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________________ सप्तदशः सर्गः / 1041 अन्तः प्रविष्टा इत्यर्थः। बालिशाः मूर्खाः, श्वः श्वः आगामिदिवसे आगामिदिवसे, परश्वः इत्यर्थो वा। प्राणानां जीवनस्य, प्रयाणे निष्क्रमणेऽपि जीवनत्यागेऽपि, स्मरद्विषं कामारिम् ईश्वरं शङ्करं, न स्मरन्ति न चिन्तयन्तीत्यर्थः // 30 // जिस (मोह ) के अनुचर कुटुम्बरूपी पङ्क में मग्न ( 'यह बालक क्या करेगा ? यह स्त्री क्या करेगी ? इस खेत, उद्यान आदिका क्या होगा ?' इत्यादि कुटुम्बकी चिन्तामें ही फंसा हुआ ) मूर्ख ( अथवा-स्वयं शानशून्य होनेसे दूसरेके सदुपदेशको नहीं स्वीकार करनेके कारण बालक ) कल कल अर्थात् कल और परसों (पाठा०-निरन्त) जीवके निकलते ( मरते ) रहनेपर भी शङ्करजीका स्मरण नहीं करते अर्थात् 'उत्पन्नका विनाश अवश्यम्भावी है' इस नीतिके अनुसार रोगी नहीं रहनेपर या सन्निपातादि असाध्य रोगके कारण मृत्युके सन्निहित रहनेपर भी उक्त प्रकारसे कुटुम्बके लिये ही चिन्तित रहते हुए लोकसमुद्रतारक शिवजीका स्मरण नहीं करते, ( ऐसे 'मोह को उन इन्द्रादि चारों देवोंने उस जन-समूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व ( 17 / 29 ) श्लोकसे करना चाहिये) // 30 // पुंसामलब्धनिवोणज्ञानदीपमयात्मनाम् / अन्तम्ापयति व्यक्तं यः कज्जलवदुज्ज्वलम् / / 31 / / पुंसामिति / यः मोहः, अलब्धः अप्राप्तः, निर्वाणज्ञानदीपमयः निर्वाणज्ञानं मोक्षविषयिणी बुद्धिः, तदेव दीपः प्रकाशकत्वात् प्रदीपः, तन्मयः तदात्मकः, आत्मा स्वभावः यैः तेषाम् अनात्मज्ञानां, विषयासक्तानामित्यर्थः / पुसाम् उज्ज्वलं स्वभावत एव निर्मलम् , अन्तः अन्तःकरणं, कजलवत् अञ्जनवत् , व्यक्तं स्फुटं, म्लापयति मलिनीकरोति मोक्षसाधनात्मसाक्षात्कारविघातकोऽयं दुरात्मेत्यर्थः // 31 // जो ( मोह ) मोक्ष-साधक ज्ञानरूपी दीपकको नहीं प्राप्त किये हुए अर्थात् अद्वैतज्ञानहीन (अथवा-अविनष्ट ज्ञानदीपकयुक्त आत्मावाले ) पुरुषोंके स्वभावतः निर्मल अन्तःकरण ( पक्षा०-मध्यभाग ) को कज्जलके समान स्पष्टतः मोहित (कालिमायुक्त) कर देता है ( 'ऐसे मोहको उन देवोंने उस जनसमूहमें देखा' ऐसा सम्बन्ध पूर्व (17 / 29) श्लोकके साथ समझना चाहिये। [जिस प्रकार जलता हुआ दीपक अपने कजलके द्वारा अत्यन्त निर्मल पात्रके भी मध्यभागको कालिमायुक्त कर देता है, उसी प्रकार जो :मोह ज्ञानदीपकयुक्त आत्मावाले मुनियों के भी अतिशय शुद्ध मन को दूषित कर देता है, क्योंकि विश्वामित्रादिका मेनकादिको देखकर मोहित होनेको कथा पुराणों में उपलब्ध होती है / अत एव मोक्षसाधन आत्मसाक्षात्कारका विनाशक यह मोह है ] // 31 // ब्रह्मचारिणेतस्थायियतयो गृहिणं यथा। त्रयो यमुपजीवन्ति क्रोधलोभमनोभवाः / / 32 // १.'-वनस्थायि-' इति पागन्तरम् ,
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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