________________ त्रयोदशः सर्गः। 797 ( सुप्रसिद्ध ) सरस्वती नामकी नदी इसकी सेवा में लगी ही है, अथवा कौन-से जलाशय ( छोटे पलवल से लेकर बड़े क्षीरसमुद्र आदि तक, अथवा-कमलाकर ) उस सुप्रसिद्ध इस (वरुण) की नहीं सेवा करते अर्थात् क्षीरसागर पर्यन्त जलाशयमात्र इसकी सेवा करते हैं तब शोणभद्र या सरस्वती नदी इसकी सेवा करती है इसमें क्या आश्चर्य है ? ( अथवाजलके इच्छुक कौन लोग उस प्रसिद्ध इस वरुणकी सेवा नहीं करते अर्थात् वर्षादि-जलाभिलाषी प्राणिमात्र इस प्रसिद्ध जलाधीश्वर वरुणकी सेवा ( स्तुति ) करते हैं ) [ शोण, सरस्वती तथा अन्य जलाशयोंसे उन-उनके अधेष्ठात्री देवताओंका ग्रहण होनेसे उनका इस वरुणकी सेवा करना युक्तिसङ्गत होता है ] / _नलपक्षमें-हे सुभगे ! (तुम ) इस जगत्पति ( नल ) को वरण करो, लालिमा गुण इसका पदप्रगयी ( चरणसेवक ) है अर्थात् इसके चरण लाल हैं यह तुम देखो / अथच-वह सुप्रसिद्धा सरस्वती देवी इसकी सेवा में तत्पर ही है अर्थात् इसके मनमें स्थित ही है। धन ( पानेकी ) आशासे अथवा-धनिक कौन लोग इसकी सेवा ( या स्तुति ) नहीं करते ? अर्थात् सभी करते हैं। [ यहाँ पर सरस्वती देवीने नल के चरणको लाल बतलाकर उनका सौन्दर्य, सरस्वतीसेवन बतलाकर उनकी कलाकौशल-दक्षता तथा याचककृत स्तुति बतलाकर उनकी उदारता का तथा सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनोंका अधिष्ठान होना सङ्केत किया है] // 24 // शङ्कालताततिमनेकनलावलम्बां वाणी न वद्ध यतु तावदभेदिकेयम् / / भोमोद्भवां प्रति नले च जलेश्वरे च तुल्यं तथाऽपि यदवद्धयदत्र चित्रम् / / शङ्केति / जलेश्वरे वरुणे च, नले च तुल्यं यथा तथा प्रयुक्तेति शेषः, अत एव भीमोद्भवां भैमी प्रति, अभेदिका अविशेषा, अन्यतरार्थापरिच्छेदिका इति यावत् , इयं वाणी सरस्वतीवाक, अनेके पञ्च, नलाः नैषधाः, पोटगलाख्याः दुश्छेद्यास्तृणविशेषाश्च, अवलम्बो विषयः आधारश्च यस्याः तादृशीं, 'नलः पोटगले राज्ञि' इति विश्वः, शङ्का एव लताः तासांतति परम्परां, न वर्द्धयतुतावत् न छिनत्तएव, समानधर्मदर्शनात् संशयो भवत्येव अतः समानार्थिका वाणी एषु कः सत्यनल इति भैम्याः संशयं कथं छिनत्तु इत्यत्र न चित्रमिति भावः, 'वृधु च्छेदनपूरणयो रिति चौरादिकाल्लोट् , किन्तु तथाऽपि अवर्द्धयत् अच्छिनदिति यत् तदत्र चित्रं, छेदनार्थत्वे या न छेदिका सैव अच्छिनत् इति विरोधात् चित्रं, वर्द्धयामास इति वृद्धयर्थत्वे त्वविरोध इति विरोधाभासोऽलंकारः। 'वृधु वर्द्धने' इति भौवादिकात् णिच, नलाख्यतृणमिश्रलताततिमिवानेकनलावलम्बिनीम् अयं नलो वेति सन्देहततिम् इयं वाणी नेवाच्छिनत् प्रत्युत वृद्धि प्रापयदेवेत्यहो कष्टम् इत्यर्थः // 25 // भेदरहित अर्थात् नल तथा वरुणमें अर्थवाली यह (सरस्वतीकी) वाणी दमयन्तीके अनेक नलाश्रित शङ्कारूपी लतासमूहको नहीं बढ़ावे ? अर्थात् अवश्य बढ़ावे, ( इसमें आश्चर्य नहीं है ) तथापि नल तथा वरुणमें समानरूपमें ही जो शङ्कारूपी लता-समूहको बढ़ाया