________________ पञ्चदशः सर्गः। 866 . असाविति / असौ भैमी, मुहुः जातं जलाभिषेचनं यस्याः सा तादृशी जलाभिषिक्ता सती, तथा सितांशुना शुभ्रसूत्रघटितेन, दुकूलेन पट्टवस्त्रेण, सितः शुभ्रः अंशुः किरणो यस्य तेन चन्द्रेण च, उज्ज्वला शोभिता, सती, क्रमात् वर्षाशरदां द्वयस्य सन्धया सन्धिस्थलेन, वर्षतु शेषशरहतुप्रारम्भरूपर्तुद्वयमध्यवर्तिकालेनेत्यर्थः / सदातनी सनातनी, सनाभितां तुल्यत्वं, साधु यथा तथा बबन्ध दधार / वर्षतरपि 'जलाभिषिक्तः शरच्च शीतांशूज्ज्वलो भवतीत्युपमा // 21 // फिर स्नान की हुई यह ( दमयन्ती ) स्वच्छ सूत्रोंवाले रेशमी वस्त्र (पक्षा०-स्वच्छ किरणोंवाले चन्द्रमा ) से उज्ज्वल अर्थात् शोभित होकर वर्षा ( के अन्तिमकाल) तथा शरद् ( के प्रारम्भ काल )-दोनोंके तात्कालिक सन्ध्याकी समानताको प्राप्त किया। [ पहले 'स्नानकर बादमें स्वच्छ सूत्रवाले रेशमी कपड़ेको पहनकर दमयन्ती उस प्रकार उज्ज्वल वेषवाली शोभित हुई, जिस प्रकार पहले वर्षाऋतुसे स्नानकर शरद् ऋतुके प्रारम्भमें स्वच्छ किरणोंवाले चन्द्रमासे उस समय ( वर्षाके अन्त तथा शरद्के प्रारम्भ ) की सन्ध्या ( दोनों ऋतुओंका सन्धिकाल ) उज्ज्वल होती ( शोभती) है ] // 21 / / असौ प्रभिन्नाम्बुददुर्दिनीकृतां निनिन्द चन्द्रद्यतिसुन्दरी दिवम् / शिरोरुहौघेण घनेन संयुता तथा दुकूलेन सितांशुनोज्ज्वला / / 22 // असाविति / घनेन सान्द्रेण, शिरोरुहोघेण केशपाशेन, घनेन मेघेन च, संयुता विशिष्टा, इति वर्षासाम्योक्तिः, तथा सितांशुना शुभ्रसूत्रघटितेन दुकूलेन पट्टवस्त्रेण, उज्ज्वला शोभिता, शीतांशुना चन्द्रेण च, उज्ज्वला, इति शरत्साम्योक्तिः, असौ भैमी, प्रभिन्नैः वर्षकैः, अम्बुदैः गाढकृष्णवर्णमेघैः दुर्दिनीकृताम् अभिवृष्टामित्यर्थः / तथा चन्द्रद्यत्या चन्द्रकान्त्या, सुन्दरी दिवं नभःस्थली, निनिन्द तदुपमा अभूदि. त्यर्थः / कदर्थयति निन्दतीति सादृश्यवाचकेषु दण्डी इति उपमालङ्कारः // 22 // ___सघन केश-समूह ( पक्षा०-मेघ ) से युक्त ( पाठा०-कहीं पर बरसते हुए केशसमूहरूप मेघोंसे युक्त ) तथा स्वच्छ सूत्रवाले रेशमी वस्त्र (पक्षा०-चन्द्रमा) से उज्ज्वल इस दमयन्तीने ( पाठा०-पहले ) बरसे हुए मेघसे जलप्लावित ( तथा बादमें ) चन्द्रका. न्तिसे सुन्दर नभस्थलीको निन्दित कर दिया अर्थात् उसके समान शोभित हुई। [ यहां पर मेघके स्थानपर कृष्ण वर्ण केश-समूह, चन्द्रिकाके स्थान पर स्वच्छ रेशमी वस्त्र, जल बरसने के स्थान पर स्नान की समानता की गयी है ] // 22 // विरेजिरे तच्चिकुरोत्कराः किराः क्षणं गलन्निर्मलवारिविप्रषाम् | तमःसुहञ्चामरनिर्जयाजिताः सिता वमन्तः खलु कीर्तिमौक्तिकाः।।२३।। विरेजिरे इति / क्षणं क्षणमात्रं, गलन्त्यः स्रवत्यः, निर्मलाः स्वच्छाश्च, याः वारिविप्रषः तोयबिन्दवः तासां, कृद्योगात् कर्मणि षष्ठी। किरन्तीति किराः विक्षेपकाः, .. 1. 'पुरा' इति पाठान्तरम्। 2. 'वर्षता क्वचित्' इति पाठान्तरम् /