________________ सप्तदशः सर्गः। साधकश्रुतेः, मर्मभेदाय रहस्योद्घाटनाय,प्रामाण्यभङ्गाय इति यावत् / सत्त्वेन हेतुना 'यत् सत् तत् क्षणिकम्' इति कारणेन , जगत् इदं विश्वम् , अस्थिरं क्षणिकम् , इति जगदे गदितम् / अयं भावः-जगतः क्षणिकत्वे सिद्धे आत्मनोऽपि जगदन्तर्गततया क्षणिकत्वं सिद्धमेव, ततश्च येनात्मना पापं कृतं तस्यात्मनः क्षणोत्तरं नाशात् कथं तस्य फलभोगसम्भवः ? इति आत्मनः कालान्तरभाविफलभोगित्वस्यासम्भवात् तद्बोधक श्रुतेः कथं प्रामाण्यम् ? कथं वा पापात् भयम् ? अतो न पारलौकिकसुखा. शया हस्तगतम् ऐहिकं सुखं हातव्यमिति // 37 // बुद्ध अनिर्वचनीय महिमावाला हुआ, क्योंकि वेदके रहस्य को प्रकट करने के लिए अर्थात् उसकी प्रामाणिकता नष्ट करनेके लिए 'सत्त्व के कारण संसार अनित्य है' यह कहा है। ( अथवा-अज्ञाननामा जिनभट्टारक वेदके रहस्यके भेदन करनेके लिए हुए, क्योंकि सत्त्वके कारण संसार अनित्य है, . ऐसा उन्होंने कहा ) / [बौद्धसिद्धान्त यह है कि-'जो सत् ( विद्यमान् ) है, वह अनित्य है' अतएव यह संसार भी उक्त अनुमानसे अनित्य है और संसार के अन्तर्गत ही आत्माके होनेसे वह ( आत्मा) भी क्षणिक हुआ ऐसी स्थितिमें जिस आत्माने पाप या पुण्य किया वह तो क्षणमात्रके बाद नष्ट हो गया, अतएव पाप-पुण्य का फल भोक्ता आत्मा कदापि नहीं हो सकता, इस प्रकार 'दूसरे समयमें पाप-पुण्यका फल आत्मा भोगता है। ऐसा कहने वाली श्रुति भी अप्रामाणिक सिद्ध हो जाती है, इस कारण पापसे डरकर पारलौकिक सुख पानेकी आशासे हस्तगत ऐहलौकिक सुखका त्याग नहीं करना चाहिये। यह चार्वाकभिन्न बौद्धसिद्धान्त है, अथवा-चार्वाकने ही अपने पूर्वोक्त (1736) वचनकी पुष्टि इस बौद्धमतके संवादसे की है ] // 37 // अग्निहोत्रं त्रयी तन्त्र त्रिदण्डं भस्मपुण्डकम् / प्रज्ञापौरुषनिःस्वानां जीवो जल्पति जीविकाः // 38 // __ सम्प्रति बृहस्पतिमतावलम्बनेन वैदिकं विडम्बयति अग्निहोत्रमिति / अग्निहोत्रम् अग्निहोत्राख्यो यागः, त्रयी त्रिवेदी, वेदत्रयमित्यर्थः / तन्त्रं तदर्थविचारात्मकं मीमांसाशास्त्रं, त्रिदण्डं संन्यासः / पात्रादिपाठात् नपुंसकत्वम् / भस्मनः भूतेः, भस्मकृतमित्यर्थः / पुण्डकं तिलकविशेषः, एतानि जीवः बृहस्पतिः, प्रज्ञापौरुषाभ्यां, बुद्धिपुरुषकाराभ्यां, निःस्वानां दरिद्राणां, तद्रहितानाम् इत्यर्थः / जीविकाः जीवनोपायाः, इति जल्पति ते। अतश्च नास्ति परलोकः इति निश्चयात् .यथेष्टचेष्टितमेव हित मिति भावः // 38 // अग्निहोत्र, त्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ), मीमांसा ( अथवा-वेदत्रयमें प्रतिपादित कर्मकलाप ), संन्यास, भस्मका तिलक (या-शैवव्रत ), ये सब बुद्धि के सामर्थ्य ( अथवा-बुद्धि तथा सामर्थ्य ) से हीन ( ठगकर, चोरीकर या बलात्कार ग्रहण करनेमें 1. 'त्रयीतन्त्रम्' इत्येकपदं वा।