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________________ 1042 नषधमहाकाव्यम्। ब्रह्मचारीति / ब्रह्मचारिव्रतस्थायियतयः ब्रह्मचारिवानप्रस्थभितुरूपाः, त्रयः आश्रमत्रयम् इत्यर्थः / गृहिणं गृहस्थाश्रमिणं, यथा इव, क्रोधलोभमनोभवाः क्रोध. लोभकामाः त्रयः, यं मोहम् , उपजीवन्ति आश्रित्य वर्तन्ते। मोहमूलास्ते तन्निवृत्ती तेऽपि निवर्तन्ते इति भावः // 32 // जिस प्रकार ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ तथा संन्यासी तीनों ही ( भोजन-वस्त्रादिके लिये) गृहस्थका आश्रय करते हैं, उसी प्रकार क्रोध, लोभ तथा काम तीनों ही जिम ( मोह ) का आश्रय करते हैं ( 'उस मोहको देवोंने उस जन-समूहमें देखा ऐसा सम्बन्ध पूर्व ( 17 / 29) लोकसे समझना चाहिये ) / [ मोहसे हो क्रोध, लोभ तथा काम होते हैं ] // 32 / / जाग्रतामपि निद्रा यः पश्यतामपि योऽन्धता / श्रुते सत्यपि जाड्यं यः प्रकाशेऽपि च यस्तमः / / 33 / / जाग्रतामिति / यः मोहः, जाग्रतां प्रबुद्धानाम् अपि, निद्रा निन्द्रास्वरूपः, निद्राया इव सदसज्ञानविलोपकत्वादिति भावः। यः मोहः, पश्यतां चक्षुष्मताम् अपि, अन्धता तदाहित्यम्, अन्धो यथा :सुपथं कुपथं वा निश्चेतुं न शक्नोति तद्वदिति भावः। यः मोहः, ते शास्त्रे, शास्त्रज्ञाने इत्यर्थः। सत्यपि विद्यमानेऽपि, जाडयं, मोढयं, जडवत् शास्त्रविरुद्धकार्यकरणादिति भावः / यश्च मोहः, प्रकाशे आतपे, रौद्रे सत्यपि इत्यर्थः। तमश्च अन्धकारः, अन्धकारे यथा वस्तुज्ञानं न भवति तद्वदिति भावः / निद्रादिचतुष्टयकार्यकारित्वात् तद्वत् जागरचतुरादिभिरनिवर्त्यत्वाच्च प्रसिद्धनिद्रादिचतुष्टयविलक्षणः कोऽपि तत्समष्टिरिति निष्कर्षः // 33 // ___ जो ( मोह ) जागते ( सावधान रहते ) हुए लोगोंको भी निद्रा (निद्राके समान भलेबुरेके ज्ञानका नाशक ) है, जो ( मोह ) देखते हुए लोगोंका भी अन्धापना ( अन्धेके समान भले-बुरे मार्गको ज्ञानसे शून्य करनेवाला ) है, जो ( मोह ) शास्त्र (श्रवण ) होनेपर भी मूर्खता ( मूर्खके समान शास्त्रविरुद्ध कार्य में प्रवृत्त करनेवाला ) है और जो ( मोह ) प्रकाशमें भी अन्धकार ( अन्धकारके समान ग्राह्य-त्याज्य पदार्थोके ज्ञानसे रहित करनेवाला ) है; ( 'उस मोहको इन्द्रादि चारों देवोंने उस जन-समूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व ( 17 / 29) श्लोकसे करना चाहिये ) / [ निद्रादि चारोंके कार्यको करनेसे तथा उस प्रकार जागरणादिके द्वारा अनिवार्य होनेसे लोकप्रसिद्ध निद्रादिसे विलक्षण तत्समुदायरूप अनिर्वचनीय वह मोह है ] // 33 // (कुरुसैन्यं हरेणेव प्रागलजत नार्जुनः।। हतं येन जयन् कामस्तमोगुणजुषा जगत् / / 1 // ) . कुर्विति / तमोगुणजुषाऽज्ञानरूपतमोगुणसेविना येन मोहेन हतं जगत् जयन् 1. अयं श्लोको 'जीवातौ' न व्याख्यातः, इति मयाऽत्र 'प्रकाश' व्याख्यानमेवो. पन्यस्तमित्यवधेयम् / 2. इदं 'प्रकाश' व्याख्यानमिति बोध्यम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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