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________________ 644 नैषधमहाकाव्यम् / ( व्याप्त होकर ) पूर्व दिशाके क्रीडापर्वत अर्थात् उदयाचल पर चढ़कर जाते ( उदय होते हुए ) चन्द्रमाके समान उस (नल) की प्रत्यङ्गमें धारण किये अलङ्कारोंकी सारभूता ( अतिशय श्रेष्ठ ) शोभासे अभिमान करते हुए ) अथवा-अपनी-अपनी शोभाको अहमहमिकापूर्वक श्रेष्ठ बताते हुए शरीरकी शोभाको देखकर सानन्द नागरिक स्त्रियों ( पाठा०नागरिकोंकी प्रियाओं ) ने इस प्रकार ( 15583-91 ) कहा / [ 'करसौन्दयसे मेरा सौन्दर्य श्रेष्ठतर है' ऐसा बाहुके, 'बाहुसौन्दर्यसे मेरा सौन्दर्य श्रेष्ठतर है' ऐसा करके, इसी प्रकार नल के प्रत्येक अङ्ग अपनी शोभाको परस्परमें श्रेष्ठ बतला रहे थे, अथवा-'मद्भिन्न सब अङ्गोंसे मेरी शोभा श्रेष्ठतम है' ऐसा नलके प्रत्येक अङ्ग अपनी-अपनी शोभाको दूसरे सभी अङ्गोंसे श्रेष्ठतम बतला रहे थे अर्थात् नलके प्रत्येक अङ्गकी शोभा दूसरे अङ्गोंसे बढ़ी-चढ़ी थी, उसे देखकर आनन्दित स्त्रियोंने परस्पर में उक्त बातें ( 15 / 83-91) कहीं ] // 92 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / यातः पञ्चदशः कृशेतररसस्वादाविहायं महा काव्ये तस्य हि वैरसेनिचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः / / 93 / / श्रीहर्षमिति / कृशेतरेण अकृशेन, निर्भरेण इत्यर्थः, रसेन शृङ्गारेण, स्वादौ रुचिरे इह स्वस्य कृतौ काव्ये, पञ्चदशानां पूरणः पञ्चदशः 'तस्य पूरणे डट' इति डट अयं सो यातः गतः, समाप्तः इति यावत् // 93 // इति 'मल्लिनाथ' विरचिते 'जीवातु' समाख्याने पञ्चदशः सर्गः समाप्तः // 15 // __कवीश्वर-समूहके "किया, उसके रचित अत्यधिक रससे स्वादिष्ट ( अमृतमय ) नलीयचरित अर्थात् 'नैषधचरित' नामक ..."यह पञ्चदश सर्ग समाप्त हुआ / ( शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान जाननी चाहिये ) // 93 // यह 'मणिप्रभा' टोका में 'नैषधचरित' का पञ्चदश सर्ग समाप्त हुआ // 15 // - * षोडशः सर्गः। वृतः प्रतस्थे स रथैरथो रथी गृहान् विदर्भाधिपतेर्धराधिपः / पुरोधसं गौतममात्मवित्तमं द्विधा पुरस्कृत्य गृहीतमङ्गलः / / 1 / / वृत इति / अथो प्रसाधनानन्तरं, गृहीतमङ्गलः स्वीकृतमङ्गलाचारः, रथः अस्य अस्तीति रथी रथिकः, स धराधिपः नलः, आत्मवित्तमम् आत्मतत्त्वज्ञानिनां श्रेष्ठं, गौतमं गौतमाख्यम् ऋषि, पुरोधसं पुरोहितं, द्विधा प्रकारद्वयेन, पुरस्कृत्य पूजयित्वा अग्रे कृत्वा च 'पुरस्कृतः पूजितेऽरात्यभियुक्तेऽग्रतः कृते' इत्यमरः। रथैः रथिभिः पुरुषः, 'कुन्ताः प्रविशन्ति' इतिवत् स्थशब्दस्य रथिषु लक्षणा / वृतः वेष्टितः सन् , विदर्भा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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