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________________ 642 नैषधमहाकाव्यम् / स नलः अर्थः प्रयोजनं यस्य तस्य भावः तादयं नलप्रयोजनकरवं, तेन हेतुना यत् आगमनं स्वयंवरप्रवेशनं, तस्य अनुरोधः अनुवर्तनमेव, परं प्रधानं यस्याः तया नलैकपरया, भैम्या आसुत्रामम् इन्द्रपर्यन्तम् , अभिविधावव्ययीभावः / 'अनश्च' इति समासान्तष्टच / 'सुत्रामा गोत्रभिद् वज्री' इतीन्द्रपर्याये अमरः, मखभुजां देवा. नाम् , अपासनात् प्रत्याख्यानात् हेतोः, लज्जायाः मृजा प्रमार्जनं, युक्ता योग्या एव आणि अर्जिता, 'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्' इति न्यायादिति भावः / अनया भैम्या, त्रिदशप्रसादेन देवानुग्रहेण, फलितं सफलम् , आत्मानं पत्ये वराय नलाय, विधाय दत्त्वा, सुराणां होरोषापयशसां प्रत्याख्यानजनितलज्जाक्रोध. दुष्कीर्तिप्रसक्तानां, कथानाम् अनवसरोऽपि सृष्टः अनवकाशः कृतः, तदनुज्ञयैव प्रकृते वरणम् इति अत्र कश्चिदपयशकथानवकाश इति भावः // 91 // राजसमूहमें उस ( नल) के लिए ( स्वयंवर में ) आनेके अनुरोधकी प्रधानतावाली त्याग करनेसे जो लज्जाका मार्जन किया वह उचित ही किया ( अथवा-उस दमयन्ती) के लिए ( राजाओंके ) आनेके अनुरोध ( अनुकूलता ) में तत्पर दमयन्तीने ही इन्द्र पर्यन्त देवोंका त्यागकर राज-समूहमें अर्थात् राजाओं के विषयमें लज्जाका जो मार्जन ( राजाओंकी वरण करनेका अपना मुख्य लक्ष्य बनाकर स्वयंवर सभामें आयी था, अतः लज्जाको छोड़कर उसने इन्द्रतक देवोंका त्याग कर अभीष्ट वरको प्राप्त किया, अन्यथा यदि वह लज्जा नहीं करती अर्थात् नलको छोड़कर इन्द्रादि देवों या राजाओंमें-से किसीका वरण कर लेती तो अपने अभीष्ट नलको नहीं पाती, अतः 'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्' अर्थात् 'आहार तथा व्यवहार में लज्जाको छोड़नेवाला व्यक्ति सुखी होता है' नीतिके अनुसार दमयन्तीने ही लज्जाका त्यागकर उचित कार्य किया, अन्य कोई स्त्री ऐसा स्वयंवर में आये थे, अतः दमयन्तीने उन राजाओंका ही नहीं अपितु इन्द्रपर्यन्त देवोंतकका त्यागकर राजाओंकी लज्जाको जो बचा लिया वह उचित ही किया। राजालोग दमयन्तीके उद्देश्यसे स्वयंवर में आये थे, अतः दमयन्तीने उनकी लज्जा बचाकर उचित कार्य किया, अन्यथा वे बहुत लज्जित होते कि हमें दमयन्तीने वरण नहीं किया। अब जब कि दमतन्तीने इन्द्रतकका त्यागकर नलका वरण किया तो 'जब इन्द्रपर्यन्त्र देवोंको दमयन्तीने छोड़कर नलका वरण कर लिया तो इन्द्रादि देवों के सामने मेरी क्या गणना है ?' इस विचारसे राजालोग अब लज्जित नहीं होंगे, अत एव दमयन्तीने ही यह उचित कार्य किया दूसरी वधू ऐसा नहीं कर सकती थी। इस प्रकार राज-समूहकी लज्जाका निवारण करने पर भी इन्द्रादि देवोंका त्यागकर मनुष्य नलका वरण करनेसे उन्हें (इन्द्रादि देवोंको ) लज्जा हो सकती है, किन्तु दमयन्तीने उनको भी लज्जाका मार्जन (निवारण) किया इस
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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