________________ 1312 नैषधमहाकाव्यम् / ____ इस (चुम्बन करने ) के बाद (नल ) ने दमयन्तीकी 'कला' नामक सखीको हाथ ( के सङ्केत ) से बुलाकर तथा परिहासक्रीडामें साक्षिणी ( प्रत्यक्ष देखनेवाली ) करने के लिए सामने बैठाकर कहा // 26 // कस्मादस्माकमब्जास्या वयस्या दयते न वः ? / आसक्ता भवतीध्वन्यं मन्ये न बहु मन्यते // 27 / / कस्मादिति / हे कले ! अब्जास्या कमलवदना, वः युष्माकम् , वयस्या सखी, कस्मात् कस्य हेतोः, अस्माकं मामित्यर्थः / 'अधीगर्थ-' इत्यादिना कर्मणि षष्ठी : न दयते ? न अनुकम्पते ? मन्ये विवेचयामि, अहमिति शेषः / भवतीषु युष्मासु, आसक्ता अत्यन्तमनुरक्ता सती, अन्यम् अपरं जनम् , न बहु मन्यते न समाद्रियते॥ (हे कले ! ) कमलमुखी तुम लोगोंकी ( पाठा०-तेरी ) सखो ( दमयन्ती ) हमपर क्यों नहीं दया करती है ? ( जिस कारण दया नहीं करती, इस कारण मैं ) तुमलोगोंमें आसक्त ( यह ) अतिशय प्रेममग्न ( मेरे-जैसे) दूसरेका नहीं समादर करती है, ऐसा मानता हूँ / ( अथ च-'कमलमुखी दमयन्ती नवीन परिचयवाले भी मुझपर दया करती है और तुम लोगोंपर दया नहीं करती, ( अत एव ) तुमलोगोंमें अनासक्त स्नेहहीन यह मुझजैसे दूसरे लोगोंको मानती है' ऐसा अर्थ अग्रिम श्लोकके अनुरोध से करना चाहिये) // 27 // भन्वग्राहि मया प्रेयान्निशि स्वोपनयादिति / न विप्रलभते तावदालीरियमलीकवाक् ? / / 28 // अन्वग्राहीति / मया भैम्या, निशि रात्रौ, स्वोपनयात् आत्मसमर्पणात् , स्वाङ्ग दानं कृस्वेत्यर्थः / प्रेयान् प्रियतमः नलः, अन्वग्राहि अनुगृहीतः इति एवम् , अलीक. वाक अनृतवादिनी, इयम् एषा वः सखी, तावत् सकला एव, आलीः सखीः भवतीः, न विप्रलभते ? न प्रतारयति ? किमिति शेषः, इति काकुः; अपि तु प्रतारयत्येव / तस्मात् अहं रात्रौ प्रियतमाय आत्मसमर्पणं कृतवतीति युष्मत्समीपे यदियमुक्तवती तद् वचः न श्रद्धेयम् इति भावः // 28 // ___ 'मैंने रात्रि में आत्मसमर्पण ( आलिङ्गनादिके लिए वक्षःस्थलादिका समर्पण ) करनेसे प्रियतम ( नल ) को अनुगृहीत कर दिया है। ऐसा असत्य वचन कहने वाली यह सखियोंको भी नहीं ठगती है ? [ अर्थात् तुमलोगोंको भी ठगती है तो हम लोगोंकी गणना ही कौन है ? अत एव इसकी बातका कदापि तुमलोग विश्वास मत करना ] // 28 / / आह स्मैषा नलादन्यं न जुषे मनसेति यत् / यौवनानुमितेनास्यास्तन्मृषाऽभून्मनोभुवा || 26 || आहेति / एषा इयं वः सखी, नलात् नैषधात् , अन्यम् अपरं पुरुषम् मनसा 1. 'ते' इति पाठान्तरम् /