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________________ षोडशः सर्गः। 671 श्रिता प्राप्ता, अलिके ललाटे च, 'ललाटमलिक गोधिः' इत्यमरः / अलकायिता अलकवत् आचरिता, चूर्णकुन्तलत्वं गतेत्यर्थः / उपमानादाचारक्यन्तात् कर्मणि क्तः। अत्रापि एकस्यैव धूमस्य क्रमात् अनेकाधारसन्बन्धात् पर्यायः, तदुपजीविनामुत्तरेषां यथायोगमुपमानिदर्शनाभ्यां पूर्ववत् सङ्करः // 41 // ____उस ( दमयन्ती ) के द्वारा ( अञ्जलिसे ) गृहीत ( लाजा ) आहुतिके धूम-समूहने कपोल में कस्तूरीकी शोभाको प्राप्त किया, ( उससे ऊपर जाकर ) नेत्रद्वयमें कज्जलताको प्राप्त किया, ( उससे भी ऊपर जाकर ) दोनों कानोंमें तमाल ( पत्र ) की शोभाको प्राप्त किया और ( उससे भी ऊपर जाकर ) केशो में केशकी शोभाको प्राप्त किया / [ कपोलमें कस्तूरी, नेत्रों में अञ्जन, कानोमें तमालपत्र और केशोंमें केशकी शोमाका होना उचित है / क्रमप्राप्त विधिके अनुसार दमयन्तीने अअलिसे लाजाहुतिके धूमको ग्रहण किया ] // 41 // अपह्नतः स्वेदभरः करे तयोस्त्रपाजुषोर्दानजलैमिलन्मुहुः। दृशारापे प्रोद्गतमश्रु सात्त्विक धनैः समाधीयत धूमलङ्घनैः / / 42 // अथानयोस्त्रिभिः सात्त्विकोदयमाह-अपहृत इत्यादिभिः / त्रपाजुषोः लज्जाभाजोः, तयोः वधूवरयोः, करे पाणी, स्वेदभरः सत्त्विकभावोदयसूचकधर्मजलातिशयः, मुहुः पुनः पुनः, दानजलेः तत्कालोचितदानार्थमुदकैः, मिलन मिश्रीभवन्, अपहृतः आच्छादितः, आत्मानं गोपायितवान् इत्यर्थः / दृशोः अदणोः अपि, प्रोद्गतम् आविर्भूतं, सात्त्विकं सत्त्वसमुद्भूतम्, अश्रु नेत्रोदकं, धनैः सान्द्रेः, पुनीभूतैरित्यर्थः / धूमलङ्घनैः धूमपीडनै, समाधीयत समाहितः, परिहृतः इति यावत् / अत्र स्वेदाश्रुणोः सहजयोरागन्तुकदानोदकधूमाभिभवाभ्यां तिरोधानान्मीलनभेदः, 'मीलनं वस्तुना यत्र वस्त्वन्तरनिगूहनम्' इति लक्षणात् // 42 // उन दोनों ( नल तथा दमयन्ती ) के लज्जायुक्त हाथमें ( परस्पर स्पर्शजन्य सात्त्विकभावसे ) बार बार उत्पन्न अधिक स्वेद ( पसीने ) को ( ब्राह्मणों के द्वारा दिये गये ) दानार्थ जलने छिपा दिया ( अथवा-......हाथमें उत्पन्न अधिक स्वेदको बार-बार ( ब्राह्मणों के द्वारा दिये गये ) दानार्थ जलने छिपा दिया) और उन दोनोंके सलज्ज नेत्रों में उत्पन्न सात्त्विक आँसूको भी अधिक धूमाक्रमणने छिपा दिया। [वधवरके परस्पर हाथका स्पर्श होनेपर लज्जाके कारण उनके हाथोंमें सात्त्विक भावसे उत्पन्न पसीना दानके लिए ब्राह्मणोंसे दिये गये जलसे लोगोंको लक्षित नहीं हुआ अर्थात् स्वेदयुक्त हाथमें बार-बार दान जल लेनेसे लोगोंने यह समझा यह दान-जल ही है / तथा नेत्रों में भी सात्त्विक भावसे आँसू आया, किन्तु उसे भी धूम-समूहते ही यह नेत्रों में आँसू आरहा है ऐसा लोगोंने समझा। इस प्रकार सात्त्विकभावसे उन दोनों के हाथों तथा नेत्रों में उत्पन्न स्वेद तथा आँसू क्रमशः दानार्थ जल तथा धूम-समूहसे छिप गये ] // 42 // बहूनि भोमस्य वसूनि दक्षिणां प्रयच्छतः सत्त्वमवेक्ष्य तत्क्षणम् / 61 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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