, युक्तमेवेत्यर्थः / तत्र हेतु:स कामः ज्वलति देदीप्यमाने शंभुनेत्रे प्रलीनः प्रकर्षेण लीन एकतां प्रलयं गतः, विनष्ट इत्यर्थः / अयं चन्द्रश्च दर्शभाजि दर्शनं दर्शस्तव्यापारयुक्त, अथ च-अमावस्यां गते, भास्वन्मये सूर्यरूपे आदिपुंसो विष्णोश्चतुषि लयमेकतां गच्छति / दश
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1547 हि चन्द्रःसूर्य गच्छति,अत एव दर्शस्य सूर्येन्दुसंगम इति नाम / सूर्यो विष्णोदक्षिणं चतुः / तथा च तुल्ययोहरिहरयोनॆत्रयोयोरपि चन्द्रकामयोः प्रलीनस्वादशैं चन्द्रस्याप्यनङ्गतया च समशीलत्वादुचितव मैत्रीत्यर्थः। तथा च कामस्य चन्द्रसखिताप्रसिद्धिमुख्यैव युक्तेति भावः // 87 // अथवा चन्द्रमा तथा कामदेवकी मित्रता उचित है, क्योंकि वह कामदेव दीप्यमान शिव-नेत्रमें सम्यक् प्रकारसे लीन (नष्ट ) हो गया और यह चन्द्रमा देखनेवाले ( पक्षा०अमावस्या तिथिको प्राप्त ) आदि पुरुष (विष्णु) के सूर्यरूप (दक्षिण) नेत्रमें लीन (नष्ट) होता है / [ विष्णु भगवान्का दक्षिण नेत्र सूर्य है, अत एव हरिहररूपधारी भगवान्के शिवजीके नेत्रमें कामदेव नष्ट हो गया तथा विष्णुजीके सूर्यरूप नेत्रमें अमावस्या आनेपर यह चन्द्रमा नष्ट होता रहता है। इस कारणसे चन्द्रमा तथा कामदेवको मित्रता होना युक्तियुक्त ही है ] // 87 // नेत्रारविन्दत्वमगान्मृगाङ्कः पुरा पुराणस्य यदेष पुंसः। अस्याङ्क एवायमगात्तदानीं कनीनिकेन्दिन्दिरसुन्दरत्वम् // 8 // नेत्रेति / पुरा पूर्व यदा यस्मिन्काले एष मृगाङ्कः पुराणस्य पुंसः श्रीविष्णोर्नेत्रारविन्दत्वं नयनकमलस्वमगात / तदा तस्मिन्काले अस्य विष्णुनेत्रारविन्दभूतस्यास्य चन्द्रस्यायमङ्कः कलङ्क एव कनीनिकाया इन्दिन्दिरस्य भ्रमरस्य सुन्दरस्वमगायापत्। 'अदात्' इति पाठे-अयं श्रीविष्णुरस्य चन्द्रस्याङ्के विषये कनीनिकेन्दिन्दिरसुन्दर. स्वमदात् / नेत्रे हि कनीनिकया भाव्यम् , अरविन्दे च भ्रमरेण। तथा चास्य नेत्रा. रविन्दरूपस्वादकमेवोभयं श्रीविष्णुः कृतवानित्यर्थः / अङ्क एव कनीनिका की भ्रमरेण सुन्दरत्वमस्यादादिति वा / 'इन्दिन्दिरालिषट्चरणचश्चरीकालिनो द्विरेफाः स्युः' इति हलायुधः // 88 // पहले जिस समय यह चन्द्रमा पुराणपुरुष (विष्णु भगवान् ) का नेत्रकमल बना, उसी समय यह कलङ्करूप मृग कनीनिका ( नेत्रतारा-आँखकी पुतली ) रूप भ्रमरकी सुन्दरताको प्राप किया / [ नेत्रमें कनीनिकाका तथा अरविन्दमें भ्रमरका होना उचित होनेसे चन्द्रमा जब विष्णुका नेत्ररूप कमल हुआ, तब चन्द्रमण्डलस्थ कलङ्कमृग कनीनिकारूप भ्रमर हो गया ] // 88 // देवेन तेनैष च काश्यपिश्च साम्यं समीक्ष्योभयपक्षभाजौ / द्विजाधिराजौ हरिणाश्रितौ च युक्तं नियुक्तौ नयनक्रियायाम् // 8 // देवेनेति / तेन देवेन श्रीविष्णुना एष चन्द्रः काश्यपिर्गरुडश्चैतौ द्वावपि साम्यं समानधर्मतां समीचय तुल्यायां नयनक्रियायां क्रमेण नेत्रव्यापारे वाहनव्यापारे च यनियुक्ती, तद्युक्तमुचितमित्यर्थः / 'चौ' अन्योन्यसमुखये / साम्यमेवाह-उभयपक्षौ शुक्लपक्षकृष्णपक्षौ भजति चन्द्रः, गरुडस्तु द्वौ छदौ भजति, ताहशी द्वावपि / 67 नै० उ०
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / तथा-द्विजानां ब्राह्मणानां राजा चन्द्रः / गरुडस्तु पक्षिणां राजा, तादृशौ। तथा-हरिणेन कलङ्कमृगेणाश्रितश्चन्द्रः, गरुडस्तु हरिणा विष्णुना वाहनार्थेनाश्रितः, तादृशौ / एवमुभयोः साम्यात्सम एव व्यापारे यन्नियुक्तौ तदुचितं कृतमिति भावः। काश्यपिः, बाह्वादिस्वादि / / 89 // ___ उस देव ( पुराणपुरुष-श्रीविष्णु भगवान् ) ने इस चन्द्रमा तथा गरुड़की समानता देखकर दो पक्ष ( शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष, पक्षा०-दो पङ्ख) धारण करनेवाले, द्विजों (ब्राह्मणों, पक्षा-पक्षियों) के स्वामी, हरिणसे आश्रित अर्थात् मृगयुक्त (पक्षा०विष्णुसे आश्रित ) उन दोनोंको जो नेत्रके कार्य ( देखने, पक्षा०-ढोने के कार्य अर्थात् वाहन बनने ) में नियुक्त किया, यह उचित है // 89 // यैरन्वमाथि ज्वलनस्तुषारे सरोजिनीदाहविकारहेतोः / तदीयधूमौघतया हिमांशौ शङ्के कलङ्कोऽपि समर्थितस्तैः // 10 // यैरिति / यः पण्डितैः सरोजिन्याः दाहरूपाद्विकाराद्धेतोस्तुषारे ज्वलनोऽग्निरन्वमायि / तुषारः साग्निर्भवितुमर्हति, सम्बन्धे सति दाहकारित्वात् , साग्निभूदेश: वत्, तप्तोदकवद्वेति हिमे विषये वह्निरनुमित इत्यर्थः / तैः पण्डितैर्हिमांशी तुषारमये चन्द्रे वर्तमानः कलङ्कोऽपि तदीयधूमौघतया हिमाग्निसंम्बन्धिधूमसमूहरूपत्वेन सम. थित इत्यहं शङ्के। वह्नौ हि धूमेन भाव्यम्, चन्द्रश्च तुषारमयत्वादुक्तरीत्या वह्निमान्, तथा च कलङ्को धूमसमूह एवेति तैः समर्थितमित्यहं संभावयामोत्यर्थः // 90 // जिन ( विद्वानों ) ने कमलिनीका दाहक होनेसे तुषारमें अग्नि होनेका अनुमान किया, उन (विद्वानों ) ने ( तुषारमय ) चन्द्रमामें कलङ्कको भी उस (तुषार ) का धूम-समूह होने का समर्थन कर दिया, ऐप्ता मैं जानती हूँ। [ जहाँ अग्नि रहती है, वहां धूम भी संभव है, अत एव तुषारमें अग्निका समर्थन करनेवालोंने उसमें धूमका भी समर्थन कर दिया, इस प्रकार तुषारमय चन्द्रमें अग्निके साहचर्यसे कृष्णवर्ण कलङ्क भी धूम-समूह ही है ऐसा कहना चाहिये ] // 90 // स्वेदस्य धाराभिरिवापगाभिाप्ता जगद्भारपरिश्रमार्ता / छायापदेशाद्वसुधा निमज्ज्य सुधाम्बुधावुज्झति खेदमत्र / / 61 / / स्वेदस्येति / वसुधा छायापदेशात्स्वीयप्रतिबिम्बव्याजेन सुधाम्बुधावत्र चन्द्रे निमज्ज्यान्तः प्रविश्य खेदं जगद्भारपरिश्रमपीडामुज्झतीव / किंभूता ? जगद्भारवहन. निमित्तः परिश्रमस्तेनार्ता नितरां पीडिता / अत एव-स्वेदस्य धाराभिरिवापगाभि. ाप्ता समन्तात्पूरिता / अमृतसमुद्रनिमजने हि खेदो गच्छत्येव / यस्याश्च तत्तन्नदीरूपः स्वेदः, तस्याः श्रमहरणे सुधासमुद्र एवोचितः। एतेन कलङ्कस्य मृगशशभू. च्छायाप्रभृति मदभेदा वर्णिताः // 9 // संसारके भार (धारण करने ) के परिश्रमसे थकी हुई ( अत एव ) पसीनेके प्रवाहके
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1544 समान नदियोंसे व्याप्त पृथ्वी ( कलङ्कात्मक अपनी) छायाके छलसे इस अमृतसमुद्र (चन्द्रमा ) में गोता लगाकर थकावटको दूर कर रही है। [ लोकमें भी परिश्रमसे थका हुआ तथा बहते हुए पसीनेकी धाराओंसे व्याप्त कोई व्यक्ति जलाशयमें गोता लगाकर (नहाकर ) थकावटको दूर करता है। कोई-कोई आचार्य चन्द्रमामें दृश्यमान कलङ्कको पृथ्वीकी छाया मानते हैं ] // 91 // ममानुमैवं बहुकालनीलीनिपातनीलः खलु हेमशैलः / इन्दोर्जगच्छायमये प्रतीके पोतोऽपि भागः प्रतिबिम्बितः स्यात् // ममेति / हेमशैलो मेरुः खलु निश्चितं सर्गमारभ्याद्ययावदतिक्रान्तेन बहुना कालेन कृत्वा नीलीनिपातः श्यामिकालगनं तेन कृत्वा वा नीलः बहुकालीनत्वानीलमलसंबन्धान्नीलवर्णः संजातोऽस्तीति, एवंप्रकारा ममानुमाऽनुमानम, एवमहं संभावयामीत्यर्थः / अन्यथा यदि स्वर्णाचलः कालभूयस्स्वेन न नीलीभूतः किंतु हेममयस्वात्पीत एव स्यात् , तर्हि इन्दोर्जगच्छायमये जगत्प्रतिबिम्बभूते कलङ्करूपे प्रतीके. ऽवयवे मेरोः पीतोऽपि भागः प्रतिबिम्बितः स्यात्पीतोऽशोऽपि दृश्येत, तस्मात्स्वर्णाचलो नील एव जातः। तथा च सकलाया अपि भूमेर्नीलवर्णस्वात्तत्प्रतिबिम्बरूपः कलकोऽपि नील एव युक्त इत्यर्थः / जगच्छाये, 'विभाषा सेना-' इति षण्डत्वम॥ सुमेरु पर्वत ( सृष्टिके आरम्मसे आजतकके ) बहुत अधिक समम व्यतीत होने के कारण नीलिमाके लगनेसे नीला हो गया है, यह मेरा अनुमान है। अन्यथा (यदि उक्त कारणसे सुमेरु पर्वत नीला नहीं हुआ होता, किन्तु सुवर्णमय होनेसे पीला ही रहता तो) संसारकी छायाभूत चन्द्रमाके कलङ्कमें (पीले सुमेरुका ) पीला भाग भी प्रतिबिम्बित होता / [चन्द्रमामें पृथ्वीकी छाया ही कलङ्करूपमें दृष्टिगोचर होती है, यदि सुमेरु पीला होता तो इस कलङ्कमें प्रतिबिम्बित सुमेरुका पीला वर्ण भी दृष्टिगोचर होता, किन्तु सम्पूर्ण कलङ्क काला ही दृष्टिगोचर होता है, अतः अनुमान होता है कि बहुत समय बीतनेसे सुमेरु भी कृष्णवर्ण हो गया है, जिसका प्रतिबिम्ब काला ही दृष्टिगोचर होता है ] // 92 // माऽवापदुन्निद्रसरोजपूजाश्रियं शशी पद्मनिमीलितेजाः। अक्षिद्वयेनैव निजाङ्करकोरलकृतस्तामयमेति मन्ये // 93 // मेति / शशी उन्निद्रर्विकसितैः सरोजैः कृत्वा या पूजा तजनितां श्रियं मा अवा. पत्मा स्म लभत / यतः-पद्मनिमीलि कमलसंकोचकं तेजो यस्य सः / विकसितानामपि कमलानां पूजार्थं चन्द्रसविधे क्रियमाणानां चन्द्रतेजसा संकोचस्यैव संभवादु. बिद्रसरोजपूजाश्रियं प्राप्नोति ? / प्रकारान्तरेण प्रामोतीत्याह-निजाभूतस्य रतोम॑गस्याक्षिद्वयेनैवालंकृतोऽयं चन्द्रस्तामुनिद्रसरोजपूजाश्रियमेति प्राप्नोति तन्न. यनयोरुन्निद्रकमलरूपरवादिस्यर्थ इत्यहं मन्ये / अङ्कमृगनेत्राभ्यां कृत्वाऽयं चन्द्रो विकसितकमलाभ्यां पूजामिव शोभां प्राप्नोतीति भावः / एत्येवेति वा // 93 //
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / कमल-सङ्कोचकारक तेजवाला चन्द्रमा विकसित कमलोंकी. पूजा (आदर ) की श्रीको भले नहीं पावे, किन्तु यह ( चन्द्रमा) अपने कलङ्कभूत हरिणके (कमलतुल्य) दोनों नेत्रों में ही उस ( विकसित कमलोंकी पूजा) की शोभाको पाता है, ऐसा मैं मानती हूं। [स्वभावतः कमलसङ्कोचक प्रवृत्ति होनेसे यद्यपि चन्द्रमा विकसित कमलशोमाको नहीं देखता, तथापि कलङ्क-मृगके विकसित कमलके समान नेत्रोंसे उक्त शोभाको देख ही लेता है ] // 93 // य एष जागर्ति शशः शशाङ्के बुधो विधत्ते क इवात्र चित्रम् ? / अन्तः किलैतत्पितुरम्बुराशेरासीत् तुरङ्गोऽपि 'मतङ्गजोऽपि / / 94 // य इति / य एष प्रत्यक्षदृश्यः शशः शशाङ्के जागर्ति स्फुरति, अन विषये क इव बुधश्चित्रमत्राश्चयं विधत्ते ? अपि तु न कोऽपि / किल यस्मादेतपितुरम्बुराशेरन्तमध्ये उच्चैःश्रवःसंज्ञकस्तुरङ्गोऽप्यासीत् ।ऐरावताख्यो मतङ्गजोऽप्यासीत् / यदीयपितुर्मध्ये. ऽश्वगजादिकं भवति, तदीय(पुत्र)मध्ये शशमात्रसंभवे किमाश्चर्यमित्यर्थः // 94 / / ____जो यह ( प्रत्यक्ष दृश्यमान ) शशक चन्द्रमामें स्फुरित होता है, इस विषयमें कौन विद्वान् आश्चर्य करते हैं ? ( पदार्थ-विशेषके मध्यमें जीव-विशेषके रहनेसे किसी विद्वान्को आश्चर्य नहीं होता ), क्योकि इस ( चन्द्रमा ) के पिता समुद्रके मध्यमें ( 'उच्चैःश्रवा' नामका) घोड़ा तथा ( 'ऐरावत' नामका ) हाथी भी था। [जिसके पिताके मध्यमें बड़े-बड़े घोड़ाहाथी-जैसे जीव रहते थे, उसके पुत्र ( चन्द्रमा) के मध्यमें शशक-जैसे छोटे जीवके रहनेमें किसी विद्वान्को कोई आश्चर्य होना उचित नहीं है ] // 94 // गौरे प्रिये भातितमां तमिस्रा ज्योत्स्नी च नीले दयिता यदस्मिन् / शोभाप्तिलोभादुभयोस्तयोर्वा सितासितां मूर्तिमयं बित्ति / / 65 // गौर इति / तमिन्ना तमोबहुलास्य दयिता रात्रिगौरे प्रिये चन्द्रे विषये भातितमाम् / तथा-ज्यौरस्त्री च चन्द्रिकायुक्ता धवलाऽस्य दयिता रात्रिीले प्रागेशे. ऽस्मिश्चन्द्रे नितरां शोभते, भिन्नवणे हि शोभते इत्यर्थः / तस्मातोस्तयोस्तमिस्रा. ज्योत्स्न्योरुभयोरपि विषये स्वस्य शोभाप्राप्तेर्लोभादभिलाषात्तयोरेव वा पत्न्योर्या शोभाप्राप्तिस्तदभिलाषावलश्यामलवत्संबन्धात्तमिस्त्राज्योत्स्न्योः शोभया भवित. व्यमिति / अयं चन्द्रः सितासितां धवलां श्यामलां च मूर्ति बिभर्ति / 'वा' इवार्थः / शोभाप्तिलोभादिवेत्यन्वयः। नीलभागे ज्योत्स्नी प्रियां धारयितुं धवले च तामसीमिति यथासंख्यम् // 95 // अन्धकार ( युक्त रात्रि ) रूपा प्रिया गौरवर्ण प्रियतम (चन्द्र ) में तथा चन्द्रिका (युक्त रात्रि ) रूपा प्रिया कृष्णवर्ण प्रियतम (चन्द्र ) में विशेषतः शोमती है, अत एव मानो यह चन्द्रमा उक्त दोनों की शोभाको पानेके लोमसे (प्रान्तभागमें ) श्वेत तथा ( कलङ्कमें ) कृष्णवर्णकी मूर्तिको ग्रहण करता है / / 95 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। वर्षातपानावरणं चिराय काष्ठौघमालम्ब्य समुत्थितेषु / बालेषु ताराकवकेष्विहैकं विकस्वरीभूतमवैमि चन्द्रम् / / 96 / / वर्षेति / अहं बालेषु तनुषु सूचमरूपेष्वविकसितेषु चेह प्रत्यक्षदृश्येषु तारासु नक्षत्रेष्वेव कवकेषु छत्राकेषु मध्ये चिरकालोत्पन्नस्वाद्विकस्वरीभूतं विकसितमेकं छत्राकमेव चन्द्रममि मन्ये / किंभूतेषु ताराकवकेषु ? चिराय बहुकालं वर्षास्कृती तपे ग्रीष्मतौ च बर्षेषु जलवृष्टिषु आतपेषूष्णेषु च सत्सु अनावरणमनाच्छादितं काष्ठौधं दिक्समूहमेव दारुसमूहमालम्ब्य समुस्थितेषूत्पन्नेषु / वर्षाकाले ह्यनावृतेषु / जलस्तिमितेषु पश्चादुष्णतप्तेषु च काष्ठेषु सूचमस्थूलानि छत्राकाणि भवन्ति / तथा च तारा अल्पकवकानि, चन्द्रस्तु स्थूलकवकमिवेत्युत्प्रेक्षा // 96 // बरसात तथा धूप (ग्रीष्म ) ऋतुमें चिरकालतक बिना ढके हुए दिक्समूह ( पक्षा०काष्ठ-समूह ) का आलम्बनकर पैदा हुए तारारूपी छत्राकों में-से विकसित ( फैला ) हुआ एक छत्राक चन्द्रमाको मानती हूँ। [ बरसात तथा धूप लगनेसे लकड़ी में तारा-जैसे छोटे. छोटे छत्राक ( जिसे-बच्चे 'सांपका छत्ता' कहते हैं ) उत्पन्न होते हैं और वे कुछ समय के बाद विकसित होकर चन्द्रमा-जैसे गोलाकार हो जाते हैं, अत एव मैं उन्हीं तारारूप छोटेछोटे छत्राकोंमें-से विकसित छत्राकको चन्द्रमा मानती हूँ] // 96 // दिनावसाने तरणेरकस्मानिमजनाद्विश्वविलोचनानि | अस्य प्रसादादुडुपस्य नक्तं तमोविपद्वीपवतों तरन्ति / / 67 // -दिनेति / विश्वस्य जगतो विलोचनानि दिनावसाने तरणेः 'सूर्यस्याकस्मादसंभा. वितहेतोनिमज्जनात्प्रतीचीसागरनीरप्रवेशाद्धेतोनक्कं रात्रौ तमोनिमित्तां स्खलनादि. रूपां विपदमेव द्वीपवती महानदीमस्योडुपस्य चन्द्रस्य प्रकाशरूपाप्रसादात्तरन्ति / चन्द्रेण तमो निरस्य सर्व प्रकाशितमिति भावः। अन्येऽपि रात्रौ तरणेनौंकाया अकस्मान्मजनाद्धेतोबडनरूपामापनदीमुडपस्याकस्मादागतस्याल्पयानपात्रस्य प्र. सादात्तरन्ति // 17 // ___ संसारके नेत्र, सायङ्काल में सूर्य ( पक्षा०-नाव ) के सहसा डूब जानेसे रात्रिमें इस उडुप ( तारापति चन्द्रमा, पक्षा०-छोटी नाव ) के प्रसाद (चाँदनी, पक्षा०-कृपा) से अन्धकारके कारण स्खलन आदिरूप विपत्तिरूपा नदीको तैरते हैं। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति सायङ्कालमें नावके सहसा डूब जानेपर छोटीनावकी कृपासे रात्रिमें नदीको पार करता है ] // 97 // . किं नाक्षिण नोऽपि क्षणिकोऽणुकोऽयं भानस्ति तेजोमयबिन्दुरिन्दुः / अत्रेस्तु नेत्रे घटते यदासीन्मासेन नाशी महतो महीयान् // 18 // किमिति / नोऽस्माकममहतां पामराणामपि अधिण नेत्रविषये तेजोमयस्तेजो. रूपो विन्दुरेवायमिन्दुरकुण्या नयनप्रान्तचिपिटीकरणे धवलवर्तुलाकारेण भान्
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________________ 1552 नैषधमहाकाव्यम् / शोभमानः किं नास्ति ? अपि स्वस्मदादिनेत्रेऽपीन्दुर्वर्तत एव; परम्-अणुकोऽल्पी यान् , तथा क्षणिक क्षणमात्रावस्थायी, यावञ्चिपिटीकरणमेव दृश्यत इत्यर्थः / तह्यस्माच्चन्द्रात्तस्य लक्षण्यं कथमत आह-अत्रेमुनेनैत्रे तु पुनस्तेजोमयबिन्दुरयमिन्दुः महीयानितरापेक्षया नितरां महापरिमाण आसीत् / तथा मासेन कृत्वा नाशी प्राप्त विनाशश्चाभूदिति यत् , तद्धटते, एतद्यज्यत इत्यर्थः / यतः कीदृशस्यात्रेः ? महतो महानुभावस्य / 'सर्व हि महतां महत्' इति न्यायेन महतोऽत्रेस्तेजोमयबिन्दुरप्य. यमिन्दुमहापरिमाणश्चिरकालस्थायी चेत्यस्मन्नेत्रवर्तितेजोमयबिन्दोरिन्दोवलक्षण्यं युक्तमेवेति भावः / अणुकः, 'अल्पे' इति कन् / नाशीति, अस्त्यर्थे इनिः // 28 // ____ अतिशय लघु हमलोगोंके भी नेत्रमें क्षणमात्र ( जबतक अङ्गुल्यग्र भागले नेत्रको दबाते हैं तभी तक ) रहनेवाला छोटा सा तेजोमय-बिन्दुरूप शोभता हुआ चन्द्रमा नहीं है क्या ? अर्थात् अवश्य है, किन्तु महानुभाव अत्रिमुनिके नेत्र में एक मासतक ( प्रत्येक अमावास्याको) नष्ट होने वाला तथा अत्यधिक बड़ा जो चन्द्रमा था, वह घटित होता है। [ 'सर्वं हि महतां महत्'-'बड़ोंका सब कुछ बड़ा ही होता है' इस नीति के अनुसार, अत्रिमुनिके नेत्रमें एक मासतक रहनेवाला विशालतम चन्द्र था और लघुतम हमलोगोंके नेत्रमें क्षणस्थायी तेजो. बिन्दुरूप लघुतम चन्द्र है-जो अङ्गुलिके अग्रभागसे नेत्रको दबानेपर दिखलायी पड़ता है ] // 98 // त्रातुं पतिं नौषधयः स्वशक्त्या मन्त्रेण विप्राः क्षयिणं न शेकुः / एनं पयोधिर्मणिभिर्न पुत्रं सुधा प्रभावैर्न निजाश्रयं वा / / 66 / / त्रातुमिति / मृतसंजीविन्यादय ओषधयः स्वशक्त्या स्वसामथ्यन निजरसवीर्यविपाकाभ्यां कृत्वा ओषधीशत्वात् पतिमेनं चन्द्रं क्षयिणं प्रतिदिन कलाक्षयवन्तम् , अथ च-क्षयरोगिणं सन्तं त्रातुं न शेकुः / तथा-विप्रा द्विजराजत्वान्निजस्वामिनं क्षयिणं मन्त्रेण श्रुतिसामर्थेन कृत्वा रक्षितुं न शेकुः / तथा-पयोधिरपि पुत्रं क्षयिण. मेनं मणिभिरनेकप्रकारैरन्तःस्थै रत्नैः कृत्वा रक्षितुं न शशाकेति वचनविपरिणामः / तथा-सुधापि स्वाधारभूतं क्षयिणमेनमजरामरत्वजनकैः प्रभावैः कृत्वा त्रातुं न शशाक / 'वा' समुच्चये / ओषध्यादयः स्वशक्त्यादिरक्षणसाधने सस्यपि पतित्वात्पु. चत्वानिजाश्रयत्वाच्च क्षयातितुं समर्था न बभूवुरिति विशेषोक्त्या पूर्वकर्मजो रोगो महानुभावैरप्यपनेतुं न शक्यत इति व्यज्यते / 'अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव' इत्योषध्यादीनां सामथ्र्य प्रसिद्धम् // 99 // क्षयी ( प्रतिदिन क्षीण होनेवाले, पक्षा०-क्षयरोगसे युक्त ) अपने पति ( ओषधिपति ) चन्द्रमाको ( सजीवनी आदि ) ओषधियां अपनी शक्तिसे नहीं बचा सकों, ब्राह्मणलोक (द्विजराज-ब्राह्मणों के राजा ) चन्द्रमाको मन्त्रसे नहीं बचा सके, समुद्र ( अपनेसे उत्पन्न होने के कारण ) पुत्र चन्द्रमाको मणियोंसे नहीं बचा सका और अमृत भी स्वाश्रय चन्द्रमाको अपने प्रभावोंसे नहीं बचा सका / [ 'क्षयी' शब्दका प्रत्येक चन्द्रके साथ सम्बन्ध करना
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1553 चाहिये / सामर्थ्ययुक्त सञ्जीवनी आदि ओषधियाँ, ब्राह्मण-समूह, समुद्र और अमृत भी क्रमशः क्षयशील अपने पति, राजा, पुत्र और स्वाश्रय चन्द्रमाको नहीं बचा सके, इससे 'पूर्वकृत रोगको कोई भी नहीं टाल सकता' यह सिद्धान्त अटल है ] // 99 // मृषा निशानाथमहः सुधा वा हरेदसौ वा न जराविनाशौ / पीत्वा कथं नापरथा चकोरा विधोमरीचीनजरामराः स्युः ? // 10 // मृषेति / निशानाथस्य चन्द्रस्य महस्तेजः सुधा वा पीयूषमेवेति लोकवादो मृषा असत्य एव वा भवेत् / वा अथवा, यदि चन्द्रतेजः सुधैवेति लौकिकप्रवादः सत्य एव, तासौ चन्द्रतेजोरूपा सुधा जराविनाशौ जरामरणे न हरेद्विनाशयेदित्य. ङ्गीकार्यम् / चन्द्रतेजः सुधा नैवेति वाऽङ्गीकार्यम्, अथ चैतद्रपा सुधापि जरामरणे न नाशयतीत्यङ्गीकार्यमित्यर्थः / अपरथान्यथा यदि चन्द्रतेजः सुधेति प्रवादः सत्यः, तद्रूपा सुधा जरामरणे विनाशयेत् , तर्हि चकोराख्याः पक्षिणो विधोमरीचीन्पीत्वापि कथं किमिति न अजरामराः स्युर्जरामरणरहिता भवेयुः / चन्द्रतेजसः सुधारवे, एतस्याश्च सुधाया जरामरणविनाशे सामर्थ्यसद्भावे, तत्पाने चकोरैरप्यजरामरैर्भा. व्यम्, न च ते तथा, तस्मात्तत्तेजसः सुधात्वं वा मृषा भवेत् , सुधाभूतस्यापि वा जरामरणापहारे सामर्थ्य नास्तीत्यन्यतरदगीकार्यम् / तथा-'सुधा प्रभावेन निजाश्रयं वा' इति पूर्वश्लोकांशसमाधानमित्याशयः / 'अजरामरीस्युः'-इति पाठे विः // 10 // _ 'चन्द्रमाका तेज अमृत है' यह ( लोकप्रसिद्ध बात ) असत्य है, अथवा ( यदि वह सत्य है तो ) अमृत बुढ़ापा तथा मृत्युको दूर नहीं करता है ( ऐसा मानना चाहिये ), अन्यथा ( यदि अमृत बुढ़ापा तथा मरणको दूर करनेवाला है तो) चकोर चन्द्रमाके ( अमृतरूप) किरणोंको पीकर अजर-अमर क्यों नहीं होते ? (या तो 'अमृत जरा-मरणको दूर करनेवाला है' लोककथनको असत्य मानना पड़ेगा, अथवा 'चन्द्रतेज अमृत है' इस लोककथनको असत्य मानना पड़ेगा) // 100 / / / वाणीभिराभिः परिपक्त्रिमाभिर्न रेन्द्रमानन्दजडञ्चकार / मुहूर्तमाश्चर्यरसेन भैमि हैमीव वृष्टिस्तिमितञ्च तं सा / / 101 // वाणीभिरिति / सा भैमी आभिः पूर्वोक्ताभिः परिपाकेन निवृत्ताभिः परिणत. कवित्वशक्तितया प्रसादादिगुणयुताभिर्वाणीभिः कृत्वा तं नरेन्द्रमानन्दजडं हर्षपरवशं चकार / तथा-मुहूर्तमद्भुतापरनाम्नाश्चर्येण रसेन, अथ च-तद्रूपेण जलेन हैमी तुषारसंबन्धिनी वृष्टिरिव भैमी स्तिमितमतिस्नेहात्प्राप्तस्तम्भं च, अथ चआद्र चकार / हिमवृष्टिर्यथाऽन्यं जडमाद्रं च करोति, तथेयमप्यानन्दजडं सातिस्नेह च चकारेत्यर्थः। परिपक्रिमाभिः, डिवत्वानिवृत्तेऽर्थे क्रिः, क्रमप्॥१०१॥ ___ कवित्वशक्तिके परिपाकसे रचित इने (22 / 59-100) वचनोंसे 'दमयन्तीने राजा (नल ) को आनन्दजड (हर्षपरवश ) कर दिया, तथा ( अतिशीतल होनेसे ) अद्भुत जलसे
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / तुषारवृष्टिके समान अद्भुत रससे सुवर्णवत् गौरवर्णा दमयन्तीने उस राजा नलको जड ( आनन्दविमोर, आर्द्र) बना दिया / [ दमयन्तीकृत चन्द्रवर्णनको सुनकर नल आश्चर्यचकित हो गये ] // 101 // इतो मुखाद्वागियमाविरासीत्पीयूषधारामधुरेति जल्पन् / अचुम्बदस्याः स मुखेन्दुबिम्बं संवावदूकश्रियमम्बुजानाम् // 102 / / इत इति / इत्येवं जल्पन् वदन् स नलोऽम्बुजानां संवावदूका नितरां संवादिनी श्रीः शोभा यस्य तादृशं कमलतुल्यशोभमस्या मुखेन्दुबिम्बमचुम्बत् , चन्द्रकमल. तुल्यं भैमीमुखं प्रीत्यतिशयादचुम्बदित्यर्थः / इति किम् ? हे भैमि ? इयमुक्तप्रकारा पीयूषधारावन्मधुरा वाक् इतः प्रत्यक्षदृश्याद्भवन्मुखादाविरासीत् निःसृतेति / इत इत्यनेन सामीप्याभिनयकारिणा करेण भैमीमुखं चिबुके कृतमिति ध्वन्यते / मुखस्येन्दुबिम्बत्वेन च पीयूषधारासंबन्धौचिती सूच्यते / तथा च पीयूषधारया मधुरे. त्यपि व्याख्येयम् / 'संवावदूक-' इत्यादिना च भैम्याः पद्मिनीत्वं प्रसिद्धम् / चन्द्रबिम्बस्य कमलैः सह विसंवादो विरोधित्वात् , एतन्मुखचन्द्रबिम्बस्य तु कमलैः सह संवादः कमलसौभाग्यभाक्त्वादिति प्रसिद्धचन्द्रबिम्बादेतन्मुखबिम्बमधिकमिति सूच्यते / अत्यर्थ संवदति संवावदूका, संपूर्वोऽयं वदतिमन्यां वर्तते // 102 // 'इस मुखसे अमृतधारासे भी मधुर यह वाणी ( 22 / 59-100 ) निकली है' यह कहते हुए नलने कमलके समान शोभनेवाले इसके मुखरूप चन्द्रबिम्बका चुम्बन कर लिया / [चन्द्रबिम्बमें कमलकी शोमासे संवाद नहीं होता, परन्तु दमयन्तीके मुखरूप चन्द्रबिम्ब कमलके समान शोमासे संवाद ( मेल-सङ्गति ) होता है, अतः इसका मुखका चन्द्रसे मी विशिष्ट गुणयुक्त होना सूचित होता है ] // 102 / / प्रियेण साऽथ प्रियमेवमुक्ता विदर्भभूमीपतिवंशमुक्ता / स्मितांशुजालं विततार तारा दिवः स्फुरन्तीव कृतावतारा / / 183 // प्रियेणेति / प्रियेण एवं 'इतो मुखात्-' इत्यादिरूपं प्रियं वचनमुक्ता भाषिता विदर्भभूमीपतेवंशेन कुलेन मुक्ता जनिता। तथा-स्फुरन्ति दीप्यमानकान्तिः सोल्लासा सा भैमी अथ नलवचनानन्तरं स्मितांशुजालं विततार, तदेव नलाय प्रीतिदानमिव ददावित्यर्थः / केव ? दिवः सकाशात् क्षीणपुण्यतया स्वेच्छया वा कृतावतारा भूलोकमागता रोहिणी तारेव स्फुरन्ती किरणजालं विततारेवेति उत्प्रेक्षोपमा वा। वंशः कुलमेव वंशो वेणुस्तत्र जाता देवधार्या मुक्ता मौक्तिकरूपा / 'कृतावतारा' इत्यत्र तरणं तरः, 'ऋदोरप' तदन्तात्प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽणि पश्चात् 'भव'शब्देन सह 'सह सुपा' इति समासः // 103 // ___प्रिय ( नल ) से इस प्रकार ( 22 / 102) कथित, विदर्भराज (भीम) के वंश ( कुल, पक्षा०-बांस ) का मोती उस दमयन्तीने (पुण्यक्षय, या स्वेच्छासे) आकाशसे नीचे
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1555 आयी हुई (रोहिणी ) ताराके समान स्मितके किरण-समूहको फैला दिया। [नलके वैसा कहने पर दमयन्तीने मुस्कुरा दिया। बांससे मोती उत्पन्न होनेका कारण 'भास्ववंशकरीरता...... ( 12 / 10 ) की टिप्पणी में देखें ] // 103 // स्ववर्णना न स्वयमहतीति नियुज्य मां त्वन्मुखमिन्दुरूपम् | स्थानेऽत्युदास्ते शशिनः प्रशस्तौ घरातुरासाहमिति स्म साऽऽह।।१०४॥ स्वेति / सा धरातुरासाहं भूमीन्द्रमित्याह स्म / इति किम् ? हे प्रिय ! इन्दुरूपं स्वन्मुखमिति हेतोश्चन्द्ररूपात्मस्तुतौ मां नियुज्याज्ञाप्य शशिनः प्रशस्तौ वर्णनविष. येऽत्युदास्तेऽतितरामुदासीनं भवति / एतत्स्थाने युक्तम् / हेतुमेवाह-इति किम् ? 'सतामेतदकर्तव्यं परनिन्दाऽऽत्मनः स्तुतिः' इत्यादिवचनात्स्वयमात्मनैव स्वस्थ वर्णना स्तुति हंति न युक्तेति / इयत्पर्यन्तं मया चन्द्रो वर्णितः, इदानीं त्वया वर्णनीयः, तुष्णीभावो वा युक्त इत्याशयेन भैमी चन्द्रस्तुती तं सोस्प्रासं प्रावर्तयदिति भावः / 'तुरासाहम्' इत्यत्र तृतीयसर्गे 'धरातुरासाहि-' इत्येतच्छलोकस्था शा ज्ञातव्या, तत्रोत्तरम्-इन्दुरूपं स्वन्मुखं, चन्द्ररूपात्मस्तुती मां नियुज्य शशिनः प्रशस्तौ अत्युदास्ते / साहं धरावदतुराऽनुत्तालाऽवेगा वा, पृथ्वीवद्गम्भीरेत्यर्थः। अर्थात्तमाह स्मेति ज्ञातव्यम् // 104 // ____ 'अपनी प्रशंसा स्वयं करना उचित नहीं है। इस कारणसे चन्द्ररूप आपका मुख मुझे नियुक्तकर ( 22 / 58-60) चन्द्रमाके वर्णन करनेसे स्वयं उदासीन हो रहा है', ऐसा उस (दमयन्ती) ने राजा नलसे कहा / ( अथवा-......'उदासीन हो रहा है, वह मैं पृथ्वीके समान गम्भीर हूं' ऐसा उसने कहा ) / / 104 / / तयेरितः प्राणसमः सुमुख्या गिरं परीहासरसोत्किरां सः / भूलोकसारः स्मितवाक् तुषारभानु भणिष्यन् सुभगां बभाण / / 10 / / तयेति / स भूलोके सारः श्रेष्ठतमो नलः स्मितवाक तुषारभानु चन्द्रं भणिष्यन् वर्णयिष्यन् सन् सुभगां सौभाग्यवतीं भैमी बभाण / किंभूत ? तथा सुमुख्या भैम्या परिहासरसस्योकिरामुद्भावयित्रीं गिरमीरित उक्तः / तथा-प्राणसमोऽतिप्रेयान् / तया चन्द्रवर्णने ईरितः सन् परिहासरसोस्किरां गिरं सुभगां यथा तथा बभाणेति वा। उस्किराम् , 'इगुपध-' इति कः / पूर्वेण षष्ठासमासः / भणिष्यन् , हेतौ लुटः शता॥ 105 // भूलोकश्रेष्ठ तथा.( दमयन्तीके ) प्राणतुल्य वे (नल) सुमुखी (दमयन्ती) के ऐसा ( 22 / 104 ) कहनेपर हँसते तथा आगे चन्द्रका वर्णन करते हुए सुन्दरी ( दमयन्ती ) से बोले // 105 // तवानने जातचरों निपीय गीति तदाकर्णनलोलुपोऽयम् / हातुं न जातु स्पृहयत्यवैमि विधुं मृगस्त्वद्वदनभ्रमेण // 106 / /
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________________ 1556 नैषधमहाकाव्यम्। तवेति / हे प्रिये ! अयं मृगः तवानने जातचरी भूतपूर्वां गीति स्वरमाधुरी निपीय सादरमाकण्यदानीमपि तस्या भवद्गीतेराकर्णनलोलुपोऽतितरां लुब्धोऽति. सादृश्यात्वद्वदनभ्रमेण विधुं हातुं जातु कदाचिदपि न स्पृहयतीत्यहमवैमि; 'मृगा हि गानप्रिया भवन्ति' इति चन्द्रं स्वन्मुखभ्रान्त्या त्यक्तुं नेच्छतीत्यहं शङ्क इत्यर्थः। जा. तचरी, भूतपूर्वे चरट्' / लोलुपः, यङन्तापचाद्यचि 'यङोऽचि च' इति यङोलुक् // 'तुम्हारे मुखमें भूतपूर्व ( अमतरसप्रवाहवत् कर्णप्रिय ) गीति ( गाने ) को अच्छी तरह पीकर अर्थात् सुनकर उस (गीति ) को सुनने के लिए लोभी यह ( चन्द्रमामें दृश्यमान कलङ्कात्मक ) मृग भ्रमसे तुम्हारे मुखसे कभी भी चन्द्रमाको नहीं छोड़ना चाहता है, ऐसा मैं जानता हूँ। [ गानप्रिय होने से यह मृग चन्द्रमाको ही तुम्हारा वह मुख समझकर उसे कमी नहीं छोड़ता है, जिस तुम्हारे मुखसे पहले इसने कर्णप्रिय मधुर स्वरवाली गीतको सुन चुका है ] / / 106 // इन्दोर्धमेणोपगमाय योग्ये जिह्वा तवास्ये विधुवास्तुमन्तम् / गीत्वा मृगं कर्षति भन्त्स्य ता कि पाशोबभूवे श्रवणद्वयेन ? ||107|| इन्दोरिति / अतिसादृश्यादिन्दुरेवेदमितीवेन्दोभ्रंमेण मृगस्योपगमाय योग्ये प्राप्तुम, तवास्ये वर्तमाना जिह्वा की गीत्वा वर्णस्वरमाधुर्यं कृत्वा विधुरूपं वास्तु वसतिगृहं तद्विद्यते यस्य तं विधुवास्तुमन्तं चन्द्रमध्यस्थायिनमपि मृगं कर्षतु / गीते. मधुरतमत्वान्मगस्य च प्रियगानस्वारस्वसमीपमानयस्वित्यर्थः। तदाकर्षणसाधनमु. स्प्रेक्षते–भन्स्यता आगमिष्यतो मृगस्यात्रैव निवासार्थ बन्धनं करिष्यता श्रवणद्वयेन पाशीबभूवे किम् ? तद्रूपया बन्धनरज्ज्वा समाकर्षस्वित्यर्थः / अन्यापि शबरी गीत्या मगमाकृष्य पाशेन बध्नाति / भवन्मुखं निष्कलङ्कमृताधिकगीतियुक्तं च; चन्द्रस्तु सकलङ्क इति भावः / चन्द्रवर्णनावसरेऽपि मध्ये मध्ये भैमीमुखवर्णनानुरागातिशय सूचनार्था / अयं श्लोकः क्षेपक इति केचित् // 107 // . ( चन्द्रमाके भ्रम ( अत्यन्त समानता होने के कारण तुम्हारे मुखको ही चन्द्रमा जानने)से ( मृगको ) आने के लिए योग्य तुम्हारे मुखमें ( स्थित ) जीम गानेसे चन्द्रमें निवास करने. वाले मृगको खींचता है और ( उस मृगको ) भविष्यमें बाँधनेवाले ( आकर्षणके समानभूत ) दोनों नेत्र रस्सी हो गये हैं क्या ? : [ मधुरगीतले आकृष्ट होना मृगका स्वभाव होता है। दूसरी कोई भी शपरी गाने के वशीभूत मृगको रस्सीसे बाँधकर खींचती है ] // 107 / / गगनस्थोऽपि मृगो भैमीमखगीति कथमशृणोदित्याशङ्कयाह आप्यायनाद्वा रुचिभिः सुधांशोः शैत्यात्तमःकाननजन्मनो वा / यावन्निशायामथ धर्मदुःस्थस्तावबजत्यह्नि न शब्दपान्थः ||108|| आप्यायनादिति / शब्दरूपः पान्थो नित्मपथिको निशायां यावद्बजति ताव दथ पश्चारसाकल्येन वा अहि न गच्छति, यस्माहिने धर्मेणातपेन दुःस्थः संतप्तः,
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________________ द्वाविशः सर्गः। 1557 तस्मादिनेऽल्पमेव गच्छतीत्यर्थः / रात्रौ दूरागमने हेतुमाह-सुधांशोरमृतरूपाभी रुचिभिराप्यायनादुज्जीवितबलत्वाद्वा तम एव काननं वनं तस्माजन्म यस्य गाढन्ध. कारजाताच्छत्याद्वा तेजसोऽभावे तमसः संभवादौष्ण्याभावाच्छैत्यम् / अत एव रात्री बहु गच्छति, दिने चोष्णेन श्रान्त इव बहु न गच्छति / शब्दो हि रात्री स्वभावा. दतिदूरेऽपि श्रयते; दिवा तु न तथा। पथिकोऽपि रात्रौ शैत्याद्रं गच्छति, दिने चाल्पम् / दूरश्रवणप्रतिपादकोऽयं श्लोकः॥ 108 // चन्द्र-किरणोंसे शक्तिके विशेष उज्जीवित होनेसे या-अन्धकाररूपी वनमें उत्पन्न ठण्डकसे, नित्यगमनशील शब्दरूपी पथिक ( दिनमें ) धूपसे सन्तप्त होने के कारण रात्रिमें जितना ( अधिक दूर ) जाता है, उतना ( अधिक दूर ) दिनमें नहीं जाता। [जिस प्रकार सर्वदा चलनेवाला पथिक दिनमें धूपसे सन्तप्त होने के कारण रात्रिमें जितना अधिक दूरतक जाता है, उतना दिनमें नहीं जाता; उसी प्रकार शब्द मी रात्रिके बराबर दिनमें नहीं जाता / शब्दका दिनकी अपेक्षा रात्रिमें बहुत दूरतक सुनायी पड़ना स्वभाव होनेसे तुम्हारे मुखसे गायी गयी गीत आकाशमें चन्द्रमध्यस्थ मृग भी सुनकर आकृष्ट हो जाता है]॥१०८॥ दूरेऽपि तत्तावकगानपानाल्लब्धावधिः स्वादुरसोपभोगे / अवज्ञयैव क्षिपति क्षपायाः पतिः खलु स्वान्यमृतानि भासः॥ 106 / / दूरेऽपीति / हे प्रिये ! खलु निश्चितं पायाः पतिश्चन्द्रो भासश्चन्द्रिका एव स्वान्यमृतानि क्षिपति अधो मुञ्चति / किंभूतः? दूरेऽप्यतितरां देशष्यवधानेऽपि तत्प्रसिद्धं मधुतरं तावकं गानं तस्य पानात्सादरश्रवणादेतोः स्वादुरसोपभोगे माधुर्यातिशयानुभवे विषये लब्धावधिः प्राप्तमर्यादः। उत्प्रेक्षते-अवज्ञयेव अनुभूतभवद्गीतमाधुर्यापेक्षयाल्पमाधुर्यतयावमाननयेवेत्यर्थः / अयं श्लोको भिन्न एव, नतु युग्मम् // 109 // उस कारण (नित्यगामी शब्दरूप पथिकके रात्रि में दूरतक जाने ) से ( अथवा-उस प्रसिद्धतम ) तुम्हारे गानेको पीने अर्थात सुननेसे स्वादिष्ट रसके उपभोगके विषयमें सीमातक पहुँचा हुआ चन्द्रमा तिरस्कारसे ही अमृतमय अपनी किरणोंको ( नीचे ) फेंकता है [ तुम्हारे गानेको सुनकर चन्द्रमा माधुर्य रसकी चरमसीमा तक पहुँच गया, और अपने अमृतमय किरणों को तुम्हारे मुखसे गानेसे हीन स्वादवाली मानकर नीचे फेंकने लगा। लोकमें भी कोई व्यक्ति उत्तम पदार्थ मिलने पर उससे हीन पदार्थको नीचे फेंक देता है ] // अस्मिन्न विस्मापयतेऽयमस्मांश्चक्षुर्बभूवैष यदादिपुंसः / तदत्रिनेत्रादुदितस्य तन्वि ! कुलानुरूपं किल रूपमस्य / / 110 // अस्मिन्निति / हे तन्वि ! एष चन्द्रः आदिपुंसः श्रीविष्णोमि चक्षुर्बभूवेति यत् / अस्मिनेत्रभवनविषयेऽयं नेत्रभूतश्चन्द्रोऽस्माकं विस्मापयते आश्चर्य न प्रापयति, अन्नार्थेऽस्माकमाश्चर्य न भवतीत्यर्थः / किन यस्मादेतोरत्रिनेत्रादुदितस्योत्पन्न.
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________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्यास्य तच्चतुर्भवनं कुलानुरूपं कुलोचितं स्वरूपम् / नेत्ररूपाकारणाजातस्य नेत्रीभवनमुचितमेव / तस्मादस्य पुराणपुरुषनेत्रभवने न किंचिदस्माकं चित्रमित्यर्थः / विस्मापयते, 'नित्यं स्मयतेः' इत्यात्वम्, 'भोम्योहे तुभये' इति तङ्। अस्मान् , जनान्तरापेक्षया बहुत्वम् // 110 // हे तन्वि ! यह चन्द्रमा जो आदिपुरुष (विष्णु भगवान् ) का ( दहना ) नेत्र हुआ, इस विषयमें हमलोगों को आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि 'अत्रि' मुनिके नेत्रसे उत्पन्न इस ( चन्द्रमा ) का रूप ( विष्णु भगवान्का नेत्र होना ) कुलके योग्य ही है। [ 'अत्रि' के नेत्रसे उत्पन्न होनेवाले चन्द्रमाका विष्णु भगवान्का नेत्र होना सर्वथा उचित ही है ] // 110 // आभिमृगेन्द्रोदरि ! कौमुदीभिः क्षीरस्य धाराभिरिव क्षणेन | अक्षालि नीली रुचिरम्बरस्था तमोमयीयं रजनीरजक्या / / 111 / / आभिरिति / हे मृगेन्द्रोदरवत्कृशमुदरं यस्यास्ताहशि ! रजन्येव रजकी तया क्षीरस्य दुग्धस्य धाराभिरिव दृश्यमानाभिर्धवलतराभिराभिः कौमुदीभिः कृत्वाऽम्ब. रस्था गगनस्था तमोमयीयं नीली कजलवरकाली रुचिः क्षणमात्रेणाक्षालि निरस्ता। यथा रजक्या वसनस्था काली कान्तिर्दुग्धधाराभिः क्षणेन क्षात्यते / तदुक्तं कला. कोपे-'तैलं घृतेन, तच्चोष्णजलैर्दुग्धेन कज्जलम् / नाशयेदम्बरस्थं तु मलं क्षारेण सोमणा।' इति / चन्द्रिकाभिर्गगनं निर्मलीकृतमिति भावः। मृगेन्द्रोदरि, 'नासि. कोदर-' इति ङीष् / ओषधिप्राणिवाचिस्वाभावान्नीलीव नीलोति कोष समर्थनीयः / रजकी, वुनः षित्वान्डीष // 111 // हे सिंहके समान कृश कटिवाली (प्रिये दमयन्नि ) ! रात्रि रूपिणी रजको ( कपड़ा धोनेवाली-धोबिन ) ने दूधको धाराके समान ( स्वच्छतम ) इन किरणोंसे, अन्धकारमयी तथा आकाशस्थ ( पक्षा-वस्त्रस्य ) कालिमाको क्षणमात्रमें (अतिशीघ्र) धो दिया है // 111 // पयोमुचां मेचकिमानमुच्चैरुच्चाटयामास ऋतुः शरद्या। अपारि वामोरु ! तयाऽपि किञ्चिन्न प्रोछितुं लाञ्छनकालिमाऽस्य // पय इति / हे वामोरु ! या शरहतुः पयोमुचां मेघानां वर्षाकालीन मुचकरति. शयितमपि मेचकिमानं कालिमानमुच्चाटयामास / तया कालिमापनयने दृष्टसाम. खंया शरदाप्यस्य चन्द्रस्थ लान्छनरूपः कालिमा किंचिदपमपि प्रोन्छितुं स्फोट. यितुं नापारि / शरदच्छे चन्द्रे मलिनः कलङ्कोऽतितरां शोभत इति भावः। मेचकिमानं, वर्णवाचित्वादिमनिच // 112 // __ हे वामोरु ! जिस शरद् ऋतुने मेघोंकी अत्यधिक कालिमाको दूर कर दिया, वह शरद् ऋतु भी इस ( चन्द्रमा) के थोड़े लाञ्छनको दूर नहीं कर सका। [ जो वर्षा ऋतुमें उत्पन्न मेघरूपी विशाल चन्द्रकलङ्कको नष्ट कर दिया, उसका थोड़े से चन्द्रकलंकको नष्ट नहीं कर सकना आश्चर्य है ] // 112 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1556 एकादशैकादशरुद्रमौलीनस्तं यतो यान्ति कलाः किमस्य ? / प्रविश्य शेषास्तु भवन्ति पञ्च पञ्चेषुतूणीमिषवोऽर्द्धचन्द्राः ? // 113 / / एकेति / अस्तं यतो गच्छतोऽस्य चन्द्रस्यकादश कला एकादशानां रुद्राणां मौलीन् प्रति यान्ति किल गच्छन्तीव / शेषाः पञ्च कलास्तु पुनः पञ्चेषोः कामस्य तूणीमल्पमिषुधिं प्रविश्यार्द्धचन्द्राकारत्वाद चन्द्राख्या इषवो भवन्ति / विनाशसमये. ऽप्ययं परापकारनिरत इति ध्वन्यते / तूणीम् , अल्पत्वविवक्षया स्त्रीत्वे गौरादित्वा. न्डीष , 'अर्धचन्द्र'शब्दो रूढः॥ 113 // ___ अस्त होते हुए इस ( चन्द्रमा) की ग्यारह कलाएँ ग्यारह शिवजीके मस्तकोंमें प्रविष्ट होती है क्या ? तथा ( सोलह चन्द्र-कलाओं में-से ) शेष पांच चन्द्र-कलाएँ पञ्चवाण ( पांच बाणवाले-कामदेव ) के छोटे तरकसमें घुसकर अर्द्धचन्द्ररूप बाण होती हैं / [इस प्रकार यह चन्द्रमा सर्वदा परापकारमें ही निरत रहता है। रुद्रके 11 नाम ये हैं-'अज 1, एकपाद् 2, अहिबध्न 3, पिनाकी 4, अपराजित 5, त्र्यम्बक 6, महेश्वर 7, वृषाकपि 8, शम्भु.९, हरण 10 और ईश्वर 11 / रुद्र के अन्य 11 नामोंके भेद अमरकोषके मत्कृत 'मणिप्रभा' नामक अनुवादके 'रुद्र (1 / 1 / 10)' शब्दके परिशिष्टमें देखना चाहिये ] // 113 // निरन्तरत्वेन विधाय तन्वि ! तारासहस्राणि यदि क्रियेत / सुधांशुरन्यः स कलङ्कमुक्तस्तदा त्वदास्यश्रियमाश्रयेत // 114 // निरन्तरेति / हे तन्वि ! ताराणां नक्षत्राणां सहस्राणि निरन्तरत्वेनान्योन्य. संबन्धितया विधायकीकृत्य यदि अन्यः सुधांशुः क्रियेत निर्मायेत तदा तर्हिस चन्द्र स्ताराणामकलङ्करवात्तन्मयस्वास्कलङ्केन मुक्तः सन् स्वदास्यस्य श्रियं शोभामाश्रयेत / क्रियातिपत्तेरविवक्षितत्वाल्लङभावः // 114 // ___ हे तन्वि ! यदि हजारों ताराओंको एकत्र रखकर सम्मिलित कर दें तो कलङ्करहित वह दूसरा चन्द्रमा तुम्हारे मुख की शोभाको प्राप्त करे / [ ऐसा करना अशक्य होनेसे तुम्हारे मुखकी शोभाको यह वर्तमान चन्द्रमा कदापि नहीं पा सकता] / / 114 / / यत्पद्ममादित्सु तवाननीयां कुरङ्गालक्ष्मा च मृगाक्षि ! लक्ष्मीम् / एकार्थलिप्साकृत एष शङ्के शशाङ्कपङ्केरुहयोर्विरोधः / / 115 // यदिति / हे मृगाक्षि ! यत्पनं तवाननीयां मुखसंबन्धिनी लक्ष्मीमादिसु प्रहीतु. कामम्, कुरङ्गालचमा चन्द्रश्च तव मुखशोभां ग्रहीतुकामः, तयोः शशाङ्कपङ्केरुहयोरेष विरोधस्वन्मुखशोभालक्षण एकोऽर्थस्तस्य लिप्साकृतः प्राप्तिवान्छानिमित्त एवे. स्यहं शङ्के। एकद्रव्याभिलाषित्वेन विरोधः सुप्रसिद्धः। चन्द्रपद्मयोरपि विरोधः प्रसिद्ध एव / चन्द्रपद्माभ्यां सकाशाते मुखमधिकमिति भावः। आदित्सु, चन्द्रपचे लिङ्गविपरिणामः लघमी, 'न लोका-'इति षष्ठीनिषेधः // 115 // हे मगनयनि ! जिस कारणसे कमल तथा चन्द्रमा तुम्हारे मुखकी शोभाको पाना
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________________ 1560 नैषधमहाकाव्यम् / चाहते है, उस कारणसे चन्द्रमा तथा कमलका विरोध एक वस्तु ( तुम्हारे मुखको शोमा) को पानेकी इच्छासे ही है, ऐसी मैं सम्भावना करता हूँ। [ लोकमें भी एक वस्तुको ही पाने की इच्छा करनेवाले दो व्यक्तियों में निरन्तर विरोध रहता है। तुम्हारे मुखकी शोमा चन्द्रमा तथा कमल-दोनोंसे अधिक है ] // 115 // लब्धं न लेखप्रभुणाऽपि पातुं पीत्वा मुखेन्दोरधरामृतं ते / निपीय देवविधसीकृतायां घृणां विधोरस्य दधे सुधायाम् || 116 / / लब्धमिति / हे प्रिये ! अहं सर्वैरपि देवैर्विघसीकृतायां निःशेषं पीत्वा भुक्त शेषीकृतायाम्, अस्य विधोः सुधायां घृणां जुगुप्सां दधे धारयामि / किं कृत्वा ? लेखानां देवानां प्रभुणेन्द्रेणापि पातुं न लब्धं, कृतप्रयत्नस्यापितस्यावरणात्तेन दुष्प्रापं केनाप्यनुच्छिष्टं ते मुखेन्दोरधररूपममृतं निपीय पीत्वा / चन्द्रसुधायाः सकाशाव. दधरामृतं स्वादुतरमिति भावः / अन्योऽप्युच्छिष्टमोजने जुगुप्सां धारयति // 11 // (हे प्रिये ! ) देवोंके स्वामी ( इन्द्र) को भी तुम्हारे जो अधरामृतपीने को नहीं मिला, उस अधरामतको पीकर मैं देवों के द्वारा पीकर जूठा किये गये इस चन्द्रमा के अमृतमें घृणा करता हूँ। [ लोकमें भी कोई मला व्यक्ति दूसरोंका जूठा खानेमें घृणा करता है। चन्द्रामृतकी अपेक्षा तुम्हारा अधरामृत अधिक स्वादिष्ट है ] // 116 / / एनं स बिभ्रद्विधुमुत्तमाङ्गे गिरीन्द्रपुत्रीपतिरोषधीशम् / अनाति घोरं विषमब्धिजन्म धत्ते भुजङ्गन विमुक्तशङ्कः / / 117|| एनमिति / स गिरीन्द्रपुत्रीपतिः शंभुरेनमोषधीशं विधुमुत्तमाङ्गे शिरसि बिभ्रद्धारयन् सन्नधिजन्म समद्रोत्पन्नं घोरं दारुणमपि विषमश्नाति, विमुक्तशङ्को भुजङ्गं सर्पराज वासुकिं च धत्ते / शंभोरप्युपकारकत्वेन पूज्यः श्रेष्ठोऽयमिति भावः / ओष. विस्वामिनोऽस्य शिरसि धारणादिव निःशकं विषं भक्षयति, सपश्चि धारयतीत्युप्रेक्षा। भुजङ्गम, जात्यभिप्रायेणेकवचनं वा // 117 // वे ( प्रसिद्धतम ) पार्वतीपति (शिवजी ) ओषधिपति (ओषधियों के स्वामी होनेसे सर्वश्रेष्ठ ओषधिरूप ) इस चन्द्रमाको मस्तकपर धारणकर निर्भय होकर समुद्रसे उत्पन्न भयङ्कर ( 'इलाहल' नामक ) विषको पीते हैं और सर्पको धारण करते हैं। [इसीसे शिवजीको हलाहल तथा सर्पका विष कोई क्षति नहीं पहुँचाते / लोकमें भी विष नाशक औषधादि धारण करनेसे लोक सादिके द्वारा नहीं मरते हैं। अत एव यह चन्द्रमा शिवजीका भी उपकारी है ] // 117 // नास्य द्विजेन्द्रस्य बभूव पश्य दारान गुरोर्यातवतोऽपि पातः / प्रवृत्तयोऽप्यात्ममयप्रकाशान् नह्यन्ति न ह्यन्तिमदेहमाप्तान् / / 118 / / नेति / हे प्रिये ! द्विजेन्द्रस्य अस्य चन्द्रस्यास्य गुरोबृहस्पतेर्दारान् भार्या यातवतो गच्छतोऽपि गुरुतल्पगामिनोऽपि पातः स्वर्गाद् भ्रंशः, अथ च-पातित्यम्, न बभूव
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1561 'पश्य, चित्रमेतद्विलोकयेत्यर्थः / अथवा युक्तमेतत्-प्रवृत्तयो धर्माधर्महेतुकर्मारम्भा अपि आत्ममय आत्मस्वरूपमेव प्रकाशो येषां तान्प्रकाशान्तरनिरपेक्षान्प्रकाशरूपान् , अथ च-परमात्मैव प्रकाशो येषां तान् परमात्मस्वरूपातिरिक्तप्रकाशानभिज्ञान्स्वप्रकाशास्मवादिनो ब्रह्मज्ञानिनोऽन्तिमदेहं तेजोरूपशरीरं पूर्णतां वा प्राप्तान् , अथ च-अनन्तरभाविमोक्षत्वात्प्राचीनशरीरप्रवाहापेक्षया शेषं शरीरं प्राप्तान् जीवनमुक्तान्पुरुषान्हि यस्मान्न नह्यन्ति, शुभाशुभफलबन्धेन न संबध्नन्तीत्यर्थः। 'तेषां तेजो विशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते' इति प्रामाणिकवचनात्तेजोरूपस्यास्य चन्द्रस्य पातो नाभूदिति युक्तमेव, नात्र चित्रमिति भावः / चन्द्रोऽप्यात्ममयप्रकाशः अन्ति. मदेहं संपूर्णतां प्राप्तश्च // 118 // __गुरु (बृहस्पति, पक्षा०-गुरु = दीक्षागुरु या अध्ययनगुरु ) की स्त्रोके साथ सम्भोग करते हुए भी यह चन्द्रमा ( पक्षा०-ब्राह्मग) पतित नहीं हुआ अर्थात् स्वर्गसे नीचे भ्रष्ट नहीं हुआ ( पक्षा-गुरुपत्नीसम्भोगजन्य पातकसे युक्त नहीं हुआ यह आश्चर्य है, अथवा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ), क्योंकि स्वयं प्रकाशमान ( पक्षा०-परमात्मरूप प्रकाशको प्राप्त आत्मवादी ब्रह्मशानी ) तथा तेजोरूप शरीर या पूर्णता (अथवा-इसी देहके बाद मोक्ष जानेवाले होनेसे अन्तिम शरीर ) को पाये हुए ( जीवन्मुक्त ) लोगोंको धर्माधर्मके कारणभूत कार्यारम्मके बन्धनमें नहीं डालते हैं / [ परमात्मप्रकाशवाले एवं अन्तिम देहधारी जीवन्मुक्त ब्राह्मण-जैसे उच्च वर्णवाले लोगोंको भी जिस प्रकार धर्माधर्ममूलक कार्यारम्भका कोई बन्धन नहीं होता, उसी प्रकार गुरुपत्नीसम्भोग करनेवाले भी स्वयं प्रकाशमान इस चन्द्रमाको दोष नहीं लगना उचित ही है ] // 118 // स्वधाकृतं तत्तनयैः पितृभ्यः श्रद्धापवित्रं तिलचित्रमम्भः / चन्द्रं पितृस्थानतयोपतस्थे तदङ्करोचिःखचिता सुधैव // 11 // स्वधेति / तनयैः पुत्रैः श्रद्धया परलोकास्तित्वबुद्ध्या वितीर्णत्वात्पवित्रं कृष्णति. लैश्चित्रं मिश्रितं पितृभ्यः स्वधाकृतं यदम्भः पितृस्थानतया 'चन्द्रो वै पितृलोकः' इति श्रुतेः, पितृलोकतया चन्द्रमुपतस्थे चन्द्रेण संगतमभूत् / तस्कृष्णतिलमिश्रं जलमेवा. कस्य कलङ्कस्य यद्रोचिः कान्तिस्तया खचिता मिश्रिता सुधा पीयूषम् / कृष्णतिला एव कलङ्कः, तत्संलग्नं जलमेव पीयूषम् , नत्वन्यः कलको न नान्यत्पीयूषमित्यर्थः / श्रद्धेति, पितृलोकप्राप्ती हेतुगर्भम् / उपतस्थे, संगतकरणे तङ॥ 119 // पुत्रोंने पितरों के लिये श्रद्धासे पवित्र जिस तिलमिश्रित जलको समर्पण किया, वह (तिलमिश्रित होनेसे कृष्णवर्ण युक्त जल) पितरों के निवासस्थान होनेसे चन्द्रमाके पास पहुंच गया और वह (कृष्णतिलयुक्त जल ) ही कलङ्ककी कान्तिसे मिश्रित अमृत है / [ कृष्णवर्णवाले तिल ही कलङ्क हैं तथा उनसे संयुक्त जल ही अमृत है, उनसे मिन्न न तो कोई कलङ्क मृग और न तो कोई अमृत ही है ] // 119 //
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________________ 1562 नैषधमहाकाव्यम् / पश्योच्चसौधस्थितिसौख्यलक्ष्ये त्वत्केलिकुल्याम्बुनि बिम्बमिन्दोः। चिरं निमज्ज्येह सतः प्रियस्य भ्रमेण यच्चुम्बति राजहंसी // 120 / / पश्येति / हे प्रिये ! स्वमुच्चसौधे स्थित्या कृत्वा सौख्येन निरन्तरायं लचये दृश्ये स्वत्केलिकुल्याया अम्बुनि तदिन्दोर्बिम्बं पश्य / तस्किम् ? राजहंसी इह कुल्याजले निमज्य चिरं सतोऽन्तर्वर्तमानस्य प्रियस्य राजहंसस्य भ्रमेण यच्चन्द्रबिम्बं चुम्बति / सौख्यम् , स्वार्थे सुखिनो भाव इति भावे वा व्यञ् / 'सौचम्य-' इति पाठे-सूचम. स्वेन लक्ष्ये / उच्चतरप्रदेशस्थितं प्रति ह्यधोदेशस्थितं वस्तु सूक्ष्मं प्रतिभाति // 120 // ( हे प्रियतमे ! ) ऊँचे प्रासादपर बैठनेसे सुखपूर्वक ( पाठा०-पतला ) दिखलाई पड़ते हुए तुम्हारे क्रीडार्थ रचित नहर के जलमें (प्रतिबिम्बित ) चन्द्रमाके बिम्बको देखो, जिसे गोता लगाकर बहुत देरतक रुके हुए प्रिय (राजहंस) के भ्रमसे राजहंसी चूम रही है // 120 // सौवर्गवगैरमृतं निपीय कृतोऽह्नि तुच्छः शशलाञ्छनोऽयम् / पूर्णोऽमृतानां निशितेऽत्र नद्यां मग्नः पुनः स्यात्प्रतिमाच्छलेन।।१२१॥ सौवर्गेति / स्वर्गे भवाः सौवर्गा देवास्तेषां वगैवृन्दरमृतं निपीयाहि तुच्छो रिक्तः कृतोऽयं शशलान्छनो निशि ते तवान क्रीडानद्यां प्रतिमाच्छलेन प्रतिबिम्बव्याजेन मग्नः सन्पुनरमृतानां जलैः, अथ च-पीयूषैः पूर्णः स्याद्भवेदित्यहं संभावयामीत्यर्थः / एतेन नदीजलस्यामृतत्वं सूचितम् / अह्नि तुच्छः कृतोऽपि पुनः क्रमेणामृतैः पूर्णः सन् रात्री तव क्रीडानद्यां प्रतिमाव्याजेन मग्नः स्यात् पुनः पानभयादिव पलाय्य निलीनः स्यादित्यहं शङ्के इत्यर्थ इति वा / पूर्णोऽमृतानाम् , तृप्त्यर्थस्वाक. रणे षष्ठी // 12 // ___ स्वर्गवासियों ( देवों ) के समूहोंसे अमृतको सम्यक् प्रकारसे पीकर रिक्त ( खाली, यालघु ) किया गया यह चन्द्रमा रात्रिमें तुम्हारी इस कोडानदीमें प्रतिबिम्बके कपटसे मग्न होकर अमृतसे पूर्ण होगा (या-हो रहा है, ऐसी मैं सम्भावना करता हूं ) अथवा-"यह चन्द्रमा (क्रमशः) अमृतसे पूर्ण होकर रात्रिमें तुम्हारी क्रोडानदीमें प्रतिबिम्बके छलसे ( उन देव-समूहों के द्वारा पुनः पीये जानेके भयसे ) मग्न होगा अर्थात् छिप जायगा ऐसी मैं सम्भावना करता हूं / / 121 // समं समेते शशिनः करेण प्रसूनपाणाविह कैरविण्याः। विवाहलोलामनयोरिवाह मधुच्छलत्यागजलाभिषेकः // 122 / / सममिति / इह तव क्रीडानद्यां कैरविण्याः कुमुदिन्याः प्रसूनरूपे पाणौ शशिनः करेण रश्मिना, अथ च-पाणिना, समं सह समेते संगते सति मधु पुष्परस एव. च्छलं यस्य स तव्याजस्त्यागजलस्य कन्यादानसंकल्पोदकस्याभिषेकः कर्ता, अन. योश्चन्द्रकुमुदिन्योर्विवाहलीलामाहेव सूचतीव / चन्द्रकरस्पर्शमात्रेण कुमुदानि विक
