________________ षोडशः सर्गः। धिपतेः भीमस्य, गृहान् प्रति प्रतस्थे प्रस्थितः / 'समवप्रविभ्यः स्थः' इत्यात्मनेपदम् / वंशस्थविलं वृत्तम् // 1 // इस ( प्रसाधन कार्य, या-रथारोहणकार्य) के अनन्तर मङ्गलाचार (दही-अक्षतदूर्वादि मङ्गल द्रव्यों के यथाशास्त्र दर्शन, स्पर्शन तथा भक्षणादि द्वारा ) को ग्रहण किये हुए, रथवाले ( रथ पर सवार ), वे राज (नल ) आत्मज्ञानियों में अतिशय श्रेष्ठ गौतम' नामक पुरोहितको दो प्रकारसे पुरस्कृतकर ( पूजा करने तथा सबसे आगे गमन करानेसे सत्कृतकर) रथवालों अर्थात् रथपर चढ़े हुए पार्श्वचरोंसे परिवेष्टित होकर विदर्भराज ( भोज ) के महलोंको चले // 1 // स्वभूषणांशुप्रतिबिम्बितैः स्फुटं भृशावदातैः स्वनिवासिभिर्गुणैः। . मृगेक्षणानां समुपासि चामरैर्विधूयमानैः स विधुप्रभैः प्रभुः / / 2 // स्वेति / सः प्रभुः नलः, स्वभूषणानाम् अंशुषु प्रभासु, प्रभाशालिमणिषु इति यावत्, प्रतिबिम्बितेः प्रतिफलितैः, विधूयमानैः कम्प्यमानैः, विधोः चन्द्रस्य, प्रभा इव प्रभा येषां तैः, अत्र निदर्शनाविशेषः, मृगेक्षणानां हरिणलोचनानां, चामरग्राहिणीनां सम्बन्धिभिरिति भावः चामरैः चामरव्यजनेनेत्यर्थः, भृशावदातः अतिशुभ्रः, स्वनिवासिभिः स्वनिष्ठः, अत एव स्वभुषणांशुप्रतिबिम्बितः, गुणः नलस्य श्रुतशी. लादिगुणैः एव, समुपासि उपासितः, स्फुटम् / प्रतिबिम्बितचामरेषु स्वामिसेवार्थम् आविर्भूतस्वीयशीलसौन्दर्यादिगुणत्वस्योत्प्रेक्षालङ्कारः॥२॥ उस राजा (नल ) की अपने (पाठा०-विशिष्ट ) भूषणोंकी किरणों में प्रतिबिम्बित, डोलाये जाते हुए, चन्द्रप्रभातुल्य प्रभावाले और अतिशय श्वेतवर्णवाले ( चामरधारिणी) मृगनयनियोंके चामरोंने उपासना ( सेवा ) की, अर्थात् चामरधारिणी मृगनयनी स्त्रियोंने जो चामर डोलाया, वह ऐसा मालूम पड़ता था कि नलमें वास करने ( सर्वदा रहने ) वाले अतिशय निर्मल ( दया, दाक्षिण्य, शूरता आदि ) गुण उनकी सेवा कर रहे हों। [ उक्तरूप चञ्चल चामर ऐसे जान पड़ते थे कि उस नलमें जो दया-दाक्षिण्यादि अतिशय निर्मल गुण हैं, वे ही चामररूप में साकार होकर नलकी उपासना कर रहे हैं। लोकमें भी जो जिस स्वामीके यहां सर्वदा निवास करता है, वह उत्सवादिके अवसरोंपर बड़ी लगनके साथ उसकी सेवा करनेमें लग जाता है, अतएव नलमें नित्य रहनेवाले गुणोंका भी अपने स्वामी नलकी सेवामें लगना उचित ही है ] // 2 // ' दधे सुनासीरपदाभिधेयतां स रूढिमात्रात् यदि वृत्रशात्रवः / / 3 // पराद्धर्येति / निषधावनीभृति नले, पराद्धर्यानि श्रेष्ठानि / 'परावराधमोत्तमपूर्वाञ्च' इति यत्प्रत्ययः / वेशाः आकल्पाः,वस्त्राभरणादिशोभाः इति यावत् 'आकल्प १.'-वेषा-' इति पाठान्तरम् / 2. 'समं जिहाने' इति पाठान्तरम् /