________________ 1040 नैषधमहाकाव्यम् / सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें रहता हुआ भी जो (लोम ) याचनामें चतुर बटु (शिष्यभूत ब्राह्मणबालक ) में आचार्यत्व पाने के लिए अर्थात् उक्तरूप बटुके आचार्य बननेके लिए जिह्वामें अधिक रहता है। [ गन्धका लोभी नाक, सौन्दर्यादि रूपका लोभी नेत्र, कोमलादि स्पर्शका लोभी त्वक् इत्यादि प्रकारसे पांचों ( 'प्रकाश' के मतसे छहों) इन्द्रियोंमें रहनेवाला भी लोम जीममें अधिक निवास करता है, अर्थात लोभके कारण हो सभी लोग याचना करते समय प्रिय एवं स्तुतिपरक ( चापलूसीके ) वचन बोलते हैं। इसमें उत्प्रेक्षा की गयी है कि-जिस प्रकार गुरुकुल आदि विद्यामन्दिर में याचना ( भिक्षा मांगने ) में चतुर ब्रह्मचारी बालकका आचार्य सर्वदा निवास करता है, उसी प्रकार मानों लोभ याचनामें चतुर (प्रिय एवं चापलूसीके वचनोंको कहकर याचना करनेमें निपुण ) बालकके आचार्य वननेके लिए विद्यामन्दिर-स्थानीय उस जिह्वामें अधिक निवास करता है / अन्यत्र रहते हुए भी विद्यामन्दिर में विशेषरूपसे निवास करते हुए आचार्य शिष्योंको जिस प्रकार शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार सर्वेन्द्रियों में रहता हुआ भी जिह्वेन्द्रियमें अधिक रहता हुआ लोम लोगोंको याचना चातुर्यकी शिक्षा देता है ] // 28 // पथ्यां तथ्यामगृह्णन्तं मन्दं बन्धुप्रबोधनाम् / शून्यमाश्लिष्य नोभन्तं मोहमैक्षन्त हन्त ते / / 29 / / पथ्यामिति / ते देवाः, मन्दं मूढस्वभावम् , अत एव पथ्यां हितां, तथ्यां सत्यां युक्तियुक्तामिति यावत् / बन्धुप्रबोधनां सुहृदुपदेशम् , अगृह्णन्तम् अस्वीकुर्वाणम् , अशृण्वन्तमित्यर्थः / शून्यं यत्किञ्चित् तुच्छं वस्तु इत्यर्थः। आश्लिष्य अवलम्ब्य इत्यर्थः। न उज्झन्तं मौढ्यात् न त्यजन्तं, हन्तेति खेदे, मोहं मूर्तिमन्तं तदाख्यं चतुर्थरिपुम् , ऐक्षन्त अपश्यन् // 29 // ___ उनलोगों ( इन्द्रादि चारों देवों ) ने मन्द ( मूढ स्वभाववाले, अतएव ) हितकर एवं सत्य बान्धवोपदेश ( यह कार्य श्रेयस्कर होनेसे ग्राह्य तथा यह कार्य अनिष्टकर होनेसे त्याज्य है, इत्यादि हितकर एवं सत्य बन्धुमित्रादिके उपदेश ) को नहीं ग्रहण करते हुए तथा शून्य (तुच्छतम कोई वस्तु या अप्रामाणिक अनात्मभूत जड देह-इन्द्रियादिको अज्ञानवश आत्मस्वरूप ) मानकर ( मूर्खतावश हजारों बार समझानेपर भी नहीं छोड़ते हुए मोहको ( उस जनसमूहमें ) देखा, हाय ! खेद (या-आश्चर्य ) है / / 29 // श्वः श्वः प्राणप्रयाणेऽपि न स्मरन्ति स्मद्विषम् / मग्नाः कुटुम्बजम्बाल बालिशा यदुपसिनः / / 30 / / श्वः श्वः इति / यदुपासिनः यस्य मोहस्य सेवकाः, अत एव कुटुम्बजम्बाले पुत्रकलनादिरूपपङ्के। 'निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽत्री शादकर्दमौ' इत्यमरः। मग्नाः 1. 'न्तमन्धम्' इति 'प्रकाश' व्याख्यातं पाठान्तरम्। 2. 'शश्वत्' इति पाठान्तरम्। 3. 'स्मरद्विषः' इति पाठान्तरम् /