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________________ एकविंशः सर्गः। 1401 उसके शत्रुओंको स्वामीके सामने भस्म करता है। नलने गुग्गुलु तथा कर्पूर जलाकर शिवजीको धूप समर्पण किया है ] // 34 // तन्मुहूर्त्तमपि भीमतनूजाविप्रयोगमसहिष्णुरिवायम् | शूलिमौलिशशिभीततयाऽभूद् ध्यानमूर्छननिमीलितनेत्रः // 35 // तदिति / अयं नलः, तन्मुहूर्तमपि तस्मिन् मुहूर्तेऽपि, 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' इति द्वितीया / शूलिनः अयमानशम्भोः, मौलिशशिनः शिरोभूषणचन्द्रसकाशात् , भीततया भीतत्वेन हेतुना, शशिनो विरहिपीडकत्वादिति भावः। भीमतनूजाया दमयन्त्याः, विप्रयोगं विरहम, असहिष्णुरिव सोढुमक्षमः सन् इव, ध्यानेनैव हृदि देवमूर्तिचिन्तनरूपेणैव, मूच्र्छनेन मूर्छारोगेण,सर्वेन्द्रियार्थोपरमत्वसाम्यात् ध्यानस्य मूर्छासाम्यत्वं बोद्धव्यम् / निमीलिते मुद्रिते, नेत्रे लोचने, यस्य सः तादृशः, अभत् अजायत / धूपदानानन्तरं हरध्यानमकरोदिति निष्कर्षः // 35 // उस ( पूजा ) समयमें भी दमयन्तीके विरहको नहीं सहनेवालेके समान इस ( नल ) ने शूलधारी (शिवजी) के मस्तकस्थित चन्द्रमासे डरे हुए-से .ध्यानरूप मूर्छासे नेत्रोंको बन्द कर लिया / [चन्द्र विरहियोंको सन्तप्त करता है, अतः उससे मानो डरे हुए नलने ध्यानरूप मूर्छासे नेत्रोंको बन्द कर लिया। जिसे शूलको धारण करनेवाला व्यक्ति ( पक्षा०-शिवजी ) भी मस्तक पर धारण करता है, उस चन्द्रसे नलका भययुक्त होना उचित ही है / नलने नेत्रोंको बन्दकर शिवजीका ध्यान किया / / 35 / / दण्डवद् भुवि लुठन् स ननाम त्र्यम्बकं शरणभागिव कामः। आत्मशस्त्रविशिखासनबाणान् न्यस्य तत्पदयुगे कुसुमानि // 33 // दण्डवदिति / आत्मनः स्वस्य, शस्त्राणि आयुधस्वरूपान् , विशिखासनं धनुः, बाणान् विशिखान् च, कुसुमानि पुष्पाणि, कामस्य धनुर्बाणयोः पुष्पमयत्वादिति भावः। तस्य त्र्यम्बकस्य, पदयोः चरणयोः, युगे द्वये न्यस्य समर्प्य, शरणभाक आश्रयार्थी, कामः कन्दर्प इव, सः नलः, दण्डवत् दण्डसहशः, भुवि भूमी, लुठन् पतन् , त्र्यम्बकं त्रिलोचनम् , ननाम प्रणतवान् // 36 // शिवजीके चरणद्वयमें पुष्पसमर्पण कर नलने दण्डवत् साष्टाङ्ग प्रणाम किया तो ऐसा मालूम पड़ता था कि कामदेव शिवजीसे पराजित होने के कारण अपने पुष्पमय धनुषबाणको उन (शिवजी) के दोनों चरणों में रखकर (क्षमायाचनार्थ) साष्टांग प्रणाम कर शरणागत हुआ है। [इससे नलका साक्षात् कामदेवके समान सुन्दर होना सूचित होता है। लोकमें भी दुर्बल शत्रु बलवान् शत्रुके समक्ष अपने अस्त्र-शस्त्रको समर्पितकर क्षमायाचना करता हुआ उसके चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम कर शरणागत होता है। नलने शिवके चरणों में पुष्पाअलि देकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ] // 36 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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