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________________ 5220 नैषधमहाकाव्यम् / इन्द्रचापञ्च करोतीति तादृशः / 'दिवाविभा-' इत्यादिना टप्रत्ययः। मत्करः मस पाणिः, करः सूर्यकिरणश्च, व्यजनस्य तालवृन्तस्य, चाल नया संचालनेन, वायुप्रवा. हणेन च, भवति सम्पादयतीति तादृशया, सेवया परिचर्यया, स्वापराधं नखक्षत. करणजनितनिजदोषम् , अलुपत् नुनोद, प्रागेवेति भावः / लुम्पेः लूदित्वात् च्लेरडादेशः / भूय एव पुनरपि, चरणौ वा तव पादौ वा, करोतु धातूनामनेकार्थत्वात् सेवतामित्यर्थः / सामान्ये विशेषलक्षणा // 129 // ( नलने दमयन्तीसे पुनः कहा कि-हे प्रिये ! ) तुम्हारे स्तन पर ( पक्षा०-मेघमें ) इन्द्रधनुष ( रक्तवर्ण एवं वक्राकार होनेसे इन्द्रधनुषतुल्य नखक्षत ) को करनेवाला मेरा हाथ (पक्षा०-सूर्य-किरण ) पङ्खा झलनेको सेवासे पहले ही अपने (नखक्षतरूप ) भपराधको नष्ट कर दिया, अथवा फिर भी दोनों चरणोंको दबावे अर्थात् दबाकर अपने अवशिष्ट अपराधको भी नष्ट करे। [ अथवा-चरणों को सम्भोगाथं ऊपर उठावे / अथवा-अनेक वर्गौवाले रत्नोंसे जड़ी हुई अंगूठियोंसे युक्त मेरे हाथने तुम्हारे स्तनपर इन्द्रधनुषको बनाया है, अथवा-पयोधर ( स्तन ) पर सम्भोगकालमें रक्तवर्ण, वक्र नखक्षतरूप इन्द्रधनुष बनाया है तथा पक्षा०-मेघमें इन्द्रधनुष बनाया है, अत एव (क्रमशः रत्नकिरणोंसे इन्द्रधनुष बनाने पर पीड़ा होनेसे, अथवा-सम्भोगकालमें नखक्षत करना दूषित नहीं होनेसे, अथ च पक्षा-मेघमें इन्द्रधनुष बनाना दोषकारक नहीं होनेसे ) मेरे हाथने कोई अपराध ही नहीं किया था, तथापि यथाकञ्चित् अपराध किया माननेपर भी पङ्खा झलकर सेवा करनेसे उस हाथने उस अपराधका परिमार्जन कर दिया, इतनेपर भी यदि तुम क्रोध करती हो तो अब वह हाथ तुम्हारे पैर दबाकर ( पैरोंपर पड़कर ) अपने अपराधका मार्जन कर ले, क्योंकि पैरोंपर पड़नेसे तो बड़े अपराधका भी मार्जन हो जाता है, अतः वैसा करने के लिए मैं तैयार हूँ, इस कारण तुम क्रोध मत करो] // 129 / / आननस्य मम चेदनौचिती निर्दयं दशनदंशदायिनः / शोध्यते सुदति ! वैरमस्य तत किं त्वयावद विदश्य नाधरम ? // 130 / / आननस्येति / हे प्रिये ! निर्दयं निष्पं यथा तथा, दशनदंशं दन्तेन दंशनम् , ददाति करोतीति तादृशस्य, ते अधरं दष्टवतः इत्यर्थः / मम आननस्य मन्मुखस्य, अनौचिती अन्यायता, चेत् यदि तर्हि हे सुदति ! सुन्दरदशने ! स्खया भवत्या, अधरं मम ओष्ठम्, विदश्य-दष्ट्वा, दन्तक्षतं कृत्वेति यावत् / अस्य मदाननस्य, तत् पूर्वोक्तरूपम्, वैरं शत्रुता, किं कथं शोध्यते ? न निर्यात्यते ? न प्रतिक्रियते ? इत्यर्थः / वद तत् कथय / मद्दशनदंशस्य प्रतिदंशनमेव प्रतीकारः इति भावः // 130 // ___ यदि निर्दयतापूर्वक दन्तदंशन करनेवाले मेरे मुखका अनुचित कार्य है तो हे सुदति ! इस ( मेरे मुख ) के अधरको सम्यक् रूपसे दंशनकर उसका बदला क्यों नहीं चुका लेती ? कहो // 130 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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