SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 822
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1516 कृत्वा स्वगृहं प्रति पुनः परावृत्तास्वं संभावय / तमसि सत्येव केनापि न ज्ञात. व्यमिति बुद्धया नीलं वस्त्रं परिधाय संकेतस्थानमागताः, चन्द्रोदये पुनर्नोलवस्त्रपरि। धाने पूर्ववगीत्या तत्तत्रैव विहाय श्वेतं दुकूलं सवर्णश्वात्परिधाय परावृत्ताः केनापि न ज्ञाताः / 'नीलचोला:-' इति पाठे-चोलः कूर्यासः // 41 // (हे प्रिये !) अन्धकारमें अर्थात् चन्द्रोदय के पहले तुम वृक्षों के नीचे मागरूप (प्रियकथित ) मकेत स्थानको पहुंवो हुई अमितारिका को जाना ( तथा प्रियके साथ सम्भोग करके इस समय-चन्द्रोदय हो जानेपर, वृशोको ) परछाहोके करटसे नोले कपड़ों को छोड़ (उतार ) कर चाँदनोके अनुकूल (श्वेत ) वस्त्रांको धारण कर चलो ( वापस लौटी) हुई समझो। [चन्द्रोदय होने के पहले अन्धकार रहनेपर ये अभिसारिकाएँ दूसरों के द्वारा देखे जानेके मयसे काले वस्त्र पहनकर प्रियसङ्केतित वृक्ष के अधोमागको पहुंच गयीं तथा उन प्रियोंके साथ सम्भोग करके अब चन्द्रोदय होनेपर इन काले वस्त्रोंको पहनकर चाँदनीमें लौटते समय कोई देख लेगा इस मयसे वृक्षोंकी परछाहीके कस्टसे उन काले वस्त्रोंको छोड़कर चांदनोके अनुकूल श्वेत वस्त्र पहनकर लोट रहा हैं, ऐसा तुम जानो / ये वृक्षोंको परछाही नहीं हैं, किन्तु उन अमितारिकाओंको छोड़े हुए काले वस्त्र हैं / अमिसा. रिकाओंका अँधेरेमें काला वस्त्र तथा उजे ले में श्वेत वस्त्र पहनकर प्रियके पास जाने या वहांसे लौटनेका स्वभाव होता है] // 41 // त्वदास्यलक्ष्मीमुकुरं चकोरैः स्वकौमुदीमादयमानमिन्दुम् / दृशा निशेन्दीवरचारुभासा पिबोरु रम्भातरुपीवरोरु ! / / 42 // तदिति / हे रम्भातरुवदतिपीवरावरू यस्यास्तरसंबुद्धिः, त्वं निशायामिन्दीवरं नीलोत्पलं तद्वच्चार्वी भा यस्यास्तया हशा उरु सादरमिन्दुबिम्बं विलोकय / किभूतम् ? तवास्यलयम्या मुखशोभाया अवलोकनार्थ मुकुरं दर्पणमिव / तथा,-चकोर: प्रयोज्यः कौमुदीमादयमानं निजकौमुदी चकोरान् पाययमानम् / उदिते चन्द्रे चकोराः सानन्दा जाताः, नीलोत्पलानि च विकसितानीति भावः / एतेनेन्दोः परोपकारित्वं सूचितम् / विकसितेन्दीवरतुल्यया दृशा पिबेत्यनेन चन्द्रोदये हीन्दोवरं विकसति, स्वं चैवंभूतया दृशा यदा चन्द्रमवलोकयिष्यसि, (तदा)जनस्वदृशं चन्द्रावलोकनविकसितमिन्दीवरमेवैतदिति ज्ञास्यतीति सूचितम् / दिवा संकोचादसहश्यमितीन्दीवरस्य विकसितस्वद्योतनाथ 'निशा' पदम् / चकोर:, 'गतिबुद्धि-' इति कर्मस्वप्राप्तावपि 'आदिखाद्योन' इति प्रतिषेधारकर्तरि तृतीया। आदयमानं, निगरणार्थत्वात्परस्मैपदप्राप्तावपि 'अदेः प्रतिषेधो वक्तव्यः' इति निषेधात् 'णिचश्व' इति तङ्॥४२॥ हे केलेके खम्भेके समान स्थूल ऊरुओंवाला (प्रिये दमयन्ति ) ! तुम रात्रिके (विकसित) नीलकमलके समान सुन्दर शोमावाले नेत्रसे, तुम्हारे मुखशोमाका दर्पणरूप तथा चकोरोंसे अपनी चाँदनोका पान कराते हुए चन्द्रमाको बहुत पोवो अर्थात् अच्छी तरह
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy