________________ सप्तदशः सर्गः। 1027 भैमी पत्ये भुवस्तस्मै चिरं चित्ते धृतामपि / विद्यामिव विनीताय न विषेदुः प्रदाय ते // 2 // . भैमीमिति / ते देवाः, चिरं दीर्घकालं, चित्ते मनसि, धृतां स्थापितामपि, आका. डितामपीत्यर्थः, अभ्यस्तामित्यर्थश्च / भैमी दमयन्ती, भुवः पत्ये भूपतये, तस्मै नलाय, विनीताय विनययुक्ताय शिष्याय, विद्याम् इव ज्ञानमिव, प्रदाय दत्त्वा, न विषेदुः नानुतापं जग्मुः। न हि महान्तो दत्त्वाऽनुतापिनः, न च तेषामदेयमस्ति इति भावः // 2 // वे (इन्द्रादि चारों देव ) चिरकालसे चित्तमें धारण की गयी अर्थात् चिराभिलषित भी दमयन्तीको उस भूपति ( नलके लिए ) देकर उस प्रकार विवाह नहीं किये; जिस प्रकार विनीत (शिष्य ) के लिए मनमें चिराभ्यस्त विद्याको देकर गुरु विषाद नहीं करता / [ बड़े लोग देकर पश्चात्ताप नहीं करते और उनको अदेय कुछ नहीं है, अर्थात् वे सभी कुछ दे सकते हैं / अथवा-जिस प्रकार गुरु चिराभ्यस्त विद्याको विनीत शिष्यके लिए देकर अनुताप नहीं करता, तथा वह विद्या भी उनके मनसे नहीं जाती; उसी प्रकार उस दमयन्ती को उन देवोंने विनीत नलके लिए देकर अनुताप नहीं किया, किन्तु वह सद्गुणयुक्त होनेसे उनके चित्तसे नहीं निकली (भूली ) ] // 2 // कान्तिमन्ति विमानानि भेजिरे भासुराः सुराः। . स्फटिकाद्रेस्तटानीव प्रतिबिम्बा विवस्वतः / / 3 // - क्रान्तिमन्तीति / विवस्वतः अर्कस्य, प्रतिबिम्बाः प्रतिच्छायाः, सूर्यस्यैकत्वेऽपि तटभेदेन प्रतिबिम्बाना बहुस्वं बोध्यम् ; स्फटिकाद्रेः कैलासस्य, तटानि भृगुप्रदेशा इव, भासुराः तैजसमूर्तयः, सुराः इन्द्रादयः, कान्तिमन्ति समुज्ज्वलानि, विमानानि व्योमयानानि, भेजिरे आरुरुहुरित्यर्थः / एतेन विमानानां तदधिष्ठातृणाञ्च अतितेज. स्वित्वमुक्तम् // 3 // तेजस्वी देवलोग ( रत्नादिके ) कान्तिवाले विमानोंको उस प्रकार प्राप्त किये ( चढ़े ), जिस प्रकार सूर्यके देदीप्यमान प्रतिबिम्ब कैलास पर्वतके तटको प्राप्त करते हैं। [इससे विमानों तथा विमानारूढ देवोंका भतिशय तेजस्वी होना सूचित होता है और प्रतितटपर प्रतिबिम्बित होनेसे विमानकी अधिकता प्रतीत होती है ] // 3 / / जवाजातेन वातेन बलाकृष्टबलाहकैः। ....... श्वसनात् स्वस्य शीघ्रत्वं रथै रेषामिवाकथि // 4 // 3. जवादिलि / जवात् निजवेगात् , जातेन समुस्थितेन, वातेन वायुना, बलात् भाकृष्टाः आविमा, बलाहकाः मेघाः मै ताइशैः, एषाम् इन्द्रादीनां रथैः विमानैः, स्वस्य आत्मनः, श्वसनाद् वायोरफि शीघ्रत्वं स्वरितगामित्वम् , अकथि अवादि