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________________ 1206 नैषधमहाकाव्यम्। अतनु महत् , हारमण्डलं मुक्ताकलापः, छिन्नं त्रुटितमपि, स्वेदबिन्दवः एव स्वेदबि. न्दुकाः धर्मोदककणाः / स्वार्थे कः ते अस्य सञ्जाताः इति स्वेदबिन्दुकितं सुरतश्रमजन्यधर्मबिन्दुयुक्तम् / 'तारकादित्वादितच / वतः उसस्थलं यस्याः तादृशया सत्या, चिरात् दीर्घकालेनापि, न व्यतर्कि न व्यभावि, छिन्नेति न अज्ञायि इत्यर्थः / स्वेदबिन्दुषु हारभ्रमादिति भावः / अतएव भ्रान्तिमदलङ्कारः॥ 102 // (सुरतानन्दसे ) मुग्ध सुलोचमा ( दमयन्ती) ने छातीपर सुरतरूप ( या-सुरतसम्बन्धी ) नृत्यक्रीडाओंसे टूटी ( नाभिपर्यन्त लटकती ) हुई बड़ी मुक्तामालाको ( सुरतश्रमजन्य ) स्वेदबिन्दुओंसे तारकित वक्षःस्थलवालो होनेसे ( स्वेदबिन्दुओंमें ही मुक्तामालाका भ्रम होने के कारण ) देरतक नहीं जान सकी // 102 / / यत् तदीयहृदि हारमौक्तिकैरासि तत्र गुण एव कारणम् / अन्यथा कथममुत्र वर्तितुं तैरशाकि न तदा गुणच्युतैः ? // 103 / / यदिति / तदीये भैमीसम्बन्धिनि, हृदि वक्षसि, अन्तःकरणे च, हारमौक्तिकः हारस्थितमुक्तावलीभिः, यत् आसि अवस्थितम् / आसेर्भावे लुङ् / तत्र स्थितौ, गुणः एव मुक्तानां छिद्रान्तर्वत्तिसूत्रमेव, सूत्रेण ग्रथितत्वमेवेत्यर्थः / कान्तिमत्त्वादिगुण एवं च, कारणं हेतुः। अन्यथा तद्वैपरीत्ये, तदा सुरतकाले, गुणच्युतैः गुणभ्रष्टैः, तैः हारमोक्तिकः, अमुत्र अस्मिन् वक्षसि मनसि च, वर्तितुं स्थातुम्, कथं कस्मात् , न अशाकि ? न शक्तम् ? अच्छिन्नसूत्रैः कतिपयमौकिकरेव तत्र स्थितं न पुनश्छिन्नसूत्रांशैः, ततो गुण एव अत्र कारणम् अन्यथा पतनप्रसङ्गादनुपादेयत्वाच्चेति भावः // . उस ( दमयन्ती ) की छातीपर ( पक्षा०-चित्तमें ) हारके जो मोती ठहरे थे, उस ( टहरने ) में गुण (हार में गुथा हुआ सूत्र-धागा, पक्षा०- कान्तियुक्तत्त्वादि गुण ) ही कारण था; अन्यथा ( यदि उक्त गुण ही वहां ठहरने में कारण नहीं होता तो ) उस समयमें अर्थात् सुरतक्षणमें गुण ( उक्त सूत्र-धागा, पक्षा-कान्तिमत्त्वादि गुण ) से हीन वे ( हार के मोती) वहांपर ( दमयन्तीकी छातीपर, पक्षा०-चित्तमें ) क्यों नहीं ठहर सके ? [ दमयन्तीके वक्षःस्थलपर ( पक्षा-चित्तमें ) गुणवान् हो ठहर सकते थे, अत एव गुणहीन ( सूत्रहीन, कान्तिमत्त्वादि गुणरहित ) मुक्तामणि उसके वक्षःस्थलपर ( वक्षा०चित्तमें ) नहीं ठहर सके / इससे सुरतकालमें मुक्ताहारका टूटकर मुक्तामणियोंका नीचे गिर जाना, तथा नलके गुणवान् होनेसे दमयन्तीके उभयविध हृदय (बाह्य वक्षःस्थल तथा आभ्यन्तर अन्तःकरण ) में सर्वदा वर्तमान रहना सूचित होता है ] // 103 // एकवृत्तिरपि मौक्तिकावलिश्छिन्नहारविततौ तदा तयोः। छाययाऽन्यहृदयेऽपि भूषणं श्रान्तिवारिभरभावितेऽभवत् // 104 / / एकति / तदा तत्काले, तयोः दमयन्तीनलयोः मध्ये, एकस्मिन् नले एव, वृत्तिः अवस्थानं यस्याः सा तादृशी अपि, नलवक्षःस्थिता अपीत्यर्थः मौक्तिकावलिः मुक्ता.
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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