SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 646 नैषधमहाकाव्यम् / वेशी नेपथ्यम्' इत्यमरः / ते च आभरणानि च कटकमुकुटादोनि च येषां तैः, पुरःसरैः सुनासीरैः, अग्रगामिभिः वरपक्षीयैः लोकैरिति यावत् , सह आजिहाने गच्छति सति, स प्रसिद्धः, वृनशात्रवः इन्द्रः, रूढिमात्रात् अश्वकर्णादिवत समुदायशक्त्या अर्थप्रतीतिमात्रात् ,सु शोभनाः, 'सु पूजायाञ्च सुरे' इति स्वामी / नासीरा अग्रेसराः यस्य सः सुनासीरः इन्द्रः, इति पदस्य शब्दस्य, अभिधेयतां वाच्यत्वं, यदि सम्भावनायां, दधे दधार, न तु सु शोभनाः, नासीराः अग्रेसरा यस्येति योगलभ्यार्थप्रतीतितः, यौगिकतया सुनाशीरशब्दप्रतिपाद्यत्वस्य नले एवं वर्तमानत्वात् न तु इन्द्रे / नलस्य नासीरदर्शनादयमेव सुनासीरः न तु इन्द्र इति प्रतीयते, नलपुरःसराणाम् इन्द्रपुरःसरेभ्यो देवेभ्योऽपि श्रेष्ठत्वात् इति भावः // 3 // निषधराज ( नल ) के, श्रेष्ठतम वेषभूषाधारी आगे चलनेवाले लोगोंके साथ आते (पाठा०-चलते ) रहनेपर उस ( लोक-प्रसिद) इन्द्रने 'सुनासीर' पदवाच्यत्वको धारण किया अर्थात् 'सुनासोर' नामको प्राप्त किया तो केवल रूढिमात्रसे ही प्राप्त किया। [नलके 'नासीर' से निकलकर सुन्दर वेष-भूषावाले लोग आगे-आगे चल रहे थे, अतएव नल ही अवयवार्थयुक्त 'सुनासीर' ( सुन्दर नासीर वाले ) थे और इन्द्रका 'सुनासीर' नाम तो केवल रूढिमात्रसे मण्डपादि शब्दों के समान ही हुआ, क्योंकि वे इन्द्र सुन्दर नासीर (शिविर ) वाले नहीं होनेसे पाठक, अध्यापक आदि शब्दोंके समान अवयवार्थयुक्त नामवाले नहीं थे। नल इन्द्रसे तथा उनके आगे चलनेवाले लोग देवोंसे भी श्रेष्ठ थे ] // 3 // नलस्य नासोरमृजां महीभुजां किरीटरत्नैः पुनरुक्तदीपया / अदीपि रात्रौ वरयात्रया तया चमूर जोमित मित्रसम्पदा / / 4 / / नलस्येति / चमूरजोभिः सैन्यपदोत्थधूलिभिः, मिश्राः घनीभूताः, तमिस्र सम्पदः यस्यां तया, चमूपदोस्थितरजोहेतुना गाढान्धकारयेत्यर्थः, तथाऽपि नलस्य नासीरसृजाम् अग्रेसरत्वसम्पादकानाम्, अग्रयायिनामित्यर्थः। महीभुजां राज्ञा, किरीटरत्नेः मुकुटस्थितमणिभिः, पुनरुक्ताः रत्नकिरणरेवान्धकारापसारणात् निप्प्रयोजनतया अधिकार्थकाः, दीपाः यस्यां तादृशया, तया प्रकृतया, वरस्य वोढुः यात्रथा वैवाहिकगृहयात्रया, रात्रौ अदीपि दीप्तं, शोभितमित्यर्थः / (भावे लुङ्) रत्नदीपप्रकाशेन यात्रा गाढान्धकारेऽपि दीपवती इत्यर्थः // 4 // सेना ( के घोड़े-रथ आदि ) को धूलसे अधिक अन्धकार युक्त ( होनेपर भी ) सेनाके अग्रेसर राजाओं के मुकुटों के रत्नों ( की कान्ति ) से व्यर्थ किये गये दीप ( मसालों, या वर्तमान कालानुसार गैस आदि रोशनियों) वाली नलकी बारात रातमें प्रकाशमान हुई / [ यद्यपि सेनाके रथ-घोड़े पैदल आदिके चलने से उड़ी हुई धूलसे बहुत अन्धकार हो गया तथापि सेनाग्रगामी राजाओंके मुकुटोंमें जड़े गये रत्नोंकी किरणोंसे इतना अधिक प्रकाश हुआ कि जलते हुए दीपक (गैस या मसाल ) भी अनावश्यक मालूम पड़ने लगे, इस कारण वह नलकी वरयात्रा ( बारात ) रात्रिमें अधिक शोभित हुई / रात्रिमें दीपक या रत्नों
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy