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________________ एकविंशः सर्गः। 1407 आच्छादितकर इस ( नल ) ने उस ( विष्णु भगवान् ) को बहुत रत्नोंवाले क्षीरसमुद्रमें डूबे हुएके समान कर दिया // 45 // अक्षसूत्रगतपुष्करबीजश्रेणिरस्य करसङ्करमेत्य | शौरिसूक्तजपितुः पुनरापत् पद्मसद्मचिरवासविलासम् // 46 // अन्तसूत्रेति / अक्षसूत्रगतानां जपमालाग्रथनतन्तुस्थितानाम् , पुष्करबीजानां पद्मगुटिकानाम्, श्रेणिः राजिः माला इत्यर्थः / शौरिसूक्तस्य पुरुषसूक्तस्य, जपितुः जपं कर्तुः, अस्य नलस्य, करसङ्करं हस्तसम्बन्धम्, एत्थ प्राप्य, पुनः भूयोऽपि, पद्मं कमलम् एव, सद्म गृहम, तत्र चिरवासस्य बहुकालावस्थितेः, विलासं शोभाम् , आपत् प्राप्तवती / नलकरस्य कमलसदृशत्वादिति भावः // 46 // ____ अक्षमालामें गूथे गये कमलबीजों के समूह अर्थात् कमल-बोज-मालाने विष्णुसूक्त जपने. वाले इस ( नल ) के हाथसे सम्बद्ध होकर पुनः कमलरूप गृहमें चिरकालतक निवास करने के समान शोभने लगा। [ कमल-बीजों की मालासे नल विष्णुसूक्त जपने लगे तो नलके हाथके कमलतुल्य होनेसे ऐसा मालूम पड़ता था कि वे कमलबाज पुनः कमलमें निवास कर रहे हों / नल कमल-बोज-मालाले विष्णुसूक्त का जप करने लगे] // 46 // कैटभारिपदयोनतमूर्ना सञ्जिता विचकिलस्रगनेन | जह्नजेव भुवनप्रभुणाऽभात् सेविताऽनुन यताऽऽयतमाना // 47 / / कटभारीति / नतः भूसंलग्न इत्यर्थः / मूर्दा शिरः यस्य तेन प्रणामार्थ नतमस्त. केन, अनुनयता स्तवेन देवं प्रलादयता, भुवनप्रभुगा भूलोकनाथेन, अनेन नलेन भगीरथेन च, यद्वा-जलेश्वरेण समुद्रेश च / 'भुवनं विपिने तोये' इति विश्वः / कटभारेः विष्णोः, पादयोः चरणयोः, सञ्जिता संसर्ग प्रापिता, समर्पिता इत्यर्थः / अन्यत्र-आसञ्जिता आसक्तिं गता, भक्तिमतीत्यर्थः। विष्णुपदोद्भुतत्वादिति भावः / आयतं दीर्घम् , मानं प्रमाणं यस्याः सा, अन्यत्र-यतमाना चेष्टमाना, पृथिव्यां गन्तुं यत्नवतीत्यर्थः / यद्वा-आयतः दीर्घः, मानः ईर्ष्या कोपश्व 'यस्याः सा। 'मानं प्रमाणे प्रस्थादौ मान श्चित्तोन्नती गृहे' इति विश्वः / सेविता आराधिता, एकत्रसुगन्धेन सर्वैः समादृता इत्यर्थः। अन्यत्र-त्रिभुवनजनपूजिता इत्यर्थः। विच. किलस्रक मल्लिकाकुसुममाला / 'स्मृतो विचकिलो मल्ली प्रभेदे मदनेऽपि च' इति विश्वः / जबजा गङ्गा इव, अमात् बभौ // 47 // ___नतमस्तक प्रार्थना करते हुए भूपति इस (नल ) के द्वारा श्रीविष्णु भगवान् के दोनों चरणों में रखो हुई लम्बी मल्लिकामाला नतमस्तक (गङ्गाप्राप्त्यर्थ ) प्रार्थना करते हुए भूपति इस ( भगीरथ ) के द्वारा श्रीविष्णु भगवान्के चरणदय में संलग्न ( पृथ्वोपर अवतरण करने के लिए ) तत्पर गङ्गाके समान शोभित हुई / ( पक्षा०-(प्रेयसीके मानको दूर करने के लिए ) न त पाक एवं प्रार्थना करते (मनाते ) हुए भूत ( नायक नल) के द्वारा सेवित अधिक
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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