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________________ सप्तदश सर्गः। 1043 कामो नालजत / क इव-तमोगुणजुषा आश्रिततमोगुणेन हरेण संहारकारकेण रुद्रेण प्राप्तकालतया प्राक् हतं ग्रस्तं कुरुसैन्यं पश्चाद्विनाशयबर्जुन इव / मया इतमित्यभि. मानेन लज्ज नाप। अन्येन हतस्य पश्चात् स्वेन हनने हि लज्जा युक्ता / सा तु कामस्य न जातेत्यर्थः। मूढ एव कामपरवशो भवतीत्यर्थः। ईश्वरः प्राक्कुरुसैन्यं शूलेन हन्ति, पश्चाच्छरेणार्जुन इति द्रोणपर्वकथा / कुलकम् // 1 // तमोगुणप्रधान संहारक शिवजीसे पहले हत (ग्रस्त ) कुरुसेनाको जीतते हुए अर्जुनके समान तमोगुणी जिस ( मोह ) से पहले नष्ट (ग्रस्त ) संसारको जीतता हुआ कामदेव लज्जित नहीं हुआ। [ 'ब्रह्मा सत्वगुणी सृष्टिकर्ता, विष्णु रजोगुणी पालनकर्ता और शिव तमोगुणी संहारकर्ता हैं। ऐसा शास्त्रप्रमाण है / अत एव तमोगुण प्रधान शिवजी कौरवसेना को पहले मारते थे तो उसके बाद अर्जुन उसपर बाण चलाकर इसे मैंने मारा' ऐसा समझते हुए जिस प्रकार लज्जित नहीं होता था, उसी प्रकार पहले तमोगुणी मोहने ही समस्त संसारको अपने वश में कर लिया है, तदनन्तर उस जगत्को जीतता हुआ काम मैंने अपने बाणसे इसे जीता है ऐसा मानकर लज्जित नहीं होता है / वस्तुतः दूसरेके द्वारा मारे गयेको मारनेमें लज्जित होना उचित है, परन्तु कामदेव लज्जित नहीं हुआ। मोहके वशीभूत ( मूर्ख ) ही कामाधीन होता है, अतः कामदेवसे भी मोह ही प्रबल है ] // चिह्निताः कतिचिद्देवैः प्राचः परिचयादमी / अन्ये न केचनाचूडमेनःकञ्चकमेचकाः // 34 // ... चिह्निता इति / अमी पूर्वोक्तस्मरादयः, कतिचित कियत्सङ्ख्यकाः, देवैः इन्द्रादिभिः, प्राचः परिचयात् इन्द्रादीनां कामादिवशीभूतत्वेन पूर्वजातपरिचयात् , पूर्वा. नुभवजन्यसंस्कारादिति यावत् / चिह्निताः चिह्नविशेषैः परिज्ञाताः, प्रत्यभिज्ञाता इत्यर्थः। आचूडम् आशिखम् , एनःकञ्चकेन पापरूपकृष्णवर्णावरकवस्त्रेण, मेचकाः श्यामवर्णाः, अन्ये अपरे च, कामादिव्यतिरिक्ता इत्यर्थः। केचन केचित् , न, देवैः चिहिताः इति पूर्वेणान्वयः, नीलवस्त्रावृतशरीरत्वेन 'अमी ते' इति न प्रत्यभिज्ञाताः इत्यर्थः॥३४॥ ___ इन ( कामादि ) कुछको इन ( इन्द्रादि देवों) ने पूर्वपरिचयके कारण चिह्नविशेषोंसे पहचान लिया तथा चोटीतक पापरूप कञ्चुकसे कृष्णवर्णवाले कुछ दूसरों (कामादिसे भिन्नों या तदुपजीवी बौद्धादिकों ) को नहीं पहचाना। [इन्द्रादि देवोंको भी कामादिके वशीभूत होनेसे पूर्वपरिचय होना तथा उस कारण उन्हें पहचानना और चोटी (शिर ) तक कृष्णवर्णके वस्त्रसे ढके रहने के कारण कुछको नहीं पहचानना भी उचित है, क्योंकि काले वस्त्रसे चोटी तक ढके हुए व्यक्तिको पहचानना असम्भवप्राय है ] // 34 // तत्रोदीर्ण इवार्णोधौ सैन्येऽभ्यर्णमुपेयुषि / कस्याप्याकर्णयामासुस्ते वर्णान् कर्णकर्कशान् / / 35 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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