________________ 1218 नैषधमहाकाव्यम् / इस ( दमयन्ती ) ने प्रियतम ( नल ) के द्वारा किये गये दोनों स्तनोंपर नखोंके विलास अर्थात् नखक्षतको देख-देखकर अर्थात् बार-बार देखकर थोड़े क्रोधसे सङ्कुचित ( अर्द्धनिमी. लित ) नेत्रवाली होती हुई हँसते हुए पति ( नल ) को देखा / / 125 // रोषभूषितमुखीमिव प्रियां वीक्ष्य भीतिदरकम्पिताक्षरम् / तां जगाद स न वेद्मि तन्वि ! तं ब्रूहि शास्मि तव कोपरोपकम्।।१२६।। रोषेति / सः नलः, तां पूर्वोक्तरूपकोपसङ्कुचितलोचनाञ्चलाम, प्रियां दमयन्तीम्, रोषेण कोपेन, भूषितमुखीम् आरक्तवर्णतया अलङकृताननामिव, स्थितामिति शेषः। वीचय विलोक्य, भीत्या भयेन, दरकम्पिताक्षरम् ईषच्चलाक्षरं यथा तथा, जगाद उवाच / किमिति ? तन्वि ! हे कृशाङ्गि!, तव ते, कोपरोपकं क्रोधजनकम् , जनमिति शेषः / न वेभि न जानामि / तम् अपराधिनं जनम् , ब्रहि कथय / शास्मि दण्ड. यामि / अहमिति शेषः // 126 // ( पूर्व ( 18 / 125) श्लोकानुसार ) मानो क्रोधसे भूषित ( पाठा०-(भ्रमङ्गादिके कारण ) रूक्ष ) मुखवाली (वस्तुतः क्रोधरहित ) प्रिया ( दमयन्ती ) को देखकर उस (नल)ने उस ( दमयन्ती) से भयले गदगद वचन कहा-'हे तन्वि ! मैं नहीं जानता हूं, उसे कहो, मैं तुम्हारे कोध उत्पन्न करनेवाले व्यक्तिको दण्डित करूँ ( पाठा०-हे तन्वि ! मैं उसे नहीं जानता हूँ कि तुम्हारे क्रोधको किसने उत्पन्न किया ? अर्थात् किसके अपराध करनेसे तुम्हें क्रोध हुआ ?) / [ 'नहीं जानता हूँ' ऐसा कहकर नल स्वयंकृत नखक्षतरूप अपराधको दमयन्तीसे छिपाकर असत्य भाषण करते हैं / उपहास वचन होने से ऐसा कहनपर नलको असत्य-भाषणका दोष नहीं लगता है ] // 126 // रोषकुङ्कमविलेपनान्मनाक नन्ववाचि कृशतन्ववाचि ते / भूदयुक्तसमयैव रञ्जना माऽऽनने विधुविधेयमानने / / 127 / / रोति / ननु अये ! कृशतनु ! क्षीणाङ्गि! सम्बुद्धौ नदीहस्वः। अवाचि अव. नते / अवपूर्वादचतेः क्विन् / अवाचि वाचंयमे, वागविरहिते इत्यर्थः / तथा विधुना चन्द्रेणापि, विधेया कर्तव्या, मानना पूजा यस्य तादृशे, विधोरपि उत्कृष्टे इत्यर्थः / ते तव, आनने मुखे, अयुक्तः अनुचितः, समयः कालो यस्याः तादृशी, रमणाकाङमाया अपरितृप्तत्वेन इदानी प्रसन्नताया एवौचित्यादिति भावः। रोषः कोप एव, कुङ्कुमं काश्मीरजम् , तस्य विलेपनात्'प्रलेपाद्धेतोः, मनाक ईषदपि, रञ्जना रक्तिमा, मा भूत् एव न भवस्वेव / निष्कलङ्के मुखे रोषकलङ्कस्य नेदानी कालः इति निष्कर्षः // 27 // (नलने और भी कहा कि ) हे कृश शरीरवाली ! हे ( क्रोधके कारण ) मौन धारण की हुई ! हे नम्रीभूते ! हे ( अपनी अपेक्षा तुम्हारे मुखके अतिशय सुन्दर होनेसे ) चन्द्रमा १.'-रूषित-' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'कश्चकार तव कोपरोपणाम्' इति 'प्रकाश' कृता व्याख्याय 'ब्रहि शास्मि तव कोपरोपिणम्' इति पाठान्तरमुक्तम्।