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1563 सितानि, मकरन्दपूर्णानि च जातानीति भावः / विवाहे उभयोः पाणिमेलनं, पाणी दानजलाभिषेकोऽपि भवति // 122 // ___ तुम्हारी इस क्रीड़ानदीमें कुमुदिनीके पुष्परूपी हाथको चन्द्रमाकी किरण (पक्षा०हाथ ) के साथ मिलने ( संयुक्त होने ) पर मधु (पुष्प मकरन्द ) के छलवाले अर्थात् पुष्प-मकरन्दरूप दानजलका स्याग इन दोनों (चन्द्रमा तथा कुमुदिनी) की मानो विवाह लीलाको कह रहा है / [ वधू-वरके हाथोंके संयुक्त होनेपर कन्यादानके जलका अभिषेक होना शास्त्रीय विधि है / कुमुदिनी चन्द्रकिरण-स्पर्शसे विकसित तथा मकरन्दसे पूर्ण हो गयी] // 122 // विकासिनीलायतपुष्पनेत्रा मृगीयमिन्दीवरिणी वनस्था / विलोकते कान्तमिहोपरिष्टान्मृगं तवैषाऽऽननचन्द्रभाजम् / / 123 // विकासीति / हे प्रिये ! इह तव केलिनद्यां वनस्था जलनिवासिनी; अथ चकाननस्था, तथा-विकासि नीलमायतं विस्तृतं पुष्पमेव नेत्रं यस्यास्तत्तत्यनेत्रा चेयं प्रत्यक्षहश्या इन्दीवरिणी, यस्मान्मृगी वनस्थस्वाद्विकासिनीलायतपुष्पनेत्ररवास हरिणी, तत्तस्मादिन्दीवरिणीरूपा मृगी, आननमिव यश्चन्द्रः सामर्थ्यावदाननतुल्यो यश्चन्द्रस्तद्भाजं तरस्थं कान्तं सुन्दरम् , अथ च-तुल्यजातीयं स्वप्रियं, मृगमुपरि. ष्टाद्विलोकते / विकसितकुसुमनेत्राणि ऊवं प्रसारितानि दृश्यन्ते तर्हि प्रायेण चन्द्रस्थमुपरि वर्तमानं निजभर्तारं मृगं (मृगी) पश्यतीत्यर्थः / त्वदाननमेव यश्चन्द्रस्तत्रस्थं चन्द्रत्वादनुमेयं मृगमुपरिष्टात्पश्यति / त्वं प्रासादोपरि वर्तसे, इयं चाधोदेशे वर्तते / 'न न' इति पदच्छेदं कृत्वा चन्द्रभाजं निजप्राणेशं मृगमुपरिष्टान्न पश्यतीति न, किन्तु पश्यत्येवेति वा व्याख्येयम् / वनस्था मृगी हि प्रसारितनीलायतनेत्रा सती स्वकान्तं मृगमितस्ततो विलोकयति / 'शशम्' इत्यपपाठः। मृगपर एव वा व्याख्येयः॥ 123 // (हे प्रिये ! तुम्हारी) इस क्रीडानदीमें जल ( पक्षा०-जङ्गल) में रहनेवाली तथा विकसित नीलवर्ण पुष्परूपी ( पक्षा०-पुष्पतुल्य ) विशाल नेत्रोंवाली यह नीलकमललता ( जिस कारणसे ) मृगी है, उस कारणसे यह (नीलकमललतारूपिणी मृगी) ऊपरमें (आकाशमें, पक्षा०-तुम्हारे उच्चतम सौधपर, तुम्हारे ) मुखके समान (पक्षा०-मुखरूपी) चन्द्रमामें रहनेवाले पति (पक्षा०-सुन्दर, कलङ्कात्मक ) मृगको मानो देख रही है। [ यहां विकसित नीलकमलपुष्पको विशाल तथा नीलवर्ण नेत्र, नीलकमललताको मृगी, क्रीडानदी के जलको जङ्गल, आकाशको सौध और दमयन्तीके मुखको मृग होनेकी कल्पना की गयी है / लोकमें भी अत्युन्नत स्थानपर स्थित व्यक्तिको नीचेवाला व्यक्ति ऊर्ध्वमुख होकर जैसे देखता है, वैसे ही नीलकमलरूपिणी मृगी तुम्हारे मुखतुल्य चन्द्रमामें स्थित अपने पति मृगको मानो देख रही है ] // 123 // 18 नै० उ०
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________________ 1564 नैषधमहाकाव्यम् / तपस्यतामम्बुनि कैरवाणां समाधिभङ्गे विबुधाङ्गनायाः / अवैमि रात्रेरमृताधरोष्ठं मुखं मयूखस्मितचारु चन्द्रम् / / 124 // तपस्यतामिति / हे प्रिये ! अम्बुनि सदा निवासात्तत्र तपस्यतां कैरवाणां कुमु. दानां समाधेर्दिवा संकोचस्यैव ध्यानस्य भङ्गे त्याजने विषये निमित्ते वा विबुधान. नाया अप्सरोरूपाया रात्रेश्चन्दं मुखमेवाहमवैमि मन्ये / किंभूतं मुखम् ? अमृतमे. वाधरोऽनूज़ ओष्ठो यस्य; अथ च-अमृततुल्योऽधरोष्ठो यस्य; यद्वा-अमृतमधरं यस्मात्पीयूषादधिकरस भोष्ठो यस्य / तथा-मयूखाः किरणा एव स्मितम् , अथ च-तत्समाधिभङ्गादेव चन्द्रकरवदुज्वलं यस्मितं, तेन चारु / चन्द्रविशेषणे लिङ्गविपरिणामः देवाङ्गनानामप्येवंविधं मुखं रात्रौ जले तपस्यतां दुश्चरं तपश्चरतामपि मुनीनां समाधिभङ्गं करोति / तपस्यतामिति, तपश्चरतीत्यर्थे 'कर्मणोरोमन्थतपोभ्या वर्तिचरोः' इति क्यष , 'तपसः परस्मैपदं च' इति शता // 124 // ___ जलमें ( सर्वदा निवाप्त करनेसे ) तपस्या करते हुए-से कुमुदोंके (दिनमें सङ्कोचरूपी) समाधिके भङ्ग होनेपर रात्रिरूपिणी देवाङ्गनाओं (अप्सराओं) के चन्द्रमाको अमृतके समान (अथवा-अमृतरूप, अथवा-अमृत है तुच्छ जिससे ऐसे अर्थात् अमृतसे श्रेष्ठतम ) अधरोष्ठवाला तथा किरणरूपी ( पक्षा०-किरणके समान ) मुख मानता हूँ। [जिस प्रकार ध्यानभङ्ग होनेपर तपस्वियोंको अमृतपूर्ण अधरवाला तथा स्मितसे सुन्दर देवाङ्गनाओंका मुख चुम्बनके लिए प्राप्त होता है, उसी प्रकार जलमें सर्वदा निवास करनेसे तपस्या करते हुए-से कुमुदोंको दिवासङ्कोचरूप समाधिके मङ्ग होनेपर अमृताधर तथा किरणात्मक स्मित. युक्त चन्द्ररूप मुख मानो चुम्बनादिके लिए प्राप्त हुआ है ] // 124 // अल्पाङ्कपङ्का विधुमण्डलीयं पीयूषनीरा सरसी स्मरस्य | पानात्सुधानामजलेऽप्यमृत्यु चिहं बिभयंत्र भवं स मीनम् // 125 / / अल्पेति / अल्पोऽङ्क एव पङ्को यस्यां, तथा-पीयूषमेव नीरं यस्यां सेयं विधु. मण्डली स्मरस्य सरसी विशालं सर एव / अत एव स स्मरः अत्रभवमस्यां चन्द्रसरस्यां समुत्पन्नं सुधानामेतदीयामृतानां पानादजले जलरहितेऽपि स्थले जलाभावे. ऽपि वाऽमृत्युं मरणरहितं मीनं चिह्नम् / अथ च-सुधासरोजातत्वानुमापकं लिङ्गं बिभर्ति / मीना हि जलादहिभूता म्रियन्त एव, अयं तु न म्रियते, तस्माचन्द्रामृत. सरसीभवस्वारसदामतपानाजलाभावेऽपि मृत्युरहित इति सर्व युक्तमित्यर्थः // 125 // __ अल्प ( थोड़े स्थानमें स्थित ) कलङ्करूपी पकवाली तथा अमृतरूपी (पक्षा०-अमृततुल्य, स्वच्छ तथा मधुर ) जलवाली यह चन्द्रमण्डली अर्थात् चन्द्रबिम्ब कामदेवकी क्रीडा. नदी है, (क्योंकि इसमें स्नान करते समय कामशरीरके अवश्य स्पृष्ट इस चन्द्रमण्डलीके देखने मात्रसे होता है), अत एव वह कामदेव इस (क्रीडानदी ) में उत्पन्न तथा अमृत पीनेसे निर्जल स्थानमें (या-जलाभाव होनेपर ) भी नहीं मरनेवाले मौनरूप अपने ध्वज
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________________ 1565 (चिह) को धारण करता है। [सामान्य मीन ( मछलियां ) .जलके अभावमें मर जाते हैं, किन्तु अमृतपान करनेसे अजर-अमर हुआ यह भी मौन नहीं मरता है ] // 125 // तारास्थिभूषा शशिजह्वजाभृञ्चन्द्रांशुपांशुच्छरितद्युतिद्यौः। छायापथच्छद्मफणोन्द्रहारा स्वं मूर्तिमाह स्फुटमष्टमूर्तेः // 126 / / तारेति / द्यौः स्वमात्मानमष्टमूर्तेर्हरस्य मूर्ति शरीरं स्फुटं व्यक्तमाह ब्रवीति / यतः-किंभूता ? तारा एवास्थीनि भूषा यस्याः। तथा-शशिनमेव जहाजां, चन्द्रं गङ्गां च, बिभर्तीति भृत् / तथा-चन्द्रांशव एव पांसवो भस्मानि तेश्छुरिता कृता. ङ्गरागा द्यतिर्यस्याः / तथा छायापथो गगने दण्डाकारा दक्षिणोत्तरस्था धवला रेखा छम यस्य छायापथच्छद्मरूपः फणीन्द्रो वासुकिः स एव मुक्काहारो यस्याः सा / हरमूर्तिरप्युक्तविशेषणविशिष्टा / धौरप्येताहशीति मूत्यंन्तरापेक्षया व्यक्तमेव महे. शस्य मूर्ति गगनं कथयतीवेत्यर्थः // 126 // ____ तारारूप अस्थि ( हड्डियों ) के भूषणवाली, चन्द्ररूपिणी गङ्गाको धारण करती हुई, चन्द्र-किरणरूप धूलि (भस्म ) से व्याप्त शरीर-कान्तिवाली छायापथ (अँधेरी रातको काशमें दण्डाकार दिखलायो पड़नेवाली स्वच्छ रेखा ) रूप और वासुकिरूप हारवाली यह 'दिव' (आकाश ) अपनेको स्पष्ट हो शिव-मूर्ति व्यक्त कर रही है // 126 // एकैव तारा मुनिलोचनस्य जाता किलैतज्जनकस्य तस्य / ताताधिका सम्पदभूदियं तु सप्तान्विता विंशतिरस्य यत्ताः // 127 // एकेति / एतस्य चन्द्रस्य जनकस्य तस्य प्रसिद्धस्याक्षिमुनिलोचनस्य तारा कनी. निका किलैकैव जाताभूत् किल पुराणादौ / अस्य तत्पुत्रस्य तु पुनरियं दृश्यमाना संपत तातान्निजपितुरत्रिनेत्रासकाशादधिका / यद्यस्मादस्य चन्द्रस्य तास्ताः कनीनिकाः, अथ च-नक्षत्राणि, सप्तभिरन्विता विंशतिरभूदिति छलम् / पितुः सका. शादधिसंपत्तित्वात्सभाग्योऽयमिति भावः / 'सप्तविंशतिमिन्दवे' इति दरः सप्तविंशतिकन्याः अश्विन्यादिकाश्चन्द्राय ददाविति पुराणम् // 127 // इस (चन्द्रमा ) के पिता उस (प्रसिद्धतम, 'अत्रि' नामक ) मुनिके नेत्रकी एक तारा ( चन्द्ररूप नक्षत्र, पक्षा०-कनीनिका = आँखकी पुतली) हुई, किन्तु उसके पुत्र ( चन्द्रमा) की सम्पत्ति तो पिता ( नेत्रसे चन्द्रमाको उत्पन्न करनेसे चन्द्रमाके पितृस्थानीय अत्रिमुनि) से भी अधिक हुई क्योंकि इस ( चन्द्रमा ) की वे (ताराएँ नक्षत्र, पक्षा०-कनीनिकाएँ) सत्ताइस हुई। [चन्द्रमा अपने पिता 'अत्रि' मुनिसे भी अधिक माग्यवान् हैं / दक्षप्रजापतिने अश्विनी आदि तारारूपिणी अपनी सत्ताइस पुत्रियोंको चन्द्रमाके लिए दिया था, यह कथा पुराणों में मिलती है ] // 127 // मृगाक्षि ! यन्मण्डलमेतदिन्दोः स्मरस्य तत्पाण्डुरमातपत्रम् / यः पूर्णिमानन्तरमस्य भङ्गः स च्छत्रभङ्गः खलु मन्मथस्य / / 128 / /
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________________ 1566 नैषधमहाकाव्यम् / मृगाक्षीति / हे मृगाक्षि हरिणीनेत्रे! यदेतत्प्रत्यक्षदृश्यमिन्दोमण्डलं तरस्मरस्य पाण्डुरं श्वेतं साम्राज्यसूचकमातपत्रमेव / श्वेतच्छत्रदर्शने सति सम्राजो वश्या भवन्ति / पूर्णधवलचन्द्रमण्डलस्य चोद्दीपकत्वात्तदर्शने सर्वेऽपि कामस्य वश्या भवन्ति / तस्मादेतत्कामस्य श्वेतातपत्रमेवेति भावः / यश्च पूर्णिमानन्तरमस्य च्छत्रः भूतस्येन्दुमण्डलस्य भङ्गो मोटनं कलाक्षयश्च स मन्मथस्य च्छत्रभङ्गः खलु / छत्रस्य मोटनं राजक्षयं सूचयति / कृष्णपक्षे चोद्दीपकमित्रचन्द्रक्षये कामः क्षीण एव भवति, तस्मारकृष्णपक्षे योऽस्य भङ्गः स कामस्य छत्रभङ्ग इव स एव वेति भावः / 'खलु' उत्प्रेक्षायां निश्चये वा // 128 // हे मृगनयनि ( दमयन्ति ) ! जो यह चन्द्रमण्डल है, वह कामदेवरूप राजाका श्वेत छत्र है और पूर्णिमाके बाद जो इस चन्द्रमण्डलका भङ्ग ( क्रमशः कलाक्षय ) होता है, वह कामदेवका छत्रमङ्ग ( राज्यनाश ) है / [ जिस प्रकार श्वेतच्छत्रधारी राजाकी आज्ञाको सभी मानते हैं और उस श्वेतच्छत्रके मङ्ग (राज्य नाश ) होनेपर उसकी आशाको कोई नहीं मानता, उसी प्रकार पूर्णचन्द्र होनेपर सभी कामदेवरूप राजाको आशाको .मानते ( पूर्ण चन्द्र के उदय होनेपर कामोद्दीपन होनेसे कामवशीभूत रहते.) हैं और पूर्णिमाके बाद क्रमशः चन्द्रमाके क्षीण होनेपर कामोद्दीपन नहीं होने से कोई भी कामदेवकी आज्ञाको नहीं मानता ( कामोद्दीपन न होनेसे कामवशीभूत नहीं होता ) / चन्द्रमा को देखनेसे कामवृद्धि तथा नहीं देखनेसे कामक्षीणता होना लोकप्रसिद्ध है // 128 // दशाननेनापि जगन्ति जित्वा योऽयं पुराऽपारि न जातु जेतुम् / म्लानिर्विधोर्मानिनि ! सङ्गतेयं तस्य त्वदेकानननिर्जितस्य / / 126 / / दशेति / दिग्विजयोधतेन दशाननेनापि जगन्ति जिस्वापि योऽयं चन्द्रः पुर। पूर्व जातु कदाचिदपि जेतुं नापारि। हे मानिनि स्वमुखस्पर्धिनं चन्द्रमसहमाने भैमि ! तस्य विधोरियं प्रत्यक्षदृश्या कलङ्करूपा म्लानिर्लज्जा संगता लग्ना, अथ च युक्तैव / यतस्तवैकेनाननेन नितरां जितस्य / यो हि दशाननेन दशभिर्मुखर्जेतुं नाशकि, तस्य स्त्रियास्तवैकेन मुखेन विजितत्वेन लज्जया मालिन्यमुचितमेवेत्यर्थः / स्वन्मुखमेतस्मादधिकमिति भावः। प्रतीयमानोत्प्रेक्षा। लज्जयापि म्लानिर्भवति / रावणश्चन्द्रं जेतुं प्रवृत्तस्तत्तषाराग्निना दह्यमानः कम्पमानतनुस्तमजिस्वैव परावृत्त इत्युत्तरकाण्डे कथा // 129 // (दिग्विजयके लिए तत्पर ) दशानन (दशमुखवाला रावण ) भी लोकत्रयको जीतकर पहले जिस ( चन्द्रमा ) को नहीं जीत सका, हे मानिनि ( तुम्हारे मुखके साथ स्पर्धा करनेसे चन्द्रमाके प्रति मान करनेवाली हे दमयन्ति ) ! तुम्हारे एक ही मुखसे पराजित उस चन्द्रमामें यह ( प्रत्यक्ष दृश्यमान कलङ्करूप ) मालिन्य लग गया है। [ दश मुखवालेसे भी नहीं पराजित होनेवाले चन्द्रमामें एक मुखवाली [ अथच-उसमें भी
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1567 पुरुष नहीं, अपितु स्त्री) तुमसे पराजित होनेपर मलिन होना उचित ही है। यहां भी कल्पान्तरकी अपेक्षासे ही रावणको नलका पूर्ववर्ती होना समझना चाहिये ] // 129 // __ पौराणिक कथा-दिग्विजयोद्यत रावण जब चन्द्रमाको पराजित करने गया, तब तुषाराग्निसे जलता तथा ठण्ढकसे कॉपता हुआ वह चन्द्रमाको बिना पराजित किये ही वापस लौट आया। यह कथा वाल्मीकीय रामायणके उत्तरकाण्डमें है। दृष्टो निजां तावदियन्त्यहानि जयनयं पूर्वदशां शशाङ्कः / पूर्णस्त्वदास्येन तुलां गतश्चेदनन्तरं द्रक्ष्यसि भङ्गमस्य // 130 // दृष्ट इति / अयं शशाङ्क इयन्त्येतावन्ति अहानि शुक्लपक्षदिनानि तावदवधी. कृत्य निजां पूर्वदशां पूर्वपूर्वदिनावस्थां जयन् निकाममुत्तरोत्तरदिनेषु कलावृद्धयाधि. कीभवंस्त्वया दृष्टः। इयन्ति दिनानि जयंस्तावत् जयन्नेव दृष्ट इत्यवधारणार्थो वा 'तावत्'शब्दः / अनयैव परिपाट्या पूर्नबिम्बोऽयं त्वदास्येन सह तुलां साम्यम्, अथ च-तोलकाष्टं, प्राप्त आरूढश्चेत् , त_नन्तरं निकटं त्वमेव श्वःप्रभृत्येवास्य भङ्गं पराजयं कलाक्षयं च द्रश्यसि / उत्तमेन सह स्पर्धमानो हि भङ्गं प्राप्नोस्येव / तुला. दिव्ये हि हीनस्य पराजयः सर्वैश्यते। अहानि अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। स्वदास्येन, '-अतुलोपमाभ्याम्-' इति निषेधेऽपि सहयोगे तृतीया / तथा च कालिदासः "तुला यदारोहति दन्तवाससा' इत्यादि // 130 // इतने दिनों ( शुक्लपक्षके दिनों अर्थात् पूर्णिमा ) तक जीतता (1-1 कलाके क्रमशः बढ़नेसे उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता) हुआ तथा ( तुमसे ) देखा गया यह चन्द्रमा यद्यपि तुम्हारे मुखकी समानताको प्राप्त कर लिया अर्थात् इस समय कथञ्चित् तुम्हारे मुखके समान हो गया, तथापि ( तुम ) इसके बाद ( कृष्णपक्षके दिनों ) में इसके भङ्ग (पराजय, पक्षा०-कलाक्षय ) को देखोगी। [ प्रबल के साथ विरोधकर्ताका पराजय अवश्य होता है; यह बात महाकवि 'भारवि'ने भी 'किरातार्जुनीय' काव्यमें कही है-यथा-'अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता' (123)] // 130 / / क्षत्राणि रामः परिभूय रामाक्षत्रााथाभज्यत स द्विजेन्द्रः। तथैष पद्मानभिभूय सर्वोस्त्वद्वक्त्र पद्मात्परिभूतिमेति / / 131 / / क्षत्राणीति / द्विजेन्द्रो जमदग्न्यपत्यत्वात्सोऽतिप्रसिद्धपराक्रमो रामः परशुरामः सर्वाणि क्षत्राणि परिभूयापि क्षत्रादेव रामाद्दाशरथेः सकाशाधथा भज्यत पराभवं प्राप, तथा तेनैव प्रकारेणायमपि द्विजराजः सर्वान्पद्मानभिभूय संकोचकरणात्पराभूयापि स्वद्वक्त्रपद्मात्सकाशात्परिभूतिं पराभवमेति / सकलक्षत्रियाधिक्यं यथा श्रीरामस्य तथा सर्वपदाधिक्यं त्वन्मुखपद्मस्येति भावः / 'वा पुंसि पनम्' इत्यमरः // 13 // (जमदग्नि-पुत्र होनेसे) द्विजेन्द्र (ब्राह्मण) परशुरामजी जिस प्रकार क्षत्रियोंको पराजितकर क्षत्रिय रामचन्द्रजीसे पराजित हुए, उसी प्रकार यह द्विजेन्द्र (द्विजराज%
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________________ 1568 नैषधमहाकाव्यम् / चन्द्रमा, सङ्कुचित करनेसे ) कमलोंको पराजितकर तुम्हारे मुखरूप कमलसे पराजित हो रहा है। [इससे सब क्षत्रियों की अपेक्षा रामचन्द्र जीको प्रबलतम होनेके समान सब कमलोंकी अपेक्षा दमयन्तीके मुखका श्रेष्ठ होना सूचित होता है ] // 131 // पौराणिक कथा- जनकपुरीमें सीतास्वयंवर में शिवजीके धनुषको तोड़नेसे रामचन्द्रजी. पर क्रुद्ध हुए परशुरामजीको रामचन्द्र जीने पराजित किया था। यह कथा वाल्मीकीय रामायणके अयोध्याकाण्ड में है। अन्तः सलक्ष्मीक्रियते सुधांशो रूपेण पश्ये ! हरिणेन पश्य | इत्येष भैमीमददर्शदस्य कदाचिदन्तं स कदाचिदन्तः // 132 / / अन्तरिति / हे पश्ये चन्द्रदर्शनप्रवृत्ते भैमि ! हरिणेन पाण्डुरेण रूपेण वर्णेन कर्ता सुधांशोरन्तः प्रान्तभागः पूर्वमश्रीकोऽपोदानी सलक्ष्मीक्रियते सश्रीः क्रियते स्वं पश्य / अथ च-चन्द्रस्य मध्यं हरिणेन मृगेण का रूपेण स्वीयनीलवर्णन कृत्वा असलचम सलक्ष्म क्रियते सलचमीक्रियते / सकलङ्क क्रियत इत्यर्थः। पश्य / एष स नल इत्यमुना प्रकारेणास्य चन्द्रस्यान्तं पर्यन्तभागं कदाचित्क्षणमात्रं भैमीमददर्शत् दर्शयामास, कदाचिञ्चान्तमध्यभागं दर्शयामास / अमुल्यादिना चन्द्रश्वेत. नीलप्रान्तमध्यभागप्रदर्शनपूर्व श्लिष्टपदेस्तया सह क्रीडां चकारेति भाव इति मध्ये कवेरुक्तिः / 'हरिणः पाण्डुरः पाण्डुः' इत्यमरः / अन्तः' इत्यकारान्तमेकत्र, 'अन्तः' इत्यव्ययमपरत्र मध्यवाचि / 'लक्ष्मी'शब्दस्य समासान्तविधेरनित्यत्वात्कबभावे 'सलचमी'शब्दाच्च्विः / पक्षे 'सलक्ष्म'शब्दाच्विः / पश्ये, 'पाघ्रा-' इत्यादिना कर्तः येव शः / शेर्बुद्ध्यर्थत्वात् 'गतिबुद्धि-' इत्यणौ कर्तुणों कर्मरवा मीमिति द्वितीया // ___'हे पश्ये ( चन्द्रमाको देखने में संलग्न, दमयन्ति ) ! श्वेत वर्ण ( सफेद रंग) चन्द्रमा. के प्रान्त भागको शोभान्वितकर रहा है (पक्षा०–कलङ्कात्मक मृग चन्द्रमाके मध्यभागको कलकान्वित ( कृष्णवर्ण) कर रहा है ) देखो, ऐसा कहकर उस नलने कभी चन्द्रमाका प्रान्तमाग और कमी मध्यभाग दमयन्तीको दिखलाया। [ श्लेषयुक्त, 'अन्तः, हरिणेन, सलक्ष्मीक्रियते' पदोंसे चन्द्रवर्णन करके उस ( चन्द्रमा) के प्रान्तमागस्थ श्वेत वर्ण तथा मध्यभागस्थ कृष्णवर्णको दमयन्ती के लिए दिखला-दिखलाकर उसके साथ नल क्रीडा करने लगे ] // 132 // सागरान्मुनिविलोचनोदराद्यवयादजनि तेन किं द्विजः ? / एवमेव च भवनयं द्विजः पर्यवस्यति विधुः किमत्रिजः ? // 133 / / सागरादिति / अयं चन्द्रः सागरात् मुनिविलोचनोदराच्चैतद्रूपावयासकाशाद्यधस्मादजनि उत्पन्नः, तेन कारणेन द्वाभ्यां जातत्वाद् द्विजः किम् ? एवमेव चानयैव रीत्या द्वाभ्यां जातत्वादेव द्विजो भवनप्ययं विधुरत्रेच्नेर्जातः किं कथं पर्यवस्यति ? द्वाभ्या जातत्वे सत्यपि अत्रिमुनेरेव जात इति तात्पर्यवृत्त्या कथमुच्यत इत्यर्थः /
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1566 अथ च-एवमेव यथानेन प्रकारेण द्विजस्वं, तथैवात्रिमुनिजो भवञ्चयं द्विजः पर्यवस्यति किम् ? द्वाभ्यां जातवाद्यथा द्विज उच्यते, तथा द्विजादत्रिमुनेर्जातवादपि द्विज उच्यते किम् ? द्विजोत्पन्नो हि द्विज एव भवतीत्यर्थः / अथ च-द्वाभ्यां जातत्वाद् द्विजो भवन्नेव न त्रिभ्यो जायत इत्यत्रिज इत्येवं तात्पर्यवृत्त्या कथ्यते किम् ? यो हि द्वाभ्यां जायते स विजो न भवति, एवमेवायमत्रिजः कथ्यते किमित्यर्थः। अन्योऽपि द्विजस्त्रिजो न भवत्येव // 133 // जिस कारण यह चन्द्रमा समुद्रसे तथा अत्रिमुनिके नेत्रमध्यसे उत्पन्न हुआ है, उसी कारण यह 'द्विज' ( दोसे उत्पन्न ) है क्या ? और यदि इस प्रकार ( समुद्र तथा अत्रिमुनिके नेत्रमध्यसे उत्पन्न ) है, तो 'अत्रि' मुनिके नेत्रमध्यसे उत्पन्न होता हुआ यह चन्द्रमा 'दिन' (दोसे उत्पन्न) सिद्ध होता है क्या ? (दो अर्थात समुद्र तथा 'अत्रि' मुनिके नेत्रमध्यसे उत्पन्न होनेसे जिस प्रकार यह चन्द्र 'द्विज' कहलाता है, उसी प्रकार 'अत्रि' मुनिके मंत्रमध्यसे उत्पन्न होकर भी 'द्विज' कहलाता है क्या ?) अर्थात् एक अत्रिमुनिके नेत्रमध्यभागसे उत्पन्न होनेपर 'दोसे उत्पन्न नहीं होने के कारण यह चन्द्रमा 'द्विज' नहीं कहला सकता। अथ च-दोसे उत्पन्न होनेके कारण जिस प्रकार 'द्विज' कहलाता है, उसी प्रकार द्विज (ब्राह्मण ) 'अत्रि' मुनिके नेत्रमध्यसे उत्पन्न होकर 'द्विज' कहलाता है क्या ? अर्थात् 'हाँ' द्विजपुत्रको द्विज कहलाना उचित ही है / अथच-दोसे उत्पन्न होने के कारण 'दिज' होता हुआ अत्रिज (अ+त्रिज = तीनसे अनुत्पन्न अर्थात् दोसे उत्पन्न ) होनेसे 'दिन' कहलाता है क्या ? // 133 // ताराविहारभुवि चन्द्रमयीं चकार यन्मण्डली हिमभुवं मृगनाभिवासम् / तेनैव तन्वि ! सुकृतेन मते जिनस्य स्वर्लोकलोकतिलकत्वमवाप धाता।।१३४॥ तारेति / हे तन्वि कृशाङ्गि! धाता ताराणां नक्षत्राणां विहारभुवि गगने चन्द्रमयीं मण्डली बिम्बं जिनस्यपुराणपुरुषस्य श्रीविष्णोर्मतेऽनुमती सत्यां तदादिष्टः सन् यच्चकार निर्ममे तेनैव सुकृतेन शोभनेन लोकोत्तरव्यापारेण कृत्वा स्वर्लोकः स्वर्गभुवनं तत्संबन्धिनां लोकानां सुराणां मध्ये तिलकत्वं श्रेष्ठयमवाप / किंभूतां मण्ड. लीम् ? हिमस्य तुषारस्य भुवं स्थानभूतामतिशीतलाम् / तथा-मृगस्य नाभौमध्ये वासो यस्यास्तां, यस्या मध्ये मृगोऽस्तीति यावत् , ताहशीम् / अन्येषां सुराणामे. ताहव्यापारकरणे सामर्थ्याभावाद् ब्रह्मैव श्रेष्ठोऽभूदित्यर्थः / अथ च-ताराया बुद्धदेव्या विहारस्थाने पूजास्थाने हिमभुवं शीतलां, शुभ्रस्वादिमाचलरूपां वा, तथामृगनाभेः कस्तूर्या वासः परिमलोऽवस्थानं वा यस्यां तो कस्तूरीमिश्रितां चन्द्रमयीं कर्पूरमयीं मण्डली राशिं यवकार तेनैव पुण्येन जिनस्य मते बौद्धदर्शने ब्रह्मा सुर• श्रेष्ठस्वमधत्त / बौद्धा हि बुद्धदेवप्रासादे यस्तत्पूजार्थ कर्पूरकस्तूरीराशिं करोति स सर्वलोकमध्ये श्रेष्ठो भवतीति स्वदर्शने प्रत्यपादयन् ; ब्रह्मा चैवमकृत तस्मा
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________________ 1570 नैषधमहाकाव्यम् / देव सर्वश्रेष्ठो जात इत्यर्थः / 'तेनेव' इति पाठे-उत्प्रेक्षा / 'बुद्धदेव्या मता तारा॥१३॥ हे तन्वि ! ब्रह्माने जो 'जिन' (आदि पुरुष विष्णु भगवान्) की आज्ञासे ताराओंके विहार करनेका स्थान अर्थात् आकाश ( अतिशय शीतल मध्यभागमें मृगसे युक्त चन्द्रमन्डलको किया अर्थात् उक्तरूप चन्द्रमाको आकाशमें स्थापित किया, उसी पुण्यसे वे देवोंमें श्रेष्ठ हुए (पक्षा०-ब्रह्माने जो बुद्ध के सिद्धान्तको मानकर तारा ( बुद्धदेवकी पत्नी) की विहारभूमि ( पूजास्थान ) में अतिशय शीतल ( या-स्वच्छतम होनेसे हिमाचलस्वरूप ), कस्तूरी के सौरभसे युक्त कर्पूरमय राशिको स्थापित किया, उसी पुण्यसे...)। [बौद्धसिद्धान्तानुसार बुद्धदेवके प्रासाद ( पूजास्थान ) में कर्पूर तथा कस्तूरीकी राशि रखनेवाला व्यक्ति स्वर्गमें देवोंमें श्रेष्ठ होता है ] // 134 // इन्दुं मुखाद्बहुतृणं तब यद् गृणन्ति नैनं मृगस्त्यजति तन्मृगतृष्णयेव / अत्येतिमोहमहिमा न हिमांशुबिम्बलक्ष्मीविडम्बिमुखि ! वित्तिषु पाशवीषु।। ___ इन्दुमिति / हे हिमांशुबिम्बस्य लक्षम्याः शोभाया विडम्बि स्वस्मान्न्यूनत्वात्प. रिहासकारि ततोऽप्यधिकशोभं मुखं यस्यास्तादृशि भैमि ! पण्डिता इन्दुं तव मुखा. रसकाशास्वन्मुखमपेचय वा बहुतृणमीषदसमाप्तं तृणं, तृणत्वमपि यस्य पूर्ण न संपन्नं, तृणादपि निःसारमिति यावत् , अथ च-बह्वधिकं तृणं यस्मात् तृणादपि निःसारं यद्यस्माद् गृणन्ति, तत्तस्माद्धेतोर्मंग एनं चन्द्रं मृगसंबन्धिन्या तृष्णया कोमलतृणका वलाभिलाषेणेव, अथवा-चन्द्रे प्रयुक्तस्य 'बहुतृण'शब्दस्य बहु च तत्तणं च, बहूनि तृणानि यस्मिस्तादृशमिति वेत्येवंरूपार्थग्रहणरूपया भ्रान्त्येव न त्यजति / मृगो हि बहु यत्तणं बहुतृणं देशं वा न मुञ्चति / नन्वनुभवे सत्यप्यासंसारं कथं भ्रान्तिरित्याशङ्कयार्थान्तरन्यासमाह-पाशवीषु पशुसंबन्धिनीषु वित्तिषु ज्ञानेषु विषये मोहमहिमा भ्रान्तिबाहुल्यं नारयेति बहुकालातिक्रमेऽपि नापयाति। पशवो हि सर्वदा मुढा एवेत्यद्यापि मृगस्य भ्रान्ति पयाति, तस्मादेनं न त्यजतीति युक्तमि. त्यर्थः / 'वृत्तिषु' इति पाठे-व्यापारेषु / मुखात , ल्यब्लोपे पञ्चमी / 'बहुतृणं, पने ईषदसमाप्तौ 'विभाषा सुपो बहुच-' इति बहुच // 135 // हे चन्द्रबिम्बकी शोभाको तिरस्कृत का नेवाले मुखवाली ( दमयन्ती ) ! विद्वान् लोग जिस कारण तुम्हारे मुखकी अपेक्षा तृणतुल्य (निःसार-अत्यन्त तुच्छ, पक्षा०-बहुत तृणोंसे युक्त ) चन्द्रमाको कहते हैं, उस कारण मानो मृगतृष्णा, ( पक्षा०-मृग-सम्बन्धी लोम ) से वह मृग इसे ( चन्द्रमा) को नहीं छोड़ता है, क्योंकि पशुवृत्तिमें मोह दूर नहीं होता है। [दूसरे लोगोंका भ्रम दो-चार वार वञ्चित होनेपर दूर हो जाता है, किन्तु पशुवृत्तिवालेका भ्रम बार-बार वन्चित होनेपर भी दूर नहीं होता, फिर मृग तो साक्षात् पशु है अत एव वह भ्रम नहीं होनेसे चिरकालसे चन्द्रमामें ही तृण पानेके लोमसे निवास करता है ] // 135 //
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1571 स्वर्भानुना प्रसभपानविभीषिकाभिर्दुःखाकृतैनमवधूय सुधा सुधांशुम् / स्वं निहते सितिमचिह्नममुष्य रागैस्ताम्बूलताम्रमवलम्ब्य तवाधरोष्ठम् / / स्वर्भानुनेति / हे प्रिये ! सुधा एनं सुधांशुमवधूय त्यक्त्वा तवाधरोष्ठमवल. म्ब्यामुष्य रक्तस्यौष्ठस्य रागै रक्तवणः कृत्वा सितस्य भावः सितिमा धावल्यमेव चिहूं यस्य तादृशं धवलरूपमपि स्वमात्मानं निहते पुनः पुनः स्वर्भानुपानमिया तिरो. दधाति / यतः-स्वर्भानुना वारंवारं प्रसभपानेन विभीषिकाभियोस्पादनैः कृत्वा दुःखाकृता प्रातिलोम्याचरणेनोत्पादितदुःखा। किंभूतमधरोष्ठम् ? प्रसिद्धस्य ताम्बूल. स्येव ताम्रो वर्णो यस्य, ताम्बूलेनैव वा ताम्र रक्तवर्णम् / पुना राहुपानमिया त्वदा धरमेव स्थानान्तरमाश्रित्य रूपान्तरेणास्मानं गोपायतीत्यर्थः। अन्योऽपि सभयं स्थानं हित्वा स्थानान्तरमाश्रित्य तत्रापि रूपान्तरं त्वा स्वं निहते / सुधया चन्द्रस्य परित्यागास्वन्मुखाश्रयणास्वन्मुखं चन्द्रादधिकमिति भावः। ताम्बूलताम्रमित्युक्तरो. स्योपमोत्प्रेक्षा वा / दुःखाकृता, 'दुःखात्प्रातिलोम्ये' इति डाच // 136 // ( हे प्रियतमे ) ! राहुद्वारा बलात्कारपूर्वक अपने ( सुधाके ) पान करने की बिमीषि. काओंसे दुःखित की गयी सुधा ( अपने चिरकालके आश्रय स्थान ) इस चन्द्रमाको छोड़कर पान (के चबाने )से लाल तुम्हारे अधरोष्ठका आश्रयकर (पुनः राहु द्वारा पान किये जाने के भयसे ) इस अधरोष्ठकी लालिमासे अपने श्वेत चिह्नको छिप रही है। [लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी प्रबल शत्रुसे वार-वार पीड़ित होकर अपने चिरकालीन निवासस्थानको छोड़कर किसी दूसरे सुरक्षित स्थानमें चला जाता है और वहां भी उस शत्रुके पुनराक्रमणके मयसे दूसरा रूप धारणकर अपने को छिपाये रहता है। सुधापूर्ण होनेसे तुम्हारा मुख चन्द्रमाकी अपेक्षा श्रेष्ठ है ] // 136 // हर्यक्षाभवतः कुरङ्गमुदरे प्रक्षिप्य यद्वा शशं जातस्फीततनोरमुष्य हरिता सूतस्य पत्न्या हरेः / भङ्गस्त्वद्वदनाम्बुजादजनि यत्पद्मात्तदेकाकिनः / स्यादेकः पुनरस्य स प्रतिभटो यः सिंहिकायाः सुतः / / 137 // हर्यतीति / हे प्रिये ! मतभेदेन कलङ्करूपं कुरङ्गं, यद्वा-शशमदरे मध्ये प्रक्षिप्य जाता स्फीता पूर्णा तनुर्यस्य, हरेरिन्द्रस्य पन्या हरिता प्राच्या दिशा सूतस्य तत्रोदितस्य पूर्णस्य, अत एव हरेः श्रीविष्णोर्वामाक्षीभवतः, यद्वा-सञ्जातपूर्णशरो. रस्य मृगं यद्वा-शशं, कलङ्क मध्ये निक्षिप्य मध्यस्थितकलङ्कस्य कनोमिकातुल्य. स्वाच्छ्रीविष्णोर्वामनेत्रीभवतोऽमुष्य चन्द्रस्य त्वद्वदनाम्बुजारसकाशाद्यद्भङ्गः पराजयोऽ. जनि तदेकाकिनः सर्वदाऽसहायादेकस्मात्पनात् , न स्वन्यस्मारकमलात् , न ह्यन्यः पञरयं पराजीयते, यस्पुनरयमेव पनान्पराभवतीत्यर्थः। अथवा-अम्बुजतुल्यत्वाद्वदनादेव पद्माद्, अथ च-पनसंख्याकावद्वदनरूपादम्बुजाघदस्य भङ्गो जाता,
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________________ 1572 नैषधमहाकाव्यम् / तदेकाकिनोऽसहायस्य स्याद्भवेत् ; बहुभिरेकः पराजीयत इति युक्तमेवेत्यर्थः। यः सिंहिकायाः सुतो राहुः स पुनरेकोऽन्योऽस्य प्रतिभटः प्रतिमल्लः पराभावुको राहुरेव न त्वन्य इति / 'संप्रति' इति पाठे-अद्य पुनरस्यैकः प्रतिभटः यः सिंहिकायाः सुतः स्यात् एकाकिनोऽस्य स्वन्मुखपद्मः प्रतिद्वन्द्वी न भवति, अतुल्यस्वात् , किं त्वेकाकी राहुरेवास्य प्रतिभटो युक्त इत्यर्थः / किंच स्वशत्रुभूतादाहोरप्यस्यान्यः परा. जय इति महदस्य कष्टं प्राप्तमित्यर्थः। अथ च-हरिद्वर्णया हरेः सिंहस्य पन्या सिंहिकया प्रसूतस्य, तथा-मृगं शशं वा यं कञ्चन पशुं जठरे निक्षिप्य भक्षयित्वा स्थितस्य, अत एव संजातपुष्टशरीरस्य, अत एव हर्यक्षीभवतः सिंहतां प्राप्नुवतोऽस्य स्वन्मुखाद्यः पराजयोऽजनि स एकाकिनः केवलारपद्माद्जादेव पराजयः, सिंहस्य गजाङ्गो यथा तद्वदेव तन्महचित्रमित्यर्थः / अथ च-पद्मसंख्याकादेकस्य पराजयः, सिंहोऽप्येको बहुसंख्यैः पराजीयत एवेत्यर्थः। अथ च-पद्माच्छरभादष्टापदादेव भङ्गः सिंहस्य केवलमष्टापदादेव भङ्गः। पद्मचन्द्राभ्यां सकाशावन्मुखमधिकमिति भावः / 'हर्यतः केसरी हरिः' इत्यमरः। 'गजाब्जशरमाः पद्मा' इत्यनेकार्थे भोजः / प्रथमपक्षे 'हर्यति'शब्दाच्च्विः , द्वितीयपक्षे 'हर्यक्ष'शब्दादेव // 137 // (हे प्रिये !) मृग या ( मतान्तरसे ) शशकको पेट (पक्षा०-मध्यभाग) में रखकर स्थूल-शरीर बने हुए, इन्द्रपत्नी दिशा ( पूर्वदिशा) से उत्पादित अर्थात् पूर्वदिशामें उदयको प्राप्त तथा विष्णु भगवान्का ( वाम ) नेत्र होते हुए इस चन्द्रमाका तुम्हारे मुखकमलसे जो पराजय हुआ, वह एक (असहाय ) कमलसे ही हुआ ( यह चन्द्रमा अन्य पोंसे पराजित नहीं होता था, किन्तु उन्हें ही पराजित करता था, अतः एक तुम्हारे मुखकमलरूप एक पद्मसे इसका पराजित होना आश्चर्यजनक है। अथवा-कमलतुल्य तुम्हारे मुखरूप एक पद्मसे ही हुआ, अथवा-'पद्म' सङ्ख्यक तुम्हारे मुख-कमलसे ही हुआ-एक व्यक्तिका बहुत व्यक्तियोंसे पराजित होना उचित हो है)। जो राहु है, वह इस चन्द्रमाका एक प्रतिभट ( विजेता प्रतिमाह ) है। ( पाठा०-इस समय इस चन्द्रमाका एक पतिमट है, जो राहु है / एकाकी इस चन्द्रमाका प्रतिमट असमान होनेसे तुम्हारा मुख-पद्म नहीं है, किन्तु एकमात्र राहु ( इसका प्रतिभट = प्रतिद्वन्द्वी ) है। अथच-अपने शत्रुभूत राहुसे भी इस चन्द्रमाका पराजय होना महाकष्टजनक है। पक्षा०-हरिद्वर्णवाली सिंहिनीसे उत्पन्न मृग या शशकको उदरमें रखकर स्थूल शरीर बने हुए अत एव सिंहरूप ( सिंह नहीं होते हुए भी सिंह ) बनते हुए इस चन्द्रमाका जो तुम्हारे मुखकमलसे पराजय हुआ, वह एक 'पद्म' ( 'पद्म' जातीय ) हाथीसे हुआ ( अत एव ) सिंहका एक हाथीसे पराजय होना आश्चर्यकारक है। अथच-एक चन्द्रमाका पराजय 'पद्म' सङ्ख्यावालासे हुआ-अत एव एक व्यक्तिका पद्मसङ्ख्यावालोंसे पराजय होना उचित ही है, अथचउक्त प्रकारसे सिंह बनते हुए इसका पराजय 'पद्म' ( 'अष्टापद' नामक जन्तु-विशेष ) से हुआ-अत एव 'अष्टापद से सिंहका पराजय होना उचित ही है। तथा उक्तरूप इस सिंह
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________________ द्वाविंशः सर्गः 1573 का प्रतिमट जो एक है वह सिंहनीका पुत्र अर्थात सिंह है-सिंह नहीं होते हुए भी सिंह बननेवालेका प्रतिभट सिंहको होना उचित ही है। पद्म तथा चन्द्रमा-दोनोंसे भी तुम्हारा मुख श्रेष्ठ है ] // 137 // यत्पूजां नयनद्वयोत्पलमयीं वेधा व्यधात्पद्मभू वाक्पारीणरुचिः स चेन्मुखमयं पद्मः प्रिये ! तावकम् | कः शीतांशुरसौ तदा ? मखमृगव्याधोत्तमाङ्गस्थल स्थास्नुस्वस्तटिनीतटावनिवनीवानीरवासी बकः // 138 / यदिति / हे प्रिये ! वेधा नयनद्वयमेवोत्पलं तन्मयीं तद्रूपां तद्रचितां यस्या पद्मस्य पूजां व्यधाद्वयरचयत् / यतः श्रीविष्णोर्नाभौ वर्तमानास्पद्माद्भवतीति पद्मभूः / स्वजनकस्य यस्य पद्मस्य पितृभक्त्या नेत्रद्वयेनैव नीलोत्पलयुगेन महती पूजामकृत। वाक्पारीणा वाचः परतीरे भवा वाचा वर्णयितुमशक्या रुचिर्यस्य सोऽयं पनश्चेत्ता. वकं मुखं स एव भवन्मुखरूपो जानः, अनन्तरं ब्रह्मणा स्वपितृबुद्धया नेत्रनीलोत्पलाभ्यां कृतपूजस्वादन तव मुखे नेत्रनीलोत्पले दृश्येते इत्यर्थ इति चेत् , तदा तर्हि असौ शीतांशुः को नाम, अपि तु न कश्चित् / त्वन्मुखस्य पुरस्तादयं, स्मरणा. होऽपि नेत्यर्थः / तीसौ क इति चेत्तत्राह-अयं बकः / 'किंभूतः ? दक्षमख एव मृगस्तस्य व्याधो हरस्तस्योत्तमा शिरस्तल्लक्षणे स्थले स्थास्नुः स्थितिशीला स्वस्त. टिनी गङ्गा तस्यास्तटावन्यां तीरभूम्यां या वनी महदल्पं वा यत्काननं यत्र ये वानीरा वेतसास्तन्मध्यवासी। चन्द्रश्च हरजटाजूटवासीति प्रसिद्धम् / 'वाक्पारीणरुचिः' इति ब्रह्मविशेषणं वा / अत्र यदपत्यस्य ब्रह्मणोऽपि सौन्दर्य वागगोचरः, तपितुः पद्मस्य सौन्दर्य मनसोऽपि गोचरो न भवतीत्यर्थः / स्वन्मुखस्य चन्द्रस्य च महदन्तरम् , साम्य संभावनापि नास्तीति भावः / एतेन चन्द्रादिसुन्दरवन्दं ब्रह्मणा सृष्टम् , भव. दीयमुखपद्म तु ब्रह्मणोऽपि स्त्रष्टत्वात्सर्वाधिकमिति सूचितम् / 'मखगृग-' इत्या. दिना चन्द्रस्यातिदेन्यं सूचितम् , त्क्न्मुखसाम्यप्राप्त्यर्थ तपश्चरणं च सूचितम् / अन्योऽपि विशिष्टवस्तुप्राप्तये शिवस्थानयुक्तनदीतीरवानीरवासी तपस्यति / नदीतीर. वानीरवासित्वं बकजातिः / वाक्पारीणा, भवार्थे 'राष्टावारपाराद्धखौ' इत्यत्र 'अवार. पाराद्विपरीतादपि विगृहीतादपि' इति वचनात्खः // 138 // हे प्रिये ! (विष्णु भगवान्की नाभिके) कमलसे उत्पन्न ब्रह्माने (कमलको अपना पिता-उत्पादक होनेसे ) नेत्रद्वयरूप कमलमयी जिस (कमल) की पूजा की, कहनेसे अवर्जनीय कान्तिवाला वह कमल यदि तुम्हारा मुख है तो यह चन्द्रमा कौन है ? (जगत्स्रष्टा ब्रह्माके भी पिता कमलरूप तुम्हारे मुखके सामने चन्द्रमा कुछ नहीं है। तब इस आकाशमें दृश्यमान यह श्वेतवर्ण क्या है ? ऐसी शक्का होनेपर यह दक्षप्रजापतिके )
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________________ 1574 नैषधमहाकाव्यम् / यशरूपी मृगके व्याध ( शिवजी ) के मस्तकमें रहनेवाली गङ्गाजीकी तीरभूमिके वनसम्बन्धी तोंमें रहनेवाला बगुला है। [ अथवा-कहनेसे अवर्णनीय कान्तिवाले, तथा ( विष्णु भगवान्की नाभिस्थ ) कमलसे उत्पन्न ब्रह्माने नेत्रद्वयरूप कमलमयी जिस (पितृ कमल की कान्तिका उससे भी उत्तम होना स्वभाव-सिद्ध है और वह कमल तुम्हारा मुख ही है, अतः तुम्हारे मुखकी कान्तिकी अपेक्षा चन्द्रमा कुछ नहीं हैं / हां, यदि वह है तो उक्तरूप बक है, जो तुम्हारे मुखकी शोमा पाने के लिए गङ्गानीके तीरके वनमें निवास करता ( हुआ मानो तपस्या करता) है / लोकमें भी कोई व्यक्ति इष्ट-सिद्धयर्थ शिवजीकी प्रतिमाके समक्ष गङ्गाके तीरस्थ वनमें निवास करता हुआ तपस्या करता है / बगुलेका जलाशयतीरस्थ बेतोंमें रहना स्वमाव होता है ] // 138 // पौराणिक कथा-दक्षप्रजापतिके यशको मृगरूप धारणकर भागनेपर शिवजीने व्याधरूप होकर उसका अनुसरण किया था। जातं शातक्रतव्यां हरिति विहरतः काकतालीयमस्या___मश्यामत्वैकमत्यस्थितसकलकलानिर्मितेनिमलस्य / इन्दोरिन्दीवराम बलविजयिगजग्रामणीगण्डपिण्ड ___ द्वन्द्वापादानदानद्रवलवलगनादङ्कमङ्के विशङ्के / / 139 / / जातमिति / अहमिन्दोरके बलविजयिन इन्द्रस्य गजग्रामणीहस्तिषु मध्ये प्रधानं प्राच्यामेव वर्तमानो य ऐरावतस्तस्य गण्डयोः कपोलयोः पिण्डयोः शिरःस्यि. कुम्भस्थलयोश्च ये द्वन्द्वे गण्ढद्वन्द्वं पिण्डद्वन्द्वं च त एवापादानं निगमनस्थानं येषां ते च ते दान द्रवलवा मदजललेशास्तेषां लग्नात्संपर्कात् काकतालीयमाकस्मिकं देवा. सिद्धमिन्दीवराभं नीलोत्पलतुल्यं जातमकं कलकं विशङ्के मन्ये / किंभूतस्येन्दोः ? अस्यामङ्गुलीनिर्दिष्टायां पुरोदृश्यायां शतक्रतोरियं शातक्रतवी तस्यां हरिति दिशि विहरत उद्च्छतः / तथा-अश्यामत्वे विषये ऐकमत्यं सर्वसंवादस्तेन तत्र वा स्थिताभिर्वर्तमानाभिः सकलाभिः पञ्चदशभिरपि कलाभिः कृत्वा निमितिर्यस्य / अश्यामत्वैकमत्येन स्थिता सकलकलानिर्मितिर्यस्य तादृशस्य / अत एव-निर्मलस्य प्रत्येक कलानां धावल्यस्य दृष्टत्वाद्धवलसकलकलानिर्मितत्वात्कारणधावल्याद्धवलस्य, अश्यामस्वैकमत्ये स्थिता याः सकलाः कलास्ताभिर्या निर्मितिस्तस्या वा हेतोर्धव. लस्य / पूर्व कारणधावल्यात्सकलोऽप्ययं धवल एवाभूत् , पश्चात्त पूर्वदिग्भ्रमणवशा. त्तत्रैव भ्रमत ऐरावतस्य कपोलकुम्भस्थलगलन्मदजलं दैववशाल्लरनं तेनायं मध्ये कालः प्रतिभातीत्यर्थः / तालतरुतले यदैव काकस्योपवेशनम्, तदैव देवारकाकस्यो. परि तालफलपात इति काकतालमिव, 'समासाच तद्विषयात्' इति छः। निमितेः, पक्षे हेतौ पञ्चमी // 139 //
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________________ द्वाविशः सर्गः। इस इन्द्र-सम्बन्धिनी (पूर्व) दिशामें बिहार करते हुए तथा सर्वसम्मतिसे स्वच्छ सम्पूर्ण कलाओंसे रचे गये ( अथवा-.........."रचनेके कारण) निर्मल चन्द्रमाके नील. कमलके समान कान्तिवाले कलङ्कको बलविजयी ( इन्द्र ) के हस्तिप्रधान ऐरावतके दोनों कपोल तथा दोनों कुम्मसे निकले हुए दानजलके लगनेसे काकतालीय न्यायप्से उत्पन्न हुआ मानता हूं। [ तालवृक्षके नीचे बैठे हुए कौवेके ऊपर सहसा तालफलके गिरने-जैसा सहसा अतर्कित कोई कार्य होनेपर काकतालीय न्यायका प्रयोग होता है / पूर्व दिशामें उदित चन्द्रमा पहले सर्वसम्मत स्वच्छ-स्वच्छ सब कलाओंसे रचे जानेसे निर्मल था, किन्तु वहांपर पूर्वदिशामें विहार करते हुए चन्द्रमाके मध्यमें सहसा पूर्वदिशामें स्थित ऐरावतका कृष्णवर्ण मदजल लग गया, नीलकमलके समान कृष्णवर्ण वह मदजल ही कलङ्करूपमें प्रतीत होता है, ऐसा मैं मानता हूं] // 139 // अंशं षोडशमामनन्ति रजनीभतः कलां वृत्तयः न्त्येनं पञ्चदशैव ताः प्रतिपदाद्याराकवद्धिष्णवः। या शेषा पुनरुद्धृता तिथिमृते सा किं हरालंकृतिस्तस्याः स्थानबिलं कलङ्कमिह किं पश्यामि सश्यामिकम् ? // 140 / / अंशमिति / हे प्रिये ! लोका रजनीभर्तुः षोडशमंशं कलामामनन्ति सत्यं कथ. यन्ति, ताश्च षोडशांशरूपाः प्रतिपदादिर्यस्मिन्कर्मणि राकां पूर्णिमामभिव्याप्य वद्धिष्णवः प्रतितिथि एकैककलाभिवृद्धया वर्धमानाः पञ्चदशसंख्याका एव कला एनं चन्द्रं वृत्तयन्ति वर्तुलं कुर्वन्ति, तिथिसंख्यासाम्यात्पूर्णमण्डलं कुर्वन्तीत्यर्थः। या पुनः कला षोडशी तिथिमृते उद्धता प्रयोजनाभावाञ्चन्द्राद्धहिः कृता सा षोडशी कला शेषा पञ्चदशकलाभ्योऽवशिष्टा सती; यद्वा-षोडशी तिथिं विना प्रयोजनाभा. वाद्यावशिष्टा सा निष्प्रयोजनस्वादुद्धता चन्द्राबहिनिष्कासिता सती हरालंकृतिः शिवशिरोभूषणं जाता किम् ? चन्द्रे प्रयोजनाभावाद्धरालंकृतिरिवाभूस्किमित्यर्थः / अहं तस्याश्चोतायाः षोडश्याः कलायाःसश्यामिकंनभो नीलिम्ना सह वर्तमान स्थानस्य पूर्वावस्थितेः संबंधि बिलं विवरं तत्कालानवस्थित्या कृत्वा शून्यं नीलं नभोभागमेवेह चन्द्रमण्डलमध्ये कलकं पश्यामि किम् ?मध्यवर्तिनीलं तत्स्थानबिलमेवाहं कलकत्वेन शङ्के इत्यर्थः / शेष'शब्दस्याभिधेयलिङ्गत्वं पूर्वमेव दर्शितम् / 'पूर्णे राका निशाकरे' इत्यमरः / वृत्तयन्ति, 'तत्करोति-' इति णिच / वर्द्धिष्णवः, 'अलंकृत-' इतीष्णुच / तिथिमृते, 'ऋते नलाशाम्' इतीवत् / श्यामिका, मनोज्ञादेराकृतिगणवाद्भावे वुञ्॥ (विद्वान् लोग) निशापति ( चन्द्रमा) के सोलहवें मागको 'कला' कहते हैं अर्थात् चन्द्रमाको सोलह कला बतलाते हैं, (शुक्लपक्षकी) प्रतिपदा तिथिसे पूर्णिमातक बढ़नेवाली वे पन्द्रह ही कलाएं इसे ( चन्द्रमाको ) वर्तुलाकार बनाती हैं, तिथिके बिना बाकी बची हुई जो कला चन्द्रमासे निकाली गयी, वही शिवजीका अलङ्कार (शिरोभूषण) है क्या?
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________________ 1576 नैषधमहाकाव्यम् / और चन्द्रमासे अलग की गयी उस एक कलाके कृष्णवर्णवाले स्थानके बिल (रिक्त = शून्य स्थान ) को इस चन्द्रमामें कलङ्क देखता हूं। [ चन्द्रमाकी सोलह कलाएँ हैं, और एक-एक तिथियोंमें एक-एक कला ही बढ़ती है, इस प्रकार शुक्लपक्षको प्रतिपदा तिथिसे पूर्णिमातक पन्द्रह कलाएँ ही चन्द्रमा गोलाकार ( पूर्ण ) बना देती हैं, किन्तु कलाओं को सोलह तथा तिथिओं के पन्द्रह होनेसे एक चन्द्रकला बच जाती है, जो शिवजीका नित्य शिरोभूषण बनकर रहती है और उस एक कलाका स्थान पूर्णचन्द्रमें खाली रहता है और नीलाकाशसे मिश्रित उसी रिक्त स्थानको हम चन्द्रमाके मध्य में कृष्णवर्ण कलङ्क रूप में देखते हैं ] // 140 // ज्योत्स्नामादयते चकोरशिशुना द्राघीयसी लोचने लिप्सुर्मूलमिवोपजीवितुमितः सन्तर्पणात्मीकृतात् | अङ्के रङ्कुमयं करोति च परिस्प्रष्टुं तदेवाहत स्त्वद्वक्त्रं नयनश्रियाऽप्यनधिकं मुग्धे ! विधित्सुविधुः / / 141 / / ज्योत्स्नामिति / हे मग्धे सुन्दरि ! स्वद्वक्त्रं वृत्तत्वादिगुणैः समानमपि नयनश्रियापि कृत्वानधिकं समानमेव विधिस्सुः, अत एव स्वस्य द्राघीयसी अतिदीर्घ लोचने लिप्सुलब्धुमिच्छुर्विधुश्चकोरशिशुना प्रयोज्येन स्वीयां ज्योत्स्नामादयते भक्ष. यति। तत्रोस्प्रेक्षते-चन्द्रिकामृतपायनकृतसम्यकपणेनात्मीकृतात्स्ववशीकृतादित. श्वकोरबालकासकाशान्मूलं स्वचन्द्रिकापायनहेतुभूतमेतदीयातिदीर्घनेत्रद्वयमुपजीवि. तुमादातुमिव / यद्वा-यत्किंचित्स्वस्य चन्द्रिकां पाययित्वा ततो नेत्रद्वयलक्ष्मी. प्राप्त्या मूलं चन्द्रिकारूपधनं वर्धयितुमिव / अन्योऽप्युत्तमोऽधमणस्य किंचिहत्वा तं वशीकृत्योत्तममिष्टं वस्तु ततो गृह्णाति / तथा-अयं चन्द्र आहत आदरयुक्तः सन्नके मध्ये, अथ च-उत्सङ्गे, रकुं च करोति / उत्सङ्गधारणेन लालयतीत्यर्थः। किमर्थमित्याशङ्कयाह-तन्मूलभूतमतिविशालं तदीयनयनयुगलं परिस्प्रष्टुमिव स्वलग्नं कर्तुमिव, त्वन्मुखसाम्यनिमित्तरमणीयनेनद्वयसंपादनायायं चन्द्रश्वकोरहरिणौ वञ्च. यतीत्यर्थः / चन्द्रादुत्कृष्टं स्वन्मुखमिति भावः। 'परिप्रष्टुम्' इति पाठे एतन्नेत्र. रामणीयकप्राप्त्युपायं प्रष्टुमिवेत्यर्थः / शिशुः सुप्रतार्य इति सूचयितुं 'शिशु'पदम् / आदयते, अदेगिरणार्थत्वेऽपि 'अदेःप्रतिषेधो वक्तव्यः' इति वक्तव्यात् 'निगरण-' आदि (सूत्रेण) परस्मैपदाभावे, 'णिपश्च' इति तङ। शिशुना, 'आदिखाद्योन' इत्यणौ कर्तुणौ कर्मस्वाभावः / द्राधीयसी अतिशायने ईयसुनि 'प्रियस्थिर-' इति / द्राघादेशः / लिप्सुः, विधिसुरिति च, 'न लोका-' इति षष्ठीनिषेधः // 14 // हे सुन्दरि ! ( आह्लादकत्व, वृत्तत्व एवं सौन्दर्यादि गुणोंसे समान भो ) तुम्हारे मुखको नेत्रशोभासे समान करना चाहता हुआ ( अत एव अपने ) बड़े-बड़े नेत्रद्वयको पानेका इच्छुक तथा भाग्रहवान् ( तत्पर ) यह चन्द्रमा ( अपनी चन्द्रिकाको खिलाकर ) अत्यन्त
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________________ द्वाविंशः सर्गः। सन्तुष्ट होकर वशीभूत हुए इस चकोर-शिशुसे मूल (अपनी चन्द्रिका खिलानेके हेतुभूत इस चकोर-शिशुके नेत्रदय ) को मानो लेनेके लिए (अथवा-अपनी साधारण चन्द्रिका देकर उससे श्रेष्ठ (चकोर-शिशुके) नेत्रद्वयको लेनेसे साधारण चन्द्रिकारूप मूल धनको मानो बढ़ाने के लिए-लोकमें भी ऋणदाता ऋण लेनेवालेको धन देकर उससे अपने मूल धनको बढ़ाता है) इस चकोर शिशुको अपनी चन्द्रिका खिलाता है, और उसी ( मृगसम्बन्धी नेत्रदय ) को पाने के लिए मृगको अपने अङ्क (मध्यभाग, पक्षा०-क्रोड ) में करता है / ( पाठा०-विशाल नेत्रदयको (पानेका उपाय) पूछने के लिए......... ) / [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसीके बच्चेकी बहुमूल्य वस्तु लेने के लिए जिस प्रकार उस बच्चेको कोई मधुर वस्तु मिठाई आदि खिलाता है और उससे उसे वशीभूतकर उसकी बहुमूल्य वस्तुको ले लेता है, उसी प्रकार यह चन्द्रमा तुम्हारे मुखके समान तो है, परन्तु नेत्रामाव होनेसे उसे मी पाकर नेत्रके भो समान बनने के लिए चकोर शिशुको चन्द्रिका खिलाकर उसके बड़े-बड़े नेत्रद्वयको पाना चाहता है तथा मृगको अपनी गोद में रखकर उसके भी बड़े-बड़े नेत्रद्वयको अपनेमें संलग्न करना ( पाना ) चाहता है ] // 141 // लावण्येन तवास्यमेव बहुना तत्पात्रमात्रस्पृशा चन्द्रः प्रोब्छनलब्धताऽर्द्धमलिनेनारम्भि शेषेण तु | निर्माय द्वयमेतदप्सु विधिना पाणी खलु क्षालितौ तल्लेशैरधुनाऽपि नीरनिलयैरम्भोजमारभ्यते / / 142 // लावण्येनेति / हे प्रिये ! बहुना कचित्पात्रे संचितेनाखिलेन लावण्येन कृत्वा तवास्यमेवारम्भि निर्मितम् / चन्द्रस्तु पुनस्तस्यलावण्यस्याधारपात्रं स्पृशतीति स्पृक तेन लावण्यस्थापन पात्रमात्रलग्नेन, अत एवं प्रोन्छनेन पात्रनिघर्षणेन कृत्वा या लब्धतोपार्जित्वं तेनाध कियरखण्डं मलिनं यस्य तेन किंचन्मलिनेन शेषेण भवन्मुखनिर्माणावशिष्टेनांशेन कृत्वारम्भि निर्मितः, अत एव शबलमण्डलोऽयं शोभत इत्यर्थः। शेषेण तु निर्मित इति वा / विधिना एतत्त्वन्मुखमृगावलक्षणं यं निर्माय सृष्ट्वाऽप्सु पाणी घालितो खलु लावण्यलेपकृतजलक्षालनाविव / तस्मात्तस्य पालनरजोमिलित. लावण्यलेपस्य लेशैररुपैरंशैरेव कर्तृभिरधुनापि नीरनिलयैर्जलस्थायिभिः सद्धिरम्भोजमारभ्यते निर्मीयते; कमलनिर्माणे ब्रह्मणः कोऽपि प्रयासो नेत्यर्थः / कमलाबन्द्रोऽधिकः, तस्मादपि त्वन्मुखं लावण्यसाकल्येन निर्मितत्वादधिक्रमिति भावः / अम्भोजम्, जात्येकत्वम् // 142 // (हे प्रिये !) ब्रह्माने बहुत ( किसी पात्र में रख गये सम्पूर्ण) सौन्दर्यसे तुम्हारे मुखको सथा उस पत्रमें लगे हुए और पात्रको पोंछनेसे आधी मलिनतासे युक्त (पात्र लग्न ) शेष सौन्दर्यसे चन्द्रमाको बनाया और इन दोनों-तुम्हारे मुख तथा चन्द्रमाको बनाकर भव. श्यमेव पानीमें दोनों हाथोंको धोया, (हाथ धोनेसे) पानीमें गिरे हुए उसी ( सौन्दर्य)
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________________ 1578 नैषधमहाकाव्यम् / के लेश (मलिनतम क्षुद्र भाग ) इस समय ( बहुत दिनोंके व्यतीत हो जानेपर ) मी कमलोंको बना ( उत्पन्न कर ) रहे हैं। [ लोकमें भी कोई शिल्पी किसी वर्तनमें रखी हुई सामग्री प्रधान वस्तुको बनाकर उस वर्तनमें लगी हुई शेष सामग्रीको पोंछ लेता है और पोंछनेसे वर्तनके संसर्गसे मलिन उस सामग्री से दूसरी वस्तुको बनाकर पानीमें हार्थोको धो लेता है / कमलसे चन्द्रमा श्रेष्ठ है और चन्द्रमासे भी तुम्हारा मुख श्रेष्ठ है ] // 142 / / लावण्येन तवाखिलेन वदनं तत्पात्रमात्रस्पृशा चन्द्रः प्रोञ्छनलब्धतार्द्धमलिनेनारम्भि शेषेण यः / तल्लेखाऽपि शिखामणिः सुषमयाऽहकृत्य शम्भोरभू. दब्जं तस्य पदं यदस्पृशदतः पद्मञ्च सद्म श्रियः / / 143 / / लावण्येनेति / अखिलेन लावण्येन तव वदनमारम्भि / ततो भवद्वदनकामनीयकवर्णनातिचिन्तापि दूरे तिष्ठतु, अशक्यकरणस्वादित्यर्थः। उक्तरीत्या तत्पात्र मात्रस्पृशा प्रोन्छनलब्धताधेमलिनेन शेषेण तु यश्चन्द्रः विधिना निरमायि तस्य लेखापि लावण्यपात्रमात्रस्थलावण्यनिमितस्य चन्द्रस्य षोडशांशरूपा कलापि कला. मात्रत्वादेव निष्कलङ्कत्वात् सुषमया परमया शोभया कृत्वा अहंकृत्य अस्यापेक्षयाऽह. मेव रमणीयेति दमवलम्ब्य शंभोःशिखामणिःशिरोभूषणमभूच्छिवशिरोऽध्यरोहत् / अन्यदपि सदर्पमुत्तमशिरोऽधिरोहति / अब्जं कुमुदं कर्तृ यद्यस्मात्तस्य चन्द्रस्य पदं प्रतिबिम्बस्थानं जलमस्पृशत् / अतः श्रियः सद्माभूत् / चन्द्रकरस्पर्शादेव हि कुमुदं सश्रीकं भवति पद्मं च श्रियः सद्माभूत् / जलस्य चन्द्रकिरणसंस्पर्शात् पद्मस्य च तत्रोत्पन्नत्वाद्वर्तमानत्वात्कुमदसाहचर्याच्च पद्ममपि लक्ष्याः स्थानमभूत् / यद्वापद्म चातः कुमदाद्धेतोः श्रियः सद्माभूत् / अब्जस्वजातियोगाकुमुदाधारजलयोगाच्च कुमदादेव परम्परया पद्मानां लक्ष्मीगृहत्वमभदित्यर्थः / यद्वा-या तल्लेखा शम्भोः शिखामणिरभत् , तस्य शिखामणेश्चन्द्रस्य पदं स्थानं शिवमस्तकं पूजासमये यस्मास्कुमदं पद्मं चास्पृशत् , अतस्तदुभयं श्रियः समाभत् / चन्द्रसंबद्धशिरःसंबन्धादु. भयं श्रीगृहमभूदित्यर्थः, यद्वा-तस्य शंभोः पदं चरणं पूजावशाधस्मात्कुमदं पद्म चास्पृशत् तस्मादुभयं श्रीसद्माभत्, तस्य लावण्यस्य स्थानं विधिहस्तलेपक्षालनजलं यस्मात्कुमदं पद्म चास्पृशत्। यद्वा-पद्ममेवास्पृशत् / यतोऽब्ज तस्मात्कुमदम, पद्म च पद्ममेव वा श्रीसद्माभदिति वा / त्वन्मुखलावण्यलेशपरम्परासंस्पर्शप्राप्तशोभानि चन्द्रादीनीति त्वमखलावण्यं वाङ्मनसगोचरो न भवतीति भावः / अर्थान्तरस्य स्पष्टत्वात् , पूर्वाधस्य त्वर्थान्तरप्रतिपादनार्थमनुवादरूपत्वान्नायं श्लोकः पुनरुतः / 'अहम्' इति विभक्तप्रतिरूपकमव्ययं, तस्य कान्तेन 'सह सुपा' इति समासे क्त्वो ल्यप् // 143 // ( उसी बातको कुछ भिन्नकर प्रकारान्तरसे कहते हैं-हे प्रिये ! ब्रह्माने ) सम्पूर्ण
