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________________ 1044 नैषधमहाकाव्यम् / ___ तत्रेति / उदीणे उच्चलिते, अर्णोधौ अम्भोधौ इव, तत्र तस्मिन् , सन्ये स्मराधनुः गते सैन्ये, अभ्यर्णम् उपेयुषि समीपं गते सति, ते देवाः, कस्यापि अपरिज्ञातशरीरस्य कस्यचित् पुरुषस्य, चार्वाकस्येति भावः। कर्णकर्कशान् श्रुतिकठोरान् , वर्णान् वाक्यानि, आकर्णयामासुः शुश्रुवुः // 35 // मर्यादाहीन समुद्र के समान उस सेना (जन-समूह ) के समीप आनेपर उन लोगों (इन्द्रादिदेवों ) ने किसी (अपरिचित पुरुष-चार्वाक) के कर्णकटु वर्गों (वचनों) को सुना / / ग्रावोन्मजनवद्यज्ञ-फलेऽपि श्रुतिसत्यता / का श्रद्धा ? तत्र धीवृद्धाः ! कामाद्धा यत् खिलीकृतः / / 36 // अथ सप्तचत्वारिंशता श्लोकैस्तानेव वर्णानाह-ग्रावेत्यादि / धीवृद्धाः ! हे ज्ञान. वृद्धाः! यज्ञफले ज्योतिष्टोमादियज्ञाद्यनुष्ठानस्य फलभूतस्वर्गादौ विषये, श्रतिसत्यता वेदवाक्यस्य प्रामाण्यं, ग्रावोन्मजनवत् पाषाणप्लवनवत् , पाषाणप्लवनं यथा न प्रत्यक्षं, तद्वत् यज्ञफलं स्वर्गादिकमपि न प्रत्यक्षम् , अत एव तत्प्रतिपादिका अति. रपि 'ग्रावाणः प्लवन्ते' इति वाक्यवत् न प्रमाणमित्यर्थः / अपिशब्दोऽत्र निन्दायाम्; श्रुतिरियं मिथ्या इत्यर्थः / तत्र तत्फलप्रतिपादिकायां श्रुतौ, का श्रद्धा ? युष्माकं कः विश्वासः ? यत् यतः, कामाद्धा तृतीयपुरुषार्थमार्गः, यथेच्छव्यवहारमार्ग इति यावत् / खिलीकृतः प्रतिरुद्धः, श्रुत्वा इति शेषः। 'द्वे खिलाप्रहते समे' इत्यमरः / सिद्धं प्रमाणं विहाय तद्विरुद्धो न श्रद्धेयम् इत्यर्थः // 36 // ___ हे ज्ञानवृद्धो ! ( ज्योतिष्टोमादि ) यज्ञोंके फल ( स्वर्गादि ) के विषयमें वेदको सत्यता पत्थरके ( पानीमें ) तैरने के समान है, ( अतएव ) उसमें क्या विश्वास है, जो काममार्गको (तुम लोगों ) ने व्यर्थ कर दिया है। [जिस प्रकार पत्थर का पानीमें तैरना नहीं देखा जाता, उसी प्रकार ज्योतिष्टोमादि यज्ञों का फल स्वर्गादि भी प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता, अत एव तत्प्रतिपादिका अति ( वेद ) भी सत्य नहीं है, तब उसमें विश्वास भी नहीं करना चाहिये, अतएव वेदवचनके अप्रामाणिक होनेसे यज्ञकर्ता यजमान, ऋत्विक आदिको काम सेवन छोड़कर ब्रह्मचर्यादि नियमसे रहना व्यर्थ है। प्रत्यक्षसिद्ध प्रमाणको छोड़कर उसके विपरीत प्रमाणमें श्रद्धा करना मूर्खता है। 'धीवृद्धाः' ( ज्ञानवृद्ध ) व्यङ्गय वचन है अतः उसके विरुद्धार्थक होनेसे देवों को मूर्ख कहकर सम्बोधित किया गया है ] // 36 / / केनापि बोधिसत्त्वेन जातं सत्त्वेन हेतुना / यद्वेदमर्मभेदाय जगदे जगदस्थिरम् / / 37 / / केनेति / बोधिसत्त्वेन बुद्धेन / 'बुद्धस्तु श्रीधनः शास्ता बोधिसत्वो विनायकः' इति यादवः। केनापि अवाच्यमहिम्ना, जातं प्रादुर्भूतम् / भावे क्तः / अतः स एव श्रद्धेयवचन इति भावः / यत् यस्मात् , वेदस्य कालान्तरभाविफलभोगिनित्यात्म 1. 'फलेति' इति पाठान्तरम्। 2. 'जगाद' इति पाठन्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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