SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टादशः सर्गः। 1205 लेभे। नलमुखस्य चन्द्रतुल्यत्वात् भैमीकुचस्य च स्वर्णघटसाम्यादिति भावः / कनककलशे अमृतसम्भरणार्थं समागतः साक्षात् अमृतांशुरिव इत्युत्प्रेक्षया अमृतकरत्वं व्यज्यते इति अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः॥ 10 // चुम्बनके लिए प्रिया ( दमयन्ती) के स्तनको प्राप्त नलका मुखमण्डल (अपने ही) अमृतसे पूर्ण करने के लिए सोने के घड़ेका स्पर्श किये हुए चन्द्र के समान हुआ। [दमयन्तीके स्तनोंको जब नल मुखसे चुम्बन करने लगे तो मालूम पड़ता था कि चन्द्रमा अपने अमृतप्रवाहोंसे स्वर्णघटको भर रहा हो; इससे नल मुखका अमृततुल्य मधुरसपूर्ण चन्द्रतुल्य होना तथा दमयन्तीके स्तनका स्वर्णकलशतुल्य गौरवर्ण, विशाल एवं कठोर होना और नलमुखके स्पर्शसे दमयन्तीको अमृतरसपूर्णके समान अवर्णनीय आनन्द होना सूचित होता है / 'मुखनेत्रस्तनबाहुमूलकपोलौष्ठद्वयवराङ्गान्यष्टौ चुम्बनस्थानानि, रागतः सर्वाण्यपि च' ( मुख, नेत्र, स्तन, बाहुमूल ( वक्षः ), कपोल, दोनों ओठ तथा काममन्दिर ये आठ चुम्बनके स्थान हैं और रागातिशय होनेसे सभी अङ्ग चुम्बनके स्थान हैं ) इस वात्स्यायनोक्त वचनके अनुसार अथवा-'नयनगल्लकपोलदन्तवासोमुखान्तस्तनयुगलललाटं वा चुम्बनस्थानम्, स्तने चूचुकं परिहृत्येति विशेषः' इस वचनके अनुसार रतिकालमें स्त्रीके स्तन ( बालकपेय स्तनाग्रभाग ( चूचुक ) को छोड़कर) का भी चुम्बन करनेका विधान है // 300 // वीक्ष्य वीक्ष्य पुनरैक्षि साऽमुना पर्यरम्भि परिरभ्य चासकृत् / चुम्बिता पुनरचुम्बि चादरात्तप्तिरापि न कथञ्चनापि च / / 101 / / वीचयेति / अमुना नलेन, सा भैमी, आदरात् आग्रहातिशयात् , पदमिदं चुम्ब नालिङ्गनयोरपि योज्यम् / वीच्य वीचय पुनः पुनदृष्ट्वाऽपि, पुनः भूयः, ऐति ईक्षिता, असकृत् वारं वारम्. आदरात् परिरभ्य आलिङ्गयापि, पर्यरम्भि पुनः परिरब्धा / 'रभेरशलिटोः' इति नुमागमः / तथा आदरात 'चुम्बिता कृतचुम्बनाऽपि, पुनश्च भूयोऽपि, अचुम्बि चुम्बिता। कथञ्चनापि केनापि प्रकारेण, तृप्तिः आकाङ्क्षापूर्तिः, न च आपि नैव प्राप्ताः / रागातिरेकात् इति भावः / सर्वत्र कर्मणि लुङ् // 10 // इस ( नल ) ने इस ( दमयन्ती ) को आदरपूर्वक देख-देखकर फिर देखा, वार-बार आलिङ्गनकर फिर आलिङ्गन किया और चुम्बनकर फिर चुम्बन किया; किन्तु किसी प्रकार भी तृप्ति को नहीं प्राप्त किया अर्थात् आदरपूर्वक बार-बार दमयन्तीको देखने, आलिङ्गन करने तथा चुम्बन करने पर भी पुनः उन कार्योंको करनेकी प्रबल इच्छा ज्यों-की-त्यों मनमें बनी ही रही // 101 // __ छिन्नमप्यतनु हारमण्डलं मुग्धया सुरतलास्यकेलिभिः / न व्यतकि सुदृशा चिरादपि स्वेदबिन्दुकितवक्षसा हृदि // 102 / / छिन्नमिति / मुग्धया सुरतमोहितचित्तया, सुदृशा. सुनयनया, भैम्येति शेषः / सुरतानि रमणान्येन, लास्यकेलयः नृत्यक्रीडाः तैः, हृदि वक्षोपरि, स्थितमिति शेषः /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy