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________________ 1028 नैषधमहाकाव्यम् / इव, इत्युत्प्रेक्षा। स्ववेगजन्यवायोः स्वपश्चादत्तितया स्थानान्तु पुरोवर्तितया वाय्व. पेक्षया सुतरां शीघ्रगामित्वमिति भावः / कथेश्चौरादिकात् कर्मणि लुङ्, मित्त्वात् हस्वत्वम् // 4 // ( अपने ) वेगसे उत्पन्न हवासे बलपूर्वक मेघोंको आकृष्ट करनेवाले इन ( इन्द्रादि देवों) के रथोंने मानों वायुसे अपनी गतिको शीघ्र बतलाया। [ अपनेसे उत्पन्न वायुका बादमें तथा रथके आगे चलनेसे उक्त वायुकी अपेक्षा रथको गति तीव्र सूचित होती है ] / / 4 / / क्रमाद्दवीयसां तेषां तदानीं समदृश्यत / स्पष्टमष्टगुणैश्वर्यपर्यवस्यन्निवाणिमा // 5 // क्रमादिति / क्रमात् अनुक्रमात् , आनुपूर्व्या इत्यर्थः। उत्तरोत्तरं गमनादिति यावत् , 'क्रमश्चानुक्रमे शक्ती कल्पे चाक्रमणेऽपि च' इति मेदिनी। दवीयसां दवि. ठानां, दूरवर्तितराणामित्यर्थः / दूरशब्दादीयसुनि 'स्थूलदूर-'इत्यादिना यणादि. परलोपः पूर्वगुणश्च / तेषाम् इन्द्रादीनां, तदानीं दूरवर्त्तित्वभवनकाले, अणिमा अणुत्वम् , अष्टविधेषु ऐश्वर्येषु प्रथमोक्तैश्वर्यविशेष इत्यर्थः / अष्टगुणम् अणिमाद्यष्टगुणात्मकं, यत् ऐश्वयं वैभवं, निग्रहानुग्रहसामर्थ्यमिति यावत् / तस्मात् तन्मध्यात् इत्यर्थः। पर्यवस्यन् इव परिशिष्यमाण इव, लघिमादिसप्तविधात् पृथग्भूत इव इत्यर्थः / स्पष्टं व्यक्तं, समदृश्यत सन्दृष्टः। दूरे अणुत्वेन अवभाषादियमुस्प्रेक्षा // 5 // उस समय क्रमशः दूरस्थ उन ( देवों ) की अणिमा ( सूक्ष्मता, पक्षा०-आठ ऐश्वर्यो में से प्रथम ऐश्वर्य) आठ गुणैश्वर्यसे पृथग्भूत-सी दृष्टिगोचर हुई। [ दूर होती हुई वस्तु क्रमशः सूक्ष्म दृष्टिगोचर होती है / उन देवोंका आठ गुणैश्वर्यों से अणिमा नामक प्रथम ऐश्वर्य ही उस समय दृष्टिगोचर होता था / अथवा-उन रथोंको अणिमा (सूक्ष्मता) / इस अर्थमें देवों के सम्बन्धसे उन रथों में भी 'अणिमा' नामक ऐश्वर्य आ गया था ] // 5 // ततान विद्युता तेषां रथे पीतपताकताम् / लल्धकेतशिखोल्लेखा लेखा जलमुचः कचित् / / 6 // ततानेति / क्वचिद् गगनस्य कुत्रापि प्रदेशे, जलमुचः मेघस्य, लेखा श्रेणी, अब्धः प्राप्तः, केतुशिखाभिः ध्वजाः, उल्लेखो विदारणं यस्याः सा ताहशी सती, तेषाम् इन्द्रादीनां, रथे स्यन्दने, विद्यता तडिता करणेन, पीताः पीतवर्णाः, पताकाः ध्वजा येषां तेषां भावः तत्ता तां, ततान विस्तारयामास / ध्वजदण्डामोल्लेखने. नोत्थाः तडितो रथेषु पीतपताकाः इव रेजुरित्यर्थः // 6 // .. कहींपर ( आकाशके किसी भागमें ) ध्वजाग्रसे विदीर्ण मेघश्रेणिने उन (इन्द्रादि देवों) के रथपर बिजलीसे पीली पताकाको फैला दिया / [ आकाशमें जाते हुए देवों के रथके ऊपर लगी हुई ध्वजाके अग्रभागको रगड़से विदीर्ण हुई मेवपङ्किसे उत्पन्न विजली उम रथोंकी ध्वजाओंपर पीले कपड़ेको पताकाके समान प्रतीत हुई ] // 6 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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