________________ षोडशः सर्गः। 647 का अधिक प्रकाशित होना उचित भी है / वर्तमान कालमें भी दरवाजे लगाने के लिए जाती हुई बारातको मसाल, गैस, डायनुमासे जलनेवाले बिजलीके बल्ब आदिके प्रकाशसे प्रकाशित करना वरपक्षका गौरव माना जाता है। नलकी बारातमें राजाओंको सेनाके आगे-आगे चलनेसे नलका चक्रवर्ती होना सूचित होता है / दीपकोंसे आलोकपूर्ण नलकी बारात दरवाजे लगने के लिए चली ] // 4 // विदर्भराजः क्षितिपाननुक्षणं शुभक्षणासन्नतरत्वसत्वरः / दिदेश दूतान् पथि यान् यथोत्तरं चमूममुष्योपचिकाय तचयः / / 5 / / विदर्भति / विदर्भराजः भीमः, शुभक्षणस्य विवाहमुहूर्तस्य, आसन्नतरत्वेन समीपवर्तित्वेन, सस्वरः सन् अनुक्षणं प्रतिक्षणं, मुहुर्मुहुरित्यर्थः / यान् नितिपान् एव दूतान् , उत्तरोत्तरं यथा यथोत्तरं परं परं यथा स्यात् / याथायें वीप्सायामव्ययीभावः / दिदेश आज्ञापयामास, नलं सत्वरमानयितुं प्रेषितवान् इत्यर्थः / तञ्चयः तेषां प्रेषितानां राज्ञां, चयः समूहः, पथि मार्गे, अमुष्य नलस्य,चमं सैन्यम् , उपचि. काय वर्द्धयामास / चिञ् धातोः लिटि 'विभाषा चेः' इति कुत्वम् / दूतत्वेन राज्ञां बहूनां प्रेषणया लग्नातिक्रमभीरोः राज्ञस्वरातिशयोक्तिः // 5 // शुभ समय (विवाहके शुभ लग्न ) के अत्यन्त समीप आनेसे शीघ्रता करनेवाले विदर्भराज ( भोज ) ने जिन राजाओंको दूत बनाकर ( नलको जल्दी लिवा लाने के लिए.) प्रत्येक क्षणमें ( एकके बाद दूसरेको, उसके बाद तीसरेको-इस प्रकार बहुतोंको ऐसा ) भेजा, जिससे मार्गमें जाते हुए उन ( भोजके द्वारा नल को शीघ्र लिवा लाने के लिए दूत रूपमें भेजे गये राजाओं ) के समूहने इस ( नल ) की सेनाको बढ़ा दिया। [ बारातको शीघ्र दरवाजे लगाने के लिए कन्यापक्षका बार, बार दूत ( नाई आदि ) या अत्यन्त शीघ्रता या वरपक्षका समा. दर करने के लिए स्वजनोंको भेजकर वरको जल्दी आनेकी प्रार्थना करने पर भी वरपक्षका अपनी शानसे धीरे-धीरे आगे बढना वर्तमान में भी देखा जाता है। प्रकृतमें राजा भोजके राजाओंको दूत बनाकर बार-बार भेजनेसे वरपक्षका अत्यन्त आदर तथा शीघ्रता करना सूचित होता है ] // 5 // हारिद्विपद्वीपिभिरंशुकैर्नभोनभस्वदाध्मापनपीनितैरभूत् / तरस्वदश्वध्वजिनीध्वजैर्वन विचित्रचीनांशुकवल्लिवेल्लितम् / / 6 // हरीति / नभः अन्तरिक्षं, नभस्वता वायुना, आध्मापनेन पूरणेन, पीनितैः स्थू. लितैः, वायुवेगेन स्फीततां गतैरित्यर्थः / अत एव सजीवसिंहादिवत् प्रतीयमानेरिति भावः / 'पीनपीनी न स्थूलपीवरे' इत्यमरः / अंशुकैः वस्त्रनिर्मितैः, हरिद्विपद्वीपिभिः सिंहगजव्याघ्रः, तदाकारैः ध्वजैः इत्यर्थः / 'सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्यः हर्यक्षः केशरी हरिः' इति, 'मतङ्गजो गजो नागो द्विरदोऽनेकपो द्विपः' इति, 'शार्दूलद्वीपिनी व्याघ्र' 1. '-रांशुकै-' इति प्रकाशाभिमतं पाठान्तरम् /