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________________ विंशः सर्गः। 1313 चेतसा, अपीति शेषः, न जुषे न सेवे, इति यत् आह स्म ऊचे, अस्याः तव सख्याः, तद् वचनम् , यौवनानुमितेन यौवनेन तारुण्येन लक्षणेन,अनुमितः तर्कितः तादृशेन, एषा मनोभूमती यौवनवत्वात् , या या यौवनवती सा सा मनोभूमती इत्यनुमानविषयीकृतेनेत्यर्थः / मनोभुवा मनः चित्तमेव, भूः उत्पत्तिस्थानं यस्यतादृशेन कामेन, मृषा मिथ्या, अभूत् अजनि; मदन्यस्य कामस्य मनसासेवनात् अस्याः तारशी उकिः मिथ्या जाता इति निन्दाच्छलेन मय्येवेयं कामानुरक्तेति स्तुतेः व्याजस्तुतिः // 29 // ____ इस ( दमयन्ती) ने 'मैं नलके अतिरिक्त दूसरेका मनसे भी नहीं सेवन करती हूँ' ऐसा जो ( तुम लोगों के समक्ष ) कहा, युवावस्थासे अनुमित कामदेवसे इसका वह कथन असत्य हो गया [ युवावस्थामें यह कामासक्त है, अत एव मुझसे अतिरिक्त कामका सेवन करनेसे दमयन्तीका वह कथन असत्य हो गया / वस्तुतस्तु 'युवावस्थाके आरम्म होनेसे लेकर यह मुझमें ही आसक्त है' इस प्रकार नलने दमयन्तीकी प्रशंसा ही की है ] // 29 / / आस्यसौन्दर्यमेतस्याः शृणुमो यदि भाषसे / तद्धि लज्जानमन्मौलेः परोक्षमधुनाऽपि नः // 30 // आस्येति / हे कले ! एतस्याः युष्मत्सख्याः, आस्यसौन्दर्य मुखशोभाम् , यदि चेत् , भाषसे वर्णयसि, त्वमिति शेषः / तदा शृणुमः आकर्णयामः, वयमिति शेषः / ननु तव उत्सङ्गे एव यदा इत्यमुपविष्टा, तदा अस्मन्मुखे कथं शृणुथ, पश्यथ न कथम् ? इति चेदाह-हि यस्मात् , लजया त्रपया, नमन्मौले नम्रशिरसः, एतस्याः इति शेषः / तत् आस्यसौन्दर्यम् , अधुना अपि विवाहात् परमद्यपर्यन्तमपीत्यर्थः / नः अस्माकम् , परोक्षम् अणोरगोचरमेव, वर्तते इति शेषः / तत् यथा एषा लजा परित्यज्य स्वमुखकमलमस्मान् दर्शयति तथा क्रियताम् इति भावः // 30 // इस ( अपनी सखी दमयन्ती ) के मुखके सोन्दर्यका यदि तुम वर्णन करोगी तो इम सुनेंगे। ( 'अपने अङ्कमें स्थित इसके मुख-सौन्दर्यको आप स्वयं देखते ही हैं तो उसके वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ?' यह शङ्का तुम मत करो, क्योंकि-विवाहकालसे लेकर) अब तक भी लज्जासे अवनतमुखी ( मुखको नीचे की हुई ) इसका वह (मुखसौन्दर्य ) हमारे परोक्ष ( अदृष्टचर ) हो है / [ अत एव जिस प्रकार लज्जा छोड़कर अपने मुखकमलको यह मुझे दिखलावे वैसा उपाय करो, अथवा-परिहाससे 'कला' से नल कहते हैं कि-आजतक जब मैंने इसके सदा नम्रमुखी रहने से मुखसौन्दर्यको भी नहीं देख सका तो सम्भोगादिकी चर्चा ही व्यर्थ है, अत एव इसके उक्त वचन (रे लिए सर्वथा आत्मसमर्पण करने आदिकी बात ) पर विश्वास कदापि मत करना ] // 30 // पूर्णयैव द्विलोचन्या सैषाऽऽलीरवलोकते / द्राग्हगन्ताणुना मान्तु मन्तुमन्तमिवेक्षते // 31 // पूर्णयेति / सा उक्तरूपा लजानतशिरस्का, एषा दमयन्तो, पूर्णयैव समग्रयैव, न
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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