SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 668
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विंशः सर्गः। 1365 अम्बुनः शम्बरत्वेन मायैवाविरभूदियम् / यत् पटावृतमप्यङ्गमनयोः कथयत्यदः॥ 129 / / अम्बुन इति / अदः नलनिक्षिप्तम् इदं जलम्, कत्त / पटावृतमपि वस्त्राच्छादितमपि अनयोः सख्योः, अङ्गं स्तनादि निगूढावयवम्, यत् कथयति वदति, सुस्पष्टम् आविष्करोतीत्यर्थः। द्वयं पटावृतस्यापि अङ्गस्य आविष्करणरूपा एषा अवस्था, अम्बुनः जलंस्य, शम्बरत्वेन शम्बरापरनामत्वेन शम्बरासुरत्वेन च, 'दैत्ये ना शम्ब. रोऽम्बुनि' इति वैजयन्ती। माया एव शाम्बरी एव, छलना एवेत्यर्थः। 'स्यान्माया शाम्बरी' इत्यमरः / आविरभूत् प्रकटिता आसीत् , अन्यथा कथं अनग्नयोरपि स्तनादिदृश्यते इति भावः // 129 // यह ( जल ) वस्त्राच्छादित भी इन दोनों के अङ्ग ( स्तन, जघनादि अवयव ) को कहता ( प्रकट दिखलाता) है, जलको शम्बर ('शम्बर' शब्दका पर्याय पक्षा०-'शम्बर' नामक मायावी दैत्य ) होनेसे 'माया' ( शम्बर दैत्यका छल ) ही प्रकट हो गया है। [ शम्बरको महामायावी होने से 'शाम्बरी' शब्द 'माया' अर्थमें प्रयुक्त होता है / सो यहां भी शाम्बरी ( जल-सम्बन्धी, पक्षा०-शम्बर दैत्य-सम्बन्धी) माया ही प्रकट हो गयी है, इसीसे बिना जलके भी इन दोनों के वस्त्र भीग गये हैं ] // 129 / / वाससो वाऽम्बरत्वेन दृश्यतेयमुपागमत् / चारुहारमणिश्रेणि-तारवीक्षणलक्षणा / / 130 // वासस इति / वा अथवा, चायः मनोज्ञाः, हारमणिश्रेण्यः एव मौक्तिकसरस्थरत्नराजय एव, ताराः नक्षत्राणि, तासां वीक्षणं दर्शनमेव, लक्षणं लचम यस्याः सा तादृशी, इयम् एषा, दृश्यता स्तनादिदर्शनयोग्यता. आकाशरूपेण दर्शनविषयता च, वाससः वस्त्रस्य, अम्बरत्वेन वस्त्रत्वेन आकाशस्वेन च / 'अम्बरं व्योम्नि वाससि' इत्यमरः / उपागमत् प्राप्नोत् , जाता इत्यर्थः // 130 // ___ अथवा-हारके सुन्दर मणिसमूहरूप ताराओंका दिखलायी देता है चिह्न जिसका अर्थात् जिसमें हारके सुन्दर मणिसमूहरूप ताराएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं ऐसी दृश्यता ( दृष्टिगोचरता ) कपड़ेके 'अम्बर' शब्दवाच्य होनेसे हो गयी है / [ कपड़ेको 'अम्बर' (आकाश ) भी कहते हैं और 'अम्बर' (आकाश) में ताराएँ दृष्टिगोचर होती ही हैं, तथा वह ( अम्बर'आकाश ) शून्य पदार्थ है, इसी कारण इन सखियों के कपड़ेके भीतर के हारके सुन्दर मणिसमूहरूप सुन्दर ताराएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं / भीगे हुए सूक्ष्म कपड़ेके भीतर हार के मणियोंका दिखलायी पड़ना उचित ही है ] // 130 / / ते निरीक्ष्य निजावस्थां ह्रीणे निययतुस्ततः / तयोर्वीक्षारसात् सख्यः सर्वा निश्चक्रमुः क्रमात् // 131 / / ते इति / ते सख्यौ, निजावस्थां जलसेकात् गोयाङ्गप्रकाशरूपाम् भात्मनो
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy