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________________ 838 नैषधमहाकाव्यम् / महेन्द्रादिचतुष्टयस्य त्यागं पुराकृतं परिहारं, किं किमर्थम् , अभ्यनन्दत् ? अन्वमोदत ? माञ्च किं किमर्थं, नले विषये प्रेरयामास ? यद्यस्याः मदनुजिघृक्षा न स्यादिति भावः / तत् / तस्मात् , अस्याः देव्याः, सूक्तिः साधूक्तिः, अत्याजीत्यादि सत्योपदेशः इत्यर्थः, का ? मम प्रमोहः कः ? अहो घण्टापथे स्खलितमिति भावः // 15 // (इस सरस्वती देवीने ) 'अत्याजि-' इत्यादि चार ( 13328-30) इलोकोंसे या 'त्वं यार्थिनी-' इत्यादि दो ( 13.32-33 ) श्लोकोंसे इन्द्रादि चारों के त्यागका क्यों अनुमोदन किया ? और नलमें ( या-नलमें ही) मुझको क्यों प्रेरित किया ? ( एक ही वाक्यसे उक्त दोनों कार्य किया यह आश्चर्य है ), इस कारण इस ( सरस्वती देवी ) की यह कौन-सी सूक्ति है ? अर्थात् यह लोकोत्तर वर्णन करने की चतुरता है तथा मेरा कौन-सा मोह है अर्थात् यह मेर। मोह भी लोकोत्तर है ? [ इस प्रकार सरस्वती देवीके स्पष्ट कहने पर भी मुझे मोहमें पड़ना नहीं चाहता था। अथच-सरस्वतीने इन्द्रादिके त्याग का अनुमोदन क्यों किया ? तथा नलके लिए मुझे प्रेरित क्यों किया ? अर्थात् दोनों ही कार्य मेरे ऊपर अनुग्रह होनेसे किये ] // 15 // परस्य दारान् खलु मन्यमानरस्पृश्यमानाममरैर्धरित्रीम् / भक्तयेव भत्त श्चरणौ दधानां नलस्य तत्कालमपश्यदेषा / / 16 / / अथ भूमिस्पर्शादिभिः षडभिः चिह्नः सा नलज्ञानप्रकारमाह-परस्येत्यादि / परस्य दारान् मन्यमानेरिव परभार्या इति बुध्यमानेरिवेत्युत्प्रेक्षा, राजदारत्वात् भुव इति भावः; 'भार्या जायाऽथ पुं भूम्नि दाराः' इत्यमरः, अमरः अस्पृश्यमानां, पराङ्गनास्पर्शनिषेधादिति भावः, भक्त्येव पतिभक्त्या इवेत्युत्प्रेक्षा, भत्तु पत्युः, नलस्य चरणी दधानः धरित्रीम् एषा दमयन्ती, तत्कालं तस्मिन् काले, अत्यन्तसंयोगे द्वितीया अपश्यत् ; देवा हि भूमि न स्पृशन्ति अयन्तु स्पृशन्तीत्येतदेकं तावञ्चिह्नमिति भावः॥ 16 // ____ उस समय ( इन्द्रादिके प्रसन्न होने पर इस ( दमयन्ती ) ने मानो दूसरेकी स्त्री मानते हुए देवोंसे अस्पृष्ट ( नहीं स्पर्श की गयी ) तथा भक्तिसे ही पति नलके चरणोंको धारण करती हुई पृथ्वीको देखा [ यहाँ पर नलको पृथ्वीपति होनेके कारण नलपत्नी पृथ्वीको देवोंद्वारा परपत्नी-स्पर्श धर्मविरुद्ध होनेसे स्पर्श नहीं करने तथा पृथ्वीद्वारा अपने पति नलके चरणोंको धारण अर्थात् स्पर्श करनेको उत्प्रेक्षा की गयी है / दमयन्तीने देवोंको भूमिसे कुछ ऊपर तथा नलको भूमि पर स्थित देखा ] // 16 // सुरेषु नापश्यदवैक्षताणोनिमेषभुर्वीभृति सम्मुखे सा। इह त्वमागत्य नले मिलेति संज्ञानदानादिव भाषमाणम् / / 17 / / सुरेष्विति / सा दमयन्ती, सुरेषु इन्द्रादिषु, अक्षणोः निमेषं अपश्यत् , सम्मुखे स्वाभिमुखस्थिते, उर्वीमृति नृपे नले तु, हे दमयन्ति ! त्वम् इह आगत्य इतः एत्य,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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