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________________ 725 द्वादशः सर्गः। अर्थात् केलास है ) / [ 'समुद्रं पर्वणि स्पृशेत्' अर्थात् 'समुद्रका स्पर्श पर्वदिनमें करे' इस शास्त्रीय वचनके अनुसार समुद्र पर्वातिरिक्त दिनोंमें अपवित्र तथा इस राजाका कीर्तितडाग सदा पवित्र है, समुद्र में पृथ्वीपर निवास करनेवाले कुछ ही अर्थात् समुद्रतटवासी या वहां जानेका प्रयास करनेवाले ही व्यक्ति स्नान कर सकते हैं, किन्तु इस राजाके कीर्तितडागके सर्वत्र व्याप्त होनेसे लोकत्रयके निवासी अनायास ही स्नान करते हैं, समुद्रका वर्णन शक्य है और इसके कीर्तितडागका वर्णन अशक्य है, समुद्रसे एक ही चन्द्र निकलता है और इसके कीर्तितडागमें प्रत्येक बिन्दु चन्द्र है, समुद्रमें श्यामवर्ण श्रीविष्णुरूप जलदेवता सुप्त रहते हैं, इसके कीर्तितडागमें श्वेतवर्ण यागेश्वररूप जलदेवता जागते रहते हैं; अतएव समुद्र की अपेक्षा इस काशीनरेशका बनाया गया कीर्तितडाग उत्तम तथा आश्चर्यजनक है। ऐसा कीर्तिमान् कोई नहीं है, अत एव इसको वरण करो ] // 38 // अन्तःसन्तोषबाष्पैः स्थगयति न शस्ताभिराकर्णयिष्यन नाङ्गेनानस्तिलोमाऽऽरचयति पुलकश्रेणिमानन्दकन्दाम् / न क्षोणीभङ्गभीरुः कल यति च शिरःकम्पनं तन्त्र विद्मः शृण्वन्नेतस्य कीत्तीः कथमुरगपतिः प्रीतिमाविष्करोति ? // 3 // अन्तरिति / एतस्य राज्ञः, कीर्तीः शृण्वन् उरगपतिः शेषः, ताभिः दृग्भिः; आकणयिष्यन् श्रोष्यन् , अत एवान्तःसन्तोषबाष्पैः दृशः न स्थगयति नाच्छादयति, अन्यथा चक्षुःश्रवसोऽस्य रूपग्रहणवच्छब्दग्रहणस्यापि तैः प्रतिबन्धसम्भवादिति भावः; यतः सः अङ्गेन वपुषा, 'येनाङ्गविकारः' इति तृतीया, अङ्गेनेति पाठे-यतः सः अङ्ग वपुषि; अस्तिलोमा न भवतीति अनस्तिलोमा अविद्यमानलोमा; अस्तीत्यव्ययं विद्यमानपर्यायः, तस्य सम्बन्धि अस्तिक्षीरादिवचनात् बहुव्रीहिः, अत एव आनन्दकन्दाम आनन्द एव कन्दो मूलं यस्याः ताम् आनन्दजनितां, पुलकश्रेणिं न आरचयति, तथा क्षोणीभङ्गभीरुः पृथिवीपतनभीतः, शिरःकम्पनञ्च, सन्तोषसूचकमिति भावः, न कलयति, तत्तस्मात् , कथं केन प्रकारेण,प्रीतिमाविष्करोति ? उरगपतिरिति शेषः, इति न विद्मः, वाक्यार्थः कर्म // 39 // इस ( काञ्चीनरेश ) की कीर्तियोंको सुनते हुए शेषनाग हार्दिक सन्तोषजन्य अश्रुओंसे नेत्रोंको नहीं बन्द करते, क्योंकि उन्हीं ( नेत्रों ) से कीर्तियोंको सुनना है; रोमरहित वे शरीर में आनन्दाङ्कुररूप रोमाञ्च-समूहको नहीं धारण करते और पृथ्वीके गिरनेसे भयभीत वे शिरको नहीं पाते; अत एव वे किस प्रकार अपना प्रेम प्रकट करते हैं यह हम नहीं जानते / [ हर्षाश्रु-रोमाञ्च तथा शिरःकम्पन-ये तीन चिह्न हर्ष-सूचक हैं, किन्तु सर्पोको कान नहीं होता, वे नेत्रसे ही सुनते भी हैं, कर्णरहित नेत्रसे सुननेवाले शेषनाग इसकी कीर्तिको सुननेके लोभसे नेत्रोंसे आंसू नहीं गिराते, सर्वशरीर रोमरहित होता है अतः वे 1. 'नङ्गे तानस्तिरोमा रचयति' इति० पा० /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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