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________________ 1536 नैषधमहाकाव्यम्। समुद्र के उल्लसित होनेसे ) समुद्रको नचानेवाली (नृत्योपदेशकारिणी ) हो तथा (कौमुदीको देखकर चकोरको आह्लादित करनेसे ) चकोरके नेत्रद्वयकी सखी हो ( अथवा-चन्द्रमाकी पुत्री यह चाँदनी समुद्रको नृत्योपदेशकारिणी हो और चकोरका पेय द्रव्य हो तथा (इस संसारके नेत्रों के आह्लादक होनेसे ) इस संसार में नेत्रोंकी सखी हो ), तथापि कुमुदकी मी कोइ ( अनिर्वचनीया- लोकोत्तर ) है, क्योंकि कौमुदी ( कुमुद-सम्बन्धिनी ) यह नाम ही ( कुमुद के साथ लोकोत्तर अनिर्वचीय सम्बन्धको ) कह रहा है। [ यद्यपि चाँदनी समुद्र, चकोर तथा इस संसारको आनन्द देनेवाली है; तथापि कुमुदको अतिशय आनन्द देने. वाली है ] // 69 // ज्योत्स्नापयःक्ष्मातटवास्तुवस्तुच्छायाच्छलच्छिद्रधरा धरायाम् / शुभ्रांशुशुभ्रांशकराः कलङ्कनीलप्रभामिविभा विभान्ति / / 70 / / ज्योत्स्नेति / शुभ्रांशोश्चन्द्रस्य शुभ्रांशा धवलभागाश्च ते कराश्च किरणास्ते धराया भूम्यां कलङ्कस्य नीलीमिः प्रभाभिर्मिश्रा विभा कान्तियेषां ते कलङ्कनीलकान्तिच्छु. रिता इव विभान्ति / यतः कीदृशाः ? ज्योत्स्नैव पयो जलं दुग्धं वा यस्मिस्तादृशं चमातटं दुग्धधषलचन्द्रिकाधवलीकृतं भूतलं तदेव वास्तु वसतिगृहं येषां तानि वस्तूनि वृक्षादिपदार्थास्तेषां छाया छलं येषां तादृशानि छिद्राणि प्रकाशेन रिक्तवा. द्विलानि पदार्थप्रतिच्छायारूपाणि तानि धरन्तीति तादृशाः। चन्द्रिकाधवलिताः पदार्थाश्चन्द्ररश्मय एव, वृक्षादिप्रतिच्छायाश्चन्द्रकलङ्कनीलरश्मय एवेति धारायामपि निपतिताश्चन्द्रकिरणा नीलधवला एव शोभन्त इत्यर्थः। अन्यस्य करा हस्ता कलङ्कः वनीलस्य नीलमणेः प्रभया मिश्रकान्तयो नीलमणियुक्ताङ्गुलीयकप्रभामिश्रा विभान्ति / 'शुभ्रांशुशुभ्रांशु-' इति पाठेऽपि 'अंशुलेशे रवे रश्मौ' इत्यभिधानात् 'अंशु'शब्दस्य लेशवाचित्वात्स एवार्थः। ज्योत्स्नैव पयो जलं तस्य क्षमा भूमिस्तस्यास्तटं तदेव वास्तु निवासस्थानं येषां तेषां वस्तूनां छायाया व्याजेन छिद्राणि धरन्तीति वा // 70 // चाँदनीरूप जल ( या-दूध ) वाला भूतलपर निवास करनेवाले ( वृक्षादि ) पदार्थोकी छाया ( परछाही ) के छलवाले छिदोंको धारण करती हुई, चन्द्रमाके श्वेववर्णाशवाली किरणे ( पक्षा०-हाथ ) कलङ्क ( रूप मृग ) की नीली कान्तिसे मिश्रितके समान पृथ्वीपर शोभ रही है / [ चन्द्रमाकी श्वेतांश किरणें चाँदनीसे श्वेतवर्ण वृक्षादि पदार्थ होकर सथा कलङ्क-सम्बन्धी कृष्णांश किरणें भूतलस्थ वृक्षादिकी छायारूप होकर शोमती हुई-सी मालूम पड़ती है / लोकमें भी किसी व्यक्तिका स्वच्छ हाथ कङ्कणादि भूषणोंकी कान्तिसे मिश्रित होनेसे श्वेत-कृष्णवर्ण होकर शोभते हैं ] // 70 // कियान्यथाऽनेन वियद्विभागस्तमोनिरासाद्विशदीकृतोऽयम् | अद्भिस्तथा लावणसैन्धवीभिरुल्लासिताभिः शितिरप्यकारि / / 71 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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