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________________ 1024 नैषधमहाकाव्यम् / पुरुष-दर्शनाग्रहसे पापवासनाभावरूपी दुर्व्यसन / पक्षा-शुष्ककण्ठमें ऊपर निकले हुए पराग-धूलि या-मकरन्द ) वाले समस्त नगरनारियोंके नेत्ररूपी नील-कमलोंने महलोंकी खिड़कियों के बिल में पहुँचती हुई किरणों की पंक्तिरूप कमलनालसे समीपमें प्राप्त ( लायी गयी ) निषध-राज (नल ) के मुखचन्द्रकान्तिरूपिणी अमृतका पान किया अर्थात् अच्छी तरह देखा / [ अतिशय प्यासे हुए व्यक्तिका कण्ठ सूख जाता है और उसके मुखके बाहर धूल-सी निकलने लगती है तो वह पानीके एकाएक पीनेपर कलेजा लगनेका भय होने के कारण कूप आदिके पानीको छिद्रसहित नलीसे धीरे-धीरे पीता है, वैसे ही स्त्रियोंने गवाक्षके बिलोंमें प्रविष्ट करते हुए किरण-समूहरूपी नालियोंसे नलके मुखकान्तिरूपी अमृतको पीया / कुमारियोंका समीप जाकर तथा पुरन्धियोंका गवाक्षों (खिड़कियों ) के बिलोंसे कनखी मात्रसे देखना अत्यन्त उचित ही है ] // 127 // अवनिपतिरथोर्ध्वणपाणिप्रबालस्खलितसुरभिलाजव्याजभाजःप्रतीच्छन्। उपरि कुसुमवृष्टीरेष वैमानिकानामभिनवकृतभैमीसौधभूमि विवेश / / 18 / / ___ अवनीति / अथ पुरप्रवेशानन्तरम् , एषः अयम् , अवनीपतिः भूपालः ऊर्चेषु उपरिगृहेषु, ये स्त्रैणाः स्त्रीसमूहाः। 'स्त्रीपुंसाभ्यां नमसुञो' इत्यादिना नजप्रत्ययः। तेषां पाणिप्रवालेभ्यः करकिसलयेभ्यः, स्खलिताः पतिताः, ये सुरभयः सुगन्धयः, लाजाः अक्षताः, तव्याजं तच्छलं, भजन्ते आश्रयन्तीति तद्भाजः, वैमानिकानां विमानैः चरतां देवानाम् / 'चरति' इति ठक् / उपरिष्टात् कुसुमवृष्टीः, पुष्पवर्षणमिव लाजवृष्टीरिति भावः / प्रतीच्छन् स्वीकुर्वन् , अभिनवकृतां प्रत्यग्रनिर्मितां, भैम्याः दमयन्त्याः , सौधभूमि प्रासाददेशं, विवेश प्रविष्टवान् // 128 // इस ( पुरीमें प्रवेश करने ) के बाद ये राजा नल ऊपरमें (पाठा०-वे राजा ( नल) राजमार्ग अर्थात मुख्य सड़ककी अट्टालिकाओंपर बैठे हुए स्त्री-समूहके हस्तपल्लवसे गिरती तथा सुगन्धित खीलों के व्याज ( छल ) को धारण करती हुई विमानगामी ( देवों ) की पुष्पवृष्टियोंको (शिरके ) ऊपरमें ( सादर ) स्वीकार करते हुए दमयन्तीके लिये नये बनाये गये महलके ऊपरी भूमि ( ऊपरके भाग) में प्रवेश किया। [शुभ शकुनके लिए कन्याओंद्वारा हाथरूप पल्लवोंसे गिरायी जाती हुई खीलोंको शुक्लवर्ण होने तथा ऊँचेसे गिरने तथा पल्लवों से पुष्पोंका गिरना उचित होनेसे पुष्पवृष्टि होना माना गया है ] // 128 // इति परिणामत्थं यानमेकत्र याने दरचकितकटाक्षप्रेक्षितञ्चानयोस्तत् / दिवि दिविषदधीशाः कौतुकेनावलोक्य प्रणिदधुरंथ गन्तुं नाकमानन्दसान्द्राः।। इतीति / दिविषदाम् अधीशाः देवाः, दिवि आकाशे, स्थित्वेति शेषः / अनयोः दमयन्तीनलयोः, इति एवंविध, परिणयं विवाहम् , इस्थम् उक्तप्रकारेण, एकत्र 1. 'रिख' इति पालन्तरम्।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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