________________ 1364 नैषधमहाकाव्यम् / अधिक आश्चर्य पूर्ण कर दिया [ वरुणके वरदानके प्रमावसे नलेच्छामात्रसे उत्पन्न पानीसे वे मींग कर आश्चर्यित हो गयीं ] // 126 / / (युग्मम् ) तेनापि नापसर्पन्त्यौ दमयन्तीमयं ततः / हर्षेणादर्शयत् पश्य नन्विमे तन्वि ! मे पुरः // 127 / / क्लिन्नीकृत्याम्भसा वस्त्रं जैनप्रव्रजितीकृते / सख्यौ सक्षौमभावेऽपि निर्विघ्नस्तनदर्शने / / 128 / / तेनेति / ततः जलसेचनानन्तरम् , अयं नलः, ननु भोः ! तन्धि ! कृशाङ्गि ? प्रिये ! अम्भसा जलेन, वस्त्रं वसनम् , क्लिन्नीकृत्य आकृत्य / अभूततद्भावे चिः / सक्षौमभावेऽपि क्षोमवस्त्राच्छादने सत्यपि, निर्विघ्नम् अप्रतिबाधनम् , स्तनदर्शनं कुचावलोकनं ययोः ते तादृश्यो, शुभ्रसूक्ष्माद्रवस्त्रेण आच्छादितेऽपि अङ्गे सर्वाङ्गस्य दर्शनविषयीभूतत्वादिति भावः / अत एव जनप्रवजितीकृते बौद्धपरिव्राजिकाप्राये कृते, तासामपि दिगम्बरप्रायत्वादिति भावः / तेन तथाविधकरणेनापि, न अपसर्पन्स्यो न अपगच्छन्त्यो, इमे एते, सख्यौ वयस्ये, मे मम, पुरः अग्रतः, स्थिते इति शेषः / पश्य अवलोकय, इति हर्षण स्तनादिदर्शनजनितानन्देन, दमयन्तीं भैमीम् , दमयन्त्यै इत्यर्थः / अदर्शयत् अङ्गुलिनिर्देशेन दर्शयामास / अत्र 'अभिवादिदृशो. रात्मने पदे उपसङ्ख्यानम्' इति पाक्षिककर्मत्वस्य परस्मपदे अप्राप्ते 'दृशेश्व' इत्यनेन दमयन्तीमित्यणिकतः नित्यकर्मत्वम् / ईशघटनया लजितयोः तयोः गृहात बहिः र्गमनसम्भावनया दमयन्त्युपभोगलिप्सा व्यज्यते // 127-128 // इस ( उन दोनों सखियोंकी नलप्रक्षिप्त भीगकर आश्चर्ययुक्त होने ) के बाद नलने, उससे भी नहीं हटती हुई उन दोनों सखियोंको 'हे तन्वि ( दमयन्ति ) ! पानीसे कपड़ेको भिंगाकर जैन-प्रव्राजिका बनायी गयी महोन रेशमी वस्त्र पहनने पर भी ( उनके भींगनेसे ) अनायास दिखलायी देते हुए स्तनोंवाली इन दोनों ( कला तथा उसकी सखी) को देखो' यह कहकर हर्षसे दमयन्ती के लिए दिखलाया। [ पतले वस्त्रको भीग जानेसे उनके स्तनादि दृष्टिगोचर हो रहे थे तथा वे नग्नके समान प्रतीत होनेसे दिगम्बर जैन प्रव्राजिका प्रतीत हो रही थीं। यहां पर 'जीवातु' कार ने 'जैन' शब्दका 'बौद्ध' अर्थ किया है, किन्तु बौद्धों के मूल आराध्य देवता 'बुद्ध' भगवान् हैं, न कि 'जिन' भगवान् , अतः 'जैन' शब्दका अर्थ 'जिन' देवताका माननेवाला 'जैन' ही जानना चाहिये / किन्तु जैन सम्प्रदायमें पुरुषोंको ही दिगम्बर ( नग्न ) हानेका विधान है, न कि प्रव्राजिका ( 'अजिंका' या 'क्षुल्लिका' का व्रत. ग्रहण करनेवाली स्त्रियों को भी ) बौद्ध सम्प्रदायमें भी नग्न रहनेका शास्त्रीय विधान नहीं है, अतः 'श्रीहर्ष' महाकविका यह कथन किस आधार पर है ? विद्वानोंको इसका विचार करना चाहिये ] // 127-128 // :