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________________ ऊनविंशः सर्गः। 1267 सूर्येतरचन्द्रादेर्दर्शनं वा विवक्षितं तदा खश न भवति अनभिधानात्' इति न्यास. कारादयः / अस्मादेव ज्ञापकात् क्रियाऽन्वयिनोऽपि नत्र उत्तरपदेन समासः / न भाविनी किल ? न भविष्यति किम् ? न भविष्यत्येवेत्यर्थ। 'भविष्यति गम्यादयः' इति साधुः / शृणुत शृणुत भोः दुर्वाचो जनाः ! भाकर्णयत आकर्णयत / आक्रोशे द्विरुक्तिः / यदि असूर्यम्पश्या राजदारा इति राजनीत्यनुसारेण युक्तं स्यात् , तदा चन्द्रस्य राजापरनामकत्वात् चन्द्रदर्शनेनैव विकसनस्वभावायाः कुमुदिन्याः चन्द्रपत्नीत्वेन कविभिः रूपणात् कुमुदिन्या अपि राजदारत्वं सिद्धमेव, एवञ्च राजदारस्वात् तस्याः सूर्यानवेक्षणस्य युक्तत्वेन सूर्यादर्शनेन यत् जनाः तां निन्दन्ति तद. सङ्गतमेवेति निष्कर्षः / परमार्थतस्तु कैमुत्यन्यायेन पुरुषान्तरदर्शननिषेधपरमेतत् . न सूर्यदर्शननिषेधपरम् इति द्रष्टव्यम् , अत एव काशिका 'गुप्तिपरञ्चैतत्' इति // 36 // अपने कोरकमय ( बन्द होनेसे निमीलित ) नेत्रोंसे अन्धी होनेके कारण लोग (अथवा-स्वयमेव अन्धा होने के कारण लोग अपने कोरकमय नेत्रोंसे ) 'यह कुमुदिनी सूर्यको नहीं देखती है' ऐ सा बदनाम क्यों करते हैं ? अर्थात् प्रातः सूर्य-दर्शन करना मङ्गलकारक होनेसे कुमुदिनीकी निमिलित हो जानेके कारण सूर्यदर्शन नहीं करनेकी निन्दा करना उचित नहीं हैं, क्योंकि (हे वैसी निन्दा करनेवाले लोगो !) सुनिये, सुनिये, (पाणिनि आदि ) कवियों ( विद्वानोंकी प्रतिमायें ) लिखी तथा (छात्र आदिके द्वारा वैसी ही ) पढ़ी गयी राजा ( नृपति, पक्षा०-चन्द्र) की स्रियां असूर्यम्पश्या (सूर्यका दर्शन नहीं करनेवाली ) हैं, (किन्तु ) यह कुमुदिनी वह ( सूर्य-दर्शन नही करनेवाली ) नहीं है। [ जो राजपत्नियां हैं वे सुरक्षिततम महलों में रहने तथा सुकुमारतम होनेसे सूर्यदर्शन नहीं कर पातीं और उनका ऐसा होने में तात्पर्य मानकर ही पाणिनि आदि विद्वानोंने 'असूर्यललाटयोद्देशितपोः (पा. स. 3 / 2 / 36 )' का उदाहरण 'असूर्यम्पश्या राजदाराः' अर्थात् 'सूर्यको नहीं देखनेवाली राजपत्नियां' दिया है और शिष्यादिने वैसा ही परम्परासे पढ़ा है; और उस रहस्यके अनभिज्ञ लोग उस कुमुदिनी एवं राजपत्नियोंकी वैसी निन्दा करते है / जब अन्य राजपत्नियों के समान कुमुदिनी भी राजपत्नी (चन्द्रकी स्त्री) है तब उसका भी सूर्य-दर्शन नहीं करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। वास्तविकमें तो परपुरुषदर्शन-परक 'असूर्यम्पश्या राजदाराः' उदाहरण है, न कि 'सूर्य-दर्शन-निषेधपरक' इसीसे. 'गुप्तिपरञ्चैतत्' ( यह अतिशय सुरक्षितत्वपरक है) यह काशिकोक्ति भी सङ्गत होती है ] // 36 // चुलुकिततमःसिन्धोभृङ्गः करादिव शुभ्यते नभसि बिसिनीबन्धो रन्ध्रच्युतैरुदबिन्दुभिः / शतदलमधुस्रोतःकच्छद्वयीपरिरम्भणादनुपदमदःपङ्काशङ्काममी मम तन्वते // 37 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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