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________________ द्वाविंशः सर्गः। , 1576 सौन्दर्यसे तुम्हारे मुखको तथा वर्तनमें लगे हुए पोछनेसे मकिन शेष सौन्दर्यसे जिस चन्द्र माको रचा, उस (चन्द्रमा) की रेखा (सोलहवां भाग अर्थात् एक कला) अपनी उत्कृष्ट शोभासे (इस शङ्करजीके मस्तकसे मैं ही श्रेष्ठ हूं ऐसा) अहङ्कारकर शङ्करजीकी शिरोमणि बन गयी और कुमद तथा कमलने जो उस चन्द्रमाका चरण (पक्षा०-किरण पडनेसे चरणस्थानीय जल ) का स्पर्श किया (उस पुण्यसे ) लक्ष्मीका निवास स्थान (मद शोभायुक्त तथा पद्म लक्ष्मीको कमलालया होनेसे लक्ष्मीके रहनेका स्थान) हो गये। अथवा-कुमुदने जो चन्द्रमाका चरण (प्रतिबिम्बस्पृष्ट जल ) का. स्पर्श किया और कमल उस कुमुद के संसर्ग मात्रसे लक्ष्मीका निवासस्थान हो गया / अथवा-उक्तरूप चन्द्रमाके स्थान (शिवमस्तक ) को पूजाकालमें कुमुद तथा कमलने जो स्पर्श किया, उससे वे हक्ष्मीका निवास स्थान हो गये। अथवा-उक्तरूप चन्द्रमासे शोमित उस (शिवजी) के चरणका स्पर्श कुमुद तथा कमल ने पूजाकालमें किया अर्थात् उक्तरूप शिवजीके चरणों पर जो वे पूजामें चढ़ाये गये, अतः वे लक्ष्मीका निवासस्थान हो गये / भाव यह है कि सम्पूर्ण सौन्दर्य रचे गये तुम्हारे मुखका वर्णन करना तो सर्वथा अशक्य ही है, क्योंकि बर्तन में लगे मलयुक्त सौन्दर्य-शेषसे बनाये गये चन्द्रमा का निष्कलङ्क सोलहवां भाग भी शिवजीके मस्तक की अपेक्षा अपनेको श्रेष्ठ मानकर उनके शिरपर चढ़ गया, और उस चन्द्रमाके प्रतिबिम्बस्थान नरू रूप चरण, या-उक्त चन्द्रमासे युक्त शिवजीके चरणके स्पर्शमात्रसे कुमद तथा कमल लक्ष्मीके निवासस्थान बन गये। लोकमें भी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति हीनके ऊपर अहङ्कारपूर्वक निवास करता है, तथा श्रेष्ठ व्यक्तिके चरणस्पर्शसे हीनतम व्यक्ति भी लक्ष्मीपात्र ( अतिशय धनवान् , या-शोमान्वित ) बन जाता है / इस कारण तुम्हारे मुखके सौन्दर्यका वर्णन भला कौन कर सकता है ? ] // 143 // .. सपीतेः सम्प्रीतेरजनि रजनीशः परिषदा परीतस्ताराणां दिनमणिमणिग्रावमणिकः। प्रिये ! पश्योत्प्रेक्षाकविभिरभिधानाय सुशकः सुधामभ्युद्धत्तु धृतशशकनीलाश्मचषकः // 144 // सपीतेरिति / हे प्रिये संप्रीतेस्ताराणामेवान्योन्यं सम्यग्या प्रीतिः सौहार्द तस्मा तोर्या सपीतिः सह पानं, सुहृदो हि सह पानं कुर्वन्ति तस्माद्धेतोः, यद्वा सहपाना तोर्या सम्यक् प्रीती रुच्यभिवृद्धिः, तस्माद्धेतोस्ताराणां परिषदा सङ्घन परीतः समन्ताद्वयाप्तोऽयं रजनीशो दिनमणिमणिः सूर्यकान्तमणिस्तस्य ग्रावाशिला तया घटि. तोऽतिधवळः स्थूलंः पेयद्रव्याधारभूतो मणिकोऽरिक्षर एवाजनिसंभूतः विधिना तारा. परिषदा वा व्यरचीति पश्य / कीदृशः? सादृश्येन वस्त्वन्तरसंभावनारूपायामुत्प्रेक्षायां विषये कविभिविशिष्टसंभावनाचतुरैः श्रीहर्षादिभिर्महाकविभिस्तारापरिषदेव सुधाम. भ्युदतुं धृतो यो मध्यस्थितः शशकः कलङ्कः स एव नीलारमा नीलमणिस्तेन घटितं 16 नै० उ०
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________________ 1580 नैषधमहाकाव्यम् / चषकं पानपात्रं यस्मिन्नेवभूत इवायमिति अभिधानाय वर्णनायः वर्णयितुं सुशकः सुखेन शक्यः / चन्द्रो धावल्याद् वृत्तस्वाच्च पीयूषपूर्णः सूर्यकान्तमणिक इव, कलङ्कश्श नोलमणिघटितं चषकमिव दृश्यते पश्येत्यर्थः / यथा मणिकस्थोदकाद्यद्धरणाय मणिक. मुखे चषकः स्थाप्यते, तथा ताराभिः परस्परं मिलिस्वा 'सुधापानं कर्तुं परिवेष्टितस्य सुधापूरितस्यास्यापि चन्द्रमणिकस्य मुखे सुधोद्धरणाय शशनामा नीलमणिचषको निक्षिप्त इत्युत्प्रेक्षितुं शक्यत इत्यर्थः / 'चषकोऽस्त्री पानपात्रम्' इत्यमरः / सपोतेः, वोपसर्जनस्य' इति वा 'सहस्य सः संज्ञायाम्' इत्यत्र 'सहस्य सः' इति योगवि. भागाद्वा सहस्य सः। कविभिः, खलर्थयोगान्न षष्ठी, सुशक इति खल // 144 // हे प्रिये ! सम्यक् प्रकारको प्रोति होने के कारण साथमें पान करनेसे ( अथवा-साथमें पान करनेसे सम्यक् प्रकार की प्रीति होनेसे ) तार।-समूहसे युक्त चन्द्रमा सूर्यकान्तमणिके पत्थर से बनाया गया ( सुश रखनेका ) कलश है और शशक उससे सुधा निकालने के लिए नीलमणि ( नीलम ) से बनाया गया प्याला है' ऐसा वर्णन करना उत्प्रेक्षा करनेवाले श्रोहर्षादि कवियों के क्षिर बहुत सरल ( एवं समुचित) है। [ स्वच्छवर्ण चन्द्रमा सूर्यकान्त मणिके बने हुए सुधापात्रके समान तथा उसके मध्यस्थ कृष्णवर्ण शशकाकार कलङ्क सुधा निकालने के लिए छोटे प्याले के समान प्रतीत होता है, कवियोंको ऐसी उत्प्रेक्षा करनी चाहिये ] // 144 // आस्यं शीतमयूखमण्डलगुणानाकृष्य ते निर्मितं शङ्के सुन्दरि ! शर्वरोपरिवृढस्तेनैष दोषाकरः / आदायेन्दुमृगादपीह निहिते पश्यामि सारं दृशौ त्वद्वक्त्रे सति वा विधौ धृतिमयं दध्यादनन्धः कुतः 1 // 14 // आस्यमिति / हे सुन्दरि! विधिना शीतमयूखस्य मण्डलं बिम्बं तस्य वृत्तस्वाहा. दत्वादिगुगानाकृष्य गृहीत्वा ते आस्यं यतो निर्मितं तेन गुगगगोकर्षेग हेतुना शर्वर्याः परिवृढः प्रभुश्चन्द्रो दोषाणामाकर उत्पत्तिस्थानं, न तु दोषा रात्रिस्तरकारि. स्वा होषाकर इत्यर्थ इत्यहं शके। तथा-इन्दोम॑गास्सकाशासारं दृशावादाय अति. श्रेष्ठे नेत्रे गृहीत्वा इह भवन्मुखे निहिते इत्यहं जाने। कुतो ज्ञातमित्यत आहसुन्दरतरे स्वद्वक्त्रे जागरूके सति अनन्धश्वनुष्मानुभयतारतम्यविचारचतुरोऽयं मृगो विधौ चन्द्रे प्रति स्थितिम्, अथ च-समोचोनाधारपरितोषं, कुतो वा दध्याद्धारयेत्, अपि तु न कथंचित् ; तस्मान्नेत्रोद्धरणादन्धस्वेनेव स्वन्मखरामणीयकादशंनादन्यत्र गन्तुमशक्तेश्च स्वन्मुखं त्यक्त्वात्रैवायं स्थित इत्यर्थः / स्वन्मुखं चन्द्रादधिकम् , नेत्रे च मृगनेत्राभ्यामधिके इति भावः। 'सारे' इति क्वचित्पाठः // 142 / / __ हे सुन्दरि ! (ब्रह्माने ) चन्द्रमण्डलसे (आह्वादकत्वादि) गुणों को निकालकर तुम्हारे मुखको बनाया, इसी कारणसे निशानाथ यह चन्द्रमा दोषाकर ( दोषों का खजाना, पक्षा
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1581 रात्रिको करनेवाला ) हुआ और चन्द्रमाके मृगसे (कृष्णत्व, चापल्य तथा उन्मादकस्वादि गुणोंको लेकर सारभूत अर्थात श्रेष्ठतम ) तुम्हारे नेत्रद्वयको बनाया, अन्यथा यदि यह मृग नेत्रहीन होनेसे अन्धा नहीं हो गया होता तो ( चन्द्राधिक सुन्दर ) तुम्हारे मुखके विद्यमान रहनेपर इस चन्द्रमामें ही धैर्यको कैसे धारण करता ? अर्थात् चन्द्रमाको छोड़कर चन्द्राधिक सुन्दर तुम्हारे मुखमें आकर रहने लगता [ परन्तु उसके वैसा नहीं करनेसे ज्ञात होता है कि सारभूत मृगनेत्रको तुम्हारे मुखमें रखनेके कारण यह चन्द्रमा अन्धा हो गया है। लोकमें भी कोई अन्धा व्यक्ति उत्तम स्थानको जाने में असमर्थ होनेसे हीन स्थानमें ही सन्तोषपूर्वक रहता है / तुम्हारा मुख चन्द्रमासे तथा नेत्र मृगनेत्रसे अधिक सुन्दर हैं] // 145 // शुचिरुचिमुडुगणमगणनममुमतिकलयसि कृशतनु ! न गगनतटमनु | प्रतिनिशशशितलविगलदमृतभृतरविरथहयचयखुरबिलकुलमिव / / 146 // शुचीति / हे कृशतनु ! त्वं गगनतट नभःस्थलमनु लक्षीकृत्य शुचिरुचिं श्वेतकान्ति, तथा-बहुत्वादगणनं संख्यातुमशक्यममुमडल्या निर्देश्यं प्रत्यक्षगम्य. मुहुगणं प्रतिनिशं रात्रौ रात्रौ शशितलाचन्द्राधोभागाद्विगलता स्रवताऽमृतेन भृतं पूर्ण रविरथस्य हयचयस्य खुराणां यानि बिलानि न्यासस्थानविवराणि तेषां कुलं वृन्दमिव नातिशयेन कलयसि, अपि तु तदिवातितरां जानीहीत्यर्थः। प्रतिनिशं चन्द्रावलता धवलेनामृतेन पूर्णाः सूर्याश्वखुरगर्ता इव तारकाः शोभन्त इति भावः / गगनतटम, कर्मप्रवचनीययोगाद् द्वितीया। प्रतिनिशम, वीप्सायामव्ययीभावः / सर्वलघुः // 146 // हे कृशाङ्गी ! ( तुम ) आकाशतटको लक्ष्यकर स्वच्छ कान्तिवाले अगणित तारा-समूह को प्रत्येक रात्रिमें चन्द्रमाके अधोभागसे बहते हुए अमृतसे परिपूर्ण, सूर्यरथके घोड़ों के खुरोंसे बने बिल-समूह के समान सम्यक प्रकारसे नहीं जानती हो क्या ? [दिनमें चलते हुए सूर्यरथके घोड़ों के खुरोंसे उस अमृतपूर्ण स्थानमें बिलें हो गयी हैं, जो प्रत्येक रात्रिको चन्द्रतलसे होते हुए अमृतस्रावसे पूर्ण होकर तारा-समूह ज्ञात होती हैं ] // 146 // उपनतमुडुपुष्पजातमास्ते भवतु जनः परिचारकस्तवायम् / तिलतिलकितपर्पटाभमिन्दु वितर निवेद्यमुपास्स्व पञ्चबाणम् / / 147 // उपनतमिति // हे प्रिये ! 'रक्को भौमः, शनिः कृष्णः, गुरुः पीतः, सितः कविः' इत्यादिज्योतिःशास्त्रादिप्रामाण्यानानावर्णाकृतीन्युडूनि नक्षत्राण्येव पुष्पजातमुपनतमुपसंपन्नमास्ते अयं मल्लक्षणो जनः प्रारब्धकामदेवपूजायास्तव परिचारकश्चन्दनाचुपचारोपनायकः, अथ च-संभोगकारी भवतु / स्वं तिलैः संजाततिलकः, तिले. रेव तिलकवान्कृतो वा यः पर्पटः शालितण्डुलपिष्टरचितश्चिपिटस्तिलसंकुलीसंज्ञ उपदंशविशेषस्तद्वदाभा यस्य तत्तुल्यं सकलङ्कमध्यस्वाद्विशिष्टपर्पटसहशमिन्दुमेव निवेद्यं कामाय वितर, एवं पञ्चबाणं कामदेवमुपास्स्व पूजय / अन्योऽपि देवपूजकः
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________________ 1582 नैषधमहाकाव्यम् / पुष्पादिसामप्रया देवं पूजयति, कश्चित्परिचारकोऽपि तस्य भवति, एवमत्रापि / सर्वाणि नक्षत्राण्युदितानि, कामोद्दीपकश्चन्द्रोऽप्युदितः, सुरतान्तरायकारी निषिद्धः संध्यासमयोऽतिक्रान्तः, तस्मात्काममुपास्स्व, सुरतेच्छुरस्मीति भावः / पञ्चबाणम्' इत्यनेन कामस्यातिपीडाकारिवं सूच्यते / 'जातिर्जातं च सामान्यम्' इत्यभिधानात् 'जात' शब्दः सामान्यवाची पुष्पमात्रे पर्यवस्यति / तिलकितेति तारकादिः मतुः बन्तात् 'तत्करोति-' (ग० सू० 204) इति ण्यन्तानिष्ठा // 147 // (हे प्रियतमे दमयन्ती !, लाल, पीला, श्वेत, कृष्ण आदि अनेक वर्गौवाले ) तारारूफ पुष्प-समूह उपस्थित है ( लाकर रखा हुआ है ), यह व्यक्ति तुम्हारा परिचारक (दास) बने ( देवपूजा करनेवाली तुम्हारी पूजासामग्रियों को लाने आदिमें में सहायक बनूं)। तिलों के तिलकसे युक्त पर्पट ( चावल के चूनका बना हुआ मध्यमें तिलयुक्त गोलाकार भं ज्यपदार्थ-विशेष, जिसे 'तिलकुट' कहते हैं ) के समान कान्तिवाले इस चन्द्रमाको ( कामदेवके लिए ) नैवेद्य समर्पण करो और इस प्रकार कामदेवकी पूजा करो। [ पूजामें पुष्प, नैवेद्य. तथा एक सहायक की आवश्यकता होती है, अत एव तारारूप पुष्पसमूह, चन्द्ररूप नैवेद्य मैं सहायक परिचारकरूपमें उपस्थित हूँ, इस प्रकार पूजाकी सब सामग्रियोंके उपस्थित होनेसे तुम मुझ परिचारकको आदेश दो, जिससे मैं पञ्चबाण अर्थात् कामदेवकी पूजामें सहायक बनूं। चूंकि कामदेव 'पञ्चबाण' है, अतः उसकी यथावसर पूजा नहीं करने से वह उन बाणोंद्वारा दण्ड भी देगा, यह 'पञ्चबाण' पदसे ध्वनित होता है। उद्दीपक चन्द्रमाका वर्णन करनेसे रमणेच्छुक नलने रमण करने के लिए दमयन्तीसे ऐसा कहा ] // 147 / / इदानी काव्यसमाप्तिं चिकीर्षुः श्रीहर्षो नायकमुखेनाशिषमाशास्तेस्वर्भानुप्रतिवारपारणमिल हन्तौघयन्त्रोद्भव श्वभ्रालीपतयालुदीधितिसुधासारस्तुषारद्युतिः / पुष्पेष्वासनतत्प्रियापरिणयानन्दाभिषेकोत्सवे देवः प्राप्तसहस्रधार कलशश्रीरस्तु नस्तुष्टये / / 148 // स्वर्भानुरिति / हे प्रिये ! देवः प्रकाशमानस्तुषारद्युतिर्हिमकरः, अथ चहिमकर एव देवः, वर्णनां पूजां च कुर्वतां नोऽस्मदादीनाम, आवयोर्वा तुष्टये परमा. नन्दायास्तु / किभूत: ? स्वर्भानो राहोः प्रतिवारं पौनःपुन्येन यत्पारणं चन्द्रस्यैव गिलनं तेन तत्र वा मिलन संलग्नो यो दन्तौघरतद्पं यन्त्रं छिद्रकरण साधनं तस्मा. दुद्भवो यस्याः सा श्वभ्राक्षीदन्तदशनवृतविवरपरम्परा तया तस्याः सकाशाद्वा पत. यालुः पतन शीला दीधिति सुधा किरणामृतं तद्रपः, दीधिति सुधाया वा सारः श्रेष्ठ भागो यस्य, दीधितिसुधाया आसारो धारासंपातो दीधितिसुधारूपो वा आसारो यस्य सः / अत एव-पुष्पमेवेष्वासनं धनुर्यस्य तस्य कामस्य तत्प्रियाया रस्याश्चानयोर्यः परिण.यो विवाहो लक्षणयां परस्परसंमेलनं तद्पो य आनन्दः संतोषस्तरसं.
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1583 बन्धिनि 'समुद्रज्येष्ठा-' इत्यादिश्रौतेऽभिषेकाख्ये उत्सवे महाभिषेकार्थ सहनसंख्या धारा लोहशलाकानिर्मितजलप्रवाहमार्गा यस्य स ताहशो यः कलशस्तस्य श्रीः, प्राप्ता सहस्रच्छिद्रगलजलधारकलशस्येव श्रीः शोभा येन सः / महोत्सवे हि सहस्त्र. धारेण सुवर्णकलशेन महाभिषेकः क्रियते / तथा च राहुदन्तकृतच्छिद्रपरम्परा. गलदमृतधारश्चन्द्रो गलजलधारसहस्रच्छिद्रसुवर्णकलश इव शोभमानः पूर्वोक्तवर्णन. योक्तविधत्वस्कृतपूजया च सुरतप्रवृत्तयोरावयोरुद्दीपकतया परमानन्दं कुर्यादिति भावः। एतेन तत्समयोचितरतिकामविवाहोत्सवाभिधानेन 'चन्द्रोऽस्तु नस्तुष्टये इत्यनेन च विलासिना नलेन स्वनिवर्त्यतृतीयपुरुषार्थपयोधिपीयूषरसास्वादनलाल. साभिव्यज्यते / 'सुधाधार-' इत्यपि पाठे-दीधितिसुधाया धारा यस्य सुधाया आधार इति वा / 'आनन्द' पदेन 'तुष्टयेऽस्तु' इत्याशिषा च ग्रन्थसमाप्तिं द्योतयति / महा. भारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसस्वान्नायकानुदयवर्णनेन रसभङ्गसद्भा. वाच काव्यस्य च सहृदयालादनफलत्वाचात्रोत्तरचरित्रं श्रीहर्षेण न वर्णितमित्यादि ज्ञातव्यम् / न इति पक्षे 'अस्मदो द्वयोश्च' इति द्विस्वेऽपि बहुवचनम् // 148 // (हे प्रिये ! ) राहुके प्रत्येक वार निगलनेसे संलग्न (परस्परमें सम्मिलित ) होते हुए दन्त-समूह अर्थात् ऊपर नीचेकी दन्तपंक्तिदयरूप (छेद करनेके ) यन्त्रसे उत्पन्न हुए. छिद्रसमूहसे गिरता हुआ ( चन्द्रमाकी ) किरणरूपी अमृतरूपसार (श्रेष्ठमाग, या-आसारधारासे होनेवाली वृष्टि ) वाला, और कामदेव तथा रतिके विवाह .( सम्मिलन ) रूप आनन्दकारक अभिषे कोत्सबमें सहस्र-धाराओंसे युक्त कलसकी शोभाको प्राप्त शोतद्युति (चन्द्रमा) यह देव हमलोगों (चन्द्रस्तुति या चन्द्रपूजा करनेवाले हम सबों, या-हम दोनों) के परमानन्दके लिए होवे / [ स्त्री-पुरुष के विवाहके बाद सहस्र छिद्रयुक्त कळससे अभिषेक कराया जाता है, चन्द्रमा भो बार-बार ग्रहणकालमें राहुके दोनों दन्तपंक्तिरूप यन्त्रके गीचमें पकड़कर सहस्र छिद्रोंसे युक्त होकर अमृतस्राव करता हुआ उक्त अभिषेक-कलसके समान होता हुआ काम-मित्र होनेसे कामपूजन (या-कामस्तुति = उक्तरूप ( 22 / 39147 ) से कामवर्णन करनेवाले हमलोगोंके परमानन्दके लिए हो। यहां नलने तृतीय पुरुषार्थ 'काम' का प्रसङ्ग होनेसे उप्तोकी आशंसा की है। महाभारत आदि पुराणों में वर्णित नलका अवशिष्ट चरित दुःखप्रद एवं नीरस प्राय होनेसे महाकवि श्रीहर्षने शृङ्गारपूर्ण सरस नल चरितका वर्णन करने के बाद ही इस महाकाव्यको समाप्त करने के उद्देश्यसे प्रधान नायक नलके मुखसे 'आशीर्वादात्मक' होनेसे मङ्गलकारक आशंसा कराकर ग्रन्थको समाप्त किया है / अत एव कुछ समालोचकों का यह कथन ठीक नहीं है कि-'कविसम्राट् श्रीहर्षने आगे भी नलके चरितका वर्णन किया होगा' ] // 148 // श्रीहर्षे कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं / श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् /
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________________ 1584 नैषधमहाकाव्यम् / द्वाविंशो नवसाहसाङ्कचरिते चम्पूकृतोऽयं महा काव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 146 / / श्रीहर्षमिति / द्वाविंशतेः पूरणः सर्गों गतः समाप्ति प्राप / किंभूतस्य श्रीहर्षस्य ? नवो यः साहसाङ्को नाम राजा तस्य चरिते विषये चम्पूंगद्यपद्यमयीं कथां करोतीति कृत् तस्य निर्मितवतः सोऽपि ग्रन्थो येन कृत इति सूच्यते 'नृपसाहसाङ्क-' इति पाठे-नृपश्चासौ साहसाङ्कश्च तस्य गौडेन्द्रस्य चरिते विषये चम्पूकृतः भोजराजस्य विक्रमार्कस्य वेति केचित् / द्वाविंश इति पूरणे डटि 'ति विंशतेर्डिति' इति तिलोपः // ___कवीश्वर-समूह के "किया, नये ( पाठा०-राजा) 'साहसाङ्क' नामक गौडदेशाधीशके चरितमें 'चम्पू' काव्यकी रचना करनेवाले उस (श्रीहर्ष) के रचित, 'नलचरित' अर्थात् 'नैषधचरित' नामक महाकाव्यमें स्वमावतः सुन्दर यह बाइसवा सर्ग समाप्त हुआ। ( शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान जाननी चाहिये ) // 149 // अथ कविप्रशस्तिः / यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयाऽपि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं नैव कुरुते ? / मदुक्तिश्चेदन्तर्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषानादरभरैः // 1 // यथेति / यथा परमरमणीयापि रमणी यूनस्तरुणस्य कामिनोऽन्तःकरणहरण कुरुते, तद्वत्तथा कुमाराणां बालिशानां क्षीरलाभमात्रेण परमपुरुषार्थप्राप्तिमभिमन्य. मानानामनुभूतकामसुखानां चित्तं स्ववशं कैव कुरुते ? अपि तु-न कापि / तथेयं काव्यरचनारूपा परमरमणीया मदुक्तिरपि श्रवणमननादिवशात्सुधीभूयामृतत्वं प्राप्य सुधियः सकलदर्शनरहस्यवेदिनोऽतिसरसस्य पण्डितस्य चेतश्चेद्यदि मदयति आन न्दयति तस्याः सुधियाऽत्याहताया मदुक्तेररसानां नीरसानां सर्वथैवासंस्पृष्टरस. शब्दार्थानामपि चलदुपलप्रायाणामतृणादापुच्छपशूनामनादरभरैस्तस्कृतावज्ञासमू है। किं नाम स्यात् , अपि तु न किंचिदप्यस्यास्तैरपकर्तुं शक्यते / सुधीभिराहते सति नीरसैरकृते कृते वाप्यादरे न किंचिदित्यर्थः / सुधीभिराहतत्वात्सकलगुणपूर्णातिसर. सेयं मदुक्तिरिति भावः / मदुक्तेः सुधारूपत्वाभावारक्षोदानन्तरं च सरसत्वप्रतीतेः सुधारवारसुधीभूयेति चिः / सुधिय इति जास्यभिप्रायेण / एकेनापि सुधियादरे कृते महद्वगौरवम्, बहुभिरप्यज्ञेरनादरेषु कृतेष्वपि न किंचिल्लाघवमित्यभिप्रायेण वा। 'यूनः' इति प्रतियोगिन एकवचनान्तवाच्चैकवचनम् / कवेः स्वग्रन्थमुद्दिश्येयमुक्तिः। अत्यधिक सुन्दरी भी नायिका जैसा युवकोंके अन्तःकरणको आकृष्ट करती है, वैसा कुमारों के अन्तःकरणको कौन आकृष्ट करती है ? अर्थात् कोई नहीं (इस कारण ) मेरी
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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1585 उक्ति अर्थात् मेरा रचा 'हुमा यह 'नैषधचरित' नामक महाकाव्य यदि अमृत होकर विद्वानोंके चित्त को आनन्दित करती है तो इस मदुक्तिको नीरस लोगों के अधिक अनादरसे क्या (हानि ) है / [जिस प्रकार युवकों के समान कुमारों के अन्तःकरणको आकृष्ट नहीं करने पर भी युवतीका सौन्दर्य दोषयुक्त नहीं माना जाता, उसी प्रकार विद्वानों के चित्तको मानन्दित करनेवाला मेरा यह महाकाव्य नीरस ( मुखं या-असहृदय) लोगोंके अतिशय भनादर करनेपर भी दोषयुक्त नहीं कहा जा सकता] // 1 // कविरर्थान्तरोक्त्या स्वीयामुक्तिं वर्णयतिदिशि दिशि गिरिग्रावाणः स्वां वमन्तु सरस्वती तुलयतु मिथस्तामापातस्फुरवनिडम्बराम् / स परमपरः क्षीरोदन्वान् यदीयमुदीयते मथितुरमृतं खेदच्छेदि प्रमोदनमोदनम् // 2 // दिशीति / गिरिग्रावाणोऽद्रिपाषाणा दिशि दिशि स्वां निजां सरस्वती नदीमन्त. गंतजलप्रस्रवणं वमन्तु मुश्चन्तु / आपातः सामस्स्येन पतनं स्फुरन्प्रकाशमानो ध्वनि डम्बरः शब्दाडम्बरो यस्यां तां च नदी मिथस्तुलयतु मिथोऽन्यनद्या समीकरोतु / अविसर्गान्तपाठे-आपातेन समन्तादूर्ध्वदेशादधःपतनेन प्रकाशमानः शब्दा. उम्बरो यस्यां तामन्यनद्या सद्यं समीकसेतु, जन इत्यर्थः। अथ च-आपाते प्रथ. मारम्भ एव स्फुस्स्प्रपातघोषां तां जनो मिथस्तुलयतु / उभयव्याख्यानेऽपि परिणामे तु न नदी न च तस्या शब्दाडम्बरश्चिरंतन इत्यर्थः। स क्षीरोदन्वान् परं केवलं, अपरः न विद्यते पर उस्कृष्टो यस्मादत्युत्कृष्टः। अथ च-अन्य एव / यतो यस्य पीरोदस्येदं यदीयममृतमेतादृशमुदीयते उत्पद्यते / कीदृशम् ? मथितुर्देवादेः खेदछेदि मथनजनितक्लेशापहम् / तथा-प्रमोदनं नितरामानन्ददायि / तथा-ओदनं भक्तमास्वाद्यं सिद्धान्नरूपम् / अथ च-एवंभूतं परमुस्कृष्टममृतं यदीयमुदीयते स क्षीरोदन्वानपरः परोऽन्यो नास्ति, किंत्वेक एव / अथ च-प्रतिदिशं सर्वदेशेषु गिरि वाण्यां विषये पाषाणतुल्या जडा अन्ये कवयः स्वीयावाणीमुनिरन्तु / आपातेन प्रतिभामात्रेण स्फुरन् ध्वन्याख्यकाव्यविशेषस्याडम्बरो यस्यां,प्रथमारम्भ एव स्फुरन् शब्दाडम्बरोऽनुप्रासो यत्र तां वा, वाणीमन्योन्यं जनः समीकरोतु यस्य कवेरुक्तिरस्येव, अस्य च तस्येव इत्येवं तुलयतु / 'आपातः' इति विसर्जनीयान्तपाठेभापातः प्रतिभासस्तां तुलयस्वित्यर्थः / एवंविधं परं काव्यामृतं यदीयमुत्पद्यते स क्षीरसमुद्रतुल्यः श्रीहर्षकविरपरो(अन्यो) नास्ति, किं रवेक एव / अन्ये कवयः पर्वत. ग्रावतुल्याः, अहं श्रीहर्षस्तु क्षीरसमुद्रतुत्य इत्यर्थः / यथा क्षीरसागरो नीरार्थिनोऽपि तीरमानस्थान्क्षीरेण तर्पयति / लक्ष्मीकौस्तुभामृतादिभिः परमानन्ददायिभिः कृता. यति, (तथा) मदीयकाव्यविचारकस्यैव खेदच्छेदि प्रमोदनं वचनामृतमुस्पद्यते,
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________________ 1596 नैषधमहाकाव्यम् / नान्यकाव्यविचारकस्येति, अन्ये प्रावतुझ्याः, क्षीरोदतुल्यवाहमिति भावः // 2 // पर्वत-पाषाण प्रत्येक दिशाओं में अपनी ( अपनेसे निकली हुई) नदीको बहावें, और उसका सर्वतोभावसे गिरना प्रकाश्यमान शब्दाडम्बरवालो उस नदी की परस्परमें (एक नदी की दूसरी नदीके साथ ) समानता करे / ( पाठा०-लोक आपात ( ऊपरसे नीचेको ओर सर्वथा गिरने ) से प्रकाशमान..."")। किन्तु वह श्रेष्ठ क्षीरसमुद्र दूसरा ही है ( अथवा-वह क्षीरसमुद्र ही परमश्रेष्ठ है ), जिसका अमृत मथन करनेवालों ( देवो ) का श्रमनाशक तथा अतिशय आनन्ददायक ( अथवा-हर्षकारक ओदनमात अर्थात् मक्ष्य पदार्थ ) कहा जाता है / ( पक्षा०-पर्वतपाषाणतुल्य अन्य कविलोग अपनी वाणी ( काव्य ) को प्रत्येक दिशाओंमें अर्थात् सर्वत्र प्रकाशित करें, सामान्य विचारसे प्रकाशमान शन्दा. डम्बरवाली उस वाणी ( काव्य ) की परस्परमें ( एक दूसरेके रचे गये काव्य ) में तुलना ('इसकी अपेक्षा यह उत्तम है और यह होन है। ऐसा विचार ) करें ( अथवा-दूसरा व्यक्ति थोड़ा विचार करनेसे प्रकाशमान".."")। किन्तु क्षीरसमुद्रके समान अतिशय श्रेष्ठ वह ( सुप्रसिद्ध 'श्रोह' नामक महाकवि मैं ) है, जिसको अमृततुल्य महाकाव्य पढ़ने. वालों के परिश्रमका नाशक तथा परमानन्ददायक कहा जाता है)। [अन्य कविलोगोंकी उक्ति पर्वतीय नदीके समान केवल शब्दाडम्बर करनेवाली, गाम्भीर्यहीन अचिरस्थायिनो तथा तीरस्थ लोगोंको जलमात्र देनेवाली है और मेरी ( 'श्रीहर्ष' महाकविको ) उक्ति क्षीर. समुद्र के समान शब्दाडम्बर रहित, गाम्भीर्ययुक्त, चिरस्थायिनी तथा तीरस्थ लोगोंको भी दूधको धारासे सन्तुष्ट करनेवाली तथा लक्ष्मी, कौस्तुम आदि रूप सुभाषितरत्नोंको देने वाली है। इस प्रकार अन्य कवि पर्वतपाषाणतुल्य तथा मैं क्षीरसमुद्र हूं, अतः मेरे हम महाकाव्यका हो पठन-पाठन-श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा आचरण करना चाहिये // इदानी प्रसादरूप मुख्यगुगामावादतिदुर्बोधस्वादकाव्यमिति ये वदन्ति, तच्छवा. मपनुदन बलदर्पदलनाथं गुरुसंप्रदायेन विना दुर्बोधमित्यतिगाम्भीर्यप्रतिपादनार्थ च बुद्धिपूर्वमेव मयेदं काव्यं तत्र तत्र दुर्बोधं व्यरचीत्याहग्रन्थग्रन्थिरिह कचित् क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया प्राज्ञम्मन्यमना हठेन पठिती माऽस्मिन् खलः खेलतु / श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादय त्वेतत्काव्यरसोमिमजनसुखव्यासज्जनं सज्जनः // 3 // ग्रन्थेति / आत्मानं प्राज्ञंमन्यन्तं प्राज्ञंमन्यं मनो यस्यैवंविधोऽस्मिन्काव्ये हठेन स्त्रीय प्रज्ञावलेन पठितमस्यास्तीति पठिती इदंकाव्यस्य पाठकः खलो मा खेलतु 'किम. नास्ति अश्रुतमेव व्याकतुं शक्यते' इत्यवज्ञापूर्वादाभिव्यक्ति मा कादित्येवमर्थमिह काव्ये क्वचिवचिदपि तत्र तत्र स्थले मया प्रयत्नाद् बुद्धिपूर्व ग्रन्थग्रन्थिग्रंथ्यमानश. ब्दार्थकुटिलिका न्यासि विन्यस्ता खलमुखमनार्थ बुद्धिपूर्वमेवेदं काम्यं मया दुर्बोधं
