SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्दशः सर्गः / 835 जो ( 'किं ते- ( 13.30 ) गाथा वरुणके साथ ही समान अर्थ रखती थी, ( इन्द्र, अग्नि और यमके नहीं ), जो ( 'अत्याजि-' 13 / 27 ) गाथा इन्द्र के साथ ही समान अर्थ वाली थी ( अग्नि, यम और वरुणके नहीं ); जो ('यच्चण्डिमा- 13 29) गाथा यमके साथ हो समान अर्थवाली थी ( इन्द्र, अग्नि और वरुणके नहीं ) तथा जो ( येनामुना-१३ 28) गाथा अग्निके साथ ही समान अर्थ रखती थी ( इन्द्र, यम और वरुणके नहीं); नलसम्बन्धिनी सम्मिलित उन चारों ( 13 / 27-30 ) गाथाओंको इन्द्रादि देवोंके प्रसन्न हो जानेपर दमयन्तीने नलके विशेष अर्थात् इन्द्रादिसे भेदज्ञानके लिर समझा [ इन्द्रादिसम्बन्धी अर्थ क्रमशः एक-एक गाथामें तथा नल-सम्बन्धी अर्थ चारों गाथाओं (13 2730 ) में होनेसे उन चारों गाथाओंको इन्द्रादि चारों देवोंसे नलके भेद की बतलानेवाली माना / अथवा-उन चारों गाथाओंसे नलका निश्चय हो जानेपर 'नान्तरीयक' न्यायसे उसीसे अन्य देवोंका भी निश्चय (ज्ञान) किया। अथवा-सम्मिलित चार गाथाओंको नल-भिन्न इन्द्रादिके भेदके लिए माना / अथवा-जो ('देवः पतिः- 13333) गाथा वरुणके साथ भी, इन्द्र के साथ भी, यमके साथ भी और अग्निके साथ भी समान अर्थवाली मिलित पांच अर्थोवाली उस गाथाको इन्द्राद्रि देवोंके प्रसन्न हो जाने पर दमयन्तीने नलके विशेष के लिए माना अर्थात् पहले पञ्चनलो के साथ समान अर्थवाली भी उस गाथाको तब ( इन्द्रादि देवों के प्रसन्न होकर दमयन्तीको सद्बुद्धि देने, या अपना-अपना रूप धारण कर लेने पर ) दमयन्तीने केवल नलका अर्थ बतानेवाली माना ] // 1 // निश्चित्य शेषं तमसौ नरेशं प्रमोदमेदस्वितराऽऽन्तराऽभूत् / देव्या गिरां भावितभगिराख्यञ्चित्तेन चिन्तार्णवयादसेदम् // 11 // निश्चित्यति / अमी दमयन्ती, शेषं पञ्चम, तं प्रसिद्धं, नरेशं नैषधं, निश्चित्य प्रमोदमेदस्वितरम् आनन्दमेदुरतरम्, आन्तरम्, अन्तरङ्ग यस्याः सा तादृशी अभूत् / अथ देव्याः गिरी भाविता परिज्ञाता, भङ्गिः प्रयोगचातुरीविशेषः यया सा तादृशी सती, चिन्तार्णवयादसा नलप्राप्त्युपायचिन्तासागरजलग्राहभूतेन, चित्तेन इदं वक्ष्यमाणम्, आख्यत् अवोचत् / ख्यातेलु डि 'अस्यतिवक्तिख्यातिभ्योऽङ' इति च्लेरङादेशः / अत्र चित्ते यादस्त्वारोपणात् रूपकालङ्कारः॥ 11 // ___वह ( दमयन्ती ) शेष ( इन्द्रादि चारो देवोंसे भिन्न पाँचवें) उस ( सुप्रसिद्ध ) नरेश मनुष्योंका राजा नल, अथवा-र-ल' का अभेद मानकर 'नलेश' अर्थात् राजा-नल का निश्चयकर अत्यन्त हर्षले उल्लसित हृदयवाली अर्थात् अतिशय प्रसन्न हुई। (फिर सरस्वती) देवीके वचनों के श्लेषोक्ति क्रम ( अथवा-वाग्देवीके भङ्गी ( श्लेषमय रचना-प्रकार ) को विचार करनेवाली इस ( दमयन्ती ) ने ( पहले देवों तथा नलके विषय में सन्देह रहनेकी 'एकैकवृत्तेः-' (14 / 10) इति गाथाद्वयेन गतार्थत्वादियं गाथा नास्त्येव इति सुखावबोधा / अत एच जीवातौ न व्याख्याता इति /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy