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________________ पञ्चदशः सर्गः। 643 चातको श्लोकके उत्तरार्द्धसे कहते हैं-[ पति (नल ) के लिए अपनेको (इन्द्रादि चार) देवोंकी प्रसन्नताका फल बनाकर अर्थात् देवताओंको प्रसन्नकर नलको पति बनाकर देवोंके लज्जा, क्रोध तथा अपकीर्ति ( बदनामी-अयश ) होनेकी बातका ( दमयन्तीने ) अवसर ही नहीं दिया / ( 'ऐसा नलको देखनेवाली स्त्रियोंने कहा' इस क्रियापूरक वाक्यका अध्याहार अग्रिम श्लोक (15.92 ) से करना चाहिये)। [ यदि दमयन्ती इन्द्रादि चारों देवोंके बिना प्रसन्न किये ही नलका वरण कर लेती तो उन्हें 'इस दमयन्तीने हम लोगों ( देवों) को छोड़कर नलका वरण किया' इस विचार के अन्यान्य देवों तथा अपनी अपनी पत्नियों के प्रति लज्जा होती, हम लोगोंको स्वयमेव उपस्थित रहने पर भी मनुष्य नलका वरण कर हम लोगोंका त्याग किया' इस विचारसे उन्हें ( इन्द्रादि चारों देवोंको ) क्रोध आता और 'हमलोगोंका त्यागकर मनुष्य नलका वरणकर हमलोगोंको अपमानित किया' इस विचारसे वे अपना अपयश मानतेः किन्तु दमयन्तीने पहले उन्हें स्तुतिद्वारा प्रसन्नकर उनके आदेशसे ही नलको पति बनाया, अत एव अब लोग ऐसा समझेगें कि ये इन्द्रादि देव दमयन्तीके लिए नलको पतिरूपमें देनेके लिए ही स्वयंवर में पधारे थे, दमयन्तीको पाने के लिए नहीं, इससे उन्हें लज्जित, क्रोधित तथा अपयशसे युक्त (बदनाम ) होनेका अवसर ही नहीं रहा / इस प्रकार सब कार्य इन दोनों के लिए मङ्गलप्रद हो रहे हैं ] // 91 // इत्यालेपुरनुप्रतीकनिलयालङ्कारसारश्रियाऽलङ्कर्वत्तनुरामणीयकममूरालोक्य पौरस्त्रियः / सानन्दं कुरुविन्दसुन्दरकरस्यानन्दनं स्यन्दनं तस्याध्यास्य यतः शतक्रतुइरित्क्रीडाद्रिमिन्दोरिव / / 92 / / इतीति / कुरुविन्दः पद्मरागः 'कुरुविन्दस्तु मुस्तायां कुल्माषत्रीहिभेदयोः / हिङ्गुले पद्मरागेऽपि मुकुलेऽपि समीरितः॥ इति विश्वः / तद्वत सुन्दरी करौ हस्ती यस्य तस्य; अन्यत्र सुन्दराः कराः अंशवः यस्य तस्य, आनन्दयतीति आनन्दनम् आनन्दकरम्, नन्द्यादित्वाल्ल्युः / स्यन्दनं रथम्, अध्यास्य अधिष्ठाय, यतः गच्छतः, इणो लटः शत्रादेशः / तस्य नलस्य, शतक्रतुहरितः प्राच्या दिशः, क्रीडादि क्रीडापर्वतम्, उदयाद्रिमिति यावत् , अध्यास्य यतः गच्छतः, इन्दोः इव अनुप्रतीकनिलयानां प्रत्यवयवसंश्रयाणाम्, अलङ्कारसाराणाम् उत्कृष्टाभरणानां, श्रिया शोभया साधनेन, अलङ्कुर्वत्या आत्मानं प्रसाधयन्त्याः , तनोः मूर्तः, रामणीयकं रमणीयत्वम् / 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुञ्' इति वुजप्रत्ययः, आलोक्य अमूः पौरस्त्रियः इति पूर्वोक्त. रीत्या, सानन्दं यथा तथा आलेपुः आलपन् / आलपेर्लिट् , अत एव एत्वाभ्यासलोपो॥ पद्मराग मणिके समान अरुणवर्ण ( लाल ) हाथ वाले तथा आनन्दकारक रथपर चढ़कर जाते हुए ( पक्षा०-पद्मराग मणिके समान अरुण वर्ण किरणोंवाले तथा नन्दनवन तक 1 पौरप्रियाः, इति प्रकाशसम्मतं पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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