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________________ * द्वाविंशः सर्गः। व्यरचि, नतु प्रसन्नकान्यकरणाशक्येत्यर्थः / 'क्वचिस्क्वचिदपि' इत्यनेन तत्र तत्र प्रसा. ताप्यस्तीति न काव्यवहानिरिति सूच्यते / सजनस्य तु ग्रन्थविवेचनोपायमाहश्रदेति / श्रद्धया गुरौ दैवतैकबुद्धया आराद्धन पूजितेन गुरुणा पूर्वमश्लथा अपि श्लथाः कृता व्याख्यया सुबोधाः कृता हढाः स्वरूपतो दुर्बोधा ग्रन्थयो यस्मै स गुरुसंप्रदायावगतार्थः, अत एव दर्पराहित्यारसजनः साधुरेतरकाव्यस्य रसोर्मिरमृत. लहरी तस्यां मजनमवस्थानं समासादयतु प्राप्नोतु / गुरुपरम्परया विनैकस्यापि पद्यस्यार्थो बोद्धं न शक्यते, तस्माद गुरुपरम्पराया एवाध्येयमिदं काव्यमित्यर्थः। "यश्चेदं गुरुपरम्पराया अधीते स सततं सुखी भवतु' इति महाकविस्तस्मा आशिषं ददाति / अस्मिन्पठिती, 'क्तस्येविषयस्य-' इति कर्मणि सप्तमी / आरादेति राधेरनु। दात्तस्वादिढभावः // 3 // __'अपनेको विद्वान् माननेवाला ( किन्तु वास्तविकमें अविद्वान् ) तथा इठसे ( केवल अपनी बुद्धिसे गुरुपरम्परासे नहीं ) इस ( महाकाव्य ) को पढ़नेवाला खल ( वास्तविक माव नहीं समझनेसे दूसरेकी उक्तिको दोषयुक्त बतलानेवाला असज्जन) क्रीडा ('इप्स काव्यमें क्या रखा है ?' इत्यादि अपमानपूर्वक अपने दर्पको प्रकट ) मत करे।' इसी उद्देश्यसे मैंने इस ग्रन्थमें कहीं-कहीं प्रयत्नसे ( जान-बूझकर, अज्ञानपूर्वक नहीं) ग्रन्थको गांठों ( दुरूह विषयों ) को रख दिया है, (जिससे स्वबुद्धिसे ही इस ग्रन्थका वास्तविक तत्त्व जाननेका इच्छुक असज्जन इसे नहीं समझ सके, और ) श्रद्धाके साथ सेवित गुरुके द्धारा शिथिल की गयी है दृढ़ ग्रन्थि जिसके लिए ऐसा सज्जन इस महाकाव्यको रसलहरीमें गोता लगाकर आनन्दको प्राप्त करे अर्थात श्रद्धापूर्वक देवबुद्धिसे गुरुकी पूजा-मक्ति करनेसे उसके द्वारा की गयी व्याख्या आदिसे ग्रन्थके दुरूह विषयको सज्जन सम्यक् प्रकारसे समझे / [ ऐसा कहकर 'श्रीहर्ष कविका यह महाकाव्य प्रसाद गुणते रहित होनेके 'काव्य है ही नहीं' ऐसा आक्षेप करनेवालोंका श्रीहर्ष महाकविने उचित समाधान कर दिया है तथा यह भी स्पष्ट कह दिया है कि गुरुपरम्परासे ही इस महाकाव्यके दुरूह स्थलोंका यथार्थ ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं; अत एव सज्जनोंको श्रद्धापूर्वक गुरुकी सेवा करके ही इस ग्रन्थका गमीराशय जानना चाहिये ] // 3 // इदानी पण्डितानन्दजननद्वारा स्वकृतेरभ्युदयमाशास्तेताम्बूलद्वयमासनञ्च लभते यः कान्यकुब्जेश्वराद् यः साक्षात् कुरुते समाधिषु परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् / यत्काव्यं मधुवर्षि धर्षितपरास्तर्केषु यस्योक्तयः / श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् // 4 // ताम्बूलेति / यः कान्यकुब्जेश्वरात्सकाशात्सकलपण्डिताधिक्यव्यञ्जनं ताम्बूलइयं विद्वद्योग्यमासनं च लभते / न केवलं राजपूज्य एव, किंतु यः समाधिषु
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________________ 1580 नैषधमहाकाव्यम् / अष्टाङ्गयोगेषु ध्यानेषु वा विषये प्रमोदार्णवं परमानन्दस्वरूपं परं वागायगोचरं ब्रह्म साक्षात्कुरुते / म परं पूर्वोक्तगुणविशिष्टो ब्रह्मविदेव, किंतु यदीयं काव्यं मधुवर्षि अतिसरसरवादमृतवर्षि / न परं पूर्वविशेषणविशिष्टोऽतिसरसो महाकविरेव, किंतु तर्कशास्त्रेष्वपि यस्योक्तयो धर्षिताः पराभूताः परे प्रतिवादिनो याभिस्तादृश्यः। तस्य विद्वच्चक्रचूडामणेः श्रीहर्षकवेरियं काव्यरचनारूपा कृतिः कृतिनां सुधियां मदे मान. दायाभ्युदीयात् , कृतिनामानन्दं कुर्वती सत्याकल्पमतिवृद्धि प्राप्नुयादित्याशीः / सर्वत्र 'यत्' शब्दनिर्वाहो गुण एव / अभ्युदीयादिति, 'ई गतौ' इत्यस्य रूपम् // 4 // सन्तः सन्तु परप्रयोजनकृतः कल्पद्रुमन्तः सदा स्वस्मिन्नेव पथि प्रवर्तनपराः सत्कीर्तयश्चापरे / अन्ये निस्पृहणाः श्रितश्रुतिपथा दीव्यन्तु भव्याशया काकन्तः कलहप्रियाः खलजना जायन्तु जीवन्तु वा॥ वासनामस्य रामस्य किंकरस्य जगत्पतेः। नो चेत्पूरय कल्पेशकल्पस्य तव किंकरः॥ इति श्रीबेदरकरोपनामकश्रीमनरसिंहपण्डितात्मजनारायणकते नैषधीयप्रकाशे'द्वाविंशः सर्गः समाप्तः॥ समाप्तञ्चेदं नारायणीटीकया परिपूरितं द्वाविंशसर्गसमन्वितं ... मल्लिनाथीटीकोपेतं नैषधमहाकाम्यम् / जो (श्री हर्ष' नामक महाकवि ) कान्यकुम्ज-नरेश (कन्नौजके राजा) से ( समस्त विदानोंसे श्रेष्ठतासूचक दो बीड़ा पान तथा आसनको पाते ) हैं, ( केवल राजमान्य ही नहीं, अपितु ) जो समाधियों ( अष्टाङ्गयोगों ) में परमानन्दसागर ब्रह्मका साक्षात्कार करते हैं, जिनका महाकाव्य ( अतिशय सरस होनेसे ) अमृत बरसानेवाला है और तर्कविषयक जिसकी उक्तियां प्रतिवादियोंको पराजित करनेवाली है; उस श्रीसे उपलक्षित 'श्रीहर्ष कवि की यह रचना ( 'नैषधचरित' नामक महाकाव्य ) विद्वानोंके हर्षके लिए होवे // 4 // द्विसहस्राधिके वर्षे दिमिते मार्गशीर्षके / अमायां मास्करे वारे परिपूर्णा 'मणिप्रभा // 1 // यह मणिप्रभा' टीकामें नैषधचरितका बाइसवा सर्ग समाप्त हुआ // 22 // व्याकरण- साहित्याचार्य, साहित्यरत्न, रिसर्चस्कालर, मिश्रोपाह्र श्री पं० हरगोविन्द शानिरचित 'मणिप्रमा' नामक राष्ट्रभाषानुवाद समाप्त हुआ।
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________________ श्लोकानामकारायनुक्रमणिका 44 सर्ग श्लो। सर्ग श्लो. सर्गश्लोक अचीकरचार 1173 अथ मुहुर्बहु 143 अंशं षोडश 221140 | अचुम्बि या 15463 | अथ रथचरणौ 210130 अकथयदथ 201157 | अजनभूमी 19 अथवा भवतः 2061 अकरुणादव 1102 बबरमभ्यासः 17 अथ श्रिया ११५६अकर्णधारा 12 / 71 | अजस्त्रमारोहसि 33106 | अथ सर्वोद्भिदा 171208 अकर्णनास 22 / 49 अजातविच्छेद 9457 अथ स्मराज्ञा 854 अकाण्डमेवा 3190 अजानती कापि [1575 अथ स्वपृष्ठ 20105 अकारि तेन - 144 अजीयतावर्त . . .769 अथ स्वमादाय 107. अकारि नीहार 1688 अतनुना 739 अथाख्यायि 201120 अकृत पर 211128 अतितमा .... अथाद्भुतेनास्त अक्रोधं 1779 अतिथीनां . 171164 1419 अथाधिगन्तुं अक्षसूत्र 21146 अतिवृत्तः१११७ अथान्तरेणा 1158 अखानि 1218 अतिशरव्ययता 142 अथान्यमुद्दिश्य 12252 अखिलं 2255 अत्यथति 13390 अथापरिवृढा 17132 अगच्छदाश्रया 17 / 205 अत्याजि लब्ध 1227 अथाभिलिख्येव 1445 अगम्यार्थ 17/15 अत्रैव वाणी 2018 अथायमुत्थाय 1611 अग्निहोत्रं 1738 अथ कनक 107 अथायान्त 17113 अग्न्याहिता 871 अथ कले 113 अथारभ्य अग्राध्वजाग्र 6 / 107 अय नगर 16123 अथावदद् दूत 1519. अङ्कचुम्बि . 21123 अथ नलस्य 11 अथावदगीम 12 / 105 अङ्केन केनापि 790 16 // 125 अथावलम्ब्य 1121 अङ्के विदर्भेन्द्र 10.30 अथ प्रकाशं 9 / 24 | अथाशनाया 16.47 अङ्कणनाभे 2064 अथ प्रियासादन 71 | अथासावभि 2066 अङ्गुलीचलन 2114 अथ भीमनवा 11202 | अथाहूय 2026 अङ्गुष्ठमूर्ना 1010 | अथ भीममुजेन 2173 | अथैतदुर्वी 12186 अघ्रिस्थारुणि 2 // 134 अथ भीममुवेव 9157/ अथोद्ममन्ती 9187. अचिरादुप 2164 | अथ भीमसुता 264 | अथोपकार्या निज 1551 अथवा
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________________ 1560 श्लोकानुक्रमणिका। अथोपकार्या मम 611 / अनतिशिथिले 19 / 27 / अन्योन्यभाषा 1034 अथोपचारो 16055 अनन्तरं 12 / 32 | अन्योन्यमन्यत्र 651 अथोपवदने 2062 | अनन्यसाचिकाः 2072 | अन्योन्यराग 21 / 126 अदःसमित् 12 // 35 अनया तव 243 अन्योन्यसङ्गम 31125 अदस्तदाकर्णि 128 अनयामर स४६ अन्वग्राहि मया 20128 अदाहि यस्तेन 8173 | अनयरनौष 15/60 अन्वयुद्यति 555 अदृश्यमाना 9.4 | अनलभावमियं // 22 अपयातमितो 201138 अदेशितामप्य 14135 अनलैः परि स८७ | 2060 अदोऽयमालप्य 9 / 14 अनल्पदग्धा . 110 अपरेऽपि 17 / 150 अदो निगद्यैव 9 / 30 | अनाचरत्तव्य 15.41 अपश्यञ्जिनं 17/186 अदोषतामेव 154 | अनादिधावि 6.102 अपश्यद्यावतो 17/180 अद्य यावदपि 5 / 130 अनादिसर्ग 6 / 14 अपहृतः 16.42 अद्राक्षीत्तत्र 171189 | अनायि देशः 8125 अपह्रवानस्य 49 •अद्रानुराजिहानं 1814 | अनार्यमप्या 257 अपां विहारे 1217 अधत्त बीजं 16333 | अनाश्रवा वः 6 / 88 अपाङ्गमप्याप 3 अधरं खलु / 24 अनुग्रहः केवल 9 / 33 अपाङ्गमालिङ्गय 15 // 34 अधरामृत 2059 अनुग्रहादेव 9/42 अपां पतिः 482 अधारि पद्मषु 120 अनुभवति 2 / 109 अपार्थयन् 980 अधारियः 1619 अनु ममार न 179 अपास्तपार्थय 887 अधावत्वापि 171197 अनुरूपमिमं स४२ अपास्तपाथोरुहि 9 / 305 अधिगत्य जग // अनेकसंयोजनया 1682 अपि तद्वपुषि२६३१ अधिगत्येहगे 2036 | अनेन भैमी 146 अपि द्रढीयः 9135 अधित कापि 4 / 111 | अनेन राज्ञा 1255 अपि द्विजिह्वा 63 अधीत पञ्चाशुग 9 / 115 | अनेन वेधा 22146 अपि धयन् 4182 अधीतिबोधा 14 | अनेन सर्वार्थि 1279 अपि लोकयुगं 2022 अधुनीत खगः 2 | अनेन साधं 1 अपि विधिः 4189 अश्त यद्विर 418 अनैषधायैव 379 अपि विरह 21 // 133 अधोविधानात् // 18 | अन्तःपुरान्तः 613 अपि श्रोणिभर 2054 अध्यासिते 2048 अन्तःपुरे 619 अपि स्वमस्वप्न 9:33 अध्याहार: 12 / 7 | अन्तःसन्तोष 139 | अपि स्वयूथ्य 11139 अनङ्गचिह्न 155 अन्तः सलक्ष्मी 22 // 132 | अबलस्वकुला 2 / 10 •अनङ्गताप 869 (अन्यदस्मि 1856 | अबोधि तत्त्वं 9:54 अनङ्गलीला 15.35 / अन्येन पत्या 3251 / अबोधि नो 1672
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________________ श्लोकानुक्रमणिका। 1511 8151 अब्रवीत्तमनलः 5.122 / अम्बां प्रणत्यो 68 | अर्थिनो वयममी ५७७अब्रवीदथ 5/124 | अम्बुधेः कियदनु 1897 अर्थिभ्रंशबहू 12267 अभजत चिरा 1946 | अम्बुनः शंबर 201129 अर्थी सर्व 15184 अभिधास्ये 20112 | अम्भोजगर्भ 11580 अर्थो विनैवार्थ 14184 अभिनव 16126 अम्लानिरामोद 1182 अर्द्धचक्रवपुषा 21183 अभिलपति 211231 अयं क इत्यन्य 6012 अर्द्धनिःस्वमणि 21145 अभ्यर्थनीयस्स 3192 अयं किलायात 12225 अर्द्धमीलित 18 / 114 अभ्यागतः 10 / 29 अयं गुणोघे 12178 अलं विलवय 3184 अभ्यागमन्मख 118 अयं दरिद्रो 1415 अलं विलम्ब्य 3191 अभ्रपुष्पमपि 5 / 127 अयमयोगि 149 अलं सजन् 3 / 3. अमजदामज अयमेकतमेन 23 अलकृताङ्गाद्भुत 101108 अमन्यतासौ 187 अयमेत्य तडाग 225 अलकृतासन्न 889 अमर्षादात्मनो 17 / 204 अयि प्रिये 91103 अलं नलं 1354 अमहतितरा 1914 | अयि ममेष 158 अलिस्रजा 1191 अमितं मधु .. 256 | अयि विधुं .. 148 अलीकभैमी 6.15 अमी ततस्तस्य 157 अयि शपे 41106 अल्पाङ्कपडा 22125 अमी तमाहुः .. 10 // 46 अथे कियद् // 13 अवच्छटा 1664 अमीभिराकण्ठ 1692 अये ममोदासित 98 अवश्त्य अमी लसद्वाष्प 1968 अये मयात्मा 9122 अवनिपतिपथा 163128 अमीषु तथ्यानृत 16110 अयोगजा 9132 अवलम्ब्य श६६ अमी समीहै / 9 / 134 | अयोधि तयं. 53 अवश्यभव्येष्व 11120 अमुष्मिन्नारामे 171217 अराधि यन्मीन 1686. अवादि भैमी 1542 अमुष्य दोभ्यां // 22 अरुणकिरणे. 1920 अवाप सा 53 अमुष्य धीरस्य 145 अरुन्धतीकाम 797 अवापितायाः 15:26 अमुष्य भृलोक 12172 अर्काय पत्ये 757 अवामावामाई 14185 अमुष्य विद्या 15 अर्चनाभिरुचि / 5.9 अवारितद्वार 3141 अमुष्योर्वी 12282 अर्चयन् हर 12282 21 // 32 | अविन्दतासौ 10.90 अमूनि गच्छन्ति 994 अर्थना मयि 5 // 12 अवैमि कमला 1859 अमूनि मन्ये 220 | अर्थाप्यते वा श६३ अवमि वादि 1080 अमृतदीधिति 1104 | अर्थिताः प्रथमतो 5.13 अवैमि हंसा 8.35 अमृतद्युति - 2 // 101 अर्थितान्त्वयि 55133 अवोचत ततः 2017 अमेलयदीम. 1060 अर्थिनामहृषिता५७९ | अशोकमर्था 1101 अमोघभावेन / 1556 | अर्थिने न तृणं . 5/68 | अश्रान्तश्रुति 20102 151
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________________ 1562 श्लोकानुक्रमणिका। अौषमिन्द्रा 695 / अस्मिन् समाजे 10111| अहो तपाकल्प. 31120 अष्टौ तदष्टासु 1052 अस्मै करं ..: 111126 अहो नापत्र 20140 असंशयं स त्वयि 9 / 144 / अस्य क्षोणिपतेः 12006 अहो मनस्त्वा 939 असंशयं सागर 22 / 44 अस्यां मुनीनामपि 795 अहो मयि रहो 2063 असंशयं सा गुण 1078 अस्यां वपुषूह 12 अहो महःसहायनां 17 / 129 असज्ज्ञानाल्प 17197 अस्याः कचानां पार२ | अहो महेन्द्रस्य 9 / 27 असमये मति 4157 अस्याः करस्पर्शन 771 | अलि भानुभुवि 18024 असम्भोगकथा 20118 अस्याः खल 7187 आ असाम यन्नाम 1048 अस्याः पदी 1048 | 798 | आः स्वभाव पा२४ असावसाम्या 22 / 88 अस्याः पीन 2035 आकर्ण्य तुल्य 137 असितमेकसुरा 461 अस्याः स चारु 10130 आकल्पविच्छेद 1085 असिं भवान्याः 1618 अस्याः सपक्षक 20 | आकस्मिकः पत 32 असिस्वदद्यद् 16313 अस्याः सुराधीश 22247 आकीटमाकैटभ 6106 असुरहितमप्या 19 / 15 अस्याधिशय्य 1990 आकुञ्चिताभ्यां 31 असेवि यस्त्यक्त 959 अस्या भवन्त 211122 आकृष्य सार 21 / 114 असेविषातां 15/36 अस्या भुजाभ्यां 101123 आखण्डलो 1010 असौ प्रभिन्ना 1522 अस्या मुखश्री 56 आख्यतैष 18134 असौ महीभृद् 163119 अस्या भुखस्यास्तु अ५३ आख्यातुमति 10133 असौ मुहुर्जात 15 / 21 अस्या मुखेनैव 758 आगः शतं 11192 अस्ताचलेऽस्मि 22 // 13 अस्या मुखेन्दो 738 आगच्छदुर्वीन्द्र 1019 अस्ताद्रिचूडालय 225 | अस्या यदष्टा अ६३ आगच्छन् 19/66 अस्तित्वं कार्य 3 / 132 अस्या यदास्येन 21 आघूर्णितं 7/29 अस्ति द्विचन्द्र 341 अस्यारिप्रकरः 12298 आचूडान 12240 अस्थिवाम्यभर 1858 अस्यासिर्भुजगः 1296 आज्ञया च 2169 अस्तु त्वया 14175 अस्यैव सर्गाय 72 आज्ञां तदीया 6192 अस्मदाद्य 211100 अस्यैव सेवार्थ 2277 आत्थ नेति 18170 अस्मत्किल 3326 अस्योस्कण्ठित 1585 आत्मनापि 18/34 अस्माकमध्यासित 8195 / अस्योरमणस्य, 1265 आस्मन्यस्य 1283 अस्माकमस्मा 8104 अस्वेदगात्रा 10 // 33 आत्मवित्सह 182 अस्माकमुक्तिभि 211116 अहर्निशा वेति 1674 आत्मैव तातस्य 765 अस्मिन्दिग्विजयो 12 / 29 अहह सह 1496 आदत्त दीप्रं 22150 अस्मिन्न विस्माप 22 // 110 अहो अनौचिती 201146 आदधीचि अस्मिन् शिशौ 22176 | अहो अहोभि . 83 आदर्शतां 3156
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________________ . . . श्लोकानुक्रमणिकाः। 1563 आदर्शदृश्यत्व 2073 | भासने मणि 14 // 31 / इति मनसि . 13354 आदाय दण्डं 2012 आसीदथर्वा 1075 | इति मुद्रित 2030 आदेहदाहं 43 आसीदसौ 10 // 109 | इति विधो 74 आद्यं विधो . 10142 आसीदासीम 12118 इति व्युत्तिष्ठ 20123 आद्यसङ्गम 1877 भासीद्यथा 2285 इति श्रति 12 // 13 आननन्द 17/199 आसुत्राम 15491 इति श्रुतेऽस्या 14143 आननस्य 18130 आस्त भाव 18113 इति श्रुत्वा 17120 आनन्दं हठ 20160 आस्तां तदप्रस्तुत 3152 इति स चिकुरा. 7104 आनन्दजाश्रु 11144 आस्तामनङ्गी 41 इति स विधु 2 // 135 आनन्दन्मदिरा 17 / 179 आस्ते दामोदरीया 12295 इति सा मोचया 201109 आनन्दयेन्द्र 8108 आस्यं शीत 221145 इति स्तुवन् 1066 आन्तरानपि 185106 इति स्तुवानः 101135 आस्यसौन्दर्य 2030 आप्तकाम 21121 आस्ये या तव 21140 इति स्फुटं 9/60 आप्यायनाद्वा 22 // 108 आह नाथ इति स्मरः 1899 16114 आभिभृगेन्द्रो 221111 आह स्म तद्विरा 20139 इति स्वयं 9 / 127 आभ्यां कुचाभ्यां 778 आह स्मैषा 14134 20129 इतिहशैस्तं आमन्त्र्य देव 20117 इतीन्द्रदूत्याः 6 / 101 आरोप्यते 22184 इङ्गिन्तेन इतीयमति 1875 आरोहणाय 1161 इज्येव देव इतीयमालेख्य 9155 आर्ये विचार्या 687 इतरनल 13353 इतीरयित्वा विरतां 97 आलापि कलया 201122 इतस्त्रसद्विदूत 12226 इतीरयित्वा विरराम 3153 आलिख्य सख्याः 6169 इति कियहचसैव 41100 | इतीरिणाऽऽपृच्छय 9 / 130 आलिङ्गन्यालिङ्गय 201155 इति तत्सुप्रयुक्त 2073 इतीरिता तच्चरणात् 1076 आलिङ्गितः 11398 इति तं स इतीरिता पत्र श६३ 3 / 67 आलिमात्म 5/54 इति तस्मिन् 17108 इतीरिते 14139 आलोकतृप्तीकृत 830 इति तस्या 20196 इतीरित 9/136 आलोच्य भावि 111115 इति त्रिलोकी 8184 इतीष्टगन्धा 104 आवाहितां 17171 इति विकृत्वः 163111 इतोऽपि किं 12 / 27 आशयस्य 21162 इति नसुर 8107 इतो भिया 12117 आशीविषेण 11020 इति पठति 21 / 127 | इतो मुखाद्वा 221102 आश्चर्यमस्य 111100 इति परिणय 16 // 129 | इत्थं पुन 6 / 111 आश्लेषलग्न 11 / 17 इति प्रतीत्यैव 9 / 101 | इत्थं प्रतीपोक्ति 6 / 108 आसते शत 5.00 / इति प्रिया - 1101 | इत्थं मधूत्थं इ इ 91 રાહક hr hr hr hos ro 850
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________________ 1564 श्लोकानुक्रमणिका। इत्थं यथेह 1350 / इमां न मृद्वी 10 // 127 / उजिहान . 21125 इत्थं वितीर्य 14192 इमा गिरस्तस्य 984 उडुपरिवृढः / 1951 इथं हिया 2 इयं कियञ्चारु 1691 उहुपरिषदः / 19 / 19 | इयं न ते 1143 इत्यममु 997 | उत्कण्टका 12 / 110 इत्थमाकये 1783 इयच्चिरस्या . 9421 उत्कण्ठयन् 13 // 37 इत्थमुक्ति 18132 8147 उत्तमंस 21139 433 20152 इयमनङ्ग इत्यधीरतया उत्तानमेवास्य 22180 इत्यमी वसु 534 इयमियमाधि 101137 उत्तङ्गमङ्गल 1116 इत्यलीकरत 1886 इषुत्रयेणंव . 7/27 / उत्सर्पिणी 1177 इत्यवेत्य मनसा 5 / 72 इष्टदार 2172 उत्सृज्य साम्राज्य 1457 इष्टं नः प्रति इत्यवेत्य वसुना 2049 5/135 उदयति स्म 118 इत्यसौ कलया 2050 इष्टेन पूर्तेन 21 उदयशिखरि इत्याकर्ण्य 5 / 137 इह किमुषसि 1960 प्रस्थान्यता 19316 इत्यालपत्यथ 31129 इह न कतर .. 1947 उदयशिखरि इत्यालेषु 15492 इहाविशधेन 762 प्रस्थाव 19142 इत्युक्तवत्या निहि 686 इहेदृशाः सन्ति 1043 उदर एव 4160 इत्युक्तवत्या यद् 397 उदरं नत 2 // 34 इत्युक्तिशेषे 2056 ईक्षितोपदिश 1889 उदरं परिमाति 135 इत्युदीर्य मघवा 5/19 ईदृशं निगदति .18146 उदस्य कुम्भी 15:19 इत्युदीर्य स ययौ 5143 ईदृशानि गदितानि 5 / 116 उदासितेनेव 91135 इत्युदीर्य स हरि 20104 ईदृशानि मुनये 5/40 उद्देशपर्वण्यपि 1082 इत्युपालभत 1860 ईदृशीं गिरमुदीर्य 578 उद्धतिस्खल 21156 इत्येतस्याः 2016 ईय॑या रक्षितो 1741 उद्भवाजतनुजा 2067 इदं यदि 31:00 ईशः कुशेशय 11158 उद्भिद्विरचिता 171212 इदं यशांसि 12 // 89 ईशाणिमैश्वर्य 364 उद्ममामि 5108 इदनिगद्य 9 / 22 / ईशा दिशां 13148 उद्वर्तयन्त्या 625 इदन्नृपप्राथिभि 12190 1777 उन्मत्तमासाद्य 398 इदमदीर्य 1990 परिस्मत 69. उन्मीलदगड 211139 इदं महत्ते 983 उन्मीलहील 12 / 101 इन्दं मुखाद्वहु 22 // 135 उच्चलत् 18121 उन्मूलितालान 785 इन्दोर्धमेणो 22 // 107 उच्चाटनीयः 37 उपचचार 1112 इन्द्राग्निदक्षिण 1334 उच्चैरूचे 20133 उपनतमुडु २२।१४७इमं परित्यज्य 12154 उच्चस्तरा 2213 ! उपनम्रमया . शार
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________________ श्लोकानुक्रमणिका 1565 उपहरन्ति 190 / एकस्य विश्व 17155 / एतादृशीमथ 13314 उपहृतमधि 201158 एकाकिभावेन 1061 | एतां धरामिव 211119 उपासनामेत्य 1134 एकादशैकादश 221113 | एतेन ते विरह 11145 उपास्यमानाविव 1545 एकेन पर्य 1053 | एतेन ते स्तन 11163 उपास्य सान्ध्यं 22 // 1 | एकैकमुद्गत 11 // 57 | एतेन सम्मुख 11399 उभयी प्रकृतिः 17/68 एकैकमेते 8.90 एतेनोरकृत्त 12100 उरोभुवा 1148 एकैकमैक्षत 1340 | एनं स विभ्रद् 22 // 117 उर्वशी गुण 5/52 एकैकवत्तेः 14110 | एनसानेन 1771 उल्लास्यतां 6 // 34 एकैव तारा 221127 एवं यद्वदता 1122 उल्लास्य धातु 10 / 128 एको नलः 13 // 43 एवमादि स 5193 उल्लिख्य हंसेन 637 एवमुक्तवति देव 5 / 37 उवास वैदर्भ 16112 एणः स्मरेणाङ्क 22 / 24 एवमुक्तवतिमुक्त 5.98 एतं नलं 660 उवाह यः . 16320 एष नैषध 5/76 एतत्कीर्ति 12 / 104 एष प्रताप 139 7/75 ऊचिवानुचित एतत्कच 5 / 128 एषां गिरेः 11110 एतत्तरू 11385 ऊचे पुन 11135 एषां त्वदीक्षण 119 एतत्परः 1136 ऊरुप्रकाण्ड 7/94 एषामकृत्वा 1138 12 / 85 उद्ध्वं तं एतद्वन्ध 22 / 30 एषा रतिः 211118 एतदगण 11171 उर्ध्वदिक्क 21190 एष्यन्ति यावद् 7104 एतहत्तासि 12173 ऊर्ध्वस्ते रदन 211143 जॉर्पितन्युज 22631 12 / 20 एतद्दन्ति औझि प्रियाङ्गै एतददृशो 718 101121 एतद्वलैः औदास्य संविद 1101 111127 ऋजुत्वमौन 12144 एतगीतारि 12 / 28 क ऋजुदृशः 4166 एतद्भुजा 111105 कंसीकृता 3 / 122 ऋणीकृता 733 एतद्यशःक्षीर 1229 कः कुले 5 / 119 एतद्यशो नव 1154 कः शमः 17170 एक सन्दिग्धयो 17153 एतद्यशोभिरखि 1178 कः स्मरः 20143 एकः पिपासुः 2276 | एतद्यशोभिरम 11197 कटाक्षकपटा 2018 एकः प्रभाव 13 / 18 एतद्वरं 101102 16148 एकः सुधांशुन 3 / 119 एतन्मदीय 13346 कण्ठः किमस्याः 659 एककस्य 1883 13311 कण्ठे वसन्ती 750 एकद्विकरणे 17 / 27 एतस्य सावनि 111114 | कतिपयदिवसे // 121 एकवृत्तिरपि 183104 / एतां कुमार 11102 | कथं विधात 1138 100 नै० उ० तन्मखा
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________________ 1566 श्लोकानुक्रमणिका। कथं कथञ्चिर 14 / 28 | कर्तुं शशाकाभि 10 / 12 | किं वा तनोति 13142 कथं नु तेषां 9 / 26 / कलकलः स 4115 किं वित्तं दत्त 1780 कथाप्रसङ्गेषु . 135 कलमे निज 135 / 32 / किं विधेय 573 कथाक्शे 9 / 99 कलिं प्रति 171151 किं घनस्य 5159 कथासु शिष्ये 9 / 149 कल्पद्रुमान् 1331 किञ्च प्रभाव 13317 कथितमपि 31135 कल्प्यमान 21110 किञ्चित्तिरश्वीन 3254 कथ्यते न 5 / 28 कल्याणि किं ते तथा 13130 कन्दर्य एव 8.33 कल्ले लजाल 1141 किं ते वृन्त 156 कन्यान्तःपुर 4116 कविश्वगान 767 किं न द्रुमा 111125 कपोलपत्रा 760 कस्त्वं कुतो किं नर्मदाया 87 73 कपोलपाली 1565 कम्मादस्माक किं नागि 2027 22 / 98 कमपि स्मर 20193 कम्मिन्नपि मते 17 / 99 किमन्यदद्यापि 1147 कमलकुशला 19:40 कांसीकतासीत् 31122 किमसुभिलपि 452 कम्र तत्रोप 171191 कानुजे मयि 38 किमस्य रोम्णा 21 कयाचिदा 86 / कान्तमूर्ध्नि / 8 / 81 किमालियुग्मा 152 कयापि क्रीडतु 171121 कान्तिमन्ति | किमुतदन्त 45 173 कयापि वीक्षा 15/78 का नामन्त्रयते किमु भवन्त 20 // 34 करःस्त्रजा 14126 ૮ર काचित्तदा कियचिरं 15.12 करग्रहे 16 // 35 कापि कामपि 5/53 17.159 4 / 17 कापि प्रमोदा कियत्त्यजन्नो करपदानन 14149 1679 कियदपि 16124 करस्थताम्बूल 15/77 3143 16100 कराग्रजान 779 कामः कौसम 3126 9 / 49 कामदेवविशिखः कियान्यथा 22 / 71 2170 करिष्येऽवश्य 17146 कामनीयक 564 कीर्ति भैमी 171133 करेण मीनं 1 / 105 कामानुशासन 111122 कुङ्कुमणमद 187 करेण वाच्छेव 3 / 62 कामिनीवर्ग 1740 | कुचौ दोषो 2049 करे विश्त्ये 1431 कारं कारं 20107 कुण्डिनेन्द्र 51114 करोषि नेमं 9 / 18 कारिष्यते 13 / 36 12 / 32 कर्णशक्ति 2177 कार्तवीर्य 18/11 कर्णातिदन्त 7102 कालः किरातः 2219 कुमुद 211132 कणे कर्णे 20119 काश्चिन्निर्माय 15182 कुरु करे 4 // 59 कर्णोत्पलेनापि 7 / 30 | काश्मीरजै 22154 कुरुध्वं काम 1758 कौँ पीडयति 20197 किं योगिनीयं 22 / 22 | कुर्वती 18149 4197 कियबहु कुतः कृतवं कुत्रचित् / / 21165
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________________ श्लोकानुक्रमणिका / 1567 कुर्वद्भिरात्म 114 | क्रियेत चेत् 3323 / गता यदुत्सङ्ग / 198 कुलञ्च शीलं 1071 / क्रीणीष्व 387 | गर्भमेणमद 21126 कुसुमचाप 46 क्रौञ्चदुःख 21173 गलत्परागं 1192 कुसुममप्यति 4 // 91 क्लिन्नीकृत्या 201128 गिरः श्रुता 9/5 कुसुमानि 2059 क्वचित्तदा 15/12 गिरानुकम्पस्व 9 / 120 कूजायुजा 211109 क्क प्रयास्यसि 5/55 गीदेवता 10 // 51 कूटकाय 14191 क प्राप्यते 13339 गुच्छालय 7/16 कृच्छ्रे गतस्यापि 1478 क्वापि काम / 186 गुणानामास्थानी 1488 कृतं यदन्यत् 16157 क्वापि नापश्य 17 / 174 गुणा हरन्तो 6 / 105 कृताऽत्र देवी 12160 क्वापि यन्नभसि 2021 गुणेन केनापि 10 / 14 कृतापराधः 15/47 कापि यन्निकट 189 गुणौ पयोधे 22175 कृतार्थन 16187 क्वापि सर्वे 171100 गुम्फो गिरा 13.19 कृतार्थयन्नर्थि 15/68 कैतावन्नर्म 2017 गुरुतल्पगतौ 17143 कृतावरोहस्य 1123 क्षणनीरवया 2178 गुरुवीडावलीढः 174110 कृतिः स्मरस्यैव 101131 क्षणं प्राप्य 10185 गुरोरपीमा 101132 कृत्वा दृशी 838 क्षणविच्छेद 2018 गोत्रानुकूल्य 1159 कृपा नृपाणा 12 / 43 क्षणादथैष 1167 / गोवर्द्धनाचल 111107 कृष्णसार 1818 क्षत्रजाति 21163 गौरभानु 18122 केदारभाजा 7.35 क्षत्राणि रामः 22 // 131 गौरीव पत्या 783 केनापि बोधि 1737 तन्तुं मन्तुं 20154 गौरे प्रिये 22395 केयमर्द्ध 288 क्षितिगर्भधरा 181 ग्रन्थग्रन्थि प्रशस्ति 3 केशान्धकारा 723 क्षिप्रमस्यतु 181128 | ग्रावोन्मजन 17 / 36 कैटभारि 21147 क्षीणेन मध्येऽपि 781 | ग्रोवाद्भुतैवा 766 को हि वेत्ता 1161 क्षीरार्णवस्तव 11140 कौमारगन्धीनि 638 क्षीरोदन्व 12174 | | घने समस्ताप 1570 कौमारमारभ्य धनरमीषां 16.99 क्रतोः कृते 977 खण्डः किमु 11 घातितार्क 2179 ऋतौ महाव्रते 171200 खण्डनोदमृदि 211138 | घुसृणसुमनः 1938 क्रमाद्दवीयसा .175 खण्डितेन्द्र 54 / घृतप्लुते 161102 क्रमाधिका 15/49 / खवमाख्य 21126 क्रमेलकं 6 / 104 9 / 104 क्रमोदता 796 | गच्छता पथि - 53 | चकोरनेत्रेण 7 / 32 क्रियां प्राहृतनी 2011 | गतचर 19 // 30 / चक्रदार 1864 8158 | चकास्ति
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________________ 8/59 1568 श्लोकानुक्रमणिका। चक्रेण विश्वं 788 चेतोजन्म 2130 | जवादवारी 16326 चक्रे शकादि 17118 चेतोभवस्य 211121 जागर्ति तच्छाय 633 चण्डालस्ते 9 / 956 चेष्टा व्यनेश 14152 जागर्ति तत्र 20182 चतुःसमुद्री 10 / 28 जागर्ति मर्येषु 10 / 125 चतुर्दिगन्तीं 22168 छदे सदैव 1630 जाग्रतामपि 17133 चतुष्पथे तं 627 छद्ममत्स्य 2153 जातं शातक्रतव्यां 22 // 139 चन्द्राधिकैत 744 जातौ न वित्तेन 10113 छद्मव तच्छम्बर 10 // 124 चन्द्राभमा 662 जात्या च वृत्तेन 1077 छायामयः' 30 चमूचरास्तस्य 171 छिन्नमप्यतनु 183102 जानासि हीभय 20175 चरचिरं जानेऽतिराग 739 181143 चर्म वर्म 51129 छेत्तमिन्दौ 20120 जाम्बूनदं 11186 चर्येव कतमेयं 171122 जाह्नवीजज 21192 चलत्पदस्तत् 12 / 3 जितं जितं 1119 जगजयं 9 / 48 चलनलकृत्य 166 जगति तिमिरं 1950 जितस्तदास्येन 1551 चलाचलप्रोथ 1160 जगति मिथुने जितस्त्वयास्येन 9 / 145 19 / 34 चलीकृता 11114 जगत्त्रयी जीवितावधि किम 5 / 97 1072 चिकुरप्रकरा जीवितावधि वनी 5 / 81 जगद्वधू 7/99 चित्ते तदस्ति 20183 जीवितेन 549 जग्रन्थ सेयं 14|13 चित्रतत्तदनु 18112 ज्ञानाधिकाऽसि 111120 जघनस्तन 2 / 97 68 जज्वाल ज्वलनः 17191 ज्योत्स्नापयः 22 / 70 चित्रमत्र ज्योत्स्नामय 22 / 60 जनुरधत्त 4|45 चिरं युवाऽऽकूत 163107 ज्योत्स्नामादयते 22 / 141 जनेन जानता 17/54 चिरादनध्याय 961 जन्यैर्विदग्धै ज्वलति मन्मथ 4134 चिह्निताः कति 17634 जन्यास्ततः 11115 चिह्नरमीभि 14122 तं विदर्भ 2111 जयतामक्ष 171187 चुचुम्ब नोर्वी 1698 जम्बालजालात् 713 तं कथानु 513 चुचुम्बास्यमसौ 20125 जय जय 19 / 2 तच्चित्रदत्त 201125 चुम्बनादिषु 1857 जलं ददत्याः . 1658 तच्चिन्तनान्तर 1070 चुम्बनाय 18.100 जलजे रवि 2038 तच्छायसौन्दर्य 31 चुम्बितं न जलाधिपस्त्वा 9 / 23 तज्जःश्रामाम्बु 11:109 चुम्ब्यसेऽय 18185 जलानल 17/87 तटतरुखग 19 / 29 चुलुकिततमः 19 // 37 जले चलद 1718 तटान्तविश्रान्त 1109 चुडाग्रचुम्वि 11152 जवाज्जातेन . 174 | ततः प्रतीच्छ 168 2 / 20 चित्रं तदा 5.57 69 18165
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________________ श्लोकानुक्रमणिका। 1564 ततः प्रत्युदगा 2012 तत्रैव मन्ना 89 | तदेकलुब्धे 381 ततः प्रसूने 176 तत्रोदीर्ण 17 / 35 | तदेव किं 12 / 33 ततः स भैम्या 1222 तथा किमाजन्म 16 / 115 | तदोजस 1114 ततस्तदप्रस्तुत 12 / 22 तथाऽधिकुर्या 12188 | तद्गौरसार 10.105 ततस्तदुर्वीन्द्र 12 // 31 / तथा न तापाय 881 तहम्पति 211115 ततान विद्युता 1716 तथा पथि 152 तहर्शिभिः 11122 ततोऽनु देव्या 1223 तथापि निर्बध्नाति 9 / 12 | | तद्द्वीपलक्ष्म 11.70 ततोऽनु वार्ष्णेय 1572 तथाभिधात्री 399 | तद्भुजादति 512 तस्करोमि 1853 तथालिमाल 20114 | तद्यशो हसति 2071 तत्कौँ भारती 17 / 12 तथावलोक्य 2086 | तद्यातायात 18148 तत्कालमानन्द 815 तथैव तत्काल 51157 तद्वर्णना 111128 तत्कालवेधैः 1091 तथोत्थितं भीम 15/10 तद्विमृज्य तत्कुचे नख 20145 | तदक्षः 12 / 107 | तद्विस्फुरत् 1121 तत्वलमस्तम 18115 तदक्षि तत् 1537 तनुत्विषा 1516 तत्क्षणावहित 18110 तदखिलमिह - 9 / 159 तनुदीधिति 2069 तत्तजन 17 // 104 तदङ्गभोगा 10106 तनोत्यकीर्ति 101118 तत्तदर्यम् 21131 तदङ्गमुद्दिश्य 1193 तनोषि मानं 9 / 108 तत्तहिग्जैत्र 12 / 94 तदद्य विश्रम्य 9 / 66 | तं दंड्यमान 878 तत्तद्विराग 11 / 12 तदध्येहि मृषो 20188 तन्नालीक 12 / 111 तत्पदाखिल 18/133 तदनु स 4 / 120 | तं नासत्य 17/145 तत्प्रविष्टं 20198 तदन्तरन्तः 16193 तन्निर्मला 112 तत्प्रसीदत 5 / 115 तदर्थमध्याय 11103 तन्नैषधा 3146 तत्प्रियोरुयुग 18193 तदर्पितामश्रु શર तन्न्यस्तमाल्य 14153 तत्र ब्रह्महणं 17 / 183 तदहं विदधे 2047 तन्मुहूर्तमपि 2135 तत्र यामीत्य 17 / 149 तदा तदङ्गस्य 15/25 | तन्वीमुखं 626 तत्र सौधसुर 1827 | तदात्तमात्मान 13125 तपःफलत्वेन 6 / 93 तत्रस्वयंवरे 17 / 123 तदानन्दाय 211148 तपःस्वाध्याय 17 / 190 तत्रागमद्वासु 10 // 25 तदा निसस्वान 15 / 16 तपति जगत 201159 तत्रागमन 17 / 152 तदास्यहसिता . 20101 221124 तपस्यताम तत्रादिरस्ति 11.50 तदिदं पिशदं श४९ | तपोऽनले 9.45 तत्रानुतीर 11389 तदिहानवधौ 2060 | तमचितुं 965 तत्रापि तत्र 13 / 20 तदेकतानस्य 16 / 120 तमालम्बन 17214 तत्रावनीन्द्र ____1115 | तदेकदासीत्व 381 | तमालिरूचे 9/64
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________________ 47 1600 श्लोकानुक्रमणिका। तमालोक्य 2019 | तस्मिन्मलिग्लुच 11.53 ताराक्षरै 22152 तमेव लब्ध्वा 1143 | तस्मिन् विमृश्यैव 696 / तारातति 10/15 तमोमयीकृत्य ___865 तस्मिन् विषज्या 642 तारा रदानां 10 // 107 तं पिधाय 18182 तस्य चीन 212 ताराविहार 22 // 134 तया प्रतिष्ठा 16.41 तस्य तापन 55 ताराशङ्ख 19 / 57 तयेरितः 22 / 105 तस्य होमाज्य 171163 तारास्थिभूषा 22 / 126 तयोः सौहार्द 17 / 203 तस्याः प्रियं 14 // 27 | तारुण्यपुण्या 640 तरङ्गिणी भूमि 7 / 11 तस्या दृशो 3 / 131 तालं प्रभु 7.74 तरङ्गिणीरङ्क 1112 तस्यां मनो 14164 तावकोरसि 21185 तरुणता तस्या हृदि 1425 | तावद्रतिरता 171162 तरुमूरु 2 / 37 तस्यैव वा 3147 तासामभासत 211111 तर्किताऽऽलि 2013 तां विलोक्य 18121 तिमिरविरहा 1931 तर्काप्रतिष्ठया 1778 तां कुण्डिनाख्या 64 | तिरोवलद्वक्र 1656 तर्का रदा 10183 तां दूर्वया 14146 | तिष्ठ भोस्तिष्ठ 17 / 95 तलं यथेयुर्न 105 | तां देवतामिव 1111 तीणः किमो 826 तव प्रवेशे 8/27 तादृग्दीर्घ 12 / 11 | तुङ्गप्रासाद 211129 तव रूपमिदं 145 तानसौ 21.5 तुल्यावयोमूर्ति 3 / 102 तव वर्मनि 2.62 | तानीव गत्वा 22148 तुषारनिःशेषित 71.3 तव सम्मति 248 ता बहिर्भूय 201132 तूलेन तस्यास्तु 1454 तवाधराय 9 / 118 ताभिदृश्यत 15489 तृणानीव 1757 तवानने 22 / 106 ताभ्यामभूद् 4117 ते तत्र भैम्या 1035 तवापि हाहा 1141 तामथैष ते तां ततोऽपि 1181 201141 तवास्मि मां 9 / 151 तामसीष्वपि तेन जाग्रद 5.35 18114 तवेत्ययोग 9 / 133 तेन तेन 51103 तामन्वगा 211108 तवोपवाराणसि 1472 तेन स्वर्देश 2014 तामिङ्गित 315 तस्माददृश्या 6032 तेनादृश्यन्त 17.194 तामेव सा 670 तस्मादिमां 1165 तेनापि नायस 201127 ताम्बूलदानं 2087 तस्मादियं 111112 ते निन्यिरे 1156 तस्मिन् गुण 11155 ताम्बूलद्वय (प्रशस्ति)४ ते निरीक्ष्य 201131 तस्मिञ्जयन्ति 11387 ताम्भारती 11172 तेभ्यः परान्नः 1047 तस्मिन्नलो तां मत्स्यलान्छन 11397 | तेऽवज्ञाय 171114 तस्मिन्नियं 673 तांमिथोऽभिदधती 18163 | तेषां तथा 1021 तस्मिन्नतेन 12103 | ताम्रपर्णी 20121 तेषामिदानीं 8 // 60 85
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________________ श्लोकानुक्रमणिका। 1601 तेषु तद्विध 5/67 | त्वमुचितं 199 | दयोदयश्चे 8.96 ते सख्यावाच 20136 | त्वं मदीय 181144 | दर्शस्य 171193 ते हरन्तु 21175 | त्वया जगत्युच्चित 8142 | दलपुष्प 17 / 207 तौ मिथो रति 18136 स्वयान्याः क्रीड 2080 दलोदरे त्यज्यते न 21186 त्वयापि किं 3173 | दशशत 19 / 10 त्यागं महेन्द्रादि 1415 | त्वया विधात 1689 दशाननेनापि 22 / 129 पाऽस्य न 153 त्वयि न्यस्तस्थ 20144 दहति कण्ठ 471 त्रातुं पति 22099 / त्वयि वीर 244 दहनजा न 146 त्रिदशमिथुन 1919 स्वयि स्मराधेः 33115 दहनमविशद 1944 त्रिनेत्रमात्रेण 8163 त्वयैकपत्न्या 955 दाक्षीपुत्रस्य 1961 त्रिसन्ध्यं तत्र 17188 स्वरस्व पञ्चेषु 948 दानपात्र 5.92 त्र्यम्बकस्य 21137 | विषं चकोराय 22163 दानवारि 21 // 60 स्वं यार्थिनी 13332 दानवौघ 21157 त्वं हृदता 33105 दण्डताण्डवनैः 1794 दारा हरि 1775 स्वचः समुत्सार्य ___731 दण्डं बिभर्त्यय 13 // 15 दारिद्रयदारिद्र 3125 स्वच्चेतसः 370 दण्डवगवि 21 // 36 दारुणः कूट 171128 त्वत्कान्तिमस्माभि 899 दत्ते जयं 211120 दासीषु नासीर 1093 त्वत्कुचाई 20179 दवारमजीवं 386 दिनु यस्खुर 2155 त्वत्तः श्रुतो 1433 ददाम किं ते 8102 दिगन्तरेभ्यः 1092 त्वत्प्रापकात् 31110 ददासि मे 1694 दिगीशवृन्दांश 16 स्वदग्रसूची 1180 ददृशे न 2271 दिगीश्वरार्थ 9169 त्वदर्थिनः 8.94 ददेऽपि तुभ्यं 9 / 131 / दिदृचरन्या 15/79 त्वदास्यनिर्य 9 / 63 ददौ पदेन 174211 दिनमिव दिवा / 19.55 त्वदास्यलचमी 22141 दधतो बहु 16 दिनावसाने 22 / 97 स्वदितरो // 31 दधदम्बुद રાટર दिने दिने त्वं . 190 स्वद्विरः क्षीर 20122 2017 दमनादमनाक 20155 दिनेनास्या स्वद्गुच्छावलि 33127 दमयन्त्या 20112 दिने मम 22 / 38 स्वद्गोचरस्तं 872 दमस्वसः सेय 870 | दिवस्पते 1627 स्वबद्धबुद्धः / 3 / 101 दमस्वसुः पाणि 1645 | दिवारजन्यो 755 स्वद्रपसम्पदव 11342 दमस्वसुश्चित्त 12150 | दिवो धवस्त्वां 974 स्वद्वाचः स्तुतये 21 // 146 / दम्पत्योपरि 20600 दिवौकसं 941 त्वमभिधेहि 150 दयस्व नो 8193 | दिशि दिशि (प्रशास्ति)२ स्वमिव कोऽपि 198 | दयितं प्रति 174 | दीनेषु सत्स्वपि 1114
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________________ 1602 श्लोकानुक्रमणिका। दीपलोप 18131 | देवानियं 13 // 38 ! ध दीयतां मयि 18141 देवी कथञ्चित् 1137 धनिदानाम्बु 1726 दुर्ग कामाशुगे 17121 देवी च ते 1490 | धनुर्मधुस्विन्न / 1181 दुर्लभं दिग 580 देवी पवित्रित 11166 धनुषी रति 2028 दते नलश्री 816 देवेन तेनैष 22 / 89 धन्यासि वैदर्भि 31116 दृश्यसङ्गति 18129 देवद्विजे: 1766 धयत नलिने 19 / 33 दूस्याय दैत्यारि 65 देव्याः करे। 13351 धरातुरासाहि 3195 दूरं गौरगुणे 12184 देव्याः श्रुतौ 14.30 धराधिराज 12161 दूरतः स्तुति 21150 देव्याऽपि दिव्या 14 / 66 धर्मबीज 21196 दूरस्थित 22181 देव्याऽभ्यधायि 11124 धर्मराज 5168 दूरान्नः प्रेक्ष्य 17 / 124 देशमेव 201149 धर्माधर्मों 17 દર दूरारुढ 1965 दैत्यभर्त 21 / 58 धवेन सा 16 // 39 दूरेऽपि तत् 22 / 109 देन्यस्तन्य 17 / 25 धातुर्नियोगा 3118 दूर्वाग्रजाग्रत् 1447 | दैन्यस्यामुष्य 17182 धार्यः कथङ्कार 3115 दृगपहत्यप 485 | दोग्धा द्रोग्धा 17181 धिक्चापले 3155 दृग्गोचरो 1463 दोर्मूलमा 6320 धिक्तं विधेः 3 / 32 दृशा नलस्य 12 / 109 दोष नलस्य 171216 धिगस्तु तृष्णा // 130 दृशाऽपि सा 8 / 10 द्यामन्तरा 113 धिनोति नास्मान् 897 हुशाऽथ निर्दिश्य 12169 द्रागुपाहियत 213 धियात्मनस्ताव 9 / 124 दृशोरपि 14155 द्रुतविगमित 4118 धुता पतत् 9 / 86 दृशोरमङ्गल्य 9 / 106 द्रोणः स तत्र 1169 धूपितं यदु 1815 दृशोद्वयी 967 द्रोहं मोहेन 171147 | धूमावलि 14173 दृशोर्यथाकाम 79 द्रोहिणं दुहिणो 17116 / धूलीभिर्दिव 12 / 99 दृशौ किमस्या 734 द्वापरः साधु 17139 तं वतंसो 15/39 दृशौ मृषा 9 / 11 द्वापरैक 17157 तिलाञ्छन 2226 दृष्टं दृष्टं 20167 द्विकुण्डली 1087 धृताङ्गरागे 1039 दृष्टो निजां 22 / 130 द्विरेव 19 / 63 धृतातेस्तस्य 867 दृष्ट्वा जनं 171196 द्विषद्भिरेवास्य 172 ताल्पकोपा 38 दृष्ट्वा पुरः 17 / 378 द्वीपं द्विपाधि 11173 तेतया 1532 देवः पति 13333 द्वीपस्य पश्य 11149 / धृत्वैकया। देवः स्वयं 11 // 29 शाल्मल 11167 201:35 देवदूत्य 18138 द्वीपान्तरेभ्यः 1026 ध्रुवं विनीतः 1667 देवश्चेदस्ति 1776 द्वेण्या कीर्ति 12 / 12 ' ध्रुवमधीत
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________________ श्लोकानुक्रमणिका। 1603 5 . ध्रवावलोकाय 1638 न यक्षलक्षः 1056 | न व्यहन्यत 5 / 123 ध्वान्तस्य तेन 22 / 39 नयति भगवान् 19311 न श्रद्दधासि 111119 ध्वान्तस्य वामोरु 22 // 35 नय नयनयो 1954 न श्वेततां 1131 ध्वान्ते द्रुमान्ता 22140 न यावदग्नि 15/64 न षड्विधः 16 / 108 ध्वान्तणनाभ्या 22.31 नरसुराब्ज 4|44 न सन्निधात्री 9.78 न राजिका न सुवर्ण 2052 न काकुवाक्य 9 / 93 / नलं स तत्पक्ष 9 / 128 न स्थली 1879 न का निशि // 30 | नलं तदावेत्य 9 / 137 नाकलोक 5 / 46 न केवलं 11131 नलप्रणाली 63 नाकेऽपि दिव्य 1059 न क्षमे चपला 20150 नलभीमभुवो 1710 नाक्षराणि 5 / 121 न खलु मोह 436 नलभ्रमेण 10 / 18 नागेषु सानु 17118 नखेन करवा 16129 | नलं प्रत्यनपेता 17156 | 5 / 2 न जातरूप 11129 नलविमस्त 4 / 68 नात्थ नात्थ 1872 न जानती 1429 नलस्य नासीर 1664 नादं निषाद. 2 // 113 नतभ्रवः 1660 नलस्य पश्यत्वि 20123 नानया पति 18151 न तुलाविषये 2151 नलस्य पृष्टा 137 नापगेयमनयः 21178 न तूणादुद्धारे 12 / 49 नलस्य भाले 161 नापराधी 17/107 न तेन वाहेषु 1634 न नलास्ववैश्वस्त्य 15 / 55 नाबुद्ध बाला 1418 नत्वा शिरोरत्न 820 नलानसत्या 10.45 नाभूदभूमिः 102 न दोषं विद्वेषा 1193 नलान्यवीक्षा 12 / 108 नाभ्यधायि 51117 नन्वत्र हव्य 1137 लाय बाल 1652 नामधेय 5 / 10 न पश्यामः 17/143 नलाश्रयेण 3 / 45 नामभ्रमाद्यमं 17105 न पाण्ड्यभू 12 / 15 नलिनं मलिनं 2 // 23 नायकस्य * 18162 न पाहि पाहीति 12 / 63 नलेन ताम्बूल 1628 नालोकते 20132 न पीयतां 1226 नलेन भायाः 3117 नाल्पभक्तबलि 21143 नभसः कलभै 1167 नले विधातुं 14 // 23. नावा स्मरः नभसि महसां 19 / 12 नलेष्टापूर्त 171158 नाविलोक्य 18.50 नभोनदीकूल 22119 न वनं पथि 2 / 72 नासत्यवदनं 20140 न भ्रातुः किल / 17165 न वर्तसे 9 / 119 नासादसीया 736 नमः करेभ्यो 10126 नवा लता 1185 नासीरसीमनि 13122 न मन्मथस्त्वं 829 / न वासयोग्या 13128 | नास्ति जन्य . 594 नम्रप्रत्यर्थि 12 / 56 / न विदुषितरा 19 / 24 नास्पर्शि दृष्टापि 717 नम्रयांशुक 1880 नवी युवानी 1675 ' नास्य द्विजेन्द्रस्य 221118
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________________ 8183 183 1604 श्लोकानुक्रमणिका। निजस्य वृत्तान्त 979 | निशि निरशनाः 1918 नैवाल्प 13312 निजांशुनिर्दग्ध 9 / 146 | निशि शशिन् 54 नैषधाङ्ग 1818 निजाक्षिलक्ष्मी 1242 निश्चित्य 1111 नैषधेन 171138 निजादनुव्रज्य 16116 | निश्शङ्कमङ्कुरित 1991 नैषधे बत 71 निजानुजेना 22 // 43 | निश्शङ्कसङ्कोचित 777 नो ददासि 21168 निजा मयूखा 165 | निषधनृप 16 / 127 | न्यग्रोधना 11 // 30 निजामृतो 10 // 129 निषिद्धमप्या 9 / 36 न्यधित / 4141 निजे सृजास्मासु 892 निषेधवेषो 9 / 50 न्यवारीव 201153 नित्यं नियत्या 103 निष्पदस्य 17 / 210 | न्यवीविश 10.67 निपतताऽपि 151 निस्त्रिंश 12166 न्यवेशि रत्न 971 निपीतदूता 15/11 नीतमेव 18325 न्यस्तं तत निपीय पीयूष 9 / 72 नीतयोः स्तन 1866 न्यस्य तस्याः 201142 निपीय यस्य नीतानां यम 17190/ न्यस्य मन्त्रिषु निमीलनभ्रंश 27 नीलदाचिबुकं 20194 निमीलनस्पष्ट 622 नीलनीर 21 // 33 पक्वं महा 22 / 28 निमीलितादक्षि 140 नीविसीन्नि निबिडं१७३ पङ्कसङ्कर निरन्तरत्वेन 22 / 114 नीविसीम्नि निहितं 18 / 43 | पचेलिम 22 / 14 निरस्य दूतः 938 नृपः कराभ्या 12180 पञ्चेषु 17123 निरीक्षितं 812 नृपः पुरस्थैः 2016 पण्डितः 17164 निरीक्ष्य रम्याः 16104 नृपनीलमणी पतगश्विर 2 / 7 निरीय भूपेन 158 नृपमानस 28 पतगेन 2013 निर्विश्य निर्विरति 111118 नृपस्य तत्रा 15/58 पतत्येत 12 / 46 निलीयते 333 नृपानुपक्रम्य 12 / 4 पतस्त्रिणा तद्रुचि 1127 निवारिता 1111 नृपाय तस्मै 1199 पतत्रिणां द्राधिम 15:59 निविशते 4111 | नृपेण पाणि 379 पतिवरायाः 981 निवेक्ष्यते 9 / 47 नृपेऽनुरूपे 133 | पत्युरागिरिश 1878 निवेद्यतां 8124 नृणां करम्बित 1144 | पत्युगिरीणा 22 / 29 निवेशितं 15/43 नेत्राणि वैदर्भ 33 | पस्यौ तया 17/154 निवेश्य 16310 नेत्रारविन्दत्व 22 / 90 पत्यौ वृते . 14661 निशा शशाङ्क 3148 | नेत्रे निषध 20151 पथामनीयन्त 15 / 14 निशि दश 1935 नैकवर्ण पथ्यां तथ्या 17.29 निशि दष्टा 20157 ननं त्यज 6180 | पदं शतेनाप 682 निशि दास्यं 2015 / नैव नः प्रिय 569 पदद्वये 2175 ग कवर्ण 2129 1546
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________________ 1605 श्लोकानुक्रमणिका। पदातिथेयाँ 91143 | पश्य द्रुता 2216 | पुत्री विधो રાહ૧ पदे पदे भाविनि 11 पश्यन् स 6.18 पुत्री सुहृद् 877 पदे पदे सन्ति 1132 पश्य भीरु 1884 पुत्रेष्टि 17 / 93 पदे विधातु 7.10 पश्याः पुरन्ध्रीः 639 पुनः पुनः का 15/30 पदैश्चतुर्भिः 17 पश्यावृतो 2241 पुनः पुनर्मिल 1717 पदोपहारे 822 पश्योच्च 22 // 120 | पुनर्वक्ष्यसि 17/115 पद्यां नृपः 657 पांशुला 21144 पुमांसं मुमुदे 171168 पद्मासद्मा 7.49 पाञ्चजन्य 21184 पुमानिवास्पर्शि 647 पद्मान् हिमे 10120 पाणये बल पा४५ पुरः सुरीणां 9 / 28 पपी न कश्चित् 1665 पाणिपर्वणि 21119 पुरःस्थलाङ्गल 1653 पयःस्मिता 16106 पाणिपीडन 5.99 पुरः स्थितस्य 6 / 41 पयोधिलक्ष्मी 11117 पाणी फणी 11.18 पुरभिदा 476 पयोनिलीना 11108 पातुर्दशा 3.104 पुराकृति 7 / 15 पयोमुच 22 / 114 पाथोधिमन्थ 11460 पुरा परित्यज्य 8123 परदार 17142 पापात्तापा 1744 पुरा यासि 17 / 153 परभृत पार्थिवं हि पुरी निरीक्ष्या 163122 परति 3 / 134 पार्श्वमागमि 1836 पुरे पथि 10 // 31 परस्परस्पर्श 655 पिकरुन 435 पुरैव तस्मिन् 1623 परस्पराकूत 1677 पिकस्य 864 पुरो हठा 197 परस्य दारान् 1416 पिकाद्वने 188 पुष्पकाण्ड 18120 परस्य न 16 / 113 पिताऽऽत्मनः 16.117 पुष्पं धनुः 7 / 24 पराद्धर्थवेशा 163 पितुर्नियोगेन पुष्पायुध परिखावलय 2 / 95 पितणां तर्पणे 17.166 पुष्पेषुणा 11026 परिमृज्य 2050 पिपासुरस्मी 1683 पुष्पेषुश्चिकु / 3 / 128 परिष्वजस्वा 9 / 116 पीडनाय 18.95 पुष्पैरभ्यर्थ्य 14187 परीरम्भे 2046 पीतावदाता 10.98 पूगभोग 18198 परेतभ 11109 पीतो वर्ण 211137 पूजाविधी 111110 पर्यतापन्न 366 पीत्वा तवा 1175 पूतपाणि 21120 पर्यभूद्दिन . 56 पीयूषधारा 3142 | पूरं विधु 22159 पर्वतेन परि 5.44 पुंसामलब्ध 17.31 पूर्णयेव 2031 पलाशदामेति 15/53 पुंसि स्वभर्तृ 643 | पूर्णन्दुबिम्बा 10 // 62 पवनस्कन्ध 17/11 17165 पूर्णेन्दुमास्यं 1020 पवित्रमत्रा 13 पुण्ये मनः 8117 / पूर्वपर्वत . 20123 3372 / पटपाव
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________________ 1606 श्लोकानुक्रमणिका। पूर्व मया 1344 | प्रभुत्वभूम्ना 9 / 109 प्राप्तव तावत् 8/49 पूर्वपुण्य प्रयस्यतान्त 1019 | प्रावृडारम्भ 2024 पृथक प्रकारे 1605 | प्रयातुमस्माक 196 प्राशंसि 1058 पृथुवर्तुल 2036 प्रलापमपि 17159 प्रियं न मृत्यु 9 / 92 पृथ्वीश एष 11 / 123 प्रलेहज 16185 प्रियं प्रियां१३८ पृष्टेऽपि किं 2281 प्रवसते 5 / 134 | प्रियः प्रियामथा 20 / 121 पौरस्त्यशैलं 8152 प्रवेक्ष्यतः 1064 प्रियः प्रियका 163118 पौरस्त्यायां 19162 प्रशंसितुं 12187 प्रियकरग्रह 430 पौरुषं दधति 1828 प्रसादमासाद्य 1418 | प्रियसखी 4101 प्रकाममादित्य 11115 प्रसारितापः 14181 प्रियस्याप्रिय 201956 प्रकृतिरेतु 423 प्रसीद तस्मिन् 9 / 53 | प्रियां विकल्पो 6 / 17 प्रक्षीण एवा 6 / 100 प्रसीद यच्छ 9 / 147 प्रियांशुकग्रन्थि 16:37 17/137 प्रसूतवत्ता 1624 प्रियाङ्गपान्था प्रतिप्रतीक કાર प्रसनता 1640 प्रियासखी 7 / 105 प्रतिबिम्बेक्षितः 201106 | प्रसूनबाणा 748 प्रियामनोभू 8188 प्रतिमासमसी 2158 प्रसूनमित्येव 9 / 139 प्रियामुखी 7.52 प्रतिहपथे 2 / 85 प्रसूप्रसादा 649 प्रियावियोग 20122 प्रतीपभूपे 1113 प्रस्मृतं तत् 2078 प्रियासु बालासु 1118 प्रत्यक्षलक्ष्याम 1470 प्राक्पुष्पवर्षे 10101 प्रियाहिया 121 प्रत्यङ्गभूषा 11104 प्रागचुम्ब 18 / 38 प्रियेण साथ 22 // 103 प्रत्यङ्गमस्याः 7/19 प्रागिव प्रसु प्रियेणाल्पमपि 2015 5 / 14 प्रत्यातष्ठिप प्रागेतद्वपु प्रिये वृणीष्वा 81103 12193 प्रत्यभिज्ञाय 201102 प्राग्दृष्टयः 21134 प्रीतिमेष्यति 10 // 40 प्रत्याथपाथव 1103 प्राग्भवैरुद प्रेयसावादि 21189 प्रत्यथियावत 5188 प्राग्भूय कर्को 2119 प्रेयसीकुच 1018 प्रत्यलापात् 20515 प्राची प्रयाते 8162 प्रेयसीजित 51131 प्रत्युव्रजन्त्या 2212 प्राणमायत 21113 प्रेषिताः पृथ प्रथमककुभः 1926 प्राणवतू 2580 प्रेयरूपक प्रथममुप 19 / 14 प्रातरात्म 1861 प्रौन्छि वाञ्छित 17:35 प्रथमं पथि 2065 प्रातवर्णनया 19165 प्लक्षे महीयसि 1174 प्रदक्षिणं 10.54 प्रापितेन 5184 प्लुष्टश्चापेन 8105 प्रदक्षिणप्रक्रम 142 प्राप्ता तवापि 211124 प्रबोधकाले 22 / 23 | प्राप्तं प्रयच्छति 13 // 35 | फलमलभ्यत 4181 2016
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________________ श्लोकानुक्रमणिका 1607 फलसीमां 17 / 141 / बिभेति रुष्टासि 21112 | भावितेयं 2038 फलानि पुष्पाणि 177 / विभ्रत्युपरि 17169 भावी करः 111108 फलेन मूलेन // 133 बुद्धिमान् 1845 | भाषते नैषध 2070 बुधजनकथा 1945 भास्वद्वंश 12 / 10 बत ददासि 484 ब्रवीति दासीह 12151 भास्वन्मयीं 22033 बन्ध्यायनाना 3124 ब्रवीति मे 848 भिक्षिता शत 5 / 21 बन्धाय दिव्ये 320 ब्रह्मचारि 17 / 32 भीत्तिगर्भ 18113 बन्धूकबन्धू 7.37 ब्रह्मणोऽस्तु 21195 भीत्तिचित्र 1819 बभाण वरुणः 171101 ब्रह्माद्वयस्या 73 भीमजा च 5.82 बभवन 1644 ब्रह्मार्थकर्मार्थ 1081 | भीमजामन 21115 बभूव भैम्याः 15/62 | ब्राह्मण्यादि 17186 भीमस्तया 10 / 89 बभौ च प्रेयसी 2051 | ब्रमः किमस्य नल 11179 भीमात्मजापि 21107 बलस्य कृष्टव 1531 बमः किमस्य वर 1333 भुजगेशान 171119 बलास्कुरुत 17148 ब्रूमः शङ्ख तव 1956 भुजेऽपसर्प 12264 बलिसद्म 2184 भ भुजानस्य 20190 बहुकम्बुमणि 2188 भक्तिभाजमनु 21101 भुवनत्रय 2 / 18 बहुनखरता 19153 भक्त्या तयैव 147 भुवनमोहन 4 // 83 बहुरूपक 283 भङ्क्तं प्रभु 22182 भुवि भ्रमित्वा ૧ર૧૬ बहूनि भीमस्य 16143 भङ्गाकीर्ति 12 // 19 | भूपं व्यलोकत 1993 बहोर्दुरापस्य 16 // 17 5 / 118 भूपेषु तेषु 11182 बह्वमन्यत 185107 भजते खलु 2 / 33 भूभर्तुरस्य 111121 बह्वमानि 18/94 | भवत्पदाङ्गुष्ठ 8 // 36 भूभृतं पृथु 2118 बालकेलिषु 21176 | भवद्वियोगा 3 / 113 भूभृद्भवाङ्क 211117 बालातः 11143 भववृत्त 14189 | भूभृद्भिर्लम्भि 1994 बालां विलोक्य 13126 भवन्नदृश्यः 646 भूमीभृतः 135 बालेऽधरा 11104 भवन् सुद्युम्नः 15 / 83 भूयस्ततो 11148 बालेन नक्तं 2051 | भवलघुयुता 19 / 22 भूयोऽपि बाला 31 बाहुवल्लि 18.91 | भवाशे 171127 भूयोऽपि भूपति 2053 बाहू प्रियाया . 768 | भवानपि 14/71 भूयोऽपि भूपमप 111113 बिभर्ति वंशः 96 | भविता न 215 भूयोऽर्थमेनं 6 / 110 बिभर्ति लोक 1716 | भविनां भाव 1777 | भूरिसृष्टि / 21154 बिभीतक 17213 भव्यानि हानि 7/16 भूलोकभर्तु 8114 बिभेति चिन्ता 9 / 31 / भव्यो न ..17/142 | भूशक्रस्य 12191
