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________________ 854 नैषधमहाकाव्यम् / इस प्रकार ( 14 / 40-42 ) इस ( सरस्वती देवी ) के वचन सुनने पर प्रसन्नताजन्य हास्यसे मुखबिम्बको विलासयुक्त कर अर्थात् प्रसन्नतापूर्वक सविलास हंसकर इन (इन्द्रादि चारों देवों ) के भ्रूचालनके अभिप्रायसे आज्ञा अर्थात भ्रुकुटि द्वारा नलवरणार्थ स्वीकृति देनेपर वह ( सरस्वती देवी ) उस ( दमयन्ती ) को नलके पास ले गयी // 43 // मन्दाक्षनिष्पन्दतनोमनोभूदुष्प्रेरमप्यानयति स्म तस्याः / मधूकमालामधुरं करं सा कण्ठोपकण्ठं वसुधासुधांशोः / / 44 // मन्दाक्षेति / सा सरस्वती, मन्दाक्षनिष्पन्दतनोः लज्जानिश्वलाङ्गायाः, तस्याः भैग्याः, मनोभुवा कामेनापि, दुष्प्रेरं प्रेरयितुमशक्यं, मधूकमालया मधुरं रम्यं करं वसुधासुधांशोः भूचन्द्रस्य नलस्य, कण्ठोपकण्ठं कण्ठ समीपम्, आनयति स्म प्रापयामास; तदा अस्याः स्मरादपि लज्जा बलीयसी अभूदिति भावः / 44 // ___ उस ( सरस्वती ) ने लज्जासे निश्चल शरीरवाली उस ( दमयन्ती ) के कामदेवसे भी कठिनतासे प्रेरणीय तथा महुएकी मालासे सुन्दर हाथको पृथ्वीचन्द्र (नल ) के कण्ठके पास पहुँचाया / / 44 / / अथाभिलिख्येव समय॑माणां राजिं निजस्वीकरणाक्षराणाम् / दूर्वाङ्कुराढ्यां नलकण्ठनाले वधूर्मधूकस्रजमुत्ससर्ज / / 45 / / अथेति / अथ वधूः कन्या भैमी, अभिलिख्य लिखित्वा, समय॑माणां दीयमानां निजस्य आत्मीयस्य, यत् स्वीकरणं विवाहेन परिग्रहणं, तस्य अक्षराणां तद्वाचकवर्णानां, मां पत्नी कुरु इत्यक्षराणामित्यर्थः, अहं त्वां वरयामि इत्यक्षराणामित्यर्थो वा राजि श्रेणीमिव, दूर्वाङ्कुराढयां दूर्वाप्ररोहमयिष्ठां, मधूकस्रजं मधुमकुसुममालां, 'मधूके तु गुडपुष्पमधुमौ' इत्यमरः / नलकण्ठनाले उत्ससर्ज अर्पयामास // 45 // ___ इसके ( नल-कण्ठके पास हाथ पहुंचाने के ) बाद वधू ( दमयन्ती ) ने लिखकर समर्पित की जाती हुई अपने स्वीकार ( 'मैंने तुम्हें निश्चितरूपमें पति स्वीकृत किया' ऐसा, अथवा'तुम मुझे अपनी पत्नी स्वीकृत करो' ऐसा ) के अक्षरोंकी पंक्ति ( समूह ) के समान दूर्वाङ्करोंसे भरी हुई उस महुएकी माला अर्थात् वरणमाला ( जयमाला ) को नलके कण्ठनालमें डाल दिवा। [ दूर्वाङ्कुर श्यामवर्ण होनेसे अक्षरतुल्य तथा महुएके फूलोंकी अक्षरों के सन्धितुल्य और कण्ठको नाल (कमलका डण्ठल ) कहनेसे नलके मुखको कमलतुल्य समझना चाहिये ] // 45 / / / तां दूर्वया श्यामलयाऽतिवेलं शृङ्गार-भा-सन्निभया सशोभाम् / मालां प्रसूनायुधपाशभासं कण्ठेन भूभृद्बिभराम्बभूव / / 46 / / तामिति / अतिवेलं भृशं, श्यामलया हरितवर्णया, अत एव शृङ्गार-भा-सन्नि. भया शृङ्गाररसप्रभासदृश्या, 'श्यामो भवति शृङ्गारः' इति भरतवचनात् इति भावः 1. '-निस्पन्द-' इति दन्त्यमध्यं पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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