________________ 766 नैषधमहाकाव्यम् / उन बालुओं ( रेतों ) की अधिकताको किस प्रकार कहे अर्थात् बालुओं के अत्यधिक होनेसे हम उसका परिमाण कैसे बतलावें, जो ( बालू ) कठिनता अथवा-सैकड़ों केकड़ाओं ( जलजन्तु-विशेष ) से युक्त है। नलपक्षमें-इस ( नल ) की कौन सेना रथसहित वाहनों (घोड़े हाथी ) आदि से ( अथवा-वेगयुक्त रथोंसे ) शत्रुओं के प्रति गमन (अथवा-शत्रुओंका नाश) नहीं करती है ? तथा कौन सेना इसके नाम ( प्रसिद्धि ) को नहीं बढ़ाती ? ( अथवा-कौन सेना शत्रुओं पर अभियान ( चढ़ाई = गमन ) पूर्वक ( या शत्रुओंका नाश करके ) इसके नामको नहीं नहीं बढाती ? ) / हे विलासवति ! सैकड़ों श्वेत घोड़ोंपर चढ़ी हुई उस सेनाकी अपेक्षा उन बालुओं ( रेतों ) को हम अधिक कैसे कहें अर्थात् बालुओं की गणना कथञ्चित् सम्भव हो सकती है, परन्तु इसकी सेनाकी नहीं; अतः उस सेनासे बालुओंको अधिक कहना उचित नहीं ( अथवा-सैंकड़ों श्वेत घोड़ोंपर चढ़े हुए खड्ग-प्रहार करनेवालोंकी अधिकताको हम कैसे कहें ? ) अर्थात् श्वेताश्वशताधिरूढ खड्गप्रहारकर्ताओंकी गणना अशक्य होनेसे उनका हम वर्णन नहीं कर सकतीं / ( अथवा-सैकड़ों श्वेत घोड़ों पर चढ़े हुए तथा बहुतों के प्रति गमन करनेवाले ( या बहुतों की रक्षा करनेवाले ) खड्ग-प्रहारकर्ताओंके भावको हम कैसे को ? अर्थात उनका वर्णन करना अशक्य होनेसे हम उसे नहीं कह सकती ) // 23 // शोणं पदप्रणयिनं गुणमस्य पश्य किश्चास्य सेवनपरैव सरस्वती सा। एनं भजस्व सुभगं भुवनाधिनाथं के वा भजन्ति तमिमं कमलाशया न? || शोणमिति / अस्य वरुणस्य, पदप्रणयिनं पादोपसर्पिणं, गुणं गुणिनं, रक्तवर्णजल. विशिष्टमित्यर्थः, शोणं शोणाख्यं नदं, पश्य, किञ्च सा सरस्वती नदी, अपीति शेषः, अस्य वरुणस्य, सेवनपरैव, सकलनदीनदनायकोऽयम् इत्यर्थः, ततः कारणात् भुवनाधिनाथं जलाधिपतिं. 'सलिलं कमलं जलम् / पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम् // ' इत्यमरः, सुभगम् एनं वरुणं, भजस्व समाश्रय, तमिमं सुभगं वरुणं, के वा कमलाशया जलाधाराः, न भजन्ति ? अपि तु सर्वेऽपि भजन्तीत्यर्थ; अथवा-के वा प्राणिनः, कमलाशया जलाकाङ्क्षया, न भजन्ति ? अन्यत्र तु-अस्य नलस्य, पदः प्रणयिनं पादतलगतं, शोणं रक्तं, गुणं पश्य, भाग्यलक्षणत्वादिति भाव। किञ्च सा सरस्वती वाम्देवता, 'सरस्वती सरि दे गोवाग्देवतयोगिरि' इति विश्वः, अस्यैव नलस्यैव, सेवनपरा, लक्ष्मीसरस्वत्योरयमेकाधिकरणमिति भावः ततो भुवनाधिनाथं लोकनाथं, नराधिपमित्यर्थः, 'भुवनं विष्टपे लोके सलिले पथि यद्यपि' इति विश्वः, सुभगं सुन्दरम् , एनं नलं, भजस्व समाश्रय, के वा जनास्तमिमं नलं, कमलाशया लक्ष्म्याकाङ्क्षया, धनाकाङ्क्षयेत्यर्थः, 'कमला श्रीलं पद्मः कमलं कमला मृगः' इति विश्वः, न भजन्ति ? // 24 // वरुणपक्षमें-हे सुभगे ( दमयन्ति )! जलाधीश इसको वरण करो, गुण (अप्रधान अर्थात् सेवक ) इस ( वरुण ) के चरणसेवक 'शोण' नामक महानदको देखो, अथवा वह