________________ षोडशः सर्गः1 1025 एकस्मिन् , याने रथे, यानं यात्रां, तथा तत् पूर्वोक्तं, दरचकितम् ईषत् सभयं, परस्परदृष्टिमेलनभयादिति भावः / कटाक्षप्रेक्षितम् अपाङ्गवीक्षणञ्च, कौतुकेन कुतूहलेन, अवलोक्य दृष्ट्वा, अथ भैमीनलयोः सोधप्रवेशानन्तरम् , आनन्दसान्द्राः आनन्दः पूर्णाः सन्तः, नाकं स्वर्गलोकं, गन्तुं प्रयातुं, प्रणिदधुः चिन्तयामासुः // 129 // देवोंके स्वामी (इन्द्रादि चारों देव) आकाशमें (ठहरकर ) इन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) के इस प्रकार विवाहको, इस प्रकार ( 16 / 113-127 ) एक रथमें गमनको और इस प्रकार ( 16 / 123) अचकित कटाक्षसे देखनेको कौतुकपूर्वक देखकर परमानन्दित हो इस ( उनके पूर्वोक्त कार्योको देखने ) के बाद पाठा०-मानों) स्वर्गको जानेके लिए विचार किये। [ 'प्रणिदधुरिव' इस पाठान्तरमें-देवोंने नवदम्पतीका उक्त कार्यकलाप देखकर आनन्दसे अतिशय हर्षित हो स्वर्गको जानेके लिए विचार-सा किया, वास्तविकमें उन्हें छोड़कर जानेकी इच्छा देवोंको नहीं होती थी, यह सूचित होता है। यद्यपि पहले ( स्वस्यामरैः"१४ 99 ) देवोंके स्वर्ग जाने का वर्णन किया गया है, तथापि उक्त देव स्वयंवर स्थानको छोड़कर दमयन्ती तथा नलके विवाहसे लेकर अबतक (16 / 128) के कार्यकलापको आकाशमें विमानपर बैठकर देखते रहे, यह 'दिवि ( आकाशमें )' पदसे सूचित होता है, अतः पूर्वापर कोई भी विरोध नहीं है। अथवा-नलने नववधू दमयन्तीके साथ नगरमें प्रवेश किया ओर इन्द्रादिदेव स्वर्गको गये तथा मार्गमें कलिसे उन देवोंका उत्तरप्रत्युत्तर हुआ, इस अग्रिम (सत्रहवें ) सर्गके प्रसङ्ग को सूचित करनेके लिए देवोंके स्वर्ग जानेका पुनः वर्णन किया गया है, जिससे अग्रिम (सत्रहर्वे) सर्गमें वक्ष्यमाण नल तथा कलिका परस्पर द्वेषारम्भ अप्रस्तुत न मालूम पड़े, अन्यथा कविसमयविरुद्ध होनेसे यह महा. काव्य सदोष कहा जायेगा] // 129 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / काश्मीरैर्महिते चतुर्दशतयी विद्यां विदद्भिर्महा काव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत् षोडशः // 130 // श्रीहर्षमिति / चतुर्दशतयों चतुर्दशावयवां, चतुर्दशविधाम् ‘इत्यर्थः। 'सङ्ख्याया अवयवे तयप्' इति तयप / 'टिड्ढाणजद्वयसदनअमात्रचतयपठकठक्करपः' इत्यादिना ङीप् / विद्यां विदद्भिः ज्ञानिभिः, काश्मीरैः काश्मीरदेशीयः, विद्वद्भिरिति शेषः / महिते पूजिते / तद्भुवि श्रीहर्षोत्पन्ने, तद्विरचिते इत्यर्थः / षोडशानां पूरणः - षोडशः / 'पूरणे डट्' इति डट् / गतमन्यत् // 130 // इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु' समाख्याने षोडशः सर्गः समाप्तः // 16 //