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________________ 9196 9 / 3 1608 श्लोकानुक्रमणिका भूषाभिरुच्चै 1038 मस्कर्णभूषणा 201108 | ममाशयः / 9 / 32 भूषास्थिदाम्न 228 मत्तपः क्व 5 / 95 ममासनाई 9114 भृशं वियोगा 989 | मत्प्रीतिमाधि 3058 ममासावपि 20110 भृशतापभृता 2053 मदनताप 4110 ममैव पाणी 9/68 भृशमबिभरु 19 / 13 मदन्यदानं 3175 ममैव वाहर्दिव भैमीङ्गितानि 1194 मदर्थसन्देश 1137 ममैव शोकेन 1140 भैमी च दूत्यं 689 मदान्मदने 16332 मयाङ्ग पृष्टः भैमीनिरस्तं 1017 मदुग्रताप 9 / 95 | मयापि देयं 9 / 16 भैमीनिराशे 616 मदेकपुत्रा 11135 मयि स्थिति 1234 भैमी निरीक्ष्या 1432 मद्विप्रलभ्यं 378 मयेन भीम 16329 भैमीपदस्पर्श 5 मद्विरोधि 206134 मयैव सम्बोध्य 9 / 140 भैमीमवाप 1195 मध्यं तनू कृत्य 782 | मरुल्ललत्। 1.94 भैमीमुपावी 665 मध्ये बद्धाणि 21145 मर्त्य दुष्प्रचर 216 भैमी पत्ये ૧કાર मध्ये श्रुतीनां // 65 मत्यलोक 21114 भैमीविनोदाय 674 मध्येसभं 1074 मल्लिकाकुसुम 21140 भेमीविवाहं 1014 मध्योपकण्ठा 7/40 मसारमाला 163121 भैमीसमीपे 6 / 72 मनसायं 20147 महाजनाचार 9 / 13 भैम्या समं દાર मनसि सन्त 4112 महानटः किं 2217 भैम्याः स्रजः 14141 मनस्तु यं 3359 महापराकिणः 17192 मनोभुवस्ते 9 / 140 महारथ 1161 भोगिभिः क्षिति 21 // 61 मनोभूरस्ति 20141 महावंशान 17/126 भ्रमणरय 2 / 108 मनोरथेन 1339 मही कृतार्था 844 भ्रमन्नमुष्या 636 मन्त्रैः पुरं 1013 महीभृतस्तस्य 126 भ्रमामि ते 951 मन्था नगः 11 / 62 महीमघोनां 15 / 29 भ्रवाऽऽह्वयन्ती 167 मन्दाकिनी 683 महीमहेन्द्रः खलु 3171 भ्रवी दलाभ्यां 1086 मन्दाक्षनिष्पन्द 14144 | महीमहेन्द्रस्तम 11119 भ्रूभ्यां प्रियाया 755 मन्दाक्षमन्दा 361 महीयसः 11113 भ्रवल्लि 11.33 मन्मथाय 531 महेन्द्रदूत्या 9/102 भ्रश्चित्रलेखा 791 मन्येऽमुना 764 | महेन्द्रमुच्चैः 1625 / मम त्वदच्छा 9 / 107/ महेन्द्रहेते 9 / 150 मन्ना सुधायां 75 मम श्रम 9 / 126 | मा जानीत 1586 मणीसनाभौ 15 / 50 | ममादरीदं 9 / 100 मा धनानि 5.89 मण्डलत्याग 171185 / ममानुमैवं 22292 माध्यन्दिना 21106 -मतः किमैरावत 952 ममापि किं 9 / 98 / मानवाशक्य 171102
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________________ श्लोकानुक्रमणिका 1606 4153 ब्रदीयसा मानुषीमनु 5 / 47 | मृगस्य लोभात् 22 / 68 | यत्तानिजे 14|4 मामभीरिह 5.90 मृगाक्षि यन्म 22 / 128 | यत्तया सदसि 18029 मामुपेष्यति 5 / 70 मृतः स्मरति 1752 यत्त्वयाऽस्मि 1842 मायानलत्वं 14158 मृत्युञ्जय 22162 यत्पथावधि 5 / 29 माऽवापदुन्निद्र 22293 मृत्युहेतुषु 21198 यत्पाथोज 19458 मित्रप्रियोप 1316 मृषा निशा 221100 यत्पद्ममादिसु 22 // 115 मिश्रितोरु 18/147 मृषाविषादा 1351 यत्पूजां नयन 22 / 138 मिहिरकिरणा 19 / 28 मेचकोत्पल 21141 यत्प्रत्युत ટાટર मीयतां कथ 5.83 मेनका मनसि 5 / 51 यत्प्रदेय 5185 मीलन शेके 6 / 21 मैव वाङ्मन 2152 यत्प्रीतिमद्भिः 22 / 44 मुक्तमाप्य 21.11 मोहाय देवा 22 / 17 यत्र कान्तकर 2028 मुक्तये यः 17/74 मौनीभृतो 17/177 यत्र पुष्पशर 18115 मुखं यदस्मायि 1661 मौनिन्यामेव 20165 यत्र मत्तकल 1816 मखपाणि 2 / 96 मौनेन व्रत 171175 यत्र वीचय 18 / 26 मखरयस्व 1524 यत्र वैणरव 1817 मुखादारभ्य 20192 म्लानिस्पृशः यत्राभिलाष 22236 14180 मुखानि मुक्ता 1513 यत्रावदत्ता 6168 मुखाब्जमावर्त 14 // 36 | यः पृष्ठं युधि यत्रैकयाली 12 / 97 6 / 61 मुखेन तेऽत्रोप 16350 | यःप्रेर्यमाणो 679 यथाकृतिः 8 // 28 मुखे निधाय 166109 यः सर्वेन्द्रिय 17/28 यथा तथा 9 / 29 मुग्धः स 8 / 39 | यः स्पर्द्धया 10.50 16180 यथामिषे मुग्धा दधामि 1345 यः स्यादमीषु 13352 यथा तथेह 9 / 20 मुद्रितान्य 5 / 12 य एष 22194 यथायूनस्तद्व (प्रशस्ति) 1 मुधार्पित 1063 यतकर्दम 217 यावदस्मै 16 / 12 मुनियथा 9 / 121 यञ्चण्डिमा 13329 यथाऽऽसीत् 171215 मुनिद्रुमः 1196 यचुम्बति 201147 यथोह्यमानः 1 // 32 मुनीनां स 17 / 169 यदक्रम 84 मुषितमनस 19 / 23 यज्वभार्या 17201 2 / 89 यदगार मुहूर्तमानं . 1136 यतध्वं सह 17131 / यदङ्गभूमी 1622 मूर्द्धाभिषिक्तः 22 / 38 यतिहस्त 171184 यदतनुज्वर मूलमध्य 2012 यत्कस्यामपि 12 / 81 यदतनुस्त्व 4193 मृगया न .. 219 यत्तरिक्षपन्त 1719 | यदतिमहती 19/41 मृगस्य नेत्र 8140 यत्तदीय 18103 | यदतिविमल 2 / 103 य 11176 यज्ञधूपधनां
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________________ 18 1610 श्लोकानुक्रमणिका यदप्यपीता 1671 | याचमान 8 | यो मघोनि 5 / 48 यदम्बुपूर 11116 | याचितश्चिर 5126 | यो कुरङ्ग 1896 यदवादिष 2011 याचे नलं 1347 यदस्य यात्रासु या दाहपाको 1474 रक्षः स्वरक्षण 11.13 यदापवार्यापि 9 / 142 यानेन तन्व्या 7101 रक्षिलत 57 / 206 यदि त्रिलोकी 340 | यानेन देवान्न 6.85 रचय चारु 41114 यदि प्रसादी 7.43 यान् वरं 5 / 132 रचयति 19 / 39 यदि स्वभावा 9 / 10 यापदृष्टि 51120 रजःपदं 101119 यदि स्वमुद्वन्धु 946 यामिकाननु 5 / 110 रजनिवमथु 1916 यदिहापि हेतुः 1670 यामि यामिह 51107 रज्यन्नखस्या 770 यदुद्धता श्री 1567 यां मनोरथ 5 / 109 रज्यस्व राज्ये 6 / 84 यद्वभार दहनः 563 यावत्पौलस्त्य 1247 रतिपतिप्रहिता 140 यद्भर्तुः कुरुते 12192 | यावदागम 51 रतिपतेर्विज 4 / 37 यद्धृवी 1888 यावन्तमिन्दं 2283 | रतिरतिपति 19 / 21 यद्विधूय 1855 या शिरोविधुति 1871 रतिवियुक्त 478 यन्मतौ 5 / 106 या सर्वतो 13121 रथाङ्गभाजा 111 यन्मौलिरत्न 11183 यासि स्मरं 171155 रथादसौ 67 यमुपासत 1720 या सोम 1088 रथैरथायुः - 10 यमेन जिह्वा 16121 युगशेष 17148 रम्भादिलोभा 10113 यं प्रासूत 5 / 136 युद्ध्वा चाभि 1148 रम्भापि किं 7192 ययौ विमृश्यो 1016 युवद्वयी 195 रम्येषु हर्येषु 1027 यशः पदाङ्गुष्ठ 71106 युवानमालोक्य 1659 | रराज दो यशो यदस्या 3339 | युवान्तरं 2193 यस्तन्वि 880 युवामिमे 1651 रविरथ 19 / 17 यस्ते नवः 3 / 121 युवा समा रविरुचि 197 यस्त्रिवेदी 1746 - युष्मान् वृणीते 14140 रवैर्गुणा 8.68 यस्मिन्नल 635 | येन तन्मदन 1854 रसस्य 101115 यस्मिन्नस्मीति 1751 येनामुना 13328 रसालसाला 1189 यस्या विभो 1116 येषु येषु / 5 / 32 रसैः कथा 12 यस्येश्वरेण 13149 ये हिरण्य 21187 रहसहचरी 19125 याचतः स्वं 1789 यरन्वमायि 22290 रागं दर्शयते 20133 याचते स्म 1848 योग्यजनि .103 रागं प्रतीत्य 211125 याचनान्न 18 // 67 | योजनानि 18 // 108 | राजा द्विजाना // 37 12 / 14 ' रविकान्त 1684
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________________ श्लोकानुक्रमणिका राजान्तरा 11 // 34 वदत्यचिह्नि 2068 राजा स यज्वा // 24 / लक्ष्मीविलास 11147 वदनगर्भ 4165 राजौ द्विजाना 746 लक्ष्मीलता 11146 वद विधुन्तुद 4/70 राज्ञामस्य 12158 लक्ष्ये धृतं .10.117 वनकेलो 20195 राज्ञां पथि 107 वनान्तपर्यन्त 9 / 152 175 राज्ञि कृष्णा 21144 लङ्घयन्नह वयं कलादा 211102 8.99 रामणीयक लज्जया प्रथम 18139 वयसी शिशुता // 30 रामालिरोमा 22227 लजितानि 2056 वयस्यया 12259 रामेषु मर्म 22117 लताबलालास्य वयस्याभ्यर्थने 20113 11106 रिपुतरा 4124 लब्धं न लेख 21116 वयोवशस्तोक 1669 रिपूनवाप्यापि वरणः कनकस्य ललाटिका 2046 12 / 45 15.33 वरस्य पाणिः रुचयोऽस्त 16 / 14 2 / 90 लसन्नखा 15/76 रुचिरचरणः वराटिकोप लाक्षयाऽऽत्म 1947 3388 18 / 122 रुद्धसर्व ऋतु वरुणगृहिणी 193 लावण्येन तवाखि 22 / 143 18 / 10 वरेण वरुण 201126 रुद्रषुविद्रा लावण्येन तवास्य 221142 2378 रुषा निषिद्धा वर्णाश्रमाचार 2012 14142 लिपि दृशा 3103 वर्णासङ्कीर्ण 17185 रुषारुणा 7 / 100 लिपिर्न दैवी 677 77 वर्षातपाना 22296 रूपं यदाकर्ण्य 10 / 114 लिलिहे स्वरुचा 100 वर्षेषु यद्भारत 6197 रूपमस्य 5 / 62 लीनचीनांशुक 20148 वल्लभस्य 18140 रूपं प्रति 645 लीनश्चरामीति 60 वल्लभेन 1892 रूपवेष 1874 लीलयापि 21197 वस्तु वास्तु 21193 रेखाभिरास्ये 335 लेखा नितम्बिनि 1316 वस्तु विश्व 21194 रेवतीश 29182 लोक एष 5 / 91 वाग्मिनी जड 171134 रोमाङ्करै 14151 लोकत्रयों 17184 वाग्जन्मवैफल्य 332 रोमाञ्चिताङ्गी 6123 लोकस्रजि 6181 वाग्देवता 14383 14.50 लोकाश्रयो 22125 वाचं तदीयां 360 रोमावलीदण्ड 789 लोकेशकेशव - 11125 वाणीभिराभि 22 // 101 रोमावलीभ्रू . 786 लोकरशेष . 104 वाणीमन्मथ 21141 रोमावलीरज 784 वातोर्मिलोलन 11159 रोषकुङ्कुम 18127 वक्त्रेन्दुसन्निधि 11 वान्तमाल्यकच 18119 रोषभूषित 18126 | वक्षस्त्वदुन 111124 वामपाद 181105 111116 रोहणः किमपि 51125 | वतंसनीलाम्बु 1581 . वाराणसी 1. 101 नै० उ० रोमाणि
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________________ 78 15/27 178 श्लोकानुक्रमणिका वार्ता च सा 344 | विधुकरपरि 2106 विरहिभिर्बह वाल्मीकिरश्ला 1057 | विधुदीधिति 2 / 94 विरहिवर्ग 4 / 62 वासः परं नेत्र विधुरमानि 4120 | विरेजिरे 15/23 वासरे विरह 1852 | विधुविरोधि 4107 विरोधिवर्णा 1096 वाससो वाम्बर 201130 विधेः कदाचिद् 3119 विरोध्य दुर्वास 1631 विकासिनीला 201123 विधोविधि 7/59 विलम्बसे 990 विचित्रवादिन 15:18 विनिमद्भिरधः 170 विललासजला 279 विचिन्त्य नाना 1068 / विना पतत्रं 337 विलासवापी 1102 विचिन्त्य बाला 3168 | विनापि भूषाम विलासर्वदग्ध्य 1032 विचिन्त्यवतीः 186 विनिद्पत्रालि विलेखितुं भीम 664 विजित्य दास्या 15 / 20 / विनिहितं 4 / 28 विलेपनामोद 1095 विज्ञप्तिमन्तः 676 | विनेतृभर्तृ 169 विलोकके 14 / 67 विज्ञापनीया 394 | विपञ्चिराच्छादि 1517 विलोकनात् 20145 विज्ञेन विज्ञाप्य 393 | विप्रपाणिषु विलोकनेनानु 22 / 3 21 / 105 विततं वणिजा 2 / 91 / विप्रे धयत्यु 10155 विलोकमाना 11168 वित्त चित्त 5 / 105 विभज्य मेरुन 116 विलोकयन्ती 129 विदग्धबाले 16 / 101 विभिन्दता 9162 विलोकितास्या 751 विदर्भजायाः 1615 | विभूषणस्रंश 1580 विलोकिते 16103 विदर्भनाम्न 15 / 73 विभूषणेभ्यो 10 / 100 विलोक्य तच्छाय 644 विदर्भराजः 165 विभूषणैः 15/15 विलोक्य तावाप्त 14 / 68 विदर्भराजप्रभ 91141 विभ्रम्य सच्चारु 77 विलोक्य यूना 16 / 62 विदर्भराजोऽपि 1515 | विमुखान् द्रष्ट 171111 171111 विलोचनाभ्यां 15 // 38 विदर्भसुभ्रश्रव 15640 वियोगवाष्पा 761 विलोचनेन्दी 12 / 53 विदर्भसुभ्रस्तन 1182 वियोगमाजां 179 विलोमिताको 22146 विद्या विदर्भेन्द्र 741 | वियोगभाजो 11100 विवस्वता 22 / 34 विद्राणे रस 12 / 30 वियोगिदाहाय 1674 174 विधाय ताम्बूल 1276 | वियोगिनीमैक्ष | विशति युवति 19/35 विधाय बन्धूक 15:28 | विरग्यतां 856 विशेषतीर्थं 15:54 विधाय मूर्ति 1124 | विरहतप्त 4 / 32 विश्रापित 2174 विधाय मूर्धनि 793 | विरहतापिनि 4 / 27 विश्लथैरव 18.112 विधि वधू 3350 विरहपाण्डिम 15 विश्वदृश्व 5/101 विधिरनङ्ग 488 विरहपाण्डु 4 / 26 विश्वरूपकल विधिस्तुषार 22155 196 / विश्वरूपकृत 21103 वा 183
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________________ 9.44 श्लोकानुक्रमणिका 1613 विषमो मल રાપ૭ वैदर्भि दत्त 14169 | शशंस दासी 12221 विष्टरं तट वैदर्भि दर्भ 11351 | शशकलङ्क 55 विष्वग्वृतः 1.84 वैदर्भीकेलि 2 / 105 | शशाक निहोतु 152 विस्मेयमति 171140 वैदर्भीबहु 15587 | शशिमयं / 1138 विहाय हा वैदर्भाविपुला 15.90 शस्ता न हंसा 39 वीक्षितस्त्व वैराग्यं यः 17 / 22 शाकः शुकच्छद 11138 वीक्ष्य तस्य वरुण 51 वैरिणी शुचिता 171192 शारी चरन्ती 671 वीच्य तस्य विनये 5 / 20 वैरिश्रियं 11111 | शिक्षव साक्षा 1076 वीचय पत्युधरं 18 / 120 ववस्वतोऽपि 14176 | शिखी विधाय 975 वीक्ष्य भाव 18109 वैशद्यहृद्ये 146 शिरः कम्पानु 10 124 वीक्ष्य भीम 1847 व्यतरदथ 41119 शिरीषकोषा 7/47 वीक्ष्य वीक्ष्य कर 181125 व्यधत्त धाता 7/54 शिरीषमृद्वी 9158. वीच्य वीच्य पुन 18 / 101 | व्यधत्त सौधौ 101122 शिशिरज 1948. वीरसेनसत 184 व्यधुस्तमा 1676 शिष्याः कला 211110 वृणीष्व वर्णन 1215 व्यर्थीकृतं / शीघ्रलखित 5 / 58 वृणे दिगीशा 970 व्यर्थीभवद् 8119 शुचिरुचि 221146 वृतः प्रतस्थे 161 व्यलोकि लोकेन 15/71 शुद्धं वंशद्वयी 1739 वृत्ते कर्मणि 17 / 136 व्यापृतस्य 21138 शुद्धवंश 5 / 102 वृथा कथेयं व्यासस्यैव 1763 शुद्धान्तसम्भोग 3 / 93 वृथा परीहास 9 / 25 व्रजति कुमुद 1998 | शुभाष्टवर्ग 9 / 117 वृथार्पयन्ती 314 बजते दिवि 280 शुभ्रांशुहार 134 वृद्धो वाद्धिं 121102 व्रज तिं 4 / 185 शुश्रषिताहे 6.94 वेस्थ मय्यागते 2081 व्रजन्तु तेऽपि 9 / 154 | शूरेऽपि सूरि 11 // 32 वेत्थ मानेऽपि 2077 शृङ्गारभृङ्गार 22257 वेद यद्यपि 5 / 36 सक्रः किमेष 138 शृणीपद 20158 वेदानुचरतां 171160 शड्ढालता 13125 शृण्वता निभृत 18 / 142 वेदैर्वचोभि 1164 शचीसपत्न्यां 22226 शृण्वन् सदार 3328 वेदेस्तद्वेषिभिः 17196 शतक्रतू 17/103 | शेषं नलं 1419 वेलातिगत्रण / 3249 शतशः श्रुति 2054 / शैशवव्यय 5.33 वेलामतिक्रम्य 74 शम्भुदारुवन 18323 | शोकश्चेत् 211147 वेश्म पत्यु 1833 शरैः प्रसून 866 / शोणं पद 13 / 24 वेश्माप सा 656 शरैरजस्रं 875 | शोभायशो 8 / 34 1037 शर्म किं हृदि 18140 श्यामीकृतां 115106 99 वैदर्भदूता
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________________ श्रवणपूर 1614 श्लोकानुक्रमणिका श्रद्धामयी 1413 382 स जयत्यरि 2 / 16 श्रद्धालुसक 1065 श्रुतिं श्रद्धस्थ 17 / 60 सञ्चीयता 3183 श्रवःप्रविष्टा 384 श्रुतिः सुराणां 9 / 148 संज्ञाप्य 334. श्रवणपुट 6 / 112 श्रुतिपाठक 171161 स तत्कुच 1663 456 श्रुतिमय 1952 स तं नैषध 17209 श्रितपुण्य 2 / 39 श्रुतिसंरोध 20110 मतस्तेऽथ 2012 श्रितास्य कण्ठं 15/66 श्रुतिस्मृत्यर्थ 1750 सतीमुमा 22111 श्रियमेव 219 श्लथैदलैः 1618 स तुतोषा 171195 श्रियं भजन्तां 14 / 23 श्लिष्यन्ति वाचो 14 / 14 श्रियस्तदा 201116 सत्यं खलु 331 श्लोकादिह 1331 भिंयास्य योग्या 131 सत्येव पति 17188 श्वाश्वः प्राण 1730 श्रियौ नरेन्द्रस्य 336 श्वस्तस्याः प्रिय 9158 सत्येव साम्ये 7 / 14 311233 श्रीभरानतिथि 5 / 23 | श्वैत्य शैत्य सत्त्वसुत 21117 श्रीहर्ष. अन्यां 201161 सदण्डमालक्त 15162 " "एको 19667 | षड्ऋतवः 4192 सदा तदाशा 976 " "काश्मी 163130 स दूरमादरं 2013 " .."गौडो 7109 2 / 29 संरम्भैर्जम्भ . . 171106 महशी तव " .."तचिन्ता 1145 संसारसिन्धा 846 स धर्मराजः 9 / 56 " .."तर्के 101138 स कञ्चिदूचे 1649 स नालमात्मा 11122 __..तस्य द्वा१२।११३ सन्ददर्शी 17109 सकलया 472 " 'तस्य श्री 5 / 138 म कामरूप 12 / 70 सन्देहेऽप्यन्य। 1745 " .''दयमष्ट 81109 स कौतुकागार 1646 सन्ध्यावशेषे / 22115 " "दयमेक 21 // 149 सक्षणः / 18 / 139 सन्ध्यासरागः 22 / 10 " ..'तार्ती 3136 सखा यदस्मै 16 / 16 सन्निधावपि 18037 .."तूर्यः 4123 मखि जरां पल्लव 1084 " .."द्वाविं 22 / 149 सखीशतानां 6358 स पाखण्ड 171183 " .."द्वैती 2 / 110 | सखी नलं 1575 स पावमशक 17/170 " ..'यातः पञ्च 15 / 23 सखी प्रति 1696 सपीतेः 22 / 144 " "यातःसप्त 17 / 212 स गरुद्धन 224 171172 स प्रसह्य 18068 " .."यातस्तस्य 14498 स गृहे 21.144 स प्रियोस / 18144 " ..'यातोऽस्मि 1859 स ग्राम्यः 5 / 25 सभाजनं 145 " ""शृङ्गारा 111130 सङ्खयविक्षत " ..'षष्ठः 6113 सङ्गमय्य 1024 18145 सभा नलश्री 973 " "संह 9 / 160 सङ्ग्रामभूमीषु 3638 स भिन्नमर्मा " "स्वादू 13055 सङ्घयन्त्या 628 स भूभृदष्टा 3189
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________________ साऽऽहूयो श्लोकानुक्रमणिका 1615 संमं ययोरिङ्गि 1695 स सिन्धुज 164 | सा वागवाज्ञायि 10 // 49 समं सपत्नी 886 स स्यन्दनः 13323 साऽवाचि 20114 समं समेते 221122 सहचरोऽसि 475 सा विनीत 171144 सममेणमदै 2 / 92 सह नया 4194 सा विभ्रम समापय 9 / 112 महद्वितीयः 14165 सा शरस्य समाप्तिलिप्येव 16397 18490 सहस्रपत्रा सा शशाक 3 / 16 समिति पति 12 / 75 महाखिल 201104 9/20 साऽशृणोत् 'समुन्मुखी 12 / 77 साक्षात्कृता सा स्मरेण 18/69 1312 सम्पदस्तव 5.22 साक्षात्सुधांशु 201103 10 / 116 सम्प्रति प्रति 5 / 27 सागरान्मुनि सितत्विष 12 221133 सम्भावयति 2071 2176 साङ्कोव सितदीप्र 21122 सम्भाषणं 117 1112 पाथ नाथ सितांशुवर्षे 18 / 135 सम्भुज्यमाना 7 / 42 साधारणों 11110 13.13 सिताम्बुजानां सम्यगर्चति 21130 22153 सितो यदा साधु कामुकता 1767 सम्यगस्य 21118 12 // 36 सिन्दूरपति साधु त्वया 3177 स ययौ 2068 साधु नः सिन्धोत्र 12 / 38 सरसिजवना 19 / 32 साधोरपि मिष्मिये 1846 6.99 सरसि नृप 3133 17 / 47 सानन्तानाप्य 111129 सुकृतेवः सरसीः परि 240 पानन्दं 14197 सुगत एव 4180 सरोजकोशा 1690 मा निर्मले 14 / 48 सुताः कमाहूय 1142 सरोजिनी 3276 साऽपसृत्य 201119 2177 सरोरुह 1 // 24 पापीश्वरे 3329 सुधांशुरेव 10 // 41 सरोषाऽपि 20119 मा भङ्गिरस्याः 1112 सुधांशुवंशा 9215 सर्वतः कुशल साभिशाप 5 / 16 सुधाभुजो 22 / 67 सर्वत्र संवाद्य 6 / 54 सा भुवः 5 / 26 सुधारसो 9 / 113 सर्वथापि . 21499 सामोद 10 // 97 सुधासम्सु 81100 12 / 112 सा यता 211112 सुरपरिवृढः 19 / 43 सर्वांगीण 14 / 86 सायुज्य 111117 सुरापराध 9 / 153 सर्वाणि 1477 सारोऽथ धारेव 885 / सुरेषु नापश्य 14117 सलीलमालि 678 सालीकदृष्टे 818 सुरेषु पश्यन्नि 91529 स व्यतीत्य सावज्ञेवाथ 2019 सुरेषु माला 1420 सव्यापसव्य 3114 सावतभाव 11 / 28 सुरेषु सन्देश 9 / 19 ससम्भ्रमोत्पा 11126 सा व यं 17130 सुवर्णशैला / 3 / 22 सुदतीजन 5 / 74 सर्वस्वं 58
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________________ सेयमुच्च सेयं मृदुः 7/28 1616 श्लोकानुक्रमणिका सुषमाविषये 2227 स्थितैव कण्ठे 1079 स्मरात्परासो 136 सुहृदमग्नि 4114 स्थिरा त्वम 16 // 36 स्मरार्द्धचन्द्रेषु 1184 सूक्ष्मे घने 83 स्नातकं 171181 स्मराशुगीभूय 6 / 67 सूतविश्रमद 5.60 स्नातृणां 171167 स्मरेण निस्तक्ष्य 33109 सूनसायक 18.124 स्नानवारि 21 / 16 स्मरेन्धने 76 सूरं न सौर 1176 स्निग्धत्वमाया 10194 स्मरेषुवाधां 9 / 110 सृजन्तु पाणि 157 स्पर्श तमस्या 652 स्मरोपतप्तोऽपि 150 सृजामि कि 12 / 68 स्पर्शातिहर्षा 653 स्मारं ज्वरं 3 / 111 . सृणीपद 2058 स्पर्शन तत्र 11 // 39 स्मारं धनु 7/26 सृष्टातिविश्वा 7:107 स्फारे तादृशि 17 / 218 स्मितश्रिया 12 / 41 सेयं न धत्ते 845 स्फुटं सावर्णि 79 स्मितस्य सम्भा 9 / 191 सेयमालि 2061 स्फुटति हार 4109 स्मिताञ्चितां 1479 5 / 104 स्फुटत्यदः 9 / 125 स्मितेच्छुदन्त 10103 सेयं ममैतद् 745 स्फुटोत्पलाभ्यां 985 स्मितेन गौरी 101134 स्फुरति 1915 स्नग्वासना 650 सोमाय कुप्य 874 स्फुरद्धनु 19 सजा समालिङ्ग 14121 सोऽयमित्थ 1811 स्मरकृति 4 / 16 स्वकन्यामन्य 17198 सौधाद्रि . 2011 स्मर जित्वा 2076 स्वकान्तिकीर्ति 142 सौवर्गवगै 221121 स्मर नृशंस 4186 स्वकामसम्मोह 14160 स्तनद्वये 3 / 018 स्मरमुखं 473 स्वकेलिलेश 123 स्तनातटे 780 स्मरं प्रसू 1099 स्वजीवमप्यात 3185 स्तम्भस्तथा 14156 स्मररिपो 4187 स्वच ब्रह्म च 1773 स्तुती मघोन 691 स्मरशरा | स्वदिग्विनिमये 20184 स्त्रिया मया 9 / 37 स्मर शार्कर 20111 / स्वदृशोजनयन्ति 221 स्त्रीपंसव्यति 15188 स्मरशास्त्रमधी 2064 स्वधाकृतं 221119 स्त्रीपुंसौ 211136 स्मरशास्त्रविदा 20139 स्वनाम यन्नाम 9 / 123 स्थाने विधो 22689 स्मरसखौ 467 स्वं नैषधा 20136 स्थापत्यैनं 20137 स्मर समं 495 स्वप्नेन प्रापितायाः 85106 स्थापितामुपरि 20143 स्मरसि छद्म 2074 स्वप्तुमात्तशय त्तशय 18 / 137 स्थितं भवद्भिः 171125 स्मरसि प्रेयसि 2089 स्वप्रकाश 21151 स्थितस्य रात्रा 33108 | स्मरस्य कम्बुः 22 / 22 स्वप्राणेश्वर 2 / 104 स्थितिशालि 298 स्मरस्य कीत्येव 879 स्वभुषणांशु 162 स्थितैरियदि 1065 स्मरहुताशन 4 / 29 स्वमुकुल 19 / 36 49
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________________ श्लोकानुक्रमणिका 1617 स्वयंवरमहे 17/113 | स्वानुराग 21148 हस्तौ विस्तार 17 / 24 स्वयंवरं भीम 1015 स्वापराध 18129 हारसाधिम 1841 स्वयंवरस्या 101112 स्वारसातल 5641 हासस्विरेवा 2061 स्वयंवरोद्वाह 12 / 24 स्विद्यत्करा 201144 / हिंसागवीं 171173 स्वयंकथा 16354 स्विद्यत्प्रमोदा 60 | हितगिरं 41103 स्वयं तदङ्गे 1548 स्वेदः स्वदेहस्य 1419 हित्वा दैत्य 12 / 37 स्वरिपुतीचण 064 स्वेदबिन्दुकित 18116 | हित्वैकमस्या 8111 181123 स्वरुचा स्वेदमाजि 2 / 99 हित्वैव वस्मक 6 / 24 स्वरेण वीणे स्वेदवारि 18118 15.44 हुताशकीनाश 6.75 22 / 91 स्वेदस्य धारा स्वर्गापगा 3 / 10 हृतसारमिवे 2 / 25 स्वेदप्लव 211123 स्वगं सतां 6198 हृत्तस्य यां मन्त्र 3107 स्वर्णकेतक स्वेन पूर्यंत 21:59 2142 हृदय एव 4 / 108 स्वर्णदीस्वर्ण स्वेन भाव 18111 20169 हृदयदत्त. 4 / 21 स्वर्णेवितीण: स्वेप्सितोद्गमित 1887 हृदयमाश्र 4/75 स्वर्भानुना 22 // 136 हृदामिनन्य 9 / 17 स्वर्भानुप्रति 22 / 148 इंसं तनौ हृदि दमस्वसु 4|13 34 स्वलोकमस्मा 327 हंसोऽप्यसौ 447 हृदि लुठन्ति स्ववर्णना 22 / 104 हतः कयाचित् 6 // 29 हृदि विदर्भभुवं 4119 19 स्ववालभार 125 हताश्चेदिवि 17172 हृदि विदर्भभुवो 125 स्वस्ति वास्तो 171112 हरित्पतीनां 8.55 हृद्यगन्धवह 2181 स्वस्यामरै 14196 हरिद्विपद्वीपि 166 हृष्टवान्स 17.198 स्वागमार्थ 181117 हीणमेव 17 / 49 हरिन्मणे 16166 स्वाङ्गमर्पयितु 1876 हरिं परित्यज्य 9 / 43 हीणा च 20122 स्वाच्छन्। ___88 हरेयंकामि 170 हीभरात् 1835 स्वात्मनः 21127 / हयंतीभवतः 221137 हीसङ्कुचत् 11123 स्वास्मापि 18 / 32 8 // 21 हसत्सु भैमी 14 // 34 हीसरिलिज स्वादूदके 11127 / हस्तलेख 21166 / होस्तवेयमुचि 18159 इति श्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका सम्पूर्णा 898 3 / 10
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________________ अथ क्षेपकश्लोकानामकाराद्यनुक्रमणिका श्लोकाः एकचित्त कुरुसैन्यं केवलं न क्रमेण क्ररं गत्वान्तरा जलजभिदुरी तत्र मार तावकापर तावके हृदि देहिनेव द्विजपति पृष्ठाताः / श्लोकाः पृष्ठाङ्काः श्लोकाः 1434 धूमवस्कल 1434 यत्र मौक्तिक 1042 न स्वेदिन (टि.) 571 या पाशिनैवा 1168 | नास्माकमस्मा 458 राज्ञि भानु 993 पीततावक 1180 वामनादणु 1113 पुष्पाणि बाणा: (टि.)३९६ विहस्य हस्ते 1289 बाहुचक्र 1182 सन्तमद्वय 1434 भानुसूनु 1435 सीत्कृतान्य 1430 मण्डलं निषधेन्द्र 1120 सार तनख 1434 मां त्रिविक्रम 1435 स्वामिना च 1434 | मृत्युभीति 1423 हृत्पद्मसन 199 | यत्तव स्तव 1434 हेमनामक ... इति क्षेपकश्लोकानामकाराथनुक्रमणिका समाप्ता पृष्ठाङ्काः 1393 834. 1389 1435 817 1434 1157 1349 830 1398
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________________ 45-00 हमारे कतिपय नवीन प्रकाशन हिन्दी अलङ्कारसर्वस्व-('विमर्शिनी' 'सहृदयलीला' टीकाद्वय सहित ) व्या-डॉ० रेवाप्रसाद द्विवेदी 25-00 हिन्दी अलङ्कारसूत्राणि-('काव्यालंकारकामधेनु' टीका सहित) व्या०-डॉ० बेचन झा 10-00 हिन्दी चित्रमीमांसा-( 'सुधा' टीका सहित ) व्या०-प्राचार्य 6 जगदीशचन्द्र मिश्र हिन्दी सांख्यतत्त्वकौमुदी-व्या०-डॉ० गजाननशास्त्री शब्दस्ताममहानिधिः-तारानाथ भट्टाचार्य विरचित त्रिपुरारहस्यम्-ज्ञानखण्डम् / 'ज्ञानप्रभा' हिन्दी व्याख्या सहित 13-00 कामकुञ्जलता-पण्डितराज दुण्डिराज शास्त्री सम्पादित 25-00 चन्द्रकला नाटिका-विश्वनाथकविराजप्रणीत / 'प्रभावती' हिन्दीव्याख्या 8-00 हिन्दी वक्रोक्तिजीवित / व्याख्याकार-श्री राधेश्याम मिश्र 15-00 हिन्दी वैशेषिकदर्शन-(प्रशस्तपादभाष्य सहित ) 18-00 व्याकरणमहाभाष्यम्-सप्रदीप हिन्दीव्याख्या 1-5 आह्निक 10-00 शृङ्गाररस का शास्त्रीय विवेचन-डॉ० इन्द्रपाल सिंह भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिनिधिसिद्धान्त-श्री राजवंशसहाय 16-00 औचित्य सम्प्रदाय का हिन्दी-काव्य शास्त्र पर प्रभाव- डॉ० चन्द्रहंस पाठक 25-00 मूल संस्कृत उद्धरण-प्रोजे मुहर / (हिन्दी रूपान्तर)१-५ भाग 125-00 लौकिक संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-डॉ. गौरीनाथ शास्त्री। अनुवादक-डॉ० रामकुमार राय 10-00 विष्णुपुराण का भारत-डॉ० सर्वामन्द पाठक 20-00 शुकनोतिः-विद्योतिनी हिन्दी व्याख्या भू० पण्डितराज राजेश्वर शास्त्री 12-50 स्वतन्त्र कलाशास्त्र-(प्र० भाग भारतीय नॉहन्दाकिस्ता -5 भो५-०० हिन्दी सहृदयानन्द-कृष्णाननृत्य का संक्षिप्त इतिहास-डॉ. गौरीन-०० धर्मसिन्धु:-'धर्मदीपिका' हिन्-डॉ. रामकुमार राय याज्ञवल्क्यस्मृतिः- 'मिताक्षत-डॉ पण्डित राज राजेश्वर शास्त्रा हिन्दी नन्दाकिस्ता-५ भो५-० प्राप्तिस्थानम-चौखम्बा संस्था लिन इतिहास-डॉ. गौरीन .00