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________________ सप्तदशः सर्गः। 1131 वह ( कलि ) स्नातक ( विद्यास्नातक, व्रतस्नातक और उभयस्नातक ) को घातक ( अपने अर्थात् कलिको मारनेवाला ) समझा, दान्त (तपस्याके क्लेशको सहनेवाले तपस्वी ) को यमराजके समान ( प्राणनाशक ) समझा और वाचंयम (व्रतमें मौन धारण किये हुए ) की दृष्टि ( देखने ) से ही यमराजको दृष्टि के समान डर गय।। ( वाचंयम व्रतियों के द्वारा अपने देखे जानेपर या स्वयं वाचंयम व्रतियों को देखे जानेपर कलि उस प्रकार डर गया, जिस प्रकार यमके द्वारा अपने देखे जाने पर या स्वयं यमको देखकर डर गया हो। उन सबके ताके प्रभावसे पापात्मा कलिको बहुत भय हो गया ] // 181 // स पाषण्ड जनान्वेषी प्राप्नुवन् वेदपण्डितम् / जलाथीवानलं प्राप्य पापस्तापादपासरत् / / 182 // स इति / पापः क्रूरः, सः कलिः, पाषण्डजनान्वेषी शास्त्रदूषकजनानुसन्धायी सन् , वेदपण्डितं वैदिक, प्राप्नुवन् लभमानः, पश्यन्नित्यर्थः। जलार्थी पानीया. भिलाषी, जन इति शेषः / अनलम् अग्निम् , प्राप्येव लब्ध्वेव, तापात् तत्तेजोजन्य. सन्तापाद्धेतोः, अपासरत् अपसृतः / ब्रह्मतेजसः पाषण्डदाहकत्वादिति भावः॥१८२॥ पाखण्डी लोगोंको खोजता हुआ पापी वह कलि वेदके विद्वानों को पाकर ( उनके तपः. प्रभाव जन्य ) तापसे उस प्रकार दूर हट गया, जिस प्रकार पानीको चाहता हुआ व्यक्ति अग्निको पाकर ( उसके ) तापसे दूर हटता है / / 182 / / तत्र ब्रह्महणं पश्यन्नतिसन्तोषमानशे / निर्वर्ण्य सर्वमेधस्य यज्वानं ज्वलति स्म सः // 183 / / तत्रेति / सः कलिः, तत्र पुरे, ब्रह्महणं ब्राह्मणं घातयन्तम् , जनमिति शेषः / 'ब्रह्मऋगवृत्रेषु-' इति क्विप / पश्यन् विलोकयन् , अति अतितराम , सन्तोष हर्षम् , आनशे प्राप इत्यर्थः / अथ तं ब्रह्महणं सर्वमेधस्य सर्वमेधाख्ययागस्य, यज्वानं विधिनेष्टवन्तम् , यथाविधि होतारमित्यर्थः। निर्वये निश्चित्य, ज्वलति स्म सन्तप्तोऽभूत् , 'ब्रह्मणे ब्राह्मगमालभेत' इति श्रुत्या सर्वमेधे ब्राह्मणादिसर्वालम्भविधानात् तस्य धर्मत्वादिति भावः // 183 // ___वहां पर वह ( कलि ) ब्रह्मघातीको देखता हुआ अत्यन्त सन्तोष को प्राप्त किया, किन्तु उसे विधिपूर्वक किये जाते हुए सर्वमेधयश निश्चितकर अर्थात् जानकर ' ज्वरात ( सन्तप्त ) हो गया // 183 // यतिहस्तस्थितैस्तस्य राम्भैरारम्भि तर्जना / दुर्जनस्याजनि क्लिष्टिहिणां वेदयष्टिभिः॥ 184 // यतीति / दुर्जनस्य खलस्य, तस्य कलेः, यतीनां मस्करिणाम , परिव्राजकानामित्यर्थः / हस्तेषु, करेषु, स्थितैः वर्तमानैः, राम्भैः वेणुदण्डैः, 'त्रिदण्डेन कमण्डलु' इति स्मृतेरिति भावः / 'राम्भस्तु वैणवः' इत्यमरः। तर्जना त्रासनम् , आरम्भि 71 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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