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________________ 1080 नैषधमहाकाव्यम् / ( अब 'मृते कर्मफलोर्मयः ( 17152 )' इत्यादि पक्षका खण्डन करते हैं-) हे नास्तिको ! पति-सहवास आदिके होनेपर भी गर्भ आदिका धारण होना अनिश्चित होनेसे आक्षिप्त ( अर्थापतिका प्रमाणसे सिद्ध ) कर्म (धर्माधर्मरूप जन्मान्तरीय अदृष्ट) तुमलोगोंके मर्म ( हृदय ) को क्यों नहीं भेदन करता ? ( अर्थात् ऐसे प्रमाणसे सचेतत पुरुषके हृदयका भेदन होना चाहिये ) पर तुमलोगों के हृदयका भेदन नहीं होता, अत एव तुमलोग महामूर्ख या वज्रहृदय हो / अथवा-तुमलोगोंके हृदयका भेदन क्यों नहीं करता ? अथवातुमलोगों के मर्म ( नास्तिकवादात्मक दर्शनरहस्य ) अर्थात् सिद्धान्तका भेदन ( खण्डन ) नहीं करता ? अर्थात् अवश्य ही करता है। [ऋतुकालमें पतिपत्नीके सहवास होने पर भी जन्मान्तरीय अदृष्टवश सन्तान प्राप्तिका योग नहीं रहनेपर यह गर्भाधान नहीं होता, अत एव मानना पड़ेगा कि जन्मान्तरीय अदृष्ट भी सन्तानोत्पत्ति आदिमें कारण है ] // 88 // याचतः स्वं गयाश्राद्धं भूतस्याविश्य कञ्चन / नानादेशजनोपज्ञाः प्रत्येषि न कथाः कथम् ? / / 89 / / यदुक्तम् 'अन्यभुक्तैर्मृते तृप्तिरित्यलं धूर्त्तवार्त्तया' (17152 ) इत्यादि, तनोत्तरमाह-याचत इति / कञ्चन कमपि जनम् , आविश्य अधिष्ठाय, स्वं स्वकीयं, गया. श्राद्धं गयातीर्थे पिण्डदानं, याचतः प्रार्थयमानस्य, अहं पापवशात् प्रेतयोनि प्राप्तोऽस्मि, अतो मम सद्गत्यर्थं गयायां श्राद्धं त्वया कार्यमित्यादि प्रार्थयमानस्य इत्यर्थः / भूतस्य भूतयोनि प्राप्तवतः प्रेतस्य सम्बन्धिनीः, नानादेशजनोपज्ञाः नाना. देशजनाः विविध देशवासिलोका एव, उपज्ञा आद्यं ज्ञानं, प्रमाणमिति यावत् / यासां तादृशीः, तत्प्रमाणकाः इत्यर्थः / 'उपज्ञा ज्ञानभायं स्यात्' इत्यमरः। कथाः उपा. ख्यानानि, गयाश्राद्धात् अमुकस्य मुक्तिरासीत् इत्येवंरूपान् आलापान इत्यर्थः / कथं न प्रत्येषि ? विश्वसिषि ? प्रत्येतव्य एवायमर्थः प्रामाणिकसंवादादिति निष्कर्षः // 89 // ( अब 'मृतः स्मरति जन्मानि', 'अन्यमुक्तैर्मृते तृप्तिः ( 1752 ), 'सन्देहेऽप्यन्यदेहाप्तेः ( 17145 )' इत्यादिका खण्डन करते हैं-) किसी किसी ( स्वजन या तटस्थ तृतीय व्यक्ति ) में आविष्ट होकर ( सूक्ष्मरूप होनेसे उसके शरीर में प्रवेशकर ) अपने गयाश्राद्ध की याचना करते हुए प्रेत ( पापवश प्रेतयोनिको.प्राप्त जीव ) की अनेक देशके लोगोंकी सुनी या जानी हुई कथाओं ( समाचारों, सम्बादों) को तुमलोग क्यों नहीं विश्वास करते हो ! / [ अनेक स्थानों एवं लोगों में यह देखा जाता है कि अपने पापकर्मके कारण सद्गतिको नहीं पानेसे प्रेत हुआ जीव किसी स्वजन आदिके शरीरपर आविष्ट होकर कहता है कि 'हमारा गयाश्राद्ध कर दो तो मेरी सद्गति हो जायगी और मैं इसे छोड़ दूंगा, अथवा मैंने पहले जन्म में अमुक स्थान पर इतना धन गाड़ रक्खा है इत्यादि' और उसके कथनकी सत्यता भी वैसा करनेपर हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि जीव मरणके बाद भी अपने पूर्व जन्मों या कर्मोंको स्मरण करता है, दूसरे (ब्राह्मणादि जनों ) के भोजन करानेसे जीवकी तृप्ति होती है और मरने के बाद जीवको दूसरा शरीर प्राप्त होता है ] // 89 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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