________________ 1278 नैषधमहाकाव्यम् / करनेसे कुष्ठ होने के कारण ) चरणरहित ( अथवा-विपरीत लक्षणासे अरुचिर किरणोंवाला), सूत (अरुण) के ऊरुद्वयकी ( अथवा--अरुणको अधिक ) शोभासे युक्त रथवाला ( दोनों वक्षमें आस्मीय शोभासे हीन होनेके कारण उपहासास्पद), तिर्यञ्च चकवा पक्षीके लिए कृपासमुद्र ( अर्थात मानवादि के लिए नहीं ), नेत्रों के बन्धु अर्थात् विपरीत लक्षणासे अतिशय तीव्र किरणों द्वारा नेत्रप्रतिघातक होनेसे नेत्रोंके अबन्धु-अहितकारी ( अथवा-नेत्रके अतिरिक्त दूसरेके बन्धु नहीं ) ऐसा सूर्य (दुष्ट एवं दीर्घकालतक भोग्य ग्रह होनेसे ) शनि तथा (प्रियजनोंमें-से एक व्यक्तिको मारकर अन्य बन्धुओंको सन्तापकारक ) यम-इन दो पुत्रोंको संसारकी रक्षाके लिए अर्थात् विपरीत लक्षणासे संसारके विनाशके लिए उत्पन्न किया' इस प्रकार सूर्यको दुष्ट लोग उपहास करते हैं तो सूर्यका इतना उत्तम एवं विशिष्ट करनेवाले हम ( वैतालिक ) लोगोंको कौन दुष्ट नहीं हँसेगा अर्थात् ( अकिञ्चित्कर ये वैतालिक उदरपूत्यर्थं चाहे जो कुछ बोल रहे हैं इत्यादि रूपमें ) सभी दुष्ट इस प्रकार सूर्यके विशिष्ट वर्णन करनेवाले हमलोगोंको हँसेंगे, ( किन्तु जिस प्रकार उसी सूर्यको सज्जनलोग उक्तरूपसे स्तुति भी करते हैं, उसी प्रकारसे राजराजेश्वर आप हम लोगोंकी निन्दा न करके प्रशंसा ही करेंगे तथा इसी कारण हमारे इस प्रभातवर्णनको सत्य मानकर प्रामातिक सन्ध्यावन्दनादि नित्यक्रियाके लिए अवश्यमेव निद्रात्याग करेंगे ) // 47 / / शिशिरजरुजां घमें शर्मोदयाय तनूभृतामथ खैरकराश्यानास्यानां प्रयच्छति यः पयः / जलभयजुषां तापं तापस्पृशां हिममित्ययं परहितमिलत्कृत्यावृत्तिः स भानुरुदश्चति / / 48 / / . शिशिरेति / यः देवः, शिशिरज़ा शीतर्त्त जा, रुक् पीडा येषां तादृशानाम् , तनूभृतां शरीरिणाम् , शर्मोदयाय सुखोत्पादनाय / एतत् पदद्वयमुत्तरवाक्यत्रयेऽ. प्यनुषञ्जनीयम् / धर्म निदाघम् , वसन्तग्रीष्मकालिको सन्तापी इत्यर्थः / अथ तदनन्तरम् , खरकरैः वसन्तनिदाघजनितैः तीचणैः किरणः, आश्यानानि शुष्काणि, भास्यानि मुखानि येषां तादृशानाम्, 'खरकरश्याना' इति पाठेऽपि स एवार्थः / तनूभृतां शर्मोदयाय पयः वर्षासु जलम् , तथा जलमयजुषां वर्षाजलभीतानाम् , तनूभृतां शर्मोदयाय तापं शारदसन्तापम् , तथा तापस्पृशां शारदसन्तापभाजाम् , तनूभृतां शर्मोदयाय हिमं हेमन्तकालजशैत्यम् , प्रयच्छति ददाति, कालचक्रपरि• भ्रामणेन आनयतीत्यर्थः / इति इत्थम् , परहिताय अन्येषामुपकाराय, मिलन्ती युज्यमाना, कृत्यावृत्तिः व्यापाराभ्यासः यस्य सः तादृशः, सः प्रसिद्धः, अयं परिहश्यमानः, भानुः भगवान सूर्यः, उदश्चति उदेति / क्रियासमुच्चयोऽलङ्कारः // 48 // 1. 'खरकराश्याना-' इति पाठान्तरम् /