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________________ 836 नैषधमहाकाव्यम्। अवस्थामें ) चिन्ता-रूपी समुद्रका जलजन्तु ( अथवा-( अब निश्चय हो जाने पर भी उसके प्राप्त्युपायरूप-) चिन्ता-समुद्रके जलजन्तुरूप चित्तसे यह ( 13 / 12-15 ) कहने लगी अर्थात् मनमें ही सोचने लगी // 11 // सा भङ्गिरस्याः खलु वाचि काऽपि यद् भारती मतिमती मतीयम् / श्लिष्टं निगद्याऽऽहत वासवादीन् विशिष्य मे नैषधमप्यवादीत् / / 12 / / अथ चित्तेन यदाख्यत् तदेवाह, सेति / अस्याः देव्याः, वाचि सा वक्ष्यमाणा, काऽपि अपूर्वा, भङ्गिः प्रयोगप्रकारः, खलु, यत् यस्मात् भङ्गिविशेषात् , इयं पुरोवतिनी, मूतिमती विग्रहवती, सती सत्यवादिनी भारती वाग्देवता, श्लिष्टं श्लिष्टार्थ यथा तथा, निगद्य उक्त्वा, वासवादीन् , इन्द्रादीन् , भाहत आहतवती, तानेव उपाचरदेवेत्यर्थः, दृङो लुङि 'हस्वादङ्गात्' इति सलोपः, अथ च नैषधं नलमपि, मे मां, विशिष्य इन्द्रादिभ्यो विशेष कृत्वा, अवादीत् , किन्तु अहमेव न वेद्मीति भावः // ___ इप्स ( सरस्वती देवी ) के वचनमें वह (विलक्षण ) कोई ( अनिर्वचनीय ) भङ्गी ( रचनाशैली ) है, क्योंकि शरीरिणी एवं सत्यवादिनी इस सरस्वतीने श्लेषयुक्त ( 'अत्याजि-' इत्यादि 13 / 27 / 30 श्लोकों ) को कहकर इन्द्रादिका आदर किया और विशेषकर (इन्द्रादिसे अधिक, या इन्द्रादिसे भिन्नकर ) मुझसे नलको भी कह दिया। ( अथवा-वह जगत्प्रसिद) शरीरिणी सरस्वती देवी यही है, क्योंकि इसके वचनमें कोई ( अनिर्वचनीय अर्थात् अलौकिक रचनाशैली है,.......) // 12 // जग्रन्थ सेयं मदनुग्रहेण वचःस्रजः स्पष्टयितं चतस्रः / द्वे ते नलं लक्षयितुं क्षमेते ममैव मोहोऽयमहो! महीयान् / / 13 / / जग्रन्थेति / सा इयं देवी, मदनुग्रहेण मयि अनुग्रहबुद्धया, स्पष्टयितुं नलं व्यक्तीकर्तुं, चतस्रः वचःस्रजः वचनमालिकाः, जग्रन्थ ग्रथितवती, तत्र ते इन्द्राग्नि प्रत्यायिके, द्वे आये द्वे एव वचःस्रजौ, नलं लक्षयितुम् अभिव्यंजयितुं, क्षमेते शक्नुतः, ताभ्यामेव स्फुटतरं प्रतीतेरन्ये द्वे वृथेति भावः; किन्तु ममैव अयं महीयान् महत्तरः, मोहः, अहो ! आश्चर्य यत् चतसृभिरपि न वेद्मीति भावः // 13 // . उस ( जगत्प्रसिद्ध ) इस ( सरस्वती देवी) ने मेरे ऊपर अनुग्रहसे ( नलको ) स्पष्ट करने के लिए जिन चार वचनमालाओं ( 'अत्याजि-' 13 / 27 / 30 ) को गूथा अर्थात् जिन चार श्लोकोंको रचा, ( उनमें ) वे दो (..."महोमहेन्द्रः' (13 27 ), .."नलमुदीरितमेव' ( 13 / 28 ), अथवा-..."नामग्राहं मया नलमुदीरितमेवमत्र' ( 13 / 28 ), "नले सहजरागभरात' (13 / 29 ) व वनमाला (श्लोक ) नलको लक्षित ( स्पष्ट ) करनेके लिए समर्थ थी उसके लिए चारकी आवश्यकता नहीं थी, खेद है कि मेरा ही यह बड़ा भारी मोह था ( कि मैं इतना स्पष्ट सरस्वती देवीके कहने पर भी नलका निश्चय नहीं कर सकी। अथवा-पूर्वोक्त उन चार वचनमालाओंको स्पष्ट करने के लिए जो दो ('त्वं याऽथिनी' (14 / 32 ), 'देवः पतिः' (13333), वचनमालाओंको सरस्वती देवीने रचा, वे दो नलको
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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