________________ ऊनविंशः सर्गः। 1271 अभावादित्यर्थः / नार्थस्य नशब्दस्य सुप्सुपेति समासः। उलूकस्य पेचकस्य, विलोचने नयने / गोलाकारे क्षुद्रे च इति भावः / मुञ्चति परिहरति, न उन्मीलनेन उपकरोतीत्यर्थः / सूर्यकरासहत्वेन निमीलिताक्षत्वादिति बोध्यम् / अन्वयव्यतिरे. काभ्याम् अम्भोजसदृशस्य लोकलोचनस्य विकासेन कुशलाधायकत्वात् तदसशस्य उलुकलोचनस्य च अविकाशेन कुशलानाधायकत्वात् सहस्रकरस्य देवस्य अम्भोजते. मङ्करवव्रतं किमु वाच्यम् ? इति निष्कर्षः। प्रातः अम्भोजवल्लोकलोचनाम्भोजान्यपि विकासयामास इति भावः // 40 // कमलोंके मङ्गल करने में सूर्यका पुरुषव्रत ( अङ्गीकृतका सम्यक प्रकारसे परिपालन करना ) आश्चर्यकारक है, क्योंकि यह (सूर्य) श्री (शोमा या लक्ष्मी) के निवासस्थानको कहने के इच्छुक ( व्यास, वाल्मीकि, कालिदास आदि ) कवियों के द्वारा उपमा देनेसे अर्थात् मनुष्यों के नेत्रोंको भी कमलतुल्य कइनेसे कमलत्वको प्राप्त ( मनुष्यों के ) नेत्रको भो विकसित ( पक्षा०-वस्तुदर्शन समर्थ ) करता है और अन्यथाभाव होनेसे अर्थात् कवियों के द्वारा कमलकी उपमा नहीं देनेसे उल्लूके नेत्रद्वयको छोड़ देता ( विकसित अथच-वस्तुदर्शन-समर्थ नहीं करता) है। [सूर्य तडागस्थ मुख्य कमलको विकसित करता ही है, किन्तु कवियों ने मनुष्यों के जिन नेत्रोंको कमलके साथ उपमा दी है, उन नेत्रोंको भी ( प्रातःकाल में सूर्योदय होनेसे मनुष्यों के जगने (नेत्रखोलने ) तथा वस्तुओंको देखने के कारण ) विकसित करता है और श्रीहीन जिन उलूक-नेत्रोंको कवियोंने कमलके साथ उपमा नहीं दी है, उन्हें (दिनमें नहीं देख सकनेके कारण उल्लूके नेत्र को) नही विकसित करता अतः सूर्यका यह पुरुषव्रत ( कवियोंसे उपमित होने मात्रसे मुख्य कमलके साथ ही मानव. नेत्रकमलको भी विकसित करनेका तथा कवियोंसे उपमित नहीं होनेमात्रसे उल्लूकनेत्रको अविकसित ही छोड़ देनेका अटल नियम ) आश्चर्यजनक है ] // 40 // यदतिमहतीभक्तिर्भानौ तदेनमुदित्वरं त्वरितमुपतिष्ठस्वाध्वन्य ! 'त्वमध्वरपद्धतेः / इह हि समये मन्देहेषु व्रजन्त्युदवज्रताम् अभिरविमुपस्थानोत्क्षिप्ता जलाञ्जलयः किल // 41 // यदिति / अध्वरस्य यज्ञस्य, ' पद्धतेः पथः, अध्यन्य ! नित्यपान्थ ! अध्वानमलं गच्छतीति अध्वन्यः, 'अध्वनो यस्खौ' इति यत्प्रत्ययः। 'ये चाभावकर्मणोः' इति प्रकृतिभावः। हे नित्ययज्ञानुष्ठाननिरत महाराज ! यत् यस्मात् , त्वं भवान् , भानौ सूर्य, अतिमहती अत्युत्तमा,भक्तिः अनुरागविशेषः यस्य सः तादृशः, असीति शेषः। भक्तिशब्दस्य प्रियादिषु पाठात् न पुंवद्भावः / तत् तस्मात् , उदित्वरम् उद्यन्तम् / 'इण्नश-'इत्यादिना / क्वरप् / एनं भानुम्, त्वरितं शीघ्रम् , उपतिष्ठस्व उपास्स्व। 2. 'स्वाध्वान्यम्' इति पाठान्तरम् /