________________ अष्टादशः सर्गः। 1216 द्वारा माननीये (प्रिये) ! तुम्हारे मुखपर अप्राप्त समयवाली अर्थात् असामयिकी, कोपरूपी कुङ्कुमके लेपसे थोड़ी भी लालिमा न होवे अर्थात् तुम इस प्रसन्नताके समयमें कोप मत करो [अथ च-निष्कलङ्क अपने मुखपर असामयिक रोषकलङ्क लाकर उसे दूषित मत करो अर्थात् मैंने यह कोई अपराधका कार्य नहीं किया है, अत एव असामयिक क्रोधसे मुखको लाल मत करो / अथया-यह सम्भोगका समय ( रात्रि ) है, कोपका समय नहीं है, अत एव इस समय कोप मत करो। अथवा-तुम्हारा मुख चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर है, इसी कारण वह तुम्हारी मानना (आदर ) करता है, अत एव यदि क्रोधयुक्त मुख करोगी तो वह चन्द्रमासे हीन कान्तिवाला हो जायगा, अत एव यह क्रोध का समय नहीं होनेसे उसे छोड़ दो / अथवा-शीतकालमें उष्णप्रकृतिक कुङ्कुमसे मुखरञ्जन किया जाता है, इस वसन्तकालमें तो श्वेत चन्दनकी पाण्डुता ही मुखको शोभित करेगी, अत एव कोप-कुङ्कुमसे मुखको रञ्जित करनेका समय नहीं हैं, वैसा ( कोपसे, पक्षा०-कुङ्कुमसे ) मुखको रञ्जित करना छोड़ दो ] 127 // क्षिप्रमस्यतु राजा नखादिजास्तावकीरमृतशीकरं किरत | एतदर्थमिदमर्जितं मया कण्ठचुम्बि मणिदाम कामदम् / / 128 / / क्षिप्रमिति / हे प्रिये! कण्ठचुम्बि गलदेशविलम्बि, कामदम् अभीष्टपूरकम् , इदं दृश्यमानम् , मणिदाम रस्नमालिका। कर्तृ। अमृतशीकरं सुधाविन्दुम् , किरत् वर्षत् सत् , नखादिजा: नखदन्तक्षतादिजन्याः, तावकी: त्वदीयाः, रुजाः पीडाः, भिदादित्वादप्रत्ययः / क्षिप्रं शीघ्रम् , अस्यतु दूरीकरोतु, मया एतदर्थ क्षतादिजः पीडानिरासार्थम् एव, अर्जितं सङगृहीतम् , इदं मणिदामेति शेषः // 128 // (नलने दमयन्तीसे पुनः कहा-) कण्ठमें लटकती हुई, इच्छा (मनोरथ ) को पूर्ण करनेवाली यह मणिमाला अमृतकणको बरसाती हुई नख आदि ( दन्तके क्षय ) से उत्पन्न तुम्हारी पीडाको शीघ्र शान्त कर दे, इसी वास्ते (नखक्षत एवं दन्तदंशसे उत्पन्न तुम्हारी पीड़ाको शान्त करने के लिए ही ) मैंने इसका संग्रह किया है। पाठा०-......"पूर्ण करनेवाली, मुझसे इप्स ( नखक्षतजन्य तथा दन्तदंशजन्य तुम्हारी पीड़ाको दूर करने ) के लिए प्रार्थित प्रियाकी नखक्षतजन्य तथा दन्तक्षतसे उत्पन्न पीडाको शीघ्र दूर कर दो ऐसा) अत एव अमृतकणोंको फेंकती ( बरसाती) हुई नख आदि ( दन्तके क्षत) से उत्पन्न तुम्हारी पीड़ाओंको शीघ्र शान्त कर दे // 158 / / स्वापराधमलुपत् पयोधरे मत्करः सुरधनुः करस्तव / सेवया व्यजनचालनाभुवा भूय एवं चरणौ करोतु वा // 129 // स्वेति / हे प्रिये ! तव ते, पयोधरे स्तने, मेघे च / 'पयोधरः कोषकारे नारिकेले स्तनेऽपि च / कशेरुमेघयोः पुंसि' इति मेदिनी / सुरधनुः इन्द्रचापाकृति नखाङ्गम् , 1. '-मर्थितम्' इति पाठान्तरम् / 2. 'एष' इति पाठान्तरम् /