SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1122 नैषधमहाकाव्यम् / वा, कलिः जघन्ययुगम् , पदं चरणम् , प्रसारयितुं विस्तारयियुम् , म अपारयत् न अशक्नोत् // 160 // (अब कलिके विघ्नोंका वर्णन करते हैं-) वहां (नलकी राजधानीमें ) वेदोंका उच्चारण ( पाठा०-उद्धरण-उधरणी आवृत्ति ) करनेवाले ( वेदपाठियों) के मुखसे पद ( पदकारकृत संहिताविभागरूप 'पद' संशक मन्त्रांश-विशेष ) को सुनता हुआ काल ( पाप होनेसे कृष्णवर्ण या समयरूप या दारुण कर्म करनेसे यमतुल्य ) कलि ( एक ) पैर फैलाने ( आगे बढ़ानेचलने ) के लिए भी समर्थ नहीं हुआ। [ राजधानी में श्रोत्रियोच्चार्यमाण 'पद' संज्ञक मन्त्रमागको सुनकर कलि एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सका। इसने नलकी राजधानीकी धर्म-परिपूर्णता तथा कलि के लिए विघ्न-बाहुल्य सूचित होता है ] // 160 // अतिपाठकवक्त्रेभ्यस्तत्राकणयतः क्रमम् | क्रमः सङ्कचितस्तस्य पुरे दूरमवर्तत / / 161 // श्रुतीति / तत्र पुरे, श्रुतिपाठकवक्त्रेभ्यः वेदाध्येतृमुखेभ्यः, क्रमम् उभयापराख्यं पदजातम् , आकणेयतः शृण्वतः, तस्य कले, क्रमः पादन्यासः, सङ्कुचितः प्रतिबद्धः सन् , दूरम अवर्तत प्रवेशाशस्या दूरे स्थितः इत्यर्थः / वेदध्वनिप्रभावेणेति भावः / / __उस पुर ( नलकी राजधानी.) में वेदाध्यापकोंके मुखसे 'क्रम' संशक मन्त्रमागको सुनते हुए उस ( कलि ) का पैर ( अथवा-गमन ) अत्यन्त सङ्कुचित हो गया। [ वेदाध्यापकोक्त 'कम' को सुनने के कारण उत्पन्न भयसे कलि एक पग भी आगे नहीं बढ़ सका, उस स्थानसे शीघ्र ही निवृत्त हो गया ] // 161 // तावद्गतिधृताटोपा पादयोस्तेन संहिता / न वेदपाठिकण्ठेभ्यो यावदश्रावि संहिता // 162 // तावदिति / तावत् तत्पर्यन्नम् , तेन कलिना, पादयोः'चरणयोः, ताटोपा साड. म्बरा, सदर्पा इति यावत् , गतिः विहरणम , संहिता सन्ता, अवलम्बितुं शक्का इत्यर्थः / यावत् यत्पर्यन्तं, वेदपाठिनाम वेदाध्येतणाम , कण्ठेभ्यः मुखेभ्यः, संहिता पूर्वोक्तपदकमरूपावस्थाद्वयविलक्ष गा ऋगादिरूपा, न अश्रावि न श्रुता, तच्छणोते. स्तूभय एवं पादयोरिति भावः / तदेतदारण्यके-'श्रुतम् अन्नाद्य कामो निर्भुजं बयात् स्वर्गकामः प्रतृण्वन् उभयमन्तरेण' इति // 162 // . ___ कलिने तबतक ( उस समयतक या उस स्थानतक ) चरणद्वयकी गतिको आडम्बरसहित ग्रहण किया अर्थात् तभीतक ( या वहीतक ) शीघ्रगतिसे चला, जबतक (जिस समय तक या जिस स्थानतक ) वेदपाठियों के कण्ठसे 'पद-क्रम' की अवस्थाले विलक्षण 'ऋकू' आदि संहिताको नहीं सुना / [ जिस समय (या-स्थान ] तक कलि श्रोत्रियकण्ठोच्चरित 'संहिता' को नहीं सुना, उस समय (या स्थान ) तक हो वह तीव्रगतिसे चला, 'संहिता' सुननेके बाद उसका गतिमङ्ग हो गया ] // 162 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy