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________________ चतुर्दशः सर्गः। 837 स्पष्ट करने के लिए समर्थ थीं। 'त्वं याऽर्थिनी' (13 / 32) इससे प्रथम व्याख्यानमें नलका ही स्पष्ट प्रतिपादन करनेसे दूसरे व्याख्यान द्वारा देवोंको सन्तुष्टकर (या-छोड़कर) 'नलको ही तुम स्वीकार करो' इस प्रकार नलका ही प्रतिपादन करनेसे 'देवः पतिः' (13.33 ) इसके द्वारा भी .लोकपालोंका अंश होने के कारण नलके ही पाचोंका सम्भव होनेसे तथा 'यद्येनमुज्झसि वरः कतरः परस्ते' (13 / 33 ) के द्वारा भी नलको स्वीकार करने के लिए ही बार-बार सरस्वती देवीके प्रेरणा करने पर भी मैंने बहुत बड़े मोहमें पड़कर उस देवीके अभिप्रायको नहीं समझा यह आश्चर्य है // 13 // श्लिष्यन्ति वाचो यदमुरमुष्याः कवित्वशक्तेः खलु ते विलासाः / भूपाललीलाः किल लोकपालाः समाविशन्ति व्यतिभेदिनोऽपि / / 14 / / अत्याजीत्यादिश्लोकचतुष्टयं नलमेवाचष्टे, किन्तु भङ्गया इन्द्रादिचतुष्टयमपि स्पृशतीत्याह, श्लिप्यन्तीति / अमुष्याः देव्याः, अमूः वाचः अत्याजीत्यादयो गाथाः, श्लिप्यन्ति नलमिवेन्द्रादीनपि स्पृशन्ति, इति यत् , ते तच्छलेषणमित्यर्थः, विधेयी. भूत विलासस्य प्राधान्यात्तल्लिङ्गसङ्ख्या निर्देशः; कवित्वशक्तेः काव्यरचनानैपुण्यस्य, विलासाः विकासाः, खलु कवित्वधर्मोऽयं यदन्यपरेणापि शब्देन श्लेषभङ्गया अर्थान्तरप्रत्यायनम्, अलङ्कारत्वान्न तु तात्पर्यमिति भावः / तथा च श्लेषमहिम्ना तेषां नलसारूप्याच्च तत्परत्वभ्रान्तिरित्याह-भूपालस्य नलस्य, लीला इव लीला येषां ते तद्पधारिणः, लोकपालाः व्यतिभेदिनः नलात् भेदवन्तोऽपि, समाविशन्ति ___इस ( सरस्वती देवी ) के ये वचन ( "अत्याजि-'' इत्यादि चार श्लोक 13.27-30) अनेकार्थक होने से ) जो श्लिष्ट ( नलार्थक होते हुए भी इन्द्रादि-देवार्थक भी ) होते हैं, वे ( देवीकी) कवित्वशक्ति के विलास ( विस्तार ) हैं ( उच्चतम कवित्व शक्तिके विना किसी एकके लक्ष्यसे कहे गये श्लोक उससे भिन्नको लक्षित नहीं कर सकते ); क्योंकि राजा नलकी लीलावाले अर्थात् नलका रूप धारण किये हुए लोकपाल ( इन्द्रादि चारो देव, बुद्धि में ) प्रविष्ट होते ( समझमें आते ) हैं / अथवा-परस्पर ( या-नलसे ) भेद वाले भी लोकपाल राजा ( नल ) आकारको धारण करनेवाले श्लोकोंमें इलेष शक्तिके द्वारा मूर्तिमान् होकर दिखलायी पड़ते हैं। [परस्परमें आकृति कर्म, स्थानादिके कारण भिन्न भी ये इन्द्रादि चारो लोकपाल अंश द्वारा राजा नल बनकर एक हो रहे हैं, अतः लोकपालोंका अंश होनेमें नलके लिए ही प्रयुक्त किये गये सरस्वती देवी के वचन श्लेषको कहते हैं यह कवित्वशक्तिका प्रभाव है ] // 14 // त्यागं महेन्द्रादिचतुष्टयस्य किमभ्यनन्दत् क्रमसूचितस्य ? | किं प्रेरयामास नले च तन्मां का सूक्तिरस्या मम कः प्रमोहः ? // 15 / / स्वव्यामोहमेव प्रकटयति-त्यागमिति / इयं देवी क्रमसूचितस्य क्रमनिर्दिष्टस्य,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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