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________________ 1026 नैषधमहाकाव्यम् / कवीश्वर-समूहके.........किया, उसके रचित चौदह' विद्याओंको जाननेवाले अर्थात् सरस्वतीदेवीके जागरूक अधिष्ठानभूत कश्मीर देशमें उत्पन्न विद्वानोंसे पूजित' अर्थात् लेशमात्र भी दोषसे रहित और समस्त गुणसमूहोंसे पूर्ण नैषधीय अर्थात् नल ( पाठा०-राजा नल ) के चरित महाकाव्यमें षोडश सर्ग पूरा हुआ / ( शेष व्याख्या चतुर्थसर्गवत् समझनी चाहिये।) यह 'मणिप्रभा टीकामें 'नैषधचरित' का षोडश सर्ग समाप्त हुआ // 16 // सप्तदशः सर्गः। अथारभ्य वृथाप्रायं धरित्रीधावनश्रमम् / सुराः सरस्वदुल्लोल-लीला जग्मुर्यथाऽऽगतम् / / 1 // - अथेति / अथ स्वर्गलोकजिगमिषानन्तरं, नलदमयन्त्योः सौधप्रवेशानन्तरं वा, सुराः इन्द्रादयः, धरित्रीधावनश्रमं पृथिव्यामागमनायासं, वृथाप्रायं व्यर्थमिव, दम. यन्त्यलाभेऽपि नलदमयन्तीवरदानजन्यात्मगौरवरक्षणात् प्रायशब्दप्रयोगः, न तु सर्वथा वृथैवेति बोध्यम् / आरभ्य कृत्वा, मवेति यावत् , सरस्वदुल्लोलानां समुद्र महोर्माणां, लीला इव लीला येषां तथाभूताः सन्तः, यथाऽऽगतं यस्मादागतं तत्रैव इत्यर्थः। जग्मुः प्रतस्थिरे। सागरतरङ्गाः यथा वृथैव तट धाविस्वा व्यावर्त्तनेन यथाऽऽगतं गच्छन्ति तद् देवा अपि गता इत्यर्थः। दमयन्तीमलब्ध्वैव प्रत्यावृत्ता इति तात्पर्यम् // 1 // इस (स्वर्गलोकको जानेका विचार करने, या-नल-दमयन्तीको नवीन महलमें प्रवेश करने ) के बाद पृथ्वीपर दौड़ने अर्थात् जानेका व्यर्थ-सा परिश्रम करके समुद्रके तरङ्गतुल्य देव (इन्द्रादि चारों देव.) जैसे आये थे, वैसे चले गये। [ जिस प्रकार समुद्रका तरङ्ग तटको जाकर व्यर्थ ही ज्योंका त्यो वापस चला जाता है, उसी प्रकार देवलोग भी व्यर्थप्राय ही पृथ्वीपर आकर दमयन्तीको विना प्राप्त किए स्वर्गको वापस चले गये / दमयन्ती की स्तुतिसे प्रसन्न होकर नलको पतिरूपमें वरण करनेकी आशा देनेसे देवोंको मानरक्षा हो गयी, अन्यथा दमयन्तीको प्राप्त नहीं करनेसे देवोंको मर्यादा ही नष्ट हो जाती, अब उसके सुरक्षित रह जानेसे पृथ्वीका गमन करना सर्वथा व्यर्थ नहीं हुआ, इसी कारण 'प्रायः' शब्दका प्रयोग है ] // 1 // 1. मनुनोक्ताश्चतुर्दश विद्याः. . . 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणञ्च विद्यास्त्वेताश्चतुर्दश // इति / 2. एतदर्थ ग्रन्थस्यास्यैव भूमिका द्रष्टम्या।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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